उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो ! भाइयो !!
आज श्रावणी का पुनीत पर्व है, जिसको मनाने के लिए हम और आप एकत्रित हुए हैं। आइये विचार करें कि यह पर्व हमारे लिए क्या संदेश लेकर आया है और क्या दिशा-धारा निर्धारित करने आया है। हमारी महान परम्पराएँ हैं जो प्रायः हमारे स्मृति-पटल से बिखर जाती हैं, जिन्हें, हम भूल जाते हैं। हम लोगों के साथ कुछ ऐसा ही है। आदमी का झुकाव, मनोवृत्तियों का झुकाव नीचे की दिशा में है। ऊपर की दिशा में चलने के लिए बड़े प्रयत्न करने पड़ते हैं। कुएँ में से पानी निकालने के लिए कई तरह के इंतजाम करने पड़ते हैं। छत पर से नीचे गिरना हो तो कुछ मेहनत करने की जरूरत नहीं है। किसी खड्डे में कोई चीज आपको धकेलनी हो तो मेहनत करने की जरूरत नहीं है। ऊपर चढ़ाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। इसीलिए ऋषियों के द्वारा भारतीय संस्कृति का स्वरूप इस तरीके से बनाया गया है कि जिससे आदमी को ऊँचा उठने का, आगे बढ़ने का मौका मिल सके। मनुष्य गिरता तो है ही, गिरने में क्या दिक्कत है? मन की बनावट ही ऐसी है। इसके अन्दर जन्म-जन्मान्तरों के पशुवत् संस्कार चौरासी लाख योनियों में घूमने के बाद आ गये हैं। ये कुसंस्कार आदमी के लिए काफी हैं कि उसी नीचे गिराते रहें और नीचे की वृत्तियों की तरफ उसका ध्यान आकर्षित करते रहें। इसमें कुछ करना नहीं है।
संस्कृति किसलिए बनायी गयी? धार्मिक परम्पराएँ और अध्यात्म का ढाँचा और संस्कृति की परम्पराएँ सिर्फ एक काम के लिए बनायी गयी कि मनुष्य को ऊँचा उठाया जाए, आदमी को आगे बढ़ाया जाए। इन दो उद्देश्यों को लेकर संस्कृति बनायी गयी है। भारतीय संस्कृति में त्यौहारों और पर्वों का अपने आप में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रावणी का तो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण स्थान है। ब्रह्मकर्म में श्रावणी का पहला नम्बर आता है। आध्यात्मिक दृष्टि से भी श्रावणी पर्व अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। अनेक पर्वों के अपने-अपने आधार हैं। हमारा आर्थिक संतुलन किस तरीके से स्थित रहे और हमारी अर्थोपार्जन से लेकर के अर्थ के व्यय करने तक की नीति क्या होनी चाहिए—ये आधार हैं दीपावली का। विजयादशमी का त्यौहार है जो हमको विजय प्राप्त करने के लिए, विजयी और सफल जीवन जीने के लिए, भौतिक सामर्थ्यों का किस तरीके से संकलन करना चाहिए, हथियारों से कैसे सुसज्जित रहना चाहिए, स्वास्थ्य-सम्वर्द्धन कैसे रहना चाहिए, दुर्गा के तरीके से हमारी शक्तियों का एकत्रीकरण कैसे होना चाहिए, वगैरह-वगैरह समर्थता की शिक्षा हमको विजयादशमी से मिल सकती है। वसंत शिक्षा का त्यौहार—हमारे लिए शिक्षा की जरूरत है। हमको पढ़ना चाहिए। विद्या बिना आदमी किसी काम का नहीं होता ।। ये वसंत पंचमी सरस्वती के जन्मदिन का त्यौहार है। होली का अपना महत्त्व है, गन्दगी के विरुद्ध लड़ने, पाप और अनाचार के विरुद्ध लड़ने के लिए। गन्दगी को जलाने, फूँक देने और नष्ट करने के लिए हमारा होली का त्यौहार है। एक से एक बढ़िया त्यौहार है। इन सारे के सारे त्यौहारों में ज्यादा महत्त्वपूर्ण त्यौहार वह है, जो कि आज आपके सामने उपस्थित है—श्रावणी पर्व।
श्रावणी क्या है? श्रावणी यज्ञोपवीत का त्यौहार है। इसमें यज्ञोपवीत को हम हर साल बदल देते हैं। ठीक उसी तरह जैसे हम बन्दूक का, मोटर का, लाइसेंस हर साल बदलते हैं। बहीखाता भी हर साल बदलते हैं। बहुत से काम ऐसे हैं, जो हर साल बदलने पड़ते हैं। क्यों? ताकि हमको देखने का, निरीक्षण करने का मौका मिलता रहे। यह रिन्यू कराने का त्यौहार है। यज्ञोपवीत बहुत महत्त्वपूर्ण चीज है। बेटे, यज्ञोपवीत एक तरह के संकल्प का प्रतीक है, जिसमें आदमी दूसरा जन्म लेने की प्रतिज्ञा करता है। दूसरा जन्म क्या है? दूसरा जन्म है—द्विज का। यज्ञोपवीत दूसरे जन्म का सर्टिफिकेट है। यह इस बात का संकेत है कि हमें इनसान की जिन्दगी जीनी चाहिए। इनसान का जन्म मिलना, ये भगवान की कृपा के ऊपर है और उसका ठीक तरीके से इस्तेमाल करना इनसान के ऊपर है कि वह अपनी जिन्दगी को उस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करे जिसके लिए भगवान ने जन्म दिया है। भगवान ने किस काम के लिए जन्म दिया है? भगवान ने किसी मकसद के लिए जन्म दिया है कि आदमी को हैवान नहीं रहना चाहिए, इनसान बनना चाहिए। इसके लिए इनसान का कलेवर और इनसान का लिफाफा, इनसान के हाथ-पाँव, इनसान के कलपुर्जों और इनसान की मशीन ये सारी की सारी चीजें हमारे सुपुर्द कर दी गयी हैं। भगवान के द्वारा इसके बाद की जिम्मेदारी अब हमारी है कि जिस काम के लिए यह मशीन हमको दी गयी है, उस काम को पूरा करें। इनसान होकर के दिखाएँ। हैवान से एक दर्जा बढ़े, तरक्की करें। इस तरक्की के बाद में, एक दर्जा ऊँचा उठने के बाद में इस बात का सबूत पेश करें कि इनसान से अगले वाले दर्जे प्राप्त करने का हमको हक है। इनसान से आगे के दर्जे? हाँ, इनसान से आगे और भी दर्जे हैं। कौन-से हैं? जिसको हम देवत्व का दर्जा कहते हैं। इनसान अपनी जिन्दगी में एक और कदम बढ़ा सकता है, एक और प्रमोशन प्राप्त कर सकता है, जिसको देवता कहते हैं। देवता कौन होते हैं? देवता इनसान होते हैं। कैसे इनसान होते हैं? जैसे हमारे बुजुर्ग थे। यहाँ देवता निवास करते थे। देवता का विचार, देवता का चिंतन अलग होता है। देवता और इनसान की शक्ल में तो फर्क नहीं होता, पर दृष्टिकोण में जमीन-आसमान का फर्क होता है। आप इस बात के लिए अगर सबूत पेश करें कि हमको देवता बनना चाहिए तो देवताओं के अन्दर जो विशेषताएँ होती हैं, देवताओं को जो सम्मान मिलता है, देवताओं में जो सामर्थ्य होती है, देवता अपने आप में हँसते-हँसाते रहते हैं। देवता अपनी सुगन्धि से वातावरण को न जाने क्या से क्या बना सकते हैं? वह दूसरा दर्जा आप पा सकते हैं इसी जिन्दगी में।
आपने तो न जाने क्या-क्या कल्पनाएँ कर रखी हैं कि मरेंगे तो स्वर्गलोक में जाएँगे। कहाँ मरेंगे आप? शरीर बदल लेते हैं बार-बार। कपड़ा पुराना होता है तो बदल लेते हैं नहाना भी पड़ता है। बनियान में गंध आ जाती है, धोती में गंध आ जाती है तो रोज धोकर के दूसरी बदल लेते हैं। दूसरे दिन फिर दूसरी बदल लेते हैं। मरेंगे, मरकर फिर कहाँ जाएँगे? बैकुण्ठ लोक में जाएँगे। कहाँ है बैकुण्ठ? बैकुण्ठ इसी जमीन पर है। आपको मालूम नहीं है। स्वर्ग भी इसी जगह है और नर्क भी। देवता भी इसी जगह पर रहते हैं और राक्षस भी। इनसान भी इसी में रहते हैं। ये सारी किस्में मनुष्यों की हैं। तरक्की के लिए मैट्रिक के बाद आप बी.ए. कर लें, बी.ए. के बाद आप एम.ए. कर लें और पोस्ट ग्रेजुएट हो जाएँ। इसी तरीके से सिपाही से आप दरोगा हो जाएँ, दरोगा से आप सुपरिन्टेडेन्ट हो जाएँ। इस तरीके से बहुत से चांस हैं। आप चाहें तो एक और भी मौका है कि देवताओं के बाद आप भी भगवान हो सकते हैं। भगवान? हाँ भई भगवान भी हो सकते हैं। इनसान परब्रह्म नहीं हो सकता, पर भगवान हो सकता है। परब्रह्म और भगवान में क्या फर्क है? परब्रह्म वह है जो सारे के सारे ब्रह्माण्ड के ऊपर नियंत्रण रखे हुए हैं, काबू रखे हुए हैं, कब्जा रखे हुए हैं। सारी सृष्टि का संचालन जो व्यवस्थित रूप से चलाता है और बनाता है उसका नाम है—परब्रह्म! भगवान उनको कहते हैं, जिन्हें हम देवदूत कहते हैं जो विश्व की व्यवस्था को कायम रखने के लिए आते हैं और अपना काम करने के बाद चले जाते हैं। इन्हें अवतार भी कहते हैं—जैसे भगवान रामचन्द्र जी, भगवान श्रीकृष्ण जी, भगवान परशुराम और भगवान बुद्ध आए। आदमी का ऊँचे से ऊँचा स्तर भगवान का है। आपके लिए चांस है। इनसान का जन्म पाकर के ठीक तरीके से अपनी मंजिल के ऊपर चढ़ते चले जाएँ ताकि वह सब पा सकें। इसी का स्मरण दिलाने, जानकारी कराने के लिए संस्कार कराये जाते हैं।
हिन्दू का बच्चा जब थोड़ा बड़ा, समझदार होने लगता है तो हिन्दू परम्परा के मुताबिक़ उसका यज्ञोपवीत कराया जाता है। यज्ञोपवीत तीन लड़ का एक धागा है, जिसे कंधे पर धारण किया जाता है। जब मल-मूत्र विसर्जन के लिए जाते हैं तो उसे कान पर चढ़ा लेते हैं और हाथ साफ करके कान से उतार लेते हैं। उससे क्या हो जाता है? ये हमारे प्रतीक हैं। प्रतीकों के पीछे न जाने क्या से क्या शिक्षण भरा हुआ पड़ा हैं? प्रतीक हमारी गीता की पुस्तक, हमारे मंदिर में पत्थर की प्रतिमा। श्रद्धा आरोपित करके इन प्रतीकों को हमने शक्तिपुंज, भगवान बना दिया है। मीरा के गिरिधर, रामकृष्ण परमहंस की काली, एकलव्य के लिए गुरु प्रतिमा, ये भगवान थे। नहीं साहब ये तो खिलौने थे। हाँ भगवान के प्रतीक खिलौने भी हो सकते हैं, लेकिन अगर उन्हें श्रद्धा से समन्वित कर दिया जाए, तब उसी मिट्टी का खिलौना जिसे एकलव्य ने किसी संस्कार बिना, किसी मंत्र के अपने आप बना लिया था, उसने गजब करके दिखा दिया और मीरा ने—जिसका संस्कार भी नहीं हुआ, प्राण-प्रतिष्ठा भी नहीं हुई, मन्त्रोच्चार भी नहीं किये, उस पत्थर के टुकड़े में से भगवान बना दिया था। धागे को श्रद्धा से समन्वित करके हम जनेऊ में से भगवान को बना सकते हैं। कैसे बना सकते हैं? जनेऊ में अगर हमारी निष्ठाएँ और आस्थाएँ शामिल हो जाएँ तो क्या से क्या हो सकता है? उस श्रद्धा को जिस श्रद्धा के आधार पर हैवान को इनसान बनाने के लिए जनेऊ पहनाया जाता है। उसके स्थान मौलिक फिलॉसफी, तत्त्वज्ञान जोड़ दिया जाता है कि दूसरे जन्म से मतलब ये है कि आदमी जब पैदा होता है तो शरीर से तो इनसान होता है, लेकिन मानसिक स्तर की दृष्टि से, चिंतन और विचारों की दृष्टि से हैवान होता है, नरपशु होता है। नरपशु किसे कहते हैं? जिनका कि शरीर से तो इनसान का होता है, पर दिल-दिमाग हैवान का होता है। उसका नाम नरपशु है। नरकीटक और नरपिशाच आपने सुने होंगे। परिस्थितियाँ जब मजबूर करती हैं तो आदमी नर−पिशाच भी हो सकता है और नरकीटक भी? लेकिन वे कम होते हैं। आमतौर से आदमी नरपशु पाये जाते हैं।
नरपशु कैसे पाये जाते हैं? पशु और इनसान की मनोवृत्तियों में क्या फर्क है? शरीरों में तो बहुत फर्क है। शरीर में मूल फर्क ये हैं कि आदमी बोल सकता है, जानवर बोल नहीं सकता। आदमी में समझ होती है, जानवर में समझ नहीं होती। आदमी दो पैरों से खड़ा हो सकता है, जानवर दो पैरों से खड़ा नहीं हो सकता। रीढ़ की हड्डी की बनावट—आदमी की दूसरी तरह की है। इनसान को हँसना-रोना आता है और जानवर को हँसना-रोना नहीं आता। शरीर की दृष्टि से आदमी भिन्न है। आदमी का काम करने, पुरुषार्थ करने के लिए इतना शानदार हाथ दिया गया है कि मैं कहता हूँ कि यह गजब का है। इससे आदमी न जाने क्या कर सकता है? आदमी का दिमाग कमाल का है। ये क्या है? ये इनसान और जानवर की बनावट में साफ फर्क है, जो मैंने आपको बताया। लेकिन एक मामले में दोनों एक हैं? आदमी की नीयत और मनोवृत्ति। जानवरों की मनोवृत्ति की धुरी दो हैं। पृथ्वी की धुरी दो हैं—एक उत्तरी ध्रुव, एक दक्षिणी ध्रुव। गाड़ी की धुरी दो हैं—एक दायाँ वाला पहिया, एक बायाँ वाला पहिया। बैलेन्स इन्हीं पर टिका रहता है। एक को गिरा दें तो फिर गाड़ी गिर पड़ेगी। इसी तरीके से हैवान दो चीजों पर टिका रहता है। उसकी नीयत आप खोलिये, पोस्टमार्टम कीजिए, उसके दिमाग को तौलकर देखिये तो हैवान के विचारों में दो चीज पाइयेगा, तीसरी कोई चीज नहीं पायी जाएगी। आदमी क्या सोचता है और क्या करना चाहता है? आदमी की इच्छाएँ, प्रेरणाएँ, विचारणाएँ, क्रियाएँ क्या हैं? आदमी की इच्छाएँ पहले होती हैं, इच्छाओं पर विचार करने के बाद में शरीर को उसका हुक्म मानना पड़ता है। शरीर दिमाग का कहना मानता है और दिमाग हमारी मान्यताओं, आस्थाओं, आकांक्षाओं का हुक्म मानता है। दिमाग हमारा खराब है, हमारी आस्थाएँ और नीयत खराब हैं। इसीलिए हमारी नीयत, इच्छाएँ, रुचि, लक्ष्य आदमी की नहीं हैवान की हो जाती है, तब दिमागी दृष्टि से, विचारों की दृष्टि से इनसान और हैवान में कोई फर्क नहीं पड़ता। दोनों हूबहू एक हो जाते हैं। इनकी नीयत में दो ही चीज दिखाई पड़ती हैं—पैसा और औलाद। आप क्या चाहते हैं? पैसा? आप क्या चाहते हैं? औलाद? तीसरी कोई चीज न हो तो आप शरीर की दृष्टि से कौन हैं? हम नहीं जानते, लेकिन आप मन की दृष्टि से, भावना की दृष्टि से, चिंतन और आस्थाओं की दृष्टि से कौन हैं, विचारिये।
हैवान को इनसान बनने के लिए क्या करना चाहिए? वही जो यज्ञोपवीत में सिखाया गया है। यज्ञोपवीत में सारे का सारा पाठ्यक्रम, सारे का सारा कैरिकुलम, सारी की सारी स्कीम्स, जो स्कूलों में पढ़ाया जाता है, जो छोटे रूप में, संक्षेप में इसके भीतर बना दिया गया है। क्या करना चाहिए आदमी को? आदमी को हैवान के बदले दो काम करने चाहिए, एक तो हजारों जन्मों के साथ जो मलीनताएँ आदमी के ऊपर हावी हो गयी हैं, इनसे लोहा लेना चाहिए, उन्हें दूर करना चाहिए। हमें लड़ाई लड़नी चाहिए उन निकृष्ट मनोवृत्तियों और कुसंस्कारों से जो न जाने किस-किस जन्म के, ज्यों के त्यों अभी भी हमारे भीतर मौजूद हैं। लड़ाई से तात्पर्य—तप, संयम, कानून, मर्यादा और मनोबल से है। तपश्चर्या के अन्तर्गत ये सब चीजें आती हैं, जिन्हें यज्ञोपवीत संस्कार कराते समय सिखाया जाता है। आपको अपने कुसंस्कारों के विरुद्ध बगावत खड़ी करनी चाहिए और अपने भीतर इनसानी ताकत विकसित कर देवत्व धारण करना चाहिए।
एक काम तो यह है कि हमें अपने स्वार्थ को जानना चाहिए। स्वार्थ क्या है? स्वार्थ यह कि हम जीवन में तरक्की करें। तरक्की से हमको आत्मसंतोष, यश मिलेगा और इतिहास के पन्नों पर हम अपना नाम छोड़ करके जा सकेंगे। हमारा स्वार्थ और भी है कि इस दुनिया में जो खुशी हमको मयस्सर न हो सकी, वो खुशी जिन्दगी में आनी चाहिए। खुशी-प्रसन्नता के समावेश का नाम है—स्वर्ग। स्वर्ग कोई गाँव, बस्ती, कोई लोक नहीं है। फिफ्थ डायमेंशन, फोर्थ डायमेंशन ये विचारों और चिन्तन के डायमेंशन होते हैं। स्वर्ग भी एक डायमेंशन है—हमारे दृष्टिकोण का। इसमें हम देखना शुरू करते हैं तो इस दुनिया में बड़ी खुशी, खूबसूरती, आनन्द और तरह-तरह के नजारे दिखायी पड़ते हैं। हमको बेहद शांति दिखायी पड़ती है चारों ओर। इसका नाम है स्वर्ग। नर्क क्या है? नर्क उसी का नाम है कि जहाँ कहीं भी हम निगाह फेंकते हैं अथवा स्पर्श करते हैं, हाथ डालते, सम्बन्ध बनाते हैं, वो सब बागी हो जाते हैं। कौन-कौन बागी हो जाते हैं—हमारी बीबी, हमारे बच्चे, हमारे पड़ोसी, हमारा समाज, यहाँ तक कि हमारा शरीर भी कहता है मारूँगा डण्डे से आपको। हमारा चिंतन, दृष्टिकोण जब विकृत हो जाता है तो हमारा शरीर, दिमाग बगावत कर देता है। हमारे कम्प्यूटर ने हमारे विरुद्ध झंडा खड़ा कर दिया कि आपको सोने नहीं देंगे, चैन से रहने नहीं देंगे। चिंताओं, निराशाओं से दिमाग हैरान हो जाता है। बेटे! हमारे जीवन में नर्क भी है और स्वर्ग भी, बन्धन भी हैं और मुक्ति भी। चारों ओर के बन्धनों ने हमको जकड़ रखा है—पैरों में, हाथों में, गले में सब जगह बन्धन। ये हमारी कमजोरियाँ हैं, वरना आदमी के ऊपर क्या बन्धन हो सकता है? जानवर पर बन्धन हो सकते हैं, पैर में, गले में रस्सी बाँध दी। इनसान को कोई नहीं बाँध सकता, लेकिन उन्नति के मार्ग पर जिन बन्धनों ने रोककर रखा है। वे आपकी कमजोरियों और दृष्टिकोण से ताल्लुक रखते हैं। अगर इन्हें तोड़ा जा सके तब? आपकी मुक्ति हो सकती है। इसी को कबीर ने ‘जीवन-मुक्त’ कहा था और यह नाम मुझे बहुत पसन्द आया। स्वर्ग वह जो आदमी की इसी जिन्दगी में—खुशी, उमंग, उत्साह और आशाओं के रूप में है। ये चीजें अगर मिल जाती हैं तो आपका स्वार्थपूर्ण हो जाता है। जीवन को नेक, समुन्नत सुसंस्कृत, सभ्य, शालीन बनाएँ तो स्वार्थ पूर्ण है।
परमार्थ—एक और उद्देश्य है। इनसान की जिन्दगी का परमार्थ किसे कहते हैं? जिससे भगवान की इच्छाएँ पूरी हों। भगवान के प्रति आपका ख्याल है कि वह एक छोटी तबियत का है। आप जैसे छोटे हैं, बिलकुल वैसा ही छोटे मॉडल का भगवान आपने बनाकर रख लिया है, जो खुशामद, चापलूसी, चमचागिरी, प्रार्थना, पूजा कराने के लिए मारा-मारा फिरता है। आऽह! आप और आपका बनाया भगवान—‘‘राम मिलायी जोड़ी और एक अंधा, एक कोढ़ी।’’ दोनों हूबहू एक जैसे सगे माँ जाए भाई। एक चापलूसी पसन्द करता है और दूसरे को चापलूस बनाता है। नारियल खाइये, मनोकामना लाइये। बेटे, ये भगवान नहीं हैं। मैं तो दूसरे भगवान की बात कहता हूँ। कौन-सा? जो आपके हृदय में करुणा, सहृदयता, उदारता के रूप में विद्यमान रहता है। करुणा के रूप में भगवान? हाँ करुणा के रूप में भगवान। वाल्मीकि ने एक बहेलिये के तीर से क्रौंच पक्षी को घायल देखा। क्रौंच पक्षी तड़प रही था। उसकी बीबी उसके पास बैठी रोती-बिलखती, प्राण त्याग रही थी। उसकी करुणा को, उसके दुःखों को, उसकी संवेदना को वाल्मीकि ने देखा। उनके पत्थर जैसे कठोर हृदय के भीतर करुणा की धारा आ गयी और जिस क्षण करुणा की धारा आयी, उसी क्षण से उनके अंदर से अध्यात्म फूट पड़ा। अध्यात्म माने भगवान, भगवान माने अध्यात्म। करुणा किसे कहते हैं? जिसको हम सेवा कहते हैं, उदारता, परमार्थ कहते हैं। भगवान ने ये अपेक्षा की इनसान से कि वह निष्ठुर, कृपण, स्वार्थी न बने। उसे उदार, परोपकारी, लोकसेवी बनना चाहिए और भगवान के कामों में हिस्सा बँटाना चाहिए। भगवान ने इनसान को अपने सेक्रेटरी के रूप में, इंजीनियर के रूप में इसीलिए बनाया है कि हमारे बगीचे को, हमारे उद्यान को अच्छा, सुरम्य बनाने में हमारा हाथ बँटाये। बड़े बेटे से बाप हमेशा उम्मीद करता है कि हमारा बेटा जब बड़ा हो जाएगा तो हमारे कारोबार में हाथ बँटायेगा। ठीक इसी तरह भगवान ने अपने बड़े बेटे इनसान से ये उम्मीद की है कि उसकी दुनिया को सभ्य, सुसंस्कृत, समुन्नत बनाने के लिए हमारा हाथ बँटायेगा। ये ही पूजा है, ये ही भजन है, भाई साहब, आप सुनते क्यों नहीं? नहीं साहब भजन में तो हम ग्यारह माला का जप करते हैं। ग्यारह माला के पीछे ये ही मकसद है, आप समझते क्यों नहीं?
हमारा परमार्थ इस बात में है कि हम इनसान की जिन्दगी अपनाकर सादा जीवनयापन करें, कम में गुजारा करें, कम खर्च में काम चलाएँ और जो हमारे पास शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं अन्य प्रकार के साधन बच जाते हैं, उनको भगवान के काम में लगाएँ। भगवान की बैंक में जमा करें, ताकि हजारों गुना होकर के फिर हमारे पास आए और भगवान हमारी ईमानदारी पर विश्वास करें। हमारा जो प्रमोशन है देवता का, अवतार का, ये सारे के सारे प्रमोशन हमको टाइम पर मिलते चले जाएँ। ये हमारा परमार्थ है—भगवान को प्रसन्न करना, जीवन में उदार होना। हम एकादशी उपवास करें तो? मर्जी है आपकी। पेट अच्छा होगा, पर एकादशी व्रत भर से भगवान प्रसन्न नहीं होता, उदारता और परमार्थ परायणता के बिना। इसीलिए मित्रो! मैं कहता हूँ कि भगवान की प्रसन्नता के लिए फिर एक बार समझिये। भगवान का स्वरूप आदमी की संवेदना में, उदारता के रूप में, परमार्थपरायणता, लोकमंगल के रूप में होना चाहिए और इस विश्व को सुखद, समुन्नत बनाने के रूप में होना चाहिए। न भगवान का रूप इससे कम में है और न इससे ज्यादा होने की जरूरत है। आदमी का स्वार्थ इससे कम में नहीं हो सकता। सांसारिक स्वार्थ भी मैं इसी को कहता हूँ। संसार का स्वार्थ-जिन आदमियों ने अपने व्यक्तित्व को गौण और स्वभाव को श्रेष्ठ बनाया है, उनके ही स्वार्थ पूरे हुए हैं। सुखी, सम्पन्न, यशस्वी वे ही रहे हैं। पारिवारिक आनन्द, शारीरिक आनन्द उन्हीं ने उठाया है। संसार और परमार्थ दोनों एक में मिले हुए हैं। अध्यात्म और भौतिकवाद अलग नहीं हैं, दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं। अलग हैं? अलग नहीं हो सकते। अलग निकलेंगे तो शरीर बेकार हो जाएगा और हम बेकार हो जाएँगे। भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों आपस में जुड़ी हुई हैं। स्वार्थ और परमार्थ दोनों जुड़े हुए हैं। इन दोनों की शिक्षा के लिए सारी की सारी फिलॉसफी और सारे का सारा दर्शन हमारे यज्ञोपवीत में जोड़ दिया गया है।
यज्ञोपवीत जो हमको ये सिखाता है कि आदमी को हैवान का चोला छोड़ना और इनसान की जिन्दगी में प्रवेश करना चाहिए। आदमी को उदार और उदात्त बनना चाहिए। यही शिक्षण है। सारे के सारे शिक्षण को आपने देखा? हमने कर्मकाण्ड कराये, यज्ञोपवीत पहनाया और आपको याद दिलाया कि आपके जीवन का मकसद, आपके जीवन का लक्ष्य क्या है? इनसान के कलेवर में रहने वाले शैतान को ठोकर मारकर भगा दीजिए और जिस भगवान के निवास करने की पूरी-पूरी गुंजाइश है, उसे स्थापित कर लीजिए। यही है जीवन का लक्ष्य, इसी को दूसरा जन्म कहते हैं। जनेऊ पहनाते समय, यज्ञोपवीत करते समय यही शिक्षाएँ दी जाती है और यही दी जानी चाहिए। इसी के लिए आपको दो काम करने पड़े थे—एक तो दस स्नान करने पड़े और दूसरा हेमाद्रि संकल्प करना पड़ा। यज्ञोपवीत करते समय, श्रावणी पर्व मनाते समय विशेष उपासना की प्रक्रिया को पूरा करते समय में ये दो आधार बहुत आवश्यक हैं। कौन-कौन से? आपको दस स्नान करने चाहिए। इसका क्या मतलब है? हमारे पास इन्द्रियाँ अपने-अपने ढंग से मलीनताएँ पैदा करती हैं, जिससे हमारा स्वरूप, हमारे जीवन की श्रेष्ठता और शालीनता मलीन होती चली जाती है। इसीलिए इनकी धुलाई, मँजाई, घिसाई, पिसाई और धुनाई करना जरूरी है। दस स्नान से धोइये आप इनको। शरीर को? हाँ, शरीर को तो आप साबुन से भी धो लें तो कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। दस स्नान की फिलॉसफी आप समझिये कि हमको अपनी दसों इन्द्रियों के माध्यम से होने वाले गुनाहों और गलतियों से बाज आना चाहिए।
हमारे प्राण हैं दस। पाँच प्राण और पाँच उपप्राण, ये हमारी चेतना के दस हिस्से हैं। पाँच तत्वों के भी दो हिस्से हैं—पंच तन्मात्राएँ और पंचतत्त्व। पंचतन्मात्राएँ—शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श हैं और अग्नि, जल, वायु, आकाश और पृथ्वी ये पाँच तत्व हैं। आप शरीर की धुलाई कीजिए, जिससे ये बना हुआ है और मन की धुलाई कीजिए जो कि प्राणों से बना हुआ है। आपको सबेरे दस स्नान का ये मकसद, ये प्रेरणा, ये इच्छाधारा, ये संकेत समझा होगा, तब तो ठीक है और अगर संकेत नहीं समझा होगा तो—‘‘साँप निकल गया लकीर पीटें’’ ये आपकी मर्जी की बात है। आजकल कर्मकाण्डों और पूजा के नाम पर लकीर पिटती है। आदमी ने लकीर पीटने के पीछे, कर्मकाण्डों के पीछे जो दिशाधाराएँ रहनी चाहिए थीं और रहती थीं, उन्हें न जाने क्यों भुला दिया है? उनसे महरूम और वंचित रह गये। चंद पूजा से आदमी को न जाने कैसे संतोष हो जाता है। जैसे आचमनम् समर्पयामि, अर्घ्यम् समर्पयामि, स्नानम् समर्पयामि, एक चम्मच जल के पीछे छिपी प्रेरणा और दिशाधारा समझिये। वह ये कि आपके शरीर में से जो पसीना निकलता है अर्थात् जो श्रम आपकी मेहनत और मशक्कत है उसे आप भगवान् के लिए लगाइये। वह लोकहित के लिए हो, उसी से आप स्नान करा सकते हैं। ये अक्षत, नैवेद्य कहाँ हैं दिखाना जरा? शक्कर की गोलियाँ नहीं, भगवान् का नैवेद्य है—हमारे श्रमदान के साथ-साथ में हमारा अंशदान। हमारी कमाई का एक हिस्सा भी जुड़ा रहना चाहिए। गवर्नमेंट का एक टैक्स-इन्कमटैक्स और आदमी के धर्म का टैक्स—हर आदमी की कमाई में भगवान् का एक शेयर, यही है ‘अक्षत समर्पयामि’ की प्रेरणा, आप सुनते नहीं, दिशा-निर्देशों को समझते नहीं और लकीर पीटने पर उतारू हो गये हैं। पीछे से कहते हैं भगवान प्रसन्न नहीं हुआ, हमारा उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। इसलिए मित्रो! आज श्रावणी के दिन आप ये कोशिश करें, अपने गरेबान में मुँह डालें और जहाँ कहीं भी मलीनताएँ दिखायी पड़ें उनसे बगावत करने के लिए आमादा हो जाइये। ये आपके दस स्नानों की शिक्षा है।
हेमाद्रि संकल्प किसे कहते हैं? चिन्तन और कृत्य जो हम शरीर से करते हैं। आदमी का चिंतन—बीज है और कृत्य उसका फल। विचार भी एक काम है, उसका परिणाम भी होता है। गंदे विचार करते रहिये फिर देखिये आपका पतन कैसे होता है, दिमाग कैसे खराब होता है। हेमाद्रि संकल्प इस बात को बताता है कि हमारे जीवन में जो निषेधात्मक पक्ष है—उसको ठीक करें, धोएँ, लोहा लें, लड़ें बराबर अपने आपसे। लड़ाई में कमजोरी को जाहिर कर दिया तो आपके ऊपर आसुरी शक्तियाँ हावी हो जाएँगी। इसलिए हर समय आपको चौकीदारी करनी चाहिए। जिस दिन पहरा बन्द कर देंगे, उसी दिन आपके घर का सफाया हो जाएगा, चोर माल उठा ले जाएँगे। इसके अतिरिक्त दो काम आपके और हैं—एक ऋषिपूजन और दूसरा देवपूजन। हमारे जीवन को ऊँचा उठाने के लिए सत्संग और स्वाध्याय अति आवश्यक है। चारों ओर के वातावरण का असर हम पर पड़ता है। उसे दूर करने के लिए हम ज्ञान का, विचारणाओं का लगातार शिक्षण करें। अगर हमें श्रेष्ठ जीवन जीना है तो गंदे विचार जो बिना प्रयत्न के हमारे ऊपर हवी होते हैं, उनसे लोहा लेने, अच्छा जीवन जीने के लिए श्रेष्ठ विचारों के सम्पर्क में रहना पड़ेगा। हमारे मन में बड़ी मलीनता आती हैं। तो बेटे! उसको उखाड़ फेंके, उनसे लोहा ले, जद्दोजहद कर। हाथी से हाथी की टक्कर होती है और भैंसे से भैंसे की। लाठी से लाठी की टक्कर होती है और बन्दूक से बन्दूक की। तेरे ऊपर जो कुविचार छाये रहते हैं, उनसे मुकाबले के लिए अच्छे विचारों की सेना से लड़ा दे। मित्रो! ये क्या है? आपने उत्तम जीवन जीने के लिए जो देवपूजन, ज्ञान का पूजन और ऋषिपूजन किया।
ऋषि का अर्थ—वे व्यक्ति जो प्रभावशाली प्रतिभाओं के रूप में आपके ऊपर दबाव डाल सकते हों, आपको अनुशासन में रखने के लिए समर्थ हों। ऋषि वह जो आदमी को मजबूर कर सकते हैं, जो आदमी से धड़ल्ले से कह सकते हैं। आप ऋषि का अनुशासन पाये बिना आगे नहीं बढ़ सकते, कुसंस्कारों से छुटकारा नहीं पा सकते। ऋषि का पूजन हमने इसीलिए कराया कि आपके जीवन में अनुशासन आए। ऋषि हमारे जीवन की महती आवश्यकता हैं। ऋषि का सम्पर्क जिनसे हो गया, वे धन्य हो गये। नारद जी ऋषि थे। उनका सम्पर्क प्रह्लाद और ध्रुव से हो गया, वे धन्य हो गये। हिमाचल के राजा की लड़की से नारद जी का सम्पर्क हो गया, वह धन्य हो गयी। वाल्मीकि से नारद जी का सम्पर्क हुआ, वह भी धन्य हो गये। कैसे हो गया? दबाव डालने वाले व्यक्ति जो आदमी की इच्छा के विरुद्ध भी बात कह सकते हों, उसे नाखुश भी कर सकते हो और उस पर झल्ला भी सकते हो—ऐसे आदमी कौन होते हैं? ऋषि जीवन को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने के लिए आदमी को उन लोगों के साथ सम्पर्क बनाना चाहिए। ऐसे आधार खड़े करने चाहिए, जिनके बल पर हमारे लिए आगे बढ़ सकना सम्भव हो सके। श्रेष्ठ जीवन जीने, भगवान के रास्ते पर चलने की, भगवान का प्रिय होने की, परमार्थपरायण होने की, अध्यात्म का जीवन में विकास होने की आवश्यकताएँ हैं ये।
स्वाध्याय और सत्संग क्या हैं? श्रेष्ठ पुरुषों का सान्निध्य और सद्ज्ञान के प्रति निष्ठावान होना। अगर दो काम आपने नहीं किये हैं तो आप ग्यारह माला जपें, चाहे ग्यारह हजार माला जपें, कुछ नहीं होने वाला। विचारों को आप काटते नहीं हैं। जीवन को ऊँचा उठाने के लिए जिस क्रेन की जरूरत है, उससे आपका सम्पर्क ही नहीं है। आप जान को तो निकाल देते हैं और लाश को लिए फिरते हैं। लाश को लेने से काम नहीं चलेगा, दिशाओं को लेने से काम चलेगा। मित्रो! आज हमने शिक्षण किया यज्ञोपवीत का, जिसे चौबीसों घण्टे कंधे पर धारण करते हैं। हम इसकी शिक्षाओं को, जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखेंगे, भुलायेंगे नहीं। हर साल इसको रिन्यू कराते हैं। टट्टी-पेशाब के समय आपको यज्ञोपवीत का ध्यान रखना चाहिए। जब पुराना हो जाता है, छह महीने हो जाते हैं, जब इसे आपको बदल देना चाहिए। क्यों? बार-बार हमें ध्यान रहे कि जनेऊ का भी हमारे जीवन में कुछ काम है। यज्ञोपवीत हमारे जीवन से विछिन्न नहीं है। घर में बच्चा हो, घर में गमी हो, चन्द्रग्रहण हो, सूर्यग्रहण हो। लाइये नया जनेऊ, बदलना पड़ेगा? हाँ, बदलना पड़ेगा, ताकि आपको याद रहे। जनेऊ अर्थात् जीवन-लक्ष्य आपको याद बना रहे और जीवन-लक्ष्य के लिए जो काम आपको करने हैं, वे ध्यान में बने रहें। ये जीवन की महती आवश्यकता है। इन्हीं दोनों आवश्यकताओं को पूरा कर सकें तो बात बन जाती है।
सुरक्षा के लिए क्या करना पड़ता है? कोई राष्ट्र, कोई समाज, कोई व्यक्ति, कोई कुटुम्ब सुरक्षित किस तरीके से रह सकता है? इसके लिए दो सूत्र हैं—एक लड़की अपने भाई के हाथ में राखी बाँधती हैं। बहिन राखी लेकर आयी और आपने उसे पाँच रुपये, एक धोती या दुपट्टा दे दिया और हो गया कार्य खत्म। अरे! भाईसाहब, इसके लिए नहीं आती बहिन। भिखारिन नहीं है जो आपसे कुछ माँगने आएगी। किसलिए आयी थी? ये प्रतीकों का त्यौहार है। लड़कियाँ गा रही थीं—‘‘मेरी राखी।’’ मेरी से मतलब है कि नारी समाज कोई व्यक्ति विशेष नहीं। कोई लड़की प्रतिनिधित्व करती है—सारे नारी समाज का। किसी का राष्ट्रीय, पारिवारिक और सामाजिक जीवन सुरक्षित बन सके, इसके लिए दो अपेक्षाएँ हैं। दो की रक्षा। काहे की रक्षा होनी चाहिए? एक रक्षा नारी के सम्मान की होनी चाहिए। नारी का सम्मान-शील भी उसी में आता है। नारी को दूसरे दर्जे का नागरिक, जैसा कि आज है, नहीं बनना चाहिए। उसको बलिष्ठ रहना चाहिए। नर के द्वारा प्रत्येक क्षेत्र में उसका सम्मान होना चाहिए। इसके लिए ये रक्षा−सूत्र नारी की ओर से बाँधा जाता है। उसका सम्मान, उसकी इज्जत, उसका गौरव हर जगह होना चाहिए। नर-नारी दोनों इनसान हैं। दोनों को एक-दूसरे की इज्जत करनी चाहिए। विचारों का विनिमय, मतभेदों का जहाँ तक ताल्लुक है आप बातचीत कीजिए, समझौता कीजिए, लेकिन सम्मान पर किसी के आँच मत आने दीजिए। न मर्दों की ओर से नारी के सम्मान पर आँच आनी चाहिए, न नारी की ओर से मर्द के सम्मान पर आँच आनी चाहिए। नारियाँ मर्द के सम्मान पर ठेस नहीं पहुँचातीं पर अक्सर मर्द की ओर से नारी के सम्मान पर ठेस पहुँचायी जाती है। ये नहीं होना चाहिए। नारी के सम्मान की रक्षा, सामाजिक सुरक्षा के लिए सूत्र है। जहाँ नारी सम्मान पायेगी, विकसित होगी, वहाँ उसका अंतरंग विकसित होगा। जहाँ आपने उसके सम्मान में कमी करना शुरू किया, वह नारी के लिए न जाने क्या से क्या हो जाएगा और उसकी अंतरात्मा, उसका गौरव गिरता हुआ चला जाएगा। एक और कारण भी है कि आर्थिक दृष्टि से नारी का कमजोर होना उसके लिए कितना अभिशाप हो जाता है? आपकी कमाई और आपकी बुद्धि का एक हिस्सा इस काम के लिए लगना चाहिए। नारी ने पुकार की है कि हमारी आर्थिक कमजोरी का अनुचित लाभ न उठाने दिया जाए। सारे समाज का कर्तव्य है कि जब नारी से सारा लाभ उठाता है—माता, पत्नी, बेटी और बहिन के रूप में, तो उसका टैक्स भी चुकाना चाहिए। नारी का आर्थिक स्वावलम्बन कमजोर पड़ता स्वावलम्बन कमजोर पड़ता है, तो उसकी मदद करें—ये रक्षासूत्र की प्रेरणा और शिक्षा है।
एक और रक्षासूत्र है—सामाजिक सुरक्षा का, जो ब्राह्मण यजमान को बाँधता है। ये क्या है? ये श्रेष्ठ पुरुषों का अनुशासन है। आज तो सारे अनुशासन खत्म हो गये हैं। सरकार ने कानून के रूप में अनुशासन बनाये थे, वह भी खत्म हो गये। दहेज, बाल-विवाह, रिश्वतखोरी के विरुद्ध कानून बने हुए हैं। जो कानून का उल्लंघन करेगा, जेल जाएगा। पर कौन मानता है? सरकारी कानून समाज में सुव्यवस्था बनाने के लिए काफी नहीं हैं तो फिर कौन-सा होना चाहिए?
येन बद्धो बलीराजा, दानवेन्द्रो महाबलः।
येन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
रक्षा-सुरक्षा का आधार यह है, जिसके अनुशासन, नीति की मर्यादाओं में ऋषि-ब्राह्मण बाँधता है। इसीलिए प्राचीनकाल का प्रत्येक यजमान, गुरु, पुरोहित, ऋषि के यहाँ जाता था। आप हमारे हाथ में रक्षा का सूत्र बाँध दीजिए, सुरक्षा की जिम्मेदारी लीजिए। लेकिन इस दृष्टि में एक शर्त थी—
व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्ष्याऽऽप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति, श्रद्धया सत्यमाप्यते।।
जिससे तुम शक्ति की या सहायता की अपेक्षा करते हो, उसके ज्ञान, अनुशासन को स्वीकार करो। उसमें बँध जाओ। हम आपके सुख और शांति की गारण्टी लेंगे, लेकिन आप भी एक गारण्टी दीजिए कि आपके ऊपर जो नैतिक अनुशासन स्थापित किया गया है, उसका आप पालन करेंगे।
मित्रो! ये जो रक्षा के सूत्र का आधार है, उसका उद्देश्य है रक्षा। पुरोहित द्वारा नर का रक्षाबंधन। यहाँ बहिन, भाई को बाँधती है, ऐसा रिवाज है। पर मैं कहता हूँ कि कोई भी नारी किसी भी नर को सूत्र बाँध सकती है, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र क्यों न हो? रक्षाबन्धन पर नारी की नर से सुरक्षा की अपेक्षा और यजमान की ओर से पुरोहित से सुरक्षा की माँग अथवा पुरोहित की ओर से यजमान से सुरक्षा की माँग। विश्वामित्र की माँग पर यज्ञ की रक्षा के लिए रामचन्द्र जी गये और ऋषि ने दिव्यास्त्र प्रदान कर उनकी सुरक्षा की। गुरु वशिष्ठ द्वारा राजा दिलीप से सुरक्षा की माँग की गयी थी। यजमान भी सुरक्षा की माँग कर सकता है और पुरोहित भी, जिससे व्यक्ति सुरक्षित की माँग कर सकता है और पुरोहित भी, जिससे व्यक्ति सुरक्षित और समाज सुदृढ़ बनता है। हमारी मजबूती जिन सूत्रों के साथ बाँधी गयी है आप उसको समझें, उसकी प्रेरणा को जानें, उन्हें हृदयंगम करें तो आज का हमारा शानदार त्यौहार सार्थक हो, जिसमें वेद और ऋषियों की पूजा हुई, दस स्नान हुए, हेमाद्रि संकल्प हुआ और पितरों के लिए तर्पण किया गया। जो हमारे पितर हैं, पूर्वपुरुष, देवपुरुष—जिनकी आत्माएँ कहीं होंगी तो वे हमसे अपेक्षाएँ करती हैं। ऋषि जिन्होंने संस्कृति का निर्माण किया, आपसे कुछ अपेक्षाएँ करती हैं। उनको तृप्त करने के लिए तर्पण किया जाता है। ये सारी की सारी विधियाँ कर्मकाण्ड की दृष्टि से बड़ी उपयोगी हैं। आपने इसमें भाग लिया आप कर्मकाण्ड को पूरा करने के लिए गंगा जी गये, पानी में खड़े रहे, दूर-दूर से आप श्रावणी पर्व मनाने आए, आप इस संस्कृति परम्परा के प्रति रुचि रखते हैं, श्रद्धा रखते हैं आपकी बड़ी प्रशंसा। लेकिन इससे भी ज्यादा प्रशंसा उस दिन होगी, जब आप इस पर्व के साथ में जुड़ी प्रेरणाओं को हृदयंगम करेंगे, जीवन में धारण करेंगे। न केवल जीवन में धारण करेंगे, बल्कि दैनिक जीवन के व्यवहार में इनका समावेश करने की पूरी कोशिश करेंगे, तो धन्य हो जाएगा हमारा ये पर्व, जो श्रावणी के नाम से प्रख्यात है, जिसको यज्ञोपवीत का पर्व भी माना जाता है। ऋषि भी धन्य हो जाएँगे, जिन्होंने श्रावणी पर्व चलाया और उसके साथ-साथ में इन महान् परम्पराओं का, क्रिया-कृत्यों का समावेश किया। मुझे आशा है कि आप इस पर ध्यान देंगे और आज श्रावणी से प्रेरणा लेकर के जाएँगे। इनको जीवन में धारण करने का प्रयत्न करेंगे। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥