उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
AJ Jan 2004
प्रस्तुत वसंत पर्व पर यह जीवन-साधना विशेषांक प्रकाशित किया जा रहा है। इस अंक के लिए अमृतवाणी के अंतर्गत हमने कुछ उन छँटे हुए अंशों को लिया है, जो समय-समय पर इस विषय पर परमपूज्य गुरुदेव के श्रीमुख से निकले हैं। सरल-सी अपनी वाणी में उनने सब कुछ वह कह दिया है, जो हमें दिव्यकर्मी-महामानव बनाने में सक्षम है।
सर्वोपरि वैभव
देवियो, भाइयो! व्यक्तित्व का विकास सद्गुणों के विकास के ऊपर टिका हुआ है। प्रत्येक मनुष्य अपना व्यक्तित्व वजनदार बना सकता है। व्यक्तित्व ही वह संपदा है, जिसके आधार पर मनुष्य आध्यात्मिक जीवन और सांसारिक जीवन में सफल होता है। सफलता के लिए धन काफी नहीं है, सफलता के लिए दूसरों का सहयोग काफी नहीं है। इन चीजों को जरूरत तो है, लेकिन सबसे ज्यादा आदमी के पास जो हथियार है, सबसे बड़ा जो वैभव है, वह आदमी का व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व को कैसे विकसित किया जाए? उसे सद्गुणों से, सत्प्रवृत्तियों से कैसे संपन्न किया जार? सबसे बड़ा प्रश्न यही है, जिसका अगर कोई आदमी समाधान कर लेता है तो समझ लीजिए, उसने अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने की आधी मंजिल पार कर ली।
अनगढ़ता से सुगढ़ता की ओर
जीवन-साधना का अर्थ है—अपने गुण, कर्म, स्वभाव को साध लेना। वस्तुतः मनुष्य चौरासी लाख योनियों में घूमते-घूमते उन सारे-के-सारे प्राणियों के कुसंस्कार अपने भीतर जमा करके लाया है, जो मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक नहीं है, वरन् हानिकारक हैं। तो भी वे स्वभाव के अंग बन गए हैं और हम मनुष्य होते हुए भी पशु संस्कारों से प्रेरित रहते हैं और पशु-प्रवृत्तियों को बहुधा अपने जीवन में कार्यान्वित करते रहते हैं। इस अनगढ़पन को ठीक कर लेना, सुगढ़पन का अपने भीतर से विकास कर लेना, कुसंस्कारों को, जो पिछली योनियों के कारण हमारे भीतर जमे हुए हैं, उनको निरस्त कर देना और अपना स्वभाव इस तरह का बना लेना, जिसको हम मानवोचित कह सकें—साधना है। साधना के लिए हमको वही क्रिया-कलाप अपनाने पड़ते हैं, जो कि कुसंस्कारी घोड़े व बैल को सुधारने के लिए उसके मालिकों को करने पड़ते हैं—गाड़ी और हल में चलाने के लिए। कुसंस्कारों को दूर करने के लिए हमको लगभग उसी तरह के प्रयत्न करने पड़ते हैं, जिस तरह कच्ची धातुओं को आग से तपाकर उनको शुद्ध-परिष्कृत बनाया जाता है और उनसे जेवर-आभूषण बनाए जाते हैं। उसी तरीके से अपने कच्चे जीवन, कुसंस्कारी जीवन को ढाल करके ऐसा सभ्य और सुसंस्कृत बनाया जाए कि हम ढली हुई धातु के आभूषण के तरीके से, औजार-हथियार के तरीके से दिखाई पड़ें। हमको अपने जीवन को जंगली झाड़ियों के तरीके से काट-छाँट करके, परिष्कृत करके, समुन्नत करके इस लायक बनाना चाहिए कि जिसको कहा जा सके कि वह सभ्य और सुसंस्कृत जीवन है।
साधना से ही सिद्धि
जीवन-साधना के लिए हमको नित्य ही आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। अपनी गलतियों पर गौर करना चाहिए। उनको सुधारने के लिए कमर कसनी चाहिए और अपने आप का निर्माण करने के लिए आगे बढ़ना और जो कमियाँ हमारे स्वभाव के अंदर हैं, उन्हें दूर करने के लिए जुटे रहना चाहिए। आत्मविकास इसका एक हिस्सा है। हमको अपनी संकीर्णता में सीमित नहीं रहना चाहिए। अपने 'अहं' को और अपनी स्वार्थपरता को, अपने हितों को व्यापक दृष्टि से बाँट देना चाहिए। दूसरों के दुःख हमारे दुःख हों, दूसरों के सुखों में सुखी रहें, इस तरह की वृत्तियों का हम विकास कर सकें तो कहा जाएगा कि हमने जीवन-साधना करने के लिए जितना प्रयास किया, उतनी सफलता पाई। साधना से सिद्धि की बात प्रख्यात है।
दृष्टिकोण को बदलकर जाएँ
आप अपने दृष्टिकोण को यहाँ से बदल ले जाइए। जिसका परिवर्तन होता है, असल में वह दृष्टिकोण होता है। आप शरीर के लिए नहीं, आत्मा के लिए जिएँ।आप आत्मा हैं, शरीर नहीं। आत्मा के ही रूप में आप करोड़ों-लाखों वर्षों से जिंदा हैं और करोड़ों-लाखों वर्षों तक जिंदा रहेंगे। शरीर तो आपके पहनने-ओढ़ने के कपड़े के तरीके से है। आप अपने आप को शरीरप्रधान न मानें, अपने आप को आत्माप्रधान मानें और आत्मा के कल्याण को मुख्य स्थान दीजिए। शरीर का उपयोग तो करना है, इसलिए इसे जिंदा तो रखना चाहिए। शरीर की जरूरतों को तो पूरा कीजिए, परन्तु शरीर के लिए ही मत कीजिए। रोटी खाइए तो सही, पर रोटी के लिए जिन्दा मत रहिए। जिंदगी के लिए रोटी खाइए। यदि आप अपना दृष्टिकोण बदल देंगे तो आत्मा का उत्कर्ष, आत्मा के कल्याण की अनेक बातें आपको सूट पड़ेंगी। अगर आपका दृष्टिकोण बदल जाए तब आपकी बहुत-सी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। तब आप मालिक नहीं, माली बनकर रहेंगे। आप व्यक्तिगत जीवन में जीवन के दृष्टिकोण को बदलिए, पारिवारिक जीवन के संबंध में दृष्टिकोण को बदलिए और सामाजिक जीवन के बारे में अपने व्यवहार को बदलिए।
भक्ति हो तो ऐसी
मित्रो! जिंदगी की बड़ी कीमत है। जिंदगी लाखों रुपये कीमत की है, करोड़ों रुपये की है, अरबों रुपये कीमत की है। तुलसीदास जिंदगी वाला इनसान था। वासना के लिए जब व्याकुल हुआ तो ऐसा हुआ कि बस, हैरान-ही-हैरान, परेशान-ही-परेशान और जब भगवान की भक्ति में लगा तो हमारी और आपकी जैसी भक्ति नहीं थी उसकी कि माला फिर रही है इधर, और मन फिर रहा है उधर। मनके फिर रहे हैं इधर, भजन कर रहे हैं इधर और सिर खुजा रहे हैं उधर। भला ऐसी भी कोई भक्ति होती है! ऐसी भी कोई उपासना होती है। तुलसीदास ने भक्ति की तो कैसी मजेदार भक्ति की कि बस, रामचंद्र जी को पकड़
करके ही छोड़ा।
अपने आप से लड़ें एक महाभारत
मित्रो! अध्यात्म क्षेत्र में सबसे पहले एक काम करना पड़ता है—महाभारत की लड़ाई लड़नी पड़ती है। किससे लड़ना पड़ता है? अपने मन से लड़ना पड़ता है। हमारा यह मन बड़ा कमीना है। इस लड़ाई में अगर हमारी विजय हो जाती है तो समझना चाहिए कि हमने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। कहा भी है, "न मारा आपको जो खाक हो अक्सीर बन जाता।" तात्पर्य यह है कि अगर हम अपने आप को मार लें, अपने मन को काबू में कर लें, अपने मन को हम अपनी इच्छानुसार चला लें तो मजा आ जाए! तो फिर आप कौन हो जाएँगे? मनस्वी हो जाएँगें, संत हो जाएँगे और देवता हो जाएँगे। अपने आप से लड़ाई लड़ने, अपने मन पर कंट्रोल करने, इंद्रियों पर काबू करने वालों और जन्म-जन्मांतरों के हैवानी कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाने वालों को हम मनस्वी करते हैं। मनस्वी आदमी वे हैं, जो अपने जीवन का निर्धारण और जीवन की दिशाधारा को सही कर सकते हैं। उनको मैं मनस्वी कहता हूँ, जो अपने मन और अक्ल को सलाह देते हैं, परामर्श देते हैं कि आपको क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। मनस्वी की पहचान एक ही है कि उसके जीवन में सदा 'सादा जीवन उच्च विचार' के ऊँचे विचार आते हैं। ऊँचे विचार लाने के लिए सादा जीवन आवश्यक है। मनस्वी ही अपने जीवन को बदल सकेंगे और समय को, युग को बदल सकेंगे।
उत्थान की ओर चलें, आदर्शों की ओर चलें
मित्रो! आप 'सादा जीवन और उच्च विचार' के सिद्धांत को अपनाइए। सादा जीवन जिएँगे तो आपके सारे अभाव खत्म हो जाएँगे और जब उच्च विचार लेकर यहाँ से जाएँगे तो जो आपके पास वर्तमान में साधन हैं, उन्हीं साधनों की मदद से आप लोगों की मदद और सेवा करने में समर्थ हो सकेंगे। आप किसी की सेवा न भी करें, तब भी घर बैठे ऊँची श्रेणी की कल्पनाएँ करते रहें, विचार करते रहें, योजनाएँ बनाते रहें। अपने आप को ऊँचे स्तर के विचारों में डुबोए रख सकें, यह भी तो कोई कम बात नहीं। आप ऐसा ही कीजिए। आप अपनी दुर्मति को त्याग दीजिए, आप नरक को त्याग दीजिए, आप पतन को त्याग दीजिए। आप उत्थान की ओर चलना शुरू कीजिए। आप स्वर्ग को अपना निशाना बनाइए और अपने पैर स्वर्ग एवं मुक्ति की तरफ उठाइए। मुक्ति का मतलब होता है— भवबंधनों से मुक्ति, लोभ-मोह से मुक्ति और स्वर्ग की ओर चलने का मतलब होता है—ऐसे आदर्श और ऐसे सिद्धांतों की ओर कदम बढ़ाना, जहाँ कि आदमी को शांति मिलती है, जहाँ आदमी को श्रेय मिलता है, जहाँ आदमी को संतोष मिलता है। आप अपने आप में हेर-फेर कर लीजिए, रास्ता बदल दीजिए, विचार बदल दीजिए, गुण बदल दीजिए, चिंतन बदल दीजिए।
॥ॐ शान्तिः॥