उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
मनुष्य में देवत्व का उदय
परमपूज्य गुरुदेव के उद्बोधनों की यह विशिष्टता रही है कि वे सरल, सहज, सुगम एवं दैनंदिन भाषा में उन गुह्य चिन्तनों का प्रतिपादन कर देते हैं, जिनको समझाने में अनेक बार विद्वानों को भी गंभीर परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे ही एक विलक्षण क्रम में पूज्य गुरुदेव अपने इस प्रस्तुत उद्बोधन में साधकों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि मनुष्य के ऊपर यदि परमात्मा की कृपा होती है तो वे उसे धन और संपदा नहीं देते, बल्कि देवत्व का गुण देते हैं। खलील जिब्रान की प्रसिद्ध कथा का संदर्भ देते हुए पूज्य गुरुदेव स्पष्ट करते हैं कि मात्र धन मिल जाने और मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाने से आज तक किसी का भला नहीं हुआ। ऐसा हो जाने से मात्र श्रम की शक्ति घटती है और व्यक्ति और भी ज्यादा भ्रम के पथ को प्राप्त होता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को......
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
बुद्धि का कमाल
देवियो, भाइयो! आज मैं आपको तीस साल पहले के समय में ले जाना चाहूँगा। एक सज्जन थे, जिनका मैं नाम नहीं बताना चाहता। वे बंबई में मालाबार हिल के ऊपर रहते थे। ऊँची श्रेणी के वकील थे। कैसी श्रेणी के वकील थे, आपसे मैं क्या कह सकता हूँ? उनकी वकालत का कमाल था। उनके नीचे चालीस सॉलीसिटर, एडवोकेट और सीनियर वकील काम करते थे। उन सबके ऑफिस बने थे, जहाँ वे केस मुकदमा तैयार करते थे, बहस की दूसरी चीजें और प्वाइंट्स तैयार करते थे। ऐसे चालीस बड़े-बड़े एडवोकेट जिनमें से एक-एक को पाँच-पाँच हजार रुपये तनख्वाह मिलती थी। चालीस वकीलों को दो लाख रुपये के करीब वे पेमेंट करते थे। ऐसे थे वे सज्जन, जिनकी अक्ल ने क्या कमाल किया, आपको मालूम है? उन सज्जन ने हिंदुस्तान और पाकिस्तान का नारा लगाया। कितनी तादाद में लोगों की तबाही हुई, किस कदर बरबादी हो गई, लाखों लोग तबाह हो गए। लाखों लोगों की हस्तियाँ बरबाद हो गईं। लाखों आदमियों की जान पर मुसीबत आ गई। लाखों आदमियों ने न जाने क्या-से कर दिया। लाखों ने ऐसी मुसीबत पैदा की कि हम कुछ कह ही नहीं सकते।
मित्रो! यह किसका कमाल था? यह अक्ल का कमाल था। अगर उनके पास अक्ल नहीं होती तब? तब वे जूता, चप्पल चुरा सकते थे, जेब काट सकते थे और कोई उठाईगीरी कर सकते थे। इससे ज्यादा वे कुछ नहीं करते और न उनके पास ताकत होती। यह किसका कमाल था? यह विद्या का कमाल था, शिक्षा का कमाल था और अक्ल होनी चाहिए? हाँ, अक्ल का मैं बहुत हिमायती हूँ और अक्ल को बढ़ाने की कोशिश करता हूँ। हर आदमी की अक्ल बढ़नी चाहिए, किसी को भी बेवकूफ नहीं होना चाहिए। लेकिन इस अक्ल का, इस दौलत का हम क्या करें, इस ताकत का हम क्या करें, इस औलाद का हम क्या करें? जिसके ऊपर समझदारी का अंकुश नहीं है। समझदारी का नियंत्रण नहीं है। समझदारी का नियंत्रण न होने से आग में घी डालने के तरीके से, आग में ईंधन डालने की तरह से दुनिया में मुसीबतें पैदा होंगी।
वरदान या अभिशाप?
मित्रो! दौलत, जिसको आप देवताओं से माँगते हैं, उस दौलत को आपको देने की गलती देवता नहीं कर सकते? अगर देवता आपको दे भी दें, तो इसका मतलब है कि वे आपकी तबाही पैदा करेंगे। अगर देवता आपको सीधी दौलत देंगे, तो आपको तबाह कर देंगे। हाँ बेटे, देवता तबाह कर देंगे। कैसे? आपको मैं खलील जिब्रान का एक छोटा-सा कथानक सुनाता हूँ। एक बार लक्ष्मी जी धरती के ऊपर आईं। जमीन पर आ करके उन्होंने लोगों से कहा कि आप जो भी चाहें, वह वरदान हमसे माँग सकते हैं। जो भी वरदान चाहें, माँगें, हम आपकी मनोकामना पूरी करेंगे। लक्ष्मी जी की यह बात सुन करके लाखों आदमी जमा हो गए और कहने लगे कि एक वरदान हमको भी दीजिए, हमको भी दीजिए। लक्ष्मी जी ने सबसे वायदा किया कि हम आप सभी को वरदान देंगे। जो आप माँगेंगे, वह हम दे करके जाएँगे।
धरती प्रकट हुई और उनने अपने सभी बच्चों का हाथ पकड़ा और कहा कि बच्चो! इस डायन से दूर रहो। यह आपकी मनोकामना पूरी करती है, इच्छाएँ पूरी करती है, इससे दूर रहो। यह आपको तबाह करके जाएगी और हमारी अच्छी वाली जमीन पर कलह पैदा करके जाएगी। इसका वरदान लेने से इनकार करो। इसकी मनोकामना लेने से इनकार करो। जमीन ने सब बच्चों को पकड़ा और हर बार रोका, पर कोई बच्चा नहीं माना। उन्होंने कहा-हम आपकी बात नहीं मान सकते और लक्ष्मी जी का वरदान लिए बिना हम नहीं रह सकते। हम तो लक्ष्मी जी के पास वरदान लेने जाएँगे? सब लोग लक्ष्मी जी के पास वरदान लेने चले गए। लक्ष्मी जी ने अपने वायदे के मुताबिक़ हर आदमी को वरदान देना शुरू कर दिया।
सभी लोग लाइन में-क्यू में खड़े हो गए और कहने लगे कि हमको वरदान दीजिए। क्या वरदान दें? बस, दो ही वरदान हैं दुनिया में, तीसरा कोई वरदान नहीं है। लोभ को पूरा कर दीजिए, मोह को पूरा कर दीजिए। तृष्णा को पूरा कर दीजिए, वासना को पूरा कर दीजिए। हमारी हवस को पूरा कर दीजिए। हमको पैसा दीजिए। औलाद को निहाल बना दीजिए और हमें कुछ नहीं चाहिए।
इनसानियत के बिना कैसे इनसान?
मित्रो! आदमी इतना छोटा, इतना घटिया, इतना कमीना, इतना बेवकूफ, इतना क्षुद्र हो गया है कि यदि इसे एक शब्द में कहें, तो इतना क्षुद्र, जो जानवर से आगे बढ़ नहीं सकता। जानवर तो फिर भी जहाँ था, वहीं है। इनसान की शक्ल तो जरूर मनुष्य की हो गई। पहले जानवर झुककर चलता था। जमीन पर सिर नीचे करके चलता था। अब जानवर ने सिर ऊँचा करना शुरू कर दिया है। हम जानते हैं कि पहले जानवर को बोलना नहीं आता था, अब जानवर ने बातचीत करनी शुरू कर दी है।
जानवर को पहले कलम चलानी नहीं आती थी, लिखना-पढ़ना नहीं आता था। अब कलम चलाना, पढ़ना बोलना सीख लिया है। पहले जानवर को टेलीफोन करना नहीं आता था। रेलगाड़ियों में सफर करना शुरू कर दिया है। किसने? जानवर ने। जानवर ने तो यह सब कर दिया, लेकिन उसके अंदर इनसान का माद्दा पैदा न हो सका। इनसानियत एक बड़ी चीज है। इनसानियत उस चीज का नाम है, जिसमें आदमी का चिंतन और दृष्टिकोण, आदमी की महत्त्वाकांक्षाएँ, जिसमें आदमी की गतिविधियाँ कुछ ऊँचे स्तर की हो जाती हैं।
मित्रो! आदमी जानवर से ऊँचा है, इसलिए उसका चिंतन-ऊँचा होना चाहिए। उसको दो चीजों से आगे बढ़ना चाहिए। कौन-सी चीजें हैं? उनसे, जो नेचर ने उसको सक्रिय बनाए रखने के लिए जोड़कर रखी हैं ।। नेचर ने जानवर बनाया और इस बात की अपेक्षा की, कि उसको चुपचाप नहीं बैठना चाहिए। उसको काम करना चाहिए। उसकी अक्ल को पैना होना चाहिए। अगर उसकी अक्ल को कोई काम नहीं दिया गया, तो उसकी अक्ल ठप्प हो जाएगी और अगर उसके शरीर को कुछ काम नहीं दिया गया, तो उसका शरीर नाकारा हो जाएगा।
इसलिए इसके शरीर को काम देने के लिए और दिमाग को काम देने के लिए कोई-न चीज बनानी चाहिए। कोई-न लगाम लगा देनी चाहिए। कोई-न कोई तरकीब भिड़ा देनी चाहिए, ताकि यह जानवर अपने काम से लगा रहे। इसलिए नेचर ने जानवर को दो चीजें दीं। एक चीज दी-भूख और यह कहा कि भाईसाहब! हम आपको भूख देते हैं। जाइए, आपके शरीर को हर समय हरकत करनी पड़ेगी। हर समय चलना पड़ेगा, ताकि आपका खाना हजम होता रहे और आपके शरीर की नस-नाड़ियाँ ठीक तरह से काम करती रहें। आपका सब काम ठीक तरह से होता रहे और आप टाइम पास करते रहें। इसलिए नेचर ने जानवर को पेट में भूख लगा दी।
मित्रो! अगर भूख न होती तब? तब हर जानवर चुपचाप पड़ा रहता। मगरमच्छ एक बार किसी जानवर को निगल लेता है, तो फिर चुपचाप पड़ा रहता है। सूअर एक बार पेट भर लेता है, तो बस उलटी टाँग करके पड़ा रहता है। अगर पेट में भूख नहीं लगी होती, तो मेरा ऐसा ख्याल है कि संसार का कोई भी प्राणी हलचल करने के लिए, हरकत करने के लिए तैयार न होता।
नेचर ने जानवर के लिए एक काम यह कर दिया। इनसान के लिए? इनसान के लिए उसने बड़े काम सौंपे हैं। एक काम यह सौंपा कि जानवर का दिमाग चुप बैठा रहेगा, अगर उसके लिए कोई काम नहीं रहेगा। पेट तो वह मुँह और हाथों से भर लिया करेगा। फिर क्या करेगा? नेचर ने जानवर के लिए एक और चीज दी। वह क्या चीज दी? उस चीज का नाम है-वासना ।। नेचर ने जानवर को वासना दे दी।
वासना का स्थान कहाँ है? वासना का स्थान दिमाग में है। मर्दों से लेकर के औरतों तक के ऊपर वासना का भूत सवार होता है। भूत को क्या करना होता है? सारा दिमाग इसी की पूर्ति करने के ताने-बाने बुनने में खरच हो जाता है। बीबी को मर्द तलाश करना पड़ता है और मर्द को बीबी तलाश करनी पड़ती है। दोनों को आपस में तालमेल बैठाना पड़ता है। तालमेल बैठाने के बाद में बच्चा पैदा होता है। बच्चा पैदा होने के बाद रहने के लिए घोंसला बनाना पड़ता है। घोंसले की रखवाली करनी पड़ती है। बहुत सारा जंजाल उससे पैदा हो जाता है।
पाशविक वृत्तियों का आधिपत्य
मित्रो! आपसे यह मैं क्या कह रहा था? यही कह रहा था आपसे-लोभ और मोह की बात। लोभ और मोह की ये दो वृत्तियाँ, पाशविक वृत्तियाँ हैं। प्रकृतिप्रदत्त वृत्तियाँ हैं, जो प्रत्येक प्राणी को प्रकृति ने समान रूप से दी हैं। चाहे कीड़ा हो, चाहे मकोड़ा, चाहे मच्छर हो अथवा मक्खी, कोई भी क्यों न हो? सबके भीतर से जो उमंगें उठती रहती हैं, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ उठती रहती हैं, वे दो ही उठती रहती हैं-एक पेट भरने की इच्छा और दूसरी औलाद संबंधी। औलाद को जाने दीजिए, उसे सेक्स कह सकते हैं, वासना कह सकते हैं, तृष्णा कह सकते हैं। इन दो के दायरे में जो बँधा है, वह कौन है? वह जानवर है। वह मोटरगाड़ी में सफर करता है, अच्छी बात है, कोई हर्ज की बात नहीं है और मेज़ पर बैठकर काम करता है, यह भी हर्ज की बात नहीं है। कुत्ता भी हमने मेज़ पर बैठे देखा है और मोटर गाड़ियों में भी बैठे हुए देखा है। आप कहाँ सफर करते हैं? यह हम नहीं जानते, लेकिन यह क्या चीज है? बता सकते हैं। यह आदमी की वृत्ति है। कौन-सी वृत्ति? इनसानियत की वृत्ति ।। इनसान को अगर भगवान कुछ देते हैं, तो वह है-इनसानियत ।। ईश्वर ने इनसान को बहुत सारी विशेषताएँ दी हैं, लेकिन इनमें से भी एक खास विशेषता दी है। इनसान को इनसानियत दी है।
मित्रो! इसके अतिरिक्त भगवान ने इनसान को दो और चीजें, विशेषताएँ दी हैं। एक उसके भीतर नई भूख दी है और दूसरी नई उमंगें पैदा की हैं। अगर जिनके भीतर ये दो नई उमंगें हैं, तो मैं उनको इनसान कह सकता हूँ और जिनके अंदर भूख और उमंगें नहीं हैं, उनको मैं इनसान नहीं कह सकता। फिर आप उसको क्या कहेंगे? मैं उसे हैवान कह सकता हूँ। हम इनसान को भी हैवान कह सकते हैं। नर-पशु शब्द बहुत पुराना है। नर का शरीर पहने हुए भी जिनके अंदर जानवर का ईमान रहता है, जिनका शरीर आदमी का है और चिंतन जानवर का है, उनको नर-पशु कहते हैं; क्योंकि शक्ल इनकी नर की है और चिंतन जानवर का है। आमतौर पर आदमी इन दो बातों में ही फँसे रहते हैं।
मित्रो ! लक्ष्मी जब आई, तो लोगों ने वहीं माँग, वही फरमाइशें शुरू कर दी कि पैसा दीजिए, तीन लड़कियाँ हो गई हैं, दो लड़के पैदा कर दीजिए। अच्छा साहब! हमारे बेटे को वकील बना दीजिए। हमारे बेटे को इनकम टैक्स ऑफिसर बना दीजिए। हमारे बेटे को पुलिस का दरोगा बना दीजिए। अच्छा साहब! आपके बेटे को संत तो नहीं बनाना है? नहीं साहब ! संत में क्या रखा है? संत बनाने की सनक तो विनोबा की माँ के ऊपर सवार हुई थी, जिसने अपने तीनों बेटों को ब्रह्मज्ञानी बना दिया। हम तो नहीं बना सकते। हमारे बेटे को तो इनकम टैक्स ऑफिसर बना दीजिए, जो हमारे घर को सोने-चाँदी का बना दे। ठीक बात है। यही सब माँगते चले गए। लोगों ने पैसा माँगा, ग्यारह हजार दीजिए, बत्तीस हजार दीजिए। लक्ष्मी जी सब देती हुई चली गई। यह सब देखकर धरती एक कोने में बैठी बिलख बिलखकर रोती रही कि हाय! यह क्या गजब हो रहा है? मनोकामनाएँ पूरी की जा रही हैं। हमारे बच्चों की कैसी तबाही आने वाली है? हे भगवन् ! अब क्या होने वाला है? मनोकामना पूरी करना खराब बात है क्या? नहीं, खराब बात नहीं है, पर मनोकामना किस काम के लिए माँगी गई है? सांसारिकता को प्राप्त करने से पहले आप पैसे को कैसे हजम कर सकते हैं? यह ज्ञान होना चाहिए।
मेहनत की कमाई
स्वामी सत्यदेव परिव्राजक एक बार जर्मनी गए ।। वहाँ सड़क पर से उन्होंने एक अख़बार खरीदा। जिस लड़के से अख़बार खरीदा, वह बहुत अच्छा पढ़ा-लिखा मालूम पड़ता था। वह था तो छोटा-सा ही-पंद्रह वर्ष का, लेकिन उसकी बातचीत से, तहजीब से, कपड़े से मालूम पड़ता था कि किसी अच्छे कुल का, अच्छे खानदान का होगा। उन्होंने समझा कि यह शायद नाराज होकर आ गया होगा और इसके पास पैसा नहीं है तो अख़बार बेचने लगा है। इसी ख्याल से वे रुके और अगर कुछ ऐसी बात है तो इसे इसके माँ-बाप के पास पहुँचा दें। किराया-भाड़ा न हो, तो इसको पैसा दे दें।
इस ख्याल से वे रुके और उस बच्चे से पूछा—बच्चे! एक बात बता सकते हो? हाँ। तुम यह अख़बार क्यों बेचते हो? उसने कहा—हम अख़बार इसलिए बेचते हैं कि हमारे पिताजी एक ऊँचे सरकारी अफसर हैं और वे यह कहते हैं कि हमारा बच्चा भी बड़ा होकर के सरकारी अफसर बनेगा और अच्छा काम करेगा, मालदार बनेगा, लेकिन मालदार को यह मालूम होना चाहिए कि पैसा मेहनत से कमाया जाता है तो उसे खरच कैसे करना चाहिए? खरच वही कर सकता है, जिसने मेहनत से कमाया है। जिस आदमी ने मेहनत से नहीं कमाया, वह पैसे को सही ढंग से खरच नहीं कर सकता।
"इसलिए हमारे पिताजी यह कहते हैं कि बेटे, मेहनत से पैसा कैसे कमाया जाता है? यह मेहनत करके सीखो और कुछ कमा करके लाओ। हमें कुछ और काम तो समझ में नहीं आता, इसलिए हम अख़बार बेचते रहते हैं और इससे जो पैसा हमको मिल जाता है, उससे हम समझते हैं कि सारे दिन धूप में खड़े होने के बाद अख़बार कैसे बेचे जाते हैं और चार पैसे कैसे कमाए जाते हैं? इसलिए इसको खरच करना हम ठीक तरीके से जानते हैं।" सत्यदेव परिव्राजक ने कहा कि हिंदुस्तान में तो आदमी ऐसा नहीं करते। उनकी शंका का समाधान हो गया। उन्होंने अपनी जीवनगाथा में इस घटना को लिखा है।
मित्रो! आदमी हराम का पैसा प्राप्त करना चाहता है। आप चाहे लक्ष्मी जी से माँगते हों, साईं बाबा से माँगते हों, संतोषी माता से अथवा किसी से भी माँगते हों, वह पैसा जिसमें आपकी मेहनत-मशक्कत नहीं लगी है, जिसको आपने अपनी योग्यता की कीमत पर वसूल नहीं किया है, वह आपके लिए हानिकारक होगा। धरती बार-बार बच्चों को यही समझाती रही, लेकिन किसी की समझ में नहीं आया और हरेक आदमी वरदान लेकर चला गया। वरदान की क्या प्रतिक्रिया हो सकती है, आप समझते हैं? क्या आप बता सकते हैं? वरदान की प्रतिक्रिया वही होती है, जो होनी चाहिए। जिन लोगों ने वरदान माँगे थे, उन्होंने भी वही किया। क्या किया? बस, पैसा आ गया और पैसा आने के बाद में खूब मौज आ गई ।। बैंकों से खूब नोट भुना-भुनाकर ले आए। अब तो मौज उड़ाएँगे।
मित्रो! पैसा पाने के बाद आदमी क्या करता है? मौज उड़ाता है। हर आदमी मौज उड़ाने पर उतारू हो गया। खेती बारी करना बंद कर दिया। काम-धंधे करना बंद कर दिया। जानवरों को उन्होंने बेच दिया। चीज महँगी होगी, तो होगी, हमारे पास ढेरों रुपये हैं। वस्तुओं का अभाव बढ़ता चला गया। धीरे-धीरे जब लोगों ने खेती-बारी करना समाप्त कर दिया, महँगी चीजें खरीदने लगे और गुजारा करने लगे, तो कुएँ का पानी सूख गया। खेती करना बंद, काम-धंधे बंद!
उसका परिणाम यह हुआ कि लोगों को पहले तो महँगी चीजें खरीदनी पड़ीं, फिर आदमी तबाह होने लगे और भूख-प्यास से मरने लगे। सिरहाने रुपया, सोना, चाँदी, जेवर रखा हुआ था, पर मशक्कत न करने की वजह से जो दौलत जमीन में से निकलती है, वह उगाई न जा सकी और आदमी भूखों मरने लगे। जो बच्चे बचे हुए थे, जमीन ने उनसे फिर कहा और रोयी। उसने कहा कि उस अभागिन के पास तुम क्यों गए थे? उस डाकिन, हत्यारिन के पास तुम क्यों गए थे? कौन हत्यारिन? वह जो मनोकामनाएँ पूरी करे। जो आदमी को हजम करने के माद्दे के बिना दौलत देती है। वह डाकिन है और वह डाकू है, जो मनोकामना पूरी करता है।
सफलता का आधार साहस
मित्रो! चलिए अब मैं संत की बाबत कहता हूँ। जैसा मेरा अपना यकीन है और इतिहास के पन्ने को पलट कर देखता हूँ, तो पता चलता है कि देवताओं के संपर्क में आने वालों को भौतिक वस्तुएँ नहीं मिली। फिर क्या मिला है? आदमी को सद्गुण मिले हैं, देवत्व मिला है और गुणों के आधार पर आदमी को विकास करने का मौका मिला है। आदमी के पास जब गुण आए हैं और उन गुणों के द्वारा जो पुरुषार्थ विकसित हुआ है, उस आधार पर अच्छे रास्ते पर विकसित होने के पश्चात उन्होंने वो काम किए हैं, जो सामान्य बुद्धि से करते हुए भी उन्नति के उच्च शिखर पर जा पहुँचता है, चाहे वह उन्नति आध्यात्मिक हो, चाहे वह सांसारिक हो।
संसार और अध्यात्म में भाईसाहब! कोई फरक नहीं पड़ता। गुणों के इस्तेमाल का तरीका भर अलग है। गुण अपने आप में शक्ति के पुंज हैं। कर्म और स्वभाव अपने रूप में शक्ति के पुंज हैं। आप इन्हें कहाँ इस्तेमाल करना चाहते हैं? यह आपकी इच्छा की बात है। डकैती में बहुत फायदा होता है। डकैत बहुत फायदा उठा लेते हैं। क्यों साहब! डकैती से हम फायदा उठा लें? नहीं, आप नहीं कर सकते, क्योंकि डकैत के भीतर एक गुण होता है और सारे-का फायदा उसी के आधार पर वह उठाता है। यह तो बुराई है। हाँ बेटे, डकैत को इसके कारण सजा हो जाती है। यह बहुत खराब बात है? हाँ खराब बात है। इससे उसको सजा हो जाती है, जेल हो जाती है, फाँसी हो जाती है, निंदा, बदनामी हो जाती है, नरक मिलता है।
मित्रो! फिर सफलता किससे मिलती है? सफलता एक गुण है, जिसको हम आध्यात्मिक गुण कह सकते हैं। उसी के आधार पर सफलताएँ मिलती हैं, फिर चाहे वह डकैत हो, योगी हो, तांत्रिक हो या महापुरुष हो और उस चीज का नाम है—साहस। डकैत में हिम्मत होती है, साहस होता है, जिससे वह रात को जंगलों में चला जाता है, जहाँ साँप, बिच्छू रहते हैं। सुनसान रात में खाई-खंदकों में सिरहाने अपने हाथ का तकिया लगाकर सोता है। साँप, बिच्छू काट लेगा, तो देखा जाएगा। भूत आ जाएगा, तो देखा जाएगा। यह कौन है? यह हिम्मतवाला है—डकैत। आप अपने घर की रखवाली नहीं कर सकते और डकैत आपके घर पर दनदनाता हुआ चढ़ जाता है और लाठी, चाकू दिखाकर आपका पैसा लेकर भाग जाता है। आप उसको पकड़ भी नहीं पाते। क्या बात है? यह उसकी हिम्मत है और कुछ नहीं। उसको फायदा हिम्मत के आधार पर होता है और कोई कारण नहीं है।
यह आध्यात्मिक गुण है, जो सफलताओं का चिह्न है। यह डकैत के पास है, तो डकैत फायदा उठाएगा। आप योगी हैं, तो योगी के हिसाब से फायदा उठाएँगे। आप नेता, महापुरुष जो भी हैं, तो आप अपनी हिम्मत के सहारे फायदा उठाएँगे। यह गुण है। कौन-सा वाला? यह दैवीय गुण है, इसे आप चाहे जहाँ इस्तेमाल कर सकते हैं। यह आपकी इच्छा के ऊपर निर्भर है।
[क्रमशः]
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अपने इस विशिष्ट उद्बोधन में इस | विषय पर चर्चा कर रहे थे कि मानवीय जीवन का मूल उद्देश्य क्या है? मनुष्य जीवन के भीतर ही ये संभावनाएँ निहित हैं कि मानवीय संभावनाओं के शिखर अर्थात देवत्व को प्राप्त किया जा सकता है। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि मात्र बुद्धि के आधार पर मनुष्य की क्षमताओं का आकलन कर पाना संभव नहीं है क्योंकि बुद्धि और विचार करने की क्षमता यदि लोक-मंगल में न लगे तो उसका कोई अभिप्राय नहीं। यदि हमारे व्यक्तित्व के ऊपर पाशविक प्रवृत्तियों का आधिपत्य बना रहे तो फिर मनुष्य लगभग नर-पशु के समान हो जाता है, जहाँ पर उसकी आकृति तो मनुष्य के समान होती है, पर प्रकृति एवं चेतना पाशविक हो जाती है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......
असली संपदा—गुणों की संपदा
मित्रो! इनसान के भीतर जो विशेषता है, वह गुणों की विशेषता है। देवता अगर किसी आदमी को कुछ देंगे, तो गुणों की संपदा देंगे। गायत्री माता, जिनकी आप उपासना करने के लिए आए हैं और जिनका हम जन्मदिन मनाते हैं और जिनको हम उपासना-अनुष्ठान करते हैं, वे अगर आपको कभी कुछ चीज देंगी, तो क्या चीज देंगी? मैं यही आपको बताना चाहता था। आपका यह ख्याल गलत है कि गायत्री माता प्रसन्न हो जाएँगी, तो वह चीज देंगी, जो गायत्री माता की दुकान पर मिलती ही नहीं है, बिकती ही नहीं है।
गुरुजी! जो जूते दुकान पर मिलते हैं, उन्हें हमें पहना दीजिए। भाई साहब! जूते हमारे यहाँ कहाँ बिकते हैं? हमारे यहाँ तो किताबें बिकती हैं। नहीं साहब! किताब नहीं, हमें तो नौ नंबर का जूता दे दीजिए। बेटे, जूता हम कैसे दे सकते हैं? देवताओं के पास वे चीजें नहीं हैं, जो आप तलाश करते हैं। देवता उन चीजों को दे नहीं सकते, जो आप माँगते हैं। फिर क्या माँगना चाहिए और देवता क्या दे सकते हैं?
मित्रो! अगर देवता कभी आपके ऊपर प्रसन्न होंगे, तो केवल गुण देंगे। गुणों से क्या हो जाएगा? जो कुछ भी होता है—भौतिक अथवा आध्यात्मिक उन्नति, वह सब गुणों से ही तो होती है। आदमी को जहाँ कहीं भी उन्नतियाँ मिलती हैं, केवल गुणों के आधार पर मिलती हैं। श्रेष्ठ गुण अगर आपके पास नहीं हैं, तो न आपको भौतिक उन्नति मिलने वाली है और न आध्यात्मिक उन्नति मिलने वाली है। चलिए! मैं आपकी बात को मान लेता हूँ कि उन्नति मिल सकती है, लेकिन आप फायदा नहीं उठा सकते। संतान की बाबत मैं आपको बता सकता हूँ।
किसी और की बात तो नहीं बता सकता, पर जो मेरे आँखों देखे उदाहरण हैं—संतान के बारे में, उन्हें बता सकता हूँ। हमारे यहाँ मथुरा में एक सज्जन थे। उनकी एक बड़ी कंपनी थी। उस कंपनी की करोड़ों रुपये की संपत्ति थी। उस कंपनी का नाम हिंदुस्तान का हर आदमी जानता है, जो करोड़ों रुपयों की मिल्कियत वाली थी। कंपनी के मालिक ने अपने जिंदा रहते, कुछ ऐसा इंतजाम कर दिया था कि हमारे तीनों बेटे पैसे को खराब न कर पावें और यह सात पीढ़ी तक काम दे जाए।
मित्रो! उन्होंने बंबई से और दूसरी जगह से सॉलीसीटर बुलाए और पाँच-पाँच हजार रुपया महीना हर बच्चे के जेबखरच का इंतजाम कर दिया। यह आपका अलग से जेबखरच है। इसमें कंपनी से कोई लेना-देना नहीं है।। कंपनी की जो आमदनी होगी, उसमें से एक साल, एक बच्चा फायदा उठाएगा। दूसरे साल दूसरा और तीसरे साल, तीसरा बच्चा फायदा उठाएगा। हर साल लाखों रुपये के फायदे थे। तीनों बच्चे नंबर से फायदा उठाएँगे। कंपनी को कोई बिगड़ने नहीं देगा। उन सज्जन को मरे हुए 2-3 साल हुए होंगे, लाखों-करोड़ों की संगृहीत जो दौलत थी, सब लड़कों ने खराब करके फेंक दी।
फिर क्या हुआ? लड़ाई-झगड़े होने लगे और इस कदर बढ़े कि सबसे छोटे वाले लड़के ने अपने दो बड़े भाइयों को पिस्तौल से गोली मार दी। एक बेटे के पेट में से पार निकल गई, इस कारण डॉक्टरों ने उसे बचा लिया। अब किस स्थिति में है? मैं नहीं जानता कि मर गया या जिंदा है; क्योंकि मुझे यहाँ आए बहुत दिन हो गए। जिंदा भी होगा तो अपाहिज की स्थिति में। दूसरे को मौत के घाट उतार दिया। वह गोली लगते ही तुरंत मर गया। तीसरे को फाँसी की सजा हो गई, काला पानी हो गया। मैंने सुना था कि उसने कोई ऐसा मेडिकल सर्टीफिकेट दाखिल कर दिया था कि उसको 10-12 साल जेलखाने में रहने के बाद छुट्टी मिल गई। अब कहीं दिल्ली में या बाहर है, मुझे मालूम नहीं, क्या हुआ? कंपनी नीलाम हो गई, सब कुछ तबाह हो गया।
क्यों साहब! ऐसा हो सकता है? इतनी दौलत दे जाए तब भी? हाँ बेटे, हो सकता है; क्योंकि गुण नहीं हैं, तो वह दौलत भी आपकी तबाही का कारण बनेगी और जान लेकर हटेगी। इसलिए मैं यह कह रहा था कि देवताओं से अगर आप यह अपेक्षा करते हैं कि देवता आपको पैसा देंगे, मुकदमे में जीत करा देंगे आपको बेटा-बेटी दे देंगे, बीमारी दूर कर देंगे, तो देवता यह नहीं कर सकते और देवताओं को यह नहीं करना चाहिए। अगर देवताओं ने ऐसा करना शुरू कर दिया, तो दुनिया में एक बड़ा भारी नुकसान हो जाएगा। उस परमात्मा की बनाई सृष्टि में सारा-का अंधेर फैल जाएगा। क्या अंधेर फैलेगा?
यह कि हर आदमी मूल्य चुकाने के लिए जो पुरुषार्थ करता है, योग्यता का संवर्द्धन करता है, वे दोनों काम खतम हो जाएँगे। फिर न कोई आदमी योग्यता बढ़ाने के लिए तैयार होगा, न कोई पुरुषार्थ करने के लिए तैयार होगा, दोनों में से कोई भी काम नहीं करेंगे। सब आदमी देवता की आराधना करेंगे। देवता जी! विद्या दे दीजिए। अच्छा तो आप ऐसा कीजिए कि सरस्वती का इक्कीस हजार का जप कर लीजिए और आपको एम.ए. के बराबर विद्या आ जाएगी। हाँ साहब! यह तो बहुत ठीक है, हम क्यों स्कूल जाने लगें? क्यों किताब खरीदेंगे? क्यों मास्टर के पास जाएँगे? क्यों 6 घंटे जगेंगे? सरस्वती देवी का मंत्र जपेंगे और थोड़े दिन में विद्वान हो जाएँगे। बेटे, ऐसा नहीं हो सकता।
साहब! आप क्या चाहते हैं? हम लक्ष्मी चाहते हैं, तो श्रीसूक्त का पाठ करना शुरू कीजिए। थोड़े दिन बाद लक्ष्मी जी आएँगी और एक बड़े थैले में 100-100 रुपये के नोट लाएँगी। आप अपनी अटैची तैयार रखिए, तिजोरी खरीद लीजिए और सारा-का धन उसमें रखकर ताला लगा दीजिए। जिंदगी भर का काम हो जाएगा। क्यों साहब! ऐसा हो सकता है? मेरे ख्याल से नहीं हो सकता।
आपकी मान्यता के अनुसार अगर हो भी सकता होगा, तब फिर बड़ी मुश्किल आ जाएगी। दुनिया में बड़ी तबाही आ जाएगी। तब सब अकर्मण्य आदमी ही जिंदा रह जाएँगे, न कोई मेहनत करने को तैयार होगा, न कोई अपनी अक्ल को पैनी करेगा। फिर यह दुनिया इतनी कुरूप हो जाएगी और इसकी जिम्मेदारी उन लोगों की होगी, जिन्होंने भक्ति के आधार पर देवताओं को अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए सहमत कर लिया।
देवता मात्र देवत्व देंगे
मित्रो! मैं आपसे यह निवेदन कर रहा था कि गायत्री मंत्र की उपासना और अन्य देवताओं की उपासना के संबंध में जो भ्रांति फैल गई है, उसको आप निकाल पाएँ तो अच्छा है। यह व्यापक भ्रांति किसी तरीके से दूर हो जाए तो बहुत ही अच्छा है। भ्रांतियाँ इस कदर फैल गई हैं कि आपसे हम क्या कहें। आदमी जितना समझदार है, उतना ही नासमझ भी। यह भ्रांति क्यों है? अध्यात्म क्षेत्र में यह कैसे घुस पड़ी, और इस भ्रांति ने कितना ज्यादा नुकसान पहुँचाया, आपको मैं कुछ कह नहीं सकता। आध्यात्मिकता का जितना बड़ा लाभ था, जितना बड़ा उपयोग था, जिसकी इतनी बड़ी संभावनाएँ थीं। जिससे जो शुभ होना संभव था। उन सारी-की संभावनाओं को इस भ्रांति ने तबाह कर दिया कि देवता हमको सामान दे सकते हैं, पैसा, दौलत, बेटा दे सकते हैं।
देवता आदमी को एक चीज देंगे, जो उन्होंने हरेक को दी है। प्राचीनकाल के इतिहास में और भविष्य में भी देवता अगर रहेंगे, भक्ति अगर जिंदा रहेगी, उपासना का क्रम अगर जिंदा रहेगा, तो एक ही चीज मिलेगी। दूसरी चीज नहीं मिलेगी। वह क्या चीज है? वह है—देवत्व के गुण। देवत्व के गुण अगर आपको मिलेंगे, तब आप जो सफलता चाहते हैं, उससे हजारों-लाखों गुनी सफलता आपके पास आ जाएगी।
मित्रो! आप क्या चाहते हैं? आप नौकरी चाहते हैं। कितने की नौकरी चाहते हैं? तीन-चार सौ रुपये की मिल जाए, तो भी हम गुजारा कर लेंगे। बस, यही चाहते हैं न और तो कुछ नहीं चाहते? हाँ साहब! यही चाहते हैं। आपको देवत्व की दृष्टि से अगर हम तीन-चार सौ की नौकरी दिलवा दें, देवता या संत का कोई आशीर्वाद या मंत्र दिलवा दें, तो वह नाचीज हो सकती है, लेकिन अगर देवता देवत्व को प्रदान करते हैं तब? तब वह नौकरी आपके लिए—इतनी कीमती हो जाएगी कि आप निहाल हो जाएँगे।
इस तरह से साहब! समझ में नहीं आया। अच्छा मैं आपको समझाने के लिए एक उदाहरण पेश कर सकता हूँ। स्वामी विवेकानन्द जी के पिताजी का स्वर्गवास हो गया। छोटे भाई-बहन रह गए और वे रामकृष्ण परमहंस के पास इस ख्याल से गए कि कहीं नौकरी लगवा दें। वे बेरोजगार थे, नौकरी कहीं लग ही नहीं रही थी। रामकृष्ण परमहंस के पास जाकर कहने लगे कि गुरुदेव! आपने तो सैकड़ों की मनोकामना पूरी की है, अब हमारी भी पूरी कर दीजिए। हम बेकार घूमते हैं और हमारे बहन-भाइयों के पेट भरने के लिए सामान नहीं है। आप किसी भी तरीके से नौकरी लगवा सकें, तो आपको हमारे ऊपर बड़ी कृपा होगी।
स्वामी विवेकानन्द की कामना
मित्रो! रामकृष्ण परमहंस चुप हो गए। वे विचार करते रहे कि लड़का तो बड़ा अच्छा है, इसको तो कुछ देना ही चाहिए। यदि नौकरी देते तब? बेटे, नौकरी देने से क्या बन सकता है? इससे आदमी की क्या जरूरत पूरी हो सकती है? कोई खास जरूरत पूरी नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि देना है, तो कोई कीमती चीज देनी चाहिए। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को काली के पास भेजा। विवेकानन्द ने देखा कि जमीन से लेकर आसमान तक काली छाई हुई है। आपने कभी काली देखी है क्या?
आपने कभी गायत्री माता देखी हैं क्या? नहीं साहब! सपने में देखी थीं और आपने जो फोटो छापकर भेजा था, तो उसे देखा था। असली गायत्री कभी देखी आपने? नहीं साहब! असली गायत्री कभी नहीं देखी। हाँ भाई साहब! ये खिलौने हमने छापकर भेजे हैं। खिलौने ही आपने रखे हैं और खिलौना ही कभी सपने में आपको दीख गया होगा। ये खिलौने थे, जो आपने देखे हैं। तो महाराज जी! असली गायत्री हो सकती हैं? हाँ बेटे, असली गायत्री भी हो सकती हैं। कैसी? जैसी विवेकानन्द को दिखाई पड़ी थीं। जमीन से लेकर आसमान तक छाई हुई, जीभ लपलपाती हुई काली को, आग उगलती हुई काली को उन्होंने देखा।
मित्रो! काली को देख करके विवेकानन्द हैरान। विवेकानन्द से काली पूछने लगीं—"क्या माँगने आया है?" विवेकानन्द काँप गए। उन्होंने कहा—"माँ, मैं नौकरी माँगने नहीं आया।'' तो फिर क्या माँगने आया? माँ, मैं भक्ति माँगने आया, शक्ति और शांति माँगने आया। ये क्या चीजें थीं? गुण और पहले क्या माँगने आया था? दौलत। बाद में क्या माँगने लगे? गुण। मनुष्यों के ऊपर संत कभी कृपा करते हैं, तो यही कृपा करते हैं। संतों ने किसी पर कृपा की होगी, तो यही कृपा की होगी। नहीं साहब! पैसा दिया होगा? नहीं, संतों ने किसी को पैसा नहीं दिया।
तो बेटा दिया होगा? नहीं, भाई साहब! बेटा भी नहीं दिया। तो क्या चीज दी है? एक ही चीज दी है कि उनके अंतरंग में कोई ऐसी हूक और एक ऐसी उमंग और ऐसी हिम्मत पैदा कर दी होगी, जो आदमी को सिद्धांतों की ओर घसीटकर ले जाती है। यह पैदा करते ही रामकृष्ण परमहंस का काम खतम हो गया। उन्होंने बच्चे के दिमाग की दिशा मोड़ दी। और कुछ दिया? नहीं भाई साहब! और कुछ नहीं दिया।
नहीं साहब! जब वे विलायत गए होंगे, तो उनको पानी के जहाज के टिकट के लिए रामकृष्ण परमहंस ने रसीद-बही छपाई होगी और चंदा किया होगा कि अरे भाइयो! विवेकानन्द को हम हिंदुस्तान से बाहर भेजना चाहते हैं, इसलिए जो भगवान के भक्त हों, ढाई-ढाई रुपये हरेक को चंदा देना चाहिए। इस तरह रामकृष्ण परमहंस ने ढाई हजार रुपये जमा किया होगा और जब विवेकानन्द को भेजा था। नहीं, भाई साहब! ऐसा उन्होंने नहीं किया।
मित्रो! तो फिर क्या किया था? उनके देवत्व को जगा दिया था। व्यक्तित्व को उछाल दिया था। जब आदमी के ऊपर सिद्धांतों का गुरूर और सिद्धांतों का नशा छा जाता है, तब आदमी का व्यक्तित्व, तब आदमी का मैगनेट, तब आदमी का आकर्षण, तब आदमी का चुंबकत्व, तब आदमी की वाणी, तब आदमी की प्रामाणिकता इस तरह की हो जाती है कि लोग उसकी तरफ खिंचे हुए चले आते हैं। हर आदमी उसका सहयोग करता हुआ चला जाता है। हर आदमी ने स्वामी विवेकानन्द का सहयोग किया और वे हिंदुस्तान से बाहर चले गए। न जाने उनको क्या-क्या दिया?
यह एक घटना सुना करके मैं अपनी बात आगे को लेकर चलना चाहूँगा। विवेकानन्द जब अमेरिका से लौटकर हिंदुस्तान आए, तब उनका जुलूस कलकत्ता की सड़कों पर निकाला गया। उनकी बग्घी में जो घोड़े जुते हुए थे, भावावेश में उन बंगालियों में, जो बहुत ऊँची श्रेणी के अफसर और बड़े विद्वान थे, उन्होंने घोड़ों को खोल दिया और कहा कि विवेकानन्द ने जो शानदार काम किए हैं, उसके लिए इनकी बग्घी में घोड़े नहीं, हमारे जैसे इनसानों को चलना चाहिए। ऊँचे-से लोगों ने, जो उस जमाने के विद्वान भी थे, घोड़ों को खोल करके स्वयं उनकी बग्घी खींची थी। विवेकानन्द की शान बहुत जबरदस्त थी।
यह किसने दी थी? भाई साहब! आप जिसको कहें, उसी को बता दूँ। नहीं साहब! यह काली ने दी थी। बिलकुल सही है। अगर काली किसी को देंगी, तो यही चीज देंगी। नहीं साहब! रामकृष्ण परमहंस ने आशीर्वाद भी दिया था। हाँ भाई साहब! रामकृष्ण परमहंस ने भी दिया था। फिर कोई रामकृष्ण परमहंस दुनिया में जिंदा होंगे, या फिर कभी पैदा होंगे, तो इसी तरह का आशीर्वाद देंगे, जिससे आदमी का व्यक्तित्व विकसित होता चला जाए।
व्यक्तित्व का विकास—सच्ची संपदा
मित्रो! व्यक्तित्व अगर विकसित हो गया, तो जिसको आप चाहते हैं, आदमी के ऊपर वही सहयोग बरसेगा। अरे बेटे, वही बरसेगा, जिसे तू चाहता है। माँगना नहीं पड़ता, माँगा नहीं जाता, बरसता है। आदमी फेंकता जाता है और बरसता जाता है। नहीं साहब! फेंकता नहीं है। फेंकने से कैसे आ जाएगा? माँगने से आ जाता है। नहीं बेटे, बिना। माँगे आ जाता है।
चलिए साहब! मैं आपको बता सकता हूँ। अभी की नई घटना बता सकता हूँ। आप तो पुराणों के किस्से सुनाएँगे। नहीं, मैं पुराणों के किस्से नहीं सुनाऊँगा। मैं आपको वह किस्से सुनाऊँगा, जो अभी के जिंदा किस्से हैं। देवत्व जब आता है, तब क्या होता है? नागपुर की अदालत में काम करने वाले एक छोटे से वकील थे। मामूली से वकील, जो साइकिल पर बैठ करके रोजाना अदालत जाया करते थे। एक दिन उन्होंने साइकिल के ब्रेक को रोक करके सड़क पर छह कोढ़ियों को देखा। वे आपस में बात कर रहे थे। बातचीत से मालूम पड़ा कि वे पढ़े-लिखे भी हैं, अच्छे लोग भी हैं। इनकी सभ्यता भिखारियों जैसी नहीं है।
उन्होंने उन कोढ़ियों से पूछा, जो एक ही जगह बैठे। हुए थे। क्यों भाई साहब! आप भीख क्यों माँगते हैं? हम क्या कर सकते थे? हमारे हाथ में कोढ़ हो गया। घरवालों को, खानदान वालों को, उनके बच्चों को निंदित करने की अपेक्षा, जिनका विवाह भी नहीं होगा—हमारे कारण। इसलिए हम घरवालों से बिना कहे चले आए, ताकि उनको जानकारी भी न रहे कि हम कहाँ चले गए हैं।
उन्होंने कहा कि हम मरने का बहाना ले करके, गंगा का बहाना ले करके चले आए और यहाँ सड़क पर बैठे रहते हैं। मरने की हिम्मत नहीं है, जिंदा रहने के लिए कुछ कर नहीं सकते। इसलिए हम भीख माँगते रहते हैं और जो पैसे मिल जाते हैं, उससे अपना पेट पाल लेते हैं। तब उन वकील साहब ने, जिनका नाम बाबा साहब आमटे था, ने यह कहा कि भाई साहब! आपके हाथ ही तो खराब हुए हैं। अक्ल तो आपकी सही है, जिंदा है। आँखें तो आपकी ठीक हैं, पाँव तो आपके सही हैं। फिर आप क्यों नहीं, पेट भर सकते? उँगलियाँ ही तो खराब हैं।
नहीं साहब! हम कैसे कर सकेंगे? हमारे पास क्या। अक्ल है? तो चलिए हम और आप मिल करके कुछ काम करते हैं। हम मिल करके कुछ ऐसा काम करेंगे, जिससे हम लोगों को ये बता पाएँ कि आदमी की उँगलियाँ अगर खराब हो गई हों, तो भी आदमी अपना पेट पालने के लिए बिना भीख माँगे जिंदा रह सकता है। चलिए हम और आप कुछ काम करेंगे।
सिद्धांत और आदर्श का वरदान
मित्रो! ये क्या हैं? ये सिद्धांत और आदर्श हैं। ये वरदान हैं। इनसे कम वरदान किसी को नहीं मिले और इनसे ज्यादा भी किसी को नहीं मिलेंगे। किससे? जिससे आदमी के भीतर से उमंग पैदा होती है कि हमको वे काम करने चाहिए, जो इनसान के लिए शोभा देते हैं। बाबा साहब ने अपनी बीबी, बच्चों से कहा कि तुम्हारे लिए गुजारे का इंतजाम है। हमारे पास भी अभी एक-दो वस्त्रों का इंतजाम है। तुम लोग यहाँ बैठकर खाते रहना और हम एक नया प्रयोग करके दिखाते हैं। बाबा साहब उन छह कोढ़ियों को ले करके अपने गाँव चले गए। गाँव में उनके पास थोड़ी-सी जमीन थी। उन्होंने उस गाँव में बकरी पालना शुरू कर दिया, मुरगी पालना शुरू कर दिया। कोढ़ियों के साथ मिलकर कई तरह के प्रयोग शुरू कर दिए। शहद को मक्खियाँ पालना शुरू कर दिया। उससे छह आदमियों के गुजारे का इंतजाम होने लगा। बाबा साहब भी उनकी देख-भाल करते। फिर उन्होंने एक छोटा-सा कुष्ठ आश्रम बना लिया।
मित्रो! बाबा साहब आमटे की शुरुआत यहाँ से हुई। और अंत? अभी वे जिंदा हैं। यह बात लगभग तीस साल पुरानी है, जो मैं कह रहा था, जहाँ से शुरुआत हुई। 30 साल के पीछे क्या हो गया? 30 साल के पीछे जहाँ उन्होंने कोढ़ीखाना बनाया हुआ था, अब वहाँ एक विश्वविद्यालय बना हुआ है। ऐसा विश्वविद्यालय, जहाँ अपंग लोगों के लिए, अंधे लोगों के लिए, कोढ़ी लोगों के लिए और अन्य दूसरे लोगों के लिए, जहाँ ऐसे कार्यकर्ता शिक्षित किए जाते हैं, जो अंधों को पढ़ा सकें। जो कोढ़ियों की सेवा कर सकें, जो गूंगे-बहरों को शिक्षित कर सकें। इस तरीके से अपंग लोगों की सेवा करने वाले शिक्षित लोगों का एक कॉलेज बाबा साहब के उस स्थान पर खुला हुआ है।
और क्या खुला हुआ है? वहाँ एक हजार कोढ़ियों के रहने के लिए बेड, अंधों की सुविधाा—ऐसी बहुत बड़ी कॉलोनी बनी है, एक नगर बसा हुआ है। क्यों साहब! यह सब कहाँ से आ गया? उन्होंने पैसा कहाँ से इकट्ठा कर लिया? भीख माँगी और कहाँ से इकट्ठा कर लिया? भीख माँगी जाती है। भीख माँगने से किसी को क्या मिला है? भीख माँगने से भाई साहब! न किसी को कुछ मिला है और न भविष्य में मिल सकता है।
कैसा होता है देवताओं का वरदान
मित्रो! फिर कहाँ से मिला? मैंने आपसे कहा था न कि देवता एक काम करते हैं। क्या काम करते हैं? फूल बरसाते हैं। नहीं साहब! यह बात समझ में नहीं आई। भाई साहब! आप रामायण पढ़ लीजिए। रामायण में पचास जगह जिक्र आता है कि देवताओं ने फूल बरसाए। रामचंद्र जी का जन्म हुआ, तब फूल बरसाए। राम-सीता का विवाह हुआ, तब फूल बरसाए। भरत जी और राम मिले, तब फूल बरसाए। क्यों साहब! क्या मामला है? देवता कोई माली हैं? हाँ साहब! देवताओं के यहाँ फूलों की दुकान होती है। देवताओं के यहाँ फूलों के बगीचे लगते हैं। बस, फूलों के टोकरों को इकट्ठा कर लाते हैं। कोई हमको मिठाई खिलाइए, पूजा कीजिए और हम फूल बरसाएँगे।
समझ में नहीं आया साहब! कि देवता फूल क्यों बरसाते हैं? अरे वे सहयोग बरसाते हैं। फूल किसे कहते हैं? सहयोग को कहते हैं। कौन बरसाता है? देवता। देवत्व इस दुनिया में जिंदा है। देवत्व इस दुनिया में था और जिंदा रहने वाला है। देवत्व मरेगा? नहीं, मरेगा नहीं। अगर हैवान नहीं मर सका, शैतान नहीं मर सका, तो देवत्व क्यों मरेगा? भगवान क्यों मरेगा और इनसान क्यों मरेगा? इनसान-इनसान को देखकर आकर्षित होता है और भगवान-भगवान को देख करके आकर्षित होता है। श्रेष्ठता को देख करके सहयोग आकर्षित होता है। पहले भी होता था, अभी भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा।
मित्रो! बाबा साहब आमटे, जिनका पूरा नाम थाा—डॉ. मुरलीधर देवीदास आमटे, का मैं एक उदाहरण दे रहा था। बाबा साहब अपने काम में लगे रहे और लोगों का सहयोग बरसता रहा। देवताओं के फूल बरसते रहे। विदेशों से भी भारत सरकार के मारफ़त सहयोग बरसता रहा। भारत सरकार ने भी उन्हें अनुदान दिया। उनके कुष्ठ आश्रम के लिए जमीन दी और प्रांतीय सरकार ने जमीन दी। न जाने कहाँ-कहाँ से सहयोग मिला।
भाई साहब! अच्छे कार्यों के लिए सहयोग कहीं से भी खिंचता चला आता है। मैं यह किसकी प्रशंसा कर रहा हूँ? बाबा साहब की। नहीं, बाबा साहब की नहीं कर रहा हूँ। तो आप किसकी प्रशंसा कर रहे हैं? जिन लोगों ने पैसा दिया, उनकी? नहीं, भाई साहब! उनकी भी नहीं कर रहा हूँ। तो फिर आप किसकी प्रशंसा कर रहे हैं? मैं देवता की प्रशंसा कर रहा है।
देवता कैसा होता है? देवता ऐसा होता है, जो आदमी के ईमान में घुसा रहता है। ईमान में घुसने के बाद में, आदमी के भीतर से एक ऐसी हूक, एक ऐसी उमंग, एक ऐसी तड़पन पैदा करता है कि मकड़ी की तरह सारे-के जाल-जंजालों को तोड़ता हुआ इनसान-सिद्धांतों की ओर और आदर्शों की ओर बढ़ने के लिए मजबूर हो जाता है। इसे कहते हैं—देवता का वरदान। इससे कम देवता का वरदान होता है? नहीं, इससे कम देवता का वरदान हो नहीं सकता। तो इससे ज्यादा देवता का वरदान होता होगा? नहीं, इससे ज्यादा भी देवता का वरदान नहीं हो सकता। आदमी के भीतर गुणों की, आदमी के भीतर कर्मों की, आदमी के भीतर स्वभाव की विशेषता जब पैदा हो जाती है, तब विश्वास रखिए आदमी की उन्नति के दरवाजे बड़ी सहजता से खुल जाते हैं।
समापन किस्त
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव, समस्त श्रोताओं को समझाते हुए कहते हैं कि मानवीय जीवन के अंदर दोनों तरह की संभावनाएँ सुरक्षित हैं। यदि मनुष्य का पतन होना प्रारंभ हो तो मनुष्य को पशु, पिशाच, दुष्ट, नीच, नराधम बनते देर नहीं लगती और वहीं यदि मनुष्य उत्थान अथवा उत्कर्ष की यात्रा पर बढ़ चले तो उसके अंदर के ऋषि, मुनि, सिद्ध, संत और देवता को जागते भी देर नहीं लगती। मनुष्य के अंदर के देवत्व को जगाने की प्रक्रिया ही आध्यात्मिक पथ का अंतिम पड़ाव कही जा सकती है। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि मनुष्य में देवत्व के जागरण का अर्थ सिद्धियों की प्राप्ति से नहीं, वरन गुणों के अर्जन से है। वे कहते हैं कि देवता मनुष्य को यदि कुछ देते हैं तो अच्छे गुण, अच्छा व्यक्तित्व एवं अच्छी भावनाएँ देते हैं। इनकी प्राप्ति ही मनुष्य में उन संभावनाओं का उदय करती है, जिन्हें मनुष्य में देवत्व के उदय के लिए जिम्मेदार माना जा सकता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......
देवताओं का वरदान है गुण
मित्रो! बाकी अभी और इतिहास बताऊँ। यह तो मैंने खिचड़ी में से एक चावल देख करके बता दिया है। अभी और बताऊँ आपको? गुणों के हिसाब से दुनिया में जितने भी आदमी आज तक विकसित हुए हैं, उन्हें किसी भी क्षेत्र में सफलता मिली है और जिनके सम्मान हुए हैं, वह प्रत्येक व्यक्ति गुणों के आधार पर बढ़ा है। देवता का वरदान गुण है, देवता का वरदान चिंतन है।
अगर आपका चिंतन और आपके गुण, आपका स्वभाव और आपका दृष्टिकोण विकसित नहीं हुआ है, तो देवता आप पर प्रसन्न हैं, मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ; क्योंकि अगर देवता प्रसन्न रहे होते, तो आपका चिंतन परिष्कृत क्यों नहीं हुआ? आपके दृष्टिकोण में विकास क्यों नहीं हुआ? आप क्षुद्र क्यों बने हुए हैं? आप सीमाबद्ध कैसे बने हुए हैं? आप वासना और तृष्णा के बंधनों से ऊँचे क्यों नहीं उठ सके? देवता ने आपकी मदद की होती, तो आपके पास सिद्धांत जरूर आ गए होते। संसार के हर सफल व्यक्ति का यही इतिहास है।
मित्रो! चोरों का इतिहास क्या है? चोरों का कोई इतिहास नहीं है। डाकुओं का कोई इतिहास नहीं है। ब्लैक मार्केटियर्स का कोई इतिहास नहीं है। तस्करों का कोई इतिहास है? नहीं ! तस्करों का कोई इतिहास नहीं है। आप क्या चाहते थे? हम तो तस्कर बनना चाहते थे और देवी का पाठ हम इसलिए कराना चाहते हैं कि हमारे तस्करी के धंधे में फायदा हो जाए। भाई साहब! तस्करी के धंधे में लगे हुए कितने नाम हम आपको गिना सकते हैं।
ढेरों-के नाम रोज अखबारों में छपते हैं, जिनसे यह मालूम पड़ता है कि कल का मालदार, कल का कुबेर आज भिखारी हो गया। यह कोई ठहरने के तरीके हैं? यह कोई रहने के तरीके हैं? आदमी गुणों के आधार पर विकसित हुआ है। महापुरुषों में से हरेक का इतिहास आप देखिए। जो छोटे-छोटे खानदानों में पैदा हुए थे। छोटे-छोटे घरों में सामान्य परिस्थितियों में पैदा हुए थे, लेकिन उन्नति के ऊँचे-से रास्ते पर पहुँचते चले गए। कौन से आदमी को मैं कह सकता हूँ? कौन जा पहुँचे? अच्छा मैं एक आदमी का नाम गिनाना चाहता हूँ और वह लाल बहादुर शास्त्री का नाम है।
शास्त्री जी पर देवताओं का अनुग्रह
मित्रो! पंडित नेहरू का जब अंत समय आया, तो लोगों ने उनसे सलाह-मशविरा किया और पूछा कि अगर आपको मरना पड़ा, तो आपके स्थान पर किस आदमी को बैठाया जा सकता है? पंडित नेहरू ने आँखें बंद करके सोचकर कहा कि हिंदुस्तान की वर्तमान परिस्थितियों पर मैं नजर डालता हूँ तो मुझे एक ही आदमी दिखाई पड़ता है और उसका नाम है—लाल बहादुर शास्त्री। अगर आप मेरी मरजी की कोई कीमत समझते हों, तो मेरे मरने के बाद मेरे स्थान पर लाल बहादुर शास्त्री को बैठा सकते हैं। क्यों साहब? क्या रिश्तेदारी है आपकी? कोई रिश्तेदारी नहीं थी। वे कायस्थ थे और वे ब्राह्मण थे। नहीं साहब! कोई न-कोई जान-पहचान तो जरूर होगी। नहीं भाई साहब! कोई जान-पहचान नहीं थी।
बस, केवल एक ही चीज थी और वह था लाल बहादुर शास्त्री के ऊपर देवता का अनुग्रह क्या होता है देवता का अनुग्रह और कैसा होता है? देवता के अनुग्रह की जान-पहचान क्या है? देवता की परख क्या है? या देवता आप पर अनुग्रह करते हैं या नहीं करते? अनुग्रह की एक ही जान-पहचान है। पंडित नेहरू जिन दिनों कांग्रेस के वालंटियर कोर के कप्तान थे, उन्होंने अपने सारे स्वयंसेवकों पर बारीकी से नजर डाली और यह देखा कि एक वालंटियर हमको ऐसा भी चाहिए, जो हमारे साथ-साथ रह सकता हो। जो हमारे साथ काम कर सकता हो। जिस पर हम विश्वास कर सकते हों, ऐसा आदमी चाहिए।
मित्रो! उन्होंने बारीकी से हर स्वयंसेवक के स्वभाव पर नजर डाली। बातचीत पर नजर डाली, गुणों पर नजर डाली तो एक लड़का अच्छा मालूम पड़ा—ठिगना-सा, साँवला-सा। उसे बुलाया, उसमें कुछ समझदारी का माद्दा मालूम पड़ता था। उस जिम्मेदार और समझदार आदमी के गुण उनके नजदीक आने लगे। उसकी जिम्मेदारियाँ, उसकी विशेषताएँ, उसकी ईमानदारी, उसकी दयानतदारी-हर चीज से नेहरू प्रभावित होते हुए चले गए।
पंडित नेहरू ने प्रभावित होने के पश्चात क्या किया? नेहरू ने लाल बहादुर शास्त्री की मदद की। आप लाल बहादुर शास्त्री का और नेहरू का जिक्र क्यों कर रहे हैं? इसलिए कर रहा हूँ कि भक्त और भगवान के बीच भी यही सिलसिला चला आया है। नेहरू ने क्यों मदद की? यू० पी० गवर्नमेंट में एम० एल० ए० का जब चुनाव हो रहा था, तब नेहरू ने लाल बहादुर शास्त्री के सामने एक कागज पेश किया, जिस पर साइन करने के लिए कहा गया। यह कागज किसलिए है? यह एम० एल० ए० के चुनाव का कागज है। 250 रुपये फीस दाखिल करनी पड़ेगी। मेरे पास फीस कहाँ से आई है? अरे बाबा! हम दाखिल करते हैं। अगर चुनाव हुआ तो हमारी तो किसी से भी जान-पहचान नहीं है। कोई बात नहीं, आपकी जान-पहचान नहीं है, तो आप घर बैठिए। हम आपकी ओर से एम0एल0ए0 का चुनाव लड़ेंगे।
भक्त और भगवान का रिश्ता
मित्रो ! पंडित नेहरू गाँव-गाँव गए और यह कहा कि वोट नेहरू को दीजिए अपनी परची लाल बहादुर शास्त्री के बक्से में डालिए। लोगों ने वैसा ही किया। लोग नेहरू की जय बोलते हुए गए और लाल बहादुर शास्त्री के बक्से में परची डालते चले गए। लाल बहादुर शास्त्री एम०एल०ए० हो गए। पंडित नेहरू के इशारे पर यू०पी० गवर्नमेंट में मिनिस्टर हुए, फिर सेंट्रल गवर्नमेंट में मिनिस्टर हुए, फिर प्रधानमंत्री हो गए। क्यों साहब! आप मनुष्यों के ये हवाले क्यों दे रहे हैं। मैं हवाले इसलिए दे रहा हूँ कि इनसान के यहाँ और भगवान के यहाँ एक ही तरह के रिश्ते हैं।
नेहरू का रिश्ता लाल बहादुर शास्त्री जिस आधार पर प्राप्त कर सके थे, उससे कम में भगवान का प्यार नहीं पा सकते। आपको उससे ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। इतना ही कर लें, तो काफी है। फिर यह पूजा क्यों कराते हैं? पूजा का महत्त्व, पूजा का मतलब एक ही है, आप समझते क्यों नहीं हैं? पूजा का मतलब है—इनसानी गुणों का विकास, इनसानी कर्म का विकास, इनसानी स्वभाव का विकास आपने जो समझ रखा है, सारी गलतफहमी इसी की हो गई है। क्या गलतफहमी हो गई है? यह कि पूजा के आधार पर हमको यह मिलेगा, पूजा के आधार पर हमको वह मिलेगा। पूजा के आधार पर दानतदारी मिलती है, शराफत मिलती है, ईमानदारी मिलती है। आदमी को ऊँचा दृष्टिकोण मिलता है, अगर आपने सही पूजा की होती तब, अन्यथा आप भटक रहे होंगे।
दृष्टिकोण का विकास—देवत्व
अतः मित्रो ! आपको अपनी पूजा−पद्धति ठीक करनी चाहिए। पूजा एक ही तरीके से करनी चाहिए कि जो पूजा के लाभ आज तक इतिहास में मनुष्यों को मिले हैं, वही पूजा के लाभ हमको मिलने चाहिए। हमारे गुणों का विकास, हमारे चरित्र का विकास, हमारी भावनाओं का विकास और हमारे दृष्टिकोण का विकास—देवत्व इसी का नाम है। देवत्व इस चीज का नाम है कि जब देवत्व आपके पास आएगा, तो आपके पास सफलताएँ आएँगी। मामूली-से आदमियों को आपने देखा है न, कि कहाँ-से पहुँच गए। क्यों साहब! हम भी बनना चाहते हैं। आप भी बन सकते हैं। हिंदुस्तान की तवारीख के पन्ने पर नजर डालिए। हिंदुस्तान की तवारीख में जो बेहतरीन आदमी दिखाई पड़ते हैं, वे अपनी योग्यता के आधार पर नहीं, अपितु अपनी विशेषताओं के आधार पर आगे बढ़े हैं।
मित्रो! आपने महामना मालवीय का नाम सुना है न। महामना मालवीय जी की ख्याति को कौन नहीं जानता? हिंदू विश्वविद्यालय उन्होंने बनाया था और जब विदेश गए थे तो भारत सरकार ने जिन लोगों को बुलाया था, उनमें से थोड़े से आदमी थे। गाँधी जी के बाद में मालवीय जी थे, जिनको कि ब्रिटिश सरकार ने भारत का नुमाइन्दा माना था और उनसे बातचीत करने के लिए राउंड टेबल कान्फ्रेंस की थी। उसमें मालवीय जी भी थे। मालवीय जी की शान में कुछ भी कहना मेरे लिए बेकार है। वे बहुत शानदार आदमी थे। क्यों साहब! ये कैसे हो गए थे? उन्होंने कौन-सा मंत्र जपा था? बगलामुखी का जपा था। बगलामुखी कैसी होती है? बगलामुखी ऐसी होती है.....। बगलामुखी का जप कीजिए—"ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।" बस, खट् मालवीय जी हो गए। चल जाहिल कहीं के। फिर कैसे हो गए? देवता उन पर प्रसन्न हुए थे और देवताओं ने उन्हें छोटे से बड़ा बना दिया था।
उन दिनों महाराजा काला काँकर मालवीय जी के यहाँ अक्सर बनारस जाया करते थे। मालवीय जी वकालत करते थे। महाराजा काला काँकर ने एक दिन उनसे यह पूछा—"क्यों साहब! सच-सच बताइए कि वकालत में
आपको क्या मिल जाता है? क्या कमा लेते हैं, सच-सच बताइए।" उन्होंने कहा—वकालत किए हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है। हमें 200 रुपये महीने से ज्यादा नहीं मिल पाता। महाराजा काला काँकर ने कहा—"आपकी बातचीत हमको बहुत अच्छी मालूम पड़ती है। अँगरेजी भी जानते हैं। आप हमारे यहाँ काम कीजिए और हम आपको 250 रुपया मासिक देंगे।"
मालवीय जी को महाराजा काला काँकर अपने यहाँ ले गए थे और 250 रुपये मासिक पर नौकर रखा था। फिर तरक्की होती रहती है, तो क्या हुआ? 275 रुपये मिलने लगे। मालवीय बनने के लिए कौन-सी चीज, कौन-सी विशेषता पैदा हुई, जो सामान्य लोगों के अंदर नहीं होती। सामान्य वकीलों के अंदर जो नहीं थी, मालवीय जी के अंदर वह विशेषता पैदा हुई। उनके अंदर से यह माद्दा पैदा हुआ था कि हमको राष्ट्र के लिए कुछ काम करना चाहिए। देश के लिए कुछ काम करना चाहिए। औलाद के लिए नहीं, पेट के लिए नहीं। नहीं साहब! पेट ही नहीं भरता है। बेटे! तेरा पेट फट जाएगा। किसी तरीके से पेट नहीं भरता है, बस, पैसा चाहिए और अधिक पैसा चाहिए। रोटी इनको मिल जाती है, कपड़ा इनको मिल जाता है, फिर भी अभागे का पेट किसी तरीके से नहीं भरता। और पैसा दिलवाइए की रट लगाए रहता है।
भगवान प्रसन्न होंगे तो गुण देंगे
मित्रो! जब भगवान प्रसन्न होते हैं, तो वह चीज नहीं देते, जो आप माँगते हैं। फिर क्या चीज देते हैं? वह चीज देते हैं, जिससे आदमी अपने बलबूते पर खड़ा हो जाता है और चारों ओर से सफलताएँ मिलती हुई चली जाती हैं। सारे-के महापुरुषों को आप एक ओर से देखते हुए चले जाइए। कोई भी आदमी दुनिया के परदे पर ऐसा नहीं हुआ है, जिसको दैवीय सहयोग ना मिला हो, जिसको जनता का सहयोग न मिला हो, जिसको भगवान का सहयोग न मिला हो, ऐसा एक भी आदमी मुझे बताइए, जिसके अंदर से वे विशेषताएँ पैदा न हुई हों, जिनसे आप दूर रहना चाहते हों, जिनसे आप बचना चाहते हों। जिनके प्रति आपका कोई लगाव नहीं है। वे चीजें जिनको हम सिद्धांतवाद कहते हैं, आदर्शवाद कहते हैं। दुनिया के हिस्से का हर आदमी, जिसको श्रेय भी मिला हो और धन भी मिला हो, आप मुझे बताइए। क्यों साहब! श्रेय मिलेगा तो धन नहीं मिलेगा और धन मिलेगा तो श्रेय नहीं मिलेगा, आप दोनों बात कैसे कहते हैं?
मित्रो! मैं दोनों बात इसलिए कहता हूँ कि जहाँ आदमी को श्रेय मिलेगा, वहाँ आदमी को वैभव नहीं मिलेगा। तो साहब! संत इसीलिए गरीब पाए जाते हैं? भाई साहब! संत गरीब नहीं होते, कंगाल नहीं होते, वे उदार होते हैं। वे खाते नहीं हैं, खिला देते हैं। आप समझते क्यों नहीं हैं। आपकी दृष्टि से खाना एक बड़ी चीज है। आपने जिंदगी भर खाया है। अपनी कमाई भी खाई है और हरेक का दिया हुआ खाया है। आपने अपने बाप का दिया हुआ खाया है। सास ससुर का दिया हुआ खाया है। पड़ोसी का दिया हुआ खाया है। समाज का दिया हुआ खाया है। खाने वाला तू क्या जाने खिलाने का जायका। खिलाने का भी एक जायका होता है। खिलाने का जायका कैसे बताएँ, आपने तो कभी खिलाया ही नहीं है। खिलाने में कैसा जायका होता है, कैसा मजा होता है, खिलाने में कैसी शान होती है और खिलाने में कितना गर्व होता है, आपको मालूम नहीं है।
खाने में नहीं, खिलाने में है शान
मित्रो ! उन लोगों को जिनको आप गरीब कहते हैं, वे गरीब नहीं होते। वास्तव में वे अमीर होते हैं। दिल के अमीर होते हैं। खाते समय उनको ख्याल आता है कि हमको खाना नहीं चाहिए, वरन खिला देना चाहिए। खाने से पहले हजार बार उनको विचार करना पड़ता है कि हमें खाना नहीं चाहिए, वरन खिला देना चाहिए। खाने में हमारी शान नहीं है, खिलाने में हमारी शान है। सो वे बाँटते रहते हैं और खाली हाथ रह जाते हैं।
तब मालूम पड़ता है कि वे गरीब हैं, पर वास्तव में वे गरीब नहीं होते। दौलत उनके पास बेशुमार होती है; क्योंकि आदमी के भीतर का माद्दा जब विकसित होता है तो बाहर की दौलत उसके नजदीक बढ़ती चली जाती है। प्रत्येक महापुरुष का यही उदाहरण है। प्रत्येक ईश्वरभक्त का, प्रत्येक सिद्धांतवादी का यही उदाहरण है। उन्हीं को मैं देवभक्त कहता हूँ। देवों का उपासक मैं उन्हीं को कहता हूँ। देवता की भक्ति मैं उन्हीं की सार्थक मानता हूँ, जो अपने गुणों के आधार पर देवता को अपने आकर्षण में खींच सकने में समर्थ हो सके। अथवा यों कह लीजिए, चलिए मैं आपकी भाषा में ही बात करता हूँ।
मित्रो! आप यह कहना चाहते थे न कि देवता जब प्रसन्न होते हैं, तो आदमी को वरदान देते हैं। चलिए मैं आपकी बात से भी सहमत हो सकता हूँ। देवता अगर प्रसन्न होते हैं तो आदमी को देवत्व के गुण देते हैं, स्वभाव देते हैं, कर्म देते हैं और चिंतन देते हैं। आपकी भाषा में मैं यही कह सकता हूँ, लेकिन मेरी भाषा अलग है। मैं यह कहता हूँ कि आदमी अपने देवत्व के गुणों के आधार पर देवता को मजबूर करता है। वह देवता पर दबाव डालता है और देवता को विवश करता है और यह कहता है कि आपको हमारी सहायता करनी चाहिए और सहायता करनी पड़ेगी।
क्यों साहब! भक्त इतना मजबूत होता है? हाँ, भक्त . इतना ही मजबूत होता है, जो भगवान के ऊपर दबाव डालता है। भक्त कहता है कि हमारा 'ड्यू' है, आप हमारी सहायता क्यों नहीं करते? और वह देवता से, भगवान से लड़ने के लिए आमादा हो जाता है। वह कहता है कि क्या वजह है कि आप हमारी सहायता क्यों नहीं करते। आपको सहायता करनी चाहिए और करनी ही पड़ेगी। भक्त, भगवान पर इतना दबाव डाल सकता है। नहीं साहब! भगवान पर ऐसा दबाव नहीं डालना चाहिए।
भक्ति को बदनाम न करें
मित्रो! चलिए मैं आपकी बात का भी समर्थन करूँगा। भगवान जब किसी आदमी को देख लेते हैं कि यह हमारा भक्त है। साहब! भक्त तो हम भी हैं। आप भक्त हैं और आप भी बन रहे थे भक्त। कामना करने वाले भी दुनिया में भक्त हुए हैं क्या? कामना करने वाले, माँगने वाले, भिखमंगे, ख्वाहिशों के गुलाम, तमन्नाएँ जिनको खाए जा रही हैं। इच्छाओं से जो मजबूर हो रहे हैं, ये भी कोई भक्त होते हैं क्या? आपने क्यों कहा कि हम भक्त हैं। भक्ति को बदनाम क्यों किया? भक्ति को बदनाम करना मुझे नापसंद है।
आप पूजा करें, अपने आप को पुजारी कहें, मुझे स्वीकार है। हम पुजारी हैं, ठीक है। हम भजनानन्दी हैं, ठीक है। हम जप करने वाले हैं, यह भी ठीक है, पर भक्त शब्द को इस्तेमाल मत कीजिए। भक्त शब्द में क्या हो सकता है? भक्त शब्द के साथ में एक और जिम्मेदारी जुड़ी हुई है। उसमें भगवान की इच्छाएँ पूरी करने की बात जुड़ी रहती है कि हम भगवान की इच्छा पूरी करेंगे। भगवान हमारी मनोकामना पूरी नहीं करेंगे; वरन हम भगवान की मनोकामना पूरी करेंगे। भगवान क्यों पूरी करेंगे आपकी मनोकामना? आप कौन हैं? जरा आप शीशे में मुँह देख करके आइए। किसके लिए पूरी कराना चाहते हैं? हवस पूरी करने के लिए, ख्वाहिशें पूरी करने के लिए, तृष्णा को पूरी करने के लिए? हाँ साहब! हम तो ऐसा ही कराना चाहते हैं।
मित्रो! भगवान ने भक्तों के योगक्षेम का जिम्मा लिया हुआ है—"योगक्षेमं वहाम्यहम्" (गीता, 9/22), परंतु आपकी हवस पूरी करने का जिम्मा नहीं लिया हुआ है, जिसके लिए आप भगवान से माँगते हैं। आपका योग और क्षेम, आपकी शारीरिक और मानसिक आवश्यकताएँ—ये जिम्मेदारियाँ हैं। आपका शरीर भूखा रह जाए तो भगवान की जिम्मेदारी है और आपकी मानसिक, बौद्धिक आवश्यकताएँ कम रह जाएँ, तो भगवान की जिम्मेदारी है, पर आपकी हवसें पूरी नहीं हो सकती। हवस के लिए माँगिए मत।
हवस के लिए भगवान को मजबूर मत कीजिए कि हमारी हवस पूरी कीजिए। हमारी तृष्णाएँ पूरी कीजिए और हमारी वासनाएँ पूरी कीजिए। भगवान से यह मत कहिए। यह भगवान की शान में गुस्ताखी है और यह भक्ति की शान में गुस्ताखी है। यह भजन की शान में गुस्ताखी है। भक्त माँगते नहीं हैं। भक्त दिया करते हैं। भगवान कोई इनसान नहीं हैं। इनसान के रूप में भगवान को तो हमने बना लिया है। भगवान वास्तव में सिद्धांतों का नाम है, आदर्शों का नाम है, श्रेष्ठता का नाम है। श्रेष्ठता के लिए, आदर्शों के लिए आदमी का जो त्याग और बलिदान है, वस्तुत: यही भगवान की भक्ति है। देवत्व इसी का नाम है।
छाया के पीछे मत भागें
मित्रो! आप प्रकाश की ओर चलें, छाया आपके पीछे-पीछे चलेगी। आप तो छाया के पीछे भागते हैं। छाया के पीछे पागल हो गए हैं। छाया ही आपको चाहिए। छाया ही आपके दिमाग पर हावी हो गई है। छाया का अर्थ है माया। आप प्रकाश की ओर चलिए, भगवान की ओर चलिए, सिद्धांतों की ओर चलिए। नहीं साहब! भगवान की ओर तो हम बहुत दिन से चल रहे हैं। कौन से भगवान की ओर चल रहे हैं? हमारे यहाँ खिलौना रखा हुआ है। भगवान खिलौना नहीं होता है। हम तो रामचंद्र जी के भक्त हैं। हम हनुमान जी के भक्त हैं, गणेश जी के भक्त हैं। कोई हनुमान नहीं होता। फिर कौन होते हैं? ये होते हैं—आदर्श, सिद्धांत। इन्हीं का नाम हनुमान है, इन्हीं का नाम भगवान है। इन्हीं का नाम गणेश है।
आदर्शों की ओर चलिए। नहीं साहब! आदर्शों से हमारा कोई वास्ता नहीं है। हम तो संतोषी माता को पूजते हैं। संतोषी माता क्या होती है? संतोषी माता वो देवी होती है, जो कोठरी में बैठी रहती है। नहीं बेटे, वह नहीं होती। संतोषी माता उसे कहते हैं—जिसमें आदमी चना, गुड़ चबाकर रह जाता है और यह कहता है कि खटाई, मिठाई से हमारा कोई वास्ता नहीं है। हमको रूखा-सूखा मिल जाए, उसी से हम काम चला लेंगे। संतोषी जीवन जी करके लोकहित का काम करेंगे। शुक्रवार के दिन शुक्र है भगवान का कि चना, गुड़ खाने को मिल गया। पेट भरने को मिल गया, यही शुक्र है। नहीं साहब! संतोषी माता पैसा लाएगी। हाँ बेटे, सावन के अंधे को हरा-ही दीखता है। भगवान से भी पैसा, साईं बाबा से भी पैसा, आचार्य जी से भी पैसा, सब जगह से पैसा चाहिए।
व्यक्तित्व की श्रेष्ठता है भक्ति
मित्रो! यह हवस जो आपके ऊपर हावी हो गई है, कृपा करके उससे पीछे हटिए। वासनाओं से पीछे हटिए, तृष्णाओं से पीछे हटिए और उपासना के उस स्तर पर पहुँचने की कोशिश कीजिए, जहाँ कि आपके भीतर से, व्यक्तित्व में से श्रेष्ठता का विकास होता है। भक्ति यही है। अगर आपके भीतर से श्रेष्ठता का विकास हुआ, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपको जनता का वरदान मिलेगा। आपको अपनी आत्मा का वरदान मिलेगा। आपको अपने इतिहासकारों का वरदान मिलेगा। आपको चारों ओर से वरदान मिलेंगे और इतने वरदान मिलेंगे, जिनको पाकर के आप निहाल हो जाएँगे।
भक्ति का और भक्तों का यही इतिहास है। भगवान के अनुग्रह का यही इतिहास है। गायत्री माता का भी यही इतिहास है। यही इतिहास था और यही इतिहास रहेगा। अगर आप इस रहस्य को, सार को समझ लें तो आपका यहाँ आना सार्थक हो जाएगा। आपका गायत्री-उपासना करना सार्थक हो जाएगा। आपका गायत्री अनुष्ठान करना सार्थक हो जाए, अगर आप इस सिद्धांत को समझ करके जाएँ कि हमको अपने सद्गुणों का विकास करने के लिए यह तपश्चर्या कराई जा रही है और अगर हमारी यह तपश्चर्या सही साबित हुई, तो भगवान हमको यहाँ से विदा करते समय गुण, कर्म और स्वभाव की श्रेष्ठता देंगे और हमको चरित्रवान व्यक्ति के तरीके से विकसित करेंगे।
मित्रो! चरित्रवान व्यक्ति जब विकसित होता है, तो उदार हो जाता है। परमार्थपरायण हो जाता है। लोकसेवी हो जाता है। जनहितकारी हो जाता है और अपनी क्षुद्र संकीर्णताओं को कम करके लोकहित में, परमार्थ में अपने स्वार्थ को देखना शुरू कर देता है। आपकी ऐसी मनःस्थिति हो जाए, तो मैं कहूँगा कि आपने सच्ची उपासना की और भगवान का सच्चा वरदान पाया। आप भगवान का सच्चा वरदान पा करके निहाल हो सकते हैं, जैसे कि आज तक के सारे-के भक्त जिनको मैं कहता हूँ, वे निहाल होते रहे। मैंने इसी रास्ते पर चलने की कोशिश की और मैंने अपने जीवन में प्रत्यक्ष भगवान के वरदानों को देखा और पाया। मैं चाहता था कि आप लोग जो इस शिविर में आए हुए हैं और वसंत पंचमी पर्व के निकट जा पहुँचे हैं, आप भी यह प्रेरणा वसंत पर्व पर लेकर जाएँ कि भगवान अगर हम पर कृपा करें तो श्रेष्ठता की, आदर्शों के लिए कुछ त्याग और बलिदान करने की, चरित्र को श्रेष्ठ और उज्ज्वल बनाने की प्रेरणा भीतर से मिले और बाहर से मिले। अगर ऐसी कुछ प्रेरणा आपको मिली, तो उसके फलस्वरूप जो आप प्राप्त करेंगे, वह इतना शानदार होगा, जिससे आप निहाल हो जाएँ, गायत्री माता निहाल हो जाएँ और हम निहाल हो जाएँ और यह शिविर निहाल हो जाए, अगर आपको इस तरह की प्राप्ति और उपलब्धि संभव हो सके तब। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥