उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
आप लोग जिस कल्प-साधना में आये हुए हैं, उसमें महत्त्वपूर्ण काम आपको करना है कि किसी ऐसी सत्ता के साथ में अपने आपको जोड़ दें, जो बड़ी सामर्थ्यवान है। अकेले आप सीमित हैं, अकेले आप जो काम करते हैं, उससे गुजारा तो हो सकता है; लेकिन और ज्यादा ऊँचा उठना अकेले के बलबूते पर सम्भव नहीं है। अकेले प्राणियों को भगवान ने इतना दिया है, जिससे कि अपना गुजारा कर पाएँ। हर आदमी को इतनी अक्ल दी है, हाथ-पैर भी दिए हैं, शरीर दिया है, जिससे अपने शरीर का गुजारा कर लें और अपने बीबी-बच्चों का गुजारा कर लें और इससे अधिक किसी के पास नहीं है। मनुष्य के पास, इतना तो हर किसी के पास है, प्राणी के पास है; लेकिन इससे ज्यादा की जरूरत पड़े तो, फिर आपको भगवान का सहारा लेना पड़ेगा—ऐसे शक्तिपुंज का सहारा लेना पड़ेगा, जिसके पास शक्तियों के भण्डार भरे पड़े हैं। भगवान कौन? भगवान, आप यह मानकर चल सकते हैं कि एक बहुत बड़ा बिजलीघर है, जिसके साथ-साथ में बल्ब लगे रहते हैं, पंखे लगे रहते हैं, छोटी-छोटी मशीनें लगी होती हैं और जनरेटर के साथ में जुड़ जाने की वजह से यह काम करते रहते हैं। अगर वह जुड़ें नहीं तब? तब पंखा कैसे चले? बल्ब कैसे जले? दूसरे काम कैसे बनें? इसलिए इनका जुड़ जाना आवश्यक है। जुड़े बिना बड़ी शक्ति प्राप्त नहीं हो सकती, बड़े काम सम्भव नहीं हो सकते। मनुष्य बड़े काम करने के लिए किसी बड़ी शक्ति के साथ में जुड़ा रहे यह बहुत जरूरी है। इस जुड़े रहने की प्रक्रिया का नाम है—उपासना। उपासना माने—नजदीक बैठना, पास बैठना। अगर आप पास बैठ जाएँ किसी के, तो उसके गुण, उसके कर्म, उसका स्वभाव व उसकी विशेषताएँ आपके भीतर आना शुरू हो जाएँगी। आग की भट्टी के नजदीक अगर आप बैठने लगें तो, आपका शरीर गर्म हो जाएगा। बर्फ की फैक्ट्री के भीतर अगर आप घुस जाएँ, तो आपका शरीर ठण्डा होने लगेगा। ऐसी दृष्टि से आपको किसी के साथ में जुड़ना चाहिए। उपासना का अर्थ है—पास बैठना। आगे चलकर इसी को जुड़ जाना भी कहते हैं। पास बैठने का उदाहरण आप समझिए। चन्दन के पेड़ के नजदीक जब उगते हैं, बहुत सारे झाड़-झंखाड़, तो उन झाड़ियों में भी चन्दन की विशेषताएँ पैदा हो जाती हैं। यह उपासना हो गई—नजदीक बैठना हो गया। पारस के नजदीक बैठते ही, स्पर्श करते ही लोहा सोना बन जाता है। महान शक्ति का साथ छू करके कौन नहीं बज जाएगा महान? आप स्वाति की बूँद के बारे में जानते हैं? स्वाति की बूँद कितनी महान होती है? वह सीप के मुँह में जा पड़ती है, तो मोती पैदा हो जाते हैं। नजदीक न हों तब? आपस में न मिलें तब? तब सीप के लिए सम्भव नहीं है कि वह मोती पैदा कर सके। यही बात भगवान के सम्बन्ध में भी है। भगवान को कल्पवृक्ष बताया गया है, भगवान् को पारस बताया गया है, भगवान का अमृत बताया गया है। अमृत को पी करके आदमी अजर-अमर हो जाते हैं; कल्पवृक्ष के नीचे बैठ करके आदमी अपनी कामनाओं को पूरा कर लेते हैं और पारस को छू करके लोहा सोना हो जाता है। मनुष्य के बारे में भी यही बात है। भगवान को छुए आदमी तब? तब फिर सोने का हो जाएगा, लोहे का नहीं रहेगा, घटिया नहीं रहेगा, बल्कि महान बन जाएगा। ठीक इसी प्रकार से कल्पवृक्ष यानि भगवान के नीचे आदमी बैठ जाए तब? तब उसकी वह कामनाएँ, जिनकी वजह से वह हमेशा हैरान बना रहता है, उन हैरानियों से छुट्टी पा सकता है और आदमी की कामनाएँ तृप्त हो सकती हैं। मरते तो वह आदमी हैं, जो शरीर में जिन्दा रहते हैं, जो अपने आपको आत्मा समझते हैं, उनके मरने का सवाल कहाँ? क्यों? फिर मरने की कोई बात ही नहीं हो सकती, मरना कभी सम्भव नहीं है। मरना केवल उन्हीं के लिए सम्भव है, जो यह विचार करते हैं। कौन-सा? कि हमारा शरीर दूर है उनसे और जिस दिन भगवान के नजदीक जा करके आदमी यह अनुभव कर ले कि हमारा जीवात्मा भगवान का एक अंश है, फिर क्यों मरेगा आदमी? जीवात्मा कहीं मरता है क्या? शरीर तो कपड़ों की तरह है। रोज बदलते रहते हैं कपड़ों को, इससे कई लाभ हैं—भय से आदमी की निवृत्ति होती है; कामनाओं की पूर्ति के अभाव में जो विक्षोभ उत्पन्न होते हैं, उनसे निवृत्ति होती है। आदमी को अपनी कुरूपता और कमजोरियों से जो हैरानी होती रहती हैं, पारस से छू करके उसे निवृत्ति मिलती है। यह अनेक निवृत्तियाँ हो जाती हैं भगवान के नजदीक जाने से। इसलिए उपासना का बहुत महत्त्व बताया गया है।
आप पतंग को देखते हैं न! बच्चे के हाथ में जब पतंग होती है तो, बच्चा झटके से उड़ाता रहता है और पतंग ऊपर चढ़ जाती है। अगर कोई उड़ाने वाला न हो तब? तब पतंग जमीन पर गिरेगी और मटियामेट हो जाएगी। मनुष्य अपने जीवन की पतंग अगर भगवान के हाथों में सुपुर्द कर दे, तब फिर जाने कहाँ-से उठता हुआ चला जाता है। अगर यह पतंग सुपुर्द न करे तब? तब फिर जैसा छोटा, घिनौना मनुष्य है, वैसा ही तो रह जाएगा आगे कहाँ बढ़ेगा? आगे उसकी उन्नति की सम्भावना कहाँ है? आगे उसकी उन्नति के लिए कोई सम्भावना नहीं है और न कोई गुंजाइश है। ठीक इसी प्रकार से कठपुतली के बारे में आप जानते हैं न! कठपुतली नाचती है, कितना सुन्दर तमाशा दिखाता है! बच्चे देखकर कितने खुश होते हैं देखने वालों को कितना अचम्भा होता है? लेकिन क्या कठपुतली अपने आप नाचती है, नहीं, कठपुतली अपने आप नहीं नाचती; बाजीगर के हाथ में उसके धागे जुड़े हुए होते हैं और अपनी उँगलियों से घुमाता रहता है, जिसका परिणाम यह होता है कि कठपुतली सुन्दर तमाशा दिखा पाती है। अगर यह धागा न बाँधे कठपुतली तब? यह कहे-हम तो समर्पित नहीं होते, हम तो इनके अनुशासन को नहीं मानेंगे फिर? फिर कठपुतली का तमाशा देखा जाना कैसे सम्भव है? भगवान का उद्यान, भगवान के उद्यान में अगर हम रहें, तब फिर उसी के साथ में लिपट कर चलिए, लिपटकर चलेंगे, तो बेल की तरह चढ़ते चले जाएँगे। पेड़ होता है और पेड़ के ऊपर बेल लिपटती चली जाती है, उतनी ही ऊँची हो जाती है, जितना कि पेड़। पेड़ न मिले तब? तब फिर मुश्किल है। अगर आप उतने लम्बे न हों, जितनी कि बेल, बेल फैल तो सकती है जमीन पर; लेकिन ऊँची नहीं उठ सकती; ऊँचा उठने के लिए जरूरी है कि किसी पेड़ के साथ में बेल को लिपटने का सौभाग्य मिल जाए। भगवान एक पेड़ की तरह हैं, जिसके साथ में अगर आप अपने को लपेट देते हैं तो न जाने कहाँ-से चले जाते हैं; ऐसा है यह भगवान।
इसके साथ-साथ क्या करना चाहिए? उपासना में क्या करना होता है? उपासना में नजदीक आते हैं और नजदीक आने के साथ-साथ सबसे पहला काम करना पड़ता है—अपनी सफाई। अपनी सफाई हम कर लें, तब फिर सारी गुंजाइश मिलेगी। अगर सफाई न करें, तब फिर कुछ नहीं। शीशा है, शीशे को अगर आप मैला-कुचैला रख दें, उसमें फिर अपना चेहरा देखना चाहें तो दीखेगा क्या? नहीं दीखेगा। पानी के भीतर आप चेहरा देखना चाहें, बिम्ब देखना चाहें, तो पानी को साफ होना चाहिए। इसलिए भगवान के नजदीक जाने के लिए सबसे पहला काम जो करना पड़ता है, वह अपनी सफाई करनी पड़ती है। अपनी सफाई के लिए जितने भी कृत्य हैं, जो प्रारम्भिक और धार्मिक कृत्य हैं। आध्यात्मिक कृत्य हैं, इन सबमें अपने आप की सफाई, अपना परिष्कार करने की जरूरत पड़ती है। जैसे—आप सुबह पूजा करने बैठते हैं तो क्या करते हैं? पहले आप पंचकर्म करते हैं, पवित्रीकरण एक, आचमन दो, प्राणायाम तीन, न्यास चार, शिखावंदन पाँच। यही करते हैं न, पवित्रीकरण में जल हथेली पर लेकर शरीर पर छिड़कते हैं न और यह भावना करते हैं कि हमारी मलीनताएँ जो बाहर की मलीनताएँ हैं, वह दूर हो जाएँ। आचमन तीन बार करते हैं, उसके पीछे क्या संकल्प होता है? उसके पीछे यह संकल्प होता है कि हमारा मन, वाणी या वचन और कर्म—इन तीनों की शुद्धता के लिए जल पीते हैं और जीभ पर ही पीते हैं; जीभ पर इसकी स्वाद-इन्द्रिय है। इसके अन्दर से कटुवचन अगर इसके साथ में चलते हैं तो दूर हो जाएँ यह आचमन का उद्देश्य है। प्राणायाम—जो साँस हम ग्रहण करते हैं, साँस हमारे अंग-प्रत्यंगों में चली जाती है, तो प्राणायाम में भी हम यह भावना करते हैं कि भगवान का प्राण लेकर के, भगवान की शक्ति लेकर के यह हवा हमारे भीतर आए और धोकर के साफ कर दे। इसी प्रकार से न्यास है। न्यास में पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, कर्मेन्द्रियाँ हैं—इनको हमेशा शुद्ध रहना चाहिए अर्थात् इनके द्वारा किए हुए कृत्य शुद्ध और पवित्र होने चाहिए। न्यास—यही उद्देश्य है। शिखावंदन, शिखा का वंदन अर्थात् संस्कृति का वंदन। सिर के ऊपर जो ध्वजा फहरा रखी है ज्ञान की देवी गायत्री माता की, उसके प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करना—यही शिखावंदन है। यह संसार के सारे कृत्य जो कि पंचकर्म कहलाते हैं यह सब इस उद्देश्य के लिए हैं कि साधक को यह मानकर चलना चाहिए कि अपने आपको जितना पुनीत और जितना पवित्र बना सकेगा, उतना ही भगवान की किरणें उसके भीतर प्रवेश करेंगी; जितना अपने आपको जलील और गंदा बनाकर रखेगा, उसी हिसाब से व्यवधान उत्पन्न होते चल जाएँगे और जो चीज वह चाहता है उससे वंचित रह जाएगा। आप सामान्य जीवन में देखते होंगे, स्नान किये बिना कहाँ काम चलता है, स्नान न करें तब! स्नान शरीर को नहीं कराएँ, तब मैला-कुचला जम जाएगा और मैल जम जाने से पसीने के छेद बन्द हो जाएँगे, आप बीमार पड़ जाएँगे, खाज हो जाएगी, पीलिया हो जाएगा, जुएँ हो जाएँगे। इसलिए स्नान करना बहुत जरूरी है और जीवन को स्नान करना भी। शरीर का ही नहीं, आत्मा का भी। आत्मा का स्नान कराना अर्थात् आत्मा के ऊपर चढ़े हुए कषाय और कल्मषों को हमको दूर करना चाहिए। यही भजन का भी उद्देश्य है। बुहारी से आप देखते हैं न, बार-बार झाड़ू लगाते हैं। बर्तन माँजते हैं न, रिपिटीशन करते हैं, रिपिटीशन करना जप करने का उद्देश्य है, एक तरह का साबुन लगाना है। कपड़ा धोते हैं, तो बार-बार साबुन घिसते हैं अथवा बार-बार कपड़े को नीचे से ऊपर तक पीटते हैं, दबोचते हैं। इसका अर्थ यह हो गया कि जिस तरीके से राम के नाम से मन के ऊपर साबुन की तरह धोना शुरू करते हैं, तो यही जप का उद्देश्य है। पत्थर पर घिसते हैं, बार-बार रिपीट करते हैं, तो निशान हो जाता है। अगर नहीं करें, तब फिर नहीं होगा। बार-बार करने का मतलब यही है। बहुत-सी चीजें ऐसी होती हैं, जिनको कि रगड़कर चमका दिया जाता है, जैसे मार्बल, सीमेण्ट को बार-बार घिसते रहते हैं और बार-बार घिसने से वह चमक जाता है। किसी भी चीज को साफ करने के लिए उसको घिसाव देना पड़ेगा। घिसाव देने से हममें जो खुरदरापन है, रूखापन है, वह सब चिकनाई में, स्नेह में, सद्भावना में बदल जाता है—यह है रिहर्सल जप की।
जप को आप यह मानकर मत चलिए कि भगवान को अपनी खुशामद की जरूरत है और खुशामद जो कोई करता है, उससे भगवान प्रसन्न हो जाता है आप ऐसा ख्याल कभी मत करना। भगवान को न खुशामद करने की दरकार है और न कोई शानदार शक्ति खुशामद पसन्द करती है। भगवान की चोर खुशामद नहीं करते, तो क्या देख−भाल नहीं करता! चिड़ियाँ कहाँ खुशामद करती हैं? जानवर कहाँ उनकी पूजा और प्रार्थना करते हैं? इतने पृथ्वी के जीव-जन्तु हैं, इनमें से कौन पूजा-प्रार्थना करता है, तो क्या भगवान ध्यान नहीं रखते? तब क्या भगवान नाराज हो जाते हैं क्या? जो आदमी जप करेगा, उसी से प्रसन्न होंगे। जो जप नहीं करेगा, उससे प्रसन्न नहीं होंगे। नहीं, जप करने का मतलब अगर आपने खुशामद समझा है, तो आप गलती करते हैं। भगवान को न किसी खुशामद की जरूरत है, न किसी के इनाम और उपहार की जरूरत है। भेंट देंगे, पूजा देंगे, प्रसाद बाँटेंगे। आप क्या बच्चों की-सी बात करते हैं। फूल भगवान को रिश्वत के रूप में देंगे। आप रिश्वत क्या देंगे? फूल की जरूरत पड़ेगी, तो भगवान कहीं भी किसी के बगीचे में घुस जाएँगे और वहाँ से फूल चुनते रहेंगे। सारी दुनिया तो उन्हीं की है, जहाँ जरूरत पड़ेगी, वहीं सुगन्ध ले सकते हैं। आपके फूलों से क्या बनता-बिगड़ता है उनका। इसलिए, उपहार, इनाम, रिश्वत आदि की दृष्टि से न कोई वस्तु दी जा सकती है उसको और न उसके ऊपर किसी वाणी का असर पड़ता है। प्रार्थना करने का, पूजा करने का इनका कोई असर नहीं पड़ता। तब यह पूजा-उपासना, इतना कृत्य जो आप करते हैं, किसलिए किया जाता है? यह वास्तव में अपने मन की धुलाई है, अपने मन की रँगाई है। पहले आप अपने आपको धोकर रखेंगे, तो रँगना सम्भव हो जाएगा, फिर आप उपासना जो करेंगे, सफल हो सकती है, साधनाएँ सार्थक हो सकती हैं। अगर आपने अपनी धुलाई नहीं की, अपने कषाय-कल्मषों को धोया नहीं, तो फिर बहुत मुश्किल है, फिर आपके लिए बहुत कठिन हो जाएगा। खेत को अगर आप जोतेंगे नहीं तो फिर बीज बोएँगे कैसे? फसल पैदा हो जाएगी? यह खेत की जुताई, राम नाम का जप करना अथवा अन्य किसी तरीके से अपने आपका परिष्कार करना सब एक ही है। जोत करके अगर आपने खेत ठीक तरीके से तैयार कर लिया है, तो बुआई में आपको कोई दिक्कत नहीं पड़ेगी, बुआई सरल हो जाएगी, खेत तो जोता हुआ है और अगर जोता हुआ न हो तब? कंकड़, पत्थर वाला खेत हो तब? सूखा और पत्थर वाला खेत हो तब? तब आप जो कुछ भी बोएँगे जमीन में, सब आपका बीज भी मारा जाएगा और आप फिर निराश होते फिरेंगे। दीवार को चिनने से पहले, खड़ी करने से पहले, जमीन खोदनी पड़ती है, तब खोद करके उसमें नींव भरनी पड़ती है। जप करना, पूजा करना, ध्यान करना यह अपने आपकी खुदाई करने के बराबर है, ताकि वहाँ राम के नाम की नींव चिनी जा सके। यह जुताई और बुवाई, रँगाई और धुलाई की तरह है, यह बात समझ में आ जाए, तब फिर आपको उपासना-कृत्यों का रहस्य मालूम हो गया—यह समझना चाहिए।
नमन हम करते हैं, वन्दन करते हैं, सूर्य नारायण को जल चढ़ाते हैं—इनका क्या मतलब है? हम अपने आपको समर्पित करते हैं। अपने छोटे-से बर्तन में भरा हुआ जल हम सूर्य भगवान के सामने चढ़ा देते हैं, इसका अर्थ यह होता है प्रकारान्तर से कि हमारे शरीर में जो भी जल भरा हुआ है, जीवन-रस भरा हुआ है, इसको हम विराट् सत्ता को, भगवान को समर्पित करते हैं और यह आशा करते हैं कि हमारे जल को केन्द्रित न रखा जाए; बल्कि इसको हवा में बिखेर दिया जाए, ओस के रूप में ठण्डक के रूप में, नमी के रूप में। यह हमारा थोड़ा-सा जल जो अर्घ्य के रूप में चढ़ाया गया है, सारे समाज के काम आए, देश के काम आ जाए—इस उद्देश्य को लेकर सूर्य अर्घ्य चढ़ाया जाता है। सूर्य अर्घ्य में आप पानी तो चढ़ा देते हैं; लेकिन उसका भावार्थ नहीं समझे, तब फिर केवल क्रीड़ा-कृत्य हो जाएगा, फिर एक विडम्बना हो जाएगी, उससे कुछ बनेगा नहीं। वह सिर्फ जल को विसर्जन करना होगा। जैसे जल को सूर्य नारायण के सामने विसर्जित कर देते हैं, आपको भी वैसे ही विसर्जित करना पड़ेगा अपने आपको। इसका अर्थ है कि उनका अनुशासन अपने ऊपर धारण करना पड़ेगा। इष्ट-भगवान को स्थापित करते हैं न। इष्ट माने—लक्ष्य, हमारा लक्ष्य क्या है? लक्ष्य का मतलब है—इष्ट। इष्ट आपने कोई तय कर लिया अर्थात् आपका शिव इष्ट है, इसका मतलब हो गया—कल्याण आपका इष्ट है। गायत्री अगर आपका इष्ट है, तो इसका अर्थ हो गया कि आपने शालीनता की देवी का, पुनीत और पवित्रता की देवी का वरण कर लिया, उसके सामने अपने आपको चढ़ाने का निश्चय कर लिया। इसी प्रकार से यह जो है गायत्री—यह प्रज्ञा की देवी, सदाशयता की देवी, शालीनता की देवी—इसके प्रति अगर अपने आपको समर्पित करते हैं—तो आप मान लीजिए आपने इष्ट निर्धारित कर लिया। यह प्रतीक हैं। सारे आध्यात्मिक क्रियाकलापों का अर्थ केवल एक होता है कि हम भगवान में रम जाएँ, भगवान में तन्मय हो जाएँ, भगवान को साथ लेकर के चलें। इन्हीं को हम पूजा के प्रतीकों के माध्यम से चरितार्थ करते हैं। जल चढ़ाते हैं, भगवान को कोई पानी की जरूरत थोड़े ही है, बल्कि उसका यह अर्थ है कि हम अपने आपको जल जैसा पुनीत, जल जैसा बहने वाला, जल जैसा नम्र बनाते हैं। पुष्प हम भगवान के ऊपर चढ़ाते हैं, तो इसका अर्थ यह होता है कि फूल जैसा जीवन जीएँगे, सुरभित जीवन जिएँगे। समन्वित जीवन जिएँगे, हँसता और हँसाता हुआ जीवन जिएँगे। फूल चढ़ाना भगवान को रिश्वत नहीं है, अपने आपका शिक्षण है। आत्मशिक्षण के लिए हम फूल चढ़ाते हैं। हमारा फूल जैसा जीवन ही भगवान के चरणों पर चढ़ने का अधिकारी बन सकता है। फूल न हो तब? तब क्या चढ़ेगा भगवान के चरणों पर? पत्ते को कोई चढ़ाता है? जड़ को कोई चढ़ाता है? नहीं। फूल को ही चढ़ाते हैं—इसका अर्थ है भगवान के सिर पर अगर आपको विराजना है, भगवान के हृदय से अगर आपको लगना है, भगवान् के चरणों पर स्थान प्राप्त करना है, तो फिर इसका एक ही तरीका रह गया—कौन-सा? कि आप फूल की तरह खिलें। भगवान के लिए और क्या-क्या करना पड़ता है? धूप देते हैं, नैवेद्य देते हैं, दीपक जलाते हैं। दीपक से क्या अर्थ होता है? दीपक से आप यह मत सोचिए कि भगवान को कम दिखाई पड़ता है, इसलिए आप रोशनी कर देंगे, तो उनको रास्ता चलने में सुगमता रहेगी। नहीं, ऐसा नहीं है। भगवान के तो कितने ही दीपक जलते हैं, उनका सूरज दिन में देखा है न आपने? रात को चाँद का दीपक देखा है न? भगवान के यहाँ कोई दीपक की कमी नहीं है। हम भगवान को दीपक नहीं दिखाते हैं। दीपक दिखाने का अर्थ केवल अपने आपको यह सिखाने का है, यह आत्मशिक्षण है कि हमको दीपक की तरह जिन्दगी जीनी चाहिए, हमको प्रकाशवान् जिन्दगी जीनी चाहिए, हमको शानदार जिन्दगी जीनी चाहिए, हमको अच्छी वाली जिन्दगी जीनी चाहिए। बस, यही तो उद्देश्य है और कोई उद्देश्य नहीं है। इसलिए आप जो पूजा कृत्य में वस्तु समर्पित करते हैं, उसके पीछे आत्मशिक्षण की, जिसका मूल उद्देश्य है—आत्मपरिष्कार की प्रेरणा ग्रहण करें। नैवेद्य ग्रहण करते हैं, नैवेद्य को मिठास कहते हैं। भगवान कोई चींटी थोड़े ही हैं, जो शक्कर तलाश करते फिरें और शक्कर खा लेने से प्रसन्न हो जाएँ, शक्कर के लिए भागते फिरें, ऐसा नहीं है। नैवेद्य का अर्थ होता है—मिठास। हम मिठास जैसा जीवन जिएँ, हमारे व्यवहार में मिठास हो, हमारे विनम्रता हो, सज्जनता हो, दूसरों का सम्मान करना सीखें। यह क्या है? यही नैवेद्य है। पूजा में आप चावल चढ़ाते हैं भगवान के ऊपर, जिसका अर्थ होता है—अपनी कमाई का एक हिस्सा भगवान के लिए अर्थात् श्रेष्ठ कामों के तईं हम नियमित रूप से लगाते चलें, तो इसका अर्थ यह हो गया कि आपने भगवान् को नैवेद्य चढ़ा दिया, अक्षत चढ़ा दिये, धूप चढ़ा दिया। बस, इन सबका चढ़ाने का मतलब आप भूलना मत। इसमें रिश्वत का कोई भाव नहीं है। ऐसा करके हम भगवान का और अपमान कर देंगे। हमारी हैसियत ही कहाँ हैं, जो हम भगवान को खिला पाएँ। हमारी हैसियत ही कहाँ है, जो हम भगवान को अँधेरे में से बचाकर रोशनी में ला पाएँ। यह तो हम अपना शिक्षण करते हैं—‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’। हम प्रकाश की ओर चलेंगे, अँधेर की ओर नहीं। यह शिक्षण करने के लिए हम दीपक जलाते हैं।
इन प्रतीकों के बारे में आप ध्यान रखिए। अगर प्रतीकों के बारे में ध्यान नहीं रखेंगे, तब फिर मुश्किल है। अपने आपका तो शोधन करना ही पड़ेगा। नहीं करेंगे तो, मुश्किल पड़ी रहेगी। आपको उस साधु की कथा याद है? जो एक चोर को यह जवाब देता था—भगवान को देखना कोई कठिन नहीं है, तो एक दिन चोर ने पूछा—स्वामीजी हमें भी दिखा दीजिए। स्वामी ने कहा—अच्छा, दिखा देंगे। उसने पूछा—कब दिखा देंगे? उन्होंने कहा—जब कहो, तभी दिखा देंगे। चोर दूसरे दिन तैयार होकर आ गया सबेरे ही। उसने कहा—हमको दिखाइए भगवान। सन्त ने कहा—अच्छा तो चलो, साथ-साथ चलते हैं और इस पहाड़ के ऊपर टीले पर से दिखा पाएँगे। उसने कहा अच्छा तो चलिए। तो उन्होंने कहा—देखो भई, वहाँ कुछ पूजा-पाठ करना पड़ता है। चार पत्थर लेकर चलना पड़ेगा। चार पत्थर लेकर चलने से ही बात बनेगी। चोर तैयार हो गया। उसने चार पत्थर सिर पर रख लिये और जब चलने लगा, तो रास्ते में थोड़ी दूर ही चढ़ा होगा कि थक गया, तो उसने कहा—स्वामीजी, यह तो बहुत भारी पत्थर हैं। हमको तो बहुत कष्ट होता है। उन्होंने कहा—बेटा! एक पत्थर फेंक दो। उसने एक पत्थर फेंक दिया। थोड़ा और आगे चला, फिर थक गया। स्वामीजी ने कहा—स्वामीजी यह तो तीन पत्थर हैं थोड़ा और कम कराइए। फिर एक और फेंक दिया। दो पत्थर रह गये। उनको लेकर ऊपर चढ़ने लगा। फिर कहने लगा यह तो बहुत भारी हैं। एक पत्थर और फेंक दिया। एक पत्थर और रह गया। उसको लेकर जब ऊपर पहाड़ पर चढ़ता चला जा रहा था, तब फिर वह बहुत थक गया। उसने कहा—स्वामीजी आप ऐसी कृपा करें, आप इस पत्थर को भी फिंकवा दीजिए तब बात बनेगी। अब तो मुझसे चला नहीं जाता। पहले चार पत्थर लाया, फिर तीन लिये, दो लिये, अब मैं चलते-चलते थक गया हूँ कि मेरी गर्दन में भी दर्द होता है; आप इसको भी फिंकवा दीजिए तो बाबा जी ने कहा—अच्छा, तो उसे भी फेंक दो। चारों पत्थरों को फेंक देने के बाद में जब वहाँ ऊपर टीले पर पहुँचा, तब महात्मा ने भगवान को दिखाने के बजाय चोर से यह पूछा—जब चार पत्थर लेकर आप टीले पर चढ़ रहे थे तब चढ़ना मुश्किल था न? अरे साहब! बहुत मुश्किल था, हम चढ़ ही नहीं सकते थे। तब उन्होंने कहा—हमारे सिर के ऊपर पत्थर रखे हुए हैं, हम उन पत्थरों को एक-एक करके फेंक दें, तब फिर हमारे लिए इस टीले पर चढ़ना, भगवान को देख सकना कोई भी चीज कठिन नहीं रहेगी। काम का पत्थर, क्रोध का पत्थर, लोभ का पत्थर, मोह का पत्थर, मद और मत्सर का पत्थर—यह सारे-के पत्थर ऐसे घिनौने पत्थर हैं, जो हमारी नाक में दम करते रहते हैं, हमको हैरान करते रहते हैं। अगर इस हैरानी को और इन पत्थरों को दूर न करें, तो बहुत मुश्किल हो जाएगी, बस यही तो शिक्षण है। आप सारी उपासना का उद्देश्य बार-बार ध्यान रखिए, इसका एक ही उद्देश्य है कि हम अपने आपको पुनीत बनाएँ, धो करके साफ करें, स्वच्छ करें। दिवाली के दिन घर को साफ करते हैं, ताकि लक्ष्मी जी आएँ जब दूल्हा घर में आता है, बारात घर में आती है, तो धो-पोंछ करके साफ करते हैं ताकि जो मेहमान आने वाले हैं, साफ-सुथरे घर में प्रवेश करना पसन्द करें। आपको यही करना पड़ेगा। उपासना का मतलब नजदीक आना है। नजदीक आने का मतलब अपने आपको पहले धुलाई और सफाई कर देना है। बस, आप यह कर पाएँगे, तो समझिए आपकी बहुत सारी मंजिल पार हो गई। मुझे उम्मीद है, आप ऐसा ही करेंगे। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥