उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
कुछ काम ऐसे होते हैं जिसे बाहर के लोग कर सकते हैं, किन्तु कुछ काम ऐसे होते हैं, जो स्वयं करने चाहिए। दोनों मिलकर एक पूर्णता बनाते हैं। अकेले बाहर के आधारों से आज तक किसी का काम नहीं चला और न ही अकेले के प्रयास से ही कोई आदमी आज तक सम्पन्न बना है। जब दोनों का सहयोग होता है अर्थात् बाहर का अनुदान और अपना पुरुषार्थ दोनों को मिलाकर के फिर एक बात बन जाती है। खाना पकाकर किसी ने दिया, भोजन बहुत सुन्दर और पौष्टिक भी है, लेकिन उसे हजम तो आपको ही करना पड़ेगा। मुँह से तो उसे आप ही चबायेंगे। ऐसा नहीं हो सकता कि बाहर वाला ही चबाकर उसे आपके मुँह में डाल जाय और फिर आपके पेट में बैठकर उसे हजम करके खून में शामिल कर दे। यह काम मुश्किल ही नहीं असम्भव भी है। यह काम तो हर हालात में आपको ही करना चाहिए। बाहर का आदमी अधिक से अधिक यह कर सकता है कि आपको बहुमूल्य भोजन बिना कीमत के भी पकाकर दे दे और आपको सम्मान-पूर्वक खिलाए। इतने से ही उसका काम पूरा हो जाता है, अब आपका काम है कि उसको आप सँभालें। आपकी जब शादी हुई थी, तब आपको एक अच्छी-खासी धर्मपत्नी मिली थी, वह किसने दी थी? उस लड़की के माता-पिता ने बड़ी मेहनत से अच्छी सुयोग्य लड़की बना करके पाल-पोष कर सुशिक्षित बनाकर उसे आपके हवाले किया था। उनका काम पूरा हो गया, लेकिन आपका काम बाकी रह गया है कि घर में धर्मपत्नी के आने के बाद उसकी देख−भाल करें, उसकी जिम्मेदारियों को वहन करें। अगर आप उसकी जिम्मेदारियाँ वहन नहीं कर सकते, उसके रहन-सहन एवं खान-पान का प्रबन्ध नहीं कर सकते और आप उसको पूरी इज्जत देकर सहयोग प्राप्त नहीं कर सकते तो उसके माता-पिता का दिया हुआ अनुदान आपके लिए निरर्थक चला जाएगा और वह जो धर्मपत्नी आपको मिली है, आपके कोई खास काम न आ सकेगी। आपके लिए भार बनकर रहेगी।
मित्रो! हमने यहाँ जो कुछ भी बनाया है—आपके लिए बहुत कुछ बनाकर रखा है, वह बहुत सुन्दर और शानदार है, लेकिन उसे महसूस तो आपको ही करना है हजम तो आपको ही करना है। हमारी करने की जो सीमा थी वह हमने पूरे तरीके से कर दिया। क्या कर दिया? आपके लिए एक वातावरण बनाकर के हमने रख दिया यहाँ शान्तिकुञ्ज में। यहाँ क्यों बुलाया है। यहाँ जो भी क्रिया-कृत्य आपसे कराये जा रहे हैं, वह तो आप अपने घर पर नहीं कर सकते थे? खान-पान सम्बन्धी जो नियम-बन्धन आपको बताये गये हैं, क्या आप उसे घर पर नहीं कर सकते थे? क्यों नहीं कर सकते थे। कौन-सी ऐसी वजह है जो आप नहीं कर सकते हैं? यहाँ जो जप और अनुष्ठान कराया जाता है, क्या आप घर पर नहीं कर सकते थे? जरूर कर सकते थे। जो नियम और मर्यादा पालन करने के लिए यहाँ कहा गया है, वह हमारी पुस्तकें पढ़कर आप घर पर भी कर सकते थे, लेकिन यहाँ क्यों करना पड़ा? यहाँ का वातावरण ही ऐसा है। इस वातावरण को बनाने के लिए हमने बहुत मेहनत की है। आप वातावरण की कीमत समझिये। वातावरण की कीमत यदि आप नहीं समझते तो बहुत बड़ी भूल करते हैं।
एक बार गुरु वशिष्ठ ने रामचन्द्र जी से कहा—हे राम! अब बुढ़ापे का समय आ गया है, अतः अब भगवान की भक्ति और जीवन को ऊँचा उठाने के लिए कुछ प्रयत्न करना चाहिए। रामचन्द्र जी ने कहा—तो फिर बताइये इसके लिए क्या किया जाए? उन्होंने कहा—यहाँ कैसे बताऊँ, इसके लिए तो उपयुक्त वातावरण में चलना पड़ेगा यहाँ ऐसा वातावरण कहाँ है? यहाँ अयोध्या के जिस वातावरण में आप रहते हैं, वहाँ ऐसी कोई गुंजायश नहीं है, जो बताया जा सके, क्योंकि यहाँ आपके कुटुम्बी रहते हैं, सम्बन्धी रहते हैं, राजपाट के लोग आते रहते हैं। कितने ही आप से विचार-विमर्श करते रहते हैं। कितनों से आपको खीझ पैदा होती है? कितनों से आपको सहयोग-समर्थन मिलता रहता है। कितनों से आपका लगाव है तो कितनों से आपको नाखुशी है। यहाँ के वातावरण में आध्यात्मिकता को पनप पाने की कोई सम्भावना नहीं है। अतः आपको अयोध्या छोड़नी चाहिए। अयोध्या के साथ जुड़े हुए जो बन्धन आपके साथ हैं, वह जब तक आपको जकड़े हुए रहेंगे, मन भगवान की तरफ चलेगा ही नहीं। भक्ति आप कर नहीं सकेंगे और न अध्यात्म की तरफ का रास्ता ही खुल सकेगा। इसलिए आपको यहाँ से चलना पड़ेगा। रामचन्द्र जी ने कहा—तो फिर कहाँ चलना पड़ेगा? गुरु वशिष्ठ ने कहा—हमारे नजदीक ही, जहाँ हम रहते हैं। गुरु वशिष्ठ की गुफा हिमालय पर थी। वहीं उन्होंने चारों भाइयों को बुला लिया। रामचन्द्र जी देवप्रयाग में रहने लगे, लक्ष्मण जी वहाँ रहने लगे, जहाँ आज लक्ष्मण झूला है। भरत जी ऋषिकेश में जाकर जम गये और शत्रुघ्न ने मुनि की रेती पर अपना स्थान बना लिया। चारों भाई अलग-अलग रहकर गुरु वशिष्ठ के मार्गदर्शन में शिक्षण प्राप्त करने लगे तो अयोध्या में क्या कमी थी? अयोध्या में वातावरण नहीं था, जो हिमालय का वातावरण है—संस्कारी वातावरण, जिसमें कि हजारों वर्षों से लोगों ने लोगों ने तप किये हैं, साधनाएँ की हैं। वह वातावरण अयोध्या में कहाँ था? वहाँ तो राजपाट होता था, लड़ाई-झगड़े होते थे, मुकदमे होते थे, दूसरी बातें होती थीं, पर वहाँ तप का वातावरण नहीं था। हजारों वर्षों से विश्वामित्र सहित अन्यान्य ऋषि-मुनियों ने जो तप किया है उससे हिमालय का वातावरण उच्चस्तरीय बन गया। अतः श्रीरामचन्द्र जी को भी गुरु वशिष्ठ की आज्ञा मानकर देवप्रयाग में रहना पड़ा। अयोध्या में रहकर गुरु वशिष्ठ भी रामचन्द्रजी को योग वशिष्ठ नहीं पढ़ा सकते थे। वहाँ वे केवल सलाह दे सकते थे कि राजपाट इस तरह से चलाइये, लेकिन आध्यात्मिक विषयों के लिए उन्होंने भी देव प्रयाग को मुनासिब समझा और हिमालय के उसी वातावरण में साधना करायी। चारों भाइयों समेत भगवान वहीं रहे।
आध्यात्मिक जीवन में उच्चस्तरीय वातावरण की अपेक्षा होती है। केवल आध्यात्मिक जीवन में ही नहीं, सांसारिक जीवन में भी वातावरण की जरूरत होती है। आप सांसारिक जीवन की बात जानते हैं न? सांसारिक जीवन में भी अगर वातावरण न मिले तो बहुत मुश्किलें पैदा हो जाती हैं। खुशबूदार चन्दन मैसूर और केरल में पाया जाता है। इसी चन्दन के पेड़ अगर आप वहाँ से ले आएँ और दूसरी जगह लगा दें तो चन्दन तो पैदा हो जाएगा, पर उसमें से वह सुगन्धि नहीं आयेगी जो पहले वाले पेड़ में थी। ऐसी क्या बात है जो सुगन्ध को भी बदल देती है? वह है वातावरण, जो जलवायु पर टिका हुआ है। नागपुर के सन्तरे और बम्बई के केले के बारे में आप जानते हैं न। क्यों साहब वही सन्तरे और केले आप यहाँ ले आइये और लगाकर देखिये कि जैसे मीठे वे नागपुर में और बम्बई में होते हैं, यहाँ भी हैं क्या? नहीं, वैसे मीठे वे आपके यहाँ नहीं हो सकते। कारण एक ही है कि वहाँ के वातावरण की अपनी विशेषता है। बंगाल निवासियों के स्वास्थ्य आपने देखे होंगे वे दुबले-पतले और कद में छोटे होते हैं और सीमा प्रान्त के लोग लम्बे और मोटे होते हैं। क्या खाते हैं वे लोग? वही दाल-रोटी खाते हैं। फिर क्या बात है कि वे इतने मोटे हो जाते हैं? वे इतने मजबूत कैसे हो जाते हैं और बंगाल वाले कैसे कमजोर रह जाते हैं? यह सब वातावरण का कमाल है।
इस सन्दर्भ में एक और भी पुरानी बात याद है। श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कन्धे पर बिठाकर उन्हें तीर्थयात्रा कराने के लिए ले जा रहे थे। यू.पी. मेरठ के पास एक जगह है, जहाँ आकर वे रुक गये और अपने माता-पिता से कहा—क्यों जी! आपकी आँखें ही तो खराब हैं, टाँगें तो खराब नहीं हैं। हम आपकी लकड़ी पकड़ लेंगे और आप लोग हमारे पीछे-पीछे चलिये न, क्यों हमारे कन्धे पर सवार होते हैं। श्रवण के माता-पिता अचम्भे में रह गये। कन्धे पर बैठकर चलने से उनका तो मतलब यह था कि हमारा लड़का सारे संसार भर में अजर और अमर होकर रहे, सारी दुनिया उसका नाम लिया करे, अपने बच्चों को प्यार देने के लिए उसका जीवन एक गाथा बन जाए, उदाहरण बन जाए। उनका मतलब सवारी गाँठने से थोड़े ही था। उन्होंने कहा—अच्छा बेटे जैसे तुम कहोगे हम वैसा करेंगे। पर काम करो आज रात को हम ठहरेंगे नहीं। यहाँ से हमको बहुत दूर चलना चाहिए और इस क्षेत्र को पार कर लेना चाहिए। श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता का कहना माना और उस इलाके से बहुत दूर चला गया। जैसे ही वह इलाका खत्म हुआ, वैसे ही श्रवण कुमार को बहुत आश्चर्य हुआ अपने ऊपर और वह फूट-फूट कर रोने लगा। उसने कहा—पिताजी मैंने कैसे कह दिया था कि आप अपने पैरों पर चलिये। मुझे यह कितना बड़ा सौभाग्य मिला था जिसे मैं छोड़ना चाहता था। पिता ने कहा—बेटे डरने की कोई बात नहीं है। वस्तुतः जहाँ तुम्हारे मन में वह विचार आया था वह स्थान ऐसा था जहाँ एक ‘मय’ नाम का दानव था। वहाँ उसने अपने माता-पिता को मार डाला था। बस उसी स्थान से होकर हम चल रहे थे और उसके संस्कार भूमि में पड़े हुए थे। भूमि के संस्कारों की वजह से तुम्हारे मन में वह विचार आये थे। अब हम उस क्षेत्र से निकल आये हैं अतः सब कुछ सामान्य हो गया है।
अब आप समझ गये होंगे कि वातावरण का कितना भारी असर होता है? आपको हमने इसलिए यहाँ के वातावरण में बुलाया है, हिमालय के नजदीक बुलाया है। हिमालय यहीं से शुरू होता है। यहीं शिव और सप्तर्षियों का स्थान था। स्वर्ग कहाँ था? स्वर्ग हिमालय के उस इलाके में था जिसको ‘नन्दनवन’ कहते हैं, गोमुख से आगे। स्वर्ग जमीन पर था। सुमेरु पर्वत भी वहीं है। देवता भी इसी इलाके में रहते थे हिमालय वाले क्षेत्र में। सारे के सारे महत्त्वपूर्ण ऋषि व सप्तर्षियों से लेकर सनक-सनन्दन तक एवं नारद से लेकर आदिगुरु शंकराचार्य तक जितने भी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हुए हैं, उनकी साधना इसी स्थान में हुई है। इसलिए हिमालय का अपना वातावरण है। गंगा की महत्ता तो आप जानते हैं न? गंगा की कितनी बड़ी महत्ता है। गंगा को सारा संसार जाने क्या-क्या मानता है? भौतिक दृष्टि और आध्यात्मिक दृष्टि से भी। यहाँ गंगा जी प्रवाहित होती हैं। जिस स्थान पर हमने यह शान्तिकुञ्ज बनाया है। हमारे गुरुदेव ने इस स्थान का महत्त्व बताया था कि यहाँ सात ऋषियों का तप हुआ था। यहाँ सात ऋषियों की सात गंगाएँ थीं। दो गंगाएँ गायब हो गयीं हैं, परन्तु पाँच गंगाएँ अभी भी दिखायी देती हैं। दो गंगाएँ जो गायब हो गयी हैं, वह कहाँ गयीं? वह इसी स्थान पर थीं, जहाँ आज शान्तिकुञ्ज बना हुआ है। एक धारा यहाँ बाहर बहती थी, जिसे बाँध बनाकर रोक दिया गया था तब भी गंगा का पानी जमीन में से उछलता रहता है। शान्तिकुञ्ज के पीछे एक नाला बहता है, वह जमीन में उछलता रहता है। आप कहीं भी जरा-सा गड्ढा खोदिए, गंगा जल तैयार है। यह गंगाजी की विशेषता है। शान्तिकुञ्ज हिमालय के द्वार पर बना है। यहाँ ऐसा प्राणवान सान्निध्य है, जहाँ शेर और गाय प्राचीनकाल की भाँति एक साथ पानी पीते हैं। ऐसा ही वातावरण है यहाँ शान्तिकुञ्ज में। यहाँ ऐसे लोगों का सान्निध्य आपको मिला है जिसके लिए अगर आप सारे हिन्दुस्तान में घूमें और यह तलाश करें कि ऐसे प्राणवान सान्निध्य कहीं मिलेंगे क्या? ऐसे प्राणवान सान्निध्य प्राचीनकाल में तो शायद हुए हों, पर आज आपको ऐसा आध्यात्मिकता का सही वातावरण अन्यत्र मिलेगा नहीं, जैसा कि शान्तिकुञ्ज में हमने बनाकर रखा है और आपको यहाँ साधना करने के लिए बुलाया है।
तो गुरुजी क्या इतने भर से बात पूरी हो जाएगी? नहीं बेटे, इतना ही पर्याप्त नहीं। आपको इसके साथ में अपनी श्रद्धा सँजो करके रखनी पड़ेगी। श्रद्धा को आप सँजोकर अगर नहीं रखेंगे, तब फिर यह जमीन भी वैसी ही है जैसे कि मछली पकड़ने वाले गंगाजी में घूमते रहते हैं, पर श्रद्धा उनमें नहीं है तो उससे कोई फायदा नहीं। अगर श्रद्धा और भक्ति का अभाव तो अच्छे वातावरण से भी कोई फायदा नहीं। अगर श्रद्धा के भाव हैं तो यही गंगा तरण-तारिणी बन जाती है और अपने बच्चों का उद्धार कर देती हैं और श्रद्धा के अभाव में यही केवल नहर रह जाती है, सामान्य-सा पानी रह जाता है। आपको अपनी श्रद्धा समुन्नत करनी पड़ेगी। अगर आप यहाँ निवास करते हैं तो कृपा करके अपनी श्रद्धा को जीवन्त कीजिये और यह अनुभव करना शुरू कीजिये कि आप किसी ऐसे स्थान पर निवास करते हैं, जहाँ का वातावरण आपकी साधना को सफल बनाने में समर्थ है। यह सप्तर्षियों की तपस्थली, गायत्री के ऋषि विश्वामित्र, जिन्होंने गायत्री महामन्त्र का साक्षात्कार किया था, ठीक इसी स्थान पर तप करते थे। सात ऋषि हैं, उनमें से एक विश्वामित्र भी हैं, विश्वामित्र कहाँ रहते थे? उनकी कुटिया कहाँ थी? यहीं थी, जहाँ आज शान्तिकुञ्ज है। यह विश्वामित्र का स्थान है।
वातावरण का कितना असर पड़ता है, देखा है न आपने। टिड्डा, बरसात के दिनों में हरे रंग का होता है और गर्मी के दिनों में पीले रंग का हो जाता है। क्यों पीला हो जाता है? इसलिए हो जाता है कि चारों ओर सूखी हुई घास, फैला हुआ रेत दिखाई पड़ता है। उसको देखते-देखते वह पीले रंग का हो जाता है, जबकि बरसात में चारों ओर हरा रंग छाया रहता है, अतः वह हरा हो जाता है। भट्टी के नजदीक बैठें हैं न आप। भट्टी गरम होती है तो उसके नजदीक बैठने वाले भी गरम हो जाते हैं। बरफ की छतरी में आप कभी घुसें तो उसमें ठण्डक पड़ती रहती है और जो भी घुसता है, वह भी ठण्डा हो जाता है। आपको भी यही अनुभव होगा यहाँ। यह आपको तो अनुभव करना ही है, लेकिन एक बात और रह जाती है, जिसके बिना यदि आप चाहें कि यहाँ के वातावरण का पूरा लाभ मिल जाए तो वह मिल नहीं सकेगा। इसके लिए श्रद्धा बहुत जरूरी है। श्रद्धा अगर आपके अन्दर न हो और आप केवल इसकी इमारत देखते हों, आश्रम देखते हों, कोई क्वार्टर देखते हों, कोई होटल या धर्मशाला देखते हों तो फिर आपके लिए ठीक वही है, जो आप देखते हैं। आपकी श्रद्धा अगर जमी तो वह तीर्थ है। गायत्री का हमने इसे तीर्थ बनाया है। इसमें तीर्थों की जो भी विशेषताएँ होती हैं, वह सब विशेषताएँ पैदा की हैं। हमने इसमें कोई कमी नहीं छोड़ी है कि जो एक शानदार, श्रेष्ठ, समर्थ तीर्थ बनाने के लिए किसी स्थान के लिए जो प्रयत्न किये जाने चाहिए, वह सारे प्रयत्न किये हैं।
रामचन्द्र जी ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे, इसलिए दशाश्वमेध घाट तीर्थ हो गया। दुनिया में और भी बड़ी-बड़ी बातें होंगी, बड़े-बड़े स्थान होंगे, पर सब तीर्थ थोड़े ही हो जाएँगे। प्रकृति के सभी स्थान ऐसे ही थे, लेकिन जब कोई महान घटना घटित हो गयी और कोई महान कार्य सम्पन्न हो गया तो वही स्थान तीर्थ बन गये तीर्थ के लिए भूमि को संस्कारवान बनाना पड़ता है। प्राचीनकाल में ऋषियों ने गुरुकुल बनाये थे, आश्रम एवं आरण्यक बनाये थे, जहाँ साधना के बड़े-बड़े अनुष्ठान सम्पन्न होते थे। हम भी यही कर रहे हैं। यहाँ चौबीस-चौबीस लक्ष्य के कितने अनुष्ठान हो चुके हैं, आप जानते हैं न। हर साल यहाँ नवरात्रि में चौबीस करोड़ का पुरश्चरण हो जाता है। हर दिन वहाँ नौ कुण्डीय यज्ञ में हजारों आहुतियाँ दी जाती हैं। यहाँ अखण्ड दीपक जलता रहता है। यहाँ हमारी और माताजी की नियमित रूप से कठोर तपश्चर्या अभी भी चलती रहती है। इससे वातावरण बनता है तो हमारे गुरुदेव परोक्ष रूप से आते ही रहते हैं। आपके अन्दर श्रद्धा हो तो यहाँ गायत्री माता का प्रकाश और आलोक आप चाहे जिधर अनुभव कर सकते हैं। हमारे गुरुदेव की और हमारी प्राणचेतना यहाँ के कण-कण में छायी रहती है। हमने आपसे कहा है कि यह अनुभव कीजिये कि आप यहाँ माताजी के गर्भ में निवास करते हैं। मुर्गी अपने अण्डे को छाती से लगाकर जिस तरह बैठी रहती है और अण्डे पकते रहते हैं, हम लोग भी उसी तरह से आपको अपनी छाती से लगाये बैठे रहते हैं और आपको पकाते रहते हैं। इतना होते हुए भी इस बात के लिए विशेष रूप से निवेदन किया जा रहा है कि आपकी स्वयं की श्रद्धा जीवन्त रहनी चाहिए। अगर आपने अपनी श्रद्धा का परित्याग कर दिया तो इस वातावरण से आपको कतई कोई लाभ नहीं मिलेगा। जैसे दूसरे लोग भी यहाँ आते हैं, कोई चोर, उचक्के-उठाईगीर भी आते होंगे, कोई मेहनत-मजदूरी करने वाले भी आते होंगे। स्कूटर वाले, मोटर ड्राइवर भी आते हैं, बीड़ी पीते रहते हैं और खाली हाथ चले जाते हैं। कारण उनके लिए शास्त्र का, श्रद्धा का कोई महत्त्व नहीं। श्रद्धा के अभाव में बाहरी चीजें कोई ज्यादा लाभ नहीं दे सकतीं।
आपको आज मैं भावश्रद्धा के ऊपर बहुत जोर देना चाहता हूँ। अगर आप यहाँ से लाभ उठाना चाहते हों तो आप श्रद्धा मत छोड़ना, श्रद्धा को जाग्रत-जीवन्त कर लिया तो आप यहाँ के कण-कण में से अमृत बरसता हुआ और आलोक उछलता हुआ, उभरता हुआ देखेंगे। अगर श्रद्धा है तो, नहीं है तो सब कुछ मिट्टी है और दूसरी इमारतें जैसी होती हैं, वैसी ही यह भी दिखेगी। मीरा को एक पत्थर का टुकड़ा दे दिया गया था। उस पत्थर के टुकड़े को लेकर के मीरा ने यह मान लिया था कि ये हमारे पति हैं और ये भगवान हैं। उनकी श्रद्धा ने उस पत्थर को साक्षात् भगवान बना दिया। उस गिरधर गोपाल ने मीरा को भेजा गया जहर का प्याला भी पी लिया था और मीरा बचे हुए पानी को पीकर के ज्यों की त्यों बनी रही। साँप का पिटारा आया था तो गिरधर गोपाल साँपों से खेलते रहे। मीरा ने आखिर में पिटारे को बन्द कर दिया। मीरा को किसी ने नहीं काटा और न ही कोई नुकसान हुआ। यह कैसे हो गया? गिरधर गोपाल के कारण। गिरधर गोपाल कौन? पत्थर का एक टुकड़ा। नहीं, मीरा की श्रद्धासिक्त प्रगाढ़ भावना के मिल जाने से ही पत्थर गिरधर गोपाल बन सका। अब वही पत्थर जहाँ का तहाँ पड़ा हुआ है। आप जाकर देख सकते हैं, उसमें कोई चमत्कार नहीं है। पत्थरों में क्या चमत्कार हो सकता था और क्या होगा? श्रद्धा ही है जो पत्थर को भी भगवान बना सकती है। एकलव्य की बात सुनी है न आपने। वह भील का एक लड़का था जिसने मिट्टी के द्रोणाचार्य बना दिये थे और मिट्टी के वह द्रोणाचार्य इतने समर्थ हुए कि जो कौरवों और पाण्डवों को बाण विद्या असली द्रोणाचार्य ने सिखायी थी, उससे कहीं ज्यादा उस एकलव्य को आ गयी।
रामकृष्ण परमहंस काली के अनन्य उपासक थे। लोगों ने रानी से शिकायत कर दी कि जो भोग है, वह स्वयं खा जाते हैं और जूठन फैला देते हैं। रानी रासमणि एक दिन छत पर गयीं और वहाँ से छिप करके देखती रहीं सारा नजारा। सही बात यह हुई कि रामकृष्ण काली से कहने लगे—माँ आप भोजन कीजिए। वह चुप रहीं क्या कहतीं? रामकृष्ण ने कहा—अच्छा पहले बेटा खा लेगा तब माँ खायेगी। उन्होंने ऐसा ही किया। आधा भोजन स्वयं कर लिया और जब काली से कहा—माता अब आपको करना पड़ेगा। तभी रानी रासमणि ने देखा कि पत्थर की मूर्ति के हाथ हिलने लगे और उन्होंने थाली में जो भोजन था वह उठाया और निगल लिया। सारा भोजन वे खा गयीं। खाली थाली धोने के लिए रामकृष्ण परमहंस बाहर निकल रहे थे, तब रानी रासमणि आयीं और उनके चरणों पर गिर पड़ीं। उन्होंने कहा—देव आप साक्षात् काली हैं। यह बात सही है, कि रामकृष्ण परमहंस साक्षात् काली थे, क्योंकि अपनी श्रद्धा से उन्होंने पत्थर की मूर्ति को साक्षात् काली बना दिया था। रामकृष्ण ने जब विवेकानन्द से कहा कि काली माँ के पास जा और नौकरी माँग ले तो विवेकानन्द ने वहाँ जाकर देखा कि विशालकाय काली जमीन से लेकर आकाश तक को छू रही थी। वह कहाँ से पैदा हुई थीं—उसी पत्थर में से पैदा कर दी थी रामकृष्ण परमहंस ने। वह उनकी श्रद्धा से बनी थी। अब भी वही मूर्ति है वहाँ, पर अब उसमें कोई दम नहीं है। चोर एक बार उस मूर्ति की सोने की जीभ चुरा ले गये थे। तब वह पत्थर ही रह गयी थीं। पत्थर को साक्षात् काली बना देने का श्रेय रामकृष्ण परमहंस को है।
कबीर को दीक्षा देने के लिए स्वामी रामानन्द तैयार नहीं थे। कबीर सीढ़ी पर जाकर सो गये। रामानन्द उधर से निकले तो उनका पैर अँधेरे में कबीर के ऊपर पड़ गया। राम-राम कहकर वे पीछे हट गये। कबीर ने कहना शुरू कर दिया कि मेरे गुरु स्वामी रामानन्द हैं। उन्होंने मुझे मन्त्र दे दिया है दीक्षा दे दी है। स्वामी जी ने पूछा—तू गलत-सलत बात क्यों कहता है? कबीर ने कहा—नहीं आपने मेरे सीने पर पैर रख दिया था और सीढ़ियों पर चढ़ते हुए राम-राम कह दिया था। बस मेरे लिए तो आप ही गुरु हो गये। आप लोग भी इस श्रद्धा के महत्त्व को समझें। अगर श्रद्धा का अभाव रह गया तो आप बिल्कुल खाली हाथ चले जाएँगे और हमारा परिश्रम बेकार चला जाएगा और आपका सौहार्द भी बेकार चला जाएगा। आप कृपा करके अपनी श्रद्धा जगाइये। आपको अन्धश्रद्धा के लिए यहाँ कुछ नहीं कहा जा रहा है। यहाँ का परिपूर्ण वातावरण है। आप चाहें तो सच्चाई के साथ इसको परख भी सकते हैं। परखने लायक यदि स्थान न हो तो भी इसको श्रद्धा से अपने लायक बना सकते हैं। श्रद्धा उत्पन्न कीजिए, अभी आपके हिस्से का काम बाकी पड़ा है। हमने अपने हिस्से का काम पूरा कर दिया। आप और हम दोनों अपने-अपने हिस्से का काम पूरा कर लें तो हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि यह कल्प-साधना आपके लिए सौभाग्य से भरा-पूरा होगा और हमारे लिए सन्तोष का। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥