उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
इस समय जिसमें हम और आप रह रहे हैं, यह युग-सन्धि का समय है। युग-सन्धि क्या है? युग-सन्धि उसे कहते हैं, जबकि दो महत्त्वपूर्ण चीजें आपस में बदलती हैं, जैसे संध्या का समय। एक संध्या प्रातःकाल होती है और सायंकाल होती है। दिन खत्म हो जाता है, रात आ जाती है, यह सायंकाल की सन्धि का समय है। रात चली जाती है और सबेरा आने लगता है, यह प्रातःकाल की सन्धि का समय है। दो चीजें जब मिलती हैं, तब उनको सन्धि कहते हैं—संध्याकाल कहते हैं। यह संध्या का समय है, जिसमें एक दैत्य विदा होने जारहा है और देव प्रकट होने जा रहा है। दैत्य वह, जिसको हम पदार्थवाद—भौतिकवाद कहते हैं, जो देखने में चमकदार, शक्तिशाली और सामर्थ्यवान है, लेकिन भीतर से कलुषित है। उसकी प्रतिक्रियाएँ स्वयं के लिए और दूसरों के लिए भी दुःखद हैं। रावण जिया तो सही, जप-तप भी किया, सोने की लंका भी बनाई, लेकिन ऋषियों को मारता-काटता रहा, दुःख देता रहा और दुःख पाता रहा और अन्ततः दुःख पा करके ही मरा। स्वयं भी दुःख पाया और स्त्री-बच्चों को भी दुःख से जलते-भुनते देखा। दैत्य दुःख देता है और दुःख पाता है। देखनेमें उसका बाहरी कलेवर सोने जैसा चमकदार मालूम पड़ता है। उसकी ताकत ऐसी मालूम पड़ती है मानो दस सिर और बीस भुजाओं वाला हो। सामान्य मनुष्य से ज्यादा ताकतवर होता है दैत्य, जाइंट। जाइंट पहली बार विदा होने जा रहा है। फिर कौन आने वाला है? अबदेव का युग, सहृदयता का युग, सादगी, सज्जनता और सद्भावना का युग आने वाला है। ‘जाइंट’ जो जाने वाला है, जिसे हम स्वार्थपरता कहते हैं, संकीर्णता, निष्ठुरता और कृपणता कहते हैं, वह आज जन-जन के भीतर छा गया है। आज आदमी कितना संकीर्ण, कितना स्वार्थी हो गया है? उसे दूसरों के बारे में कोई चिन्ता नहीं, केवल अपनी ही चिन्ता है। यह कौन होता है? केवल अपनी ही चिन्ता करने वाले को दैत्य कहते हैं। दैत्य मनोवृत्ति के रूप में भी आता है और व्यक्ति के रूप में भी आ सकता है। उसकी यही पहचान है।
दैत्य कहाँ रहते हैं? कहाँ बतावें आपको। अपना मुँह शीशे में तो आपको दिखाई पड़ेगा कि दैत्य, राक्षस, जाइंट आपके भीतर बैठा हुआ है, जिसकी हविश जितनी ज्यादा है वह उतना ही बड़ा दैत्य है। हर एक की हविश आसमान को छू रही है। सौ रुपये रोज कमाने वाले काभी गुजारा नहीं। हविश का राक्षस इस तरीके से उछलता और उबलता रहता है कि अच्छे कार्यों के लिए, भजन-पूजन के लिए कुछ नहीं बचता हमारे पास, फिर सेवा के लिए, परमार्थ के लिए, देवपूजन के लिए कहाँ बचेगा? आपके पास है क्या जिससे पूजन करेंगे? आपके पास तो बची हुई एक हविश है, जिसको पूरा करने के लिए आप हर एक को निगलना चाहते हैं। आपकी ख्वाहिशें इतनी बढ़ी हैं कि आप हर एक का सफाया करना चाहते हैं, हर एक को अपने पेट में भर लेना चाहते हैं। पेट में कौन भरता है—दैत्य। वह कभी भजनकरता है रावण के तरीके से, तो कभी मारीच के तरीके से पूजन करता है। चारों ओर दैत्य छाया हुआ है। यह पढ़ा-लिखा भी है, बलवान भी है और विद्यावान् भी। कुबेर के खजाने से बँधा हुआ भी है यह ‘जाइंट’ जो आज सारे के सारे विश्व के मानस-पटल पर छा गया है।दैत्य अब मरने जा रहा है, विदा होने जा रहा है।
अब क्या आने वाला है? देव आने वाला है। देव किसे कहते हैं? शराफत को कहते हैं, भलमनसाहत को कहते हैं। देवता कहाँ रहते हैं? आसमान में रहते हैं। नहीं देवता एक सभ्यता का नाम है, संस्कृति का नाम है। इसी तरह दैत्य सभ्यता का नाम है, संस्कृति का नाम है।देव और दानव दो संस्कृतियों के नाम हैं। आज हर जगह दैत्य संस्कृति, जाइंट संस्कृति, बड़प्पन की संस्कृति, विलासिता की संस्कृति, वेश्याचार की संस्कृति के रूप में हर मनुष्य के ऊपर हावी है। चाहे वह लम्बे तिलक लगाता हो, चाहे पैंट पहनता हो। सब इस मामलेमें एक ही है कोई फर्क किसी में नहीं पड़ता। अब यह सभ्यता खत्म होने जा रही है और नई देव-सभ्यता प्रारम्भ होने वाली है। शायद आपको दिखलाई न पड़ता हो, पर हमको दिखाई पड़ता है। कैसे दिखाई पड़ता है? आप समुद्र के किनारे बैठ जाइए। आपको आने वालेजहाजों के मस्तूल दिखाई दे रहा है, थोड़ी देर में पूरा जहाज सामने आ जाएगा। बादल जब चमकते हैं, तब हमको मालूम पड़ जाता है कि पानी गिरने वाला है। पहले वाली सम्भावनाएँ देखकर मालूम पड़ जाता है कि कुछ हेर-फेर होने वाला है, परिवर्तन होने वाला है।परिवर्तन का संकेत पाकर बिल्ली अपने बच्चों को लेकर चल देती है। मकड़ी अपने जाले को समेट लेती है। भविष्य की जानकारियाँ सभी को होती हैं। चिड़ियों और कुत्तों को भी तथा अन्य प्राणियों को भी। दिव्यदर्शियों को भी होती हैं और परिस्थितियों को अनुमान लगानेवाले कम्प्यूटरों को भी। ये सभी भविष्य के बारे में अनुमान लगा लेते हैं और इनमें से अधिकांश सही भी होते हैं।
युगसन्धि का जो यह समय है, उसमें एक ओर मालूम पड़ता है कि विनाश अपनी आखिरी बाजी लगाने जा रहा है। हारा हुआ जुआरी अन्त में जो कुछ भी मिलता है उसी को दाँव पर लगा देता है, यहाँ तक कि बीबी को भी दाँव पर लगा देता है। वह बागी हो जाता है औरक्या करता है? चरम-सीमा पर जा पहुँचता है। दैत्य भी इन दिनों चरम-सीमा पर जा पहुँचेगा। अब वह समय निकट आ गया, जिसमें दैत्य अपनी चरम-सीमा पर होगा। आपने देखा होगा कि प्रातःकाल जब सूर्य उदय होने वाला होता है तो अँधेरा सबसे ज्यादा उसी वक्तहोता है। रात्रि घनीभूत कब होती है, जब प्रातःकाल नजदीक आ जाता है। दीपक की सबसे बड़ी लौ कब होती है, जब दीपक बुझना शुरू होता है। चींटी के पंख कब उगते हैं? जब उसके मरने के दिन नजदीक आते हैं। जब आदमी मरने को होता है तो बहुत जोर से साँस लेताहै और चेहरे पर चमक मालूम पड़ती है।
मित्रो! युगसन्धि के बारे में कई तरह के विचार हैं, कितनी ही तरह की मान्यताएँ हैं? उसमें एक यह कि एक पक्ष नष्ट होने वाला है और एक पक्ष जीवित होने वाला है। ऐसे समय को ‘प्रसव पीड़ा’ कहते हैं, जिसमें एक ओर प्रसूता के ऊपर जान की बन रही है। वह जीवनऔर मौत के झूले में झूल रही है। दूसरी ओर है खुशी, उमंग, मुस्कान कि नया बच्चा गोदी में आने वाला है। एक ओर खुशी भी होती है, सन्तोष होता है कि नया बच्चा आने वाला है और दूसरी ओर प्रसव-पीड़ा में जान भी निकलती है। यह प्रसव-पीड़ा का समय है, युग-पीड़ा का समय है, जिसमें हम और आप रह रहे हैं। इसमें दैत्य मरने जा रहा है और देव अपना जन्म लेने जा रहा है, उदय होने जा रहा है।
आपको इसका आभास कैसे मिलता है? हम कई आदमियों से मालूम करते हैं, कई फैकल्टीज से मालूम करते हैं, कई विचारकों से मालूम करते हैं तो नतीजा उसी स्थान पर जा पहुँचता है कि युग-परिवर्तन का समय नजदीक आ गया है। यह विनाश और विकास कासन्धिकाल है। इस सम्बन्ध में आकाश की जानकारी रखने वालों से पूछताछ की तो उन्होंने कहा कि अब दुनिया में घुटन पैदा होने वाली है। हवा के अन्दर गर्मी और विषाक्तता इस कदर बढ़ती जा रही है—कल-कारखानों के द्वारा, मशीनों के द्वारा, उद्योगों के द्वारासारा का सारा वातावरण विषाक्त होता जा रहा है। शहरों की गन्दगी कहाँ डालते हैं? नदियों में, परिणामस्वरूप सारी की सारी नदियाँ विषैली होती चली जा रही हैं। अब गंगा तट का पानी न नहाने लायक रहा है, न पीने लायक। न केवल हिन्दुस्तान में, वरन् सारे संसार मेंहवा और पानी खराब होते जा रहे हैं। हम चारों ओर से हवा और पानी के रूप में जहर पी रहे हैं। बढ़ता शोर-कोलाहल आदमी के मस्तिष्क को पागल बनाने के लिए काफी है, जिस तरह से कुपोषण के कारण छोटे बच्चे मौत के मुँह में चले जाते हैं, उसी तरीके से इनकुप्रभावों से आदमी की शारीरिक और मानसिक सेहत अब खराब होने वाली है?
मौसम के जानकारों का कहना है कि अगले दिन हमारे लिए मुसीबत के होंगे, क्योंकि तापमान इस कदर बढ़ता जा रहा है कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर जो बर्फ जमी है, वह बेतहाशा गलने वाली है और जलप्रलय का दृश्य सामने आने वाला है। इतिहास बताता है किपृथ्वी जब से बनी है तब से कई बार ऐसे मौके आए हैं जब जलप्रलय हुई और आबादियाँ डूब गई हैं। धरती बिना आबादी के रह गई है और क्या बुरे दिन नजदीक मालूम पड़ते हैं?
सांख्यिकी के जानकारों से जब हम पूछते हैं कि क्या ख्याल है तो वे भी लगभग यही बात कहते हैं कि अगले दिन बहुत खराब आ रहे हैं। क्यों आने वाले हैं? इसलिए आने वाले हैं कि जनसंख्या बेहद बढ़ती चली जा रही है। जनसंख्या का पृथ्वी पर बढ़ना एक बहुत बड़ाजुर्म है, एक बड़ा जोखिम है। पृथ्वी के भीतर असंख्य प्राणियों को जीवित रखने लायक खुराक नहीं है और न इसकी लम्बाई-चौड़ाई इतनी है कि रबर की तरीके से हम इसको फैला दें। इनसानों की एक सीमित मात्रा ही इस पर रह सकती हैं और खुराक पा सकती है। लेकिनइनसान के ऊपर जहालत इस कदर हावी होती चली जा रही है कि कीड़े-मकोड़े के तरीके से, चूहे और कुत्तों के तरीके से ढेरों के ढेरों पिल्ले और बिल्लियाँ पैदा होते चले जाते हैं और दुनिया के लिए आफत पैदा करते रहते हैं। बच्चे यदि इसी कदर बढ़ते रहे तो आप देख लेनादुनिया भूखों मरेगी। फिर यह ‘प्रकृति’ ऐसे बेहूदे लोगों के लिए हमेशा तीन डण्डे तैयार रखती है—एक महामारी, दूसरा अकाल और तीसरा महायुद्ध। ‘इकालाजी’ के हिसाब से महामारियाँ फैलेंगी और मक्खी, मच्छरों के तरीके से अनावश्यक रूप से बढ़ी हुई औलादों कोसमाप्त कर देंगी। तूफान आएँगे, लड़ाइयाँ होंगी, अकाल पड़ेंगे ताकि भूख के मारे जरूरत से ज्यादा बढ़ी हुई आबादियाँ खत्म हो जाएँ। ये मुसीबतें आएँगी और जरूर आएँगी।
और कौन क्या कह रहा था? जो ग्रह-नक्षत्र विद्या के जानकार हैं, वे कह रहे थे कि पृथ्वी का खाविन्द सुर्य है। ये दोनों मियाँ-बीबी के तरीके से रहते हैं। सूरज कमाता रहता है और पृथ्वी को भेजता रहता है। उसी के आधार पर पृथ्वी जिन्दा रहती है, फलती-फूलती है औरहरी-भरी बनी रहती है। अगर सूर्य की कमाई इसके हिस्से में न आई होती तो वह मर गई होती, मंगल और बुध की तरीके से जल-गल रही होती या फिर प्लूटो और नेप्च्यून के तरीके से इतनी ठण्डी होती कि यहाँ बर्फ के अलावा और कुछ न होता। यदि सूरज ने अपनीआँखें मोड़ ली होतीं तो यह शनि और शुक्र की तरह गैस का गुब्बारा बनकर रह रही होती। लेकिन यह सूरज की मोहब्बत है, जिसकी कमाई यह खाती रहती है और उससे गर्मी और रोशनी लेती रहती है। ‘लाइफ’ कहाँ से आ गई धरती पर? सूरज से। कीड़े-मकोड़े, जीव-जन्तु, इनसान सभी इन्हीं दोनों के ‘काम्बिनेशन’ से पैदा हुए हैं। पृथ्वी और सूरज का बहुत घना सम्बन्ध है। अब इसमें फर्क आ गया है। तलाक की नौबत तो नहीं आने वाली है, लेकिन नाखुशी की बहुत परिस्थितियाँ पैदा हो गई हैं। सूरज का पहले का इतिहास है कि जबकभी भी पृथ्वी और सूरज के सम्बन्धों में जरा भी फर्क आया है, घर में कलह उत्पन्न हो गया है। अब यह कलह फिर उत्पन्न होने वाला है। सन् १९८९ से सूरज के ऊपर ‘स्पॉट्स’ उत्पन्न होने वाले हैं, जो लगातार बीस वर्ष तक चलेंगे। ‘स्पॉट्स’ उन्हें कहते हैं जिनमें किएक-एक लाख मील लम्बी लपटें-ज्वालाएँ सूरज में से निकलती हैं और वे इतनी खतरनाक विकिरण पैदा करती हैं कि उसका सबसे बड़ा प्रभाव पृथ्वी पर पड़ता है। पहले भी कई बार ऐसे विकिरण आ चुके हैं और उसने पृथ्वी के सन्तुलन बिगाड़ दिए हैं। दूसरी बात अगलेदिनों ऐसे सूर्यग्रहण शृंखलाबद्ध रूप से आ रहे हैं जैसे कि ८०० वर्षों के इतिहास में कभी नहीं आए। इनका परिणाम सारा विश्व देखेगा।
तीसरी बात जो खगोल विद्या के जानकार बताते हैं वह यह कि सन् ८१ के बाद में एक और आपत्ति आने वाली है बृहस्पति गरम होने वाला है। अन्तर्ग्रही परिस्थितियों के जानकार भी बतलाते हैं कि बीस-पच्चीस साल सन् १९८० से २००० तक का समय युगसन्धि कावह पक्ष है, जो नुकसानदेह है, खौफनाक पक्ष है। अखण्ड-ज्योति में आपने कई बार ऐसी भविष्यवाणियाँ पढ़ी होंगी। अब कुछ और लेख जनवरी और फरवरी १९८० के अंक में छपे हैं ताकि लोगों को आगाह किया जा सके। यह लोगों को डराने वाली बात नहीं है, वरन्परिस्थितियों का विश्लेषण है। इसी तरह एक और तथ्य है, जिसकी वजह से हम कह सकते हैं कि यह नुकसान के समय हैं। इसके लिए धर्मशास्त्रों की गवाहियाँ पेश कर सकते हैं। बाइबिल में ईसा की वह भविष्यवाणियाँ हैं, जिन्हें ‘सेवन टाइम्स’ के नाम से जाना जाताहै। उनके अनुसार यह समय सन् १९८० से सन् २००० तक का समय होता है। उन भविष्यवाणियों का सारांश केवल तबाही है। इनसानों पर आने वाली तबाही है। कुरान की भविष्यवाणी को हम देखते हैं तो उसमें लिखा है कि १४वीं सदी में कयामत आएगी। कयामत कामतलब नुकसान भी हो सकता है। अभी वह कयामत जिसमें पृथ्वी का सफाया हो जाएगा, बहुत देर की बात है, लेकिन नुकसान का समय जरूर नजदीक है, मुसलमानों के लिए ही नहीं हम सबके लिए भी। सूरदास के ग्रन्थों से लेकर प्राचीन धर्मशास्त्रों, भविष्यपुराण, कल्किपुराण आदि सभी भविष्यवाणियों से भरे पड़े हैं। इससे मालूम पड़ता है कि अगले बीस वर्ष तबाही के खौफनाक वर्ष आ रहे हैं।
युगसन्धि का एक लक्षण यह होता है कि तबाही होती है। एक सत्ता उखाड़ी जाती है और दूसरी जमाई जाती है। क्रान्तियाँ होती हैं। एक चले गए, दूसरे आ गए। नुकसान होते रहे। दुनिया में जब एक सत्ता उखड़ती है और दूसरी सत्ता आती है, तब हमेशा गड़बड़ियाँ फैलती हैं, नुकसान होते हैं, दूसरी बातें होती हैं। युगसन्धि का यह पक्ष नम्बर एक है। इसका एक और पक्ष है—सुनहरा वाला पक्ष जिसको हम ‘प्रसव पीड़ा’ कहते हैं और उसका जिक्र भी कर चुके हैं। इसमें बीज गलता जाता है और अंकुर पैदा होता जाता है। धान रोपी जाती है, खुशीके गीत गाए जाते हैं कि अगले दिन फसल होने वाली है। भवन का शिलान्यास किया जा रहा है, नींव चिनी जा रही है और अगले दिनों भवन खड़ा हो जाएगा। यह क्या है? उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ हैं—शिलान्यास के रूप में, अंकुर पैदा होने के रूप में, बच्चा पैदाहोने के रूप में। अगर आप देख सकते हों तो इन दिनों उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ भी सामने हैं। जिस युगसन्धि में हम रह रहे हैं, उसे आपत्तिकाल कह सकते हैं, आपत्तिधर्म कह सकते हैं। ऐसे समय में जाग्रत आत्माओं की विशेष जिम्मेदारी होती है। उनको कुछखासतौर से देख−भाल करना उन लोगों की खास जिम्मेदारी हो जाती है, जो जगे हुए आदमी हैं, जिनमें मैं आपको भी शुमार करता हूँ।
ऐसे समय कुछ खास समय होते हैं, जिन्हें आपत्तिकालीन समय के नाम से पुकारते हैं। मसलन मोहल्ले में आग लग जाए, छप्पर जलने लगे, तो आपको सामान्य काम बन्द कर देना चाहिए और बाल्टी लेकर, रेत ले करके चल पड़ना चाहिए और जहाँ भी आग लगी है, बुझाना चाहिए। आपत्तिकालीन समय में आपत्तिकालीन फर्जों को अंजाम देना पड़ता है। दुर्घटनाएँ घट जाएँ, भूकम्प आ जाएँ, रेलगाड़ी का एक्सीडेण्ट हो जाए आपके पड़ोस में और सैकड़ों लोग घायल पड़े हों, तब आप यह नहीं कह सकते कि हमारे पास समय नहीं है, फुरसत नहीं है। यह कहना बन्द कीजिए। इस तरह के जो काम सामूहिक जिम्मेदारी के होते हैं, उनको पूरा करने में लग जाना चाहिए। नए युग का, नए जमाने का, महाकाल का, प्रज्ञावतार का खासतौर से आप लोगों से तकाजा है, उन लोगों से जो जाग्रत हैं, जगे हुए हैं, जिसमें मैं आपको शुमार करता हूँ, जिनकी कि अक्ल जनसाधारण से ऊँची है। जनसाधारण से मेरा मतलब है, वे आदमी जो सिर्फ पेट के लिए जिन्दे रहते हैं। इनको अपने स्वार्थ के अलावा, अपने मतलब के अलावा दूसरी चीज दिखाई नहीं देती। उनको न भगवानदीखता है, न दया, धर्म दीखता है, न देश दीखता है, न संस्कृति दीखती है। लोभी, लालची और लिप्सा में डूबे हुए आदमी, हविश के मारे हुए आदमी को मैं जनसाधारण आदमी कहता हूँ। वे उस भगवान की पूजा करना चाहते हैं जो दोना भर-भर के दे जाता है, बाल-बच्चेपैदा कर जाता है और इनाम दे जाता है। ऐसे भगवान की पूजा बन्द कीजिए। वह भगवान नहीं हो सकता जो आवश्यकता को देखे बिना, औचित्य और अनौचित्य को देखे बिना हर एक की मनोकामना पूरी करता रहता है। जो भगवान आज आदमी के ऊपर छाया हुआ हैवह भगवान नहीं शैतान है। भगवान की कुछ परिभाषा होनी चाहिए, कुछ क्रम होना चाहिए। भगवान सिद्धान्तों को कहते हैं, आदर्शों को कहते हैं, उत्कृष्टता को, सच्चाई को कहते हैं, ईमानदारी और वफादारी को कहते हैं, संस्कृति की सेवा को कहते हैं। आप लोग जो तीनमहीने के शिविर में आए हैं, उनमें से मुझे वे आदमी मालूम पड़ते हैं जो भगवान को जानते हैं, भगवान की परिभाषा जिनके दिमाग में आ गई है। जो भगवान से सम्बन्ध रखने वाले हैं, भगवान को प्यार करने वाले हैं। सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा कुछ असामान्यमनुष्य को मैं जानता हूँ कि वह दुःखियारा है। उस बीमार को दवा की जरूरत है। ये मेरे पास आते रहते हैं और मैं उनसे यही पूछता रहता हूँ कि बेटे, बता क्या बात है? क्या तकलीफ है, हारी-बीमारी से लेकर बेटे-बेटी की शादी-ब्याह, नौकरी पदोन्नति तक की बातें करते हैंऔर मैं उनसे यही कहता हूँ कि भगवान से प्रार्थना करेंगे और करा देंगे तेरा काम। बस उस गरीब को और क्या चाहिए?
मित्रो! क्या होना चाहिए? बालकों को गुब्बारे के अलावा टॉफी और चाकलेट के अलावा कुछ नहीं मालूम। उनसे कुछ काम नहीं होने वाला। वे तो गोदी में खेलने लायक और प्यार करने लायक हैं। वे मुसीबत में कुछ सहायता करने वाले नहीं हैं। उनसे धर्म-अध्यात्म की, लोक-परलोक की, भगवान की, समाज-संस्कृति की कुछ भी बात नहीं कहते। उनसे तो यही कहा जा सकता है कि अपना पेट भरिए, अपनी हविश पूरी करिए और इनसान के तरीके से गुजारा कीजिए। लेकिन आपसे कहना है, क्योंकि आपमें वह तत्व हमें दिखाई पड़ते हैंजो जीवितों में होने चाहिए। जीवन्त वे जो सामान्य मनुष्यों से ऊँचे उठे हुए होते हैं, जैसे आपने सुबह सूरज को निकलते हुए देखा होगा। सबसे पहले सूरज की किरणें पहाड़ों की चोटी पर आती हैं, पेड़ों पर आती हैं, फिर नीचे आते-आते जमीन पर आ जाती हैं। भगवान भीउनके ऊपर आते हैं, जिनके पास दिल होता है, हृदय होता है, जिनके पास भावनाएँ होती हैं। भगवान बंसरी बजाते हुए, डमरू बजाते हुए या तीर-कमान चलाते हुए नहीं आते। तो फिर क्या करते हैं? वे ऐसी भावनाएँ और हूक को लेकर आते हैं जो ऊँचे स्तर के लोगों में, भावनाशीलों में दिखाई देती है।
आप क्या कहना चाहते हैं? मैं यही कहना चाहता हूँ कि इस युगसन्धि की वेला में आप कुछ महत्त्वपूर्ण काम कर पाएँ तो आपके लिए शान की बात, गरिमा की बात होगी। क्या करना चाहिए? करने को तो ढेरों के ढेरों काम पड़े हैं, पर हमने इन तीन महीनों में जो आपकोयाद दिलाया है, वह यह कि हमको जमाने की फिजाँ बदल देनी चाहिए। बहुत सारे संकट हैं, लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा संकट—आस्था-संकट है। अक्ल का संकट नहीं है। पुराने जमाने में कोई-कोई पढ़े-लिखे होते थे, बाकी सारी की सारी जनता बिना पढ़ी थी। हमारीमाताजी जिनके पेट से हम पैदा हुए हैं, बिल्कुल बिना पढ़ी थीं। उन्होंने हमें बालकपन से ही इस प्रकार के संस्कार दिए कि हम भूल नहीं सकते। हमारी सबसे बड़ी गुरु हमारी माँ हैं, जो हमारे भीतर नैतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के सारे के सारे गुणों को अपनेदूध के साथ में पिला करके और गोदी में खिला करके हमको सिखा करके गई थीं और माताएँ भी ऐसी हो सकती हैं। बहुत-से आदमी ऐसे हो सकते हैं जिनके पास शिक्षा न हों और ऐसे आदमी शिक्षित हो भी सकते हैं, जिनकी अक्ल का तो कहना ही क्या? इसके बारे मेंकल भी कह चुका हूँ कि मालाबार हिल के ऊपर एक वकील रहता था, जिसने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच में इस कदर खाई पैदा कर दी कि दोनों देशों में तबाही आ गई। यह है अक्ल जिसके ऊपर हम लानत भेजते हैं। आप लोगों को एक ही काम करना है कि इसअक्ल को, विचारों को बदल देना है। शोध-अनुसंधान वालों से भी हमने यही कहा है कि आप केवल एक चीज की शोध कीजिए कि आदमी की विवेक-बुद्धि को और चिन्तन के ऊँचे वाले स्तर को जो गड़बड़ा गया है, उसको ठीक कीजिए, क्योंकि आज आदमी बुद्धिजीवी होगया है। उसकी बुद्धि को हर क्षेत्र में पटक-पटक कर मारना है। जिस तरह धोबी कपड़े को पीट-पीट कर धुलाई करता है, वैसे ही अक्ल को पीट-पीट कर ठीक करना है। यह अक्ल जिसका दूसरा नाम—‘बेअकली’ है, जो अक्ल का लिबास ओढ़ करके आदमी के दिमाग औरजीवन पर हावी हो रहा है, इसको पटक मारनी है, जिससे इसको ठिकाने लगाया जा सके।
अब आप क्या करना चाहते हैं? अब हम एक और काम करना चाहते हैं कि हमारा छोटा-सा समूह, छोटा-सा समुदाय क्रमबद्ध, एक प्लानिंग करके चलें तो मजा आ जाए। ऐसे समय में हम मूकदर्शक हो करके नहीं रह सकते। हमारा छोटा-सा जखीरा ऐसे समय में पानीपिलाने के लिए जागरूकों की टोली में चलेगा ही। अभी हम बच्चे हैं, छोटी बाल्टी हमारे पास है, हाथ छोटे हैं तो क्या हुआ, अपना फर्ज हमें पूरा करना ही चाहिए। युग सन्धि के इस वर्तमान समय में कुछ काम करने की हैसियत में हम हैं, उसे पूरा करने के लिए हमआमादा हो जाएँ तो ज्यादा अच्छा होगा। इसके लिए हमने चार पंचवर्षीय योजनाएँ बनाई हैं। हमारा अपना भी ऐसा ख्याल है या जिनका नियन्त्रण हमारे ऊपर है, उनकी सलाह-मशविरा से भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अगले २० साल सन् ८० से लेकर २००० तक कासमय ऐसा है, जिसमें एक कोने में ‘नए युग’ का पौधा विकसित होकर इस लायक हो जाएगा कि उसकी छाया में लोगों को बिठाया जा सके। हम विनाश को, जो सम्भावनाओं के रूप में डराता रहता है, उसे इस स्थिति से नीचे कर सकेंगे, निरस्त कर सकेंगे। जिससे लोगोंको राहत मिले और वे चैन की साँस ले सकें। आदमी का सन्तुलन २० वर्ष में बन जाएगा, ऐसा हमारा ख्याल है। पाँच-पाँच वर्ष की चार योजनाएँ जो हमने बनाई हैं, मैं नहीं जानता कि कब तक सँभालूँगा, पर मैं इतना जरूर कहता हूँ कि चारों योजनाओं को गति पकड़नेतक हम किसी न किसी रूप में कहीं न कहीं अपना वजूद कायम रखेंगे और यह कोशिश करेंगे कि नया युग लाने का जो आन्दोलन शुरू किया है, उसका फल भी देखने को मिल जाए।
पहली योजना बहुत सिम्पल है, दूसरी योजना उससे कठिन है, तीसरी योजना और उससे कठिन है और चौथी योजना सबसे ज्यादा कठिन है। पाँच सूत्रीय कार्यक्रम प्रत्येक के लिए है। सबकी जानकारियाँ कराने से आप परेशान हो जाएँगे और कहेंगे कि इतना बड़ा प्लान हैजिसे हम पूरा नहीं कर सकेंगे। अतः हम आपको प्रायमरी कक्षा की जानकारी देते हैं कि प्राथमिक योजना में आप व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से वातावरण को संशोधित करने की कोशिश करें। जो फिजाँ और हवा लोगों को धकेले ले जा रही है जिससे हर चीजसूख गई है, उसे दूर करने और लड़ाई लड़ने के लिए हमको दो काम करने चाहिए। एक तो आप अपनी व्यक्तिगत साधना में पहली जनवरी से दो चीजें मिला दें। पहली यह कि नया युग लाने के लिए एक धारा, एक प्रवाह कहीं से चला है, हम उसी में प्रवाहित होते हैं औरआपको भी प्रवाहित करने के लिए उसी ताकत का इस्तेमाल करते हैं। जो महान शक्ति इतना बड़ा कार्य कर रही है, नए युग को ला रही है, उसके साथ सम्पर्क बनाने वाली साधना-उपासना जो बहुत सरल है, आप पहली जनवरी से चाहें तो कर सकते हैं। इसके लिएआपको नित्य प्रातःकाल उस प्राण रूपी माँ के दूध को पीने हैं, जिसके पीते ही शक्तियाँ आ जाती हैं। दिनभर हम उसी प्राण को पीकर हम उछलते रहते हैं, फुदकते रहते हैं। आप लोगों को, जाग्रत आत्माओं को उस दूध को जो प्रातःकाल प्राणधारा के रूप में आता है, ग्रहणकरना चाहिए और रात्रि को सोते समय वातावरण में उसे तीर-कमान की तरह इस तरीके से छोड़ना चाहिए कि इस वातावरण को संशोधित करने में मदद कर सके। इसकी एक उपासना-पद्धति है जिसे मैं फिर कभी समझा दूँगा कि दोनों उपासनाएँ एक प्रातःकाल कीऔर दूसरी रात्रि को सोते समय कैसी करनी चाहिए?
दूसरा है महापुरश्चरण, जिसमें सामूहिक उपासना मुख्य है। सामूहिक उपासना में बड़ी शक्ति है। एक समय पर एक मन से एकाग्र होकर की गई उपासना स्वर-विज्ञान के हिसाब से और शक्ति-संचार के हिसाब से अद्भुत सामर्थ्य उत्पन्न करती है। इसलिए हम कहतेरहते हैं कि गायत्री मंत्र एक साथ बोलिए। मंत्र एक साथ बोले जाते हैं। स्वर एक साथ होने चाहिए। हवन में भी हम साथ-साथ बोलने पर जोर देते रहते हैं। एक समय पर एक साथ एक क्रम से की हुई उपासना का वह फल होता है, जैसे कि लोहे के बड़े पुलों पर से होकर जबकभी सिपाही चलते हैं तो कदम मिलाकर लेफ्ट-राइट से उन्हें मना कर दिया जाता है, क्योंकि उससे पुल टूटने का खतरा रहता है। आप लोग सामूहिक रूप से एक साथ एक ही समय, एक-सी ध्वनि, एक ताल-लय, एक नाद का उपयोग कर सकें तो स्वरविद्युत का एकबहुत बड़ा आधार विनिर्मित होगा और वातावरण के संशोधन का प्रयोजन पूरा करेगा। इस तरह एक व्यक्तिगत उपासना है और दूसरी सामूहिक। यह हमारे पंचवर्षीय योजना के आध्यात्मिक प्रयोग हैं। भौतिक और रचनात्मक प्रयोग अलग हैं; जो अपने स्थान पर चलतेरहेंगे।
एक और भी हमारा प्रयत्न है और वह उससे भी ज्यादा शानदार है। देवात्माओं के अवतरित होने का ठीक यही समय है। देवात्माएँ युग को सँभालने के लिए, युग को परिवर्तन करने के लिए, जन्म लेने को व्याकुल हो रही हैं। जब रामचन्द्रजी आए थे तो उनके साथ मेंदेवता आए थे। उन्होंने कहा था—जिस जमाने में आप पैदा हुए हैं, आदमी दो कौड़ी के हो गये हैं। आदमियों से सहायता नहीं मिलेगी आपको। मरने-मिटने के लिए और बड़े काम सँभालने के लिए तो आदमी शायद ही मिल पाएँ आपको, लेकिन हम चलेंगे और रीछ-बन्दरों के रूप में सारे के सारे देवता चलने के लिए आमादा हो गये थे। उन्होंने रीछ-बन्दरों के यहाँ जन्म लिया था, परन्तु इनसानों के घरों में, घुटन भरे वातावरण में जन्म लेने से मना कर दिया था और कहा था कि इन पेटुओं के यहाँ हम कैसे रहेंगे, जिनके कषाय औरकल्मष भरे हुए हैं। जिन घरों में स्वयंभू मनु और शतरूपा रानी की परम्पराएँ नहीं हैं, उन घरों में हम कैसे जिएँगे? उनका कुधान्य खाकर हम कितने दिन जिएँगे? इसलिए देवताओं ने मना कर दिया था और रीछ-बन्दरों के घरों में पैदा हुए थे।
आज की आवश्यकताएँ सूक्ष्म हैं। मैं आपसे सूक्ष्म बातें कह रहा हूँ, विशुद्ध अध्यात्म की बातें। स्थूल बातें, समाज-सेवा की बातें, पुरुषार्थ की बातें कल करूँगा। इस समय का सबसे बड़ा काम यह है कि युग को बदलने के लिए सामान्य नहीं, असामान्य आदमियों कीजरूरत है। इसके लिए भीम, अर्जुन, भरत, और हनुमान चाहिए। इसके लिए स्वराज्य लाने वाले गाँधियों, नेहरुओं और सुभाषचन्द्रों की जरूरत है। मैं चाहता हूँ कि हैवानों के पेट में से जन्म लेने के लिए देवताओं को मजबूर न होना पड़े और इनसानियत को कलंकित नहोना पड़े। कितना ही अच्छा होता कि सन् १९८० से देवता इनसानों के यहाँ जन्म लेते। इसके लिए हमें घरों का वातावरण ठीक करना चाहिए। हमारे दाम्पत्य जीवनों में मनु और शतरूपा रानी के संस्कारों वाली परम्परा पैदा होनी चाहिए, ताकि देवताओं का आह्वान कियाजा सके। हमारे घरों में कुन्ती की परम्परा पैदा होनी चाहिए, ताकि देवता उनकी कोख में और गोद में खेलने के लिए रजामन्द हो सकें। देवता हर एक के यहाँ नहीं आ सकते। शकुन्तला के पेट में से भरत आए थे। सीता के पेट में से लव-कुश आए थे। घर-परिवारों में ऐसीपरिस्थितियाँ फिर से पैदा करने के लिए हमने ‘‘परिवार निर्माण योजना’’ को जन्म दिया है और कहा है कि परिवारों में धार्मिक वातावरण बनाइए। दाम्पत्य-जीवन में पूजा-उपासना की, आरतियों की, पंचयज्ञों की, गायत्री माता को प्रणाम करने की न्यूनतम उपासना कीपरम्परा आरम्भ कीजिए। सारे के सारे घरों का वातावरण बनाने के लिए, ताकि कोई देवात्मा यदि जन्म लेने को इच्छुक हो तो उनको मौका मिल सके।
मित्रो! हमने इस कुम्भ मेले पर जाति-बिरादरियों के शिविर लगाए हैं। इस माध्यम से हम विवाह परम्परा में ब्रह्मविवाहों का प्रचलन करना चाहते हैं। ब्रह्मविवाहों से मतलब है—आदर्श विवाह, शालीनता के, बिना खर्च के विवाह। आज सभी जगह असुर विवाहों, दैत्य-विवाहों का प्रचलन है, जिसमें बेटे वाला बेटी वाले का पेट फाड़ डालता है। दोनों तरफ पैसे की होली जलती है। ऐसे घरों में देवता नहीं गुण्डे, धूर्त, राक्षस और कंस पैदा होंगे, हिप्पी और एक्टर पैदा होंगे और जन्म देने वालों के लिए आफत करेंगे। इसीलिए हमने विवाहपरम्परा को शानदार बनाया है और इसलिए शानदार बनाया है कि हमारे परिवारों में, हमारे घरों में देवता जन्म ले सकें। यदि यह परम्परा चल पड़ी, फिजाँ फैल पड़ी, एक की देखा-देखी दूसरे ने ग्रहण कर लिया, तब फिर हमारी आर्थिक, सामाजिक, नैतिक औरभावनात्मक परिस्थितियों में जमीन-आसमान जैसा फर्क आ सकता है। यह वह चीज है जो हमने पहली तीन पंचवर्षीय योजना में शामिल की है। चौथी और भी अधिक क्रान्तिकारी है, जिसका जिक्र मैं कल करूँगा। आज की बात समाप्त करता हूँ।
ॐ शान्तिः