उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
अखण्ड ज्योति अक्टूबर २०१२
परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी- (१)
गायत्री ही कामधेनु है
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ,
‘‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।’’
देवियो, भाइयो! चौबीस साल के चौबीस पुरश्चरण पूरा कर लेने के पश्चात् मैंने सबसे पहले गायत्री की एक पुस्तक लिखी थी। गायत्री महाविज्ञान तो बाद में लिखा। पहले छोटी सी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। उसका नाम था— ‘‘ब्राह्मण की कामधेनु गायत्री।’’ जबसबसे पहले यह किताब छपी, तो ब्राह्मणों ने यह कहा कि यह तो केवल पंडितों की है, ब्राह्मणों की है। आचार्य जी ने भी पुरश्चरण करने के पश्चात् यही लिखा है। इसको ब्राह्मण जप कर सकता है और कोई बिरादरी वाला नहीं जप सकता। देख लीजिए हम जो कहते थे, वही आचार्य जी कहते हैं। आचार्य जी के और हमारे कहने में कोई फर्क नहीं है।
मिलो! इस पुस्तक को पढ़ करके, पुरातन पंथियों ने यही बात कही, जो बहुत दिनों से कहते हुए चले आ रहे थे। जबकि वास्तव में मेरा मतलब ब्राह्मणत्व से था, ब्राह्मण वंश से नहीं था। पर मैं क्या कर सकता था, गलती हो गयी। इसलिए पहला संस्करण छपने केबाद मैंने इस किताब का छापना बंद कर दिया और किताब का नाम बदल दिया। फिर मैंने किताब का नाम लिखा— ‘‘गायत्री ही कामधेनु है।’’ कामधेनु का मतलब है- सबकी कामधेनु। क्या ब्राह्मण, क्या बनिया, क्या हिन्दू, क्या मुसलमान- सबकी कामधेनु हैं। फिरतीस साल बाद मैं दूसरा पाठ पढ़ाता हूँ। दूसरा पाठ क्या पढ़ाता हूँ? जब तक मैं यह कहता था कि गायत्री का अधिकार सबको है। सब जप कर सकते हैं। यह बात भी सही है।
मित्रो! हिन्दुस्तान से बाहर विदेशों में मैं जहाँ भी गया, वहाँ मेरा वास्ता ईसाइयों से पड़ा। मुसलमानों से वास्ता पड़ा। हिन्दुओं की बात तो आप जाने दीजिए। हिन्दुओं के बनिया, ब्राह्मण, ठाकुर आदि की बात आप छोड़ दें। विदेशियों में मुसलमान और ईसाइयों से मुझेवास्ता पड़ा। अफ्रीका में जो नीग्रो हैं, उनमें से ज्यादातर, मुसलमान है, या ईसाई हैं। हिन्दू तो कोई है ही नहीं। बहुत दिनों तक मैं वहाँ प्रचार करता रहा। मैंने उनको गायत्री मंत्र सिखाया। गायत्री मंत्र की दीक्षा दी। मुसलमानों को भी दी, ईसाइयों को भी दी, दूसरे लोगों को दी।पूना में एक सज्जन थे। जाति से मुसलमान थे। हमारे गायत्री तपोभूमि पर रहते थे। कुछ दिन बाद उन्होंने कहा— ‘‘गुरुजी! मैं हिन्दू होना चाहता हूँ।’’ नहीं बेटे, तू हिन्दू मत बन, मुसलमान ही बना रह। तुझे मुसलमानों में काम करना है। एक बार जब मैं पूना गया तोउनको मालूम पड़ा कि आचार्य जी आये हैं, तो अपने सारे- के शिष्यों को लेकर कोई एक हजार मुसलमान आ गये। पूछने पर पता चला कि वे सबके सब दादा गुरु के दर्शन करने आये हैं। दादा गुरु कौन हैं? दादा गुरु ये आचार्य जी हैं। हमारा गुरु वह मुसलमान जो पहलेहमारे यहाँ मुसलतापुर में रहते थे और दादा गुरु हम।
मित्रो! दादा गुरु के हजार मुसलमान आये और बोले कि आपको हमारे यहाँ चलना ही पड़ेगा। हमारे यहाँ भी गायत्री यज्ञ होगा, आपको चलना ही पड़ेगा। वे डॉक्टर साहब। जिनके यहाँ मैं ठहरा हुआ था, उन्होंने कहा गुरुजी। इनके यहाँ तो चलना ही चाहिए, और कहीं मतचलना। चलने की तैयारी हो गयी और हम वहाँ गये। वहाँ उन्होंने- मुसलमानों ने जप कराया था और हवन कराया था। बम्बई में हम जाते हैं, तो ढेरों- के पारसी आते हैं। पारसियों के यहाँ अग्निपूजा होती है। पारसी हिन्दुस्तान के रहने वाले नहीं हैं। वे ईरान के रहने वालेहैं। पारसियों में नानक जी श्राफ रहते थे। उन्होंने हमारे गायत्री का प्रचार सारे पारसी समाज में किया था। अभी भी यहाँ हर साल वे आते हैं। अभी हर साल एक पारसी लड़की यहाँ आती है। पिछले शिविरों में भी वह थी। पारसियों में बहुत लोग हैं, जो यहाँ हर साल आते हैं।
बेटे, अब मैं क्या कहता हूँ। अब मैं अपनी गलती सुधारता हूँ? नहीं बेटे, मैं नहीं सुधारता। जहाँ तक गायत्री का मनुष्य के जन्म से संबंध है, वहाँ तक मनुष्यमात्र को—प्रत्येक मनुष्य को गायत्री का का अधिकार है। सूरज का अधिकार सबको है। पानी का अधिकारसबको है। इस तरह जितनी भी चीजें भगवान की बनाई हुई हैं, उन पर सभी का अधिकार है। किसी को भी वंचित नहीं किया गया है। क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, क्या बनिया, क्या ब्राह्मण, सबको गायत्री का अधिकार है। लेकिन एक बात और मैं आपसे कहता हूँ, जोतीस साल पहले मैने कही थी। वही बात अब मैं फिर से कहता हूँ कि वह बात सही थी। गायत्री कामधेनु तो है, पर वह सबकी कामधेनु नहीं है। गायत्री केवल ब्राह्मण की कामधेनु है।
ब्राह्मण से आपका क्या मतलब है? मित्रो! ध्यान रखिये, मैं जन्म से जाति पर विश्वास नहीं करता। मैं गीता का अनुयायी हूँ और भगवान श्रीकृष्ण ने वर्णाश्रम धर्म के बारे में जो स्पष्ट वक्तव्य कहा था, उसका अनुयायी हूँ। उन्होंने कहा था- ‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टंगुणकर्म विभागशः।’’ (४- १३) अर्थात् गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर हमने चारों वर्णों को बनाया। गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर बने हुए वर्ण को तो मैं मानता हूँ, पर जातीयता के आधार पर नहीं। जाति के आधार पर आप ब्राह्मण है? नहीं बेटे, जाति से हमब्राह्मण नहीं हैं, जाति से हम धोबी हैं। धोबी कैसे हैं? नहीं साहब! आप तो कहते थे कि हम पंडित हैं? पंडित तो हैं, परन्तु जाति से हम धोबी हैं। धोबी कैसे हैं? धुलाई करना हमारा काम है। कपड़े धोना भी हमारा काम है। मन का धोना भी हमारा काम है, जीवन को धोनाभी हमारा काम है। हमारे यहाँ ड्राई क्लीनिंग फैक्ट्री है। हम हर चीज को धोते हैं। दाग, धब्बे लगे हुए आदमी को धो करके पाक- साफ कर देते हैं। हम धोबी हैं। नहीं साहब! आप तो ब्राह्मण हैं! हाँ बेटे, हम ब्राह्मण भी हो सकते हैं, लेकिन असल में हम धोबी हैं।
मित्रो! मैं यह कहना चाहता था कि गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है। इससे आपका क्या मतलब है? ब्राह्मण की कामधेनु का मतलब ‘ब्राह्मणत्व’ से है। अगर व्यक्तित्व में ब्राह्मणत्व का जन्म हुआ तो यह निश्चित रूप से कामधेनु के बराबर फल देगी। अगरब्राह्मणत्व न हुआ, तो फल नहीं देगी। ब्राह्मणत्व की क्या मान्यतायें हैं? ब्राह्मणत्व की दो मान्यतायें हैं—एक तो आदमी को चरित्र की दृष्टि से पवित्र और शुद्ध होना चाहिए। मनुष्य अपने जीवन में जितना ज्यादा शुद्ध और पवित्र होता हुआ चला जायेगा, उतना हीउसके भीतर से ब्रह्मतेज उभरता हुआ चला जायेगा। ब्रह्मतेज कहीं बाहर से थोड़े ही माँगना पड़ता हैं। आपका जो यह ख्याल है कि यह बाहर से आता हैं। भगवान की कृपा बाहर से आती है। देवी- देवताओं का अनुग्रह बाहर से आता है और सिद्धियाँ बाहर से आती हैं, तोबेटे, आपका यह ख्याल गलत है। इसकी जड़ें भीतर से आती हैं।
मित्रो! पेड़ की जड़ें जमीन के भीतर होती है। आपको दिखाई पड़ता है कि पत्ते बाहर से आते हैं, फूल बाहर से आते हैं। लीजिए साहस! वसंत ऋतु आ गयी और वसंत ऋतु आते ही फूल आ गये। नहीं बेटे, वसंत ऋतु से फूल नहीं आते। पौधों की जड़ों में से फूल आये हैं।वृक्ष जितना बड़ा होता है, उसकी जड़ें उतनी ही गहरी होती हैं। उतनी ही फैली हुई होती हैं। जड़ें खुराक खींचती हैं और पेड़ को खुराक देती हैं। यही खुराक पत्तों को चली जाती है, फूलों को चली जाती है, फलों को चली जाती है। वास्तव में ये फल आसमान से नहीं टपकते हैं, जैसा कि आपका ख्याल है। नयी कोपलें आसमान से नहीं टपकती हैं। ये जड़ में से निकलती हैं। इसी तरह आदमी की जड़ें उसके भीतर रहती हैं। भगवान का उदय भीतर से होता है। भगवान बाहर से नहीं आता, यह बात ध्यान रखना। नहीं साहब! भगवान बाहर से आताहै, ब्रह्मलोक से आता है, बैकुंठलोक से आता है, बद्रीनाथ में से आता है, केदारनाथ से आता है। बेटे, कहीं से नहीं आता, भीतर से निकलता है भगवान।
साथियो! भीतर से निकलने वाला ब्राह्मणत्व दो बातों पर टिका हुआ हैं। एक तो आदमी का चरित्र ऊँचा होना चाहिए। चरित्र अगर साफ नहीं है, धुला हुआ आदमी नहीं है, निर्मल आदमी नहीं है। वह सदाचरण की मर्यादाओं का पालन नहीं करता है, तो ऐसा आदमीब्राह्मणत्व से कोसों दूर है। और वह आदमी, जिसके अंतःकरण में दया नहीं है, करुणा नहीं है। दूसरों के दुःखों को देख करके जो आदमी पसीजता नहीं है। खाते समय जिसके मन में यह विचार नहीं आता कि इसमें दूसरों का भी हिस्सा है। हमको दूसरों को भी देना चाहिए, वह ब्राह्मणत्व से बहुत दूर है। ब्राह्मणत्व की मर्यादा के बारे में एक बात मुझे ध्यान में आ गयी। एक ब्राह्मण थे, जो सात दिन से भूखे रहने के पश्चात् कहीं से थोड़ा अनाज पा गये। चार रोटी का अनाज था। एक रोटी अपने लिए बनायी, एक रोटी स्त्री के लिए बनायी, एकरोटी कन्या के लिए बनायी और एक रोटी बच्चे के लिए बनायी।
जब वह खाने के लिए बैठे तो ख्याल आया कि जिस वातावरण में हम रहते हैं, जिस समाज में हम रहते हैं, वहाँ हमसे भी ज्यादा कोई दुःखियारा तो नहीं है? अगर हमसे भी ज्यादा दुःखियारा है तो पहला हक उसका है। बाद में हमारा हक है। वह छत पर चढ़करचिल्लाने लगा कि हमसे भी ज्यादा कोई भूखा हो, हमसे भी ज्यादा कोई दुःखी हो, हमसे भी ज्यादा से जिसको अन्न न मिला हो, तो आये। इस भोजन पर पहला हक उसका है। हमारे अन्न में से पहले हिस्सा वह बटाये ,, बाद में हम खायेंगे। एक चाण्डाल कहीं बैठा हुआथा। उसने जोर से चिल्लाया—‘‘महाराज! एक महीने से मुझे भोजन नहीं मिला। आज मेरे प्राण निकल जायेंगे। आज आप यह अन्न मुझे दे दीजिए। आपको तो भोजन मिलने में एक ही सप्ताह का विलंब हुआ है। आइए, आपका हक पहले है, हमारा हक पीछे हैं।चाण्डाल आ गया। एक रोटी ब्राह्मण ने दे दी। एक रोटी औरत दे दी। बच्चे ने भी एक रोटी दे दी, कन्या ने भी अपनी रोटी दे दी। चारों रोटियों को खा करके उसने जब कुल्ला किया और उस पानी में कहीं से आकर- एक नेवले ने लोट- पोट किया, तो वह सोने का हो गया था।’’
मित्रो! यह महाभारत की कथा है। इसे कहते हैं- ब्राह्मणत्व। ब्राह्मणत्व किसे कहते हैं? जिसके हृदय में करुणा है, दया है, जो दूसरों के दुःखों को, कष्टों को देख करके पसीज जाता है। अपने देश की, समाज की, धर्म की और संस्कृति की दुर्दशा देखकर जिसकी आँखों मेंआँसू नहीं आ जाते हैं, उसे ब्राह्मणत्व कहते हैं। उसकी आँखों में आँसू नहीं आते, जैसे घड़ियाल के, मगर के आँसू होते हैं। आँसू कैसे आते हैं? ऐसे आते हैं कि हम अपने आप में किफायत करेंगे, अपने आप में कंजूसी करेंगे और इस कंजूसी को करके दूसरों के लिए खर्चकर देंगे। ब्राह्मण कैसे होते हैं? ब्राह्मण ऐसे होते हैं, जैसे ईश्वर चन्द्र विद्यासागर। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को पाँच सौ रुपये महीने की नौकरी मिली थी। शिक्षा में नौकरी करते हुए उन्हें पाँच सौ रुपये महीने मिलने लगे, तो उन्होंने विचार किया कि इन पाँच सौ रुपयों काक्या सदुपयोग करना चाहिए। उन्हें ख्याल आया कि जब हम छोटे थे, तब मिट्टी के तेल के अभाव में दीपक न जला पाने के कारण प्रकाश के लिए सड़क पर खड़े होकर पोल पर लगी बत्तियों के प्रकाश में पढ़ते थे। पैसों की तब कितनी तंगी थी। पिताजी भेजते नहीं थे।इसलिए यह पाँच सौ रुपये भगवान ने अगर हमको दिये हैं, तो जिस समाज में हम रहते हैं, जिस देश में हम रहते हैं, उस पर उन लोगों का भी हक है। हमको कम में गुजारा करना चाहिए।
उन्होंने अपने कुटुम्बियों से कहा कि आपको पचास रुपये में गुजारा करना पड़ेगा और साढ़े चार सौ रुपये उन लोगों के लिए देना पड़ेगा, जो शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। जिनके पास फीस देने के लिए पैसे नहीं है। उस जमाने में बिजली तो थी नहीं, पर मिट्टी के तेल कादिया जलाकर पढ़ने का इंतजाम करना पड़ता था। जिनके पास दिया जलाकर पढ़ने का इंतजाम नहीं है, जो कापियाँ नहीं खरीद सकते, उनका हक पहला है और हमारा हक पीछे है। हम पचास रुपये महीने में दूसरे गरीबों की तरीके से, मजदूरों की तरीके से रहकर के गुजाराकर सकते हैं। इसलिए हमको उसी तरीके से गुजारा करना चाहिए। हमें कमाना तो चाहिए, कमाने से कोई हर्ज नहीं है, लेकिन खर्च करते समय विचार करना चाहिए कि हमको अपने लिए कितना खर्च करना है और दूसरों के लिए कितना खर्च करना है। अगर आपका मनकिसी और के लिए खर्च करने का है, तो मैं कहता हूँ कि आपके भीतर करुणा है। आपके भीतर दया है। करुणा और दया अगर आपके भीतर है, तो आप ब्राह्मण हैं। आपको अपने चरित्र के बारे में अगर यह ख्याल है कि हमारा चरित्र ऊँचा होना चाहिए, श्रेष्ठ आदमियोंजैसा चरित्र होना चाहिए। हमारा आदर्श दूसरों के सामने होना चाहिए, तो मैं समझूँगा कि आप ब्राह्मण हैं।
मित्रो! गायत्री का वाहन हंस है। हंस से आपका क्या मतलब है? बेटे, हंस से हमारा मतलब यह है कि गायत्री महामंत्र जिसके ऊपर सवार हो अथवा गायत्री माता जिसके ऊपर सवार हो, वह आदमी धुला हुआ धवल श्वेत होना चाहिए। राजहंस जो गायत्री माता का वाहनहै। वह हंस जो तालाबों में पाये जाते हैं, उनसे अलग है। वह राजहंस है। राजहंस कैसे होते हैं? राजहंस पर कहीं भी काला निशान नहीं होता। जो हंस तालाबों में पाये जाते हैं, उन पर निशान होते हैं। उन पर काले या पीले रंग के निशान पाये जाते हैं। राजहंस पर कोई निशाननहीं होता। इसका क्या मतलब है? कबीरदास जी इस संबंध में कहते हैं—
‘‘दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।
झीनी, झीनी झीनी ने चदरिया॥’’
अपनी जिंदगी पर दाग और धब्बे लगाये बिना, पाप और कलंक के जोखिम लगाये बिना अगर हम अपने जीवन को स्वच्छ और निर्मल बनाते हुए चले जायँ, तो हमारा नाम राजहंस होगा। तब गायत्री माता हमारे ऊपर सवारी करना पसंद करेंगी। हंस कैसे होते हैं? वेहर समय नीर और क्षीर का विवेक करते रहते हैं। आप दूध और पानी मिलाकर रखिए। वे दूध- दूध पी जायेंगी और पानी फेंक देंगे। इसका क्या अर्थ है? जो आदमी उचित को स्वीकार करेंगे और अनुचित को हटाते चले जायेंगे, वे हंस हैं। हंस मोती खाते रहते हैं। वे भूखोंमर जाते हैं, पर कीड़े नहीं खाते। महाराज जी! छः महीने तक मोती न मिले तो? तो वे नहीं जियेंगे। जिंदा रहेंगे तो मोती बीनेंगे, नहीं तो मर जायेंगे। प्राण त्याग देंगे, पर मोती के अलावा दूसरी चीज नहीं खा सकते। कौन हैं ये? ये हंस हैं, राजहंस हैं।
मित्रो! मैं उन हंसों की बात कह रहा हूँ। उन्हें कहाँ मिलता है दूध? उनके लिए कौन सा डेरीफार्म खुला हुआ है? वे ऐसे ही कीड़े- मकोड़े खाते फिरते रहते हैं। मोती समुद्र में गहरे में होते हैं। मोती मानसरोवर में नहीं होते, समुद्र में होते हैं। नहीं साहब। हंस तो मोती खातेहैं। बेटे, कहीं नहीं, वे मोती नहीं कीड़े खाते हैं। मित्रो! गायत्री माता का जो हंस है, उसको राजहंस की तरीके से होना चाहिए अर्थात् उसका चरित्र निर्मह होना चाहिए। मंत्र के चमत्कार और मंत्र की सिद्धियाँ इसी पर निर्भर है कि साधक का चरित्र निर्मल होना चाहिए।
मित्रो! मंत्र के चमत्कार बीज पर निर्भर हैं। बीज के लिए दो बातें आवश्यक हैं। कल भी मैंने आपसे कहा था, आज फिर कहता हूँ और आगे फिर भी कहूँगा कि बीज अकेला फलित नहीं हो सकता। बीज के लिए जमीन चाहिए और खाद, पानी चाहिए। खाद, पानी अगरनहीं है तो बेटे बीज नहीं उगेगा, सूख जायेगा। जमीन नहीं है, तो वह फलेगा नहीं। अब मंत्र जप करेंगे, तो मंत्र जप करना बीज बोने के बराबर है। बीज बोने के लिए आपको जमीन चाहिए। नहीं साहब! मुझे तो जमीन जरूरत नहीं है। मैंने तो वैसे ही बिना जमीन के ही उगालूँगा। अच्छा, चल, उगाकर दिखा। कहाँ उगायेगा? महाराज जी! मुझे तो जमीन की भी जरूरत नहीं है। मैं तो वैसे ही बिना जमीन के भी बीज उगा लूँगा। बेटे, खाद, पानी की जरूरत तो वहाँ भी पड़ेगी? नहीं साहब! खाद- पानी की कोई जरूरत नहीं।
मित्रो! आदमी का अंतरंग, आदमी का व्यक्तित्व ऐसा चाहिए कि भगवान खिंचते हुए चले आयें। भगवान किसी पर दया नहीं करते, यह बात आप लोग ध्यान रखना। भगवान को खींचा जाता है, भगवान को आने के लिए मजबूर किया जाता है। बादलों को बरसने केलिए पेड़ मजबूर करते हैं। बादल अपने आप नहीं बरसते, यह आपको मालूम होना चाहिए। रेगिस्तान से होकर बादल बराबर चले जाते हैं। रेगिस्तान में घटायें न घिरती हों, ऐसी बात नहीं है। रेगिस्तान में घटायें बिल्कुल जाती हैं, पर बरसती एक बूँद भी नहीं हैं। क्यों? क्योंकि पेड़ों का मैंगनेट उन्हें खींचने के लिए मजबूर नहीं करता। वहाँ पेड़ हैं ही नहीं। पेड़ों की कशिश, पेड़ों का मैैंगनेट उन्हें खींचने के लिए मजबूर नहीं करता। वहाँ पेड़ हैं ही नहीं। पेड़ों की कशिश, पेड़ों का मैंगनेट, पेड़ों का चुम्बकत्व बादलों को धरती पर खींचती है। पेड़कहता है कि—‘‘भाई साहब! आप हमारे ऊपर बरसिए। बादल बरसते हैं। बादलों को पेड़ खींच लेते हैं, मजबूर करते हैं। ’’
इसी तरह आदमी की भक्ति और आदमी का व्यक्तित्व भगवान को मजबूर करता है कि आप आइये, हमारे ऊपर कृपा कीजिए और हमको वरदान दीजिए और हमारी सहायता कीजिए। भगवान को मजबूर किया जाता है। नहीं साहब! भगवान से माँगते हैं। बेटे, माँगने से क्या मतलब है। माँगने से कुछ नहीं होता। माँगने से किसको क्या मिला है? नहीं साहब! भगवान से माँगते हैं। बेटे, माँगने से क्या होता है। माँगने से कुछ नहीं होता। माँगने से किसको क्या मिला है? नहीं साहब! हम- प्रार्थना करेंगे, पूजा करेंगे, श्रवण करेंगे, मनोकामना माँगेंगे। बेटे, माँगने से दस पैसे मिलते हैं। अगर तुझे शक हो तो हरकी पौड़ी पर चला जा। वहाँ बहुत सारे भिखारी बैठे रहते हैं। एक रुपये की दस रोटी, भूखे को खिला जाइये, अंधे को खिला जाइये। एक रुपये की दस रोटी कैसे आ सकती है? अरे साहब! दालभी शामिल है। दाल भी देंगे। बेटे, समझ में नहीं आता, जरा दिखा तो सही, कैसी है? आटे में लकड़ी का बुरादा मिला हुआ था, सड़े हुए अनाज मिले हुए थे। उसी को पीसकर भिखारियों को रोटी देते हैं। भिखारियों के भाग्य में यही लिखा हुआ है। अच्छी रोटी दे दीजिए। दावतमें से बची हुई चीजें, जो आठ- आठ दिन की पुरानी पूड़ियाँ हो जाती हैं, सड़ जाती हैं, उनको क्या फेंक दें? नहीं भाई! फेंकिये मत। इनको भिखारियों को दे दीजिए। भिखारियों को सड़ी हुई पूड़ियाँ दी जाती हैं, बचे हुए साग दे दिये जाते हैं। खराब वाली रोटियाँ दे दी जाती हैं।
नहीं महाराज जी! हम प्रार्थना करेंगे। माँगेंगे। आप किससे माँगेंगे? देवी से माँगेंगे, देवता से माँगेंगे? तो बेटे, मेरा ऐसा ख्याल है कि एक तो वे तुझे कुछ देंगे नहीं और यदि देंगे भी तो ऐसी चीज देंगे जो सड़ी हुई होगी, नामाकूल चीज होगी। छोटी चीज होगी। माँगने सेकहीं कुछ मिलता है क्या? नहीं महाराज जी! हम प्रार्थना से माँगेंगे, हाथ जोड़ करके माँगेंगे, इससे माँगेंगे, उससे माँगेंगे। बेटे, किसी से मत माँग, केवल अपने आप से माँग। अपने आप से माँगने का मतलब क्या है? अपने आप से माँगने का मतलब है कि हमको अपनाव्यक्तित्व और अपना चरित्र एवं अपना अन्तःकरण उदार और उदात्त बनाना चाहिए। बस यही सार है। किसका? मंत्र का। अभी भी मंत्र की सिद्धि का सार यदि आपकी समझ में नहीं आया, तो आप बहुत भारी गलती कर रहे हैं।
मित्रो! हमारे यहाँ जब भिखारी आते हैं, तो उनको दस पैसे दे देते हैं। पाँच पैसे दे देते हैं। जवान लड़के भी बराबर आते है। साहब! ये आपके कौन हैं? ये हमारे जमाई हैं। जमाई को आप क्या देंगे? जमाई को मिठाई खिलायेंगे, चाय पिलायेंगे, काफी पिलायेंगे और जबजमाई विदा होंगे, तो पैंट उनको दान में देंगे। जमाई जब विदा होंगे तो मिठाई का टोकरा बाँधकर उन्हें देंगे। जमाई को जब विदा करेंगे, तो दो सौ रुपये का इनाम देंगे। क्यों साहब! जमाई में और हममें क्या फर्क है? जमाई हमारी बेटी को प्रसन्न रखता है। जो कमाता है, हमारी बेटी की हथेली पर रखता है। अपनी बेटी को खुश देख करके हमको प्रसन्नता होती है उसके बदले में हम जमाई को इनाम देते हैं। जमाई की हम प्रशंसा करते हैं, उसकी खातिरदारी करते हैं। शब्द कहने- सुनने में तो बहुत बुरा है। आपको भी बुरा लगेगा और शायदभगवान को भी बुरा लगना चाहिए, यदि कहीं भगवान हो तो। असल में सही बात यह है कि भगवान से कोई बड़ी चीज माँगनी हो तो आपको जमाई बनकर माँगना चाहिए। आप जमाई बनिये और जमाई बन करके माँगिये। आप तो भिखारी बन करके माँगते हैं।भिखारीपन छोड़िये।
मित्रो! जमाई होने से क्या मतलब है? जमाई होने से यह मतलब है कि यह दुनिया भगवान की बेटी है। यह सभ्यता और संस्कृति भगवान की बेटी है। भगवान की बेटी का अर्थ हैं—धर्म और सदाचरण। इनकी सेवा करके आप भगवान की कृपा पा करके निहाल होजाइये।
मित्रो! इससे कम में क्या हो सकता है? यही हो सकता है कि पूजा करते- करते, प्रार्थना करते- करते, मनोकामना कहते- कहते जिन्दगियाँ खत्म हो जायेंगी और प्रार्थना के साथ- साथ एक चीज मिलती जायेगी। और उसका नाम है- शिकायत। आपको हमेशाशिकायत करनी पड़ेगी। आप हमेशा यही शिकायत करेंगे कि चौबीस हजार जप किया। फिर क्या किया? शिकायत। किससे गायत्री माता से। हनुमान चालीसा का पाठ किया। फिर शिकायत किया कि नहीं? हाँ महाराज जी! शिकायत तो करते हैं। आपने कामना की थी, मंत्र लिखे थे। आपकी मनोकामना पूरी हुई कि नहीं? आपने शिकायत की कि नहीं की? अच्छा तो ऐसा किया कर कि चौबीस हजार गायत्री मंत्र भी लिख दिया कर और उसके पीछे चौबीस गालियाँ भी लिख दिया कर। नहीं महाराज जी! नहीं लिख सकता। नहीं लिखेगा तोतेरी मनोकामना कैसे पूरी होगी?
मित्रो! मनोकामना पूरी करने के लिए क्या करना पड़ता है? जीवन को शुद्ध करना पड़ता है। मेरे गुरु जब हमारे पास आये, तो उन्होंने मुझे यही बताया। मालवीय जी ने मुझे बताया था कि जप करने की विधि यह है। कलम ऐसे पकड़नी चाहिए, गायत्री मंत्र ऐसेलिखना चाहिए। गायत्री मंत्र लाल स्याही से लिखना चाहिए। पूर्व की तरफ मुख करना चाहिए। हाथ- पाँव ऐसे बाँधना चाहिए, आदि सब कर्मकाण्ड उन्होंने बताये। दूसरा बाला जो मेरा गुरु जो आया, उसने मुझे तीन आधार बताये। पहला वाला आधार कल मैं आपको बताचुका हूँ, जिसको श्रद्धा कहते हैं। दूसरा उन्होंने यह बताया- चरित्र। और तीसरा बताया- करुणा, उदारता। प्रज्ञा किसे कहते हैं? निष्ठा किसे कहते हैं। श्रद्धा किसे कहते हैं? गायत्री माता की कृपा क्या होती है? यह तीनों चीजें, तीनों सम्पदायें उस कीमत पर दी जाती हैं, जिन्हें हम श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा की कीमत पर ही देवी- देवता खरीदे जाते हैं। नहीं महाराज जी! श्रद्धा की कीमत पर नहीं खरीदे जाते हैं। बेटे, हम कहते हैं कि भगवान श्रद्धा की कीमत पर खरीदे जाते हैं।
मित्रो! भगवान की कीमत है- श्रद्धा। श्रद्धा, कैसे कीमत है भगवान की, देख मैं बताता हूँ। मीरा के साथ एक पत्थर का छोटा सा खिलौना था, किसी बाबाजी ने दे दिया था और यह कहा था कि ये भगवान हैं। फिर मीरा ने पूछा- कि रिश्ते में ये हमारे कौन हैं? बाबाजी नेकहा कि जो भी तेरा मन हो, मान ले। अच्छा, तो अपना पति मान लूँ? हाँ, मान ले। मीरा ने उन्हें अपना पति मान लिया। किसको? गिरधर गोपाल को। मीरा ने गिरधर गोपाल को अपना पति मान लिया और पत्थर के साथ सच्चे मन से ऐसा प्यार और मोहब्बत करनेलगी कि रात को गिरधर गोपाल आते थे। जब मीरा कहती थी कि गिरधर गोपाल हम और आप नाचेंगे, तो गिरधर गोपाल नाचते थे। यह कल्पना है या वास्तविकता है? इतिहासकार कहते हैं कि जब मीरा के लिए जहर का प्याला भेजा गया, तो गिरधर गोपाल ने कहा- भाई साहब, जहर जी! आपको हम पियेंगे। हमारी मीरा इसे बर्दास्त नहीं कर पायेगी, वह मर जायेगी। बड़ा कड़वा जहर है। हम आपको पी लेते हैं और जो पानी बचेगा, उसे मीरा पियेगी। मीरा ने पानी पिया, तो गिरधर गोपाल ने जहर पिया।
इसी तरह जब मीरा के सामने साँपों का पिटारा ला गया, तो गिरधर गोपाल ने साँपों से कहा कि साँपों! हमको काटना। हम तुम्हारे जहर को बर्दास्त कर सकते हैं, मीरा तो बेचारी बच्ची है। इसमें तो इतनी ताकत नहीं कि जहर पिये। मीरा जहर से खेलेगी। दिन भर मीराखेलती रही और गिरधर गोपाल साँपों से अपनी अंगुलियाँ कटवाते रहे। रात को जब राणा के आदमी साँपों का पिटारा लेने के लिए आये, तो मीरा ने सारे साँप समेट करके उनके हवाले कर दिये। साँपों का सब जहर खाली था। कौन थे ये गिरधर गोपाल? ये थे मीरा के बेटे।अभी जिंदा हैं, नहीं बेटे, वे मर गये। मूर्ति थी, वह वहाँ पड़ी है मेड़ता में। मेड़ता में वह मूर्ति अभी भी पड़ी है, जिसकी मीरा पूजा करती थी। उस चमत्कारी कृष्ण को मीरा ने पैदा किया था वह मीरा के पेट में से नहीं, मीरा के दिमाग में से, हृदय में से निकला था। उसी नेचमत्कार दिखाये और चमत्कार दिखाने के बाद जब मीरा मरी, तो मीरा के संग में वह भी सती हो गया, जल गया। अब वह कहीं नहीं है।
मित्रो। आपने एकलव्य की कहानी सुनी होगी। एकलव्य जो था, उसने एक गुरु द्रोणाचार्य बनाया था। कैसे बनाया था गुरु द्रोणाचार्य को? मिट्टी का बनाया था, जो इतना जबर्दस्त था कि पाण्डवों के जो असली गुरु द्रोणाचार्य थे, वे इतना काम नहीं कर सके जितना किउस मिट्टी के गुरु ने कर दिखाया था। बेटे, मिट्टी के गुरु द्रोणाचार्य में बहुत शक्ति थी। मिट्टी के द्रोणाचार्य, जिसे एकलव्य ने बनाया था, अभी तक जिंदा हैं? नहीं बेटे, वह मिट्टी तो कहीं पड़ी होगी, लेकिन उसमें कोई चमत्कार नहीं होते? नहीं बेटे, वह पहले भी मिट्टीथी और अब भी है। वह अभी भी कहीं पड़ी होगी, तलाश कर लेना। फिर महाराज जी! उसमें शक्ति कहाँ से आ गई? बेटे, एकलव्य की श्रद्धा ने पैदा की थी। श्रद्धा पैदा कर सकती है? हाँ श्रद्धा गुरु पैदा कर सकती है। गुरु द्रोणाचार्य कौन था? द्रोणाचार्य था- एकलव्य काबेटा, उसने इसे अपने दिमाग में पैदा किया था। फिर कहाँ चला गया? फिर द्रोणाचार्य मर गया। कहाँ गया? एकलव्य की लाश जब जली, तो द्रोणाचार्य की लाश भी जल गयी। यह कैसे हो गया? बेटे, उसने श्रद्धा में से पैदा किया था और मरने के बाद वह उसी के साथविलीन हो गया।
रामकृष्ण परमहंस की देवी काली, जो विवेकानन्द को दर्शन देने आयी थी, वह आग की तरीके से आसमान तक जिह्वा लपलपाती थी। विवेकानंद को जब उन्होंने भेजा कि जा काली से नौकरी माँग कर आ। जब वे काली के पास गये तो काँपने लगे और कहने लगे किमाँ! मैं तो भक्ति माँगने आया था, शांति माँगने आया था। जमीन से आसमान तक लपलपाती जीभ वाली काली को जब उन्होंने देखा था, तो वे काँपने लगे थे। अब वह काली है? नहीं, बेटे अब वह काली कहाँ से आये। वह पत्थर का खिलौना दक्षिणेश्वर के मंदिर में अभीभी पड़ा हुआ है। उसमें कोई चमत्कार है? बेटे, उसमें कोई चमत्कार नहीं। वह पहले भी पत्थर था और अभी भी पत्थर है। पत्थर में चमत्कार हो सकते हैं? हाँ, हो सकते हैं। कहाँ से आते हैं चमत्कार? यह मनुष्य की श्रद्धा में से आते हैं। श्रद्धा में से भगवान आते हैं।
मित्रो! कल मैं आपको श्रद्धा का महत्त्व बता रहा था। भगवान अपनी जगह है, हम जानते हैं। भगवान ने यह दुनिया बनायी है- बेशक, हम जानते हैं। भगवान शक्तिशाली है, हम जानते हैं। लेकिन हमारे लिए जो चमत्कार दिखाते हैं, हमारे लिए जो वरदान लेके आतेहैं, हमारे लिए जो सिद्धि लेकर के आते हैं। हमारे लिए जो स्वर्ग लेकर के आते हैं, हमारे लिए जो शांति लेकर के आते हैं, वे बाहर वाले भगवान नहीं हैं। बाहर वाले भगवान तो बड़े बिजी हैं- व्यस्त हैं। बेटे, एक दिन हमने भगवान जी से यह पूछा कि क्यों महाराज जी।आपका क्या हाल है? अरे साहब! हम तो काम करते- करते मरे जाते हैं। आपको तो टाइम है, पर हमको जरा भी टाइम नहीं है। नहीं साहब! देखिए हमारे यहाँ बेचारे शिविरार्थी आये हुए हैं। नंबर से बाँध देते हैं भैया। आज तो तीसरा दिन है, फिर भी गुरुजी से मिलने का एकबार भी नंबर नहीं आया। और जब फिर से भगवान जी से पूछा कि आपका क्या हाल है? तो उन्होंने कहा कि गुरुजी! आपसे भी बुरा हाल है। एक भगत कहता है कि मैं दो घंटे आपकी पूजा करता हूँ और मैं तो भगवान जी! आपके पास ही बैठूँगा। महाराजी जी! हमें तो एकसेकण्ड की भी फुरसत नहीं है। वह भगवान जो आपको निरंतर अपने ध्यान में बिठाये रखता है, उस विराट भगवान को आप अपने पास कैसे बिठायेंगे?
मित्रो! एक बार फिर हमने भगवान जी से पूछा कि भगवान जी! आप क्या करते हैं? उन्होंने कहा कि महाराज जी! आप देखो तो सही। आपकी पृथ्वी कितनी बड़ी है। पृथ्वी के बाद फिर नवग्रह आ जाते हैं और फिर उपग्रह आ जाते हैं। इन सबकी फिजिक्स अलग- अलगहै। हमारे यहाँ जो एटम जिस हिसाब से बने हुए हैं, उनका जो करेक्टर है, वह दूसरे ग्रहों में नहीं है। हमारे यहाँ हम पानी से गुजारा करते हैं। मंगलग्रह में अमोनिया से गुजारा करते हैं। अमोनिया किसे कहते हैं? नौसादर को कहते हैं। बेटे, लोग लिक्विड नौसादर से कुल्लाकरते हैं। लिक्विड नौसादर से पानी पीते हैं। नहीं महाराज जी। लिक्विड नौसादर से छींक आती होगी? नहीं बेटे! छींक नहीं आती। उनके कन्सन्ट्रेशन ही ऐसे होते हैं, जो नुकसान नहीं करते हैं।
मित्रो! दुनिया में इतना बड़ा विशाल भगवान है। आप भगवान के चक्कर में पड़ना मत। भगवान न तो आपकी पकड़ में आ सकता है, न आपकी समझ में आ सकता है और न आप भगवान के पास पहुँच सकते हैं। न भगवान की कल्पना कर सकते हैं। ऋषियों ने तोउसके बारे में हमेशा यही कहा- ‘नेति’, ‘नेति’। वह अदृश्य है और दृष्टि में नहीं आ सकता। वह समझ में नहीं आ सकता। भगवान इतना बड़ा विशाल है। मेरे लिए जो चमत्कार दिखाता है, वह कौन है? वह है बेटे, हमारा भगवान। क्या नाम है उसका? ईश्वर, परमात्मा।परमात्मा किसे कहते हैं? आत्मा जब परम हो जाती है, शुद्ध हो जाती है, निर्मल हो जाती है, तब उसका नाम परमात्मा हो जाता है। यही परमात्मा हमारे लिए काम करता है। यही परमात्मा हमें वरदान देता है। यही परमात्मा हमें स्वर्गलोक ले जाता है। यही परमात्माहमें शांति देता है। यही परमात्मा हमारे साथ खेलता है।
यह परमात्मा आता कहाँ से है? बेटे, यह हमारे अंदर की सुपीरियारिटी है। जब तक हमारे भीतर कषाय- कल्मश छाये हुए हैं, तब तक हम जीव हैं। तब तक हम घिनौने हैं। जब तक हम नीच हैं, तब तक हम पापी हैं, तब तक हम निकृष्ट हैं। जिस दिन से हम अपनीअन्तरात्मा को धोना शुरु करते हैं, उसी दिन से हम महात्मा होते हैं। उसी दिन से हम देवात्मा होते हैं। उसी दिन से हम परमात्मा होते हुए चले जाते हैं। कौन होता हुआ चला जाता है? हम होते हुए चले जाते हैं और कौन होता है। ‘‘अयमात्मा ब्रह्म’’, ‘‘प्रज्ञानं ब्रह्म’’, ‘‘चिदानन्दोहं’’, ‘‘सच्चिदानन्दोऽहं’’ यह सारी की सारी चीजें हमारे अंदर हैं। बेटे, अपने परिष्कार की विद्या का नाम है- अध्यात्म। अध्यात्म मार्ग का मतलब है- ‘साइंस आफ सोल’। देवताओं को पकड़ने की विद्या का नाम नहीं है अध्यात्म। देवताओं को फुसलाने कीविद्या का नाम नहीं है- अध्यात्म। देवता बड़े चालाक हैं। जैसा कि आप समझते हैं कि देवताओं को सहज ही फुसलाया जा सकता है, बहकाया जा सकता है, आपका यह ख्याल गलत है।
मित्रो! देवताओं से हमारी बातचीत होती रहती है। देवताओं से हम सलाह मशविरा करते रहते हैं। क्यों भाई साहब! एक बात बताइये कि लोग क्या समझते हैं कि हनुमान जी के बाप- दादाओं ने मिठाई नहीं खाई, तो वे मंगल के दिन लड्डू खिला करके यह कहते हैं किलीजिए हनुमान जी लड्डू खा लीजिए। अच्छा तो फिर आप हमारा क्या करेंगे। पहले आप लड्डू खा लीजिए, फिर बतायेंगे। लीजिए साहब! आपका लड्डू खा लिया, अब बताइये आप क्या चाहते हैं। अब आप हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। क्या- क्या मनोकामना पूरीकरें? बेटा पैदा कीजिए, बेटी पैदा कीजिए, मुकदमा जिताइए। नौकरी में प्रमोशन करवाइए। आपने पहले क्यों नहीं कहा कि इतने काम करने पड़ेंगे। हमारी मर्जी होती तो लड्डू खाते, नहीं तो नहीं खाते। इसीलिए तो आपको बताया नहीं था। यह कौन कहता है? यह कहते हैंलोग। लोग किसे कहते हैं? घटिया लोगों को ‘लोग’ कहते हैं, कमीने लोगों को ‘लोग’ कहते हैं।
मित्रो! जिन लोगों का यह ख्याल है कि हम देवी- देवता को अपने जाल में फँसा सकते हैं। देवी- देवता को फुसला सकते हैं और फुसला करके बीसा यंत्र चलायेंगे और देवी को पकड़ लेंगे। अच्छा बेटे, तू बड़ा होशियार मालूम पड़ता है। हाँ महाराज जी! इस बीसा यंत्र कोआज ही ग्यारह रुपये में खरीदकर लाया हूँ। इससे क्या करेगा? देखना अब मैं क्या जादू- चमत्कार दिखाता हूँ। इससे मैं सारे देवी- देवताओं को पकड़ लाऊँगा। अच्छा तू पकड़ लायेगा? हाँ महाराज जी! मेरे पास ऐसी विद्या आ गयी है, ऐसे जादू आ गये हैं कि मैं उससे सारेदेवी- देवताओं को पकड़ सकता हूँ, गिरफ्तार कर सकता हूँ। बेटे, इन जादूगरियों को एक कोने में फेंक दे और असली अध्यात्म को समझ।
असली अध्यात्म क्या है? बेटे, असली अध्यात्म है- अपने आपका संशोधन। हमारे ऊपर जो कषाय- कल्मष चढ़े हुए हैं, अंगारे के ऊपर जो राख की परतें जम गयी हैं, उसी ने सारी की सारी मुसीबतें खड़ी कर दी हैं। अंगारे के ऊपर से राख की परतों को हटा दें, तो जलताहुआ अंगारा, जो भगवान का अंश है, भगवान का राजकुमार है। जो सिद्धियों का स्वामी है, शांति का स्वामी है, उभर कर सामने आ जायेगा। वस्तुतः यह सारी की सारी मुसीबतें किसी और ने नहीं बनाई हैं, विधाता ने बनाई हैं और वह विधाता तू ही है। नहीं साहब! भाग्यने बनाई हैं, तो बेटे, कमँ का नाम ही भाग्य है। कल का किया हुआ कर्म आज भाग्य बन जाता है। नहीं साहब! भाग्य में लिखा था। बेटे, तेरी बात को मैं मान सकता हूँ, लेकिन तू मेरी भी एक बात मान ले कि कल का किया हुआ कर्म आज का भाग्य है। नहीं साहब! भाग्यतो भगवान ने बना दिया है। बेटे, भगवान को न कोई जरूरत है और न भगवान ऐसा खराब है कि आपका भाग्य उसने खराब बनाया और मेरा अच्छा बनाया।
मित्रो! अगर भगवान ने ऐसा बनाया, तो उसके बराबर दुष्ट और उसके बराबर पक्षपाती कोई नहीं हो सकता, जो आपका भाग्य खराब कर दे और हमारा भाग्य अच्छा कर दे। क्यों? क्योंकि हम सब बराबर के थे, फिर आपका क्यों खराब किया और हमारा क्यों अच्छाकिया? बेटे, हम भगवान से मिलेंगे, तो उनसे पूछेंगे कि आपने यह क्या किया। आपने इनको अच्छी बुद्धि दी और हमको खराब बुद्धि दी। यह क्या किया आपने? बेटे, भगवान ऐसा नहीं कर सकता। आदमी इसका उत्तरदायी स्वयं है। अपने आपको पुरष्कृत करने कीविधा का नाम ‘‘अध्यात्म’’ है। अगर आप यह कर पायें और कोशिश करें और अपने आपका संशोधन करना शुरू करें। अपने गरेबान में मुँह डालें, अपने आपकी धुलाई और सफाई करें। अंदर जो गंदगी जमा हो गयी है, उसको निकालने की कोशिश करें, तो मैं यह कहसकता हूँ कि अध्यात्म आपके पास है।
मित्रो! मेरे गुरु ने मुझे जो दूसरा शिक्षण दिया, वह क्या था? जब मैं पन्द्रह वर्ष की उम्र का था, तब वे आये और उन्होंने मुझसे यह कहा कि तुम्हें किससे जप करना पड़ेगा? मैंने कहा कि जबान से जप किये जाते हैं। तो क्या तुम्हारी जबान इस लायक है कि उससे जपकिया जा सके? मैंने कहा कि मुझे क्या पता। उन्होंने कहा कि हर बंदूक से कारतूस नहीं चल सकती। बढ़िया वाली बंदूक में रख करके कारतूस चलायेंगे, तो वह चार फर्लांग तक निशाना लगाएगी। घटिया वाली बंदूक में रखकर चलायेंगे, तो निशाना जहाँ का तहाँ खत्म होजायेगा। आप अपनी जीभ को, जिसके द्वारा मंत्र जप करना चाहते हैं, उसे परिष्कृत करने की कोशिश कीजिए।
क्या- क्या करना पड़ेगा? इसके लिए उन्होंने दो बातें मुझे बताईं, वह मैं आपको भी बताता हूँ। कोई मंत्र जपना आपको न आता हो तो न सही न जप करें, लेकिन अपनी जीभ को शुद्ध कर डालें फिर आप देखें कि आपकी जीभ में वरदान देने की शक्ति आती है कि नहींआती। आप अपनी जीभ को दो प्रकार से धोइए जैसा कि मैंने अपनी जीभ को धोया है। चौबीस साल तक मुझे उन्होंने जौ की रोटी और छाछ खाने के लिए कहा और यह कहा कि भक्ष्य, अभक्ष्य का ध्यान रखना पड़ेगा। आहार, जो हम ग्रहण करते हैं, उसके द्वारा हमारारक्त बनता है, उसके द्वारा हमारी बुद्धि बनती है। आप बार- बार शिकायत करते रहते हैं कि गुरुजी! जप, ध्यान में हमारा मन नहीं लगता है। बेटे, मन क्या चीज है? पहले यह बताइये? अन्न का परिष्कृत रूप है मन। आपका अन्न कैसा है? महाराज जी! अन्न में तोमिर्च भी है, मसाले भी हैं। होटल में भी खाता हूँ। बेटे, यह तो सब उत्तेजक हैं। इनसे मन स्थिर नहीं हो सकता।
अच्छा तो महाराज जी! मन को साधने की विधा बता दीजिए? बेटे, मन को साधने की एक ही विधा है कि अपने अन्न को संशोधित कीजिए, अपने आहार को संशोधित कीजिए। आहार को संशोधित नहीं करेंगे, तो मन के स्थिर न होने की शिकायत आपकी जन्म भरबनी रहेगी। नहीं महाराज जी! विधि बता दीजिए? बता तो रहे हैं और कैसी विधि बता दें। कोई ऐसी नयी विधि बता दीजिए जो जादू जैसी हो। बेटे, हम जादू नहीं बताते। जादू वाली हमारी जीभ नहीं है। चौबीस साल तक अपनी जीभ को परिष्कृत करने के लिए जौ की रोटीऔर छाछ का आहार ग्रहण करने के लिए हमें कहा गया। सारे भक्ष्य, अभक्ष्य को दूर कर दिया गया और तब हमको जीभ का पुरस्कार प्राप्त हुआ। दूसरों का दिल दुखाना, दूसरों का अपमान करना, दूसरों को गुमराह करना, दूसरों को नीचे गिरावट में धकेल देना, दूसरों काउत्साह ठंडा कर देना हमने नहीं जाना और न सीखा। बेटे, ये हमारी जिह्वा के पाप हैं। इनसे हमारी जिह्वा जलती ही चली जाती है।
मित्रो! अगर जीभ को हम परिष्कृत कर लें तब? तब आपकी जीभ ही सरस्वती बन जाती है, क्योंकि सरस्वती वहीं रहती है। नहीं साहब! सरस्वती पीपल के पेड़ पर रहती है। हाँ बेटे, पीपल के पेड़ पर भी रहती है। वीणा बजाती है और गाती है। मोर पर सवार रहती है।पुस्तक लिए रहती है। हाँ बेटे, वह भी है। उसको भी हम मानते हैं, लेकिन हम यह कहते हैं कि आपकी सरस्वती आपके मुँह में बैठी है। इस सरस्वती को परिष्कृत कीजिए और फिर देखिए कि इसके द्वारा बोले हुए मंत्र, इसके द्वारा किये हुए जप, इसके द्वारा दिये हुएआशीर्वाद सफल होते हैं कि नहीं होते हैं। अरे अभागो। पहले अपनी जीभ को तो धोइये, उसे परिष्कृत कीजिए और फिर अपनी जीभ के चमत्कार देखिये।
मित्रो! हमारे गुरु ने मुझे यही बताया और कहा कि अपने जन्म- जन्मांतर के कुसंस्कारों को धो डालने के लिए, अपने चरित्र और व्यक्तित्व को परिष्कृत करने के लिए तुझे परिश्रम करना चाहिए। तप इसी का नाम है। तप भगवान पर दबाव डालने का नाम नहीं है।ब्लैकमेलिंग का नाम तप नहीं है। नहीं साहब! हम दबाव डालेंगे। नौ दिन तक हम खाना नहीं खायेंगे, नहीं तो हमारा काम बना दीजिए। आपका क्या काम बना दें? हमारा किरायेदार से मुकदमा चल रहा है, मकान खाली करवा दीजिए। अच्छा यह मामला है। हाँ साहब! तोआप दबाव डालते हैं ना? ब्लैकमेलिंग करते हैं ना? हमारा काम कर दीजिए नहीं तो हम रोटी नहीं खायेंगे। अच्छा, तो आप यही तप कर रहे थे? तप करने का आपका यही मतलब था न कि भगवान पर दबाव डालेंगे। भगवान को मजबूर करेंगे। बेटे, भगवान के आगेब्लैकमेलिंग नहीं चल सकती। भगवान के यहाँ केवल एक ही चीज ल सकती है और उसका नाम है- पात्रता! पात्रता विकसित करने के लिए हमारा ब्राह्मणत्व विकसित होना चाहिए।
मित्रो! ब्राह्मणत्व की दो मर्यादाएँ आपको मैं शुरू से ही बताता चला आया हूँ। एक तो यह कि अपना आत्म संशोधन करना बहुत आवश्यक है। आत्म संशोधन के लिए धुलाई और रंगाई के उदाहरण मैंने कितनी बार दिये हैं। कपड़ा रंगना है तो पहले उसे धोइये। अगरआपने कपड़ा धोया नहीं है, रंग नहीं आ सकता। हनुमान का रंग चढ़ायेंगे तो बिल्कुल चढ़ा लीजिए। संतोषी माता का रंग चढ़ायेंगे, तो बहु अच्छी बात है। महादेव जी का रंग हमको पसंद है। अच्छा, महादेव जी का चढ़ा दीजिए। नहीं साहब! हमको तो रामचंद्र जी का चढ़ानाहै। बिल्कुल अच्छी बात है, रामचंद्र जी का रंग चढ़ाइए, हमको कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन पहले पकड़ा तो धोइये। कपड़ा नहीं धोयेंगे, तो सारा रंग बेकार चला जायेगा। यह जप भी बेकार चला जायेगा। अपने चरित्र का, अपने व्यक्तित्व का संशोधन किये बिना अगर कोईभी जप आपको चमत्कार दिखा जाये, तब हमसे कहना।
मित्रो! गंदे आदमी, घिनौने, कमीने आदमी, दुष्ट आदमी यह चाहते हैं कि पूजा- पत्री के द्वारा, चीजों के प्रलोभन के द्वारा हम भगवान को प्राप्त कर लेंगे। यदि ऐसा रहा होता, तो फिर आदमी ने इन्हीं जालसाजियों के द्वारा भगवान का, देवी- देवताओं का अनुग्रहप्राप्त कर लिया होता। और अपनी जिंदगी को यथावत घिनौना बनाये रखा होता, तो फिर आदमी को संत क्यों बनना पड़ता? फिर आदमी को संयमी क्यों बनना पड़ता? फिर आदमी को सदाचारी क्यों बनना पड़ता? फिर आदमी को तपस्वी क्यों बनना पड़ता? फिरआदमी को भक्त क्यों बनना पड़ता? फिर तो आदमी अपनी दुकान करता रहता। पूजा- पत्री के खेल- खिलौने दिखा करके भगवान के वरदान और आशीर्वाद मिलते चलते जाते और उधर आदमी गंदा जीवनयापन भी करता रहता।
मित्रो! अगर अपने जीवन को परिष्कृत न करके देवी- देवताओं के ऊपर ही जाल फैलाते रहे, तो कोई काम नहीं बनेगा। आप अपने आपका संशोधन कीजिए। अपने आपको धोइये और धोने के पश्चात् देखिए कि भगवान की कृपा, भगवान का अनुग्रह अपने आप आताहै कि नहीं आता। बेटे, हमारे ऊपर भगवान का अनुग्रह अपने आप आता है कि नहीं आता, बेटे, हमारे ऊपर भगवान का अनुग्रह दिन- रात बरसता रहता है। हमको क्या करना पड़ता है? बेटे, हमको एक काम करना पड़ता है। जब बादल बरसते हैं, तो पानी जमा करने केलिए हमको गड्ढा बनाना पड़ता है। अगर हमारे पास गड्ढा नहीं होगा, तो बादलों का पानी हमारे पास आयेगा तो सही, पर हमारे घर में जमा नहीं हो सकता। पत्थरों की चट्टानें जो पहाड़ों पर जमी रहती हैं, वहाँ बादल बरसते रहते हैं, चट्टानों के ऊपर भी पानी बरसतारहता है, खेतों पर भी पानी बरसता रहता हैं, लेकिन चट्टानें कोई फायदा नहीं उठा सकतीं। पानी बरसता है? बिलकुल बरसता है, पर जो मुलायम जमीन है, वह फायदा उठा लेती है। वहाँ घास पैदा हो जाती है, और चीजें पैदा हो जाती हैं, लेकिन चट्टानों पर कुछ फायदानहीं होता। वे कोई फायदा नहीं उठा सकतीं।
मित्रो! अगर आपका मन चट्टान जैसा है, अगर आपका जीवनक्रम चट्टान जैसा हैं, तो मैं यह कहता हूँ कि मंत्र और भगवान का अनुग्रह प्राप्त करने के अधिकारी आप नहीं हो सकते। नहीं साहब! हमको तो स्वामी जी एक और बात बता रहे थे। स्वामी जी क्या बता रहेथे? बताइये। स्वामी जी यह कह रहे थे कि आदमी चाहे जैसा भी हो, दुष्ट हो, पापी हो, दुराचारी हो, चाहे जैसा भी हो, भगवान का नाम लेने से उसका उद्धार हो जाता है। कौन से स्वामी जी कह रहे थे, उनको पकड़ करके मेरे पास लाओ। वही स्वामी ब्रह्मानन्द जी कह रहेथे। अच्छा ब्रह्मानन्द जी क्या कह रहे थे, फिर से मुझे बता। स्वामी जी कह रहे थे—‘‘गणिका, गीध, अजामिल तारे, तारे सदन कसाई।’’ सब तार दिये। अच्छा, यों कह रहे थे ब्रह्मानन्द जी। अच्छा, चलिए एक बात बताइये, फिर मैं ब्रह्मानन्द जी की बात मान लूँगा किगणिका को भगवान ने तार दिया। यों तो गणिका का मतलब आम्रपाली भी हैं। और दूसरी गणिकाएँ भी हुई हैं। गणिका ने जब राम का नाम लिया, फिर उसने क्या नाचना, गाना जारी रखा? क्या वेश्यावृत्ति जारी रखी? नहीं महाराज! जिस दिन से उसने राम का नामलिया, उसके बाद कभी नहीं नाची! नाची हो तो बता? नहीं महाराज जी! फिर तो उसने वेश्यावृत्ति भी नहीं की। संत हो गयी, सो हो गयी। पहले उसने किया था, पर बाद में नहीं। ठीक बात है बेटे, मैं तेरी बात मान लूँगा।
इसी तरह पहले सूरदास की यही स्थिति थी, बेशक, परन्तु जब वे भगवान के चरणों में आये, भक्ति की ओर कदम बढ़ाया, तो फिर इसके बाद भी क्या उन्होंने वेश्यावृत्ति की? नहीं महाराज जी! फिर वे असली संत हो गये, गोस्वामी तुलसीदास जी बड़े कामुक थे।भगवान ने उनका उद्धार कर दिया। मान लिया बेटे, पर यह बता कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने जिस दिन से भगवान का पल्ला पकड़ा, उस दिन के बाद भी क्या उन्होंने कभी मक्कारी की? नहीं महाराज जी! नहीं की। अंगुलिमाल डाकू बड़ा हत्यारा था। लेकिन यह बताकि बुद्ध भगवान की शरण में आने के बाद क्या फिर से उसने डकैती डाली कि नहीं डाली। नहीं महाराज जी! फिर नहीं डाली। अच्छा यह बता कि वाल्मीकि जो था, बड़ा खराब आदमी था, उसका भी उद्धार हो गया। बेशक, लेकिन जिस दिन वह भगवान रामचन्द्र जी केचरणों में आया, फिर उसने डकैती डाली या नहीं? नहीं महाराज जी! उसके बाद में एक भी डकैती नहीं डाली। नहीं भाई! ऐसा करता रहा हो कि दिन में तो माला जपता रहा होगा और रात में डकैती करता रहा होगा? नहीं महराज जी! इसके बाद ऐसा नहीं किया।
अच्छा बेटे, तू क्या चाहता था? महाराज जी! मैं तो यही चाहता था कि घंटे- डेढ़ घंटे जब तक मैं पूजा की कोठरी में बैठा रहूँ, तब तक मैं ब्रह्मज्ञानी बन जाऊँ और बाहर निकलते ही असली रावण बन जाऊँ। पूजा की कोठरी में असली ऋषि बन जाऊँ, समाधि लगा लूँ।इसके लिए आप योगाभ्यास करवा लें, भजन करवा लें, प्राणायाम करवा लें। जो भी आप कहेंगे, एक घंटे में सब कर लूँगा। और तेईस घंटे? तेइस घंटे, महाराज जी! जितनी भी खुराफत हैं, उनमें से छोड़ूँगा किसी को भी नहीं। एक घंटे कर ले, यही तेरा भजन है। इस तरहतू अपने आपको बहका सकता है। अपने आपको बहकाने का तुझे हक है। अपने आपको तो तू धोखे में डाल सकता है, लेकिन भगवान को धोखे में नहीं डाला जा सकता। भगवान बड़ी सामर्थ्यवान सत्ता है।
मित्रो! मैं यह दावे के साथ कहता हूँ कि दुनिया के जितने भी तिजारत हैं, धंधे हैं, जितने भी रोजगार हैं, उन सबसे ज्यादा फायदे का रोजगार अध्यात्म है। इससे बड़ा कोई रोजगार नहीं है। बेटे, हमने यह रोजगार किया और मालामाल हो गये। कैसे हो गये? हमनेअध्यात्म का रोजगार किया है और हमारे बराबर फायदा किसी ने नहीं उठाया। हमारे घर वाले, खानदान वाले जब कभी मिलते थे, तो यही कहते थे कि इसमें धक्के खायेगा, करम पकड़ कर रोयेगा, भूखों मरेगा। सभी यही कहते थे। लेकिन अब जो मिलते हैं एकाधआदमी, अधिकाँश तो मर गये, दो- चार आदमी ही रह गये हैं जब कभी वे मिलते हैं? तो हम पूछते हैं कि क्यों भाई साहब! आप तो कहते थे कि करम पकड़ करके रोयेगा, दुःख पायेगा, भूखों मरेगा। समाज में दो कोड़ी का कोई नहीं पूछेगा। अब बताइये, आपने जोभविष्यवाणी की थी, वह हमारे ऊपर लागू हुई कि नहीं? नहीं साहब! आप पर लागू नहीं हुई। आपने असली अध्यात्म का धंधा किया है।
मित्रो! हमने असली अध्यात्म का धंधा किया है और असली अध्यात्म का धंधा करने के बाद हम मालामाल हो गये। आप में से हर एक आदमी को मैं यह कहता हूँ कि असली अध्यात्म का धंधा अगर आप कर सकते हों, तो यह लॉटरी लगाने और जुआ खेलने से भीज्यादा फायदेमंद है। यह सट्टेबाजी करने से भी ज्यादा फायदेमंद है। वह जेब काटने और चोरी करने से भी ज्यादा फायदेमंद है। इस दुनिया में जितने भी धंधे हैं, उन सबसे ज्यादा फायदेमंद अध्यात्म है, अगर आप सही तरीके से कर सकते हों तब। सही तरीका क्या होसकता है? कल हमने आपको बताया था—‘श्रद्धा’ एक और दूसरा हम आपको बताते हैं—प्रज्ञा और निष्ठा अर्थात् श्रेष्ठ जीवन और आदमी का उदात्त चिंतन। चौड़ावाला दिल, जिसको दानी दिल कहते हैं, उदार दिल कहते हैं। हमारे गुरु ने हमें यही सिखाया है।
मित्रो! अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए हमने अपने आपको धोबी की तरीके से धोया है और धुनिए की तरीके से अपने को धुना है। दूसरों की ओर हम बड़े मुलायम हैं। दूसरों को हम हमेशा क्षमा करना जानते हैं। दूसरों के प्रति हमारे मन में बहुत सहानुभूति है, परअपने तईं हमारे मन में जरा तीखापन है। जहाँ गलती दिखाई पड़ती है, वहाँ हम अपना प्राण लेने के लिए उतारू हो जाते हैं और अपनी जान देने के लिए उतारू हो जाते हैं। बदमाशी और मक्कारी हम नहीं कर सकते। अपने प्रति हमने तीखापन रखा है। जिस तरीके सेधोबी अपने कपड़े धोया करता है। पहले वह कपड़े को गरम पानी में डालता है। गरम पानी में सोडा डालता है, तेजाब डालता और भट्टी पर उसे खौलाता है। खौलाने के बाद बाहर निकालता है और कपड़े को फिर पत्थर पर रखकर पिटाई करता है। पिटाई करने के बाद फिर, पत्थर पर मारता है, फिर पानी में डालता है और आखिर में निचोड़ता हैं। टिनोपाल में डालता है और फिर गरमागरम धूप में सूखने के लिए डालता है। इतना करने के बाद में कपड़ा कितना सुन्दर हो जाता है। टिनोपाल करके, ब्लीचिंग करके धुला हुआ कपड़ा जबनिकलकर आता है जो कितना सुन्दर लगता है।
उसका रंग क्या है? रंग न सही, बिना रंग के भी काम चला सकते हैं। रंग से क्या मतलब हैं? भगवान का नाम नहीं भी सही, चलिए मैं तो अब यह भी कहता हूँ। तो भी आपका धुला हुआ कपड़ा इतना शानदार, इतना मजेदार होगा कि आप इसे पहन करके रंगे हुएकपड़े से भी ज्यादा अच्छी तरीके से बाजार में जा सकते हैं और सम्मान पा सकते हैं। अगर रंगा हुआ हो, तो फिर क्या कहना? बेटे, हमने आपको धुना है। किस तरह से? इस तरह से धुना है जैसे कि रुई धुनी जाती है। शुरू में रुई जरा सही होती है, लेकिन जब धुनी जाती हैतब फूल- फूल करके इतनी सारी हो जाती है। क्यों हो जाती है? धुनने से। इंदिरा गाँधी जब भरतपुर गयीं थीं, तो उन्हें एक लिहाफ भेंट किया गया था। कैसा लिहाफ था? उसमें एक पाव रुई थी और यह कहा गया था कि इसे ओढ़ करके भरी ठंड में सो जाया करिये, तो भीआपको ठंड नहीं लगेगी। उसमें एक पाव रुई थी, लेकिन आपके पास तो ढाई- ढाई किलो के लिहाफ होते हैं, तो भी ठंड दूर नहीं होती, पर एक पाव रुई से हो जाती है।
इसकी क्या वहज थी? लोगों ने पूछा—क्यों साहब! क्या बात थी? ढाई सौ ग्राम रुई में से इतना बड़ा लिहाफ कैसे तैयार हो गया? बेटे, इसको धुना गया था। छोटे से आदमी होकर, ढाई सौ ग्राम के आदमी होकर हमने अपने आपको ढाई किलो ग्राम से ज्यादा गर्मी देनेवाला बना लिया है। हमने अपने आपको धुना हैं। धुनने से क्या मतलब है? इसका मतलब है—चरित्र। चरित्र से क्या मतलब है? ब्राह्मणत्व। मित्रो! में वहीं आ गया जहाँ से बात शुरू की थी। ब्राह्मणत्व का अर्थ है—चरित्र। चरित्रवान अगर न हों, तो आपके मंत्र सार्थकनहीं हो सकते। अगर आपका हृदय उदार न हो और आप कृपण, स्वार्थी, संग्रही, लालची बने रहे, तो ध्यान रखना अध्यात्म आपके पास तक नहीं आयेगा और आपके मंत्र सार्थक नहीं हो सकेंगे।
गुरुवशिष्ठ एक बार बैठे हुए थे। राजा दशरथ ने कहा—गुरुदेव! हमारे कोई संतान नहीं है। एक से ब्याह किया, दूसरी से किया, तीसरी से किया। तीन शादियाँ कर लीं, परन्तु हमारे यहाँ कोई संतान हुई। अब आप ही बताइये। हमारे बुढ़ापे के दिन आ गये, हमारे वंशवृद्धि के लिए आपके अध्यात्म में यदि कोई विधि हो, तो आप ही संपन्न करा दीजिए; जिससे हमारे संतान हो जाय। हमने तो सारा इंतजाम और प्रयास कर लिया, लेकिन अब हमारी अकल काम नहीं करती है। उन्होंने कहा कि एक इंतजाम तो है। अगर वह प्रयोग पूराहो सकता हो, तो जरूर काम दे सकता है। गुरुदेव! वह प्रयोग क्या है? वह है—पुत्रेष्ठि यज्ञ। तो आप ही करा दीजिए? जो पैसा चाहिए हो, वह हम आपको दे देंगे। सामान चाहिए, तो सामान मँगा लीजिए। जो कुछ भी चाहे, आप इंतजाम करा लीजिए, पैसा हम दे देंगे।गुरुदेव वशिष्ठ चुप हो गये। उन्होंने कहा- राजन्! सवाल पैसे का नहीं है। सवाल वाणी का है जिससे मंत्र बोले जाते हैं। ऐसे एक ऋषि को मैं जानता हूँ जिनकी वाणी में दम है और उनका नाम है- शृंगी ऋषि। अगर वे रजामंद हो गये, तो मैं बुलाकर लाऊँगा।
शृंगी ऋषि को बुलाया गया। शृंगी ऋषि उस आदमी का नाम है जिसने जिंदगी में स्त्री की शक्ल तक नहीं देखीं। जिसने कल्पना तक नहीं किया कि दुनिया में स्त्री भी होती है क्या? ऐसा नाम था ऋषि का। शृंगी ऋषि ऐसे थे, जिनकी वाणी से निकला हुआ मंत्र चमत्कारीहोता रहा। एक बार तब चमत्कारी हुआ जब वे राजा दशरथ के यहाँ हवन कराने के लिए गये। यज्ञ में शृंगी ऋषि ने जब मंत्र बोले- ‘पुत्र यज्ञश्च’ के तो बच्चा पैदा नहीं हुआ वरन्, भगवान पैदा हुए। एक नहीं, चार- चार भगवान पैदा हुए। भगवान राम पैदा हुुए, भगवानलक्ष्मण पैदा हुए, भगवान भरत पैदा हुए और भगवान शत्रुघ्न पैदा हुए। चार भगवान पैदा हुए। शृंगी ऋषि की वाणी से।
मित्रो! मंत्र में शक्ति तब आती है, जब उसका बोलने वाला ठीक हो। बोलने वाले की वाणी में शक्ति नहीं होगी, तो मंत्र की कोई शक्ति काम नहीं करेगी। हम रोज देखते हैं कि देवी का पाठ करने वाले, चंडी का पाठ करने वाले, लक्ष्मी का पाठ करने वाले, अमुक का पाठकरने वाले पंडित यहाँ- वहाँ सब जगह मारे- मारे फिरते हैं। नवरात्रि में पाठ कराते हैं, फलाने का पाठ कराते हैं, फलाने का पाठ कराते हैं। इसका कुछ फल होगा? बेटे, कुछ फल नहीं होगा। क्यों? क्योंकि जो आदमी पाठ करने वाला है, उसके पास न संयम हैं, न ब्रह्मचर्यहैं, न शक्ति हैं, न उसके पास ब्रह्मवर्चस हैं, न ब्रह्मतेज हैं। उसके पास वाणी में बल ही नहीं है। केवल प्रोनाउन्सिएसन है। मंत्र जीभ से वहीं निकलता है। मंत्र प्राणों से निकलता है। मंत्र आत्मा से निकलता है। आत्मा और प्राणों से निकला हुआ मंत्र वाणी से होकर प्रकटतो होता हैं, जीभ से फैलता तो है, पर वहाँ से निकलता नहीं है। मंत्र निकलता है- आदमी के प्राणों में से। आवाज माइक में से निकलती तो है, पर वहाँ से प्रकट नहीं होती। प्रकट कहाँ से होती है? हमारे और आपके मुँह से प्रकट होती हैं और माइक में से फैलती है। प्राणकैसा होना चाहिए? धुला हुआ और परिष्कृत प्राण होगा, तो उससे निकलने वाला मंत्र भी शक्तिशाली होगा, चमत्कारी होगा।
मित्रो! शृंगी ऋषि के जीवन की एक घटना और भी है। कौन सही घटना? जब उनके पिता लोमष ऋषि तपस्या में बैठे ध्यानस्थ थे, तब राजा परीक्षित आये। उन्होंने उनके गले में मरा हुआ साँप डाल दिया और चले गये। लोमष ऋषि उप अपमान के सह करके बैठे रहे।जब उनका बच्चा शृंगी ऋषि आया, तो उसने देखा कि हमारे पिता जी समाधि में बैठे हुए हैं और किसी ने उनका अपमान करने के लिए उनके गले में मरा हुआ साँप डाल दिया है। उनके गुस्से का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने उसी गुस्से में हाथ में जल ले करके कहा कि यहमरा हुआ साँप जिंदा हो जाय और चल पड़े। पिता के गले में पड़ा हुआ मरा साँप जिंदा हो गया और चल पड़ा। उन्होंने कहा कि जिस किसी ने हमारे पिता का अपमान किया हो, यह साँप उसी को खोज निकाले और खोज करके एक सप्ताह के भीतर उसको काटकर जान सेमार दे। साँप सनसनाता हुआ चला गया और एक सप्ताह के भीतर राजा परीक्षित को काट खाया।
महाराज जी! यह हो सकता है? हाँ बेटे, हो सकता है। मंत्र की शक्ति से? हाँ बेटे, मंत्र की शक्ति से सब कुछ संभव है। लेकिन मंत्र की शक्ति अनुभव की शक्ति नहीं है अक्षरों की शक्ति नहीं हैं, वाणी की शक्ति नहीं है। मंत्र की यह शक्ति मनुष्य के चरित्र की शक्ति है।बारूद की शक्ति है- कारतूस। जब बारूद चलती है, तो उसमें बारूद की शक्ति नहीं चलती। उसमें चलती है आग की शक्ति। आग कहाँ से चलती है? उसकी टोपी से। कारतूस में एक छोटी सी टोपी लगी रहती है। जब घोड़ा दबाते हैं, तो उसमें से आग निकलती है। आग नहो, तो बारूद नहीं चलेगीं। कारतूस चलेगा? नहीं बेटे, कारतूस नहीं चलेगी। कारतूस खिलौना है। कारतूस को चलाने के लिए चिनगारी की जरूरत है। आग की जरूरत है। मंत्र को चलाने के लिए प्राण की आवश्यकता है और प्राण ऐसा होना चाहिए जो व्यक्ति के चरित्र केद्वारा और उदात्त जीवन के द्वारा विनिर्मित किया गया हो।
मित्रो! मंत्र के संबंध में एक और घटना मुझे याद आ गयी। राजा परीक्षित को लोमष ऋषि ने यह खबर भेज दी कि बेटे शृंगी ऋषि ने उसे शाप दे दिया है। उन्होंने संदेशवाहक से कहा कि राजा परीक्षित बड़ा पुण्यात्मा है। तुम जाना और उससे कहना कि हमारे बेटे का शापतो मिथ्या नहीं हो सकता। मरेगा तो जरूर। यह भी कह देना कि जितना समय बचा हैं, उसमें अच्छा काम कर लें। इस तरह राजा परीक्षित को खबर भेजी गयी। राजा परीक्षित को समझ में आ गया कि शेष दिनों का सदुपयोग भागवत कथा सुन कर करेंगे। परन्तु कथाकिससे सुनी जाय? भागवत को लिखने वाले कौन हैं? व्यास जी। उन्हें ही बुला लें। व्यास जी ने भागवत लिखी, इसलिए व्यास जी सुना देंगे तो काम चल जायेगा। राजा परीक्षित ने कहा कि नहीं, व्यास जी से काम नहीं चलेगा। मुँह से निकली हुई कथा हमें कोई फल नहींदेगी। तो किसको बुलाया जाय? व्यास जी के बेटे शुकदेव जी को बुलाया जाय। वही मुझे भागवत कथा सुना देंगे, तो मेरा उद्धार हो जायेगा।
यह सुनकर लोग अचंभे में रह गये। बाप की कथा से उद्धार नहीं होगा, लेकिन जो बाइस साल का हैं, उसकी वाणी से हो जायेगा। व्यास जी, जिसने भागवत संस्कृत में लिखी है, उसके मुख से नहीं सुनना चाहते और बेटा जो विद्यार्थी है, उसके मुख से सुनना चाहते है।यह क्या बात हुई। राजा परीक्षित ने कहा कि इस संबंध में एक घटना मुझे याद है। इन दोनों बाप- बेटों को एक बार हमने देखा था। व्यास जी एक बार तालाब आये और कुल्ला करने लगे। वहाँ जवान लड़कियाँ नहा रही थीं। तालाब में उस बुड्ढे को देखकर सब भाग गयींऔर सबने कपड़े पहन लिए और पेड़ के नीचे छिप गयीं। व्यास जी जब चले गये, तब शुकदेव जी आये। शुकदेव जी परमहंस थे। बाइस साल के थे और नंग रहते थे। कपड़ा नहीं पहनते थे, लंगोटी भी नहीं। नंग- धड़ंग रहते थे। वह तालाब पर आये और वहीं आ करके पानीपीने लगे, कुल्ला करने लगे और नहाने लगे। लड़कियाँ भी वहीं स्नान करती रहीं, क्रीड़ा- कल्लोल करती रहीं। उन्होंने कोई चिंता नहीं की। वे नहाती रहीं और शुकदेव जी स्नान करके चले गये।
राजा परीक्षित पेड़ के पीछे खड़े होकर चुपचाप यह सब दृश्य देख रहे थे। देवताओं की बच्चियाँ, देवताओं की महिलायें सरोवर में नहा रहीं थी। राजा परीक्षित ने पूछा—लड़कियों! यह क्या बात है? बुड्ढा आदमी, जिसके बाल सफेद हो गये हैं, दाँत उखड़ गये हैं, इतनाविद्वान है, ऋषि है। इसको देख करके तुम भाग गयी, कपड़े पहन लिए और छिप गयीं। लेकिन यह लड़का जो बाइस साल का है, जवान है, नंगा था और लंगोटी भी नहीं पहने था, उसको देख करके तुम भागी नहीं। क्या वजह हैं। उन्होंने कहा कि इनमें और उनमें फरक है।असली किस्सा आपको मालूम नहीं है। वे वह व्यास जी हैं, जिन्होंने अपने भाइयों की पत्नी से बच्चे पैदा किये। उन्होंने और किस्से सुनाये। वे वह व्यास जी हैं। और शुकदेव जी वह परमहंस हैं, जिन्हें स्त्री- पुरुष के भेद का ज्ञान नहीं है। इसलिए ये भागवत- कथासुनायेंगे। शुकदेव जी ने कथा कहीं और परीक्षित का उद्धार हो गया।
मित्रो! मैं क्या कह रहा हूँ? मैं वाणी के साथ चरित्र की बात कह रहा था। वाणी के साथ में उदात्त जीवन की बात कह रहा हूँ। उदात्त जीवन और चरित्र, इनको आप मिलायेंगे नहीं, तो यह कर्मकाण्ड हैं, खेल- खिलौने हैं, मन बहलाव हैं, तबियत का बहलाव हैं। देवताओं कोफुसलाने की विद्या है। इससे कुछ हाथ नहीं लगेगा।
हमारे जीवन का मूलमंत्र -- उदारता
मित्रो! मैंने यही किया। मेरे गुरु ने दो बातें बतायीं थीं। एक का नाम था— सज्जनता, जिसको हम उदारता कह सकते हैं, जिसको हम चरित्र निष्ठा कह सकते हैं। निष्ठावाला दूसरा चरण बताकर हमारे गुरुदेव चले गये। श्रद्धा, निष्ठा के अलावा एक बात उदारता वालीभी वे सिखा गये। उदार जीवन हमारा मूलमंत्र बन गया। बेटे, उदारता हमारे रोम- रोम में बसी हुई है। हम जो तप कमाते हैं, खर्च कर देते हैं। हमने अक्ल से जो कुछ कमाया है, अक्ल से जो कुछ भी लिखा है सारी जनता का स्वामित्व उसके ऊपर है। हमारा कोई कॉपीराइटनहीं है। अगर हमने अपनी लिखी हुई चीजों का कॉपीराइट लिया होता या अब इस समय भी हमारी जिंदगी के जो बचे हुए दिन हैं, उसमें हम किताबें लिखें और उन्हें अच्छे से अच्छे बुक सेलर को बेच दें, तो पंडित नेहरू जी को जो कॉपीराइट मिलता है, उनके बच्चों को, उनके घरवालों को मिलता है, उससे ज्यादा हमको और हमारे घरवालों को मिल सकता है। हमने अपनी अक्ल जनता को बेच दी है। हम उदार हैं। हमारे पास जो कुछ भी था, हमने यह कोशिश की है कि यह लोगों के काम आये। हमारे काम न आये।
मित्रो! हमारापन नाम की कोई वस्तु हमारे पास नहीं है। हमारापन नाम का कोई स्मरण ध्यान में नहीं आता। हमें भी कुछ मिलना चाहिए, यह कभी ध्यान ही नहीं आता। बेटे हमारी मनःस्थिति वही है, जो बुद्ध भगवान की थी। बुद्ध भगवान से लोगों ने यह पूछा किआप तो बैकुंठ जायेंगे, मरते समय मुक्ति में जायेंगे, तो उन्होंने कहा कि नहीं, न तो हम बैकुंठ में जायेंगे और न मुक्ति में जायेंगे। हम हर बार जन्म लेंगे और हर बार मृत्यु का वरण करेंगे। जब तक इस दुनिया में एक भी आदमी बंधन में बँधा हुआ है, तब तक हममुक्ति नहीं लेना चाहते। सारे मनुष्य जब मुक्ति में चले जायेंगे, तब आखिरी आदमी हम होंगे, जो मुक्ति में जायेंगे। सबका उद्धार कर देंगे, सबको निवृत्त कर देंगे, तब हमारी निवृत्ति होगी। यह है उदारता। उदारता जहाँ होगी वहाँ भगवान की उदारता आयेगी। गंगा धरतीपर बहीं। गंगा ने अपने व्यक्तित्व को, अपने जल को सारी दुनिया के लिए समर्पित कर दिया। फिर हिमालय ने कहा कि समस्त स्रोतों का जल हम आपको समर्पित करते हैं, आपको मिलता हुए चला जायेगा। हमने अपने आप को बिखेरा और भगवान ने हमारे ऊपरअपने को बिखेर दिया। यही है हमारे जीवन की कहानी।
मित्रो! गायत्री महामंत्र की साक्षी के बारे में कहा जाता है कि उसमें सात गुण हैं, गायत्री महामंत्र में सात गुण हैं— ‘‘स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्ताम् पावमानी द्विजानाम् आयुः प्राणं प्रजां पशुम् कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् मह्यम दत्वा ब्रजत् ब्रह्मलोकम्॥’’
यह जो सात चीजें बताई गयी हैं, सातों फल गायत्री मंत्र देता है। यह सातों की सातों बातें सही हैं और मिथ्या भी हैं। मिथ्या किसके लिए हैं? आप सबके लिए मिथ्या हैं। आपको यह एक चीज भी नहीं देंगी। आपका एक घंटे का समय खराब करा लेंगी गायत्री माता।चवन्नी महीने की धूपबत्ती खर्च करा लेंगी। सवा रुपये की मंत्र लेखन की एक कापी खर्च करा लेंगी और ढाई रुपये महीने का चाकू मारेंगी और एक घंटा समय खराब करा लेंगी। बेटे, कोई फायदा हुआ? कोई फायदा नहीं हुआ। कोई फायदा हो सकता है? हाँ हो सकता है।हमारे ऊपर सातों की सातों बातें लागू होती हैं और वो सही हैं। अथर्ववेद ने गायत्री मंत्र के बारे में सात लाभ बताये हैं। पहला- आयु अर्थात् दीर्घ जीवन प्रदान करती है। हाँ बेटे, हमारा जीवन बहुत लंबा है। क्या जीवन है? कहने को तो सत्तर साल होने को आते हैं, पर असलमें हमारे भीतर पाँच आदमी काम करते हैं और पाँच आदमी मिला करके हम एक आदमी हैं। हम ३५० वर्ष के आदमी हैं, ३५० वर्ष कोई आदमी जिये और उतने समय में जो काम हो सकता है, उतना हमने एक जीवन में कर डाला है। हमारा एक आदमी लिखता रहता है।जितना हमने लिखा है, वह बहुत ज्यादा है। व्यास जी ने अठारह पुराण लिखे हैं। व्यास जी ने वेद नहीं लिखे, केवल पुराण लिखे। बेटे, हमने अठारह पुराणों के अनुवाद किये हैं। हमने वेदों के अनुवाद किये हैं, जो व्यास जी ने नहीं लिखे। सारी जिंदगी भर की कमाई उनकेपुराण थे। हमारी जिंदगी की कमाई उनसे ज्यादा है।
हमारे पाँच शरीर
एक आदमी ने पचास वर्ष की जिंदगी में आठ वर्ष तक लिखा, बहुत लिखा। यह हमारे आठ वर्ष से कम का लेबर नहीं है। हमारा एक आदमी बिल्कुल लिखता रहता है और दूसरा कोई काम नहीं करता। हमारा एक आदमी संगठन करता रहता है। आदमी के भीतर पाँचकोष होते हैं। हमारा एक कोष दूसरा काम- संगठन का करता है। कितना बड़ा संगठन है? मैं सोचता हूँ कि हिन्दुस्तान में यह पहले नम्बर का संगठन है। कहने को तो राजनैतिक पार्टियाँ अपने- अपने संगठन में बुलाती हैं, एक दिन बनाती हैं और दूसरे दिन खत्म हो जातीहैं। कांग्रेस पार्टी की मेम्बरशिप खत्म हो गयी, तो जनता पार्टी की मेम्बरशिप चालू हो गयी। अभी जनता पार्टी की मेम्बरशिप चालू है। कोई और पार्टी अगले साल तक आ जायेगी, तो वह खत्म हो जायेगी। बेटे, इनका कोई ठिकाना नहीं है। हमने इतना बड़ा संगठन बनाया, जो हिन्दुस्तान से लेकर सारे संसार में फैला हुआ है। सारे संसार में यह सबसे बड़ा संगठन है। संगठन बनाने में कितनी शक्ति खर्च होती है, आप समझते नहीं। हमारे एक आदमी ने संगठन बनाया, संगठन को कायम रखा। संगठन को धागे में पिरोया। अच्छे आदमियोंको चुन- चुन करके धोया है और धो करके धागे में पिरोया है। एक आदमी का यह जिंदगी भर का काम है। यह काम एक आदमी मुश्किल से कर सकता है, पर हमने पचास साल में कर लिया है।
मित्रो! हमारा एक शरीर इतने बड़े कुटुम्ब की देख- भाल करता है। हमने इतना बड़ा कुटुम्ब पकड़ लिया है। इस कुटुम्ब के बच्चों की देख−भाल, रख- रखाव करनी पड़ती है। इन बच्चों के लिए गुब्बारे लाने पड़ते हैं, टॉफी, चॉकलेट लाने पड़ते हैं। इनको फीस देनी पड़तीहै। इनको खिलौने लाने पड़ते हैं। ये बच्चे जब मुसीबत में आ जाते हैं, तब हमारी ओर आँखें पसार कर देखते हैं। हमारा पिता समर्थ है और हमारा बाबा समर्थ है, हमारी यह अवश्य सहायता करेंगे। बेटे, हम बच्चों को कैसे नाउम्मीद कर दें, हम नहीं कर सकते। आपकोहम धमकाते तो कई तरीके से हैं कि आपको स्वावलम्बी होना चाहिए। आप में भिक्षावृत्ति नहीं होनी चाहिए। पर हम क्या कर सकते हैं? बालक तो बालक हैं और बुजुर्ग- बुजुर्ग हैं। बुजुर्ग के भीतर शालीनता होती है और जिम्मेदारी होती है। बच्चे की सहायता करना उनकाकाम है। आपकी हम सहायता करते हैं। सहायता के लिए लाखों आदमी आँखों में आँसू भर करके हमारे पास आते हैं। हमसे देखा नहीं जाता। हमारे पास जो कुछ भी होता है, उस कमाई में से हम उनकी सहायता करते हैं।
मित्रो! सहायता न करें, ऐसा हमसे नहीं हो सकता और न आज तक हमने ऐसा कभी किया। अपनी सामर्थ्य के अनुसार हमने हर किसी को दिया है। किसी आदमी को हमने खाली हाथ नहीं जाने दिया, अपने दरवाजे पर से। हमारे हिस्से में थोड़ा आया होगा, ठीक है, पर उसका प्रारब्ध ज्यादा फायदा न कर सका होगा, यह भी हो सकता है। हर एक की मनोकामना पूरी करने में हम समर्थ न हो सके होंगे, यह भी सही है। लेकिन बेटे, हमने दिया हर एक को है। ऐसा हमसे कोई नहीं कह सकता कि हमें गुरुजी से कुछ नहीं मिला। बेटे यहहमारा ईमान और हमारा भगवान है। कोई भी क्यों नहीं, जो कुछ उम्मीदें ले करके आया था, उसने चाहे कुछ कहा हो, या न कहा हो, हमने हर एक व्यक्ति की सहायता की है।
तपस्या की पूँजी से मिलते हैं आशीर्वाद
मित्रो! सहायता देने के लिए हमको क्या करना पड़ता है? हमको तप की पूँजी इकट्ठी करनी पड़ती है। इकट्ठी न करें तो हम कोई सहायता नहीं कर सकते। गुरुजी! आप जबान से कह दीजिए। बेटे, जबान से कहने से कोई फायदा नहीं हो सकता। जबान से कहने से कोईलाभ नहीं हो सकता। उनको अपना पुण्य देना पड़ता है। एक सौ ग्राम जलेबी एक रुपये की आती है। आपके पास पैसा हो तो आप अपने पास से खरीद लें। न हो तो हमसे ले लेना। हम एक रुपया दे देंगे, सौ ग्राम जलेबी खा लेना। नहीं साहब! दुकानदार तो फोकट में देता है।बेटे, फोकट नाम की कोई चीज दुनिया में नहीं है। आपकी हम सहायता करते हैं। इसके लिए हम अपना तप देते हैं, पुण्य देते हैं। तप और पुण्य अगर हम इकट्ठा न करें, तो हम आपको कहाँ से देंगे। रामकृष्ण परमहंस को गले का कैंसर हो गया था, क्योंकि उन्होंने अपनेक्रेडिट बैलेन्स का हिसाब नहीं रखा। लोगों को क्या दे रहें हैं? हमारे पास जमा भी है कि नहीं? जमा था नहीं, देते हुए चले गये। फिर कहाँ से चुकता होगा? उनको नीलाम होना पड़ा और गले में कैंसर हो गया।
मित्रो! हमारे पास तप की पूँजी न हो और हम आपको आशीर्वाद दें, वरदान दें, तो वह या तो मिथ्या जायेगा, या फिर हमको उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। बेटे कीमत चुकाने के लिए हमारा एक आदमी तप करता रहता है, निरंतर तप करता रहता है। आठ घंटे हम तपकरते रहते हैं और तप करके हम जो कुछ भी कमाते हैं, उसमें से एक दाना, एक चप्पा, एक राई रत्ती अपने लिये बचाये रखने की अपेक्षा सब कुछ आपके लिए खर्च कर देते हैं। यह नहीं सोचते कि इससे हमारा भला हो जायेगा। आपका भला है, तो यही हमारे लिए भला है।आपकी खुशी है, तो यही हमारी खुशी है। आपकी उन्नति है तो यही हमारी उन्नति है। बेटे, हमारा एक आदमी उसी शोध कार्य में लगा रहता है, जहाँ देवात्माएँ रहती हैं। हमारा एक आदमी देवात्माओं के पास ही रहता है। हिमालय में ही रहता है। वहीं उसकी बातचीत चलतीरहती है। वहीं उसकी चर्चाएँ चलती रहती हैं। गुरुदेव ने बुलाया भी था। हमारा एक आदमी लगातार वहीं रहता है। वहीं तप करता रहता है। वहीं उनका देख−रेख में तप करता रहता है। शक्ति इकट्ठा करता रहता है। अनुसंधान करता रहता है। सारे काम हम पाँच होकरकरते रहते हैं। हम आपके पास भी बैठे हैं और पाँच आदमी होकर अलग- अलग क्षेत्र में काम भी करते रहते हैं।
मित्रो! विक्रमादित्य के पास पाँच ‘वीर’ थे। अलाउद्दीन के पास ‘जिन्न’ थे। सुकरात के पास ‘डेविल’ थे, दैत्य थे। हमारे पास भी हैं और उन पाँचों के लेबर को मिला करके, पाँच पाण्डवों का श्रम मिला करके जिस तरीके से एक श्रम बनता था पाँडवों का, ऐसे ही हमारेपाँच व्यक्तित्वों को मिला करके हम जिंदगी जीते हैं। साढ़े तीन सौ (तीन सौ पचास) वर्ष की जिंदगी हमने जी ली। कैसे जिंदगी जी ली? गायत्री मंत्र ने कहा था—गायत्री साधक दीर्घजीवी होता है। और हम दीर्घजीवी हैं। सत्तर वर्ष के होते हुए भी हमने साढ़े तीन सौ वर्ष जीलिया। हमने इतना काम कर लिया जितना कि तीन सौ पचास वर्ष जिंदा रह करके हम कर सकते थे। इसलिए हमारी आयु सत्तर साल नहीं है, वरन् साढ़े तीन सौ साल है।
प्राण का अर्थ -- हिम्मत
आयु के बाद आता है ‘प्राण’। प्राण किसे कहते हैं? प्राण हिम्मत को कहते हैं। आप में हिम्मत है? बेटे, हमारे अंदर बहुत हिम्मत है। हमारे अंदर इतनी हिम्मत है कि हम जमाने की बहती हुई हवाओं को चुनौती देते हैं और यह कहते हैं कि हम आपको लौटा देंगे और हमआपको पलट देंगे। ‘‘जहाजों को पलट दे जो, उसे तूफान कहते हैं। जो तूफानों से टकराये, उसे इंसान कहते हैं॥’’ तूफानों से हम टक्कर मारते हैं। अवांछनीयता के विरुद्ध, अनैतिकता के विरुद्ध, मूढ़मान्यताओं के विरुद्ध हम खड़े हो जाते हैं। आप देखते नहीं है किदुनिया में चारों ओर से इनकी कितनी तेज धारायें बहती हुई चली आती हैं और हम अपनी सींग पैनी करके खड़े हो जाते हैं और यह कहते हैं कि हम आपको पलट देंगे। किससे पलट देंगे? बेटे, हमारे पास बड़ी हिम्मत है। टिटहरी के पास हिम्मत थी और जो सीना खोलकरखड़ी हो गयी थी कि हम समुद्र को सुखा कर रहेंगे। उसकी छोटी सी हस्ती समुद्र को तो नहीं सुखा सकी, पर महर्षि अगस्त्य की सहायता से सुखा लिया और अपना उद्देश्य पूरा कर लिया, बेटे, हम टिटहरी की जरूरत, टिटहरी की ताकत, टिटहरी का मनोबल, टिटहरी केप्राण को समझते हैं।
साथियो! प्राण कहते हैं- हिम्मत को। गायत्री मंत्र आयु और प्राण देता है और हमको प्राण मिला हुआ है। हमने जिंदगी भर अन्याय से, अवांछनीयता से, मूढ़- मान्यताओं से, कुरीतियों से लोहा लिया है और जब तक हम जिंदा रहेंगे लोहा लेते रहेंगे। परशुराम के तरीकेसे हम कुल्हाड़ा अपने सिर पर रखकर चलते हैं। द्रोणाचार्य के तरीके से हम एक हाथ में वेद और एक हाथ में धनुष- बाण लेकर चलते हैं। हाथ में वेद लेकर चलते हैं। हम बड़ी हिम्मत से चलते हैं। यह गायत्री मंत्र का प्राण है।
गायत्री मंत्र का ‘आयुः प्राण’ के बाद तीसरा अनुदान- वरदान है- प्रजाम्। संतानें बेटे, हमारी बहुत हैं। इतनी संतानें हैं कि कुछ पता नहीं चलता। कभी मालूम पड़ता है कि पाँच लाख हैं। कभी अन्दाजा लगाते हैं, तो लगता है कि ये पचास लाख से कम नहीं हैं। रावण केपास एक लाख पूत, सवा लाख नाती अर्थात् दो लाख संतानें थीं। और बेटे, हमारे पास पचास लाख आदमी हैं। सारे के सारे हिन्दुस्तान से लेकर सारी दुनिया में हमारी संतानें फैली हुई हैं। ‘आयुः प्राणं, प्रजाम्, कीर्तिम्- अर्थात् चौथा है—कीर्तिम्। कीर्तिम्- बेटे हमारीहिन्दुस्तान तक ही नहीं रही’ हम हिन्दुस्तान को पार कर गये। सारे संसार भर के किसी विश्वविद्यालय में जाइये और यह मालूम कीजिए की दो काम किसने किये? एक तो हिन्दू धर्म का आरंभ से लेकर अंत तक प्राचीनकाल के ऋषियों का अनुवाद किसने किया है? सारी दुनिया हमको जानती है। दुनिया का हर विश्वविद्यालय हमको जानता है कि आचार्य जी एकमात्र ऐसे आदमी हैं जिन्होंने अध्यात्म को विज्ञान से मिला देने का अचंभा कर दिखाया है।
विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय
मित्रो! अध्यात्म और विज्ञान दोनों एक दूसरे के विरोधी रहे हैं। इन दोनों को हम मिलाते हैं। यह एक नयी धारा है, जो संसार के लिए अचंभा है। आप तो समझते नहीं हैं। आप तो केवल इतना ही समझते हैं कि गुरुजी पैर छूने और वरदान देने की मशीन हैं। रेलवे स्टेशनपर वजन तौलने की एक मशीन खड़ी होती है। दस पैसे उसमें डालिये और खट् से टिकट आ गयी। पैर छूइए और छः केले निकालिए। गले में माला पहनाइए, मनोकामना पूरी करा ले जाइये, ये आचार्य जी हैं। हाँ साहब! ये आचार्य जी हैं। जैसा तू घटिया और निकम्माआदमी है, वैसे ही मुझे भी तूने बना दिया। मुझे भी तूने संतोषी माता बना दिया। तू न अपना मूल्य जानता है और न अध्यात्म का मूल्य जानता है। न हमारा मूल्य जानता है, न हमारे क्रिया- कृत्य का मूल्य जानता है। न हमारे जीवन का उद्देश्य जानता है। बेटे, हमारायश बहुत बड़ा है। हमारा यश जिंदा रहेगा। कब तक जिंदा रहेगा, हम नहीं जानते, लेकिन हमारा यश जिंदा है और यह जिंदा रहेगा। कार्लमार्क्स, जिसने साम्यवाद बनाया, उसका यश जिंदा रहेगा। रुसो का यश जिंदा रहेगा, जिसने डेमोक्रेसी को जन्म दिया। बेटे, हमारा यशभी जिंदा रहेगा, क्योंकि हमने संसार को विज्ञान और अध्यात्म की नयी दिशाधारा दी है। नये युग के लिए क्या विचारणा आनी चाहिए, यह हमने नये सिरे से दी है। बेटे हम भी जिंदा रहेंगे और हमारा यश भी जिंदा रहेगा।
‘कीर्तिम्’ के बाद आता है ‘द्रविणम्’- अर्थात् धन। बस, महाराज जी। आपकी यही बात ठीक है और सब बातें बेकार हैं। बेटे, हमारे पास गायत्री माता ने बहुत धन दिया है। कितना धन दिया है? अब सारी बातें तो आपको नहीं बताते, पर आप देख लें कि हम अपने जिनमकानों में रहते रहे हैं, उन मकानों की कीमत क्या है? जिन मकानों में आदमी रहेगा, सारा पैसा तो उन मकानों में लगता नहीं है। कुछ और भी तो रखता है किसी कार्य- व्यापार को, रहने को। अब आप देखिये, हमारी गायत्री तपोभूमि दस लाख से बनी है। यह शांतिकुंजदस लाख से बना है। और ब्रह्मवर्चस दस लाख से बना है। और यह गायत्री नगर? गायत्री नगर तो बेटे सबसे ज्यादा में बना है। कितने दाम का बनेगा? इसमें पचास लाख भी लग जायँ, तो अचंभा मत मानना।
तो गुरुजी! यह सब कहाँ से आता है? बेटे, हमारा गुरु दो बातें कह गया था। एक तो यह कि लोगों के सामने हाथ मत पसारना। अभी तक तो हमारी शरम रह गयी है और जब तक हम जिंदा हैं, तब तक शायद यह शरम बनी रहेगी। हमने कभी किसी आदमी से नहीं कहाकि हमको पैसे की जरूरत हैं और हमको दे जाइये। बेटे, हमने कभी किसी से नहीं कहा। जुगल किशोर बिड़ला हमारे बहुत घने मित्रों में से थे। जब दिल्ली से मथुरा आते थे, तो टेलीफोन करवाते थे। कहते थे कि आचार्य जी से पूछना, उनके पास टाइम है क्या? जिसतारीख को मिलेंगे, उसी तारीख को मैं आऊँ। एक दिन- पूरे दिन हम बात करते थे। पूरे छः- सात घंटे उन्हीं के साथ रहते थे। बहुत सारी बातें करते थे। एक बार उन्होंने यह पूछा कि आचार्य जी! आपका यह काम कैसे चलता हैं। आप इतनी सारी संस्थाएँ लिए बैठे हैं, उनकाखर्च किससे चलता है? हमने कहा कि बिड़ला जी! आप यह बताइये कि इतने सारे आपके मिल चलते हैं, आपका काम कहाँ से चलता है? उन्होंने कहा कि हमारा तो इन्तजाम भगवान् से हो जाता है। उसी भगवान् से हमारी भी जान- पहचान है। हम अपना इंतजाम करलेंगे। आप तो हमारी चिंता मत करना पैसों के बारे में, क्योंकि जो आपके इतने मिलों के कर्मचारियों के लिए दे सकता है, वह हमको भी दे सकता है। इस पर हमारा बड़ा विश्वास है। विश्वास ही नहीं है, हमारा तो दावा भी है और अधिकार भी है। आपका तो अधिकार भीनहीं है, हमारा तो अधिकार भी है।
इसलिए मित्रो! कितना पैसा आ जाता है। हमारे पास बहुत पैसा है। महाराज जी! कितना है? बेटे, आपको यह बात बता देंगे, तो आप इन्कम टैक्स वालों के यहाँ रिपोर्ट कर देंगे। छापा पड़ जायेगा। बहुत पैसा है, बस- इतना ही समझ जाइये। पैसे की मत पूछिये। अबआता है—आयुः, प्राणं, प्रजां, पशुं कीर्तिम्, द्रविणं, ब्रह्मवर्चसम्। सातवाँ वरदान गायत्री माता एक ही देती हैं और उसका नाम है—‘ब्रह्मवर्चस’। ब्रह्मवर्चस कैसा है? वह ब्रह्मवर्चस जिसकी स्थापना कराने के लिए हम आपको ले जाते हैं, पूरा कराने के लिए आपको लेजाते हैं। यह वह ब्रह्मतेज है, जो हम अपने भीतर पैदा करने के बाद, दीपक जलाने के बाद यह कोशिश करते हैं कि औरों के दीपक जलाएँ। ‘ब्रह्मवर्चस’ गायत्री मंत्र का आखिरी वाला सातवाँ वरदान है। यह सातवाँ वरदान जीवन के इन अंतिम दिनों में हमने प्राप्त करलिया। इसे प्राप्त करने के बाद हम इसको दूसरों को देना चाहते हैं, बिखेरना चाहते हैं। इसलिए उद्घाटन शिविर में हमने आपको बुलाया है। गायत्री मंत्र, तीन पैर वाली गायत्री है—श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा। चरित्र, भावना और विचारणा। विचारणा, भावना और क्रिया। सत्कर्म, सद्भाव और सद्ज्ञान। इन तीनों का समन्वय अगर आप कर सकते हों, तो मैं आपको वरदान देता हूँ और आशीर्वाद देता हूँ। और यह कहता हूँ कि आपको भी गायत्री मंत्र का इसी तरीके से लाभ मिल सकता है, जैसे कि मुझे लाभ हुआ। इन्हीं शब्दों के साथ आज की बातमैं समाप्त करता हूँ।
॥ॐ शान्तिः॥