उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। — पूज्य गुरुदेव
दुनिया में रहने वाले आदमियों की तादात 500 करोड़ है। 500 करोड़ लोगों की समस्याएँ बड़ी समस्याएँ हैं, छोटी समस्याएँ नहीं हैं। उसको कोई एक आदमी इस शरीर से जानना चाहे तो सारी पृथ्वी पर घूमना ही मुश्किल पड़ जाएगा उसके लिए, सारी भाषाओं को समझना ही मुश्किल पड़ जाएगा उसके लिए। सारी समस्याओं को सुनना और उनके समाधान निकालना ही मुश्किल पड़ जाएगा। लेकिन सूक्ष्म शरीर के लिए यह बात नहीं है। हवा, हवा जब किसी गुब्बारे में बँधी होती है तो जरा सी होती है और गुब्बारे में से फैल करके, फोड़कर के गुब्बारे को जब हम हवा निकाल देते हैं तो सारे के सारे जगह-जगह फैल जाती है हवा। इस तरीके से हम फैलने वाले हैं।
ज्यादा काम करना पड़ेगा। ज्यादा काम इसलिए करना पड़ेगा कि ज्यादा समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। किसकी समस्याएँ हो गई हैं? गायत्री परिवार वालों की? नहीं गायत्री परिवार वालों की तो मुट्ठी भर समस्याएँ हैं। मुट्ठी भर समस्याएँ हैं तो अगर हम आपसे नहीं भी बात करें, बोलचाल भी न करें, तो भी हम आपकी बातों को सुन सकते हैं और आपकी जो सेवा करने की जरूरत हो वो हम कर सकते हैं। माताजी भी आपकी बातों को सुनती रहती हैं और आप चिट्ठी भी लिखते रहते हैं उनको। कभी-कभी मौका मिलता है तो आप उनके पास आप चले भी जाते हैं। बातचीत भी कर लेते हैं और आपकी जरूर सहायता करती होंगी, हमारा ऐसा विश्वास है।
और इससे आगे, इससे आगे भी हमारा विश्वास है कि ये क्रम बराबर ही चलता रहेगा। फिर आपका शरीर नहीं रहा तो? हाँ, दिखाई तो हमको भी पड़ता है कि हम सन् 2000 तक शायद न होने को बढ़े। दस साल होने को आये हैं। अभी इसमें पच्चीस साल बाकी रह जाते हैं। नब्बे वर्ष की उम्र हो न हो, कौन कह सकता है? लेकिन हम आपकी देखभाल बराबर करते रहेंगे। गायत्री परिवार वाले लोग हमारे बहुत प्राणों से भी प्यारे हैं। उनको हमने बहुत नजदीक से देखा है। और आपकी बहुत-बहुत कृपाएँ हमारे ऊपर हैं। जो-जो कहा है, जब कभी भी कहा है तभी आप उसको करने के लिए तैयार हो गए। शक्तिपीठ बनाने के लिए कहा, आप बनाने को तैयार हो गए। जब-जब आपसे ज्ञान रथ चलाने के लिए, प्रज्ञा पुस्तकालय चलाने के लिए कहा आप तैयार हो गए। जो-जो काम के लिए, अनुष्ठानों के लिए कहा आप तैयार हो गए, जब-जब भी हमने कहा है। आप लोग हमको बहुत प्यारे हैं। क्योंकि आप हमारे पदचिन्हों पर चलते हैं।
काम-काम की बात सिर्फ थोड़ी-सी ही है हमारे पास। ज्यादा कुछ है भी नहीं और ज्यादा कुछ है भी नहीं और ज्यादा कुछ आपसे बहुत बात करें और व्याख्यान दें। जिन्दगी भर व्याख्यान दिए भी हैं और लेख भी लिखे हैं, लिखते भी रहते हैं। आप उनको पढ़ते भी रहते हैं, पढ़े भी हैं। उन बातों को दुबारा-तिबारा, चौबारा कहने से कुछ काम चलने वाला नहीं है। चलने वाला ये है कि आपका और हमारा जो आपस का मिलना हुआ है ये दोनों का मिलना कुछ ऐसा सार्थक हो जाए कि लोग-बाग भी ध्यान रखे रहें कोई किसी आदमी से मिला था। कई बार हमने कहा है—कोई विवेकानन्द रामकृष्ण परमहंस से मिले तो मिले तो फिर ऐसे मिले कि धन्य हो गए निहाल हो गए, दोनों ही धन्य हो गए। गुरु शिष्य को पाकर के धन्य हो गया और शिष्य गुरु को पाकर के धन्य हो गया। समर्थ गुरु रामदास को पाकर के शिवाजी धन्य हो गये और शिवाजी को पाकर के समर्थ गुरु रामदास धन्य हो गये। चाणक्य को पाकर के चन्द्रगुप्त धन्य हो गए और चन्द्रगुप्त को पाकर के चाणक्य धन्य हो गए। तीनों ही गुरु-शिष्य की परंपरा ऐसी है। गाँधी को पाकर के विनोबा जी धन्य हो गए। गाँधी न मिलते विनोबा को तो विनोबा को कौन जान पाता बेचारा को और गाँधी अकेले ही बैठे रहते तो किसी संत बाबा जी के तरीके से झोपड़ी डालकर के सेवाग्राम में बैठे रहते। न उनको पटेल मिलते, न उनको नेहरु मिलते न उनको कोई मिलता। अकेले गाँधी कहाँ तक क्या कर सकते थे। दोनों को जो काम के आदमी मिले और ऐसे काम के आदमी मिले जैसे दोनों ही धन्य हो गए।
हमारा वास्तविक था मन आज आपसे कहने के लिए और अपनी बातचीत शुरू करने के लिए इसलिए मन आया कि आपको पाकर के हम निहाल हो जाएँ और हमको पाकर के आप निहाल हो जाएँ। नहीं यूँ नहीं कहना चाहिए मुझे? मुझे यूँ कहना चाहिए कि हम तो निहाल हो गए इसीलिए हो गए कि किसी आदमी का हमने पल्ला पकड़ा। जिस दिन से हमने होश सम्हाला है, उस दिन से एक आदमी का हमने पल्ला पकड़ लिया और समर्पण कर दिया। भक्ति इसी का नाम है, योगाभ्यास इसी का नाम है। द्वैत को मिटाकर के, दो को मिटाकर के एक जब बन जाते हैं उसी का नाम योगाभ्यास है। स्त्री और पुरुष के बीच में यही योगाभ्यास होता है। स्त्री अपने आप को पति को समर्पित कर देती है और पति की संपत्ति की, जायदाद की सबकी मालकिन हो जाती है उसी दिन से। ठीक इसी तरीके से हमने भी एक आदमी को समर्पण किया था, जिसको हम बॉस कहते हैं अपना, मास्टर कहते हैं अपना, गुरु कहते हैं हाँ, हाँ गुरु में चालाकी ज्यादा आ गई है, इसलिए गुरु शब्द का हम कम इस्तेमाल करते हैं। बॉस कहते रहते हैं। हमारे बॉस का पल्ला पकड़ा जिस दिन से, उस दिन से हम निहाल हो गए। आपने देखा है न। आप अगले महीने की, अप्रैल की अखंड-ज्योति पढ़ना। हमारे जीवन में आपने हमारा केवल शरीर ही देखा होगा, दो-चार काम देखे होंगे, व्याख्यान सुना होगा, लेकिन सारी जिन्दगी भर में इतने शानदार काम हमने किए हैं वो किस तरीके से किए? इसमें हमारा अकेले का साहस, हमारा अकेले का पराक्रम और अकेले का हमारा शौर्य काफी नहीं है। हमारी अकेले की मेहनत से नहीं हुआ है। हमारी अकेले की अक्ल से नहीं हुआ है।
मोती बनता है तो सीप में पैदा होता है बेशक! लेकिन सीप का पराक्रम नहीं है। स्वाती की बून्द जब तक उसमें न पड़े सीप में तब तक आप क्या कर सकते हैं? कैसे उसमें मोती बनेगा? सीप तो पहले भी थी और बाद में भी रहेगी। सीप से मोती नहीं बनते। स्वाती और सीप के सहयोग से मोती बन जाते हैं। हम मोती हो गए। हमने एक आदमी का ऐसा पल्ला पकड़ा, किस तरीके से पल्ला पकड़ा? पैर पकड़ा कि हाथ पकड़ा, गर्दन पकड़ी? नहीं, न हमने गर्दन पकड़ी, न हाथ पकड़ा, न पाँव पकड़ा बल्कि ‘करिष्ये वचनम् तव’। श्रीकृष्ण और अर्जुन जब युद्धक्षेत्र में थे तो वे कहते थे कि आप लड़ाई लड़िये और वो मना करता था। भीख माँग लेंगे साहब लड़ाई लड़ने से क्या फायदा, लेकिन जब उसने अर्जुन ने ये कहना शुरू किया ‘करिष्ये वचनम् तव’ आपकी आज्ञा को मैं करिष्ये—करूँगा। सुनूँगा नहीं।
सुनने से क्या फायदा? सत्य नारायण की कथाएँ सुनते-सुनते आप बुड्ढे हो गए, रामायण सुनते-सुनते आप बुड्ढे हो गए, भागवत सुनते-सुनते आप बुड्ढे हो गए। आपने कुछ फायदा उठा लिया क्या? न, कभी नहीं फायदा उठाया होगा। आपने कितने सत्संग सुने होंगे, कितनी चीज बनी होगी। उन सत्संगों से कुछ बात बनी है क्या? नहीं, हमारे भी सत्संग सुने होंगे, औरों के भी सुने होंगे लेकिन उससे कोई लाभ नहीं बना है और न लाभ होने की संभावना है। संभावना उसी तरह की है ‘करिष्ये’—करेंगे। हमने किया है। किया है से मतलब है, अपने शरीर से भी मन से भी जो बात बताई गई है उसको करने लगे। बस यही हुआ है, यही हुआ है।
हमारा भी मन था कि आप भी इसी तरीके से करें तो ज्याद अच्छा। आपको भी ये मालूम पड़े कोई गुरुजी नाम का, बाबाजी, पंडित, ब्राह्मण कोई ऐसा नहीं था जैसे कि आमतौर से लोग होते हैं। हमने उससे संपर्क बनाया तो हमको कुछ महत्त्वपूर्ण अपने जीवन में मिला। ऐसा हमारा मन था। इसीलिए आज इच्छा न होते हुए भी आज बातचीत करने का मन हो गया। तो फिर आपसे क्या कहें? सारी बातें अखण्ड ज्योति में बताई जा चुकी है कहते रहें क्या कहें आपसे। बस एक ही बात कहनी थी कि जो आपने सुना हो, समझा हो, जिस रूप में हमें पाया हो उसे आप करिष्ये, कीजिए। अब आप कर डालिए। सुनने की बात पर मत ध्यान रखिए, पढ़ने की बात पर मत ध्यान रखिए। ये आँखें बड़ी निकम्मी हैं, इनसे आप चाहे जो लेख पढ़ सकते हैं, किताब पढ़ सकते हैं, किस्से, कहानियाँ पढ़ सकते हैं, नॉवेल पढ़ सकते हैं और भी कुछ पढ़ सकते हैं और कान ऐसे हैं जिसमें कि सिनेमा के रिकार्ड सुन सकते हैं, गाने-बजाने सुन सकते हैं, सब बात सुन सकते हैं। कानों से और आँखों से आदमी का उद्धार नहीं हुआ है। आदमी का उद्धार हृदय से हुआ है। हृदय के अंदर जब किसी की बात समा जाती है और ये बात समा जाती है कि हम इसके लिए कुछ करेंगे। बस बात खतम हो गई।
आपसे हमारी प्रार्थना है कि आप कुछ कीजिए। किसके लिए? हमारे लिए? हाँ चलिए हमारे लिए ही मान लीजिए चाहे अपने लिए मान लीजिए। बात एक ही है। हम और आप दो हैं क्या? नहीं हम और आप दो नहीं हैं एक हैं। तो आप के लिए कुछ करें। नहीं भाई साहब! मत कीजिए हमारे लिए। हमारी जरूरतें कितनी हैं? इनसान की आवश्यकताएँ क्या हैं? मुट्ठी भर सा पेट। तीन मुट्ठी चावलों की खिचड़ी से हमारा गुजारा हो जाता है। आप से क्या कहेंगे। आप हमारे लिए ये कर दीजिए। तीन गज कपड़े से शरीर को ढक करके अपना काम चला लेते हैं। आपको अपने लिए हम क्या कहेंगे? हमको उसके लिए कहना है आपसे जिससे कि आपका भी कल्याण होता हो और आपको भी संतोष होता हो और हमारा भी कल्याण होता हो और हमारा भी संतोष होता हो, वो बात आपसे कहनी है। क्या कहनी है? आप करना शुरू कर दें बस। जो कुछ आपने सुना है और जो कुछ आपने पढ़ा है, अब उसको पढ़ने और सुनने से काम चलने वाला है नहीं। अब आप करना शुरू कर दीजिए।
करेंगे तो उससे लाभ क्या होगा? हमको यही लाभ हो जाएगा, जैसे कि हम प्रसन्न हैं और हमसे भी ज्यादा हमारा बॉस प्रसन्न हैं। आप भी प्रसन्न होंगे और आपसे भी ज्यादा हम प्रसन्न होंगे। कब? जबकि आप करिष्ये-करने की बात शुरू करेंगे तब। कीजिए न कुछ; क्या करें? आप एक काम कीजिए सिर्फ और कुछ मत कीजिए कि अपनी पात्रता को विकसित कर लीजिए। ताकि आपकी कोई बड़ी सेवा कर सकें। बादल बरसते हैं। पहाड़ों पर भी बरसते हैं, चट्टानों पर भी बरसते हैं, समुद्र में भी बरसते हैं। बरस-बरस के चले जाते हैं, लेकिन गहरा वाला तालाब होता है, वहाँ पानी ज्यादा जमा हो जाता है और वहाँ उससे साल भर तक लोग फायदा उठाते हैं। चलिए साहब तालाब चलेंगे। चलिए कुल्ला करेंगे। चलिए साहब अपना फलाँ काम करेंगे, मकान बनाएँगे। वहाँ जाते हैं। तालाब गहरा हो जाता है। बादलों की बड़ी कृपा है, नहीं बादलों की कृपा नहीं है। बादलों की कृपा अगर रही होती तो तमाम जगह क्यों नहीं हो गए पानी? गड्ढे तमाम जगह क्यों नहीं हो गए? भर क्यों नहीं दिए इससे तमाम जगह? बहुत सारे विरान क्यों पड़े हुए हैं? रेगिस्तान क्यों विरान पड़े हैं? बादलों ने वहाँ क्यों नहीं पानी बरसा दिया? बादलों की कृपा तो है, बादलों की महिमा तो है। मैं ये तो आपसे नहीं कहता कि बादलों की कोई महिमा नहीं है, पर बादलों से भी महिमा उसकी है जिसने अपने आपको गड्ढे के रूप में विकसित कर दिया। अपने आपको तालाब बना दिया। अपने आपको गहरा बना दिया।
अपने आपको आप कुछ बना डालिए। अपने आपको कुछ बना डालेंगे तो मजा आ जाएगा। आपको भी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहेगा। हमारा भी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहेगा। बल्कि सारे समाज का। और सारे समाज का जो कि आजकल बेहिसाब से परेशान है। बेहिसाब से हैरान होता हुआ चला जा रहा है। संभावना है कैसी कड़ी और कठोर दिखाई पड़ती है। आपको दिखाई नहीं पड़ती। खून-खच्चर दिखाई नहीं पड़ते? अभी पंजाब का खून-खच्चर दिखाई नहीं पड़ा। अभी कल-परसों झगड़े हुए थे वो दिखाई नहीं पड़े? संसार में जितने भी युद्ध हो चुके है और बिना युद्धों के कितने लड़कियाँ जल जाती है? आपने नहीं पढ़ते अखबार? क्या से क्या हो रहा है? डकैतियाँ आप नहीं पढ़ते? बलात्कार आप नहीं पढ़ते? हत्याएँ आप नहीं पढ़ते? और इन्सान का एक-दूसरे इन्सान के तईं जो व्यवहार है उसको आप नहीं देखा नहीं है? पढ़ा नहीं है? आप सब जानते हैं। क्या इसका कोई विरोधी नहीं होना चाहिए? कोई इसकी देखभाल नहीं होनी चाहिए? कोई इसको दूर करने की बात नहीं होनी चाहिए? हाँ होनी चाहिए। इन्सान ने ही गिराया है। इन्सान बड़ा ताकतवर है। भगवान के बाद दूसरा नम्बर है इन्सान का। अगर वो इन्सान हो तब। इन्सान न हो तब, जानवर हो तब? तब क्या कहना है? तब तो खाएगा और सोएगा। खाने और सोने के अलावा और कुछ कर नहीं पाएगा। अगर उसको खाने और सोने के अलावा भी कुछ करना है तो उसको इन्सान बनना पड़ेगा।
उसी के बारे में मैं निवेदन कर रहा था। आज जो आपसे बोलने का मेरा मन हुआ, वो ये हुआ कि सिद्धान्तवाद, आदर्शवाद जिसके बारे में हमने आपसे ढेरों बार कहा है, उसको आप कभी कर सके हैं, कभी नहीं कर सके। कभी आपने सुन लिया, कभी आपने ताली बजा दी, कभी आपने प्रसंशा कर दी, कुछ कर दी। हाँ गुरुजी की बात तो बहुत अच्छी है, लिखते तो बड़े अच्छे हैं। अब एक प्रार्थना है कि आप ये मत कहिए गुरुजी का बोलना बहुत अच्छा है। आपको कितना बोले लिया हमने। ये मत कहिए गुरुजी का लिखना बड़ा अच्छा है। हमने कितना लिख लिया है, आपको मालूम नहीं है। ढेरों-के-ढेरों लिखा है, आपने पढ़ा नहीं है? आपने ढेरों पढ़ा है, पर आप पढ़ें चाहे मत पढ़ें, अब आप हमको सुने चाहे मत सुनें। अब आप हमको देखें चाहे मत देखें। लेकिन कुछ करना शुरू कर दीजिए।
क्या काम करना शुरू कर दें? कोई आपने ऐसा काम बता दिया जो कि हम नहीं कर सकते। भाई साहब! ऐसा काम आपको बताएँगे नहीं। देख करके अपने जानवर को, देखकर के उस पर वजन लादा जाता है। बकरे के ऊपर दो किलो वजन लादते हैं। गधे के ऊपर उतना वजन लादते हैं और घोड़े के ऊपर उतना वजन लादते हैं। हाथी के ऊपर उतना वजन लादते हैं। आपको देखकर ही वजन लादने का हमारा मन है।
क्या मन है आपका? हमारा मन ये है कि दो चीजें इस तरह की है जिसके लिए आप ये मना नहीं कर सकते कि ये चीजें हमारे पास नहीं है। आपके पास शरीर है न? हाँ, तो शरीर की माने श्रम, शरीर का जो गुण है वो है श्रम। श्रम अगर न कर सके तो। तो फिर मरा हुआ शरीर है। शरीर काहे का है, लाश है फिर तो। आपके पास एक चीज है न। शरीर है कि नहीं है, आप बताइए। मेरे ख्याल से शरीर है। शरीर नहीं है तो आप कैसे बैठे हुए हैं? कैसे मेरी बात सुन रहे हैं। शरीर है तो आपके पास श्रम करने की भी ताकत है। आप कृपा करके जितना वाला श्रम अपने लिए करते हैं, अपनी औलाद के लिए करते हैं, पैसे के लिए करते हैं और उन्नति के लिए करते हैं, उसमें से थोड़ा वाला श्रम हमारे हिस्से का भी है। आप हमारे लिए भी खर्च कर दिया कीजिए। अर्थात हमारे माने, जब मैं हमारे कहूँ , तब आप उसका अर्थ एक व्यक्ति विशेष से न मानिए। बल्कि ये मानिए एक मिशन की बात कही जा रही है।
हम व्यक्ति के रूप में कब से खतम हो गए। हम व्यक्तिगत नहीं है हम कोई व्यक्ति नहीं है। हम एक सिद्धान्त हैं, आदर्श हैं, हम एक विचार हैं, हम एक प्रेरणा हैं, उसके लिए आप कुछ समय निकालना शुरू कर दीजिए। समय के सिवाय एक और भी चीज आपके पास है। जब तक आप शरीर धारण किए हुए हैं, तब तक आपको सामान की जरूरत पड़ती है। खाते हैं कि नहीं खाते आप। रोटी खाते है कि नहीं खाते? आप गरीब हैं तो क्या और अमीर हैं तो क्या? आप गेहूँ की खाते होंगे, जौ की खाते होंगे, बाजरा की खाते होंगे। किसी की न किसी की जरूर खाते होंगे। तन ढकते हैं न, नंगे तो आप नहीं फिरते। नहीं, आप नंगे नहीं फिरते। आप जरूर कपड़े पहनते हैं। धोती पहनते हैं, कुरता भी पहनते हैं और आप रोटी भी खाते हैं। उसी में से, रोटी में से और कपड़े में से जो आपके पास है थोड़ा सा, एक मुट्ठी भर सामान हमारे लिए निकाल देंगे नहीं, निकालेंगे नहीं। क्यों नहीं निकालेंगे? अगर आप निकालेंगे नहीं तो एक दिक्कत आएगी आपको।
अगर आप बोएँगे नहीं तो पैदावार नहीं कर सकेंगे। इस महीने की अखण्ड ज्योति में आप एक लेख पढ़ना हमारा। हमारी और हमारे बॉस की। आज से 60 वर्ष पहले जो बातचीत हुई थी, उस बातचीत में उन्होंने मूल उद्देश्य ये बताया था कि हम तो बहुत कुछ देना चाहते हैं। उसके लिए बोना पड़ेगा। बो करके काटने वाली बात बनती है। बोया नहीं जाएगा तो काटने वाली बात बनेगी नहीं। मक्का हम बोते हैं तो एक दाना बोते हैं और एक दाना बोने के बाद में उसकी सौ दाने पैदा हो जाते हैं। बाजरे को हम बोते हैं और एक दाना बोते हैं, सौ दाने पैदा हो जाते हैं।
आपसे वही प्रार्थना करनी थी आप कुछ अपने में से काटना शुरू कर दीजिए। कुछ अपनी किफायत के लिए कुछ बचाना शुरू कर दीजिए। कितने आदमी हुए हैं जिन्होंने अपने में से बचा- बचा करके भगवान के लिए दिया है आप नहीं कुछ देंगे? नहीं दीजिए। आपसे हमारी ये प्रार्थना है, जैसे हमारे गुरु ने हमसे कहा था—दीजिए, बोइये। हमने अपना श्रम बोया एक, सौ गुना हमारा श्रम हो गया। अपनी बुद्धि बोइये। हमने अपनी बुद्धि बोई है। सौ गुनी हो गई और अपना धन बोईये। हमने अपना धन बोया और सौ गुना हो गया। माँगा है आपने? नहीं, माँगा नहीं है फिर खर्च हमने बहुत किया है। लाखों, हजारों आदमी, हजारों नहीं, लाखों नहीं, करोड़ों खर्च किया है। करोड़ों रुपये की ईमारतें बनी हुई पड़ी है। शक्तिपीठें करोड़ों की शक्तिपीठें बनी है। करोड़ों से कम तो गिनना ही नहीं आया हमको। ये कैसे आ गया? हमें भी आप ये विद्या सीखा दीजिए। हमें भी कोई मन्त्र सीखा दीजिए। नहीं कोई मन्त्र नहीं है ऐसा। कोई ऐसा गुरु बता दीजिए। जो हमारे लिए भी इन सब चीजों की इन्तजाम कर दे। कोई ऐसा इन्तजाम करने का तरीका नहीं है। एक ही तरीका है कि हम बोये और काटे। बोने और काटने का एक ही तरीका हमको बताया गया है। बोने और काटने का तरीका ही आपको बता सकते हैं। आज हमको सच्चे मन से भीतरी मन से आपसे ये कहने का मन है हमारा कि आप बोना और काटना शुरू कीजिए।
आप बोते हैं, आप बोते तो हैं लेकिन आप ऐसे रेगिस्तान की जमीन में बोते हैं जिससे कि आपको फिर उसके बाद कुछ मिलने वाला नहीं है। आप बोते हैं शरीर के लिए, टट्टी हो जाता है, खतम हो जाता है। जब मरेगा तो खतम हो जाएगा। आपने अपने कुटुम्ब के लिए और परिवार के लिए बोया है। आप अपने कुटुम्ब परिवार के लिए बोइए, खतम हो जाता है। सारी दुनिया बोती है, लेकिन सिद्धान्तों के लिए बोइए ना पहले आप। श्रीकृष्ण भगवान को सामने सुदामा जी अपने पेट काट करके, भूखे होते होते हुए भी चावल दे गए थे और चावल ले जाने के बाद में उन्होंने भगवान के सामने रखे। चावल रखे तो चावलों का सौ गुणा अरे सौ गुणा क्या? मैं तो कहता हूँ आपसे सौ गुणा हो जाता है, हजारों गुणा हो जाता है। हमने जो दिया है उसका सौ गुणा हो गया है, नहीं हजारों गुणा हो गया है। हमने अपनी अकल जितनी समाज को दी है, उतनी गई नहीं हमारी अकल। सौ गुणी नहीं, हजारों गुणी से ज्यादा हो गई। आपको भी यही हमारा मन था।
दो हमारे गुरु हैं। मालवीय जी एक गुरु हैं जिन्होंने गायत्री मंत्र बताया था और जिन्होंने ये कहा था इससे साबुन लगाना। उन्होंने साबुन शब्द कहा था और बराबर हमको याद है। अपने आप को धोना और हमने अपने आपको बराबर धोया है। आज तक कभी ऐसा ध्यान नहीं रखा कि जब हमने अपने आपको धोया न हो। स्नान न किया हो। स्नान भी किया है और अपने मन को भी धोया है। ये गायत्री मंत्र मन को धोने का है, जिसमें कि हमारी जो खराब बातें भीतर की हैं उनको हम, उसको आप सफाई करें। तब वो हमारे मालवीय जी वाला गुरुमंत्र जो हमको मिला था, आपको समझ लीजिए, आपको वो हमने सीखा दिया गायत्री मंत्र और हमारे वाले गुरु ने हमको ये नहीं कहा था कि आप गायत्री मंत्र जप कीजिए। 24 लाख का पुरश्चरण के लिए तो कहा था कि मल, आवरण और विक्षेप जो हमारे ऊपर जमा हो गये हैं, उनकी सफाई हो जाए और जिस शक्ति की जरूरत है, वो शक्ति को देना संभव हो जाए। पात्र को दिया जाता है, कुपात्र को नहीं दिया जाता। पात्रता के लिए उनने हमसे कहा था। गायत्री माता को प्रसन्न करने के लिए नहीं। गायत्री माता को क्या प्रसन्न करना है? माँ को भी कोई प्रसन्न करता है क्या? छोटा बच्चा माँ के पेट में से पैदा होता है। क्या प्रसन्न करता है क्या? क्या प्रसन्न करेगा उस माँ को? माँ तो प्रसन्न है, लेकिन अपने आपको धोने के लिए और अपनी पात्रता के लिए 24 लाख के हमको पुरश्चरण करने पड़े। लेकिन सबसे ज्यादा हमारा जो गुरु है, आप मालवीय जी को मानते हैं? मानते हैं। जब कभी हमारा काशी जाना हुआ, उनके चरण स्पर्श करते रहे। जब कभी भी उनका आना हुआ वो इधर हमसे मिलते रहे।
लेकिन जो असली गुरु जो हमारे है, जिन्होंने हमको परीक्षा में डाल दिया और इस तरीके से बात कही कि हमारा कहना कर! कर! और हमने किया। आपको भी हमको यही कहना है कि आप कुछ कीजिए, करिये। करेंगे तब? तब क्या फायदा होगा आपको? आपकी पात्रता विकसित हो जाएगी। पात्रता विकसित अगर आपकी हो गयी तो आपको इतना ज्यादा मिलेगा, जितना ज्यादा कि जो आप चाहते हैं उससे हजारों गुना ज्यादा। आप क्या चाहते हैं? बराबर माता जी से कहते रहते हैं-‘हमारे बाल-बच्चे हो जाएँ, लड़की होती है तो लड़का हो जाए। हमारा मुकदमा चला हुआ है, मुकदमा जीत जाएँ, हमार बुखार-खाँसी हो गई है, वो अच्छा हो जाए। कुछ पैसे ज्यादा आमदनी हो जाए, नौकरी में तरक्की हो जाए।’ ये भी कोई माँगने की बात है क्या? ये चीजें मिल जाएगी तो आपका कुछ फायदा नहीं है और न मिले उसके बिना कुछ काम नहीं रुका हुआ है आपका, तो भी काम चलेगा। और ये मिल जाएगी तो भी काम चलेगा।
लेकिन जिस चीज से आपके जन्म-जन्मांतरों की समस्या का समाधान होगा और जिससे कि सारे-के-सारे मनुष्य जाति का समाधान होगा, वो चीज आपके करने की है। जो आपके पास है सामान, उस सामान को उसके लिए निकालिए, भगवान के लिए निकालिए। भगवान को भोग लगाकर के खाने वाली बात जो है, नियम है पहले आप भगवान को दीजिए, तब आप खाइये। आपने अपने लिए खाया है, आपने अपने लिए खाया है और कभी किसी देवता के पास गये हैं, गुरु के पास गये हैं, संत के पास गये हैं, तो उसका पुण्य और तप खाने के हिसाब से ही शायद गये होंगे। इसी ख्याल से गए होंगे संतोषी माता हमारा ये फायदा कर दे, मनसा देवी हमारा ये फायदा कर दे, वैष्णव देवी हमारा ये फायदा कर दे, फलाँ देवी हमारा ये फायदा कर दे। इसी 99 के फेर में इधर के उधर मारे फिरे होंगे, लेकिन ये रास्ता उसका नहीं है, संतों का रास्ता नहीं है, संतों का रास्ता दूसरा है।
शिवाजी का जब मिलना हुआ, शिवाजी का जब मिलना हुआ समर्थ गुरु रामदास से तो उन्होंने कहा—‘हमारी आँखों में दर्द होता है, सिंहनी का दूध तो ले आ।’ चला गया। हमारा शरीर और हमारा जीवन, जिसको कि हमने गुरु माना है, उसके लिए हमारा शरीर और जीवन चला जाए तो क्या हर्ज की बात है। इसीलिए वह सिंहनी के पास चला गया और सिंहनी से कहा—माता! हमारे गुरु की आँखें खराब होती जा रही है। उसके लिए हमको दूध की जरूरत है। या तो आप दूध हमको दे दीजिए। अगर आप दूध देने की स्थिति में नहीं हो तो आप खा लीजिए। हम खाली हाथ तो जाएँगे नहीं। खाया उसने नहीं, खाया नहीं। उसने दूध दे दिया। समर्थ गुरु रामदास ने उसको दूध लगा लिया और दूध लेने के बाद में ऐसी एक तलवार उसके हाथ में दी, जिसका नाम भवानी था। भवानी को जहाँ कहीं भी मारा गया वहीं उसने संग्राम को फतह कर लिया। खाली हाथ नहीं गया कभी। खाली हाथ कभी जाने वाला था ही नहीं। भवानी का दिया हुआ हथियार कभी खाली हाथ नहीं गया और हमारी गायत्री कभी खाली हाथ नहीं गई। हमारी गायत्री कभी खाली हाथ जाने वाली नहीं है। ये बन्दूक बच्चों को खेलने की नहीं है जो केवल आवाज करती है। हमारी चलने वाली बन्दूक है। हमारी निशाने पर निशाना लगाने वाला बन्दूक है।
आपके लिए भी हमको यही कहना था। और कुछ कहना, और क्या कहें आपसे? आप कुछ करते तो हैं नहीं, करने का वक्त आता है तो आप दाँया-बाँया देखना शुरू कर देते हैं। कभी उत्साह आ गया तो थोड़ा-सा कुछ कर दिया और उत्साह नहीं आया तो, उत्साह ठण्डा हो गया; बस फिर खेल खतम। ये तो बच्चों का-सा खेल है। पानी के बबूलों का-सा खेल है। पानी के बबूले पानी में पैदा होते हैं, थोड़ी देर के लिए उगे, उगने के बाद में खतम हो गए, समाप्त हो गए। ना ये मत कीजिए आप। आप बस कीजिए , ये कीजिए। जो भी करना है उसको नियम से कीजिए, उसको कायदे से कीजिए। उसको जनम भर कीजिए। वो संकल्पपूर्वक कीजिए। फिर व्रतपूर्वक कीजिए अगर आप ये करना शुरू करें तब फिर; तब फिर हमारे पास जो चीजें हैं वो ऐसी कीमती हैं फिर हम आपको दें।
हमारा देने का मन है। आपसे कुछ माँगने का नहीं है। कुछ माँगना नहीं है आपसे। और कुछ माँगेंगे तो आप बच्चों से माँगेंगे क्या? बच्चों को तो गुब्बारे दिए जाते हैं, पैसे दिए जाते हैं, मिठाई दी जाती है, चाकलेट दी जाती है और चीज दी जाती है। बच्चों से माँगना क्या? माँगने में क्या रखा है उनके पास। इसीलिए तुमसे हमको तो कुछ माँगना नहीं है, लेकिन माँगना ये है कि वहाँ, जहाँ कि खजाना भरा हुआ पड़ा है, जहाँ कि शक्तियों के भण्डार भरे पड़े हैं, जहाँ कि रिद्धि और सिद्धियों के भण्डार भरे हैं, वहाँ के लिए, वहाँ का जो खेत है, उसमें कुछ आप बोना शुरू करें। बोना शुरू कर देंगे, मजा आ जाएगा। मजा आ जाएगा, फिर आप देखेंगे कि आध्यात्मिकता के सिद्धान्त गलत है क्या या सही हैं? फिर आप देखेंगे कि रिद्धियों और सिद्धियों के बारें में जो बातें कही जाती रही हैं, वो बातें गलत है कि सही हैं। आप देखना; थोड़ा-सा धीरज तो रखिए। आप बहुत जल्दबाज हैं। जल्दबाजी आप मत कीजिए। हथेली पर सरसों जमती नहीं हैं। हमेशा बरगद के दरख, खजूर के दरख बहुत दिन जिन्दा रहते हैं और उनको पैदा होने में भी समय लगा करता है। आपको थोड़ा समय लगाना पड़ेगा और थोड़ा-सा धीरज भी रखना पड़ेगा और आपको संकल्प भी करना पड़ेगा और नियमितता का भी ध्यान भी रखना पड़ेगा और निरंतरता का ध्यान रखना पड़ेगा। केवल आपने इन बातों को ध्यान रखा, तो हम आपको आज यकीन दिलाते हैं। पहले भी यकीन दिलाते रहे हैं, पर आप ये मान के चलिए कि एक साल बाद गुरुजी हमसे बात कर रहे हैं तो कुछ काम की बात कर रहे हैं और आपके फायदे की बात कर रहे हैं और अपने फायदे की बात कर रहे हैं।
बेकार की बाते नहीं। रावण कब पैदा हुआ था? रामचन्द्र जी ने मार डाला तो हम क्या कर सकते हैं? रावण हुआ, मार डाला। नहीं साहब वो हुआ था; शंकर जी ने गणेश जी का सिर काट डाला और हाथी का सिर उगा दिया, तो हम क्या करें इसके लिए, जिससे आपका कोई फायदा नहीं है और हमारा कोई फायदा नहीं है। इस तरह के निरर्थक किस्से-कहानियाँ सुनाने की न कभी आदत हमारी रही है जिन्दगी भर, न इस समय है। न फिर कभी दूसरे जन्म लेने पड़ेंगे तो भी हमको ये करना करना पड़ेगा तो भी हमको निरर्थक बातें करना और निरर्थक बातें लोगों की सुनना, न हमको सुनना पसन्द है न हमको कहना पसन्द हैै।
इसलिए आपको काम की बात हम कह रहे हैं कि आप अपनी पात्रता बढ़ा लीजिए बस। और कुछ कहना नहीं, कुछ नहीं कहना। तो पात्रता कैसे बढ़ेगी? पात्रता बढ़ाने के लिए कोई बर्तन नहीं खरीदने पड़ेंगे आपको, कि आपको स्टेनलेस स्टील के बर्तन खरीदने हैं कि पीतल के बर्तन खरीदने हैं। आपको स्वयं का अपना व्यक्तित्व ऐसा बनाना पड़ेगा, जिसमें कि आप स्वयं के लिए कम और दूसरों के लिए ज्यादा निकालें। यही तरीका है। संतों का यही तरीका है। दूसरों का यही तरीका है। सबने यही किया है कि स्वयं के लिए कम, दूसरों के लिए विशेष कीजिए। आज समाज को कितनी ज्यादा आवश्यकता है हम कुछ कह नहीं सकते आपसे। जैसे जबसे ये जमीन पैदा हुई है और जबसे ये आसमान पैदा हुआ है, उस समय से लेकर के आज तक कभी भी ऐसा समय नहीं आया, जबकि उनकी जो भावनाशील है जिनके कि कलेजा भी है, जिनका हृदय भी है, उन हृदय वाले और कलेजे वालों की सहायता की जितनी जरूरत इस इन्सानियत को पहले पड़ी हो, ऐसा कभी हमको याद नहीं आता। आज की समस्याएँ बहुत उलझी हुई समस्याएँ हैं और उन उलझी हुई समस्याओं को हल करने के लिए केवल सत्पात्रों की जरूरत है। आप अपनी पात्रता बढ़ा लीजिए।
पात्रता दो ही कीमतों पर बढ़ सकती है और तीसरा कोई तरीका नहीं हैं। माला घुमाने से बढ़ेगी, नहीं माला घुमाने से नहीं बढ़ेगी। भागवत की कथा सुनने से बढ़ जाएगी। अरे बाबा नहीं बढ़ेगी हम कहते हैं आपसे। जो भागवत पढ़ने वालों की नहीं बनी। उनको चोर और उठाईगिरी हमने देखा है तो फिर आपको सत्यनारायण कथा सुनने से और रामायण की कथा सुनने से और भागवत की कथा सुनने से कैसे हो जाएगी? बेकार की बात मत कर आप पागलों की तरीके से। ऐसे मत कीजिए! ऐसे मत कीजिए। यह अध्यात्म सुनने का नहीं है, कहने का नहीं है, सुनने का नहीं है, कहने का नहीं है। नाम लेंगे आप, राम नाम लेंगे, नमः शिवाय जप करेंगे। आपकी मरजी है। करें तो आपकी मरजी है और न करें तो आपकी मरजी है। न मैं आपसे इसके महत्त्व को अनावश्यक रूप से बढ़ाना चाहूँगा न कम करना चाहूँगा। लेकिन मैं ये करना चाहूँगा कि आप अपनी पात्रता को विकसित कर लीजिए।
पात्रता को विकसित करने से हमारे धर्म शास्त्र सारे के सारे भरे हुए पड़े हैं। गाड़ी वाला ले के बीमारों को दुःखियारों को, अपनी गाड़ी में बिठाकर के अपंगों को ले जाता था और वहाँ से ले जाता था गाड़ी उसकी इसी काम के लिए थी। जलाराम बापा का नाम नहीं सुना है क्या आपने? वो मेहनत करते थे और मसक्कत करते थे, लेकिन जो कमाई उनके पास आती थी, उसको सबको बाँट देते थे, खाते नहीं थे। इसी तरीके से आप खाने में...........का कम कीजिए। औसत भारतीय के हिसाब से ये देखिये कि जिस मुल्क में आप पैदा हुए हैं, जिस समाज में आप पैदा हुए हैं, जिस देश में आप पैदा हुए हैं बस उसी स्तर का आप अपना खर्च कीजिए। खर्चे को आप बढ़ाएँगे नहीं तो फिर आपके पास बहुत सारा साधन इकट्ठा हो जाएगा। जिससे कि आप भगवान के लिए दे पाएँ। बीज बो पाएँ और बीज बों पा करके, बोने के बाद में रिद्धियों और सिद्धियों के जखीरे अपने लिए जमा कर पाएँ। ये सम्भव तब होगा जब कि आप कुछ अपने आप से बचाना शुरू करें। लोभ से आप अपने आप को बचाना शुरू करें। लालच आपके पैर से लेकर के सिर तक डूब गया है। सारी जिन्दगी भर कमाया लेकिन कमाने का सिर्फ वही तरीका आपने खा लिया, शौक-मौज के लिए खा लिया, बाल-बच्चों के लिए जमा कर लिया। बस रिश्तेदारों के लिए दे दिया। साले-साली को दे दिया। बस इसके अलावा कुछ किया है क्या आपने? ना इसके लिए नहीं किया।
नहीं साहब! भगवान जी की कथा कहलवाई थी। भाई साहब! भगवान जी की कथा आपने इसलिए कहलवाई थी और मंदिर आपने इसलिए बनवाया था कि जब हम मरेंगे तो भगवान जी भी हमारे लिए एक ऐसा ही मकान और फ्लैट बना देंगे, जैसा कि भगवान जी के लिए हमने फ्लैट बनाया। चालाकी तो आपके रोम-रोम में भरी पड़ी है। चालाकियाँ और खुदगर्जियाँ जब तक आपके रोम-रोम में भरी हुई पड़ी रहेंगी, तब तक आपने जो कुछ भी काम किया हो चाहे जप किया हो, चाहे हवन किया हो, चाहे मंदिर बनवाया हो, चाहे मस्जिद बनवाई हो, चाहे अस्पताल खुलवाया हो, जो भी काम किया हो, जब तक उसके पीछे आपकी ये भावना रही है कि हमारा इसमें व्यक्तिगत लाभ होना है तब तक ये मान लीजिए ये सारी-की-सारी भौतिक लोभ और लालच में शुमार होंगी। इसमें पूजा-पाठ भी शुमार है, तीर्थयात्रा भी शुमार है, ये भी शुमार है तब; तब आपको करना क्या है?
आपको एक काम करना है और उसी की आवश्यकता है। इंसान गिरा कैसे? समय की परिस्थितियाँ उल्टी कैसे हो गई? दुःख कैसे हो गया? इसमें संसार में क्या कमी दिखाई पड़ती है आपको? बाप-दादों की तुलना में हम हजारों गुने ज्यादा सुखी हैं। पोस्ट कार्ड हमारे बाप-दादों ने, उसके ऊपर तीन पीढ़ी वालों ने देखा था? टेलीफोन देखा था, रेल देखी थी, सड़कें देखी थीं। पैदल चला करते थे पगडंडियों पर बेचारे और गरीबी में दिन काटते थे। लेकिन हम पैसे की दृष्टि से संपन्न हैं और हम सुखी हैं। लेकिन पैसे की दृष्टि से संपन्न होते हुए भी, सुखी होते हुए भी, बहुत सारे सुविधा-साधन हमारे पास होते हुए भी दिन-दिन जो गिरावट आ रही है उसका क्या वजह है? एक वजह है सिर्फ एक वजह है। वो ये है कि इंसान के विचार, आदमी के खायलात, आदमी का दृष्टिकोण, आदमी का चिंतन ये नीचे गिरा है और उसको आप उठा दें तब। उठा दें तब मजा आ जाएगा।
नारद जी ने वाल्मिकी को इस तरीके से समझा दिया कि बात उसकी समझ में आ गई और चोर, उठाईगिरा, उचक्का, डाकू; गालियाँ दें हाँ, वाल्मिकी को बहुत गाली देनी चाहिए लेकिन जब उसने रास्ता अपना बदल दिया, जीवन अपना बदल दिया तो ऋषि वाल्मिकी हो गए और सीता जी को उन्होंने पाला और रामचन्द्र जी जिन बच्चों का पालन नहीं कर सकते थे, उन्होंने ऐसे तरीके से पाला कि रामचन्द्र जी और लक्ष्मण जी और हनुमान जी इन सबसे लड़ने को आमादा हो गए। बहुत ताकतवर हो गए थे। कौन हो गए थे? वाल्मिकी। वाल्मिकी नहीं, वाल्मिकी की तो शक्ति का क्या कहने। वाल्मिकी को जिन लोगों ने बताया। फिर आप वाल्मिकी के बारे में, अरे मैं नारद जी की कर रहा हूँ, नारद जी की कर रहा हूँ जिन्होंने ज्ञान दिया। वाल्मिकी के पास क्या था? पहले क्या था और पीछे क्या था। पहले जो था उससे कुछ कमी हो गई होगी। पहले जिस घर में रहता होगा, जब वाल्मिकी झोपड़ी में रहने लगे होंगे तो उसके पास कुछ कमी आ गई होगी। ज्यादा नहीं हुए होंगे। लेकिन इतने सामर्थ्यवान हो गए। उनके सामर्थ्यवान का क्या ठिकाना।
ये ज्ञान देकर के एक छोटी-सी पहाड़िन लड़की को उन्होंने पार्वती बना दिया। जगतमाता बना दिया। अगर उनका ज्ञान न मिलता तब पार्वती बन जाती नहीं तब पार्वती नहीं बन सकती थी। फिर एक पहाड़िन रहती और किसी पहाड़िन के यहाँ उसकी शादी हो जाती। बस पहाड़िन की पहाड़िन रह जाती। और ध्रुव और प्रहलाद क्या हो सकते थे? कुछ भी नहीं हो सकते थे। राजकुमार जैसे होते हैं, शिकार खेलते रहते हैं, शिकार खाते रहते हैं और खुराफातें करते रहते हैं, वैसा ही धु्रव हो गया होता। राजा ने गोदी में बिठा लिया होता। प्यार से रखा होता तो राजकुमार का यही हो सकता था। राजकुमार ध्रुव नहीं हो सकता था। ऐसा ध्रुव जो कि आसमान में अभी भी स्थिर है और सारे सूर्य उसकी परिक्रमा लगा रहे हैं। ऐसा वे नहीं बन सकता था। प्रहलाद भी ऐसा नहीं हो सकता था।
ये किसकी चमत्कार हैं? ये नारद जी के चमत्कार हैं। अरे नहीं साहब नारद जी के नहीं विचारणा के, विचार पद्धति को बदल देने की वजह से ऋषि, ऋषि हो गए। ऋषियों में क्या बात थी खास बताइए जरा? ऐसे हाथ थे, उनके ऐसे पाँव थे, ऐसी उनकी टाँगे थीं, ऐसे उनका सारा शरीर था। जैसे हमारे-आपके तरीके से हैं, ऐस उनके दाँत थे। जब ऋषि बुड्ढे हो गए होंगे तो ऐसे उनके दाँत उखड़ गए होंगे जैसे कि हमारे। अब ये नहीं मालूम है कि हमारी आवाज ठीक आपको सुनाई पड़ती है कि नहीं पड़ती। पहले हम नकली दाँत लगाते थे तो ठीक सुनाई पड़ती थी। अब हमको कुछ काम ही नहीं है। दाँत को सब फेंक दिये उतार कर। अब इसलिए आवाज ठीक न आ सकती हो। ऋषि भी ऐसे ही होंगे। हमसे ज्यादा उमर की होंगे। हम पचहत्तर साल के हैं तो ऋषि ज्यादा बुड्ढे हो गए होंगे तो दाँत सब साफ हो गए होंगे। ठोढ़ी नाक से लग जाती होगी। ऐसे ही ऋषि होंगे लेकिन वो ऋषि कैस सामर्थ्यवान हैं। क्यों हो गए ऋषि? क्या चीज मिली उनको? कोई चीज नहीं मिली। एक ही चीज मिली ज्ञान।
ज्ञान को आप ग्रहण नहीं कर पाते। सुनते तो हैं आप, देखते भी हैं, पढ़ते भी हैं, लेकिन आप ग्रहण नहीं कर पाते। ग्रहण नहीं कर पाएँगे तब; तब उसका चमत्कार, ज्ञान का चमत्कार किस तरीके से होगा। आप ज्ञान को ग्रहण कीजिए। जब आप ज्ञान को ग्रहण कर लेंगे, अपने जीवन में उतार लेंगे, तब फिर आपके लिए संभव होगा सारे-के-सारे समाज को उस ज्ञान को दें। और तब! तब फिर ये संभव होगा आप सारी समस्याओं के समाधान कर दें। आप रुपया बाँट करके गरीबी दूर नहीं कर सकते। गरीबी मिटाओ बेशक! गरीबी मिटनी चाहिए। तो आपको कितना चाहिए। इसके लिए करोड़ों-करोड़ रुपया चाहिए, जबकि आप हर आदमी की गरीबी मिटाएँ तब। और क्यों साहब! करोड़ों-करोड़ रुपया न हो तब। तब आप उसको ज्ञान दीजिए, समझदारी दीजिए ताकि अपना जो कमाता है, उसी की सीमा-मर्यादा में रहे तो खूब प्रसन्न रहेगा और खूब खुश रहेगा। ज्ञान से बढ़िया नहीं—‘ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ ज्ञान से बढ़कर के और कोई चीज दुनिया में नहीं है।
आपको ज्ञान बाँटना है। कहाँ से ज्ञान बाँटेंगे? ज्ञान को खरीद लिया और बाँट दिया। काहे से खरीदें? आपके पास दो सामान हैं। कौन से सामान हैं? एक है आपके पास साधन और एक है आपके पास श्रम। आप अपना श्रम और साधन अर्थात अपना समय, अंशदान और श्रमदान। श्रमदान और अंशदान दोनों को निकालने की बात आप कीजिए।
आप तो हमको मुसीबत में डालते हैं। हम क्या करें? आपको मुसीबत में नहीं डालें, त्याग के लिए न डालें। हमारे बॉस को देखिए न। हमारा दिवाला निकाल दिया। हमारी जमीन छिन ली, हमारा जायदाद छिन ली, हमारी जवानी छिन ली, हमारा शरीर छिन लिया, हमारी अकल छिन ली। सारा का सारा छिन लिया। न हमको एम.ए. करने दिया और न हमको पी.एच-डी करने दिया और न हमको कुछ भी करने दिया। जो कुछ भी था सब। उसने कहा—अरे क्या करेगा अपने लिए। जो है, कुछ है उसी को निकाल के रख। जो कुछ था हमारे पास वही निकाल के रखा, उसी से हम निहाल हो गये।
अब आपके पास जो कुछ भी है, उसको निकालने की तैयारी कीजिए और निकालने की तैयारी इसलिए कीजिए, किस काम के लिए निकालें? मंदिर बनवा दें नहीं मंदिर मत बनवाइये। मंदिर जिन लोगों ने बना दिये हैं, उन लोगों से हम प्रसन्न नहीं हैं-नाराज हैं। क्यों नाराज हैं? आपने कहा था मंदिर बना दीजिए। नहीं मंदिर नहीं कहा था हमने। हमने उनको ये कहा था कि आप ज्ञान मंदिर बना दीजिए। ज्ञान मंदिर नहीं बनाया, खिलौने लाकर के रख दिये। अब खिलौनों से जमीन भी घिरी पड़ी है, रुपया भी घिरा पड़ा है। एक आदमी पुजारी भी घिरा पड़ा है और बेचारा भगवान और ताले में बंद हो गया। पहले घूमता-फिरता होगा, टट्टी जाता होगा, नहाता-धोता होगा, सिनेमा देखता होगा। ताले में बंद कर दिया आपने। नहीं उसके लिए नहीं कहता हूँ।
हमारा जीवन मंदिरों के लिए नहीं है, न आपका जीवन मंदिरों के लिए होना चाहिए। आपका जीवन एक काम के लिए होना चाहिए। विचारों के लिए, विचार क्रान्ति के लिए। विचारक्रान्ति के लिए हमने आपसे नहीं कहा है? हमने सारे जिन्दगी भर कहा है। एक बात कही है और दूसरी कुछ बात कही नहीं है।
कोई और बात कहिए हमसे। क्या बात कहें आपसे? मिठाई खिला दीजिए, दावत दे दीजिए। तीर्थयात्रा हो आइए। नहीं, ये बातें हम नहीं कह सकते क्योंकि ये शरीर के द्वारा है। भावना की बातें नहीं है ये। जब तक आपकी भावना का उदयमान नहीं होगा, भावना आपकी जगेंगी नहीं, भावना आपकी प्रदीप्त नहीं होंगी, तब तक आपका जीवन, आपका स्वयं का जीवन और आपके विचारों की संगति नहीं बैठेगी और जब तक दोनों की संगति नहीं बैठेगी, तब तक आप किसी की सेवा नहीं कर सकेंगे, आप किसी को ऊँचा नहीं उठा सकेंगे। आप किसी को महत्त्वपूर्ण व्यक्ति नहीं बना सकेंगे। आप किसी के दुःखों को दूर नहीं कर सकेंगे।
नारद जी ने अपने जीवन में भगवान की भक्ति को समाविष्ट कर लिया था, तो ही उनका पड़ा असर और ढेरों आदमी ऐसे हैं, जिन्होंने भगवान की भक्ति का प्रचार किया है। कोई अखण्ड कीर्तन कर रहा है, कोई अखण्ड रामायण पाठ कर रहा है, कोई अखण्ड भागवत कर रहा है लेकिन उनके जीवन, उनका स्वयं के जीवन कैसे रद्दी, कैसे निकम्मे और कैसे वाहियात हैं। वाहियात जीवन होने की वजह से कोई किसी ने सुना उनकी बात? किसी ने उनकी बात सुनी नहीं। किसी ने उनकी बात नहीं सुनी। और किसी का कल्याण हुआ? किसी का कल्याण नहीं हुआ। किसी का कल्याण हो सकेगा? कभी किसी का कल्याण नहीं हो सकेगा। क्यों? जो आदमी अपने जीवन में जो अपना व्यक्तित्व, चरित्र मन और वाणी से मिला हुआ नहीं है तब तक असर नहीं पड़ेगा।
आपको समाज के लिए एक काम करना है। एक, सिर्फ एक काम करना है। लोगों के विचार बदल देने हैं। तो हम कहाँ से शुरुआत करें? अपने से शुरू कीजिए। आप अपने से विचारों को बदलना शुरू करेंगे, तब फिर क्या हो जाएगा? तब फिर आप देखना आप सारी दुनिया के विचार बदलने में आप समर्थ हो जाएँगे। हम समर्थ हुए। बीस लाख आदमियों के विचारों को हमने बदल दिया है और अभी तो बहुत रहना है। अभी तो हमको लाखों, हजारों वर्ष जिन्दा रहना है और जब जक हमारा ऐसा ख्याल है, बीस करोड़ नहीं, बीस करोड़ नहीं, पाँच सौ करोड़, पाँच सौ करोड़ों तक हमारी हिम्मत है कि हम पाँच सौ करोड़ों के खयालात, पाँच सौ करोड़ लोगों के विचार को बदलने में समर्थ हो जाएँगे।
ये कहाँ से समर्थ आई? ये बाजार में से नहीं खरीदी है। हमें समर्थ वहाँ से आई, जहाँ कि अपना चिंतन और जहाँ अपना चरित्र और जहाँ अपने विचार को हमने मिला लिया। ज्ञान यज्ञ के लिए, लोगों को ज्ञान देने के लिए, हमारी बात को सुना है लोगों ने, हमारी बात को गौर किया है। आपकी बात को भी लोग सुनेंगे, आपकी बात को भी गौर करेंगे। ऐसा नहीं हो सकता कि आपकी बात को सुनें नहीं या गौर न करें। सुनने और गौर करने का परिणाम, नतीजा।
वो नतीजे होंगे, जो आप चाहते हैं। आप चाहते हैं लोगों की गरीबी दूर हो जाए, आप चाहते हैं लोगों की बीमारियाँ दूर हो जाएँ, आप चाहते हैं लोगों में से लड़ाईयाँ बंद हो जाएँ, आप चाहते हैं दुनियाँ में से क्या-क्या खुराफातें हो रही हैं, दूर हो जाएँ। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि ये सब बीमारियाँ दूर होने को हैं। कैसे? अगर आप एक काम करें तब लोगों के खयालात दूर कर दें। अस्पताल खोल दें तो बीमारियाँ अच्छी हो जाएँगी? नहीं, अस्पतालों से बीमारियाँ अच्छी नहीं हो सकती। अगर अस्पतालों से बीमारियाँ अच्छी होतीं तो जितने भी डॉक्टर और हकीम हैं से सब अब तक दीवालिया हो गये होते। और मालदारी! मालदारी संपन्न आदमी से अगर संपन्न हो गये होते तो डाकू और चोर और जेबकट जो बराबर कमाई करते रहते हैं। इनकी कमाई का कोई ठिकाना नहीं, जिन्होंने सारी जिन्दगी भर कितनों जाने कमाया होगा। लेकिन फिर उनको कमाने की या अपने गरीबी की, अभावों की जरूरत क्यों पड़ती है?
केवल एक ही चीज दुनिया में है, जिससे आप किसी का भला कर सकते हैं और वो है उनके खयालातों को बदल देना। खयालातों को बदल देने से ही हम आज की जितनी भी समस्या है, उनको ठीक करने की जिम्मेदारी उठा सकते हैं। आपने हमारे लेख पढ़े हैं ना। हमारा सूक्ष्मीकरण का उद्देश्य पढ़ा है ना। आप फिर पढ़ना एक बार। ये ख्याल करना है जिन लोगों में सामर्थ्य है, उन लोगों को कहेंगे कि सामर्थ्य को सिद्धान्तों के साथ मिला लीजिए। सामर्थ्यों को सिद्धान्त के साथ मिला लीजिए। सामर्थ्यों को सिद्धान्त के साथ मिला लीजिए। सामर्थ्यों को सिद्धान्त के साथ मिला लीजिए। हम अपनी सूक्ष्मीकरण का पूरा दबाव इस बात पर डाल रहे हैं कि लोग बाग अपनी सामर्थ्य को सिद्धान्तों के साथ मिला लें और जहाँ सामर्थ्य को सिद्धान्तों के साथ मिलाया, फिर वो इतने ताकतवर आदमी होंगे कि लोगों के पास जहाँ भी जाएँगे, जिनसे भी कहेंगे, जो भी कहेंगे लोग उनकी बात को जरूर मानेंगे। हमारी बात को जरूर माना है लोगों ने। अब तक तो लाखों आदमियों ने माना है। आप भी उन्हीं में से हैं।
और इससे आगे, इससे आगे हमारी सूक्ष्मीकरण की जो प्रक्रिया चल रही है हमारा ऐसा ख्याल है कि जितने भी सामर्थ्यवान आदमी हैं, ये हमारा कहना जरूर मानेंगे, पैसे वाले हमारा कहना, हमारा विश्वास है, जरूर मानेंगे। विद्वान हमारा कहना जरूर मानेंगे। शक्तिवान कहना हमारा जरूर मानेंगे। राजनीतिज्ञ हमारा जरूर मानेंगे। क्यों? आप ऐसी बात क्यों कहते हैं? इसीलिए कहते हैं कि हमारे मन ने हमारी बात मान ली और अपने मन को अपनी बात मनाने के लिए हमने रजामन्द कर लिया। आपसे हम वही बात कहते हैं। जो हमारे गुरु ने हमसे कही थी वही हम आपसे कहते हैं और कोई बात नहीं कहना। जो गुरु ने हमसे कराया था वही हम आपसे करा रहे हैं।
हमने अपनी शक्तियों को जो स्वयं की कमाई हुई थी अथवा भगवान की दी हुई थी या पहले जन्मों की थी, हमने खाई नहीं। सब हमने बो दिया और बोने के बाद में हम मालदार हो गए। आपसे सिर्फ एक बात कहनी हैं दूसरी कुछ नहीं कहनी है। यहाँ बुलाकर के गुरुजी और कोई कथा कहिए। नहीं और कोई कथा नहीं हमारे पास। और कोई रामायण सुनाइए, कोई मंत्र सुनाइए। एक ही मंत्र है हमारे पास। कौन-सा मंत्र है? सिद्धान्तों को जीवन में शामिल कर लीजिए। हमने सिद्धान्तों को जीवन में शामिल किया है। आप भी शामिल कीजिए।
क्या शामिल करें? बस एक बात शामिल कीजिए कि आपके पास कम-से-कम दो चीज हैं। विद्या आपके पास है कि नहीं हमें नहीं मालूम। आपके पास दौलत है कि नहीं है, हमें नहीं मालूम है। लेकिन साधन थोड़े और बहुत जरूर आपके पास हैं और आपके पास श्रम जरूर आपके पास है। आप जरूर श्रम करते हैं। खाना खाने में श्रम करते हैं, नहाने में श्रम करते हैं, टहलने में श्रम करते हैं, कपड़ा धोने में श्रम करते हैं। कहीं-न-कहीं तो श्रम करते हैं। श्रम से ज्यादा गरीब दुनिया में कोई नहीं सकता, जो ये कहे कि हम श्रम नहीं कर सकते और कोई आदमी दुनिया में ऐसा नहीं है जो ये कहे कि हम नंगे फिरते हैं और हमारे शरीर पर तन ढकने को कपड़ा नहीं है।
हम उसी में से माँगते हैं। हम कब कहते हैं कि आप करोड़ों रुपया दीजिए। हम कब कहते हैं कि आप हमको अमुक चीज दीजिए। जो आपके पास है, उसी चीज को आज की मनुष्य की आवश्यकता, बेहद जरूरी आवश्यकता है। आपका कल्याण तो उसमें है ही, हमारी प्रसन्नता तो उसमें है ही, हमारे भगवान और हमारे बॉस की प्रसन्नता तो है ही। सबसे ज्यादा आपको जरूरत ये है कि आज का जो जमाना है, आज का जो समय है, बेहद दुःखी है। जबसे जमीन बनी है, तब से कभी इतना दुःखी नहीं हुआ। सबसे ज्यादा इतना हैरान आदमी इस बखत दिखाई पड़ता है, उतना हैरान कभी नहीं हुआ।
रात को ट्रंकोलाइजर की गोलियाँ खाता है, तो भी नहीं हुआ। नशा पीता है तब भी नींद नहीं आती। चैन नहीं है आदमी को, किसी भी तरह से चैन नहीं है। सब आदमी बेचैन मालूम पड़ते हैं। बुरे-से-बुरे कर्म करने को रजामंद और तैयार हैं, तो भी चैन नहीं है। अमेरिका को चैन नहीं है, रसिया को चैन नहीं है। जापान का बेचारे पर परमाणु बम गिरा करके सफाया कर दिया तो भी शान्ति है, तो भी शान्ति नहीं है। शान्ति कहीं से नहीं मिलेगी।
शान्ति एक चीज से मिलेगी, ज्ञान से। वो ज्ञान कहाँ है? वो अध्यात्मिक ज्ञान है। अध्यात्मिक ज्ञान कहाँ है? हमारे पास है और किसी के पास नहीं है। नहीं साहब वहाँ वो स्वामी जी सत्संग करते हैं, बकते सब हैं। स्वामी जी सत्संग करते हैं। स्वामी जी करते हैं अपना सिर। स्वामी जी सत्संग करते हैं। फलानी बात है, माया है, ईश्वर है, जीव है, प्रकृति है। तुम्हारा सिर है।
अध्यात्म हमारे पास है, सो मानो। वो अध्यात्म है, जिसमें कि अपने आपको, अपने आपको ठीक किया जाता है और दूसरों को अपनी वाणी से नहीं, अपनी क्रियाओं से उपदेश दिया जाता है। हम वाणी से आजकल के लिए भाषण देने में बन्द हैं, लेकिन क्या आप ये समझते हैं कि लोगों को नहीं कुछ कह रहे हैं। हम इतने जोरदार वाणी से कह रहे हैं कि हमारी वाणी को सुनकर के आदमी काँप जाएँगे और थरथरा जाएँगे। आप भी अपनी वाणी से कँपकँपाने दीजिए और थरथराने दीजिए। संसार की यही सेवा है, आपकी अपनी यही सेवा है। हमारी प्रसन्नता यही है। हमारे बॉस की सेवा यही है।
बस इस तरह का है और यही आपसे कहना है कि अगर आप सुन सकें तो हमारी बात सुन लीजिए। हमारी बड़ी प्रार्थना है, हमारी बड़ी कामना है कि आप जब आये ही हैं और हमारी शकल को फिर एक साल बाद देख ही रहे हैं और हमारी आवाज सुनने के लिए फिर आपकी इच्छा है। कृपा कीजिए, बस हमारी एक ही बात सुन लीजिए कि दुनिया को ज्ञान की बेहद जरूरत है। ज्ञान के बिना एक समस्या हल नहीं हो सकती और ज्ञान को अगर आप बाँट सकें तो फिर दुनिया में एक भी समस्या बाकी नहीं रहेगी।
कौन कर सकते हैं? आप कर सकते हैं। आप के पास सामर्थ्य है, आपके पास साधन है। नहीं साहब, हम गरीब आदमी हैं। आपके पास बहुत सामर्थ्य है। हम भी गरीब हैं। हम कौन अमीर दिखाई पड़ते हैं आपको। जो कुछ था अमीरी से, ले गया, कौन ले गया? अब तो हम भी गरीब हैं। आप गरीब हैं तो हम भी गरीब हैं। ऋषि भी गरीब थे। लेकिन फिर गरीब रहते हुए भी आप बहुत कुछ कर सकते हैं। इसी के लिए बुलाया था। अगर आप ये कर पाएँ तो हमारा जी इतना प्रसन्न होगा कि आप हमारा दर्शन करने आए, वाणी सुनने आए, लेकिन हमारा कहना भी मान लें, तो निहाल हो जाएँ हम।
और कुछ कहना है? और नहीं कुछ कहना है। ‘करिष्ये वचनम् तव’। हमने भी अपने गुरु से कहा था—‘करिष्ये वचनम् तव’, ‘करिष्ये वचनम् तव’। आपके मुँह में से भी ये शब्द निकल पड़े—‘करिष्ये वचनम् तव’। हम करेंगे आपकी बात को। सुनेंगे नहीं! सुनेंगे नहीं। पढ़ेंगे—पढ़ेंगे नहीं, करिष्ये—करेंगे। अगर आप ये करेंगे, तो बस बात खतम हो जाएगी।