उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
यह विश्व जब बना तब मानव भी अन्य प्राणियों की भाँति उसी तरह का था जैसा कि सभी प्राणी अपना शरीरयापन करने के लिए संघर्ष करते, भूख पूरी करने के लिए परिश्रम करते और बच्चे पैदा करने में लगे रहते हैं। ब्रह्माजी विचार करने लगे—इतना परिश्रम जो मनुष्य के ऊपर किया गया, किसलिए किया गया? अगर मनुष्य को भी कीड़े-मकोड़े की तरह जीना था तो उसके लिए किसलिए परिश्रम किया गया, ब्रह्माजी ने विचार किया कि यदि यह प्राणी भी अन्य प्राणियों की तरह पेट पालता रहा, बच्चे पैदा करता रहा और अपने अहंकार के पूर्ति के लिए आपस में संघर्ष करता रहा, तब फिर इतना परिश्रम बेकार गया समझा जाना चाहिए। विचार करने के बाद ब्रह्माजी ने कहा—मनुष्य जिन विशेषताओं के लिए बनाया गया है, उसे उन विशेषताओं के लिए कुछ अनुदान भी देना चाहिए और वह अनुदान उसे ‘ऋतम्भरा-प्रज्ञा’ का दिया गया। विवेकशीलता, विचारशीलता, उच्चकोटि के आदर्शों में निष्ठा इन सब चीजों के समन्वय का नाम है ‘ऋतम्भरा-प्रज्ञा’। ऋतम्भरा-प्रज्ञा अर्थात् विवेकशीलता, विवेकशीलता अर्थात् उन उद्देश्यों को याद रखना जिनके लिए भगवान् ने मानव प्राणी को बनाया। इस ऋतम्भरा-प्रज्ञा की इस विश्व के प्रारम्भ में उसी तरीके से अवतरण हुई जिस तरीके से इस संसार में स्वर्ग से गंगा भगीरथ के द्वारा लाई गई।
ऋतम्भरा-प्रज्ञा की धारा, आध्यात्मिक धारा स्वर्गलोक से आई, देवताओं से जमीन पर आई और मनुष्यों में प्रवाहित होने लगी। मनुष्यों में जब वह धारा प्रवाहित होने लगी, तब ऋतम्भरा-प्रज्ञा का नाम पूजा-उपासना की, आध्यात्मिक की भाषा में रखा गया-गायत्री विद्या-ब्रह्म। आज उसी महान शक्ति का जन्मदिन है। वह महान शक्ति मनुष्य की तमाम शक्तियों को उभारने वाली है।
ऋद्धियों और सिद्धियों के बारे में अनेक बातें बताई जाती हैं। यह कहा जाता है कि मंत्र अनेक सामर्थ्यों के पुंज हैं, शक्तियों के, सिद्धियों के पुंज हैं। क्या यह बात सही है? हाँ! यह बात सही है, यदि गायत्री महामंत्र के स्वरूप को समझा जाए और जीवन में धारण किया जाए तब। गायत्री का स्वरूप ही न समझा जाए और उपासना जिस तरीके से की जाती है, उस तरीके से न की जाए तो उससे न तो भीतर से सिद्धियाँ उपजती हैं, न विभूतियाँ। स्वरूप क्या? स्वरूप यह कि मनुष्य का जो विवेक सो गया है, उसे जाग्रत किया जाए।
ऋतम्भरा-प्रज्ञा यह सिखाती है कि मनुष्य! अहंकार में डूबे मत। बड़े आदमी बनने की चाह और ललक में अपने जीवन को बरबाद करे मत। ‘ऋतंभरा-प्रज्ञा’ के तीन शिक्षण हैं। गायत्री मंत्र के तीन चरण हैं। ऋतम्भरा-प्रज्ञा अर्थात् ब्रह्मविद्या, ऋद्धियों-सिद्धियों से भरी विद्या। इसका स्वरूप समझा जाना चाहिए जैसा कि मैं आपको समझा रहा हूँ और जैसा कि मैंने अपने जीवन में इस महाविद्या का स्वरूप समझने की कोशिश की।
मैंने ऋतम्भरा-प्रज्ञा का पहला चरण यह समझने की कोशिश की कि मनुष्य को यश का भूखा नहीं होना चाहिए, बड़प्पन का भूखा नहीं होना चाहिए, अहंकार का पुतला नहीं होना चाहिए। दूसरों के ऊपर अपना रौब गालिब करने का और दूसरों की आँखों में बड़ा आदमी बनने का इच्छुक नहीं होना चाहिए। अगर आदमी इस तरह का नहीं बना, तब उसकी सारी सामर्थ्य और सारी की सारी जो विशेषताएँ हैं, भगवान ने जिसके लिए मनुष्य को बनाया है, वे उसके पास रह नहीं जावेंगी। मनुष्य निकम्मा और बेकार होकर रह जाएगा। मनुष्य का अहंकार जब तक बना रहेगा, उसकी पूर्ति का जब तक वह इच्छुक है, तब तक वह भगवान की इच्छा को पूरा नहीं कर सकता। न उसके पास समय बच सकता है, न शक्ति, न पैसा बच सकता है। आदमी का अहंकार बादल के बराबर, सुरसा के मुँह के बराबर है। इतना बड़ा है कि उसमें एक जीवन क्या, हजारों जीवन समाप्त हो जाएँ तो भी इसकी पूर्ति नहीं हो सकती। ऐसा आदमी भगवान के लिए काम कर सकता है? नहीं। लोकमंगल और आत्मकल्याण के लिए काम कर नहीं सकता। समय और शक्ति को बरबाद करने वाले अहंकार को मिटाना ऋतम्भरा-प्रज्ञा, गायत्री मंत्र का पहला चरण है।
दूसरा चरण यह है कि मनुष्य को अपनी दो शारीरिक आवश्यकताओं के पूर्ति के लिए इतना व्याकुल-बेचैन नहीं होना चाहिए। मनुष्य को जो शरीर मिला है, वह उसके पहनने का लिबास मात्र है। आदमी का लिबास है, घोड़ा है, साइकिल है और इस साइकिल के लिए इतना बेचैन नहीं होना चाहिए कि सवार की इच्छा-आवश्यकता को ही भूल जाए। कलेवर की, इस शरीर की दो आवश्यकताएँ हैं—एक यह कि आदमी को भूख लगा करती है और रोटी की जरूरत होती है और भगवान ने, जिस दिन वह पैदा हुआ था यह विश्वास दिलाया था कि मनुष्य जब तक तू जिन्दा रहेगा, तब तक बराबर कोशिश करता रहूँगा और बराबर तेरी सहायता करता रहूँगा। कोई भी दिन ऐसा नहीं जाएगा कि अगर तू अपना पुरुषार्थ करता रहा तो पेट भरने के लिए कमी पड़े। भगवान ने, जिस दिन मनुष्य पैदा हुआ था, यह शिक्षण दिया कि माँ के पास गरम-गरम दूध के डिब्बे तुम्हारे लिए रखे हैं और यह सुविधा हमने इसलिए दी है कि जन्म होने पर तुम्हें यह मालूम पड़े कि हमारे ऊपर कोई संरक्षक शक्ति है। उसने यह शिक्षण दिया था, पैदा हुआ था मनुष्य जब, कि तेरे लिए धोबिन तैयार तेरे कपड़े धोने के लिए, तेरा खर्च उठाने के लिए तेरा बाप तैयार। ये तेरे नुमाइन्दे हैं तेरे लिए। मनुष्य! पेट के लिए भटकना मत। पेट के लिए सिद्धान्तों को भूलना मत। पेट मैं तेरा भरता रहूँगा। जब कीड़े-मकोड़ों का, सबका भरता हूँ तो तुझे पेट भरने के लिए चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। पेट के लिए कर्तव्य जरूर करना चाहिए, लेकिन अपनी अक्ल और भावना को उस पर बलिदान नहीं करना चाहिए। लेकिन हाय रे मनुष्य! गायत्री मंत्र के इस शिक्षण को लात से रौंदता चला गया और यह उम्मीद लगाता रहा कि उसे भगवान का प्यार मिलेगा, ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ मिलेंगी। कैसे सम्भव था यह?
तीसरा चरण एक और था। इन्द्रियाँ मनुष्य की बनाई गयी थीं कि मनुष्य का जीवन आनन्द से भरा हुआ रहे, उल्लास से भरा हुआ रहे। इस विवेकशील प्राणी को हँसने-हँसाने की, उल्लास की विद्या आनी चाहिए। इसके लिए उसे जिह्वा, आँख एवं कामेन्द्रियाँ मिली हुई थीं। सारी की सारी इसलिए कि मनुष्य आनंदित होकर जिये। पर हाय रे अभागे मनुष्य! इन इन्द्रियों के भीतर जो ब्रह्मवर्चस-ब्रह्मतेज था, उन्हें नष्ट करता हुआ चला गया। जीभ का उपयोग आया होता तो उसने हर आदमी से मीठा वचन और प्यार का वचन बोला होता। उल्लास और आनंद से भरने वाला वचन बोला होता, आदमी को आगे बढ़ाने वाला वचन बोला होता। लेकिन आदमी जिह्वा इंद्रियों का उपयोग न कर सका। यदि किया होता तो हममें आप में से हर कोई 100 वर्ष जिया होता। हमने नशे पिए, जायके के लिए मिर्च-मसाले खाए, जो हमारी खुराक में शामिल नहीं थे। एक इन्द्रिय का जिक्र मैंने किया, अन्य इन्द्रियों का मैं नहीं करना चाहता। करूँगा तो मनुष्य का निकृष्ट और पापी जीवन सामने आयेगा और यह मालूम पड़ेगा कि जिसके लिए मनुष्य बनाया गया था, वह सारा का सारा उद्देश्य उसने चौपट करके रख दिया, ठीक उल्टी दिशाओं में चला।
ऋतंभरा-प्रज्ञा—गायत्री जिसका जन्मदिन है, तीन धाराओं के रूप में हमारे जीवन में प्रवाहित होती है, गंगा, यमुना और सरस्वती—तीन का यहाँ, जब कभी सम्मिश्रण बन गया, उसी जगह का नाम तीर्थराज बन गया। तीर्थ राज मनुष्य को बनाया गया था, तीन धाराओं के रूप में प्रवाहित होता हुआ। अहंकार से दूर, लोभ-तृष्णा से दूर, इन्द्रियों के दुरुपयोग से दूर, मनुष्य इन तीन पापों से बचा हुआ रहता, तब उसके पास जो भगवान का दिया ब्रह्मवर्चस था, ब्रह्मतेज था, वह प्रस्फुटित होता और आदमी तीर्थराज बन गया होता।
ब्रह्माजी न जब यह विश्व बनाया था तब विवेकशीलता, विचारशीलता रूपी उपहार जिस दिन मनुष्य को दिया, वह आज का गायत्री जयंती का ही दिन था। गंगा आज ही अवतरित हुई थी और गायत्री मंत्र के रूप में ज्ञान की गंगा आज के ही दिन अवतरित हुई थी। गंगा का एक स्वरूप स्थूल और एक स्वरूप सूक्ष्म है। गायत्री का एक स्वरूप स्थूल और एक स्वरूप सूक्ष्म है। गंगा का स्थूल स्वरूप आप देख सकते हैं—बाँध, नहरों के रूप में। गंगा खेतों के लिए पानी देती है, बिजली पैदा करती है। गंगा का सूक्ष्म रूप यह है कि जब आप नहाते हैं, यह प्रार्थना करते हैं कि स्वर्ग से आई देवी इस धरती पर प्रवाहित होती है और हमारे मन, हमारे अहंकार, हमारी अन्तरात्मा और हमारे अन्तरंग जीवन—इन सबको साबुन लगाती, मलीनताओं को धोती चली जाती है—पाप के कर्म-फल को नहीं, पाप-वृत्तियों को नष्ट करती हुई चली जाती है।
गंगा के पानी में नहाने वाले मात्र स्थूल गंगा का ही लाभ उठा पाते हैं। सूक्ष्म गंगा यह सिखाती है कि मनुष्य के अंतरंग में गंगा की पुण्य-पवित्रता और शीतलता प्रस्फुटित होनी चाहिए और मनुष्यों की पाप-वृत्ति का समाधान होना चाहिए, पाप के दण्ड का नहीं। पाप के दण्ड का तो एक ही बचाव है कि पाप का प्रायश्चित करना चाहिए। आदमी ने जितना गड्ढा किया है, उतनी ही मिट्टी लाकर डालनी चाहिए। समाज को जितना नुकसान पहुँचाया है, उसकी पूर्ति होनी चाहिए।
गंगा जी के साथ पवित्रता भरी पड़ी है, शांति और शीतलता भरी पड़ी है। उसे यदि हम अपने जीवन में स्थापित कर सकते हैं तो यही भावना भीतर आयेगी कि हमें गंगा के तरीके से निर्मल होना चाहिए, शीतल होना चाहिए। गंगा की तरह खेत और खलिहानों में अपने चारों तरफ खुशी, हरियाली पैदा करने वाला होना चाहिए, अगर यह भावना हमारे भीतर आयेगी तो पाप-वृत्तियाँ नष्ट हो जाएँगी और तब हम स्वर्ग-शांति के अधिकारी होंगे। गंगा के सूक्ष्म स्वरूप के साथ यदि हम गंगा में स्नान करें तो यह अनुभव करते चलें कि गंगा माँ को अपने जीवन में प्रवेश करा रहे हैं, गंगा की लोकमंगल वृत्ति हमारे रोम-रोम में समाविष्ट हो रही है। जब नहा कर निकलें तब यदि यह अनुभव करते हुए निकलें कि अपनी पाप-वृत्तियों को हमने बहा दिया, भावी जीवन शुद्ध और पवित्र जियेंगे तो मैं कहता हूँ कि वह सारे का सारा माहात्म्य जो गंगा में स्नान का बताया गया है, वह जरूर सही होगा, जरूर लाभ देगा।
गायत्री मंत्र, ज्ञान गंगा, जिसका आज जन्म-दिन है, का स्थूल रूप वह है जो हमारी कल्पना के अनुसार एक महिला है कोई, कहीं आसमान में रहती है, हंस की सवारी करती है। हमारी आपकी स्थूल कल्पना है कि वह देवी खुशामद से प्रसन्न हो जाती है। हम जब आरती करते हैं उसकी, तो देवी फूलकर कुप्पा हो जाती है और कहती है—वाह भाई! वाह, यह आरती करने वाला चेला खूब मिला और हम जब माला घुमाते हैं तो देवी बहुत खुश होती है कि हमारी जय बोलने वाला, पूजा-प्रशंसा करने वाला दुनिया में कोई नहीं था। अब यह भगत पैदा हो गया है। कैसी हमारी जय बोलता है, आरती उतारता है? वह यही देखती है कि भगत दे रुपया, दे पैसा, दे औलाद, कर इम्तिहान में पास, इन सबके अलावा और कुछ नहीं माँगता। यह स्थूल गायत्री है। इस स्थूल गायत्री के लाभों से मैं इनकार करता हूँ। यह यदि रहे होते तो हर मंदिर के पूजा करने वाले पुजारी को वे लाभ मिले होते। आप में से नब्बे फीसदी ऐसे हैं, जो गायत्री मंत्र का जप करते हैं। आपकी यह माला स्थूल माला है, स्थूल पूजा है। इसके बारे में मैं इनकार नहीं करता। मैं कहूँगा कि यह भी उपयोगी है। जितने समय आप पत्ते खेलते हैं, यहाँ-वहाँ मटरगश्ती करते हैं, उतने समय आप बैठ जाइए और भगवान का नाम लीजिए। मैं क्यों इससे इनकार करूँगा? लेकिन जो लाभ-माहात्म्य बताया गया है, उसे यदि ग्रहण करना हो, वास्तव में अनुभव करना हो जैसा कि मैंने किया तो आपको उसके सूक्ष्म अंतरंग में प्रवेश करना होगा जिसका नाम गायत्री है।
गायत्री मंत्र जिसे आज के दिन ब्रह्माजी ने बनाया था, बहुत ऊँची स्थिति का बनाया था। जिसमें श्रद्धा का समन्वय था, विराट् दृष्टिकोण और आदर्शवादिता का समन्वय था। बाह्य कलेवर उसका था जरूर स्थूल। गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षर? हाँ चौबीस अक्षर। जप करने के लिए माला की आवश्यकता? हाँ, आवश्यकता। गायत्री मंत्र का पूजन करने के लिए रोली, चन्दन, धूप-दीप की आवश्यकता? हाँ! आवश्यकता। यह कलेवर हैं गायत्री माता के। लेकिन उसका अंतरंग? जो विभूतियों और सिद्धियों से भरा पड़ा है, जिसे हम छू भी न सके, जिसके पास पहुँचने की कभी कोशिश भी नहीं की, वह अंतरंग हमसे अविज्ञात ही बना रहा।
गायत्री का अंतरंग यह कहता है कि मनुष्य को लोकमंगल के लिए, उत्कृष्ट जीवन जीने के लिए और प्रभु समर्पित जीवन जीने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। यह प्रेरणा है गायत्री मंत्र की। मनुष्य को अपने लिए ही नहीं जीना चाहिए। वह भगवान का सहायक है। भगवान ने उससे अपेक्षा रखी है कि वह उसकी दुनिया को सुन्दर बनाने की कोशिश करे। यह संकल्प धारण करे कि उसके पास जितना समय, बुद्धि, श्रम खुद को व अपने बच्चों को पालने के अतिरिक्त बचेगा उसे भगवान के लिए, लोकमंगल के लिए खर्च करेगा। भगवान बुद्ध, शंकराचार्य, गाँधी, लोकमान्य तिलक जब लोकमंगल के लिए जुट गए तो उनके घरवालों ने उन्हें बेवकूफ कहा। लोकमंगल के लिए जब कोई आदमी बड़ा काम करता है, तब उसकी पहचान यह है कि दुनिया के लोग उसको अमूमन बेवकूफ बताया करते हैं। इसलिए यह बात साफ है कि ये पागल मनुष्य जिस बात की प्रशंसा कर रहे हों तो समझना चाहिए कि दाल में कहीं काला है।
यह दुनिया इतनी बेवकूफ और बेहूदी है कि जिनकी प्रशंसा करती है वे उस लायक नहीं होते और जिन्होंने प्रशंसा की है उनका मुँह और तमीज तो प्रशंसा करने लायक है ही नहीं। इसलिए प्रशंसा के लायक वे व्यक्ति हैं आज, जिनकी कभी प्रशंसा नहीं होती। कभी आपका मन हो तो यहाँ से दो किलोमीटर की दूरी पर पिसनहारी का कुँआ है वहाँ जाइए। पिसनहारी कौन? पिसनहारी बारह वर्ष की उम्र में विधवा हो गई थी। चक्की पीसती-पेट पालती। दो आने रोज कमाती, सात पैसों में गुजारा कर लेती। एक पैसा बचा लेती। जब मरने को हुई बुढ़िया तो उसके पास पाँच सौ रुपये थे। गाँव वालों को बुलाया और कहा—मेरी सारी जिन्दगी की धर्म की पवित्र कमाई है यह। यहाँ पानी का बड़ा अभाव है। इन रुपयों से एक कुँआ बना दिया जाए। जो भी इस रास्ते से गुजरें, उन्हें पानी मिले और वे मेरी जिन्दगी भर की कमाई का फायदा उठाएँ। पिसनहारी के इस कुँए का पानी मथुरा जिले की सब जगहों के पानी में सबसे बढ़िया और मीठा पानी है, जबकि शेष स्थानों पर पानी खारा है। लोग आते हैं, छाया में बैठते हैं, मीठा पानी पीते हैं। पिसनहारी का कहीं फोटो है? नहीं। पिसनहारी का जुलूस, किताबें? नहीं। पिसनहारी की कोई किताबें नहीं हैं, चंगेज खाँ की हैं, नादिरशाह के किस्से हैं, चीन की दीवार के हैं, डायनामाइट की खोज करने वाले अल्फ्रेड नोबुल की तारीफ की किताबें हैं। हमारे बच्चे उन्हें पढ़कर याद करते हैं। पिसनहारी का नाम इतिहास में नहीं है। इसलिए पहला शिक्षण गायत्री मंत्र का यह है कि यदि मनुष्य ऋद्धियों-सिद्धियों की ओर चलना चाहता हो तो उसे अपने पाप और पतन का एक द्वार बंद करना होगा और वह है अपने अहंकार की पूर्ति की, बड़प्पन की इच्छा। लोगों के सामने अपना चेहरा दिखाने व तालियाँ बजवाने की इच्छा। यह इच्छा यदि बनी रही तो आदमी सिद्धान्त और आदर्श के लिए, लोकमंगल के लिए काम नहीं करेगा। फिर तो पूजा भी यश के लिए करेगा। गायत्री मंत्र यह सिखाता है कि हमें बड़प्पन का भूखा नहीं होना चाहिए। अगर आदमी ने इस पर नियंत्रण कर लिया तो उसकी अस्सी फीसदी शक्तियों की बचत हो सकती है, उसकी जो अक्ल तबाह होती रहती है, उसका बचाव किया जा सकता है।
गायत्री मंत्र का दूसरा शिक्षण यह है कि मनुष्य के पास शरीर और मन की जो शक्तियाँ हैं, उन्हें वासना के द्वारा नष्ट-भ्रष्ट नहीं करना चाहिए। उन्हें संग्रहीत और निग्रहीत करना चाहिए। अपने आपको समेटना चाहिए, बिखेरना नहीं। आँख, नाक, वाणी, कान, कामेन्द्रिय आदि अपव्यय के लिए नहीं, सद्व्यय के लिए मिले हैं। अगर हम इसे देख-समझ सकते हों तो हमारे जीवन का पचास फीसदी भाग जो हमारी इन्द्रियों के द्वारा नष्ट होता चला जा रहा है, हम खोखले, निस्तेज होते चले जा रहे हैं, वह बच सकता है।
तीसरा शिक्षण यह कि हम अपने लोभ-लालच को, अपनी कामना-तृष्णा को निग्रहीत कर सकें तो हममें से हर आदमी कबीर बन सकता है। क्या कबीर को रोटी नहीं मिलती थी? रैदास—मीरा, गाँधी को रोटी नहीं मिली? किसको रोटी नहीं मिली? और जिनको खूब मिली, उन्होंने कोशिश की कि रोटी के ऊपर रोटी रखकर खाएँ, पर वे खा नहीं सके। अगर उन्होंने अपनी इच्छा और अक्ल मोड़ दी होती लोकमंगल के लिए तो फिर वे सरदार पटेल हो जाते, महामना मालवीय हो जाते, देवदूत हो जाते, भगवान हो जाते। पर तीन ही राक्षस-पिशाच हैं जो हमको खा गए। दुर्गा के आख्यान में तीन ही राक्षसों का नाम आता है—महिषासुर, मधुकैटभ, शुंभ-निशुंभ। देवताओं को पराजित करने वाले इन तीन असुरों की तरह अहंता, तृष्णा और वासना रूपी असुर हमारी देव-शक्तियों को नित्य खाए जा रहे हैं।
त्रिपदा गायत्री की धारा जिसका कि आज जन्म-दिन है, इसलिए इस विश्व में आई थी कि गायत्री मंत्र के शिक्षण द्वारा-अर्चा, पूजन, अनुष्ठान द्वारा अपनी तीन धाराओं को प्रवाहित करें कि मनुष्य! यश के पीछे मत भाग, अपने कर्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़।
आज गायत्री जयंती का दिन हमारे और आपके लिए संदेश लेकर आया है कि चिंतन-मनन करना चाहिए। हजार बार सोचना चाहिए कि क्या हमारा जीवन प्रभु की इच्छाओं पर चलने वाला जीवन है? हमें जो विभूतियाँ मिली थीं, सामर्थ्य मिली थीं, उन्हें क्या हम मानव जीवन और भगवान के उद्देश्यों के अनुरूप खर्च कर रहे हैं या पेट के गुलाम होकर ही जी रहे हैं। जो इंद्रियाँ हमारे पास हैं, जिन्हें हम दुनिया में शांति और सुविधा उत्पन्न करने में खर्च कर सकते थे, क्या हम उन्हें पतन के लिए खर्च कर रहे हैं? इन तीनों प्रश्नों पर आज हमें तीन हजार बार विचार करना चाहिए।
मेरी उपासना की प्रक्रिया इसी प्रकार की चलती हुई चली गई। लम्बे जीवन भर मैं गायत्री मंत्र का जप करता रहा, स्थूल उपासना भी करता रहा, पूजा-प्रार्थना भी करता रहा। लेकिन अपने अंतरंग में गायत्री की उन तीन धाराओं को, जिन्हें मैं सूक्ष्म धाराएँ कहता हूँ, ज्ञान की गंगा कहता हूँ, भगवान की प्रेरणा कहता हूँ, उनको अपने जीवन में धारण करने की कोशिश मैं करता रहा। अब जबकि यह मथुरा के मेरे जीवन का अंतिम गायत्री जयंती का अवसर है, तब मैं आपको अपने जीवन का अनुभव न सुनाऊँ तो यह उचित न होगा। इस अंतिम अवसर पर अपने सारे जीवन, साठ वर्ष के निष्कर्ष, जिसको आप चाहें तो गायत्री चमत्कार का मूल आधार कह सकते हैं, बता रहा हूँ। मेरे व्यक्तित्व में महानता आप समझते हों, गायत्री मंत्र की महत्ता के द्वारा आदमी को कुछ परिणाम मिल सकते हैं, अगर ऐसी आपकी मान्यता हो तो उस मान्यता के साथ एक और मान्यता जोड़ लेने की मेरी प्रार्थना है कि गायत्री ध्यान करने के लिए वास्तव में कोई महिला नहीं, विवेकशीलता और विचारशीलता की धारा के प्रवाह का नाम है, जो इस विश्व में प्रवाहित है, जो मनुष्य के मस्तिष्क को, क्रिया-कलाप को और अंतरात्मा को छूता है। ध्यान के समय आप हंस पर सवार हुई गायत्री का ध्यान करें बेशक, लेकिन यह भी ध्यान करें कि गायत्री माता सिर्फ हंस पर सवार होंगी, बगुले पर नहीं। हंस वह जो नीर-क्षीर का भेद जानता हो। दूध पी लेता हो, पानी को फेंक देता हो। इस दुनिया में पाप और पुण्य, अनुचित और उचित दोनों मिले हुए हैं। अंतरात्मा जिसे अनुचित कहे, उसे हम ठुकराएँ। जिसे उचित कहे उसी को स्वीकार करें, यह है हंसवृत्ति। यह है हंस पर सवारी। भगवान हम पर सवारी करें, इसलिए हमको हंस बनना चाहिए—सफेद बनना चाहिए।
यदि यह विवेकशीलता हमारे भीतर आ जाए तो हमारे जीवन की दिशाएँ बदल जाएँ। इस विवेकशीलता को मैं ऋतंभरा-प्रज्ञा कहता हूँ, गायत्री कहता हूँ। अगर यह हमारे अंतरंग में आ जाए तो हमारे जीवन का कायाकल्प हो जाए, हमारे काम करने और इच्छा करने के ढंग बदल जाएँ। तब हम भगवान बन जाएँ, हमारे पास न लक्ष्मी की कमी रहे, न विभूतियों की।
मैंने गायत्री उपासना को ऋतम्भरा-प्रज्ञा के रूप में समझने की कोशिश की और समझाने की भी। लेकिन लोगों ने उसके बाह्य कलेवर को जो सुगम था और ऐसा मालूम पड़ता था कि हमारी कामनाओं और इच्छाओं को पूरा करने में सहायक है, उतने वाले हिस्से को पकड़ लिया और बाकी वाले हिस्से को गए भूल। असंयमी रोगी के लिए अच्छा हकीम कौन? वह जो मनमर्जी का भोजन करने दे। सबसे अच्छी देवी कौन? जो हमारी कामनाओं को पूरा करे। वही देवी है गायत्री। अपनी इच्छा के अनुरूप हमने देवता को ढालने की कोशिश की इसीलिए देवता की समीपता से पूर्णतया वंचित रहे और वंचित रहेंगे। जिन्होंने भगवान की इच्छा के अनुरूप स्वयं को ढालने की कोशिश की, वे भगवान के कृपापात्र बन गए और सारे माहात्म्य गायत्री के प्राप्त कर सके। मैंने ऐसा ही जीवन जिया, इसी रूप में गायत्री मंत्र को समझा, उपासना की, जप किया और जप के साथ भावनाओं को हृदयंगम किया।
जब मैं जाऊँ और अब आप लोग यह विचार करें कि क्या गायत्री मंत्र सामर्थ्यवान है, तब आपको यह कहना चाहिए और समझना चाहिए कि हाँ—गायत्री मंत्र सामर्थ्यवान है। अगर आप उसकी भावना के अंतरंग में प्रवेश कर सकें तो आपको यह मानकर चलना चाहिए कि सारी की सारी जो सामर्थ्य भगवान में हैं, वे सबकी सब भक्त में हो सकती हैं। भक्त में हो सकती हैं तो वह दुनिया को लाभ दे सकता है और अपना कल्याण कर सकता है।
आप अपनी मान्यताओं में यदि यह एक अध्यात्म और जोड़ लें तो मैं समझूँ कि मथुरा में गायत्री जयंती का मेरा यह अंतिम प्रवचन सार्थक हो गया। आपका सुनना और मेरा कहना सार्थक हो गया। गायत्री मंत्र और गायत्री विद्या का आविष्कार जिन महामानवों ने किया था, उनका उद्देश्य और प्रयोजन पूरा हो गया। इन शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ।
॥ॐ शान्तिः॥