उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। — पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! मनुष्य के शरीर में दो चीजें हैं—एक उसकी रचना अर्थात काया और दूसरी चेतना। काया का संबंध खाने-पीने से है, सोने-उठने से है और इंद्रिय भोगों से है। पशु का छोटा-सा जीवन जिस तरीके से काया के ऊपर टिका रहता है, उसी तरीके से यदि मनुष्य का जीवन भी टिका रहे तो यह मानना चाहिए कि मनुष्य के जीवन का कोई महत्त्व न बन सका और उसके जीवन का कोई उद्देश्य पूरा न हो सका। खाने-पीने और बच्चे पैदा करने के जंजाल में वह फँस गया। यह भी कोई जीवन है क्या? नहीं, यह कोई जीवन नहीं है। यह बहुत ही घटिया और पशुओं जैसा नारकीय जीवन है।
मानवीय चेतना-विचारणा ही है विशेषता
मित्रो! मनुष्य के पास जो कुछ भी विशेषता और महत्ता है, जिसके कारण वह स्वयं उन्नति करता जाता है
और समाज को ऊँचा उठा ले जाता है, वह उसके अंतर की विचारधारा है। जिसको हम चेतना कहते हैं, अंतरात्मा कहते हैं, विचारणा कहते हैं। यही एक चीज है, जो मनुष्य को ऊँचा उठा सकती है और महान बना सकती है। शांति दे सकती है और समाज के लिए उसे उपयोगी बना सकती है। मनुष्य की चेतना, जिसको हम विचारणा कह सकते हैं, किस आदमी का विचार करने का क्रम कैसा है ? बस, असल में वही उसका स्वरूप है। आदमी लंबाई-चौड़ाई के हिसाब से छोटा नहीं होता, वरन जिस आदमी के मानसिक स्तर की ऊँचाई कम है, वह आदमी ऊँचे सिद्धांत और ऊँचे आदर्शों को नहीं सुन सकता। जो व्यक्ति सिर्फ पेट तक और संतान पैदा करने तक सीमाबद्ध रहता है, वह छोटा आदमी है। उसे अगर एक इंच का आदमी कहें तो कोई अचंभे की बात नहीं है। उसकी तुलना कुएँ के मेढक से करें, तो कोई अचंभे की बात नहीं है। कीड़े-मकोड़ों में उसकी गिनती करें तो कोई बात नहीं है।
साथियो! मनुष्य का स्तर और मनुष्य का बोध उसके ऊँचे विचारों पर टिका हुआ है। जब कभी भी मनुष्य के ऊँचे विचार होते हैं तो उसका जीवन देवत्व जैसा दिखाई पड़ता है। गरीब हो तो क्या? अमीर हो तो क्या? गरीबी से आदमी का क्या बनता-बिगड़ता है? अमीरी में गेहूँ की रोटी खा सकता है और गरीबी में मक्का की रोटी खा सकता है। इससे क्या बनता-बिगड़ता है? अमीर आदमी रेशमी कपड़े पहन सकता है तो कौन खास बात है? और गरीब आदमी मोटे-झोटे कपड़े पहन सकता है तो कौन सी खास बात है? आदमी में एक कानी-कौड़ी के बराबर भी कोई खास फरक नहीं आता है। मनुष्य का स्तर जब बढ़ता है तो उसके विचार करने के क्रम और सोचने के तरीके के ऊपर टिका रहता है। मनुष्य की महानता उसी के ऊपर टिकी रहती है। मनुष्य की शांति भी उसी पर टिकी हुई है। गौरव भी उसी पर टिका हुआ है। परलोक भी उसी पर टिका हुआ है और समाज के लिए उपयोगिता, अनुपयोगिता भी उसी पर टिकी हुई है। इसलिए हमको अपना सारा ध्यान इसी बात पर रखना चाहिए कि विचार करने का तरीका और सोचने का तरीका बदल जाए।
पिछले दिनों जब हमारे देश के नागरिकों की विचारणा का स्तर बहुत ऊँचा था, तब शिक्षा के माध्यम से और अन्य वातावरणों के माध्यम से, धर्म और अध्यात्म के माध्यम से यह प्रयत्न किया जाता था कि आदमी ऊँचे किस्म का सोचने वाला हो और उसके विचार, उसकी इच्छा-आकांक्षा और महत्त्वाकांक्षाएँ नीच श्रेणी के जानवरों जैसी न होकर महापुरुषों जैसी हों। जब ये प्रयास किए जाते थे तो अपना देश कितना ऊँचा था! यहाँ के नागरिक देवताओं की श्रेणी में गिने जाते थे और यह राष्ट्र दुनिया के लोगों की आँखों में स्वर्ग जैसा दिखाई पड़ता था। इस महानता और विशेषता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए धर्म और अध्यात्म का सारा ढाँचा खड़ा किया गया है।
धर्म-अध्यात्म का ढाँचा : उद्देश्य
मित्रो! ईश्वर के बारे में इतना ज्यादा लिखा और कहा गया है कि मैंने बारीकी से देखा और यह सोचा कि पूजा-पाठ से लेकर ईश्वर की चर्चा और लीला कहने तक, इस सबका क्या प्रयोजन है ? मुझे एक ही प्रयोजन जान पड़ा कि ईश्वर—परब्रह्म तो अपार शक्ति है। वह नियामक शक्ति है और आदमी के काम को देखती रहती है और आदमी के चाल-चलन, आदमी के विचार-कार्य के अनुसार फल देती रहती है। उसे किसी आदमी की प्रशंसा से और निंदा से क्या मतलब है ? गाली देने से क्या मतलब है ? जब मैंने यह विचार किया कि पूजा-पाठ से लेकर धर्म-अध्यात्म तक का सारा ढाँचा किस वजह से खड़ा किया गया है और इसका क्या मतलब है ? तो मैंने पाया कि इसका एक ही मतलब है। और कोई दूसरा मतलब नहीं है कि इन सारे-के-सारे कलेवरों में जकड़ा गया मनुष्य ऊँचे किस्म के विचार करना सीखे। आदर्शवादी विचारों को अपने मन में—अंतरंग में स्थापित किए रह सके। यही मनुष्य जीवन की महानतम सेवा है और मनुष्य जीवन की महानतम सफलता है।
मित्रो! जिस मनुष्य के मन में श्रेष्ठ किस्म के विचार रहते हों और इस तरह के विचार रहते हों, जो उसके व्यक्तिगत जीवन को पवित्र बना सकें और जो उसके व्यक्तिगत जीवन के दोष-दुर्गुणों का समाधान कर दें। इस तरह के विचार, जो मनुष्य को उदार बना दें और जो मनुष्य को स्वार्थपरता और संकीर्णता के जाल-जंजाल से निकाल दें। वे विचार, जो मनुष्य की परिधि को, सीमा को अपने शरीर से आगे बढ़ाते हैं, अपने कुटुंब से आगे बढ़ाते हैं और अपने बच्चों से आगे बढ़ाते हैं और इतना विशाल बना देते हैं कि वह सारे समाज का अंग हो जाता है। सारे समाज की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझता है और सारे समाज की सुविधाओं को अपनी सुविधा समझता है। सारे समाज के कष्टों को अपने कष्ट समझता है। सारे समाज की सेवा को अपनी सेवा समझता है। जब इतना ऊँचा स्तर मनुष्य का हो जाए तो समझना चाहिए कि इसके पास धर्म की मान्यता आ गई। सही अध्यात्म की समझ आ गई। ईश्वर की भक्ति आ गई।
हर काम : ऊँचे दृष्टिकोण से
साथियो! यह सारे का सारा जो कुछ भी हमारा दार्शनिक ढाँचा खड़ा हुआ है, इसी आधार पर खड़ा हुआ है। अगर यह स्तर मनुष्य का बना रहा तो जो कुछ भी आदमी काम करेगा, उसमें शान उत्पन्न हो जाएगी, उसी में सुख और सुविधा उत्पन्न हो जाएगी। ईमानदार आदमी अगर तिजारत करेगा तो उस तिजारत से सारी जनता को बहुत लाभ होगा और आदमी का वक्त बच जाएगा और जरा-सी चीजें खरीदने वालों को बहुत संतोष होगा और जो भी अच्छी चीजें उसे चाहिए थीं, खरीदनी थीं, मिल जाएँगी। बस, उसको एकदूसरे के प्रति प्रेम और विश्वास देना पड़ेगा। व्यापार हो तो क्या, अध्यापन हो तो क्या, मजदूरी हो तो क्या—कोई भी काम क्यों न हो, अगर मनुष्य ऊँचे दृष्टिकोण से करे तो वह छोटा-सा काम भी समाज के लिए बहुत उपयोगी हो सकता है और व्यक्ति की शान और गुणों को ऊँचा उठा सकता है। फिर हर आदमी यही कोशिश करेगा कि मेरा काम अच्छे किस्म का हो और मेरी इज्जत अच्छे काम के साथ जुड़ी हो। पैसा कम लेता हो या ज्यादा, लोग इस बात की सराहना करें कि किसी आदमी ने इसको बड़े मनोयोग, बड़ी दिलचस्पी और बड़ी मेहनत के साथ किया है। फिर उसकी इज्जत और आबरू लोगों की आँखों में भी बढ़ेगी और अपनी आँखों में भी। अपने आप को यह मालूम पड़े कि हम ईमानदार, शरीफ, नेक, कर्तव्यपरायण और वचन के पाबंद हैं। आदमी की ऊँचाई इसी बात पर टिकी हुई है।
साधनों का स्तर गिरा
इस ऊँचाई को कायम रखने के लिए, विवेकशीलता को कायम रखने के लिए इस तरह के विचारों की आवश्यकता है, जो मनुष्य को ऊँचा उठाएँ। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि हमारे पास विचार करने के जितने भी क्रम और साधन थे, वे सारे-के-सारे अस्त-व्यस्त और भ्रष्ट हो गए । जरा साहित्य की ओर देखना। साहित्य की दुकान पर जब हम जाते हैं और प्रेस में जो कूड़ा-कबाड़ा छपते देखते हैं। पत्र-पत्रिकाएँ जो हमारी आँखों के सामने आती हैं, इन्हें देखकर जी में आता है कि इन्हें जला दिया जाए या अपना सिर फोड़ लिया जाए या अपनी आँखें फोड़ ली जाएँ। यह भी कोई साहित्य है क्या, जो आदमी को अध:पतन की ओर ले जाता है, गिरावट की ओर ले जाता है। जो कुछ भी हम देखते हैं—ज्ञानवर्द्धन की सामग्री, कला और दूसरी चीजें, यहाँ तक कि धर्म-अध्यात्म के नाम पर जो नसीहतें दी जाती हैं, जो शिक्षण दिए जाते हैं, वे भी कैसे गंदे और फूहड़ किस्म के हैं। जी में आता है कि धर्म और पूजा-पाठ की इन किताबों को इकट्ठा करके इनमें दियासलाई लगा दी जाए या इनको जब्त कर लिया जाए। जाने कौन-कौन सी किताबें हैं, जिनमें न जाने क्या-क्या कूड़ा-कबाड़ा भरकर के रख दिया है, जो आदमी को ऊँचा उठाने की अपेक्षा और नीचे गिराती हैं। आदमी के चरित्र को और बदनाम करती हैं तथा आदमी को जो दिशा या प्रेरणा देती हैं, उसे और घटिया किस्म का बना देती हैं।
मित्रो! सारे-के-सारे विषयों में हम यह देखते हैं कि मनुष्य की अक्ल, मनुष्य की समझ और ऊँचाई को नीचे गिराने के लिए न जाने क्या-से-क्या चारों ओर से कबाड़ा इकट्ठा किया गया है कि आदमी घटिया होता हुआ चला जाता है। आदमी को घटिया बनाने से बचाने के लिए उन साधनों की जरूरत है, जो मनुष्य के विचारों में परिवर्तन लाते हों, ऊँचाई लाते हों, श्रेष्ठता लाते हों, शान लाते हों, इज्जत की भावना लाते हों। इस तरह का सारे-का-सारा कलेवर और ढाँचा खड़ा किया जाना चाहिए, जिससे कि आदमी के विचार करने की शैली कुछ ऊँची उठे, श्रेष्ठ बने। आदमी श्रेष्ठ नागरिक बनेगा तो अपनी राजनीति ठीक हो जाएगी, व्यापार सही हो जाएगा। श्रेष्ठ नागरिक बनेगा तो अपने कुटुंब और परिवार में बड़े प्यार और इज्जत के साथ, शान के साथ रहेगा। उसका स्वास्थ्य सही रहेगा। उसके बालक अच्छे बनेंगे। उसके पैसे की आमदनी जो कुछ भी है, उसका बेहतरीन इस्तेमाल होगा। तब व्यक्ति अपने आप को स्वर्ग में रहता हुआ अनुभव करेगा और सारे समाज में शान्ति आएगी—अगर व्यक्ति का स्तर ऊँचा हो जाए तब।
विचार-शैली बदले
इसलिए हमारे लिए मनुष्य जाति की सेवा का सबसे बड़ा काम यह है कि आदमी के विचार करने की शैली को उत्कृष्ट बनाने के लिए बेहतरीन किस्म के उपचार और योजनाबद्ध रूप से काम किए जाएँ। युगनिर्माण योजना यही करती हुई चली आ रही है। उसका पहला कदम यह है कि मनुष्य अपने सोचने की शैली में आमूलचूल परिवर्तन करे। पिछले हजारों वर्ष का समय ऐसा भयंकर रहा है, जिसमें सामंतवाद से लेकर पण्डावाद तक हमारे धर्म के ऊपर छाया रहा। उसने यह कोशिश की कि आदमी को बौद्धिक दृष्टि से गुलाम बना दिया जाए, ताकि उनके चंगुल में फँसे हुए लोग, जिनको चेले कहते हैं, भगत कहते हैं, धर्मप्रेमी कहते हैं, इनकी बुरी तरह से हजामत बनाई जा सके। उनको उल्लू बनाया जा सके। पिछले दिनों बौद्धिक क्षेत्र में एक ओर पण्डावाद हावी रहा, जिसने मनुष्य की कोई सेवा नहीं की। धर्म के नाम पर, अध्यात्म के नाम पर, पूजा-पाठ के नाम पर, तीर्थयात्रा के नाम पर आदमी को राई-रत्ती भर ऊँचा नहीं उठाया गया। सही बात यह है कि इन मामलों ने आदमी को और अनैतिक बना दिया, अंधविश्वासी बना दिया। पण्डावाद के द्वारा समाज की वास्तव में बहुत हानि हुई है ।
पण्डावाद और सामंतवाद—दो कारण गिरावट के
जिस प्रकार से पण्डावाद के द्वारा विचार के क्षेत्र में हानि हुई है, उसी प्रकार राजसत्ता जिनके हाथ में रही, जिनको सामंत कहते हैं, राजा कहते हैं, उनको हम डाकू कहते हैं। उन लोगों ने सिर्फ अपने महल, अपनी अय्याशी और विलासिता के लिए सोचा। समाज का शोषण किया और बराबर यह कोशिश कि कहीं ऐसा न हो जाए कि विचारशीलता फैल जाए और लोगों में अनीति के विरुद्ध बगावत का भाव पैदा हो जाए। न्याय की भावना की बात उदय हो जाए कि हम लोग इनका समर्थन क्यों करें? इसी बात की कोशिश पण्डावाद ने भी की कि लोग समझदार न होने पाएँ। लोग समझदार हो जाएँगे तो हमारे चंगुल से, हमारे हाथ से शिकार निकल जाएँगे। इसी बात की कोशिश सामंतवाद ने भी की कि आदमी को घटिया किस्म से विचार करना सिखाया जाए। अगर विचारशील, समझदार और चरित्रवान लोग हो जाएँगे तो उन पर हावी होना और अपनी मनमानी करना हमारे लिए मुमकिन नहीं रहेगा।
मित्रो! दोनों ही तरीकों से बराबर यह कोशिश की गई कि आदमी के विचार करने की शैली गिरा दी जाए और घटिया बना दी जाए। यही कारण था कि हम हजार वर्षों तक गुलाम हो करके रहे, इसकी वजह क्या थी? पंद्रह सौ मुसलमान हिंदुस्तान में आए और एक हजार वर्ष तक बुरी तरह से हमारे ऊपर हुकूमत करते रहे। कैसे-कैसे नृशंस अत्याचार करते रहे, जैसे कि दुनिया की रवायत में कहीं कभी दिखाई नहीं पड़ते, लेकिन हम बुजदिलों के तरीके से, कायरों के तरीके से, मरे हुए लोगों के तरीके से उनके अत्याचारों को सहते रहे। हम जरा भी सिर ऊँचा नहीं उठा सके, कुछ कर नहीं सके। ज्यादा-से-ज्यादा जी में आया तो भक्ति की बात कह दी, मीरा जी का गीत गा दिया और रावण जी का गीत गा दिया—बस, खेल खत्म हो गया। हम कुछ भी नहीं कर सके—क्यों? क्योंकि आदमी के विचार करने का स्तर गिरा हुआ है, घटिया है, जिसने हमें मुद्दतों तक गुलाम रखा। हम अभी भी बौद्धिक गुलामी में बुरे तरीके से जकड़े हुए हैं। राजनीतिक गुलामी दूर हो गई तो क्या, बौद्धिक गुलामी जहाँ-की-तहाँ है। अक्ल की दृष्टि से हम बुरे तरीके से गुलाम हैं।
अभी भी गुलाम हैं हम
सामाजिक कुरीतियों को ही लें तो उनमें न कोई तुक है और न कोई बात है। अरे साहब ! हमारी कुलदेवी है और कुलदेवी पर ही हमारे बच्चे का मुंडन होगा। कुलदेवी कहाँ रहती है? दो हजार मील दूर रहती है। दो हजार मील पर क्या करोगे? बच्चे का मुंडन कराने ले जाएँगे। फिर क्या हो जाएगा? देवी पर बाल चढ़ा देंगे। क्या करेगी देवी? बालों को खाएगी? नहीं, वह तो रोटी भी नहीं खाती। यदि बाल न चढ़ाएँ तो? तो बच्चे को बीमार कर देगी या मार डालेगी? देवी है या चुड़ैल? इस तरह की चुड़ैलों को देवियाँ बना दिया गया, कुलदेवी बना दिया गया है। और पागल आदमी कलकत्ता (कोलकाता) से रवाना होता है और उसकी कुलदेवी वहाँ जैसलमेर में रहती है, दो हजार रुपया किराया खरच करके बच्चे का मुंडन कराके आता है। वह समझता है कि उसने देवी के ऊपर जाने क्या एहसान कर दिया या देवी ने उसके ऊपर एहसान कर दिया।
मित्रो! इस तरीके के पागलों से सारा समाज भरा हुआ पड़ा है। हम बौद्धिक दृष्टि से गुलाम हैं। हमारी सामाजिक कुरीतियाँ कैसी बेहूदी हैं कि हमारा सारा पैसा खा जाती हैं, अक्ल खा जाती हैं और न जाने क्या-से-क्या खा जाती हैं और हम इधर-से-उधर, यहाँ-से-वहाँ मारे- मारे डोलते हैं, जिसमें न कोई अक्ल है और न कोई विवेक की बात।
हम देखते हैं कि लोग बौद्धिक दृष्टि से किस तरीके से गुलाम हैं। जन्मपत्रियों की बात को ही ले लीजिए, जन्मपत्री का जंजाल ऐसा खड़ा हुआ है कि लाखों आदमी इसी से उल्लू बने फिरते हैं। मंगल आ गया, राहु आ गया, चंद्रमा आ गया, शुक्र आ गया, चंद्रमा इन्हीं के ऊपर आ गया आदि। ये ही कुँवर और ये ही राजा साहब बने बैठे हुए हैं। चंद्रमा इन्हीं के पीछे-पीछे फिरेंगे। चंद्रमा के पास कुछ काम ही नहीं है। इन्हीं को मारेंगे, इन्हीं को प्यार करेंगे। इन्हीं पर लक्ष्मी बरसाएँगे, इन्हीं को हानि पहुँचाएँगे। यही जो रह गए हैं नबाव कहीं के! चंद्रमा इन्हीं के पीछे फिरेंगे। बेवकूफ कहीं के। इस तरीके से बेअक्ली और बेवकूफी का कोई अंत है क्या? कुछ अंत नहीं है। इसी तरीके से नैतिक चीजों के बारे में बेअक्ली का अंत है क्या? नहीं है।
नैतिक मूल्य गिरे हैं
सामाजिक कुरीतियों का कहाँ तक वर्णन किया जाए। इनका वर्णन नहीं करता मैं। नैतिकता के मूल्य के बारे में भी आदमी इस तरीके से पिछड़ता चला गया है कि आदमी के जी में न जाने कैसे विश्वास जम गया है कि हम अगर बेईमान होकर जिएँगे तो मालदार हो जाएँगे। कामचोरी करेंगे तो हमारी तरक्की हो जाएगी। यह करेंगे तो हमारा यह हो जाएगा। भ्रष्ट आदमी का आज मन ऐसा ही घटिया हो गया है। मेरे मन में ऐसा विचार आता है कि सारी-की-सारी विचार करने की शैली को बदल दूँ। एक और जमाना ऐसा आया था कि जिस जमाने में हर आदमी के विचार करने का ढंग बहुत ही घटिया और बहुत ही नीच हो गया था। फिर क्या हुआ? भगवान ने अवतार लिया था और वह परशुराम जी का अवतार था। परशुराम जी के अवतार ने हाथ में एक कुल्हाड़ा लिया और उस कुल्हाड़े से आदमियों के सिर काट डाले। उनने सारी दुनिया के कई बार सिर काट डाले।
सिर काटना अर्थात दुर्बुद्धि का उपचार
मित्रो! कई बार मैं विचार करता था कि सिर काट डालने का क्या मतलब है? आदमी का सिर काट डालने से क्या आदमी बदल जाएगा? मरने के बाद भूत हो जाएगा, पलीत हो जाएगा और फिर तंग करेगा, मक्कारी करेगा। इस तरीके से मार डालने से क्या हो सकता है ? फिर दिमागों को बदलने की बात मेरी समझ में आई कि आलंकारिक रूप से परशुराम भगवान का अवतार हुआ था। इसी उद्देश्य के लिए हुआ था कि दुर्गुणों को, लोगों की अक्ल को और लोगों की समझ को बदल दें। लोगों की अक्ल और समझ को हम बदल दें तो आदमी की निन्यानवे फीसदी समस्या अपने आप हल हो जाएगी। समस्या कुछ है ही नहीं।
मनुष्य की जितनी भी समस्याएँ हैं, सब उसकी बेअक्ली की पैदा की हुई समस्याएँ हैं। संतान नहीं होती है तो बहुत ही अच्छी बात है। इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? संतान नहीं है तो आप अकेले हैं। मियाँ-बीबी दो आदमी रहिए और अपना बचा हुआ पैसा समाज के लिए लगाइए। खुशहाली से रहिए, सैर कीजिए। बच्चे के पालन करने की जिम्मेदारी नहीं है, रोने-चिल्लाने की जिम्मेदारी नहीं है। दवा-दारू की जिम्मेदारी नहीं है। बताइए, इसमें क्या बात है? नहीं साहब! हमारे बच्चा नहीं होता, हम तो दुखी हैं। हमारी मनोकामना पूर्ण हो जाए तो अच्छा है। हमारे बच्चा हो जाए तो अच्छा है बेवकूफ कहीं का! इस तरीके से बेअक्ली और बेवकूफी हमारे रोम-रोम में इस बुरे तरीके से छा गई है कि मनुष्यों को मैं क्या कहूँ? मैं उसको जानवर ही कह सकता हूँ।
मनुष्य को जरूरत है समझदारी की
आज मनुष्य एक ऐसा जानवर हो गया है, जिसको समझदारी सिखाई जानी चाहिए। इसके लिए दूसरी चीजें, जिनको हम शारीरिक आवश्यकताएँ कहते हैं और जिनको हम आर्थिक समस्याएँ कहते हैं, अगर पहाड़ के बराबर भी ऊँचा करके रख दी जाएँ तो आदमी का रत्ती भर भी भला नहीं हो सकता। हम देखते हैं कि गरीब आदमी दुखी है, जबकि अमीर आदमी उससे भी ज्यादा हजार गुनी परेशानी में, उलझनों में, क्लेशों में पड़े हुए हैं; क्योंकि उनके पास विचार करने की कोई शैली नहीं है। अगर उनके पास कोई विचार रहा होता तो इतना अपार धन उनके पास पड़ा हुआ है, जिसे न जाने किस काम में लगा दिया होता और उस काम के द्वारा समाज में न जाने क्या व्यवस्था उत्पन्न हो गई होती। न जाने समाज का कैसा कायाकल्प हुआ होता। लेकिन नहीं, वही धन बेटे में, पोते में, जमीन और जेवर—सब में ऐसे ही तबाह होता चला जाता है।
(क्रमश:)
(उत्तरार्द्ध)—गतांक से जारी
समझदारी का शिक्षण
मित्रो ! आज आदमी के पास कोई लक्ष्य, कोई दिशा नहीं है। हमारे पास विद्या है तो हम इसका क्या करें? पैसा है तो इसका क्या करें? समाज के सामने ढेर लगी समस्याओं का हल किस तरीके से करें, कुछ समझ में नहीं आता। बेअक्ली की इस अव्यवस्था को दूर करने के लिए यह आवश्यकता अनुभव की गई कि लोगों को समझदारी सिखाई जाए। समझदारी केवल ज्योमेट्री, इतिहास, भूगोल को नहीं कहते। समझदारी उसे कहते हैं, जिसके द्वारा सही चिंतन करने के बाद में आदमी व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं, समाज की समस्याओं और अपने युग की समस्याओं का समाधान कर सके। ऐसी जानकारियों का नाम ज्ञान है। आज सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की समझी गई है कि हजार वर्ष की गुलामी के बाद आदमी के विचार करने का ढंग भ्रष्ट हो गया है, उसका कण-कण दूषित और विकृत हो गया है। इसको उखाड़ करके फेंक दिया जाए और सोचने के नए तरीके लोगों के दिमागों में स्थापित किए जाएँ। विवेकशीलता के आधार पर क्या बात सोची जानी चाहिए और क्या नहीं सोची जानी चाहिए? क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं किया जाना चाहिए, कौन सी दिशा गलत है और कौन सही है ? इसका शिक्षण किया जाए? यह शिक्षण करना मानव जाति की, समाज की सबसे बड़ी सेवा है।
साथियो ! अपने युगनिर्माण योजना के युग-परिवर्तन के कार्यक्रम में पहला स्थान इसी को दिया गया है। हमने ये कोशिश की है कि इस तरह के विचारों की एक धारा और उसकी पद्धति की संहिता का निर्माण किया जाए, जो मनुष्यों के गलत सोचने के स्थान पर सही सोचने का मार्गदर्शन कर सके। मैंने ढेरों पुस्तकें पढ़ी हैं, लेकिन ऐसा साहित्य कहीं नहीं है, जो आदमी को और उलझन में डालने की बजाय उसको सही सोचने का तरीका सिखाए। सही सोचने का तरीका सिखाने के लिए युगनिर्माण योजना ने ऐसा साहित्य, ऐसी विज्ञप्तियाँ, ऐसे ट्रैक्ट कम-से-कम मूल्य पर छापे हैं, जिसको पढ़ने के बाद आदमी को स्वतंत्र चिंतन की दिशा मिले। आदमी को यह प्रकाश मिले कि हमारे सोचने का सही तरीका क्या है, समाज की समस्याओं का वास्तविक स्वरूप क्या है, व्यक्ति की उलझनों का वास्तविक कारण क्या है, उनका समाधान किस तरीके से किया जा सकता है? अगर यह राह मिल जाए तो बीमारियों का निदान हो जाएगा कि समाज में फैली हुई विकृतियों का एकमात्र कारण मनुष्य का गलत सोचना है। अगर गलत सोचने की बात को आदमी जान ले और सही सोचना शुरू कर दे, तो मजा आ जाए।
सबसे महत्त्वपूर्ण प्रयास
मित्रो! मनुष्य जाति के सामने साधन उत्पन्न करने के लिए युगनिर्माण योजना ने एक प्रयास आरंभ किया और वैसी विचारधारा का निर्माण किया। यह इस युग की महती सेवा है कि आदमी को क्रमबद्ध रूप से सामाजिक, नैतिक, बौद्धिक, आर्थिक, पारिवारिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं के बारे में सच्चिंतन करना कैसे सिखाया जाए? यह प्रयास अन्यत्र नहीं शुरू हुआ था, आज अपनी संस्था के द्वारा शुरू हुआ है। इसके द्वारा कितना साहित्य लिखा गया है, कितने विचारों का एक समूह इकट्ठा किया गया है, इसका मूल्यांकन आज की परिस्थिति में नहीं हो सकता। इसका मूल्यांकन बहुत दिन पीछे होगा, जब लोग समझेंगे कि गलत दिशा में जाने वाले जनसमूह को सही दिशा में लाने के लिए जो मोड़ दिया गया, उस मोड़ को देने का श्रेय किसका है और किसने ऐसा मोड़ दिया? यह मोड़ मानव जाति की महती सेवा है, ऐतिहासिक सेवा है।
युगनिर्माण योजना द्वारा अपने ज्ञानयज्ञ के माध्यम से संपर्क रखने वालों से यह प्रार्थना की गई है कि लोगों को अपने समय का एक अंश और अपने धन का एक अंश निकालना चाहिए। उसे इस बात के लिए खरच करना चाहिए कि लोगों के विचार करने का क्रम किस तरीके से बदला जाए, सुधारा जाए। समयदान, अंशदान की यह आवश्यक शर्त लगाई गई है। प्रयत्न यह किया गया है कि इस संगठन से प्यार रखने वाला हर सदस्य उसकी सदस्यता शुल्क के रूप में एक घंटा समय दिया करे और कम-से-कम दस पैसे तो दिया करें। दस पैसे कोई बड़ी रकम नहीं होती है। एक प्याला चाय पच्चीस पैसे की आती है। गरीब-से-गरीब और अमीर-से-अमीर आदमी के लिए कुछ मुश्किल नहीं है, अगर उसके मन में इसकी महत्ता समा जाए तब। अगर महत्ता समाई नहीं तो एक कानी-कौड़ी भी भारी मालूम पड़ती है।
सद्ज्ञान विस्तार हेतु अंशदान
व्यक्ति शराब पीने में, सिनेमा देखने में पंद्रह रुपये खरच करके आता है। अच्छे काम के लिए कहा जाए तो चवन्नी में ही उसका प्राण निकल जाता है। आदमी जिस चीज का मूल्य नहीं समझता, उसके लिए जरा भी खरच नहीं कर पाता। लेकिन अगर वह उसका मूल्य समझता हो तो एक रोटी, आधी रोटी का टुकड़ा भी आसानी से खरच कर सकता है। एक रोटी बीस पैसे की आती है। आधी रोटी तो हम कुत्ते को रोज ही फेंक देते हैं। आधी रोटी को फेंक देना कौन सी मुश्किल की बात है—अगर आदमी की समझ में आ जाए कि ज्ञान नाम की भी दुनिया में कोई चीज होती है। ज्ञान की भी उपयोगिता है। ज्ञान का भी समाज में कोई मूल्य है। अगर ये बातें उसकी समझ में न आएँ तो उसे यह समझाना है कि इस जमाने में ज्ञान कितना आवश्यक है। इससे पहले इसकी इतनी ज्यादा आवश्यकता कभी नहीं हुई।
मित्रो! पुराने जमाने में कम-से-कम पचास फीसदी विकृतियाँ थी, जिसमें बीस फीसदी बौद्धिक थीं। आज तो हमारी अक्ल सौ फीसदी विकृत हो गई है, इसमें कहीं भी कोई पाँव रखने को जगह नहीं मालूम पड़ती । किसी आदमी के दिमाग को तोड़ा या खोला जाए और उसको खोलकर पढ़ा जाए तो मालूम पड़ेगा कि इसका अस्सी-नब्बे फीसदी दिमाग पागल हो गया है। सारा मस्तिष्क विकृत जैसा है, इसमें सही सोचने की शैली और माद्दा जरा भी नहीं है। इसलिए हमको यह घोर प्रयत्न करना पड़ेगा कि हममें से हर आदमी एक घंटा समय उस साहित्य को दूसरे लोगों को पढ़ाने, सुनाने और समझाने के लिए, स्वयं अपने आपको पढ़ने और समझने के लिए लगाए।
समयदान के साथ-साथ दस नए पैसे की जो बात कही गई है, वह रकम बहुत छोटी है, उससे भी कुछ काम चल सकता है। बंदूक किसी के पास हो और बारूद न हो, कारतूस न हो तो क्या काम चलेगा? हमारे घरों में घरेलू पुस्तकालय होना ही चाहिए। यह बहुत बड़ी संपत्ति के बराबर है। किसी घर में जेवर है कि नहीं, गाय-भैंस है कि नहीं, मकान है कि नहीं, तसवीर है कि नहीं। सबसे पहले यह देखा जाना चाहिए कि इसको बौद्धिक खुराक पूरा करने के लिए हमारे घर में चौका है कि नहीं है। जिस घर में चौका न हो, रोटी का इंतजाम न हो, आटा न हो, दाल न हो, वह कैसा घर? उस घर में आदमी जिएँगे कैसे? जिस तरीके से शरीर की भूख होती है, उसी तरीके से मन की भी भूख होती है और आत्मा की भी भूख होती है । मन और आत्मा की भूख को बुझाने के लिए जहाँ रसोड़ा (रसोई) न हो, चौका न हो तो जानना चाहिए कि यह भूतों का घर है।
ज्ञानयज्ञ हेतु पुस्तकालय
मित्रो! प्रत्येक घर में एक छोटी लाइब्रेरी होनी ही चाहिए। यह लाइब्रेरी ऐसी होनी चाहिए कि जिससे घर के बच्चों को, भाई और बहनों को, पढ़े-लिखों को या तो पढ़ाया जा सके या सुनाया जा सके। उनका बौद्धिक परिष्कार करने के लिए कुछ साधन-सामग्री तो होनी ही चाहिए। साधन-सामग्री के बिना उनको क्या सिखाया जाए, क्या पढ़ाया जाए, क्या सुनाया जाए? इस तरीके से उस साधन-सामग्री को घर की एक संपदा के रूप में, एक तिजोरी के रूप में, एक जेवर के रूप में, एक अँगूठी के रूप में घर में रखा जाना चाहिए, और वह धन प्रत्येक घर में खरच किया जाना चाहिए, जिसकी न्यूनतम मात्रा दस पैसे कही गई है। युगनिर्माण योजना ने इस बात का प्रयत्न किया है कि इस तरह का साहित्य तैयार किया जाए, ऐसी पत्र-पत्रिकाएँ निकाली जाएँ, जो इस युग की बौद्धिक भूख को बुझाने में समर्थ हों और ऐसे साहित्य को प्रत्येक आदमी अपने घर में रखे। उसके लिए दस पैसे खरच करे। यह दस पैसा चिड़ियों को दाना चुगाने के लिए नहीं है और गऊओं को घास खिलाने के लिए नहीं है, हवन आहुतियाँ देने के लिए नहीं है। यह सिर्फ एक ही काम के लिए माँगा गया है कि इसको ज्ञानयज्ञ के लिए खरच किया जाए। इस तरह का साहित्य अपने घर में रखा जाए, अर्थात घर में एक लाइब्रेरी स्थापित की जाए। इस घरेलू लाइब्रेरी के द्वारा अपना स्वयं का, अपने कुटुंब का, अपने पड़ोसियों का और अपने रिश्तेदारों का बौद्धिक परिमार्जन करने के लिए एक क्रम बनाया जाए।
मित्रो! समय को खरच करने के लिए भी बात इसीलिए की गई है कि अगर हम केवल साहित्य रख दें और पुस्तकालय खोल दें, घर में रख दें या किसी लाइब्रेरी में रख दें तो उससे कुछ बनने वाला नहीं है। आज मनुष्य की ज्ञान की भूख मर चुकी है। उसकी मरी हुई भूख को जगाने के लिए केवल साहित्य को रख देना काफी नहीं है, वरन उसकी इच्छा को जगाना भी जरूरी है। हमने देखा है कि उपन्यास पढ़ने वाले, गंदी किताबें पढ़ने वाले ढेरों हैं। वे लाइब्रेरियों में जाते हैं और पैसा देते हैं, किताबें खरीदते हैं, नॉवेल खरीदते हैं, गंदी किताबें खरीदते हैं, और उन पर पैसा खरच करते हैं, लेकिन अगर अच्छी किताबें लेने के लिए कहा जाए तो मुँह मोड़ लेते हैं और कहते हैं कि ये हमें अच्छी नहीं लगतीं, हमको फुरसत नहीं है, समय नहीं है। इसकी वजह एक ही है कि जीवन जैसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न के ऊपर उनकी कोई इच्छा नहीं है। उनकी इच्छा सो गई है, वे जीवन के स्वरूप को भूल गए हैं। जीवन की आवश्यकताओं के बारे में उन्हें कोई ज्ञान नहीं है।
रुचि जाग्रत करनी होगी
हमारा पहला काम लोगों की मनःस्थिति के अनुसार पुस्तक पढ़ाना नहीं है, वरन पहला काम उनकी रुचि को जाग्रत करना है। किसी एक जगह किताबों का गट्ठा रख देने से यह काम बनने वाला नहीं है। इसके लिए घर-घर जाना पड़ेगा। विचारों की उपयोगिता, विचारों का मनुष्य के जीवन पर प्रभाव और विचारों का नैतिक और राष्ट्रीय जीवन पर प्रभाव आदि बहुत कुछ हमको उन्हें सिखाना और समझाना पड़ेगा और शुरुआत करनी पड़ेगी, ताकि आदमी की समझ में यह आ जाए कि विचारों का भी कोई मूल्य होता है। सही विचार करना आ जाए तो हम अपनी आंतरिक और बाह्य जीवन की समस्याओं का समाधान करने में समर्थ हो सकते हैं।
इस प्रकार इतनी बात समझ में आ जाए कि इसके लिए घर-घर जाना पड़ेगा, बहस करनी पड़ेगी और समझाना पड़ेगा, रुचि पैदा करनी पड़ेगी। वोट माँगने के लिए जिस तरीके से चालाकियाँ इस्तेमाल की जाती हैं, खुशामदें की जाती हैं, उसी चालाकी और खुशामद के साथ-साथ हमें घर-घर, जन-जन के पास जाना पड़ेगा। अगर हम ऐसा नहीं कर सकते हैं तो लोकरुचि की ओर नहीं जाया जा सकता। लोकरुचि नहीं जगाई जा सकती तो साहित्य की क्या कीमत, लाइब्रेरी की क्या कीमत? कुछ कीमत नहीं है। वह कूड़े के बराबर है। पुस्तकें छापकर रखते चले जाइए, या कोई आदमी खरीद लाए और एक लाइब्रेरी खोल दे या एक कोने में डाल दे तो उसे दीमक खाएगी, चूहे खा जाएँगे। इससे क्या बनने वाला है?
चलता-फिरता पुस्तकालय
मित्रो! आज सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि लोकरुचि ज्ञान की ओर से जो अस्त-व्यस्त हो गई है, उसको इस तरीके से जगाएँ—इसके लिए झोला पुस्तकालय चलाने की बात कही गई है। दस नया पैसा और एक घंटा समय देने की बात कही गई है। आप कहीं भी जाएँ अपने ऑफिस में जाएँ, रेलगाड़ी में जाएँ, सफर में जाएँ, रिश्तेदारी में जाएँ एक छोटा बैग अपने पास रखें। उसमें ५-२५ किताबें, जो बड़ी उपयोगी हैं और बौद्धिक क्रांति के लिए मार्गदर्शन करती हैं, उनको अपने साथ लेकर जाएँ और जिस किसी आदमी से हमारी बात-चीत हो—बात-चीत का सिलसिला शुरू हो अपने मिशन की बात करके थोड़ी सी रुचि जाग्रत करके और उसका लाभ एवं माहात्म्य बता करके एक पुस्तक चुपके से उसकी ओर खिसका दी जाए और पढ़ने के लिए कहा जाए। उसके पास किताब पढ़ने लायक समय न हो तो जो विज्ञप्तियाँ हैं, उनको पढ़ने के लिए कहा जाए और उसको वापस लिया जाए।
लोगों को पढ़ने के लिए देना और वापस लेना—ये पढ़े-लिखे लोगों के लिए ठीक है, लेकिन इस देश में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या तो बहुत कम है। अधिकांश लोग तो बिना पढ़े ही हैं। बिना पढ़े लोगों को जहाँ भी मौका मिल जाए, वहाँ इकट्ठा कर लें। चाहे जहाँ इकट्ठा बैठे हों, उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि आपके पास दो-चार मिनट का समय हो तो एक बात आपको सुना दूँ क्या? अगर वे कहें कि सुनाइए तो एक विज्ञप्ति सुना दीजिए। दस मिनट में यह खत्म हो जाती है। यह विज्ञप्तियाँ बड़ी मजेदार हैं। वहाँ सुना दीजिए, यहाँ सुना दीजिए, घर में सुना दीजिए, रेलगाड़ी में सुना दीजिए, मोटर-बस में सुना दीजिए। इस तरीके से बिना पढ़ों को ये पुस्तकें सुनाई जा सकती हैं, पढ़ों को पढ़ाई जा सकती हैं। इस विचारधारा को हममें से हर आदमी को मिशनरी स्पिरिट के द्वारा फैलाने की कोशिश करनी चाहिए।
ज्ञानमंदिरों की स्थापना
साथियो! मैने एक और बात ये कही है कि हर जगह ज्ञानमंदिर स्थापित किए जाने चाहिए। ज्ञानमंदिर अर्थात—चल पुस्तकालय। चल पुस्तकालय आज की सबसे बड़ी महती आवश्यकता है। पुस्तकालय खोलने को मैं ज्यादा महत्त्व नहीं दूँगा। पुस्तकालय कोई आदमी खोल ले और किताबें मँगाने लगे, फिर भी पढ़ने वाले सब बेवकूफी की किताबें पढ़ेंगे, अखबार पढ़ेंगे, पत्रिकाएँ पढ़ेंगे। अच्छी किताबों को कोई नहीं छुएगा। हमको लोकरुचि जगाने के लिए-जिस तरीके से चाय पिलाने वाले लोग और चाय का प्रचार करने वाले लोग घर-घर जाते थे और फोकट में चाय पिलाते थे। एक पैसे का चाय का पैकेट बेचते थे। चाय की प्रशंसा करते थे। उन चाय वालों के तरीके से हमको ठीक वही काम करना पड़ेगा। उसी रास्ते पर चलना पड़ेगा। झोला पुस्तकालय के माध्यम से हमको घर-घर जाना चाहिए, यह भी एक तरीका है, लेकिन उससे भी अच्छा तरीका यह है कि एक धकेलगाड़ी बना ली जाए और उस पर चल पुस्तकालय बना दिया जाए।
पहले लोग तीर्थयात्रा करते थे और भगवान के घर पर जाते थे। अब भगवान को यात्रा करनी चाहिए और लोगों के घरों पर जाना चाहिए। मरीज जब बच्चा था, तो अस्पताल जाता था, डॉक्टर से कहता था कि नब्ज देखिए, लेकिन जब मरीज का बुरा हाल हो जाता है और वह चलने लायक नहीं रहता तो डाक्टर को ही जाना पड़ता है और डॉक्टर को ही नब्ज देखनी पड़ती है। डॉक्टर को ही मरीज के सामने खड़े रहना पड़ता है और जब उसकी हालत ज्यादा खराब हो जाती है तो वह सेवा भी करता है। आज समाज की हालत उसी तरह की है, वह अस्पताल जाने की स्थिति में नहीं है और डाक्टर से प्रार्थना करने की स्थिति में नहीं है। आज तो वह लंघन की बीमारी की तरीके से चारपाई पर पड़ा हुआ है। हम समाजसेवी डॉक्टरों को, लोकसेवियों को ज्ञानमंदिर पर लोगों को बुलाने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, बल्कि ज्ञानमंदिर को उनके घर पर पहुँचाना चाहिए। मरीज दवा लेने अस्पताल आएँगे, यह नहीं हो सकता, अब तो दवा को मुँह में डालने के लिए चम्मच सहित जाना पड़ेगा और उनकी नसों में ग्लूकोज चढ़ाना पड़ेगा।
घरेलू गाड़ियाँ : ज्ञानरथ
मित्रो! आज हमारे समाज की यही स्थिति है, हमारे मानव जीवन की यही स्थिति है। इसके लिए चल पुस्तकालयों को बहुत महत्त्व दिया गया है और यह कहा गया है कि हर गाँव में एक धकेलगाड़ी बना ली जाए। दो सौ से तीन सौ रुपये की ठोस चार पहिए की अच्छी गाड़ी बन जाती है। उसको कवर्ड कर दिया जाए और अच्छे ढंग से बना लिया, अथवा कम पैसे हैं तो खुला भी रखा जा सकता है। इस तरह धकेलगाड़ी में रखकर के युगनिर्माण साहित्य, जिसमें पहले विज्ञप्तियाँ आती हैं, इसके बाद में ट्रैक्ट आते हैं, उसको लेकर के घर-घर जाया जाए और उसको पुस्तकालय कहा जाए, बिक्री केंद्र नहीं। पहले हर आदमी को एक-एक विज्ञप्ति पढ़ने को दी जाए, जो विचारशील लोग हैं। जब वे रुचि लेने लगें तो ट्रैक्ट दिए जाएँ। अगर विज्ञप्ति किसी ने ले ली और वापस नहीं किया, फेंक दी तो जानना चाहिए कि अभी ये इसी लायक हैं कि विज्ञप्तियों से ही इनको ट्राई किया जाए। विज्ञप्तियों से ही कई दिनों तक उन्हें ट्राई करते रहना चाहिए और जब यह मालूम पड़े कि थोड़ी रुचि जाग्रत हुई, तब किताब देनी चाहिए। शुरू में ही आपने किताब दे दी तो वह पढ़ नहीं पाएगा, बोर हो जाएगा और फेंक देगा। फिर आप शिकायत करेंगे कि हमारी किताब को पढ़ा नहीं, फेंक दिया।
साथियो! इस तरीके से विज्ञप्तियों के आधार पर रुचि जानना, थोड़ी बात-चीत करना, माहात्म्य बताना, लोगों को समझाना कि इस विज्ञप्ति को पढ़कर अमुक व्यक्ति ने अपने जीवन में लाभ उठाया, आप भी पढ़िए। हमको यह पसंद आया और हमको यह लाभ हुआ, आप भी पढ़िए। इस तरह की प्रशंसा और माहात्म्य बताने के बाद में आदमी की थोड़ी रुचि का जाग्रत होना संभव है। इस तरीके से धकेलगाड़ियाँ, चल पुस्तकालय सामूहिक रूप से चलाए जाने चाहिए अथवा व्यक्तिगत रूप से पुस्तकों की बिक्री हो जाए तो भी अच्छी बात है। अगर बिक्री हो जाती है तो आदमी अपने घर पर पुस्तकें रखेगा और अगर बिक्री नहीं होती तो पढ़ाने का काम तो चल ही रहा है। बिक्री हो जाए तो अच्छी बात है। उसके लिए प्रयत्न भी करना चाहिए कि लोग पुस्तकें खरीदें, लेकिन खरीदना ही हमारा मूल उद्देश्य नहीं है। उद्देश्य अपना पुस्तकालय है, बिक्री क्रम चलाना नहीं है, दुकान चलाना नहीं है, कोई फेरी लगाना नहीं है, धंधा करना नहीं है, वरन लोगों में ज्ञान की धारा को वितरण करना है।
योजना छोटी परिणाम महान
चल पुस्तकालय, झोला पुस्तकालय, दस नया पैसा अपनी घरेलू लाइब्रेरी के लिए निकालना और एक घंटा समय लोक-मंगल के लिए, ज्ञानयज्ञ के लिए, प्रचार-प्रसार करने के लिए—यह आज की हमारी कार्यशैली है। यह है तो जरा सी, छोटी सी योजना, लेकिन हम देखते हैं कि इस प्रयास के द्वारा अगर समाज में नया जीवन लाया जा सका और लोगों के सोचने का तरीका बदला जा सका, लोगों के अंदर प्राण पैदा किया जा सका, लोगों के अंदर उल्लास-उत्साह पैदा किया जा सका, लोगों को सच्चिंतन की दिशा दी जा सकी तो निश्चित रूप से मनुष्य जो आज दिखाई पड़ता है, वह कल नहीं रहेगा, और जो समाज आज दिखाई पड़ता है, वह कल नहीं रहेगा आज जो विकृतियाँ सारे समाज को भ्रष्ट किए हुए हैं, वे कल नहीं रहेंगी। जमाना अवश्य बदल जाएगा। जमाना बदलने के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता ज्ञान की है। इन चिनगारियों की मशाल अगर जलाए रखी जा सके तो हम न केवल भारतवर्ष की, वरन समस्त विश्व की, समस्त प्राणिमात्र की, सारे जड़-चेतन जगत की महती सेवा कर सकते हैं। ज्ञानयज्ञ हमारा विश्व-कल्याण का यज्ञ है। उसको केवल भौतिक दृष्टि से हजार गुना, लाख गुना बड़ा माना जाना चाहिए और हर विचारशील को ज्ञानयज्ञ के लिए अपने हिस्से का कर्तव्यपालन करने के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिए।
आज की बात समाप्त।
"ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ग्वं शान्तिः ......शान्तिरेधि॥"
॥ ॐ शांतिः॥