उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियों, भाइयो! एक पहलवान की हर जगह ख्याति हो गई। जगह- जगह उसे बुलाया जाने लगा। अखाड़े में जीत- जीत करके वह नाम कमाने लगा। अखबारों में उसके फोटो छपने लगे। लोगों की इच्छा हुई कि हमको भी पहलवान बनना चाहिए। वे पहलवान के पास गए और यह देखा कि पहलवान क्या किया करता है? उसे दंड पेलते हुए देखा और बैठक करते हुए देखा। यह देखकर कई आदमियों ने दंड पेलना और बैठक करना शुरू कर दिया, लेकिन दंड पेलने और बैठक करने के बहुत समय बीत जाने के पश्चात् भी कोई आदमी पहलवान नहीं बन सका, और न ही कोई आदमी इतनी ख्याति वाला बन सका जितना कि वो पहलवान था। वे फिर से उसके पास गए और कहा- '' दोस्त! सही- सही बताना कि जो हम करते हैं, क्या वही आप भी करते हैं या कोई और तरीके की दंड- बैठक करते हैं?" पहलवान ने उनको देखा, मुआइना किया और कहा- "जैसा आप करते हैं वैसा ही हम करते हैं, कोई फर्क नहीं है।" उन्होंने कहा कि फिर हम क्यों पहलवान नहीं बन सके और आप कैसे पहलवान बन गए?
मात्र कसरत नहीं, कुछ और विशेष
पहलवान ने कहा कि आपने जो चीज आँखों से देखी ली, उसे तो नकल कर लिया और जो आँखों से नहीं देखी, उसको नकल नहीं किया। वो क्या चीज थी, जो आँखों से नहीं देखी? उन्होंने कहा कि आपने हमारे आहार- विहार, संयम और ब्रह्मचर्य के बारे में गौर नहीं किया। हम अपने आहार- विहार के बारे में बहुत सावधान रहते हैं। सोने- जागने के बारे में हम बहुत ख्याल रखते हैं। ब्रह्मचर्य से रहते हैं। आप रहते हैं? नहीं साहब! ब्रह्मचर्य की कोई जरूरत नहीं है, हम तो कसरत करते हैं। हम अपने आहार पर नियन्त्रण करते हैं। और आप? उन्होंने कहा कि नियंत्रण से क्या फायदा? आहार- विहार की, ब्रह्मचर्य की जरूरत क्या है? आप भी दंड पेलते हैं, हम भी दंड पेलेंगे। पहलवान ने कहा कि आपका कहना गलत है। व्यायाम की अपनी जगह बड़ी आवश्यकता है और बड़ा महत्त्व है, लेकिन व्यायाम से सौ गुना, हजार गुना महत्त्व इस चीज का है कि आदमी का रहन- सहन और आहार- विहार किस तरह का है? आप रहन- सहन, आहार- विहार की उपेक्षा करेंगे और केवल आँख से जो कसरत दिखाई पड़ती है, उसी को सब कुछ मान लेंगे, फिर कैसे कायदा को सकता है? उसकी बात सही थी।
विधि से अध्यात्म नहीं समझ में आएगा
मित्रो! यही गलती हमारे आध्यात्मिक क्षेत्र में भी होती रहती है। लोग क्रियाकलापों को, कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मान लेते हैं। गुरु जी, आपने कुंडलिनी जगाने में कौन सा मंत्र जपा, कैसा प्राणायाम किया, कृपा करके उसका नियम बता दें। चक्रवेधन के लिए क्या- क्या किया? चलिए अभी बता देते हैं। तो गुरु जी! हमारा भी चक्रवेधन हो जाएगा? नहीं, आपका नहीं हो सकता। तो फिर आप विधि छिपा रहे होंगे? नहीं बेटे! विधि हम नहीं छिपाते हैं। विधि तो हम वही बताते है जो हमने की है, पर उस विधि को करने के पश्चात् भी आप कोई कायदा नहीं उठा सकते। आपकी मेहनत, आपका श्रम बेकार चला जाएगा और आपको निराशा होगी। आप मंत्र को गाली देंगे, विधि बताने वाले को गाली देंगे और विधान को गालियों देंगे। इसीलिए हम आपको नहीं बताते। तो महाराज जी केवल विधि से बात नहीं बन सकती? नहीं, विधि से वात नहीं बन सकती। तो क्या विधि बेकार है? मैं कब बेकार कहता हूँ।
परहेज, आहार- विहार का महत्त्व
बेटे! मैंने आपको कब कहा कि दवाखाना बेकार है। दवा बहुत जरूरी है, लेकिन दवा के साथ में परहेज करना और भी ज्यादा जरूरी है। परहेज न करें और हम दवा खाते रहें तब? तब दवा बेकार, दवा में पैसा खराब करना होगा। डाक्टर, वैद्य, आप और दवाएँ सब बेवकूफ सिद्ध होगे। अरे महाराज जी! दवाओं की अभी आप प्रशंसा कर रहे थे और अब गाली देते हैं, ये क्या बात हुई? बेटे! हम गाली इसलिए देंगे कि आहार- विहार पर आप कोई ध्यान नहीं देंगे, परहेज नहीं करेंगे, चाहे जैसे रहेंगे, चाहे जो खाएँगे और सोचेंगे कि दवा खा करके अच्छे हो जाएँगे। उससे आपको फायदा नहीं हो सकता और आपका पैसा भी खराब होने वाला है। जिस हकीम ने आपको यह बात बताई है कि केवल दवा खाइए और अच्छे हो जाइए तो मैं उस हकीम और मरीज दोनों को गलत कहता हूँ। दोनों को ही ये जानना और बताना, समझना और समझाना चाहिए कि जितनी कीमत दवा की है, उससे ज्यादा परहेज की है। परहेज कीजिए तो आप बिना दवा के भी अच्छे हो सकते हैं। नेचर आपके स्वास्थ्य को ठीक कर देगी, जैसे कि जंगलों के भील और दूसरे लोग अच्छे हो जाते हैं। अगर आप अच्छी से अच्छी, कीमती से कीमती दवा खाएँ और अपने आहार−विहार का उल्लंघन करते चले जाएँ तो सारी दवाएँ बेकार, निरर्थक होती हुई चली जाएँगी।
मित्रो! उपासना के, राम नाम के महत्त्व आकाश- पाताल के बराबर बता दिए गए हैं। ये ठीक हैं, लेकिन? लेकिन यह हम भूल जाते हैं। एक किसान की जमीन में बहुत सारी फसल होती है और दूसरे की में फसल नहीं होती। क्या वजह है साहब? वही चीज आपने बोया, वही हमने बोया। बीज और बोना तो समान रहा, लेकिन जमीन का तो जमीन- आसमान का फर्क रहा। आपने अपनी जमीन में न पानी लगाया, न खाद लगाई, न निराई- गुड़ाई की। बस, चीज बो दिया और अब आप कहते है कि आपके खेत में ज्यादा फसल हो गई और हमारी फसल क्यों नहीं पैदा हुई। बीज बोने की क्रिया जो आँख से दिखाई पड़ती है, उसे तो आप मान लेते हैं, पर जमीन को ठीक करने, नम रखने के लिए सिंचाई, निराई- गुड़ाई, खाद के लिए जो मेहनत की जाती रहीं है और सरंजाम जुटाए जाते रहे, वे आपने नहीं देखे। बीज बोया और फसल काटेंगे साहब। राम का नाम ले लिया और चमत्कार पाएँगे! मंत्र जप करेंगे चमत्कार पाएँगे! कुंडलिनी जाग्रत करेंगे और चमत्कार पाएँगे!
क्रिया के साथ भाव भी
क्रिया के आधार पर क्रियायोग। क्रिया अपने आप में महत्त्वपूर्ण है, लेकिन उसके साथ भावयोग का समन्वय भी ज्यादा आवश्यक है। आपके पास धनुष- बाण है। उससे आप शिकार खेल सकते हैं, लेकिन उसके लिए हाथ की कलाइयों में ताकत का होना भी जरूरी है। तलवार का महत्त्व हम क्योंकर कम आँकेंगे? आपकी तलवार कितनी ही कीमती क्यों न हो, लेकिन उसे पकड़ने के लिए हाथों में, कलाइयों में बल होना चाहिए। नहीं साहब! हमारी कलाइयों में तो दम नहीं है, बुखार में पड़े हुए हैं। आप तलवार दीजिए और हम डाकुओं से मुकाबला करेंगे। नहीं बेटे! डाकू तेरी तलवार छीन ले जाएँगे और तेरी कीमती तलवार भी जाएगी। तू मत जा, तेरा जाना बेकार है। तलवार घुमाएगा तो तेरी कलाई में मोच आ जाएगी। नहीं, महाराज जी! तलवार से मैं सबको मार डालूँगा। ठीक है, ले शिवाजी वाली तलवार, लेकिन इससे तू किसी को मार नहीं सकता, क्योंकि देरी कलाई में बल नहीं है।
अध्यात्म एकांगी नहीं है
मित्रो! इसके बारे में मैं लोगों से कहता रहता हूँ, लेकिन लोगों को भ्रम हो जाता है। इसलिए आपसे भी जद्दोजहद करना पड़ता है। सारे अध्यात्म- क्षेत्र में जद्दोजहद करनी पड़ती है। लोगों ने कर्मकाण्डों के माहात्म्य को इतना अधिक बढ़ा- चढ़ाकर बादलों के बराबर बना दिया है। ये मंत्र और वो मंत्र, ये विधि- विधान कीजिए, लेकिन जाने क्यों यह भूल जाते हैं कि इन मंत्रों को, इन बाणों को जिस धनुष पर रखकर चलाया जाने वाला है, वह है कि नहीं? कारतूस को जिस बंदूक में रखकर चलाया जाने वाला है, वह है कि नहीं? बंदूक की जरूरत को, महत्त्व को जो नहीं समझते इसीलिए बहस हो जाती है। इसीलिए आप कारतूस को गाली दे रहे थे? हाँ बेटे! तेरे पास बंदूक तो है नहीं, फिर गोली कैसे चलाएगा? इसलिए क्रियायोग के माहात्म्य का खंडन करने पर जब मैं उतारू हो जाता हूँ तो आवेश में आकर कर्मकाण्डों के खिलाफ बो शब्द कहने लगता हूँ जिससे आपको असलियत समझ में आ जाए। एकांगी और सरल वाला हिस्सा है, उसको आप पकड़ लेते हैं और जो मुश्किल वाला हिस्सा है, उसकी आप उपेक्षा करना चाहते हैं। उसको आप नजरअंदाज करना चाहते है। गहराई तक आप जाना नहीं चाहते और केवल बाहर की वह क्रिया जो सबसे सरल है, उसको आप पकड़ लेना चाहते हैं। बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधेगा? नहीं साहब! बिल्ली का मुँह पकड़ने की ताकत हममें नहीं है, हम नहीं पकड़ सकते। बिल्ली का मुँह नहीं पकड़ सकते तो बेटे! घंटी कैसे बाँधी जाएगी? वह चूहे को खा जाएगी, उसे मार डालेगी।
वास्तविकता को समझें
मित्रो! मैं ये निवेदन कर रहा था कि हमको वास्तविकता को समझना चाहिए। वास्तविकता को समझेंगे तो आपको अध्यात्म का जो माहात्म्य और जो लाभ और जो उसकी फिलॉसफी समझाई जाती है, आप पाएँगे कि वह हूबहू सही है। उसका एक- एक अक्षर सही है। राम के नाम का जो माहात्म्य बताया गया है, मंत्र का जो माहात्म्य बताया गया है, जप का जो माहात्म्य बताया गया है, भोग का जो माहात्म्य बताया गया है, गायत्री मंत्र का जो माहात्म्य बताया गया है, वह एक- एक शब्द सही है। अगर आप यहीं पर अटके रहेंगे कि केवल कर्मकाण्ड के आधार पर गायत्री मंत्र का चमत्कार देखना चाहेंगे तो फिर मैं आपसे कहूँगा कि इसका एक- एक अक्षर गलत है, झूठा है। गायत्री मंत्र जप करने से कोई फायदा नहीं हो सकता। महाराज जी! आप ये क्या कहते हैं? बेटे! तू समझता तो है नहीं कि मैं क्या कहता हूँ? तू एकांगी बात लिए फिरता है, जबकि अध्यात्म एकांगी नहीं हो सकता। एकांगी अध्यात्म संभव नहीं है।
मित्रो! अध्यात्म की दोनों धाराएँ जुड़ी हुई हैं। ये गाड़ी के दोनों पहिये हैं। एक पहिये पर गाड़ी नहीं चल सकती। प्राण और जीवन दोनों को मिला करके संपूर्ण अध्यात्म बनता है। हमारा संपूर्ण व्यक्तित्व न केवल शरीर से बना है और न केवल प्राण से बना हुआ है। प्राण और शरीर इन दोनों के समन्वय से हमारा व्यक्तित्व बना हुआ है। मैं शरीर को गाली देता हूँ मिट्टी का बताता हूँ, पंचतत्वों का बताता हूँ। हड्डी- माँस का बताता हूँ। इसलिए बताता हूँ कि इसमें प्राण नहीं। जब इसमें प्राण होता है तो इसे मिट्टी का नहीं कह सकता। तब मैं यह कहूँगा कि यह देवता का मंदिर है और जब इसमें से प्राण निकल जाता तो मैं यह कहूँगा कि ये तो मिट्टी है, इसके लिए क्यों रो रहे हो? इसे जलाकर अलग करो। इसमें क्या रखा है? ये तो बेकार है, निरर्थक है। इसको गाड़ दो, नदी में बहा दो या इसको जला दो। इससे अब क्या बनने वाला है? नहीं साहब! यह तो हमारे पिताजी थे। बेटे! पिताजी थे तो वे हवा में चले गए। पिताजी ने तो कहीं जन्म ले लिया होगा। अब कहाँ हैं ये तेरे पिताजी, यह तो मिट्टी है। मिट्टी को तू कहाँ रख सकता है? इसे जला दे, हम और तुम दोनों चलेंगे। नहीं साहब! आप पिताजी को बेकार जलाने की बात कहते हैं, उन्हें गाली देते हैं। नहीं बेटे! पिताजी को नहीं, इस मिट्टी के लिए कह रहे हैं, जिसे रखना निरर्थक है।
कर्मकाण्ड एवं भावनाओं का समन्वय हो
साथियो! इसी तरह आपको कर्मकाण्ड और भावयोग के फर्क को और समन्वय को समझना होगा। अगर आप अध्यात्म के मार्ग पर चलना चाहते हैं तो दोनों कदम मिलाकर चलने पर ही यह मंजिल पार की जा सकती है। एक कदम से मंजिल पार नहीं हो सकती। केवल कर्मकाण्ड चाहे जितने ही आप क्यों न कर ले, आप चाहे कितने ही अनुष्ठान क्यों न कर लें, लेकिन अगर आप उन क्रियाओं को, जिनकी तुलना हम आहार और विहार से किया करते हैं। जिसको हम आत्मसंशोधन और आत्मपरिष्कार कहते रहते हैं, यदि आप उनकी उपेक्षा करने लगेंगे, यदि आप यह ख्याल करेंगे कि बस, जप करना ही काफी है, रामायण पड़ना ही काफी है तो फिर मैं आपकी निंदा करूँगा और ये कहूँगा कि आप मकसद तक नहीं पहुँच सकते और जो फायदा उठाना चाहिए यह आप नहीं उठा सकते। इसलिए वास्तविकता को आप जितनी जल्दी समझ ले, उतना ही अच्छा है। कर्मकाण्ड निरर्थक नहीं है, उनकी निंदा नहीं कर रहा हूँ लेकिन कर्मकाण्ड के साथ में व्यक्तित्व का जुड़ा होना, मनुष्य का जीवन परिष्कृत होना, आदमी का सही होना नितांत आवश्यक है। आध्यात्मिकता की यह पहली शर्त है। अगर आप इस शर्त को पूरा नहीं करेंगे तो फिर बात कैसे बन सकती है? यह शर्त अनिवार्य है, आवश्यक है। इस शर्त की उपेक्षा नहीं हो सकती।
सही सलाह
मित्रो! स्वास्थ्य की दृष्टि से अगर आपको कभी दो में से एक (व्यायाम एवं आहार- विहार) की उपेक्षा करनी ही पड़े, तो मैं व्यायाम की उपेक्षा करने के लिए आपको छोड़ सकता है। गुरु जी! हम तो बहुत दिन तक जीना और स्वस्थ रहना चाहते हैं। अच्छा तो आप दो में से एक चुनिए? अगर आप व्यायाम के लिए कहेंगे तो हम आहार- विहार ठीक नहीं रखेंगे। अगर आप आहार विहार के लिए कहेंगे तो व्यायाम ठीक नहीं रखेंगे। बेटे! दोनों को मिलाकर चलने में क्या हर्ज है। नहीं साहब! दोनों तो हम नहीं करेंगे। एक कर लेंगे। आप सोने- जागने, ब्रह्मचर्य, आहार- विहार आदि की बातें मत कहिए। बस, हम आपका व्यायाम करते रहेंगे। बेटे! दोनों कर लेगा तो तेरा क्या बिगड़ेगा? नहीं महाराज जी! आप दो में से एक का फैसला कर दीजिए, हम वही करेंगे। ठीक है, बेटे! तो फिर मैं इस बात की सलाह दूँगा कि तू अपना आहार- विहार ठीक रख। अगर तू व्यायाम नहीं भी बनेगा, तो कोई उतना ज्यादा नुकसान नहीं होगा। हाँ, अगर आहार- विहार ठीक रखने के साथ व्यायाम भी करेगा तो तेरी जिन्दगी लंबी हो सकती है। तू मजबूत हो सकता है, लेकिन अगर तू इसी बात पर जम गया है कि मैं एक ही चीज करूँगा तो मैं यही कहूँगा कि तू ठीक से आहार किया कर, समय पर सोया और जगा कर। संयम रख, ब्रह्मचर्य का पालन कर, तभी बात बनेगी।
गहरा कुसंस्कार
मित्रो! इसीलिए अध्यात्म के लिए मुझे लोगों से बार- बार इन छोटी- मोटी बातों के लिए कहना पड़ता है। पिछली बार जब आप आए थे, तब भी यही कहा था। फिर आप कहते हैं कि गुरु जी! यही बात आप पहले भी कहते थे, यही अब कह रहे हैं। क्या करूँ बेटे! आपकी समझ में यह बात अभी तक नहीं आई और मैं नहीं जाता कि कितने समय में यह समझ में आएगा। चलिए इसे मैं आध्यात्मिकता के क्षेत्र का कुसंस्कार कहता हूँ। यह कुसंस्कार इतना गहरा है कि लोगों ने यह समझ रखा है कि पूजा- पाठ की प्रक्रियाएँ करने के पश्चात् आदमी को भगवान के पास जाने की इजाजत मिल जाती है और भगवान का तथा देवी देवताओं का प्यार मिल जाता है। इसको हम कुसंस्कार कहते हैं। इस कुसंस्कार को निकालने के लिए मुझे आपसे बार- बार लड़ाई लड़नी पड़ती है। बार- बार सत्यनारायण की कथा कहनी पड़ती है और बार- बार गायत्री मंत्र का जप करने की बात कहनी पड़ती है। बार- बार एक ही बात कहनी पड़ती है, ताकि यह कुसंस्कार आपके मन- मस्तिष्क से हट जाए। इसको भक्ति या योग न कहकर मैं कुसंस्कार ही कहूँगा, जिसे आपने सब कुछ मान रखा है। अगर यह कुसंस्कार आपके मन से निकल गया तो समझूँगा कि मेरा परिश्रम सार्थक हो गया और आपको आध्यात्मिकता के द्वार में प्रवेश करने और अंदर जाने का रास्ता खुल गया।
शिक्षण क्रमिक ही संभव
मित्रो! अगर आप इस बात को समझ गए होते और आपने इस बात पर गौर करना शुरू कर दिया होता कि हम अपने जीवन की रीति- नीति में हेर- फेर करना शुरू करेंगे। अपने क्रियाकलापों में हेर- फेर करना शुरू कोंगे ।। अपने विचार करने की प्रक्रिया में और दृष्टिकोण में हेर- फेर करना शुरू करेंगे तो फिर मैं आपको अगला वाला पाठ पढ़ाता। फिर मैं आपको कुंडलिनीयोग की शिक्षा देता, चक्र जागरण को शिक्षा देता। फिर मैं आपको क्या- क्या शिक्षाएँ देता? जाने कितनी शिक्षाएँ मेरे मास पड़ी हुई हैं? लेकिन मैं देखता है कि इन बच्चों के ऊपर जुल्म करना होगा, अगर में इन्हें संधि एम०ए० का पाठ पढ़ाना शुरू कर दूँ। अरे! इन्हें तो अभी गिनती भी नहीं आती, पहाड़ा तक नहीं आता, कविता नहीं आती और मैं इनको फिजिक्स पढ़ाना शुरू कर दूँ, केमिस्ट्री पकाना शुरू कर दूँ, इससे अच्छा है कि इनको नहीं पढाऊँ। इनको ये कहूँ कि आप पहले किताब पढ़ना सीखिए, अक्षरज्ञान सीखिए, गिनती गिनना सीखिए, मात्राएँ लिखना सीखिए। जब आपका इतना हो जाए, तब मैं आपको फिजिक्स सिखाने के लिए तैयार हूँ। नहीं महाराज जी! आप तो फिजिक्स की निंदा करते थे। हाँ बेटे! इसलिए निंदा करता था कि तू समय से पहले ही जिद लगाए बैठा है। जिस काम को पूरा करना चाहिए, उसको पूरा करना नहीं चाहता, आसमान पर छलाँग मारना चाहता है इसलिए मैं इसकी बुराई करने लगता हूँ।
अब बड़े बालिग बन जाइए
मित्रो! जब छोटा बच्चा कहता है कि पिताजी हमारा विवाह करा दीजिए। अरे बेटा! तेरी बहू तो कानी है। कानी बहू से तेरा विवाह नहीं करेंगे। अपने मुन्ना के लिए बतिया वाली अच्छी बहू लाएँगे। कितनी बड़ी बहू लेगा? दीवार के बराबर। नहीं, ये दीवार तो बहुत बड़ी होती है, छोटी लूँगा। अच्छा कितनी बड़ी, इस बैलगाड़ी के बराबर। हाँ, बैलगाड़ी
के बराबर बहू ले लूँगा। ठीक है, आप लोगों को ऐसे ही मुझे बहकाना पड़ता है, क्योंकि आप लोगों को पाँच- छह वर्ष में कैसे बहू लाकर के दे दूँगा? नहीं साहब! हमारा तो विवाह करा दीजिए, भैया का विवाह हो गया है, हमारा विवाह नहीं हुआ है। बेटे! अभी तू छह साल का है और बड़ा भैया बाईस साल का हो गया है। तू जब बाईस साल का हो जाएगा, तब तेरे लिए भी बहू लाकर दूँगा। तेरी नौकरी भी लगवा दूँगा। अच्छा तो हमारे लिए भी साइकिल लाकर दीजिए। नहीं बेटे, अभी तू छह वर्ष का है, तुझसे चढ़ा भी नहीं जाएगा, गिर जाएगा। तू जरा बड़ा हो जा, फिर ला दूँगा।
मित्रो! आध्यात्मिक क्षेत्र में अब आपको भी बड़ा होना चाहिए। आध्यात्मिक क्षेत्र में आपको बालिग होना चाहिए, वयस्क होना चाहिए। जब आप वयस्क होंगे, बालिग होगे, तब मैं या मेरे बाद कोई और इतने सारे लोग बैठे हुए हैं- सिखाने के लिए और पढाने के लिए वे आपको कर्मकाण्ड, क्रियाकाण्ड जिनको आप मैजिक समझते हैं और जिनका मैं मखौल उड़ाता रहता हूँ जादू कह करके कि वह मात्र जादू है। नहीं बेटे! वह जादू नहीं है। अध्यात्म की उपासनाएँ- साधनाएँ जादू नहीं हैं, वह सही है, लेकिन मैं आपको जादू इसलिए बताता हूँ कि मिट्टी में से सोना बन सकता है, रुपया बन सकता है किंतु शर्त यही है कि उसे वैज्ञानिक ढंग से कमाया जाए। जमीन में आप खेती करें और उसमें से रुपया कमाएँ यह तरीका सही है। मिट्टी में से आप सीधे रुपया कमाना चाहते हैं, इसका मतलब यह हुआ कि आप कर्मकाण्डों से, पूजा- उपासना से, मंत्र- तंत्र से चमत्कार चाहते हैं। मंत्र- तंत्रों में से चमत्कार मिले होते तो इन बाबाजियों और इन पंडितों ने कब के सारे चमत्कार समेट करके अपने झोले में भर लिए होते और आपको तमाशा देखने को भी नहीं मिलता। ऐसा नहीं हो सकता। आप क्रम से पढ़िए हिसाब से पढ़िए। क्लासवाइज आगे बढ़िए नंबर से बढ़िए और उसके लाभ उठाइए, जो लाभ उठा सकते हैं। समय से पहले आप बेकार में कहेंगे कि हमारी मूँछें लगा दीजिए। अच्छा बेटा! देख अभी तेरी मूँछ मँगा देता हूँ। अरे ये कैसी मूँछ हैं, ये तो निकल पड़ी, तुझे कैसी मूँछ चाहिए थी? आपकी भी मूँछ चाहिए थी, जो खींचने पर भी नहीं निकलती है। बेटे! तो अभी तू ठहर जा। अभी तू छह साल का है। बीस साल बाद तेरी असली मूँछें आएँगी। अभी तेरी उम्र इतनी बड़ी नहीं हुई है।
शृंगी ऋषि का पुत्रेष्टि यज्ञ
साथियो! हममें से प्रत्येक को अपना व्यक्तित्व विकसित करना चाहिए। व्यक्तित्व के विकास के साथ में मंत्र काम करते हैं, तंत्र काम करते हैं। शृंगी ऋषि की घटना आपको बराबर याद रखना चाहिए। शृंगी ऋषि की घटना इस तरीके से है कि जब राजा दशरथ के यहाँ कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने गुरु वसिष्ठ जी से कहा कि महाराज जी! आप तो योग, तप और मंत्रों में बड़ी शक्ति बताते हैं। आप हमारे यहाँ संतान नहीं पैदा कर सकते? हाँ, मंत्रों से संतान हो सकती है। पुत्रेष्टि यज्ञ का शास्त्रों में बहुत माहात्म्य बताया गया है और कहा गया है कि पुत्रेष्टि यज्ञ करने वाले को ये हवन करना चाहिए। उससे संतान हो सकती है। महाराज जी! आप तो हमारे गुरु हैं। मुद्दतें हो गई, एक भी बच्चा हमारे यहाँ पैदा नहीं हुआ और हमको तीन विवाह करने पड़े। हम चूहे हो गए आपने अभी तक पुत्रेष्टि यज्ञ क्यों नहीं कराया?
पुत्रेष्टि यज्ञ कौन सफल करें?
मित्रो! गुरु वसिष्ठ ने कहा- राजन! हमने बच्चे पैदा कर लिए, इसलिए हमारा ओजस और वर्चस जो कि मंत्र में शामिल होने के पश्चात् चमत्कार दिखाता है, वह समाप्त हो गया। अब हम केवल मंत्र उच्चारण कर सकते हैं, विद्यार्थी को पढ़ा सकते हैं, सुना सकते है, उसकी साउण्ड ठीक कर सकते हैं लेकिन कोई चमत्कार नहीं दिखा सकते। इसलिए हमारी वाणी के द्वारा बोले हुए मंत्र फलित नहीं हो सकते। तब फिर कोई और व्यक्ति ऐसा है, जो वही मंत्र बोलकर चमत्कार दिखा सके? हाँ! ऐसे भी एक व्यक्ति हैं। हम कोशिश करेंगे कि वे आ सके और आपका पुत्रेष्टि यज्ञ संपन्न करा सके। शृंगी ऋषि इसी तरह के थे, जिनके पिता ने, जिनके गुरु ने अट्ठाईस वर्ष की उम्र तक उनको यह ज्ञान नहीं होने दिया था कि दुनिया में कोई स्त्रियाँ भी होती हैं। जंगल में रहते थे, केवल मरदों का ही संपर्क था। स्त्रियों के बारे में कोई चर्चा ही नहीं होती थी। उन्होंने आश्रम की व्यवस्था में स्त्रियों का कोई जिक्र नहीं आने दिया था। शृंगी ऋषि ने स्त्रियों की कोई शक्ल नहीं देखी थी।
निर्मल- निष्पाप शृंगी
गुरु वसिष्ठ से जब राजा दशरथ ने यह सुना तो उन्होंने कहा कि हम यह नहीं मान सकते कि कोई आदमी स्त्री नहीं जानता होगा। चलिए, हम आपको दिखा करके लाते हैं। गुरु वसिष्ठ राजा दशरथ जी को लेकर के लोमष ऋषि के आश्रम में गए और शृंगी ऋषि जिनकी उम्र अट्ठाईस साल की थी, उनके पास देव बालाओं को ले करके गए और वहाँ उनके सामने खड़ी कर दीं। शृंगी ऋषि ने पूछा- "आप लोग कौन हैं ?" "हम भी विद्यार्थी हैं" शृंगी ऋषि ने जब उनसे यह पूछा कि हम तो अट्ठाईस वर्ष के हो गए और हमारी दाढ़ी- मूँछें आ गईं, फिर आप लोगों की दाढ़ी- मूँछें क्यों नहीं आई? उन्होंने कहा कि हम जिस गुरुकुल में पढ़ते हैं वहाँ बहुत ठंडक पड़ती है। इस वजह से वहाँ मूँछें बहुत बड़ी उम्र में निकलती हैं। हमारी उम्र अभी इतनी नहीं हुईं, इसलिए हमारी दाढ़ी- मूँछें निकलकर नहीं आती हैं। ''तो फिर आपका गुरुकुल ठंडक में बहुत अच्छा होता होगा? आपके यहाँ खाने को बहुत अच्छे फल मिलते होंगे ?" हाँ! हमारे यहाँ बहुत अच्छे फल होते हैं। कैसे फल होते हैं, जरा दिखाइए? उन्होंने टोकरी में से निकालकर मिठाइयाँ, गुलाब जामुन उनके हाथ पर रख दिया। शृंगी ऋषि भागते हुए अपने पिता लोमष ऋषि के पास गए और कहा कि बाहर से कुछ विद्यार्थी आए हुए हैं। वह कहते हैं कि हमारे गुरुकुल में ठंडक की वजह से मूँछें नहीं निकलती। उनकी भी उम्र अट्ठाईस साल है और हमारी भी अट्ठाईस साल है। उनके पेड़ों पर फल ऐसे लगते हैं, जैसे हमने कभी खाए नहीं। जरा आप भी देखिए। गुलाब जामुन हाथ पर रख दिया। लोमष ऋषि हँसने लगे- आहा....क्या बात है?
उस ब्रह्मतेज की ताकत समझें
लोमष ऋषि बाहर आए और देखा कि बाहर गुरु वसिष्ठ और राजा दशरथ खड़े हुए हैं, वे उनका मकसद समझ गए। उन्होंने कहा- बैठो! हम तो परीक्षा लेने आए थे कि क्या ऐसे भी व्यक्ति होने संभव हैं? अब हमें विश्वास हो गया कि ये जो मंत्र बोलेंगे, वे फलित होंगे। मित्रो! उसे आप क्यों नहीं समझते? अक्षरों को समझते हैं और उन्हें महत्त्व देते हैं। क्रियाकाण्डों को महत्त्व देते है, लेकिन उस असलियत को आप महत्त्व को नहीं देते हैं। मैं चाहता हूँ कि आप असलियत को समझे। इस असलियत को आप समझे कि कर्मकाण्डों के पीछे, किया- कलापों के पीछे, पूजा- उपासना के विधि- विधानों के पीछे जो शक्ति काम करती है, जो फोर्स काम करती है, जो ताकत काम करती है, जो ब्रह्मतेज काम करता है, उसकी वजह से भगवान को मजबूर होना पड़ता है। देवताओं को मजबूर होना पड़ता है। मंत्रों को अपना चमत्कार दिखाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। आप उसका माहात्म्य क्यों नहीं समझना चाहते? नहीं साहब! यह तो बड़े झगड़े का काम है, बड़े झंझट का काम है। बड़ी जीवट का काम है, बड़े तूफान का काम है। हाँ बेटे! बड़े तूफान का काम है। खेती करना तूफान का काम है, पढ़ना बड़े तूफान का काम है। व्यापार करना बड़े तूफान का काम है। पहलवान होना बड़े तूफान का काम है। हर चीज बड़े तूफान की है।
अध्यात्म इतना सस्ता नहीं
मित्रो! अध्यात्म- क्षेत्र में आगे बढ़ना, जैसे कि आपने समझा है कि पालथी मार करके आधे घंटे के लिए बैठ जाना और इधर की माला उधर घुमा देना और उधर की माला इधर घुमा देना है। इधर का चावल उधर चढ़ा देना, इधर घंटी बजा देना, इस नाक में से हवा और उस नाक में से पानी निकाल देना है। क्या आप इसी खेल- खिलवाड़ के अध्यात्म समझते हैं और इसी से सब कुछ पा लेना चाहते हैं? नहीं, अध्यात्म इतना सस्ता नहीं हो सकता। अध्यात्म महँगा है और आपको इसकी महँगी कीमत चुकाने के लिए तैयार होना चाहिए। अगर आप उसकी महँगी मूल्य की कीमती चीजें पाना चाहते हैं, महँगे चमत्कार पाना चाहते हैं, तब? तब मित्रो! आपको कर्मकाण्ड के साथ, क्रियायोग के साथ भावयोग का समन्वय करना चाहिए। कल मैंने इसकी ओर संकेत किया था और कर्मकाण्डों में से प्रत्येक के बावत कहा था कि ये कर्मकाण्ड हमें भावयोग की और घसीटकर ले जाते हैं। ये हमारी भावनाओं को विकसित करते हैं। ये हमारे दृष्टिकोण को परिष्कृत करते हैं और हमारे क्रिया- कलाप के बावत दिशाएँ देते हैं प्रेरणाएँ देते हैं कि हमारे जीवन का क्रिया- कलाप क्या होना चाहिए? और हमारे सोचने का तरीका क्या होना चाहिए? ये सारे के सारे क्रिया- कलाप हमको इस दिशा पर ले जाते हैं ताकि हमारा व्यक्तित्व, हमारे भीतर की शक्ति, जो हमारी अंतरात्मा में सन्निहित है, उसके ऊपर चढ़ी हुई मलीनताओं उसके ऊपर चढ़े हुए मनोविकार लुप्त होते हुए चले जाएँ। बस यही है कर्मकाण्डों का उद्देश्य और दूसरा कोई उद्देश्य नहीं है।
भगवान मात्र व्यक्तित्व देखता है
मित्रो! आप सोचते होंगे कि कर्मकाण्डों से प्रभावित होकर के भगवान खिंचते हुए चले आते होगे, भगवान प्रसन्न हो जाते होगे, बात ऐसी नहीं हैं। भगवान बड़े समझदार आदमी का नाम है। भगवान बड़े बुद्धिमान और दूरदर्शी का नाम है, दूरदृष्टि वाले आदमी का नाम ही भगवान है। इसको हम खेल- खिलौनों से और छिटपुट मंत्रों का उच्चारण करके और चावलों को इधर से उधर फेंक करके फुसला नहीं सकते। बेटे! उसे रिझाने के लिए उसी स्तर की चीजों की जरूरत है, जिसको भगवान पसंद करता है। भगवान मनुष्य के व्यक्तित्व के अलावा कुछ और नहीं देखना चाहता। आपको क्रिया- कलाप, कर्मकाण्ड कैसा आता है, कैसा नहीं आता, भगवान के यह देखने की फुरसत नहीं है। आप वाल्मीकि की तरह से राम- राम को जगह 'मरा- मरा' कहने लगें तो भी भगवान जी को कोई शिकायत नहीं है। आप 'मरा- मरा' कहिए चाहे 'राम- राम' कहिए। नहीं, साहब! राम- राम कहने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं और हूँ मरा- मरा है कहने से नाराज हो जाते हैं। 'मरा- मरा' कहने से देवी नाराज हो जाती हैं। बेटे! हमें नहीं मालूम कि 'मरा- मरा' कहने से कौन सी देवी नाराज हो जाती हैं और 'राम- राम' कहने से कौन सा भगवान प्रसन्न हो जाता है। नहीं महाराज जी! चंदन की माला घुमाने से शंकर जी प्रसन्न होते हैं और रुद्राक्ष की माला घुमाने से शंकर जी नाराज हो जाते हैं। बेटे! हमें नहीं मालूम है।
भगवान को बच्चा समझते हो?
मित्रो! आप क्या समझते हैं कि शंकर जी इतने बेअकल और इतने नासमझ हैं कि चंदन की माला से तो खुश हो जाएँ और रुद्राक्ष की माला से नाराज हो जाएँ। ऐसा तो बच्चे करते हैं। आप उसे सफेद रंग का गुब्बारा दे दें तो बच्चा नाराज हो सकता है और कह सकता है कि हम तो गुलाबी रंग का लेंगे, सफेद रंग का नहीं लेंगे और शंकर जी किस चीज की माला पहनेंगे, चंदन की या रुद्राक्ष की? नहीं साहब! हम तो रुद्राक्ष की पहनेंगे, चंदन की नहीं पहन सकते। बच्चे की तबियत जैसी भगवान शंकर की होगी, ये नहीं हो सकता, जैसा कि आपका ख्याल है, लेकिन अगर आप यह मानते है कि शंकर भगवान बच्चे नहीं हैं, शंकर भगवान कोई बुजुर्ग हैं तब फिर आपको दूसरी तरह से विचार करना होगा। तब आपको मालाओं की परख करने की अपेक्षा, शंकर जी को प्रसन्न करने की अपेक्षा तथा उस दुकानदार के दरवाजे पर नाक रगड़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्यों साहब! रुद्राक्ष की माला असली है कि नकली है ?? क्या मतलब है आपका? यह मतलब है कि असली रुद्राक्ष को माला है तो शंकर जी प्रसन्न हो सकते है और अगर नकली होगी तो नाराज हो सकते हैं। आहा......! तो यह चक्कर हैं, यह मामला है? शंकर जी असली रुद्राक्ष से प्रसन्न हो जाते हैं और नकली से नाराज हो जाते हैं।
सारा खेल भावनाओं का है
बेअक्ल आदमी यह समझता है कि मालाओं की शक्लें देख करके, उनकी पहचान करके शंकर जी की प्रसन्नता और नाराजगी टिकी हुई है तो ऐसा बिलकुल नहीं है। शंकर जी को आप मिट्टी की गोलियों से बनी हुई मालाओं से जप लें तो भी शंकर जी उतना ही चमत्कार दिखा सकते हैं, जितने कि मिट्टी के बने हुए द्रोणाचार्य ने चमत्कार दिखाए थे। यह सारे का सारा भावनाओं का खेल है, श्रद्धा का खेल है, मान्यताओं वह खेल है। यह लकड़ी का खेल नहीं है। ताँबे के पात्र में पंचपात्र लगा दो तो कैसा हो सकता है? स्टील का पंचपात्र लगा दो तो कैसा हो सकता है? बेटे! मिट्टी का भी बना ले और अगर तेरे पास कोई पंचपात्र न हो तो हथेली में पानी रखकर पी लिया कर, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महाराज जी! ये तो कर्मकाण्डों का, विधि- विधानों का सवाल है? है तो सही बेटे! कर्मकाण्डों का, विधि- विधानों का सारा का सारा ढाँचा या स्वरूप आपको सावधान रखने, सतर्कता बरतने, जागरूकता रखने, नियमों का पालन करने के लिए बनाया गया है। इसलिए इसका स्वरूप तो है सही और वह रहना चाहिए ताकि आदमी को अटेन्शन रहने का, सावधान रहने का, जागरूक रहने वा, विधि और व्यवस्था के साथ काम करने का, अनुशासन के नियमों का पालन करने का ध्यान बना रहे। अन्यथा छोले- पोले आदमी सारा काम बिगाड़ देंगे। इसलिए अनुशासन कायम रखने के लिए शास्त्रकारों ने जो मर्यादाएँ बना दी हैं, उनका रक्षण होना चाहिए। उनका मैं हिमायती हूँ, विरोधी नहीं हूँ, लेकिन अगर आप यह समझते हों कि इनके द्वारा ही हमारा उद्देश्य पूरा हो सकता है तो ऐसा नहीं हो सकता। आज की बात समाप्त ।।
।। ॐ शांतिः ।।