उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
साथियो !
युग-निर्माण परिवार का गठन एक प्रयोगशाला के रूप में हुआ है। प्रयोगशाला में रासायनिक पदार्थ तैयार किए जाते है और उसके परिणाम को सर्वसाधारण के सामने उपस्थित किया जाता है। युग-निर्माण परिवार का गठन एक पाठशाला के तरीके से हुआ है, जहाँविद्यार्थी पढ़ाए जाते हैं और पढ़-लिखकर के वे समाज क महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को सँभालते हैं। गायत्री परिवार का गठन एक व्यायामशाला करते हैं और पहलवान बनकर के दंगल में कुश्तियाँ पछाड़ते हैं। युग-निर्माण परिवार का गठन नर्सरी के तरीके से किया गयाहै, जिसमें छोटे-छोटे फलदार पौधे तैयार किये जाते हैं और यहाँ पैदा होने के बाद दूसरे बगीचों में भेज दिये जाते हैं, जहाँ बड़े-बड़े उद्यान-बगीचे बनकर तैयार होते हैं। युग-निर्माण परिवार का गठन एक कृषि फार्म के तरीके से हुआ है। कृषि फार्म में छोटे-छोटे प्रयोग गन्नेके, सोयाबीन के, अमुक के, तमुक के किए जाते हैं और उसके जो निष्कर्ष निकलते हैं, वह सब लोगों को मालूम पड़ते हैं और उसी आधार पर वे अपने-अपने कृषि कार्य को आरम्भ करते हैं। व्यक्तित्वों के निर्माण की एक प्रयोगशाला के रूप में, पाठशाला के रूप में, व्यायामशाला के रूप में, नर्सरी के रूप में और कृषि फार्म के रूप में युग-निर्माण परिवार का गठन किया गया है। हम चाहते हैं कि व्यक्ति बदल जाएँ और ऊँचे उठें, क्योंकि हम समाज को ऊँचा उठाना चाहते हैं, समुन्नत बनाना चाहते हैं।
आखिर समाज है क्या? समाज व्यक्तियों का समूह मात्र है। व्यक्ति जैसे होंगे वैसे ही तो समाज बनेगा। समाज कोई अलग चीज नहीं है, वरन् व्यक्तियों के समूह का नाम है। इसलिए व्यक्तियों को श्रेष्ठ बनाने का मतलब है—समय को अच्छा बनाना और समय कोअच्छा बनाने का मतलब है—युग के प्रवाह को बदल देना। युग का प्रवाह बदल देना अर्थात् समाज को बदल देना। समाज को बदल लेना अर्थात् व्यक्तियों को बदल देना—यही हमारा उद्देश्य है। इसी क्रियाकलाप के लिए और इसी परिवर्तन के लिए हम लगे हुए हैं औरयुग-निर्माण का जो नारा लगाते हैं, उसका मतलब ही यह है कि हम युग बदलेंगे, समाज बदलेंगे और व्यक्ति बदलेंगे। बदलने के लिए हम व्यापक क्षेत्र में प्रयोग नहीं कर सकते। अतः छोटे क्षेत्र में हम प्रयोग करते हैं, ताकि इसकी देखा-देखी इसका अनुकरण करते हुएअन्यत्र भी यही परम्पराएँ चलें, अन्यत्र भी इसी तरीके के क्रियाकलाप चालू किए जा सकें। बाहर की परिस्थितियाँ मन की स्थिति के ऊपर निर्भर हैं। मन जैसा भी हमारा होता है, परिस्थितियाँ उसके अनुरूप बननी शुरू हो जाती हैं। हम इच्छाओं से हमारा मस्तिष्क कामकरता है। मस्तिष्क की गणनाओं से शरीर काम करता है। शरीर और मस्तिष्क दोनों ही हमारी अन्तरात्मा की, अन्तःकरण की प्रेरणा से काम करते हैं। इसलिए जरूरत को, आन्तरिक मान्यताओं को, निष्ठाओं को परिवर्तित कर दिया जाए तो जीवन का सारा का साराढाँचा ही बदल जाएगा।
मनुष्य के सामने असंख्य समस्याएँ है और उन असंख्य समस्याओं का समाधान केवल इस बात पर टिका हुआ है कि हमारी आन्तरिक स्थिति सही बना दी जाए। दृष्टिकोण हमारा गलत होता है, जो हमारे क्रियाकलाप गलत होता है और गलत क्रियाकलाप केपरिणामस्वरूप जो प्रतिक्रियाएँ होती हैं, जो परिणाम सामने आते हैं, वे भयंकर दुःखदाई होते है। कष्टकारक परिस्थितियों के निवारण करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य का चिन्तन और शिक्षण बदल दिया जाए, परिष्कृत कर दिया जाए। यही हैं हमारे प्रयास, जिसकेलिए हम अपनी समस्त शक्ति के साथ लगे हुए हैं।
मनुष्य के आन्तरिक उत्थान, आन्तरिक उत्कर्ष, आत्मिक विकास के लिए करना चाहिए और कैसे करना चाहिए? इसका समाधान करने के लिए हमको चार बातें तलाश करनी पड़ती हैं। इन्हीं चार चीजों के आधार पर हमारी आत्मिक उन्नति टिकी हुई है और वे चारआधार हैं—साधना, स्वाध्याय, संयम, और सेवा। ये चारों ऐसे हैं जिनमें से एक को भी आत्मोत्कर्ष के लिए छोड़ा नहीं जा सकता। इनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जिसके बिना हमारे जीवन का उत्थान हो सके। चारों आपस में अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं, जिस तरीके सेकई तरह की चौकड़ियाँ आपस में जुड़ी हैं। मसलन बीज—एक, जमीन—दो, खाद—तीन, पानी—चार। चारों जब तक नहीं मिलेंगे, कृषि नहीं हो सकती। उसका बढ़ना सम्भव नहीं है। व्यापार के लिए अकेली पूँजी से काम नहीं चल सकता। इसके लिए पूँजी—एक, अनुभव—दो, वस्तुओं की माँग—तीन, ग्राहक—चार। इन चारों को आप ढूँढ़ लेंगे तो व्यापार चलेगा और उसमें सफलता मिलेगी। मकान बनना हो तो उसके लिए ईंट, चूना, लोहा, लकड़ी इन चारों चीजों की जरूरत है। चारों में से एक भी चीज अगर कम पड़ेगी तो हमारीइमारत नहीं बन सकती। सफलता प्राप्त करने के लिए मनुष्य का कौशल आवश्यक है, साधन आवश्यक है, सहयोग आवश्यक है और अवसर आवश्यक है। इन चारों चीजों में से एक भी कम पड़ेगी तो समझदार आदमी भी सफलता नहीं प्राप्त कर सकेगा, सफलतारुकी रह जाएगी। जीवन-निर्वाह के लिए भोजन, विश्राम, मल-विसर्जन और श्रम-उपार्जन, चारों की आवश्यकता होती है। ये चारों क्रियाएँ होंगी तभी हम जिन्दा रहेंगे। यदि इनमें से एक भी चीज कम पड़ जाएगी तो आदमी का जीवित रहना मुश्किल पड़ जाएगा। ठीक इसीप्रकार से आत्मिक जीवन का विकास करने के लिए, आत्मोत्कर्ष के लिए चारों का होना आवश्यक है, अन्यथा व्यक्ति-निर्माण का उद्देश्य पूरा न हो सकेगा।
अब हम चारों चीजों के ऊपर प्रकाश डालते हैं। पहली है—उपासना प्लस साधना। उपासना और साधना—इन दोनों को मिलाकर पूरी चीज बनती है। उपासना का अर्थ है भगवान् पर विश्वास, भगवान् की समीपता। उपासना माने भगवान् के पास बैठना, नजदीक बैठना।इसका मतलब यह हुआ कि उसकी विशेषताएँ हम अपने जीवन में धारण करें। जैसे आग के पास हम बैठते हैं, तो आग की गर्मी से हमारे कपड़े गरम हो जाते हैं, हाथ गरम हो जाते हैं, शरीर गरम हो जाता है। पास बैठने का यही लाभ होना चाहिए। बर्फ के पास बैठते हैं, ठण्डक में बैठते हैं तो हमारे हाथ ठण्डे हो जाते हैं, कपड़े ठण्डे हो जाते हैं। पानी में बर्फ डालते हैं तो पानी ठण्डा हो जाता है। ठण्डक के नजदीक जाने से हमें ठण्डक मिलनी चाहिए। गर्मी की समीपता से गर्मी मिलनी चाहिए। सुगन्धित चीजों से सुगन्ध मिलनी चाहिए।चन्दन के समीप उगने वाले पौधे सुगन्धित हो जाते हैं, उसकी समीपता की वजह से। यही समीपता वास्तविक है। उपासना का अर्थ यह है कि भगवान का भजन करें, नाम लें, जप करें, ध्यान करें, पर साथ-साथ हम इस बात के लिए भी कोशिश करें कि हम भगवान केनजदीक आते जाएँ। भगवान हमारे में समाविष्ट होता जाए और हम भगवान में समाविष्ट होते जाएँ अर्थात् दोनों एक हो जाएँ। एक होने से मतलब यह है कि हम दोनों की इच्छाएँ, दोनों की गतिविधियाँ, दोनों की क्रिया-पद्धति, दोनों के दृष्टिकोण एक जैसे रहें। हमकोईश्वर जैसा बनने का प्रयत्न करना चाहिए। ईश्वर जैसे बनें, न कि ईश्वर पर हुक्म चलाएँ, आपको किसी भी हालत में हमारी माँगे पूरी करनी चाहिए। उपासना का तात्पर्य अपनी मनोभूमि को इस लायक बनाना कि हम भगवान् के आज्ञानुवर्ती बन सकें। उनके संकेतों केइशारे पर अपनी विचारणा और क्रिया-पद्धति को ढाल सकें। उपासना-भजन इसीलिए किया जाता है।
साधना—साधना का अर्थ है कि अपने गुण, कर्म, स्वभाव को साध लेना। वस्तुतः मनुष्य चौरासी लाख योनियों में घूमते-घूमते उन सारे के सारे प्राणियों के कुसंस्कार अपने भीतर जमा करके ले आया है, जो मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक नहीं हैं, बल्कि हानिकारक है।तो भी वे स्वभाव के अंग बन गए हैं और हम मनुष्य होते हुए भी पशु-संस्कारों से प्रेरित रहते हैं और पशु-प्रवृत्तियों को बहुधा अपने जीवन में कार्यान्वित करते रहते है। इस अनगढ़पन को ठीक कर लेना, सुगढ़पन का अपने भीतर से विकास कर लेना ,, सुगढ़पन काअपने भीतर से विकास कर लेना, कुसंस्कारों को जो पिछली योनियों के कारण हमारे भीतर जमे हुए हैं, उनको निरस्त कर देना और अपना स्वभाव इस तरह का बना लेना जिसको हम मानवोचित कह सकें—साधना है। साधना के लिए हमको वही क्रियाकलाप अपनानेपड़ते हैं, जो कि कुसंस्कारी घोड़े व बैल को सुधारने के लिए उसके मालिकों को करने पड़ते हैं—हल में चलने के लिए और गाड़ी में चलने के लिए। कुसंस्कारों को दूर करने के लिए हमको लगभग उसी तरह के प्रयत्न करने पड़ते हैं जैसे कि सरकस के पशुओं को पालते हुएउन्हें इस लायक बनाते हैं कि वे सरकस में तमाशा दिखा सकें ।। इसी तरह के प्रयत्न हमको अपने गुण, कर्म, स्वभाव के विकास के, परिष्कार के लिए करने पड़ते हैं। कच्ची धातुओं को जिस तरीके से आग में तपा करके उनको शुद्ध-परिष्कृत बनाया जाता है, जेवर-आभूषण बनाए जाते हैं, उसी तरीके से हमारा कच्चा जीवन, कुसंस्कारी जीवन को ढाल करके ऐसा सभ्य और ऐसा सुसंस्कृत बनाया जाए कि हम ढली हुई धातु के आभूषण के तरीके से, औजार-हथियार के तरीके से दिखाई पड़े ।। जंगली झाड़ियों को काटकर के मालीलोग अच्छे-अच्छे झाड़ और खूबसूरत पार्क बना देते हैं। हमको भी अपने झाड़-झंखाड़ जैसे जीवन को परिष्कृत करके, काट-छाँट करके, समुन्नत करके इस लायक बनाना चाहिए कि जिसको कहा जा सके कि वह सभ्य और सुसंस्कृत जीवन है।
इसके लिए हमको नित्य ही आत्म-निरीक्षण करना चाहिए। अपनी गलतियों पर गौर करना चाहिए। उनको सुधारने के लिए कमर कसनी चाहिए और अपने आपका निर्माण करने के लिए आगे बढ़ना और जो अपने आपका निर्माण करने के लिए आगे बढ़ना और जोकमियाँ हमारे स्वभाव के अन्दर हैं, उन्हें दूर करने के लिए जुटे रहना चाहिए। आत्म-विकास इसका एक हिस्सा है। हमको अपनी संकीर्णता में सीमित नहीं रहना चाहिए। अपने अहं को और अपनी स्वार्थपरता को, अपने हितों को व्यापक दृष्टि से बाँट देना चाहिए। दूसरोंके दुःख हमारे दुःख हों, दूसरों के सुखों में हम सुखी रहें, इस तरह की वृत्तियों का हम विकास कर सकें तो कहा जाएगा कि हमने जीवन-साधना करने के लिए जितना प्रयास किया, उतनी सफलता पाई। साधना से सिद्धि की बात में सन्देह की गुंजाइश नहीं है। अन्य किसीबात में सन्देह की गुंजाइश भी है, देवी-देवताओं की उपासना करने पर हमको फल मिले न मिले, कह नहीं सकते, लेकिन जीवन की साधना करने का परिणाम निश्चित रूप से भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही जीवनों में लाभ के रूप में देखा जा सकता है। यह साधनाके बारे में निवेदन किया गया।
दूसरा है—स्वाध्याय। मन की मलीनता को धोने के लिए स्वाध्याय अति आवश्यक है। दृष्टिकोण और विचार प्रायः वही जमे रहते हैं हमारे मस्तिष्क में, जो कि बहुत दिनों से पारिवारिक और अपने मित्रों के सान्निध्य में हमने सीखे और जाने। अब हमको श्रेष्ठ पुरुषों कासत्संग करना चाहिए। चारों ओर हम जिस वातावरण से घिरे हुए हैं, वह हमको नीचे की ओर गिराता है। पानी का स्वभाव नीचे गिरने की तरफ होता है। हमारा स्वाभाविक स्वभाव ही ऐसा होता है, जो नीचे स्तर के कामों की तरफ, निकृष्ट उद्देश्य के लिए आसानी सेलुढ़क जाता है। चारों तरफ का वातावरण जिसमें हमारे कुटुम्बी भी शामिल हैं, मित्र भी शामिल हैं, घरवाले भी शामिल हैं, हमेशा इस बात के लिए दबाव डालते हैं, कि हमको किसी भी प्रकार से किसी भी कीमत पर भौतिक सफलताएँ पा लेनी चाहिए। चाहे उसके लिएनीति बरतनी पड़े अथवा अनीति का आश्रय लेना पड़े ।। हर जगह से यही शिक्षण हमको मिलता है। सारे वातावरण में इसी तरह की हवा फैली हुई है और यही गन्दगी हमें प्रभावित करती हैं। हमारी गिरावट के लिए काफी वातावरण विद्यमान है।
इनका मुकाबला करने के लिए क्या करना चाहिए? श्रेष्ठता के मार्ग पर अगर हमको चलना है, आत्मोत्कर्ष करना है, तो हमारे पास ऐसी शक्ति भी होनी चाहिए जो पतन की ओर घसीट ले जाने वाली इन सत्ताओं का मुकाबला कर सके। इसके लिए एक तरीका है कि हमश्रेष्ठ मनुष्यों के साथ में सम्पर्क और सान्निध्य बनाए रखें, उनके सत्संग को कायम रखें। यह सत्संग कैसे हो सकता है? यह सत्संग केवल पुस्तकों के माध्यम से सम्भव है, क्योंकि विचारशील व्यक्ति हर समय बातचीत करने के लिए मिल नहीं सकते। इनमें सेबहुत तो ऐसे होते हैं, जो स्वर्गवासी हो चुके हैं और जो जीवित हैं, वे हमसे इतनी दूर रहते हैं कि उनके पास जाकर के हम उनसे बातचीत करना चाहे तो वह भी कठिन है। हम जा नहीं सकते और उनके पास जाएँ भी तो क्या उनके लिए भी कठिन है, क्योंकि प्रत्येकमहापुरुष समय की कीमत को समझता और व्यस्त रहता है। ऐसी हालत में हम लगातार सत्संग कैसे कर पाएँगे? कभी साल-दो साल में एक-आध घण्टे का सत्संग कर लिया तो क्या उससे हमारा उद्देश्य पूरा हो जाएगा? इसलिए अच्छा तरीका यही है कि हम अपनेजीवन में नियमित रूप से जैसे अपने कुटुम्बी और मित्रों से बात करते हैं, श्रेष्ठ महामानवों से, युग के मनीषियों से बातचीत करने के लिए समय निकालें। समय निकालने की इस प्रक्रिया का नाम है—स्वाध्याय।
स्वाध्याय को आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यधिक आवश्यक माना गया है। स्वाध्याय के बारे में ब्राह्मण-ग्रन्थों में कहा गया है—जिस दिन विचारशील आदमी स्वाध्याय नहीं करता उस दिन उसकी संज्ञा चाण्डाल जैसी हो जाती है। स्वाध्याय का महत्त्व भजन सेकिसी भी प्रकार से कम नहीं है। भजन का उद्देश्य भी यही है कि हमारे विचारों का परिष्कार हो और हम श्रेष्ठ व्यक्तित्व की ओर आगे बढ़े। स्वाध्याय हमारे लिए आवश्यक है। स्वाध्याय से हम महापुरुषों को अपना मित्र बना सकते हैं और जब भी जरूरत पड़ती है, तबउनसे खुले मन से शरीर को स्वच्छ रखने के लिए स्नान करना आवश्यक है, कपड़े धोना आवश्यक है, उसी प्रकार से स्वाध्याय के द्वारा, श्रेष्ठ विचारों के द्वारा अपने मन के ऊपर जमने वाले कषाय-कल्मषों को, मलीनता को धोना आवश्यक है। स्वाध्याय से हमकोप्रेरणा मिलती है, दिशाएँ मिलती हैं, मार्गदर्शन मिलता हैं, श्रेष्ठ पुरुष हमारे सान्निध्य में आते हैं और हमको अपने मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करते हैं, मार्गदर्शन करते हैं। ये सारी की सारी आवश्यकताएँ स्वाध्याय और भजन के बराबर ही मूल्य औरमहत्त्व समझा जाना चाहिए।
तीसरी बात जो आत्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है, उसका नाम है संयम। संयम का अर्थ है—रोकथाम ।। अगर हम रोकथाम करें तो जो हमारी शक्तियों का घोर अपव्यय होता रहता है, उसको बचा सकते हैं। हम अपनी अधिकांश शारीरिक और मानसिक शक्तियोंको अपव्यय में नष्ट कर देते हैं, कुमार्ग पर नष्ट कर देते हैं। यदि उनको रोका जा सका होता और उपयोगी मार्ग पर लगाया गया होता तो निश्चित रूप से उन शक्तियों के चमत्कार हमको देखने को मिल सकते थे, जो हमारे पास थीं। पर हम बर्बादी से कुछ बचा नहीं सके।चार तरह के संयम-निग्रह रूप में बताये गये हैं—इन्द्रिय-निग्रह, मनोनिग्रह, संयम-निग्रह, अर्थ-निग्रह। इन्द्रिय-निग्रह में जिव्हा और कामेन्द्रिय का संयम प्रमुख है। ये इन्द्रियाँ हमारी कितनी सारी शक्तियों को नष्ट करती हैं और स्वास्थ्य को किस बुरी तरीके सेखोखला करती हैं, यह सभी जानते हैं। इन्द्रिय-निग्रह का महत्त्व बताने की जरूरत नहीं है। शारीरिक दृष्टि से जिनको समर्थ बनना हो, नीरोग और दीर्घजीवी बनना हो, उनको इन्द्रिय-निग्रह का महत्त्व समझना और अपने आपको संयम का अभ्यासी बनाना चाहिए। दूसरासंयम मनोनिग्रह है। मन में कितने सारे विचार उठते हैं, लेकिन वे असंगत, असंयमित, बुराइयों एवं मनोविकारों से भरे होते हैं। इनसे हमारा मस्तिष्क विकृत होता है और बुरी तरह की आदतें पड़ती हैं। मनःशक्तियाँ निग्रहीत करके किसी कार्य में लगाई गई होतीं तोहम वैज्ञानिक बन गए होते, साहित्यकार बन गए होते। जिस भी कार्य में हमने मन लगाया होता, सफलता की उच्च श्रेणी तक जा पहुँचे होते, पर अस्त-व्यस्त मन होने के कारण से कोई सफलता सम्भव न हो सकी। मनोनिग्रह करके एकाग्रता की शक्ति और एक दिशामें चलने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकें, तो उससे हमारी सफलताओं का द्वार खुल सकता है।
तीसरा है—समय का निग्रह। हम समय को आलस्य और प्रमाद में पड़े-पड़े बर्बाद करते रहते हैं। कोई योजनाबद्ध कार्य नहीं करते, जब जो आया मनमर्जी से काम कर लिया, मन नहीं हुआ तो नहीं किया। इस तरीके से अस्त-व्यस्तता में हमारा जीवन नष्ट हो जाता है, जबकि समय का थोड़ा-थोड़ा भी उपयोग करते तो न जाने कितना लाभ उठा सकते थे। चौथा निग्रह-अर्थ-निग्रह भी ऐसा ही महत्त्वपूर्ण है। पैसे को विलासिता से लेकर न जाने किस-किस काम में, व्यसनों में, अनाचारों में हम खर्च करते हैं। अगर उसको फिजूलखर्ची सेहम बचा सके होते और उस धन को हमने किसी उपयोगी काम में लगाया होता तो भौतिक और आत्मिक उन्नति की दिशा में हम कहीं आगे बढ़ गए होते। अर्थ-निग्रह, इन्द्रिय-निग्रह, मनोनिग्रह, समय-निग्रह—इन चारों निग्रहों को हम करें तो संयमशील हो सकते हैं।हमको संयम बरतना चाहिए, अस्वाद व्रत का, ब्रह्मचर्य का अभ्यास करना चाहिए। ऐसे-ऐसे असंख्य संयम हैं, जिनको अपनाने से हम तपस्वी बनते हैं और अपनी शक्ति का बहुत बड़ा भाग बचा करके अच्छे काम में लगाते हैं।
चौथा कार्य सेवा का है। मनुष्य समाज का ऋणी है, क्योंकि वह सामाजिक प्राणी है। भगवान् ने उसको इसीलिए जन्म दिया है कि वह उसके इस विश्व-उद्यान की सेवा करे। उसकी जीवात्मा का विकास और जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सेवा से बड़ा तप और सेवासे बड़ा पुण्य कुछ भी नहीं हो सकता। हमको सेवा करने के लिए समय निकालते रहना चाहिए। सारे का सारा समय अपने लिए ही न खर्च की दें, वरन् देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा करने के लिए भी कुछ लगाएँ। हमारा धर्म होना चाहिए कि हम अपनीशक्तियों का एक अंश दुखियारों के लिए और पीड़ितों के लिए, पतितों के लिए लगाएँ। हमारे लिए सबसे बड़ी सेवा का कार्य क्या हो सकता है? ज्ञानयज्ञ से बड़ा काई और दूसरा पुण्य नहीं हो सकता। इसको ब्रह्मदान भी कहा गया है। यह सर्वोत्तम धर्म है, क्योंकि ज्ञानयज्ञसे हम मनुष्यों को दिशा दे सकते हैं, जिससे वे बुराइयों से बच सकें और उन्नति के मार्ग पर ऊँचे उठ सकें। ज्ञान, विचारणा, भावना—यही तो है शक्ति का अंश ।। इसलिए ब्राह्मण और साधु हमेशा से ज्ञानयज्ञ को ही सर्वोत्तम सेवा मान करके उसमें संलग्न रहे हैं औरयह प्रयत्न करते रहे हैं कि हम स्वयं अच्छे बनें और अपनी अच्छाई दूसरों पर बिखेरें। इसके लिए हमको अंशदान करना चाहिए। सेवा के लिए हमको एक घण्टा समय और दस पैसे नित्य का जो न्यूनतम कार्यक्रम दिया गया था ज्ञानयज्ञ-विचारक्रान्ति के लिए, उस परहमको मुस्तैदी से अमल करता चाहिए। कोई भी आदमी हममें से ऐसा न हो जो कि सेवा के लिए एक घण्टा समय और दस पैसे जैसी न्यूनतम शर्त को पूरा न करता हो। इससे ज्यादा ही हम करें, ज्यादा ही उत्साह दिखाएँ।
हम केवल भौतिक जीवन ही न जिएँ। आध्यात्मिक जीवन भी जिएँ। हमारी क्षमताओं का उपयोग, हमारे समय का उपयोग पेट पालने तक ही सीमित न रहे, बल्कि लोकमंगल और लोकहित के लिए भी खर्च हो। इस तरीके से हम चार आधार जीवन में अपनाए रहकर केआत्मिक उन्नति के मार्ग पर चल सकते हैं। अपना परिष्कार और परिवर्तन कर सकते हैं। यदि हमने अपना परिष्कार और परिवर्तन किया तो समाज का परिवर्तन और समाज का परिष्कार स्वाभाविक और सरल हो जायेगा। युग का परिवर्तन व्यक्ति परिवर्तन औरसमाज के परिवर्तन के साथ जुड़ा हुआ है। अपनी छोटी-सी प्रयोगशाला में हम इसी का प्रयोग करते हैं और अपनी प्रयोगशाला में सम्मिलित रहने वाले, अपने परिवार में शामिल रहने वाले हर व्यक्ति से प्रार्थना करते हैं कि आपको आत्मिक उन्नति के लिए अभी बताएगए इन चार आधारों को मजबूती के साथ ग्रहण करता चाहिए और अपने दैनिक जीवन में समन्वित रखना चाहिए। साधना, स्वाध्याय, संयम, और सेवा दैनिक जीवन में न्यूनतम मात्रा में भले ही हों, पर सम्मिलित अवश्य और अनिवार्य रूप से रहने चाहिए।
आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति।