उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
चेतना की शक्ति—
मित्रो! जीवित और मृतक व्यक्ति के बीच का अंतर आपको मालूम है। जीवित और मृतक व्यक्ति के नाम और रूप वही रहते हैं। शक्ल को आप देख लीजिए, वही शक्ल है। पिता जी की मृत्यु हो गई है, हम भी उनके दर्शन करने के लिए आए हैं। अच्छा! तो देख लीजिए, ये वही हैं न? हाँ, वही हैं। मित्रो! मरे हुए पिता जी के अंदर एक और विशेषता पाई जाएगी। उनके अंदर हलचल नहीं होती। जीवित आदमी का दिल धड़कता रहता है, साँस चलती रहती है। फिर भी आप यह मत सोचें कि मरने के बाद में आदमी की हलचलें बंद हो जाती हैं। हलचलें बंद नहीं होतीं। आदमी के भीतर क्या हलचलें शुरू हो जाती हैं? धड़कन के स्थान पर एक नई प्रक्रिया शुरू हो जाती है और उसका नाम है—सड़न। सड़न की एक्टीविटीज बहुत तीव्र गति से चालू हो जाती है, जिस तरीके से हमारा रक्त चलता है, साँसें चलती हैं, उससे भी ज्यादा सड़न की एक्टीविटीज बन जाती है। आदमी का नाम और रूप वही है, लेकिन अब वह कुछ काम नहीं कर सकता।
प्राण-प्रतिष्ठा का महत्त्व—
मृत व्यक्ति काम क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि इनके अंदर से एक चीज गायब हो गई है और उस चीज का नाम है—चेतना, जिसको चित् शक्ति कहते हैं। चित् शक्ति उनके अंदर से गायब हो गई है और सब चीजें विद्यमान हैं। अब ये कुछ काम कर सकेंगे? नहीं, अब ये कुछ काम नहीं कर सकेंगे। इनकी शक्ल बनी रहेगी, सूरत बनी रहेगी। इनका फोटो भी खिंच सकता है। समाधि भी बन सकती है और सब काम हो सकते हैं, पर ये कुछ कर नहीं सकते। इनसे कुछ फायदा उठाना चाहें तो? कोई फायदा नहीं उठा सकते, क्योंकि ये मरे हुए हैं। मरे हुए से आप क्या फायदा उठा सकेंगे? अच्छा क्या आप एक बात बता सकते हैं कि मूर्तियाँ, जो मंदिरों में स्थापित रहती हैं और जो दुकानों पर रखी रहती हैं, उन दोनों में क्या फरक है? जो मूर्तियाँ दुकानों पर रखी रहती हैं और जो मंदिरों में स्थापित रहती हैं, उन दोनों के शक्ल में कोई फरक नहीं है। दोनों की मूर्तियाँ एक हैं, किंतु उनमें एक फरक पड़ जाता है। एक मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाती है और एक की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं होती। दुकानदारों के यहाँ मूर्ति बेचने वालों के यहाँ ढेरों मूर्तियाँ पड़ी रहती हैं। कहीं हनुमान जी उलटे पड़े हैं, लक्ष्मी जी सीधी पड़ी हैं, गणेश जी तिरछे पड़े हैं। सब के सब उलटे-पलटे पड़े हैं। कूड़ा-कचरा पड़ा है तो क्या? सफाई हो गई तो क्या? कोई फरक नहीं पड़ने वाला है। वे नाराज भी नहीं हो सकते, क्योंकि उनके अंदर प्राण-प्रतिष्ठा नहीं हुई है।
जीवंतता का संचार—
मित्रो! प्राण-प्रतिष्ठा करने के बाद क्या हो जाता है? फिर वो मूर्ति जीवंत हो जाती है। देवताओं के तरीके से उसका भोजन का प्रबंध करना पड़ता है, आरती का प्रबंध करना पड़ता है, सोने-जागने का प्रबंध करना पड़ता है। नहीं करेंगे तो देवता नाराज हो सकते हैं। मूर्तियों में श्रद्धा रखने वालों के लिए देवता चमत्कार दिखा सकते हैं। मूर्तियों के चमत्कार? हाँ, मूर्तियों के भी चमत्कार होते हैं। श्रद्धा हो तो, उसके समीप जाने से हमको निश्चित रूप से शांति तो मिलती ही है। क्यों साहब ! यह सब कब मिलेगा? जब देवता के अंदर प्राण-प्रतिष्ठा हो जाएगी और अगर प्राण-प्रतिष्ठा न हो तब? तब बेटे! कुछ नहीं हो सकता। प्राण-प्रतिष्ठा नहीं हुई है तो मूर्ति कुछ नहीं कर सकती। तब यह मूर्ति एक खिलौना है। दुकानदारों के यहाँ ये पड़ी रहती हैं। इनमें कोई चमत्कार नहीं होता; जबकि शक्ल वही है। प्राण-प्रतिष्ठा से मेरा क्या मतलब है, अब आप समझ गए होंगे।
अभी मात्र हलचलें जानी हैं—
मित्रो! मैं ये कह रहा था कि इस शिविर में जो हमने समग्र कर्मकाण्ड कराया है और आपको सिखाया है, उसकी अब प्राण-प्रतिष्ठा होनी चाहिए। उसके अंदर प्राण होने चाहिए, नहीं तो उसकी शक्ल बनी रहेगी, किंतु आपको उससे कोई खास फायदा नहीं हो सकेगा। दुनिया में सब काम चलते रहते हैं। भौंरा या लट्टू घूमता रहता है, पर घूमते रहने से उसमें प्राण नहीं। जिस तरीके से ताश के पते खेलने वाले कभी बेगम काट देते हैं, कभी गुलाम काट देते हैं तो कभी बादशाह काट देते हैं। तो क्या यह डबल हत्या नहीं हो गई? मुकदमा नहीं चलेगा? नहीं, क्योंकि यह पत्तों का बादशाह था। पत्तों का बादशाह कैसा होता है, जिसमें नाम और रूप तो है, पर जान नहीं है। पत्तों का गुलाम भी मरा हुआ है, बेगम भी मरी हुई है और बादशाह भी मरा हुआ है। तीनों मरे हुए हैं। बेजान होने की वजह से न तो कोई मुकदमा चल सकता है, न कोई हुकूमत मिल सकती है और न कोई दौलत मिल सकती है। तो क्या हो जाएगा? केवल मनोरंजन हो जाएगा। इसीलिए हम आपसे यह कह रहे थे कि आप एक काम और कर लें तो मजा आ जाए। अभी आपने नाम और रूप जान लिया। उसके क्रिया-कृत्य अर्थात हलचलें जान लीं। हलचलें किसे कहते हैं? आचमन कैसे करना चाहिए? प्राणायाम कैसे करना चाहिए? माला कैसे घुमाना चाहिए? हवन और आरती कैसे करना चाहिए, आदि क्या हैं? ये हैं हलचलें।
कर्मकाण्डों में प्राण आ जाए—
नाम और रूप क्या है? नाम और रूप वो है—गायत्री माता का रूप है। अनुष्ठान नाम है, जप नाम-रूप है और हलचल क्रिया-कृत्य हैं। ये तीनों के तीनों इसमें विद्यमान हैं। आपने तीन इम्तिहान पास कर लिए। अब आपको हक है कि आप यह पूछ लें कि इसके चमत्कार हमको मिलने चाहिए। बेटे! चमत्कार आपको जरूर मिलेंगे, अगर आप एक काम कर सकें तब। कौन सा काम? इन ताऊ जी को जिंदा कर दीजिए, जो मरे पड़े हैं। मरे हुए से क्या मतलब है? इनमें जान नहीं है। अगर इनमें आप जान पैदा कर सकें तो मजा आ जाए। जान से क्या मतलब है? जान से मेरा मतलब यह है कि आप प्रत्येक कर्मकाण्ड को जीवंत कर दें। जीवंत कैसे करते हैं? यही तो आज मैं आपको बता रहा हूँ। आपको हमने उपासना के नाम पर, जो कर्मकाण्ड बताए हैं और जो आपने सीखे हैं, वे बहुत काम के हैं। और सिखा दीजिए? बेटे! जो आपने सीख लिया, वह काफी है। हमने आपको इतना ज्यादा सिखा दिया है कि मैं सोचता हूँ कि इससे ज्यादा सीखने की आपको कतई जरूरत नहीं है। कोई जरूरत पड़ेगी तो हम आपको और सिखा देंगे। अभी हम जिंदा हैं। आपने अभी जो सीखा है, उसको कम्प्लीट कर लें। सब चीजें अधूरी, कोरी, सब चीजें गूँगी-बहरी, सीखने की अपेक्षा यह अच्छा है कि आप थोड़ी चीजें करें, लेकिन उन्हें सही तरीके से, जीवंत रूप में करें। सफलता का यही रहस्य है।
पंचकोश हैं पंचदेव—
अच्छा महाराज जी ! कुछ और सिखा दीजिए। क्या सिखा दें बेटे? पंचकोशों की उपासना सिखा दीजिए। जरूर सिखा देंगे। अन्नमय से लेकर प्राणमय, मनोमय से लेकर विज्ञानमयकोश तक सब सिखा देंगे, आप निश्चित रहें। हमको यह विद्या आती है। अभी हम यहीं रहेंगे और जब मर जाएँगे तो आपके लिए हम किसी ऐसे आदमी का इंतजाम करके छोड़ जाएँगे, जो आपको पंचकोशों की उपासना सिखा सके। हमारे-आपके भीतर, जो पाँच देवता रहते हैं, वह उन्हें जाग्रत करा सके। पाँच देवता कहाँ रहते हैं? बेटे! हमारे भीतर रहते हैं। नहीं साहब! बाहर रहते हैं। आपकी बात भी सही है, लेकिन हमारी बात और ज्यादा सही है। आपकी बात कैसे सही है? आपने क्या देखा है? हमने बादल बरसते देखे हैं। बादल जब बरसते हैं तो पानी गिरता है और उससे अनाज पैदा होता है। आपकी बात बिलकुल सही है, जिसे हम कतई नहीं काट सकते। देवता ऊपर से बरसते हैं, भगवान ऊपर से बरसते हैं, सिद्धियाँ ऊपर से बरसती हैं, चमत्कार ऊपर से बरसते हैं। अनुग्रह ऊपर से बरसते हैं और सिद्ध पुरुषों द्वारा, देवताओं द्वारा बरसते हैं। आपकी इस बात से भी मैं सहमत हूँ, लेकिन बेटे! आप भी मेरी एक बात से सहमत हो जाइए। आपकी कौन सी बात है? हमारी बात यह है कि बादल समुद्र में से पैदा होते हैं। नहीं साहब! बादल तो ऊपर से सूरज पर से आते हैं। नहीं बेटे! बादल ऊपर से नहीं आते। दिखाई तो पड़ते हैं कि बादल ऊपर से आते हैं और बरस जाते हैं, पर वास्तविकता यह नहीं है।
व्यक्तित्व में से उछलता है यह वैभव—
मित्रो! वास्तविकता यह है कि जमीन में पानी भरा हुआ है और वह ऊपर को छलाँग मारता है। यद्यपि वह छलाँग मारता दिखाई तो नहीं देता। अगर आप समुद्र के नजदीक गए होते तो आपको दिखाई पड़ता कि समुद्र में से किस तरीके से पानी ऊपर को छलाँग भर-भरकर मारता है। बस, बादल बन जाते हैं। आपने तो केवल बादलों को बरसते देखा है, लेकिन समुद्र के पानी को गरम हो करके उछलते नहीं देखा। अगर आपने देखा होता तो आपका बहम दूर हो जाता। फिर आप ये कहते कि बादल ऊपर से नहीं आते, नीचे से निकलते हैं। देवता कहाँ से निकलते हैं? ऊपर से निकलते हैं, बरसते हैं। आपकी बात सही है, लेकिन हमारी भी बात मानिए कि देवता भीतर से उछलते हैं। देवता कहाँ से उछलते हैं? मनुष्य के व्यक्तित्व में से उछलते हैं। जिन पाँच पाण्डवों का जिक्र किया गया है कि कुंती ने पाँच पाण्डव पैदा किए थे। ये तो मैं नहीं कहता कि देवताओं ने वरदान नहीं दिए होंगे, लेकिन हाँ, वे पाँचों देवता कुंती के पेट में से पैदा हुए थे। इनमें से एक सूर्य का बेटा था तो एक इंद्र का बेटा था। अच्छा तो ये सब के सब ऊपर से आए होंगे? जरूर आए होंगे, लेकिन कुंती के पेट में से पैदा हुए थे। देवता श्रेष्ठ व्यक्तित्व में से बरसते हैं, पैदा होते हैं।
क्यों साहब ! देवता किसी के पेट में आ सकते हैं? नहीं बेटे! देवता हर किसी के पेट में नहीं आ सकते। किसी खास किस्म के आदमी के पेट में ही आते हैं। उस तरह का पेट पैदा कर लेना, जिसमें देवताओं के बैठने की जगह हो और देवता उसमें विराम पा सकें, प्रकट हो सकें। इसी का नाम साधना है। आप इस बात को एक बार फिर समझ लेना। चलते-चलते आप इस बात को एक बार फिर से हृदयंगम करके जाना कि देवताओं की मिन्नतें करना, देवताओं की खुशामदें करना, देवताओं की चापलूसी करना, देवताओं की मनौती मनाना, देवताओं को अपने पक्ष में कर लेना कतई साधना नहीं है। बेटे! ऐसी कोई साधना नहीं है, जिसमें देवताओं को बरगलाया जा सके। मैंने सारे शास्त्रों को पढ़ डाला है, अध्यात्मवेत्ताओं को पढ़ डाला है।
साधना का मर्म—
यदि ऐसा रहा होता तो किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन को परिष्कृत न करना पड़ता, साधना नहीं करनी पड़ती, संयम नहीं करना पड़ता, तप नहीं करना पड़ता, योगाभ्यास नहीं करना पड़ता और अपने आप को परिष्कृत करने की कतई जरूरत न होती। वे देवताओं को पकड़ने की जुर्रत अपने आप करते रहते कि लक्ष्मी जी को ऐसे पकड़ेंगे, हनुमान जी को ऐसे पकड़ेंगे, संतोषी माता को ऐसे पकड़ेंगे। इनको पकड़ने और गिरफ्तार करने का धंधा चलता रहता। आदमी को श्रम न करना पड़ता। सही बात ये है कि जितने भी ऋषि हुए हैं, जितने भी साधक हुए हैं, जितना भी साधकों का इतिहास है कि जब से जमीन बनी है, तब से लेकर आज तक उसमें से एक भी साधक हमको ऐसा दिखाई नहीं पड़ता, जिसने अपने आप को परिष्कृत न किया हो। अपने आप को धोया न हो। अपने आप को संजोया न हो। साधना का वास्तविक अर्थ आप समझ पाएँ तो आप धन्य हो जाएँ और मैं धन्य हो जाऊँ। साथ ही साथ आप यह विश्वास करें कि हमारी साधना निष्फल नहीं जाएगी तो आपकी सफलता का मार्ग खुल जाएगा।
जीवन देवता की साधना क्यों नहीं की—
मित्रो! अब तक मैं ये कहता रहा हूँ कि आचार्य जी के दरबार में आकर के कोई आदमी खाली हाथ नहीं जाएगा। अहंकार? अहंकार नहीं बेटे! ये वास्तविकता है। हमने किसी भी आदमी को खाली हाथ नहीं जाने दिया है। कोई भी आदमी यहाँ आकर के देख ले कि आचार्य जी के यहाँ नौ दिन तक रह करके हम खाली हाथ आए? नहीं बेटे! हमारे लिए शरम की बात है, कलंक की बात है। आप हमारे यहाँ आएँ और खाली हाथ चले जाएँ ऐसा नहीं हो सकता। एक बात मैं फिर आपसे कहता हूँ कि किसी की भी साधना निष्फल नहीं जाती। शर्त एक ही है कि आपने साधना की हो। साधना आप किसकी करते हैं? कभी पत्थर की करते हैं, कभी खिलौने की करते हैं। कभी मूर्ति की करते हैं, कभी प्रेत की करते हैं। कभी देवी की तो कभी देवता की। असल में आपको जो साधना करनी चाहिए थी, उसकी आप करते नहीं। आपके अपने भीतर जो देव रहता है, जिसका नाम है—आत्मदेव। जो अंतर्ज्योति हमारे भीतर जलती है, उस अंतर्ज्योति की साधना करने का आपने प्रयत्न किया होता तो जितना प्रयत्न आपने अब तक उपासना के लिए किया है, मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ कि आपकी साधना सफल होती। मैं देवताओं की साक्षी देकर कह सकता हूँ और शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि अगर आपने वो कृत्य किया होता, दिशाओं को मोड़ दिया होता। दिशाओं को अपने अंदर केंद्रीभूत किया होता तो आपको अध्यात्म के सच्चे लाभ मिलते ।।
अध्यात्म की परिभाषा—
मित्रो! अध्यात्म की परिभाषा क्या है? आप जानते हैं? अंतर्मुखी जीवन को अध्यात्म कहते हैं। आप तो इसे समझते ही नहीं हैं कि अंतर के जीवन को अध्यात्म कहते हैं। अध्यात्म का क्या अर्थ होता है? साइंस ऑफ सोल (Science of Soul) होता है। जिसका अर्थ है—अंतरंग जीवन का परिष्कार। अगर आपने अपने अंतरंग जीवन का परिष्कार किया होता तो आपको साधना का वह विज्ञान हाथ लग गया होता, जो चिर पुरातन है। हम पुरातन को नवीन के साथ जोड़ना चाहते हैं। आपकी साधना को हम उसी स्तर पर ले जाना चाहते हैं, जिसमें कि प्राचीनकाल के साधक, ऋषि और संत जिस आधार पर अपने आप को परिष्कृत करते थे। इसमें कभी वैक्यूम अर्थात खालीपन नहीं रह सकता। आप गंदी हवा निकाल दीजिए, दूसरी अच्छी हवा उसकी जगह पकड़ लेगी। गंदी हवा निकाल दीजिए, नई आ जाएगी। नहीं साहब! गंदी हवा कैसे निकालें? बेटे! तू गंदी हवा को निकाल दे, नई हवा हम दे देंगे। नहीं साहब! हमको नए विचार दे दीजिए। नई भक्ति दे दीजिए। हमको शांति दे दीजिए। आप क्या चाहते हैं, बोलिए? अच्छा एक काम आप कर दीजिए, एक काम हम कर देंगे। आपके लिए हम भक्ति लाकर दे देंगे, भक्ति हमारे पास सुरक्षित है। सुरक्षित नहीं होगी तो हम भगवान से प्रार्थना करेंगे कि आपको भक्ति दें। वह जरूर दे देंगे, नहीं होगा तो हम अपने में से काटकर दे देंगे।
अपनी पात्रता विकसित कर लें पहले—
मित्रो! एक बार फिर समझ लीजिए कि आप शक्ति पाने से पहले स्वयं शक्ति हैं। आपके अंदर नई शक्ति जरूर आ जाएगी। नहीं साहब ! नहीं आएगी। नहीं आएगी तो हम आपको यकीन दिलाते हैं कि हमारे गुरु ने हमको शक्ति दे दी है और हम आपको दे देंगे। महाराज जी! शांति लाइए। हाँ बेटे! शांति से कहेंगे कि हे देवी! यह आपको बुलाते हैं तो शांति चली आएगी। क्यों भाई! किस काम के लिए बुलाते हैं? या ऐसे ही मेहरबानी चाहते हैं? तो शांति आपको मिल जाएगी। क्यों साहब! नहीं आई तब? बेटे! शांति हमारे पास है। अपनी शांति में से एक हिस्सा काटकर आपको दे देंगे। आप यकीन कीजिए। बाप अपने बेटे को अपनी संपदा काटकर दे सकता है! हम आपको अपना पुण्य काटकर दे देंगे। आप एक काम कर लीजिए, अपना परिष्कार कर लीजिए और अपनी पात्रता को विकसित कर लीजिए। साधना उसी के लिए है, अनुष्ठान उसी के लिए है।
पात्र का महत्त्व समझें—
अच्छा, आप बताइए कि जो चीज आपको मिलेगी, उसको आप रखेंगे कहाँ? अच्छा बताइए हम आपको घी दे देंगे। आइए साहब! मेरे पास घी रखा हुआ है। गरमागरम बहुत ताजा घी है। एक किलो घी मिलेगा, आप भी ले जाइए। हाँ साहब! लाइए। हाँ बेटे! ले जाओ, लेकिन आप लेंगे किसमें? पात्र कहाँ है। हाथ में लेंगे। ठीक है, हाथ में ले लीजिए। क्या हुआ? उँगलियों के बीच के सूराख में से सब घी टपक गया। कुरते पर टपका तो कुरता खराब हो गया। धोती पर टपका तो धोती खराब हो गई। पैर पर टपका तो पैर खराब हो गया। अब साबुन लाइए। अरे भाई! यह आपसे नहीं साफ होगा, धोबी को देना पड़ेगा। इसमें घी लग गया है। वह तेजाब से धुलेगा। बारह आने धुलाई के देने पड़ेंगे। कपड़े की लाइफ भी तेजाब के कारण कम हो जाएगी। साहब! बहुत नुकसान हो गया। बारह आने धुलाई कुरते की, बारह आने धोती की, डेढ़ रुपया हो गया और चार रुपये की धोती की जिंदगी भी कम हो गई, चार रुपये की कुरते की जिंदगी कम हो गई, सो अलग। नुकसान कितना हुआ? आठ रुपये और डेढ़ रुपया कुल साढ़े नौ रुपये हो गए। हमारा घी भी गया और आपका नुकसान हो गया सो अलग और आपको शिकायतें पैदा हो गई सो अलग। आपने हमें गालियाँ दीं सो अलग। क्या गालियाँ दीं? आपको समझ नहीं थी तो फिर आपने हाथ में घी क्यों दे दिया। आप तो बड़े बूढ़े हैं, बुजुर्ग हैं। आपकी अक्ल कहाँ चली गई थी? आपने क्यों दिया? हमको गालियाँ पड़ीं और आपका घी चला गया।
क्यों रे अभागे! घी लेने ऐसे ही चला गया था? हाँ साहब! ऐसे ही चला गया था। नहीं बेटे! ऐसे मत जाना घी लेने के लिए। अगर आपको लेना हो तो एक चीज का इंतजाम करना और उसका नाम है—पात्र। पात्र—बरतन लेकर जाना। बरतन नहीं हो तो मत जाना। क्यों साहब ! गाय का दूध देंगे। हाँ देंगे। यह कितना दूध देती है? छह किलो दूध देती है। सुबह छह किलो और शाम को छह किलो। तो लाइए सब दूध दे दीजिए। लीजिए साहब! दूध तैयार है—धर...धर...धर...। क्या हो गया। अरे, सारा दूध जमीन पर चला गया। आपके हाथ पर? हमारे हाथ पर नहीं पड़ा। क्यों? पात्र था आपके पास? नहीं साहब! पात्र नहीं था। तब फिर आप किसमें दूध लेंगे। गाय का कसूर है? नहीं, गाय का कसूर नहीं है। वह तो बिलकुल शुद्ध और ताजा दूध देती है, पर हमारे पास पात्र ही नहीं है। बेटे! बिना पात्रता के कुछ भी नहीं मिलता और यदि मिल भी जाए तो टिकता नहीं।
शिष्य हैं कहाँ अब?—
मित्रो! देवताओं की कृपा हम आपको दिलाएँगे, पर आप उसे रखेंगे कहाँ? आप रखने वाली चीज का इंतजाम कर लीजिए, बाकी सब चीजें बहुत सरल हैं। जिन चीजों के लिए आप हैरान हो रहे हैं, वो कुछ कठिन नहीं हैं। वह सरल हैं। माँगने वाले भी बहुत हैं और देने वाले उससे भी ज्यादा हैं, खासकर आध्यात्मिक क्षेत्र में। आध्यात्मिक क्षेत्र में विद्यार्थियों की कमी है, मास्टरों की कमी नहीं है। नहीं साहब ! मास्टर कम हैं। मास्टर कम हैं तो आप वहाँ चले जाइए गुरुकुल काँगड़ी में और वहाँ देख करके आइए। ये कौन से क्लास में पढ़ रहे हैं? साइकोलॉजी में एम० ए० कर रहे हैं। साइकोलॉजी में कितने विद्यार्थी हैं? साहब ! दो विद्यार्थी हैं और मास्टर कितने हैं? तीन मास्टर हैं। धत् तेरे की ये क्या हुआ? अरे बेटे! विद्यार्थी कहाँ हैं दुनिया में। आध्यात्मिक क्षेत्र में तो खासकर विद्यार्थी नहीं हैं। नहीं साहब! हम गुरु की तलाश कर रहे हैं। गुरु की तलाश कर रहा है कि शिष्यों की तलाश कर रहा है। शिष्य नहीं हैं बेटे! शिष्य दुनिया से गायब हो गए हैं। अगर दुनिया में से शिष्य गायब न हुए होते तो गुरु धन्य हो गए होते।
साथियो! दुनिया में शिष्यों का अभाव है। रामकृष्ण परमहंस के पास ढेरों के ढेरों लोग जाते थे। कौन जाते थे? शिष्य जाते थे, लेकिन कोई सच्चा शिष्य नहीं मिला। कोई एक मिल गया तो गुरु धन्य हो गए और नाचने लगे, कूदने लगे, निहाल हो गए। गुरु मिलना बड़ी बात है, लेकिन चेला मिलना बहुत मुश्किल की बात है, जब कभी कोई ऐसा चेला मिल जाता है तो गुरु धन्य हो जाते हैं। आप समझते नहीं हैं इस बात को। ईसामसीह धन्य हो गए। कब धन्य हो गए? जब उनको सेंटपॉल मिल गए। सेंटपॉल कौन थे? सेंटपॉल ईसा से तीन सौ वर्ष बाद पैदा हुए थे। उन्होंने सारी की सारी क्रिश्चिनिटी को नए ढंग से विस्तारित किया है। उन्होंने मर्कस से लेकर बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट का नए सिरे से डिवीजन किया। ईसाई धर्म का, जो वर्तमान स्वरूप है, वह सेंटपॉल का दिया हुआ है। सेंटपॉल को पा करके ईसा धन्य हो गए। यह तो मैं नहीं कहता कि ईसा को पा करके सेंटपॉल धन्य नहीं हुए, लेकिन मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि सेंटपॉल जितने प्रसन्न हुए होंगे ईसा की कृपा पा करके, ईसा उससे कम प्रसन्न नहीं हुए होंगे सेंटपॉल को पा करके।
गुरु को पाकर हम निहाल—
मित्रो! हम अपने गुरु को पा करके बड़े प्रसन्न हैं। क्यों? क्योंकि हमको एक सामर्थ्यवान सत्ता मिल गई है, जो कि समय-समय पर पिछले पचपन साल से दिन-रात हमारी सहायता कर रही है। हम धन्य हैं। कौन करता है किसी की सहायता? जरूरत पड़ती है तो इतनी अक्ल हम कहाँ से लाते? इतनी बुद्धि कहाँ से लाते, जिससे वेदों का भाष्य करते। वेदों का भाष्य चार आदमियों ने किया है, पाँचवाँ आदमी अभी तक दुनिया में नहीं हुआ है। कौन नहीं हुआ है? एक आदमी का नाम था—सायण। एक का नाम था—उब्बट। एक का नाम था—महीधर और एक का नाम था—रावण। प्राचीनकाल के केवल चार भाष्यकार हुए हैं। अब और कोई भाष्यकार हो सकते हैं? नहीं बेटे! वेदों का भाष्य करना बहुत कठिन कार्य है। यह अक्ल हम कहाँ से लाए? यह हमारे गुरु की कृपा थी। अठारह पुराणों के भाष्य हमने किए? नहीं बेटे! हमने नहीं किए। हमारी अक्ल नहीं है, वह तो कराने वाला कोई और है, जो यह सब कराता रहता है और कठपुतली की तरह हम उसके इशारे पर नाचते रहते हैं।
शोध की सफलता गुरु के मार्गदर्शन के कारण—
मित्रो! आप जो यह सोचते हैं कि ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के द्वारा हम एक ऐसी नई चिकित्सापद्धति दुनिया को देने वाले हैं, जिससे कि लोगों के शरीर, मन और अंतस् तीनों क्षेत्रों में क्रांति उत्पन्न हो जाएगी और फिर तीनों क्षेत्रों की बीमारियाँ दूर हो जाएँगी। यह किसका दिया हुआ है? हमारा दिया हुआ नहीं है, हमारे 'बॉस' का दिया हुआ है। ब्रह्मवर्चस में शोधकर्ता कौन है? शोधकर्ता बेटे! कई हैं, जिनमें एक अमुक है, एक अमुक है..... ।। कितने आदमी हैं? बहुत सारे हैं। कोई मेडिकल साइंस के पोस्ट ग्रेजुएट हैं, एम०डी० हैं, एम०एस० हैं और एम०बी० बी०एस० हैं। और कौन हैं? इसमें लॉ के पोस्ट ग्रेजुएट हैं, एम०एस०सी० हैं, पी०एच०डी० हैं और कितने ही लोग सम्मिलित हैं। ये शोध करेंगे? नहीं बेटे! जो शोध नए विश्व को मिलने वाली है, वह पहले से ही बनी-बनाई तैयार रखी है। ये लोग तो उसको फेयर करेंगे। डबलरोटी आपने देखी है ना? टोस्ट जो होते हैं, खाए जाते हैं। जरा बताना, वो कैसे खाए जाते हैं? डबलरोटी के टोस्ट होते हैं। पहले उनकी स्लाइसें बनती हैं, फिर उनको हीटर पर गरम करते हैं और फिर उन पर मक्खन लगाकर गरमागरम खा लेते हैं। हीटर डबलरोटी को नहीं बनाता। डबलरोटी दूसरी फैक्टरी में बनकर आती है। हीटर पर तो उसे गरम करते हैं।
बेटे! हम जो शोध संस्थान चलाते हैं, वह क्या है? यह हमारा वो हीटर है, जिस पर टोस्ट बनाते हैं और उस पर मक्खन लगाकर आपको गरमागरम खिलाना है। आप बना लेंगे? बेटे! कैसी बात करते हो। छोटी−छोटी शोधों में सारी जिंदगी खतम हो जाती है। जो स्वत: अभूतपूर्व है, सृष्टि के आदि से लेकर अब तक विलुप्त प्रायः था, उसे प्रज्ञा के धरातल पर लाकर हम ऐसा काम करने वाले हैं, जिससे कि दुनिया निहाल होने वाली है। मनुष्य जाति निहाल होने वाली है और सृष्टि का इतिहास और मनुष्य जाति का भविष्य नए सिरे से लिखा जाने वाला है। हमारी यही शोध है। तो इसे आप करते हैं? बैटे! हम नहीं करते। कौन करता है? हमारा 'बॉस' करता है, जिसको पा करके हम धन्य हो गए। यह हमारा एक पक्ष है, जिससे हम धन्य हो गए, लेकिन वह आदमी, जो हमारी सहायता करता है, वह हमको पाकर धन्य हो गया। आप सही मानिए, जितनी बार उनने हमको बुलाया है, उनकी आँखों में से प्यार के आँसू टपकते हुए हमने देखे हैं। उनका आशीर्वाद आँखों में से, ओठों में से बरसते हुए देखा है। वे हमको पाकर धन्य हो गए, क्योंकि आजकल शिष्यों का अकाल हो गया है।
गुरु-शिष्य का खेल न खेलें—
आज के शिष्य शिष्य नहीं हैं। ये कौन हैं? ठग हैं, जालसाज हैं। आपको हम गुरु बना लेंगे। आपने हमको गुरु बना दिया। हमें गुरु बना लेंगे तो आपका पेशाब निकल जाएगा। राजा हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र को गुरु बनाया था। उन्होंने उनका सारा कचूमर निकाल दिया था। आप गुरु किसे कहते हैं? नहीं साहब! गुरु उसे कहते हैं, जो शिष्य पर कृपा करके बेटा-बेटी पैदा करा देता है। लोगों की तरक्की करा देता है, अच्छी औलाद पैदा करा देता है। चुप बेईमान कहीं के। गुरु ऐसा करते हैं? नहीं साहब ! आइए गुरु-शिष्य का खेल खेलेंगे और राजा-रानी का खेल खेलेंगे। बेटे! ये बच्चों के खेल-तमाशे हैं। यही खेल तू गुरु-शिष्य के रूप में खेलना चाहता है। मित्रो! हम और आप क्या करते हैं? गुरु−शिष्य का खेल खेलते हैं। कैसे खेलते हैं? तू मेरा गुरु बन जा और मैं तेरा चेला बन जाऊँगा। नहीं साहब! आप गुरु बन जाइए और हम चेले बन जाएँगे। ये खेल है। अध्यात्म इससे कहीं बड़ी चीज है। इसके अंदर जो प्राप्त होती है, बड़ी चीज प्राप्त होती है। इसमें छोटी चीजें नहीं प्राप्त होतीं। आप यह बात ध्यान रखना कि बड़ी चीजों की कीमत भी बड़ी होती है। बड़ी चीजें बड़ी कीमत में आती हैं, आप हमेशा ध्यान रखिए और छोटी चीजें कम दाम की आती हैं। छोटी चीजें धूपबत्ती की कीमत पर, सुपारी की कीमत पर, फूलों की कीमत पर, चावलों की कीमत पर लगभग उसी प्रकार की कम कीमत पर आ जाएँगी, जिस कम कीमत की चीज का आपने सामान जुटाया है।
कीमत जितनी, उतनी की ही सिद्धि—
मित्रो! इससे क्या मिलेगा? सिद्धियाँ तो मिलेंगी आपको, लेकिन कितने की मिलेंगी? जितने कीमत की आपकी धूपबत्ती है। जितने कीमत की आपकी सड़ी सुपारी है। जितने कीमत का आपका अक्षत है। बिलकुल उसी नाप की आपको मिल जाएगी। ये कितने दाम की है? गुरु जी ! ये तो ढाई पैसे की मालूम पड़ती है। इसमें सारा सामान अर्थात धूपबत्ती भी शामिल है, अक्षत भी शामिल है, सब चीजें शामिल हैं। ये सामान ढाई नए पैसे का मालूम पड़ता है, फिर भी हम कहते हैं कि ढाई पैसे की बजाय पाँच नए पैसे की सिद्धि मिल जाएगी। नहीं साहब ! पाँच नए पैसे की नहीं, आप पाँच लाख की दिलवाइए तो फिर निकाल चार लाख। नहीं साहब! अभी तो चार पैसे दे देंगे। ठीक है, अभी तो ढाई पैसे की दे रहे थे, अब चार पैसे की सिद्धि तुझे दे देंगे। देख लीजिए हमारी हिम्मत, आप चार पैसे देंगे तो आपको चार पैसे की सिद्धि मिल जाएगी। ज्यादा देंगे तो ज्यादा पैसों की मिलेगी। बेटे! कीमत तो चुकानी ही पड़ती है।
उपासना बने प्राणवान—
मित्रो! आपसे मैं ये कह रहा था कि साधना से सिद्धि का जो आपका उद्देश्य है, उसमें हमें क्या करना चाहिए? उसमें आपको खेल-खिलवाड़ से आगे निकाल दें। अब तक क्या होता रहा है? खेल−खिलवाड़ होती रही है। अब खेल-खिलवाड़ की बातें छोड़कर हम वह काम करें, जिसमें कि वास्तविकता का स्वरूप बनता हो। इसके लिए क्या करना पड़ेगा? इसके लिए एक ही काम कर सकते हैं कि आप अपनी उपासना को प्राणवान बनाइए। प्राण किसे कहते हैं? प्राण उसे कहते हैं, जो अपना कलेवर साथ-साथ लिए घूमता-फिरता है। प्राण जो है, उसके भीतर इच्छाएँ रहती हैं, हिम्मत रहती है, बहादुरी रहती है कि वह दिमाग को घसीट ले जाए, शरीर को घसीट ले जाए और साधना को घसीट ले जाए। इस तरह जो तीनों को घसीट ले जाए, उसको प्राण कहते हैं। आपकी उपासना की प्राण-प्रतिष्ठा होनी चाहिए। आपकी उपासना में प्राण होना चाहिए। इसके लिए आप बस, एक काम कर लें, फिर देखिए मजा, फिर देखिए चमत्कार। एक दिन सिनेमा वाला गा रहा था, मुझे बहुत ही अच्छा लगा। वो यों कह रहा था—'मेरे पैरों में घुँघरू बँधा दे तो फिर मेरी चाल देख ले। 'क्या मतलब है इसका? उसके पैरों में घुँघरू नहीं हैं। अगर नाच का मजा देखना है तो हमारे घुँघरू भी बजें, हम भी बजें, हमारी थिरकन भी बजे। फिर आप देखना कि किस तरीके से हम नाचते हैं और नाच करके सबको खुश कर देते हैं। ये कौन कह रहा था? सिनेमा वाला कह रहा था ।।
उपासना नीरस, उबाऊ क्यों?—
मित्रो! हमारे नाच में एक चीज का अभाव है, जिसको हम कहते हैं—घुँघरू। घुँघरू बँध जाए तो समाँ बँध जाए, मस्ती आ जाए। अभी आपको भी हैरानी होती है। उपासना में आप बोर होते हैं। उपासना में आप शिकायत करते हैं और कहते हैं कि हमारा मन नहीं लगता। आप में से हरेक की यही शिकायत है। यह सुनकर मुझे बहुत क्लेश होता है। उपासना जैसे काम में आपका मन नहीं लगता, इसकी क्या वजह हो सकती है? इसकी कोई बड़ी भयंकर वजह होनी चाहिए। उपासना में आपका मन नहीं लगता, लेकिन अपने रिश्तेदारों के साथ आपका मन लग जाता है। साला आता है तो काम छोड़ देते हैं। आइए साहब! सिनेमा देखेंगे, आज छुट्टी है। बीमारी का बहाना बनाकर छुट्टी के लिए प्रार्थना पत्र भेज देते हैं। इस तरह साले के साथ मन लग जाता है। कोई मिनिस्टर आ जाए तो मन लग जाता है और कोई बड़ा आदमी आ जाए तो मन लग जाता है, लेकिन जब भगवान के साथ बैठने का समय आता है, तब आपका मन नहीं लगता। जरूर कोई बड़े रहस्य की बात है। मुझे यह सबसे बड़ा अचंभा मालूम पड़ता है। मुझे इस पर विश्वास ही नहीं होता कि उपासना में आपका मन नहीं लगता। अच्छा कसम खा करके बता कि उपासना में तेरा मन नहीं लगता। हाँ गुरु जी! मैं कसम खा करके कहता हूँ। किसकी कसम खाता है? जनेऊ की खाता हूँ। नहीं जनेऊ की मत खा। फिर किसकी खाऊँ? अपनी साइकिल की खा, घड़ी की खा। हाँ साहब! घड़ी की कसम खाता हूँ। मुझे विश्वास नहीं होता कि भगवान के पास बैठने में आपका मन नहीं लगता है। यह बात कैसे हो सकती है?
हताशा का कारण—
मित्रो! ये हुआ कैसे? असल में चक्कर क्या है? जिस भगवान के पास शक्ति के भंडार भरे पड़े हैं, जिसके पास प्यार के भंडार भरे पड़े हैं, जिसकी एक मुस्कान से, जिसकी एक हँसी से, जिसकी कृपा के एक कण से सैकड़ों का उद्धार हो गया, उस भगवान में आपका मन क्यों नहीं लगता? अब समझ में आया कि आपका मन क्यों नहीं लगता? इस उपासना के भीतर और आपकी इस मान्यता के भीतर एक चीज कम पड़ गई है, इसलिए सारी गड़बड़ी हो रही है। वो क्या हो गया है? आपकी उपासना के अंदर वो प्राण नहीं है, जीवन नहीं है, केवल कृत्य है। इसके अंदर प्राण न रहने की वजह से, इसके अंदर रस न रहने की वजह से, इसके अंदर भावना न रहने की वजह से, विचारणा न रहने की वजह से आपकी उपासना मरी हुई है। मरी हुई उपासना, हारी हुई उपेक्षित उपासना को ले करके जहाँ कहीं भी आप जाते हैं, निराशा ही हाथ लगती है। क्या ले आए? हम साहब ! भजन करते हैं। कहाँ है भजन, दिखाना जरा? यह तो मरा हुआ कुत्ता है। नहीं साहब ! यह हमारा भजन है। आप सड़ा हुआ कुत्ता लेकर मारे-मारे फिरते हैं। इसे भजन कौन कहेगा? ऐसा मत कीजिए। केवल कर्मकाण्डों को ले करके, विधि-विधानों को ले करके, केवल मूर्तियों और प्रतिमाओं को ले करके, केवल संसाधनों को ले करके, केवल शारीरिक श्रम और वाणी की लपालपी ले करके उपासना की आवश्यकताओं को पूरा करेंगे तो बेटे! निराश हो जाएँगे।
प्रयास आपको ही करना होगा—
मित्रो! आप सही मानें, अब तक आप निराश रहे हैं और भविष्य के लिए मैं आपको आगाह करता हूँ, भविष्यवाणी करता हूँ कि आप जब तक जिएँगे, तब तक उपासना के क्षेत्र में आप पूरी तरह से असफल होंगे। सफल हो जाएँगे? नहीं, कभी सफल नहीं होंगे। उपासना में मन लग गया? अभी तक तो नहीं लगा। आगे लगेगा? आगे को मैं आपको आगाह किए देता हूँ कि आपका मन कभी नहीं लगेगा। तो गुरु जी! आप ही मन लगा दीजिए। बेटे! मैं कैसे लगा सकता हूँ। नहीं साहब! आप कृपा कर दीजिए। मैं कृपा कर देता तो बहुत अच्छा होता। मेरी कृपा से हमारा फायदा हो सकता है और आपकी कृपा से आपका फायदा होगा। गुरु जी ! आप हमको पहलवान बना दीजिए। बेटे ! पहलवान बनाने के लिए हम क्या करें? गुरु जी! आप अखाड़े में जाया कीजिए, कसरत कीजिए और हमको पहलवान बना दीजिए। ठीक है बेटे! हम अखाड़े में जाएँगे, कसरत करेंगे और हम पहलवान बन जाएँगे। नहीं साहब! अखाड़े में आप जाइए, कसरत आप करिए और पहलवान हमको बना दीजिए। बेटे! ये कैसे हो सकता है? इसका सिद्धांत कौन-सा है? ये मेथड कौन-सा है? अच्छा तो आप ऐसा कीजिए कि स्कूल में भरती हो जाइए। बी० ए० पास कर लीजिए, एम० ए० पास कर लीजिए। रोज छह घंटे पढ़ा कीजिए। ठीक है, हम कर लेंगे। फिर क्या होगा? आपका एम० ए० हो जाएगा और फिर आप हमको एम० ए० बना दीजिए। बेटे! आपको हम एम० ए० कैसे बना दें। नहीं साहब ! परिश्रम तो आप कीजिए और एम० ए० की डिग्री हमको दिलवाइए।
आशीर्वाद से कुछ नहीं होगा—
मित्रो! ये कैसे हो सकता है? अच्छा तो आप ये किया कीजिए कि आप की भूख ठीक है और खुराक भी अच्छी है। हाँ! बिलकुल ठीक है। आप खाना खाया कीजिए, मिठाई-मेवा खाया कीजिए और हमको उसका आशीर्वाद दीजिए कि हम ताकतवर हो जाएँ। बेटे! ताकतवर तो हम हो जाएँगे। आप कैसे हो सकते हैं? नहीं साहब ! परिश्रम आपको करना पड़े, प्रयत्न आपको करना पड़े, पुरुषार्थ आपको करना पड़े और लाभ हमको मिल जाए। अच्छा तो आप इसे आशीर्वाद मानते थे। हाँ साहब ! तब से आशीर्वाद का मतलब हम यही समझते आ रहे थे, लेकिन इसमें तो बड़ा चक्कर है। अब समझ में आ गया। क्या समझ में आया? यही कि परिश्रम हमको करना चाहिए, पुरुषार्थ हमको करना चाहिए। संयम हमको करना चाहिए और पराक्रम हमको करना चाहिए, जिससे भगवान की कृपा प्राप्त होती है। अभी तक हम यही समझते थे कि परिश्रम आप कीजिए और इसमें से जो फायदा हो, वो हमें दे जाइए। आशीर्वाद इसे ही कहते हैं। मैं समझता था कि आशीर्वाद ऐसा होता होगा कि जीभ की नोंक से कोई किसी से कह दे तो उसका भला हो जाता होगा।
अनगढ़ अपेक्षाएँ—
अगर आपकी यह बात सही है कि जीभ की नोंक से कह देने भर से आशीर्वाद हो जाता है तो बेटे! अभी कुंभ मेला आने वाला है। आज हमने अख़बार में देखा था कि उसमें कम से कम चालीस लाख आदमी आएँगे। आप क्या करेंगे? हम अनुष्ठान करेंगे और एक बहुत ऊँचा मंच बनाएँगे और कल से ही आशीर्वाद देना शुरू करेंगे और क्या करेंगे? जो कोई भी इस कुंभ मेले में आया हो और जो कोई हमारी वाणी सुन रहा हो, उन सबकी आमदनी दूनी हो जाए। चार सौ वाले की नौकरी आठ सौ और आठ सौ वाले की सोलह सौ हो जाए। अब तो आप खुश हैं ना? हाँ साहब! हम तो इसीलिए यहाँ आए थे। हाँ बेटे! लोग दो ही चीज माँगते हैं। एक तो वे पैसे की शिकायत ले करके आते हैं और दूसरी बच्चों की शिकायत ले करके आते हैं। बच्चों की शिकायत? हाँ, बच्चों की शिकायत कि क्या आप देंगे? हाँ बेटे! हम आशीर्वाद देंगे की चालीस लाख आदमी जो यहाँ आए हुए हैं, उन सबको एक-एक बेटा हो जाए। यदि सबको नौ महीने में होता है तो कुंभ मेले वालों को साढ़े चार महीने में हो जाए।
मित्रो! हमारे लिए इस तरह के आशीर्वाद देना संभव रहा होता तो आप विश्वास कीजिए कि इन चालीस लाख व्यक्तियों में से हरेक को साढ़े चार-चार महीने में हम बेटा पैदा करा देते। हमारे हाथ में रहा होता तो ऐसा आशीर्वाद हम जरूर देते, जिससे वे दूने हो जाएँ। बेटे! ऐसा संभव नहीं है। यह असंभव है। आप हमसे असंभव बात कहते हैं और झूठ बुलवाना चाहते हैं। आप ऐसी शर्तें पेश करते हैं, जो मुमकिन नहीं हैं, जो संभव नहीं हैं। आप ही बताइए, हम इन्हें कैसे करें, जिनका कोई सिद्धांत ही नहीं है, कोई नियम ही नहीं है। तो क्या हो सकता है? बेटे! वो हो सकता है, जो मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि आप पात्रता का विकास करें। पात्रता का विकास करेंगे तो वैक्यूम को पूरा करने के लिए चीजें कहीं से आ जाती हैं। जब आप अपने गिलास का पानी फैला देंगे तो आपका गिलास खाली नहीं रहेगा। तो क्या होगा? नेचर आपके उस गिलास में हवा भर देगी। हवा कहाँ पड़ी है? वहाँ पड़ी है, दुकान पर। क्या कह रही थी? यह कह रही थी कि आप गिलास खाली कीजिए, हम हवा ले करके आएँगे और आपके गिलास में भर देंगे। बेटे! हवा अपने आप भर जाती है, यह सृष्टि का क्रम है। आप अपने आप को खाली कर दें और फिर देखें कि आपके अंदर वैक्यूम नहीं रहता।
सही परिभाषा—
साथियो! उपासना अपने आपके, अपने भीतर के घटियापन को हटा देने की प्रक्रिया का नाम है। अपने घटियापन के साथ लड़ने-मरने का नाम है। अपनी सफाई करने का नाम है। जब आप अपनी सफाई करने के लिए, तपश्चर्या करने के लिए आमादा और उतारू हो जाते हैं तो उसके स्थान पर दूसरी चीजें, जिनको दैवी शक्तियाँ कहते हैं, अपना स्थान ग्रहण कर लेती हैं। फिर आप ये समझते हैं कि किसी ने अनुग्रह किया है। अनुग्रह क्या करना बेटे! काहे का अनुग्रह? बादलों का आना-पानी बरसाना। बादल बने ही इसीलिए हैं। हवा का बड़ा अनुग्रह है। वह हमारे फेफड़ों में आती है। बेटे! हवा बनी ही इसीलिए है। दैवी शक्तियों का काम ही ये है, उनका स्वरूप ही ये है कि जहाँ कहीं भी अपने लायक जगह पाएँ, वहाँ एकदम हमला कर दें या हमला करने पर उतारू हो जाएँ आमादा हो जाएँ। दैवी शक्तियाँ हमला करती हैं? हाँ, हमला करती हैं। आसुरी शक्तियाँ भी हमला करती हैं और दैवी शक्तियाँ भी हमला करती हैं। किसके ऊपर करती हैं? अपने-अपने ढंग के मैग्नेट हैं। जहाँ उनका मैग्नेट होता है, वहाँ अपने आप ही हमले होते हैं। वे हमले अपने ढंग से होते हैं।
अपने अंदर से पैदा कीजिए ताकत—
जब हमारे फेफड़े कमजोर होते हैं तो टी० बी० के कीटाणुओं के हमले होते हैं। क्यों होते हैं? फेफड़े भीतर से कमजोर होते हैं, इसलिए हमले होते हैं। आपके भीतर वाला माद्दा जब कमजोर होता है तो इस दुनिया में से पापों का, अनाचारों का, दुष्प्रवृत्तियों का, कमजोरियों का आप पर निन्यानवे तरह से हमले होंगे और आप परेशान हो जाएँगे। आपके भीतर खिंचाव होगा, आकर्षण होगा, तब सब आपके पीछे-पीछे फिरेंगे। मसलन जब आपका बच्चा खूबसूरत होता है, तब हर कोई कहेगा आ मुन्ना! यहाँ बैठ जा! अच्छा ये ले.। आपका बच्चा बड़ा प्यारा है। हँसता बहुत अच्छे तरीके से है। उसको खिलाने का मन करता है। गोद में उठाने के लिए हरेक का मन करता है। ये आपका कोई लगता है? हमारा कोई नहीं है। फिर क्या बात है? उसकी अपनी खूबसूरती है। आप भी अपनी खूबसूरती पैदा क्यों नहीं करते? आप अपने अंदर वो विशेषताएँ क्यों नहीं पैदा करते, जिससे कि वे शक्तियाँ जो इस दुनिया में काम करती हैं, अपने आप ही आपकी सहायता करने के लिए आमादा हो जाएँ। पंडित नेहरू ने लालबहादुर शास्त्री की सहायता की। ढाई रुपये महीना उनके नाना देते थे, उससे उनका गुजारा होता था। ढाई रुपये महीने में वे अपनी पढ़ाई जारी रख रहे थे। कौन? लालबहादुर शास्त्री, लेकिन पंडित नेहरू ने कांग्रेस सेवादल के सारे वालेंटियरों पर निगाह डाली। उनमें से एक वालेंटियर काम का दीख गया। उन्होंने उसका हाथ पकड़कर घसीट लिया और कहा कि लड़के तू हमारे साथ-साथ रहा कर। हमें जरा ज्यादा काम करना पड़ता है। ठीक है, आप हमारी कहीं भी ड्यूटी लगा दीजिए। हमें कोई एतराज नहीं है। लालबहादुर शास्त्री को वे अपने साथ-साथ रखे रहे।
साधना विज्ञान का सच—
फिर क्या किया? उनकी आँखों में उस आदमी की वकअत और वजन दोनों बढ़ गए। अरे पगले! तू सुनता है कि नहीं सुनता? वकअत और वजन—साधना इसी का नाम है। शास्त्री का वक़अत और वजन बढ़ता चला गया। नेहरू ने उनको मुस्तहक—अधिकारी योग्य समझकर अपना विश्वसनीय पात्र बना लिया। उनको एम० एल० ए० बनाया, यू० पी० का मिनिस्टर बनाया। उनको राज्य सरकार का मिनिस्टर बनाया। पंडित नेहरू जब मरने लगे तो उन्होंने कहा कि हमारी सलाह की अगर किसी को आवश्यकता हो तो हमारी जगह पर ठीक आदमी, सही आदमी लालबहादुर शास्त्री हैं, इनको बैठा देना। ये क्या बात है? यही कि दैवी शक्तियाँ सहायता करती हैं। दैवी शक्तियों के नुमाइन्दे की हैसियत से मैं आप में से हरेक आदमी को विश्वास दिलाता हूँ कि दैवी शक्तियाँ आपकी सहायता करने के लिए बेहद आमादा हैं, बेहद उतारू हैं। वे इस कदर हैरान हो रही हैं, इस कदर तलाश कर रही हैं कि जितना आप संतों को, सत्पुरुषों को तलाश करते रहते हैं। आपको मैं विश्वास दिलाता हूँ कि सिद्ध पुरुषों से, संत पुरुषों से मेरी बहुत जान-पहचान है। उन सबकी ओर से मैं आपको वचन देता हूँ, वायदा करता हूँ कि आपको उनके आगे नहीं जाना पड़ेगा। किसी सिद्ध पुरुष को तलाश नहीं करना पड़ेगा। किसी महात्मा को नहीं तलाश करना पड़ेगा। महात्मा और सिद्ध पुरुष स्वयं आपके नजदीक आएँगे और आपकी सहायता करेंगे। बेटे! यह बात गलत नहीं, सही है।
गुरु आते हैं शिष्य की खोज में—
मित्रो! इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं। चाणक्य के पास चंद्रगुप्त नहीं आए थे। चंद्रगुप्त को चाणक्य ने न जाने कहाँ से तलाश कर लिया था। कहाँ से पकड़ लिया, रास्ते में ढूँढ़ लिया और कहा कि चल तू हमारे साथ, हम तुझे बादशाह बना देंगे। इसी तरह शिवाजी ने समर्थ गुरु रामदास को तलाश नहीं किया था। तो क्या हुआ था? समर्थ गुरु रामदास ने न जाने कहाँ से उस लड़के को पकड़ लिया था। किसको पकड़ लिया था? शिवाजी को। स्वामी रामकृष्ण परमहंस विवेकानन्द के घर जाया करते थे। कहते थे कि तू चलता है कि नहीं। देख हमारा कितना काम पड़ा हुआ है। विवेकानन्द ढूँढ़ने गए थे? नहीं, रामकृष्ण ढूँढ़ने गए थे। नहीं साहब! हमारा बाप मर गया, नौकरी लगवा दीजिए, इसके लिए अथवा सिद्धि के लिए गए थे? बिलकुल नहीं गए थे। उन्होंने ढूँढ़ लिया था और हमारा गुरु? हम तलाश करने गए थे? हम बिलकुल नहीं गए थे। हमको तो बिलकुल पता ही नहीं चला था। पंद्रह वर्ष के बच्चे को क्या पता चल सकता है? अपने घर में, पूजा की कोठरी में दौड़ता हुआ आसमान से आ गया था, झपट पड़ा था। गरुड़ पक्षी के बारे में आपने सुना है, गिद्ध के बारे में सुना है, बाज के बारे में सुना है। चिड़िया अपने घोंसले में बैठी रहती है और बाज ऐसा झपट्टा मारता है कि अपने पंजे के नाखूनों से दबोचकर, उसे वहाँ से उठाकर ले जाता है, जहाँ कहीं भी उसका घोंसला होता है।
सिद्ध पुरुषों की रीति-नीति—
क्यों साहब! बाज ऐसा होता है? हाँ बेटे! बाज ऐसा होता है और ऐसा करता है कि आँधी-तूफान की गति से आता है और गरुड़ की गति से आता है। उसके पंजे बहुत पैने होते हैं। फिर क्या करता है? किसी पखेरू के ऊपर हमला करता है। उसके पेट में, सारे के सारे गरदन में अपने पंजे घुसेड़ देता है और वह पक्षी बेकार हो जाता है, बेजान हो जाता है। वह उसे उड़ाते हुए वहाँ ले जाता है, जहाँ कहीं भी वह रहता होगा। फिर क्या करता है? फिर अपने शरीर में शामिल कर लेता है। फिर क्या होता है? वह पक्षी उसी के—बाज के शरीर का अंग बन जाता है। कैसे? उसका रक्त, उसका माँस बाज के पेट में चला जाएगा और तब दोनों एक हो जाएँगे। यही होता है ना? हाँ, यही होता है। आप किसकी बात कह रहे थे? चिड़िया की, बाज की? नहीं बेटे! मैं तो सिद्ध पुरुषों की बात कर रहा हूँ। सिद्ध पुरुष क्या करते हैं? ऐसा झपट्टा मारते हैं और झपट्टा मारने के बाद इस तरीके से कैद कर लेते हैं कि व्यक्ति निकल नहीं सकता। तो गुरु जी! हम पर भी वे हमला करेंगे? आप पर हमला नहीं करेंगे। क्यों? क्योंकि उनकी जिस तरह की खुराक की जरूरत है, आप उस तरह की खुराक नहीं हैं। अर्थात आप उस तरह के पात्र नहीं हैं, जिस तरह के उन्हें चाहिए।
बहलाने-फुसलाने की नीति—
मित्रो! हमने जो उपासना सिखाई है, जो कर्मकाण्ड सिखाए हैं, आपने तो उसका स्वरूप ही बदल डाला है। आपने उपासना की कैसी मिट्टी पलीद कर दी है कि उसका स्वरूप ही बदल गया है। आपने तो इसको बहकावा और फुसलावा समझ लिया है। जिंदगी भर लोगों ने आपको बहकाया-फुसलाया है और आपने भी लोगों को बहकाया फुसलाया है। किसको बहकाया और फुसलाया है? कहिए तो आपकी पोल खोल दूँ। आपने प्रेमपत्र लिखे थे कि नहीं? क्या लिखा था? तुम हमारे, हम तुम्हारे। यही सब लिखा था ना? हाँ, साहब! लिखा था। आपने इसको बहकाया-फुसलाया था कि नहीं? हाँ, साहब! बहकाया फुसलाया था। बात तो आपकी ठीक है। आपने जिंदगी भर एक काम किया है—लोगों को बहकाया और फुसलाया है, तरह-तरह के सब्जबाग दिखाए हैं। आपकी दुनिया में दो ही चीजें हैं—बहकावा और फुसलावा। अब आप क्या करना चाहते हैं? वही, जो आपने सीखा है और आपको सिखलाया गया है। वही तरीका आप देवताओं के साथ इस्तेमाल करना चाहते हैं। आप देवताओं को बहकाना और फुसलाना चाहते हैं, लेकिन इसमें आपको सफलता नहीं मिलेगी। इनसान तो बहकाए जा सकते हैं और बहकाए गए हैं, लेकिन देवता न तो किसी को बहकाते हैं और न ही आज तक उन्हें बहकाने की किसी ने हिम्मत की है और न कर सकता है। आपने बहकाने की नीयत से, फुसलाने की नीयत से, जो भी उपासनाक्रम चला रखा है, कृपा करके उसे बंद कर दीजिए। उससे कोई परिणाम नहीं निकलने वाला है और न भविष्य में कभी निकलेगा।
परिपक्व बनिए—
मित्रो! देवता अपना अनुदान-वरदान देते तो हैं, पर उपासना का स्तर एवं व्यक्तित्व का स्तर देखकर देते हैं। देखो बेटे! ये क्या चीज हैं? ये तो गुरुजी! सोने की तगड़ी है और क्या है? सोने का हार है। किसके लिए हैं? आपकी बहू के लिए हैं। तो गुरुजी! हमको दे दीजिए। आपको नहीं दे सकते। क्यों? आप बच्चे हैं। बच्चों को नहीं मिल सकता। आपको हार भी मिलेगा, अँगूठी भी मिलेगी, बंदूक का लाइसेंस भी मिलेगा हर चीज मिलेगी, लेकिन शर्त ये है कि आपकी उमर होनी चाहिए, जिसको हम 'मैच्योर' कह सकते हैं। आपको मैच्योर होना चाहिए। अभी आप बच्चे हैं, मैच्योर नहीं हैं। बच्चों को हम कीमती चीज नहीं दे सकते। अच्छा तो आप उपासना सिखा दीजिए। नहीं बेटे! अभी नहीं सिखा सकते। तो आप कुंडलिनी जागरण भी नहीं सिखाएँगे? हाँ, बेटे! अभी आपको हम कुंडलिनी जागरण भी नहीं सिखाएँगे। तो आप क्या करेंगे? अभी हम आपको छोटे स्तर का, बच्चों के स्तर का सिखाएँगे। बड़े स्तर का नहीं सिखाएँगे। क्यों? क्योंकि अभी आप उसे बरदाश्त नहीं कर सकेंगे। आप उससे बर्स्ट हो जाएँगे—फट जाएँगे। अभी हम आपका प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश, आनंदमयकोश जाग्रत करा दें तो आपके वर्तमान कलेवर में वो गुब्बारे समा नहीं पाएँगे और आप फूट जाएँगे। हवा का वजन और दबाव सँभालने के लिए उसी स्तर का ट्यूब-टायर होना चाहिए। मोटर के ट्यूब-टायर मोटे होते हैं, ताकि वे हवा का प्रेशर बरदाश्त कर सकें। क्यों साहब! अगर हम केवल ट्यूब भर चढ़ा दें और ज्यादा हवा भर दें, तब। तब बेटे! ट्यूब फट जाएगा। इसलिए मोटा टायर चढ़ाना भी आवश्यक है। अगर कलेवर मोटा नहीं रहेगा तो भी ट्यूब-टायर बर्स्ट हो जाएँगे।
क्रिया नहीं जीवन स्तर—
अच्छा महाराज जी! उसको रोकने के लिए कुंडलिनी जागरण की विधि बता दीजिए। हाँ, बेटे! हम विधि भी बताएँगे, कुंडलिनी जागरण भी कराएँगे और आवश्यकता पड़ी तो हम अपनी कुंडलिनी में से काटकर दे देंगे। बहुत से दरख्त ऐसे होते हैं, जो काटकर भी लगाए जाते हैं। मसलन गुलाब काटकर लगाया जाता है। गन्ना काटकर लगाया जाता है। गन्ने का कोई बीज नहीं होता। गन्ने को काट देते हैं और जमीन में गाड़ देते हैं तो नए बीज या पौधे तैयार हो जाते हैं। हम अपने गन्ने को, गुलाब को काट करके आपके खेत में लगा देते हैं तो आपके खेत में गन्ने की, गुलाब की फसल लहलहा उठेगी। नहीं, साहब! आप तो सिखा दीजिए? बेटे! हम कब मना करते हैं, लेकिन बात वहीं आकर अटक जाती है, आपके स्तर पर। आपके जीवन का जो स्तर है, उपासना का निन्यानवे प्रतिशत वही आधार है। उसके ऊपर आप ध्यान नहीं देते। आप उसके बारे में सुनना भी नहीं चाहते, समझना भी नहीं चाहते। आप तो केवल क्रिया-कृत्यों को समझना चाहते हैं और उन्हीं को महत्त्व देना चाहते हैं। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप उस भ्रांति का निवारण कर सकें तो आपका बड़ा अनुग्रह होगा—देवता के ऊपर, अध्यात्म के ऊपर, भगवान के ऊपर, अपने आप के ऊपर, उपासना पद्धति के ऊपर और खासतौर से हमारे ऊपर। अगर आप अपने विचारों को बदल पाएँ तो आपका बड़ा अनुग्रह होगा।
जप एक सार्वभौम उपासना—
मित्रो! फिर क्या करना पड़ेगा? आपने अनुष्ठान पूरा कर लिया। अब आप यहाँ से जाने वाले हैं तो जो हमने आपको पाँच उपासनाएँ छोटी-छोटी उपासनाएँ बताई थीं, आप उन्हीं को जारी रखें और उन्हें जीवंत कर दें। क्या उपासनाएँ बताई थीं? हमने आपको तीन यूनीवर्सल उपासनाएँ बताई थीं? ये तीन यूनीवर्सल उपासनाएँ कौन-सी हैं? एक है—'जप'। जप सारे यूनीवर्स में चलता है। आप मुसलमानों में जाइए, ईसाइयों में जाइए, बौद्धों में जाइए, सिखों में जाइए, यहूदियों में जाइए, पारसियों में जाइए। संसार में ऐसा कोई मजहब नहीं है, जहाँ जप के बिना काम चल जाता हो। जप हर जगह, हर समुदाय में चलता है। चाहे आप आर्यसमाजी हों, चाहे कोई भी हों, लेकिन हर हालत में आपको जप करना चाहिए। ये उपासना यूनीवर्सल है, जो हमने आपको सिखा दी है, लेकिन आप प्राणवान उपासना कर डालें तो मजा आ जाए।
ध्यान भी है यूनीवर्सल—
और कौन-सी उपासना यूनीवर्सल है? दूसरी यूनीवर्सल उपासना 'ध्यान' है। सांप्रदायिक उपासनाओं में तो तरह-तरह की शक्लें पाई जाती हैं, जैसे कि हिंदुओं में आप लोग देवी की बनाते हैं। शैव महादेव की बनाते हैं। महाराष्ट्र में दत्तात्रेय की बनाते हैं, इधर श्रीकृष्ण की बनाते हैं। ये कौन हैं? ये शक्ल वाले हैं, लेकिन बिना शक्ल का भी एक यूनीवर्सल ध्यान है। वो क्या है? प्रकाश का ध्यान। प्रकाश का ध्यान यूनीवर्सल है, इसमें सब एक मत हैं। ईसाइयों में इसे 'लेटेंट गॉड' कहते हैं। मुसलमानों में इसे 'खुदा का नूर' कहते हैं। हिंदुओं में 'आत्मज्योति' कहते हैं। प्रकाश का ध्यान, जिसको हम अक्सर 'सविता' के नाम से पुकारते हैं। आगे चलकर गायत्री का स्वरूप यूनीवर्सल होगा, जिसे हमने हिंदुओं में से लिया है। इसे जब हम यूनीवर्सल रूप देंगे तो देवियों को उनमें से हटा देंगे, फिर आप क्या करेंगे? हम प्रकाश को रखेंगे। प्रकाश? हाँ, बेटे! यह सबका है। तुझे मालूम नहीं है, गायत्री मंत्र क्या है? गायत्री मंत्र में तो स्त्री का स्वरूप है। गुरुजी! कहाँ है, स्त्री का स्वरूप? तो क्या है इसमें? इसमें सविता का मंत्र है। सविता क्या होता है? सविता होता है, पुरुष। पुरुष कैसे होता है? जिसमें सारे अक्षरों में पुलिंग का समावेश हो। आपमें से किसी को संस्कृत आती होगी, आप गायत्री मंत्र पढ़ लीजिए और मालूम कर लीजिए 'तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।' ये सब क्या है? स्त्रीलिंग है या पुलिंग है? फिर क्या बात है? हिंदू समाज की परंपरा के अनुसार इसे माता और पिता की भावना के लिए देवी का और देवता का स्वरूप दे दिया गया है। इसमें सविता का ध्यान आता है, प्रकाश का ध्यान आता है, उदीयमान सूर्य का ध्यान आता है और आज्ञाचक्र में त्राटक का ध्यान आता है। ये है हमारा ध्यान।
स्वर-साधना, सोऽहम् प्राणायाम—
और कौन-सी है, यूनीवर्सल उपासना? बेटे! एक और यूनीवर्सल उपासना पद्धति है, जिसका नाम है—'सोऽहम् साधना'। इसमें स्वरों की उपासना आ जाती है, 'डीप ब्रीदिंग' आ जाती है। तरह-तरह के फिजिकल अभ्यासों से लेकर मेंटल अभ्यासों तक, साँस रोकने तक तथा समाधि भी इसी में आ जाती है। प्रत्याहार भी इसी में आता है। ये सब साँस से संबंध रखते हैं। प्राणायाम के जितने भी तरीके हैं, वे सब साँस से संबंध रखते हैं। इस तरह प्राणायाम, जप और ध्यान, ये तीनों यूनीवर्सल उपासनाएँ हैं।
संधिकाल में करें उपासना—
मित्रो! हिंदू धर्म के हिसाब से दो संध्याएँ हैं। मुसलमानों में कितनी संध्याएँ हैं? मुसलमानों में पाँच संध्याएँ हैं। उनके यहाँ पाँचों वक्त की नमाज है। हमारे यहाँ भी त्रिकाल संध्या है। आप कम से कम करना चाहते हैं तो दो संध्याएँ कर लिया करें। भगवान का नाम कम से कम दो बार तो लेना ही चाहिए। आप खाना कितनी बार खाते हैं? गुरुजी! खाना तो हम दो बार खाते हैं। एक दोपहर को और एक शाम को। बीच-बीच में तो वैसे ही कुछ खा लेते हैं। अच्छा, टट्टी कितनी बार जाते हैं? दो बार जाते हैं। ठीक है, जब आप दोनों कार्य दो-दो बार करते हैं तो भगवान का नाम भी दो बार लिया कीजिए तो काफी है, एक प्रातःकाल की संध्या में और दूसरा सायंकाल की संध्या में। संध्या नाम इसलिए दिया गया है कि इसमें दोनों संध्याएँ मिल जाती हैं। जब दिन और रात मिलते हैं तथा रात और दिन मिलते हैं तो इनका मिलन संध्या कहलाती है। गुरुजी ! आप संध्या के नाम की वजह से क्या चाहते हैं? बेटे! मैं चाहता हूँ कि जब आप यहाँ से विदा होकर जाएँ तो आप पाँचों संध्याओं को जारी रखें। कौन-कौन सी? प्रातःकाल की संध्या—एक, सायंकाल की संध्या—दो, जप करते रहें—तीन, ध्यान करते रहें—चार और भजन करते रहें—पाँच। आप इन पाँचों उपासनाओं को अबाध गति से जारी रखें, जो आपको सिखा दी गई हैं तो आपके लिए यह काफी हो सकता है, परंतु एक बात और ध्यान रखना इन सबको आप प्राणवान बना लें। यदि आपने प्राणवान नहीं बनाया और मात्र रेपिटिशन करते रहे तो मुश्किल हो जाएगी और जो फायदे होने चाहिए, वे नहीं हो पाएँगे।
जागरण-शयन की साधना—
इन्हें प्राणवान कैसे बनाएँ? प्रातःकाल की संध्या और सायंकाल की संध्या का मैं आपको एक और तरीका बता सकता हूँ, जो है तो सरल, लेकिन बहुत फायदेमन्द है। मेरा हजारों बार का अभ्यास किया हुआ है। वो क्या है? जब आप सवेरे जगा करें, सवेरे जिस समय भी आपकी आँख खुला करे, उसी समय आप उपासना किया करें। मसलन आपकी आँख साढ़े तीन बजे खुलती है तो आप उसी समय मान लें कि हमारी नींद खतम और जाग्रति पैदा। हमारी रात खतम और दिन प्रारंभ। आप उसे संध्या का समय मानें, जब आपकी आँख खुलती है। इसी तरह सायंकाल की संध्या आप उस समय कर लिया करें, जब आप चारपाई पर जाते हैं और नींद आनी शुरू होती है। ये दो संध्याएँ आपके लिए ठीक हैं। सूरज वाला समय शायद आपको अनुकूल न मालूम पड़े। उस समय हमको बहुत काम है, हमें देर से नींद आती है, हम सायंकाल को दुकान चलाते हैं। ठीक है, लेकिन इसमें आपको शिकायत नहीं हो सकती। अतः आप प्रातःकाल की संध्या आँख खुलते ही और सायंकाल की संध्या सोते समय कर लिया करें। मैं चाहता हूँ कि आपमें से जितने भी आदमी आए हुए हैं, जिन्होंने अनुष्ठान किया है, वे दोनों संध्याएँ जारी रखें।
क्या सोचें संध्या में संध्या में—
क्या करें? कैसे करें? बेटे! इसमें आपको ऐसा करना चाहिए कि प्रातःकाल की संध्या में जब आप आँखें खोला करें तो जीवन देवता के बारे में, जीवन के कल्पवृक्ष के बारे में, उसके आरंभ के इतिहास के बारे में सोचा करें कि इसका उद्देश्य क्या है? स्वरूप क्या है? दूसरी संध्या सायंकाल को जब आप सोया करें तो उसके अंतिम चरण का उच्चारण किया करें। जीवन के अंतिम चरण से क्या मतलब है? इससे हमारा मतलब यह है कि भगवान ने ये जो जीवन दिया है, वह कोहिनूर हीरा है। यह दुनिया का सबसे कीमती हीरा है, जो ब्रिटेन के सम्राट के मुकुट में लगा हुआ है। बेटे! आपके मुकुट में जो हीरा लगा हुआ है, उसका नाम है—जिंदगी। आप तो इसका मूल्य ही नहीं समझते और इस जिंदगी को कीड़े-मकोड़ों की जिंदगी की तरह व्यतीत कर रहे हैं। भगवान ने आपको असल में वो चीज दी है, जिसका अगर आप सही रूप से इस्तेमाल करना जान गए होते तो आप करोड़पति हो गए होते, अरबपति हो गए होते। अगर आप जिंदगी का मतलब जान गए होते, तब आप दुनिया में सब कुछ हो गए होते।
जीवन का स्वरूप समझें—
आपने अपनी अज्ञानता का पहला वाला परचा फाड़कर फेंक दिया होता तो आपको आत्मज्ञान हो गया होता। आत्मज्ञान किसे कहते हैं? जिंदगी का स्वरूप और उद्देश्य समझ लेना इसी का नाम आत्मज्ञान है। भगवान बुद्ध को बोधि वट के नीचे आत्मज्ञान हो गया था और आत्मज्ञान होने की वजह से वे भगवान हो गए थे। आपको भी आत्मज्ञान है? हाँ साहब! हम ईश्वर के अंश हैं—'ईश्वर अंश जीव अविनाशी।' ये किसके लिए कह रहा है? अपने लिए। तो अपने लिए मत कह, क्योंकि ईश्वर का अंश जो जीव है, वह तो जगा हुआ होता है—'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।' अत: आप प्रातःकाल उठिए और नींद में से जागिए। आप जीवन को देखिए, परखिए कि यह क्या चीज है? भगवान ने आपको ऐसी कीमती चीज दी है कि यदि आप उसका ठीक से उपयोग कर सकें तो आप इसी जिंदगी में स्वार्थ और परमार्थ दोनों को सिद्ध कर सकते हैं। चलिए, जो बीत गया, उसे जाने दीजिए। जो रह गया है, उसमें ही आप इसी जीवन में मोक्ष पा सकते हैं। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ और आप चाहें तो भगवान का प्यार पा सकते हैं तथा जिसे आप परमार्थ कहते हैं, ईश्वर की कृपा कहते हैं, आप पा सकते हैं। शर्त एक ही है कि आप जीवन का स्वरूप समझ लें और उसका ठीक से उपयोग कर लें बस।
जीवन: भगवान की धरोहर—
आपको तो जीवन का स्वरूप ही समझ में नहीं आता, मैं क्या कहूँ आपसे! आप सवेरे उठते ही यह विचार किया कीजिए, चिंतन और मनन किया कीजिए कि आखिर जीवन क्या है? चौरासी लाख योनियों में से जो सुविधाएँ किसी को नहीं मिलीं, हमको क्यों मिलीं? विचार तो कीजिए कि भगवान ने यह क्यों दीं? क्या मौज-मजा उड़ाने के लिए दीं? बेटी-बेटा पैदा करने के लिए और दुनिया भर की बेईमानी करने के लिए हमको जिंदगी दी? इसके लिए नहीं, वरन किसी खास उद्देश्य और खास मकसद के लिए दी है। अगर आप सवेरे-सवेरे जीवन के स्वरूप को समझने का प्रयत्न करेंगे तो आप आत्मबोध के नजदीक पहुँचेंगे और ये पाएँगे कि जीवन महान है और यह जीवन भगवान ने धरोहर के रूप में किसी खास उद्देश्य के लिए दिया हुआ है। क्या उद्देश्य है? अपने आप का परिशोधन करते हुए पूर्णता तक जा पहुँचने का उद्देश्य नंबर एक।
प्यार कीजिए—प्यार का विस्तार करिए—
भगवान की कृपा केवल एक शर्त पर मिलती है, दूसरी कोई शर्त नहीं है। क्या शर्त है? भगवान के बच्चों को प्यार कीजिए। किसी माँ का प्यार पाना हो तो आप उसके बच्चों को प्यार कीजिए। अरे निष्ठुरो! निर्दयियो! कृपणो! भगवान के बच्चों को प्यार करना सीखो। इस दुनिया को समुन्नत और शानदार बनाने के लिए, दुनिया में सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन करने के लिए परोपकार की रीति-नीति अपनाइए। मित्रो! मैं समझता हूँ कि आप प्रातःकाल की साधना कर लिया करें तो काफी है। इस उपासना से आपको तीन परिणाम मिल जाएँगे। पहला—जीवन की महत्ता को समझना, दूसरा—जीवन के उद्देश्य को समझना और तीसरा जीवन के उपयोग को समझना। ये तीन बातें अगर आपकी समझ में आ जाएँ तो मैं समझता हूँ कि आपको सत्, चित् और आनंद की प्राप्ति हो गई। आपको भगवान के नजदीक जाने का जो लाभ होना चाहिए था, गुरु विद्या का जो लाभ मिलना चाहिए था, वह पूरा लाभ मिल गया।
याद रखें जीवन के साथ मौत—
और क्या किया करें? बेटे! एक काम आप और कर सकते हैं। आपने दो चीजें भुला दी हैं, बाकी सब चीजें याद हैं। जिनसे आपको नुकसान हुआ था, वो याद हैं। सब बातें याद हैं, पर आप जिंदगी को भूल गए हैं। जिंदगी को आप इस्तेमाल भी कर रहे हैं, पर उसकी वास्तविकता के बारे में बेखबर हैं। आप जिंदगी के बारे में खबरदार हो जाएँ—एक और दूसरी जिंदगी के साथ में जुड़ी हुई अंतिम धुरी को याद रखें, जिसका नाम है—मौत। मौत को आपने भुला दिया है, बहुत गलती की है। आप मौत को याद कर लीजिए। जब आप सुबह उठे तो कल्पना कीजिए कि अभी-अभी हमारा माँ के पेट में से जन्म हुआ है और हम जिंदगी के बारे में खबरदार होते हैं। रात को जब आप सोया करें, तब नींद के समय ये विचार किया करें कि अब हमारे मरने की घड़ी आ गई है और हम मरते हैं। चारपाई को आप ये मान लीजिए कि यह मुरदे की चारपाई है, जिस पर हम लेटे हैं। अब हम अगली दुनिया में जा रहे हैं और बेसुध हो रहे हैं, नींद में जा रहे हैं और मर रहे हैं। इस तरह आप मौत को याद कर लिया कीजिए तो मजा आ जाए। आपने मौत को इस तरीके से भुला दिया है कि क्या कहूँ आपसे? मौत तो आपको डरावनी लगती है, क्योंकि मौत से आपकी जान-पहचान नहीं है। छोटे बच्चे जब नए वाले कपड़े को पहनने में खुशी जाहिर करते हैं कि मम्मी हम तो नया कपड़ा पहनेंगे। नया कपड़ा पहनने को जरा-सी उमा जब मचलती है तो आपको क्या होता है? नया कपड़ा पहनने में आपको क्या मुसीबत है। मरने में आपको इस बात का भय है कि जिंदगी को आपने बुरी तरह से तबाह किया है।
अपने अध्यापक, मौत को याद रखिए—
मित्रो! मौत आपके पास जवाब तलब करने के लिए आने वाली है। आपका ये ख्याल गलत है कि मौत के समय आपसे यह लेखा-जोखा लिया जाएगा कि आपने ग्यारह माला कीं या इक्कीस माला कीं। भगवान के यहाँ हमने ढूँढ़ा कि क्यों साहब! आपके यहाँ माला का भी कोई एकाउण्ट है क्या? भगवान ने कहा कि हमारे यहाँ इस तरह का कोई एकाउण्ट नहीं है। मौत का माला के साथ कोई एकाउण्ट नहीं है। एक भी ऐसा खाता नहीं है, जिसमें आपकी माला को काउण्ट किया जाता हो। भगवान के यहाँ हमने बहुत से मीटर देखे, आदमी के चरित्र के मीटर देखे, इसके देखे-उसके देखे, ढेरों मीटर लगे थे, लेकिन कहीं कोई ऐसा मीटर नहीं देखा, जिसका ताल्लुक माला से हो। भगवान की प्रसन्नता और माला का जरा भी ताल्लुक नहीं है। फिर क्या ताल्लुक है? माला की क्या जरूरत है? बेटे! लोग अपने मन की मलिनता को धोने के लिए माला करते हैं। माला अपने आप की धुलाई के लिए है, अत: आप सायंकाल को जब सोया करें तो सिर्फ एक बात को याद किया करें कि हम मौत के मुँह में जाने वाले हैं। बेटे! मौत सबसे बड़ा अध्यापक है, सबसे बड़ा गुरु है। मौत के बराबर जागरूक रखने वाला और कोई अध्यापक नहीं हो सकता।
हिसाब जिंदगी का देना है—
मित्रो! राजा परीक्षित को मालूम पड़ा था कि मौत हमारे पास आ गई और वे जागरूक हो गए। सिकंदर को मालूम पड़ा था कि मौत हमारे पास आ गई है तो वह जागरूक हो गया। आप तो मौत को छूना ही नहीं चाहते, जबकि मौत आपकी जिंदगी की वास्तविकता है। मैं समझता हूँ कि इतनी बड़ी वास्तविकता और कोई नहीं हो सकती। जिंदगी भी एक वास्तविकता है और आप दोनों के ही बारे में बेखबर बैठे हैं। यही आपकी सबसे बड़ी समस्या है। रात को सोते समय आपको इस बात का ध्यान करना चाहिए कि हमको मरना है और मरना है तो क्या करना है? भगवान के सामने पेश होना है। किसके लिए? हिसाब देने के लिए कि जिंदगी जैसी कीमती चीज आप लेकर गए थे और उसके बदले में क्या खरीद करके लाए? साहब ! ये खरीद कर लाए, चाय खरीद कर लाए, पतंग खरीद कर लाए। अरे अभागे! जिंदगी के बदले तुझे क्या खरीदना चाहिए था और तूने क्या खरीद लिया? तूने सारे के सारे ट्रैवलर चेक ऐसे ही खराब कर दिए?
हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत—
बेटे! मरने के दिन आपको जिंदगी का सारा एकाउण्ट देना होगा। इसलिए रात को सोते समय आप मौत का और प्रातःकाल उठते समय जिंदगी का ध्यान कर लिया कीजिए और बीच का जो समय बच जाता है, उसके लिए क्या कीजिए? मौत और जिंदगी को शानदार बनाने के लिए दिन भर हमारा कैसे व्यतीत हो? हमारा समय, श्रम और धन किस अच्छे तरीके से व्यतीत हो सकता है, आप ये विचार कर लिया करें। इस तरह प्रातःकाल की जिंदगी, रात की मौत और बीच के समय को मिलाकर आप वो काम करें, जिसको हम शानदार जिंदगी कहते हैं। बस, आप इतना नित्य कर लिया करें तो आपकी दोनों संध्याएँ धन्य, आपका जीवन धन्य। दोनों संध्याएँ हर दिन आपको इतना ज्यादा प्रेरणा और प्रकाश देंगी कि आपके जीवन को बदल देंगी। ये दोनों महान अध्यापक हैं, गुरु हैं। जीवन एक गुरु है, मौत एक गुरु है। आप न जीवन के पास जाना चाहते हैं और न मौत के पास जाना चाहते हैं तो बेटे! मैं क्या करूँ उसके लिए?
कृत्यों में भर लें प्राण—
मित्रो! आप सब लोग जो यहाँ आए हुए हैं, यहाँ से जाने के बाद में कृपा करके ये नियम बना लीजिए कि इसे आप जरूर किया करेंगे। क्या-क्या किया करेंगे? तीन काम वो हैं, जो हम बहुत पहले सिखा चुके हैं। उनको आप जीवंत करें। अब तक क्या है? अब तक वे मरे हुए हैं। आपका जप मरा हुआ है। आपका ध्यान मरा हुआ है। आपका प्राणायाम भी मरा हुआ है। तीनों को आप करते तो हैं, पर मैं समझता हूँ कि उन्हें मरे हुए से करते हैं, चिह्न−पूजा के तरीके से करते हैं, लकीर पीटने के तरीके से करते हैं। इनके भीतर वो जीवन और जीवट नहीं, जिसको विचारणा कहना चाहिए, प्रेरणा कहना चाहिए, दिशा कहना चाहिए, चिंतन कहना चाहिए, मनन कहना चाहिए, प्रभाव कहना चाहिए। वो कहीं, है ही नहीं। बेटे! उसमें प्राण पैदा क्यों नहीं कर लेते? आप इन कृत्यों की प्राण-प्रतिष्ठा कीजिए। बेटे! मैं यही कहना चाहता था आपसे। आज की बात समाप्त ।। ॐ शांति:।।