उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
नारद पुराण का अनुवाद जिन दिनों मैं कर रहा था, उन दिनों एक बड़ी सुन्दर कथा पढ़ने को आई। वह कथा थी सत्यवान सावित्री की।
यह कथा आप सबने जरूर सुनी है। यह किसकी कथा है? यह कथा आप सब ब्राह्मणों की है। ब्राह्मण माने—सत्यवान। सावित्री माने, वह माँ जिसके चरणों में हम और आप रोज मस्तक नवाते हैं। जिसको हम ब्रह्मशक्ति कहते हैं, आत्मशक्ति कहते हैं। जिसको हम वेदमाता और विश्वमाता कहते हैं। वह माता सावित्री है जो तलाश करती रहती है कि किसको वरण करूँ? किसके साथ चलूँ? किसका पल्ला भारी करूँ? किसके साथ रहूँ? उसको ऐसे आदमी की जरूरत है जो सत्यवान हो। सत्यवान माने ब्राह्मण। यह ब्राह्मण किसी वर्ण का नाम नहीं है, किसी कौम का नाम नहीं है, किसी जाति का नाम नहीं है। ब्राह्मण वह व्यक्ति है, जो ब्रह्म को जानते हैं, जिन्होंने ब्रह्म के तत्व को समझ लिया है, ब्रह्म के कर्तव्यों को जान लिया, वह ब्राह्मण हैं। ऐसे ही ब्राह्मण व्यक्ति को वरण करने के लिए, उनके साथ होने के लिए, उनके प्राण बचाने और रक्षा करने के लिए माँ गायत्री तलाश करती रहती है कि ऐसा कौन व्यक्ति है, जिसके गले में जयमाला पहना दी जाए? ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण होना चाहिए।
गायत्री मंत्र शक्ति का पुंज है, जिसकी प्रशंसा करते हुए वेद थकते नहीं। अथर्ववेद में वेदमाता गायत्री के बारे में कहा है—‘स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां.............।’ सात ऋद्धियाँ, सात विभूतियाँ, सात सिद्धियाँ दिया करती है गायत्री। किसको? ब्राह्मण को। यह शर्त है कि ब्राह्मण के अलावा और किसी को नहीं देती। कोई भी जाए वह हर एक को मना कर देती है। आप लोग यही सुनते भी हैं कि गायत्री का अधिकार ब्राह्मण को है। उसे गायत्री का जप करना ही चाहिए। यहाँ ब्राह्मण का अर्थ किसी वर्ण-विशेष से नहीं है। यह विश्वमाता है। यह ब्राह्मण के लिए है, क्षत्रिय के लिए है, शूद्र के लिए है, हिन्दू के लिए है, मुसलमान के लिए है, पारसी के लिए है, यहूदी के लिए है, काले लोगों के लिए है और सबके लिए है। विश्वमाता एक की नहीं हो सकती। सूरज एक का नहीं हो सकता, चन्द्रमा एक का नहीं हो सकता। हवा एक की नहीं हो सकती। पृथ्वी एक की नहीं हो सकती, भगवान् एक का नहीं हो सकता और गायत्री भी एक की नहीं हो सकती। वह सबकी है। लेकिन यह कैसे कहते हैं कि वह ब्राह्मण की है? ब्राह्मण की इसलिए कहते हैं कि शक्ति को धारण करना, शक्ति को ग्रहण करना, शक्ति से ओत-प्रोत होना हर आदमी का काम नहीं है। इसके लिए भूमि चाहिए। भूमि अगर मनुष्य के पास न हो तो वह लाभ नहीं मिल सकता जो मिलना चाहिए।
गायत्री का लाभ प्राप्त करने के लिए क्या करना पड़ेगा? गायत्री का जप करना पड़ेगा। पुरश्चरण करने पड़ेंगे। ध्यान करना पड़ेगा। गायत्री चालीसा का पाठ करना पड़ेगा। नवरात्रियों का अनुष्ठान करना पड़ेगा। परंतु इतना ही काफी नहीं है। तब एक और भी काम करना पड़ेगा कि जो व्यक्ति इस शक्ति को धारण करना चाहता हो उसको अपने भीतर ब्रह्मतेजस् उत्पन्न करना पड़ेगा। कोई जमाना था जब इस देश में ब्रह्मतेजस् जगमगाता था।
मित्रो! एक जमाना याद आया जब ब्राह्मण जगद्गुरु था। ज्ञान देने के लिए विश्व में वह जाता नहीं था वरन् सारे संसार के लोग शिक्षाएँ लेने के लिए हमारे पासा आते थे। नालंदा और तक्षशिला के विश्वविद्यालय सारी दुनिया के लिए ज्ञान के केन्द्र बने हुए थे। ईसामसीह के बारे में जो नई खोज की गई है, उसके अनुसार यरूशलम से चलकर एक बालक तक्षशिला के विश्वविद्यालय में आया और कई वर्षों तक पढ़ा। पढ़ने के बाद में उसने रोम और दूसरे देशों में घूम-घूमकर सत्य और अहिंसा का शिक्षण देना शुरू किया। वही बालक पीछे ईसामसीह कहलाया। सारे विश्व के लोग इन विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए आते थे, जिनके शिक्षक, अध्यापक, डीन, वायस चांसलर ब्राह्मण होते थे, ऋषि होते थे और वे साधारण नहीं होते थे। मैं उनके गुणानुवाद गा रहा हूँ, जिन्होंने गायत्री की शक्ति को जाग्रत करके अपने भीतर धारण किया था। यह वर्ग यदि अपने उन्हीं कर्तव्यों पर टिका रहता तो आज विश्व की दशा कुछ अलग ही रही होती।
पूर्व पुरुष अपने पीछे अपनी संतानों को धन-दौलत देकर जाते हैं, चीजें देकर जाते हैं, लेकिन जिम्मेदारियाँ भी देकर जाते हैं। पूर्वज ऋषि हमको अपनी जिम्मेदारियाँ देकर गए हैं कि हम विश्व का संरक्षण, विश्व का मार्गदर्शन और दिशा देने का वजन अपने ऊपर लें। जनेऊ-संस्कार जब कराया जाता है तब हर ब्राह्मण को एक प्रतिज्ञा करनी पड़ती है, कि ‘‘वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिताः’’—हम पुरोहित, राष्ट्र को जिंदा रखेंगे। राष्ट्र को, देश को जीवित और जिंदा रखने की जिम्मेदारी, जो पूर्व पुरुष छोड़ गए हैं, कदाचित हम उसे निभा सके होते तो हमने भी सिर ऊँचा उठा करके उन्हीं बातों को कहा होता जिनकी कि प्रशंसा हमारे शास्त्रों और ग्रंथों में ब्राह्मण की महत्ता के आगे सिर झुकाकर की गई है। हमको उन जिम्मेदारियों को निभाना ही चाहिए जो ब्राह्मण करते रहे हैं। प्राचीनकाल में ब्रह्मतेजस् के धनी चाणक्य ने देखा कि राष्ट्र में अव्यवस्था फैल रही है। भारत छिन्न-भिन्न हो रहा है। उन्होंने चंद्रगुप्त को बुलाया और कहा, इसको सँभालने के लिए तुझको आगे बढ़ना चाहिए। चंद्रगुप्त के सिर पर चाणक्य का हाथ था। वे लड़ने नहीं गए तो क्या, लेकिन ऐसी शक्ति भर दी जिससे वह न जाने क्या से क्या कर सका? यह काम आप भी कर सकते हैं यदि आपके पास गायत्री की शक्ति हो तब। लेकिन उस शक्ति को हम भूल गए। प्राचीनकाल में सारा विश्व आपके चरणों में इसलिए सिर झुकाता था कि हम शासन नहीं करते थे, पर शासकों पर नियंत्रण करते थे। रामराज्य में राम का राज्य हुआ, उनके पिता दशरथ का राज्य हुआ, उनके पिता रघु का, अज का, दिलीप का राज्य हुआ। पीढ़ियाँ होती चली गईं, लेकिन गुरु वशिष्ठ का नियंत्रण बराबर बना रहा। शासन चलते थे, पर उन्हें चलाते थे ब्राह्मण। कब? तब, जबकि वे उसकी उपासना करते थे, जिसकी कि आराधना के लिए आप लोग हजार कुण्डों का दीपक जला करके आरती उतारने चल रहे हैं। उस ब्रह्मशक्ति की जिस शक्ति से हम जगमगाते थे किसी जमाने में और राष्ट्रों पर नियंत्रण करते थे, शासकों को उत्पन्न करते, पैदा करते थे; शासकों को उतारते थे और चढ़ाते थे। विभूतियाँ हमारे चरणों के अंतर्गत रहती थीं, क्योंकि ब्रह्मतेजस् हमारे पास था।
गायत्री आपकी माता है। आपकी माता वही नहीं है जिसने जन्म दिया वरन् आपकी माता शक्ति की पुंज विश्वमाता है। गायत्री को, अपनी माता को हम भूल गए। जो आदमी अपनी माता को भूल जाएगा, दूध कहाँ से पीएगा? शक्ति का पुंज है यह गायत्री मंत्र। लेकिन हमारे मंत्र न जाने क्यों चमत्कार नहीं दिखा रहे हैं? इसलिए नहीं दिखा रहे हैं क्योंकि एक हिस्सा हमारा बाकी रह गया है। जमीन को हमने सँभाला नहीं और बीज बो दिया। चरित्र जमीन है और मंत्र बीज। बीज वहीं उगेगा, फलेगा, जहाँ जमीन होगी। जमीन नहीं होगी तो बीज कैसे फलेगा? मनुष्य का चरित्र सबसे बड़ा है। चरित्रवान की वाणी से वचन कहे जाएँगे, जो मंत्र बोले जाएँगे वे सत्य होते जाएँगे, मिथ्या नहीं हो सकते। शृंगी ऋषि द्वारा राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ की कथा आपने सुनी है। अब मैं आपको अपनी जिंदा आदमी की गवाही पेश करता हूँ। अभी पचास लाख व्यक्ति मेरे हैं। ठोस आदमी इसमें से एक लाख भी नहीं हैं, जो गायत्री मंत्र की विद्या सीखने, उसकी सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए आते हैं। फिर उनचास लाख कौन हैं? 49 लाख वे हैं जो दुःखी हैं, कष्ट में हैं, मुसीबत में हैं, जिनको सांसारिक और मानसिक कठिनाइयों ने घेर रखा है। वे भी आते रहे हैं और कहते रहे हैं कि मेरी ये दिक्कतें हैं, आप कोई सहायता कीजिए। मैंने कहा—भगवान से प्रार्थना करूँगा और भगवान से प्रार्थना सही होती चली गई। इस तरीके से कितने आदमी दुःखों को दूर कराने के लिए आते हैं। यह कैसे संभव हो गया? गायत्री मंत्र की सिद्धि कैसे हो गई? जप करने का महत्त्व क्या मैं अकेला ही जानता हूँ? दूसरे किसी ने जप नहीं किया? बहुतों ने जप किया, फिर फल क्यों नहीं मिला? फल इसलिए नहीं मिला कि लोगों ने अपनी जीभ को जला दिया। झूठ बोला जीभ जल गई। पराया अन्न खाया, कुधान्य खाया जीभ जल गई। असत्य भाषण किया, दूसरों पर क्रोध किया जीभ जल गई। जली हुई जीभ के द्वारा किस तरीके से मंत्रों का उच्चारण और कैसे मंत्र को सफलता मिले? जीभ जले नहीं, इसके लिए हमारे चरित्र और आचरण उच्चकोटि के होने चाहिए।
मंत्र कारतूस के तरीके से हैं और मनुष्य का व्यक्तित्व बंदूक के तरीके से। कारतूस का अपना महत्त्व है, पर उससे भी ज्यादा कीमती बंदूक है, जो बढ़िया लोहे की बनी और ढली हुई हो। हमें अपने चरित्र को, जीवन को उच्चकोटि का बनाना पड़ेगा। अपने आपको संयमी, ब्रह्मचारी, ईमानदार, नेक और शरीफ बनाना पड़ेगा। यही तो ब्राह्मण की परिभाषा है। ब्राह्मण जन्म से नहीं कर्म से होता है। कर्म भी हमारे ब्राह्मण जैसे होने चाहिए। अभी ब्राह्मणत्व खंडहर हो गया, टूट-फूट गया है जिसे फिर से ‘रिपेयर’ करने की जरूरत है। फिर हमको चरित्रवान, विद्यावान्, सेवाभावी और ईमानदार बनने की जरूरत है। ऐसे व्यक्ति यदि हम अपनी साधना से पैदा कर सकते हैं तो हम ब्राह्मणत्व की सेवा कर सकते हैं और उस चमत्कार को देख सकते हैं जो गायत्री मंत्र के साथ में जुड़ा हुआ है, जो यज्ञ के माध्यम से जुड़ा हुआ है।
यज्ञ की महत्ता असाधारण है। राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ की कथा प्रसिद्ध है। रावण जब पराजित होने लगा तब उसने रामचंद्र जी की शक्ति का मुकाबला करने के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया। राम और लक्ष्मण को जब पता चला तो उन्होंने कहा—यदि यज्ञ पूरा हो गया तो हमारी विजय मुश्किल हो जाएगी। हनुमान जी गए और यज्ञ का विध्वंस किया। यज्ञ की शक्ति बहुत बड़ी है। यह कोई समारोह या आयोजन नहीं वरन् शक्तियों का आह्वान है। यह उन शक्तियों का आह्वान है, जिसके द्वारा मनुष्य क्या से क्या बन सकता है? ब्राह्मण पैदा नहीं होता, वह यज्ञ की अग्नि में पकाया जाता है। घड़ा पैदा नहीं होता, अग्नि के अवे में पकाया जाता है। ‘महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयां क्रियते तनुः’—ब्राह्मण पैदा नहीं होते, यज्ञों के द्वारा, महायज्ञों के द्वारा पकाए जाते हैं। चन्द्रोदय और अभ्रक पकाया जाता है। खिचड़ी कहीं बनी-बनाई नहीं मिलती, पकाई जाती है। ब्राह्मण भी पैदा नहीं होते, वे यज्ञ के अवे में बनाए और पकाए जाते हैं।
प्राचीनकाल में पहले हम यज्ञ पिता को भोजन कराते थे तब भोजन करते थे। अग्निहोत्र हमारे जीवन का अंग था। गायत्री तपोभूमि में अखण्ड अग्नि स्थापित है। अखण्ड जप हमारे यहाँ होता है। उसका परिणाम है यह ब्रह्मवर्चस जिसकी आप उपासना करते हैं। आज की परिस्थितियों में यज्ञ की बहुत जरूरत है, जिसका कि आप लोग आयोजन कर रहे हैं। इससे मानव समाज की बड़ी सेवा होने वाली है। इससे लोगों के शारीरिक, मानसिक दुःख दूर हो सकते हैं। आप प्रयोग करके देखिए। जो लोग हवन में सम्मिलित हों उनके शरीर की बीमारियों के बारे में इम्तहान लेकर के देखिए कि हवन पर बैठने वालों की बीमारियाँ दूर हुईं कि नहीं। मानसिक बीमारियाँ जिसमें क्रोध, काम, विकार, असंतोष, झल्लाहट, सनकीपन से लेकर पागलपन तक शामिल हैं, ऐसे लोगों को हवन पर बिठाकर देखिए कि शरीर और मन की बीमारियों को वह दूर करता है कि नहीं। यह व्यक्ति की बात है।
अब मैं व्यक्ति की नहीं, सारे विश्व के कल्याण की बात कहता हूँ। भगवान राम जब लंका विजय करके घर आए तब गुरु वशिष्ठ से पूछा—अब क्या करना चाहिए? उन्होंने कहा—राम! अभी तो स्थूल शरीर वाला रावण मारा है, पर सूक्ष्म रावण जिंदा है जो आकाश में फैला हुआ है। रावण ने जो बुरे कर्म किए थे, जो हवाएँ फैलाई थीं, जो गंदे विचार फैलाए गए थे उससे सारा आकाश क्षुब्ध हो गया है, उसे शांत करो। राम ने कहा—स्थूल रावण को तो मार दिया, पर यह कैसे मारा जाएगा? गुरु वशिष्ठ ने कहा—अश्वमेध यज्ञ से। रामचंद्र जी ने दस अश्वमेध यज्ञ किए। बनारस के जिस स्थान पर दस अश्वमेध यज्ञ किए गए, उस स्थान का नाम दशाश्वमेध घाट पड़ा। गुरु वशिष्ठ जी ने कहा—अब वह रावण मारा गया, क्योंकि जिस आकाश में इतनी हाय, विध्वंस और हिंसा फैली हुई थी, उसका निवारण हो गया।
पिछले दिनों दो विश्वयुद्ध हो चुके हैं। उसमें कितनी आत्माएँ मारी गईं, कितने जीवों की हत्याएँ हुईं, कितनी गोलियाँ चलीं, कितनी बारूद आसमान में फैलाई गईं। अंतरिक्ष दूषित और गर्हित हो गया। अब जो बच्चा पैदा होता है, वहीं संस्कार ले करके आता है गंदे आसमान में से। जो भी वृष्टि होती है, जो भी अनाज पैदा होता है, जो भी वनस्पतियाँ और प्राणी पैदा होते हैं—जन्म से ही वह संस्कार लेकर आते हैं। माता-पिता रोते हैं, अच्छी संतान हुई इससे न होती तो अच्छा रहता। यह संस्कार इस आसमान में फैले हुए हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने भी यही किया था। पाण्डवों ने कहा—भगवन्! राजगद्दी मिल गई अब हम शांति से बैठेंगे। आप बताइए हमको अब क्या करना है? कृष्ण ने कहा—सूक्ष्म दुर्योधन अभी नहीं मारा गया। सूक्ष्म कंस, सूक्ष्म जरासन्ध, सूक्ष्म शिशुपाल अभी नहीं मरे। केवल शरीरधारी शिशुपाल मरा। शरीरधारी कौरव मारे गए, पर सूक्ष्म कौरव मारने बाकी हैं। ये कैसे मरेंगे? राजसूय यज्ञ किया गया।
उस यज्ञ से आकाश-अंतरिक्ष की शुद्धि की गई। अंतरिक्ष की शुद्धि के लिए और उन सबके लिए जो नई पीढ़ी के लोग पैदा होने वाले हैं, जो समस्याओं से उलझे हुए हैं, जो संकट और कठिनाइयों से भरे हुए हैं, उस सारी मानव-जाति का कल्याण करने के लिए जो यज्ञ कर रहे हैं, यह सबसे बड़ा परोपकार है। इससे बड़ा परोपकार और कुछ नहीं हो सकता। यह सारे मनुष्य जाति के लिए ब्रह्मभोज है। इससे बड़ा ब्रह्मभोज और दूसरा हो नहीं सकता। सारे विश्व के समस्त प्राणियों, वृक्ष-वनस्पतियों की इससे पुष्टि होती है। सब बलवान और नीरोग होते हैं। यज्ञ से असंख्य मनुष्यों के रोग, शारीरिक-मानसिक विकार दूर होते हैं। इससे विश्व में शांति होती है। दो महायुद्धों के द्वारा, गंदे सिनेमा और दूसरे गंदे गीतों के द्वारा जो आकाश प्रदूषित हो गया है, इसको वेदमंत्रों के द्वारा यज्ञ से दूर किया जा सकता है। इसमें सारे विश्व का कल्याण छिपा हुआ है और आप लोगों का कल्याण भी जिन्होंने यज्ञ का संकल्प किया है। आप लोग जो यज्ञ करने जा रहे हैं, उनके बारे में वेद भगवान ने ही विश्वास दिलाया, जिम्मेदारी उठाई, कसम खाई और कहा है—जिन लोगों ने मुट्ठी भरकर सामग्री से, हवन कर दिया, हमने उनकी मुट्ठियों को भर दिया। तुम घी का एक चम्मच भरकर लाए, हवन किया, हमने तुम्हारी मुट्ठियों को घी से भर दिया। यह बैंक में जमा करने के बराबर है। यह चीजों को जलाता नहीं है वरन् हम जो चीजें हवन करते हैं उससे लाखों गुनी चीज इस सारे आकाश को मिल जाती है। यह एक वैज्ञानिक उपाय है। यज्ञ ब्रह्मतेजस् जगाने की विधि है। यह वह कर्मकाण्ड है जिससे न केवल हम और आप ब्रह्मसमाज के लोग अपना कर्तव्यपालन कर सकेंगे वरन् सारी मनुष्य जाति के प्रति भी अपने कर्तव्यों का पालन कर सकेंगे।
गायत्री मंत्र जिसकी आप उपासना करते हैं, जिसको ब्रह्मास्त्र कहते हैं, यह ब्राह्मण का हथियार है। इसे कामधेनु कहते हैं, अमृत और पारस कहते हैं, जिसको छूकर लोहा सोना हो जाता है। यह गायत्री वेदमाता है। उसके प्रति आपके कर्मकाण्ड सराहनीय हैं, लेकिन उससे भी अगला कदम आपका यह होना चाहिए कि जो भी गायत्री की उपासना करते हैं, उनको सत्यवान बनना ही चाहिए, ताकि यह सावित्री जो गायत्री का ही दूसरा नाम है, आपके गले में विजयमाला पहना सके। यह गायत्री शक्तियों का पुंज है, देवत्व की देवी है। यह ब्रह्मवर्चस है। यह सब कुछ है। कोई भी ऐसी चीज नहीं जो इसके पास न हो। यह सतयुग में भी फल देती है और कलियुग में भी फल देती है, पर शर्त एक ही है कि जिन-जिन लोगों ने गायत्री उपासना के प्रति कदम बढ़ाए हैं उनको दूसरा कदम यह बढ़ाना चाहिए कि अपने जीवन को उत्तम बनाएँ, उज्ज्वल बनाएँ। सदाचारी, विवेकवान, शिष्ट, पवित्र और परोपकारी बनाएँ। जैसे-जैसे अपने आपको साफ करते चले जाएँगे जीवन पवित्र और शुद्ध होता चला जाएगा, वैसे-वैसे ही भगवान के नाम का रंग, गायत्री का रंग आप पर चढ़ता हुआ चला जाएगा। यह रहस्य है, चाबी है गायत्री मंत्र की और अन्य सारे अध्यात्म की।
मित्रो! मैं इसी राम पर अब तक चलता हुआ चला आया और यह अनुभव निकालने में समर्थ हो सका कि यह ब्रह्मतेजस् जिसकी कि आप उपासना करते हैं और मैं उपासना करता रहा, एक शक्तिपुंज है। इसके बराबर उपासना करते हुए जो लाभ उठाया जा सकता है कोई दूसरा व्यापार, दूसरा लाभ और दूसरा परमार्थ नहीं। आप लोगों ने अनेक तरह के व्यापार और कार्य किए हैं। मेरा व्यापार जिंदगी भर यही रहा है और मैं जानता हूँ कि इस व्यापार से कितना लाभ उठाया जा सकता है? कितना लाभ उठाया गया है? मैं चाहता हूँ कि मेरे तरीके से आप लोग भी लाभ उठाएँ और उसी तरीके से लाभान्वित हों जैसे कि आपके पूर्व पुरुष लाभान्वित होते रहे हैं। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥