उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य, धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो ! भाइयो !!
वसंत पर्व के समय पर हमारी यह शिविर-शृंखला जिस उद्घाटन-प्रयोजन के लिए चल रही है, उसमें सम्मिलित करने के लिए चल रही है, उसमें सम्मिलित करने के लिए आपको दूर-दूर से बुलाकर क्यों कष्ट दिया, आइए जरा इस पर विचार करें। इस समय इधर तीन कार्य चल रहे हैं, जिनमें सम्मिलित होने के लिए आप लोगों को बुलाया गया है। यह तीन कार्य हैं—(१) ब्रह्मवर्चस का उद्घाटन (२) प्रज्ञामंदिर का उद्घाटन और (३) गायत्री नगर का उद्घाटन। आँख से देखने पर यह तीनों ही चीजें बहुत छोटी मालूम पड़ती हैं, लेकिन अगर आप विवेक की आँख से देखे तो इनमें कायाकल्प करने वाले और व्यक्ति को बदल देने वाले सारे के सारे तत्व मौजूद हैं, भले ही बाहर से देखने में ये छोटी-छोटी प्रतीत होती हों। इनमें से एक ब्रह्मवर्चस् आश्रम का निर्माण है, जो बाह्य दृष्टि से एक मंदिर जैसी चीज है, जिसे बिलकुल एक सामान्य-सा निर्माण कहा जा सकता है, पर भीतर की दृष्टि से यह बहुत बड़ी एवं अभूतपूर्व बात है। यह इस बात का एक प्रतीक है कि उलट-पुलट करने वाली कोई बहुत बड़ी चीज आने वाली है। मनुष्यों को दिशा देने वाली कोई नयी चीज उत्पन्न होने वाली है।
प्रतीक किसे कहते हैं? प्रतीक बेटे, उसे कहते हैं जैसे कि सम्राट जार्ज पंचम जब इंग्लैण्ड की गद्दी पर बैठे थे, तब हमको बचपन की यह कहानी याद है कि उनके हाथ में एक चाँदी की छड़ी या डण्डा रहता था। लोगों ने जब उनसे पूछा कि यह डण्डा किस काम आता है तो उन्होंने कहा कि यह राजसत्ता का प्रतीक है। हम सम्पूर्ण राष्ट्रमण्डल के बादशाह हैं। उसका यह प्रतीक है—रोल। रोल को लिए बिना वे गद्दी पर नहीं बैठ सकते थे। इसी तरह हिन्दुस्तान की राजसत्ता जब ट्रांसफर हुई थी और अँग्रेज सरकार अपना शासन हिन्दुस्तान की सरकार को देकर गयी थी तो क्या चीज देकर गयी थी—फाइलें—नहीं? तब लार्ड माउण्टबेटन ने राजगोपालाचार्य को गवर्नर बनाया था और उनके हाथ में एक रोल थमा दिया था। यह रोल या डण्डा क्या है? यह हिन्दुस्तान के शासन की बागडोर का प्रतीक है, सिम्बल है। वह सिम्बल हमें सौंप दिया गया और किलों पर से यूनियन जैक उतारकर तिरंगा झंडा फहरा दिया गया। तिरंगा हो या यूनियन जैक, ये प्रतीक हैं। यूनियन जैक पर जो तिरछी नीली और लाल लकीरें बनी हुई थीं, वे अँग्रेजी शासन की प्रतीक थीं और तिरंगा हिन्दुस्तान के शासन का प्रतीक है, जिसमें तीन पट्टियाँ लगा दी गयी हैं। इनमें एक पट्टी शौर्य और साहस की प्रतीक है, दूसरी सादगी की और तीसरी श्रम की, समृद्धि की प्रतीक है। तीनों प्रतीकों से तिरंगा झण्डा बना दिया गया है। प्रतीक सबमें माने जाते हैं और जब तक प्रतीक-पूजा भी कायम रहेगी। मुसलमान प्रतीक-पूजा को नहीं मानते हैं, लेकिन ‘संगे अवसद’ जो काबा शरीफ में एक काले रंग का पत्थर रखा हुआ है, प्रत्येक मुसलमान जब वहाँ हज यात्रा के लिए जाता है तो उसे उस काले पत्थर का चुम्बन लेना पड़ता है—‘बोसा’ लेना पड़ता है। जो उसका बोसा नहीं लेता उस व्यक्ति की जियारत कबूल नहीं मानी जाती है। यह क्या है? प्रतीक है।
आइए हम और आप अब प्रतीक की उस गहराई में प्रवेश करें, जिसके लिए उक्त तीनों प्रतीक बनाये गये हैं। जीवन के अन्तिम दिनों में भगवान ने महाकाल ने त्रिपदा गायत्री ने तीन महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ प्रतीक रूप में हमारे मजबूत कंधों पर डाल दी हैं और हमने आपको बुलाया है कि आइए इस सेतुबन्ध को बाँधने में हम और आप मिल-जुल कर काम करें, गोवर्धन पहाड़ को मिलजुल कर उठाएँ। इसी के लिए आपको इस उद्घाटन सत्र में बुलाया गया है। बेटे यह उद्घाटन नहीं, वरन् एक प्रकार की प्रतीक-पूजा है। इस प्रतीक-पूजा के पीछे जो उद्देश्य काम करते हैं और जिसके लिये हम व्याकुल हैं और सारा श्रम, सारी अकल और सारे मनोयोग के आधार पर उनको पूरा करने में लगे हुए हैं, उसमें हम आपको भी दावत देते हैं कि इनके पीछे जो विचारणाएँ काम करती हैं आइए उसको पूरा करने में मदद कीजिए।
ब्रह्मवर्चस क्या चीज है? बेटे, ब्रह्मवर्चस एक फैक्ट्री है, एक कारखाना है, एक भट्टी है। इस भट्टी में क्या होगा? गलाई और ढलाई। भट्टियाँ कई तरह की होती हैं। कहीं काँच की भट्टी है तो कहीं लोहे की भट्टी है, तो कहीं अमुक भट्टी है, लेकिन हमने जो भट्टी बनाई है उसमें हम गलाई और ढलाई का काम करेंगे। इस कारखाने में हम दो चीज तैयार करेंगे—एक तो ताकत और दूसरी बिजली, जिसके आधार पर नये युग का ढाँचा खड़ा होगा। प्रत्येक मशीन-प्रत्येक क्रिया किसी न किसी ताकत से चलती है। कोई भी तंत्र किसी न किसी ताकत से घुमाया जाता है। ताकत न हो तो वह चलेगा ही नहीं। जिस ताकत के द्वारा नये युग के निर्माण करने का तंत्र चलने वाला है, ‘ड्रिलिंग’ मशीन जिसके द्वारा जमीन में सुराख किया जाने वाला है—यह किस ताकत से चलेगी? बेटे—यह जिस ताकत से चलेगी वह ‘एटामिक’ ताकत नहीं है, वरन् वह आत्मिक ताकत है। आत्मिक ताकत के बिना हम नया युग नहीं ला सकेंगे। नया युग लाने के लिए हम ऐसी बात नहीं करते जिसके लिए हमको पैसे की जरूरत हो। हम आत्मबल की जरूरत समझते हैं। आत्मबल अगर हमारे पास होगा तो हम मनुष्यों की चेतना को बदल सकेंगे।
परिवर्तन में क्या बदलना है? क्या खाने-पीने के तरीके बदलने हैं? नहीं बेटे, यही दाल-रोटी सब खायेंगे चाहे नया युग आ गया तो भी और नहीं आया तो भी। तो फिर क्या बदलेंगे? हम लोगों की विचारणाएँ बदल देंगे, चिन्तन बदल देंगे, आस्थाएँ बदल देंगे, दृष्टिकोण बदल देंगे और आदमी का ईमान बदल देंगे। ईमान को बदलने के लिए किस ताकत की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि बदलना हमको चिन्तन है, खाना-कपड़ा नहीं। आदमी की चिन्तन बदलने के लिए लकड़ी की, पैसे की जरूरत नहीं है। जरूरत है रूहानी बल की—आत्मबल की जिससे विचारों को बदलना है। विचारों को कोई और दूसरी चीज नहीं बदल सकती है। पैसा विचारों को नहीं बदल सकता। दुनिया की कोई भी चीज विचारों को नहीं बदल सकती। विचारों को बदलने के लिए जिस आत्मबल की जरूरत है उसे हम पैदा करेंगे। युगशक्ति की शक्ति आत्मबल की शक्ति होगी। आत्मबल की शक्ति आप कैसे पैदा करेंगे? इसके लिए हमने ब्रह्मवर्चस की छोटी-सी फैक्ट्री लगायी है। इसमें हम यह कोशिश करेंगे कि आत्मबल सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण करें।
गुरुजी! आप कैसे मनुष्यों का निर्माण करेंगे? उनमें किस चीज का निर्माण करेंगे? उन्हें क्या सिखाएँगे? क्या आप उन्हें इंजीनियरिंग सिखाएँगे? नहीं इंजीनियरिंग नहीं सिखाएँगे। हम दो तरह के आदमी बनायेंगे—एक का नाम होगा—मनस्वी और दूसरे का नाम होगा—तपस्वी। तो क्या आप मनस्वी और तपस्वी केवल इसी जगह बनाएँगे या और कहीं अन्यत्र भी? नहीं बेटे, यह तो हमारी नर्सरी है। इस नर्सरी में हम छोटे-छोटे पौधे उगायेंगे और फिर उनको सारे संसार भर में भेज देंगे। यहाँ हम एक नमूने की मॉडल की, चीजें तैयार करेंगे और फिर सारे विश्व का ध्यान आकर्षित करने के लिए—हर आदमी को विचार देने के लिए उन्हें भेज देंगे। नये युग के लिए इन मॉडलों को हमने देवता कहा है। देवता की शर्त क्या होती है? देवता के दो हिस्से हैं—एक मनस्वी और दूसरा तपस्वी। मनस्वी पूर्वार्द्ध है और तपस्वी उत्तरार्द्ध। मनस्वी मैट्रिक स्कूल, हाईस्कूल है तो तपस्वी कॉलेज कोर्स है। तपस्वी स्तर के मनुष्य जिसको हम देवत्व सम्पन्न कहते हैं, अगले दिनों तैयार करने पड़ेंगे। उन्हें तैयार करने के लिए हम शिक्षण करेंगे। क्या-क्या शिक्षण करेंगे इस ब्रह्मवर्चस में जिसका, उद्घाटन कराया है आपसे? बेटे इसके पीछे हमारे बड़े-बड़े ख्वाब हैं। यद्यपि कम्पनी जरा-सी है, कारखाना जरा-सा है, इमारत जरा-सी है, लेकिन हम जो काम करने वाले हैं, वह केवल इस इमारत भर के लायक नहीं, हिन्दुस्तान के लायक नहीं, हिन्दुओं के लायक नहीं, वरन् सारे विश्व के लिए है। यह जगह हमारे बैठने के लिए है। बैठने के लिए—खड़े होने के लिए कहीं न कहीं तो जगह चाहिए। यह हमारे खड़े होने की जगह है, लेकिन हमें जो काम करना है, वह थोड़े-से दायरे में नहीं करना है, वरन् सारे संसार में करना है। व्यापक रूप से विस्तृत रूप से करना है।
क्या काम करना है? एक तो हमको मनस्वी तैयार करने हैं और दूसरे-तपस्वी तैयार करने हैं। मनस्वी कैसे होते हैं? मनस्वी ऐसे होते हैं जो मन के गुलाम नहीं होते, वरन् मन के स्वामी होते हैं। मन के स्वामी का नाम है मनस्वी पर, आज तो सारा मानव समाज ही मन का गुलाम है। मन के गुलाम से मतलब है—लोभ का गुलाम और मोह का गुलाम। सिद्धान्तों से उन्हें कोई मतलब नहीं। सिद्धान्त उनके लिए केवल कहने और सुनने भर के लिए हैं। सिद्धान्त उनके जीवन में से बहुत दूर हैं। वे नर-वानरों, नर-पशुओं और नर-कीटकों की तरीके से जिन्दा रहते हैं। सिद्धान्त उनके लिए कोई मायने नहीं रखते। उनके लिए लोभ मायने रखता है, मोह मायने नहीं रखता है, लेकिन ईमान कोई मायने नहीं रखता। इस पीढ़ी को हम बदल देना चाहते हैं और नया युग लाना चाहते हैं। इसलिए हम गलाई करेंगे और ढलाई करेंगे। गलाई-ढलाई क्या होती है? बेटे, गलाई वह है जैसे कि छापेखाने की टाइप जब घिस जाते हैं तो उनको गलाने और ढालने के लिए फैक्ट्री में भेज देते हैं। जैसे ही वह भट्टियों में गला, उसे ढालकर नया टाइप बना देते हैं। इसी तरह टूटे-फूटे पुराने बर्तनों को भट्टियों में गलने भेज दिया जाता है। जहाँ उन्हें दुबारा ढालकर नया बर्तन बना देते हैं। पुराना गलाकर ढालने के बाद बिलकुल नया आ जायेगा। हम भी नया युग लाने के लिए नया इनसान बनाना चाहते हैं। नये इनसान को मनस्वी बनाना चाहते हैं।
मनस्वी कैसा होता है? मनस्वी ऐसा होता है जो मन का मालिक होता है और अपने इशारे से मन को चलाता है और कहता है कि भाईसाहब हम आपके गुलाम नहीं हैं। हमको यह शरीर और मन सहित ग्यारह इन्द्रियाँ काम करने के लिए मिली हैं। वे हमारे इशारे पर चलेंगी। इन्द्रियों को हमारा इशारा मानना पड़ेगा। आपका इशारा क्या होगा और आप क्या करायेंगे? हम भगवान के यहाँ से आते हैं, भगवान ने हमारे जिम्मे सिद्धान्त दिये हैं, आदर्श दिये हैं। उन आदर्शों और सिद्धान्तों पर चलने के लिए हम मन को हुक्म देंगे कि आपको हमारा आदेश मानना ही पड़ेगा। शरीर को हमारा हुक्म मानना पड़ेगा। इस तरीके से जो आदमी अपने जीवन की बागडोर अपने हाथ में सँभाल लेते हैं—उनका नाम होता है—मनस्वी। अब हम मनस्वी बनायेंगे। मनस्वी से क्या हो जाएगा? बेटे, मनस्वी से ऐसा हो जाएगा कि इनसान के भीतर जो हम ख्वाब देखते हैं कि देवता का उदय होना चाहिए तो उसके भीतर देवत्व का उदय हो जाएगा। अपने मन का जो मालिक है वही देवता होता है। देवता कैसे होते हैं? देवता ऐसा होता है कि उसके सामने उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ, उसकी कामनाएँ, भावनाएँ, उमंगें जो उठती हैं, वे यह उठती हैं कि हमारा जीवन आदर्शों के लिए है, सिद्धान्तों के लिए है। जहाँ से हम चले हैं, उसके लिए हैं।
साथियो! भगवान ने मनुष्य को जो बहुमूल्य जीवन दिया है, वह मौज उड़ाने के लिए—मजा उड़ाने के लिए नहीं दिया है। अगर इतने भर के लिए भगवान ने मनुष्य को जन्म दिया होता तो फिर भगवान को जितनी गालियाँ दी जा सकें, उतना ही कम है। फिर भगवान को पक्षपाती कहा जाता, अन्यायी कहा जाता। चौरासी लाख योनियों में से जो चीजें किसी को नहीं मिलीं, लेकिन इनसान को मिलीं, तो निश्चय ही वह मौज-मजा उड़ाने के लिए, स्वार्थ सिद्ध करने के लिए, अय्यासी करने के लिए नहीं मिली हैं, वरन् एक अमानत के रूप में आपको मिली हैं। जिस दिन आदमी को यह ख्याल आ जाए कि यह जो अमानत मिली है इसका इस्तेमाल हमको ईमानदार आदमी के तरीके से करना चाहिए, बेईमान या बदमाश आदमी के तरीके से नहीं, तो समझना चाहिए कि वह मनस्वी हो गया। बेईमान कौन होता है? बेईमान उस मुनीम का—खजांची का नाम है जिसके हाथ में बहुत सारा पैसा दिया गया कि वह इसे सरकारी कामों में खर्च करेगा, लेकिन उसने इसे सरकारी कामों में खर्च न करके अपने लिए खर्च कर डाला। वह आदमी क्या हो सकता है आप समझ सकते हैं। वह आदमी एक ‘क्रिमिनल’ है। इसी तरह वह आदमी भी क्रिमिनल है जो अपनी अकल को, दौलत को, अपने प्रभाव को, विशेषताओं को अपनी ऐय्यासी में, अपने लोभ और मोह में खर्च कर डालता है। ऐसा आदमी कानून की दृष्टि में न सही, आध्यात्मिक दृष्टि से क्रिमिनल है। सरकारी कानून, जिसके आधार पर मुकदमे चलते हैं, वे तो चोरों और चालाकों द्वारा चोरों के लिए बना दिये गये हैं। हम सरकारी कानूनों की बावत नहीं कहते कि ये बातें जुर्म हैं कि नहीं, लेकिन बेटे, आध्यात्मिक दृष्टि से जो बातें जुर्म हैं, उसकी बावत हम आपका ध्यान आकर्षित करते हैं।
आदमी की अकल भगवान की धरोहर है। आदमी की क्षमताएँ भगवान की धरोहर हैं और वे सिर्फ इस काम के लिए मिली हुई हैं कि उसे भगवान की सुन्दर दुनिया को खूबसूरत बनाने के लिए, सुन्दर-समुन्नत बनाने के लिए, संस्कारवान बनाने के लिए खर्च करनी चाहिए। यह उसकी जिम्मेदारी है, जो भगवान ने उसके जिम्मे सौंपी है। अगर आपका यह ख्याल हो कि मरने के बाद आपसे सवाल-जवाब पूछा जाएगा कि आपने कोई भजन-पूजन किया या नहीं तो, बेटे, भगवान के यहाँ ऐसा कोई एकाउण्ट नहीं है। भगवान के यहाँ तो केवल एक ही सवाल-जवाब होता है कि आपने इंसानी जिंदगी किन-किन कामों में खर्च की, जवाब दीजिए? हमने आपको दुनिया को सुन्दर-समुन्नत बनाने के लिए, ऊँचा उठाने के लिए, आदर्शवादी बनने और बनाने के लिए, अपने सहायक-असिस्टेण्ट के रूप में भेजा था, आपने वे काम किये कि नहीं ?? आपको हमने इतनी सुन्दर अकल, दिमाग, इतने सुन्दर हाथ-पाँव दिये थे, जो धरती पर और किसी को नहीं मिले। आपको हमने पेट भरने और तन ढकने लायक इतनी चीजें दे दी थीं कि घंटे-आधे घंटे की मेहनत से ही आप अपना गुजारा कर सकते थे और बाकी समय को क्षमता और सम्पदा को हमारे काम में खर्च करना चाहिए था। पर आपने ऐसा क्यों नहीं किया? कर भी क्या सकते थे? यह जो हमारा मन है, यह ऐसा बेईमान, बदमाश, दुष्ट, दुराचारी, अन्यायी-अत्याचारी नौकर और साथी है, जो बेकाबू हैं। मिला तो यह हमको इसलिए था कि इसकी मदद से हमको अपने जिन्दगी की नाव पार लगानी हैै, पर हमने इसे ऐसे घसीट-घसीट कर मारा है जैसे कोई-कोई लड़के अपने बाप को जब वह बुढ्ढा हो जाता है तो पैसा छीनने के लिए मारते-पीटते और पैसा छीन लेते हैं। कोई-कोई ऐसा होता है बदमाश।
गुरुजी! कौन-कौन सा है ऐसा बदमाश, उसका नाम बताइये? बेटे, उस बदमाश का नाम है—आपका मन, जिसने आपके ईमान को, आपकी जीवात्मा को मारा-पीटा है, लातें लगायी हैं, गालियाँ दी हैं और जितना भी पीड़ित कर सकता था, उत्पीड़न दे सकता था, जितना भी गिरा सकता था, वह सब गिरा दिया। यदि यह हमारा और आपका मन यदि काबू में होता तो आज हमारी हैसियत कुछ दूसरी ही होती। अगर आपका मन काबू में होता तो आपमें से अधिकांश व्यक्ति विवेकानन्द होते, कबीर होते, रैदास होते, पर यह नहीं मानता है कसाई-हत्यारा हमारे ऊपर दिन-रात हावी रहता है और भगवान के बारे में भी न जाने क्या-क्या ऊल-जलूल पट्टी पढ़ाता रहता है हमको। भगवान के यहाँ से हम किस काम के लिए आये हैं और किस काम के लिए जाना पड़ेगा? लेकिन यह चालाक और बेईमान मन न जाने क्या पट्टी पढ़ा देता है। ये यों कह देता है कि भगवान की धूपबत्ती जला दीजिए और उन्हें चावल खिला दीजिए, फूल-माला सुँघा दीजिए, भगवान को हनुमान चालीसा सुना दीजिए और भगवान को बना लीजिए, फिर भगवान से चाहे जो काम करा लीजिए। हमारा मन बड़ा चालाक, बड़ा बेईमान, बड़ा दुष्ट और जालिम है जो हमको न जाने क्या-क्या पढ़ाता और कराता रहता है?
मित्रो! हम मनस्वियों की नयी पीढ़ी बनाने के इच्छुक हैं। ऐसे मनस्वी, ऐसे हिम्मत वाले अपने मन के स्वामी आदमी अगले दिनों ढालने के लिए हम बड़े इच्छुक हैं जो सिद्धान्तों के लिए-आदर्शों के लिए जिएँ। सिद्धान्तों और आदर्शों के लिए जीने वाले का स्वरूप क्या होना चाहिए? बेटे एक स्वरूप बता सकता हूँ कि एक बात जिस आदमी के भीतर हो, समझना चाहिए कि वह आदमी मनस्वी है और वह भगवान का काम कर सकता है। ऐसे ही व्यक्ति की आध्यात्मिक शक्तियाँ बढ़ेंगी और वह दुनिया के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य करेगा और अपने जीवन की नाव को खेकर पार लगा देगा, पर एक बात आ जाए तब। बताइये उस मनस्वी की क्या पहचान है? मनस्वी की पहचान एक है—सिर्फ एक—कि वह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की धुरी बदल दे? अभी तो चौबीसों घंटे यही राक्षस हमारे ऊपर हावी बना रहता है कि हमारी महत्त्वाकांक्षाएँ, हमारा अहंकार रावण के बराबर होनी चाहिए, हमारी अमीरी हिरण्यकश्यपु के बराबर होनी चाहिए और हमारी ताकत भस्मासुर के बराबर होनी चाहिए। हमारी वासना बढ़नी चाहिए, तृष्णा बढ़नी चाहिए, अहंता बढ़नी चाहिए।
हमारे लोभ-मोह की पूर्ति होनी चाहिए। अहंकार की पूर्ति होनी चाहिए। अगर हम इसे बदल सकें और मनस्वी बन सकें तो हमारे चिन्तन की दिशा अलग बदल जाएगी। फिर मैं समझ लूँगा कि अब आप कल्याण की दिशा में चल पड़े और आपके पास बहुत सारी चीजें आ गयीं। क्या-क्या चीजें बदल जाएँ? बस एक ही चीज बदल जाए और वह यह कि महत्त्वाकांक्षाओं का प्वाइंट बदल जाए।
इन दिनों मनुष्य को भौतिक इच्छाएँ खाये जा रही हैं। उसने आपके शरीर को खा लिया, आपकी अकल को खा लिया, आपके प्रभाव को खा लिया, आपकी अकल प्रतिभा को खा लिया। तो क्या भौतिक महत्त्वाकांक्षाएँ खराब हैं? नहीं, बेटे वे खराब उस सीमा तक नहीं हैं, जिसमें कि आदमी को शरीर के गुजारे के लिए जितना धन आवश्यक है, अकल, समय, श्रम आवश्यक है, बस उतना लगाये और बची हुई चीजें भगवान के लिए लगाये। मनस्वी आदमी वे हैं, जो अपने जीवन का निर्धारण और जीवन की दिशाधारा को सही कर सकते हैं। उनको मैं मनस्वी कहता हूँ, जो अपने मन और अकल को सलाह देते हैं, परामर्श देते हैं। कि आपको क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? ‘मनस्वी की पहचान एक ही है कि उसके जीवन में सदा सादा जीवन उच्च विचार’ के ऊँचे विचार आते हैं। ऊँचे विचार लाने के लिए सादा जीवन आवश्यक है। आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सांसारिक महत्त्वाकांक्षाओं को गिराया जाना आवश्यक है। सांसारिक महत्त्वाकांक्षाएँ आप नहीं गिरायेंगे तो आपको दो शिकायतें हमेशा बनी रहेंगी। ये कभी दूर नहीं हो सकतीं। कौन-कौन सी? पहली शिकायत तो यह आपको हमेशा बनी रहेगी कि हमको अच्छे कामों के लिए समय नहीं मिलता। दूसरी शिकायत यह बनी रहेगी कि अच्छी बातों में, भजन-पूजन में हमारा मन नहीं लगता। फिर आप कहेंगे कि गुरुजी कोई विधि बता दीजिए जिससे मन लगने लगे। बेटे, मन लगाने की विधि यह है कि जिन महत्त्वाकांक्षाओं में तेरा मन लगा हुआ है वहाँ से उस प्वांइट को हटाकर दूसरे प्वांइट पर लगा, फिर देखना तेरा मन लगता है या नहीं। एक जगह से मन हटाकर दूसरी जगह लगा, सफलता का यही रहस्य है।
अध्यात्म क्या है? अध्यात्म कोई जादू नहीं है, भजन, प्राणायाम, ध्यान जैसी कोई क्रिया नहीं है, वरन् जीवन जीने की शैली है, सोचने का एक तरीका है और जीवनयापन करने की एक पद्धति है। पर आप तो इसे एक जादूगरी समझते हैं कि हाथ को यहाँ धर देंगे, नाक में से हवा निकाल देंगे, ये मुद्रा कर लेंगे, हाथ की हेरा-फेरी करेंगे, चावल, रोली को यहाँ धरेंगे, इसको यों जोड़ देंगे। हाथों की बाजीगरी और जीभ की नोंक से रंग-बिरंगे अक्षरों को कह करके हम भगवान को काबू में रखेंगे। बेटे, यह अध्यात्म नहीं हो सकता। ये सिद्धान्त गलत है। सही बात एक ही है कि हमारे जीवन का स्वरूप, जीवनयापन का तरीका, स्तर, ढंग एवं सोचने का तरीका अगर बदल जाता है तो फिर हमको भगवान को तलाशना नहीं पड़ता। भगवान हमको तलाशा करता है। हमारा जीवन इस बात का साक्षी है। हमने भगवान को नहीं तलाश किया। भगवान ने हमको तलाश किया। गुरु का हमने तलाश नहीं किया है, गुरु ने हमको तलाश किया। फूल ने शहद की मक्खी को तलाश नहीं किया। भौंरे को बुलाने के लिए फूल नहीं गया, भौंरा फूल के पास आया। तितलियों की खुशामदें करने के लिए उन्हें बुलाने के लिए, इस्तहार देने के लिए फूल नहीं गया था, तितलियाँ पास आयी थींं।
साथियो! मैं यह कह रहा था कि मनस्वी व्यक्ति अपने जीवन को उस स्तर का बनाते हैं, जिसके हम ख्वाब देखते हैं, कल्पना करते हैं जिसका हम प्रयास करते हैं। नये युग में जिन देवताओं की जरूरत पड़ेगी, उन देवताओं की शुरुआत करने के लिए हमने ब्रह्मवर्चस की स्थापना की है, जिसका कि अभी उद्घाटन कराया है। उसके आधार पर हम विचार करते हैं कि नये युग का आदमी कैसा होगा? मनुष्य में से देवता उदय होगा तो कैसा होगा? मनुष्य में से देवता उदय होने से सिर्फ एक बात होगी कि आदमी की महत्त्वाकांक्षाएँ बदल जाएँगी। आदमी की खुशी जहाँ टिकी हुई है, खुशी टिकने के ये प्वाइंट बदल जाएँगे। आज हमारी खुशी पैसे पर टिकी हुई है। पैसे को पूरा करने के लिए हम हनुमान जी का इस्तेमाल करते हैं, संतोषी माता, साईंबाबा का इस्तेमाल करते हैं, जो भी आदमी आ जाता है उसका इस्तेमाल करते हैं। हर किसी से माँगते हैं। हर किसी को बहकाते हैं कि बहकावे में आकर वह मेरा उल्लू सीधा कर जाए। यह बात मैं भली-भाँति जानता हूँ कि आपके मन में क्या है। पर मैं चाहता हूँ कि जिस अध्यात्म से मनस्वी पैदा होते हैं, जिसको हम देवता कहते हैं, आप वह बनें। मनुष्य में से देवता उदय हो। मनुष्य में से जब देवता पैदा होगा तो वह अपने आप में दिव्य होगा और जो कोई भी उसके समीप आवेगा वह भी उसी तरह का बनाता चला जाएगा।
नये युग के मनुष्य को बनाने के लिए हम मनस्वी पैदा करेंगे। मनस्वी पैदा करने का मतलब यह है कि वह व्यक्ति अपने मन से कहेगा कि जिस देश में हम पैदा हुए हैं उसके औसत नागरिक स्तर का जीवनयापन करता है, आप भी उसी स्तर पर करिये। औसत नागरिक स्तर की आवश्यकताएँ क्या हैं? आप तय कीजिए और अपना मापदण्ड बनाइये। मनस्वी व्यक्ति ऐसे ही होते हैं और ऐसे ही होने चाहिए। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का मैं मनस्वियों में नाम लेता हूँ। वे पाँच सौ रुपया महीने कमाते थे, लेकिन ५० रुपये में अपना और अपने कुटुम्ब का खर्च चलाते थे। शेष बचे हुए ४५० रुपये गरीब विद्यार्थियों, मुसीबतग्रस्तों के लिए सुरक्षित रखते और उससे उनकी मदद करते थे। मनस्वी उसे नहीं कहते जो प्राणायाम करता है और ग्यारह माला जप करता है। मनस्वी वह होता जो बहादुरों और ईमानदार आदमियों की तरीके से अपने जीवनयापन के सम्बन्ध में, अपने जीवन-पद्धति के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण फैसले कर लेता है। अगर आप यह फैसला कर लें तो आपके जीवन में कायाकल्प हो जाएगा। कैसे हो जाएगा? अभी तो चौबीसों घण्टे आपकी अकल एक ही बात के सपने देखती रहती है, कि लोभ-मोह की पूर्ति कैसे हो? सारी की सारी अकल, सारी की सारी इच्छाएँ-आकांक्षाएँ उसी काम में लगी रहती हैं। क्या आप इसे खाली नहीं कर सकते? अकल को खाली कीजिए। अकल को अगर खाली करेंगे तो आप मनस्वी कहलायेंगे। गुजारे से सब्र कीजिए—संतोष कीजिए, तब आपका बचा हुआ मन जो चौबीसों घण्टे महत्त्वाकांक्षाओं में, लिप्साओं में और लालसाओं की पूर्ति में लगा रहता है, बदल जाएगा और फिर बदले हुए मन के सामने वे सिद्धान्त काम आयेंगे जिसको मैं अध्यात्म कहता हूँ, भगवान कहता हूँ, ईमान कहता हूँ, धर्म कहता हूँ। धर्म के लिए, ईमान के लिए, भगवान के लिए फिर आपकी अकल काम करेगी, श्रम काम करेगा, आपकी क्षमता, कुशलता और सम्पदा काम करेगी।
इससे क्या हो जाएगा? इससे आप महामानव हो जाएँगे, ऋषि हो जाएँगे। ऋषि उस आदमी का नाम है जिसे नयी वस्तु संग्रह करने की जरूरत नहीं है। उसके लिए न नया धन चाहिए, न नया बल चाहिए, जो चीजें पास में है वे इतनी ज्यादा हैं—‘टू मच’—बहुत ज्यादा हैं, आप उनका इस्तेमाल करना सीखिये। अभी तो आप उनका गलत कामों के लिए इस्तेमाल करते हैं, पर जिस दिन आप सही इस्तेमाल करने लगेंगे, पायेंगे कि आपके भीतर कितनी शांति, कितना संतोष, कितनी क्षमता, कितनी प्रतिभा विकसित होती है? जिस दिन आपके भीतर यह क्षमता और प्रतिभा विकसित होगी, उस दिन मैं आपसे वायदा करता हूँ कि देवता आपकी सहायता करने के लिए आयेंगे। देवता आपकी आरती उतारने के लिए आयेंगे। रामायण में मैंने पढ़ा है कि श्रेष्ठ दिशा में जीवनयापन करने वालों पर देवता फूल बरसाने आये थे। रामचन्द्र जी का जन्म हुआ तो, ब्याह हुआ तो देवता विमान से फूल बरसाने लगे। जब रामचन्द्र जी ने धनुष तोड़ा तो स्वर्गलोक से देवता फूल बरसाने लगे। इस बात पर मैं विचार करता रहा कि देवता क्या कोई माली हैं या इनके पास फूलों की दुकान है, जो फूल बरसाने का ही काम करते हैं। पीछे मैंने समझा कि फूल बरसाने से क्या मतलब है? फूल बरसाने से मतलब होता है—दैवी-शक्तियाँ, श्रेष्ठ मनुष्य और आदर्श मनुष्य उनकी सहायता करते हैं। उन व्यक्तियों की जिन्होंने अपने व्यक्तित्व की धुरी बदल दी, चिन्तन का स्वरूप बदल दिया, आकांक्षाओं को बदल दिया। जो व्यक्ति अपनी प्रियता को, चिन्तन की दिशाधारा को बदल देता है, वही देवता हो सकता है।
हमने मनुष्य में देवत्व के उदय का सपना देखा था। आइए उस पर विचार करें कि हम उस सपने को साकार कैसे कर सकते हैं? इस संदर्भ में हमने ब्रह्मवर्चस के माध्यम से एक फिलॉसफी बनायी है; एक क्रिया-पद्धति बनाई है। ब्रह्मवर्चस में क्या होगा? प्रशिक्षण होगा। कैसे होगा? इसमें प्रातःकाल ढाई घण्टे की साधना है जिसे पंचकोशी साधना एवं कुण्डलिनी साधना कहते हैं। इसमें योगाभ्यास भी करायेंगे और दोपहर को ब्रह्मज्ञान का प्रशिक्षण देंगे, जिसे हम आत्मज्ञान कहते हैं। यह भी ढाई घण्टे का प्रशिक्षण है। इसमें ब्रह्मविद्या के—ईश्वर, जीवन, प्रकृति से लेकर धर्म और विज्ञान के बारे में ऋषियों ने जो कहा है, उनकी बातें बतायेंगे। इस तरह सबेरे हम तप करायेंगे, योगाभ्यास करायेंगे और दोपहर को शिक्षण करेंगे। शाम को लोकमंगल के लोकशिक्षण करेंगे कि आज की परिस्थितियों में हमें क्या करना चाहिए? उसकी गतिविधियाँ, स्वरूप और क्रियाशैली क्या हो? ऋषि केवल भजन नहीं करते थे, वरन् उसके साथ लोकमंगल की सेवा-साधना भी किया करते थे। ब्रह्मवर्चस में भी सेवा, स्वाध्याय एवं साधना-तपश्चर्या वाले तीनों अंशों की समन्वित साधना चलेगी। हम तपश्चर्या कराना चाहते हैं। तपश्चर्या में सबसे पहले एक काम करना पड़ता है—महाभारत की लड़ाई लड़नी पड़ती है। अर्जुन को श्रीकृष्ण बार-बार यही कहते थे कि ‘‘ततो युद्धाय युज्वस्व’’ किन्तु अर्जुन बार-बार बहाने बनाता रहा और कहता रहा कि मैं नहीं लड़ूँगा। पीछे भगवान के बार-बार समझाने पर उसने कहा—‘‘करिष्ये वचनं तव’’ अर्थात् आपकी आज्ञा मानूँगा तो उन्होंने कहा तो फिर उतर कुरुक्षेत्र में और लड़ाई कर। अर्जुन लड़ने लगा और विजयी हुआ।
बेटे! अध्यात्म क्षेत्र में भी लड़ना पड़ता है। किससे लड़ना पड़ता है? अपने मन से। हमारा यह मन बड़ा कमीना है। इस लड़ाई में अगर हमारी विजय हो जाती है तो समझना चाहिए कि हमने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। कहा भी है—‘‘न मारा आपको जो खाक हो अक्सीर बन जाता।’’
तात्पर्य यह है कि अगर हम अपने आपको मार लें, अपने मन को काबू में कर लें, अपने मन को हम अपनी इच्छानुसार चला लें तो मजा आ जाए तो फिर आप कौन हो जाएँगे? मनस्वी हो जाएँगे, संत हो जाएँगे और देवता का पूर्वार्द्ध पूरा कर लेंगे। अपने आप से लड़ाई लड़ने, अपने मन पर कंट्रोल करने, इन्द्रियों पर काबू करने वालों और जन्म-जन्मान्तरों के हैवानी कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाने वालों को हम मनस्वी कहते हैं। मनस्वी ही अपने जीवन को बदल सकेंगे और समय को, युग को बदल सकेंगे। यदि वे मनस्वी नहीं होंगे तो न अपनी जिन्दगी को बदल सकेंगे और न दूसरों को बदल सकेंगे। इसलिए मनस्वी पैदा करना हमारा काम है।
मनस्वी व्यक्ति पैदा करने के लिए ही ब्रह्मवर्चस संस्थान की स्थापना की गयी है। यहाँ पर हम लोगों को बुलायेंगे और बतायेंगे कि मनस्वी कैसा होना चाहिए? मन से कैसे लड़ना चाहिए? मन के विकृत होने से जिन्दगी कैसे खराब हो जाती है और मन को काबू में लाने से मनुष्य कैसे मुक्त हो जाता है? ‘मन एव मनुष्याणां करणं बन्ध मोक्ष्यये’—यह मन ही है तो हमको बाँधता है और यही हमको मुक्त भी बना देता है। यह मन ही है जो हमको राक्षस बना देता है, देवता बना देता है। चाहे हम इसको विधाता कह लें, चाहे पिशाच कह लें, वह एक ही है। इसे किस तरीके से निग्रहीत कर सकते हैं, यह विधि यहाँ सिखायेंगे और यहाँ से सारे संसार में फैलायेंगे। इसलिए ब्रह्मवर्चस का पहला वाला अध्याय, पहला उद्देश्य हमारा यह है कि हम आदमियों को मनस्वी बनाएँ। मन से लड़ने वाला, मन पर काबू करने वाला, मन को हीरा बना देने वाला बनायेंगे। आदमी का मन ही है जो उसे आत्महत्या के लिए प्रेरित करता है, नींद नहीं आने देता, शराबी, नशेबाज बनाता है, डाकू बनाता है और यही वह पारस भी है जो हमको ऋषि बना देता है, संत बना देता है, देवता बना देता है। इसलिये मन के साथ जद्दोजेहद करना, मन को परिष्कृत करना यह एक कला है, फिलॉसफी है, एक साइंस है, एक विधि-विधान है। उसको हम ब्रह्मवर्चस में सिखायेंगे। यह एक नमूना है, मॉडल है, प्रयोगशाला है, फैक्ट्री हैं, फार्महाउस व नर्सरी है। जहाँ प्रयोग करने के बाद में विश्वभर को बतायेंगे कि मन को काबू में करके मनस्वी कैसे बना जा सकता है? और स्वयं को तथा अन्यान्यों को कैसे ऊँचे उठाया जा सकता है? हमारी यह प्रयोगशाला है। यह आश्रम हमारी शुरुआत का एक केन्द्र है, जहाँ हम शिक्षण करेंगे और नवयुग की एक हवा पैदा करेंगे। मनस्वियों को ढालने की यह एक बहुत बड़ी फैक्ट्री है, जिसका प्रत्यक्ष परिणाम अगले ही दिनों सबके सामने आने वाला है।
ब्रह्मवर्चस प्रशिक्षण के उत्तरार्द्ध में हम एक और तरह का आदमी ढालना चाहते हैं जिसका नाम होगा—‘तपस्वी’। तपस्वी किसे कहते हैं? बेटे, तपस्वी उसे कहते हैं जो अपने व्यक्तिगत जीवन को ठीक कर लेता है उसका दूसरा नाम है ब्राह्मण। ब्राह्मण नाम नहीं है, ब्राह्मण कोई कौम नहीं होती, जाति नहीं होती। जाति तो न जाने किसने बना दी? ब्राह्मण एक वर्ग होता है, एक तबका होता है। ब्राह्मण उस तबके को कहते हैं, जो अपने मन को काबू में रख करके अपने जीवन की विधि और प्रक्रिया को ऐसे व्यतीत करता है, जिसको सिद्धान्तवादी जीवन कहना चाहिए। कहते हैं कि ब्राह्मण अपने आप तक सीमित रहता है, अपने को ठीक करने में लगा रहता है। अपने आपको ही सही करता है अपने आपको ही संस्कारवान बनाता है तो क्या यह काफी है? नहीं, बेटे इतना ही काफी नहीं है। यह तो पहला अध्याय है, अपने आप को सही बनाना, लेकिन जब मैट्रिक हो जाए तो फिर ग्रेजुएट भी होना चाहिए।
ग्रेजुएट कौन होता है? ग्रेजुएट तपस्वी होता है। तपस्वी किसे कहते हैं? संत को तपस्वी कहते हैं। संत किसे कहते हैं? जैसे मक्खन के ऊपर जब धूप पड़ती है तब वह पिघल जाता है, ठीक उसी तरह जो व्यक्ति अपने युग की—अपने समय की, मनुष्य जाति की, समस्त प्राणियों की पीड़ाओं को देखकर पिघल जाता है, उसे संत कहते हैं। संत रोता नहीं, वरन् उसके भीतर एक हूक उठती है, टीस उठती है, संकल्प जाग्रत होता है और पीड़ा एवं पतन के रोने के जो कारण थे, उनको दूर करने के लिए सीना तानकर खड़ा हो जाता है। रामचन्द्र जी तपस्वी का जीवन जी रहे थे। एक बार उन्होंने ऋषियों की हड्डियों का एक समूह देखा तो उनकी आँखों में आँसू आ गये। तपस्वियों के आँसू कैसे होते हैं? उनके आँसू में से टपकती है आग—ऐसी आग कि जिसके ऊपर मुसीबत है उसे दूर करने में हमको मदद करनी चाहिए। फिर वह आदमी मदद के लिए तनकर खड़ा हो जाता है। रामचन्द्र जी ने ऋषियों की हड्डियों के समूह को देखकर भुजा उठाकर प्रण किया कि अब इस पृथ्वी पर राक्षसों, को नहीं रहने दूँगा। या तो मैं मरूँगा या उनको मारकर छोड़ूँगा—‘‘डू आर डाई’’ या तो हम करेंगे या मरेंगे। मित्रो! इतना साहस जिसके अन्दर होता है वह आदमी तप करने, कष्ट उठाने के लिए तैयार हो जाता है। उसे हम तपस्वी कहते हैं।
तपस्वी कैसे होते हैं? तपस्वी उस प्रकाश-स्तंभ की तरह होते हैं जो एकाकी समुद्र के बीच में खड़ा रहता है और उसके ऊपर एक बत्ती सदैव जलती रहती है चाहे रात हो या ठण्डक हो या बरसात हो। यह बत्ती बताती रहती है कि जहाजों को—नावों को इधर से आना चाहिए—उधर से नहीं, जिधर चट्टान है। वहाँ जोखिम है, आप वहाँ डूब जाएँगे, टक्कर खा जाएँगे—आप दूसरे रास्ते से आइए, प्रकाश-स्तंभ यही बताते रहते हैं। तपस्वी भी एक प्रकार के प्रकाश-स्तंभ हैं। वे स्वयं मुसीबत उठाते रहते हैं और अकेले खड़े रहते हैं। उन्हें न सिनेमा देखने का मौका है, न खाने-पीने का शौक है, न कोई यार-दोस्त है, न चौपड़ है, न शतरंज। वे अकेले खड़े रहते हैं और रास्ता बताते रहते हैं। इन्हें हम तपस्वी कहते हैं। इनके भीतर एक हूक उठती है, दर्द उठता है कि हमको दूसरों के दुःख-दर्द को दूर करने के लिए, भगवान की इच्छा पूरी करने के लिए क्या करना चाहिए, फिर उनकी गतिविधियों में फर्क पड़ जाता है। कैसे फर्क पड़ जाता है? जब वे ऊपर आसमान की ओर देखते हैं तो कहते हैं कि भगवान की बनायी हुई मूल्यवान चीजें किस तरीके से जीवन-यापन करती हैं, हमको भी इसी तरीके से जीवन-यापन करना चाहिए। वे इसका अभ्यास करते हैं कि भगवान के दूत किस तरीके से काम करते हैं और हमें किस तरह से करना चाहिए? समुद्र में से पानी का गट्ठर लादकर के बादल रवाना होते हैं और दौड़ते हुए कहाँ-कहाँ तक चले जाते हैं? जहाँ खेत सूखे पड़े हुए हैं। बादल अपनी हस्ती को, अपने परिश्रम को, मेहनत को बिना कीमत के सूखे खेतों में गलाते हुए चले जाते हैं। ये कौन हैं? ये संत हैं और तपस्वी हैं। तपस्वी—जिनका काम ही है कि हम अपने आपका नुकसान उठाएँगे, पर समाज को, दुःखियारों को, पिछड़े हुओं को, पतितों को सुखी बनाने के लिए अपने आपको हम खत्म कर देंगे, खपा देंगे। वे ऊपर को देखते हैं तो उनकी हिम्मत बड़ी हो जाती है और उसी तरह के वे काम करने लगते हैं।
देवता बराबर काम करते रहते हैं। यह जमीन, यह आसमान, यह संसार देवताओं से रहित नहीं है, तपस्वियों से रहित नहीं है। जमीन की ओर निगाह डालकर देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि यहाँ तपस्वियों की कमी नहीं है। यह जमीन वजन उठाती है, टट्टी, पेशाब उठाती है, लात खाती है, फिर भी अपने भीतर से अनाज उगाती है, घास उगाती है, फूल पैदा करती है, सोना-चाँदी, रसायन आदि हर चीज देती जाती है। ये कौन हैं? तपस्वी हैं। संत को चारों ओर तपस्वियों की परम्परा दिखाई पड़ती है। तपस्वियों की वजह से ही दुनिया जिन्दा है। जो दुनिया में खूबसूरती हैं, खुशहाली है, आनन्द है, शराफत है, अच्छाई है, केवल तपस्वियों की वजह से जिन्दा है। कौन-कौन तपस्वी हैं? तपस्वी मनुष्य भी हो सकते हैं, लेकिन दुनिया में तपस्वियों की बहुत सारी सत्ताएँ हैं, जो दुनिया में शान्ति कायम रखती हैं। दुनिया में जो खुशहाली आती है वह तपस्वियों के बलबूते पर आती है। पेड़ों की ओर जरा निगाह डालकर देखिये—वह हमेशा फल पैदा करता है। पत्ता जानवरों को खिला देता है, अपनी छाया में पक्षियों को विश्राम देता है। अपने फलों को जमीन पर गिरता जाता है। कौन हैं ये? तपस्वी हैं।
तपस्वियों की बिरादरी अभी दुनिया में से खत्म नहीं हुई है। तपस्वी जब निगाह उठाकर देखता है तो नदियाँ लहलहाती हुई दिखती हैं और प्यासों की प्यास बुझाने, पक्षियों को पानी-पिलाने, खेतों की सिंचाई करने का काम करती हैं। तपस्वी जब घर आता है तो एक और बात देखता है—अपनी माँ को और अपनी धर्मपत्नी को। माँ कौन है? तपस्विनी है जिसने अपने रक्त को, माँस को, हड्डियों को गलाकर के अपने बच्चे के लिए सौंप दिया और अपनी छाती का लाल रक्त सफेद रंग के दूध में बदलकर अपने बच्चे को पिला दिया। ये कौन हैं? तपस्विनी है। क्या दाम लिया? कोई दाम नहीं लिया, वरन् अपने प्यार की वजह से अपने को न्यौछावर कर दिया। माँ तपस्या की मूर्ति होती है और कौन होती है तपस्या की मूर्ति? निगाह उठाकर देखते हैं तो धर्मपत्नी दूसरी तपमूर्ति नजर आती है। चौबीसों घंटे काम करने वाली, प्रेम देने वाली, श्रम करने वाली, सेवा करने वाली, अपने शरीर का रस निचोड़कर देने वाली, सारा जीवन और अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को अर्पित कर देने वाली और बदले में गालियाँ खाने वाली—ये कौन हैं? ये तपस्विनी है। यदि यह तपस्वी न होती तो दुनिया राक्षस हो जाती, आदमी पिशाच हो जाता और उसका कहीं ठिकाना न रहता। इसलिए तपस्विनी है मेरी माँ, तपस्विनी है धर्म पत्नी, तपस्विनी है धरती। तपस्वी हैं—पेड़, बादल, घास सब जगह तपस्वियों की बिरादरी है। सच्चा तपस्वी अपने सारी जिंदगी को लोकहित के लिए—देश के लिए, श्रेष्ठ कार्यों को पूरा करने के लिए खर्च कर डालता है। तपस्वी वे नहीं है जो रंगे बैठे रहते हैं और धूनी रमाते हैं। वे और कुछ हो सकते हैं, पर तपस्वी नहीं।
तपस्वी अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी कष्ट उठाते हैं, लेकिन किसलिए उठाते हैं, यह आप लोगों को मालूम होना चाहिए। हमारी माँ एकादशी के दिन उपवास रखती थीं। उस दिन कुछ भी नहीं लेती थीं। दूसरे दिन द्वादशी को हम बच्चों को बुलाती थीं और जो सामग्री खाने के काम आती थीं जैसे—आटा, दाल, चावल, गुड़, घी आदि थाली में रखकर कहती थीं, जाओ बेटा, इसे मंदिर में देकर आओ। हम दे आते थे। तब माँ पानी पीती थीं। क्या मतलब है इसका? इसका मतलब यह है कि हम तपस्वी हैं और कष्ट उठायेंगे। कष्ट उठाने की वजह से जो आपने बचत की है, उसे अच्छे कामों में लगायेंगे। तू जानता है उपवास किसलिए करते हैं? उपवास इसलिए करते हैं—पेट पर पट्टी बाँधते हैं कि अमुक दिन हम नहीं खायेंगे और उससे जो बचत होगी उसे अच्छे कामों में खर्च कर देंगे। इसका नाम है—तप। हम अगले दिनों ऐसी ही पीढ़ी पैदा करना चाहते हैं जो तपस्वियों की पीढ़ी हो। तपस्वियों में क्या बात होती है? बेटे तपस्वी साक्षात् देवता होते हैं। वे स्वयं तो मुसीबत उठा लेते हैं, लेकिन अपने पुण्य की वजह से, तप की वजह से, अपनी शक्ति की वजह से असंख्यों का बेड़ा पार कर देते हैं। अगले दिनों हम असंख्यों का बेड़ा पार करने वाले तपस्वियों की नयी पीढ़ी बनायेंगे। कैसे बनायेंगे? क्या इसी में बना देंगे? नहीं बेटे, इसी में तो नहीं बनाते, पर हाँ हम एक ऐसी विचारधारा, एक ऐसी फिजा पैदा करेंगे जो सारे के सारे समाज में छाती हुई चली जाएगी और लोगों की लिप्साओं को, लोभ और मोह के दृष्टिकोण से बदलती हुई चली जाएगी। यह आदमी को झकझोरकर रख देगी और कहेगी कि हे इनसान! तू इनसान की तरीके से जी। वनमानुषों, नर-पशुओं और नर-कीटकों की तरीके से मत जी। एक ऐसी पैनी हवा उठेगी जो हर आदमी के कान पकड़ेगी और झकझोरेगी और यह कहेगी कि आपको नये युग के अनुरूप जीना चाहिए, सिद्धान्तों, आदर्शों, लोकहित एवं संसार की शांति के लिए जीना चाहिए।
ऐसे व्यक्ति पैदा करने के लिए हमने ब्रह्मवर्चस बनाया है। इसमें मन की मलीनता को धोने के लिए उपासनाएँ भी करायेंगे। हमारे भीतर का भगवान सो गया है—देवता सो गया है, हमारे भीतर की शक्तियाँ सो गयी हैं, सिद्धियाँ सो गयी हैं, चमत्कार सो गये हैं। हमारे भीतर का आनन्द सो गया है, हमारे भीतर की कला सो गयी है। सब कुछ सो गया है। अभी तो इस ढाँचे में कोई पिशाच, कोई भूत-मसान लाल-पीले कपड़े पहने हुए घरों में घूम जाया करता है। इस पिशाच के भीतर से ही हम देवता को जगायेंगे। इन सारे के सारे क्रियाकलापों को करने के लिए हमने ब्रह्मवर्चस बनाया है। यहाँ से हम एक विचार, एक कार्य-पद्धति, प्रोसीजर पैदा करेंगे और न जाने क्या से क्या पैदा करेंगे? नये युग का आह्वान करने के लिए एक ऐसी फैक्ट्री की जरूरत थी जिससे युगशक्ति का उदय किया जा सके। ब्रह्मवर्चस की स्थापना इसी के लिए की गयी है।
हमने बहुत पहले तीन घोषणाएँ की थी कि हम व्यक्ति-निर्माण के लिए, परिवार-निर्माण के लिए और समाज-निर्माण के लिए काम करेंगे। यह हमारे मिशन का एक स्वरूप है। व्यक्ति-निर्माण के लिए हम ब्रह्मवर्चस और उसकी कार्य-पद्धति बनाते हैं। मानव-उत्कर्ष की सारी की सारी प्रक्रिया हम यहाँ से पैदा करेंगे इनसान को मनस्वी और तपस्वी बनाने के लिए। तपस्वी अर्थात् मनुष्य में देवत्व उदय होने की प्रक्रिया अर्थात् व्यक्ति-निर्माण। व्यक्ति कैसे बनाया जा सकता है? यह प्रक्रिया हमारे छोटे-से आश्रम ब्रह्मवर्चस से आरम्भ होगी। आप इसके भविष्य को देखिये, इसके पीछे छिपी महानता को देखिये, झण्डे के इस प्रतीक को देखिये। यह है तो एक प्रतीक, पर इसके पीछे न जाने क्या से क्या सत्ता भरी पड़ी है? एक बड़ी चीज की जिम्मेदारी भगवान् ने हमारे ऊपर सौंपी है और इसके लिए हमने एक बड़ा प्लान बनाया है। इस बड़े काम में सहायता देने के लिए ही आपको बुलाया गया है। आपको इसके लिए बुलाया गया है कि हम समाज में एक ख्वाब पैदा करेंगे, नया युग लाने के लिए, नये मनुष्यों को पैदा करेंगे। युगशक्ति पैदा करेंगे। आध्यात्मिक शक्ति पैदा करेंगे। लोगों में मनस्वी तत्व पैदा करेंगे जो मन से लोहा ले सकने में समर्थ हो सकें। हम मनुष्यों में तपश्चर्या का माद्दा—अर्थात् श्रद्धा और उदारता पैदा करेंगे, करुणा पैदा करेंगे, सेवा की वृत्ति पैदा करेंगे। अभी आदमी के भीतर तो निष्ठुर पिशाच बैठा हुआ है और कहता रहता है कि ला हमारे लिए धन, ला हमारे लिए मोह। पिशाच न तो सिद्धान्तों को भीतर आने देता है, न आदर्शों को आने देता है, न करुणा को आने देता है, न सेवा को आने देता है। चाहे भजन करने जाएँ, चाहे मंदिर में जाएँ, हर जगह से यह अपना उल्लू सीधा करता रहता है।
मित्रो! हम मनुष्यों को बदलना चाहते हैं। इसके लिए हम आपको भी दावत देते हैं। इसके लिए क्या करना पड़ेगा? इसके लिए आप अपने जीवनक्रम मे थोड़ा-सा हेर-फेर कर दें और भगवान को अपने जीवन में हिस्सेदार बना लें। हमने कई बार अपील की है कि आप लोग अपने जीवन में ईश्वर को साझीदार बना लें। बैंक को आप हिस्सेदार बना लेंगे तो आपका काम अच्छा चलेगा। बड़ी-बड़ी मिलें ऐसे ही चल रही है। उनमें पचास प्रतिशत पैसा बैंक का लगा हुआ है। बैंक उनको पैसा देती है, उसकी बिल्टियों पर एडवांस देती है, तब सारे काम चल रहे हैं। आप भी भगवान की बिल्टी लें, भगवान को हिस्सेदार बनाएँ और मालदार बनाएँ और मालदार बनें। यदि कोई यह कहता है कि नहीं महाराज जी, भगवान की हमें कोई जरूरत नहीं है और हम तो ऐसे ही थोड़ा-बहुत चालाकी से, बेईमानी से काम चला लेंगे, तो बेटा इससे काम चलेगा नहीं। सम्पन्न बनना हो, मालदार बनना हो तो भगवान को हिस्सेदार बनाना ही होगा। मैंने बार-बार लोगों से कहा है कि आप अपने जीवन में से थोड़ा-सा हिस्सा भगवान के लिए खर्च करें और थोड़ा-सा अपने लिए। भगवान के लिए जो हिस्सा खर्च करेंगे, उसके बदले में आप पायेंगे। भगवान को बहकाएँगे तो नहीं पाएँगे। वह सब भगवान को बहकाना है, जो आप अब तक करते रहे हैं, ध्यान रखिये। भगवान को जिन्दगी में हिस्सेदार बनाने का मतलब यह है कि आप अपने समय का एक हिस्सा, अपनी अक्ल का एक हिस्सा, अपनी क्षमता का—प्रतिभा का एक हिस्सा, अपने प्रभाव का एक हिस्सा और अपने पैसों का एक हिस्सा भगवान् के कामों में लगाइये। नहीं महाराज जी, हम इस चक्कर में नहीं फँस सकते तो आप तालाब के तरीके से सड़ेंगे और कोई बड़ी चीज नहीं पा सकेंगे।
साथियो, मनुष्यों को श्रेष्ठ बनाने के लिए, सुखी और समुन्नत बनाने के लिए, नवयुग के अनुरूप शांति से रहने और रहने देने में सहायता करने वालों के लिए ब्रह्मवर्चस का यह प्रशिक्षण आरम्भ किया गया है। व्यक्ति निर्माण हमारा आधार है। ब्रह्मवर्चस के पीछे, जो एक छोटी इमारत के रूप में बनाया गया है, हमारा एक ही उद्देश्य है—युगशक्ति का उदय, आध्यात्मिक शक्ति का उदय, व्यक्ति को मनस्वी और तपस्वी बनाना और मनुष्य के भीतर उन शक्तियों को उदय करना, जिससे वह अपने जीवन की नाव पार कर सके और असंख्यों की नाव पार करा सके।
दूसरे नम्बर पर है—प्रज्ञा-मंदिर, जिसका कि उद्घाटन करने के लिए हमने आपको बुलाया है। कौन-सा प्रज्ञा मंदिर—गायत्री ज्ञान मंदिर। गुरुजी, गायत्री की मूर्ति तो हमारे यहाँ पहले से ही रखी हुई है, फिर दुबारा क्यों? बेटे, ये मूर्ति नहीं है, यह प्रज्ञा मंदिर है। प्रज्ञा को हम सर्वोपरि मानते हैं। प्रज्ञा से बढ़कर और कोई चीज नहीं है—‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।’ इसलिए हम भगवान को प्रज्ञा के रूप में पूजा करते हैं—दूरदर्शिता को कहते हैं। अक्ल तो हमारे पास है, पर प्रज्ञा हमारे पास नहीं है, विवेक हमारे भीतर नहीं है। अक्ल किसे कहते हैं—और प्रज्ञा किसे कहते हैं? अक्ल बेटे, वही होती है जो बी. ए., एम. ए. पास करने के बाद में खरीदी जा सकती है। कैसी होती है अक्ल? अक्ल ऐसी होती है जो हमारे लिए तुरन्त फायदा कराती है और यह नहीं देखती कि कल जो नुकसान होगा वह होता रहे। प्रज्ञावान कौन होता है? किसान होता है। वह अभी नुकसान उठाता है और छह महीने बाद फायदा उठाता है। प्रज्ञावान विद्यार्थी होता है वह तुरन्त नुकसान उठाता है, दस-पन्द्रह साल तक पढ़ता है और फिर वह गजटेड अफसर बन जाता है। प्रज्ञावान दुकानदार होता है, जो अपना घर खाली कर देता है, फिर उसके बाद कमाता है। जो दूर की बात सोचता है, उस दूरदर्शी को हम प्रज्ञावान कहते हैं और जो अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए, छोटे-छोटे सामयिक स्वार्थों के लिए अपने भविष्य को अंधकारमय बना लेते हैं, उनको मैं अक्लमन्द कह सकता हूँ। विनाश की जड़ अक्ल ही है।
अक्लमन्द कैसे होते हैं? अक्लमन्द ऐसे होते हैं जैसे आप। आप बहुत अक्लमन्द हैं, आपकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। आपकी अक्ल का मुकाबला कोई और कर सकता है क्या? नहीं और कोई नहीं कर सकता सिवाय कौआ के? कौआ बड़ा अक्लमन्द होता है, बहुत चालाक होता है। मनुष्य की सारी की सारी अक्ल ऐसे ताने-बाने बुनती रहती है कि क्या कहा जाए। बेटे, ताने-बाने बुनने वाली इस अक्ल के स्थान पर हम एक नयी सत्ता को स्थापित करना चाहते हैं, उसका नाम है—प्रज्ञा। प्रज्ञा के सामने हम मस्तक झुकाते हैं, प्रज्ञा की देवी को हम नमस्कार कहते हैं। प्रज्ञा की देवी कौन है? गायत्री माता। गायत्री माता कौन है—प्रज्ञा। प्रज्ञा किसे कहते हैं—ऋतंभरा-प्रज्ञा को, दूरदृष्टि को, विवेकशीलता को, न्यायदृष्टि को। इसी गायत्री माता की हम साधना करते हैं तो महाराज जी, गायत्री माता वह है जो थैली में रुपये लेकर आती है? नहीं, बेटे, वह रुपये वाली नहीं है। मित्रो! आपको यह जानना चाहिए कि वस्तुतः गायत्री किसका नाम है? गायत्री है श्रद्धा का नाम, प्रज्ञा का नाम। हम इसी प्रज्ञा की स्थापना करेंगे और जन-जन से कहेंगे कि आप प्रज्ञा के सामने मस्तक झुकाइए, विवेकशीलता के सामने मस्तक झुकाइए।
हमने जो भी स्थापनाएँ की हैं, उसका नाम है—श्रद्धा। हम श्रद्धा की स्थापना करते हैं। श्रद्धा क्या है? श्रेष्ठता के प्रति असीम प्यार—इसका नाम है श्रद्धा। श्रद्धा मनुष्यों के भीतर से चली गयी। श्रेष्ठता के लिए हम जबान से भले ही प्रशंसा कर दें, लेकिन असीम प्यार करने वाली वह श्रद्धा चली गयी, जिसके लिए आदमी त्याग कर सके कष्ट उठा सके। यह देवी कौन है, जिसकी हमने स्थापना की है? इसका नाम है—श्रद्धा। ये कौन है? बेटे ये नारी की गरिमा की स्थापना है। नारी की गरिमा कैसी होती है? नारी की गौरव-गरिमा सत्य, शिव और सुन्दर की तीनों विशेषताओं से सम्पन्न एक प्रतीक है। नारी का एक प्रतीक है, एक सिम्बल है जो हमारी बेटी के रूप में, भगिनी, धर्मपत्नी और हमारी माता के रूप में विद्यमान है। श्रद्धा नारी के प्रति श्रेष्ठता के भाव-गरिमा के भाव जाग्रत करती है। नारी के प्रति श्रद्धा, नारी के प्रति नमन, नारी के प्रति सम्मान, आस्था उत्पन्न करने के लिए ही हमने गायत्री माता को नारी के रूप में बना दिया। तो क्या आप नर के रूप में भी बना सकते थे? हाँ, हम नर के रूप में भी बना सकते थे, क्योंकि ब्राह्मीशक्ति, ब्रह्मा और गायत्री एक ही शक्ति है। सरस्वती, लक्ष्मी और विष्णु एक ही बात है। पार्वती और शंकर एक ही बात है। इस माध्यम से हम नारी की गरिमा बढ़ाते हैं और यह कहते हैं कि नारी के प्रति अर्थात् पवित्रता के प्रति, करुणा के प्रति, कला के प्रति, सौन्दर्य के प्रति, तपश्चर्या के प्रति नमन करें। हमने यही स्थापना की है।
देश भर में हमने प्रज्ञा मंदिरों की स्थापना की है। प्रज्ञा मंदिरों से आप क्या करेंगे? प्रज्ञा मंदिरों से बेटे हम वह काम करेंगे जो बहुत दिनों पहले मिशन के लिए यह घोषणा की थी कि हम नया समाज बनाएँगे। तो नये समाज का आधार क्या होगा—बताइये? हर एक के मेनीफेस्टो होते हैं। नया समाज बनाने का आधार हमारा यह है कि हम आदमी का चिन्तन बदल देंगे और जनमानस का परिष्कार करेंगे। हम हर आदमी का मन बदल देंगे। मन बदलने से क्या होगा? मन बदलने से व्यक्ति की समस्याएँ और समाज की परिस्थितियाँ दोनों बदल जाएँगी। हमने आपको कितनी बार बताया है कि हर आदमी की व्यक्तिगत समस्याएँ और समाज की असंख्य समस्याएँ हैं। इन सबका एक ही कारण है—आदमी का मन। आदमी का मन अगर सड़ेगा तो उसमें से कीड़े, मच्छर, बदबू पैदा होगी। कीचड़ को आप साफ कर दीजिए, फिर मच्छर भगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हमारे चिन्तन की मलीनताएँ सारे के सारे समाज में असंख्यों परिस्थितियाँ पैदा करती हैं—राष्ट्रीय, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन में। इसलिए हम समाज-निर्माण के लिए इस बात का शिक्षण करते हैं कि शालीनता, सज्जनता, भलमनसाहत, ईमानदारी और शराफत आदि तत्वों को आगे बढ़ाना चाहिए। समाज का अभिनव निर्माण इन्हीं आधारों पर खड़ा होगा।
मित्रो! गायत्री माता क्या है? यह ईमानदारी और नेकनीयती, सज्जनता और शराफत की देवी है। इसके माध्यम से हम सबको समझाएँगे। राजहंस इसका वाहन है। इसे यह पसंद करती है, दुलार करती है और चौबीसों घंटे साथ लिए फिरती है। यह राजहंस ऐसा है, जो नीर-क्षीर का विवेक करता है, जो मोती खाता है—कीड़े नहीं खाता। नहीं गुरुजी, हंस तो कीड़े खाते हैं। हाँ बेटे, हंस कीड़े खाते हैं, पर गायत्री माता का राजहंस अलग है। गायत्री माता की स्थापना करके हम राजहंस पैदा करना चाहते हैं। हम गायत्री उपासकों में राजहंस की वृत्ति पैदा करना चाहते हैं। सावित्री की उपासना करने वालों को सत्यवान बनाना चाहते हैं। गायत्री का ही नाम सावित्री है और सावित्री का वरण करने के लिए माला पहनने के लिए सत्यवान की जरूरत पड़ती है। गुरु जी! आप तो सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर रहे हैं, देवी-देवताओं की बात नहीं करते? क्या देवी-देवता फायदा नहीं कराते? हाँ बेटे, देवी-देवता फायदा कराते हैं, लेकिन वे देवी-देवता सिद्धान्त होते हैं, आदर्श होते हैं। मनुष्य की महानता—मनुष्य के गुण होते हैं, श्रेष्ठताएँ होती हैं। देवी वह नहीं होती जो पहाड़ पर मंदिर में बैठी रहती है और बकरे खाती है। देवी ऐसी नहीं हो सकती वह तो कोई डाकिन होगी, भूतिन होगी। आपकी देवी और हमारी देवी में फर्क है। हमारी देवी देवत्व की निष्ठाएँ हैं, देवत्व के प्रति आस्थाएँ हैं। देवत्व के संकल्प, देवत्व की मान्यताएँ, भावनाएँ हैं। इन्हीं का हम विस्तार करना चाहते हैं। प्रज्ञा मंदिर हमने इसीलिए बनाया है। तो क्या आप इसी मंदिर में से गायत्री उपासना सबको सिखा देंगे? नहीं बेटे, हमने तो ये प्रतीक बनाया है। यह एक सिम्बल है। हम चाहते हैं कि इसका विस्तार हो।
प्रज्ञा विस्तार के लिए क्या-क्या काम करने होंगे? इसके लिए हमें बहुत काम करने होंगे। हमने आप लोगों को इसीलिए बुलाया है कि लोगों की अक्ल को बदलने के लिए कई कार्यक्रम हाथ में लेने चाहिए। आदमी को विवेक की विचारधारा, अक्ल की नहीं—विवेक की, न्याय की, सिद्धान्तों की, आदर्शों की विचारधारा को बताने के लिए हृदयंगम कराने के लिए हमको और आपको दो काम करने चाहिए। एक तो लोगों को अपने पास बुलाना चाहिए और दूसरा लोगों के घरों पर जाना चाहिए। यह प्रज्ञा की दैवी गायत्री माता की सबसे बड़ी सेवा है। तो क्या भजन करें? हाँ भजन तो करना ही पड़ेगा। भजन तो हम भी करते हैं, लेकिन उतने से ही काम पूरा नहीं होगा। भजन के साथ-साथ में उसको चरितार्थ करना भी बेहद जरूरी है। इस वास्ते हमने एक आन्दोलन आपको दिया है कि आप ज्ञानरथ चलाएँ—गायत्री माता का ज्ञान रथ। ज्ञानरथ कैसा होता है? ज्ञानरथ ऐसा होता है। वृन्दावन में रंगजी का एक मंदिर है। उस मंदिर से जब रथ यात्रा निकलती है तो वह घर-घर जाती है। बूढ़े और बच्चे जो मंदिर नहीं पहुँच पाते, उनके लिए भगवान् को रथ पर बिठाकर घर-घर ले जाते हैं और कहते हैं कि देखिये साहब, आप जो रंगजी के मंदिर नहीं पहुँच पाये थे, अब हमने भगवान को आपके घर में लाकर रख दिया है, आप दर्शन कीजिए।
युग के अनुरूप विचार-क्रांति के लिए, ज्ञानयज्ञ के लिए हम भी अलख निरंजन कहते हुए बादलों की तरीके से ,, तीर्थयात्रा की तरीके से घर-घर जाएँगे अपने साहित्य को लेकर। जो लोग पढ़े-लिखे नहीं है, समझ भी नहीं सकते, उनके लिए लेखनी के अलावा एक और चीज रह जाती है, उसका नाम है वाणी। वाणी को हम घर-घर लेकर जाएँगे और अलख जगाएँगे। तीर्थयात्रा प्राचीनकाल में इसीलिए होती थी। पदयात्रा का और कोई उद्देश्य नहीं था। यह मात्र धर्मप्रचार के लिए अर्थात् ज्ञान-प्रचार के लिए होती थी। चाहे वह ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा हो या नर्मदा की परिक्रमा। धर्म क्या होता है—अच्छे ज्ञान और अच्छे विचार। अच्छे विचारों को फैलाने के लिए घर-घर जाना पड़ता है।
ये क्या है? ये बेटे वही है जिसे हम प्रज्ञा का—गायत्री माता का प्रचार कहते हैं। प्रज्ञा का प्रसार करने के लिए सम्मेलनों की बात कहते हैं। घर-घर जाना जब मुश्किल पड़ता है तब लोगों को एक जगह जमा कर लेते हैं और अपनी बात उनसे कम समय में कह देते हैं। आप क्या बोलते हैं? बेटे हम गायत्री मंत्र बोलते हैं—केवल गायत्री मंत्र। हमारी वाणी से और कोई दूसरा शब्द नहीं निकलता। हमारा सारा जीवन गायत्री माता को समर्पित है। इसलिए हम गायत्री के अलावा दूसरा शब्द बोल नहीं सकते। एक स्वामी जी केवल एक ही शब्द बोलते थे—हरे राम-हरे कृष्ण। इसके अलावा और कोई दूसरा शब्द नहीं बोलते थे, मात्र इशारा कर देते थे। हम भी गायत्री मंत्र बोलते हैं। हमारा मिशन गायत्री मंत्र बोलता है।
गायत्री मंत्र का अर्थ क्या है? गायत्री मंत्र का अर्थ है—अवांछनीयता के विरुद्ध संघर्ष। गायत्री मंत्र के ‘भर्गो’ शब्द के माने हैं—जो अवांछनीय तत्व है उसको भून डालना, उसके विरुद्ध लोहा लेना, संघर्ष करना। यही विचार-क्रान्ति है और ज्ञानयज्ञ क्या है? ज्ञानयज्ञ वह है जिसमें से सद्भावना का उदय होता है, श्रेष्ठता का उदय होता है। यही काम हमको और आपको करना है। बहुत-से कार्यक्रमों के लिए हम आपको बुलाते रहते हैं। ये सब क्या है? बेटे, यह गायत्री मंत्र की उपासना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। आपको तो इसलिए मालूम नहीं पड़ता कि आप माला घुमाने को ही गायत्री मंत्र कहते हैं और अच्छे विचारों के विस्तार के लिए जो प्रयास किये जाते हैं, उसको आप गायत्री मंत्र नहीं मानते। वस्तुतः अच्छे विचारों का—अच्छी भावनाओं का संवर्द्धन करना विशुद्ध गायत्री मंत्र की उपासना करना है। मैं चौबीसों घंटे इसी महामंत्र की उपासना करता हूँ—जप करता हूँ। सोलह घंटे काम करता हूँ, नहाने-धोने, खाने-पीने, सोने सबमें गायत्री मंत्र की उपासना करता हूँ। अच्छे विचारों को फैलाना, जन-जागरण करना, लोगों की भावनाओं को परिवर्तित करना, उसके लिए परामर्श देना—ये सारे के सारे कार्य हैं जो आपको करना चाहिए।
ब्रह्मवर्चस में प्रज्ञा मंदिर की स्थापना करने के लिए जो आप आये हैं, इसमें हम आपको गायत्री मंत्र का साक्षात्कार, गायत्री मंत्र का दर्शन, गायत्री मंत्र की विशेषता और गायत्री मंत्र को जीवन में समावेश कर लेना—इसकी विधियाँ सिखाएँगे। सारे विश्व में हम गायत्री मंत्र की हवा पैदा करेंगे। चारों ओर गायत्री मंत्र की हवाएँ पैदा करेंगे जिसे सभी मानेंगे। गायत्री मंत्र की जो निष्ठाएँ हैं, जो प्रेरणाएँ हैं, गायत्री मंत्र की जो दिशा है, जो कल्पना है वह हर एक को हृदयंगम करायेंगे और उनसे यह कहेंगे कि यह सार्वभौम मंत्र है, सार्वजनीन मंत्र है और इसमें व्यक्ति विशेष के लिए कोई अंतर नहीं पड़ता। ज्ञानरथ चलाने से लेकर सम्मेलन करने तक सभी हमारे कार्यक्रम गायत्री माता को घर-घर पहुँचाने के लिए हैं। हमारे सम्मेलन राजनैतिक सम्मेलन नहीं हैं। हमारे सम्मेलनों में केवल मनुष्यों के भीतर से सद्भावना जगाना, सत्प्रेरणा जगाना, सत्प्रवृत्तियाँ जगाना—बस यही एक उद्देश्य है। इसी के लिए हम आपको कार्यक्रम देते हैं, क्षेत्रीय सम्मेलन बुलाने के लिए कहते हैं। क्षेत्रीय सम्मेलनों में हम गायत्री माता के सद्विचारों का प्रसार करेंगे। इसके लिए जो भी व्यक्ति भेजे जाएँ, हम चाहते हैं कि वे हमारे शब्दों में बोलें, हमारी वाणी में बोलें और हमारे जैसे बोलें। अगले दिनों समाज का नया निर्माण करने के लिए, विचारों को विस्तार देने के लिए प्रज्ञा मंदिरों का विस्तार होगा। आज तो एक शुरुआत है, जिसका कि अभी-अभी उद्घाटन हुआ है।
साथियो! गायत्री एक परिवार है। परिवार-निर्माण करने की प्रणाली है। परिवारों का निर्माण कैसे करना चाहिए—इस सम्बन्ध में हमने एक बार ‘लार्जर फेमली’ नाम से एक लेख छापा था। उसमें घर-परिवार कैसे बनने चाहिए, कुटुम्ब-समाज कैसे बनने चाहिए, यह बताया गया था। गायत्री परिवार, युग-निर्माण परिवार, अखण्ड-ज्योति परिवार जैसे शब्द हमें बहुत प्यारे लगते हैं। बेटे, यह हमारा परिवार है जिसमें स्वर्ग का अवतरण होने वाला है। स्वर्ग का अवतरण सबसे पहले कहाँ होगा? परिवार में होगा, फिर वहाँ से व्यक्तियों में फैलेगा और समाज में फैलेगा। स्वर्गीय वातावरण वाले पारिवारिक खदानों से ही नर-रत्न पैदा होते हैं। कॉलेज में से गुरुकुल में से नर-रत्न पैदा नहीं होंगे। हाँ गुरुकुल यदि कोई परिवार होगा तो वहाँ से पैदा हो जाएँगे। परिवार नहीं होगा तो वहाँ भी पैदा नहीं होंगे। परिवार कैसे बनने चाहिए? परिवार ऐसे बनने चाहिए जैसे कि एक महिला ने परिवार की पाठशाला में, प्रयोगशाला में तीन ब्रह्मज्ञानी बना दिये थे, जिनके नाम थे विठोबा, विनोबा और बालकोवा। परिवार को कौन चला सकता है? परिवार को चलाने का स्वामी-अधिकारी एक ही है और उसका नाम है—नारी। नारी के पास वह शक्ति है जो मनुष्य की अक्ल को तो नहीं, पर हृदय को ठीक कर सकती है। नारी के पास हृदय तत्व बहुत विशाल है। शरीर से, ताकत से ही वह कमजोर पड़ती है, लेकिन श्रद्धा में बढ़ी-चढ़ी ही होती है। मनुष्य के भीतर की मनुष्यता को, शालीनता को विकसित करने के लिए एक ही तत्व काम करता है और उसका नाम है—श्रद्धा। श्रद्धा—भावना से भरी हुई नारी को हम जगाना चाहते हैं। परिवार संस्था को जीवित करना चाहते हैं।
आज परिवार-संस्था को खत्म हो गयी है और रह गये हैं बस स्त्री-पुरुष। स्त्री-पुरुष कौन होते हैं? वासना के शिकार। ब्याह किसके लिए होता हैं? वासना के लिए—प्रेम के लिए नहीं। प्रेम किसे कहते हैं? बेटा, प्रेम तो चला गया, प्रेम तो दुनिया में रहा ही नहीं, श्रद्धा तो है ही नहीं, सहयोग तो रहा ही नहीं। परिवार संस्था खत्म हो गयी। परिवार कैसे होने चाहिए? इस संस्था को जीवित रखने के लिए हम नया प्रयोग करते हैं और अपने कुटुम्बियों-कार्यकर्ताओं को बुलाकर कहते हैं कि आप अपने कुटुम्ब हमारे हवाले कीजिए, हम उनका शिक्षण करेंगे। गुरुजी आप तो संत हैं। हाँ बेटे, हम संत हैं, इसलिए हम कुटुम्बों का शिक्षण कर सकते हैं। भगवान राम के बीबी-बच्चों का शिक्षण महर्षि वाल्मीकि ने जैसे अच्छी तरह से किया था, वैसा कोई दूसरा नहीं कर सकता था। लव, कुश और सीता को जिस सुख और शान्ति से उन्होंने रखा, वैसा और कोई नहीं रख सकता था। यह काम केवल संत ही कर सकते हैं। परिवारों का निर्माण कैसे करना चाहिए? इसके लिए हमने एक प्रयोगशाला बनायी है। एक कॉलोनी बसाई है—नाम है उसका गायत्री नगर। इसमें हम शिक्षण देंगे कि नारी को कैसे विकसित करना चाहिए? नारी-शिक्षण कैसे होने चाहिए? लार्जर फेमिली सिस्टम कैसे बनने चाहिए? घरों में स्वर्गीय वातावरण कैसे बनाने चाहिए? इसके लिए हम सौ क्वार्टरों की, सौ फैमिली की एक प्रयोगशाला बना रहे हैं। आप भी अपने घरों में लार्जर फैमिली का परिवार निर्माण करने की प्रक्रिया का पालन करेंगे।
अपने कुटुम्बों का निर्माण करने के लिए आपको क्या करना चाहिए? इसकी शुरुआत करने के लिए हम तिनके के बराबर सबसे छोटा एक प्रोग्राम बताते हैं। आप अपने परिवार में आस्तिकता, धर्म और श्रद्धा इन तीनों को प्रवेश कराने का प्रयत्न कीजिए। इसके लिए आप अपने घरों में गायत्री माता के, भगवान के चित्र स्थापित कीजिए। चौकी पर स्थापित कर सकें तो अच्छा है, अन्यथा यदि जगह कम है तो जरा-सा ऊँची दीवार के ऊपर गायत्री माता के एक चित्र लगा दें, जहाँ कि छोटे बच्चों के हाथ न पहुँच सकें। अब एक नियम बना लें कि घर का कोई भी सदस्य तब तक खाना नहीं खायेगा जब तक कि भगवान को, गायत्री माता को प्रणाम नहीं कर लेगा। दो मिनट—पाँच मिनट गायत्री माता का जप कर लें, पर यदि समय न हो तो भी चित्र के सामने नंगे पैर जाइये हाथ जोड़िए, माथा झुकाइए। यह न्यूनतम उपासना है। पाँच बार गायत्री मंत्र का जप मन ही मन करें और प्रकाश अथवा गायत्री माता का ध्यान करें। आस्तिकता की शुरुआत के लिए यह न्यूनतम मर्यादा है। हम चाहते हैं कि आप लोगों के घरों में ऐसा एक भी व्यक्ति न बचे, जिसमें आस्तिकता की शुरुआत न हो गयी हो। गायत्री महामंत्र क्योंकि सार्वभौम मंत्र है, अतः अगले दिनों जब नया विश्व बनेगा तो एक आधार जरूर रखना पड़ेगा किसी न किसी उपासना का। अपना भगवान यह कहता है कि सारे विश्व में अगले दिनों जो उपासना होने वाली है, वह गायत्री मंत्र की होने वाली है। अतः आप अभी से अपने घरों में वह आस्तिकता पैदा करें और अपने पड़ोसियों तक इसे फैलाएँ। न्यूनतम गायत्री उपासना का यह क्रम अवश्य अपनाएँ।
एक बात और रह जाती है और वह है यज्ञ। यज्ञ का क्रिया-कलाप भी हर घर में चलना चाहिए। भले वह न्यूनतम ही क्यों न हो। यज्ञ का क्रिया-कलाप कम से कम क्या हो सकता है? बेटे, यज्ञ का कम से कम क्रिया-कलाप इतना सरल है, जिसे स्त्रियाँ कर सकती हैं और गायत्री को तथा यज्ञ को जिंदा रख सकती हैं। इसलिए मैंने आपसे प्रार्थना की है कि आप इसमें मदद करें। आप यज्ञ और गायत्री माता का पूजन न कर सकते हों तो अपने घर की स्त्रियों को इसके लिए प्रोत्साहित करें। उनकी हिम्मत बढ़ा दें। इतने से भी काम चल सकता है। यज्ञ की परम्परा इतने से भी जिंदा रह सकती है। इसके लिए करना यह है कि खाना बनाते समय चूल्हे में से थोड़ी-सी अग्नि निकालें और जरा-सा दो बूँद घी की आहुति स्वरूप डाल दें। अब रोटी के छोटे-छोटे पाँच टुकड़े किये जाएँ और प्रत्येक बार गायत्री मंत्र बोलते हुए पाँच बार उन टुकड़ों में जरा-सा घी और शक्कर या गुड़ मिलाकर स्वाहा के साथ चूल्हे की अग्नि में समर्पित कर दिया जाए। प्रारम्भ में हथेली की अंजली-सी बनाकर उसमें थोड़ा जल भर लें और गायत्री मंत्र बोलते हुए अग्नि के चारों ओर छिड़क दें। दो बूँद शुरू में और दो बूँद आखिर में घी डाल दें तथा एक बूँद पूर्णाहुति की एवं एक बूँद वसोर्धारा की डाल दें। प्रारम्भ में अग्नि को प्रज्वलित करने का मंत्र ॐ अग्ने नय सुपथ राये..........। आता हो तो बोल लीजिए, अन्यथा कोई जरूरत नहीं है। गायत्री मंत्र से ही पूरा हवन कर लीजिए। अब आपको यज्ञ से बचा हुआ भोज
न-संस्कारित भोजन मिलेगा।
आप सिद्धान्तों को लेकर चलिए, प्रतीक को देखिये। बड़ा यज्ञ नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं, लेकिन प्रतीक तो चलना ही चाहिए। प्रतीक को जिंदा रखिये, मेरा उससे भी काम चल जाएगा। समय आयेगा तो हम प्रतीक को आगे बढ़ा देंगे। आप अपने घरों में यज्ञीय परम्परा को जिंदा रखिये। स्त्रियाँ खाना पकाते समय गायत्री मंत्र का जप किया करें। यह अन्न, यह आहार और यह दूध आप में और बच्चों में नये युग के अनुरूप नयी बुद्धि पैदा करेगा। देखने में यह छोटी-सी बात मालूम पड़ती है, परन्तु इसके सत्परिणाम और फलितार्थ असाधारण है। आप यह छोटी-सी शुरुआत तो करें, फिर देखें क्या परिणाम मिलता है। अभी हम आपके ऊपर बड़ी चीज लादना नहीं चाहते। बच्चों के ऊपर बड़ी एवं भारी चीज का वजन लादना बड़ा मुश्किल है, अतः आप छोटी-सी चीज से शुरू कीजिए और फिर क्या काम करें? आप फिर एक और कदम यह बढ़ाइये कि प्रातः और सायंकाल गायत्री माता की सामूहिक प्रार्थना—आरती किया करें। यदि दोनों वक्त सामूहिक आरती हो सके तो अति उत्तम है अन्यथा सुबह या शाम में से एक बार सामूहिक रूप से गायत्री माता की आरती-भगवान की प्रार्थना अवश्य किया करें। प्रार्थनाएँ सामूहिक रूप से गायी जाएँ। इसके साथ ही घर के सभी सदस्य मिलकर सहगान के आधार पर एक-दो गीत गा दें, प्रार्थना गा दें। इससे जो वातावरण बनेगा वह व्यक्ति को अन्दर तक झकझोरकर रख देगा, अन्दर तक हिलाकर रख देगा। हमारे यहाँ इसी तरह की सामूहिक प्रार्थनाएँ होती हैं, आपने देखा होगा कि कैसे मन को कँपा देती हैं, हृदय को झंकृत कर देती हैं। यही संगीत परम्परा आप अपने घरों में जारी रखें। इससे न केवल घर-परिवार में आस्तिकता का वातावरण बनेगा, वरन् पड़ोस में—समाज में भी वह प्रचलन चल पड़ेगा, जिसकी आवश्यकता धरती पर स्वर्ग के अवतरण और मनुष्य में देवत्व के उदय के लिए है। नया युग लाने के लिए, नया समाज बनाने के लिए आध्यात्मिक शक्ति पैदा करना अनिवार्य है। हम और आपको इसमें जी-जान से जुट पड़ना चाहिए। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति।