उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
संस्कृति की सीता का हुआ अपहरण
मित्रो! संस्कृति की सीता का रावण ने अपहरण कर लिया था, तब भगवान रामचंद्र जी राक्षसों समेत रावण को मारकर सीता को वापस लाने में सफल हुए थे। इतिहास की वह पुनरावृत्ति फिर से होनी है। मध्यकाल में हमारी संस्कृति की सीता को वनवास हो गया। साम्प्रदायिकता इस कदर फैली, मत-मतांतर इस कदर फैले, बाबाजियों ने अपने-अपने नाम के इतने मजहब इस कदर खड़े कर लिए कि हिंदू समाज का एक रूप ही नहीं रहा। संस्कृति के साथ में अनाचार शामिल हो गया। बुद्ध के जमाने में ऐसा भयंकर समय था कि हमारी संस्कृति उपहास का कारण बन गई थी। घिनौने उद्देश्यों को संस्कृति के साथ में शामिल कर दिया गया था। पाँच काम बड़े घिनौने माने जाते हैं और इन पाँच कामों को भी धर्म के साथ जोड़ दिया गया था और संस्कृति को कलंकित कर दिया गया था। ये पाँचों हैं— ''मद्यं, मांसं तथा मत्स्यो, मुद्रा, मैथुनमेव च। पञ्चतत्त्वमिदं देवि! निर्माण मुक्ति हेतवे।'' ये पाँचों घिनौने काम संस्कृति के साथ शामिल हो गए।
और मित्रो! यज्ञ का रूप कैसा घिनौना हो गया था? आपको मालूम नहीं है, तब मनुष्यों को मारकर होम दिया जाता था। घोड़ों और गौओं तक को होम दिया जाता था। यह क्या था? यह वनवास काल था। और अब क्या हो गया? अब बेटे! संस्कृति की सीता रावण के मुँह में चली गई, जहाँ बेचारी की जान निकल जाने की जोखिम है और जहाँ से वापस आने का ढंग दिखाई नहीं पड़ता। सीता राक्षसों के मुँह में से कैसे निकलेगी? चारों ओर समुद्र घिरा हुआ है। उस समुद्र को कौन पार करेगा? रावण कितना जबरदस्त है? राक्षस कितने जबरदस्त हैं? इनसे लोहा कौन लेगा? संस्कृति की सीता को वापस लाने का काम कठिन मालूम पड़ता है। अब वह कहाँ चली गई? वह तो मध्यकालीन युग था। उसमें आस्तिकता फिर भी थी। उस समय किसी कदर आस्तिकता का नाम-निशान तो था। राम-रहीम का जिक्र तो आता था। यज्ञ की कोई बात तो कहता था। धर्म का कोई नाम तो भी लेता था।
नास्तिकों का आज का युग
लेकिन मित्रो! आज हम लंका के जमाने में रह रहे हैं, जहाँ कि धर्म को अफीम की गोली कहा जा रहा है। पढ़े-लिखे लोगों में जाइए और उनसे जानिए कि धर्म क्या है? तो वे यही कहेंगे कि धर्म याने अफीम की गोली, जिसको खाकर के आदमी मदहोश हो जाता है। कर्तव्यों को भूल जाता है। समझदार लोगों में, बुद्धिजीवी वर्ग में संस्कृति के लिए यही शब्द इस्तेमाल होता है-अफीम की गोली और भगवान के बारे में दार्शनिक नीत्से का एक वचन मुझे बार-बार याद आ जाता है और खटकता भी रहता है। नीत्से यों कहते थे कि खुदा मर गया और मरे हुए खुदा को हमने इतने नीचे दफन कर दिया है कि अब उसके दोबारा जिंदा होने की कोई उम्मीद नहीं है। वह अब दोबारा नहीं जी सकेगा। खुदा को अब हमने मार दिया। नास्तिक नीत्से कहता था कि खुदा नाम की कोई चीज दुनिया में नहीं है जो कुछ खुदा के नाम पर दुनिया में पाया जाता है, वह केवल वहम है और हम इस वहम को दुनिया से मिटाकर छोड़ेंगे।
साथियो! नीत्से तो अब नहीं रहा, लेकिन उसका काम-फिलॉसफी का काम, साइंस ने अपने कंधे पर उठा लिया। साइंस ने कहा कि परमात्मा की अब कोई आवश्यकता नहीं है और धर्म की कोई जरूरत नहीं है। डार्विन ने कहा कि अगर आप धर्म के मामले में दखल देंगे तो आदमी को मानसिक बीमारियाँ हो जाएँगी। मनोविज्ञानी फ्रॉयड ने कहा कि ये बहन है, ये बेटी है और इसके साथ-साथ में ब्रह्मचर्य है और यह आपका पतिव्रत धर्म है-अगर इस तरह की बेकार की बातें फैला देंगे तो आदमी के दिमाग में कॉम्प्लेक्स पैदा हो जाएँगे और' आदमी को मानसिक बीमारी हो जाएगी। आदमी को उच्छृंखल रहने दीजिए स्वेच्छाचार करने दीजिए। जैसे कि जानवरों में स्वेच्छाचार होता है, वैसे ही आदमी को भी स्वेच्छाचार का मौका मिलना चाहिए। ये कौन कहता था। डार्विन से लेकर फ्रॉयड तक ने यही बातें कहीं।
इनसानी जीवन तबाह हो जाएगा
मित्रो! अभी मैं आपसे विज्ञान की बातें कह रहा था, नास्तिकतावादी दर्शन की बात कह रहा था, लंका की बात कह रहा था। आपको तो मालूम नहीं है। आप तो हमारे संपर्क में रहे हैं, उनके संपर्क में थोड़े ही रहे हैं! आप कम्युनिस्टों के संपर्क में नहीं रहे हैं। आप बुद्धिजीवियों के संपर्क में नहीं रहे हैं। आप कॉलेज में पड़े नहीं हैं। कॉलेज में पढ़े होते तो जिस बात का हवाला मैं अभी दे रहा था, इसको बढ़ा-चढ़ाकर आप कहते और आपका मखौल उड़ाया जाता। आज बेटे! हमारी संस्कृति लंका में जा रही है। अब उसको वापस लाने के लिए क्या करना पड़ेगा? अगर संस्कृति वापस न आ सकी तो दुनिया तहस-नहस हो जाएगी, दुनिया मिट जाएगी। दुनिया जिंदा न रह सकेगी। परलोक खराब हो जाएगा, स्वर्ग नहीं मिलेगा। मुक्ति नहीं मिलेगी। बेटे! इन बेकार की बातों को जाने दीजिए। स्वर्ग की, मुक्ति की, परलोक की, चमत्कार की बातें मैं नहीं कहता, मैं तो इनसानी जीवन की बात कहता हूँ। इस संसार की बात कहता हूँ। अगर हमारी संस्कृति और धर्म, जिसको हम आस्तिकता कहते हैं, जिंदा नहीं रही तो दुनिया तबाह हो जाएगी। हमारे गृहस्थ जीवन का सफाया हो जाएगा। पारिवारिक जीवन ऐसे खत्म हो जाएगा, जैसे कि जानवरों में खत्म हो गया है। कुत्ते का कोई कुटुंब होता है? कोई कुटुंब नहीं होता। कुत्ते की कोई औरत होती है? कोई नहीं होती। कुत्ते का कोई बाप होता है? कोई नहीं होता। कुत्ता क्या होता है? कुत्ता अकेला होता है।
मित्रो! इसी तरीके से इनसान को क्या करना पड़ेगा? कुत्ते के तरीके से अकेले रहना पड़ेगा। और औरत क्या होती है? अरे साहब! धर्मपत्नी को कहते हैं, जिसके साथ शादी होती है। शादी किसे कहते हैं? मौसम को शादी कहते हैं। एक साल एक बीबी से शादी की, अगले साल उसे भगा दिया। दूसरे साल दूसरी शादी कर ली। तब आप कितने साल तक जवान रहेंगे? हम पचास साल तक जवान रहेंगे और कोशिश करेंगे पचास औरतें आ जाएँ। हर साल एक नई आ जाए और दूसरी चली जाए। बेटे! यूरोप में यही हो रहा है। अब स्त्रियाँ भी इसी तरह करेंगी। जो बातें मर्दों पर लागू होती हैं, वही बातें औरतों पर भी लागू होती हैं। कोई दाम्पत्य जीवन नहीं है। यह महीने भर पीछे बदल सकता है, दो महीने पीछे बदल सकता है। आज शादी-ब्याह हुआ है, कल तक यह चलेगा कि नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं है। आज सारे यूरोप में यही हो रहा है।
पारिवारिक जीवन नीरस—तहस-नहस
आज गृहस्थ जीवन में क्या हो रहा है? माँ बाप किसे कहते हैं? माँ बाप उसे कहते हैं, जब तक कि लड़का नाबालिग रहता हैं और जब तक वह जिसके सहारे रहता है, उसका नाम होता है माँ बाप! जब वह बड़ा हो जाता है तब? तब माँ बाप का बेटे से कोई ताल्लुक नहीं है और बेटे का माँ बाप से कोई ताल्लुक नहीं है। जानवरों में जब तक बच्चा छोटा होता है, उसकी माँ उसका ध्यान रखती है और जब बच्चा बड़ा हो जाता है तो सींग मार देती है। नहीं साहब! बड़े बच्चे से भी मोहब्बत होनी चाहिए। क्यों? बड़े बच्चे से क्यों होनी चाहिए? छोटे बच्चे को तो नेचर चाहती है कि उसका कोई गार्जियन होना चाहिए। नेचर के दबाव से क्या चिड़िया, क्या मेंढक, क्या औरत, क्या मर्द-सब दबाव मानते हैं और जैसे ही बच्चा बड़ा हुआ, मोहब्बत खत्म हो जाती है और बच्चे भाग जाते हैं। आज यही हो रहा है।
मित्रो! आप संस्कृति को खत्म कर रहे हैं या करना चाहते हैं। संस्कृति खत्म होगी तो हमारा पारिवारिक जीवन तहस-नहस हो जाएगा। अगर हमारा बुद्धिवाद जिंदा रहेगा और हमारा अर्थशास्त्र जिंदा रहेगा तो फिर क्या होगा? अर्थशास्त्र के हिसाब से हमने, आपने, हरेक ने स्वीकार कर लिया है कि बुड्ढे बैल को कसाई के यहाँ जाना चाहिए; क्योंकि बुड्ढे बैल को रोटी नहीं खिलाई जा सकती। दुनिया के निन्यानवे फीसदी जानवर कसाई के यहाँ चले जाते हैं। दूध देने वाले हों, चाहे हल में चलने वाले हों, दोनों का अंत क्या होगा? भाई साहब! दोनों का अंत कसाई के यहाँ होगा। नहीं साहब! खूँटे पर बाँधकर खिला दीजिए। नहीं, खूँटे पर बाँधकर खिलाने से हमारी जगह घिरेगी और चारा खराब होगा। फिर नए जानवर हम कहाँ से पालेंगे? इनको हम भूसा कहाँ से खिलाएँगे? इनकी एक ही रेमिडी है कि इन बुड्ढे जानवरों को, चाहे वे गाय हों, चाहे वे बैल हों, दोनों को ही कसाई के यहाँ जाना चाहिए। आजकल बिलकुल यही हो रहा है। बूढ़े होने पर निन्यानवे फीसदी जानवर कसाई के यहाँ जाते हैं। एक प्रतिशत अपनी मौत मरते हों, तो बात अलग है।
संस्कृति की अवज्ञा के दुष्परिणाम
मित्रो! अगले दिनों में क्या होगा? अगले दिनों में बुद्धिवाद आएगा। और क्या आएगा? अर्थशास्त्र आएगा। अर्थशास्त्र क्या कहेगा? अर्थशास्त्र यह कहेगा कि बुड्ढे बाप को कसाईखाने भेजना चाहिए। कसाईखाने? हाँ बेटे! इसके लिए कसाईखाने से अच्छी और कोई जगह नहीं हो सकती। यह जगह घेरता है, रोटी खाता है, घर में खाँसता रहता है, थूकता है, बेकार परेशान करता है। बुड्ढा हो गया है, अक्ल खराब हो गई है। घर वालों की नाक में दम करता है। इसलिए क्या करना चाहिए? इसको सीधे कसाईखाने भेजना चाहिए। चाइना में यह प्रयोग हो रहा है। बुड्ढे आदमियों को ले जाते हैं कि चलिए हम आपको बूढ़ेखाने में रखेंगे। वहाँ बहुत आराम है। आप इस गाड़ी में बैठिए फिर हम आपको ले जाते है। वहाँ ले जाते हैं और कहते हैं कि आप यहाँ भरती हो जाइए। देखिए कैसा अच्छा इंतजाम है। अच्छा, आइए बैठिए। दस-पाँच दिन वहाँ रखा, फिर दूसरी जगह ले गए। एक इंजेक्शन लगा दिया। वह बुड्ढा कहाँ गया? उसका ट्रांसफर कर दिया गया है और अब वह दूसरे कैंप में चला गया। बच्चों ने पूछा—हमारा बुड्ढा कहाँ है? बुड्ढा जहन्नुम में चला गया।
अब क्या होना है? यही होना है। आप में से कोई बुड्ढा तो नहीं है? अच्छा अभी नहीं है तो थोड़े दिनों बाद हो जाएँगे। यह क्या हो गया? जब संस्कृति की सीता चली गई और वापस नहीं आई तो हरेक को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। किसके लिए? बेटा नीलाम करेगा कि यह बुड्ढा बिकाऊ है। कोई कसाई हो तो ले जाए। अगर कोई नहीं लेगा तो गवर्नमेंट खरीद लेगी और इसका राष्ट्रीयकरण करेगी। फिर बुड्ढे कहाँ जाएँगे? फाँसीघर में। तैयार हो जाइए भइया आते हैं। अब यही होगा। तो क्या आप संस्कृति को खत्म कर रहे हैं? संस्कृति रावण के मुँह में चली जाएगी, तो क्या होगा? बिलकुल यही होगा, जो अभी बताया है। बेटे! अर्थशास्त्र हमको यही सिखाता है। इकोनामिक्स हमें यही सिखाती है कि जो बेकार चीजें हैं, वाहियात चीजें हैं, उनको नीलाम कर दीजिए, उनको हटा दीजिए या जला दीजिए। बेकार की चीज का हम क्या करेंगे! बुड्ढे आदमी का क्या होगा! उसकी हमें जरूरत नहीं है। माँ का क्या होगा? कसाईखाने जाएगी। बाप भी कसाईखाने जाएगा। बेटे! अगले दिनों यही होगा, अगर हम संस्कृति को खत्म करते हैं, तब।
ऐसे होंगे बेटे हमारे
मित्रो! अगर संस्कृति खत्म होती है तो अर्थशास्त्र, बुद्धिवाद, समाजशास्त्र, समाजशास्त्री मान सकते हैं कि ये सारे के सारे भौतिक चिंतन लोगों के सामने मुसीबतें पैदा करेंगे। गृहस्थ जीवन को, दाम्पत्य जीवन को खत्म करेंगे। बच्चों का भविष्य खत्म करेंगे। बच्चों का लगाव माँ-बाप के प्रति नहीं होगा। माँ-बाप का लगाव बच्चों के प्रति भी नहीं होगा। बुड्ढा अस्पताल में बीमार पड़ा है। छपे हुए कार्ड आते हैं, जैसे ब्याह-शादी के कार्ड आते हैं, उन पर लिखा रहता है कि ''डियर फादर! आप बीमार हैं।'' नीचे छपा हुआ है -सो एंड सो......... आपकी बीमारी का समाचार जानकर हमको बहुत दुःख हुआ। भगवान आपको जल्दी अच्छा करे। बस ''योर्स'' और नीचे साइन कर दिया और पंद्रह पैसे का टिकट चिपका दिया। कार्ड पर अस्पताल का, वार्ड का नंबर डाल दिया। बुड्ढा सारे मरीजों को कार्ड दिखाता है कि देखिए हमारे बेटे की चिट्ठी आई है। देखिए हमारे बेटे की बहुत सिंपैथी है। हमारे लिए वह बहुत शुभकामना करता है। और आपका बेटा? हमारे बेटे की भी चिट्ठी आ गई है। पच्चीस पैसे वाला कार्ड उसने भेजा है। और देखिए साहब! हमारे बेटे ने चालीस पैसे वाला कार्ड भेजा है। अच्छा, तो आपके बेटे की मोहब्बत ज्यादा है और आपके बेटे की कम है। सेवा करने नहीं आया। किस बात की सेवा करने आएगा? आपने बहुत सेवा की है, वह भी सेवा करेगा?
डरावनी अकेली होगी जिंदगी
मित्रो! संस्कृति की सीता चली गई तो यही हो जाएगा। और क्या हो जाएगा? संस्कृति चली गई और आदमी को मालदार बना गई, खुशहाल बना दिया। हाँ साहब! हमें भी मालदार बना दीजिए। हाँ हम भी आपको बहुत मालदार बना देंगे, आप निश्चित रहिए। कितना मालदार बनाएँगे? बेटे! हम आपको बहुत मालदार बनाने वाले हैं। हम आपको इतना मालदार बनाएँगे, जितने कि अमेरिकन नागरिक हैं। अमेरिकन नागरिक कितने मालदार हैं? औसत नागरिक की आमदनी दो हजार रुपया मासिक है। औसत से क्या मतलब है? औसत आमदनी से यह मतलब है कि आप, आपकी बीबी और आपके दो बच्चे, कुल चार आदमी हैं तो आपकी औसत आमदनी आठ हजार होनी चाहिए ताकि प्रत्येक आदमी के हिस्से में दो-दो हजार आ सकें। आठ हजार आपको कमाना चाहिए -ताकि चारों के हिस्से में औसत दो हजार आ सकें। ठीक है, अमेरिका मालदार देश है। वहाँ क्या हो रहा है? बेटे! सारे का सारा अमेरिका, जिसमें से अस्सी फीसदी नागरिकों की बात में कहता हूँ टेंशन में बेतरह दुखी हैं। टेंशन क्या होता है? तनाव को कहते हैं। तनाव किसे कहते हैं? तनाव उसे कहते हैं कि जब आदमी यह देखता है कि मैं अकेला हूँ। मेरा कोई नहीं और मैं किसी का नहीं हूँ। अपने को जब आदमी अकेला देखता है तो उसे इतना भय लगता है। जिंदगी इतनी नीरस और डरावनी हो जाती है। आपको अकेलापन अनुभव हो तो आपकी जिंदगी इतनी नीरस हो जाएगी। फिर आप कोई परमहंस हों तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन सामान्य आदमी हैं, एकाकी हैं, अकेले हैं, अपस्वार्थी हैं तो आपकी जिंदगी नरक हो जाएगी।
फिर क्या हो जाएगा? फिर आपके दिमाग पर इतना टेंशन रहेगा कि जिसकी वजह से आपकी नींद 'हराम हो जाएगी। अमेरिका के अधिकांश नागरिक रात को नींद की गोली खाकर के सोते हैं। काम करने के घंटे तो किसी प्रकार से निकाल लेते हैं। आठ घंटे आफिस में काम करना पड़ता है, सो वे उतना समय काट लेते हैं। फिर क्या करें? सारी जगह मरघट सी जिंदगी दिखाई पड़ती है और सारी दुनिया मरघट सी दिखाई पड़ती है। इस मरघट में अब हम कहाँ जाएँ? इधर जाएँ तो इधर भी आग, उधर जाएँ तो उधर भी आग। हर तरफ से जिंदगी नीरस दिखाई पड़ती है। उस नीरस जिंदगी में फिर कहाँ जाते हैं? बेटे! कहीं शराबखानों में चले जाते हैं; कहीं क्लबों में चले जाते हैं; कहीं कैबरे हाउस में चले जाते हैं। ये कैबरे हाउस क्या होते हैं? पहले औरतें वैसे नाचा करती थीं। अब उस साधारण नाच से आदमी का मनोरंजन नहीं होता, इसलिए उसे कैबरे डांस कहते हैं, जिसमें डांसर एक --एक कपड़ा उतारना शुरू करती है। ऊपर से एक कपड़ा उतार दिया, दूसरा कपड़ा उतार दिया, तीसरा कपड़ा उतार दिया, फिर चौथा कपड़ा भी उतार दिया और बिलकुल मादरजाद नंगी हो जाती है। हाँ साहब! यह नाच कुछ पसंद आया? कपड़े पहनने वाली से अब मन नहीं भरता। कपड़े पहनने वाले नाच अब घटिया जान पड़ते हैं और बेकार मालूम पड़ते हैं। अब आदमी को जरूरत इस बात की है कि औरत बिलकुल सारे के सारे कपड़े उतार दे। एक भी कपड़ा बदन पर न हो और तब नाच दिखाए। तभी मन में जरा सी फुरफुरी आती है। मन को अच्छा लगता है। सारे दिन बियर, सारे दिन शराब, अभी तो नशा कम मालूम पड़ता है, और लाइए एक गिलास और लाइए। क्यों? बिना बियर के नहीं रह सकते? नहीं, बिना बियर के दुनिया हमें खा जाएगी।
भूत-प्रेतों की दानवीय संस्कृति होगी हावी
मित्रो! ये सारे के सारे लोग कौन हैं? ये कौन हैं? भूत। ये कौन हैं? प्रेत। ये कौन हैं? डाकू। ये कौन हैं? हत्यारे। सब नीरस, सारी की सारी दुनिया नीरस-न मोहब्बत, न कहीं प्यार, न कहीं सहकारिता, न कोई भलमनसाहत। कहीं कोई किसी का नहीं है। आदमी मशीन के तरीके से भागता हुआ चला जा रहा है। अगले दिनों क्या हो जाएगा? यही हो जाएगा। अमेरिका का बिलकुल यही हाल है; क्योंकि वहाँ तो आधुनिक संस्कृति है आपकी संस्कृति देव संस्कृति है। आप देव संस्कृति का परित्याग करते चले जा रहे हैं, तो दानवीय संस्कृति आपको यही करेगी। वह आपको पैसा जरूर देगी और सुख-सुविधा के साधन देगी, लेकिन लंका में ये सुख -सुविधा के साधन क्या कम थे! आप विश्वास रखिए आपको भी ये सब मिल जाएँगे। विज्ञान जितनी तेजी से बढ़ रहा है और आर्थिक उन्नति के जो साधन चल रहे हैं। बिजली इस कदर पैदा हो रही है कि इससे आपको सुख-सुविधा के वे सभी साधन मिल जाएँगे, जो आप चाहते हैं। जो लंका में थे, वे आपको सब मिल जाएँगे, पर इससे क्या होगा? आप हैरान होंगे।
हम आपस में लड़-मर न जाएँ
और मित्रो क्या होगा? वे परिस्थितियाँ आ जाएँगी, जो यादवों के समय आ गई थीं। यादवों ने यादवों को खा लिया। यादवों को बाहर वालों ने नहीं मारा था। यादवों में गृहयुद्ध हुआ था और वे आपस में लड़कर मर गए थे। खानदान वाले खानदान वालों से ही लड़ मरे थे। तो क्या होने वाला है? बेटे! हम और आप आपस में लड़ेंगे और एक-दूसरे को मारकर खा जाएँगे। आदमी एक-दूसरे को दाँतों से चीर डालेगा। ऐसा संभव है? हो बेटे! अभी थोड़ी कमी है। अभी हम दाँतों से नहीं चीरते हैं। अभी हम आपको अक्ल से चीरते हैं। हम कोशिश करते हैं कि अक्ल से आपको इस तरीके से चीरें कि आपका सारा का सारा खून निकाल लें और आपको कोई बाहरी जख्म भी न होने पाए। अभी हममें इतनी भलमनसाहत और शराफत है। अभी हम आपका खून निकालना चाहते हैं, पर जख्म दिखाना नहीं चाहते; क्योंकि उससे हमारी निंदा होगी, बदनामी होगी, लोगों को मालूम पड़ जाएगा। अभी मालूम नहीं पड़ने देना चाहते हैं कि हम आपका खून निकालना चाहते हैं, ताकि आप इतने कमजोर हो जाएँ कि आपको मारने का हमारा मकसद पूरा हो जाए। हम आपका माँस खाना और खून पीना चाहते थे, वह मकसद हमारा पूरा हो गया है और आप जिंदा भी बने रहे।
साथियो! अभी कुछ भलमनसाहत जिंदा है, लेकिन अगर संस्कृति की सीता चली गई तो कल क्या होने वाला है, कह नहीं सकते। तब फिर आदमी को कोई एतराज नहीं होगा। अभी एक कुत्ते के मुहल्ले से दूसरा कुत्ता निकलता है। बिना वजह के उसने माँगा नहीं है, कुछ उधार नहीं चाहिए कुछ कर्ज नहीं चाहिए। उसका किसी से कोई लड़ाई -झगड़ा नहीं है। कोई मुकदमेबाजी नहीं है, लेकिन उस गली से निकलते ही एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को चीर डालता है। आप भी चीरेंगे। क्यों नहीं चीरेंगे? क्या हम किसी कुत्ते से कम हैं! जब कुत्ता कुत्ते को चीर सकता है, तब फिर आदमी, आदमी को क्यों नहीं चीरेगा! आदमी-आदमी को चीरना चाहिए। अगले दिन ऐसे आएँगे। गुरुजी! आप क्या बात कर रहे हैं? बेटे! मैं यह बात कह रहा हूँ कि संस्कृति, जो इनसान को इनसान बनाए हुए है। परलोक की बात मैं नहीं कहता, मुक्ति का जिक्र आपसे नहीं करता। स्वर्ग की बात आपसे नहीं कहता। मैं तो आपसे इनसानी जीवन की बात कह रहा हूँ। परलोक की बात जहन्नुम में जाने दीजिए। परलोक कुछ होता है, मुझे नहीं मालूम कि होता है कि नहीं। मैं तो केवल इस जन्म की बात कहता हूँ। भगवान होता है कि नहीं, मैं इस झगड़े में नहीं पड़ता। मैं तो आपसे दैहिक और दैनिक जीवन की बात कहता हूँ। फिलॉसफी के जंजाल में मैं नहीं फँसता, मैं तो आपको दैनिक और रोजमर्रा के जीवन की बात कहता हूँ।
वापस लाएँ प्यार-मोहब्बत
मित्रो! संस्कृति हमारे दैनिक जीवन में मुहब्बत भरती थी, प्यार भरती थी और सहकारिता भरती थी। जंगल में रहने वाले आदमी और गरीबी में गुजारा करने वाले आदमी अपने अपने छोटे-छोटे घरौंदों में रहकर खुशहाल रहते थे। स्वर्ग का आनंद लूटा करते थे। मालूम पड़ता है कि वह संस्कृति धीरे धीरे मौत के मुँह में जा रही है। नष्ट होती चली जा रही है। अब क्या करना चाहिए? बेटे! हमको और आपको उसे वापस लाने की कोशिश करनी चाहिए; क्योंकि उसमें हमारा, हमारी संतानों का, हमारे समाज का और हमारी सारी मानवता का भविष्य टिका हुआ है। इस संस्कृति को वापस लाया जाए। कहाँ से वापस लाया जाए? लंका से वापस लाया जाए। हम और आप कोशिश करेंगे तो इसे लंका से वापस लाया जा सकता है। नहीं साहब! रावण बहुत जबरदस्त था। हाँ बेटे! रावण की जबरदस्ती को हम मानते हैं और रास्ते की खाई बहुत बड़ी है, समुद्र जैसी खाई है और इसे पाटना बहुत कठिन काम है। कुम्भकरण से लड़ाई लड़ना भी बहुत कठिन मालूम पड़ता है; लेकिन कठिन काम भी तो बेटे इनसानों ने ही किए हैं। कठिन काम भी इनसान ही कर सकते हैं। हम आखिर इनसान ही तो हैं। आइए अब संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए चलें
मित्रो! संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए अब हम क्या कर सकते हैं? हमारी और आपकी जैसी भी हैसियत होगी, कोशिश करेंगे। अच्छे कामों के लिए जब आदमी कमर बाँधकर खड़े हो जाते हैं तो भगवान की सहायता उन्हें हमेशा मिली है और हमेशा सहायता मिलेगी। पहले भी मिलती रही है और अभी भी मिलेगी। कब मिली थी? अच्छे उद्देश्य के लिए जब आदमी जान हथेली पर रखकर निकलता है तो भगवान भाग करके सहायता करने के लिए आता है। क्यों साहब! यह बात सही है? हाँ बेटे! यदि उद्देश्य ऊँचा हो, तब सही है, अन्यथा उद्देश्य घटिया हो, तब मैं नहीं कह सकता। उद्देश्य ऊँचा हो तो भगवान आपको सहायता देगा। इतिहास पढ़ डालिए। महामानवों के लिए भगवान ने जितनी ज्यादा सहायता दी है, आप पढ़ डालिए। शुरू से पन्ना पढ़िए। किसी भी क्षेत्र के महामानव और महापुरुष का इतिहास पढ़िए फिर देखिए कि ऊँचे उद्देश्य के लिए ईमानदारी से कष्ट उठाने के लिए जो आदमी तैयार हो गए उनको सहायता मिली कि नहीं मिली? आप चाहे जिस क्षेत्र में देख लीजिए लाखों की तादाद में लोगों को भगवान की सहायता, आदर्श सहायता, दैवी सहायता मिलती चली गई।
ऊँचे उद्देश्य के लिए मित्रो! मैं सीता जी की बात कह रहा था। आप देखिए कि उन्हें किस तरह से सहायता मिलती चली गई। क्यों साहब! पानी के ऊपर तैरते हुए पत्थर कहीं होते हैं? कहीं नहीं होते। पानी में डालते ही पत्थर डूब जाता है। पत्थरों के माध्यम से भगवान ने सहायता की थी। ऐसे पुल बनाए गए थे, जिनमें कि खंभे नहीं लगाए गए थे। इनके लिए कोई प्लानिंग नहीं की गई थी। समुद्र के ऊपर पत्थर फेंकते ही वे तैरने लगे और पुल बना दिया गया। अचंभे की बात है न! लोगों की समझ में नहीं आती। बेटे! यह समझ में आएगी भी नहीं। मैं ऐसे लाखों उदाहरण बता सकता हूँ जिनमें कि पत्थर ऊँचे उद्देश्यों के लिए तैरे हैं। जो ऊँचा उद्देश्य लेकर के चले हैं और जान हथेली पर लेकर चले हैं और ईमानदारी से चले हैं, उनके पत्थर तैरे थे और फिर तैरेंगे। नहीं साहब! पत्थर नहीं तैरेगा। हाँ बेटे! पत्थर नहीं तैरेगा। यह अलंकार है। इसका मतलब यह है कि साधन कम हों, सामर्थ्य कम हो, तो भी सफलता मिलेगी। पत्थर तैरने से हमारा मतलब यही है। पानी पर पत्थर तैरता है कि नहीं तैरता, इससे कोई मतलब नहीं है।
महाराज जी! और क्या हो सकता है? और बेटे! समुद्र को छलाँगा जा सकता है। आदमी की छलाँगने की ताकत दस फीट हो सकती है, बारह फीट हो सकती है, पंद्रह फीट हो सकती है। बंदर के छलाँगने को ताकत, लंगूर के छलाँगने की ताकत मान लें कि ज्यादा से ज्यादा पच्चीस फीट हो सकती है, तीस फीट हो सकती है, चालीस फीट हो सकती है और ज्यादा से ज्यादा पचास फीट हो सकती है। नहीं साहब! बंदर इतनी लंबी छलाँग नहीं मार सकता। तो बेटे! बंदरों ने समुद्र छलाँगा था? अच्छा, आदमी कितना वजन उठा सकता है? बीस किलो उठा सकता है। नहीं साहब! चालीस किलो उठा सकता है। नहीं साहब! हमने एक पल्लेदार को अपनी पीठ पर एक क्विंटल की बोरी लादते हुए देखा था। चलिए हम आपकी बात मान लेते हैं कि आदमी एक क्विंटल वजन उठा सकता है। तो क्या वह पहाड़ भी उठा लेगा? नहीं साहब! पहाड़ तो नहीं उठा सकता। पहाड़ नहीं उठा सकता, तो देख हनुमान जी ने ऊँचे उद्देश्य के लिए पहाड़ उठाया था कि नहीं। ऊँचे उद्देश्य के लिए जब आदमी कमर कसकर खड़े हो गए हैं, तो उन्होंने बड़े से बड़ा काम करके दिखाया है। हनुमान जी ने सीता जी को वापस लाकर दिखाया था।
हो सकती है पुनरावृत्ति
क्या इतिहास की पुनरावृत्ति फिर होना संभव है? हाँ इतिहास की पुनरावृत्ति होना संभव है और हम करके दिखाएँगे। मित्रो! संस्कृति की सीता को, जिसके बारे में पहले यह मालूम पड़ता था कि उसको वनवास हो गया और वह रावण के घर में कैद हो गई। अब वहाँ से उसके लौटने की कोई उम्मीद नहीं है, लेकिन रामचंद्र जी रीछ-वानरों के साथ मिलकर उन्हें वापस लाने में समर्थ हुए थे। मित्रो! हम भी संस्कृति की सीता को लौटाकर ले आएँगे। क्यों? क्योंकि उससे सारी मनुष्य जाति का भविष्य और भाग्य जुड़ा हुआ है। उससे विश्वशान्ति जुड़ी हुई है। उससे हमारी पीढ़ियों का और औलादों का भविष्य जुड़ा हुआ है। जिस सुंदर दुनिया को भगवान ने बड़ी शान से बनाया है, वह उसकी इच्छा पर टिकी हुई है और उसी से हमारे इनसानी जीवन की सार्थकता टिकी हुई है। इनसान के जीवन के लिए सार्थकता की दृष्टि से जो काम सुपुर्द किए गए हैं, उन्हें भी हम कर सकते हैं। इन सब बातों की वजह से संस्कृति की सीता को वापस लाने का आज हमारा काम है और आप सबको इसी योजना में सम्मिलित होने के लिए बुलाया है। बस, हमारा यही एक मकसद है, दूसरा कोई नहीं है। आइए आप और हम मिलकर संस्कृति की सीता को वापस लाने की कोशिश करें।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥
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भारतीय सभ्यता संस्कृति की विशेषता अपनाएँ
भारतीय सभ्यता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जहाँ अन्य देशों ने अपने धर्म, सभ्यता, संस्कृति का सर्वोच्च लक्ष्य सांसारिक सुख और भोग की सामग्री प्राप्त करना समझ रखा है, भारतवर्ष का लक्ष्य सदा त्याग का रहा है। दूसरों के ''भोगवाद'' के मुकाबले में हम यहाँ की संस्कृति का आधार 'त्यागवाद' कह सकते हैं। अब यह स्पष्ट है कि जहाँ के मनुष्यों का लक्ष्य ''भोगवाद'' होगा, वहाँ दूसरों से और परस्पर में भी संघर्ष चलता ही रहेगा, क्योंकि संसार में जितनी भी भोग-सामग्री है, उसके मुकाबले में मनुष्य की तृष्णा कहीं अधिक बड़ी-चढ़ी है। ऐसी जातियों के व्यक्ति पहले विदेशी अथवा अन्य जाति के लोगों को लूटने-मारने का कार्य करते हैं और फिर जब बाहर का मार्ग रुक जाता है तो अपने ही देश-भाइयों पर हाथ साफ करने लगते हैं। उनके सामने कोई ऐसा आदर्श अथवा लक्ष्य नहीं होता, जिसके प्रभाव से वे ऐसे काम को बुरा समझें। उनको तो यही सिखाया गया है कि ''यह संसार सबलों के लिए है और यहाँ वही सफल मनोरथ होता है जो सबसे अधिक शक्तिशाली या संघर्ष के उपयुक्त होता है।''
इसके विपरीत भारतीय संस्कृति यह सिखलाती है कि इस संसार में जितनी भौतिक वस्तुएँ दिखलाई पड़ती हैं, उनका महत्त्व बहुत अधिक नहीं है, वे क्षणभंगुर हैं और किसी भी समय नष्ट हो सकती हैं। वास्तविक महत्त्व की चीज आत्म '' सत्ता या परमात्म तत्त्व ही है जो स्थायी और अविनाशी है। इसलिए मनुष्य को, जब तक वह संसार में है, भौतिक वस्तुओं का संग्रह और उपभोग तो करना चाहिए पर अपनी दृष्टि सदा उसी सत्य, आत्मतत्त्व पर रखनी चाहिए जो कि सब भौतिक वस्तुओं का आधार है और जिसमें मनुष्य को, जीवात्मा को सदैव निवास करना है। इस भावना के प्रभाव से मनुष्य स्वार्थांध होने से बचा रहता है और वह अपने हित के साथ दूसरों के हित की रक्षा का भी ध्यान रखने में समर्थ होता है। वह अन्याय और अत्याचार के कार्यों को पाप समझकर बचता है और इस प्रकार समाज में न्याय और सुख-शांति की स्थापना होती है। यही कारण है कि भारतीयों ने सब प्रकार की शक्ति प्राप्त करके भी कभी संसार को गुलाम बनाने की बात नहीं सोची और न कत्लेआम द्वारा किसी अन्य राष्ट्र का नाम-निशान मिटा देने का प्रयत्न किया। कोई समय ऐसा भी था कि संसार भर के धन का केंद्र भारत ही था और यहाँ सचमुच सोने और रत्नों के मंदिर और महल बनाए गए पर उसने धन को अपना आदर्श कभी नहीं बनाया और न उसके द्वारा अन्य देशों को अपने अधिकार में लाने की योजना बनाई। सब प्रकार के सांसारिक वैभव को भोगते हुए भी उसने सदैव यह ख्याल रखा कि उसके ऊपर एक और भी सत्ता है जो इस संसार की शक्तियों की अपेक्षा उच्चतर, दृढ़तर और शक्तिवान है। अगर वह अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करेगा तो वह सत्ता उसे दंड दिए बिना न छोड़ेगी। इसी अध्यात्म भावना के आधार पर उसका जीवन सदैव संयमयुक्त बना रहा और वह सब मनुष्यों को ही नहीं समस्त प्राणियों को एक ही परमपिता के बनाए मानकर करुणा और प्रेम का पात्र समझता रहा; यहाँ की संस्कृति में शोषण का सिद्धांत, जो वर्तमान समय में भौतिकवादियों का मूल मंत्र बना हुआ है, कभी स्वीकार नहीं किया गया और सदा यह घोषणा की गई—आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत।
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पर हित सरिस धर्म नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहि अधमाई।
भारतीय संस्कृति की यही शाश्वत सनातन मान्यता है।