उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
देवियो, भाइयो! कल मैं आपको वृक्षारोपण की असफलता के कारण गिना रहा था? जिसमें पहला कारण है—बीज। बीज को पेड़ के रूप में विकसित करने के लिए, फलदार बनाने के लिए अच्छे-से-अच्छा बीज होना आवश्यक है। इसके अलावा हमको कुछ और भी करना चाहिए। आप केवल बीज के ऊपर ही निर्भर नहीं रह सकते। केवल पौधे के ऊपर आप निर्भर नहीं रह सकते। पौध खरीदकर हम ले आए, इसलिए हमारा वृक्ष जरूर अच्छा हो जाएगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं है। गोदाम से हम बढ़िया वाला बीज खरीदकर ले आए, बेशक यह समझदारी की बात है। फिर आपने उसको ठीक जगह पर बो दिया, परंतु यह गारण्टी नहीं है कि आपका बीज फलित हो जाएगा, उग ही जाएगा।
बीज का अच्छा होना, बीज को बो देना काफी नहीं है। मैं आपसे यही कह रहा था कि राम का नाम बीज की तरीके से बो देना काफी नहीं है। राम नाम के बीज को बो देने के बाद में पेड़ उग ही आएगा, उसमें से फल लगेंगे ही, सिद्धियों के और चमत्कारों के, सुख और शांति के सत्परिणाम मिलेंगे, इसकी कोई गारण्टी नहीं है। क्यों? गारण्टी क्यों नहीं है? इसलिए नहीं है कि इसके साथ में और चीजों की जरूरत है।
मित्रो! केवल राम का नाम लेना ही काफी नहीं है। इसके साथ में दूसरी चीजों कि मिलावट की जरूरत है। अन्न से हम जिंदा रहते हैं, पर अन्न ही काफी नहीं है। अन्न के बिना हम मरेंगे? हाँ बेटे! अन्न के बिना हम मर जाएँगे, अगर नहीं मिला तो। लेकिन उसके साथ में पानी भी जरूरी है, हवा भी जरूरी है। नहीं साहब! हम खाली हाथ तो नहीं आते हैं? रुपया कमा करके तो हम ही लाते हैं। बेटे, आप रुपये से अनाज खरीद करके लाते हैं, यह हम समझते हैं। पानी फोकट में मिलता है, इसलिए आपको उसका ध्यान नहीं है और उसकी कीमत भी आपको मालूम नहीं है। आपको हवा का महत्त्व मालूम नहीं है, क्योंकि वह फोकट में आती है। अन्न के लिए पैसा देना पड़ता है, इसलिए आप हमेशा उसका एस्टीमेट बनाते हैं। अच्छा लीजिए खराब पानी पीजिए, तो बीमार पड़ जाएँगे। नहीं साहब! हमें तो अन्न अच्छा मिलता है। हमने तो बहुत अच्छा खाद्य पदार्थ खरीदा है। लेकिन पानी में जो तेल मिला हुआ है, उसको अगर पियेंगे, तो आप मरेंगे। नहीं साहब! इससे हमें क्या मतलब? खाद्यान्न हमारा अच्छा है। पागल कहीं का, खाद्य-खाद्य चिल्लाता रहता है कि पानी की बात भी पूछता है? हवा की बात भी पूछता है?
मित्रो! हवा कैसी है? शीलन की हवा है, नमी की हवा है और आपको मलेरिया जैसी शिकायत है। आप कहाँ रहते हैं? साहब! हम उड़ीसा में रहते हैं और बिहार में रहते हैं। फिर आप क्या करेंगे, अगर आपके ऊपर फाइलेरिया का अटैक हुआ तो? साहब! हम अन्न अच्छा खाते हैं। अच्छा अन्न खाते हैं, लेकिन हवा को भी समझते हैं कि नहीं समझते। शीलन भरी हवा है, तो? नेपाल की तराई में शीलन भरी हवा चलती हैं, इसलिए तराई में जितने भी लोग रहते हैं, उनमें गले की शिकायत पाई जाती है।
घेंघा रोग क्या होता है? इसमें गला फूलकर मोटा हो जाता है। मालूम पड़ता है कि जाने कहाँ से माँस आ गया? यह कहाँ से आता है? हवा में से आता है। क्या हवा की जरूरत नहीं है? केवल अन्न की जरूरत है? अन्न ही अन्न बकते चल जाते हैं और हवा की कीमत को नहीं समझते, पानी की कीमत को नहीं समझते? अगर आप हवा की कीमत नहीं समझेंगे और यह सोचते रहेंगे कि अन्न से ही हमारा काम चल सकता है, तो यह आपकी समझदारी की बात नहीं है। फिर आप यह नासमझी की बात कहते हैं।
करें आध्यात्मिकता की खेती
मित्रो! मैं उस दिन आपसे कह रहा था कि हमको जीवन के उद्यान में ऐसे पुष्प खिलाने की जरूरत है, ऐसे कल्पवृक्ष लगाने की जरूरत है, जिससे हमको भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही तरह के सुख और शांति अर्थात भौतिक जीवन के सुख और आंतरिक जीवन की शांति दोनों ही फल हमको मिलते हुए चले जायँ। इसके लिए हमको राम का नाम लेना चाहिए और आध्यात्मिकता का विकास होना चाहिए। आध्यात्मिकता का विकास करना, आध्यात्मिकता की खेती करना सबके कीमती चीज है। इससे बढ़िया खेती और किसी की नहीं हो सकती। हमारा शरीर ऐसी बढ़िया खदान है कि इससे बढ़िया खदान दुनिया के पर्दे पर और कहीं नहीं हो सकती।
दुनिया में बहुत सी खदानें हैं। कहीं पेट्रोल की खदानें हैं। बहुत सी जगहों पर पेट्रोल खोद निकाला गया है। यह कीमती है। गोलकुण्डा में हीरे निकलते हैं। वहाँ भी कीमती खदानें हैं। सोने की खदानें हैं। वे भी बहुत अच्छी हैं, लेकिन सबसे कीमती खदान वह है, जो हमारे शरीर के भीतर है। शरीर की खेती के भीतर, शरीर की खदान के भीतर जो चीजें पैदा की जाती हैं, उगाई जाती हैं, वे इतनी जबरदस्त हैं, जिसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। दुनिया की कोई ऐसी दौलत नहीं है, जो मनुष्य के साढ़े तीन हाथ लंबे उस शरीर में से जो दौलत कमाई, उगाई जा सकती है और सारी दुनिया में से नहीं उगाई जा सकती, जो हम उगा सकते हैं। उस खेती का नाम है—अध्यात्म। जिसके लिए हमने आपको यहाँ बुलाया है। आपको यहाँ यही कृषिकर्म करने के लिए हमने बुलाया है।
अध्यात्म की समग्र साधना
मित्रो! हमने आपको आध्यात्मिकता की समग्र साधना करने के लिए बुलाया है। उसका एक पक्ष है—जप। जप समग्र नहीं है। जप अध्यात्म साधना का एक भाग है। जप समग्र साधना का एक अंग है, एक अंश है। उसको भी हम महत्त्व देते हैं और जरूर महत्त्व देंगे, लेकिन अगर आप यह कहने लगें कि जप ही सब कुछ है, तो हम नाराज होंगे और आपसे कहेंगे कि आप गलती करते हैं।
अकेला जप काफी नहीं है। अकेले जप से हर समस्या का हल नहीं हो सकता। उसके साथ में क्या चीज चाहिए? वह चीज चाहिए जो मैं ब्रह्मवर्चस के इस शिविर में आपको बताता हुआ चला आ रहा हूँ। उस दिन मैंने आपको पहली बात यह बताई थी कि पौधों के भीतर आपको पानी देना चाहिए। पानी के बिना पौधे जल्दी सूख जाएँगे। खाद न भी मिले, तो भी पानी के आधार पर पौधे जिंदा बने रहते हैं, लेकिन अगर पानी नहीं मिलेगा, तो वे जीवित नहीं रह सकते।
पानी क्या होना चाहिए? पानी का उदाहरण मैंने आपको जीभ से दिया था और यह कहा था कि जीभ वह कमान है, जिस पर राम के नाम का मंत्र रटते चले जाते हैं। इसलिए जिह्वा का परिशोधन करना तपश्चर्या, उपासना, साधना के लिए खाद-पानी के समान है।
किसे कहते हैं उपासना
मित्रो! उपासना किसे कहते हैं? उपासना भजन करने को कहते हैं। हम आपको जो कर्मकाण्ड कराते हैं, जिसमें जप भी शामिल है, हवन भी शामिल है, त्राटक भी शामिल है, मुद्रा आदि शामिल है। यह सारे-का वर्गीकरण उपासना पक्ष में आता है। उपासना कौन-सी? जो कर्मकाण्ड हम कराते हैं, उसे उपासना कहते हैं और साधना किसे कहते हैं? साधना कहते हैं—बेटे, व्यक्तित्व को विकसित करना। आपका व्यक्तित्व जितना अधिक विकसित होता हुआ चला जाएगा, उसी अनुपात से आपकी उपासना फलती हुई चली जाएगी, फूलती हुई चली जाएगी। लेकिन अगर आपका व्यक्तित्व विकसित न हो सका, आवश्यक खुराक आपकी उपासना को न मिल सकी, तो आपकी उपासना भूख से मर जाएगी। क्या होता है?
शायद आपने देखा होगा कि जाड़े के दिनों में हर साल कुत्तों के ढेर सारे पिल्ले पैदा होते हैं। फिर कहाँ चले जाते हैं? फिर ये सब मर जाते हैं। क्यों मर जाते हैं? उन्हें खुराक नहीं मिलती। अगर आप कुत्तों के उन पिल्लों को खुराक का इंतजाम कर दें, सबके लिए रोटी, दूध का इंतजाम कर दें, तो एक भी पिल्ला नहीं मरेगा, सब जी जाएँगे। जिंदा रहेंगे। हर साल आप पूरे गाँव में देखिए, कुतियों ने कितने पिल्ले दिये। हमारे गाँव में अस्सी कुतियाँ थीं। उन्होंने चार सौ बच्चे दिये। उनमें से मात्र दस पिल्ले जिंदा रहे। बाकी कहाँ गए? मर गए। कोई जाड़े के मारे मर गए, तो कोई भूख के मारे मर गए। उनकी हिफाजत नहीं हो सकी, इसलिए वे मर गए।
भजन में प्राण कैसे डालें
मित्रो! जिस तरीके से कुत्तों के पिल्ले मर जाते हैं, उसी तरीके से हमारे भजन और हमारे अनुष्ठान भी मर जाते हैं। मर जाते हैं? बेशक मर जाते हैं। क्यों मर जाते हैं? ये अनुष्ठान भूखे मर जाते हैं। ये अनुष्ठान प्यासे मर जाते हैं। ये अनुष्ठान कपड़ों के अभाव में शीत की वजह से थरथराते हुए, काँपते हुए मर जाते हैं। कौन से? हमारे अनुष्ठान और भजन। अनुष्ठान कौन हैं? ये हमारे छोटे बच्चे हैं। इनको कपड़ा चाहिए, इनको अनाज चाहिए। इनको दूध चाहिए, इनको पानी चाहिए। अगर इन अनुष्ठानों को यह सब न मिले तब? तब वे मर जाएँगे। तब आपकी उपासना फल नहीं देगी। बेटे, कहाँ से देगी? उल्टे परेशानी ही पैदा करेगी।
छः महीने का बच्चा था, मर गया। तब क्या करना चाहिए? सारे घर में शोक, माँ रो रही है, दादी रो रही है। क्यों रो रही है? हमारा बच्चा था, मर गया। आप रोयेंगे? हाँ, आप भी रोयेंगे। हमने चौबीस दिन का अनुष्ठान किया था, अब क्या करें? अरे, हमारा अनुष्ठान मर गया। मरने से क्या मतलब होता है? मरने से मतलब यह है कि हम सफल न हो सके। हमारा अनुष्ठान असफल चला गया। अगर अनुष्ठान असफल चला गया तो आपको शिकायत पैदा हो सकती है, अश्रद्धा उत्पन्न हो सकती है, खीझ उत्पन्न हो सकती है।
मित्रो! हम यह क्या कह रहे हैं? इसकी तुलना किससे कर रहे हैं? इसकी तुलना बच्चा मर जाने पर शिकायतें पैदा करना शुरू कर रहे हैं। बच्चा मरने के बाद में जो शिकायतें पैदा होती हैं, जो दुःख पैदा होता है, नाराजगी पैदा होती है, क्लेश पैदा होता है। ठीक उसी तरीके से जब आपका किया हुआ अनुष्ठान मर जाता है, तो आपको खीझ होनी चाहिए और आपको परेशानी होनी चाहिए और आपके सारे-के घर वाले लोगों को भी शिकायत होनी चाहिए।
घर के लोग भी कहते रहते हैं कि अरे, रोज अनुष्ठान में बैठा रहता है। कुछ काम-धाम तो करता नहीं है, जब देखो तब माला घुमाता रहता है। क्या कर लिया तेरी माला ने? गाली पड़ती है ना? हाँ साहब! गाली पड़ती है। हाँ बेटे, गाली पड़ेगी। आगे भी, अभी और गालियाँ पड़ेंगी। क्यों? क्योंकि आपने बच्चा तो पैदा कर दिया, मगर आपने उसके लिए दूध का भी इंतजाम नहीं किया। बच्चा चिल्लाता रहा, रोता रहा। मम्मी हमको दूध चाहिए। बेटे, हमारी छाती में दूध नहीं है, तो बाजार से लाकर के दीजिए। नहीं, हम बाजार से नहीं खरीद सकते। तो छाती में से दीजिए। बेटे, छाती में से भी नहीं दे सकते। अच्छा तो मम्मी। आपने हमको पैदा तो जरूर कर दिया, पर अब हम मरना चाहते हैं। नहीं, अभी तुम हमारे यहाँ और रह जाओ। जब तुम बड़े हो जाओगे, तब पैसे कमाने लगोगे। नहीं मम्मी! अब हम मरेंगे। पैसे तो तब कमायेंगे, जब हम बचेंगे। जब तुम हमको दूध ही नहीं पिला सकती, तो हम इस तरीके से कैसे जियेंगे। बच्चा मर जाता है।
अनुष्ठान को खुराक की है जरूरत
मित्रो! इसी तरीके से बिना खुराक के हमारा अनुष्ठान भी मर जाता है। खुराक होनी चाहिए? हर चीज खुराक चाहती हैं। बगीचा खुराक चाहता है, खेती खुराक चाहती है। बच्चा खुराक चाहता है। उद्योग खुराक चाहता है। जानवर खुराक चाहता है। जब हर चीज खुराक चाहती हैं, तो फिर क्या वजह है कि हमारा अनुष्ठान खुराक नहीं चाहेगा?
अनुष्ठान को क्या खुराक मिलनी चाहिए? उस दिन आपको इशारा किया था? मैं चाहता हूँ कि आपको गंभीर होना चाहिए। आप जो पैदावार करना चाहते हैं, वह बेहतरीन पैदावार करना चाहते हैं। आप जो चीज अपने भीतर से निकालना चाहते हैं, वह बेहतरीन चीजें निकालना चाहते हैं। यह तो शिवसागर में देखा और दूसरे ग्रंथों में देखा। पेट्रोल निकालने के लिए कितनी जगह देखी जाती है। सैकड़ों फुट पाइप लगेगा। हजार फुट नीचे पेट्रोल है, तो हजार फुट पाइप तो लगेगा।
हाँ साहब! हजारों फुट पाइप हो, तो ही आप वहाँ से जमीन में से पेट्रोल को खींच लाते हैं। पेट्रोल जमीन से निकालने के लिए इतनी बड़ी मशीनें लगानी पड़ती हैं। तो क्या आपके लिए यह सम्भव नहीं है कि आप अपने अनुष्ठान को, अपने अंतःकरण में से सिद्धियाँ निकालने के लिए वह मशीनें लगाएँ और ऐसी फैक्ट्री बनाएँ, जिससे कि आपके अंतराल में छिपी हुई शक्तियों को, सिद्धियों को जगा देना संभव हो सके। इसमें गहरी डुबकी लगाने की आवश्यकता है। किनारे पर घूमते रहने से काम नहीं चल सकता।
मित्रो! आपको किनारे पर घूमते रहने की आदत है। फिर भी आप चाहते हैं कि मोती लेकर बाहर आएँ। एक सज्जन थे। उन्होंने, जो मोती बीनने वाले मछुआरे थे, उससे पूछा—मोती कहाँ से पैदा होते हैं? कहाँ पर मिलते हैं? मछुआरे ने कहा—देखिए साहब! यही वह इलाका है, जिसमें सीप और मोती पाए जाते हैं। यहाँ से हम मोती बीनते हैं और मालदार बन जाते हैं। अच्छा तो हम भी बीनेंगे और आप भी बीनिए। ठीक है, आपको कौन रोकता है? आप भी डुबकी मारिए और मोती ले जाइए।
नहीं साहब! हम डुबकी नहीं मारना चाहते। हम दूसरा तरीका अख्तियार करना चाहते हैं। क्या तरीका है? उन्होंने एक नाव खरीदी और उस पर बैठकर समुद्र के ऊपर चारों ओर घूमते रहे। सबेरे से शाम तक घूमते रहे। मोती यहाँ मिल सकते हैं, मोती वहाँ मिल सकते हैं? मछलियाँ तैर रही थीं, सोचा शायद यही मोती का गुच्छा होगा। समुद्र में झाग निकला। वहाँ भी हाथ मारा कि शायद यह भी मोती का गुच्छा होगा। मालूम पड़ा कि छोटी-मोटी चीजें, घास-पात जो समुद्र के ऊपर तैरती रहती हैं, वही मिलती रहीं। सारा दिन नाव घुमाते रहे।
मोती चाहिए तो डुबकी लगाइए
मित्रो! सारा दिन नाव घुमाने के बाद में शाम को जब नाव घुमाने वाला घर आया, तब उसने मछुआरे से कहा कि आपने हमें गलत बात बताई। आपने कहा था कि समुद्र के इस इलाके में मोती मिलते हैं। हम उसी इलाके में मोती तलाश करने गए थे और हमारा इतना समय लग गया और देखिए मोती हमको नहीं मिल सके। तो फिर आप क्या चीज बीनकर लाये? देखिए हम यह चीजें बीनकर लाये हैं। इनमें झाग हैं, पत्तियाँ हैं। अच्छा तो फिर मोती आपको नहीं मिले? हाँ, नहीं मिले। अच्छा तो यह बात बताइए कि आपने क्या-क्या किया? हमने यह किया कि नाव पर बैठे और पानी के भीतर नहीं गए। हमने एक छोटी-सी बाल्टी रखी थी और जहाँ कहीं भी मोती का गुच्छा देखा, बाल्टी फेंक दी और उसे निकाल लिया। आपने डुबकी नहीं मारी? नहीं साहब! हम डुबकी क्यों मारते? फिर तो आपको मोती नहीं मिल सकता।
अध्यात्म की गहराई में उतरें
मित्रो! अध्यात्म की गहराई में अगर डुबकी नहीं मार सकते, तो फिर आपको मोती पाने की इच्छा बंद कर देनी चाहिए। यह डुबकी मारने का काम है। इसमें गोताखोर अपनी हिम्मत दिखाते हैं। उस हिम्मत दिखाने की कीमत में मोतियों के टोकरे भरकर ले जाते हैं और मालदार हो जाते हैं। नहीं साहब! हम डुबकी नहीं मारना चाहते। डुबकी नहीं मारना चाहते तो आप मोती नहीं पा सकते। तो, क्या करना चाहिए? मैंने उस दिन भी आपको सिखाया था और बताया था कि आध्यात्मिकता की खुराक क्या होनी चाहिए?
आप फिर से एक बात ध्यान रखिए। क्यों? क्यों ध्यान रखें? बार-बार आप क्यों ध्यान रखने के लिए कहते हैं? बार-बार इसलिए कहते हैं कि आपने जो बहुत दिनों से सीखा है, मैं चाहता हूँ कि दूसरे स्थान पर आप नई शिक्षा ग्रहण करें। इसलिए मुझे बार-बार कहना पड़ता है कि शायद आपकी समझ में न आए। आपकी समझ में सस्ते—मुनाफे की चीजें किसी ने बता दीं। किसी ने यह बताया है कि अक्षरों का उच्चारण करने से चमत्कार आ जाते हैं। अक्षरों को जबान की नोंक से बार-बार रिपीट करते रहेंगे, तो आपको भगवान मिल सकता है, पैसा मिल सकता है? दौलत मिल सकती है, सिद्धि मिल सकती है, चमत्कार मिल सकता है? अगर किसी ने यह बातें आपको बता दिया हो, तो मुझे इसमें सुधार करना है।
मित्रो! क्या सुधार करना है? यह सुधार करना है कि अक्षरों का उच्चारण करना आवश्यक तो है, अनिवार्य तो है, उपयोगी तो है, महत्त्वपूर्ण तो है, लेकिन सर्वांगपूर्ण नहीं है। आप फिर से यह याद रखना कि अक्षरों का उच्चारण सर्वांगपूर्ण नहीं है। गुरुजी! आप अक्षरों के उच्चारण को मना करते हैं? बेटे, मैं मना कैसे कर सकता हूँ। मैंने कितने लोगों को गायत्री मंत्र की दीक्षाएँ दी हैं और उनको जप करने की विधियाँ सिखाई हैं और उनको जप करने के महत्त्व सिखाएँ हैं। तो फिर बताइए कि मेरे लिए यह कैसे संभव है कि मैं उन्हीं बातों का खंडन करने लगूँ।
मैं खंडन नहीं करता। मैं यह कहता हूँ कि यह आवश्यक और उपयोगी है। लेकिन अगर आप यह कहेंगे कि इन अक्षरों का उच्चारण करने से काम बन जाएगा, तो मैं आपसे नाराज हो जाऊँगा और आपसे यह कहूँगा कि आप समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं और आप गहराई में नहीं जा रहे हैं और आप वस्तुस्थिति से बहुत दूर हैं। आप केवल अक्षरों को इतना महत्त्व देते हैं। अक्षरों का कोई महत्त्व नहीं है। चलिए अब मैं यह कहूँगा कि अध्यात्म को आप खुराक नहीं दे रहे हैं, तो अक्षर क्या कर सकते हैं? नहीं साहब! राम के नाम का महत्त्व है। राम के नाम का दो कौड़ी का महत्त्व है। नहीं साहब! आप ऐसे कैसे कह सकते हैं? हम इसलिए कहते हैं कि आप बार-बार यह कहते हैं कि अक्षरों का उच्चारण सब कुछ कर देता है। आप बात को क्यों नहीं समझते?
मंत्र का विज्ञान
मित्रो! वास्तव में राम के नाम का महत्त्व है, गायत्री का महत्त्व है, हर चीज का महत्त्व है। मैंने मंत्रविज्ञान पर कितना लिखा है? मंत्रशास्त्र के बारे में हमारे बराबर तो किसी ने लिखा भी नहीं होगा। आप हमारा मंत्रविज्ञान पढ़िये। आपने तो गायत्री महाविज्ञान पढ़ा है। अपनी दूसरी किताब हमने आपको दी भी नहीं है। मंत्रविज्ञान हमारा लिखा हुआ है। बीस रुपये का है। यह मंत्रविज्ञान आपके पढ़ने योग्य है। मंत्र की शक्ति के बारे में हमने न जाने क्या-से लिखा है? गुरुजी! आप तो खंडन करते हैं। हम इसलिए खंडन करते हैं कि आप बेकाम की बातें क्यों मान बैठते हैं? अगर आप बेकार की बातों को मानते रहेंगे, तो हम उसका खंडन करेंगे और हम आपसे नाराज होंगे। अगर ज्यादा गुस्सा हो जाएँगे, तो हम मंत्र के विरुद्ध मंत्रशक्ति की व्याख्या ही गलत कर देंगे। उसे अलग कर देंगे।
मित्रो! क्या व्याख्या करेंगे? मंत्र का अपना विज्ञान है। मंत्र अक्षरों को नहीं कहते। हम क्या कहते हैं—‘प्रधानमंत्री।’ प्रधानमंत्री कौन थी? इंदिरा गाँधी। फिर आए मोरार जी देसाई। अच्छा ये हिन्दुस्तान के सबसे बड़े प्रधान हैं। प्रधान हैं, तो ये दोनों मंत्रविद्या के बड़े जानकार रहे हैं। पहली हैं—इंदिरा गाँधी और वे चली गयीं तो मोरार जी देसाई हो गए हैं और मुख्यमंत्री कौन-कौन हैं? बेटे, मुख्यमंत्रियों के कौन-कौन से नाम बता दूँ तुझे? मुख्यमंत्री तो कई हैं। कौन-कौन से हैं? देख—एक का नाम है—रामनरेश यादव, एक का नाम है—कर्पूरी ठाकुर और एक का नाम—अमुक है, तमुक है।
ये मुख्य हैं और मंत्रविद्या के सबसे बड़े जानकार हैं। वे मंत्र जपते रहते हैं, मंत्रों का अनुष्ठान करते रहते हैं और मंत्र जपते रहते हैं, मंत्रों का अनुष्ठान करते रहते हैं और मंत्र चलाते रहते हैं। इसीलिए तो इनका सारा खेल चलता है। वे कुछ करते थोड़े ही हैं, केवल मंत्र जपते हैं। इसीलिए तो इनका नाम मंत्र है। मंत्री माने—मंत्र करने वाला, मंत्री माने—माला घुमाने वाला। चलिए अब मैं आपसे यह कहूँगा कि मंत्र विचार को कहते हैं। प्रधानमंत्री हिन्दुस्तान का मुख्य विचारक है। मुख्य विचारक, प्रधान विचारक कौन हैं? मोरार जी देसाई और मुख्यमंत्री कौन? कर्पूरी ठाकुर। महाराज जी! उनको तो मंत्र की कोई जानकारी नहीं है? हाँ बेटे, कोई जानकारी नहीं है। फिर आपने क्यों कह दिया?
मित्रो! मैंने यह कहा है कि मंत्र का सामान्य अर्थ होता है—विचार शक्ति, जिसे आप विचारशीलता कहते हैं। तो फिर आपने हमको जप करना क्यों सिखाया? हमने आपको जप करना इस उम्मीद के साथ सिखाया था कि आप जप करने के साथ-साथ में जप करने के लिए जो शर्तें जुड़ी हुई हैं, उनका आप मूल्य समझेंगे और उन्हें महत्त्व देंगे। हमने इस ख्याल से यह उम्मीद रखी थी और अपेक्षा की थी आपसे कि आप यह मानकर नहीं बैठेंगे। क्या मानकर? यह मानकर कि केवल अक्षरों को दोहरा देने से अनुष्ठान पूरा हो जाता है। अक्षरों को दोहराने से मंत्र की शुरुआत होती है, पूर्णता नहीं होती। बीजारोपण शुरुआत है, पूर्णता नहीं है। आपने बीज बो दिया, शुरुआत कर दी। नहीं साहब! इसका फल आ जावेगा। नहीं, इसका फल नहीं आ सकता। इसके साथ में दूसरी शर्तें भी पूरी करनी चाहिए।
कैसे हो भगवान का साक्षात्कार
मित्रो! ब्रह्मवर्चस में उस दिन मैंने आपको प्रारंभ में यह बताया था कि मंत्रविद्या, जो हमारा मूल विषय है, मंत्रशक्ति, जो दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति है, उसका उपार्जन करने के लिए, उसका लाभ और चमत्कार देखने के लिए उसमें खाद और पानी का इंतजाम करना चाहिए। पानी के बारे में हम आपको बता चुके हैं। जीभ का परिष्कार करने की तैयारी कीजिए। जीभ से लोहा लेना शुरू कीजिए, लड़ाई कीजिए, जीभ की सिद्धि कीजिए। जीभ की साधना कीजिए, जीभ का योगाभ्यास कीजिए। जीभ के देवता सरस्वती की साधना कीजिए। सरस्वती के साथ साधना कीजिए, उसके बाद में गाड़ी चल सकती है।
महाराज जी! फिर तो गायत्री माता पीछे आयेंगी? हाँ बेटे, गायत्री माता पीछे आयेंगी। पहले नहीं आ सकतीं? हाँ बेटे, पहले नहीं आ सकतीं। पहले सरस्वती की साधना कीजिए, फिर उसके बाद में गायत्री साधना भी हो सकती है। आप यह क्या कह रहे हैं? बेटे, यह इसलिए कह रहा हूँ कि गोस्वामी तुलसीदास जो थे, उनको रामचंद्र जी की भक्ति करनी थी। रामचंद्र जी का साक्षात्कार करने का उनका मन हुआ कि भगवान का साक्षात्कार करना चाहिए।
मित्रो! रामचंद्र जी का साक्षात्कार करने का जब उनका मन आया, तो किसी गुरु ने उनका यह बताया कि आप सीधे रामचंद्र जी तक नहीं पहुँच सकते। क्या करना चाहिए? पहले आप हनुमान जी के पास जाइए। हनुमान जी उनके पी0ए0 हैं। किनके? रामचंद्र जी के वे सेक्रेटरी हैं। वे अगर आपकी रिकमन्डेशन मंजूर करेंगे, तो मुलाकात हो सकती है। नहीं तो सेक्रेटरी की मंजूरी के बिना भगवान जी मिलेंगे नहीं। हनुमान जी के पास जाना चाहिए। हनुमान जी के पास हम कैसे जायें? हनुमान जी के दर्शन हो जायँ, तो उनसे कहेंगे कि आप हमें रामचंद्र जी से मिला दीजिए। वे हनुमान जी को मिलने के चक्कर में बहुत दिनों तक फिरते रहे। गोस्वामी तुलसीदास के जीवन चरित्र की बात मैं कह रहा हूँ।
तुलसीदास जी की भगवान से भेंट की कथा
मित्रो! गीताप्रेस से छपे हुए रामायण की भूमिका में लिखा है कि गोस्वामी जी क्या करते थे? जब वे शौच फिरने जाते थे, तो पानी का लोटा ले जाते थे। शौच के बाद जो पानी बच जाता था, तो पास में बेर का एक पेड़ था, पानी उस पर डाल देते थे। यह उनका रोज का क्रम था। इस तरह से वे रोज उस पर पानी डालते रहे। उन बेचारों को तो मालूम ही नहीं था। संयोगवश वहीं डाल देते थे। बहुत दिन हो गए पानी डालते। एक दिन बेर के पेड़ में से एक भूत निकल आया। भूत ने कहा—मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ। क्यों भाई साहब! आप हमसे क्यों प्रसन्न हैं? इसलिए प्रसन्न हैं कि हम प्यास के मारे मरे जाते थे। अच्छा पानी हम पी नहीं सकते थे और गंदा पानी तलाश करते थे तो वह कहीं मिलता ही नहीं था। आपने टट्टी का पानी रोज यहाँ डाला, जिसको पीकर हमारी प्यास बुझ गयी। हम बहुत प्रसन्न हैं। आप वरदान माँगिए।
मित्रो! गोस्वामी तुलसीदास जी का लिखा हुआ जीवन चरित्र बता रहा हूँ। उन्होंने कहा-भाई साहब! आप कौन हैं? हम तो भूत हैं। अच्छा आप भूत हैं, तो क्या आप ऐसी कृपा कर सकते हैं कि हमको हनुमान मिल जायँ, ताकि हम उनके माध्यम से रामचंद्र जी से मिल सकें। हाँ साहब! हम आपको हनुमान जी से मिला देंगे। देखिए, एक जगह पर रामकथा होती है। वहाँ पर हनुमान जी कोढ़ी का रूप बनाकर के आते हैं और चुपचाप बैठे रहते हैं। वहाँ पर जो व्यक्ति कोढ़ी जैसा रूप बनाकर कम्बल ओढ़े हुए बैठा दिखे; उसको पकड़ लेना, वही हनुमान जी हैं। अच्छा आप पक्की बात कहते हैं? हाँ बिल्कुल पक्की बात कहते हैं।
बस गोस्वामी तुलसीदास जी गए और उस कोढ़ी को पकड़ लिया। अरे भाई! छोड़। अरे बाबा! अब मैं आपको छोड़ने वाला नहीं हूँ। रोज कोढ़ी का रूप बनाकर आ जाते हैं। आप हनुमान जी हैं। नहीं भाई! हनुमान जी नहीं हैं। नहीं साहब! आप हनुमान हैं। हमसे एक भूत ने कहा था कि आप हनुमान जी हो सकते हैं। हनुमान जी ने कहा—अच्छा हम हनुमान जी हैं, तो क्या बात है? हमको कैसे पकड़ लिया? इसलिए पकड़ लिया कि आप रामचंद्र जी से मुलाकात करा दीजिए। बस, उसके बाद में रामचंद्र जी आए और तिलक लगाया। आगे की कथा आप सबको मालूम है।
ऐसे होगा गायत्री माँ का साक्षात्कार
मित्रो! मैं कथा कह रहा हूँ, आपको उदाहरण दे रहा हूँ। एक एक्जाम्पल पेश कर रहा हूँ कि आपको क्या करना चाहिए? गायत्री माता का साक्षात्कार करना चाहिए। गायत्री माता का साक्षात्कार करने के लिए पहले आप भूत को पकड़िए, फिर हनुमान जी को पकड़िए, तब बात बनेगी। तब गायत्री माता मिलेंगी। अच्छा तो गायत्री माता ऐसे मिलेंगी? बेटे, ऐसे नहीं मिलेंगी। अच्छा महाराज जी! यह कौन सा भूत है? वह भूत बेटे, तेरी जीभ है। तेरी जीभ काबू में आ गयी, तो फिर समझना की तेरा मन साफ हो गया। जीभ काबू में नहीं आयी तो तेरा मन साफ नहीं होगा। जीभ से आप मंत्र बोलते हैं, इसलिए सबसे पहले जीभ का परिशोधन करना आवश्यक है।
आप उपासना करते हैं, हवन करते हैं, तो नहाकर के बैठते हैं। यज्ञ कौन करती है? बेटे, हमारे मुँह में बैठी हुई पार्वती करती है। जीभ का नाम क्या है? उसका नाम है—पार्वती। शंकर को प्राप्त करने के लिए पार्वती ने अपनी गुफा में बैठकर तप किया था। आप रामायण के बालकाण्ड में पढ़ सकते हैं। तप करने के बाद में शंकर जी प्रसन्न हुए थे और प्रसन्न हो करके उनसे ब्याह करने के लिए रजामंद हुए थे।
मित्रो! हमारी जीभ क्या है? यह पार्वती हैं। उसको आपने यदि तप करने के लिए रजामंद कर लिया, फिर आप विश्वास रखिए कि आपकी जीभ का ब्याह, आपकी सरस्वती का ब्याह, आपकी पार्वती का ब्याह ब्रह्म से हो सकता है, शिव से हो सकता है, कल्याण से हो सकता है। उसका नतीजा क्या निकलेगा? उसका नतीजा यह निकलेगा कि आपके अंतरंग में गणेश का जन्म होगा। गणेश कौन होता है? ऋद्धियों-सिद्धियों का देवता। गणेश जी की दो पत्नियाँ थीं। एक का नाम था—ऋद्धि और एक का नाम था—सिद्धि।
विवेक व आत्मबल का प्रतीक हैं भगवान गणेश
गणेश कौन होता है? हमारा विवेक ही गणेश है। जब यह जाग्रत होगा तो इसकी दो औरतें होंगी। उनमें से एक का नाम ऋद्धि होगा और दूसरी का नाम सिद्धि होगा। ऋद्धि क्या होती है? ऋद्धि बेटे, आंतरिक विभूतियों को कहते हैं और सिद्धि? सांसारिक सफलताएँ सिद्धियाँ कहलाती हैं और आंतरिक विशेषताएँ—आत्मबल से लेकर अच्छे गुणों की संपदाएँ ऋद्धियाँ कहलाती हैं। ऋद्धि और सिद्धि कौन थीं? गणेश जी की औरतें थीं। अच्छा गणेश जी कौन थे? शिव और पार्वती ने जब ब्याह कर लिया था, तो उस विवाह के फलस्वरूप जो बच्चा पैदा हुआ था, उसका नाम था—गणेश।
मित्रो! गणेश माने आत्मबल। आपका यह आत्मबल कब पैदा हो सकता है? जब आपके अंदर शिव और शक्ति का उदय हो जाएगा, तब। शक्ति कौन हैं? पार्वती हैं। पार्वती से क्या मतलब है? बेटे, पार्वती ने तप किया था और आपको न मालूम हो और आपको हरिद्वार जाना हो, तो वहाँ एक महादेव हैं—विल्वकेश्वर महादेव। आप वहाँ देख आना, वहाँ एक ऐसा मंदिर बना हुआ है, जहाँ पार्वती जी ने तप किया था। तप करने के बाद में महादेव जी प्रसन्न हुए थे। बिना तप किए महादेव जी प्रसन्न हो सकते थे? बिना तप के वे प्रसन्न नहीं हो सकते। पार्वती जी ने क्या किया था? उन्होंने ‘‘नमः शिवाय’’ के साथ-साथ में तप किया था। तप की बारूद लेकर के ‘‘नमः शिवाय’’ की आग मिला दी जाती है, तब धमाका हो सकता है, उससे कम में नहीं होता।
मित्रो! जीभ के लिए मैंने आपसे निवेदन किया था कि अगर आप मंत्र का चमत्कार देखना चाहते हैं, तब कृपा करके अपनी जीभ को धोइए। गायत्री महामंत्र की विशेषताओं से अगर आपको लाभ लेना है, तो आप अपनी जीभ पर हावी हो जाइए। जीभ पर क्या करना चाहिए? जो आप कर रहे हैं, वह सरल और सुगम है, स्थूल है। आप नमक छोड़ देंगे, तो मरेंगे नहीं, आप विश्वास रखिए। गुरुजी! हम नमक नहीं खाएँगे, तो मर जाएँगे। बेटे, नमक खाकर के मर जाएगा, तो घरवालों को कह देना कि हम नमक छोड़ रहे हैं और हमको यह शक है कि हम मर जाएँगे। साथ में यह भी कह देना कि गुरुजी ने गारण्टी ली है कि जो कोई भी नमक न खा करके मरेगा, उसको हम जिंदा कर देंगे।
स्वाद के लिए नहीं, आरोग्य के लिए खाएँ
यह सरल है, इसमें क्या है? सृष्टि का प्रत्येक प्राणी, जितनी भी योनियाँ हैं, उनमें से एक भी प्राणी दुनिया में ऐसा नहीं है जो जायके के लिए खाता हो। खाद्य पदार्थों में स्वाभाविक जायका है। गुरुजी! स्वाभाविक जायका? हाँ बेटे, तूने खाद्य खाया ही नहीं है। तूने जायके खाए हैं और अपनी जीभ को चौपट कर डाला है। खाद्य पदार्थों में भी जायका होता है।
मित्रो! खाद्य पदार्थों में क्या जायका होता है? गोरखपुर में ‘‘आरोग्य मंदिर’’ नामक एक संस्था है, जहाँ प्राकृतिक चिकित्सा का शिक्षण होता है। वहाँ से ‘‘आरोग्य’’ नामक एक अख़बार निकलता है। उसके संपादक श्री विट्ठलदास मोदी हमारे मित्रों में से हैं। एक बार वे हमारे घर घीयामण्डी-मथुरा आ गए। हम लोग खाना खाने के लिए बैठ गए। हम दोनों के लिए थाली परोस दी गई। विट्ठलदास जी ने कहा—आचार्य जी! आप ऐसा करें—रोटी खाएँ। मैंने कहा—रोटी नहीं, तो यह और क्या रखा है? उन्होंने कहा—आप समझते तो हैं नहीं। हम कहते हैं कि आप आज रोटी खाएँ। मैंने कहा—रोटी से आपका क्या मतलब है? यह रोटी ही रखी है आपके सामने। मिठाई रखी हैं, पूड़ी-कचौड़ी रखी हैं। आपका क्या मतलब है? नहीं केवल रोटी खाएँ। केवल से क्या मतलब है और उससे क्या फायदा होगा?
उन्होंने कहा कि रोटी के अलावा थाली में से सारा सामान हटा दीजिए। उससे क्या फायदा होगा? आचार्य जी! उसमें—रोटी में ऐसा जायका है, जिसे कभी आपने चखा ही नहीं। रोटी में कोई ऐसा जादू है कि उसके साथ किसी और का चक्कर ही नहीं। अच्छा! सारा सामान हटा दिया गया। दाल हटा दी गयी, शाक हटा दी गयी, दही हटा दिया गया। सब हटा दिया गया। केवल रोटी रख दी गयी। हम लोगों ने रोटी खाना शुरू किया, तो उन्होंने कहा कि जल्दी-जल्दी नहीं चबाना। उसे धीरे-धीरे चबाते रहिए। उससे मुँह में ग्लूकोज बनता है। किसका? रोटी का जो अनाज है, स्टार्च है। मुँह में चबाते समय हमारी ग्रंथियों से रस निकलता है, जिससे स्टार्च का ग्लूकोज में परिवर्तन हो जाता है। तब यह एक अजीब सा जायका बन जाता है।
हमने कहा कि ऐसा जायका तो हमने कभी नहीं खाया। कैसा मालूम पड़ता है। उन्होंने कहा कि अच्छा देखिए रोटी में गंध कैसी है? गंध का एक अजीब ही जायका आता है। मुँह से खो जाते हैं, उसकी गंध नाक तक चली जाती है। उस जायके की गंध मुँह में से लेकर नाक तक ऐसी आती है कि तबियत खुश हो गयी। आप केवल रोटी ही खाते रहें तो मजा आ जाय। आपको तो किसी चीज के स्वाद का तो पता ही नहीं। आप एक चीज का भी स्वाद नहीं ले पाते।
आप हर चीज के साथ में जायके-जायके की भरमार करते जाते हैं। नमक और शक्कर मिला करके आपने हर चीज के स्वाभाविक और प्राकृतिक जायके को खतम कर दिया। इसलिए आपका प्रत्येक खाद्य पदार्थ अखाद्य हो गया। खाद्य को आपने अखाद्य बना दिया। खाद्य को प्राकृतिक रूप में खाने में क्या आफत आ गयी? यह सरल है, कठिन नहीं है। यह साधना नहीं मामूली बात है। हम एक ऐसे महात्मा को जानते हैं, जो भीख माँगकर लाते थे और सब चीजों को मिला करके खा जाते थे। हम और लोगों के नाम बता सकते हैं, मुद्दतें हो गयीं, जिन्होंने नमक त्याग रखा है। स्वामी दिव्यानंद जी नागपुर के हैं और अक्सर मध्यप्रदेश का दौरा करते रहते हैं। उनको नमक खाए मुद्दतें हो गयीं। कहिए साहब! आपका स्वास्थ्य कैसा है? अच्छा है। डॉक्टर रोज बताते हैं कि ब्लड प्रेशर की शिकायत है। नमक बंद कीजिए। गुर्दे की शिकायत है, नमक बंद कीजिए। नमक तो जहर है, उसे बंद करके आपने कोई खास त्याग नहीं किया। इसमें कोई खाश मसक्कत नहीं मालूम पड़ती। दस-पाँच दिन जरूर ऐसा मालूम पड़ेगा कि हमें क्या हो रहा है। महीने भर के लिए मिर्च बंद कर दें, फिर दुबारा मिर्च खाएँ, तो आपके मुँह में इतनी लार आएगी, इतना कष्ट होगा कि लगेगा कि हमको क्या चीज खिला दी गयी? जहर खिला दिया गया।
अन्न का स्वाद ही नहीं, संस्कार भी देखें
मित्रो! यह मामूली सी बात है। कौन-सी बात? जायके वाली बात। जीभ का संयम करने के लिए असली बात यह है कि आपने हराम का कमाया हुआ तो नहीं खाया। आपने कुसंस्कारी लोगों का बनाया हुआ तो नहीं खाया। अभी तो माताजी यहाँ बनाती हैं, इसलिए माताजी के बनाने से उनका संरक्षण है। माताजी चौके में बैठती हैं और आपके भोजन में ऐसी भावना भर देती हैं। अगर भविष्य में ऐसा न हो सका, तो हम चांद्रायण व्रत करने वालों के लिए दूसरे इंतजाम करेंगे। क्या इंतजाम करेंगे? हमने विचार कर रखा है कि स्टीम कुकर, प्रेशर कुकर का प्रबंध करेंगे। उसमें आप अपने खाद्य में से उतनी मात्रा कम कर लीजिए। चावल रख लीजिए, दाल रख लीजिए, शाक-सब्जी रख लीजिए और देखिए कोयला हम भर देते हैं, प्रेशर कुकर आपका हम भर देते हैं। आपका खाना बन जाएगा। बस आप निकालकर खा लेना। आप बना लेना। क्यों? क्योंकि हम नहीं जानते कि आगे भविष्य में ब्रह्मवर्चस में चांद्रायण शिविर चलेगा कि नहीं चलेगा। चलेगा तो उसमें खाद्य का इंतजाम क्या करना पड़ेगा, हम नहीं जानते?
मित्रो! अभी तो खाद्य के इंतजाम में हमारी धर्मपत्नी हैं। खाद्य पर उनका सौ प्रतिशत नियंत्रण है। वे बैठती और देखती रहती हैं कि कहीं कोई कुसंस्कारी अन्न तो नहीं बनता। छींटा और छाप तो नहीं बन जाती, जो किसी पर कोई प्रभाव तो नहीं डालती। आगे भी आपको उपासना के संबंध में यहाँ या और कहीं कोई चमत्कार देखना हो, तो आप खाद्य पर ध्यान दीजिए। खाद्य को न केवल बनावट के बारे में, सफाई के बारे में, स्वच्छता के बारे में, बनाने वाले और पकाने वाले के बारे में, वरन् यह भी ध्यान रखना कि आपका खाद्य ईमानदारी की कमाई का है कि नहीं है। आपने अनीति से तो धन नहीं कमाया है। अनीति से कमाया हुआ धन आपके लिए उपयोगी नहीं है। अनीति का धन खाएँगे, तो आपकी उपासना भी प्रभावित होती चली जाएगी। चोरी का धन, हरामखोरी का धन, बेईमानी का धन, बेटे, नहीं खा सकते आप। साधक को ब्राह्मण होना चाहिए।
मित्रो! गायत्री उपासना के संबंध में हमारी सबसे पहली पुस्तक छपी थी, आपको मालूम है? आपको नहीं मालूम है। कौन-सी पुस्तक छपी थी? सबसे पहली पुस्तक का नाम था—‘‘गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है।’’ इस नाम से जैसे ही किताब छपी, सब जगह यह कहा गया कि साहब! गायत्री तो ब्राह्मण की है। कोई और मत उपासना करना। कोई और करेगा, तो भ्रष्ट हो जाएगा। ब्राह्मण के अलावा और कोई उपासना नहीं कर सकता। हे भगवान! यह क्या हो गया? मैंने तो इसलिए किताब छापी थी, ताकि लोग उसकी वास्तविक फिलॉसफी समझ सकें। लेकिन यह क्या? सब उल्टा हो गया।
गायत्री ही कामधेनु है
मैं जो कुछ कहना चाहता था, ठीक उसका उल्टा हो गया। फिर मैंने उस किताब को छापना बंद कर दिया। गुरुजी! आपने यह क्या किया? बेटे, मैंने नाम बदल दिया। क्या नाम रखा? ‘ब्राह्मण’ शब्द मैंने काट दिया और नाम रखा—‘‘गायत्री ही कामधेनु है।’’ ब्राह्मण शब्द क्यों काट दिया? इसलिए कि गलतफहमी पैदा हो गयी थी। ‘ब्राह्मण’ का अर्थ मैं कुछ और समझता था और उसे लोगों को समझाना चाहता था। लोगों ने उसका अर्थ निकाल लिया—बामन।
बामन कौन होता है? बामन बेटे, यह होता है—पचास+एक=एक्यावन, पचास+दो=बावन, पचास तीन=तिरपन, पचास+चार=चौवन आदि। ये होते हैं—बामन। बामन कौन होता है? बामन एक वंश है, एक जाति है और ब्राह्मण? ब्राह्मण वंश नहीं हो सकते, जाति नहीं हो सकते। ब्राह्मण एक कर्म है, ब्राह्मण एक स्वभाव है। ब्राह्मण एक प्रकृति है। बामन जन्मजात हो सकता है, लेकिन ब्राह्मण जन्मजात नहीं हो सकता। ब्राह्मण प्रकृति से बनता है। प्रकृति के बिना ब्राह्मण नहीं बन सकता।
साहब! हम तो ब्राह्मण हैं। आप कौन से ब्राह्मण हैं? हम तो साहब गौड़ ब्राह्मण हैं। आप क्या काम करते हैं? हमने तो दुकान खोल रखी है? किसकी दुकान खोल रखी है? ‘शर्मा फुटवियर’ की। फुटवियर क्या होता है? अरे साहब! चप्पलों की दुकान है। आपकी दुकान चलती है? हाँ साहब! कमाते भी उसी से हैं और खाते-खिलाते भी हैं। बेचते हैं और खरीदते भी हैं। अच्छा तो आप शर्मा जी हैं। आप क्या करते हैं? साहब! हमारा—‘‘शर्मा हेयर कटिंग सैलून ’’ है। आप भी शर्मा जी हैं? हाँ हम भी शर्मा जी हैं, तो ठीक है। आपकी शरम भगवान कायम रखें। ऐसा न हो कि आपकी शरम चली जाय। हम भी शर्मा, आप भी शर्मा, आप भी अपनी शरम बचाइए और हम भी अपनी शरम स्वयं बचाएँगे। आपकी शरम बिगड़ गयी, तो हमारी भी शरम बिगड़ जाएगी। शरम को बचाकर रखेंगे।
मित्रो! फिर मैंने क्या कहना शुरू कर दिया कि गायत्री को कामधेनु कहना शुरू कर दिया। आपके विचार श्रेष्ठ थे। नहीं बेटे, मैंने डर के मारे विचार बदल दिये। अब क्या कहेंगे? मित्रो! फिर भी मैं यही कहता हूँ कि गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है। अब भी आप कहते हैं? अभी तो आपने मना कर दिया था। आप फिर से कहने लगे? हाँ बेटे, मैं फिर से कहता हूँ कि गायत्री कामधेनु है और वह हरेक की हो सकती है। पर इसके लिए आदमी को अपना व्यक्तित्व ऐसा बनाना चाहिए, जिसको ब्राह्मण कहते हैं।
ब्राह्मण का पहला अर्थ, पहला कदम होता है—संयमी होना और तपस्वी होना। तपस्वी और संयमी अगर आप रहें, तो गायत्री का लाभ उठा सकते हैं। महाराज जी! हम तो नहीं उठा सकते। आप संयमी और तपस्वी नहीं हो सकते, पर मैं कहता हूँ कि आपको तो इतना करना ही होगा और इतनी उपासना करनी होगी कि आप अपना भी भला कर सकें और औरों का भी भला कर सकें। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
मित्रो! क्या आप किसी और की सहायता करना चाहते हैं या अपना भला करना चाहते हैं? अगर आप अपना भला करना चाहते हैं, तो हम आपकी सहायता कर सकते हैं। अगर कहीं आपको ऐसे अध्यात्म की आवश्यकता पड़े, जिससे आप अपना भला करने के साथ-साथ में औरों का भी भला करना चाहते हों, तो आपको तपस्वी बनना ही पड़ेगा। तपस्वी जीवन जीना ही होगा। इसके बिना कोई गति नहीं और कोई रास्ता भी नहीं है। नहीं साहब! हम तो विलासी जीवन जियेंगे और गायत्री मंत्र का चमत्कार भी देखेंगे। नहीं बेटे! यह नहीं हो सकता। हम तो अपनी विलासिता के ऊपर कहीं अंकुश नहीं रखेंगे और गायत्री का चमत्कार भी देखेंगे। बेटे, ऐसा नहीं हो सकता, अगर ऐसा रहा होता, तो प्राचीनकाल में गोपीचंद्र, भर्तृहरि से लेकर भगवान बुद्ध तक हर आदमी ने विलासी जीवन जिया होता, मौज उड़ाई होती, मजे उड़ाये होते और साथ-साथ में ग्यारह माला जप भी कर लिया होता और चमत्कार प्राप्त कर लिए होते, ऐसा नहीं हो सकता।
मित्रो! मैं फिर से कह रहा हूँ कि हमें तपस्वी जीवन जीना चाहिए। तपस्वी का उपक्रम जहाँ से आरंभ होता है, उसको मैं बीजारोपण कहता हूँ, वृक्षारोपण का शुभारंभ कहता हूँ। इसका आरंभ वहाँ से होता है, जहाँ आप जीभ के ऊपर अंकुश रखना शुरू करते हैं। जीभ के ऊपर अंकुश रखने से हमारा मतलब है—अपने वाणी के ऊपर अंकुश रखना। आपकी वाणी छल-कपट करने से नष्ट हो जाती है। जब आप किसी को धोखा देते हैं, तो उसको कहते हैं—छल। आपके भीतर जैसा है, वैसा ही बाहर कहिए। बाहर जैसा है, वैसा ही भीतर से कहिए। घुमा फिरा करके शब्दों का इस्तेमाल मत कीजिए। नहीं साहब! यह जमाना ही ऐसा है।
बेटे, जमाना पहले भी अच्छा था, अभी भी अच्छा है। जमाने में आपको चालाकी इसलिए करनी पड़ती है कि सत्य की सामर्थ्य का आपको पता नहीं है। सत्य से आदमी बड़े बनते हैं। नहीं साहब! झूठ से बनते हैं। बेटे, झूठ से नहीं बनते, तू मानता क्यों नहीं। नहीं साहब! सत्य से नहीं, झूठ से कमा लिए। बेटे, झूठ से कमाई नहीं होती। सत्य से कमाई आती है। झूठ बोलने वाले भी सत्य की आड़ में अपना उल्लू सीधा करते हैं। उन्हें भी सत्य की आड़ लेनी पड़ती है।
झूठ भी लेता है, सच का सहारा
मित्रो झूठ बोलने वालों को भी सत्य की आड़ लेनी पड़ती है। क्यों गुरुजी! वे सत्य की आड़ लेते हैं? हाँ बेटे। वे सत्य की आड़ लेते हैं। उदाहरण के लिए दूध बेचने वाले की दुकान पर लिखा होता है—‘‘हमारी दुकान पर असली दूध मिलता है। गलत साबित करने वाले को सौ रुपये इनाम।’’ आपकी दुकान पर असली दूध मिलता है। यहाँ लिखा हुआ है कि असली गाय, भैंस का दूध मिलता है। आप इसमें पानी तो नहीं मिलाते हैं? मिलाते तो होंगे, पर हमने लिखा तो यही है। इसमें मलाई डालते हैं? हाँ साहब! मलाई भी डालते हैं। किसकी डालते हैं? ब्लाटिंग पेपर की डालते हैं, परन्तु हम आपको कह नहीं सकते। हम कहते तो यही हैं कि मलाई असली है। असली की वजह से धोखे में आकर के लोग आपकी दुकान से दूध खरीद ले जाते हैं। इस बात को आप समझते क्यों नहीं हैं? यह असली है, इस तरह असली का आपने लोगों को विश्वास दिला दिया, इसलिए आपकी बिक्री हो गयी। आपने सत्य का विश्वास दिला दिया, इसलिए आपकी बिक्री हो गयी।
मित्रो! आपका यह कहना है कि झूठ बोलने से मालदार बनते हैं, तो आप ऐसा कीजिए कि एक बोर्ड लगाकर रखिये। उस पर क्या लिखेंगे? यह लिखेंगे कि ‘‘यहाँ पर नकली दूध मिलता है। यहाँ इस दुकान पर जो मलाई डाली जाती है, वह ब्लाटिंग पेपर होता है। इस दुकान पर ५० प्रतिशत पानी मिला हुआ दूध मिलता है। इस दुकान पर अरारोट को पानी में मिलाकर दूध बनाया और बेचा जाता है। गलत साबित करने वाले को सौ रुपये इनाम मिलेगा।’’ इस तरह का बोर्ड टाँग दें, फिर हम देखेंगे कि आप मालदार कैसे बन जाते हैं। तब हम आपकी मालदारी को देखेंगे। नहीं साहब! आदमी बेईमानी से मालदार बनता है। नहीं बेटे, बेईमानी से कोई नहीं बनता। जो कोई भी आदमी भौतिक दृष्टि से या आत्मिक दृष्टि से आगे बढ़ा है, वह सत्य और ईमानदारी की वजह से बढ़ा है। सत्य और ईमानदारी पर आपको इसलिए विश्वास नहीं है, क्योंकि आप उस पर ठहर नहीं पाते और लोगों को यकीन नहीं दिला पाते कि हम सत्य कहने वाले लोगों में से हैं, ईमानदार आदमियों में से हैं। आप यह यकीन नहीं करा पाये, इसलिए आपको भटकना पड़ा है। लोगों ने अगर आपका विश्वास कर लिया होता कि आप सत्य बोलने वालों में से हैं, तो वेस्ट वॉच कंपनी के तरीके से आपकी चीजों के दाम इतने ज्यादा हो गये होते और आप मालदार हो गये होते। सत्य अपने आप में बिकता है।
छल रहित जीवन जिएँ
मित्रो! मैं यह कह रहा था कि आप छल रहित जीवन जिएँ, तो ज्यादा अच्छा होगा। छल को अगर आप छोड़ पायें तो ज्यादा अच्छा होगा। अगर आप असत्य से मुँह मोड़ लें, तो आपके लिए ज्यादा अच्छा रहेगा। आप जैसा भीतर है, वैसा ही बाहर कहने की आदत डालें, तो ज्यादा अच्छा है। अगर आप दूसरों के सम्मान का ध्यान रखें, दूसरों का तिरस्कार न करें, तो ज्यादा अच्छा है। आप दूसरों को अपमानित मत कीजिये। आपको मालूम नहीं है कि किसी को अपमानित करना कितना बुरा है। इसलिए आप बुरे आदमियों का भी अपमान मत कीजिये। बुरे आदमियों का भी सम्मान कीजिए। ठीक है बुरे आदमी हैं, लेकिन बुरे आदमियों की चिकित्सा करने के लिए डॉक्टर हैं। जैसे वह बीमार आदमी का आपरेशन करता है, इलाज करता है, वैसे ही आप भी उसकी चिकित्सा कर सकते हैं, लेकिन आप उसका अपमान मत कीजिए। सजा देना आवश्यक है और आप दे भी सकते हैं। आपको मालूम नहीं है कि जज जब किसी को फाँसी देता है तो ‘मिस्टर सो एण्ड सो’ लिखा जाता है। फाँसी पाने वालों के नाम के आगे ‘मिस्टर’ लगाता चला जाता है। उसका सम्मान करता चला जाता है। ‘श्री’ कहता हुआ चला जाता है कि हम आपको फाँसी देते हैं। श्री मोहनलाल जी को फाँसी की सजा देते हैं।
क्यों साहब! आपने फाँसी की सजा दी, तो गाली क्यों नहीं दी? गाली भी देते तो अच्छा होता, क्योंकि उसने चोरी की और हत्या की। इसलिए कहते कि वह चोर है, हत्यारा है। नहीं साहब! कैसे कह सकते हैं? आपकी शराफत का सवाल है। आप अच्छे आदमियों के साथ रहते हैं, ठीक है; परन्तु गन्दे आदमी को कैसे ठीक करना चाहिए, यह आपका काम है। यह आपकी समझदारी के ऊपर है। पर आप जब अपनी जीभ से दूसरों को अपमानित करते हैं, तो आपकी जीभ खराब होती है। दूसरों का नुकसान होता है कि नहीं होता, हमको मालूम नहीं है, पर आपकी जीभ जरूर खराब होती है। आपको हर आदमी का सम्मान करना चाहिए। जिन दिनों हम जेलखाने में थे, उन दिनों अक्सर आगरा जेल में फाँसी के कैदी आते थे। फाँसी कैसे लगती है, एक बार हमने यह जानने की कोशिश की, तो पता चला कि फाँसी लगाते समय जो लोग आते हैं, उसमें उन दिनों तीन तरह के लोग होते थे। अब कौन आता है, मुझे मालूम नहीं है।
मित्रो! पहले तो एक वह जज आता था, जिसने उसे फाँसी की सजा सुनाई थी। दूसरा आदमी जेल का सुपरिन्टेण्डेण्ट आता था और तीसरा एक डॉक्टर आता था। यही तीन आदमी आते थे और तीनों आदमी हाथ पर काली पट्टी बाँधे रहते थे और काला कपड़ा पहने हुए होते थे। जब कैदी फाँसी पर चढ़ने के लिए तख्ते के ऊपर जाता था, तो तीनों आदमी अपना सिर झुका देते थे और यह कहते थे कि आप एक इनसान हैं और दुनिया में से एक इनसानी हस्ती जा रही है। इसलिए हमें दुःख है और हम आपका विदाई के समय पर जैसे मरने के बाद हर मुर्दे का सम्मान होना चाहिए, हम उसी तरह से आपका सम्मान करते हैं और इज्जत करते हैं। आपने गलतियाँ कीं, इसलिए जज के नाते अमुक सजा के मुताबिक़ हमें आपको फाँसी की सजा देनी पड़ी। इसमें हमारा कोई कसूर नहीं है। जल्लाद भी यही कहता था, जब वह फाँसी देने आता था, कि आपके मरने का हमको दुःख है, पर हम राष्ट्र की मर्यादाओं का, कानून की मर्यादाओं का संरक्षण करने के लिए बड़े दुःख के साथ आपको फाँसी लगाते हैं और वह भी बड़ी इज्जत के साथ। इन शब्दों को दुहराने के बाद जल्लाद फाँसी लगाता था।
मित्रो! आपको क्या आफत आ गयी, जो यों ही गालियाँ बकते हैं। बच्चों को गालियाँ बकते हैं, बूढ़ों को गालियाँ बकते हैं। आप अपनी जबान को ठीक करें। अगर आप अपनी जबान को ठीक नहीं करेंगे, तो मुश्किल हो जायेगी। मैंने आपसे एक दिन यह कहा था कि आपकी जो यह ब्रह्मचर्य की शक्ति नष्ट होती है, वह पेशाब के छेद में से नष्ट नहीं होती। ब्रह्मचर्य की शक्ति जो आपकी नष्ट होती है, तेज की शक्ति जो आपकी नष्ट होती है, वह आपके दिमाग में से, आँखों में से नष्ट होती है। गाँधी जी को बासठ वर्ष की उम्र तक स्वप्नदोष होते थे। गाँधी जी ने बत्तीस वर्ष की उम्र में अपनी धर्मपत्नी को माँ कहना शुरू कर दिया था, लेकिन स्वप्नदोष छूटे नहीं। यह सिलसिला बासठ वर्ष तक चलता रहा। यह बात उनने अपनी आत्मकथा में लिखी है। लेकिन शरीर का उतना नुकसान नहीं हुआ, जितना कि उन्होंने दिमाग का कंट्रोल कर लिया। उन्होंने प्रत्येक महिला को बहन और बेटी की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया। इससे उनका ब्रह्मचर्य सुरक्षित हो गया और उनका आत्मबल बढ़ाने में सहायक हो गया। यद्यपि उनका पानी नष्ट हो गया, पर पानी की कीमत उतनी नहीं है। असली ब्रह्मचर्य दिमागी ब्रह्मचर्य है। मैं यही कह रहा हूँ कि असली अस्वाद व्रत वही है, जो आप खुराक लें, उसमें जायके को कम कर दें।
असली अभ्यास—वाणी का अभ्यास
मित्रो! यह शुरुआत है, यह पहला अध्याय है। असली अभ्यास जीभ का अभ्यास है। इस अभ्यास के द्वारा आप चमत्कार देखना चाहते हों, तो वह चमत्कार जीभ का-वाणी का होना चाहिए। दूसरों के साथ में कड़वे वचन बोलने का अभ्यास बंद कर दीजिए। कोई गाली देता है, तो उससे कहिये कि भाई साहब! आपको जो कुछ भी कहना है, कहिये, पर इसमें हमारी गलती नहीं है। देखिये, थोड़ा विलम्ब हो गया, आप क्षमा करना। आप इस तरह कहिये ना। वह भी गाली देता है और आप भी गाली देंगे, तो बात कैसे बनेगी? आप गाली मत देना। कुत्ते ने आपकी टाँग को काट खाया, तो क्या आप भी कुत्ते की टाँग काटेंगे या नहीं काटेंगे? नहीं साहब! हम कुत्ते की टाँग नहीं काट सकते हैं।
मित्रो! आप इनसान हैं और वह कुत्ता है। आदमी गलती करता रहता है। गलती करने वाले को गलती करने दीजिए। परन्तु उसे सुधारने का तरीका गलती नहीं है। जैसा खराब आदमी वह था, आप उससे भी ज्यादा खराब आदमी हैं। आप क्या सुधारेंगे? यह कोई सुधारने का तरीका है। दूसरों के लिए बदजुबानी बोलते हैं। बदजुबानी बोलने से क्या होगा कि आपकी जबान की शक्ति नष्ट हो जायेगी। आपके छल करने से दिमाग की शक्ति नष्ट हो जायेगी, अगर आप ऐसा करते रहेंगे, तब। कैसे? अहंकार भरे शब्द, अपने दंभ के शब्द जब-तब आप बोलते रहेंगे, इसमें शेखी-खोरी भी शामिल है। अपने आपको बढ़ाने के लिए आप न जाने क्या-क्या बखानते रहते हैं कि हमने यह किया, हमने वह किया, हमारा यह हुआ, बस हम ही हम बकते रहते हैं। अपनी जीभ को अहंकार के हवाले मत कीजिए। जीभ के ऊपर अपना नियंत्रण चलने दीजिए।
मित्रो! आत्मीयता, सज्जनता और शालीनता आपकी जीभ में भरी रहती है। लेकिन जब आप अहंकार के शब्द बोलते हैं, जब आप कड़वे शब्द बोलते हैं, दूसरों के ऊपर रौब गाँठने के लिए, दूसरों के सामने अपने आपको बड़ा दिखाने के लिए आप जिस तरह के शब्द बोलते हैं, वह वास्तव में आपके बड़प्पन का नहीं, छोटेपन की निशानी है। इस तरह बोलने पर आपकी वाणी कमजोर पड़ जाती है। फिर आपकी मंत्र की शक्ति कमजोर पड़ जाती है। वचन के बारे में, वाणी के बारे में, दूसरों को प्रोत्साहन देने के बारे में कंजूसी मत कीजिए। दूसरों को हतोत्साह मत कीजिए। किसी को प्रोत्साहन दिया है, तो प्रोत्साहन दीजिए। आपने दूसरों की निन्दा की है। कभी आपने अपनी जीभ से दूसरों की प्रशंसा भी की है क्या? जरा बताना तो सही। जब भी आप घरवाली के पास गये हैं, तो यही कहते रहते हैं कि बर्तन साफ करना नहीं आता, बच्चों को सम्भालना नहीं आता। तुम ऐसी हो, तुम वैसी हो। यही शब्द तो आप कहते हैं? क्या कभी आपने यह शब्द भी कहे हैं कि आप चौबीसों घंटे काम में लगी रहती हो, बीमार हो जाती हो, बुखार हो जाता है, तो भी खाना पकाती रहती हो। आपकी सेवा भावना के लिए हम क्या कह सकते हैं? उसकी प्रशंसा के लिए आपके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। हर समय गुस्सा, जहरीले डंक वाली जीभ, जिसमें केवल दूसरों के दोषों का वर्णन करना ही आता है। जीभ में जहर लपेट करके रखा है।
मीठा बोलें, गुणों का सम्मान करें
मित्रो! आपकी जिह्वा को किसी के गुणों का वर्णन करना आता है कि नहीं आता है? आपने किसी के गुणों का वर्णन किया है? अपने पिताजी से कभी यह कहा कि पिताजी! आपने न जाने क्या-क्या कष्ट उठाकर हमको पढ़ाया होगा। जिन्दगी में आपने यह कभी कहा? आप तो यही कहते रहे कि आपने तो हमको मैट्रिक तक पढ़ा करके बंद कर दिया, फिर आगे पढ़ाया ही नहीं। यह तो नहीं कहा कि कभी आपने रोटी नहीं खिलाई। नहीं साहब! यह कैसे कह सकते हैं। जीभ है आपकी या छुरी है। कहावत है-‘‘मुख में राम बगल में छुरी’’। यहाँ तो बगल में आपके छुरी नहीं है, पर मुँह में है। मुख में राम, यहाँ तक तो ठीक है, पर बगल में छुरी वाली बात है। बगल का अर्थ यह हो सकता है कि आपके जबान का जो हिस्सा है, उसे बगल कह सकते हैं, तो बात बन जाती है। उसके अन्दर छुरी है। उस छुरी को ठीक कीजिये। आपकी जीभ रूपी यह छुरी दूसरों को दुखी करने के अलावा, दूसरों को डराने के अलावा, दूसरों को नुकसान पहुँचाने के अलावा, दूसरों में खीज़ पैदा करने के अलावा किसी काम न आ सकी। आप जीभ से मिठास बाँटना शुरू कीजिए। अगर आप ऐसा कर के तो आपकी जिह्वा होशियार बनेगी। यह ऐसी होशियार बनेगी कि आपकी जिह्वा से निकले हुए जो शब्द हैं, वे वरदान बनेंगे, आशीर्वाद बनेंगे। फिर आपकी जिह्वा से निकला हुआ राम का नाम सार्थक होता हुआ चला जायेगा। आपके मुँह से निकला हुआ राम का नाम उड़कर लेसर किरणों की तरह से उड़कर वहाँ जा पहुँचेगा, जहाँ कहीं भी रामनाम का उच्चारण हो रहा होगा।
लेसर के समान बलशाली है वाणी
मित्रो! आपको मालूम नहीं है कि स्वर भी उड़कर जा सकता है। हमारी जिह्वा से निकली वाणी लेसर किरणों से भी अधिक शक्तिशाली हो सकती है। चन्द्रमा की वजह से लेसर किरणें पैदा होती हैं। चन्द्रमा का क्या हो सकता है? चन्द्रमा का यह हो सकता है कि जिस तरह से बृहस्पति ग्रह के इर्द-गिर्द एक ग्रह का चूरा घूमता रहता है। यह कोई छोटा-सा ग्रह रहा होगा और चक्र में फँस गया। नौ के बजाय दसवें ग्रह के किसी चक्कर में आ गया होगा। तब से यह चूरा ऐसे ही पड़ा हुआ है। बृहस्पति ग्रह से लेकर के बहुत बड़ी पट्टी में बराबर घूमता रहता है और इसी में से कोई कण कभी-कभी पृथ्वी के ऊपर आ जाते हैं। आपने कभी रात को आकाश में भागता हुआ तारा देखा होगा। यह तारा नहीं होता। यह उल्का पिण्ड होता है जो भटकते हुए पृथ्वी के आकर्षण और पृथ्वी के हवा के दायरे में आ जाता है और जलने लगता है। जलने से मालूम पड़ता है कि तारा टूट गया। वस्तुतः वह तारा नहीं उल्का होती है। इसे चन्द्रमा पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
गुरुजी! आप यह कौन सी बात कह रहे हैं? मित्रो! यह लेसर किरणों की बात कह रहे हैं। लेसर किरणें तो वैज्ञानिक होती हैं, पर हमारी वाणी जो है, वह लेसर किरणों का मुकाबला कर सकती है। लेसर किरणों के हिसाब से इस वाणी की सामर्थ्य बहुत अधिक है। एक दिन में आपसे शाप और वरदान की बात कह रहा था। मैं यह कह रहा था कि अगर हमारी वाणी सही हो, तो अगर हमारी जिह्वा सही हो, तो न केवल भगवान का नाम, राम का नाम सार्थक हो सकता है। अगर हमारी जिह्वा सही हो, तो इस वाणी से न केवल हमारे मंत्र सिद्ध हो सकते हैं; वरन् चमत्कारी और सफल भी हो सकते हैं। इस वाणी का परिशोधन-परिष्कार संयम से होता है। वैसे भी आपने देखा होगा कि हिम्मत दे करके आदमी दूसरों से क्या से क्या करा लेते हैं। हिम्मत की बात नहीं कहता हूँ, मैं तो यह कहता हूँ कि इस वाणी से आप किसी को आशीर्वाद दे करके उसे निहाल कर सकते हैं। वाणी का आशीर्वाद काम का हो सकता है? हाँ बेटे! वाणी का दिया हुआ आशीर्वाद काम का हो सकता है। वाणी से दिया हुआ शाप भी काम का हो सकता है। वाणी में नुकसान करने की बहुत शक्ति होती है और वाणी में फायदा पहुँचाने की भी बहुत बड़ी शक्ति होती है। हो सकती है? हाँ हो सकती है। यह संभव है? हाँ, यह संभव है। कब संभव है? यह तब संभव है जब आप वाणी का संयम प्रारंभ करेंगे।
मित्रो! वाणी के तप के बारे में मैंने आपसे कहा था कि वाणी का तप अगर आपके लिए संभव हो सके तो करना। इसके बारे में आप गंभीर हों, इसके बारे में आप जिम्मेदार हों और जीभ पर नियंत्रण करें। आपकी जीभ चौबीस घंटे कतरनी की तरह चलती रहती है, जिससे आपको विचार करने का मौका ही नहीं मिलता। ध्यान करने, उपासना करने का मतलब यह है कि आदमी कुछ दिनों के लिए भौतिक जीवन से विरक्त हो जाय और यह मानकर चले कि इस जीवन से हमारा कोई ताल्लुक नहीं है। भजन करने से आपका क्या मतलब है? भजन करने से मतलब यह है कि यहाँ से हमारा अंतर्मुखी जीवन प्रारंभ होता है।
आत्मकल्याण के चिंतन का नाम है उपासना
अब तक हमारा जीवन बहिर्मुखी रहा है। हमारा सारा का सारा जीवन बहिर्मुखी है। आप उपासना में आधा घंटे लगाते हैं। इसका मतलब है कि आंतरिक समस्याओं पर विचार करना। आत्मा की समस्या पर विचार कीजिये। आप आत्मकल्याण के ऊपर विचार कीजिये। आत्मा की स्थिति के ऊपर विचार कीजिए। आत्मा का परमात्मा से रिश्ता क्या हो सकता है, इस पर विचार कीजिये? आधे घंटे की उपासना का मतलब यही है।
मित्रो! आप साढ़े तेरह घंटे इसी में लगाये रहते हैं कि बेटा हो जाय। अरे भाई! साढ़े तेरह घंटे लक्ष्मी जी की उपासना कर ले, लेकिन आधा घंटे जो भजन के लिए निकाला है, उसमें से तो कम से कम राम का नाम ले। नहीं साहब! आपकी दवाई फायदा नहीं कर रही है और आपकी दवा से हम अच्छे नहीं हो रहे हैं। तीन दिन हो गये। हकीम जब ज्यादा परेशान हो जाता है तो कहता है कि अच्छा लीजिये हम दूसरी दवाई दे देते हैं। क्या हुआ? उसने दवाई बदल दी। यह कौन सी दवाई दे दी? भाई साहब! कुछ नहीं है। यह दूसरी कम्पनी की उसी फार्म्यूले की बनी हुई दवा है। किसी ने यह नाम धर लिया, किसी ने दूसरा नाम धर लिया। उस मरीज को यह दवा कारगर होगी? नहीं, यह कारगर नहीं हो सकती, क्योंकि यह कहना मानता नहीं है। इसको चैन नहीं पड़ता, इसलिए हमने इसको दूसरी कम्पनी की दवा दी, ताकि यह अच्छा हो जाय। नहीं साहब! लक्ष्मी जी की उपासना बताइये। क्यों बतायें लक्ष्मी जी की उपासना? लक्ष्मी जी का मंत्र बताइये? क्यों बतायें लक्ष्मी जी का मंत्र? बेटे एक ही मंत्र है। नहीं साहब! मिठाई खाने का चम्मच अलग लाइये, खीर खाने का चम्मच अलग लाइये। दाल खाने का चम्मच अलग लाइये और चावल खाने का चम्मच अलग लाइये। कितने चम्मच चाहिए? ग्यारह कटोरी हैं, अतः ग्यारह चम्मच लाइये। बेटे, एक से भी काम चल सकता है।
मित्रो! एक गायत्री मंत्र से भी काम हो सकता है। नहीं साहब! तरह-तरह की मिठाई चाहिए। बेटे, तू मानता नहीं है, प्राण खाये जाता है। सदा अक्षरों के चमत्कार की बात सोचता रहता है। इसीलिए लोग तुझे अक्षरों के लिए बहलाते हैं कि यह अक्षर करेगा तो यह फायदा होगा, अमुक अक्षर करेगा तो अमुक फायदा होगा। मानता नहीं है। बालक नहीं मानते हैं, तो उनको समझाने के लिए चमत्कार की बात कह देते हैं। फिर से हम आपको बताना चाहते हैं कि आपको अपने जीवन में चमत्कार लाने के लिए अपनी वाणी का संयम करना पड़ेगा। इसके लिए आपको मौन का अभ्यास करना पड़ेगा। गाँधी जी सप्ताह में एक दिन मौन रखते थे। व्यस्त आदमी थे। मैं नहीं जानता कि उनसे ज्यादा व्यस्त आदमी दुनिया में कोई और होगा। सप्ताह में एक दिन आप मौन रखिये। यह क्या है? यह बेटे, वाणी का तप है। वाणी का तप खाने में संयम बरतने को ही नहीं कहते, कम बोलने को ही नहीं कहते, वरन विराम देने को कहते हैं।
मित्रो! मैं आपसे कह रहा था कि उपासना का अर्थ है कि हम थोड़े दिन के लिए अपनी वाणी पर नियंत्रण करें। हमारी वाणी जो वाहियात वचन बोलती रहती है, सांसारिक वचन बोलती रहती है, उस सांसारिक वचन बोलने से वाणी पर थोड़ी देर के लिए रोक लगायें और आंतरिक वचन बोलना शुरू कर दें। आंतरिक वाणी बोलना शुरू कर दें, ताकि उसका आध्यात्मिक उपचार होना शुरू हो जाय। अभी तो वह बहिर्मुखी धारा प्रवाह में बहती चली जा रही है। सारे के सारे वचन, वार्तालाप—यह करना है, वह करना है, केवल यही रहता है। इसलिए वाणी को थोड़ा विराम भी देना चाहिए, विश्राम भी देना चाहिए। यह क्या है? आपसे मैं यह वाणी के तप की बात कह रहा था। इसमें न केवल खाद्य पदार्थों में जायके की कमी एवं सात्विक आहार तक, न केवल दूसरों से वार्तालाप करते समय में शालीनता का ध्यान रखना, सज्जनता का ध्यान रखना, सेवा का ध्यान रखना-दो। केवल यही दो बातें सम्मिलित नहीं हैं, वरन् इसमें एक और बात सम्मिलित हो जाती है और वह है वाणी का विश्राम। बोलने में वाणी की कितनी शक्ति खर्च हो जाती है, आपको मालूम है? नहीं बोलने में कितनी शक्ति खर्च होती है, यह आपको पता ही नहीं है।
मित्रो! आपने देखा होगा कि मरते समय आदमी में क्या परिवर्तन होता है? मरते समय में आँखें भी काम करती हैं, हाथ-पैर भी काम करते हैं, पर वाणी का चलना बंद हो जाता है। क्यों साहब! जीभ में क्या आफत है? जीभ तो मुँह में जरा सी है, हिला दीजिए ना। नहीं साहब! हमारी जीभ नहीं चलती। हाथ भी चल रहा है, पैर भी चला सकते हैं, गर्दन भी घुमा सकते हैं, आँखें भी चल रही हैं, होंठ भी चल रहे हैं, आँख में से आँसू भी आ रहे हैं, परन्तु मरते समय आवाज नहीं निकलती। क्या बात है? आपको मालूम नहीं है कि हमारे कितने सूक्ष्म तंत्रों को मिलाकर तब आवाज निकलती है। यह वोकल-साउण्ड साधारण चीज नहीं है। साउण्ड बड़ी कठिन चीज है। सूक्ष्म तंत्रों को मिला करके, हजारों चीजों को मिला करके, लाखों नाड़ियों को मिला करके हमार स्वर निकलता है। शब्द के उच्चारण में सारी की सारी शक्तियों से इसकी खुराक चाहिए। इसीलिए मैं यह कह रहा था कि शब्द का उच्चारण भी अपने आप में सामर्थ्यवान चीज है। शब्द के उच्चारण करने की रोकथाम करना अर्थात् मौन रहना भी अध्यात्म का एक चिह्न है और यह वाणी का तप है।
मित्रो! सर्वसाधारण के लिए मौन रहने के लिए हमने अपने कुछ नियम बना दिये हैं उच्चस्तरीय उपासना के शिक्षण में एक नियम यह भी बना दिया है कि सप्ताह में एक दिन आप मौन व्रत रखिये। हमने गुरुवार को मौन उपासना का दिन बनाया है। लोगों से हम यही कहते हैं कि गुरुवार को उपासना के दिन में आप संयम से रहिए। उस दिन आप खान-पान का संयम कीजिए, उपवास कीजिए। गुरुवार के दिन आप ब्रह्मचर्य से रहिए। क्यों महाराज जी! एक ही दिन ब्रह्मचर्य से क्यों रहें? बेटे! एक दिन नहीं, वरन् हम आपको इशारा करते हैं कि आप अपनी शक्तियों का संकलन करें, संयम करें। आपकी टंकी में, आपकी मोटर में पेट्रोल होना आवश्यक है। पेट्रोल नहीं होगा, तब? तब आपकी गाड़ी चलेगी नहीं। आप क्या करते हैं? आपकी टंकी में छेद हो गया है। आपका सारा का सारा पेट्रोल नीचे टपक पड़ता है। आपका डीजल जो गाड़ी की टंकी में भरा पड़ा था, उसमें सुराख होने से सारा का सारा डीजल खत्म हो जायेगा। तब क्या होगा? आपका इंजन गरम हो जायेगा और आपकी गाड़ी जल जायेगी। क्यों? क्योंकि उसमें तेल खत्म हो गया है।
क्या है तप? क्या है तितिक्षा?
मित्रो! तेल से मेरा क्या मतलब है, आप समझते नहीं हैं। इससे मेरा मतलब है कि आपका जो दीपक जलने वाला है, प्रकाश होने वाला है, वह किससे होने वाला है—‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ से। नहीं साहब! प्रकाश दिखाइये? हमको तो दिखाई पड़ता है, पर आपको दिखाई नहीं पड़ता। क्यों दिखाई नहीं पड़ता? आपके भीतर हम दियासलाई जलाते हैं, मगर उसमें तेल नहीं है। महाराज जी! हमारे अंतःकरण में प्रकाश जला दीजिए, जिससे हम भीतर और बाहर प्रकाश कर सकें। अच्छा तो हम जला देंगे। इसके लिए ही तो हम मस्तिष्क के आज्ञाचक्र में आपको ध्यान कराते हैं, लेकिन जो प्रकाश हम जलाकर रखेंगे, वह टिकेगा नहीं। क्यों? क्योंकि आपके दीपक में तेल नहीं है। क्या करना पड़ेगा? आपको तेल का ध्यान रखना पड़ेगा। इसका आप ध्यान रखिये। अपना तपस्वी जीवन शुरू कीजिए। चमड़ी का तप नहीं, मानसिक तप कीजिए। चमड़ी के तप को ‘तितीक्षा’ कहते हैं और जानबूझकर मानसिक कष्ट और मानसिक कठिनाइयाँ जो वरण की जाती हैं, उनका नाम ‘तप’ है। मैंने आपको वाणी के तप के बारे में कहा है कि आपको सप्ताह में दो घंटे का मौन रहना चाहिए। आंतरिक मौन ही वाणी का वास्तविक तप है।
मित्रो! इस वर्ष हमने जितनी भी उपासनाएँ बतायी हैं, उसमें हर साधक से कहा है कि जो कोई भी उच्चस्तरीय साधना करना चाहता है, सप्ताह में एक दिन दो घंटे का मौन रखे। यहाँ भी हम आपको मौन कराते हैं। नहीं साहब! हम मौन तो करते हैं, लेकिन थोड़ी सी एक बात और करते हैं। क्या करते हैं? स्लेट-पेन्सिल लिए फिरते हैं। हमने यह कहा था कि अपनी वृत्तियों को केन्द्रित कीजिए। आपने तो वाणी से काम करना बंद कर दिया, लेकिन स्लेट-पेन्सिल लेकर दुनिया भर में अपने मौन का विज्ञापन करते फिर रहे हैं। नहीं साहब! फिर लोगों को कैसे मालूम पड़ेगा कि हमने मौन किया है। मौन का विज्ञापन करता फिर रहा है।
हाँ महाराज जी! मैं तो इसीलिए इशारा कर रहा था। दुनिया भर के ढोंग बनाये फिरता है कि मैंने मौन किया है। कोई ऐसे मौन होता है? साहब! उपवास करते हैं। क्या उपवास करता है? नहीं साहब! कुछ रबड़ी खाता हूँ, कुछ पकौड़ी खाता हूँ, कुछ जलेबी खाता हूँ। क्या-क्या खाता है? कुछ और रह गया हो, तो उसे भी खा जा। इसका मतलब यह हुआ कि जिस दिन उपवास रखता है, उस दिन जो कोई भी चीज जीवन में खाने से बच जाती है, सब उसी दिन खाता है। क्या उपवास इसी को कहते हैं? नहीं, इसे नहीं कहते हैं।
विज्ञापन वाली आध्यात्मिकता छोड़िए
मित्रो! विज्ञापन वाली इस आध्यात्मिकता को छोड़ दीजिए। वाणी के तप के बारे में आपको मौन का भी अभ्यास करना पड़ेगा। यहाँ भी आपको मौन का अभ्यास करना चाहिए। क्यों? क्योंकि वाणी की शक्ति जब कम हो जाती है, तब आपको मालूम नहीं है, मनोबल कम हो जाता है। हमारी बैटरी डिस्चार्ज हो जाती है। आप यहाँ आइये, हम चार्ज कर देते हैं। हमें बहुत काम करना पड़ता है। हमारी बैटरी में से बहुत सारी ऊर्जा खर्च हो जाती है। जब जरूरत से ज्यादा खर्च हो जाती है, तब इच्छा होती है कि हिमालय चला जाऊँ। वहाँ मैं क्या काम करता हूँ? तप करता हूँ। कौन सा तप करता हूँ। कैसे करता हूँ? ऐसा खाद्य लेता हूँ जिसमें किसी व्यक्ति का संस्कार नहीं होता है। संस्कारविहीन भूमि में से संस्कारविहीन खाद्य, उसमें चाहे पत्तियाँ हों, चाहे घास हो, चाहे वह जड़ हो, खाता रहता हूँ। यह क्या है? जीभ का तप है।
नहीं महाराज जी! आप तो दोपहर को भी और शाम को भी एक कटोरी घी, एक कटोरी दही और एक कटोरी शाक ले लिया कीजिए। नहीं बेटे, यह खुराक ठीक नहीं है। इसमें न जाने किस चीज का संस्कार है। न जाने किस संस्कार वाले ने बनाया है। यह जो शाक बनायी गयी है, न जाने किस खेत में उगाई गयी है। अन्न जो आपने खाया है, न जाने किस किसान की, किस भूमि में और किस पानी में बोया गया है। इसलिए संस्कारवान नहीं है।
पूज्य गुरुदेव का जीभ का तप
इसलिए मित्रो! अपनी जिह्वा को तपस्विनी बनाने के लिए मैं क्या करता रहता हूँ? संस्कारविहीन खाद्यों को ही ग्रहण करता हूँ। यह क्या है? जीभ का तप है। हमको जीभ का तप क्यों करना पड़ता है? क्योंकि हमको काम करना पड़ता है, वचन बोलने पड़ते हैं। प्रवचन देने पड़ते हैं, आशीर्वाद देने पड़ते हैं। इसलिए इस यंत्र को इतना पैना और तीखा होना चाहिए कि जहाँ भी इस हथियार का इस्तेमाल किया जाय, वह पार करता हुआ निकल जाय और क्या करना पड़ेगा? मौन करना पड़ेगा। मौन कैसे करते हैं?
बेटे! हमें एक साल तक मौनी रहना पड़ता है। बातचीत करें तो किससे करें? अकेले ही बात कीजिये। जब मन आता है, तो अकेले भी कर लेते हैं। कोई श्लोक याद आ गया, उसे बोल लिया, कोई मंत्र याद आ गया, बोल लिया। सांसारिक व्यवहार नहीं करता। सांसारिक व्यवहार को रोक देने का नाम है—मौन। हमको मौन रहना पड़ता है। शक्तियों का संग्रह करके वाणी का तप करते हैं। इसमें किसी की निन्दा करने की भी गुंजायश नहीं है। किससे बात करेंगे? किसकी निन्दा करेंगे? किस पर गुस्सा करेंगे? वाणी से खराब शब्द कैसे बोलेंगे?
मित्रो! हमारे ये तीनों तरह के मौन चलते रहते हैं। कौन-कौन से? खानेवाला, बोलने वाला, वाणी को चुप रखने वाला—ये तीनों ही मौन होते रहते हैं। हम यहाँ भी यही करते रहते हैं। हमारी दुकान थोड़े समय तक खुलती है। आप लोगों को समय की बहुत व्यस्तता है, इसलिए हम सबेरे खोल देते हैं। आपको मालूम नहीं है, हम एक बजे से खोलते हैं और शाम को ६ बजे बंद कर देते हैं। आजकल छः घंटे खोलते हैं। आजकल तो बेटे हमारे शिविर चल रहे हैं आप सब लोग आये हुए हैं। अतः यह भी नहीं बनता कि हमने आपको बुलाया है और आपसे यह कहें कि हमको टाइम नहीं है, हम आपसे बात नहीं कर सकते यह बुरी बात है। इस समय हम विशेष रूप से सबेरे भी बात करते हैं। एक से छः बजे तक हमारी दुकान खुलती है और बाद में बंद हो जाती है। बाकी समय में क्या करते हैं? हम मौन रहते हैं। प्रातः भी मौन रहते हैं और रात को भी मौन रहते हैं।
मित्रो! मैं आपसे क्या कह रहा था? यह बात कह रहा था कि आप वाणी का तप प्रारंभ कीजिए। वाणी के तप के बाद में दूसरी चीजें प्रारंभ होती हैं। क्या प्रारंभ होती हैं? ये हैं इन्द्रियों का तप। वाणी के बाद में दूसरे नम्बर की इन्द्रिय का नाम है—कामेन्द्रिय। इन्द्रियाँ दस हैं, पर इनमें दो प्रमुख हैं। बाकी इन्द्रियाँ तो ऐसे ही बेकार की हैं। कौन-कौन सी बेकार की हैं? नाक है। नाक क्या संयम करेगी? कान का संयम? कुछ भी नहीं है। गाना-वाना सुन लिया, तो बात अलग है। दिमाग की खुराफात है। कान बेचारे का कोई दोष नहीं है।
तप, इन्द्रियनिग्रह को कहते हैं। इन्द्रियनिग्रह के बारे में एक के लिए मैंने इतनी व्याख्या कर दी है कि बाकी इन्द्रियों के बारे में ज्यादा तो नहीं कह सकता। उसमें एक ही बात कह सकता हूँ कि आपको जो सारी की सारी उपासना करनी पड़ती है, वह ब्रह्मलोक में करनी पड़ती है। कल हम आपको खेचरी मुद्रा करा रहे थे। सारे के सारे स्वर्गलोक का, सिद्धिलोक का वर्णन इस ब्रह्माण्ड के भीतर कर रहे थे। ब्रह्माण्ड क्या है? बेटे, यही है ब्रह्मलोक, जिसे हम सहस्रार चक्र कहते हैं। इसी में क्षीरसागर है। इसी में कैलाश पर्वत है। इसी में शेषशायी विष्णु सो रहे हैं। इसी में हजार फन वाला साँप है। क्षीरसागर के भीतर ऐसी लिबलिबी चीज भरी हुई है, जिसे अंग्रेजी में ‘सिनोबियल फ्लूड’ कहते हैं और साइंस के जुलॉजी के हिसाब से इसका नाम ‘ग्रे मैटर’ रखा है। यही क्षीरसागर है।
मनोमय कोष का विज्ञान
महाराज जी! क्षीरसागर तो बहुत दूर है। बेटे, कहीं भी नहीं है। क्षीरसागर हमारे भीतर है। महाराज जी! विष्णु भगवान तो शेषशय्या पर सोये हुए हैं। हाँ बेटे, पर वह शेषशैय्या कैसी है? हजार फनवाली है। हजार फन वाला क्या है? सहस्रार चक्र है। एनाटॉमी के हिसाब से भी यह साबित होता है और आध्यात्मिक सिद्धान्त से भी सिद्ध होता है। जिसको हम मनोमय कोष कहते हैं, वही सहस्रार चक्र है। कहाँ है? हमारे भीतर है। खेचरी मुद्रा में हमने जो अमृत कलश बताया था, वह उसी के भीतर है। ब्रह्मलोक उसी के भीतर है। हमारी सारी की सारी मशीन जो काम करती है, उसमें एक तो सांसारिक काम है। जब यह सांसारिक काम करती है, तो उसका नाम होता है—‘ब्रेन’ या दिमाग।
ब्रेन हमारा कौन सा काम करता है? हिसाब करने में, व्यापार करने में जब यह मशीन काम करती है, तो हमारा मस्तिष्क ‘ब्रेन’ कहलाता है और जब यह आध्यात्मिक काम में काम आता है, तब इसका नाम ब्रह्मलोक हो जाता है, ब्रह्मरंध्र हो जाता है। सारी की सारी गतिविधियाँ, सारी खेती इसी में होती है। ध्यान इसी में होता है, जप इसी में होता है, कुण्डलिनी जागरण इसी में होता है, ब्रह्म साक्षात्कार इसी में होता है, भगवान के दर्शन इसी में होते हैं, ज्योति का दर्शन इसी में होता है, आज्ञाचक्र इसी में से जाग्रत होता है, प्रकाश इसी में से आता है—सब इसी में से आता है।
मित्रो! इसके लिए क्या करना चाहिए? बेटे, इसके लिए खुराक चाहिए। अगर आपके दिमाग को खुराक नहीं मिलेगी, तो दिमाग में चक्कर आने लगेंगे और दूसरी शिकायतें पैदा हो जायेंगी। ब्रह्मलोक को भी खुराक चाहिए? हाँ बेटे! ब्रह्मलोक को भी खुराक चाहिए। खुराक कहाँ से मिलती है? उसी की बात मैं कह रहा था। दीपक की लौ जो ऊपर जलती है, उसके लिए दीपक में तेल भरना पड़ता है। आप क्या करते हैं? आपने तो ऐसा विलक्षण काम कर रखा है, जिससे आध्यात्मिक उन्नति संभव ही नहीं है। आध्यात्मिक उन्नति के बारे में मतिभ्रम पैदा हो जाता है।
इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि नीचे वाले कमरे में रहने वाले किरायेदार ने नल खोल रखा है और ऊपर वाला किरायेदार चिल्लाता रहता है कि देखिये भाई साहब! अपना नल बंद कीजिए, तब ऊपर पानी चढ़ेगा और तब हमारा काम होगा। नल बंद कर दिया और तब ऊपर पानी जाने लगा। नीचे वाले किरायेदार से मेरा मतलब आप समझ गये होंगे। हम नीचे से नल खोल देते हैं और ऊपर वाला सूख जाता है। ऊपर वाला चिल्लाता रहता है कि हम मरे जाते हैं। हमारा ब्रह्मलोक चिल्लाता है कि हमको पानी नहीं मिलता और देखिए हम नहाये बिना बैठे हैं और देखिए हमारी लालटेन में मिट्टी का तेल नहीं है और हम अँधेरे में बैठे हुए हैं। अब हमारे लिए तेल लाइये।
आध्यात्मिक सामर्थ्य का रहस्य
मित्रो! आपसे मैं यह कह रहा था कि आध्यात्मिक जीवन में आध्यात्मिक सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए जिस पेट्रोल की जरूरत है, जिस सामर्थ्य की जरूरत है, जिस शक्ति की जरूरत है, वह कहाँ से आती है? मैं कल आपको दूसरी बात कह रहा था। अन्न की बात कह रहा था कि अन्न से हमारा शरीर चलता है। अन्न से हमारा ब्रेन चलता है, मन चलता है। कौन-सा मन? जो संसार के कामों में आता है, जो भागता रहता है। एक मन हमारे भीतर और है और उसका नाम है—‘प्रज्ञा’।
प्रज्ञा किससे जाग्रत होती है? जो अध्यात्म के काम आती है, जो कि गायत्री का स्वरूप है। वह कहाँ से आती है? वह बेटा वहाँ से आती है, जहाँ अन्न से मन और मन के बाद में एक और तत्त्व है, जिसका नाम है—‘ओजस्’। इसको तेजोवलय भी कहते हैं। आपने कभी देवी-देवताओं के चेहरे पर प्रकाश छाया हुआ देखा होगा। उनके चेहरे पर एक गोल सा चमकदार घेरा बना रहता है। यह क्या है? यह आदमी के भीतर का तेजोवलय है, जिसे आदमी की इलेक्ट्रिसिटी कहते हैं। पर्सनल मैगनेट कहते हैं। यह वह मैगनेट है, जो ऋषियों के शरीर में से निकलता था। उनके चारों ओर आभा के समान छाया रहता था। शेर और गाय एक घाट पर पानी पीते थे। यह था उनका तेजस्। खबरदार, अगर तूने हमारा किया, तो हम तुझे तोड़कर फेंक देंगे। शेर आता तो था, पर चुपचाप बैठा रहता था। वह गाय को नहीं मार सकता था। यह था—तेजोवलय।
मित्रो! तेजोवलय क्या है? यह इलेक्ट्रिसिटी है। कैसी इलेक्ट्रिसिटी है? आध्यात्मिक इलेक्ट्रिसिटी है, जिसको हम ओजस् कहते हैं। जिसको हम वर्चस् कह सकते हैं। यह कहाँ से आता है? जब तक हम अपने पानी को रोकना शुरू नहीं कर देते। स्थूल रूप से पानी रोकने से मेरा मतलब नहीं है। स्थूल भी रोकना आवश्यक है, क्योंकि आपकी सेहत के लिए यह आवश्यक है। दुनिया में कोई भी पहलवान ऐसा नहीं हुआ, जिसने ब्रह्मचर्य की उपेक्षा की हो और दुराचारी जीवन जिया हो। ऐसा हो नहीं सकता। नहीं साहब! हम तो दुराचारी जीवन जियेंगे और पहलवान बनेंगे। नहीं बेटे, ऐसा नहीं हो सकता कि कोई दुराचारी पहलवान बन गया हो। आपको अगर शारीरिक दृष्टि से पहलवान बनना है, तो आपको ब्रह्मचर्य का पालन करना होगा। ब्रह्मचर्य से रहना ही होगा। मैं सांसारिक वस्तु की बात नहीं कह रहा हूँ। मैं तो यह कह रहा हूँ कि आध्यात्मिक सामर्थ्य संपादित करने के लिए, आध्यात्मिक सामर्थ्य का भंडार अपने भीतर जमा करने के लिए यह आवश्यक है कि आपके भीतर से मानसिक ब्रह्मचर्य बना रहे।
मानसिक ब्रह्मचर्य की ताकत
मित्रो! मैं मानसिक ब्रह्मचर्य की बात कह रहा था, मानसिक ब्रह्मचर्य पर जोर दे रहा था। मानसिक ब्रह्मचर्य किसे कहते हैं? बेटे! मानसिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं, जब नारी, नर के बारे में और नर, नारी के बारे में अच्छे विचार करते हैं। सौंदर्य का कोई दोष नहीं है। वह तो ‘‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’’ है। सौंदर्य एक वस्तु है, जिसको हम देख सकते हैं। सौंदर्य किसी का हो—नर या नारी, दोनों में से किसी का सौंदर्य हो, उसमें शालीनता, सज्जनता और पवित्रता मिली रहनी चाहिए। अगर आपकी आँखें नारी को इस रूप में देखने में समर्थ हैं, तो मैं आपको ब्रह्मचारी कहूँगा। आपके बच्चे भी हो सकते हैं, हो सकते हैं, लेकिन वह आपकी धर्मपत्नी के होने चाहिए, रमणी के नहीं। कामिनी के बच्चे नहीं होने चाहिए। गुरुजी! कामिनी से, रमणी से क्या फर्क पड़ता है? बेटे, जमीन-आसमान का फर्क पड़ता है। तो क्या नारी से अलग रहें? नहीं, मैं अलग रहने का हिमायती नहीं हूँ। कुटुम्ब में आप अलग नहीं रह सकते। माँ से अलग रहिए? बेटे, माँ से मैं अलग कैसे रहूँ। उसने मुझे अपने पेट में पैदा किया। छाती से लगा करके रखा और कई वर्षों तक उसकी गोद में खेला। माँ को मैं कैसे अलग कर दूँ?
नहीं साहब! बेटी से अलग रहिए। बेटी से मैं कैसे अलग रहूँ? छोटी थी जब पैदा हुई थी और उसे हम गोदी लिए फिरते थे। पापा हमको ये दिखा के लाओ, वो दिखा के लाओ। भला मैं इसे कैसे फेंक दूँ? नहीं साहब! अपनी बहन को अलग रखिए? बेटे, मैं कैसे अलग रखूँ? जब राखी बाँधने आती है, तब मैं कैसे कहूँ कि रहने दे। घर से जब वह विदा होती है और अपने भाई से छाती भरकर लिपटकर रोती है, तब बेटे, मैं कैसे धकेल दूँ उसको। नहीं धकेल सकता।
धर्मशास्त्रों में नारी की निंदा की गई है, कई बड़े कुलबुलाते शब्द कहे गए हैं, जैसे एक में कहा गया है—चुड़ैल आदि शब्द कहे गए हैं। क्या नारी ऐसी होती है? नहीं ऐसी नहीं होती। वह कौन-सी नारी होती है, जिसे हम कामिनी, डाकिनी, रमणी आदि कहते हैं। बेटे यह हमारे विचारों में होती है, हमारी नजरों में होती है, कलुषित भावनाओं में होती है। जब कभी भी आप नारी को कामिनी की दृष्टि से देखते हैं, रमणी की दृष्टि से देखते हैं, तो आप ध्यान रखना कि यह आपके लिए पिशाचिन है, आपके लिए डाकिन है और यह आपका सारा का सारा वर्चस् और तेजस् नष्ट करके रहेगी।
तो महाराज जी! फिर ब्याह? हाँ बेटे! ब्याह तो करना चाहिए लेकिन ब्याह किससे किया जाता है? इसका नाम है—धर्मपत्नी। ब्याह रमणी से नहीं किया जाता। अगर आपने किसी रमणी से ब्याह किया है, कामिनी से ब्याह किया है, अगर आपने शक्ल के लिए, सौंदर्य के लिए, वासना के लिए ब्याह किया है, तो आपने केवल वेश्यावृत्ति को अपनाया है। हमारे भारतीय समाज में जो विवाह किए जाते हैं और विवाह करने के बाद में घर में जो नारी आती है, उसका नाम हो जाता है—धर्मपत्नी। वह धर्मपत्नी कहलाती है।
धर्मपत्नी कौन होती है? धर्मपत्नी ऐसी होती है, जो हमारे साथ-साथ काम करती है। जिस तरीके से नाव चलाने के लिए मल्लाह अपने दोनों हाथों से चप्पू लेकर काम करता है—उसी तरीके से गृहस्थ जीवन और सामाजिक जीवन को साथ-साथ चलाने के लिए एक सहधर्मिणी, एक सहयोगिनी, एक धर्मपत्नी होना आवश्यक है। यह शब्द उस नारी के लिए है, जो हमारे साथ-साथ दो भाइयों के तरीके से चलती है। जैसे राम और लक्ष्मण दो आदमी थे और वनवास में साथ चलते थे। गृहस्थ जीवन में नर और नारी को, पति और पत्नी को इस तरीके से चलना चाहिए जैसे मानो दो सगे भाई हों। काम वासना के लिए स्थान नहीं है? काम वासना के लिए स्थान हो सकता है।
यहाँ मित्रो! हमारे यहाँ सोलह संस्कारों में से एक गर्भाधान संस्कार है। इसका मतलब यह है कि पति-पत्नी दोनों मिलकर भगवान से प्रार्थना करते हैं, गुरुजनों से प्रार्थना करते हैं, देवी-देवताओं से—सभी से प्रार्थना करते हैं कि हमारा मन है कि हमारी एक संतान होनी चाहिए। संतान पैदा करने का उद्देश्य समाज के प्रति कर्तव्यों का पालन करना है। अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए गर्भाधान संस्कार भी हो सकता है। पेट की भूख को पूरा करने के लिए हम दो रोटी खाते तो हैं, पर उससे हमको जीभ का जायका मिल जाय, तब तो नफे की बात है। कामवासना में कुछ मिल जाता है? मिल भी जाता होगा, पर मूल उद्देश्य वह नहीं है। फिर क्या हो सकता है? आप ब्रह्मचारी हो सकते हैं? गृहस्थ होते हुए भी आप ब्रह्मचारी हो सकते हैं।
दूसरा पक्ष यह भी है कि आप गृहस्थ होते हुए भी दुराचारी हो सकते हैं। आध्यात्मिक ब्रह्मचर्य वही है, जो उपासना के लिए आपको प्रार्थना करवाता है। उपासना में ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है। अगर आपका ब्रह्मचर्य शारीरिक हो, तो अच्छी बात है। शारीरिक हो चाहे न हो, मैं उस पर ज्यादा जोर नहीं देता। मैं इस बात पर जोर देता हूँ कि आपका मानसिक ब्रह्मचर्य अक्षुण्ण बना रहना चाहिए।
देखने का तरीका बदलें
मित्रो! आपके देखने का तरीका, सोचने का तरीका, आपकी इंद्रियाँ जो वास्तविक दुराचारिणी हैं, वह है—आपकी आँख। सूरदास ने अपनी आँखों को फोड़ लिया था। मैं चाहता हूँ कि आप भी अपनी आँखों को फोड़ लें। महाराज जी! फिर हमको दिखाई कैसे पड़ेगा? नहीं बेटे! दिखाई देने वाली आँख अलग है। वह चमड़े वाली आँख है, लेकिन जो आँख फोड़ी जानी चाहिए, उसका नाम है—दृष्टिकोण, अपने चिंतन का तरीका। चिंतन का तरीका क्या है? जब आप किसी नारी को देखते हैं, तो उसको देखने के साथ-साथ में आपका शैतान भी उसको देखता रहता है। शैतान के तरीके से आप खत्म कीजिए और इस तरीके से देखना शुरू कीजिए कि यह हमारी बेटी है। हमारी बेटी बीस साल की है। यह कौन है? यह हमारी बहन है। हमारी बहन अट्ठाइस साल की है। अच्छा यह हमारी माँ है, जो आपसे बड़ी है।
मित्रो! मैं तो यही कहता हूँ कि आप इंद्रिय का तप—एक, और वाणी का तप—दो, आप यह दो तप कर लें तो बस काम पूरा हो गया। एक वाणी का तप और एक कामेन्द्रिय का तप—यह दो तप आप कर लें, तो आपके लिए काफी है। इसके लिए, हमने आपके मस्तिष्क को ब्रह्मचर्यमय बनाने के लिए गायत्री माता की मूर्ति नारी के रूप में बना दी है।
गायत्री माता क्या है? जरा देखकर के आइए। गायत्री माता के जितने भी फोटो हमने छापकर दिये हैं, जवान महिला के छापकर दिये हैं। नहीं साहब! बच्ची का बना दीजिए। नहीं बेटे, हम बच्ची का नहीं बनायेंगे तो आप बुड्ढी का बना दीजिए। बुड्ढी का भी नहीं बनायेंगे। गायत्री माता के जो फोटो हमने बनाए हैं, आप देख लीजिए। उनकी कितनी उम्र है? आपके मंदिर में जो गायत्री माता है, वह १८-१९ साल की है। हमारे मंदिर में भी १८-१९ साल की है। गायत्री तपोभूमि में भी १८-१९ साल की है। गुरुजी! आपने जो लाखों की संख्या में फोटो छापे हैं, वे सब कितनी उम्र की हैं? बेटे, यही कोई बीस एक साल की है। जवान महिला की फोटो है। आपने क्यों छापी है? हमने आपके मानसिक ब्रह्मचर्य के लिए छापी है। इसलिए एक छापी है कि जवान महिला को आप माँ कहिए। जवान महिला है, तो आप माँ कहिए।
नारी के प्रति पवित्र दृष्टि रखें
महाराज जी! किस तरीके से माँ कहें? माँ की मान्यता आप इस तरीके से लाइए जैसे कि स्वर्गलोक में उर्वशी अर्जुन के सामने आई थी। देवताओं ने देखा कि क्या अर्जुन को कीमती चीज दी जा सकती है या फिर घटिया आदमी, घटिया चीज लेकर के रहेगा। उन्होंने स्वर्ग की सबसे सुंदर महिला उर्वशी को उसके पास भेजा। वह अपना प्रस्ताव अपने ढंग से कहने लगी। उसने कहना शुरू कर दिया कि हमें आप जैसा बच्चा चाहिए। बच्चे से उसका मतलब कामसेवन से था।
अर्जुन ने उस महिला—उर्वशी के चरणों की धूल उठाकर अपने सिर-माथे से लगाया और कहा कि मैं आपका बच्चा हूँ। आप मुझे ही बच्चा मान लेंगी तो क्या हर्ज है? कामसेवन से मेरे जैसे बच्चा न हुआ तब? कोई लूला-लँगड़ा पैदा हो गया तब? और कोई चोर-उचक्का पैदा हो गया तब? तब आप मेरे जैसा बच्चा कहाँ से लायेंगी? इसलिए आज से मैं आपका बेटा हूँ। बस, यह उसकी दृष्टि थी। उस तप से प्रसन्न होकर के देवताओं ने उसे गाण्डीव धनुष उपहार में दिया था और अर्जुन महाभारत में विजय प्राप्त करने में समर्थ हो गया था।
मित्रो! माँ कहिए। किसको कहें? गायत्री माता को माँ कहिए। जवान औरत को माँ कहिए। इस तरह माँ कहिए, जैसे कि शिवाजी ने कहा था। शिवाजी के सामने एक खूबसूरत मुसलमान महिला लाई गयी। उन्होंने उसको बार-बार देखा। क्या देखते हैं? यह देखते हैं कि काश! इतनी खूबसूरत मेरी माँ होती तो मैं कितना सुंदर लगता। मेरी माँ कुरूप थी, इसलिए मैं भी कुरूप हूँ। मेरी माँ भी ऐसी खूबसूरत हो, जैसे कि यह महिला है, ताकि मैं भी सुंदर बनूँ। मैं भगवान से प्रार्थना करूँगा कि अगले जन्म में मेरी माँ ऐसी खूबसूरत हो, ताकि मैं भी इसके तरीके से पैदा होऊँ।
बेटे! मैं यह कह रहा था कि तप की शक्ति कहाँ से आती है? आप यह विचार कीजिए। आप अक्षर-अक्षर चिल्लाते हैं, मंत्र-मंत्र चिल्लाते हैं और कहते हैं कि यह मंत्र जपेंगे, यह अक्षर जपेंगे। जप करते हैं तो बहुत खुशी की बात है, लेकिन मैं यह कहता हूँ कि अक्षरों के जपने के साथ-साथ में, अक्षरों को दुहराने के साथ-साथ में, उसके पीछे, पेट्रोल कहाँ से आता है? यह भी देखिए। गाड़ी कहाँ से चलेगी? यह भी तो देखिए। हमारे पास बंदूक है। बंदूक तो है, पर चलेगी कहाँ से? निशाना तब लगेगा, जब बंदूक में गोली के साथ-साथ में जो शीशे की गोली है, उसमें बारूद भरा होगा। लगती तो गोली है, बारूद नहीं। बारूद तो वहीं जलकर खत्म हो जाता है, लेकिन वास्तव में फेंकने की जो ताकत है, वह बारूद में है। गोली चलाने की ताकत बारूद में है।
बारूद क्या है? बारूद बेटे, उस तपश्चर्या का नाम है जो हमारी वाणी के द्वारा, दिव्यशक्ति के द्वारा, मानसिक ब्रह्मचर्य के द्वारा, संयम के द्वारा उपार्जित होता है। कामसेवन के लिए मैं गंभीर नहीं हूँ। मैं इसके लिए गंभीर हूँ कि आपकी दृष्टिकोण में से कामुकता निकलनी चाहिए। अगर आप अपनी दृष्टि से कामुकता को नहीं निकाल सकते, तो आध्यात्मिकता के क्षेत्र में सफलता पाने के लिए, भगवान तक अपने को पहुँचाने के लिए, चमत्कार पाने के लिए, सिद्धियाँ पाने के लिए जिसकी आवश्यकता होती है, उससे आप छूँछे रह जायेंगे।
इसलिए आपको उच्चस्तरीय साधना करनी चाहिए और नियम अपनाने चाहिए। नियम वह है—जिसको हम तप कहते हैं। तप के माध्यम से अपनी शक्ति को बढ़ाइये। तप के साथ-साथ आगे बढ़िए। आप तपस्वी बनिये और सिद्धपुरुष होते चले जाइये। यही मंत्र हम आपको बताते हैं। आपके लिए चमत्कार दिखाने के लिए यह काफी है। यही गायत्री माता आपको शक्ति सम्पन्न और सिद्धपुरुष बनाने के लिए काफी है, अगर आप उसमें तपश्चर्या को शामिल कर लें, तब। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शांतिः॥