उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! चारों वेदों में पहला वाला वेद है ऋग्वेद और ऋग्वेद का पहला वाला मंत्र, जिसमें ज्ञान और विज्ञान की सारी की सारी धाराएँ भरी हुई हैं। वह इतना महत्त्वपूर्ण है कि आप देखेंगे तो पाएँगे कि मनुष्य जीवन की भौतिक और आर्थिक एवं आत्मिक उन्नति को विकसित करने के इस मंत्र में बहुत बड़े संकेत छिपे पड़े हैं। क्या मंत्र है? ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य दैवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्। यह पहला वाला मंत्र है। इसमें यज्ञ की प्रशंसा की गई है, उनकी प्रार्थना की गई है। भगवान को यज्ञरूप बताया गया है। भगवान कैसे हैं? भगवान कैसे हो सकते हैं? भगवान दिखाई तो नहीं पड़ते। भगवान को हम कहाँ ढूँढ़ने जाएँ! भगवान को हम किस तरीके से देख पाएँ? भगवान को देखने की मनुष्य की इस इच्छा का समाधान ऋग्वेद के इस पहले वाले मंत्र में किया गया है। जब हम भगवान को आँख से देखना चाहते हैं तो भगवान का एक ही रूप है और वह कौन सा रूप है—अग्नि अर्थात यज्ञाग्नि। यज्ञाग्नि को क्या कहा गया है? क्या नाम दिया गया है? उसका नाम दिया गया है पुरोहित। पुरोहित किसे कहते हैं? पुरोहित उसे कहते हैं, जो मार्ग दिखाता है, रास्ता दिखाता है, उपदेश करता है और हमको गलत रास्ते से घसीट करके सही रास्ते पर ले जाता है। ऐसे आदमी का, ऐसे मार्गदर्शक का नाम पुरोहित है।
यज्ञ है हमारा पुरोहित
मित्रो! अग्नि हमारा पुरोहित है। कुछ शिक्षा ग्रहण करनी हो, ज्ञान ग्रहण करना हो, आपको कोई आदर्श या सिद्धांतों की बाबत जानकारी प्राप्त करनी हो तो मनुष्यों के पास भटकने की जरूरत नहीं है। मनुष्य बड़े बेअकल होते हैं और हजार तरह की बातें बनाते हैं। एक व्यक्ति ऐसे बात कहता है, दूसरा ऐसे कह देता है, तीसरा ऐसे कह देता है, चौथा ऐसे कह देता है। कोई समाधान ही नहीं है। एक पंडित का दूसरा पंडित विरोधी बना बैठा हुआ है। एक मजहब का दूसरा मजहब विरोधी बना बैठा हुआ है। एक देवता की दूसरा देवता काट करने के लिए तैयार बैठा हुआ है। देवताओं की लड़ाई आप देखिए। ''देवी पुराण'' में देवी की महत्ता बताई गई है और ब्रह्मा, विष्णु महेश को उनका गुलाम-नौकर बताया गया है। आप ''शिव पुराण'' देख लीजिए ''शिव पुराण'' में शंकर जी सबसे बड़े हैं और विष्णु जी उनके नौकर हैं और फलाने जी उनके नौकर हैं। आप यह सब देखेंगे तो पता नहीं चलेगा कि यह क्या चक्कर है! फिर आपको ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसके पास जाना चाहिए? पुरोहित के पास। पुरोहित के पास कैसे जाना चाहिए जो भगवान का प्रतिनिधि हो अथवा भगवान का रूप हो अथवा भगवान के भेजे हुए संदेश को इस प्रकार कहता हो कि जिसमें हमें शक-शुबहा करने की गुंजाइश न रहे। यह कौन सा देवता है? यज्ञो वै विष्णु:। निश्चयपूर्वक, विश्वासपूर्वक पट्ठा ठोंक करके, छाती ठोंक करके हम कह सकते हैं कि यज्ञ ही विष्णु है।
यह किसने कहा? ''शतपथ ब्राह्मण'' ने कहा-निश्चय, जरूर, गारण्टी से, विष्णु जो है, वही यज्ञ भगवान है। जीवंत भगवान कैसे हो सकता है। जीवंत भगवान एक तो वह है, जो सबके भीतर समाया हुआ है, सब जगह समाया हुआ है, लेकिन अगर आपको प्रत्यक्ष देखने का मन हो, जो आपके सामने खड़ा हो करके आपका मार्गदर्शन कर सके और आपको सुझाव दे सके और आपके लिए लक्ष्य निर्धारित कर सके तो उसका नाम यज्ञ है। यज्ञ की क्या विशेषता है? अग्निमीले पुरोहितं। अग्नि जो हमारा पुरोहित है, जो हमारा मार्गदर्शक है, वह हमें क्या सिखाता है? बोलता तो जरूर नहीं है, बात-चीत भी नहीं करता। लिखना-पढ़ना भी नहीं जानता, लेकिन जिसको हम वास्तविक शिक्षा कहते हैं, जो आदमी के व्यक्तित्व पुरोहित में प्रकट होती है, चरित्र में प्रकट होती है, वह जीभ से प्रकट नहीं होती है। लोगों का यह खयाल है कि हम लोगों को शिक्षा देंगे। यह शिक्षा आप किससे देंगे? जीभ से देंगे। जीभ तो बेटे! माँस की है और माँस की जीभ माँस को प्रभावित कर सकती हो तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन आदमी की आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकती। जीभ का विश्वास कौन करता है! जीभ तो बड़ी वाहियात है, जीभ तो बड़ी चटोरी है, जीभ बड़ी नामाकूल है। पंडित जी कहें या और कोई कहे, जीभ का असर बहुत थोड़ा सा होता है, जानकारी तक होता है। जीभ से शब्द निकलते हैं और कान तक घुस जाते हैं और कान में घुसने के बाद में दिमाग का चक्कर काट करके दूसरे कान में से विदा हो करके बाहर चले जाते हैं। बस, उनका असर खतम हो गया।
शब्दों से-वाणी से नहीं, क्रिया से असर
शब्दों का क्या असर होता है? शब्दों का नहीं होता, क्रिया का असर होता है। अगर आपको किसी पर असर डालना हो, किसी पर छाप डालनी हो, अगर आपको वास्तव में कोई शिक्षण करना हो तो उसका तरीका जबान नहीं है। जबान की लप-लप बहुत ज्यादा कारगर नहीं हो सकती। आपको कथा कहना आता है, पुस्तक पढ़ना आता है, अच्छी बात है। हम आपकी प्रशंसा भी कर सकते हैं, लेकिन हम आपसे यह उम्मीद नहीं रखेंगे कि आपकी जबान का यह असर होगा कि लोग आपका कहना भी मान लेंगे और आपके बताए रास्ते पर चलने लगेंगे। अगर ऐसा रहा होता और कहने भर से लोगों ने मान लिया होता और पढ़ने से लोगों ने मान लिया होता तो गोरखपुर की गीताप्रेस ने जो पुस्तकें छापी हैं, उनकी तादाद करोड़ों जा पहुँची है, एक करोड़ से अधिक गीता की पुस्तकें छाप करके दे दी उन्होंने। इसे पढ़ने वाले सारे के सारे लोग अर्जुन हो गए होते, लेकिन गीता पढ़ने के बाद तो एक भी व्यक्ति अर्जुन न हो सका। क्या हुआ लेखनी का? क्या लेखनी बेकार है? नहीं बेटे! बेकार नहीं है। वह जानकारी देने में समर्थ हो सकती है। जीभ का भी यही हाल है। कितने सारे पंडित, कितने सारे रामायणी, कितने सारे कथा-वक्ता, कितने सारे लेक्चर देने वाले धार्मिक लेक्चरों से, राजनीतिक लेक्चरों से बेचारे माइक का दिवाला निकाले जा रहे हैं। माइकों का कचूमर निकला जा रहा है। बोलने वाले कहते हैं कि माइक कम पड़ते हैं। हर साल माइक कंपनियों और उत्पादन करती हैं, फिर भी कमी रहती है। बकवास करने वालों को अभी बहुत से माइकों की जरूरत है। अभी और बनाइए और बकवास करने वाले माइकों के ढेर लगा देते हैं। लाउडस्पीकरों का ढेर लगा देते हैं।
आचरण से शिक्षण
इससे उद्धार हो सकता है? नहीं बेटे! इससे उद्धार नहीं हो सकता है। तो फिर किस तरह से उद्धार होता है? दुनिया में इसका एक ही तरीका है और एक ही क्रिया कि आदमी अपने व्यक्तित्व और अपने चरित्र के माध्यम से शिक्षण करे। दूसरे आदमी जब देखेंगे कि वह आदमी जिस बात पर विश्वास करता है, उसके स्वभाव में यह बात क्यों नहीं आती, उसके व्यवहार में यह बात क्यों नहीं आती? जो बात वह दूसरों से कहता है, अगर वह बात सही है तो सबसे पहले उसी ने फायदा उठाया होता। सबसे पहले अपने जीवन में वही धारण करने में समर्थ रहा होता, लेकिन अपने जीवन में वही धारण नहीं कर सका तो हमारे लिए क्या फायदेमन्द हो सकता है? इतना फायदेमन्द होता तो स्वयं क्यों न अपने लिए इस्तेमाल करता! इससे मालूम पड़ता है कि दाल में कुछ काला है। वह औरों को तो सिखाना चाहता है, पर अपने आप को नहीं सिखाना चाहता है। अविश्वास यहीं से पैदा हो जाता है और आदमी इस बात को मानने से पहले इनकार कर देते हैं। इसलिए हम आपसे यह कह रहे थे कि हमारा पुरोहित, जो हमारे जीवन को वास्तव में विकसित कर सकता हो ,जो हमारे जीवन का वास्तविक कल्प करना चाहता हो, वह पुरोहित ऐसा होना चाहिए जो अपने चरित्र के माध्यम से हमारा शिक्षण कर सकता हो। इस मामले में यज्ञाग्नि अपनी कसौटी पर खरी व सही उतरती है।
यज्ञाग्नि की नसीहतें
मित्रो! यज्ञ हमको छह नसीहतें देता है। छह नसीहतें बहुत नहीं हैं। महाराज जी! बहुत सारे व्याख्यान दीजिए। नहीं बेटे! बहुत सारे व्याख्यान देने की जरूरत नहीं है छह व्याख्यान बहुत हैं। यज्ञ, अग्नि, यज्ञाग्नि जिसका हम प्रचार करते हैं और जिसका आपको रोज हवन कराते हैं। हमारी कन्याएँ नियमित रूप से हवन करती हैं। आप तो नहीं कर पाते, वर्षा हो जाती है तो बंद करना पड़ता है, पर हमारे यहाँ यह रोज प्रज्वलित रहता है। गायत्री तपोभूमि में रोज यज्ञ होता है। इसको हम रोज के लिए बलिवैश्व के रूप में घर-घर में फैलाना चाहते हैं। यह क्या शिक्षा देता है? छह नसीहतें देता है, जिन्हें यदि आप जीवन में उतार लें तो आपका बेड़ा पार हो सकता है। ये नसीहतें क्या हैं? यज्ञाग्नि की, अग्नि की एक नसीहत यह है कि वह सदा प्रकाशवान बनी रहती है। कभी भी इसका प्रकाश बंद नहीं हो सकता। आग जलेगी तो रोशनी जरूर होगी। आग बुझ जाएगी तो रोशनी भी बुझ जाएगी। आग जलेगी तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि उसमें से प्रकाश नहीं निकलता हो। प्रकाश का अर्थ क्या हो सकता है? आदमी में प्रकाश तो नहीं है। आदमी कोई बत्ती नहीं है, बल्ब नहीं है, जो जलेगा। फिर यज्ञ का अनुसरण करने वाले का क्या होना चाहिए? प्रकाश होना चाहिए। प्रकाश किसे कहते हैं? बेटे! व्यक्ति के आध्यात्मिक जीवन में प्रकाश का जहाँ कही भी इस्तेमाल किया गया है, ज्ञान के अर्थ में किया गया है। ''स्टेंट लाइट'', ''डिवाइन लाइट'', ''तमसो मा ज्योतिर्गमय'' आदि ज्ञान के अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं। प्रकाश का अर्थ चमक नहीं है, जैसा कि आप बार-बार समझते रहते हैं। आज्ञाचक्र में हम ज्योति का ध्यान कराते हैं। क्यों साहब! इसमें तो हमको कुछ चमकता हुआ नहीं मालूम पड़ता। जब हम ध्यान लगाते हैं तो इन भौंहों के बीच कोई चमकता हुआ प्रकाश नहीं मालूम पड़ता। गुरुजी! आप तो हमको रोज ध्यान कराते हैं, पर ऐसा कुछ नहीं दिखाई पड़ता।
प्रकाश से अर्थ है—ज्ञान
बेटे! हम यह ध्यान नहीं कराते हैं कि चमक दिखाई दे। हम चमक के अर्थ में प्रकाश नहीं कहते हैं। ज्योति का अर्थ चमक नहीं हो सकता। नहीं साहब! चमक दिख जाएगी तो हमारा बड़ा भारी उद्धार हो जाएगा और उसको ध्यानयोग का अभ्यास हो जाएगा। नहीं बेटे! यह चमक नहीं है। चमक तो पंचभौतिक चीज है। यह पदार्थ है, यह अग्नि है, आग है। चमक आग है। इस चमक से योगाभ्यास का कोई खास ताल्लुक नहीं है। चमक दिखाई दे जाए तो अच्छी बात है, नहीं दिखे तो खराब बात भी नहीं है। अच्छा तो आप आज्ञाचक्र में जिसका ध्यान करते हैं, वह क्या चीज हो सकती है? बेटे! वह ज्ञान है। आध्यात्मिक परिभाषा में प्रकाश हमेशा ज्ञान के अथ मैं आता हैं। आत्मा में प्रकाश हो गया अर्थात आत्मबोध हो गया, ज्ञान का अर्थ है—आत्मबोध। ज्ञान कौन सा? जो स्कूलों में पढ़ाया जाता है? नहीं बेटे! स्कूलों वाला नहीं। स्कूल वाले ज्ञान को तो शिक्षा भी कहते हैं और जानकारी भी कहते हैं। यह तो पदार्थ विज्ञान के भीतर आती है; क्योंकि यह पदार्थों के बारे में सिखाती है। जब हम स्कूल में जाते हैं तो भूगोल सीखकर आते हैं, गणित सीखकर आते हैं, इतिहास सीखकर आते हैं। ये पंचभौतिक शिक्षाएँ हमको सांसारिक जानकारी देती हैं, जो रोटी कमाने के काम आती है और जो हमारी क्षमता को विकसित करने के काम आती है, यह शिक्षा है। विद्या, जिसको हम प्रकाश कहते हैं, उसका ज्ञान के अर्थ में प्रयोग करते हैं।
''धी'' तत्त्व भी ज्ञान का ही प्रतीक
मित्रो! गायत्री में भी ज्ञान के लिए ''धी'' कहा गया है। ''धी'' क्या चीज है? यह वह ज्ञान है, जो हमारी आत्मिक समस्याओं का समाधान करती है। ज्ञान का अर्थ केवल यह है कि जो हमारी आन्तरिक समस्याएँ आन्तरिक गुत्थियाँ उलझी पड़ी हैं और सुलझने में नहीं आतीं, यह उनका समाधान प्रस्तुत करता है। हमारे भीतर कितना अँधियारा भरा पड़ा है। बाहर तो अँधियारा नहीं है। दिन को सूरज चमकता है और रात को चंद्रमा चमकता है। चाँद और सूरज नहीं भी चमकते हैं तो हम बत्ती जला सकते हैं, दीपक जला सकते हैं। इससे यह अँधियारा तो दूर हो सकता है, लेकिन हमारे भीतर जो सघन अंधकार छाया हुआ है, जिसकी वजह से हमें रास्ता दिखाई नहीं पड़ता। कहाँ चले जाएँ इसका कुछ पता नहीं चलता। कहाँ जाना चाहिए इसका भी कुछ पता नहीं चलता और हम जिंदगी भर भटकते रहते हैं और यह तलाश करते रहते हैं कि जाना किधर है? सारी जिंदगी यही पता नहीं चल सका कि जाना कहाँ है। इन इंद्रियों ने जिधर भटका दिया, उधर ही चल दिए। पैसे ने भटका दिया तो उधर ही चल दिए। दोस्तों ने भटका दिया तो हम चल दिए। सारे जीवन में भटकन हो भटकन हमारे हिस्से में आई है, परंतु हमको कोई रास्ता न दिखा सका, जिसको देख करके हमको वस्तुस्थिति का पता चल जाता। जिससे ज्ञान हो जाता और वास्तविकता की जानकारी हो जाती। कमरे में अँधेरा ही अँधेरा भरा पड़ा है। बत्ती नहीं जलाने की वजह से, ज्ञान का प्रकाश न होने की वजह से हमें जीवन की एक भी समस्या का वास्तविक स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता। न हमारे हाथ समाधान लगते हैं और न हमको समस्याओं का स्वरूप मालूम पड़ता है। हम केवल भटकते रहते हैं। इधर-उधर ढूँढ़ते रहते हैं कि इसका कारण यह भी हो सकता है और समाधान यह हो सकता है। हजारों समाधान तलाश करते हैं, हजारों काम तलाशते हैं और कहीं कुछ पता नहीं चलता। न कोई निदान हो पाता है और न हम कोई चीज तलाश कर पाते हैं, बस, भटकते रहते हैं। न मरज का पता है और न दवा का पता है कि कौन सी दवा कारगर हो सकती है।
पहली शिक्षा : प्रकाश की उपासना
मित्रो! वास्तविकता की जानकारी जिसको हो जाती है, उसे ज्ञान हो जाता है। वास्तविकता को हम ज्ञान कहते हैं, यज्ञाग्नि कहते हैं, जो हमको सिखाती है कि आदमी को प्रकाशवान होना चाहिए। आदमी को ज्ञानयुक्त होना चाहिए जिससे वास्तविकता को समझा जा सकता है और वास्तविकता को समझने में समर्थ हो सकता है। दीपक शान से जलता रहता है और चहुँओर अपना प्रकाश फैलाता है। वह अपनी ओर सबकी आँखों को आकर्षित करता रहता है और जहाँ-कहीं भी रखा रहता है, वहीं रोशनी पैदा करता रहता है, भटकाव को दूर करता रहता है। यज्ञाग्नि हमारा पुरोहित हो और हम उसके शिष्य हों, ''होता'' हों, यज्ञ को मानने वाले हों। हमको किसकी उपासना करनी पड़ेगी? हमको प्रकाश की उपासना करनी पड़ेगी। पहली वाली शिक्षा हमको यही मिलती है क्योंकि हमारा पुरोहित, हमारा यज्ञाग्नि हमको रोशनी देता है और पहली बात यह कहता है कि आप रोशनी प्राप्त कीजिए। दिशा प्राप्त कीजिए रास्ता प्राप्त कीजिए। अभी हमारे जीवन में रोशनी का अभाव है। अगर रोशनी मिल जाती तो जीवन सार्थक हो जाता। भगवान बुद्ध को रोशनी मिल गई थी, प्रकाश मिल गया था। एक छोटे से राजकुमार से हट करके वे भगवान बन गए थे। महाराज जी! क्या इनसान भगवान हो सकता है? हाँ बिलकुल हो सकता है, अगर उसको प्रकाश मिल जाए तब, लेकिन अगर अंधकार मिल जाए तो उसकी ऐसी मिट्टी पलीद होने लगती है, जैसी हमारी-आपकी होती है। दुर्बुद्धि हमको पटक-पटक करके मारती है, रुला-रुला करके मारती है और इस कदर हैरान करती है, जैसा कि हमारा कोई दुश्मन भी नहीं कर सकता।
दूसरा शिक्षण सक्रियता का
मित्रो! अंधकार से निजात, छुटकारा कैसे मिल सकता है? निजात पाने का एक ही तरीका है कि हमको प्रकाश मिल जाए। यज्ञाग्नि हमको यही सिखाती है, पहला शिक्षण यही देती है कि हम प्रकाशवान हैं। हम कौन हैं? अग्नि हैं। अग्नि कहती है कि आपको भी प्रकाशवान बनना चाहिए—एक। अग्नि की दूसरी नसीहत यह है कि हमारा जो पुरोहित है, जिसे हम यज्ञ की वेदी पर स्थापित करते हैं, उसको हम पुरोहित मानते हैं। बलिवैश्व के समय भी हम यह कहते हैं कि इसको जमीन पर मत रखना, यह आपका पुरोहित है। पुरोहित को सिंहासन दिया जाता है और यज्ञाग्नि के लिए यज्ञवेदी तैयार की जाती है। जमीन पर नहीं रखते हैं। आपने यह जो यज्ञ की वेदी बना दी है, वह सिंहासन बना दिया है। आपने दरजा ऊपर कर दिया है, जमीन पर नहीं बिठा दिया। यह क्या है? बेटे! यह दूसरी वाली शिक्षा है। यह है कि जो आग है, यज्ञाग्नि है जिसकी हम पूजा करते हैं, फायर वर्शिप के नाम पर जिस अग्निहोत्र को हम पेश करते हैं, उससे हम नसीहत लेते हैं। अग्निहोत्र भी नसीहत देता है? यह नसीहत देता है कि जब तक अग्नि जिंदा रहती है, तब तक गरम रहती है, हमारे जीवन में भी गरमी बनी रहनी चाहिए। हर इनसान को, हर अग्नि उपासक को अपने पुरोहित से एक शिक्षा अवश्य ग्रहण करनी चाहिए कि वह जिंदगी भर गरम बना रहे। गरमी से क्या मतलब है? बेटे! गरम से मतलब है सक्रिय बने रहना। क्रिया से गरमी पैदा होती है। आखिर गरमी है क्या और कहाँ से आती है? कैसे गरमी रगड़ से पैदा होती है और किसी तरीके से नहीं होती है। गरमी पैदा होने का एक ही तरीका है रगड़ का होना—रगड़ होने का मतलब है—क्रियाशीलता का होना, सक्रियता का होना।
कर्मनिष्ठा-क्रियाशीलता सदा बनी रहे
मित्रो! रगड़ से मतलब है क्रियाशीलता और निष्क्रियता का मतलब है हाथ पर हाथ रखे हुए बैठे रहना। निष्क्रियता से गरमी पैदा नहीं होती। गरमी रगड़ से पैदा होती है? रगड़ से। रगड़ क्रिया को कहते हैं, हलचल को कहते हैं। हलचल से गरमी पैदा होती है। हमारे जीवन में कर्मनिष्ठा अर्थात हलचल अर्थात हमारी क्रियाशीलता निरंतर बनी रहनी चाहिए। हमारे जीवन में कोई एक क्षण भी ऐसा न हो, जिसमें यह दोष हमारे ऊपर लगाया जा सके कि हम निष्क्रिय बैठे हुए हैं। हमारे शरीर के भीतर वाले हिस्से में कोई निष्क्रिय नहीं बैठता। आप तलाश कर सकते हैं कि हमारे शरीर के भीतर का रक्त बराबर चलता रहता है। माँसपेशियाँ बराबर काम करती रहती हैं। हम सो जाते हैं और सबेरे जग जाते हैं, फिर भी हमारे दिमाग के सेल्स काम करते रहते हैं। भाई साहब! आप सो गए हैं, ठीक है, लेकिन आपका दिमाग काम कर रहा है। वह सपने देख रहा है। सपने देखने के अलावा यह शरीर पर कंट्रोल करता है। आप समझते हैं कि हमारा सिस्टम हृदय से काम करता है। नहीं, हृदय से काम नहीं करता। इसका कंट्रोल आफिस दिमाग में है। सोते समय भी रातभर दिमाग कंट्रोल करता है। आपको पता भी नहीं चलता और आप करवट बदल लेते हैं। रात को थकान हो जाती है, एक करवट में पड़े-पड़े शरीर दुःखने लगता है। इससे क्या हो जाता है? दिमाग को सब पता रहता है। वह हुक्म देता है कि करवट बदल लीजिए। पैर पर पैर रखकर सो गए और एक पैर पर दूसरे पैर का दबाव पड़ रहा है। हमारा दिमाग देखता है कि यदि यह दबाव ज्यादा देर तक पड़ता रहा तो खून का दौरा कम पड़ जाएगा, इसलिए वह हुक्म देता है कि इस पैर को इधर रखना चाहिए करवट बदलना चाहिए। आपकी जानकारी के बिना यह सब अपने आप होता रहता है।
सतत काम, छुट्टी का नाम नहीं
मित्रो! हमारा दिमाग बराबर काम करता रहता है। काम करने से वह कभी रुक नहीं सकता। सूरज बराबर काम करता है। बंद हो जाएगा? नहीं बेटे! एक सेकंड के लिए भी उसे छुट्टी नहीं है। धरती को जबसे ब्रह्मा जी ने बनाया था, उस दिन से लेकर के जब तक इस धरती की मौत आएगी, तब तक एक दिन की भी छुट्टी नहीं मिलने वाली है। हमको जीवन में छुट्टी नहीं मिलती और आदमी को भी कभी छुट्टी नहीं मिलनी चाहिए। बहुत सारे डिपार्टमेंट्स ऐसे हैं, जिनमें कभी छुट्टी नहीं मिलती। नहीं साहब! हरेक को साप्ताहिक छुट्टी मिलती है। नहीं बेटे! कितने ही डिपार्टमेंट ऐसे हैं, जिनको कभी छुट्टी नहीं मिलती। किसको नहीं मिलती? चलिए मैं बताता हूँ जैसे—जेलखाना। आप गिरफ्तार हो जाइए। नहीं साहब! आज तो रविवार है और आज आपको बाहर घूमना पड़ेगा। कल आपको भरती करेंगे। अरे भाई! हमको अभी भरती होना पड़ेगा। हम डाका डालकर आए हैं। आप हमको पकड़िए और जेल में बंद कीजिए। जेलखाने में कभी छुट्टी नहीं होती। दवाखाने की छुट्टी नहीं होती। घायल हो गए हैं, बंदूक की गोली लगी है। साँप ने काट खाया है। चलिए भरती हो जाइए। छुट्टी है? नहीं छुट्टी नहीं है। काम करते-करते घिस जाएँ आराम न करें मित्रो! मनुष्य के जीवन में कभी छुट्टी नहीं होनी चाहिए। मनुष्य के जीवन का हर पल सक्रिय हो। हर समय मनुष्य को सक्रिय रहना चाहिए। हर समय मनुष्य को क्रियाशील बने रहना चाहिए। सक्रियता के बारे में, क्रियाशीलता के बारे में आदमी को हथियार नहीं डालना चाहिए। हम काम करेंगे। कब तक काम करेंगे? जब तक साँस चलेगी। रिटायर्ड होंगे तब? तब हम दूना काम करेंगे। पहले हमें कमाने की फिक्र थी, इसलिए रोटी कमानी पड़ती थी। अब तो रोटी के लिए पेंशन मिलती है, इसलिए अब हम समाज का काम करेंगे और ज्यादा काम करेंगे और करना भी चाहिए। यह क्या है? बेटे! यह क्रियाशीलता की गरमी है, जो बताती है कि आदमी को कर्मनिष्ठ होना चाहिए और कर्मयोगी होना चाहिए और निरंतर मेहनत का काम करना चाहिए। नहीं साहब! मेहनत का, मशक्कत का काम करने से थक जाएँगे। नहीं बेटे! कोई नहीं थकेगा। चलिए मैं यह मान भी लेता हूँ कि आप थक जाएँगे, तो यह आपकी शान है। हमारे यहाँ मथुरा में एक नाई थे छबिलाल। उनके पास सात पीढ़ी का एक उस्तरा था। घिसते-घिसते उस्तरा इतना बच गया था कि पीछे वाली पीठ बची थी और जरा सी नोंक रह गई थी। उसे दिखाकर वे कहते थे कि सात पीढ़ी से यह उस्तरा हमारे पास है। तब से अब यह मात्र इतना रह गया है। नाममात्र की नोंक रह गई थी, उस जंग खाए हुए उस्तरे में। जंग खाए हुए उस्तरे के ऊपर लानत है और जो आदमी काम करते-करते घिस गया, उसकी इज्जत है। आदमी काम करते-करते घिस जाए काम करते-करते मर जाए यह उसकी शान है, इज्जत है। जो हरामखोर बैठे रहते हैं और यह सोचते हैं कि हमारे बेटे कमाते हैं, हमारे पोते कमाते हैं, हमारा बाप कमाकर रख गया है और हमारे पास बहुत आमदनी है, पेंशन हमारे पास है, खेती-बारी हमारे पास है तो हम अब काम क्यों करें? बेटे! उन पर लानत है।
कामचोरी : एक सामाजिक अपराध
बेटे! तू तो कुछ काम करता है कि नहीं करता है? नहीं साहब! मैं तो नहीं करता। बेटे! काम तो करना चाहिए। समाज के लिए करना चाहिए। अपने लिए करना चाहिए किसी के लिए भी करना चाहिए। आदमी को निष्क्रिय नहीं बैठना चाहिए। हमारे समाज में निष्क्रियता आई और आलस्य हमारे समाज में आया कि दरिद्रता हमारे समाज में आई। अपने समाज में हर आदमी इस बात की शान समझता है कि हमको निष्क्रिय बैठने को मौका मिले और हमको काम न करना पड़े। जिसके पास कड़े काम हैं, मेहनत के काम हैं, उनसे वह भागना चाहता है। कड़े काम से आदमी भागता है। हमारे देश के पिछड़ेपन की, दरिद्रता की यही निशानी है। काम का सम्मान कम कर दिया गया है। काम का सम्मान कम कर देने से समाज में कैसी आफत आ गई, आपको दिखाई नहीं पड़ती। जो व्यक्ति काम नहीं करते, उन्हें बड़ा आदमी माना गया और जो व्यक्ति रात-दिन काम करते हैं, पसीना बहाते हैं, उन्हें छोटे वर्ग का कहा गया है और अलग कर दिया गया क्योंकि ये श्रमिक हैं, मजदूर हैं। हमारे देश का दुर्भाग्य यहीं से शुरू होता है। हमारे देश की दरिद्रता यहीं से शुरू होती है। हमने अपनी बेटी का विवाह करने का विचार किया और यह तलाश किया कि हमारी बेटी ऐसे घर में जानी चाहिए जहाँ पलंग पर बैठ करके राज्य किया करे। इसका क्या मतलब है? यह कि हम चाहते हैं कि हमारी बेटी जहाँ कहीं भी जाए उसे काम न करना पड़े। फिर कौन काम करे? खाना पकाने वाली जिसके घर में हो, जो रोटी बना जाया करे। चौका-बरतन वाली चौका-बरतन कर जाया करे। बच्चा खिलाने वाली बच्चे खिला जाया करे। झाड़ू लगाने वाली झाडू लगा जाया करे और सब काम कर जाया करे। हाँ साहब! हमारी बेटी बहुत अच्छी है। जरा सा भी काम न करना पड़े। अच्छा तो अबकी बार बेटी के पास जाना और एक बात पूछना, तूने एक के लिए नौकर रखा कि नहीं रखा? क्या पूछ करके आना? यह पूछकर आना तूने खाना खाने के लिए नौकर रखा है कि नहीं रखा है? बेटी खाना खाएगी, तो मुँह चलाएगी। इससे तेरे दाँत घिस जाएँगे। इसलिए नौकरानी रख ले। वह तेरे बदले का खाना खा लिया करेगी, चाय पी लिया करेगी। चुप बदमाश कहीं के, हरामखोरी की बात करता है।
प्रकृति आपसे बदला लेगी
मित्रो! जहाँ-कहीं भी देखिए हर आदमी काम से मेहनत से जान छुड़ाना चाहता है। बिना मशक्कत के रहना चाहता है। मशक्कत से जान छुड़ाएँगे तो मैं एक बात कहूँगा कि मशक्कत के दबाव से तो आप बच सकते हैं, लेकिन इसका जो बदला आपको चुकाना पड़ेगा, बीमारी के रूप में चुकाना पड़ेगा, यह ध्यान रखना। आप हरामखोर हो जाइए कोई बात नहीं लेकिन मैं आपसे फिर कहता हूँ कि नेचर आपसे किसी तरह से बदला चुका लेगी। आपको बराबर कमजोर बनाती जाएगी और आपके हाथ-पाँवों को अपाहिज जैसा बनाती चली जाएगी। अगर आप यह चाहते हैं कि आप काम नहीं करेंगे और आपके पास दौलत आती रहेगी तो ऐसा नहीं होगा। दौलत खतम हो जाएगी और आपके पास अक्ल आएगी? नहीं, अक्ल भी चली जाएगी। अक्ल रहेगी? नहीं, निकम्मे आदमियों की अक्ल चली जाती है। निठल्ले आदमियों के पास, बैठने वालों के पास बैठी रह जाती है। जो आदमी बैठा रहता है, उसका भाग्य भी बैठा रहता है। जो आदमी सोता रहता है, उसका भाग्य भी सोता रहता है और जो आदमी सीधा तनकर खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी तनकर खड़ा हो जाता है। जो आदमी चलना शुरू कर देता है, उसका भाग्य भी चलना शुरू कर देता है। मैं आपसे यही कह रहा था कि हमारा पुरोहित यही सिखाता है कि मानव समाज में हमें सक्रियता की परंपरा कायम रखनी चाहिए। हर आदमी को अपने तरीके से काम करना चाहिए। बुड्ढा है तो बुड्ढे के तरीके से काम करे, जवान है तो जवान के तरीके से काम करे। नहीं साहब! हम तो सास हैं। सास हैं, तो माताजी! आप सास के ढंग से काम कीजिए। आप बैठी क्यों रहती हैं? सास को भी काम करना चाहिए। नहीं, हमारी बहू आ गई है, तो वह रोटी खाती है। आप रोटी क्यों खाती हैं? बेटे! हर आदमी की शान, हर आदमी की इज्जत होनी चाहिए हर आदमी को गर्व-गौरव होना चाहिए कि वह क्रियाशील है। क्रियाशीलता हमारी अग्नि की शिक्षा है। गरमी हमारी अग्नि की शिक्षा है। रोशनी और गरमी हमारे पुरोहित के दो शानदार शिक्षक हैं। इन्हें जीवन का अंग बनाना चाहिए।
बेटे! अग्नि हमें एक शिक्षा और देती है। अग्नि में हम जो कुछ भी डालते हैं, वह अग्नि बनता जाता है। अग्नि सबको अपना जैसा बनाती जाती है। हमें भी अग्नि की तरह प्रकाशवान और गरम अर्थात सक्रिय बनना चाहिए। हमारे संपर्क में जो भी आएँ उन्हें भी अपने जैसा गुणवान बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। हमें डाई बनना चाहिए। साँचा बनना चाहिए। हम स्वयं गुणवान बनें और दूसरों को गुणवान बनाएँ यह शिक्षा हमें अपने पुरोहित यज्ञाग्नि से मिलती है। अग्नि हमारी पुरोहित है तो हम अग्नि के समान बनें। हम सबको अपने व्यक्तित्व से प्रभावित करें। ऐसा तब ही संभव हो पाता है, जब हमारी श्रद्धा निष्ठा अपने सिद्धांतों के प्रति हो। जब शैतान अपने व्यक्तित्व से प्रभावित कर दूसरों को शैतान बना सकता है तो हम सज्जन व्यक्ति दूसरों को सज्जन क्यों नहीं बना सकते हैं? बना सकते हैं लेकिन उसके लिए अपने सिद्धांतों के प्रति पूरा विश्वास और निष्ठा होना चाहिए। मित्रो! अग्नि हमारी पुरोहित है। अग्नि हमें एक और शिक्षा देती है। अग्नि की गति ऊर्ध्व होती है। अग्नि हमेशा ऊपर की ओर गति करती है। यज्ञाग्नि हमें यह शिक्षा देती है कि हमें अपना दृष्टिकोण ऊँचा रखना चाहिए अपना आचरण ऊँचा रखना चाहिए। अग्नि को हम कितना भी नीचे ओर झुकाने का प्रयास करें लेकिन वह नीचे की ओर गति नहीं कर सकती है, हमें भी किसी दबाव में नहीं आना चाहिए। लोभ, लालच, मोह के वश में आकर हमें अपना आचरण नीचे नहीं गिराना चाहिए।
बेटे! मैंने अपने पुरोहित अग्नि की शिक्षाओं के बारे में तुम्हें बता दिया है। यदि हम इन शिक्षाओं पर चलेंगे तो स्वयं अग्नि रूप बन सकेंगे और अग्नि को देवता का भगवान का दर्जा मिला हुआ है, उसी प्रकार हमारा भी दर्जा ऊँचा होता हुआ चला जाएगा।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥
हमारा युग निर्माण सत्संकल्प
यह सत्संकल्प सभी आत्म निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण के साधकों को नियमित पढ़ते रहना चाहिए। इस संकल्प के सूत्रों को अपने व्यक्तित्व में ढालने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। इन सूत्रों की व्याख्या ''इक्कीसवीं सदी का संविधान'' पुस्तक में पढ़ें।
हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
शरीर को भगवान का मंदिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे। अनीति मे प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
मनुष्य क मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एव विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
दूसरों के साथ वह व्यवहार नहीं करेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं। नर-नारी के प्रति परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
परंपराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रांत, संप्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है-इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे तो युग अवश्य बदलेगा!
'हम बदलेंगे युग बदलेगा' 'हम सुधरेंगे युग सुधरेगा' इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण, विश्वास है।