उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
(परिवार निर्माण सत्र सितंबर 1980 में शान्तिकुञ्ज में दिया गया उद्बोधन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ−साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! संतान उत्पन्न करने के साथ-साथ अभिभावकों के ऊपर उनके निर्माण की भी जिम्मेदारी स्वभावतः चली आती है। संतान अपने गुण, कर्म, स्वभाव से कैसी हो, शरीर से कैसी हो, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जन्मदाता माता और पिता की मनःस्थिति कैसी है? माता अर्थात् जमीन। जमीन जिस तरह की होगी, पौधों का उसी तरह से बढ़ना और फलना−फूलना संभव होगा। पिता अर्थात् बीज। बीज जिस किस्म का होगा, उसी किस्म का पौधा पैदा होगा। जमीन में गेहूँ का बीज बोया जाएगा तो गेहूँ का पौधा पैदा होगा। मक्का बोई जाएगी तो मक्का पैदा होगी। फूल बोया जाएगा तो फूल पैदा होगा। संतान कैसी होगी और क्या होगी? इसका नमूना देखना हो तो पिता को देखना चाहिए कि पिता के गुण, कर्म और स्वभाव, उसका जीवन लक्ष्य क्या है?
मित्रो! जमीन के ऊपर ही पौधों का विकास टिका हुआ है। यदि बीज अच्छा हो और जमीन खराब हो तो ऐसी जमीन में, जहाँ खाद न हो, पानी न हो तो फिर उस निकम्मी जमीन में अच्छा पौधा पैदा नहीं हो सकता। अच्छी संतान उत्पन्न करने के लिए माता−पिता को पहले से ही तैयारी करनी चाहिए। अच्छी संतान की जिनको इच्छा है, उनको मात्र यही विचार नहीं करना चाहिए कि बच्चों को हम पढ़ाएँगे कहाँ? बच्चों को हम पढ़ाएँगे क्या? बच्चों के लिए हम करेंगे क्या? वरन् यह भी सोचना चाहिए कि बच्चों को हम क्या और कैसे संस्कार देंगे? बच्चों को जो करना है, जैसा भी उनको बनना है, वह सारी तैयारियाँ बालक पेट में नौ महीने के भीतर पचास फीसदी पूरी कर लेता है। शेष पचास फ़ीसदी तैयारी पाँच वर्ष की उम्र के भीतर हो जाती है। सबसे संवेदनशील अवस्था पाँच वर्ष के पहले तक समाप्त हो जाती है। माता के पेट में जिस दिन से बच्चा आता है, उसी दिन से सीखना शुरू कर देता है और पाँच वर्ष का होते होते जब तक उसको बोलना आता है, समझना आता है, उस वक्त तक उसके संस्कारों के पड़ने वाली बात पूरी हो जाती है। बाकी तो सारे जीवनभर स्कूल कॉलेज में जाकर और जहाँ कहीं भी जाता है, अनुभव, ज्ञान इकट्ठा करके वह अपना भौतिक ज्ञान इकट्ठा करता है।
मित्रो! स्वभाव का निर्माण, चरित्र का निर्माण, क्रियाओं का निर्माण उस समय होता है, जबकि व्यक्ति का बाह्य मन जाग्रत नहीं होता और अचेतन मन पूर्णतया जाग्रत होता है। अचेतन मन की जाग्रत अवस्था पेट में आने से लेकर पाँच वर्ष तक की है और चेतन मन? चेतन मन का विकास पाँच वर्ष से लेकर शुरू होता है और वह जीवन के अंतिम समय तक चला जाता है।
अचेतन मन को ढालिए
मनुष्य का गुण, कर्म और स्वभाव, उसका व्यक्तित्व और उसका लक्ष्य, ये सारे−के−सारे मनुष्य के अचेतन मन से संबंधित हैं और चेतन मन में व्यवहारकुशलता, शिक्षा, बाह्यज्ञान, कला−कौशल आदि बातें बाह्य मस्तिष्क से संबंधित हैं। मनुष्य का व्यक्तित्व उसके अचेतन मन से जुड़ा है। चेतन मन के साथ उसकी जानकारियों एवं क्रियाकलापों का ही संबंध है। अचेतन मन जिन दिनों विकसित हो रहा होता है, उस समय शिक्षण करने के लिए कोई और उपाय नहीं है। बच्चा स्वयं उसका शिक्षण नहीं कर सकता। उस समय माता−पिता का कर्तव्य है कि वे अपने बालकों को जैसा भी बनाना हो, उसका अचेतन मन जैसा भी ढालना हो, उसका भविष्य जैसा भी बनाना हो, उसके अनुरूप स्वयं की अपने आप में तैयारी करना सीखें।
मित्रो! बच्चा पेट में आए, उससे पहले ही माता पिता को यह प्रयत्न करना चाहिए कि स्वयं देखें कि उनका स्वयं का स्वभाव कैसा है? उनके कर्म कैसे हैं? उनके गुण कैसे हैं? उनके विचार कैसे हैं? उनके भाव कैसे हैं? इन सब बातों की तैयारी बच्चे का निर्माण करने से पहले ही करनी चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण को एक अच्छी संतान पैदा करनी थी। रुक्मिणी ने कहा कि हमको एक अच्छी संतान की जरूरत है तो उन्होंने कहा कि इसके लिए पहले अपने आपको तैयार करना चाहिए। कैसे तैयार करना चाहिए? इसके लिए रुक्मिणी और श्रीकृष्ण दोनों के दोनों ही उस स्थान पर हिमालय में चले गए जिसको आजकल बदरीनारायण कहते हैं। रुक्मिणी और श्रीकृष्ण बेर के फल खाकर हिमालय के उस पर्वत पर घोर तपस्या करने लगे। उसके बाद जब वे लौटकर आए तो उन्होंने एक संतान पैदा की। उसका नाम था—प्रद्युम्न। मित्रो! प्रद्युम्न शक्ल से, सूरत से, गुण से, कर्म से, स्वभाव से ठीक उसी तरह का था, जैसे कि श्रीकृष्ण भगवान थे। कई बार तो पहचानने वालों को भ्रम हो जाता था कि इनमें से श्रीकृष्ण कौन है और प्रद्युम्न कौन है? इसका कारण सिर्फ यह था कि उन लोगों ने बच्चा पैदा करने से पूर्व अपनी तैयारी की थी।
तैयारी माता−पिता की होनी चाहिए
बच्चे को किस तरीके से बनाया जाए और क्या किया जाए? इसके लिए अपनी मनोभूमि और अपने क्रियाकलाप, अपने स्वभाव, अपने आचरण माता-पिता को बच्चे के जन्म से पहले ही तैयार करने चाहिए, ताकि जिस रज और वीर्य के द्वारा बच्चा बनने वाला है, उसके पेट में आने से पहले उस रज और वीर्य में सात्विकता का समावेश, अच्छाइयों का समावेश, श्रेष्ठता का समावेश होकर रहे। इसके बाद में बच्चे की अच्छी वाली पाठशाला आरम्भ होती है, जिसके मुकाबले में पब्लिक स्कूलों की कोई कीमत नहीं, कॉलेजों की कोई कीमत नहीं है। ट्यूटरों की कोई कीमत नहीं है। वह सारे-का-सारा शिक्षण और उसके व्यक्तित्व के विकास का शिक्षण बच्चे के पेट में आने से लेकर जब तक वह बाहर आता है, बहुत कुछ पूरा हो चुका होता है। उस समय माता की मनोभूमि जैसी भी कुछ होगी, उसके हिसाब से वही स्वभाव और वही संस्कार बच्चे पर पड़ते चले जाएँगे।
मित्रो! उन दिनों गर्भवती की स्थिति नाजुक होती है, इसलिए उस समय उसको कोई मानसिक आघात नहीं लगना चाहिए और कोई प्रसंग ऐसा नहीं आना चाहिए जिससे उसके अंदर क्षोभ उत्पन्न हो, क्रोध उत्पन्न हो, ईर्ष्या और डाह के भाव उत्पन्न हों अथवा उसको दुष्कर्म करने का मौका मिले। उस समय उसकी प्रसन्नता को अक्षुण्ण रखा जाना चाहिए। घर के लोगों का, पति का काम है, परिवार के लोगों का काम है कि गर्भवती का स्वभाव और संस्कार बढ़िया बनाकर रखें। उसको हँसी−खुशी के वातावरण में रखा जाए और इस तरह की परिस्थितियों से उसको दूर रखा जाए जिसमें उसको भय पैदा होता हो, चिंता पैदा होती हो, रोष पैदा होता हो, क्लेश पैदा होता हो। इस तरह की मनोभूमि यदि माता की रखी गई है तो निस्संदेह बालक का व्यक्तित्व निखरता हुआ चला जाएगा।
महाभारत में एक कथा आती है कि अभिमन्यु जब अपनी माँ के पेट में था, तब उसको कुछ शिक्षा की जरूरत थी। उसके पिता अर्जुन ने चक्रव्यूह−भेदन की क्रिया अपनी धर्मपत्नी को सुनानी शुरू की और वह बालक, जो पेट के अंदर बैठा हुआ था, महाभारत की कथा के अनुसार वह सारी−की−सारी विधियों और चक्रव्यूह भेदने का विज्ञान सातवें सोपान तक सीखता हुआ चला गया। भेदन का अंतिम क्रम वह सुन नहीं पाया। जब वह पैदा हुआ, बड़ा हुआ तो उसे वह मौका भी नहीं मिला था कि यदि चक्रव्यूह की लड़ाई लड़नी पड़े तो कैसे लड़ना चाहिए, लेकिन जब चक्रव्यूह भेदने का समय आया तो उसने अपने पिता से माता के पेट में रहते हुए जो ज्ञान सीखा था, वह सारा−का−सारा ज्ञान अनायास ही जाग्रत हो गया और अनायास ही वह काम करने लगा जो बड़े बड़े शूरवीरों को नहीं आता था। चक्रव्यूह के छह चक्र उसने भेद डाले। सातवाँ चक्र किसी तरीके से छल−कपट के आड़े आ गया तो बेचारा मारा भी गया, लेकिन अभिमन्यु का शिक्षण माता−पिता ने उस समय किया था, जब वह माता के पेट में था।
अनिवार्य है संयम
साथियो! माता को संयम और ब्रह्मचर्य के वातावरण में रखा जाना चाहिए, अगर बच्चे को कामुक नहीं बनाना है तब। कई माता−पिता भूल जाते हैं और यह समझते हैं कि कोई बालक तो है नहीं, हम अकेले हैं। अकेले समय में तरह−तरह के अश्लील क्रियाकलाप आपस में करते रहते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि लोग वे बातें, जो गर्भवती के साथ नहीं की जानी चाहिए, करने लगते हैं। छोटा बच्चा, जो पेट में बैठा हुआ है, उन सारी प्रक्रियाओं को, सारी संवेदनाओं को ग्रहण करता हुआ चला जाता है और जब पैदा होता हैं तो उसमें कामुकता के सारे संस्कार पाए जाते हैं। कई बार ऐसा देखा गया है कि बहुत छोटे बच्चे, जिनको ठीक तरह से बोलना भी नहीं आता और दुनिया की जानकारी भी नहीं है, उन्हें काम क्रिया की ओर अग्रसर होते पाया गया है। इसका कारण सिर्फ यही है कि वे सारे−के−सारे क्रियाकलाप उसने माँ−बाप के बीच होते हुए अश्लील व्यवहार के रूप में उस समय सीख लिए, जब वह पेट में था।
वस्तुतः जब बच्चा पेट में होता है तो परिवार का सारा वातावरण ही उसका शिक्षण करता है। स्कूल में अध्यापक और प्रोफेसर कितने ही होते हैं, कोई कुछ पढ़ाता है, कोई कुछ पढ़ाता है, लेकिन असली−वास्तविक प्रोफेसर वे लोग होते हैं जिनके संपर्क में गर्भवती को रहना पड़ता है। घर के लोग जिस स्वभाव के होते हैं, जिस तरह के होते हैं, जिस आचरण के होते हैं, वही वास्तव में बच्चे के प्रोफेसर हैं। अच्छे बालक का निर्माण करने के लिए भगवान राम ने यह आवश्यक समझा कि अपनी धर्मपत्नी सीता जी को वहाँ भेज दिया जाए, जहाँ संस्कारवान वातावरण हो। लव−कुश जब पेट में थे, तब महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में उन्होंने सीता जी को भेज दिया, जहाँ साधना का वातावरण था, तपश्चर्या का वातावरण था, जहाँ ज्ञान का वातावरण था, जहाँ भक्ति का वातावरण था। उस सुसंस्कारित वातावरण में रहकर न केवल सीता का दुःख और शोक समाप्त हो गया, वरन् जो पेट में रहने वाले बालक थे, उनका भी न जाने क्या−से−क्या हो गया।
बालकों का शिक्षण, बालकों का निर्माण वास्तव में ये सारी−की−सारी जिम्मेदारियाँ माता−पिता की हैं। जब तक बालक उत्पन्न नहीं हुआ है, उससे पहले पोषक आहार के रूप में वे चीजें माता को देनी चाहिए, जो सात्विक आहार के रूप में कही जा सकती हैं। माता के स्वास्थ्य की रक्षा करने का प्रयत्न उस समय करना चाहिए, जब वह गर्भवती है। भविष्य में बालक के स्वास्थ्य की गारण्टी इस बात के ऊपर टिकी हुई है कि गर्भावस्था में माता ने क्या खाया? माता ने क्या पहना? किस वातावरण में रही और उसकी मनःस्थिति किस तरह की रही? इस तरह की व्यवस्था बनाना पिता का काम है।
जिम्मेदारी पिता की भी
मित्रो! बच्चे का निर्माण करना केवल माता का काम नहीं है, पिता की भी जिम्मेदारी है। परिस्थितियाँ माता किस तरह से बना सकती है? अगर घर में क्षोभ का वातावरण है तो उसका सुधार करना, उसकी व्यवस्था को बनाना पिता का काम है। अगर गर्भवती को उचित आहार प्राप्त नहीं होता है तो उसकी जिम्मेदारी उसके पिता की है। बेचारी गर्भवती स्त्री किस तरीके से क्या−क्या कर सकती है? घर के लोगों का स्वभाव अच्छा नहीं है, दूषित है, कलुषित है तो उस स्त्री को कहाँ रखा जाए या घरवालों को क्या कहा जाए? स्थिति को कैसे सुधारा जाए, यह सोचना गर्भवती का काम नहीं है, बल्कि उसके पिता का काम है। बच्चे का निर्माण यहाँ से प्रारंभ होता है। बच्चे के बारे में ये बातें हर किसी को समझनी चाहिए।
कहा जाता है कि पिण्डदान देने वाला न हो तो पिता नरक को चला जाता है। कर्मकाण्ड में जहाँ तक पिण्डदान का संबंध है, उसके बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकता, लेकिन जहाँ तक बालक के क्रियाकलाप और पिंड का संबंध है, जहाँ तक उसके शरीररूपी पिंड का संबंध है, जहाँ तक उसके मनरूपी पिंड का संबंध है। अगर बालक का पिंड अर्थात् शरीर, बालक का व्यक्तित्व पिंड सही है, ठीक है, अच्छा है तो पिता को स्वर्ग में जाना ही पड़ेगा। क्यों? क्योंकि समाज की सेवा के लिए उसने अपना एक प्रतिनिधि प्रस्तुत किया। उसने एक ऐसा सुयोग्य प्रतिनिधि प्रस्तुत किया जो समाज की सेवा के लिए और दुनिया में श्रेष्ठ काम करने के लिए, दुनिया में शान्ति पैदा करने के लिए अपना जीवन लगा सकने में समर्थ हुआ। क्या यह समाज की सेवा नहीं है? हाँ समाज की सेवा है, अगर अच्छा व्यक्ति अपने बालक के रूप में, अपनी संतान के रूप में अपना प्रतिनिधि बना करके समाज को दे। यह कार्य पिता का है, साथ में माता का भी।
इस तरीके से अगर किसी ने सुयोग्य संतान पैदा की है तो वह निस्संदेह स्वर्ग को जाएगा। उसने समाज की बड़ी सेवा की, एक श्रेष्ठ व्यक्ति समाज को दिया, लेकिन कोई व्यक्ति यदि काम−वासना से पीड़ित होकर और बच्चों का मोह एवं व्यामोह, जो कि आजकल समाज में फैला हुआ है, उसी तरीके से बिना सोचे−विचारे बच्चे पैदा करने लगा और उसको संस्कारवान नहीं बना सका। पत्नी जिस समय गर्भवती थी, उसके लिए सुयोग्य व्यवस्था नहीं बना सका। अपनी मनोभूमि को ठीक नहीं कर सका, परिवार का वातावरण श्रेष्ठ नहीं बना सका। बच्चे का विकास करने के लिए, उसके विनोद के लिए जिन परिस्थितियों और वातावरण की आवश्यकता थी, वह नहीं दे सका। फलस्वरूप यदि बालक निकम्मा और दुष्ट हो गया, नीच और कुमार्गगामी हो गया, समाज में अनाचार पैदा करने वाला हो गया तो उस अनाचार पैदा करने वाले बालक को जिसने जन्म दिया है, ऐसा बनाने का दोष जिसके ऊपर है, उसको नरक में जाना चाहिए, क्योंकि समाज में उसने एक ऐसी विकृति पैदा की है, जो अगर वह न करता तो शायद दुनिया में ज्यादा शान्ति बनी रहती और सुव्यवस्था बनी रहती। इस मायने में बच्चे के द्वारा और संतान के द्वारा पिता नरक में जाता हो तो प्रकारान्तर से यह बात आलंकारिक रूप से सही मानी जा सकती है, क्योंकि उसके जिम्मेदार माता और पिता हैं।
दायित्व दोनों का बराबर
मित्रो! न केवल पिता के बारे में यह पिण्डदान की बात कही जानी चाहिए, वरन् माता के बारे में भी कही जानी चाहिए। माता को भी स्वर्ग और नरक इसी रूप में मिलता है कि उसने किस तरह की संतान उत्पन्न की और वह समाज के लिए उपयोगी साबित हुई या अनुपयोगी। किसी की अनुपयोगी संतान है तो समझना चाहिए कि इसके कुपात्र माता−पिता अपने बच्चे के निर्माण करने की जिम्मेदारी से परिचित नहीं थे और जो उन्हें करना चाहिए था, वह नहीं कर सके। काम−वासना को पाप इस रूप में माना गया है कि यदि उसके परिणामस्वरूप कुयोग्य, बीमार और अयोग्य संतानें उत्पन्न हों और वे जमीन पर भार बनकर रहें तो काम−वासना वस्तुतः नरक में ले जाने वाली है। परिष्कृत कामबीज स्वर्ग में ले जाने वाला भी है, यदि उसके फलस्वरूप इस तरह की संतानें हों, जैसे कि महात्मा गाँधी थे, विनोबा भावे जैसे थे, विवेकानन्द जैसे थे, शंकराचार्य जैसे थे। ऐसे समर्थ व्यक्ति को जिन माता−पिता ने जन्म दिया, उनकी प्रशंसा ही की जाएगी।
माता−पिता मात्र दो का ही उत्तरदायित्व बच्चों के निर्माण में नहीं है, वरन् उस कुटुँब का उत्तरदायित्व भी है। मान लीजिए माता−पिता भले आदमी हैं, सज्जन हैं, श्रेष्ठ हैं, लेकिन माता−पिता के बीच में बालक अकेला तो रहता नहीं है। ऐसा तो कभी−कभी होता है और कहीं−कहीं होता है कि माता−पिता और उनका बालक के अतिरिक्त कोई कुटुँब का व्यक्ति न हो।
चाचा−ताऊ, भाई−भतीजे, बाबा−दादी न जाने कौन−कौन घर में रहते हैं। अपने देश में संयुक्त परिवार की प्रणाली है और एक ही घर में, एक ही खानदान में, एक ही कुटुँब में एक ही मकान के भीतर अनेक व्यक्ति रहते हैं। अनेक व्यक्तियों की छाप पड़ती है। मान लीजिए पिता बीड़ी−तंबाकू नहीं पीते और कोई बुरा काम नहीं करते, लेकिन उसी घर के दूसरे लोग गालियाँ बकते हैं, तंबाकू पीते हैं, माँस खाते हैं, लड़ाई−झगड़ा करते हैं, बुरे आचरण करते हैं तो गर्भ से निकलने के बाद केवल माता−पिता तक ही बालक सीमित नहीं रहेगा। गर्भ में जब तक है, तब तक तो यह बात कही जा सकती है कि उसके ऊपर बहुत सारा असर माता का होता है, थोड़ा असर पिता का रहता है।
सान्निध्य का, वातावरण का शिशु पर प्रभाव
मित्रो! पिता हर समय बालक के संपर्क में नहीं आता और बच्चा जब पैदा होता है तो सारे-के-सारे कुटुंब का उस पर असर पड़ता है। जिसके द्वारा गोदी में खिलाया जाता है वह अगर को कुसंस्कारवान है, दुराचारी है, अनाचारी है, अत्याचारी है और वह उसको खिलाता है तो बच्चों का अच्छा निर्माण नहीं हो सकता। कई व्यक्ति ऐसा करते हैं कि अपने बच्चे के पालन-पोषण के लिए नौकर रखते हैं। नौकर ही तमाम दिन उसे खिलाते हैं, नहलाते हैं, नौकर ही कपड़े धोते हैं, नौकर ही गोदी में लिए फिरते हैं। कई व्यक्ति अपनी धर्म पत्नियों को दूध नहीं पिलाने देते और धाय का दूध पिलाती है और जो नौकर बच्चों को खिलाते हैं, उनका प्रभाव बच्चे पर पड़ना ही चाहिए, क्योंकि बच्चा बहुत संवेदनशील होता है।
पाँच वर्ष के भीतर बच्चे की संवेदना इतनी तीव्र होती है कि जहाँ कहीं भी, जिसके भी संपर्क में आएगा, उससे कुछ−न−कुछ प्रभाव ग्रहण किए बिना नहीं रह सकता। जब वह बड़ी उम्र का हो जाता है और उसकी अक्ल विकसित हो जाती है, तब तो वह काट−छाँट करने लगता है कि किसका प्रभाव ग्रहण किया जाए, किसका न किया जाए, किसकी उपेक्षा की जाए, किसको प्रेम किया जाए, किसकी ओर आकर्षित हुआ जाए और किसकी ओर न हुआ जाए। पाँच वर्ष के बाद तो उसकी बहुत−सी चीजें विकसित हो जाती हैं, लेकिन बहुत छोटा बालक इस बात को नहीं कर पाता और जो भी कोई वातावरण उसके आस-पास होता है, उससे प्रभावित हो जाता है। अगर गोदी में खिलाने वाले लोग कुसंस्कारी हैं, दुष्ट स्वभाव के हैं, बुरी वृत्तियों के हैं, जो धाय उनके लिए दूध पिलाने के लिए रखी गई है अथवा कुटुँबी लोग जो उनको खिलाते−पिलाते रहते हैं, वे अगर बुरे स्वभाव के हैं, तो बच्चे का अच्छा निर्माण नहीं हो सकता।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए पहले भी कहा जा चुका है कि बच्चे पैदा करना बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि अगर हमने समाज को कुसंस्कारी बालक दिया है तो समाज की कुसेवा की है, बहुत बड़ी हानि की है। हमने अगर समाज के लिए एक अच्छी संतान और सुयोग्य संतान बना कर दी है तो समझना चाहिए कि भामाशाह ने राणा प्रताप को जैसे प्रचुर धन दिया था और समाज की बड़ी सेवा की थी, उसी तरीके से हम भी बड़ी सेवा कर रहे हैं।
बच्चों का निर्माण घर की पाठशाला में
मित्रो! बच्चों का निर्माण घर की पाठशाला में होता है। अतः घर को एक पाठशाला के तरीके से बनाया जाना चाहिए। बालक घर में जो क्रियाकलाप होते हुए देखेगा, उसी की छाप उस पर पड़ेगी। अगर घर में सफाई रखी जाती है तो बालक का स्वभाव छोटी उम्र से सफाई वाला हो जाएगा। घर के वातावरण में अगर गंदगी फैली हुई है तो बच्चा गंदा हो जाएगा। सही मायने में तो बात यह है कि बच्चा अपने पिता का पिता है और गुरु का गुरु है, क्योंकि उसको ठीक रखने के लिए लोगों को सतर्क रहना पड़ता है। जब कहीं घर में पुलिस आती है तो चोरी की चीजें अगर घर में रखी हैं तो हर आदमी उसे छिपा देता है। पुलिस आ गई और कहीं ऐसा न हो कि वह पकड़ में आ जाए, इसलिए उसे छिपा देते हैं। बच्चा एक तरह की पुलिस है। समझदार आदमी और जिम्मेदार आदमी अगर इस बात को अनुभव करते हैं कि यह हमसे कुछ सीखने वाला है तो कोई ऐसा क्रियाकलाप नहीं करते, जिसको बच्चा सीख जाए।
मित्रो! जब तक बच्चा बड़ा नहीं हो जाता, तब तक माता−पिता को अश्लील क्रियाएँ नहीं करनी चाहिए। उन्हें यह ख्याल नहीं करना चाहिए कि यह तो छोटा सा बालक है, यह बेचारा क्या समझेगा? इसे दुनियादारी का ज्ञान ही कहाँ है? हम हँसते-खेलते रहें और गंदी बातें करते रहें तो इस पर क्या असर पड़ने वाला है? यह समझना माता-पिता की बहुत भारी भूल है। वास्तव में छोटा बच्चा इतना अधिक जानकार होता है, जितना बड़ा आदमी नहीं होता। बड़ा आदमी सो जाता है तो बेखबर हो जाता है, लेकिन बच्चा जिस समय सोया रहता है, उसका अचेतन मन बहुत तीव्र गति से काम करता रहता है और माता-पिता क्या करते हैं, उसको बहुत बारीकी से, गौर से देखता रहता है। न केवल देखता रहता है, वरन् सीखता भी है। न केवल सीखता रहता है, वरन् अपने भीतर के चरित्र का निर्माण भी करता रहता है। घर की पाठशाला में ही, वास्तव में बच्चों का निर्माण किया जा सकता है।
परमपूज्य गुरुदेव के उद्बोधन के विगत अंक में प्रकाशित अंश का उत्तरार्द्ध
मित्रो! यह ख्याल सही नहीं है कि अमुक जगह, अमुक कॉलेज, अमुक विद्यालय या अमुक स्कूल में भेज देंगे तो हमारे बच्चे योग्य बन जाएँगे और संस्कारवान बन जाएँगे। जब हम बच्चों को स्कूल−कॉलेजों में पढ़ने के लिए भेजते हैं, विद्यालय में भेजते हैं, उस समय तक उसकी वह उम्र समाप्त हो जाती है, जिसमें बच्चे का निर्माण किया जाना संभव है। छोटे बालक किसी स्कूल में नहीं लिए जा सकते और न माता−पिता के बिना रखे जा सकते हैं। माता−पिता को अपने बालकों से पूरा प्रेम करना चाहिए। जो माता−पिता आपस में प्रेम नहीं रख सकते, वे बच्चों को भी प्रेम नहीं कर सकते। माता−पिता के बीच अनन्य प्रेम होना चाहिए और अनन्य निष्ठा होनी चाहिए। उन दोनों के बीच ऐसा कोई कारण नहीं होना चाहिए जिससे दोनों के बीच में अविश्वास और मनोमालिन्य पैदा हो। व्यभिचार एक ऐसी ही प्रक्रिया है। अगर पिता दुराचारी है, व्यभिचारी है तो माता के मन में अविश्वास बना रहेगा, संदेह बना रहेगा, मनोमालिन्य बना रहेगा। खाने−पीने की सुविधाओं के होते हुए भी यह मनोमालिन्य और अविश्वास सतत बना रहेगा और आगे जाकर यही उनके बच्चों पर प्रभाव डालेगा।
मित्रो! माता अपने बच्चे को दूध पिलाती है। इस दूध के साथ में केवल दूध ही नहीं जाता, प्रोटीन ही नहीं जाता, केवल स्टार्च ही नहीं जाता, केवल फैट ही नहीं जाता, वरन् माता के संस्कार भी जाते हैं। उन दिनों में माता के संस्कार और स्वभाव जैसा है, मनःस्थिति जैसी है, उसी तरह का प्रायः बालक बन जाता है।
ठीक इसी प्रकार माता का मन, माता का स्वभाव और माता की मनःस्थिति जैसी होती है, उसी के अनुरूप बच्चा पैदा होता है। अगर धर्मपत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। उसकी मनःस्थिति ऐसी नहीं है कि वह समर्थ और सुयोग्य बच्चा पैदा करने में समर्थ हो तो उसके ऊपर अत्याचार नहीं किया जाना चाहिए। अगर पिता ने उसकी गोदी में जबरदस्ती बच्चा धकेल दिया है और माता की मनःस्थिति ठीक नहीं है, उसकी शारीरिक स्थिति भी ठीक नहीं है तो वह अच्छा बच्चा कैसे पैदा करेगी? स्वस्थ बच्चा कैसे पैदा करेगी? अगर वह शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ बच्चा पैदा भी कर दे तो वह बच्चा मानसिक सृष्टि से स्वस्थ नहीं हो सकता। मानसिक दृष्टि से वह एक बीमार बच्चा ही पैदा होगा। उससे समाज का नुकसान ही होगा।
अतएव न केवल पाँच वर्ष तक, वरन् उससे आगे भी हर माता−पिता को यह ध्यान रखना चाहिए कि स्कूलों और कॉलेजों के ऊपर आज बहुत निर्भर नहीं रहा जा सकता। कोई जमाना था, जब बच्चे वहाँ रहा करते थे, जहाँ उनको शिक्षण के साथ−साथ व्यावहारिक ज्ञान, व्यावहारिक कुशलता, जीवन जीने की कला और जीवन जीने की दिशाओं का बहुत सारा शिक्षण मिलता था। वे चौबीसों घंटे वहीं गुरुकुलों में रहा करते थे। उस जमाने में जो गुरु हुआ करते थे और गुरुमाताएँ होती थीं, वे उन्हें वैसा ही स्नेह, वैसा ही प्रेम प्रदान करते थे, जैसा कि माता−पिता से मिलता है। उस वातावरण में यह संभव था कि स्कूलों में, गुरुकुलों में बच्चों को भेजने के बाद निश्चिंत हो जाया कि वहाँ का संस्कारवान वातावरण है, सो वह मिलेगा ही।
मित्रो! आज तो सिर्फ थोड़े−से घंटों के लिए दो चार−घंटे के लिए बच्चे स्कूल में पढ़ने जाते हैं। दो−चार घंटे के स्कूल में भी कोई नैतिक शिक्षण होता नहीं, चारित्रिक शिक्षण होता नहीं। व्यक्तित्व के निर्माण करने की कोई बात होती नहीं और न इस प्रकार की कोई व्यवस्था ही वहाँ पर होती है। केवल भूगोल, गणित, इतिहास वगैरह पढ़ा दिए जाते हैं। सो भी एक आदमी नहीं, इसके लिए ढेरों अध्यापक आते हैं। कोई गणित पढ़ा गया, कोई भूगोल पढ़ा गया, कोई इतिहास पढ़ा गया, कोई क्या पढ़ा गया, कोई क्या पढ़ा गया। पैंतालीस−पैंतालीस मिनट का तमाशा दिखा करके नट और कठपुतलियों के तरीके से अध्यापक भाग जाते हैं।
साथियो! उनसे यह आशा करना व्यर्थ है कि ये हमारे बच्चे को कुछ सिखा सकते हैं और पढ़ा सकते हैं। स्कूल और कॉलेज में पढ़ने के बाद हमारा बच्चा सुयोग्य और सुसंस्कारी बन सकता है, यह सोचना मुनासिब नहीं है और यह ख्वाब, यह कल्पना ठीक नहीं है, क्योंकि चार−पाँच घंटे स्कूल में रहने के बाद, चौबीस घंटे में बाकी अठारह घंटे जो बच जाते हैं, उसमें से तो ज्यादातर वक्त बच्चा अपने घर के वातावरण में ही बिताता है। स्कूल में वह गणित, भूगोल पढ़ सकता है, लेकिन स्कूल में वह चरित्र कैसे पड़ेगा? घर के लोग जिस स्वभाव के होंगे, जिस नीयत के होंगे, जिस क्रियाकलाप के होंगे, बच्चा ठीक वैसा ही बन जाएगा।
इसलिए यह आवश्यक है कि अगर किसी को बच्चा उत्पन्न करना है तो बच्चे को उत्पन्न करने के साथ−साथ उसके निर्माण की जिम्मेदारी को भी समझना चाहिए। मात्र खिलाने−पिलाने की जिम्मेदारी को ही नहीं, कपड़ा पहनाने की जिम्मेदारी को ही नहीं, ब्याह−शादी करने की जिम्मेदारी को जिम्मेदारी निभाना नहीं कहते। बच्चे को काम−धंधे पर लगाने की जिम्मेदारी को जिम्मेदारी नहीं कहते। वास्तव में अस्सी फीसदी जिम्मेदारी माता−पिता के ऊपर यह है कि वे अपने बालकों को संस्कारवान बनाएँ, चरित्रवान बनाएँ, सुयोग्य एवं विकसित व्यक्तित्व का बनाएँ। यह कार्य कोई किताब खरीद देने से या उसको खुराक खिला देने से या किसी कॉलेज में भरती करा देने से नहीं हो सकता। इसके लिए सारे घर का वातावरण ठीक करना पड़ेगा। खास करके माता−पिता को तो अपनी मनःस्थिति को जरूर ही ठीक करना पड़ेगा।
अगर परिवार में संस्कार डालने की व्यवस्था नहीं है और वह संयुक्त परिवार के अंतर्गत चल रहा है तो परिवार को टुकड़ों में बाँटा जा सकता है और कुसंस्कारी लोगों से संस्कारवान लोगों को अलग रखा जा सकता है। देखने−सुनने में यह बात भद्दी मालूम पड़ती है कि एक ही संयुक्त परिवार के लोग कई हिस्सों में बँटें और कई तरीके से रहें, लेकिन बालकों को जहाँ कुसंस्कारी बनाने की संभावना हो, वहाँ संयुक्त परिवार को छोटे टुकड़ों में बाँट दिया जाए और उनके लिए वातावरण अलग से बना दिया जाए। मैं समझता हूँ कि यह कोई ज्यादा बुराई की बात नहीं है। संयुक्त परिवार वैसे भी ढीले होते चले जा रहे हैं। जिन लोगों के मन एक से नहीं हैं, जिन लोगों के स्वभाव एक से नहीं है, जिन लोगों के कर्म एक से नहीं हैं, प्रेम जिनके बीच नहीं है, विश्वास जिनमें नहीं है, उन्हें नारंगी की फाँक के तरीके से बाहर से जोड़कर किसी तरह से रखा जाए तो उससे क्या बनता है? क्या बिगड़ता है? इससे तो यह अच्छा है कि भले लोग कुसंस्कारी लोगों से अलग रहें और आपस में प्रेमभाव रखें, आपस में सहयोग का भाव रखें, एक दूसरे की सहायता करें, एक दूसरे को आगे बढ़ाएँ। इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है।
जो भी हो मित्रो! बच्चों को छोटी उम्र से लेकर बड़ी उम्र तक इस तरह की परिस्थितियाँ मिलनी चाहिए, जिसको हम ‘संस्कार’ कहते हैं। खुराक आवश्यक नहीं है, संस्कार आवश्यक है। संस्कार के लिए सारे वातावरण को ही बदलना पड़ेगा। माता−पिता जब आपस में बैठा करें, बातचीत किया करें तो जिस समय तक बच्चा पाँच वर्ष का नहीं हो गया है, उस समय तक दोनों जब भी मिला करें, अश्लील बातें नहीं किया करें। लड़ाई−झगड़े की बात नहीं किया करें। अच्छा यह है कि दोनों मिल करके थोड़ी देर स्वाध्याय किया करें। पिता−माता को ऐसी पुस्तकें पढ़कर सुनाया करे जैसी कि सुभद्रा को सुनाई गई थी, जब अभिमन्यु पेट में था। पिता का यह भी काम है कि पत्नी को अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए दे। जहाँ उसका निवास है, वहाँ गंदी तस्वीरें नहीं, एक−से−एक अच्छे आदर्श महापुरुषों की तस्वीरें लगाकर रखें। जब कभी भी आँख ऊपर के लिए जाए तो अपनी धर्मपत्नी को उन श्रेष्ठ मनुष्यों का चरित्र और उनका स्वभाव देखने−समझने का ही मौका मिले। धर्मपत्नी को अच्छी पुस्तकें पढ़ने का मौका दिया जाए, अच्छे लोगों की संगति में बैठने का मौका दिया जाए। अच्छे व्याख्यान सुनने और प्रवचन करने की व्यवस्था बनाई जाए।
अगर ये सब बातें संभव नहीं हों तो कम−से−कम इतना तो किया ही जा सकता है कि अपने बच्चे का निर्माण करने के लिए पत्नी की मनोभूमि को बनाया जाए। पत्नी की मनोभूमि को बनाने के लिए बच्चे के पिता को चाहिए कि वह अपने समय में से थोड़ा−सा एक अंश निकाले और अपनी धर्मपत्नी को समझाए। अगर उसे स्वयं समझाना नहीं आता तो जिन लोगों को समझाना आता है, उनकी लिखी हुई पुस्तकें, ग्रंथ या कोई कहानी उसको सुनाया करें, समझाया करें। इतना तो हो ही सकता है। अगर इतना भी कोई पिता नहीं कर सकता तो यह कैसे कहा जाएगा कि वह अपने बच्चे की जिम्मेदारी को अनुभव करता है।
मित्रो! घर के वातावरण में प्रेम की संभावनाएँ रहनी चाहिए। जिन बालकों को प्रेम नहीं मिलता, वे क्रूर हो जाते हैं, उजड्ड हो जाते हैं और गँवार हो जाते हैं। आदमी की खुराक रोटी नहीं है, आदमी की खुराक घी नहीं है, आदमी की खुराक प्यार है, मोहब्बत है। छोटा बच्चा जितनी अपेक्षा दूध की करता है, उससे सौ गुनी ज्यादा अपेक्षा वह इस बात की करता है कि उसको पिता का प्यार मिले, माता का प्यार मिले। माता−पिता को अपने बच्चे को पास भी रखना चाहिए। उनके साथ खेलना भी चाहिए। अक्सर पिता ऐसे पाए जाते हैं, जो इस बात का ख्याल नहीं करते कि हमको इन बच्चों के साथ में खेलना चाहिए। इनको खिलाना चाहिए, ताकि हमारे संस्कार और प्रेम का प्रभाव इनको अनुभव होता चला जाए। जो सारे दिन काम−धंधे में लगे रहते हैं। जब छूट करके घर आते हैं तो ताश खेलने में, रेडियो सुनने में और मित्रों से गप−शप लड़ाने में लग जाते हैं। कभी बेचारे बच्चों को यह अनुभव न हो सका कि हमारा पिता कौन है और पिता की मोहब्बत किसे कहते हैं? बस, अच्छा कपड़ा पहना दिया, अच्छी मिठाई खिला दी। अच्छे से समाज में बिठा दिया। ये भी कोई बात है क्या? यह तो शरीर की सेवा हुई।
बच्चों के शरीर की सेवा ही काफी नहीं है, मन की सेवा आवश्यक है। मन की खुराक किसी व्यक्ति की उसकी मोहब्बत होती है। मोहब्बत के द्वारा जिन माता पिता ने अथवा लोगों ने बच्चों का निर्माण किया है, वास्तव में उन्होंने अपने बालकों की बहुत बड़ी सेवा की है। जिन्होंने बच्चों को प्यार दिया नहीं, बच्चों को गोदी में खिलाया नहीं, बच्चों को कहानियाँ सुनाई नहीं, बच्चों को साथ लेकर टहलने गए नहीं और बच्चों के साथ में समय व्यतीत किया नहीं, उन्हें यह समझना चाहिए कि बच्चों के प्रति अपने फर्ज और कर्तव्य की जिम्मेदारी उन्होंने पूरी नहीं की।
मित्रो! बच्चों का निर्माण करने के लिए हमको उनके खेलकूद की व्यवस्था करनी चाहिए। उनके पढ़ने की व्यवस्था करनी चाहिए। अच्छे कपड़े की व्यवस्था करनी चाहिए। उनके लिए अच्छी खुराक की व्यवस्था करनी चाहिए। ये सब बातें आवश्यक है। हम रोज पढ़ते हैं और हमको बताई भी जाती हैं, लेकिन उससे भी हजार गुनी महत्त्वपूर्ण बात यह है, जिसकी ओर लोगों का ध्यान नहीं गया कि बच्चों को संस्कारवान बनाने के लिए वातावरण की जरूरत है। मनःस्थिति की जरूरत है। माता−पिता को संस्कारवान होने की जरूरत है। अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तो मैं समझता हूँ कि यह शिक्षा इतनी बड़ी है कि हम भावी पीढ़ियों को इतनी अच्छी और सुसंस्कारवान बना सकते हैं, जो पिता के लिए भी संतोषदायक हो, माता के लिए भी आनंददायक हो। घर परिवार के लोगों के लिए भी और हरेक के लिए विभूति और अच्छाई का कारण हो। समाज के लिए भला अनुदान दे सकने वाली हो।
नई पीढ़ियों का निर्माण करना और घर के वातावरण को अच्छा रखना और बुढ़ापे में अपना जीवन शान्ति से व्यतीत करना, इस बात के ऊपर टिका हुआ है कि हमने अपने बच्चों से संस्कारवान बनाया कि नहीं? बच्चों को संस्कारवान बनाने के लिए हमको यह प्रयत्न करना चाहिए कि बच्चों को जन्म लेने से पहले से लेकर के जब तक वह कम−से−कम पाँच वर्ष के नहीं हो जाते, उस वक्त तक बहुत अधिक ध्यान रखें। पाँच वर्ष के होने के पश्चात ही घर की परिस्थितियों को, बच्चों की संगति को, बच्चों के वातावरण को और बच्चों के साथियों पर गौर करें और यह देखें कि कहीं हमारा बच्चा कुमार्गगामी तो नहीं हो रहा है। इस तरह का ध्यान अगर रखा जा सके तो बच्चों के निर्माण की दिशा में बहुत महत्त्वपूर्ण कदम उठाया गया, यह माना जा सकता है। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥