उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
कितने ही सम्वत् और सन् आते हैं। ईसाइयों का, मुसलमानों का, जैनियों का नववर्ष आता है, परन्तु हमारा ख्याल है कि जब आध्यात्मिक संवत् या सन् प्रारम्भ हुआ होगा तो विश्व का कार्य प्रारम्भ हुआ होगा। चेतना की प्रारम्भिक क्रिया इसी दिन हुई होगी। हमाराअनुमान है कि यह वसंत से ही प्रारम्भ हुआ होगा। इसमें समय, जड़, चेतन सभी में नवीनता आ जाती है। मरे हुए पेड़-पौधों के ऊपर भी हरियाली छा जाती है। नये पल्लव निकल पड़ते हैं। फल निकलते हैं। घास-पातों में भी नई मादकता आ जाती है। हर चीज मेंनवीनता आ जाती है। यह क्या है? मित्रो! यह है चेतना जो हर चीज में काम करती है।
प्राणियों में भी यही बात है। वसंत से होली तक के ४० दिन ऐसे होते हैं, जिसमें आने वाली उमंग, उत्साह को रोकना मुश्किल हो जाता है। यह मनुष्य एवं पशु-पक्षियों—दोनों पर लागू होता है। मित्रो! इसमें ही अधिकांश प्राणी गर्भधारण करते हैं। यह जो उत्साह एवं उमंगआता है उसके लिए एक ही रास्ता दिखलाई पड़ता है और वह है कामवासना। हर प्राणी इन्हीं दिनों मतवाला हो जाता है। आदमी को भी उस समय पैदावार करने की इच्छा होती है। वह केवल बच्चा पैदा करने में ही अपनी शक्ति लगा देता है। आज का मनुष्य, वनमानुष, नर-पशु जैसा हो गया है। वह भी अपना उत्साह उसी तरह खर्च कर देता है जैसे पशु-पक्षी करते हैं। इसलिए हम इन्हें नर-पशु कहते हैं। वह भी मनुष्य की तरह ही खाता-पीता है, नाक में से हवा निकलता है। उसमें कोई फर्क नहीं होता है। जिसमें चिंतन, भावना न उठतीहो, मित्रो! हम उन्हें मनुष्य नहीं कह सकते हैं।
हमने एक बार यह चिन्तन किया कि जरा हम यह पता लगाएँ कि इस धरती पर महान लोगों को कब शक्ति मिली होगी, प्रेरणा मिली होगी? हमने यह पाया कि यह समय वसंत का ही रहा है। हमने एक बार समर्थ गुरु रामदास के बारे में पता लगाया कि उन्हें जो उछालआया था, उमंग आयी थी, वह कौन-सा महीना था? वह था वसंत का महीना। ऐसा उनमें उछाल आया जैसा कि तूफान आता है। बगल में पत्नी बैठी थी। उसने देखा कि बच्चे पर बच्चे होते जा रहे हैं और एक लम्बी कतार बना बैठी है। उसकी आत्मा ने आवाज लगायी।वह काँप गये। उसने कहा—अगर आपको जिन्दगी मूल्यवान बनानी है, तो आइए, दूसरे वाले रास्ते को अपनाने का प्रयास करें तथा जीवन को महान बनाएँ। महानता का रास्ता आपके लिए खुला है, इसे कोई रोक नहीं सकता है आप आगे बढ़ें। उनके अन्दर एक ऐसीउमंग आयी, उछाल आया कि वे सब छोड़कर भाग खड़े हुए। रोकने वाले उन्हें न रोक सके। मित्र, साले, साली, बाराती सब बैठे थे। वे रोकते रह गये, परन्तु वे रुके नहीं। वे उछलते ही चले गये और समर्थ गुरु रामदास बन गये। वह बिल्कुल आपकी तरह से छोटा बच्चा थातब। मित्रो! वह जुलाहा महान बन गया। दूसरी ओर क्या होता अगर वह शादी कर लेता तो? बच्चे हो जाते और कुछ भी नहीं होता। ताऊ जी, पापा जी को सब नोंचते कि लाओ रोटी, लाओ कपड़ा। ताऊ जी का कचूमर निकल जाता। परन्तु ताऊ जी छलांग लगाकर चले गयेतो महानता को प्राप्त कर लिया। आदमी का कमजोर मन कहता है। अगर मन को आदमी रोक ले तो वह महान बन जाता है।
हमने बुद्ध के बारे में भी जानकारी ली तो यही पाया कि उनकी जीवनी भी इसी प्रकार की है। वे अपने बीबी-बच्चे के साथ रात में सो रहे थे। एक बार उछाल आया कि आपके बीबी-बच्चों के खाने के लिये, देख-भाल के लिए सारी व्यवस्था है तो आप क्यों इस घुटन वालीजिन्दगी जीना चाहते हैं। उनकी आत्मा ने आवाज लगायी। वे उछलकर कहाँ से कहाँ चले गये? लोगों ने उनको रोकना चाहा परन्तु वे रुके नहीं। उनको लोगों ने भला-बुरा कहा, परन्तु उन्होंने किसी की भी बात नहीं मानी।
शंकराचार्य के बारे में भी यही बात है। उनकी माँ उनकी शादी करना चाहती थीं। उसे अफसर बनाना चाहती थीं, परन्तु वे माने नहीं। लोगों ने कहा कि माँ की बात नहीं मानेगा तो पाप लगेगा, नरक में जाएगा परन्तु वे किसी की भी बात नहीं माने। उन्होंने कहा कि हमआत्मा की आवाज न मानकर नरक में जाएँगें। वे विचार करते रहे और अंत में उनके अन्दर से उछाल आया और उन्होंने आत्मा की आवाज को माना। उसने अपनी माँ की आवाज को नहीं माना तथा नदी में से आवाज लगाई। शंकराचार्य ने कहा कि माँ हमें बचाओ नहींतो अब मैं मरा? माँ ने पूछा कि मैं क्या करूँ? माँ! शंकर भगवान कहते हैं कि अगर तू हमें शंकर भगवान को सौंप दे तो हमें छोड़ सकता है। माँ चिल्लायीं कि अरे बेटा! तुझे शंकर भगवान को अर्पित कर रही हूँ। उसने उछाल लगाया और बाहर आ गया। माँ को बतलाया किमाँ, अब तो मैं शंकर भगवान का हो गया हूँ। अच्छा बेटा तू शंकर भगवान का है तो क्या हुआ। कम से कम तू इस दुनिया में जिन्दा तो रहेगा। हमने इनकी भी जब जानकारी ली तथा छानबीन किया तो यह पाया कि वह समय भी वसंत का ही था।
मित्रो! इसी कड़ी के अन्तर्गत हमने देखा कि हमारे जैसे नाचीज आदमी के अन्दर भी जो उछाल आया, उमंग आया, वह भी समय वसंत का ही था। ५५ वर्ष पूर्व मेरा सौभाग्य आया, उसका नाम मैं क्या बतलाऊँ, उसे तो मैं अपना भाग्य, अपना सौभाग्य ही नाम देता हूँ।सुना है लक्ष्मीपूजा के दिन लक्ष्मी जी आती हैं तथा धन, सम्पत्ति दे जाती हैं। वसंत पंचमी के दिन हर आदमी का सौभाग्य आता है। हमने यह भी सुना है कि सोमवती अमावस्या के दिन गंगा जी में दूध की एक धारा आती है तथा जो भी उसमें स्नान करते हैं उनका जीवनधन्य हो जाता है। लोग स्वर्ग चले जाते हैं। यह बात कहाँ तक सही या गलत है, यह मैं नहीं कह सकता हूँ। परन्तु यह बात सत्य है कि वसंत पंचमी के दिन गंगा की एक धारा, एक दूध की धारा, तरंग, उमंग आती है, जो मनुष्यों को धन्य कर जाती है। हमारे ऊपर भी ऐसाही हुआ। वे हमें धन्य कर गये। उस तरंग का नाम क्या है? उसका नाम हमारा गुरु है, जो प्रकाश के रूप में वसंत के दिन हमारे पास आये और हमें निहाल कर गये। कोई गुरु, संत, भगवान आते हैं तो कुछ लेकर आते हैं। लोग कहते हैं कि हमें रात में शंकर भगवान, हनुमान जी, विष्णु भगवान आये थे। अरे हम यह पूछते हैं कि कोई कुछ लाये कि नहीं। अरे साहब, लाये नहीं ऐसे ही हनुमान जी पूँछ दिखाकर भाग गये।
मित्रो! कोई संत, भगवान, गुरु आता है तो कुछ न कुछ लेकर आता है। मेरा भी गुरु, मास्टर, बॉस, मेरा सौभाग्य इसी दिन आया था, जिस दिन हम और आप मिल रहे हैं। सौभाग्य एवं लहर जो वसंत के दिन हमारे पास आयी थी, अगर वह काश! आपके पास भी आजाती तो आपका भी जीवन धन्य हो जाता जैसा कि हम हुए। शक्ति, अमृत की धारा की धारा के रूप में जो मेरा गुरु आया एवं हमें वसंत दिखाया, वह आज से ५५ वर्ष पूर्व आया था। दुष्यंत शकुन्तला के पास आया और चलते वक्त यादगार के रूप में एक अंगूठी पहनादी। हमारे गुरु ने भी चलते वक्त दो अँगूठियाँ हमें पहना दीं—एक इस अँगुली में एवं दूसरी उस अँगुली में पहना दी। मेरा प्रियतम, मेरा बॉस, मेरा मास्टर, मेरा गुरु मुझे मिला, आपको तो कोई मिला ही नहीं जो पहनाये। मेरा गुरु मुझे दो चीजें दे गया—एक शक्तिपात, दूसरी कुण्डलिनी जागरण। इसमें कुछ देर न लगी। मेरी जिन्दगी में एक तूफान आया तथा दोनों चीजें शक्तिपात एवं कुण्डलिनी जागरण सेकण्डों में पूरी हो गई। मित्रो! माचिस से आग निकलती है तो घर को स्वाहा होने में देर नहीं लगती है। इसी तरह से मेरा भी काया-कल्प हो गया। मेरी आँखों में और चीजें दिखलाई पड़ने लगीं। एक शराबी को नशे की हालत में न जाने क्या-क्या दिखलाई पड़ता है? मेरी दुनिया भी नई दिखलाई पड़ने लगी। मेरे अन्दर नया उत्साह एवं उमंग आ गई।
शक्तिपात के बारे में लोग यह समझते हैं कि शरीर में एक करेण्ट आता है। गुरु की आँखों में से एक करेण्ट आता है एवं शिष्य में समा जाता है। अरे यह शक्तिपात नहीं है। शारीरिक शक्तिपात से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। शक्तिपात से मतलब चेतना से है। चेतना मेंशक्ति-भावना एवं संवेदना के रूप में दिखलाई पड़ती है। शरीर में झटके नहीं मारती है। गुरुजी कुण्डलिनी जागरण के बारे में हमने तो यह पढ़ा है कि मूलाधार में एक सर्पिणी बैठी है, जो प्राणायाम के माध्यम से रीढ़ की हड्डी से ऊपर की ओर जाती है। हुंकार दिखाती औरन जाने क्या-क्या दिखाती है? बेटे, एल. एस. डी. नामक एक दवा आती है। उसकी एक बूँद तेरे जीभ में डाल दूँ तो तुझे बड़ी से बड़ी चीज दिखलाई पड़ने लगेगी। नाक एवं कान से हाथी निकलते हुए दिखलाई पड़ेंगे, बस कुण्डलिनी जागरण हो जाएगा। बिजली के झटकों सेशक्तिपात तथा शराब से कुण्डलिनी जागरण करा दूँगा। बेटे, इसे शक्ति नहीं कहते हैं।
शरीर एवं चेतना अलग-अलग हैं। शक्ति यानि हिम्मत यानि हमारे गुरु ने शक्तिपात करके हिम्मत जगा दी ताकि हम आदर्श एवं सिद्धान्त का जीवन जी सकें। मछली की तरह लहरों से टक्कर मारते हुए उल्टी दिशाओं में बढ़ने की ताकत, हिम्मत यह है शक्तिपात।आदमी के अन्दर स्वयं की कमजोरी, माँ-बाप की कमजोरी, मित्रों की कमजोरी, वातावरण की कमजोरी और न जाने कितनी कमजोरियाँ होती हैं? उसे चीरता हुआ जो आगे बढ़े मछली की तरह से उसे हिम्मती कहते हैं। वास्तव में ऐसे व्यक्ति को ही शक्तिपात होता है।कायरों को नहीं मेरे गुरु ने हमें शक्तिवान बना दिया। जिस दिन से गाँधी जी ने नमक बनाया, मेरे अन्दर हिम्मत आ गयी कि हम भी गाँधी जी के साथ नमक बनाएँगे, उनके सत्याग्रह में भाग लेंगे और न जाने क्या-क्या करेंगे? इस बात को जानकर हमारे घर के हरआदमी नाराज हो गये। तब हमारी १६ वर्ष की उम्र थी। हमें एक कमरे में बन्द कर दिया गया। एक बनियान, चड्ढी छोड़ दिया तथा बाकी कपड़े छीन लिये, चप्पल छीन लीं, सब और आन्दोलन में भाग न लेने के लिये बाध्य करने लगे। कहने लगे हम तुझे जाने नहीं देंगेतथा कैदी की तरह हम जीते रहे। हमारे मन में टीस पैदा हो गयी। हमने कहा कि हम पेशाब-टट्टी कमरे में नहीं करेंगे। हमने टट्टी का बहाना किया तथा कान पर जनेऊ चढ़ाकर चल दिया। रातों रात ४० किमी. का सफर तय करके आगरा काँग्रेस कार्यालय में पहुँच गये।वहाँ हमने कहा कि आप हमें आगरा से बाहर भेज दीजिये। यहाँ मत रखिये नहीं तो हमारे घर के लोग आ जाएँगे और हमें पकड़कर ले जाएँगे। हमें बाहर भेज दिया गया। हमने अपनी मातृभूमि की आजादी के लिये काम किया तथा जेल भी गये।
मित्रो! शक्तिपात किसे कहते हैं? हम सिद्धान्तों एवं आदर्शों का जीवन हिम्मत के साथ जियेंगे, यही शक्तिपात कहलाता है।
यह सिद्धान्तों के प्रति समर्पण की, मुकाबले की कविता है। इसमें एक हिम्मत एवं ताकत है। इसी प्रकार की ताकत एवं हिम्मत हमारे गुरु ने—हमारे ‘बॉस’ ने हमारे अन्दर पैदा किया था। हमारे घर वालों ने एवं अन्यान्य हितैषियों ने हमारे कार्यों का विरोध किया, परन्तु हमने हर काम को पूरे हिम्मत के साथ किया। हमने गायत्री उपासना सबको बतलायी। इसका पण्डों ने, कर्मकाण्डी पंडितों ने विरोध किया। हमने स्त्रियों को गायत्री उपासना से जोड़ दिया। इसका जमकर विरोध हुआ। हमने कहा कि नारी को पूर्ण अधिकार है गायत्रीमंत्र जपने का। हर बेटी को माँ के पास बैठने का विशेष अधिकार है। इसमें कोई दिक्कत पैदा नहीं होनी चाहिए। हम अकेले टक्कर मारते चले आये। हम अनीति से टक्कर मारते हैं, विचारों से मारते हैं। हम कौन हैं? टक्कर मारने वाले हैं। हम हमेशा विरोध करते रहे, संघर्षकरते रहे हैं। हम ब्राह्मण हैं? नहीं, हम तो राजपूत हैं। हमारे अन्दर परशुराम जी के तरह से शौर्य, साहस, पराक्रम करने की उमंग उठती रहती हैं और हम वैसा ही काम करते रहते हैं। हमारे गुरु आये थे और हम इस प्रकार का कार्य करने का सौभाग्य हमारे अन्दर भरगया था। यह अमानत, सम्पदा, दौलत अद्वितीय है, हमारे पास। हमारे बाप-दादे पंडिताई से गुजारा करते थे। परन्तु हमारा सौभाग्य है कि हमारे गुरु ने हमें कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया? हम आज महामानव हैं, हम बता नहीं सकते कि हम कौन हैं? परन्तु जहाँ से हमेंमिला है वह हमारा सौभाग्य है, जिससे हम कहाँ से कहाँ पहुँच गये? यह हमारे गुरु का शक्तिपात है।
कुण्डलिनी क्या होती है? जिसे हम करुणा मिश्रित विवेकशीलता कहते हैं। करुणा किसे कहते हैं? जिससे दूसरे व्यक्ति के दुःख तकलीफ को देखकर द्रवित हो जाए। उसे विवेकशील कैसा होना चाहिए? उसे विवेकशील ऐसा होना चाहिए जैसा जापान का गाँधी कागावा था, जिसने परीक्षा पास करने के बाद नौकरी नहीं की। समाज-सेवा के लिए उसने नरमेध यज्ञ कर डाला। यह क्या होता है? जो मनुष्य अपनी जिन्दगी एवं जिन्दगी की कमाई को लोकमंगल में अर्पित कर देता है, वह नरमेध यज्ञ कर लेता है। आप कमाएँगे तो सही, परन्तुसारा अपने लिये नहीं खा सकते हैं। आपको नेचर ऐसा तमाचा मारेगी कि ठीक हो जाओगे। हमने एक समय एक घटना देखी है। एक साँप ने एक चूहा खा रखा था। वह निगल नहीं पा रहा था। घबराहट थी। उसके पेट को दबाया गया। चूहा निकल गया। आप अधिक रोटीखाएँगे तो आपको उल्टी करना होगा, आपको दस्त करना होगा। आप खा नहीं सकते हैं। आप रुपया जमा नहीं कर सकते हैं। आप उसे निकालिये नहीं तो नेचर बर्दाश्त नहीं करेगी। आप खाना, कपड़ा, मकान के अलावा उसका उपयोग नहीं कर सकते हैं। जापान के गाँधी नेविचार किया कि जब हमें समाज की सेवा करते हुए रोटी, कपड़ा मिल सकता है तो मेरे लिए क्या नुकसान है? उन्होंने सहर्ष इस कार्य को अपनाया तथा जन-सेवा में लग गये।
मित्रो! यह बात मैं विवेकशीलता की कर रहा हूँ। विवेकशीलता किसे कहते हैं? बेटे कुण्डलिनी को। कुण्डलिनी किसे कहते हैं? विवेकशीलता को। आप समझते नहीं हैं। हमारा गुरु हमारी कुण्डलिनी जगा गया। उसके द्वारा हमारा विवेक जाग्रत हो गया। मेरा अन्तःकरणबोल उठा कि जब तुम्हें पेट ही भरना है तो इसके लिये इतना बेचैन क्यों? इससे अच्छा तो यह है कि समाज की सेवा की जाए। मच्छर, मक्खी को भी जब भोजन मिल जाता है तो हमें क्यों नहीं मिलेगी इसी प्रकार की कुण्डलिनी मित्रो! जापान के गाँधी कागावा की जगगई थी। उसने अपनी झोंपड़ी कोढ़ियों के बीच, अन्धों के बीच, अनाथ बच्चों के बीच, शराबियों के बीच डाल ली थी और उन्हीं के बीच रहने लगे। उन्होंने सुख-सुविधाओं को छोड़ दिया। वह सारा समय उन्हीं के बीच बिताता था केवल आधा घण्टा के लिये चला जाता था तथा५० रुपये कमाकर ले आता और अपना पेट भर लेता था। उसे कोई परेशानी नहीं थी। दूसरा क्या कारण था? उसके अन्दर करुणा थी। करुणा किसे कहते हैं? कुण्डलिनी को कहते हैं। कुण्डलिनी एक ऐसी चीज है, जो आदमी के भीतर एक रोमांच पैदा कर देती है। हलचलपैदा कर देती है, एक आदमी के भीतर दर्द पैदा कर देता है। मित्रो! भगवान आता है तो दर्द के रूप में आता है। चेतना केवल संवेदना के रूप में हो सकती है। चेतना का कोई रूप नहीं है। वह केवल संवेदना ही हो सकती है। संवेदना कैसी? करुणा एवं विवेकशीलता के रूप में।एम.ए. पास जापान के गाँधी ने शुरू में तो दुःख उठाया, मुसीबतें झेलीं, परन्तु आगे चलकर वह धन्य हो गया। उसकी करुणा, विवेकशीलता ने उसे धन्य कर दिया। उसकी सेवा-परायणता ने लोगों का दिल जीत गया।
मनुष्य के अन्दर आदर्श एवं सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा, श्रद्धा हो तो उसका व्यक्तित्व ऊँचा उठता हुआ चला जाएगा। उस समय उसे जनता की सहानुभूति एवं सहयोग मिलता हुआ चला जाएगा। उसके अन्दर डायनामाइट की तरह शक्ति आ जाएगी। वह बौद्ध पुरुषबन जाएगा। वह संत एवं ऋषि बन जाता है। उसकी इज्जत हमेशा रहेगी। सारे लोगों का मस्तिष्क जापान के गाँधी के प्रति नतमस्तक हो गया। एक लड़की आयी, उनके सेवा, त्याग, करुणा को देखकर नतमस्तक हो गई। उसने उसके साथ काम करने का, विवाह करनेका प्रस्ताव रखा। पहले तो वे तैयार नहीं हुए, परन्तु जब उस लड़की ने कहा कि हम आपको कुछ कष्ट नहीं देंगे, हम बच्चा पैदा नहीं करेंगे; आप हमसे शादी कर लें। वह लड़की जो, अमीर थी, वह कागावा से विवाह करके सेवाकार्य में लग गयी। आप कभी भी जापान जाएँतो वहाँ के हर लोग कागावा को जानते हैं जैसे कि भारत के लोग महात्मा गाँधी को जानते हैं। आप लोग तो केवल नकल करना जानते हैं और केवल सस्ता, तरीका अपनाना चाहते हैं। पहले मैं डोरी वाला कुर्ता पहनता था। लोगों ने देखा कि आचार्य जी इस प्रकार पहनते हैंतो उन्होंने भी उसी प्रकार कुर्ता बनवाना शुरू कर दिया। हमने अब वह बन्द कर दिया है तथा बटन लगाते हैं। अरे सस्ती वाली प्रक्रिया छोड़ तथा आचार्य जी के कार्य को देख तथा वैसा बनने का प्रयास कर।
कागावा से जनता प्रभावित हुई। वहाँ के करोड़पति, अरबपति, मालदार लोगों ने उन्हें विकास-कार्य के लिए खर्च करने हेतु धन दिया। जापान की सरकार ने इस सराहनीय कार्य की ओर अपना ध्यान दिया तथा उसकी देख−भाल करने लगी। सरकार ने कागावा को १००करोड़ का बजट इस कार्य के लिये दिया। यह क्या है? उनकी कुण्डलिनी यानि उनकी करुणा एवं विवेकशीलता है, जिसके बारे में आपने सोचा ही नहीं।
मित्रो! मेरे गुरु ने भी हमारी कुण्डलिनी जगा दी। हमारे अन्दर करुणा पैदा कर दी। एक उदाहरण बताता हूँ। बड़नगर (उज्जैन) की एक लड़की नर्स थी। उसके बच्चेदानी में कैंसर था। नित्य खून आता था। वह परेशान थी। हम उधर से आगरा जा रहे थे। रास्ते में खड़ी थी।गाड़ी रोकी और हमारे साथ बातचीत करने के लिये बैठ गयी। उसने अपनी दुःखभरी कहानी बतलायी और कहा कि गुरुजी, मैं इन्दौर के अस्पताल में मरने जा रही हूँ। आप हमें आशीर्वाद दे दें। हमने कहा बेटी हमारे अन्दर करुणा है। हमारे गुरु ने हमारे अन्दर करुणा पैदाकी है। हमने दुःखी, पीड़ित, पतितों की, जो शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से परेशान थे, उन सबकी हमने सेवा की है। तू जा हम देखेंगे। वह चली गयी। उस अस्पताल में कैंसर के २१ और मरीज थे। वह वहाँ जाकर इलाज कराने लगी हमारा चित्र तकिये के नीचे रखती थी।उसने बताया कि वहाँ के २१ मरीज जो हम से अच्छे थे, मर गये और मैं बच गयी। हमने उसी दिन संकल्प लिया कि हे भगवान! हमें गुरुजी के पास मच्छर, मक्खी बना देना, मैं तो आचार्य जी के पास ही रहूँगी। इतना ही नहीं, जो गिरे हुए लोग थे, जिनका जीवन घिनौनाथा, पशुता जिनके अन्दर भरी थी, वे जब से हमसे जुड़े हैं, उनकी वह स्थिति अब नहीं रही। उन्हें आज जब मैं एक अच्छे व्यक्ति के रूप में देखता हूँ तो हमें बेहद खुशी होती है, प्रसन्नता होती है, उसका वर्णन हम नहीं कर सकते हैं। हमें काफी प्रसन्नता होती है। आदमीजब अपने बेटे के विवाह में ५० हजार खर्च करता है तो उसे प्रसन्नता होती है। उसकी कीर्ति फैलती है। नाम होता है।
हमें भी दूसरों के कष्ट-निवारण के काम करने से प्रसन्नता होती है। कीर्ति एवं यश कितना मिलता है, इसकी जाँच तो आप कर सकते हैं। हम अपने मुख से कैसे बतलाएँ। हमारी नाक बहुत ऊँची है, हम प्रसन्न हैं। यह हमारी कुण्डलिनी का चमत्कार है। हम सारे राजा-महाराजाओं से ज्यादा प्रसन्न रहते हैं, इसका हम जवाब नहीं दे सकते हैं। हमारे पास संतोष है। हम चाहते हैं कि इसका एक हिस्सा आपको भी मिल जाता, उसी तरह का शक्तिपात आपको भी कोई कर देता तो आप भी निहाल हो जाते। हम चाहते थे कि आपकी भी कोईइसी तरह कुण्डलिनी जागरण कर देता तो आपका नाम भी हमारी तरह अजर-अमर हो जाता।
आपको हम उस समय धन्यवाद देंगे जब आप अपनी समस्या का हल करने के बाद अनेकों लोगों की भी समस्याओं का हल करने के लिये आगे आयेंगे। यदि आप दूसरों की पीड़ा, मुसीबतों को दूर करने के लिये चल पड़ते तो मजा आ जाता। हमारे पास हमारा गुरु आयाथा। उसने हमसे कहा कि आप हमारे शिष्य हैं। आप हमारी मुसीबत दूर कर दीजिये। हमने पूछा कि क्या मुसीबत है आपको? उन्होंने बतलाया कि यह दुनिया बहुत खराब हो गई है। इस दुनिया को बदलना है, उसमें आप सहयोग कीजिये तथा हमारी मुसीबत दूरकीजिये। हमने कहा कि आप क्यों नहीं कर सकते हैं? उन्होंने कहा कि हम नहीं कर सकते हैं, यह काम आपको करना होगा। हमारा गुरु हमारी जीभ है और हम उसकी नाक है। उन्होंने कहा कि दोनों के सहयोग से हमारा काम हो सकता है। जनता के बीच हम नहीं जासकते हैं, वह काम आपको ही करना होगा। हमारा ‘बॉस’ हमारे पास आया और वह हमें धन्य कर गया। आप माँगते हैं, तो बेटे, हमें शर्म आती है। बेटे, हमें इतना छोटा मत समझ।
बेटे! तू हमें इतना छोटा मत समझ कि तू शाखा का काम करेगा तो ही हम तेरा काम करेंगे। इस प्रकार तो हम बनिया हो गये। बेटे! ऐसा दृष्टिकोण मत रख। तू कहता है कि गुरुजी आप हमारे बीबी को अच्छा कर दीजिए और हम आपके शाखा का काम करेंगे? बेटे! यह तोडॉक्टर एवं मरीज की बात हो गई। डॉक्टर के पास मरीज जाता है, वह दवा देता है तथा मरीज उसके एवज में सौ रुपये दे देता है। बेटे! तू हमें ऐसा मत समझ। हम दुकानदार नहीं हैं। बेटे हम ब्राह्मण हैं तथा हमारे भीतर दया एवं करुणा भरी है। हम तो समाज की सेवाकरने को बाध्य हैं। हमारी जिम्मेदारी है कि यदि तू पीड़ित है तो हमें तुम्हारी सेवा करनी चाहिए। बेटे! हम तुम्हारी सेवा अवश्य करेंगे। तुम भले ही यहाँ मत आना, हमारी शाखा का काम मत करना हम तो तुम्हारी सेवा अवश्य करेंगे।
हम चाहते हैं कि हमारे बेटे बड़े हो जाएँ। छोटे बच्चे हमेशा माँगते रहते हैं। बेटे! माँगना बुरी बात नहीं है। हम आपको धमकाते भी रहते हैं, परन्तु हम देते रहते हैं। हम चाहते हैं कि जवान आदमी बन जाएँ ताकि हम आपको दे सकें तथा आप भी हमें सहयोग कर सकें।बच्चा हमेशा माँगता है परन्तु वह घाटे में रहता है। उसको छोटी चीजें मिलती हैं। उसको गुब्बारा मिलता है, १० पैसे मिलते हैं। उससे उसका कोई खास मकसद पूरा नहीं होता है। थोड़ी देर में गुब्बारे फूट जाते हैं। परन्तु बच्चा जब बड़ा हो जाता है तो वह अपनी तिजोरी कीआलमारी की चाबी दे देता है और चेकबुक दे देता है तथा यह कहता है कि आपकी जब इच्छा हो तो खर्च कर लिया करना। जब वह बच्चा होता है तो उसे १५ पैसा दिया जाता है। जब बच्चा जिद करता है तो उसकी १० पैसे की तरक्की होती है तथा २५ पैसे मिलते हैं। परन्तुजब वही बच्चा बड़ा हो जाता है, तो बाप पूरी सम्पत्ति सौंप देता है।
मित्रो! हम चाहते हैं कि आपको नौकरी में तरक्की कराने की बजाय, स्वास्थ्य ठीक करने की बजाय, तीन बेटियाँ हो गई हैं, एक बेटा हो जाए कि बजाय कोई बड़ी चीज आपको दें, ताकि आप भी धन्य हो सकें। आपकी हैसियत यदि ऐसी हो जाए कि आप किसी को देने मेंसमर्थ हो जाएँ मित्रो! देने में कितना जायका है, कितनी जिम्मेदारी है, कितना मजा आता है यह अगर आप समझ सके होते तो मजा आ जाता। आपको हम देने के लायक बना सकते हैं, परन्तु उसमें एक ही शर्त है कि आपको जवानी आनी चाहिए। जवानी के बिना हमदेने की बात नहीं कर सकते हैं।
मुन्नी विवाह करना चाहती है उसके लिये माँ गुड्डा, ला देती है। यह क्या कोई विवाह है। मुन्नी के लिये क्या विवाह छोटी उम्र में सम्भव है? कदापि नहीं। परन्तु वही मुन्नी जब बड़ी हो जाती है तो विवाह की बात होती है तो वह चुपचाप उठकर चली जाती है। उसका रिश्तातय करके समय पर विवाह कर दिया जाता है। आप बेटी की तरह लायक हो जाएँ तो मजा आ जाए। भगवान के दोनों हाथ में दो चीजें रखी हैं—(१) शक्तिपात (२) कुण्डलिनी। ये दोनों चीजें आपको मिल सकती हैं, परन्तु शर्त एक ही है कि आप लायक हो जाएँ।
एक दिन मछलियों से शेर ने कहा कि बहिन जी आप चलिये हमारे घर चलिये। मछलियों ने कहा कि आपके घर में तालाब या नदी है क्या? नहीं तो हम नहीं जा सकते हैं, हमारा गुजारा बिना पानी के नहीं हो सकता है। इसी तरह एक दिन स्वाति नक्षत्र की बूँदों से कुछसीपों ने कहा कि आप बरसें ताकि इसमें से मोती पैदा हो सकें। स्वाति ने कहा कि ये सीपें बेकार हैं। इसमें से मोती पैदा नहीं हो सकते हैं, मोती उन सीपियों से पैदा होंगे जो समुद्र में से निकली हों।
एक बार किसी ने बरसात के बादलों से कहा कि आप हमारे घर में, खेत में क्यों नहीं बरसते हैं तथा वहाँ हरियाली क्यों नहीं लाते हैं? बादलों ने पूछा—क्या आपके पास अच्छी वाली जमीन है? उसने कहा—नहीं हमारे पास तो केवल चट्टानों से भरी जमीन है। बादलों नेकहा—तब तो यह बेकार है। इसमें तो कुछ भी पैदा नहीं हो सकता है। बादलों ने कहा कि हमारा सारा पानी बेकार हो जाएगा। आपके खेत में कुछ नहीं हो सकता है।
मित्रो! मैं क्या कह रहा था? मैं यही कह रहा था कि आज भी वह बादल जो मेरे ऊपर बरसा एवं हमारा शक्तिपात कर दिया, हमारी कुण्डलिनी जाग्रत कर दी, वह आपको भी धन्य करना चाहती है, परन्तु शर्त एक है कि आपको अपनी श्रद्धा बढ़ानी चाहिए। आपको अपनीपात्रता का विकास करना चाहिए। आपको जवान होना चाहिए। आपका उद्देश्य ऊँचा होना चाहिए। हमने हर वसंत पर्व पर इस उद्देश्य से एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है। हमारी उमंग उस दिन अद्वितीय रहती है। हमने जो भी कदम उठाया है, उससे हमारा व्यक्तिगतफायदा नहीं है, बल्कि हमने समाज, राष्ट्र, संस्कृति के लिये कदम उठाया है। आज इस वसंत पर्व पर फिर हम नया कदम उठाते हैं। हम क्या कदम उठाते हैं? हम यह कदम उठाते हैं कि आस्तिकता का वातावरण सारे विश्व में बढ़ता हुआ चला जाए। हमारा आस्तिकतासे मतलब नैतिकता, धार्मिकता, कर्तव्यपरायणता से है।
हम चाहते हैं कि आप अपनी मान्यताएँ बदलें। आप यह न सोचें कि आपने भगवान को प्रसाद खिलाया है, अगरबत्ती जलाई है तो आपकी मनोकामना पूर्ण हो जाएगी, यह गलत है। इसमें आपको संशोधन करना होगा। यह ईश्वर की गलत पूजा है। हम कर्मफल केसिद्धांत को स्वीकार करें। ईश्वर के अंकुश को हम स्वीकार करें, यही वास्तविक ईश्वर की पूजा-उपासना है जिसे आपको भलीभाँति समझने का प्रयास करना चाहिए।
आप यह अनुभव करें कि इस दुनिया में एक सुप्रीम पावर है जो अच्छी है, नेक है। उसका ही अंकुश सारे दुनिया में है, यह मान्यता आपकी होनी चाहिए। इस आस्तिकता के प्रचार के लिये हम गायत्री माता के मन्दिर बनाते हैं तथा हम इसी आस्तिकता का प्रचार करनाचाहते हैं। ईश्वर का वह स्वरूप जो गायत्री माता के साथ जुड़ा हुआ है, उसी की हम प्रतिष्ठापना घर-घर में करना चाहते हैं, जिसका आपने भी आज प्रातःकाल उद्घाटन किया है।
गायत्री माता का अर्थ है—करुणा, श्रद्धा, पवित्रता, विवेकशीलता—हम इन सब चीजों का प्रचार, विस्तार करना चाहते हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये हम गायत्री माता का मंदिर बनाना चाहते हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये आपको भी हमने कहा है कि आपको भीगायत्री मंदिर बनाना चाहिए तथा जन-जन तक आस्तिकता का प्रचार करना चाहिए। सौभाग्य ने हमारा साथ दिया तथा हमने तथा हमने गायत्री मंदिर बना दिया। इसके उद्घाटन या चिन्ह-पूजा के लिये हमने आपको नहीं बुलाया वरन् हमने आपको मदद करने के लिये, सहयोग करने के लिये उसी प्रकार बुलाया है, जिस प्रकार मेरे गुरु ने हमें आदेश दिया कि आप हमें सहयोग दीजिये। हमने उसे अपना सौभाग्य माना तथा उसके लिये तत्पर हो गये। आप भी तत्पर हो जाइये। साथियो! हम आस्तिकता का विस्तार करना चाहते हैं। हमचाहते हैं कि आप घर-घर में गायत्री मंदिर यानि गायत्री माता का चित्र स्थापना करावें। प्रत्येक बच्चों एवं महिलाओं को कहिये कि आप अपना कार्य प्रारम्भ करने के पहले गायत्री माता को नमस्कार करें, २४ बार गायत्री मंत्र का उच्चारण करें। महिलाओं को यह कहिये किआप चूल्हे से एक अंगारा निकाल लें तथा भोजन का वह अंश जिसमें नमक न हो उससे कम से कम ५ आहुतियाँ देकर ही भोजन परोसे तथा भोजन देवें। यह परम्परा अगर आप घर पर जिन्दा कर सकें तो भारतीय संस्कृति की जननी माँ गायत्री एवं यज्ञ भगवान घर-घरपहुँच जाएँगे। आस्तिकता का विस्तार हो जाएगा। इसके लिये २ घण्टे भगवान का भजन यानि झोला पुस्तकालय, ज्ञानरथ चढ़ावें। यही आपका भगवान का भजन है। हाँ, यह बिल्कुल भगवान का भजन है। भगवान के भजन का अर्थ है—भगवान के विचारों को जन-जनतक पहुँचाना। हम चार घण्टे तो भजन करते हैं, परन्तु १२ घण्टे हम नियमित रूप से भगवान की सेवा करते हैं, जिसे हम लेखन कहते हैं। बातचीत करना कहते हैं। यह सब मिलाकर हमारा भजन १२+४= १६ घण्टे हो जाता है। हमारी यही गायत्री माता की पूजा है। हमारेगुरु ने हमसे समय का अंश माँगा था। हमने कहा कि इसके एवज में आप हमें क्या देंगे तो उन्होंने कहा कि आप जो भी आदेश देंगे वह हम आपको देंगे। हम चाहते हैं कि आपकी इस आस्तिकता की विस्तार योजना में आप भी अपना समयदान देते हैं तो मजा आ जाता।
युग-निर्माण योजना का मतलब है आस्तिकता के सिद्धांतों का विस्तार। हम घर-घर में इसका प्रचार करना चाहते हैं। आस्तिकता का मतलब कर्तव्यपरायणता, धार्मिकता, नैतिकता से है, जिसका प्रचार करना युग निर्माण का उद्देश्य है। हम चाहते हैं कि आप झोलापुस्तकालय, घर-घर ज्ञानमन्दिर, चल-पुस्तकालय के माध्यम से युग-निर्माण योजना यानि आस्तिकता के अभियान को पूरा करें।
हमने जिस प्रकार अपने गुरु का पल्ला पकड़ा तथा एक कठपुतली की तरह से उनके इशारे पर नाचते रहे। जिस प्रकार हमने अपने पतंग के धागों को उनके हाथों में दे दिया तथा उड़ने के लिये तैयार हो गये तो हमारा सौभाग्य जाग उठा। हम तथा हमारा गुरु दोनों धन्य होगये। हम चाहते हैं कि आप भी अपने गुरु का पल्ला पकड़ें तथा आस्तिकता के विस्तार के लिये कुछ करने को आगे बढ़ें। हमने गुरु के इशारे पर काम किया। हम चाहते हैं कि इसी तरह आप भी हिम्मत करें तथा आगे बढ़ें।
अगर आप बच्चे की तरह से माँगना चाहते हैं तो वह भी हम देंगे, परन्तु हम नहीं चाहते हैं कि आप बच्चा ही रहें। हम चाहते हैं कि आप जवान बनें ताकि हम आपको दे सकें तथा आप उसे बाँटने में समर्थ हो सकें। इस कार्य के द्वारा हमारा तथा आपका दोनों का मानबढ़ेगा, कीर्ति बढ़ेगी, यश बढ़ेगा। आपको भगवान ने इस लायक बनाया है कि आप किसी के पास हाथ न पसारें, बल्कि इतना समर्थ हो जाएँ कि हमारे पास से प्राप्त करके दूसरों को बाँट सकें। इसी उद्देश्य को बतलाने के लिये हमने आपको बुलाया था। हम चाहते हैं किआप गुरुजी, समाज, भगवान से माँगने की अपेक्षा, आप उन्हें देने में समर्थ हो जाएँ। हम चाहते हैं कि आपको ऐसा ही शक्तिपात तथा कुण्डलिनी जागरण हो जाए।
आज हमने आपसे ब्रह्मवर्चस का उद्घाटन कराया है। ब्रह्मवर्चस क्या है? बेटे! ब्रह्मवर्चस एक फिलॉसफी है, एक दर्शन है, एक सिद्धांत है। आदमी के भीतर कुछ सोया हुआ है। आदमी के भीतर एक जखीरा है, जो महत्त्वपूर्ण है और वह सोया हुआ है। इसको हम जगानाचाहते हैं, हम आप लोगों को महत्त्वपूर्ण आदमी बनाना चाहते हैं। इसके लिये क्या करना पड़ता है? बेटे! इसके लिये तप करना पड़ता है। पार्वती जी ने तप किया था। भगीरथ, ध्रुव, प्रहलाद को तप करना पड़ा था, तब उनकी भीतर की शक्ति जाग्रत हुई तथा वे महान बने।तप करने के सिद्धांत का बहिरंग सम्बन्ध मनुष्य के खाने-पीने से है, परन्तु ब्रह्मवर्चस् वाला भाग अन्तरंग है, जिसे जगा लेने के बाद मनुष्य में शक्ति आ जाएगी। मनुष्य में देवत्व जगाने की शक्ति आ जाएगी, आस्तिकता अभियान को गति देने की शक्ति आजाएगी। तब मनुष्य का व्यक्तित्व उभरता हुआ विकसित होता हुआ चला जाएगा। उसके पास भगवान की गुरु को दी हुई ऋद्धि-सिद्धियाँ आती हुई चली आयेंगी। वह मनुष्य से महामानव, ऋषि, संत स्तर तक बढ़ता हुआ, प्रगति के सोपानों को पार करता हुआ चलाजाएगा। उसके अन्दर ऐसा आत्मबल, साहस पैदा होगा कि उसकी तुलना कोई नहीं कर सकता है।
इसके लिये मनुष्य को सामान्य जीवन में आस्तिकता तथा बहिरंग जीवन में तपस्या का विकास करना आवश्यक है। आस्तिकता का अर्थ है—नेक जीवन जीना तथा तपस्या का अर्थ है—लोकमंगल का जीवन जीना, समाज, देश, संस्कृति के विकास, प्रगति के लियेश्रम करना, उसमें अपनी अक्ल, धन तथा समय लगाना।
इस तपशक्ति का विकास तथा तप के बारे में अन्य बातें ब्रह्मवर्चस के द्वारा बतलाएँगे। मनुष्य की सहन शक्ति कहाँ तक होगी, इसकी जाँच करके हम मनुष्य में देवत्व उदय कराएँगे। आपने आज गायत्री गायत्री मंदिर का उद्घाटन किया पहला—हम इसके द्वाराआस्तिकता को फैलाना चाहते हैं। आपको यह सोचना है कि आप अपना समय, श्रम, अक्ल, कितना इस कार्य में लगा सकते हैं? दूसरा आपने ब्रह्मवर्चस की यज्ञशाला में पूजन किया, एक फूल चढ़ाया। हम चाहते हैं कि आप तपस्वी बनें, नेक बनें। इस संसार में जितनेमहामानव, संत, महापुरुष हुए हैं, उन्होंने तपस्या की है, श्रम किया है। उसके द्वारा ही उनका विकास हुआ है। हम चाहते हैं कि इस दर्शन को आप अपने भीतर भी धारण करें। हम इन्हीं दो चीजों को घर-घर पहुँचाना चाहते हैं। हम चेचक का टीका सबको लगाना चाहते हैं।आप उसको समझें, उसके बाद मरहम लगावें।
आज वसंत के दिन हमारे मन में अनेक प्रकार की उमंगें उठ रही हैं। हमारा मन कह रहा है कि हम क्या-क्या काम कर डालें? हम चाहते हैं कि आपके अन्दर भी इस वसंत पर्व के अन्तर्गत ऐसी ही उमंग उठे। आप भी ऐसा ही सम्पत्तिवान तथा महामानव बन जाते, जैसाहम बने हैं। हम देवत्व का अवतरण करना चाहते हैं। इसका मतलब है कि हम अच्छा वातावरण बनाना चाहते हैं।
जहाँ नेक, ईमानदार और श्रमशील आदमी रहते हैं वहाँ स्वर्ग पैदा हो जाता है। संत इमर्सन कहते थे कि हमें कहीं भी भेज दिया जाए, हम वहीं पर स्वर्ग बना देंगे। हम चाहते हैं कि एक ऐसा वातावरण बना दें ताकि लोग यहाँ आएँ तथा अच्छा जीवन जिएँ और लोगों कोऊँचा उठाने का कार्य करें। वे पेट पालने के लिये नहीं, कामवासना के लिये बच्चे पैदा करने के लिये न आवें, बल्कि उनके अन्दर उमंगें हों अच्छे बनने की, अच्छा बनाने की तो मजा आ जाएगा। इसे ही ‘‘धरती पर स्वर्ग’’ व ‘‘मनुष्य में देवत्व का अवतरण’’ कहा जासकता है। इसी के लिये हमने गायत्री नगर बसाया है, जिसका कि आपने आज उद्घाटन किया है। हम आपको बुलाते हैं तथा दावत देते हैं कि आप आएँ। अगर आपकी पत्नी बात नहीं मानती है, बच्चा बदमाश हो गया है तो आप उसे हमारे जिम्मे सौंपें हम उसमें सुधारकरेंगे। बेटे! हम कौन हैं? हम हैं—बाल्मीकि ऋषि, जिनके आश्रम में रहकर सीता तथा लव−कुश महान बने थे। हम तेरे बच्चे को तपस्वी बना देंगे। हम एक भट्टी बनाना चाहते हैं, हम चाहते हैं कि आप यहाँ आएँ तथा पहलवान बनें। आपको यहाँ रखकर हम आपकीसोई हुई शक्ति को जाग्रत करना चाहते हैं।
मित्रो! त्रिपदा गायत्री का आज हमने आपसे उद्घाटन कराया है। इसमें से प्रथम—गायत्री मंदिर—आस्तिकता का प्रचार करने हेतु बनाया गया है और दूसरा ब्रह्मवर्चस्—आदमी को तपस्वी बनाने, उसके अन्दर के जखीरे को जाग्रत करने हेतु बनाया गया है। तीसरीगायत्री नगर—युग परिवर्तन के लिये जाग्रत आत्मा बनाने के लिये भट्टी है, जहाँ से हम धरती पर स्वर्ग एवं मनुष्य में देवत्व की स्थापना कराएँगे। त्यागी, बलिदानी, एवं सेवाभावी यहाँ आते जा रहे हैं। हम इसका भावना विकास करना चाहते हैं। अभी हमारे पासकितने ही ऐसे निःस्वार्थ, समर्पित सेवाभावी आ गये हैं और यहाँ आते ही चले जा रहे हैं। हम चाहते हैं कि यहाँ नैमिषारण्यं की तरह संत, ब्राह्मणों की सेना बना दें, जो पेट पालने, बच्चा पैदा करने की बात न करके समाज, देश, संस्कृति के उत्थान की बात करें तथा उसेऊँचा उठाने के लिये प्रयास करें। हम इसके द्वारा दुनिया को बताना चाहते हैं कि भावी जीवन में स्वर्ग कैसा होगा? अगर आपके उद्देश्य ऊँचे होंगे तो मैं यह कहता हूँ कि आपको कभी अभाव नहीं होगा।
मित्रो! मंगता भिखारी कभी भक्त नहीं होता है। मैं यह चाहता था कि मेरे गुरु ने जिस प्रकार से हमारी गरीबी पहले दिन से ही छीन ली तथा अमीरी दे दी। मैं चाहता था कि आपके जीवन में भी वैसा ही हो जाता। आज वसंत का दिन हमारे उमंग, उत्साह, सौभाग्य एवं शांतिप्रेरणा का दिन है। मैं चाहता था कि आप लोगों को भी इसी तरह से प्रेरणा मिलती तो मजा आ जाता। हम तथा हमारे गुरु जिस प्रकार से धन्य हुए आप एवं हम भी धन्य हो जाते। आपके अन्दर शत-प्रतिशत महानता न भी आती तो कम से कम पाँच-दस प्रतिशत भी आजाती तो हमें यह देखकर शांति होती कि आप प्रगति के रास्ते पर हैं तथा जवान बन रहे हैं।
यही मेरी कामना एवं इच्छा थी हमने आप लोगों के बीच रखा तथा बतलाने का प्रयास किया। हमने अपने अन्दर को खोलकर आपको दिखाया ताकि आप देख सकें कि हमारे अन्दर कितनी प्रसन्नता है, कितनी शांति है, कितनी प्रगति है? अगर आपको भी हिम्मत है, तो आप अपने गुरु का अनुग्रह खरीदकर ले आएँ। हमने भी अपने गुरु का अनुग्रह खरीदकर लिया है। फोकट में कुछ भी नहीं मिलता है। आप चाहें तो आप प्राप्त करके अपने आप को महान बना सकते हैं। अब गायत्री नगर का काम करना है। वहाँ का कार्यक्रम संक्षिप्तरूप में आपको बता दिया है, आपको केवल यहाँ फूल चढ़ाना है। महाकाल को फूल चढ़ा दें तथा मेरे प्रति सहानुभूति प्रगट करें। अगर आप मेरी बात मानें तो अपने गुरु की तरह हम भी आपको शक्तिपात कर सकते हैं, कुण्डलिनी जगा सकते हैं। देवकन्याओं से हमें काफीआशा है, इनसे हम उद्घाटन कराते हैं। आज की बात समाप्त!
ॐ शान्तिः