उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ बोलें-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
चौरासी लाख योनियों के बाद मनुष्य जन्म मिलने और उसका सदुपयोग करके जीवनलक्ष्य प्राप्त करने का अवसर अतिशय सौभाग्य माना जाना चाहिए। इस संदर्भ में प्रमाद करने पर फिर चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ता है। इस शास्त्र प्रतिपादन को ध्यान में रखने पर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मानव जीवन एक अद्भुत उपलब्धि है और उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में ही होना चाहिए। पेट प्रजनन जैसे पशुकर्मों में उनका न्यूनतम भाग ही लगाना चाहिए।
उपर्युक्त अभी दृष्टिकोणों से लोकमंगल के लिए बढ़- चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करना मनुष्य का परम पवित्र कर्तव्य ठहरता है। पूजा- पत्री के कर्मकाण्डों के टंट- घंट में मन को इस प्रकार बहकाना उचित नहीं कि नाम रट से पाप कट जाएँ और ईश्वर मिल जाएँ। यह सर्वथा निस्तार विडंबना है। जीवनलक्ष्य की पूर्ति और ईश्वरप्राप्ति जैसी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के लिए मनुष्य को विश्वमानव की सेवा साधना में उच्चतम भावनाओं और प्रबल पराक्रम भरी चेष्टाओं के साथ संलग्न होना पड़ता है। इस राजमार्ग को छोड़कर और किसी पगडंडी से जीवनोद्देश्य की पूर्ति हो नहीं सकती।
वानप्रस्थ जीवन इसी परमार्थ प्रयोजन की पूर्ति के लिए नियत निर्धारित है। उत्तरार्द्ध आयु को लोकमंगल के लिए समर्पित करके उन महान उत्तरदायित्वों को पूरा किया जा सकता है जो सामाजिक ऋण से उऋण होने के लिए, ईश्वरप्रदत्त बहुमूल्य अनुदान का सही उपयोग करने के लिए और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरांत मिले अलभ्य अवसर का सदुपयोग करने की दृष्टि से नितांत आवश्यक है। यह प्रयोजन लोकमंगल में ही प्रवृत्त होने से संभव हो सकता है। विश्वमानव की सेवा साधना से बढ़कर ईश्वर की भक्ति पूजा और नर- जन्म की सार्थकता का और कोई मार्ग है भी नहीं। सच पूछा जाए तो ज्ञान साधना और योग साधना की उपयोगिता भी इसी दृष्टि से है कि इन उपायों से परिष्कृत किए गए व्यक्तित्व द्वारा अधिक उच्चस्तरीय सेवा साधना संभव हो सके, अधिक उच्चकोटि का आत्मिक आनंद प्राप्त किया जा सके।
स्पष्ट है कि वानप्रस्थपरक परमार्थ जीवन में प्रवेश करने वालों को जहाँ ज्ञान साधना और योग साधना द्वारा आत्मबल संपादन करना है, वहाँ लोकमंगल के लिए अपनी विभूतियों को समर्पित करते हुए विश्वमानव को अधिकाधिक श्रेष्ठ समुन्नत बनाने में निरत निमग्न भी रहना है। जिन्हें सेवा धर्म पर आस्था न हो मात्र जप, तप और निवृत्तिपरक एकांत सेवन अथवा सुख चैन के बिना झंझट भरे दिन काटने हों, उन्हें इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। वह स्थिति मरणकाल के निकट आ जाने पर थके- हारे और अशक्त असमर्थ लोगों के लिए ही उपयुक्त हो सकती है। इसे वैराग्य, निवृत्ति, संन्यास आदि अन्य किसी नाम से भले ही पुकारा जाए, पर तेजस्वी वानप्रस्थ के साथ तो नहीं ही जोड़ा जा सकता।
मनुष्य को जहाँ समाज प्रदत्त अगणित सुख- सुविधाएँ उपलब्ध हैं वहाँ उसे इस उत्तरदायित्व से भी लाद दिया गया है कि वह सामाजिक उत्कर्ष के लिए बढ़- चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करे और लोकसेवा की दृष्टि से इतना कुछ कर दिखावे, जिससे उस पर चढ़ा हुआ भारी ऋण किसी न किसी प्रकार चुकता अथवा हलका को सके। जो इस उत्तरदायित्व की उपेक्षा करता है, वह समाजद्रोही कहा जा सकता है।
अध्यात्म के दार्शनिक दृष्टिकोण के आधार पर देखा जाए तो मनुष्य को जो कुछ विशेषताएँ अन्य प्राणियों से अधिक दी हैं, वे विशुद्ध रूप से एक अमानत हैं। परमात्मा के सभी प्राणी समान रूप से पुत्र और प्रिय हैं। सबको समान अनुदान देना उसके लिए सामान्य न्याय था, पर मनुष्य को सबसे अधिक विभूतियाँ मिली है, उन्हें मौज- मजा करने के लिए दिया गया पक्षपातपूर्ण उपहार नहीं माना जाना चाहिए वरन ऐसी पवित्र अमानत माना जाना चाहिए जिसका उपयोग विश्ववसुधा को समुन्नत और सुविकसित बनाने में ही किया जाना चाहिए। ईश्वर ने मनुष्य को अपने वरिष्ठ सहकारी के रूप में इसीलिए सृजा है कि विश्व व्यवस्था में उसकी अति महत्त्वपूर्ण भूमिका एवं उपयोगिता संभव हो सके।
वानप्रस्थ को लोकसेवा के जिस क्षेत्र को हाथ में लेना पड़ता है, वह जनमानस का भावनात्मक परिष्कार ही है। स्पष्ट है कि संसार की समस्त समस्याएँ मानवीय चिंतन की विकृतियों ने ही उत्पन्न की हैं। उनका समाधान आज या हजार वर्ष बाद जब भी होगा, लोकप्रवृत्तियों के अधोगामी प्रवाह को उलटकर ऊर्ध्वगामी बनाने से ही संभव होगा। भौतिक संपदाएँ एवं सुविधाएँ चाहे कितनी ही क्यों न बढ़ा ली जाएँ, यदि दृष्टिकोण में विकृतियाँ भरी होगी तो बढ़ी हुई संपदा विनाश के सरंजाम में ही बढ़ोत्तरी करेगी, सर्वनाश का दिन ही निकट लाएगी। इसलिए धन- वैभव की भौतिक सुख- सुविधाओं की अभिवृद्धि का कार्य दूसरे लोगों पर छोड़कर वानप्रस्थ को एक ही अछूता काम हाथ में लेना चाहिए कि उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व के लिए आवश्यक वातावरण एवं उत्साह किस प्रकार उत्पन्न किया जाए? ज्ञानयज्ञ एव विचारक्रांति इसी प्रक्रिया को कहा जा सकता है। यह नींव यदि ठीक तरह भर ली जाए तो नवयुग निर्माण का भवन खड़ा करने की आधी समस्या सुलझ जाएगी। तब अनायास ही अगणित रचनात्मक एवं संघर्षात्मक क्रिया- कलाप उठ खड़े होंगे और अधर्म के उन्मूलन एवं धर्म के संस्थापन का ईश्वरीय प्रयोजन सहज ही पूरा करेंगे।
लोकशक्ति की प्रचंडता और प्रखरता का हमें अनुभव करना होगा और संघबल उत्पन्न करके उसे सृजनात्मक प्रयोजनों में संलग्न करना होगा। यह कार्य इतना महान और इतना समर्थ है जिसकी तुलना अपराजेय महादैत्य से ही की जा सकती है। जनशक्ति का देवदानव जिस मोर्चे पर भी डट जाएगा उसे जीतकर ही छोड़ेगा। उसके सामने बड़ी से बड़ी शक्ति को भी झख मारनी पड़ती है।
धर्म के प्रति जन आस्था की जो थोड़ी भी संलग्नता है, उसका चमत्कार आँखों के सामने है। कुछ समय पूर्व इस देश में ५६ लाख धर्म व्यवसायी थे। नई जनगणना के अनुसार वह संख्या ८० लाख हो गई। जनगणना में जिन्होंने धर्म को व्यवसाय कोष्ठक में नहीं लिखाया है, जिनकी आधी चौथाई आजीविका इसी क्षेत्र से चलती है, उनकी संख्या भी इससे कम नहीं हो सकती। इसी प्रकार पूरे- अधूरे धर्म व्यवसायी लोगों की संख्या डेढ़ करोड़ तक जा पहुँचती है। जनता किसी दबाव या जबरदस्ती से नहीं वरन स्वेच्छा और प्रसन्नतापूर्वक इनका व्यय भार वहन करती है, जो सहज ही न्यूनतम पन्द्रह करोड़ रुपया प्रतिदिन जा पहुँचता होगा। पंद्रह करोड़ प्रतिदिन अर्थात वर्ष में ५५ अरब। कितनी बड़ी धनराशि है यह। यह तो धर्मक्षेत्र में संलग्न मनुष्यों का न्यूनतम निर्वाह व्यय हुआ। इसके अतिरिक्त लगभग सात लाख मंदिरों का खरच, तीर्थ यात्राओं में होने वाली विपुल धनराशि भी कम से कम इतनी तो होगी ही। इस प्रकार यह राशि १ १० अरब वार्षिक हो जाती है। सोमवती अमावस्या पर गंगा- जमुना इन दो नदियों के स्नान को ही लें, उनके उद्गम से लेकर विलय स्थान तक कम से कम एक करोड़ व्यक्ति तो अवश्य ही उस पर्व पर स्नान करने जाते होंगे। एक व्यक्ति के ऊपर मार्ग व्यय, काम का हर्ज, भोजन, दान- पुण्य आदि का खरच बीस रुपया भी जोड़ा जाए तो एक करोड़ व्यक्तियों पर बीस रुपए के हिसाब से २० करोड़ रुपया होता हैं। ऐसे- ऐसे चार पाँच स्नान वर्ष में पड़ जाते हैं उनका खरच १ अरब तक जा पहुँचता है। इसके अतिरिक्त कथा- कीर्तन, यज्ञ, समारोह, भोज- भण्डारे आदि का हिसाब तैयार किया जाए तो वह राशि भी न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचेगी। इस प्रकार देखने पर उपेक्षित जैसा लगने वाला धर्मक्षेत्र ही इतनी धन- संपत्ति खरच करा लेता है, श्रम और समय लगा लेता है, जितना कि तरह- तरह के दबाव डालने वाली सुसंगठित सरकार भी लगा नहीं पाती। सरकारी टैक्स लोग कुड़कुड़ाते हुए देते हैं, पर धर्म टैक्सों को स्वेच्छा से देते हैं और पास में न होने पर कर्जा लेकर, उधार करके भी लगाते हैं।
यहाँ धर्म के नाम पर लगने वाले धन और श्रम का समर्थन- खंडन नहीं किया जा रहा है, सिर्फ यह बताया जा रहा है कि लोकरुचि की एक लहर कितने प्रचुर साधन बात की बात में प्रस्तुत कर सकती है। यदि इसी लोकरुचि को अभिनव सृजन की दिशा में मोड़ा जा सके तो जो कार्य असंभव दीखते हैं, साधनों के अभाव में जिन कार्यों का हो सकना कठिन लगता है, वे चुटकी बजाते प्रस्तुत हो सकते हैं और अनहोनी होनी बनकर सामने आ सकती है।
उपर्युक्त पंक्तियों में जनशक्ति के महादैत्य की क्षमता का थोड़ा सा आभास कराया गया है। उसे जगाया, संगठित किया जाना और सृजन के महान लक्ष्य में नियोजित किया जाना कठिन दीखता अवश्य है, पर वैसा है नहीं। इतने बड़े देश में एक लाख सुयोग्य और भावनाशील वानप्रस्थी का मिल जाना न तो कठिन है और न असंभव। ८० लाख धर्म व्यवसायी जिस देश में उद्भिज घास- पात की तरह उग पड़ें, वहाँ युग उद्बोधन पर एक लाख वानप्रस्थ न निकलें, यह नहीं हो सकता। बुद्ध को ढाई लाख तपस्वी शिष्य मिले थे और गाँधी को भी सत्याग्रह आन्दोलन में लगभग इतने ही कर्मवीर मिल गए। देश, धर्म और समाज- संस्कृति के पुनरुत्थान की बात यदि विचारशील वर्ग के गले उतारी जा सके तो एक लाख वानप्रस्थों के लिए की गई युग पुकार उपेक्षित न रहेगी। सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए यदि समुचित उत्साह पैदा किया जा सके तो सृजन सेना का नेतृत्व करने के लिए इतने वानप्रस्थ सहज ही अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई देंगे।
इन वानप्रस्थों का एक की काम होगा- जन जागरण, लोकशक्ति का गठन, जनमानस का परिष्कार, भावनाशील लोगों का चयन और उन्हें लोकमंगल के लिए प्रवृत्त होने का प्रोत्साहन- मार्गदर्शन। यह एक काम ही इतना बड़ा है जिससे संबंधित विविध क्रिया- कलापों में वानप्रस्थ वर्ग को निरंतर लगा रहना पड़ेगा। यह कार्य जिस सीमा तक पूरा होने लगेगा, उसी अनुपात में अगणित रचनात्मक और संघर्षात्मक क्रिया- कलाप पनपते दिखाई देंगे और समाज की विभिन्न समस्याओं को स्थानीय उपाय उपचारों के आधार पर हल करने में निरत होंगे।
यह समस्त क्रिया- कलाप धर्मधारणा पर हो आधारित होना चाहिए। भावना स्तर का स्पर्श कर सकना धर्म और अध्यात्म दर्शन के लिए ही संभव है। राजनीति, समाज संगठन, अर्थनीति आदि आधार भी पुनरुत्थान के हो सकते हैं, पर भारत जैसे अस्सी प्रतिशत अशिक्षितों और घोर देहातों में रहने वाले लोगों के लिए वे आधार उतने हृदयग्राही न हो सकेंगे, जितना धर्म का आधार। भारत की वर्तमान परिस्थितियों में नवनिर्माण के समग्र अभियान की सफलता धर्म आस्था का अवलंबन लेकर ही प्राप्त की जा सकती है, यों मानव तत्त्व में उत्कृष्टता की स्थापना का प्रयोजन अंततः परिष्कृत धर्मधारणा के आधार पर ही संभव को सकता है।
धर्मतंत्र को सही, समर्थ एवं सक्रिय बनाने और लोकचेतना में उत्कृष्ट आदर्शवादिता, धर्म- धारणा का स्तर बनाए रखने की जिम्मेदारी उठाने की आवश्यकता अनुभव हुई। यही वह संकल्प और चिंतन है, जिससे युग निर्माण का, प्रज्ञा अभियान का प्रादुर्भाव हुआ। उसकी रूपरेखा बनी और विधि व्यवस्था कार्यान्वित हुई।
धर्मतंत्र के माध्यम से परिशोधन- परिष्कार का प्रयत्न इसलिए भी आवश्यक को गया है कि देश की परंपरा, प्रवृत्ति एवं परिस्थिति में, लोकमानस की पूर्ण भूमिका में धार्मिकता का ही कुछ न कुछ तारतम्य चला आता हैं। राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान, तत्त्वदर्शन आदि की ऊँची पृष्ठभूमि सुशिक्षितों की होती है। उस आधार पर प्रगतिशीलता का समझना- समझाना उन लोगों के लिए संभव नहीं जिनका उपर्युक्त संदर्भों के साथ सीधा वास्ता नहीं रहा है। अपने देश की बहुसंख्यक जनता को यदि युगधर्म समझाना हो और परिशोधन- परिष्कार की प्रगतिशीलता को गतिशील बनाया जाना हो तो फिर धर्मतंत्र की पुरातन पृष्ठभूमि के सहारे इस प्रकार का लोकशिक्षण सरल भी रहता है और सफलता का मार्ग भी सीधा पड़ता है।
अपने देश की समस्याएँ सामाजिक क्षेत्र की हैं। पिछड़ापन इसी क्षेत्र में घुसी हुई प्रतिगामिता की देन है। आर्थिक तथा दूसरी अनेकानेक समस्याएँ इसी की देन हैं। सर्वविदित है कि कुरीतियों में अपनी कितनी बरबादी होती है। औसत गृहस्थ की प्राय: एक तिहाई आमदनी विवाह, शादी, मृतक भोज आदि से संबंधित अपव्ययों में गँवानी पड़ती है। शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय, निर्वाह आदि सभी आवश्यकताओं में कटौती करनी पड़ती है।
यही बात जाति- पाँति एवं ऊँच- नीच की मान्यताओं से उपेक्षित स्थिति में पड़े हुए लोगों की है। मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों की भरमार भी कम नहीं है। ८० लाख समर्थ व्यक्ति धर्म का आवरण ओढ़कर भिक्षा- व्यवसाय को आजीविका का साधन बनाए हुए हैं। अपनी महत्ता- उपयोगिता बताने के लिए यह समुदाय कुछ ऐसे आडम्बर खड़े करते रहते हैं, जिसमें जनता का धन, समय, श्रम का अपव्यय होता रहे।
इन कठिनाइयों का निराकरण कैसे हो? जो अंधपरम्पराएँ पीड़ा- पतन की कुंडली मारकर बैठी हैं वे मिटें कैसे? इस प्रश्न का उत्तर एक ही है कि धर्मतंत्र के सहारे कुप्रचलनों का उन्मूलन किया जाए। साथ ही उस क्षेत्र की प्रमुख विशेषता भाव संवेदना, श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा को पिछड़ेपन से मोड़कर प्रगतिशीलता के साथ संबद्ध किया जाए। इस प्रयास से न केवल सामाजिक कुरीतियों, मूढ- मान्यताओं, अंधविश्वासों का निराकरण हो सकेगा वरन प्रस्तुत प्रतिगामिता में होने वाली बरबादियों में संलग्न शक्ति को सृजन प्रयोजनों में लगा सकना भी संभव हो जाएगा। इससे बचत और नियोजन का दोहरा उद्देश्य पूरा होता है।
नशेबाजी एवं गंदगी दुष्प्रवृत्तियों से अधिक व्यापक है। आलस्य और प्रमाद एक प्रकार से सर्व- साधारण के स्वभाव में सम्मिलित हो रहा है। बाल विवाह, अनमेल विवाह जैसी कुरीतियों की भरमार है। अपराधी प्रवृत्तियाँ भी बढ़ती ही जा रही हैं। सहकारिता- सज्जनता के तत्त्वों को अभी बहुत अधिक उभारने की आवश्यकता है।
इस क्षेत्र में सुधार परिवर्तनों की जिम्मेदारी धर्मतंत्र को उठानी चाहिए। राजतंत्र व्यवस्था ही सँभाल सकता है, लोकमानस का आदर्शवादी परिवर्तन कर सकने जितनी गहरी पहुँच उसकी है नहीं। राजतंत्र के कंधों पर धर्मतंत्र का बोझ न लादा जाए और उसे उठाने के लिए उन्हीं को आगे लाया जाए जो इस संदर्भ में रुचि रखते हैं तथा कुछ करने में समर्थ हैं।
धर्म के वास्तविक स्वरूप को उसके सनातन स्वरूप में जन- जन के सम्मुख प्रस्तुत किया जाए और उसकी दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन की क्षमता का समुचित सदुपयोग किया जाए। धर्म के प्रति जो श्रद्धा जमी चली आ रही है, उसे उन सृजन प्रयोजनों के लिए नियोजित किया जाए। उपयोगिता को श्रद्धा उत्पन्न करती है। धर्म की उपयोगिता और क्षमता सिद्ध करने के लिए प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत उसी भाव शक्ति को लोक- शिक्षण में, लोकनिर्माण में नियोजित किया जा रहा है।
ॐ शांतिः