उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
वसन्त पंचमी उमंगों का दिन है, प्रेरणा का दिन है, प्रकाश का दिन है। वसन्त के दिनों में उमंग आती है, उछाल आता है। समर्थ गुरु रामदास के जीवन में इन्हीं दिनों एक उछाल आया—क्या हम अपनी जिन्दगी का बेहतरीन इस्तेमाल नहीं कर सकते? क्या हमारी जिन्दगी अच्छी तरह से खर्च नहीं हो सकती? एक तरफ उनके विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं। समर्थ गुरु रामदास को शक्ल दिखाई पड़ी, औरत, औरत के बच्चे, बच्चे के बच्चे, शादियाँ, ब्याह आदि की बड़ी लम्बी शृंखला दिखाई पड़ी। दूसरी तरफ आत्मा ने संकेत दिया, परमात्मा ने संकेत दिया और कहा—अगर आपको जिन्दगी इतनी कम कीमत की नहीं जान पड़ती है, अगर आपको महँगी मालूम पड़ती है तो आइए दूसरा वाला रास्ता आपके लिए खुला पड़ा है। महानता का रास्ता खुला हुआ पड़ा है। समर्थ गुरु ने विचार किया। उछाल आया, उमंग आई और ऐसी उमंग आई कि रोकने वालों से रुकी नहीं। वह उछलते ही चले गए। मुकुट को फेंका अलग और कंगन को तोड़ा अलग। ये गया, वो गया, लड़का भाग गया। दूल्हा कौन हो गया? समर्थ गुरु रामदास हो गया। कौन? मामूली-सा आदमी छोटा-सा लड़का छलाँग मारता चला गया और समर्थ गुरु रामदास होता चला गया।
यहाँ मैं उमंग की बात कह रहा था। उमंग जब भीतर से आती है तो रुकती नहीं है। उमंग जब आती है वसन्त के दिनों में। इन्हीं दिनों का किस्सा है बुद्ध भगवान का। उनका ऐसा ही किस्सा हुआ था। सारे संसार में फैले हुए हाहाकार ने पुकार और कहा कि आप समझदार आदमी हैं। आप विचारशील आदमी हैं और आप जबरदस्त आदमी हैं। क्या आप दो लोगों के लिए जियेंगे? औरत और बच्चे के लिए जियेंगे? यह काम तो कोई भी कर सकता है। बुद्ध भगवान के भीतर किसी ने पुकारा और वे छलाँग मारते हुए, उछलते हुए कहीं के मारे कहीं चले गए। बुद्ध भगवान हो गये।
शंकराचार्य की उमंग भी इन्हीं दिनों की है। शंकराचार्य की मम्मी कहती थीं कि मेरा बेटा बड़ा होगा, पढ़-लिखकर गजेटेड ऑफिसर बनेगा। बेटे की बहू आएगी, गोद में बच्चा खिलाऊँगी। मम्मी बार-बार यही कहतीं कि मेरा कहना नहीं मानेगा तो नरक में जाएगा। शंकर कहता—अच्छा मम्मी कहना नहीं मानूँगा तो नरक जाऊँगा। हमको जाना है तो अवश्य जाएँगे महानरक में अच्छे काम के लिए। मेरे संकल्प में रुकावट लगाती हो तो आत्मा और परमात्मा का कहना न मानकर तुम कहाँ जाओगी? विचार करता रहा, कौन? शंकराचार्य।
शंकराचार्य ने फैसला कर लिया कि मम्मी का कहना नहीं मानना है। एक दिन वह पानी में घुस गया और चिल्लाने लगा—मम्मी क्या करूँ, अब मेरे मरने का समय आ गया। मुझे शंकर भगवान दिखाई पड़ते हैं और कहते हैं कि अगर इस बच्चे को मेरे सुपुर्द कर दोगी तो हम मगर से इसे बचा सकते हैं। मम्मी चिल्लाई—अच्छा बेटे जिन्दा तो रहेगा, मुझे मंजूर है और मैंने तुझे भगवान को दे दिया। बस शंकराचार्य ने उछाल मारी और किनारे आ गए। वे बोले देखो मगर ने छोड़ दिया, अब मैं शंकर भगवान् का हूँ।
बहुत-सी शृंखला मैंने देखी हैं। उसी शृंखला में एक और कड़ी शामिल हो जाती है वसन्त पंचमी की। यही दिन थे, पचपन वर्ष पहले एक आया? कौन आया? मेरा सौभाग्य आया। वसन्त पंचमी के दिन हर एक का सौभाग्य आता है, एक उमंग आती है, एक तरंग आती है। मेरे ऊपर भी एक तरंग आई सौभाग्य के दिन मेरे गुरु के रूप में, मास्टर के रूप में। मेरा गुरु प्रकाश के रूप में आया। जब कोई महापुरुष आता है तो कुछ लेकर के आता है। कोई महाशक्ति आती है तो कुछ लेकर के आती है, बिना लिए नहीं आती। मेरा भी गुरु, मेरा भी बॉस, मेरा भी मास्टर और भी सौभाग्य की धारा और लहर मेरे पास आई थी, काश! आपके पास भी आ जाती तो आप धन्य हो जाते।
जब आती है हूक, जब आती है उमंग तो फिर क्या हो जाता है? रोकना मुश्किल हो जाता है और जो आग उठती है, ऐसी तेजी से उठती है कि इन्तजार नहीं करना पड़ता। जब वक्त आता है तो आँधी-तूफान के तरीके से आता है। मेरी जिन्दगी में भी आँधी-तूफान के तरीके से वक्त आया। मेरे गुरु आए और आकर के उन्होंने आत्म-साक्षात्कार कराया, पूर्वजन्मों का हाल दिखाया और जाते वक्त कहा कि हम दो चीजें देकर जाते हैं। दोनों चीजें जिनको हम शक्तिपात और कुण्डलिनी जागरण कहते हैं, दोनों की दोनों सेकण्डों में पूरी हो गई और मैं कुछ से कुछ हो गया। मेरी आँखों में कुछ और चीज दिखाई पड़ने लगी। नशा पीकर आदमी को कुछ का कुछ दिखाई पड़ता है। ऐसे ही मुझे दुनिया किसी और तरीके से दिखाई पड़ने लगी।
शक्तिपात कैसे कर दिया? शक्तिपात क्या होता है? शक्तिपात को मामूली तौर पर समझते हैं कि गुरु की आँखों में से, शरीर में से बिजली का करेन्ट आता है और चेले में बिजली छू जाती है और चेला काँप जाता है। वस्तुतः यह कोई शक्तिपात नहीं है और शारीरिक शक्तिपात से कोई बनता भी नहीं। शक्तिपात कहते हैं चेतना का शक्तिपात, चेतना में शक्ति उत्पन्न करने वाला। चेतना की शक्ति भावनाओं के रूप में, संवेदनाओं के रूप में दिखाई पड़ती है, शरीर में झटके नहीं मारती। इसका सम्बन्ध चेतना से है, हिम्मत से है। चेतना की उस शक्ति का ही नाम हिम्मत है, जो सिद्धान्तों को, आदर्शों को पकड़ने के लिए जीवन में काम आती है। इसके लिए ऐसी ताकत चाहिए जैसी कि मछली में होती है। मछली पानी की धारा को चीरती हुई, लहरों को फाड़ती हुई उलटी दिशा में छलछलाती हुई बढ़ती जाती है। यही चेतना की शक्ति है, यही ताकत है। आदर्शों को जीवन में उतारने में इतनी कमजोरियाँ आड़े आती हैं, जिन्हें गिनाया नहीं जा सकता। लोभ की कमजोरी, मोह की कमजोरी, वातावरण की कमजोरी, पड़ोसी की कमजोरी, मित्रों की कमजोरी—इतनी लाखों कमजोरियों को मछली के तरीके से चीरता हुआ जो आदमी आगे बढ़ सकता है, उसे मैं अध्यात्म दृष्टि से शक्तिवान कह सकता हूँ। मेरे गुरु ने मुझे इसी तरीके से शक्तिवान बनाया। बीस वर्ष की उम्र में तमाम प्रतिबन्धों के बावजूद मैं घर से निकल गया और काँग्रेस में भर्ती हो गया। थोड़े दिनों तक उसी का काम करता रहा फिर जेल चला गया। इसे कहते हैं हिम्मत और जुर्रत, जो सिद्धान्तों के लिए, आदर्शों के लिए आदमी के अन्दर एक जुनून पैदा करती है, समर्थ पैदा करती है कि हम आदर्शवादी होकर जियेंगे। इसी का नाम शक्तिपात है।
शक्तिपात कैसे होता है, इसका एक उदाहरण मीरा का है। वह घर में बैठी रोती रहती थी। घर वाले कहा करते थे कि तुम्हें हमारे खानदान की बात माननी पड़ेगी और तुम घर से बाहर नहीं जा सकती। मीरा ने गोस्वामी तुलसीदास को एक चिट्ठी लिखी कि इन परिस्थितियों में हम क्या कर सकते हैं? गोस्वामी जी ने कहा—परिस्थितियाँ तो ऐसी ही रहती हैं। दुनिया में परिस्थितियाँ किसी की नहीं बदलतीं। आदमी की मनःस्थिति बदल दें तो परिस्थितियाँ बदल जाएँगी। चिट्ठी तो क्या उन्होंने एक कविता लिखी मीरा को—
‘जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही।।’
यह कविता नहीं शक्तिपात था। शक्तिपात के सिद्धान्तों को पक्का करने के लिए यह मुझे बहुत पसन्द आती है और जब तब मेरा मन होता है, उसे याद करता रहता हूँ और हिम्मत से, ताकत से भर जाता हूँ। मुझमें असीम शक्ति भरी हुई है। सिद्धान्तों को पालने के लिए, हमने सामने वाले विरोधियों, शंकराचार्यों, महामण्डलेश्वरों और अपने नजदीक वाले मित्रों—सभी का मुकाबला किया है। सोने की जंजीरों से टक्कर मारी है। जीवनपर्यन्त अपने लिए, आपके लिए, समाज के लिए, सारे विश्व के लिए, महिलाओं के लिए, अधिकारों के लिए मैं अकेला ही टक्कर मारता चला गया। अनीति से संघर्ष करने के लिए युग-निर्माण का, विचार-क्रान्ति का सूत्रपात किया। इस मामले में हम राजपूत हैं। हमारे भीतर परशुराम के तरीके से रोम-रोम में शौर्य और साहस भर दिया गया है। हम महामानव हैं। कौन-कौन हैं? बता नहीं सकते हम कौन हैं? ये सारी की सारी चीजें वहाँ से हुईं, जो मुझे गुरु ने शक्तिपात के रूप में दी, हिम्मत के रूप में दीं।
कुण्डलिनी क्या होती है? कुण्डलिनी हम करुणा को कहते हैं, विवेकशीलता को कहते हैं। करुणा उसे कहते हैं जिसमें दूसरों के दुःख-दर्द को देखकर के आदमी रो पड़ता है। विवेक यह कहता है कि फैसला करने के लिए हमको ऊँचा आदमी होना चाहिए जैसे कि जापान का गाँधी कागावा हुआ। उसने अपना सम्पूर्ण जीवन बीमार लोगों, पिछड़े लोगों, दरिद्रों और कोढ़ियों की सेवा में लगा दिया। चौबीसों घण्टे उन्हीं लोगों के बीच वह काम में रहता। कौन कराता था उससे यह सब? करुणा कराती थी। इसी को हम कुण्डलिनी कहते हैं, जो आदमी के भीतर हलचल पैदा कर देती है, रोमांच पैदा कर देती है, एक दर्द पैदा कर देती है, भगवान जब किसी इनसान के भीतर आता है तो एक दर्द के रूप में आता है, करुणा के रूप में आता है। भगवान मिट्टी का बना हुआ जड़ नहीं है, वह चेतन है और चेतना का कोई रूप नहीं हो सकता, कोई शक्ल नहीं हो सकती। ब्रह्म चेतन है और चेतन केवल संवेदना हो सकती है और संवेदना कैसी होती है? विवेकशीलता के रूप में और करुणा के रूप में। आदर्श हमारे पास हों और वास्तविक हों तो उनके अन्दर एक ऐसा मैग्नेट है जो इनसान की सहानुभूति, जनता का समर्थन और भगवान की सहायता तीनों चीजें खींचकर लाता हुआ चला जाता है। कागावा के साथ यही हुआ। जब उसने दुखियारों की सेवा करनी शुरू कर दी तो उसको यह तीनों चीजें मिलती चली गईं। आदमी के भीतर जब करुणा जाग्रत होती है तो सन्त बन जाता है, ऋषि बन जाता है। हिन्दुस्तान के ऋषियों का इतिहास ठीक ऐसा ही रहा है।
जिस किसी का कुण्डलिनी जागरण जब होता है तो ऋद्धियाँ आती हैं, सिद्धियाँ आती हैं, चमत्कार आते हैं। उससे यह अपना भला करता है और दूसरों का भला करता है। मेरा गुरु आया मेरी कुण्डलिनी जाग्रत करता चला गया। हम जो भी प्राप्त करते हैं, अपनी करुणा को पूरा करने के लिए, विवेकशीलता को पूरा करने के लिए खर्च कर देते हैं और उसके बदले मिलता है असीम सन्तोष, शान्ति और प्रसन्नता। दुःखी और पीड़ित आदमी जब यहाँ आँखों में आँसू भरकर आते हैं तो सांसारिक दृष्टि से उनकी सहायता कर देने पर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है। शारीरिक से लेकर मानसिक बीमारों तक, दुखियारों एवं मानसिक दृष्टि से कमजोरों से लेकर गिरे हुए आदमी तक, जो पहले कैसा घिनौना जीवन जीते थे, उनके जीवन में जो हेर-फेर हुए हैं, उनको देखकर बेहद खुशी होती है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। यह कुण्डलिनी का चमत्कार है।
आज के दिन मेरे मन में एक ही विचार आता है कि यहाँ जो भी लोग आते हैं, उनको मेरे कीमती सौभाग्य का एक हिस्सा मिल जाता तो उनका नाम, यश अजर-अमर हो जाता। इतिहास के पन्नों पर उनका नाम रहता। अभी आपको जैसा घिनौना, मुसीबतों से भरा समस्याओं से भरा जीना पड़ता है, तब जीना न पड़े। आप अपनी समस्याओं का समाधान करने के साथ-साथ हजारों की समस्याओं का समाधान करने में समर्थ बनें। फिर आपको न कहना पड़े कि गुरुजी हमारी मुसीबत दूर कर दीजिए। फिर क्या करना पड़े? गुरुजी को ही आपके पास आना पड़े और कहना पड़े कि हमारी मुसीबत दूर कर सकते हो तो कर दीजिए। विवेकानन्द के पास रामकृष्ण परमहंस जाते थे और कहते थे कि हमारी मुसीबत दूर कर दीजिए और हमारे पास भी हमारा गुरु आया था यह कहने कि हमारी मुसीबत दूर कर दीजिए। उन्होंने कहा—हम चाहते हैं कि दुनिया का रूप बदल जाए, नक्शा बदल जाए, दुनिया का कायाकल्प हो जाए। तो आप खुद नहीं कर सकते नहीं, खुद नहीं कर सकते। जीभ माइक का काम नहीं कर सकती और माइक जीभ का काम नहीं कर सकता। जीभ और माइक दोनों के सम्पर्क से कितनी दूर तक आवाज फैलती है? हमारा गुरु जीभ है और हम माइक हैं, उनके विचारों को फैलाते हैं। हम चाहते हैं कि आप भी ‘लायक’ हो जाइए। अगर आपके भीतर ‘लायकी’ पैदा हो जाए तो मजा आ जाए। तब दोनों चीजें शक्तिपात और कुण्डलिनी जो भगवान के दोनों हाथों में रखी हुई हैं, आपको मिल जाएगी। शर्त केवल एक ही है कि अपने आपको ‘लायक’ बना लें, पात्र बना लें। यदि लायक नहीं बने तो मुश्किल पड़ जाएगी। कुण्डलिनी जागरण के लिए पात्रता और श्रद्धा का होना पहली शर्त है।
आज का दिन ऊँचे उद्देश्यों से भरा पड़ा है। हमारे जीवन का इतिहास पढ़ते हुए चले जाइए, हर कदम वसन्त पंचमी के दिन ही उठे हैं। हर वसन्त पंचमी पर हमारे भीतर एक हूक उठती है, एक उमंग उठती है। उस उमंग ने कुछ ऐसा काम नहीं कराया, जिससे हमारा व्यक्तिगत फायदा होता हो। समाज के लिए, लोकमंगल के लिए, धर्म और संस्कृति की सेवा के लिए ही हमने प्रत्येक वसन्त पंचमी पर कदम उठाए हैं। आज फिर इसी पर्व पर तीन कदम उठाते हैं। पहला कदम सारे विश्व में आस्तिकता का वातावरण बनाने का है। आस्तिकता के वातावरण का अर्थ है—नैतिकता, धार्मिकता, कर्तव्यपरायणता के वातावरण का विस्तार। ईश्वर की मान्यता के साथ बहुत सारी समस्याएँ जुड़ी हुई हैं। ईश्वर एक अंकुश है। उस अंकुश को हम स्वीकार करें, कर्मफल के सिद्धान्त को स्वीकार करें और अनुभव करें कि एक ऐसी सत्ता दुनिया में काम कर रही है जो सुपीरियर है, अच्छी है नेक है, पवित्र है। उसी का अंकुश है और उसी के साथ चलने में भलाई है। यह आस्तिकता का सिद्धान्त है। इसी को अग्रगामी बनाने के लिए हमने गायत्री माता के मन्दिर बनाए हैं। गायत्री माता का अर्थ है—विवेकशीलता, करुणा, पवित्रता, श्रद्धा। इन्हीं सब चीजों का विस्तार करने के लिए आपसे भी कहा गया है कि आप अपने घरों में, पड़ोस के घरों में गायत्री माता का एक चित्र अवश्य रखें। घर-परिवार में आस्तिकता का वातावरण बनाएँ।
यज्ञ और गायत्री की परम्परा को हम जिन्दा रखना चाहते हैं। इसके विस्तार के लिए चल पुस्तकालय चलाने से लेकर ढकेल गाड़ी—ज्ञानरथ चलाने के लिए दो घण्टे का समय प्रत्येक परिजन को निकालना चाहिए। यही दो घण्टे भगवान का भजन है। भगवान के भजन का अर्थ है—भगवान की विचारणा को व्यापक रूप में फैलाना। हमने यही सीखा है और चाहते हैं कि आपका भी कुछ समय गायत्री माता की पूजा में लगे। जैसे हमारे गुरुजी ने हमसे समय माँगा था और हमें निहाल किया था, वही बात आज आपसे भी कही जा रही है कि अपने समय का कुछ अंश आप हमें भी दीजिए आस्तिकता को फैलाने के लिए। पाने के लिए कुछ न कुछ तो देना ही पड़ता है। पाने की उम्मीद करते हैं तो त्याग करना भी सीखना होगा।
आज के दिन हमने अपने ब्रह्मवर्चस का उद्घाटन कराया था। ब्रह्मवर्चस एक सिद्धान्त है कि मनुष्य के भीतर अनन्त शक्तियों का जखीरा सोया हुआ है जिसे जगाना है। जगाने के लिए तप करना पड़ता है। तप करके हम अपने भीतर सोए हुए स्रोतों को जगा सकते हैं, उभार सकते हैं। तप करने का सिद्धान्त यह है, जिससे खाने-पीने से लेकर ब्रह्मवर्चस के नियम पालने तक के बहिरंग तप आते है और भीतर वाले तप में हम अपनी अन्तरात्मा और चेतना को तपा डालते हैं। तप करने से शक्तियाँ आती हैं, मनुष्य में देवत्व का उदय होता है। मनुष्य में देवत्व का उदय करने के लिए सामान्य जीवन में आस्तिकता अपनानी और बहिरंग जीवन में तपश्चर्या करनी पड़ती है। आस्तिकता का अर्थ नेक जीवन और तपश्चर्या का अर्थ लोकहित के लिए, सिद्धान्तों के लिए मुसीबतें सहने से है। तप करने की शिक्षा ब्रह्मवर्चस द्वारा सिखाते हैं। यह एक प्रतीक है, सिम्बल है, एक स्थान है। मनुष्य के भीतर देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण—यही हमारे दो सपने हैं। हमारी कुण्डलिनी और शक्तिपात इन्हीं दो प्रयोजनों में काम आती हैं, तीसरे किसी प्रयोजन में नहीं। तपपरायण और लोकोपयोगी जीवन यही मनुष्य में देवत्व का उदय है।
धरती पर स्वर्ग के वातावरण का क्या मतलब है? अच्छे वातावरण को स्वर्ग बैकुण्ठ में ही नहीं वरन् जमीन पर भी हो सकता है। जहाँ अच्छे आदमी, शरीफ आदमी, अच्छी नीयत के आदमी ठीक परम्परा को अपनाकर भले आदमियों के तरीके से रहते हैं वहीं स्वर्ग पैदा हो जाता है। हम चाहते थे कि धरती पर स्वर्ग बनाने के लिए कोई एक ऐसा मोहल्ला बना दें, एक ऐसा ग्राम बसा दें, जिसमें त्याग करने वाले, सेवा करने वाले लोग आएँ और वहाँ पर सिद्धान्तों के आधार पर जिएँ, हल्की-फुल्की, हँसती-हँसाती शान्ति की जिन्दगी जिएँ, मोहब्बत की जिन्दगी जिएँ और यह दिखा सकें कि लोकोपयोगी जिन्दगी भी जी जा सकती है क्या? धरती पर इसका एक नमूना बनाने के लिए हमने गायत्री नगर बसाया है। और आपको दावत देते हैं कि आप अपने बच्चे को संस्कारवान नहीं बना सकते तो उसको हमारे सुपुर्द कर दीजिए। आप कौन हैं? हम वाल्मीकि ऋषि हैं और वाल्मीकि ऋषि के तरीके से आपके बच्चों को लव-कुश बना सकते हैं। आपकी औरत को तपस्विनी सीता बना सकते हैं। दोनों संस्थाओं की वसन्त पंचमी के दिन इसीलिए स्थापना की गई है। आस्तिकता के लिए, ज्ञानयज्ञ के लिए, विचार-क्रान्ति के लिए यह एक नमूना है।
तपश्चर्या के सिद्धान्तों को प्राणवान बनाने के लिए, ज्ञान-विज्ञान के लिए, ब्रह्मवर्चस और आस्तिकता को जीवित करने के लिए, धरती पर स्वर्ग पैदा करने के लिए, हिल-मिलकर रहने और त्याग, बलिदान, सेवा की जिन्दगी जीने के लिए गायत्री नगर बसाया गया है। लोग यहाँ हमारा प्यार पाने के लिए, संस्कार पाने के लिए, आदर्श पाने के लिए, प्रेरणा पाने के लिए, प्रकाश पाने के लिए आते हैं। नैमिषारण्य क्षेत्र में शौनक और सूत का संवाद होता था। सारे ब्राह्मण बैठते थे, ज्ञान-ध्यान की बातें करते थे और लोकोपयोगी जीवन जीते थे। मेरा भी मन था कि ‘एकदा नैमिषारण्ये’ के तरीके से स्नेहवश लोग यहाँ आएँ और हिल-मिलकर काम करें, समाज सेवा की बातें करें, दूसरों को उठाने की बातें करें। हम एक ऐसी दुनिया बसाना चाहते हैं, ऐसा नगर बसाना चाहते हैं, जिससे दुनिया को दिखा सकें कि भावी जीवन, भावी संसार अगर होगा तो स्वर्ग जैसा कैसे बनाया जा सकेगा? स्वर्ग में शान्ति का, परमार्थ का जीवन जीने के लिए क्या-क्या तकलीफें आ सकती हैं? ऐसा हम गायत्री नगर का उद्घाटन करते हैं। चूँकि हमारे गुरु ने यही दिया और उसके लिए वायदा किया कि तेरा ऊँचा उद्देश्य है, तो तेरे लिए कमी नहीं पड़ेगी। मैं भी आपको विश्वास दिलाता हूँ कि अगर आपके जीवन में उद्देश्य ऊँचे हों तो आपको कमी नहीं रहेगी, कोई अभाव नहीं रहेगा। मेरी एक ही इच्छा और एक ही कामना रही है कि वसन्त पर्व के दिन आपको बुलाऊँ और अपने भीतर जो पक्ष है, उस पिटारी को खोलकर दिखाऊँ कि मेरे अन्दर कितना दर्द है? कितनी करुणा है? जीवन को पवित्र बनाने की कितनी संवेदना है? कितना देवत्व है? यही खोलकर आपको दिखाना चाहता था। अगर आपको ये चीजें पसन्द हों तो मैं चाहता हूँ कि आप इन चीजों को देखें, इनको परखें, छुएँ और अगर हिम्मत हो तो इनको खरीद ही ले जाएँ।
ॐ शान्ति।