उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाईयो!!
कल्प-साधना के लिए आप सभी यहाँ शान्तिकुञ्ज आये हैं। कल्प आखिर है क्या? जिसके लिए हमने आपको यहाँ बुलाया है। कल्प का अर्थ होता है—परिवर्तन। आपको बदलने का हमारा मन है। आप यदि अभी तक दुःखी जीवन जीते रहे हैं, तो स्वस्थ जीवन जिएँ। आप यदि गुत्थियों से उलझा हुआ जीवन जीते रहे हैं, तो अब हँसता-हँसाता जीवन जिएँ। यदि घिनौना, कमजोर और उपेक्षित जीवन जीते रहे हैं, तो अब ऐसा शानदार जीवन जिएँ कि जिसको देखकर आपका भी जी बाग-बाग हो जाए और जो कोई बाहर इसे देख पाये, उसकी भी खुशी का ठिकाना न रहे। ऐसा ही आपके जीवन में कायाकल्प करने का हमारा मन था। आपने हमारे विचारों को पढ़ा होगा और उसी से प्रभावित होकर यहाँ आये हैं। आइये अब विचार करें कि यह कैसे सम्भव होगा? इसके लिए क्या करना पड़ेगा? इन सारे प्रश्नों पर गम्भीरता से हम और आप विचार करें।
आमतौर से कल्प-साधना के बारे में यह भ्रम फैला हुआ है कि कल्प माने बूढ़े से जवान हो जाना, पर यह एक भ्रान्ति है। बूढ़े का जवान होना सम्भव नहीं है, क्योंकि यह प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है। प्रकृति के नियमों को कोई बदल नहीं सकता। सूर्य पूर्व से निकलता है और पश्चिम में डूबता है। ऐसा हो सकता है कि सूर्य पश्चिम से निकले और पूर्व में डूबा करे! भगवान ने प्रकृति के नियमों को ऐसा बना दिया है कि वे अपने स्थान पर यथावत रहेंगे और जब वे बने थे, तब से और जब तक सृष्टि रहेगी, तब तक बने रहेंगे। इसलिए बूढ़े आदमी का जवान होना नामुमकिन है। पुराणों में कथाएँ तो हैं, पर मालूम नहीं वे कहाँ तक ठीक हैं? आपने च्यवन ऋषि की बात सुनी होगी जो बूढ़े थे और जवान हो गए थे। आपने राजा ययाति की कहानी भी सुनी होगी कि बेटे की जवानी लेकर वह बूढ़े से जवान हो गए थे। लोगों ने कोशिशें तो की हैं, यूरोप में भी बहुत प्रयत्न हुए हैं, वृद्धों को जवान बनाने के लिए, पर सफलता नहीं मिली। स्टालिन रूस का अधिनायक था। उसको बन्दर की ग्रन्थियाँ काट-काट कर लगाई और यह कोशिश की गई कि वह फिर से जवान हो जाए, पर ऐसा नहीं हो सका। प्रकृति लड़ाई लड़ना नामुमकिन है। किसी को यह आशा नहीं करनी चाहिए कि हमारा बूढ़ा शरीर जवान बन जाएगा, पर हाँ, यह आशा हम आप में से हर व्यक्ति कर सकता है कि कमजोरी और बीमारी जो हमने आपने बुलाकर रखी है, उसको इनकार कर दें और यह कह दें कि हम आपको अपने यहाँ रखने की स्थिति में नहीं हैं, कृपा करके आप चली जाइए। इनको हम भगा सकते हैं, क्योंकि ये प्राकृतिक नहीं है।
जीवधारी पैदा होते हैं और मरते भी हैं, पर न कोई बीमार रहता है और न कोई कमजोर रहता है। जब कमजोरी आती है, तो मौत के मुँह में चले जाते हैं। भला कमजोर जिन्दगी जीना कौन पसन्द करेगा और ऐसी जिन्दगी कौन पसन्द करेगा जो बीमारियों से घिरी हुई हो? कमजोरी से घिरा हुआ होना—यह प्रकृति के विरुद्ध है। इसको आप और हम हटा सकते हैं। शरीर के बारे में यहीं तक मुमकिन है और इससे आगे कुछ नहीं हो सकता। शरीर के कायाकल्प से अगर आपका मतलब हो और इसी ख्याल से अगर आप यहाँ आए हों, तो कृपा करके यह बात नोट कर लीजिए शरीर के बारे में कि यह जो आपकी उम्र है, वह आगे ही बढ़ेगी, पीछे की ओर घटेगी नहीं। जवान को तो बच्चा कैसे बना पायेंगे। हम! बच्चे को माँ के पेट में तो कैसे ढकेल पाएँगे! सम्भव नहीं है। आपकी उम्र तो जरूर बढ़ेगी और आपके शरीर पर जो प्रभाव पड़ेगा, वह सब पड़ना ही चाहिए, लेकिन आपका स्तर बदल जाएगा। आकृति तो ज्यों-की रहेगी, पर प्रकृति बदल जाएगी। प्रकृति को बदलना मुमकिन है। यदि आपकी प्रकृति बदल जाएगी तो परिस्थितियाँ भी बदल जाएँगी। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि मतःस्थिति का नाम ही परिस्थिति है। मनःस्थिति अगर आदमी बदल ले, तो परिस्थितियों के बदलने में कोई शक नहीं है। बस, यह कायाकल्प है। इसी को हम कराना चाहते हैं।
आपके भीतर वाला माद्दा यदि बदल जाए, तो आपके बाहर वाला जरूर बदल जाएगा। मनःस्थिति में हेर-फेर कर लें, तो उसके अनुसार परिस्थितियाँ अपने आप बदल जाएँगी। इसीलिए कल्प-साधना से आपको जो यहाँ अर्थ लेना चाहिए, वह यह लेना चाहिए कि यहाँ जो आपसे कराया जाने वाला है या आपको जो करना है या हम जो आपसे कराने के लिए दबाव डालेंगे, तो सिर्फ इस बात का दबाव डालेंगे कि आपका भीतर वाला हिस्सा, जिसका अर्थ होता है—मन, बुद्धि और चित्त, जिसका अर्थ होता है—जीवात्मा, जिसका अर्थ होता है—आपका दृष्टिकोण, चिन्तन और चरित्र बदल जाएँ। अगर इसे हम बदल दें, तो आप विश्वास रखिए कि आपका जीवन, पिछले दिनों जैसा भी कुछ रहा है, भविष्य मे वैसा रह ही नहीं सकता। आपने इतिहास पढ़ा होगा और आपको उन भक्तों के नाम याद होंगे, जो पहले सामान्य स्थिति में गए बीते थे, लेकिन जब उन्होंने मन, स्तर और दृष्टिकोण बदल दिया, तो कितना कमाल हो गया! उनकी जिन्दगी कैसी शानदार हो गई? अगर उन्होंने भीतर वाले हिस्से को, अर्थात दृष्टिकोण को बदला न होता, तो बाहर वाली परिस्थितियाँ बिल्कुल मामूली आदमी के तरीके की रही होती।
इस सन्दर्भ में मैं आपके सामने कुछ आदमियों के नाम रखना चाहता हूँ कि परिवर्तन कैसे होते हैं? शंकराचार्य को आप जानते हैं न? शंकराचार्य एक मामूली घर के लड़के थे। उनकी माता यह उम्मीद करती थी कि पढ़ाने के बाद में लड़के की शादी-ब्याह कर देंगे, बाल-बच्चे होंगे, नाती-पोते खिलाएँगे, लेकिन शंकर ने अपना दृष्टिकोण बदल लिया और माँ से इनकार कर दिया। उन्होंने अपने भावी लक्ष्य और भावी जीवन का एक स्वरूप बना लिया। यह स्वरूप उनका अपना बनाया हुआ था। यह दृष्टिकोण उन्होंने स्वयं बनाया था, कार्य-पद्धति उन्होंने स्वयं बनाई। बाद में सहायता दूसरों ने भी की। शुरुआत तो उन्होंने ही की। शंकराचार्य फिर क्या हुए? वे शंकर भगवान के अवतार माने जाते हैं। अगर आदि शंकराचार्य ने अपने दृष्टिकोण में हेर-फेर नहीं किया होता तो? तब फिर वही होता, जो उनकी माँ चाहती थीं। वे एक मामूली पण्डित-पुरोहित होते, जन्मपत्रियाँ बनाते-फिरते, पूजा-पाठ कराते फिरते, बाल-बच्चे होते और गए-बीते स्तर के होते, पर जब दृष्टिकोण उन्होंने बदल दिया, तो आदि शंकराचार्य हो गये।
हर आदमी को यह अधिकार मिला हुआ है कि वह चाहे जैसा बन जाए। भगवान ने हर आदमी को इस लायक बनाया है कि वह चाहे तो, अपने आपको बदल ले। विवेकानन्द की बात आपको मालूम है न? वे एक मामूली-से विद्यार्थी थे। खास प्रतिभावानों में उनकी शुमार नहीं होती थी। घर की परिस्थितियाँ भी ठीक नहीं थी। पिताजी के मरने के बाद घर-गृहस्थी का वजन भी उन पर आ गया था, लेकिन यह सब होते हुए भी उन्होंने यह निश्चय किया कि अपने सोचने के तरीके, अपने दृष्टिकोण और अपने जीवन का लक्ष्य तथा उद्देश्य बदल देंगे। यही उन्होंने किया भी। जब इस बात का फैसला उन्होंने कर लिया, तो रामकृष्ण परमहंस के साथ उनकी संगति हो गई तो क्या रामकृष्ण परमहंस ने उनकी सहायता की? नहीं ऐसा मत करिए। रामकृष्ण परमहंस के लिए सहायता करना मुमकिन रहा होता, तो हजारों आदमी उनके पास आया करते थे और उनसे दीक्षा लेते थे, हजारों आदमी उनके शिष्य कहलाते थे, पर एक भी तो नहीं हुआ। केवल एक आदमी हुआ—विवेकानन्द तो क्या रामकृष्ण परमहंस की कृपा एक पर ही थी? नहीं, असलियत यह नहीं है। उनकी सब पर कृपा बरसती थी, पर उन्होंने अपने को बदला नहीं, जबकि विवेकानन्द ने अपने आपको भीतर से बदल लिया। बदले हुए आदमी की कौन सहायता नहीं करेगा? आप जिस दिशा में भी आगे बढ़ना चाहते हैं, उसमें सहायता करने वालों की दुनिया में कुछ कमी है क्या? विवेकानन्द की भी सहायता हुई।
और किसकी सहायता हुई? सदन का नाम सुना है आपने, कि वह कैसा आदमी था? कसाई का धन्धा करता था, जानवर काटता था, पवित्र शालिग्राम-पत्थर के बदले माँस तौल-तौलकर बेचता था। बेचता ईमानदारी से था। हर आदमी की दृष्टि में उसकी कीमत दो कौड़ी की थी, लेकिन जब उसने अपने आपको बदल लिया, ईश्वरीय सत्ता से तादात्म्य बिठा लिया तो, भगवान के भक्तों में सदन कसाई मूर्धन्य हो गये। मनःस्थिति बदले जाने के बाद में परिस्थितियाँ क्यों नहीं बदलेंगी? पहले जिससे लोग नफरत करते थे, उसी को सब प्रणाम करने लगे, मस्तक झुकाने लगे और न जाने क्या-क्या करने लगे? बाल्मीकि का नाम आपने सुना है न? पहले उनकी कैसी जिन्दगी थी? पहले वे घटिया वाली खराब जिन्दगी जी रहे थे। आदमी उससे भयभीत रहता था। हर आदमी का उस पर धिक्कार बरसता था, लेकिन जब उन्होंने अपने आपको बदल लिया, तो वह सन्त बाल्मीकि हो गये, ऋषि बाल्मीकि हो गये। उनका जीवन इतना शानदार हो गया कि भगवान राम को अपनी धर्मपत्नी सीता की हिफाजत के लिए, उनकी गार्जियनशिप के लिए और कोई सन्त न दिखायी पड़ा। बाल्मीकि ही सीताजी द्वारा सुसंतति-संरक्षण हेतु सबसे बड़े सन्त दिखाई पड़े। उनके आश्रम में भगवान राम ने अपनी पत्नी और बच्चों को सहर्ष रहने दिया, ताकि उनका पालन-पोषण, संस्कार और शिक्षण ठीक ढंग से हो सके। वही बाल्मीकि जिनका पूर्व का जीवन दस्यु का था, उनका कायाकल्प हो गया, वे सन्त, ऋषि, देवपुरुष बन गए। वही कायाकल्प करने के लिए आप लोग यहाँ आए हैं। भीतर वाले को बदल दीजिए, फिर देखिए परिस्थितियाँ बदलती हैं कि नहीं।
हमने आपके सामने वाल्मीकि का उदाहरण पेश किया। अभी मेरा मन कुछ और उदाहरण पेश करने का है। आम्रपाली का नाम सुना होगा आपने। वह एक वेश्या थी, जिसको हर आदमी ऐसे समझता था कि हम क्या कहें आपसे! उसने अपने आपको बदल दिया तब फिर आम्रपाली-आम्रपाली नहीं रही, वेश्या नहीं रही, वह भगवान बुद्ध की बेटी हो गई। सारे के सारे एशिया के अधिकांश देशों में वह घूमी। महिला संगठन की दृष्टि से उसने न जाने क्या-से कर डाला? कैसे हो गया यह सब? उसने अपने आपको बदल दिया और उसका कायाकल्प हो गया। कायाकल्प कैसे होगा? यही मैं आपको बताने वाला हूँ, पर पहले आपको यह जान ही लेना चाहिए कि कायाकल्प भीतर से होता है। बाहरी शरीर के कायाकल्प से कोई मतलब नहीं है। आन्तरिक कायाकल्प की विधा प्राचीनकाल में भी रही है और अभी भी है तथा आगे भी रहेगी। इसी के लिए हमने आपको बुलाया है।
ध्रुव का नाम सुना होगा आपने, वह बिल्कुल एक सामान्य दर्जे के राजकुमार थे। राजाओं के ढेरों बच्चे होते हैं। एक को गोद में लिया और एक को गोद से उतार दिया। जरा-सी, परिवार की एक घटना। उससे ध्रुव ने अपने आपको बदल लिया। उन्होंने कहा—राजकुमार रहना नहीं है और यदि रहना ही होगा, तो भगवान के राजकुमार क्यों नहीं रहेंगे? बस, भगवान का राजकुमार बनने का फैसला कर लिया उसने। दृढ़निश्चयी की सहायता करने वाले कम हैं क्या? नारद जी आ गए और उन्होंने उसकी सहायता की। नारद जी बाकी बच्चों, ध्रुव के भाई-बहिनों के पास क्यों नहीं गये? उन्होंने क्यों नहीं कहा? नहीं, नारद जी उनसे कह नहीं सकते थे, क्योंकि जो आदमी अपना निश्चय स्वयं करता है, उसी की सहायता दूसरे करते हैं। आपने वह कहावत सुनी होगी—‘ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं।’ यह बात बिल्कुल सोलह आने सच है। प्रह्लाद का नाम जानते हैं न? अगर वह अपने दैत्य बाप के कहने पर चला होता और पुरानी परम्परा पर चला होता, तो सिवाय दैत्य के क्या हो सकता था? बाप दादे जो काम करते थे, वही काम प्रह्लाद भी करता, परन्तु प्रह्लाद ने अपने आपको बदल दिया। इसी तरह गुरुनानक का नाम भी आपने सुना होगा। गुरुनानक के पिताजी मामूली-सा व्यापार करते थे। वे चाहते थे कि उनका लड़का भी व्यापार करे। व्यापार के लिए एक बार पैसा भी दिया, जिसे उन्होंने परमार्थ में खर्च कर डाला। बाप के कहने पर वे चले नहीं, उनकी बातें मानने से इनकार कर दिया। मित्रों ने, पड़ोसियों ने भी कहा होगा, पर एक का भी कहना उन्होंने नहीं माना। अपने ईमान और भगवान् का कहना मानने वाले नानक का क्या हो गया? देखा है न आपने कि सारे संसार में कितनी इज्जत उनकी? सिक्ख धर्म में उन्हें भगवान मानते हैं। वे महान् बन गये, पर अगर बाप की मर्जी पर चले होते तो पुराने ढर्रे पर ही गाड़ी लुढ़कती रही होती और वे बिल्कुल मामूली-से आदमी होते और एक बनिये की दुकान कर रहे होते, ढेरों बच्चे पैदा करके मामूली आदमी के तरीके से जिन्दगी बसर कर रहे होते, पर ऐसा नहीं हुआ। नानक का कायाकल्प हो गया। नानक सन्त हो गये, ऋषि हो गये, भगवान हो गये, अवतार हो गये।
शिवाजी की भी यही कहानी है। उनके पिताजी मिलिट्री में नौकरी करते थे। वे जैसे मामूली घर-गृहस्थी के बच्चे होते हैं, उसी तरह थे। यदि ढर्रे का जीवन जिया होता और उस ढर्रे से इनकार न किया होता तथा अपने लिए कोई नया निर्धारण न किया होता या निश्चय न किया होता, तो क्या आप विचार कर सकते हैं कि शिवाजी वैसे ही रहे होते, जैसे कि हम उन्हें छत्रपति शिवाजी कहते हैं। यह कैसे हुआ? कायाकल्प हो गया। वह शिवाजी, जो माता के पेट में से पैदा हुआ था, घर-गृहस्थी में गुजारा करता था, उसकी तुलना में महापुरुष शिवाजी की रूपरेखा बिल्कुल अलग है। इसी तरह चन्द्रगुप्त का नाम आपने सुना होगा। चाणक्य ने उसके अन्दर की कसक को देखा और उसे पढ़ लिया। उसकी पात्रता को देखा और उसके भीतर हो रहे मनःस्थिति के बदलाव को देखा। चाणक्य ने उसे क्या-से बना दिया? गाँधी जी परिस्थिति से ऐसे ही थे क्या! उनके पिताजी एक छोटी स्टेट के दीवान थे। वह अपने लड़के को वकील बनाना चाहते थे। गाँधी जी यदि उनके अनुसार चले होते, तो एक मामूली वकील रहे होते, सफल या असफल—यह बात दूसरी है, पर सिवाय वकील के और कुछ नहीं हो सकते थे, लेकिन जब उन्होंने यह निश्चय किया कि हमको कुछ बनना है और जिन्दगी का बड़ा उद्देश्य पूरा करना है, तो वे फिर महात्मा गाँधी हो गये, अवतार हो गये, बापू हो गये और युग-प्रवर्तक हो गये, लाखों आदमियों को दिशा देने वाले हो गये। आखिर यह हुआ कैसे? भगवान ने कर दिया क्या? नहीं, तो फिर भाग्य ने किया क्या? नहीं, तो फिर किसी आदमी ने किया होगा? नहीं, किसी ने भी नहीं किया। उन्होंने स्वयं अपना कायाकल्प कर लिया था। सहायता जरूर औरों ने की। सहायता का तो दुनिया में द्वार खुला है। बुरे लोगों के लिए भी सहायता का द्वार खुला है और अच्छे लोगों के लिए खुला है। गाँधी जी के बाबत यही हुआ। बुद्ध के बारे में भी यही बात लागू होती है। बुद्ध भगवान क्या थे, एक मामूली राजा के लड़के थे। छोटी उम्र में विवाह-शादी कर दी गई थी, लेकिन जब उन्होंने यह निश्चय किया कि हमें बड़प्पन की दिशा में चलना है, कुछ महान् कार्य करने हैं, तो बुद्ध का कायाकल्प हो गया और वे भगवान बुद्ध हो गये।
उपर्युक्त पुराने उदाहरण मैंने इसलिए दिये हैं कि आप विचार कर सकें कि हमारा बदलना सम्भव है। चलिए आपका यह ख्याल हो शायद कि हम तो मामूली आदमी हैं, हमारी घिनौनी और गन्दी जिन्दगी रही है, जिसके कारण हम नहीं बदल पायेंगे और जिस ढर्रे पर हम चल रहे हैं, जिस कोल्हू में हम पिल रहे हैं, उसी में हम पिलते रहेंगे, तो यह आपकी मर्जी के ऊपर है, अन्यथा मामूली और घिनौने आदमी तो और भी आसानी से बदल सकते हैं। यह आपकी मर्जी के ऊपर है कि आप चाहें, तो इस तरीके से भी रह सकते हैं, जैसे कि अभी रह रहे हैं, लेकिन अगर आपका मन हो कि हमको बदल जाना चाहिए, तो सूरदास का उदाहरण आपके सामने है। सूरदास कैसे आदमी थे—आप जानते हैं न? बिल्वमंगल का नाम सुना है न आपने? कैसी घिनौनी और कामुक जिन्दगी थी उसकी। पर जब कायाकल्प हुआ, तो अन्धा होने के बाद में भगवान उन्हें अपनी लाठी पकड़ाकर ले जाते थे। तुलसीदास की भी पिछली जिन्दगी ऐसी थी कि कामुकता से पीड़ित होकर उन्होंने मुर्दे पर सवार होकर नदी पार की थी। साँप की पूँछ पकड़कर छत पर चढ़ गए और अपनी धर्मपत्नी के पास पहुँचे थे। धर्मपत्नी ने यह कहा कि जितना प्यार आप हमसे करते हैं, यदि उतना प्यार आप भगवान से करें, तो क्या-से हो सकता है? यह बात उनके मन में लग गई और लगने के बाद में उन्होंने अपने आपको बदल दिया। बदला हुआ जीवन तुलसीदास का आप जानते हैं न? रामायण को बनाने वाले उस तुलसीदास को आप जानते हैं, जिनके बारे में प्रसिद्ध है कि ‘तुलसीदास चन्दन घिसै, तिलक देत रघुवीर।’
भगवान राम तुलसीदास को चन्दन लगाते हैं और श्रीकृष्ण भगवान सूरदास को लाठी पकड़ाकर साथ-साथ घूमते हैं। ऐसा हो सकता है क्या? हाँ, हो सकता है और आपके लिए भी हो सकता है, यकीन रखिये। यकीन दिलाने के लिए ही हमने आपको यहाँ बुलाया है कि आप चाहें तो जरूर कर सकते हैं। यह कैसे होगा? इसमें दो आदमियों के सहयोग की जरूरत पड़ती है, अकेले आप नहीं कर पाएँगे, लेकिन कोई बाहर का आदमी अकेला आपकी सहायता करना चाहे, तो वह भी मुमकिन नहीं है। आप प्रयत्न कीजिए, तो फिर भाग्य ने किया क्या? नहीं, तो फिर किसी आदमी ने किया होगा? नहीं हम आपकी सहायता करेंगे। मरीज को दवा खानी होती है और परहेज करना होता है। चिकित्सा करने वाला दूसरा आदमी होता है। हम आपकी चिकित्सा कर सकते हैं, लेकिन परहेज तो आपको ही करना पड़ेगा, दवा तो आपको ही खानी पड़ेगी। आपने देखा होगा कि अण्डा किस तरीके से फूटता है। मुर्गी के पेट में से अण्डा निकलता है। मुर्गी की दया न हो, तो अण्डा कहाँ से आए? जन्म लेने से पहले अण्डे के भीतर रहने वाले बच्चे को मेहनत करनी पड़ती है और अपनी ताकत के हिसाब से अण्डे को भीतर से तोड़ना पड़ता है। कोई और तोड़ने नहीं आता। आपने देखा होगा कि जब बच्चा बाहर आता है, तो अण्डे के भीतर बैठे उस चूजे को मेहनत करनी पड़ती है। अपनी ताकत से वह अण्डे में दरार डालता है और फूटकर बाहर निकल पड़ता है। यह मेहनत उसकी अपनी है। अण्डे को तो चूजे को ही तोड़ना पड़ता है। भ्रूण तो माता ने बनाया है, पेट में रहे हुए गर्भ को खुराक माता ने दी है। दूध माता ने ही पिलाया है, लेकिन पेट में से निकलने की ताकत, मेहनत तो पेट में रहने वाले बच्चे को ही करनी पड़ती है। अगर पेट में रहने वाला बच्चा इनकार कर दे कि हम तो बाहर नहीं निकलते, धक्का-मुक्की नहीं करते, तब फिर ‘डिलिवरी’ नहीं हो सकती। बाहर निकलने के लिए पूरी-की जिम्मेदारी उस बच्चे के ऊपर है, जो पेट में बैठा हुआ है। प्रसव तो माता ही करती है, दर्द तो माता को ही होता है, पर जब तक बच्चे की ताकत, हुकूमत काम नहीं करती, उसके पहले या पीछे उसे जन्म नहीं दे सकती।
आपको अण्डे के तरीके से अपना दायरा तोड़ना पड़ेगा, बच्चे के तरीके से बाहर तो निकलना ही पड़ेगा। आपको जो करना है, यही करना है कि आपके ऊपर जो केंचुली लगी हुई है, यदि आप उसे उतार देंगे, तो आज आप साँप के तरीके से तोड़ते हुए चले जाएँगे। केंचुली लगा हुआ साँप कहाँ भाग पाता है? लोग पत्थर फेंकते रहते हैं, पर वह वैसे ही बैठे रहता है। केंचुली उतार दी तो, न जाने कहाँ-से जा पहुँचता है? आप अपने पुराने कुसंस्कारों की केंचुली उतार दीजिए और नये रास्ते पर चलिये। पिंजरे से आप बाहर निकलें, पिंजरे से बाहर आपको ही निकलना है। हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ तोड़ने के लिए मशक्कत करेंगे, तो हम जरूर सहायता करेंगे, आप यकीन रखिये। सहायता करने के लिए ही तो हम बुलाते हैं आपको। हम आपको सहायता का यकीन दिलाते हैं, लेकिन अगर आप यह ख्याल करते हों कि केवल हमारी सहायता से आपकी समस्याएँ हल हो जाएँगी, तो यह मुमकिन नहीं है। आप और हम मिल-जुलकर कार्य करें। आप हमारा कहना मानें और हम आपके मदद करें। अन्धे और पंगे के तरीके से हम लोग मिल-जुलकर नदी पार कर लें, तब परिस्थितियाँ भी ऐसी बदल जाएँगी कि मजा आ जाएगा।
कायाकल्प से हमारा मतलब यही था कि आपके लिए हम सहायता करेंगे कि आप बदल जाएँ। आप पर हम दबाव डालेंगे कि जिस तरह की जिन्दगी आप जीते रहें हैं, वह मुनासिब नहीं है। आपका जो स्वरूप अब तक का रहा है, वह आपके लिए मुनासिब स्वरूप नहीं है। हम आप पर दबाव डालने वाले हैं कि आप इस स्वरूप को आगे चलाने से इनकार कर दें और एक काम करें कि ताकत लगाएँ, कोशिश करें, जुर्रत करें, साहस इकट्ठा करें कि हमें अपनी जिन्दगी को बदलना है। फिर आप देखिए हम आपकी पूरी-पूरी मदद करेंगे। विवेकानन्द की सहायता रामकृष्ण परमहंस ने की थी। हम परमहंस तो नहीं हैं, पर आप यकीन रखिए कि आपकी सहायता हम उतनी ही कर सकते हैं और श्रेष्ठ व्यक्ति बना सकते हैं। आप तैयार हो जाइए। अगर आप तैयार हैं, तो आप यकीन रखिए कि आपका जीवन बदल जाएगा और ऐसा शानदार जीवन बन जाएगा कि आप स्वयं तो अपने आप में आश्चर्य करेंगे। तो फिर भाग्य ने किया क्या? नहीं, तो फिर किसी आदमी ने किया होगा? नहीं, आपको यहाँ से जाने के बाद देखेगा, वह भी आश्चर्य करेंगे ही। उसके लिए संघर्ष कीजिए और अनुशासन पालने के लिए तैयार हो जाइये, अगर आपको यह दावत स्वीकार हो, तो फिर आप तैयार हो जाइये, हिम्मत कीजिए, फिर देखिए आपका भविष्य कैसे शानदार बनता है? कायाकल्प से हमारा उद्देश्य समझना चाहिए और अपनी तैयारी के लिए जो मुनासिब हो, वह करने के लिए कमर कसकर खड़े होना चाहिए।
॥ॐ शान्ति:॥