उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
ज्ञान और कर्म के विस्तार की शिक्षाएँ
मित्रो! आपने व्याख्यान सुने हों या न सुने हों, लेकिन अगर आप यज्ञ भगवान की पूजा करते हैं तो उनसे आप दो शिक्षाएँ जरूर सुन लीजिए। वे हमको और आपको जो दो शिक्षाएँ-उपदेश देते हैं, वे एक से बढ़कर एक शानदार हैं। एक तो आपको विचारशील होना चाहिए ज्ञानवान होना चाहिए और आपको क्रियाशील होना चाहिए। ज्ञानयोगी भी होना चाहिए और आपको कर्मयोगी भी होना चाहिए। यदि यह ज्ञान आप यज्ञ से सीख लेते हैं तो यज्ञ का पूजन करना, यज्ञ को भगवान मानना, यज्ञ में आहुति देना आपका सार्थक हो जाता है। ये बातें दो शिक्षाओं तक ही सीमित नहीं होतीं, भगवान सिखाते हैं और आप यज्ञ का ज्ञान और विज्ञान सीखते हैं। नहीं बेटे! ये सार्वजनिक, सार्वजनीन और सार्वभौमिक शिक्षाएँ हैं। इन्हें हर आदमी को समझाया जाना चाहिए कि आपके पास ज्ञान की कमी है, उसे बढ़ाने की कोशिश कीजिए। दौलत के बारे में आप संतोष कर सकते हैं, पर ज्ञान के बारे में आपको संतोष नहीं होना चाहिए पढ़ने के बारे में आपको संतोष नहीं होना चाहिए। जानकारी के बारे में आपको संतोष नहीं होना चाहिए कि अब हमारे पास काफी जानकारी हो गई, हमको अब और अधिक जानने की जरूरत नहीं हैं। ऐसा हमारे लिए यह मत कहिए कि स्वाध्याय आवश्यक है, यह कहना बंद कीजिए। ज्ञान की शिक्षा, ज्ञान के विस्तार की शिक्षा और कर्म के विस्तार की शिक्षा हमारा पुरोहित हमको देता है। ये दो यज्ञाग्नि की, पुरोहित की शिक्षाएँ हो गईं। अब आगे चलिए।
हमारा लक्ष्य ऊँचा चलने का हो
मित्रो! यज्ञाग्नि की चार शिक्षाएँ और रह जाती हैं। हम इन छह शिक्षाओं को ही दुनिया में फैला दें तो बहुत अच्छा है। उन छह में से तीसरी बात क्या है? तीसरी बात यह है कि यज्ञाग्नि का, आग का सिर हमेशा ऊँचा रहता है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि आप चाहे जितना दबाव डाल दीजिए आग का सिर नीचा नहीं होगा। आप दबाव डालकर देख लीजिए। चाहे आप दियासलाई जला लीजिए लकड़ी जला लीजिए चाहे आप दीया जला लीजिए और यह कोशिश कीजिए कि हम इसको पलट देंगे। आप पलट दीजिए दबाव डाल दीजिए लेकिन अग्नि की लौ पलटकर भी ऊपर को उठेगी। नहीं साहब! लौ को नीचे जला देंगे। नहीं बेटे! वेल्डिंग मशीन द्वारा भी बहुत ज्यादा प्रेशर देंगे तो थोड़ी देर तक वह नीचे जा सकती है, लेकिन जैसे ही प्रेशर कम होगा, लौ फिर ऊपर को जलने लगेगी। आग का स्वभाव ऊपर की ओर चलने का है, नीचे की ओर का नहीं। हमारा मस्तिष्क हमारा दिमाग और हमारा जीवन नीचे की तरफ चलने का नहीं होना चाहिए वरन ऊँचे की ओर यज्ञ का ज्ञान और विज्ञान चलने का होना चाहिए। नीचे की तरफ बहना पानी का काम है। नीचे की तरफ गिरना ढेले का काम है। आप ढेले नहीं हैं और आप पानी नहीं हैं।
सिर कभी झुकने न पाए
आप कौन हैं? आप इनसान हैं और आप प्रगतिशील हैं। इसलिए आपका विचार और आपका चिंतन, आपकी आस्थाएँ और आपकी मान्यताएँ और आपका आदर्श और आपका गौरव हमेशा ऊँचा रहना चाहिए। दबाव पड़ता है। हाँ बेटे! हम जानते हैं कि आप पर बाहरी लोगों का भी दबाव पड़ सकता है और आपको मजबूर करने वाले अंदर से भी दबाव पड़ सकते हैं। दोनों दबाव पड़ सकते हैं, लेकिन आपका सिर अर्थात आपका चिंतन, आपका गौरव, आपकी शिखा नीचे की तरफ नहीं चलनी चाहिए। कोई आदमी आपको यों न कहने पाए कि आपने सिर झुका लिया। अन्याय के सामने, अनीति के सामने आपने सिर झुका दिया। देवता के सामने, न्याय के सामने आप सिर झुका सकते हैं, लेकिन अनीति के सामने, दबाव के सामने आपका सिर नहीं झुकना चाहिए। आपका सिर हमेशा ऊँचा रहना चाहिए। यह किसकी नसीहत है? यह हमारे पुरोहित की नसीहत है, यज्ञ भगवान की नसीहत है। यह तीसरी वाली शिक्षा है।
सबको अपने जैसा बना लें
यज्ञ भगवान की चौथी वाली नसीहत क्या है? चौथी वाली नसीहत यह है कि जो कुछ भी इसके पास जाता है, उसे वह अपने समान बना लेता है। आग के पास जो कुछ भी चीज लेकर के जाइए आग की कोशिश यही होगी कि हम जैसे भी कुछ हैं, अपने समान बना ले। आप आग में लकड़ी डाल दीजिए उसे वह अपने समान बना लेगी। पत्थर डाल दीजिए उसको भी वह आग बना देगी। हर चीज डाल दीजिए बुरी से बुरी और अच्छी से अच्छी चीज डाल दीजिए आग की कोशिश यही होगी कि जैसा भी कुछ है, जैसी भी भगवान ने बनाई है, उसे अपने समान बना दे। मित्रो! हमारी भी कोशिश यही होनी चाहिए कि जिस तरीके से हम शानदार हैं, उस तरीके से दूसरों को भी शानदार बनाने की कोशिश करें। कृण्वंतो विश्वमार्यम्। अर्थात विश्व को, सारे संसार को श्रेष्ठ बनाने के लिए हमारे प्रयत्न होने चाहिए। हम अच्छे हैं, यही काफी नहीं है, हमारे पड़ोसियों को भी अच्छा होना चाहिए। हम ज्ञानवान हैं, इतना ही काफी नहीं है, हमारे पड़ोसी को भी हमारे बराबर ज्ञानवान होना चाहिए। हम सामर्थ्यवान हैं, ठीक है, पर इतना ही काफी नहीं है हमारे पड़ोसी को भी, हमारे घर वालों और संबंधियों को भी सामर्थ्यवान होना चाहिए। हमारी सारी की सारी विचारणाएँ ऐसी ही हों। हम अकेले नहीं, वरन हम सारे समूह, सारे समाज को लेकर के आगे बढ़े। यह किसका तरीका है? आग का तरीका है। आग सैकड़ों में किसी को भी अपने समान बना लेती है। लकड़ी को अपने समान बना लेती है। सड़े हुए छप्पर को अपने समान बना लेती है। होली के दिनों में कूड़ा-करकट होता है, उसमें आग लगा देते हैं। वह आग के रूप में जल जाता है और चिता? चिता में मरा हुआ इनसान भी आग के रूप में जलने लगता है। क्यों साहब! मरा हुआ इनसान भी? हाँ मरा हुआ इनसान भी आग बन जाता है; क्योंकि यह आग की, हमारे पुरोहित की विशेषता है कि वह दूसरों को भी अपने समान बना लेती है।
समधर्मी बना लें
मित्रो! हमारी कोशिश यही रहनी चाहिए कि हम दूसरों जैसा बनने की अपेक्षा उन्हें अपने जैसा बनाने की कोशिश करें। दूसरों के जैसा न बनें। आग लकड़ी नहीं बनती, आग पत्थर नहीं बनती, आग गंदी चीज नहीं बनती, लेकिन उन सबको अपने जैसा बना लेती है। दूसरों के दबाव में और प्रभाव में आकर के आप दूसरों के जैसा बनने की कोशिश न करें, वरन आप यह कोशिश करें कि आपकी हस्ती, आपका व्यक्तित्व, आपका चरित्र और आपका सिद्धांत उज्ज्वल होना चाहिए और आपके भीतर इतनी क्षमता होनी चाहिए कि दूसरों को अपने जैसा बना लेने में समर्थ हो सकें यह आपकी विशेषता है। कौन सी? चौथे नंबर की, समान बनाने वाली विशेषता।
अपरिग्रह सीखें अग्नि से
साथियो! अभी दो विशेषताएँ और हैं। ये दोनों एक−दूसरे से मिलती जुलती हैं। इन्हें आप पाँचवीं कह सकते हैं। छठवीं कहने में भी कोई एतराज नहीं कर सकता लेकिन आप पाँचवीं कह लीजिए। हम गायत्री की पंचमुखी उपासना सिखाते हैं तो आप इस पंचमुख भी कह सकते हैं। कौन सी पाँचवीं उपासना है? उसका नाम है-अपरिग्रह। अपरिग्रह के साथ में एक और बात जुड़ी है, इसलिए इसे दो भी कह सकते हैं। उसका अर्थ है—वितरण! क्यों साहब! आपने दो क्यों कहा और एक क्यों नहीं कहा? बेटे! मैंने इसलिए कहा कि अपरिग्रह का चिह्न यह नहीं है कि हम पैदावार न करें पैदावार न करना, काहिल की तरह बैठ जाना यह अपरिग्रह का अर्थ नहीं होता है। हम अपरिग्रही हैं तो क्या करते हैं? हम तो साहब! बैठे रहते हैं। हमारे पास कुछ है नहीं। नहीं बेटे! अपरिग्रह का अर्थ यह नहीं है, अपरिग्रह का अर्थ यह है कि आप कमाएँ तो बहुत, सौ हाथों से कमाएँ लेकिन हजार हाथ से बाँट दें। जमाखोरी न करें। आपके कमाने की मैं तारीफ करता हूँ और कहता हूँ कि आप में क्षमता और योग्यता बहुत कमाने लायक होनी चाहिए लेकिन मैं यह कहता हूँ कि आप अकेले सब खाइए मत। जब आप अकेले खाते हैं, तब मुश्किल खड़ी हो जाती है। तब आप स्वार्थी हो जाते हैं। जो आदमी या वर्ग क्षमता सम्पन्न है, अगर वह अपनी सारी कमाई खाता रहेगा तो हम पूछते हैं कि जो पिछड़े हुए हैं, जो दरिद्र हैं, जो अपंग हैं, जो पतित हैं, उनका क्या होगा, उनका हिस्सा कहाँ से आएगा?
संचय करना पाप है
मित्रो! आपको अपने में से कटौती करनी पड़ेगी; चाहे वह सरकारी टैक्स के रूप में चुकता कीजिए अथवा धर्म-परंपरा के नाम पर दान करके कटौती कीजिए अथवा अध्यात्म सिद्धांत के अनुसार अपरिग्रही हो जाइए। हमारे यहाँ शास्त्रों में मनुष्य जाति के लिए पाँच पाप और पाँच पुण्य बताए गए हैं। कौन-कौन से पाँच पुण्य हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये पाँच पुण्य हैं, छठवाँ और कोई नहीं है और पाँच ही पाप हैं दुनिया में; इससे उलटा कर दीजिए वे पाप हैं। उन सारे पापों और पुण्यों की व्याख्या तो मैं यहाँ पर नहीं करता, पर जो यज्ञाग्नि से संबंध रखता है, उस पुण्य की बात कहता हूँ। उसका नाम है-अपरिग्रह। अपरिग्रह पुण्य हैं और परिग्रह पाप है। आप मालदार आदमी हैं, मुबारक है आपको, पर आपके परिग्रह को आध्यात्मिकता की कसौटी पर हम अच्छा नहीं मानेंगे। आपका परिग्रह निंदनीय है। क्यों साहब! हमने कमाया और जमा कर लिया तो क्या बात हो गई? भाई साहब! हमने मान लिया कि आपने बेईमानी से नहीं कमाया है, मेहनत से कमाया है, लेकिन मैं कहता हूँ कि भगवान ने इतनी सामर्थ्य आपको दी थी कि आप इतना कमा सके लेकिन उस भगवान ने कुछ ऐसा दिल आपको क्यों नहीं दिया जिससे पड़ोसी के दुःख को देख करके आपकी आँखों में आँसू आ जाते। ऐसा दिल आपको भगवान ने क्यों नहीं दिया? आपको योग्यता तो दे दी, पुरुषार्थ भी दे दिया, पराक्रम भी दे दिया, बुद्धि भी दे दी, कला-कौशल भी दे दिया। बहुत सी चीजें आपको दे दीं, आपको भाग्यवान बना दिया, पर आपका यह अधूरापन कैसे रह गया? कमाने की योग्यता के साथ-साथ में आपको ऐसा दिल मिला है, जिसको हम चट्टान का दिल कह सकते हैं, पत्थर का दिल कह सकते हैं। नहीं साहब! हमारा दिल तो माँस का दिल है। नहीं, आपका दिल माँस का नहीं हो सकता। अगर आपका दिल माँस का रहा होता, तब आपके भीतर करुणा रही होती, दया रही होती और जब आप ही आप अपनी कमाई खाते तो आपको उलटी हो जाती, कै हो जाती।
परिग्रही-पत्थरदिल मनुष्य
मित्रो! आप अपनी कमाई कमा तो सकते हैं, पर आप खा नहीं सकते, क्योंकि मनुष्य एक समाज है, समुदाय है। आप हजारों रुपए महीना कमाते हैं। भाई साहब! छोटा बच्चा दूध के लिए चिल्लाता है। नहीं साहब!-हम कमाते हैं, यह नहीं कमाता है। अतः हम तो इसको नहीं पीने देंगे। तो आप बच्चे को दूध नहीं देना चाहते? हाँ साहब! हम नहीं देना चाहते। बच्चा मर जाए तो हमें इससे क्या लेना देना। हम कमाते हैं, इसलिए हमीं खाएँगे। नहीं बेटे! ऐसा नहीं हो सकता। नहीं साहब! हम मिठाई लाए हैं तो बैठकर आराम से खाएँगे। और जो आपके पाँच बच्चे हैं, वे? बच्चे जब आएँगे और हमसे माँगेंगे कि पिताजी हमको भी मिठाई दे दीजिए तब हम उन्हें मारेंगे और कहेंगे कि तुम कोई कमाते हो? हम तो हजारों रुपए महीना कमाते हैं, सो हम खाएँगे। अगर आप ऐसे आदमियों में से हैं, जो अपने छोटों को, अपने बच्चों को और अपने घरवालों को इनकार कर देते हैं और यह कहते हैं कि आपका कोई हक कोई हिस्सा नहीं है। हमने कमाया है और हम खाएँगे। अगर आपका ऐसा ख्याल है तो मैं मान सकता हूँ कि आप इनसान नहीं हो सकते और आपका कलेजा इनसान का नहीं हो सकता। आपको पत्थर का बना होना चाहिए और चट्टान का बना होना चाहिए। वे आदमी, जो कमाते तो बहुत हैं, लेकिन सारे का सारा खरचा अपने लिए कर डालते हैं, उनको मैं और क्या कह सकता हूँ? उनको चोर कहिए। नहीं बेटे! मैं चोर तो नहीं कह सकता, पर एक शब्द उनके लिए कह सकता हूँ कि ऐसे आदमी पत्थर के बने हुए हैं, चट्टान के बने हुए हैं, लोहे के बने हुए हैं, अष्टधातु के बने हुए हैं। भगवान ने इनका कलेजा ऐसा बनाया है, जिसमें न कहीं दया है, न धर्म है, न कोई ईमान है और न भगवान है।
यज्ञीय जीवन अर्थात मिल-बाँटकर खाना
मित्रो! जिन आदमियों के दिलों में ईमान और भगवान होगा, वे बाँटकर ही खा सकते हैं। उनके सामने दूसरों की मुसीबतें बनी रहती हैं। वे चारों ओर देखते रहते हैं कि हमारा पिछड़ा हुआ समाज, हमारा दुखियारा समाज, हमारा गया गुजरा समाज अगर दुखी है तो हमको किस तरीके से गुजारा करना चाहिए? हमें औसत भारतीय ढंग का जीवनयापन करना चाहिए। औसत भारतीय जिस तरह से जीवनयापन करता है, हमारा खरच भी उसी हिसाब से होना चाहिए। आमदनी जो भी हो, बाकी जो बच जाएगा तो उसका क्या करेंगे? जमा करेंगे। नहीं बेटे! जमा मत करना। क्या करेंगे? परिग्रह। परिग्रह उसे कहते हैं, जहाँ 'जमाखोरी की जाती है और अकर्मण्यता उसे कहते हैं, जो कमाता नहीं है। जो कमाता नहीं है, उस आदमी का नाम अकर्मण्य है। जो आदमी काम नहीं करता, उसको हरामखोर कहते हैं और जो आदमी जमा करता रहता है, अपने लिए खरच करता रहता है, वह आदमी विलासी है और वह पत्थर का बना हुआ है। वह कौन है? जमाखोर। जमाखोर और कामचोर, दोनों ही आध्यात्मिक' दृष्टि से गालियाँ हैं। भौतिक दृष्टि से गालियाँ कोई भी हो सकती हैं। भौतिक दृष्टि से माँ-बहन की भी गाली हो सकती है। बेवकूफ नालायक भी हो सकती है। गधा, उल्लू भी हो सकती है, लेकिन आध्यात्मिक भाषा में आपको किसी को गाली देनी हो अथवा सुननी हो तो दो ही गालियाँ हैं। एक गाली है, जिसमें आदमी को हरामखोर कहा गया है। ऐसा आदमी मशक्कत नहीं करता, कमाता नहीं। दूसरी गाली वह है, जिसको हम जमाखोर कहते हैं। जमाखोर का अर्थ यह हो सकता है कि या तो वह जमा करता जाए और जरूरत से ज्यादा अपने आप के लिए खरच करता जाए।
वितरण—एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण
मित्रो! हमारा पुरोहित, यज्ञ हमको दोनों बातें सिखाता है। हमारा पुरोहित जमा नहीं करता। जो कुछ भी इसके पास आता है, वह जमा नहीं करता। आपने हवन किया था? हाँ साहब! हवन किया था। हमने कहा-यज्ञ भगवान! बताइए आपने क्या-क्या जमा कर रखा है? सुबह हमने एक किलो घी हवन कर दिया था, वह तो आपके पास डिब्बी में जमा करके रखा होगा? नहीं, देख लीजिए भाई साहब! हमारे पास कुछ नहीं है। आप तलाशी ले लीजिए। नहीं साहब! आपके पास बैंक में जमा किया हुआ है और आपके पास सोना है ,जिसे आपने जमीन में गाड़ करके रखा हुआ है। भाई साहब! हमारे पास कुछ भी नहीं है, आप तलाश कर सकते हैं। यह कौन कहता है? यज्ञ कहता है। फिर हम यह पूछते हैं कि सवेरे से सैकड़ों आदमी आपको हवन कर रहे थे, कोई मिठाई खिला रहा था, कोई केला खिला रहा था, कोई सामग्री खिला रहा था। सब जगह से ढेरों आमदनी हो रही थी। इसका क्या हुआ? यज्ञ भगवान कहते हैं कि हम इसको बाँट देते हैं। जैसे-जैसे आया, हमने उसे तुरंत बाँट दिया। आपने आहुति दी और हमने उसे तुरंत हवा में बिखेर दिया। आपने हमारे अंदर शक्कर डाली और हमने उसे तुरंत हवा में बिखेर दिया। आपने हमारे अंदर सुगंधित पदार्थ डाले और हमने तुरंत बिखेर दिया, जमा नहीं किया। आप तलाश कर लीजिए। भस्मांत शरीरं-आप देख लीजिए हमारे पास खाक है और कुछ नहीं है।
भगवान आया कि नहीं आचरण में
मित्रो! यज्ञीय जीवन इस तरह का होना चाहिए यज्ञीय जीवन की यह परंपरा आपके व्यक्तिगत जीवन में हो तो मैं आपको संत कहूँगा और ऋषि कहूँगा। आप भजन कम करते हैं तो करें, कोई खास बात नहीं है। भजन-पूजन नहीं करते, तो बेटे! मैं आपसे भजन-पूजन की बहस नहीं करता। मैं तो यह कहता हूँ कि ''Work is Worship'' अर्थात काम ही पूजा है। आपको याद है कि नहीं है, मैं आदमी की पूजा को माला से नहीं गिनना चाहता, वरन मैं यह देखना चाहता हूँ कि भगवान आपके जीवन में आ गया कि नहीं? आपके आचरण में आ गया कि नहीं? आपके आचरण में अगर भगवान नहीं है, आपके मन में अगर भगवान नहीं है, चिंतन में भगवान, नहीं है, तो आपका माला वाला भगवान, पूजा की कोठरी वाला भगवान और चौकी पर बैठा हुआ भगवान किस काम का हो सकता है! मैं नहीं जानता कि उसका भी कोई उपयोग होगा कि नहीं होगा। ऐसा भगवान शायद मन बहलाने के काम भी आता हो; क्योंकि आदमी की तबीयत बहलाना भी एक बात है। थका हुआ आदमी हैरान आदमी, घर से परेशान आदमी कई बार नशा पी करके भी अपना गम गलत कर लेता है। आपकी आत्मा को भी गम गलत करने के लिए शायद तीन मालाएँ काम दे जाएँ ताकि आप आत्मा की भूख और आत्मा की पुकार को झुठला सकें। इसलिए संभव है कि आपका तीन माला का जप करना गम गलत करने के लिए किसी काम आ सकता हो, पर वास्तव में कुछ काम नहीं आ सकता। माला आपकी तभी काम आएगी, भजन आपका तभी काम आएगा, अग्निहोत्र आपका तभी काम आएगा, जब अग्निहोत्र के सारे के सारे सिद्धांतों को किसी न किसी तरह से पूरा न सही, कम सही, आपके-जीवन में इनका समावेश हो। हमारा पुरोहित यही छह शिक्षण देता है। यदि यज्ञ करने वाले अपने जीवन में इन छह शिक्षाओं को धारण कर लें और यज्ञ कराने वाले, यज्ञ की शिक्षा देने वाले, यज्ञ का प्रकाश देने वाले, यज्ञ का सिद्धांत और उसकी फिलॉसफी का विस्तार करने वाले इन्हीं सिद्धांतों का विस्तार करने लगें तो मैं आपसे कहता हूँ कि दुनिया में वे सारी परिस्थितियाँ पैदा हो जाएँगी, जिनके लिए हम सपने देखते हैं।
यज्ञाग्नि हमें समानता की ओर ले जाती है
मित्रो! यही देवत्व है। मनुष्य के भीतर देवत्व का उदय ही हमारा सपना है। जो हम आपसे कह रहे हैं, वही देवत्व के लक्षण हैं। सक्रियता देवत्व का लक्षण है। आदमी का ज्ञानवान होना देवत्व का लक्षण है। आदमी का सिर और आदमी का दिमाग ऊँचा रहना, ये देवत्व के लक्षण हैं। ज्ञानवान आदमी सबको अपने समान बना ले, यह देवत्व के लक्षण हैं। समानता के सिद्धांतों को ग्रहण करने की बात देवत्व के लक्षण हैं। आप समझते नहीं हैं, जाति के आधार पर, लिंग के आधार पर, धन के आधार पर जो असमानता फैली हुई है, यह कितनी बुराइयों की जड़ है। लिंग के आधार पर असमानता कि यह स्त्री है और यह पुरुष है। मूँछें हैं तो पुरुष है और नहीं हैं तो नारी है, तो बेटे! हम क्या कर सकते हैं। आप में से ढेरों आदमियों के मूँछें नहीं हैं। हम भी औरत हैं, तो बेटे! इससे आपका क्या मतलब है? आदमी-आदमी एक से होते है। अत: उनका अधिकार भी एक-सा होना चाहिए। आदमी-आदमी के हुक्म, आदमी-आदमी की मर्यादा और आदमी-आदमी का पराक्रम एक जैसा होना चाहिए। मित्रो! यह क्या है? अग्नि की, यज्ञ की शिक्षा है। अग्नि बेटे! साम्यवादी-है, और ये सब कम्यूनिस्ट हैं।नहीं साहब! कम्युनिस्ट नहीं हैं, अध्यात्मवादी हैं। चलिए मैंने यह भी मान लिया कि समानता के मामले में अध्यात्मवादी और कम्युनिस्ट में कोई खास फर्क नहीं है। वहाँ भी यह कहता है आत्मवत्सर्वभूतेधु अर्थात सबको अपने समान मानकर चलिए। हर आदमी को अपनी बराबरी का दरजा दीजिए। बेटे! ये समानता के सिद्धांत हैं। समानता चाहे आध्यात्मिक हो, चाहे भौतिक हो, चाहे साम्यवादियों की समानता हो, चाहे अध्यात्मवादियों की समानता हो; दोनों ही समानताएँ हमें वहाँ ले जाती हैं, जहाँ हमारी यज्ञाग्नि ले जाती है। जातिगत भिन्नताएँ लिंगगत भिन्नताएँ धनगत भिन्नताएँ ऊँच-नीच की भावनाएँ जहाँ आ जाती हैं, वहाँ हमारा अध्यात्म मना करता है और हमारा पुरोहित मना करता है। ये मान्यताएँ वास्तविक नहीं हैं, अवास्तविक हैं। अनास्था वाली ये मान्यताएँ आध्यात्मिक नहीं हो सकतीं।
यह है यज्ञ का ज्ञान पक्ष
मित्रो! व्यक्ति का और सारे समाज का निर्माण करने के लिए हमको इन छह सिद्धांतों की जरूरत है, जिनका मैंने आपसे निवेदन किया। यज्ञ का यह कौन सा पक्ष है? ज्ञान पक्ष। ज्ञान पक्ष का विस्तार अगर आप कर पाएँ तो नया व्यक्ति बनाने में, मनुष्य के अंदर देवत्व जगाने में और नया समाज बनाने में यज्ञ का ज्ञान और विज्ञान हमको पूरी पूरी सफलता मिल सकती है। अगर ये छह सिद्धांत, छह शिक्षाएँ छह पाठ, छह उपदेश, छह व्याख्यान और छह ही पदार्थ दुनिया के सामने आ जाएँ तो मनुष्य में देवत्व उगने में देर नहीं लगेगी। यह पाँच अध्याय वाली सत्यनारायण की कथा है। गुरुजी! अभी तो आप पाँच कह रहे थे। बेटे! पाँच कह ले, छह कह ले, बात एक ही है। परिग्रह और वितरण, अपरिग्रह और वितरण, दोनों जुड़े हुए हैं। नहीं साहब! वे दो हैं: बेटे! दो मान लीजिए छह मान लीजिए आपसे कौन झगड़ा करेगा, बस, बात खतम हो जाती है। यज्ञ का ज्ञान वाला पक्ष, अग्निहोत्र का ज्ञान वाला पक्ष, जिसकी हम पूजा करते हैं, जिसको हम वेदी पर रखते हैं और यह कहते हैं कि पुरोहित! हमको ये शिक्षाएँ दीजिए। हम अग्निहोत्र भी करेंगे और आपकी नसीहतों को अपने जीवन में उतारने की और इन सिद्धांतों को सारी दुनिया में फैलाने की भी कोशिश करेंगे। यही हमारे अग्निहोत्र का आध्यात्मिक उद्देश्य है।
प्रदूषण-निवारण वाला विज्ञान पक्ष
अब आप उसका विज्ञान पक्ष सुन सकते हैं। किसका? यज्ञ का, जिसका हम प्रचार करने वाले हैं और जिसके लिए चौबीस लक्ष का पुरश्चरण करने के लिए आपको भेजने वाले हैं। हर जगह आपको यज्ञ करने का और यज्ञ कराने का मौका मिलेगा और आपके व्याख्यान करने पर जनता आपसे पूछेगी कि किसलिए आप हवन करा रहे हैं? हवन से क्या फायदा हो सकता है? ज्ञानपक्ष के नाम पर ये बातें, जो मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ आप लोगों को बता सकते हैं। अब यज्ञ का एक और पक्ष शुरू होता है। यज्ञ का, अग्निहोत्र का विज्ञान पक्ष क्या है? बेटे! यज्ञ का विज्ञान पक्ष यह है कि हम इस संसार में गंदगी फैला रहे हैं। आप इस संसार को मान लीजिए कि यह एक अच्छा−खासा तालाब है। इस तालाब में हमारा क्या काम है? जिस दिन से हमने जन्म लिया है, उस दिन से गंदगी फैला रहे हैं। कैसी गंदगी फैलाते हैं? हमारे शरीर में जितने भी सूराख हैं, सब गंदगी थूकते रहते है। हमारे मुँह में से थूक निकलता रहता है। नाक में से जो साँस निकलती है, आप पता लगा लीजिए इसमें गंदी हवा रहती है। हम ऑक्सीजन खाते रहते हैं और हमारी नाक बराबर खराब हवा थूकती रहती है। हमारे मुँह में से बदबू निकलती रहती है और कफ़ निकलता रहता है, लार निकलती रहती है और पानी निकलता रहता है और नीचे वाले हिस्से तो निरंतर गंदगी फैलाते रहते हैं। हमारा एक सूराख टट्टी फैलाता रहता है और एक पेशाब उगलता रहता है। दूसरे छिद्र पसीने की बदबू फैलाते रहते हैं। हमारे शरीर में इतने ढेरों के ढेरों सूराख हैं, जो सब बदबू निकालते हैं। आदमी क्या निकालता है? बदबू। आदमी क्या है? बदबू इसीलिए इस कमबख्त को बार-बार स्नान कराना पड़ता है। कभी तेल चुपड़ना पड़ता है, कभी कोई पाउडर चुपड़ना पड़ता है। कभी इत्र-फुलेल चुपड़ना पड़ता है।
दुर्गंध फैलाता है मनुष्य
मित्रो! यह बदबू का टोकरा है। कहीं ऐसा न हो कि इसकी वास्तविकता का पता चल जाए इसलिए इसके ऊपर लीपा-पोती करते रहते हैं। गंदी जगहों पर फिनायल डालते रहते हैं, जिसकी गंध की वजह से बदबू दब जाती है। फिनायल डालने का यही मतलब है ना? हाँ साहब! यही मतलब है और बेटे! यह जो सेंट लगाते रहते हैं, यह किसलिए लगाते हैं? इसलिए कि इस शरीर से चौबीस घंटे जो बदबू निकलती रहती है, उस बदबू का किसी को पता न चले और यह बदबू खुशबू में चली जाए। अच्छा तो आप चालाकी कर रहे थे? बिलकुल, हमारा और कोई मतलब ही नहीं था, नहीं तो हम सेंट क्यों लगाते? हम सुपरलक्स क्यों लगाते? हम तो इसीलिए लगाते थे कि चौबीसों घंटे यह जो बदबू निकलती रहती है, इसे किसी तरह से दबाएँ तो सही, और लोगों को पता न चले, मालूम न पड़े। साँस में से बदबू आती है, इसलिए पान खाते हैं। इलायची चबाते रहते हैं और बहुत सी चीजें चबाते रहते हैं, क्योंकि हमारे मुँह में से बदबू निकलती रहती है, जिसकी किसी तरीके से रोक-थाम हो जाए। अच्छा, अब मैं समझ गया। चौबीसों घंटे बदबू उगलने वाला इनसान सारी की सारी हवा में कितनी गंदगी फैलाता होगा। अगर कभी आप बैठें और गणित के हिसाब से देखें कि हर क्षण इन सारे के सारे सूराखों से, जिसमें पसीने के सूराख भी शामिल हैं, कितनी सारी बदबू निकलती है और आदमी अपनी संपूर्ण जिंदगी में कितनी सारी बदबू निकाल देता है।
यज्ञ एक प्रकार से सफाई टैक्स है
मित्रो! आपके शरीर में से चौबीसों घंटे बदबू निकलती रहती है, आप इसका सफाई टैक्स अदा कीजिए। सफाई टैक्स आवश्यक है? हाँ भाई साहब! सफाई टैक्स आवश्यक है। यदि सफाई टैक्स आप नहीं देते तो चुंगी वाला आपको गिरफ्तार करेगा, समाज आपकी निंदा करेगा और आप आध्यात्मिक दृष्टि से भी गुनहगार साबित होंगे। अत: आप टैक्स अदा करें, ताकि जिस हवा में से आपने अच्छी हवा ले करके खराब हवा पैदा कर दी है, उसके स्थान पर उसका कर्ज चुका देने के लिए बैलेंस बराबर कर देने के लिए आपको टैक्स अदा कर देना चाहिए। यह क्या है? यह विज्ञान है। गंदगी को दूर करने के लिए अच्छी सुगंध फैलाना क्या है? यह हमारा फर्ज है और हमारा नागरिक कर्तव्य है, ताकि समाज से जब हम विदा हों तो हमारा बैलेंस बराबर हो जाए। गंदगी कितनी फैलाई-सौ मन। सौ मन सुगंध तो हम नहीं फैला सके, तो भी चलिए नौ मन तो फैलाई। ईमान तो है कि हमको सुगंध फैलानी है। इसमें और अधिक गंदगी से जो नुकसान होता है, उसे भी पूरा करना है। यह आवश्यक है, कम्पल्सरी है। इसलिए हमारे यहाँ बताया गया है कि हर आदमी के लिए यज्ञ एक आवश्यक दैनिक कृत्य है; क्योंकि आदमी गंदगी नित्य फैलाता है, इसलिए सुगंध के लिए भी नित्य प्रयत्न करना चाहिए। यह वायु संशोधन का काम नंबर एक हुआ। इसकी वजह से, विज्ञान की दृष्टि से हमारे लिए यह आवश्यक है कि अगर आप हवन नहीं करेंगे, वायु का संशोधन नहीं करेंगे, तो फिर आप देख लेना, वायु में प्रदूषण की शिकायत रोज बढ़ती ही जाएगी। मशीनें गंदगी फैलाती हैं, फैक्टरियों गंदगी फैलाती हैं भाई साहब! ये जितनी गंदगी फैलाती हैं, सो तो है ही पर इतने इनसानों द्वारा, कितनी गंदगी फैलती है, अगर आपने कभी इसका हिसाब लगाया होता तो आपकी समझ में आ जाता। मैं मानता हूँ किं फैक्टरियाँ गंदगी फैलाती हैं पर इनसान भी खूब गंदगी फैलाते हैं। इनसानों द्वारा गंदगी फैलाने का निराकरण करना हमारा नागरिक कर्तव्य है, हमारा सामाजिक कर्तव्य है और हमारा नैतिक कर्तव्य है अर्थात यज्ञ हमारा नैतिक कर्तव्य है।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥
यज्ञ और भारतीय संस्कृति
यज्ञ भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग है। उसका प्रत्यक्ष प्रतीक अग्निहोत्र अपनी प्रत्येक परंपरा के साथ जुड़ा हुआ है। उसे साथ लेकर ही अपने समस्त शुभ कर्म किए जाते हैं। हिंदू जीवन जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत १६ बार संस्कारित किया जाता है। सुसंस्कारों की स्थापना के इस विधान को षोडश संस्कार कहते हैं। पुंसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विद्यारंभ, उपनयन, विवाह, वानप्रस्थ आदि को संस्कार कहा जाता है। इन सभी धर्मकृत्यों का प्राण अग्निहोत्र है। उसके बिना इनमें से कोई भी कृत्य संपन्न नहीं होता। विवाह में तो अग्निहोत्र की परिक्रमाएँ करने को भाँवर फिरना कहते हैं और उसी को विवाह बंधन की प्रधान प्रक्रिया समझा जाता है। कहते हैं कि जिस तरह वेल्डिंग करके दो लोहे के टुकड़े जोड़ दिए जाते हैं उसी प्रकार दो आत्माओं को यज्ञाग्नि द्वारा अटूट गठबंधन में बाँधा जाता है। भारतीय जीवन यज्ञीय आदर्शों के साथ आरंभ होता है और उसका अंत यज्ञाग्नि में ही होता है। आज चिता जलाकर ऐसे ही अस्त-व्यस्त ढंग से अपने मुरदे जला दिए जाते हैं, किंतु वस्तुत: यह यज्ञ संस्कार है, जिसमें जीवन का आदि और मध्य ही नहीं अंत भी यज्ञदेव के अंचल में ही पूर्ण होता है।
पर्व-त्यौहारों का आज कुछ भी रूप बन गया हो, प्राचीन काल में उनमें से प्रत्येक समारोह सामूहिक यज्ञ आयोजन के साथ ही संपन्न होता था। अभी भी होली का त्यौहार उसी लकीर को पीटते हुए मनाया जाता है। नई फसल का नया अन्न तैयार होने पर उसका प्रथम उपयोग यज्ञ में, लोकमंगल में, परमार्थ में लगना चाहिए इस भावना को व्यवहार रूप देने के लिए ''होलिका यज्ञ'' किया जाता था। ''होली'' नवान्न को कहते हैं। जिस देवदृष्टि में नवान्न हवन प्रमुख हो, उसे होली कहते हैं। आज भी किसी प्रकार सामूहिक रूप में आग जलाकर उस पर अनाज की बालें भूनकर चिह्न पूजा कर ली जाती है। पर यदि गंभीरतापूर्वक देखा जाए तो प्रतीत होगा कि यह विशिष्ट वार्षिक यज्ञ था और उसे पूरे उत्साह के साथ सामूहिक रूप से मनाया जाता था। आज भी उस पुण्य प्रथा के खंडहर टूटे-फूटे रूप में बचे रह गए हैं।
यज्ञ को पर्व, त्यौहारों, संस्कारों एवं दैनिक नित्यकर्मों में सम्मिलित करने का प्रयोजन यही था कि भारतीयता के आदर्शों का अनुकरण करने वाला यह आवश्यक माने कि उसे संकीर्ण स्वार्थपरता की नीति अपनाकर पेट प्रजनन मात्र की पशु-वृत्तियों तक ही सीमित नहीं रहना है और न वासना-तृष्णा के भवबंधनों में फँस कर सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन नष्ट करना है। यज्ञ अपना आदर्श है। हम सिद्धांतों के लिए देव परंपराओं का अनुसरण करने के लिए लोक-कल्याण के लिए जीवित रहेंगे। ऐसी रीति-नीति अपनाएँगे, जिससे मानवता का गौरव बढ़ सके एवं देश, धर्म, समाज, संस्कृति के उत्कर्ष में योगदान मिल सके। इसी लक्ष्य को निरंतर ध्यान में रखे रहने के लिए बार-बार छोटे-बड़े यज्ञ आयोजनों की व्यवस्था की जाती थी। हमारे आज के गायत्री यज्ञों में भी यही प्रेरणा जनमानस में उतारी जानी चाहिए और उन आयोजनों द्वारा समाज में ऐसी चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए जिसमें सर्वत्र आदर्शवादी चिंतन, कर्म एवं व्यवहार को प्रश्रय मिल सके। यज्ञ किए जाएँ और उनमें किसी भी रूप में सम्मिलित होने वाला व्यक्ति यज्ञीय जीवन जीने का उत्साह प्राप्त कर सके ऐसा वातावरण बनाया जाए।
यज्ञीय विधि विधान संपन्न करने के साथ-साथ वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उस आदर्शवादिता की स्थापना की जाए जिसके लिए तत्त्ववेत्ताओं ने इस महान प्रचलन का प्रादुर्भाव किया है। वैयक्तिक जीवन में से असंयम एवं अनाचार को ढूँढ़ निकाला जाए और उसे मेध, अश्वमेध, नरमेध आदि की आलंकारिक प्रेरणा दुहराते हुए यज्ञाग्नि में झोंक दिया जाए। इसी प्रकार सामाजिक कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं एवं अंधविश्वासों को जन्मेजय द्वारा आयोजित नागयज्ञ की पुनरावृत्ति करते हुए आहुति रूप में होम दिया जाए यही देव दक्षिणा का स्वरूप है।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥