उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ —
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
जिन लोगों ने राम-नाम लेना शुरू किया था, उससे पहले वे किस तरह की जिंदगी जी रहे थे? राम-नाम लेने के बाद में, राम का भजन करने के बाद में वे ऋषि हुए थे कि नहीं हुए थे अथवा उसी तरह के घटिया आदमी बने हुए थे? जिन-जिन के नाम आप लेते हैं, उनका हवाला दीजिए और यह बताइए कि जो राम-नाम जप करते थे और उनके मंत्र में जो चमत्कार आ गया था, तो उनकी जिंदगी का क्रम क्या था? जिस गणिका का नाम आपने पहले लिया था, उसका उद्धार तो हो गया था? हाँ साहब! राम-नाम लेने से गणिका का उद्धार हो गया था। अच्छा तो आप यह बताइए कि गणिका जो थी, राम-नाम जप करने के बाद में, राम-नाम की दीक्षा लेने के बाद में वेश्यावृत्ति करती रही कि नहीं करती रही? नहीं साहब! फिर तो बंद कर दिया था। नहीं, बताइए शायद करती रही हो? नहीं साहब! जिस दिन से उसने राम का नाम लिया, उस दिन से सेवा का काम करती रही तथा रामभक्त का उत्तरदायित्व उठाती रही।
मित्रो! राम के उत्तरदायित्व के लिए यह आवश्यक है कि आदमी को ऋषिकल्प जीवन जीना चाहिए। ऋषिकल्प जीवन की ओर जितनी मात्रा में आप आगे बढ़ेंगे, उतनी ही मात्रा में चमत्कार आ जाएगा। सौ फीसदी आप बढ़ सकेंगे तो सौ फीसदी चमत्कार आ जाएगा। पाँच फीसदी आपके भीतर ऋषिकल्प जीवन आ जाएगा तो पाँच फीसदी चमत्कार आ जाएगा। पंद्रह फीसदी में पंद्रह फीसदी चमत्कार आ जाएगा। शून्य प्रतिशत ऋषिकल्प आया तो मंत्र से आपको राई-रत्ती भर भी कोई लाभ नहीं होगा। मंत्र से फिर क्या फायदा होगा? इससे बस, इतना ही फायदा होगा कि आप उतने समय के लिए खराब काम करने से रुके रहेंगे, बुरे काम नहीं करेंगे। रेडियो, टीवी नहीं सुनेंगे। तो फिर क्या करें साहब? रोज रेडियो न सुनकर आप शाम को एक घंटा जप किया कीजिए। इससे आप गंदे फिल्मी गीत सुनने से बच गए और उस समय का उपयोग खराब काम में न होकर राम-नाम के जप में हो गया। बस, इसका इतना ही चमत्कार है, और कोई चमत्कार नहीं, क्योंकि आपने इस बात को महसूस नहीं किया है कि आपका जीवन शालीन और श्रेष्ठ बनना चाहिए।
राम-नाम ने तारा तुलसीदास को
अच्छा, आप यह बताइए कि '' गणिका, गीध, अजामिल तारे '' के अतिरिक्त और कौन-कौन से व्यक्ति हैं, जिनका उद्धार हो गया? हाँ साहब! तुलसीदास जी का उद्धार हो गया। तुलसीदास जी का उद्धार कैसे हो गया और उनमें क्या खराबी थी? साहब! आपको मालूम नहीं है, वे बहुत खराब आदमी थे। तुलसीदास जी बड़े कामुक थे। उनकी काम-वासना इतनी तीव्र थी कि सावन के महीने में उनकी बीबी मायके गई हुई थी तो उन्होंने कहा कि हम तो अपनी पत्नी के पास जाएँगे। मुरदे के ऊपर सवारी गाँठकर उनने नदी पार की थी। घर वाले सब सोए हुए थे तो पनाले को छलाँग मारकर छत पर लटक रहे साँप को रस्सी समझकर ऊपर चढ़ गए थे और वहाँ जा पहुँचे थे, जहाँ सब सोए हुए थे। वहाँ बीबी को जगाया और पूछने पर बताया कि हम इस प्रकार से ऊपर चढ़े थे और तुमसे मिलने के लिए आए थे। बीबी ने धिक्कारते हुए कहा कि जितना प्रेम आपको हमसे है, इस शरीर से है, उतना प्रेम यदि आपको भगवान से होता तो आपका कल्याण भी हो सकता था।
उच्चारण मात्र नहीं, राम जीवन में उतरे
इसके बाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपना रवैया बदल लिया था। रवैया बदल लेने के बाद में जब राम-नाम लिया तो राम के नाम को अपनी जिंदगी में समावेश कर लिया। दोनों का समन्वय हो गया तो तुलसीदास जी का राम का नाम चमत्कार भी दिखाने लगा। कैसे? 'तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर।' तुलसीदास जी के पास तिलक देने के लिए रघुवीर स्वयं पहुँचे थे। तो महाराज जी! रामचंद्र जी हमारे पास आएँगे? आपके पास नहीं आएँगे। क्यों नहीं आएँगे? इसलिए नहीं आएँगे कि तुलसीदास जी ने राम के नाम को ग्रहण करने के पश्चात राम की रीति-नीति से जीवनयापन किया था। इसलिए उनके जीवन में चमत्कार आ गया। आप तो केवल शब्दों का उच्चारण करते हैं और अपनी जिंदगी में उन तत्त्वों का समावेश नहीं करना चाहते तो फिर रामचंद्र जी आपका चंदन लगाने के लिए कैसे आ सकते हैं? आप अपनी जिंदगी की बात को क्यों नहीं कहते? नहीं साहब! हम तो शब्दों की बात कहते हैं। शब्द काफी नहीं होते। शब्दों के साथ-साथ में उनका ''बैकग्राउंड'' भी होना चाहिए। नहीं साहब! हम चैक काट देंगे। इतने रुपए का चैक काट देने से बैंक वाला उसे कैश नहीं करेगा और यों कहेगा कि पचास रुपए जमा हैं तो आप पैंतालीस रुपए का चैक काट दीजिए उनचास रुपए का काट दीजिए। इससे ज्यादा का चैक आप नहीं काट सकते।
राम-नाम ही नहीं, राम का काम
साथियो! आपके व्यक्तित्व के भीतर चेतना का जितना समावेश है, उसी हिसाब से आप चमत्कार दिखा सकते हैं। तो अच्छा! ऐसे होता है? हाँ भाई साहब! यही बात है। वाल्मीकि राम का नाम लेने से ऋषि हो गए थे। आप भी ऋषि होना चाहते हैं? साहब! उसी प्रकार से हम भी ऋषि होना चाहते हैं, जिस प्रकार से वाल्मीकि राम का नाम लेने से संत और ऋषि हो गए थे। तो आप एक बात बताइए कि वे राम का नाम जपते थे? हाँ साहब! जपते थे। आप भी जप करेंगे? हाँ साहब! हम भी जप करेंगे। अच्छा तो यह बताइए कि नारद जी से राम-नाम की दीक्षा लेने के बाद में क्या वाल्मीकि ने डकैतियाँ डाली थीं? नहीं साहब! उसके बाद तो नहीं डाली थीं; क्योंकि उन्होंने देखा कि जिस रास्ते पर चलना है, उसी रास्ते पर चलना चाहिए। चलना हो ऋषिकेश की तरफ और आप मुख कर डालें हरिद्वार की तरफ, तो आप फिर गंतव्य पर कैसे पहुँचेंगे! राम-नाम का जप करना चाहते हैं तो जो राम के ढंग और तरीके, नियम और कायदे तथा मर्यादाएँ हैं, उन्हें आप अख्तियार कीजिए। अगर आप नहीं कर सकते तो राम का नाम लेना बंद कीजिए।
अपने मन को देखें
नहीं साहब! हमारी मरजी तो ऐसी है, जैसी रावण की थी। रावण बहुत मालदार बनना चाहता था और अपने बेटे-पोतों के लिए दौलत जमा करना चाहता था। बेटे! मैंने समझ लिया कि आपका रास्ता कौन सा है? अभी आप किसका नाम ले रहे थे? नाम तो हम रामचंद्र जी का ले रहे थे। मेरी समझ में आपने गलती कर दी। आपको रावण का जप करना चाहिए था। क्या करना चाहिए था आपको? फिर आपको हमसे नया मंत्र पूछना चाहिए था। अगर आपका मकसद यह था कि हमको भी रावण के तरीके से मालदार और दौलतमंद होना चाहिए और हमारी सारी की सारी ताकत और सारी की सारी अक्ल जो खरच हो, वह केवल दो आदमियों के लिए होनी चाहिए जिसमें हमारे बेटे और पोते के अलावा तीसरा शामिल नहीं हो सकता। अगर आपकी मरजी यही थी तो फिर आपने राम के नाम को झमेले में क्यों डाला? जिस जगह जाना था, उसका टिकट क्यों नहीं लिया? नहीं साहब! हमको तो हरिद्वार जाना था। तो भाई साहब! आपने ऋषिकेश का टिकट क्यों लिया? कलकत्ता (कोलकाता) जा रहे थे तो फिर आपने बंबई (मुंबई) का टिकट क्यों लिया? आपने गलती कर दी। अब आप स्टेशन बाबू से कहिए कि साहब! हमको कलकत्ता (कोलकाता) का टिकट दीजिए। अगर आपने बंबई (मुंबई) का टिकट खरीद लिया और जाना था कलकत्ता (कोलकाता) तो भी आप गलती करते हैं। इसमें पैसा भी जाएगा और परेशानी भी पैदा होगी।
नाम जपें तो रास्ता बदलें
मित्रो! हमारा जो मन है, उसे अगर यहाँ-वहाँ जाना हो तो हमें राम-नाम के जंजाल में नहीं फँसना चाहिए? किसका जप करना चाहिए? मेरे ख्याल से आपको रावण का जप करना चाहिए-रावणाय नम:, कुंभकरणाय नम:, मेघनादाय नम :, मारीचाय नम :, भस्मासुराय नम :, कंसाय नम :, हिरण्यकश्यपाय नम:, सहस्रबाहुवे नम:, वृत्रासुराय नम:, महिषासुराय नम: आदि ये जप आपको करना चाहिए। नहीं साहब! इनका तो हम जप नहीं करना चाहते। हम तो रामचंद्र जी का जप करेंगे। हनुमान जी का करेंगे, गणेश जी का करेंगे। तो फिर आप इनके रास्ते पर चलिए। नहीं साहब! इनके रास्ते पर तो हम नहीं चलना चाहते। तो फिर आप उनका नाम जपना बंद कीजिए। नाम तो जपना बंद नहीं करेंगे। तो फिर अपना रास्ता बदलिए। ठीक है साहब! रास्ता सही रखेंगे, पर जप कैसे करेंगे? भाई साहब! ऐसी गलती मत कीजिए। जहाँ जाना चाहते हैं, उधर की ओर मुँह कीजिए उधर की ओर ही देखिए। उसी का तरीका अख्तियार कीजिए उसी के ढंग से चलिए। ढंग बनाते हैं संत का और कुचाल चलते हैं। आप इस तरह की गलती करते हैं, फिर फायदा कैसे होगा! वाल्मीकि ने भी तो यही किया था? हाँ साहब! किया था। और किस-किस ने किया था? जहाँ तक मैंने जिन-जिन लोगों के नाम सुने हैं, उनमें से प्रत्येक आदमी ऐसा ही था।
फिर होना चाहिए कायाकल्प
अंगुलिमाल डाकू का नाम आपने सुना होगा? वह बहुत खराब आदमी था और महात्मा बुद्ध को मारने के लिए गया था। लेकिन बाद में क्या हुआ? फिर कुछ ऐसा हुआ कि बुद्ध भगवान से बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के बाद में अंगुलिमाल डाकू संत हो गया, ऋषि हो गया। फिर कहाँ चला गया था? बुद्ध भगवान ने उसे हिंदुस्तान के बाहर काम करने के लिए भेजा था। उसकी प्रतिभा और क्षमता को देखकर उन्होंने उसे इंडोनेशिया भेज दिया। इंडोनेशिया से लेकर जावा, मलाया होते हुए वह सिंगापुर गया था। बहराइच जिले से चलने के बाद अंगुलिमाल बाईस साल तक इन देशों के सारे के सारे इलाकों में बौद्ध धर्म का प्रचार संत बनकर के करता रहा। क्यों साहब! एक बात बताइए कि जब वह संत था तो फिर कभी-कभी डकैती जरूर डालता रहा होगा? नहीं भाई साहब! ऐसी बात नहीं है। नहीं साहब! आपको मालूम नहीं है। दिन में तो वह भजन करता होगा और रात में डकैती करता होगा। कैसे? जैसे आप करते हैं। हाँ भाई साहब! हम तो ऐसा ही करते हैं। आप क्या करते हैं? जब हम जप करने के लिए बैठ जाते हैं, तब आप हमारी शीशे में शक्ल देखें तो ऐसा मालूम पड़ेगा कि कोई महात्मा बैठा है, ऋषि बैठा है और जब हम माला छोड़कर बाहर निकलते हैं, कमरे से बाहर निकलते हैं, तब आप हमारी शक्ल देखिए साक्षात शैतान हमारे ऊपर सवार हो जाता है।
बहुरूपिया न बनें, मुखौटा उतारें
महाराज जी! तब हमारी अक्ल, हमारे विचार, हमारे क्रिया-कलाप, हमारा व्यवहार इस तरीके से हो जाते हैं, जैसे दैत्य के होने चाहिए। और जब कोठरी में चले जाते हैं, तब? हम देव हो जाते हैं। और फिर क्या होता है आपका? जब हम रामलीला में जाते हैं तो वहाँ लक्ष्मण भी बन जाते हैं और जब रामलीला खतम हो जाती है, तब हमारा बाप धुनिए की अपेक्षा करता है और तब हम धुनिए हो जाते हैं; अच्छा तो आप यह सब करते हैं? हाँ साहब! हमारा नाम बहुरूपिया है। बहुरूपिया कैसा होता है? बहुरूपिया ऐसा होता है, जो कभी सिपाही बन जाता है, कभी हनुमान जी बन जाता है, कभी स्त्री बन जाता है, तो कभी बाबाजी बन जाता है। बहुरूपिया तरह-तरह के मुखौटे बाँधकर तरह-तरह का बन जाता है। अच्छा! तो अब मेरी समझ में आया कि आपने बहुरूपिया का धंधा कर रखा है। हाँ साहब! जब हम पूजा में जाते हैं तो भगत बन जाते हैं। अच्छा और जब बाजार में जाते हैं, तब? तब हम शैतान बन जाते हैं। अच्छा तो आप कितनी तरह के लिबास बना लेते हैं? गुरुजी! आपको तो अभी मालूम ही नहीं है। हमने अपने पास बहुत तरह के लिबास, बहुत तरह की पोशाकें बना करके रखी हैं, ठीक उसी तरह से, जैसे ड्रामा खेलने वाले रखते हैं। वे कभी दाढ़ी लगाकर महात्मा बन जाते हैं, कभी मुकुट लगाकर राजा बन जाते हैं, कभी झाडू लेकर भंगी बन जाते हैं, कभी क्या बन जाते हैं। हम तरह-तरह के वेश बना सकते हैं और तरह-तरह की शक्ल बना सकते हैं। अच्छा, तो आप यही धंधा करते हैं। नहीं साहब! कभी-कभी हम भजन भी कर लेते हैं। कमाल करते हैं आप! आपने तो जिंदगी का त्रिमुख बिठाया है। नहीं साहब! हम त्रिमुख क्यों बिठाएँ हम तो धंधा करते हैं, मखौल करते हैं, मजाक उड़ाते हैं। भाई साहब! भजन की भर्त्सना बंद कीजिए क्योंकि फिर इससे आपको शिकायत होगी। फिर आप यह कहेंगे कि हमारी सारी मेहनत बेकार चली गई और हमको कुछ फायदा नहीं हुआ।
जीभ को संस्कारित बना लें
मित्रो! फायदा उठाने के लिए जरूरत इस बात की है कि जिस जीभ से आपको भजन-पूजन करना है तो उस जीभ को अच्छा बनाएँ संस्कारित करें। इस संबंध में हम मृगी ऋषि का हवाला पहले ही दे चुके हैं। अभी हम आपको जीभ के और चमत्कार बताते हैं, जिससे दूसरों को नसीहत भी दे सकते हैं और दूसरों को वरदान, आशीर्वाद देने में भी समर्थ हो सकते हैं। हम आपको इस चांद्रायण अनुष्ठान में जिस उपासना को सिखाते हैं, उसमें जीभ पर अंकुश रखना भी सिखाते हैं। उस जीभ के बारे में मैं फिर एक बार आपको बताता हूँ। जिस राजा परीक्षित की बात आपसे कह रहा था, उस राजा के पीछे जब तक्षक लग गया तो प्रश्न यह उठा कि अब परीक्षित को क्या करना चाहिए? उस जमाने के मुताबिक़ यह तय हुआ कि राजा परीक्षित को भागवत् की कथा सुननी चाहिए। इससे उनका उद्धार हो जाएगा। राजा परीक्षित को जो सात दिन की मोहलत मिली थी, उसमें वे कथा सुनेंगे और यह सारा समय उनका कथा सुनने में लगेगा; यह तय हुआ।
ऐसी कथा से लाभ नहीं
यह निश्चय होने के पश्चात यह सवाल पैदा हुआ कि आखिर कथा कहेगा कौन? कहने से क्या है, पैंतीस रुपए में किसी पंडित जी को बुला लीजिए। पाँच रुपए रोज के हिसाब से पंडित जी को नकद पैसा दे दीजिए, भोजन करा दीजिए और भोजन कराने के बाद में कपड़ा दे दीजिए और कथा सुन लीजिए। ऐसी कथा से कोई फायदा हो सकता है? नहीं, ऐसी कथा से कोई फायदा नहीं हो सकता, केवल कहानी सुनी जा सकती है। कृष्ण भगवान कब पैदा हुए थे? उनका ब्याह कब हुआ था? वे कब बुड्ढे हुए थे? उनकी लड़ाई कब हुई थी? यह कहानी आप सुन लीजिए कोई भी सुना सकता है, पर भागवत् नहीं सुनी जा सकती। भागवत् किससे सुनी जा सकती है? भागवत् उसके मुँह से सुनी जा सकती है, जिसकी वाणी में से मंत्र की शक्ति निकलती हो। नहीं साहब! कोई भी सुना देगा? कोई भी सुनाएगा तो हम किस्सा सुन लेंगे। भाई साहब! रामायण सुना दीजिए? हम रामायण सुना देंगे। क्या थी रामायण की कथा? सुनिए रामचंद्र जी थे और उनके तीन भाई थे। एक बाप था, जिसने राम को वनवास दे दिया। वे बीबी को लेकर जंगल को चले गए। वहाँ रावण सीताजी को चुरा ले गया। तब सीताजी को खोजने के लिए रामचंद्र जी ने हनुमान जी को भेजा। हनुमान जी को भेजने के बाद में फिर युद्ध हुआ और उन्होंने रावण को मार डाला। फिर सीताजी घर आ गईं। धोबी ने शिकायत की तो, सीताजी को घर से निकाल दिया। तो हो गई रामायण? हाँ साहब! हो गई रामायण, इसको सुनकर वैकुण्ठ को जाएँगे? नहीं जाएँगे।
वाणी में हो प्राण
मित्रो! एक बार सुन लीजिए हमारी बात सुन लीजिए कि यदि रामायण पाठ करना है तो क्या करना चाहिए? रामायण का पाठ करने के लिए जिस जीभ की जरूरत है और जिसमें से कमाल निकलता है, चमत्कार निकलते हैं, उसमें वाणी की बनावट मुख्य है। कहानी कहना मुख्य नहीं है। आप रामायण कह लें, तो भी मुक्ति हो सकती है और भागवत् कह लें, तो भी मुक्ति हो सकती है और मैं तो यह भी कहता हूँ कि आप मरे हुए चूहे की बात कह लीजिए तो भी मुक्ति हो सकती है। इसमें रामचंद्र जी और हनुमान जी की बात नहीं है। मुख्य बात है वाणी की, जो शिक्षा देती है और जिससे आदमी में कमाल और चमत्कार पैदा होता चला जाता है। परीक्षित के सामने भी यही सवाल था कि भागवत् सुननी है तो किसी ऐसे व्यक्ति से सुनिए जिसकी जीभ में ताकत हो। वाणी में शब्दों के साथ-साथ प्राण हो। जिसकी वाणी भीतर से निकलती हो, जो परावाणी से बोलता हो। जीभ से तो टेपरिकार्डर भी बोल देते हैं, ग्रामोफोन के रिकार्ड भी बोल देते हैं। जीभ से तो पक्षी भी बोल देते हैं, सुग्गे भी बोल देते हैं।
तोता भी बोलता है मंत्र
जब मैं अफ्रीका गया तो वहाँ केन्या में कांगो का एक व्यक्ति एक सुग्गे को गायत्री मंत्र ऐसे तैयार कराकर लाया था, जैसे कि मैं टेप करा कर लाया हूँ। आप कहें तो मैं आपको सुना दूँ। यह ऐसा बढ़िया बोलता है कि उस तरह से आप भी नहीं बोल सकते। उस सुग्गे का नाम था-''पौली''। उन्होंने उसका यही नाम रखा हुआ था। काले रंग का वह सुग्गा कबूतर से भी बड़ा था और ऐसे सही सही मंत्र बोलता था, जैसे कोई आदमी जीभ से बोल सकता है। जीभ में कोई कमाल है? कोई भी कमाल नहीं है। फिर किसका कमाल है? मित्रो, कमाल वहीं से निकलता है, जिसमें कि वाणी को परिष्कृत कर दिया गया हो। राजा परीक्षित के सामने यही प्रश्न था। लोगों ने कहा कि व्यास जी, जिन्होंने भागवत् कथा लिखी है, जो उसके लिखने वाले हैं, उन्हीं को बुलाया जाए। व्यास जी जरूर आ जाएँगे और कथा सुनाने के लिए रजामंद भी हो जाएँगे, पर उनकी कही हुई कथा से हमारा उद्धार नहीं हो सकता। हमारी मुक्ति नहीं हो सकती।
शुकदेव जी ही क्यों?
तो फिर किसी और विद्वान को बुलाइए। लोगों ने औरों के नाम बताए पर राजा परीक्षित मना करते रहे। जब लोगों ने कहा कि आप ही बताइए? तब उन्होंने कहा कि मेरा सुझाव है कि आप शुकदेव जी को बुला लें। शुकदेव जी कौन हैं? शुकदेव जी व्यास जी के बालक हैं, जिनकी उमर चौबीस-पच्चीस साल है। चौबीस साल के बच्चे को बुला लें और नब्बे साल के बुड्ढे को, जिसने कितना सारा तप किया है, कितना सारा भजन किया है और कितना बड़ा विद्वान व ऋषि है, उसे रहने दें। क्यों साहब आप उनसे क्यों नहीं सुनना चाहते? उन्होंने कहा कि अगर शुकदेव जी कथा कहेंगे तो हमारी आत्मा का उद्धार हो जाएगा। उनके शब्द हमारे जीवन का उद्धार करने में समर्थ हो सकेंगे, व्यास जी से यह नहीं हो सकेगा। बात आगे बढ़ी। लोगों को बहुत अचंभा हुआ। उन्होंने कहा कि साहब! आप शुकदेव जैसे बच्चे के ऊपर जोर क्यों दे रहे हैं और बुड्ढे को क्यों मना कर रहे हैं? राजा परीक्षित ने कहा कि ठीक है, अगर आप लोग नहीं मानते तो आपको व्यास जी का और शुकदेव जी का हम एक किस्सा सुनाते हैं। इससे आप समझ जाएँगे कि हमारे जिद करने का मतलब क्या है? कारण क्या है?
शुकदेव जी के पक्ष में और व्यास जी के खिलाफ एक राय थी, वह उन्होंने बताई। क्या कहा उन्होंने? राजा परीक्षित ने कहा कि इसका कारण एक है। एक बार हम शिकार खेलने गए और रास्ता भूल गए। हमारे बाकी सारे के सारे साथी तो कहीं और चले गए और हम कहीं और चले गए। शिकार का पीछा करते-करते हम रास्ता भूल गए। रास्ता भूलने के पश्चात घोड़े को भी प्यास लगी और हमको भी प्यास लगी। अब हम कहाँ जाएँ? खाने को भी नहीं था और पीने को भी नहीं था। झाड़ियाँ भरी पड़ी थीं। कहाँ आफत में आ गए? विचार करने लगे कि अब किधर चलें? खाना न मिले तो कोई हर्ज नहीं, पर पानी तो मिलना ही चाहिए। पानी की तलाश करते-करते एक ऐसी जगह पहुँच गए जहाँ बहुत ही सुंदर एक तालाब था। उसमें निर्मल पानी भरा हुआ था। मालूम पड़ता था कि यहाँ कोई देवता रहते हैं।
तालाब में स्नान का दृश्य
राजा परीक्षित को बहुत खुशी हुई कि हम भी पानी पिएँगे और घोड़े को भी पानी पिलाएँगे। उन्होंने तालाब को गौर से देखा तो रुक गए। क्या देखा? उस तालाब के भीतर सयानी कन्याएँ नहा रही थीं। कपड़े उन्होंने तालाब के बाहर रख दिए थे और नंगी होकर के तालाब में नहा रही थीं। देवताओं की लड़कियाँ थीं। बड़ी उम्र की सयानी लड़कियाँ थीं। राजा परीक्षित ने सोचा कि लड़कियाँ हैं, नंगी हैं, अभी इनको नहा लेने देना चाहिए। इनको शरम लगेगी, इसलिए छिपकर खड़े हो गए और इंतजार करने लगे कि लड़कियों नहाकर जाएँ तब हम पानी पिएँ। चुपचाप तमाशा देखते रहे। उन्होंने देखा लड़कियाँ तालाब में उछल-कूद कर रही थीं। तभी चौबीस साल का एक छोकरा आ गया। वह बिलकुल नंगा। उसके शरीर पर एक लँगोटी भी नहीं थी। वह भी आया और उसी तालाब में पानी पीने लगा। फिर उसका मन आया तो वह भी नहाने लगा। लड़कियों भी नहाती रहीं और लड़का भी नहाता रहा। दोनों वहीं नहाते रहे। नहा-धो लेने के बाद लड़का चला गया। लड़कियों ने उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और वे नहाती-धोती रहीं। आपस में हँसती-खेलती रहीं।
राजा परीक्षित को बड़ा अचंभा हुआ कि ये सयानी लड़कियाँ हैं और वह भी सयाना लड़का है और वह भी नंगा, बिना लँगोट के है। तभी क्या देखते हैं कि थोड़ी देर में वहाँ एक साधु आया और बोला, पानी पी लेते हैं। उसे देखकर लड़कियाँ तालाब से निकलकर बाहर भागीं और अपने-अपने कपड़े उठाकर झाड़ियों में छिप गईं। झाड़ी में छिपी बैठीं लड़कियाँ घूर-घूरकर देखती रहीं कि बुड्ढा बैठा है कि चला गया। जब बुड्ढा वहाँ से चला गया तो बड़ी मुश्किल से लड़कियाँ झाड़ियों से बाहर निकलीं और देखा कि बुड्ढा तो कहीं नहीं है और तब कपड़े पहनकर के अपने घर चलने की तैयारी करने लगीं। राजा परीक्षित फिर से अचंभित हुए कि वह बुड्ढा खाली पानी पी रहा था, नहा भी नहीं रहा था और सारे कपड़े भी पहने हुए था, तो भी लड़कियों को इतनी शरम आई और जवान लड़के से कोई शरम नहीं आई। उनके मन में असमंजस हुआ।
राजन की जिज्ञासा
असमंजस होने के पश्चात में राजा परीक्षित ने अपना घोड़ा आगे बढ़ाया और कहा कि बच्चियो! तुम जा रही हो तो एक बात बताती जाओ? आप कौन हैं? हम राजा परीक्षित हैं। अच्छा पूछिए हम आपकी बात का उत्तर अवश्य देंगे। परीक्षित ने कहा कि वह जवान नंग-धड़ंग लड़का तुम्हारे साथ में नहाता रहा तो तुम्हें शरम नहीं आई और जब वह बुड्ढा पानी पी रहा था, तब तुमको शरम आ गई। तुमने उसके सामने नहाना बंद कर दिया और झाड़ियों में जा छिपी। क्या कारण है? उन्होंने कहा कि राजा परीक्षित! आप नहीं जानते कि ये कौन थे? आपको नहीं मालूम है, परंतु हमें मालूम है कि ये कौन थे? यह लड़का जो अभी-अभी नहाकर गया है, उसका नाम था शुकदेव। शुकदेव को इस बात का ज्ञान नहीं है कि मर्द कौन होता है और औरत क्या होती है? इन्हें दोनों में फरक का ज्ञान नहीं था। ये परमहंस थे। उनकी दृष्टि में कोई अंतर नहीं था। हमने उनकी दृष्टि को देखा और पहचान लिया कि ये परमहंस हैं। इनको मर्द और औरत में कोई भेद मालूम नहीं पड़ता, इसलिए इनके साथ नहाने में हमको कोई एतराज नहीं है, इसलिए हम नहाए, लेकिन यह जो बुड्ढे स्वामी जी आए थे, इनके पिता थे। इन स्वामी जी का तो किस्सा आपको मालूम नहीं है, हमें मालूम है। क्या है, बताइए?
उन्होंने कहा कि इनके खानदान वालों को इस बात की जरूरत हुई कि हमारा वंश डूब जाएगा तो कोई ऐसा खानदान का आदमी होना चाहिए जो अपने खानदान वालों के साथ में रहे और बाल-बच्चे पैदा हो जाएँ। किसकी तलाश करें? इन्हीं स्वामी जी से कहा था कि बाल-बच्चों के बिना जीवन तो बेकार है। स्वामी जी ने कहा कि ठीक है। स्वामी जी, व्यास जी चले गए। व्यास जी की वजह से रानियों को तीन संतानें हुईं। एक का नाम था पांडु, एक का नाम था धृतराष्ट्र और एक का नाम था विदुर। ये तीनों भाई इन्हीं से पैदा हुए थे। तीनों रानियों से बच्चा पैदा करने के बाद में वे भाग आए। ऐसे थे ये स्वामी जी, इन नंग-धड़ंग शुकदेव के पिता।
मंत्र नहीं, व्यक्तित्व प्रधान
राजा परीक्षित ने कहा कि तो फिर हमें इन स्वामी जी से कथा नहीं सुननी। इनकी कथा सुनने से कोई फायदा नहीं है। लोगों को उन्होंने यह किस्सा सुनाया और बताया कि कहानी कहना, मंत्र बोलना ही काफी नहीं है, वरन अक्षरों को उच्चारित करने वाले का जो व्यक्तित्व काम करता है, असल में वही चीज है। उसके बाद राजा परीक्षित ने शुकदेव जी को बुलाया। शुकदेव जी ने भागवत् की कथा सुनाई। भागवत् की कथा सुनने के बाद उनका उद्धार हो गया।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥