उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
कई व्यक्ति हमारे बारे में पूछते हैं कि हिमालय में अज्ञातवास के समय की आपकी कार्यक्रम-व्यवस्था क्या थी? भावी कार्यक्रम का जानना भी उनकी उत्सुकता का विषय रहता है और यह स्वाभाविक भी है कि जिनके प्रति अपनी आत्मीयता होती है, उनके कुशल समाचार जानने के लिए, उनकी गतिविधियाँ जानने के लिए हर आदमी की इच्छा बनी रहती हैं। अपने ही परिवार के लोगों को ऐसा कुछ जानने की इच्छा हो रही हो तो कोई अचम्भे की बात नहीं। भूतकाल के सम्बन्ध में भी लोगों की थोड़ी ही जानकारी है और उसके साथ में भविष्य का सम्बन्ध किस तरह मिला हुआ है, इसके बारे में पूरी जानकारी न होने से कई व्यक्ति, कई तरह के अनुमान लगा लेते हैं और कई तरह के सवाल पूछते रहते हैं। उनके समाधान किये जाएँ, यह ज्यादा मुनासिब समझा गया। हम में से प्रत्येक व्यक्ति को जो मुझमें दिलचस्पी रखता हो, उसको यह जानना चाहिए कि अपने जीवन का क्रम १५ वर्ष की उम्र से लेकर आज तक एक अज्ञात शक्ति के इशारे पर चलता हुआ चला गया है। १५ वर्ष की उम्र से पूर्व इस संसार में खाया हो, खेला हो, हँसा हो, सोचा हो, किया हो, बात अलग, लेकिन जब मैं १५ वर्ष का हो गया, उस समय से लेकर आज तक की जितनी भी गतिविधियाँ हैं, उनका संचालन और उसकी धारणा अपने मन से नहीं की गयी, बल्कि ऐसी शक्ति के इशारे पर की गयी, जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं।
जब मैं १५ वर्ष की उम्र में पूजा की कोठरी में बैठा हुआ था तब एक दिव्य प्रकाश सामने आया और वह दिव्य प्रकाश एक दिव्यात्मा का था। वह प्रकट हुए, उन्होंने मेरे को दिव्यलोक के सारे इतिहास और सारे संकेत दिखाए, बताए और सुनाए। इनको जानने के बाद में, मैं समझ गया मैं कौन हूँ और मुझे क्या करना चाहिए? यह है आत्मबोध, जो मुझे हुआ, वह हम में से हर व्यक्ति को मिल सकता है। हम में से हर एक आदमी को यह प्रयास करना चाहिए कि हम ये कहें कि हम भूतकाल में क्या थे? हम भूतकाल में भगवान् के अंश थे। हमको भगवान् ने विशेष कामों से भेजा है। जिन लोगों में मेरे ही तरीके से आकांक्षाएँ उत्पन्न हों, उन्हें यह जानना भी चाहिए कि उनके पूर्व जन्म में कोई न कोई दिव्य काम हुए हैं अन्यथा ये आकांक्षाएँ जो भगवान् की इच्छानुरूप हैं, उनके मन में पैदा न होती। ये आकांक्षाएँ हजारों तरीके से फैली हुई हैं और अनेक मनुष्य अनेक तरीके से उनमें दिलचस्पी लेते हैं। लेकिन बात मानने ही लायक है। इस समय भगवान् का जो प्रवाह अन्तरिक्षलोकों में चल रहा है वह यह है कि मनुष्य का भावनात्मक नव-निर्माण किया जाए। इसका आन्दोलन जो युग-निर्माण योजना के नाम से विख्यात है, यह भगवान् का ही आन्दोलन है और उन्हीं का क्रियाकलाप है और उन्हीं की इच्छा का संकेत है। १५ वर्ष की उम्र में मुझे इसी संकेत की ओर प्रेरित किया गया और अग्रसर किया गया। उसी सत्ता ने, जिसका कि मैं इशारा कर चुका हूँ और जिसको मैं गुरुदेव कहता हूँ और अपने आपकी संचालन सत्ता मानता हूँ, उन्होंने मुझे यह आदेश किया कि मुझे २४ वर्ष तक सब साधना करनी चाहिए। सब साधना का अर्थ आत्म-संशोधन की प्रक्रिया। आत्म संशोधन की प्रक्रिया मैंने २४ वर्ष तक की। जौ की रोटी खायी। जबान पर संयम रखा, कर्मेन्द्रियों पर संयम रखा और बराबर यह प्रयास किया कि प्रत्येक नारी को माँ, बहिन और बेटी के तरीके से मानूँ। ये दो चीजें ऐसी हैं जो मनुष्य के भीतर अनायास ही शक्ति का ह्रास करती हैं। आदमी अपनी जीभ के ऊपर काबू कर ले और अपनी कर्मेन्द्रियों पर काबू प्राप्त कर ले तो उसको सिद्ध पुरुष बनने में कोई कठिनाई नहीं आती। आत्मबल सहज ही विकसित होता चला जाता है। इसी के लिए उन्होंने मुझे तप, अनुष्ठान करने के लिए कहा। गायत्री मन्त्र का जप करने के लिए कहा, क्योंकि मेरे सामने एक लक्ष्य निर्धारित किया गया था और उस लक्ष्य को मुझे बार-बार समझना था और विचार करना था ‘वह था गायत्री मंत्र।’ गायत्री मन्त्र लक्ष्य भी है, पूजा का विधान भी, कर्मकाण्ड भी है। लक्ष्य क्या है? यह है कि हम अपनी स्वयं की विचारणा को, बुद्धि को और विचारशीलता को ऐसा विकसित करें कि वह जीवन के लक्ष्य की ओर, भगवान् की ओर, लोकमंगल की ओर निरन्तर बनी रहे। यही तो गायत्री मन्त्र की शिक्षा है—‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्’’ बार-बार समझूँ, सोचूँ और हृदयंगम करूँ कि रोम-रोम में इस सन्देश को और संकेत को बसा लूँ। मेरी बुद्धि का उपयोग, मेरी विवेकशीलता का उपयोग, मेरी जीवात्मा का उपयोग केवल उन कामों के लिए हो, जिनका योग भगवान् का संकेत है। यही शिक्षण गायत्री मन्त्र का था।
गायत्री का मैंने जप तो किया लेकिन जप के साथ-साथ में यह भी ध्यान रखा कि वह विचारणाएँ, शिक्षाएँ और प्रेरणाएँ मेरे अन्दर हृदयंगम होती रहें। प्रत्येक जप के साथ, प्रत्येक माला के साथ, प्रत्येक उपकरण के साथ जप कर लिया करूँ। कर्मकाण्ड मुझे बताया गया उसमें दीपक के रूप में मैंने एक अखण्ड दीपक की स्थापना की। अखण्ड दीपक जलाया बेशक, लेकिन साथ-साथ में भावनाओं को भी तदनुरूप बनाया। जिस तरीके से अखण्ड दीपक जलता रहता है, बुझता नहीं, उसी तरीके से हमारा जीवन-प्रवाह ज्ञानमय हो, बुझने न पाये, टूटने न पाये, शृंखला बिगड़ने न पाये। बीच-बीच में हमको अधःपतन की ओर गिरने का मौका न आये, ठोकरें नहीं लगें, चोट नहीं लगे और इस प्रकार निर्धारित नियत और सुनिश्चित निशान की ओर हम बढ़ते हुए चलें जाएँ और दीपक की तरीके से प्रकाशवान होकर प्रकाश पैदा करें, अपने भीतर प्रकाश पैदा करें और अपने बाहर भी। स्नेह से भरे हुए रहें, सद्भावनाओं से भरे हुए रहें, यही तो सब दीपक के संदेश थे। अखण्ड दीपक जलाया गया और वह इम्तहान का दीपक मेरे भीतर और भी जलता रहा। हर जगह उसकी प्रेरणाएँ आगे विकसित होती हुई चली गयीं। २४ वर्ष इसी प्रकार से निकल गये। इसके पश्चात् फिर वही मार्गदर्शक, वही मेरे गुरुदेव सामने आये। उन्होंने कहा, तुम्हारे अनुष्ठान पूरे हुए हैं? मैंने कहा—इस मायने में पूरे हुए कि मैंने जो नियम लिया था, जो व्रत लिया था, उनको बगैर डगमगाये, बिना इधर-उधर पैर हटाये, बिना अवरोध लगाये, बिना दौड़-भाग के शान्त चित्त से एक ही स्वर से करता रहा। अपनी निष्ठा में रत्ती भर भी कभी भी कमी नहीं आने दी। परिस्थितियाँ खराब आयीं तो क्या, अच्छी आयीं तो क्या मुसीबतें आयीं तो भी कभी मैंने यह ख्याल नहीं किया मेरे अनुष्ठान के कारण से ही यह होता है, भगवान् मेरी इतनी भी सहायता नहीं करते, फिर मैं क्यों अनुष्ठान करूँ? कभी भी संकट में भी श्रद्धा में कमी नहीं आयी, इस मायने में सफल हो गया। सुख आये, सुविधाएँ आयीं, लेकिन कभी उत्साह नहीं आया। दुःख और कठिनाई आयीं तो भी मैं निराश नहीं हुआ, न मैंने भगवान् को दोष दिया, न मैंने भगवान् से कुछ इच्छा की। ये बातें अगर अनुष्ठान की सफलता के लिए काफी हों, तो सफल हो गया। इस मायने में अगर अनुष्ठान की सफलता साबित की जाय उससे कोई लाभ मिला कि नहीं, कोई चमत्कार दिखायी पड़ा, कोई रोशनी मिली, कोई चमत्कार, कोई लाभ, कोई महात्मा, कोई सिद्धि ऐसा कुछ मिला तो कहूँगा कि मेरा अनुष्ठान सफल नहीं हुआ। ऐसी कोई अनुभूति नहीं हुई इस तरह कि जैसा आप लोगों का ख्याल है कि जप कर लेने के बाद, अनुष्ठान कर लेने के बाद, हवन कर लेने के बाद ऐसा दिखायी पड़ता है, ये बात आती है, ऐसा मुझे कुछ नहीं हुआ। इस मायने में मैं असफल रहा।
गुरुदेव मुझे मिले थे २४ वर्ष बाद प्रकाश के रूप में, मेरे घर और उन्होंने यह कहा—ठीक है, तुम्हारा अनुष्ठान सही है। किसी भी तपस्वी का योगाभ्यास असफल नहीं होना चाहिए, मैं यही परखने के लिए आया था। बस, मुझे यह मालूम हुआ कि वास्तव में अब तुम्हारा काम पूरा हुआ। अब तुमको यह देखना चाहिए कि यह जो तप पूरा हुआ है, इससे क्या कोई प्रभाव उत्पन्न होता है? इसका शायद विश्वास तुम्हें भी न हो, इसलिए इसमें विश्वास कर लेना चाहिए। इसके लिए पुनरावृत्ति के रूप में सहस्रकुण्डीय यज्ञ का आयोजन करना चाहिए। मैंने कहा मुझे तो विश्वास है अपने आपके ऊपर, मेरी सत्ता के ऊपर जो लक्ष्य मेरे सामने रखा गया उसके ऊपर। मुझे अविश्वास की जरूरत क्या है? उन्होंने कहा, नहीं, ऐसा है, यह जो शक्ति है, आत्मशक्ति, क्या भौतिक जगत में भी कुछ काम कर सकती है? क्या इसके द्वारा संसार में भी कुछ प्रभाव डाला जा सकता है? यह शायद तुम्हें यकीन न हो, इसके लिए हम एक प्रयोग कराते हैं और यह प्रयोग तुम्हारे लिए विशेष उपयोगी होगा, समाज के लिए भी। क्या प्रयोग? सहस्रकुण्डीय यज्ञ। सहस्रकुण्डीय यज्ञ वास्तव में एक अचम्भे की चीज है। मैंने स्वयं इस बात को महसूस किया है और लोगों ने भी इसको देखा है। वास्तव में अनोखी चीज ही कहना चाहिए इसको। कहते थे लोग ५००० वर्षों में पाण्डवों का वह यज्ञ जो कि राजसूय के नाम से विख्यात था और जिसे कृष्ण भगवान् ने चलाया था, उसके बाद में दूसरा ही नम्बर इसको कहा जा सकता है। कई विशेषताएँ थीं उसकी। आयोजन तो आये दिन होते रहते हैं। मेरे आयोजन भी बड़े होते हैं। कुम्भ का मेला और भी बड़ा होता है, लेकिन उसकी विशेषताएँ और ही थीं। एक व्यक्ति द्वारा इतने व्यक्तियों को आमन्त्रित किया जाना, उसके बुलाने पर इतने व्यक्तियों का इकट्ठा हो जाना, उनके खाने-पीने का बिना मूल्य लिये हुए प्रबन्ध करना, उसकी व्यवस्था के लिए कोई पहले से घी या कोई गेहूँ इकट्ठा न किया जाना, धनराशि न लिया जाना, कोई चोरी इत्यादि का न होना, इतने आदमियों को इस तरीके से प्रभावित होते जाना, अनुशासित होते जाना, ऐसी असंख्य व्यवस्थाएँ हैं, जो आज तक किसी आयोजन में नहीं हुईं। उन्होंने—गुरुदेव ने मुझसे कहा कि आयोजन की सफलता और विशेषताएँ तुम्हें इस रूप में लेनी चाहिए कि ये सब तुम्हारे तप और पुण्य का परिणाम है। तप और पुण्य चाहे तुम्हारे पास हो, चाहे किसी पास भी हों, यह परिणाम निकलते हैं कि इस बात के जिसे तुम विश्वासपूर्वक कह सकते हो स्वयं से भी और लोगों से भी। इसीलिए इस आयोजन का विशेष रूप से उल्लेख किया गया।
ऐसा ही हुआ, बहुत सफल आयोजन हुआ। खुद बैठा रहा, कहीं गया भी नहीं, केवल घर बैठे निमन्त्रण भेजे। जिनको जानता-पहचानता नहीं था, लाखों आदमी इकट्ठे हो गये, ऐसे व्यक्ति जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। सामान्य भीड़-भाड़ जो मेरी सभाओं में आती है उस स्तर के नहीं, बल्कि गणमान्य व्यक्ति उत्सुकता में आये और यज्ञ सम्पन्न हुआ सहस्त्रों लोगों ने उसको देखा, कितना पैसा खर्च हुआ, कितनी व्यवस्था बनी, लोग हैरत में रह गये कि आखिर कैसे हो गया? किसी ने जादू समझा, किसी ने तमाशा समझा, किसी ने राजा-महाराजा का आयोजन समझा, किसी ने चन्दा समझा, किसी ने क्या समझा, किसी ने क्या नहीं? कह नहीं सकता, लेकिन वास्तविकता यह थी कि वह मेरे गुरुदेव का चमत्कार कहिये अथवा उनकी प्रसन्नता कहिये, बस, वही हुआ और वह अपने समय पर बड़ा सफल हो गया और मेरे विश्वास की वृद्धि हुई। मुझे यकीन हो गया कि संसार में भी इस तत्त्व शक्ति के द्वारा भुगतान किया जा सकता है, इसे गायत्री की शक्ति भी कह सकते हैं? उपासना की शक्ति भी कह सकते हैं, साधना की शक्ति भी कह हैं, बस वहाँ से इशारा चला मेरा, उसी क्रम से मेरे लिये वह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण था कार्य, कौन-सा, जो कि २४ वर्षों की उपासना प्रारम्भ की थी, मेरे लिए वह श्रद्धा का विषय था। वह श्रद्धा ज्यों की त्यों बनी रही, बल्कि ज्यादा ही बढ़ी। बस सहस्रकुण्डीय यज्ञ हो गया।
सहस्रकुण्डीय यज्ञ से लेकर के मेरे गुरुदेव ने मुझे फिर २० साल के लिए कुछ काम करने के लिए कहा। दस साल का उन्होंने एक खण्ड बताया। १० साल में उन्होंने मुझे संगठन और प्रचार का कार्य सौंपा। गायत्री मन्त्र और यज्ञ ये भारतीय संस्कृति के मूल हैं और इसी संस्कृति के मूल को देश और देशान्तरों में स्वीकृति करने के लिए मुझे बताया गया। वही किया गया। गायत्री परिवार बनाया गया। उसके लाखों की संख्या में सदस्य बने। हजारों की संख्या में शाखाएँ स्थापित हुईं। जगह-जगह हजारों यज्ञ हुए। ये सारे का सारा प्रचार जो फैलाया गया है, गायत्री का साहित्य लिखा गया है, गायत्री मन्त्र और यज्ञ को लेकर १० साल मैंने लगाये जो कि २४ वर्ष के बाद आरम्भ हुए थे और इसमें यदि १५ वर्ष पहले के भी जोड़ लिये जाएँ तो ५० वर्ष पूरे हो जाते हैं। इस तरीके से मैं क्रियाकलाप में लगा रहा। क्रियाकलाप के बाद में उन्होंने एक वर्ष के लिए मुझे अपने पास बुलाया हिमालय। एक वर्ष के लिए मैं हिमालय चला गया। कहाँ रहा, इसका थोड़ा-सा विवरण ‘सुनसान के सहचर’ नाम से आंशिक रूप में अखण्ड-ज्योति में प्रकाशित हुआ था। वह बड़ी महत्त्वपूर्ण घटना है। लोग कहते हैं जहाँ आप गये थे, कहाँ गये थे? क्या करते रहे थे? हिमालय पर तो बहुत-से लोग रहते हैं। हरिद्वार से हिमालय शुरू हो जाता है, कैलाश तक चला जाता है और कहाँ तक चला जाता है। पाकिस्तान में फैला हुआ है और बर्मा तक चला गया है। हिमालय में न जाने कितने हजार आदमी रहते हैं? हिमालय में कोई अच्छी भी जगह है और बेकार भी जगह है। हिमालय में जो जन रहते हैं वहाँ झाड़ियाँ हैं, वहाँ बन्दर रहते हैं और बेकार आदमी भी रहते हैं, चोर-डाकू भी रहते हैं, सिद्ध पुरुष भी रहते हैं। हिमालय अपने आप में न बुरा है न भला है, लेकिन मुझे जहाँ जिस स्थान पर रहने के लिए भेजा गया था, वह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था। उसको हिमालय का हृदय या आध्यात्मिक ध्रुव कह सकते हैं। उस स्थान पर आज से १०-११ वर्ष पूर्व मैं एक साल के लिए रहा। मैं गंगोत्री भी रहा, उत्तरकाशी भी रहा। इन दोनों स्थानों पर रहा, लेकिन मूल क्या है, जो शक्ति का स्त्रोत था, मुझे वहाँ मिला जहाँ मेरे गुरुदेव रहते हैं। उसको हिमालय का तीर्थ कहा जा सकता है। गायत्री तप का ध्रुव कहा जा सकता है।
पृथ्वी के उत्तरी-ध्रुव व दक्षिणी-ध्रुव प्रख्यात हैं। वहाँ की परिस्थितियाँ बड़े अचम्भे की हैं। लोगों ने पुस्तकें भी पढ़ी हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि किसी जादू की बात कही जा रही है। उत्तरी-ध्रुव और दक्षिणी-ध्रुव के बारे में। ये ध्रुव ऐसे हैं कि चारों आरे पृथ्वी पर जो कवच चढ़ा हुआ है, उस कवच में से ब्रह्माण्ड की अनेक शक्तियाँ घुसने नहीं पातीं। उत्तरी ध्रुव में से ही होकर आती हैं और सारी पृथ्वी पर फैल जाती हैं। यह शक्तियाँ आवश्यकतानुसार पृथ्वी पर रह जाती हैं और बाकी दक्षिण ध्रुव से होकर के फिर ब्रह्माण्ड में फैल जाती हैं। ऐसा कवच पृथ्वी पर न होता तो जो ग्रहों से और नक्षत्रों से किरणें आती हैं सारे जगत् को जला डालतीं और हमारी धरती भी उसी तरीके से वीरान हो जाती जिस तरह से बृहस्पति, मंगल, बुध इत्यादि दूसरे ग्रह सुनसान और वीरान पड़े हुए हैं। यह भी हो सकता है कि इसके ऊपर एक कवच चढ़ा हुआ है और उसके भीतर से शक्ति के सूक्ष्म मात्रा में ही आदान-प्रदान होते हैं। हिमालय का जो केन्द्र ध्रुव है, जहाँ मेरे गुरुदेव रहते हैं, यहाँ का फैलाव बद्रीनाथ से हिमालय के दूसरी छोर तक है। इसके बीच का जो भाग है, वही हिमालय का केन्द्र है और इसकी लम्बाई-चौड़ाई, मैं समझता हूँ तीन-चार सौ मील चौड़ी और सौ-पचास मील लम्बी होनी चाहिए। यही शंख के नाम से पहले प्रख्यात था। यही पुराणों में भी मिलता है कि यहाँ शिवलिंग पर गंगा का अवतरण हुआ था। शिवलिंग वहीं है, सुमेरु पर्वत वहीं है। सुमेरु यज्ञ पाण्डवों ने वहीं किया था, सुमेरु लिंगम् वहीं है, स्वर्ग गंगा वहीं है। कैलाश के बारे में, मान-सरोवर के बारे में भी मैंने यही प्रतिपादन किया था कि इसके समीप में एक छोटी-सी झील है, जिसका नाम मानसरोवर होना चाहिए, क्योंकि मानसरोवर और कैलाश के बारे में जो पौराणिक वर्णन मिलता है वह उस तिब्बत वाले कैलाश से जरा भी सम्मति नहीं खाता। तिब्बत वाला कैलाश और मानसरोवर किस कारण से मान लिया गया, मैं कह नहीं सकता, लेकिन अगर सही रूप में ढूँढ़ा जाए तो ऐसे असंख्य प्रमाण मैंने अखण्ड-ज्योति में छापे हैं, जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि असली कैलाश और मानसरोवर वही हैं, जहाँ मेरे गुरुदेव निवास करते हैं।
मैं उस स्थान पर रहा, वहाँ की कितनी विशेषताओं को मैंने देखा, उसका वर्णन करना सम्भव नहीं है। वहाँ कितने सिद्धपुरुष रहते हैं और वहाँ के वातावरण में कितनी विशेषता और महत्ता है, उसके वर्णन पर सम्भव है लोग यकीन न करें। जब तक देखा नहीं जाता, तब तक गप्प भी माना जा सकता है, इसलिए उस पर विचार करना मेरे लिए मुनासिब नहीं है। उन स्थानों पर चार दिन मैं अपने गुरुदेव के पास रहा। उनको जो कुछ भी मुझसे कहना था उन्होंने कहा, जो कुछ संकेत करने थे, जो भावी कार्यक्रम के रूप में हिदायत करनी थी, वह की और जो मुझे शक्ति का एक अंश देना था वह चार दिनों में उन्होंने दिया। चार दिन की शक्ति को लेकर मैं चला आया। साल भर तक मैंने उसको पकाया, हजम किया। खाना खाने में तो थोड़ी ही देर लगती है, भोजन तो आदमी आधे घण्टे में ही कर लेता है, बीस मिनट में भी कर लेता है, लेकिन हजम करने में बारह घण्टे लग जाते हैं। गुरुदेव ने जो शक्ति मुझे चार दिन में दी थी, उसको हजम करने में, पचाने में और जुगाली करने में साल भर लग गया। इस तरीके से मैं एक साल गंगोत्री और हिमालय तथा उत्तरकाशी में रहा। वहाँ जो उन्होंने तप और अनुष्ठान बताये थे, वह मैं करता रहा। जहाँ-जहाँ रहा, वह ऐसे स्थान थे जिनको दिव्य कह सकते हैं। भगीरथ ने जिस शिला पर बैठकर तप किया था, वहाँ मुझे भी तप और अनुष्ठान करने का मौका मिल गया। जहाँ भगवान् परशुराम जी ने तप करके कुल्हाड़ा शंकर जी से प्राप्त किया था, उसी स्थान पर उत्तरकाशी में रहने का मुझे भी मौका मिला। इस तरीके से एक साल व्यतीत करने के बाद मैं फिर आ गया ओर दस साल के कार्यक्रम जो मुझे सौंपे गये थे, वह मैंने सँभाल लिये।
दस साल में युग-निर्माण का दूसरा अध्याय सौंपा गया। युग-निर्माण योजना का कार्यालय तथा गायत्री तपोभूमि का निर्माण मिलाकर जो किया वह मेरे पहले दस साल के पूर्व की कमाई थी। मेरा दूसरा कदम-दूसरा काम था युग-निर्माण योजना नाम से एक केन्द्र की स्थापना, जहाँ से फिर सारी गतिविधियाँ चालित की गयीं। बौद्धिक क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति को क्रियान्वित करने का प्रबन्ध किया गया। विचारात्मक, रचनात्मक और संगठनात्मक कार्यक्रमों का ढाँचा खड़ा किया गया। व्यक्ति-निर्माण, परिवार-निर्माण और समाज-निर्माण का नारा लगाया गया। स्वच्छ मन, स्वस्थ शरीर और सभ्य समाज का निर्माण करने की रूपरेखा बनायी गयी। इन सारे के सारे क्रियाकलापों का दस वर्षों में विस्तार हुआ। मैं समझता हूँ कि इन दोनों कार्यक्रमों के बारे में कितना विस्तार हुआ है? इसका वर्णन करने की यहाँ आवश्यकता नहीं है। वह लोगों को दूसरी जगह से पढ़ना चाहिए और दूसरे तरीकों से मालूम करना चाहिए। इसको संक्षेप में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह कार्य हुआ व असाधारण हुआ। साहित्य लिखा गया वैज्ञानिक व आध्यात्मिक। समन्वय की रूपरेखा ठीक समय पर रखी गयी और उसका पत्रिकाओं के माध्यम से विस्तार हुआ। अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ और उसका प्रकाशन हुआ, यह कार्य दस वर्षों के भीतर सम्भव हुआ। एक लाख व्यक्तियों की सृजन सेना बनकर खड़ी हो गयी और वह अपने-अपने क्रियाकलाप में लग गयी। सक्रिय कार्यकर्ता, कर्मठ कार्यकर्ता और पुरवासी मानकर अपने-अपने क्षेत्रों में अपने दिल से कमर कसकर खड़े हो गये और वह कार्य जो असम्भव दिखाई पड़ता था सम्भव दिखायी पड़ने लगा।
‘मनुष्य में देवत्व का उदय और पृथ्वी पर स्वर्ग का अवतरण’ किसी जमाने में ख्वाब समझा जाता था और यह माना जाता था कि ऐसे क्रियाकलाप मनुष्यों के द्वारा सम्भव नहीं हैं। कभी भगवान् चाहेगा तभी ऐसी बड़ी सफलता मिल सकेगी। यह भला कैसे मिल सकती है? किसमें मिल सकती है, क्यों मिलेगी? लेकिन ऐसा मालूम होता है कि वह सारी कल्पनाएँ जो तिलस्मी थीं अब साकार होने जा रही हैं और साथ ही बहुत कुछ सम्भावना है, क्योंकि सामने ही आ रही है। लोग यकीन कर रहे हैं कि हाँ ऐसा होना भी सम्भव है। पर यह आन्दोलन किसी जमाने में छोटे-से आन्दोलन के रूप में था और यह विश्व-व्यापी बन सकता है। इस तरीके से १० वर्ष मुझे वहाँ रहना पड़ा।
जब बैटरी की शक्ति खत्म हो जाती है तो उसे चार्ज करने के लिए भेजा जाता है और उसको डायनेमो से लगा देते हैं। जब चार्ज हो जाती है तो फिर वह काम करती है, फिर मुझे एक साल के लिए स्वयं बुलाया गया था। मैं गुरुदेव के पास गया, चार दिन उसके पास रहा, जैसे दस साल पहले रहा था। चार दिन उनके पास रहने के बाद में फिर मुझे कहीं दूसरी जगह भेज दिया गया और फिर मैं वहीं रहा और तप करता रहा। मैं कहाँ रहा? क्या करता रहा? यह बताने का विषय नहीं है। पहले बताने की बात थी सो मैंने लोगों को बता दिया था कि मैं गंगोत्री रहा था और उत्तरकाशी रहा था। अब मेरे मुँह पर पर्दा डाल दिया गया है कि मैं वह न बताऊँ कि मैं कहाँ रहा और मैंने क्या किया, इतनी बात संक्षेप में है कि मैं हिमालय के ही गर्भ में रहा और वहाँ जा करके मैंने अपनी आत्मसाधना की क्रिया-पद्धति को ही काम में लाया। इस तरीके से फिर मुझे जाना पड़ा, फिर माताजी के बीमार होने पर पन्द्रह दिन के लिए चला गया। इस तरीके से एक वर्ष पूरा करने के बाद फिर मुझे लोक-शिक्षण का कार्य सौंप दिया गया, जबकि एक साल पहले तप करने का मुझे मौका दिया गया था। इसके पश्चात् फिर मुझे पाँच वर्षीय कार्यक्रम में लगा दिया गया है। अबकी मेरी यह कार्य-अवधि केवल पाँच वर्ष की है। पहली दस साल की रही, इससे पहले दस साल की थी, इस तरीके से चौबीस साल की थी। इस तरीके से ४४ साल की जो योजना थी, बढ़ गयी। ये पाँच वर्ष की है। भगवान् जाने उसका क्या काम है? अबकी बार दस वर्ष कार्यक्रम मुझे दिया गया है। कह नहीं सकता जीवन का समय कितना रह गया हो? कह नहीं सकता कोई महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम और हो। यह नहीं पूछा कि मुझे आगे क्या करना पड़ेगा? मैं मानता हूँ कि जो काम सौंप दिया गया है वह भी क्या कम है। उसमें क्या कमी हो सकती है? उसमें क्या करने के लिए क्या कम गुंजाइश नहीं है जो कि मैं आगे की बात सोचूँ। आगे वाली बात सोचना उनका काम है जिनको मैंने अपने आपको सौंपा हुआ है, जिनको अपने आप बेचा हुआ है। आगे मुझे क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, यह मस्तिष्क का भार मैंने अपने मस्तिष्क पर नहीं रखा हुआ है। उन्हीं के ऊपर डाल दिया है। अब मुझे वर्ष का काम है। इन पाँच वर्षों में मुझे क्या करना होगा, यह कार्य मेरे लिये निर्धारित हो गया है और यह भी निर्धारित हो गया है कि थोड़े समय में मुझे बार-बार हिमालय जाना पड़ेगा। जिस तरीके से आदमी रात में सो जाते हैं, और जगने पर फ्रेश हो जाते हैं, पहले जैसे हो जाते हैं, थकान दूर हो जाती है, इसी तरीके से मैं आध्यात्मिक भोजन करने के लिए और कुछ शक्ति लेने के लिए और अपनी थकान मिटाने के लिए वहाँ चला जाया करूँगा और इस बीच में ही साल कुछ शक्ति लेकर आया करूँगा। जो कि पाँच साल के लिए निर्धारित कार्यक्रम के लिए मुझे सौंपी गयी है। इस तरीके से यह क्रम बराबर जारी रहेगा।
साँप से नेवले की लड़ाई होती है। नेवला बार-बार जाता है और कुछ जड़ी-बूटी खा करके आता है, फिर साँप से लड़ाई लड़ता है, फिर साँप काट देता है और जहर उसके शरीर पर चढ़ जाता है। उस जहर को दूर करने के लिए फिर वह कहीं जाता है और जड़ी-बूटी खा के आता है, फिर साँप से लड़ाई लड़ता है। साँप और नेवले की लड़ाई जिन लोगों ने देखी है, उन्होंने यह घटना भी देखी होगी कि नेवला भाग करके जाता है और कुछ जड़ी-बूटी खाकर के आता है और साँप से टक्कर खाता है। जड़ी-बूटी खाने वाले नेवले के तरीके से मुझे भी बार-बार हिमालय जाना पड़ेगा और बार-बार वहाँ की शक्ति लेकर के आना पड़ेगा, क्योंकि अबकी बार जो साँप है बहुत बड़ा साँप है। पहली बार तो सीधे-सादे काम थे। संगठन करना सीधा-सादा काम था, किसी से लड़ाई लड़नी नहीं थी मुझे; संगठन करने से लेकर साहित्य लिखने व अन्य कार्यों तक ये सभी सुगम काम थे। कोई ऐसे मुश्किल काम नहीं थे, जिसमें आदमी को कोई जोखिम हो, लेकिन अब की बार तो कार्य बहुत व्यवस्थित, महत्त्वपूर्ण और अत्यन्त भयंकर और बहुत अधिक शक्ति खर्च करने वाले हैं।
इस तरह जिस तरीके से मैं वहाँ से शक्ति लेकर आया था, ठीक उसी तरीके से मैं एक लाख मनुष्यों को इस बीच शक्ति का सौवाँ अंश देने वाला हूँ। मैंने २४ वर्ष में जो तपश्चर्या की थी और मुझे जो अंश मिला वह बहुत बड़ा मिला, कारण मैंने अपने को पाक-साफ रखा जिन्होंने अपना निखार नहीं किया है, अपना परिष्कार नहीं किया है, उनको इतनी आशा नहीं करनी चाहिए कि उसका अंश मुझको मिल जाएगा, क्योंकि जिसके पास पात्र जितना होगा उतना ही तो उसे मिलेगा, चाहे वर्षा कितना ही जबरदस्त क्यों न हो बादल की घटाएँ कितनी ही बड़ी क्यों न हों पर पात्र से अधिक कैसे मिलेगा? इसलिए मैंने जिन लोगों को बुलाया है और जिन्होंने पात्रता का जितना विकास कर लिया है, उतना उनको जरूर मिल जाएगा। लेकिन जिनकी पात्रता नहीं होगी उनको यह आशा नहीं करनी चाहिए। यद्यपि बुलाया है तो कुछ न कुछ लेकर के ही जाएँगे। लेने के लिए जरूरी है कि शक्ति धारण करने के लिए गुंजाइश हो, धारण करने के लिए गुंजाइश न हो तब कैसे हो सकता है? प्राण-प्रत्यावर्तन शिविरों में सबको तो बुलाया नहीं जाएगा। लेकिन जिन लोगों को बुलाया गया है, उनको उनकी पात्रता के अनुरूप शक्ति का एक अंश जरूर मिलेगा और यहाँ से जाने के पश्चात् वह ऐसा कार्य कर सकेंगे, जिससे उनको देखकर मुझे भी सन्तोष हो सके और समाज को भी सन्तोष हो सके, कि जिनको प्रत्यावर्तन के रूप में कुछ अनुदान दिया गया था उन्होंने लोकमंगल के लिए और भगवान् की इच्छा पूरी करने के लिए जो प्रवाह चल रहा है, उसके लिए कुछ महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न कर सकें। इस तरीके से प्रत्येक प्रत्यावर्तन शिविर में एक बार में लगभग २० व्यक्ति बुलाये जाएँगे। कारण यह है कि जितनी शक्ति संग्रह होगी, उससे अधिक लोगों को बुला लेने पर उनको कुछ दिया नहीं जा सकेगा। छोटा-सा मीटर लगा हुआ हो और बत्तियाँ बहुत जला दी जाएँगी तो मीटर खराब हो जाएगा और फ्यूज चला जाएगा। इस तरीके से सीमित व्यक्ति ही बुलाये जाएँगे। लोगों को ज्यादा अपवाद नहीं करना चाहिए। सबको एक साथ बुला सकूँ इच्छा तो है, लेकिन सम्भव नहीं है, व्यावहारिक भी नहीं है। इसलिए इन्तजार तो करना पड़ेगा प्रत्यावर्तन के लिए।
एक काम मुझे यह सौंपा गया है कि लोगों को शक्ति का एक अंश दूँ और उनको आगे बढ़ाऊँ, ऊँचा उठाऊँ। केवल विज्ञान की शिक्षा से जो बात पूरी नहीं हो सकती, उपनिषद् संग्रह से जो बात पूरी नहीं हो सकती, वह शक्ति का अंशदान देने से पूरी की जा सकती है। यही प्रत्यावर्तन है जो मुझे अगले पाँच साल तक थोड़े-थोड़े समय तक यहीं शान्तिकुञ्ज में रहकर के पूरे करने पड़ेंगे। एक कार्य मैंने आपको निवेदन किया। दूसरा कार्यक्रम मेरा यह है कि मुझे हिमालय जाते रहना पड़ेगा अन्यथा इस बार जो शक्ति खर्च होने वाली है, उसकी पूर्ति अपने आप नहीं हो पायेगी, बार-बार उसको लेने ही जाना पड़ेगा मुझे। इसलिए मेरा हिमालय जाना-आना लगा ही रहेगा। तीसरा एक और कार्य यह है कि अब मुझे अपना कार्यक्षेत्र बढ़ा देना पड़ेगा। अब तक केवल हिन्दू समाज अपना मुख्य कार्यक्रम रहा। भारतवर्ष तक की गतिविधियाँ रही हैं। अब तक मैं केवल भारतवर्ष में रहा हूँ। हिन्दू समाज की सभाओं और गोष्ठियों को ही सम्बोधित किया है। दूसरी ओर के लोगों में मैं कहाँ गया? दूसरे विश्व में कहाँ गया? लेकिन यह वर्ग जो मुझे सौंपा गया था, जो क्षेत्र मुझे सौंपा गया था वे सीमित क्षेत्र हैं, क्योंकि शक्ति मेरी सीमित थी, इसलिए कार्यक्षेत्र भी सीमित ही सौंपा गया था। अब तो शक्ति को भी बढ़ा दिया गया है अतः कार्यक्षेत्र भी बढ़ गया है। अब मेरा कार्यक्षेत्र भारतवर्ष तक सीमित न रहकर समस्त संसार है। अब हिन्दू समाज तक सीमित न रहकर समस्त संसार के विभिन्न धर्म और विभिन्न सम्प्रदाय तक कार्यक्षेत्र बढ़ा दिया गया है। अब धर्ममंच के माध्यम से आगे बढ़ करके अन्यान्य क्षेत्रों में भी वह कार्य करूँगा, जिससे कि युग-निर्माण करने की पृष्ठभूमि तैयार की जा सके। साहित्य के कितने लोग हैं? संसार में साहित्यकार की बड़ी शक्ति होती है। प्रेस भी उसमें शामिल हैं, पुस्तक लेखक भी शामिल है, दार्शनिक भी उसमें शामिल हैं, कवि भी उसमें शामिल हैं। इस तरीके से जिनके हाथ में जनमानस को प्रभावित करने की प्रचण्ड शक्ति है, मुझे उनके पास भी जाना पड़ेगा और जाकर के केवल परामर्श ही नहीं देना पड़ेगा, बल्कि उनको मजबूर भी करना पड़ेगा।
अंगद लंका गया था और उसने रावण की सभा में पाँव जमाया था और यह प्रमाणित किया था कि मैं सरल स्वभाव का तो हूँ, लेकिन सामान्य शक्ति का नहीं हूँ, असामान्य शक्ति का हूँ और यह बात हर एक राक्षस को माननी पड़ी थी कि जिससे उन्हें लड़ाई लड़नी पड़ेगी, वह कोई मामूली आदमी नहीं है, कोई बड़ा आदमी है। मैं भी अपने गुरुदेव का अंगद और सन्देशवाहक के रूप में सारे विश्व में जाऊँगा और यह कहूँगा कि भगवान् की प्रेरणा और इच्छा यह है कि आप लोगों को अपनी गतिविधियाँ बदल देनी चाहिए। पिछले दिनों जो भी रही हों, सम्पत्ति कमाने की रही हों, अपने स्वार्थ और विशेष लाभ के लिए रही हो। पहले जो भी रही हों, वह रही हों, लेकिन आगे जाकर के उन गतिविधियों में फर्क करना ही चाहिए और अपना मुँह उस ओर मोड़ना ही चाहिए जो कि युग-निर्माण के लिए भगवान् की इच्छा के अनुरूप हों। साहित्यकारों की बात मैंने कही, कलाकारों की बात मैं कहना चाहता हूँ। आगे मैं कलाकारों के पास जाऊँगा, क्योंकि कला मनुष्य के हृदय को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती रही है और अभी भी कर रही है। सिनेमा कितना काम कर रहा है? सिनेमा संसार के चौथाई जनता को प्रभावित कर रहा है। एक चौथाई जनता को इच्छानुसार ढाल रहा है बुरा या भला। अगर ये बुरी इच्छा में ढालने वाली रीति बदल दी जाय और अच्छी दिशा में ढालने वाला प्रयास किया जाय तो आप समझ सकते हैं, जनता के मस्तिष्क को बदलने में, ढालने में कितना बड़ा काम हो सकता है? गायन को बदल दिया जाए, संगीत को बदल दिया जाए, नारी के चित्र को बदल दिया जाए, मूर्ति को बदल दिया जाए, कला केन्द्रों में जो कुछ भी चीजें आती हैं अगर कलाकार और कला के संचालक उसको बदल दें तो युग-निर्माण का वह कार्य पूरा हो सकता है, जिसको हमने पिछले दिनों धर्ममंच के माध्यम से भारतवर्ष में सम्पन्न किया है। कार्य वह लोग भी कर सकते हैं, साहित्यकार भी कर सकते हैं, कलाकार भी कर सकते हैं।
एक और बात रह जाती है धर्म-गुरुओं के सम्बन्ध में। धर्म-गुरुओं की शक्ति कम है क्या? धर्म-गुरुओं की शक्ति बड़ी है। अभी भी आपने देखा न, थोड़े दिन पहले सर आगा खाँ को तोला गया था। कितने करोड़ रुपये का सोना था। अभी भी हो रहा है, कल-परसों ही दिल्ली का समाचार है कि एक स्वामी जी को छः लाख रुपये के नोटों से तोला गया है। उसके पहले किसी को सोने से तोला गया, किसी को चाँदी से तोला गया। तोलने की प्रथा सन्त-महात्माओं में भी चली है। नेताओं का तो कहना ही क्या? किसी समय केवल उनकी सम्पत्ति देखी जाए कि उनका प्रभाव कितना है तो प्रत्येक सन्त-महात्मा का, शंकराचार्य का, इसका-उसका प्रभाव भी हजारों-लाखों श्रोताओं तक है, प्रत्येक सन्त-महात्मा के हजार-दो हजार अनुयायी तो होते ही हैं। कोई-कोई ऐसे भी धर्मगुरु हैं जिनके लाखों-करोड़ों अनुयायी हैं। ईसाइयों के पोप विशप हैं, जिनके करोड़ों अनुयायी होते हैं। इसी तरीके से भिन्न विषयों के धर्मगुरुओं का बड़ा विस्तार है। धर्म-गुरुओं से मुझे मिलने जाना ही चाहिए और जाऊँगा ही और कहूँगा कि आपको अपनी गतिविधियाँ बदल देनी चाहिए। केवल भगवान् के नाम लेने वाली बात सिखाने तक से या पूजा के मन्त्र सिखाने तक से अपने कर्तव्य का अन्त नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि जिन लोगों पर आपका प्रभाव है उन लोगों को, उनका बौद्धिक निर्माण करने के लिए और समाज के प्रति अपना योगदान देने की बात भी कहनी चाहिए। अध्यात्म का यही तो वास्तविक उद्देश्य है। धर्माचार्यों का यही तो वास्तविक कर्तव्य है। ऐसा कर्तव्य का उद्बोधन करने के लिए मुझे उन धर्माचार्यों के पास भी जाना पड़ेगा जो न केवल हिन्दुस्तान में हैं, बल्कि हिन्दुस्तान के बाहर भी हैं। वे प्रभावित होंगे कि नहीं, ये कौन कहता है, लेकिन मैं जानता हूँ, प्रभावित उनको होना ही चाहिए। नारदजी गये थे और थोड़े ही समय तक वाल्मीकि के पास रहे और वाल्मीकि को प्रभावित होना पड़ा। थोड़ी देर तक नारदजी ध्रुव के पास रहे, उनको शिक्षा दी और ध्रुव को प्रभावित होना ही पड़ा। प्रह्लाद के बारे में भी यही है कि नारद की प्रेरणा से उन्होंने अपनी गतिविधियाँ बदल दीं और कितने ही लोग हैं? भगवान् बुद्ध के बारे में भी यही बात आती है कि आम्रपाली से उन्होंने कहा कि तुम अपना जीवन बदल दो, बदल दिया, उन्होंने कहा कि तुम अपना जीवन बदल दो, बदल दिया, उन्होंने। अंगुलिमाल था, उससे कहा गया बदल दो तो उसने बदल ही दिया। मैं समझता हूँ मैं स्वयं तो इस लायक नहीं, लेकिन जिस सत्ता का सन्देशवाहक हूँ उस सत्ता का फोर्स मेरे अन्दर इतना जबरदस्त है और वह ऐसा है कि मैं उनका सन्देश ले करके जाऊँ तो उससे बहुत लोगों में परिवर्तन लाया जा सकता है और सारी दुनिया के लोगों का निर्माण किया जा सकता है। एक छोटा-सा प्रयास हमने हिन्दुस्तान में, हिन्दू समाज में धर्ममंच के माध्यम से किया था। उसका हजारों गुना विस्तार बन सकता है और वह नये युग-निर्माण करने का दिन समीप से समीपतम भी जा सकता है।
अभी मैंने तीन जनों का जिक्र किया—धर्माचार्यों की बात कही, साहित्यकारों की बात कही और कलाकारों की बात कही। तीन वर्ग अभी और भी रह जाते हैं, जो बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। एक वर्ग उनका है जिनको हम विज्ञान कहते हैं। विज्ञान ने इन सौ-दो सौ वर्ष में सब परिवर्तन करके रख दिया, जिसे देख करके हमको हैरत होती है। कोई मरा हुआ पाँच सौ वर्ष पुराना व्यक्ति कहीं हो और वह यहाँ अगर आये और उस जमाने को देखे तो वह जादू का युग कहेगा। ये घड़ियाँ आज से पाँच सौ वर्ष पहले कहाँ थीं? रेडियो पाँच सौ वर्ष पहले कहाँ था? बिजली पाँच सौ वर्ष पहले कहाँ थी? हवाई जहाज और पानी के जहाज कहाँ थे? टेलीफोन और टेलीग्राम कहाँ थे पाँच सौ वर्ष पूर्व। आजकल जितनी मशीन दिखाई पड़ती हैं, पाँच सौ वर्ष पूर्व नामोनिशान भी नहीं था उनका। विज्ञान ने आदमी के जीवन को कितना परिवर्तन और सुविधाओं से युक्त, कितना सम्पन्न बना दिया है? यह विज्ञान आदमी का बहुत कुछ कर सकता है, विनाश भी कर सकता है। यह क्या नहीं कर सकता? अखण्ड-ज्योति में कोई चार लेख ऐसे छपे हैं कि यह भी प्रयास किये जा रहे हैं कि मनुष्यों के मस्तिष्क को मनचाही दिशा में ढाल दिया जाए। अगर मनुष्यों के मस्तिष्कों को कहीं ऐसे निकम्मे रूप में ढाल दिया गया तो आदमी जानवर से भी गया-बीता हो जाएगा। इसीलिए इस भयंकर समय में स्मरण-शक्ति वस्तुतः राजसत्ताओं के हाथ में नहीं वैज्ञानिकों के हाथ में है। उस समय में जब हिटलर अपने चरम उत्कर्ष पर था, जापान एशिया में हुंकार रहा था, इटली और दूसरे देशों में यह। तब विज्ञान का एक छोटा-सा कण जिसको हम एटम बम कह सकते हैं, जापान के नागासाकी और हिरोशिमा पर गिरा और उस बम ने सारी दुनिया का नक्शा बदल दिया। जो समर्थ थे, उनको कमजोर बना दिया। सारी की सारी बाजी इधर से उधर हो गयी। ये विज्ञान का था चमत्कार। विज्ञान का चमत्कार आगे भी हो सकता है। विज्ञान को अध्यात्म का अनुयायी होना चाहिए विनाशकारी नहीं, विकासशील होना चाहिए, विध्वंसकारी नहीं।
इसके लिए उनको क्या करना होगा और क्या करना चाहिए? इसके लिए मुझे वैज्ञानिकों से मिलना होगा और इस यात्रा के लिए जो कार्यक्रम बना है, उसमें वैज्ञानिकों से मिलना भी शामिल है, उनको प्रभावित करना भी शामिल है, उनको रास्ता बताना भी शामिल है। उनको किस तरीके से अध्यात्म का अनुयायी हो करके वह शोध करनी चाहिए जिससे कि विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के विरोधी न होकर के पूरक हो जाएँ। ऐसे अनेक कार्यक्रम हैं, जिनमें मुझे सम्मिलित होना होगा, भाग लेना होगा, उनसे विचार-विमर्श करना होगा, राजनीतिज्ञों से भी मिलना होगा। उनसे कहना होगा कि राजनीति के वर्तमान स्वरूप को बदला जाना चाहिए। इसमें हर वर्ग और देश का स्वार्थ मुख्य है। हर देश अपने देश के नागरिकों की बात सोचता है। यह प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए और यह पद्धति बदल देनी चाहिए। प्रत्येक राजनीतिज्ञ को इस मायने में विचार करना चाहिए कि अगले दिनों एक विश्व बनने वाला है, एक राष्ट्र बनने वाला है, एक धर्म बनने वाला है, एक संस्कृति बनने वाली है, एक विशाल परिवार बनने वाला है। ऐसी दिशा में यही मुनासिब होगा कि उनका जो विचार और दृष्टिकोण हो सार्वभौम हो, केवल देश विशेष के स्वार्थों के लिए नहीं। अगर ये राजनीतिज्ञ इस तरीके से थोड़े-से भी बदल जाते हैं तो हमारे लिए विश्व के नव-निर्माण के लिए बहुत सारा रास्ता साफ हो जाता है।
इसी प्रकार से सम्पत्ति वालों से मुझे कहना ही चाहिए, कहना ही पड़ेगा कि अब सम्पत्ति के मरने के दिन आ गये। अब विपुल सम्पत्ति का युग चला गया, कोई आदमी विस्तृत रूप से बहुत धनी रह नहीं सकेगा। समय की हवा बहती चली आ रही है कि समान वितरण होना ही है। लोगों को समान धन का हिस्सा मिलना ही है। सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण होने वाला है। हर आदमी को श्रम ही करना पड़ेगा। पूँजी व्यक्ति के पास अब नहीं रहेगी। व्यक्ति के पास जहाँ पूँजी है, उससे मुझे कहना ही पड़ेगा। जिस तरह मरने के वक्त आदमी संन्यास ले लेता है, दान-पुण्य कर लेता है, गोदान करता है और कहता है कि सारी जिन्दगी के पापों का प्रायश्चित कर लूँ। अब पापों के प्रायश्चित का समय है। जिन लोगों के पास धन संग्रहीत है, वह उसको प्रायश्चित में खर्च कर डालें तो यह बहुत बड़ी बुद्धिमानी होगी। आज पैसे की जरूरत है इसलिए कि मनुष्यों का मस्तिष्क ढाला जाए, मनुष्यों के विचार बदले जाएँ, उनको शिक्षा दी जाए। उसके लिए बहुत बड़े कलेवर खड़े किये गये हैं, उनके माध्यम से विकास के लिए भी वही कलेवर खड़े करने चाहिए। सारी दुनिया में साहित्य ही एक ऐसा माध्यम है कि जिसने मनुष्य का विकास किया है। विज्ञान के वह पहलू भी है जिन्होंने दुनिया का सबसे अधिक विनाश किया है। उसमें अरबों और खरबों रुपयों की पूँजी लगी हुई है। विनाश में जब इतनी पूँजी लगी हुई है तो विकास तो बड़ा ही होता है। विनाश में कम में काम चल जाता है। एक आदमी को मारने में एक रुपये का छुरा काफी होता है लेकिन एक मनुष्य को बनाने, पढ़ाने, लिखाने और बड़ा करने में कितने पैसे और समय की जरूरत पड़ती है। हमको नया बनाना है, नया मनुष्य बनाना है, नया विश्व बनाना है तो उसके लिए कितनी बड़ी पूँजी की जरूरत पड़ेगी, जबकि विनाश के लिए इतनी बड़ी पूँजी लगी है। अनुमान इसी से लगाया जा सकता है। हमें पूँजी वालों से कहना ही पड़ेगा कि आपके पास जो है, उसे व्यक्तिगत सुधार के लिए मत खर्च कीजिए। उसको लोकमंगल के लिए निकालिए। अगर वह नहीं मानते हैं तो उसके मुकाबले की वह चीज खड़ी करनी पड़ेगी जिससे कि नई पूँजी उदय हो सके।
लोगों के पास पैसे हैं—किसी के पास जेवर के रूप में हैं, किसी के पास किसी रूप में, जायदाद के रूप में हैं। खाने भर के लिए वह रखें, अनावश्यक पूँजी को इकट्ठी न करें और एक सामाजिक स्तर पर पूँजी खड़ी करें। लिमिटेड कम्पनी या सरकारी समिति के रूप में खड़ी करें। उससे अपनी आवश्यकताओं को पूरा करें जिससे कि नया निर्माण करने के लिए नई विचारधाराओं के निर्माण करने के लिए जा सकें, भले ही वह सहायता के आधार पर ही क्यों न हों? मुझे इस पूँजी को आमन्त्रित करना पड़ेगा। इसके लिए भी सारी दुनिया को मुझे जगाना है और जगाना ही चाहिए।
यह पाँच क्रियाकलाप मैंने आप लोगों के सामने बताये। अगले दिनों में मुझे इनकी व्यवस्था करनी पड़ेगी। और भारतवर्ष के लोगों को अपने पास बुलाना पड़ेगा। भारत में दौरा करने और जाने-आने का मेरा मन नहीं है और शौक भी नहीं है, अवकाश भी नहीं है। भारतवर्ष के लोग तो आसानी से मेरे पास भी आ सकते हैं और उन्हें वहीं आना चाहिए, शान्तिकुञ्ज में जब मैं होऊँ तब मुझसे मिलने के लिए। अगर मैं हिन्दुस्तान में भी घूमता फिरूँ तो मेरे अन्य सारे काम कैसे होंगे? वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का प्रतिपादन और भी प्रखर बनाने के लिए पाँच साल में मुझे अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करना है और बुद्धिजीवी वर्ग को प्रेरणा देने वाले आधारभूत सिद्धान्त ढूँढ़ निकालने हैं, जिससे कि वे इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य कर सके। ये पाँच वर्ष के कार्यक्रम हैं मेरे। इन पाँच वर्षीय कार्यक्रमों को मैं यहाँ शान्तिकुञ्ज में रहकर संचालित करता रहूँगा। इसकी गतिविधियों का केन्द्र रहेगा यह। यहाँ से समाज के और मेरे बीच का जो सम्पर्क है, वह इसी केन्द्र के द्वारा होता रहेगा। केन्द्र इस तरीके से कह सकते हैं कि जिस तरीके से टेलीफोन केन्द्र से होकर यहाँ से वहाँ जाकर मिल जाता है, उसको वहाँ मिला देते हैं, उसको वहाँ छोड़ देते हैं। यह सुविधा का प्रश्न है, मेरे और तुम्हारे बीच का। इसी रूप में इसको बनाया था और इसे आन्दोलन के रूप में खड़ा किया गया था। अभी भी खड़ा है। पाँच वर्ष के बाद में इसको महिला क्रान्ति को सौंप दिया जाएगा, महिला जागरण के लिए और यह महिला जागरण केन्द्र शान्तिकुञ्ज के नाम से विख्यात होगा। यहाँ से वह कार्य होगा कि ये महिलाएँ सारे विश्व भर में नारी जागरण का काम कर सकेंगी और एक नये युग को लाने के लिए एकजुट होकर कार्य कर सकेंगी, यह करना ही पड़ेगा। नारी के जिम्मे वह नेतृत्व आएगा, जिसके द्वारा भावनात्मक विकास के अगले कदम उठाये जा सकें। यह अगले कार्यक्रम होंगे। यह मेरी अब तक की गतिविधियाँ हैं। पाँच वर्ष बाद क्या होगा, मैं कुछ नहीं कह सकता। समय-समय पर जब मुझे गुरुजी से संकेत मिलते रहते हैं, उसी अनुसार मैं काम करता रहता हूँ। अब मेरी समस्या, व्यवस्था, प्रतिज्ञा मुझे कुछ नहीं मालूम, जब जो कार्य समय-समय पर मेरे सामने आये, आते रहेंगे मैं करता हूँ और उसी तरीके से करता रहूँगा। यही कार्यक्रम है और यही है मेरी गतिविधियों का संक्षेप और सारांश, जिसके आधार पर मैं चलता रहा और चलता रहूँगा। अच्छा आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति।