युग निर्माण की शिक्षण प्रक्रिया
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* बहुत दिनों से अति प्रबल प्रयत्न करके देश के विचारशील, चरित्रवान और मानवीय भविष्य के निर्माण में अभिरुचि रखने वाले कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तियों की एक शृंखला बनाई गई है और लम्बे समय से उनके साथ सम्बन्ध, सम्पर्क साधकर इस योग्य बनाया गया है, जिससे वे भावनात्मक नव-निर्माण के विशालकाय अभियान में अपना समुचित योगदान दे सकें। इस समूह के द्वारा व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज-निर्माण के जो छुट-पुट प्रयत्न देर-सबेर होते चले आ रहे थे अब उन्हें संगठित और व्यवस्थित करके ‘युग-निर्माण योजना’ के अन्तर्गत एक नियोजित और क्रमबद्ध दिशा में काम करने के लिए अभिमुख किया गया है।
* प्रस्तुत योजना का संचालन केन्द्र ‘शान्तिकुञ्ज’ हरिद्वार है। साहित्य प्रकाशन वृन्दावन रोड पर अवस्थित मथुरा नगर के ‘गायत्री तपोभूमि’ नामक आश्रम से होता है। विचार क्रान्ति की दिशा में साहित्य निर्माण का अनुपम कार्य इसी केन्द्र से हुआ है। भारतीय समाज के प्रायः समस्त धर्म, ग्रन्थ-वेदों से लेकर पुराणों तक इसलिए अनुवादित और प्रकाशित किए गए हैं कि भारतीय संस्कृति प्रतिगामी नहीं, वरन् उसका प्रत्येक संदेश प्रगतिशील है। जो अन्ध परम्पराएँ और रूढ़ियाँ प्रचलित हैं वे अपने धर्म का अंग नहीं वरन् मध्यकालीन अंधकारमय युग की विकृतियाँ मात्र हैं।
* क्रिया-कलाप छोटा होते हुए भी अति महत्त्वपूर्ण है। विज्ञान के आधार पर अध्यात्म के तथ्यों और सत्यों को प्रतिपादन करने वाली ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका ने नास्तिकों को आस्तिक और अविश्वासियों को विश्वासी बनाने में अद्भुत सफलता पाई है। बुद्धिजीवियों में आस्था उत्पन्न करने वाली अति उच्चकोटि की प्रामाणिक पाठ्य सामग्री प्रस्तुत करने वाली संभवतः यह संसार भर की एकमात्र पत्रिका है, जिसे पढ़कर लोग आश्चर्य करते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म जैसे परस्पर विरोधी दीखने वाले तत्त्वों को एक दूसरे का समर्थक, पूरक सिद्ध करने का यह अद्भुत प्रयास कौन करता है-कैसे करता है?
* ‘युग-निर्माण ने व्यवहार में अध्यात्म को मिलाकर जीवन जीने की कला को एक सांगोपांग आचार पद्धति के रूप में उपस्थित किया है। इसे संजीवनी विद्या भी कहते हैं। इस आचार और विचार के साम्याश्रित शास्त्र के सम्बन्ध में लगभग तीन हजार पुस्तकें छापी गई हैं। इसी साहित्य में लगभग 100 जीवन चरित्र इस दृष्टि से छापे गये हैं कि उनसे पाठक को आत्मनिर्माण और समाज निर्माण की दिशा में सरलतापूर्वक प्रेरणा, प्रकाश और दिशा मिल सके।
* व्यक्ति के निर्माण और समाज के उत्थान में शिक्षा का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। प्राचीनकाल की भारतीय गरिमा ऋषियों द्वारा संचालित गुरुकुल पद्धति के कारण ही ऊँची उठ सकी थी। पिछले दिनों भी जिन देशों ने अपना भला-बुरा निर्माण किया है उसमें शिक्षा को ही प्रधान साधन बनाया है। जर्मनी, इटली का नाजीवाद, रूस और चीन का साम्यवाद, जापान का उद्योगवाद, यूगोस्लाविया, स्विट्जरलैंड, क्यूबा आदि ने अपना विशेष निर्माण इसी शताब्दी में किया है। यह सब वहाँ की शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने से ही संभव हुआ। व्यक्ति का बौद्धिक और चारित्रिक निर्माण बहुत करके उपलब्ध शिक्षा-प्रणाली पर निर्भर रहता है। व्यक्तियों का समूह ही समाज है जैसे व्यक्ति होंगे वैसा ही समाज बनेगा। किसी देश का उत्थान या पतन इस बात पर निर्भर रहता है कि उसके नागरिक किस स्तर के हैं और यह स्तर बहुत करके वहाँ की शिक्षा-पद्धति पर निर्भर रहता है।
* अपने देश की शिक्षा पद्धति कुछ अजीब है। यहाँ नौकरी भर कर सकने में समर्थ बाबू लोग ढाले जाते हैं। हर साल निकलने वाले इन लाखों छात्रों को नौकरी कहाँ मिले। वे बेकार घूमते हैं और लम्बी-चौड़ी जो महत्त्वाकाँक्षाएँ सँजोकर रखी गई थीं, उनकी पूर्ति न होने पर संतुलन खो बैठते हैं और तरह-तरह के उपद्रव करते हैं। अपना शिक्षित वर्ग, अशिक्षितों की अपेक्षा देश के लिए अधिक सिर दर्द बनता जा रहा है। इसमें बहुत बड़ा दोष शिक्षा पद्धति का है, जिसमें चरित्र गठन, भावनात्मक उत्कर्ष, विवेक का तीखापन तथा आर्थिक स्वावलम्बन की दृष्टि से केवल खोखलापन ही दीखता है।
* अपने प्रशिक्षण में शिक्षित-अशिक्षित दोनों को समान महत्त्व है। क्योंकि विवेकशीलता एवं दूरदर्शिता के क्षेत्र में दोनों ही समान रूप से पिछड़े हुए हैं। अशिक्षितों का पिछड़ापन किसी कोण में है और शिक्षितों का किसी कोण में हो सकता है, पर सब मिलाकर दोनों का पिछड़ापन लगभग समान वजन बैठेगा। इसलिए अपने विद्यालयों में दोनों का ही प्रवेश समान रूप से हो सकता है। नर-नारी का भी अन्तर नहीं किया जाना चाहिए। 13-14 वर्ष से अधिक आयु के बालक जो विचार-विद्या में व्यक्ति और समाज का संदर्भ समझ सकने में समर्थ हो गये हैं, प्रसन्नतापूर्वक इस शिक्षा में सम्मिलित हो सकते हैं। शिक्षित पाठ्य-पुस्तकें पढ़कर अपनी जानकारी अधिक सरलतापूर्वक बढ़ा सकते हैं, जबकि अशिक्षितों को इसे सुनकर समझना पड़ेगा। इतनी कठिनाई के अतिरिक्त और कोई विशेष अन्तर पड़ने वाला नहीं है। जिसकी समझ ही काम न करे, उसकी बात दूसरी है, अन्यथा यह शिक्षण हर वयस्क के लिए ग्राह्य एवं उपयोगी हो सकता है।
* यह शिक्षण-पद्धति सुकरात, अरस्तू और अफलातून ने अपने-अपने समय में बहुत ही उत्साहपूर्वक चलाई थी और प्रायः सभी शिक्षण संस्थाओं ने उसका स्वागत किया था। उपनिषदों और पुराण पढ़ने से प्रतीत होता है कि भारत में सदा से शिक्षण की प्रश्नोत्तर पद्धति को पूरा-पूरा महत्त्व दिया जाता था। लम्बी-चौड़ी पुस्तकों में व्यक्त किया गया, गधे के बोझ की तरह अनावश्यक ज्ञान छात्रों के मस्तिष्क में भरने से वे उसे पचा नहीं पाते। परीक्षा में पास हो सकने जितने नम्बरों का जहाँ-तहाँ से कुछ पढ़कर प्रायः सभी छात्र अपनी गाड़ी धकेलते और अपनी चतुराई का परिचय देते पाये जाते हैं। किसी तरह पास भर हो जाते हैं पर उनके पल्ले न कुछ के बराबर पड़ता है। इससे अच्छा यही है कि किसी महत्त्वपूर्ण प्रसंग को संक्षिप्त में पढ़ा जाये किन्तु उसका विस्तृत मनन, चिन्तन, विचार-विश्लेषण करके तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम किया जाये। अपनी शिक्षण पद्धति इसी शैली पर निर्धारित है। पाठ दो-दो पृष्ठ के छोटे-छोटे दिये गये हैं पर वे सभी बहुत महत्त्वपूर्ण तथा सारगर्भित हैं। प्रश्नोत्तर के आधार पर इन्हें बहुत मथा और बढ़ाया जा सकता है और उसे तब तक चर्चा का विषय रखा जा सकता है जब तक कि प्रसंग ठीक तरह समझ में न आ जाये।
* यह शिक्षण अपने छात्रों को इस योग्य बना देगा कि वे अपने व्यक्तित्व को सुविकसित, परिवार को सुसंस्कृत एवं समाज को सुसम्पन्न बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पादित कर सकें।
* युग निर्माण योजना के ये आदर्श एवं सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं। इन्हें ही प्रशिक्षण प्रक्रिया में सम्मिलित किया गया है। इनकी संख्या सौ है।
1 आस्तिकता एवं उपासना का प्रयोजन-प्रतिफल
2 देववाद और पूजा-अर्चा का रहस्य
3 जीवन लक्ष्य समझें और उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करें
4 स्वर्ग और मुक्ति का आनन्द इसी जीवन में सम्भव
5 कर्मफल आज नहीं तो कल भोगना ही पड़ेगा
6 दुष्कर्मों के दण्ड से प्रायश्चित ही छुड़ा सकेगा
7 हम कामना ग्रस्त न हों, प्रगतिशील बनें
8 भाग्यवाद हमें नपुंसक और निर्जीव बनाता है
9 बौद्धिक परावलम्बन का जुआ उतार फेकें
10 ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की महान साधना
11 आध्यात्मिक जीवन के पाँच कदम
12 हर दिन को एक नया जन्म समझें और उसका सदुपयोग करें
13 स्वाध्याय दैनिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकता
14 अपना महान महत्त्व समझें और अपने को सुधारें
15 कर्तव्य परायण मानव जीवन की आधारशिला
16 असत्य व्यवहार सद्भावना और सामाजिकता पर कुठाराघात
17 बेईमानी का नहीं, ईमानदारी का मार्ग अपनायें
18 हँसती और हँसाती जिन्दगी ही सार्थक है
19 अपना ही नहीं कुछ समाज का भी हित साधन करें
20 सज्जनता और मधुर व्यवहार मनुष्यता की पहली शर्त
21 साहस जुटायें, औचित्य अपनायें
22 आलस्य त्यागें सुसम्पन्न बनें
23 समय का सदुपयोग सफलता के लिए अमोघ वरदान
24 अवरोध हमें अधीर न बनाने पावें
25 आवेशग्रस्त न हों शान्ति और विवेक से काम लें
26 विचार शक्ति का महत्त्व समझें और सदुपयोग करें
27 आरोग्य रक्षा के लिए सन्तुलन आवश्यक है
28 स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रकृति का अनुसरण आवश्यक
29 आहार और विहार में असंयम न बरतें
30 संयम बरतें सुखी रहें
31 हम अस्वच्छ न रहें, घृणित न बनें
32 ढलती आयु का सदुपयोग करें
33 अनीति से सतर्क रहें, अन्याय का रोकें
34 जो अनुचित है उससे सहमत न हों
35 औचित्य की सराहना और अनौचित्य की भर्त्सना की जाय
36 सुव्यवस्था ही परिवारों को सुविकसित रख सकेगी
37 दाम्पत्य जीवन-एक आध्यात्मिक योग साधना
38 पतिव्रत ही नहीं, पत्नीव्रत भी निभाया जाये
39 संयुक्त परिवार प्रणाली एक श्रेयस्कर परम्परा
40 संतान कितनी और क्यों पैदा करें
41 सुसंस्कृत संतान के लिए पूर्व तैयारी आवश्यक
42 बालकों को जन्म ही न दें-उनका निर्माण भी करें
43 संतान को स्वावलम्बी भर बनाना ही पर्याप्त है
44 पर्दा प्रथा नारी के साथ बरती जाने वाली एक नृशंस अनीति
45 अपव्यय एक पाई का भी न करें
46 धन का उपार्जन ही नहीं, सदुपयोग भी ध्यान में रहे
47 अपव्यय और फैशन−परस्ती एक ओछापन
48 जेवरों का भौंड़ा फैशन हर दृष्टि से हानिकारक
49 माँस मनुष्यता को त्याग कर ही खाया जा सकता है
50 तम्बाकू का दुर्व्यसन छोड़ा ही जाना चाहिए
51 देशभक्त नव निर्माण के कार्य में जुट जायें
52 नागरिक कर्तव्य पालें और समाज में स्वस्थ परम्परा डालें
53 व्यक्तिगत स्वार्थ भी सामाजिक सुव्यवस्था पर निर्भर है
54 प्रौढ़ों को साक्षर बनाया जाना युग की अपेक्षणीय माँग
55 व्यायाम एवं स्वास्थ्य शिक्षा समाज की एक महती आवश्यकता
56 अध्यापक अपने महान पद, गौरव और उत्तरदायित्व को निबाहें
57 छात्र अपने भविष्य का निर्माण आप करें
58 नवयुवक सज्जनता और शालीनता सीखें
59 उदार सहकारिता से हमारी उलझनें सुलझेंगी
60 प्रगति के लिए श्रम-सम्मान एवं गृह उद्योगों की आवश्यकता
61 अन्न संकट की चुनौती का सामना कैसे करें
62 शाक हमारी खाद्य समस्या का हल करेंगे
63 वृक्षारोपण और संवर्धन-एक अति आवश्यक कार्य
64 तुलसी हमारे हर घर में शोभायमान रहे
65 गौ संरक्षण हमारी एक महती आवश्यकता
66 अधिकार गौण और कर्तव्य प्रधान माना जाये
67 वोटरों की सतर्कता पर प्रजातंत्र का भविष्य निर्भर है
68 प्रबुद्ध नारी-महिला जागरण की कमान सँभालें
69 नारी उत्कर्ष के लिए कुछ विशेष प्रयत्न किये जायें
70 ऊँच-नीच की मान्यता अन्यायमूलक है
71 अश्लीलता की बाढ़ हमें पतित बना रही है
72 भिक्षावृत्ति का व्यवसाय न रहने दें
73 मृतक भोज भी अविवेकपूर्ण न हों
74 भूत-पलीत और उद्भिज देवी, देवताओं का जंजाल
75 पशुबलि भारतीय धर्म पर एक कलंक
76 प्राणियों के प्रति निर्मम और निष्ठुर न बनें
77 विवाहों के आदर्श ऊँचे रखे जायें
78 बाल-विवाह एक अति घातक कुप्रथा
79 खर्चीली शादियाँ हमें बेईमान और दरिद्र बनाती है
80 बेटे वाले व्यर्थ ही घाटा और बदनामी न उठायें
81 उच्च शिक्षित कन्या की विवाह समस्या और उसके नये हल
82 विधुर और विधवाएँ समान न्याय के अधिकारी
83 मनस्वी शूरवीर विवाहोन्माद के असुर से जूझें
84 बिना खर्च के विवाहों का प्रचण्ड आन्दोलन चल पड़े
85 आततायी उद्दण्डता का डटकर मुकाबला किया जाय
86 धर्मतंत्र को प्रगतिशील बनने दिया जाये
87 साधु-ब्राह्मण समाज अपना कर्तव्य और दायित्व समझें
88 मन्दिर, आस्तिकता और सत्प्रवृत्तियाँ जगाने में लगें
89 त्यौहार और संस्कार प्रेरणाप्रद पद्धति से मनाये जायें
90 जन्म दिवस और विवाह दिवस मनाये जायें
91 गायत्री और यज्ञ भारतीय धर्म संस्कृति के माता-पिता
92 गायत्री यज्ञ आन्दोलन एक महान रचनात्मक अभियान
93 शिखा भारतीय संस्कृति की धर्मध्वजा
94 यज्ञोपवीत धारण-नीति और कर्तव्य अपनाने का व्रतबन्ध
95 ज्ञानयज्ञ का प्रकाश घर-घर पहुँचाया जाये
96 ज्ञानयज्ञ नवनिर्माण का महानतम अभियान
97 व्यक्ति और समाज का समग्र निर्माण कर सकने वाली शिक्षा पद्धति
98 कला लोकरंजन ही नहीं भावनाओं का परिष्कार भी करें
99 रचनात्मक कार्यक्रमों से ही देश समर्थ बनेगा
100 अनीति, असुरता के विरुद्ध प्रबल संघर्ष किया जायेगा
आस्तिकता एवं उपासना का प्रयोजन-प्रतिफल
इस सृष्टि का अधिपति भगवान है। उसने हर वस्तु को बनाकर उसकी सीमा मर्यादाएँ बना दी हैं। सृष्टि का हर पदार्थ एवं प्राणी अपनी नियत मर्यादाओं में रहकर ईश्वरीय प्रयोजन को पूरा करता रहता है। एक मनुष्य ही है जो अपनी बुद्धि और प्रकृति का दुरुपयोग करता है, कुमार्गगामिता अपनाकर अपने तथा दूसरों के लिए संकट उत्पन्न करता है। इस पथ-भ्रष्टता से बचने के लिए ‘‘धर्म’’ की रचना आवश्यक हुई। ऋषियों ने बड़ी दूरदर्शिता के साथ धर्म का कलेवर खड़ा किया ताकि उस पुण्य चेतना द्वारा मनुष्य को दुर्बुद्धि एवं दुष्प्रवृत्तियों से बचाया जा सके। धर्म का सारा ढाँचा, सारी प्रथा, परम्पराएँ, मान्यताएँ, आस्थाएँ केवल इसी प्रयोजन के लिए हैं कि मनुष्य अपनी नियत निर्धारित मर्यादाओं के भीतर रहकर जीवन-यापन करें।
धर्म का प्रथम आधार है-आस्तिकता, ईश्वर विश्वास। परमात्मा की सर्वव्यापकता, समदर्शिता और न्यायशीलता पर आस्था रखना, आस्तिकता की पृष्ठभूमि है। यह मान्यता मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश रख सकने में पूर्णतया समर्थ होती है। सर्वव्यापी ईश्वर की दृष्टि में हमारा गुप्त-प्रकट कोई आचरण अथवा भाव छिप नहीं सकता। समाज की, पुलिस की आँखों में धूल झोंकी जा सकती है, पर घट-घटवासी परमेश्वर से तो कुछ छिपाया नहीं जा सकता। परमदर्शी परमेश्वर न्यायकारी भी है, उसकी न्याय व्यवस्था हर किसी के लिए समान है। निष्पक्ष न्यायाधीश लोक-मर्यादाओं को हमारा हर अपराधी को बिना राग-द्वेष के उचित दण्ड देता है। ईश्वर मर्यादाओं को हमारा हर पाप, अपराध विदित होता है और वह आज या कल हमारे पापों का दण्ड भी देकर रहेगा। अदालत और पुलिस से बच सकते हैं, परमेश्वर से नहीं। यह मान्यता हमें पापों से बचाती है। हमारी अधिकांश दुष्प्रवृत्तियाँ इसलिए चलती रहती हैं कि राज-दण्ड या समाज-दण्ड से चतुरता के आधार पर बच जाते हैं। ऐसी चतुरता सर्वव्यापी और न्यायकारी ईश्वर के सामने नहीं चल सकती। इस तथ्य पर जो भी विश्वास करेगा, वह पाप से डरेगा और मर्यादाओं में रहने के लिए-सज्जनोचित, सभ्य जीवन जीने के लिए विवश होगा।
आस्तिकता धर्म का इसलिए प्रथम आवश्यक एवं अनिवार्य अंग माना गया है कि उससे हमारा सदाचरण अक्षुण्ण बना रह सकता है। सत्कर्मों का या दुष्कर्मों का दण्ड आज नहीं तो कल मिलेगा ही, यह मान्यता वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में नीति और कर्तव्य का पालन करते रहने की प्रेरणा देती है। सत्कर्म करने वाले को यदि प्रशंसा, मान्यता या सफलता नहीं मिली है तो ईश्वर भविष्य में देगा ही, यह आस्था उसे निराश नहीं होने देती और असफलताएँ मिलने पर भी वह सदाचरण के पथ पर आरूढ़ बना रहता है। इसी प्रकार कुकर्मी निर्भय नहीं हो पाता। उसे राज-दण्ड से बच जाने पर भी यह भय बना रहता है कि यहाँ नहीं तो वहाँ नरक की असह्य यन्त्रणाएँ सहने के लिए विवश होना पड़ेगा। ईश्वर के दरबार में किसी के साथ रियासत नहीं बरती जाती। वह समदर्शी है। सभी उसके अपने और सभी विराने हैं। जो आचरण की कसौटी पर खरा सो उसे उसे परम प्रिय-जो उस कसौटी पर खोटा सो घोर शत्रु। समदर्शी ऐसे ही होते हैं। वे खुशामद या रिश्वत से विचलित नहीं होते। उन्हें कोई प्रिय-अप्रिय, नीति और अनीति के कारण ही होते हैं। यह मान्यताएँ यदि ठीक तरह जनमानस में प्रवेश कर सकें तो निश्चय ही व्यक्ति दुराचरण से विरत रहेगा और नीति एवं सदाचरण का ही अवलम्बन ग्रहण करेगा। आस्तिकता की सबसे बड़ी देन यही है इसलिए उसे धर्म का प्रधान अंग माना गया है। व्यक्ति की उन्नति एवं समाज की शांति, सज्जनता एवं मर्यादा पालन पर निर्भर है, यह दोनों ही प्रेरणाएँ आस्तिकता में सन्निहित हैं।
आज हर दिशा में विकृतियों की भरमार है। आस्तिकता भी विकृत हो गई है। लोग मान बैठे हैं कि थोड़ी-सी चापलूसी करने या भेंट-पूजा की छोटी-मोटी रिश्वत देकर ईश्वर को अपना पक्षपाती बनाया जा सकता है और फिर तो अयोग्य होते हुए भी बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त की जा सकती है। अनेक तरह के कर्मकाण्ड का प्रचलन उपरोक्त दो कल्पनाओं के आधार पर ही चल पड़ा है यदि यह कल्पना सही हो तो फिर ईश्वर का मूलस्वरूप ही विकृत हो जाएगा, फिर उसे पक्षपाती, रिश्वतखोर, खुशामद पसन्द, अव्यवस्था और अन्धेर फैलाने वाला कहा जाएगा। ऐसी आस्तिकता विघातक सिद्ध होगी तथा हो भी रही है। लोग प्रसाद या बकरी, मुर्गी भगवान पर चढ़ाते हैं, स्तुति गान इसलिए करते हैं कि इनसे प्रसन्न होकर हमें अनेक तरह के वरदान मिल जायें। भले ही उन्हें प्राप्त करने के अयोग्य हों अथवा कर्मफल के कारण उन सफलताओं से वंचित रहने की स्थिति हो तो भी अपनी पूजा-पत्री उन अवरोधों को हटाकर हर प्रकार की मनोवांछनाएँ तुर्त-फुर्त पूरी करने की व्यवस्था बना दे। आज की विकृति आस्तिकता इसी रूप में फैली पड़ी है। लोग इसी आधार पर पूजा-पाठ का आडम्बर चलाते हैं। यदि अभीष्ट मनोरथ सफल नहीं होता या देर लगती दीखती है तो झल्लाकर पूजा-उपकरणों को ही फेंक देते हैं और हजारों गालियाँ सुनाते हैं। बाल-बुद्धि से प्रेरित इस आस्तिकता का न कोई आधार है, न कोई आदर्श।
आस्तिकता की आस्था को परिपक्व करने के लिए उपासना का आश्रय लिया जाता है। पूजा, ध्यान, जप, देव-दर्शन, भगवत् गुण-गान, तत्त्व-चर्चा, आत्म-चिन्तन, कीर्तन एवं अनेक कर्मकाण्डों द्वारा इसका प्रयत्न किया जाता है कि ईश्वर का भूले रहने की चूक से बचा जा सके। भगवान की स्मृति मस्तिष्क में बनी रही तो इस बात पर भी विचार उठना ही चाहिए कि आत्मा का परमात्मा से क्या संबंध है, उसने हमें किस काम के लिए संसार में भेजा है जीवन का उद्देश्य क्या है, शांति ओर प्रगति के लिए ईश्वरीय आज्ञाओं का पालन और मर्यादापरक अनुशासन हमारे लिए क्यों अनिवार्य है? ईश्वर को भूले रहने पर इनमें से एक भी प्रश्न मन में नहीं उठता और मनुष्य वासना, तृष्णा के जंजाल में फँसा हुआ व्यर्थ अथवा अनर्थ से भरे हुए कर्मों से निरत रहता हुआ बहुमूल्य मनुष्य जीवन बर्बाद कर देता है। यह एक बहुत बड़ी क्षति है। इसलिए नास्तिकता को, ईश्वरीय सत्ता अमान्य करने को एक पाप बताया है।
उपासना का अर्थ है-समीप बैठना, हर आस्तिक को थोड़ा समय उपासना के लिए लगाना चाहिए। उप क्षणों में अनुभव करना चाहिए कि जो कुछ शरीर, मन, धन, वर्चस्व, वैभव हमारे पास है वह सब ईश्वर का है। उसका न्यूनतम अंश निर्वाह के लिए लेकर शेष सभी भगवान के लिए अर्पित करना है। भक्ति का अर्थ है प्रेम-प्रेम का अर्थ है सेवा का अनुदान। सच्चा भक्त ईश्वर प्रदत्त उपहारों में से न्यूनतम ही अपने लिए लेता है और शेष उसी के चरणों में अर्पित कर देता है। आत्मा अर्थात् एक परम आत्मा, अर्थात् शाश्वत आत्मा की समग्र सत्ता-इसी को विश्वात्मा भी कहते हैं। विश्वात्मा के प्रति आत्म-समर्पण का नाम उपासना है। इसकी प्रतिक्रिया यह होनी चाहिए कि हम केवल अपने लिए नहीं समस्त विश्व के लिए प्राणी मात्र के हित के लिए-समाज की सुख-सुविधाएँ बढ़ाने के लिए जियें और विचारणा तथा कार्य पद्धति ऐसी रखें जिससे परमात्मा को-विश्व की समस्त आत्माओं को प्रसन्नता एवं संतुष्टि प्राप्त हो।
उपासना करते समय हम भगवान से प्रकाश, अमृत और सत् की याचना करते हैं, यह तीनों ही शब्द सद्ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। ईश्वर हमें ऐसी प्रेरणा, शक्ति एवं उमंग प्रदान करे, जिनसे प्रेरित होकर हमें महामानवों जैसे विचार एवं कर्म अपनाकर मनुष्य-जीवन की सार्थकता सिद्ध कर सकें। भगवान की निकटता अनुभव करने के लिए की गई उपासना हमें दैवी गुणों से विभूषित होने की प्रेरणा देती है। ईश्वर उदारता, करुणा, सदाशयता, पवित्रता, न्यायनिष्ठा आदि विशेषताओं का सागर है। उसकी समीपता हममें वैसी ही विभूतियाँ उत्पन्न करें, यही कामना और मान्यता उपासना के समय की जा सकती है। अपने साथ ईश्वर है, यह मानकर कोई भी व्यक्ति हर घड़ी निर्भय रह सकता है।
हमें आस्तिक होना चाहिए और प्रतिदिन थोड़ा समय निकालकर नियमित रूप से उपासना करनी चाहिए, ताकि ईश्वर और उसके निर्देशों का भली-भाँति हृदयंगम किये रह सकें। फलस्वरूप व्यक्तिगत सदाचरण एवं सामाजिक कर्तव्य पालन की प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ती रहे और सर्वत्र श्री, समृद्धि, प्रगति एवं शान्ति की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती रहें।
देववाद और पूजा-अर्चना का रहस्य
भारतीय संस्कृति एक ही ब्रह्म मानती है। वस्तुतः भगवान एक ही है। नाम उसके अनेक हैं। रूपों की कल्पना अलग-अलग मतानुसार अलग-अलग प्रकार की गई है पर इससे ब्रह्म की एकता में कोई अन्तर नहीं आता है। अनेक देवता अनेक सत्ताएँ नहीं हैं वरन् एक ही परमात्मा की शक्तियाँ भर हैं। अगर अनेक देवताओं के स्वतन्त्र अस्तित्व होते तो वे आपस में लड़ मरते और उनके अनुयायी परस्पर कभी एक न रह सकते। जिन लोगों ने भ्रमवश एक ब्रह्म को अनेक ब्रह्मों के रूप में समझा उन्हीं ने देवताओं के स्वतंत्र अस्तित्व माने हैं। और अनेक मत-सम्प्रदाय तथा पंथों को जन्म दिया है। इससे संस्कृति को भारी क्षति पहुँची है और अपना समाज अनेक सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों के रूप में बिखर कर दुर्बल हो गया, हमें वस्तुस्थिति समझनी चाहिए और ‘‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’’ के श्रुति वचन को ध्यान में रखते हुए बहुदेववाद के भ्रम−जंजाल से ऊपर सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी, न्यायकारी परब्रह्म परमेश्वर को एक सत्ता के रूप में जानना, मानना चाहिए।
अनेक देवताओं की अलंकारिक कल्पना परोक्ष रूप में सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना के लिए है। उनके स्वरूप, वाहन, आयुध आदि के पीछे पहले की तरह अनेक रहस्य और अर्थ छिपे पड़े हैं। जिन्हें चर्चा का विषय बनाकर हम उस देवता के भक्त, अनुयायी बनकर वैसा ही आचरण करने की प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। हर देवता इसी प्रकार की प्रेरणा, शिक्षा एवं अभिव्यंजना का रहस्यवाद अपने भीतर छिपाये हुए हैं।
शंकरजी को लीजिए। उनके सिर में से निकलती गंगा पवित्रता से परिपूर्ण गंगा का प्रतिनिधित्व करती है। मस्तक पर चन्द्रमा शान्ति, शीतलता और प्रकाश का प्रतीक है। हमारा मस्तिष्क ज्ञान गंगा की तरंगें प्रवाहित करे, सन्तुलित शान्त, शीतल और प्रकाश पूर्ण रहे तो समझना चाहिए कि शंकरजी की भक्ति, एक दिव्य अनुकरण के रूप में हमारे में उत्पन्न हो चली। विष संसार में बिखरा पड़ा है। अपने को भी उस विष से सम्पर्क रहेगा ही। उसे उगलें तो कटुता और विद्वेष बढ़ेगा। पेट में पीते हैं तो आत्मघात होता है। इसलिए उचित यहीं है कि इसे गले में ही अधर टाँगे रखा जाये। अपने को घृणा की आग में न जलायें और न क्रोध से दूसरों को संतप्त करें। शंकरजी इसी तत्त्वज्ञान के प्रतीक हैं। विष उनके कण्ठ में स्थापित है। समुद्र मंथन से निकले विष से संसार को बचाने के लिए उनने विष को अपने कण्ठ में धारण किया और नीलकण्ठ कहलाए, विश्व शांति के लिए हमें ऐसा ही दुस्साहस कर सकने की हिम्मत बँधे तो समझना चाहिए कि शंकर जी की भक्ति का उदय अपने अन्तःकरण में हो रहा है।
सर्प शंकरजी के सहचर हैं उसके गले से लिपटे रहते हैं। दुष्ट और दुर्गुणी व्यक्तियों को प्रेम, सहानुभूति, करुणा और समीपता से ही सुधारा जा सकता है। यह निष्कर्ष शिवजी की सर्प समीपता से निकाला जा सकता है। उनके साथी-सहचर, भूत-प्रेत ‘‘तनु छीन कोउ अतिपीन, पावन कोउ अपावन तनु धरे’’ जैसे थे। पिछड़े हुए, उलझे हुए, टूटे हुए, निराश और गिरे हुए लोगों को उपेक्षा की गर्त में नहीं फेंका जाना चाहिए। शिवजी अपनी बारात में इन्हीं चित्र-विचित्र नन्दीगणों को लेकर गये थे। पिछड़ेपन को दूर करने के लिए हमारी गतिविधियाँ भी ऐसी ही होनी चाहिए। मरघट में निवास, शरीर पर भस्म लेपन, गले में मुण्डमाल यह बताती है कि मृत्यु को भुलाया न जाये। जीवन की नश्वरता को ध्यान में रखा जाये और मरणोत्तर जीवन में अपनी क्षुद्रताएँ कितना संकट खड़ा कर सकती हैं उसे बार-बार विचारता रहा जाये। मृत्यु की तैयारी में जीवन का सदुपयोग यही तत्त्वज्ञान है। जिसके आधार पर व्यक्ति धार्मिकता और आध्यात्मिकता को सच्चे मन से अपना सकता है। शंकरजी का अनुगमन करने वाला भक्त मरघट में निवास भले ही न करे, भस्म लेपन भले ही न करे पर जीवन की तरह मृत्यु को भी स्वागत योग्य बनाने की तैयारी जरूर करता होगा।
शंकरजी सिंह चर्म पहनते हैं और उनका वाहन वृषभ है। सिंह के समान निर्भीक, साहसी और शूरवीर ही अपने कलेवर को भगवान का परम प्रिय आवरण बना सकने में सफल होते हैं। वृषभ के समान परिश्रमी, संतुलित और उत्तरदायित्वों का भार कंधे पर प्रसन्नतापूर्वक वहन करने वाले लोग ही भगवान के वाहन पार्षद निकटवर्ती हो सकते हैं। सद्गुणों के साथ परमेश्वर का अनुग्रह प्रेम, प्रकाश और सान्निध्य जुड़ा हुआ है यह तथ्य उसके शरीर पर धारण किये हुए व्याघ्र चर्म और वाहन वृषभ के अलंकार से टपकता है। यों रामायण के मंगलाचरण में तुलसीदास जी ने ‘‘भवानी शंकरौवंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ’’ की अभिव्यक्ति में भवानी को श्रद्धा और शंकर को विश्वास के रूप में प्रतिपादन किया है।
इसी प्रकार अन्यान्य देवताओं के पीछे आलंकारिक रहस्यवाद छिपा पड़ा है। ब्रह्माजी ने परास्त देवताओं को इकट्ठे कर उनकी थोड़ी-थोड़ी शक्ति इकट्ठी करके उससे दुर्गा का सृजन किया और उसके द्वारा असुरों का पराभव और देवताओं का उत्कर्ष संभव हुआ-इस पौराणिक उपाख्यान में सज्जनों को अपनी संघशक्ति विकसित करने और उसके द्वारा अगणित आपत्तियों से छुटकारा पाने का निर्देश है। रामभक्ति के लिए ईश्वरीय आदर्शों और कर्तव्यों के लिए सर्वतोभावेन समर्पण करने वाले हनुमान वानर जैसी क्षुद्र स्थिति के होते हुए भी भगवान के परमप्रिय बने। यह रहस्य उन्हें कान खोलकर सुनना और आँख खोलकर देखना चाहिए जो थोड़ा-साथ नाम जप, पूजा-प्रसाद या स्तुति-प्रशंसा की लकीर पीटकर ईश्वरीय अनुग्रह जैसे महान अनुदान की कल्पना-जल्पना करते रहते हैं।
देवपूजा में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ और कर्मकाण्डों के पीछे भी धर्म और अध्यात्म के पथ पर चलने वाले साधकों को बहुत ही महत्त्वपूर्ण शिक्षण प्रस्तुत मिलेगा। भगवान के चरणों पर पुष्प ही चढ़ते हैं और उनके गले में पुष्प माला ही पहनाई जाती है। पुष्प अर्थात् सुगन्धित, हँसता, खिलता, सत्यं, शिवं, सुन्दरम् पर आधारित आत्मिक सौन्दर्य सम्पन्न व्यक्ति। उस स्तर का व्यक्ति जो अपने पेट का मोह छोड़कर अपनी गरदन नुचवाता हुआ सुई-धागों से पेट छिदवाता हुआ त्याग-बलिदान के मार्ग पर अग्रसर होता है तो वह ईश्वर के चरणों में स्थान पाने तथा छाती से लगने में समर्थ होता है। पूजा में प्रयुक्त होने वाले पुष्प यही शिक्षा उपासक को देते हैं।
चन्दन अर्थात् समीपवर्ती झाड़ियों को अपने समान सुगन्धित बनाने वाली क्षमता से सम्पन्न, जो घिसे जाने और जलाये जाने पर भी रोष-विद्वेष पास न भटकने दे वरन् सुगन्ध ही फैलाता रहे, पूजा का अधिकारी हो सकता है और अर्चना को सार्थक बना सकता है ।। भगवान को केवल मीठे का ही भोग लगता है। मीठी वाणी, मीठा व्यवहार, मीठा आचरण, शिष्ट, विनम्र और मधुर व्यक्तित्व यह वह सर्वतोमुखी मिठास है। जिसे देवता पसंद करते और प्रभावित होते हैं। दीपक अर्थात् स्नेह से भरा हुआ स्वयं तिल-तिल जलकर दूसरों को प्रकाश देने वाला। देवमन्दिर की शोभा दीपक से है, पूजा का वह एक महत्त्वपूर्ण अंग है। दीपक की प्रवृत्ति जिसके भी जीवन-क्रम में समाविष्ट हो गई समझना चाहिए कि वह पूजा का साक्षात प्रतीक प्रतिनिधि बन गया।
ऊपर की पंक्तियों में संक्षिप्त रूप से एक ब्रह्म के अनेक अलंकारों को रूपकों की तरह देवी-मान्यताओं के रूप में प्रस्तुत करने का क्या प्रयोजन था? उसकी एक हलकी झाँकी कराई गई है। असंख्य देवी-देवताओं की ऐसी ही व्याख्या कह जा सकती है। हमें उस गहराई तक प्रवेश करना चाहिए जिसके आधार पर कि देवी-देवताओं की कल्पना की गई थी। सरस्वती अर्थात ज्ञान, लक्ष्मी अर्थात धन। काली अर्थात बल। जीवन की प्रगति में ज्ञान, धन और बल का सम्पादन और सदुपयोग करने का प्रशिक्षण अलंकारिक रूप में उपरोक्त तीन देवियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार अन्य देवताओं के पीछे भी समुन्नत जीवन की शिक्षा का तत्त्वज्ञान रहस्यवाद ढंग और अलंकारिक रूप से समझाया गया है। पूजा के उपकरण चन्दन, रोली, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि के माध्यम से भी ईश्वर-भक्ति के लिए हमें अपना भावनात्मक परिष्कार कैसे करना चाहिए यही सब सिखाया गया है।
देवताओं से तरह-तरह की मनौती माँगने और उन्हें खुशामद या रिश्वत के बाल प्रलोभनों से प्रसन्न करने के छिछोरेपन को हम जितनी जल्दी छोड़ दे उतना ही उत्तम है। देवता न इतने मूर्ख या ओछे हो सकते हैं और न उन्हें सस्ते प्रलोभनों से बहलाया, फुसलाया जा सकता है। भावनात्मक प्रगति के आधार पर ही ईश्वर की देव-शक्तियाँ हमारे अनुकूल बनतीं और अनुग्रह करती हैं, इस तथ्य को जितनी जल्दी समझ लिया जाये उतना ही उत्तम है।
जीवन-लक्ष्य समझें और उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करें
मनुष्य जीवन ईश्वर का एक अनुपम उपहार है। जो सुविधाएँ किसी जीव-जन्तु को नहीं मिलीं वे मनुष्य को मिली हैं। हँसना, बोलना, लिखना, पढ़ना, सोचना, परिवार, चिकित्सा, उद्योग, निवास, वाहन, मनोरंजन आदि के जितने जैसे सुविधा साधन मनुष्य को मिले हैं वैसे क्या और किसी प्राणी को उपलब्ध है?
यों ईश्वर को सभी जीवन समान रूप से प्रिय हैं। वह सभी का पिता है, इसलिए सभी के प्रति उसे सकरुण और पक्षपात रहित होना ही चाहिए। जो सुविधा अन्य किसी को नहीं मिलीं वे मनुष्य को मिली हैं तो उसमें पक्षपात की गन्ध आती है और लगता है कि दूसरों की तुलना में उसे कुछ अधिक अतिरिक्त दिया गया। ऐसा क्यों हुआ? इस सुव्यवस्था, प्रगति, समृद्धि एवं सुन्दरता की अभिवृद्धि के लिए मनुष्य को अपने सहायक सहचर के लिए रचा है और अपनी सारी विशेषताएँ, विभूतियाँ और सत्ताएँ इसमें भर दी हैं। ताकि वह इन पुण्य-प्रयोजनों का ठीक तरह निर्वाह कर सकने में पूरी तरह समर्थ रहे। अतिरिक्त सुविधाएँ अमानत के रूप में मनुष्य को दी गई हैं, वह उसके लोभ, विलास और अहंकार की पूर्ति के लिये नहीं वरन् इसलिए हैं कि लोक-मंगल के लिए वह अधिक योगदान दे सके।
जिस प्रकार सृष्टि के अन्य प्राणी शरीर यात्रा की सामान्य सुविधा-सामग्री पाकर सन्तुष्ट हो जाते हैं, मनुष्य को भी वैसा ही करना चाहिए। विलासिता, उपयोगी, संचय या अहंकार की पूर्ति से यदि उपलब्ध क्षमताएँ समाप्त कर ली जाती हैं और जीवनोद्देश्य की पूर्ति की ओर से आँखें मींच ली जाती हैं तो यही कहा जायेगा कि हम ईश्वर के महान प्रयोजन को भूल गये और लाखों योनियों में भ्रमण करने के बाद-चिरकाल पश्चात् जो एक अलभ्य अवसर मिला है उसे ऐसे ही गँवा दिया, तो यह बुद्धिमान समझें जाते हुए भी हमारी अबुद्धिमत्ता और अदूरदर्शिता ही सिद्ध होगी।
हमें लाभ-हानि का अन्तर भली प्रकार मालूम है। अपने समस्त क्रियाकलापों का निर्धारण इसी आधार पर करते हैं, फिर न जाने क्या आश्चर्य की बात है कि हमें मनुष्य जीवन जैसे अमूल्य अवसर का लाभ उठाने की बात नहीं सूझती और इसे ऐसे ही व्यर्थ की बाल-क्रीड़ाओं में गँवा देते हैं। गँवाते ही नहीं वरन् दुरुपयोग कर विविध पाप कमाते हैं, जिससे भविष्य में इनका दण्ड अनेक जन्मों तक भुगतने के लिए विवश होना पड़ता है। इससे तो वे जीव−जन्तु अच्छे जो किसी प्रकार निर्वाह करके जैसे आये थे वैसे ही अपनी बेदाग चादर लेकर चले जाते हैं। अगले जन्मों के लिए पाप की गठरी और नारकीय यंत्रणा का भारी बोझ लेकर तो विदा नहीं होते। मनुष्य पिछले जन्मों के कष्टों को याद कर रोता हुआ ही आता है और भविष्य को अन्धकारमय, यातनापूर्ण देखकर रोता हुआ ही विदा होता है। क्या इसी को बुद्धिमत्ता कहें-जिस पर मनुष्य इतराता और इठलाता फिरता है?
बाहर की बहुत बातें जानकर हम ज्ञानवान कहलाएँ यह ठीक है। पर यह भी कम आवश्यक नहीं कि हम जीवनोद्देश्य जैसे महत्त्वपूर्ण तथ्य का उपयोग करना सीखें और अपने स्वरूप, कर्तव्य के बारे में भी जानें-समझें, उन पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें। हमें यह सोचना चाहिए कि हम कौन हैं? क्या हैं? किसलिए हैं और अपने अस्तित्व की सार्थकता किस प्रकार सिद्ध कर सकते हैं? यह आत्म-बोध यदि न हो सका तो मनुष्य शरीर होते हुए भी नर-पशु और नर-पिशाच जैसा घृणित जीवन जीना पड़ेगा। लक्ष्य भूलने वाला किधर भटक सकता है। आमतौर से हम सब भटक ही तो जाते हैं, अपने को शरीर मान बैठते हैं और शरीर की सुविधा, प्रसन्नता, तृष्णा, वासना और अहंकार की पूर्ति जैसे क्षुद्र प्रयोजनों के लिए ही सारी विचारणा और गतिविधियाँ केन्द्रित किये रहते हैं। कामना आकाश-पाताल की करते हैं। तृष्णाएँ पहाड़ जितनी समेटे रहते हैं।
लालसाओं और आकांक्षाओं की ललक में उलझे रहते है, मस्तिष्क की सारी चिन्तन क्षमता उसी जंजाल में समाप्त हो जाती है। आत्मकल्याण अथवा जीवनलक्ष्य के बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं रहती। इसी जंजाल में सारा समय निकल जाता है। सारी कार्य-क्षमता उसी में उलझी रहती है। न सोचने की फुरसत मिलती है न कुछ करने की। व्यस्तता इतनी अधिक रहती है कि आत्मकल्याण की दिशा में न कुछ सोचते बनता है न करते। यह कैसी दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है कि जिस आत्मा को परमात्मा ने अपने प्राणप्रिय पुत्र की तरह असीम अरमानों के साथ अपने उद्यान को सुरभित बनाने के लिए भेजा था, वह सृष्टा के निर्देश और अपने वातावरण के उद्देश्य को सर्वथा उपेक्षित कर निर्बुद्धि प्राणियों की तरह पेट और प्रजनन के लिए ही अपने महान अस्तित्व को समाप्त कर दे।
सम्भव हो तो हममें से प्रत्येक विवेकवान को अपनी इस स्थिति पर विचार करना चाहिए और सम्भव हो तो वह साहस जुटाना चाहिए जिससे जीवन को निरन्तर पश्चाताप का केन्द्रबिन्दु बनाने से बचाकर स्रष्टा की आकांक्षा पूर्ति के लिए नियोजित किया जा सके ।। यदि ऐसी स्फुरणा अन्तःकरण में जाग उठे-प्रबल हो उठे। तो समझना चाहिए कि अन्तरात्मा में ईश्वर का प्रकाश चमकने लगा और भगवान का अनुग्रह परिलक्षित होने लगा। जब कभी किसी में कार्मिक मूर्छना जागती है तो भीतर से ऐसी हूक, टीस, व्याकुलता और तड़पन उठती है कि एक क्षण भी बर्बाद किये बिना हमें ईश्वरीय प्रयोजन के लिये समर्पित जीवन जीना चाहिए। निर्वाह के स्वल्प साधनों से काम चलाना चाहिए और अपनी सारी क्षमताएँ एवं विभूतियाँ जीवन-लक्ष्य की पूर्ति में नियोजित कर देनी चाहिए। इस प्रकार के ज्ञान का उदय ही आत्म-बोध, आत्म-साक्षात्कार अथवा ईश्वर-दर्शन कहा जाता है।
हममें से अधिकांश लोग अति भ्रमपूर्ण विडम्बनाओं में उलझे पड़े हैं। ईश्वर के लिए जप, स्तवन, पूजन-अर्चन, कथा-कीर्तन जैसे कर्मकाण्डों की लकीर पीटकर झूठा आत्म-संतोष कर बैठते हैं कि ईश्वर की प्रसन्नता अथवा जीवनोद्देश्य की प्राप्ति के लिए उतना खेल-मेल कर लेना पर्याप्त है। हमें विवेक की आँखें खोलकर यह देखना चाहिए कि प्रशंसा करने, गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने या रिश्वत देने में हम किसी बुद्धिमान संसारी का भी प्यार, अनुग्रह प्राप्त नहीं कर सकते तो ईश्वर को इस प्रकार के बहकाने से कैसे सन्तुष्ट किया जा सकेगा? पूजा-उपासना का मतलब ईश्वर को, ईश्वरीय आयोजन एवं निर्देश को स्मृति पटल पर मजबूती से जमा लेना तथा अपने में अधिकाधिक निर्मलता विवेकशीलता उत्पन्न करना भर ही, यह अपना नित्य कर्म है जिससे आत्म-शोधन और आत्मजागरण का प्रयोजन भर पूरा होता है। ईश्वर इतने भर से सन्तुष्ट नहीं हो सकता। उसकी प्रसन्नता के दो बिन्दु हैं। (1) उसकी विचारणा, मनोभूमि, गुण, कर्म, स्वभाव की शृंखला एवं गतिविधियों में अधिकाधिक पवित्रता, उदारता, उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का समावेश (2) लोकमंगल के लिए समर्पित किए गए बढ़-चढ़ कर अनुदान। अपनी स्थिति के अनुरूप हर कोई विश्वमानव की, जनता जनार्दन की, भावनात्मक स्थिति को ऊँचा उठाने में कुछ न कुछ योगदान दे ही सकता है। इस प्रयोजन के लिए समय, श्रम, बुद्धि, धन आदि का जितना अनुदान दिया गया हो समझना चाहिए कि उतने अंशों में हमने भगवान की इच्छापूर्ति के लिए साहस किया और उतनी ही मात्रा में हमें ईश्वरीय प्यार, अनुग्रह और आशीर्वाद पाने का हक मिल गया। भगवान का प्रकाश अन्तःकरण में प्रवेश करने देने के लिए हमें अपनी स्वार्थपरता, संकीर्णता, लोकवृत्ति की खिड़कियाँ खोलनी पड़ती हैं। सज्जनता को जीवनक्रम में समाविष्ट किये बिना, अपनी रीति-नीति में मानवता के उच्च दृष्टिकोण को समाविष्ट किये बिना किसी जीवन की सार्थकता नहीं हो सकती और ईश्वर की दी हुई सम्पदाओं में से न्यूनतम भाग निर्वाह के लिए रखकर शेष को लोकमंगल के रूप में प्रभु को लौटाए बिना किसी को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। हमें ऐसा आत्मबोध जगाना चाहिए जो आत्मशान्ति और ईश्वर प्राप्ति के उपरोक्त मार्ग पर धकेल सकने में समर्थ हो सके।
स्वर्ग और मुक्ति का आनन्द इसी जीवन में सम्भव
स्वर्ग और मुक्ति अध्यात्म-जगत के दो बड़े पुण्यफल माने जाते हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए लोग बहुत से धर्म-कर्म करते रहते हैं। यह दोनों क्या हैं उनका स्वरूप क्या है, इस विषय में लोगों की कल्पनाएँ तथा मान्यताएँ सही नहीं हैं। कल्पना की जाती है कि स्वर्ग पृथ्वी जैसा लोक है। वहाँ खाने, सोने, मनोरंजन, आराम तथा विषय भोग की प्रचुर सुविधाएँ रहती हैं। वहाँ पहुँचने पर मनुष्य उन सुविधाओं का लाभ उठाता हुआ आराम और आनन्द के दिन काटता है। इसी प्रकार मुक्ति के बारे में सोचा जाता है कि भगवान के लोक में पहुँचकर जीव झंझटों से छुटकारा पा जाता है। उन्हीं के जैसा बनकर रहता है और उन्हीं में लीन हो जाता है। इसी को सालोक्य, सामीप्य और सायुज्य मुक्ति कहते हैं।
उपरोक्त मान्यताएँ सही नहीं हैं क्योंकि ग्रह-नक्षत्रों में अभी तक किसी ऐसे पिण्ड का पता नहीं चला जिसमें मनुष्य स्तर के जीवधारी प्राणियों के निवास की बात सोची जा सके। फिर हर ग्रह-नक्षत्र के जीवों की स्थिति, सुविधा, आवश्यकता, प्रकृति तथा बनावट अपने ही ग्रह में रह सकने योग्य बनी होती है। ऐसी दशा में स्वर्ग लोक की बात कुछ ठीक से गले उतरती नहीं। फिर जिन-सुविधाओं का वर्णन किया जाता है उनका उपयोग इस स्थूल शरीर से ही किया जाता है। मरने के बाद स्थूल शरीर रह जाता है, जिससे भावनात्मक अनुभूतियाँ तो हो सकती हैं, पर इन्द्रियाँ न होने से इन्द्रिय सुख कैसे मिलेंगे? वहाँ पर जीवन खाने-पीने जैसे सुविधा-साधनों का लाभ कैसे उठा सकेगा? इसी प्रकार यदि सब झंझटों से छुटकारा पाना, सब लाभों से वंचित हो जाना ही मुक्ति हो तो सामाजिक प्रकृति के समूह में रहने वाले मनुष्य के लिए वह और भी अधिक कष्टकारक होगी। अकेली जेलकोठरी में कुछ दिन रहने वाले कैदी शारीरिक दृष्टि से ढीले और मानसिक दृष्टि से उद्विग्न होकर निकलते हैं। अकेले के लिए समय काटना मुश्किल पड़ता है। मुक्त होने पर यदि किसी लोक में अकेला ही रहना पड़े तो उस सुनसान में क्या सुख मिलेगा? भगवान तो बहुत कार्यव्यस्त हैं, उनके पास बैठे भी रहे तो क्या लाभ? यदि उनमें घुल जायें तो अस्तित्व ही समाप्त हुआ। ऐसा आत्म-नाश ही यदि मुक्ति कहलाता है तो उसे कोई क्यों चाहेगा? इससे किसी को क्या मिलेगा?
स्वर्ग-मुक्ति की उपरोक्त मान्यताएँ पौराणिक काल की अलंकारिक मान्यताएँ हैं। वस्तुतः स्वर्ग आत्मसंतोष को कहते हैं, क्योंकि संसार में वही सबसे अधिक शान्तिदायक स्थिति है। जीवन का अस्तित्व सूक्ष्म है, इसलिए पदार्थों का सुख तो शरीर भर को मिलेगा, सूक्ष्म सत्ता को तो भावनात्मक तृप्ति ही प्रसन्न कर सकती है। धन-दौलत, ऐश-आराम तो भावनाओं का ही होता है और उस स्तर की अनुभूति तभी मिल सकती है जब व्यक्ति का दृष्टिकोण परिष्कृत और क्रिया-कलाप आदर्शवादी मान्यताओं के अनुरूप बन सके। आत्मा का संतोष इसी स्थिति में होता है, क्योंकि वह ईश्वर का अविनाशी अंश होने के कारण सदुद्देश्य के लिए ही धरती पर आई है और मछली जिस प्रकार पानी में ही चैन की साँस ले सकती है उसी प्रकार का चैन ईश्वरीय स्तर की उच्च भूमिका में अवस्थित होने पर ही मिल सकता है। यह भूमिका उच्च विचारणा और क्रिया-कलाप आचार-पद्धति पर निर्भर है। जिनकी विचारणा और क्रिया-कलाप भौतिक स्वार्थपरता पर अवलम्बित है, उन्हें सम्पदा, सुविधा या ख्याति कितनी भी क्यों न मिल जाये, कभी आन्तरिक शांति न मिलेगी। आत्म-शांति का संतोष केवल उनके हिस्से में आया हैं, जिन्होंने अपने विचार-क्षेत्र को उच्च उत्कृष्ट मान्यताओं के अनुरूप सोचने और चाहने के लिए अभ्यस्त कर लिया और उन पर इतना प्रगाढ़ निश्चय जमा लिया है कि शरीर उस धारा-धारणा के विपरीत एक कदम भी न उठावे। जिसे अपने विचारों और कार्यों की उत्कृष्टता का संतोष जितनी अधिक मात्रा में मिल रहा हो, समझना चाहिए कि वह उतने ही ऊँचे स्वर्गलोक में निवास कर रहा है।
नरक भी कोई लोक नहीं है। नरक के जो वर्णन किये जाते हैं, वे शरीरधारी के लिए सम्भव हैं। मरने के बाद जब जीव हवा जैसी सूक्ष्म वस्तु रह गया हो तो उसे कोल्हू में पेला जाना, कोड़ों से मारा जाना किस प्रकार सम्भव होगा? वस्तुतः नरक भोगने के लिए हमें किसी लोक विशेष में जाने या दूसरों द्वारा उत्पीड़न सहने की आवश्यकता नहीं है। यह प्रयोजन तो अपनी दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्ति हर घड़ी पूरा करती रह सकती है। कुसंस्कारी और दुर्गुणी मनुष्य अपने ओछी विचार पद्धति की आग में स्वयं ही हर घड़ी जलते रह सकते हैं। चिन्ता, भय, क्रोध, असंतोष, ईर्ष्या, द्वेष, शोषण, प्रतिशोध, उत्पीड़न की प्रवृत्ति बन जाने पर अन्तःकरण हर घड़ी इतना विक्षुब्ध और दुःखी रहता है कि जीवन नीरस ही नहीं भार भी प्रतीत होने लगता है। आत्मताड़ना से पीड़ित व्यक्ति नशेबाजी की शरण में जाकर गम-गलत करने, बैरागी बन दौड़ने या आत्म-हत्या जैसे कुकृत्य करते देखे गये हैं। यह नरक की ही अनुभूतियाँ हैं। दुष्ट व्यक्ति जिनके ऊपर सब ओर से घृणा बरसती है, एक प्रकार से नरक के कीड़े ही गिने जा सकते हैं। दुष्कर्म करते समय आत्मा काँपती है और आत्म-धिक्कार की ग्लानि निरन्तर पश्चाताप की आग में जलाती है। इसे नरक ही कहा जायेगा। कुकर्म तो थोड़ी देर में पूरा कर लिया जाता है, पर उसे करके जो पतन हुआ तथा भविष्य में ईश्वर-दण्ड की जो भीतर बुरी तरह जलता रहता है। वस्तुतः यही नरक है जो किसी भी कुमार्गगामी को खाता, खोखला करता और पश्चाताप में झुलसाता रहता है।
शारीरिक दुःख इस संसार में भी कम नहीं हैं। उनके लिए किसी और लोक में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। कष्टसाध्य रोगियों को व्यथा से निरन्तर चिल्लाते हुए कहीं भी देखा जा सकता है। अंधे, कोढ़ी, अपंग, असहाय लोगों को क्या कुछ कम कष्ट सहने पड़ते हैं? प्रियजनों की मृत्यु, असफलता, अपमान, धनहानि, आक्रमण, उत्पीड़न जैसे प्रसंगों पर भी कुछ कम दुःख होता है? शारीरिक और मानसिक कष्ट इस संसार में भी कम नहीं हैं। कर्मफल के अनुरूप यदि कुछ त्रास मिलते हों तो वे यहाँ भी भरे पड़े हैं। इसलिए नरक की कल्पना को अन्य लोक से जोड़ना उचित नहीं। दुष्कर्म करने पर उसके फलस्वरूप मिलने वाले सामाजिक और ईश्वरीय दण्ड को मिलाकर पूरा नारकीय अनुभव किसी भी कुपथगामी को यहीं, इसी लोक में तिल सकता है।
मुक्ति का अर्थ होगा बन्धनों से छूटना। विचार करना है कि कौन से बन्धन हैं जिनसे हम बँधे हैं और शरीर को रस्सों से तो किसी ने जकड़ नहीं रखा है। निवास भी कैदखाने में नहीं करते। कहीं भी स्वेच्छा से आ-जा सकते हैं। यदि संसार को भव-बन्धन कहा जाये तो यह भी उचित न होगा क्योंकि यह विश्व भगवान का विराट रूप है। जहाँ कण-कण में भगवान व्याप्त हों, वहाँ बन्धन कैसा? जिस भाग पर जन्म लेने के लिए देवता तरसते हों, जहाँ अवतारों ऋषियों और धर्मात्माओं का निरन्तर प्रवाह बहता हो, जहाँ गंगा-यमुना जैसी नदियाँ, हिमालय जैसे पर्वत और प्राकृतिक सुषमा का स्वर्ग बिखरा पड़ा हो, वहाँ जन्म लेना और जीवित रहना एक सौभाग्य ही है। उसे भव-बन्धन कैसे कहा जाये? जहाँ प्रेमी परिजनों के अनुदान निरन्तर बरसते हुए हमें कृतज्ञता में डुबो देते हैं वहाँ बन्धन कैसा, जिससे छुटकारा पाने को मुक्ति की कल्पना में विचरण किया जाये? जन्म-मरण तो एक-सी परिस्थिति की नीरसता से नवीनता के उल्लास में परिणित होने का मनोरंजन मात्र है। उसमें अवांछनीय, अनुचित, अशोभनीय या आनन्दरहित क्या है, जिससे छूट भागने की बात सोची जाये?
मुक्ति वस्तुतः अपने दोष-दुर्गुणों से, स्वार्थ-संकीर्णता से, क्रोध-अहंकार से, लोभ-मोह से, पाप-अविवेक से प्राप्त करनी चाहिए। यही वह शत्रु हैं जो पग-पग पर दुःख देते हैं। आत्मग्लानि और आत्म-प्रताड़ना की आग में जलाने वाले अपने कषाय और कल्मष ही हैं, जो सन्मार्ग पर चलने से रोकने में जंजीरों का काम करते हैं। समय, साधन, सुविधा और सामर्थ्य होते हुए भी हम यह अंतरंग की दुर्बलता ही सबसे बड़ा बन्धन है। उसे तोड़कर फेंका जा सकता हो और उच्च विचारणा के अनुरूप आदर्शवादी, परमार्थ-परायण जीवन जिया जा सकता हो, तो समझना चाहिए कि मुक्ति मिल गई। स्वर्ग और मुक्ति अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करके हम इसी जीवन में प्राप्त कर सकते हैं, इसके लिए मृत्यु काल तक की प्रतीक्षा करने की क्या आवश्यकता है।
कर्म-फल आज नहीं तो कल भोगना ही पड़ेगा
यदि कर्म का फल तुरन्त नहीं मिलता तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बचे गये। कर्म-फल एक ऐसा अमिट तथ्य है जो आज नहीं तो कल भोगना पड़ेगा। कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिए होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्तव्य-धर्म समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचित कर सका या नहीं। जो दण्ड भय से डरे बिना दुष्कर्म तक ही सीमित रहता है, समझना चाहिए कि उसने सज्जनता की परीक्षा पास कर ली और पशुता से देवत्व की ओर बढ़ने का शुभारम्भ कर दिया।
दण्ड भय से तो विवेक रहित पशु को भी अवांछनीय मार्ग पर चलने से रोका जा सकता है। मानवीय अन्तःकरण की विकसित चेतना तभी अनुभव की जा सकेगी जब वह कुमार्ग पर चलने से रोके और सन्मार्ग के लिए प्रेरणा प्रदान करे। लाठी के बल पर भेड़ों को इस या उस रास्ते पर चलाने में गड़रिया सफल रहता है। सभी जानवर इसी प्रकार दण्ड भय दिखाकर अमुक प्रकार से जोते हैं। यदि हर काम का तुरंत दण्ड मिलता और ईश्वर बल पूर्वक अमुक मार्ग पर चलने के लिए विवश करता तो फिर मनुष्य भी पशुओं की श्रेणी में आता, उसकी स्वतंत्र आत्म-चेतना विकसित हुई या नहीं इसका पता ही नहीं चलता।
भगवान ने मनुष्य को भले या बुरे करने की स्वतंत्रता इसीलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अन्तर करना सीखें और दुष्परिणामों के शोक-संतापों से बचने एवं सत्परिणामों का आनन्द लेने के लिए स्वतः अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो। उन्नति को अपनाने वाला विवेक और कर्तव्य परायणता यह दो ही कसौटी मनुष्यता का आत्मिक स्तर विकसित होने की हैं। इस आत्मविकास पर ही जीवनोद्देश्य की पूर्ति और नर जन्म की सफलता अवलम्बित है। ईश्वर चाहता है कि व्यक्ति अपनी स्वतंत्र चेतना का विकास करे और विकास के क्रम से आगे बढ़ता हुआ पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने की सफलता प्राप्त करे।
यदि ईश्वर को यह प्रतीत होता कि बुद्धिमान बनाया गया मनुष्य पशुओं जितना मूर्ख ही बना रहेगा तो शायद उसने दण्ड के बल पर चलाने की व्यवस्था उसके लिए भी सोची होती। तब झूठ बोलते ही जीभ में छाले पड़ने, चोरी करते ही हाथ में फोड़ा उठ पड़ने, बेईमान करते ही बुखार आ जाने, कुदृष्टि डालते ही आँख दुखने लगने, कुविचार आते ही सिर दर्द होने जैसे दण्ड मिलने की तुर्त-फुर्त व्यवस्था बनी होती तो किसी के लिए भी दुष्कर्म करने की हिम्मत न करते। ऐसी स्थिति में मनुष्य की स्वतंत्र चेतना, विवेक बुद्धि और आन्तरिक महानता के विकसित होने का अवसर ही नहीं आता और आत्मविकास के बिना पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकने की दिशा में प्रगति ही न होती। अतएव परमेश्वर के लिए यह उचित था कि मनुष्य को अपना सबसे बड़ा बुद्धिमान और सबसे जिम्मेदार बेटा समझकर उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्रदान करे और यह देखे कि वह मनुष्यता का उत्तरदायित्व सम्भाल सकने में समर्थ है या नहीं? परीक्षा के बिना वास्तविकता का पता भी कैसे चलता और उसे अपनी इस सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य में कितने श्रम की सार्थकता हुई यह कैसे अनुभव होता।
यों समाज में भी कर्मफल मिलने की व्यवस्था है और सरकार द्वारा भी उसके लिए साधन जुटाये गये हैं। पुलिस, जेल, कचहरी, कानून, नियंत्रण, निरीक्षण द्वारा ऐसे प्रबन्ध किये गये हैं कि अनाचार करने वालों को रोका और दंडित किया जा सके। यद्यपि इस व्यवस्था में कई खामियाँ हैं और चतुर अपराधी तो सरकार की पकड़ में ही नहीं आते। कुछ आते हैं तो कानूनी बारीकियों की आड़ में तथा सम्बन्धित अफसरों को प्रभावित कर दण्ड से बच निकलने का रास्ता खोज लेते हैं तो भी आखिर एक व्यवस्था तो है ही और यदि कठोर शासन हो तो अधिकांश अपराधों, दुष्कर्मों को सहज ही रोका भी जा सकता है और अपराधियों को इतना दण्डित किया जा सकता है कि उसे तो क्या दूसरे देखने वालों को भी वैसा साहस न हो। जो हो आखिर एक सरकारी व्यवस्था तो है ही, जो हजारों-लाखों कुमार्गगामियों को तिरस्कृत करने और दण्डित करने में लगी रहती है और किसी हद तक रोकथाम भी करती है।
समाज में कुकर्मियों का तिरस्कार और अविश्वास होता है, लोग उनका सहयोग-समर्थन नहीं करते और सम्पर्क बनाने से बचते हैं। मनुष्य की उन्नति पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। जिसे दूसरों का जितना गहरा प्यार और सच्चा सहयोग मिला वह उतना ही उन्नतिशील बन सका है। यह लाभ कुमार्गगामियों को नहीं मिल सकता। उनसे सभी डरते हैं और सोचते हैं कि सम्पर्क बढ़ाने पर वह हमारे ही ऊपर घात चला सकता है। झंझट मोल लेने की कायरता से डरकर कोई प्रत्यक्ष विरोध कर संघर्ष न करे, चुप भले ही बैठा रहे पर अनैतिक व्यक्ति को सच्चे मन से प्यार कोई नहीं कर सकता। व्यभिचारी का और चोर भी अपने घर में दूसरे चोर का प्रवेश नहीं होने देता। क्योंकि वह उसे अविश्वस्त मानता है। भीतर ही भीतर घृणा करता है और चाहता है कि वह साँप-बिच्छू की तरह अलग ही बना रहे। दुष्कर्म छिपते नहीं, कुकर्म और दुष्प्रवृत्ति आखिर खुलकर ही रहती है। यह एक तथ्य है कि अनाचारी केवल घृणा के पात्र ही हो सकते हैं, उन्होंने तो सम्मान मिल सकता है और न सहयोग। इसके बिना तो विकास सम्भव है और न आनन्द की गुंजाइश है। कुकर्मी थोड़े-से साधन भर इकट्ठे कर सकते हैं और उनसे यत्किंचित् शरीर एवं इन्द्रिय का क्षणिक सुख भोग सकते हैं पर सामाजिक प्राणी होने के नाते जिस श्रद्धा, सम्मान, प्यार और सहयोग की उसे भारी भूख और आवश्यकता रहती है उसे सदा अप्राप्य ही रहेगी। सामाजिक असहयोग और तिरस्कार एक ऐसा दण्ड है जो अप्रत्यक्ष होते हुए भी मनुष्य को घर में रहने वाले भूत-पिशाच की तरह उद्विग्न और संत्रस्त रखता है। यह स्थिति जेल का दण्ड भोगने वाले कैदी से कम कष्टकारक नहीं है।
कुमार्गगामी आत्म-प्रताड़ना के दण्ड से बच नहीं सकता। यदि आत्मा को सर्वथा कुचल-मसल न दिया हो, उसमें थोड़ी-सी चेतना बाकी रहने दी गई तो दुष्कर्म के लिए आत्मग्लानि और धिक्कार की आवाज भीतर से निरन्तर उठती रहेगी। दूसरों से पाप को छिपाया भी जा सकता है पर आत्मा से वस्तुस्थिति कहाँ छिपती है, वह अनीति अपनाकर बरती गई नीचता के लिए निरन्तर धिक्कारती रहेगी और पश्चाताप की आग में बुरी तरह जलाती रहेगी। पापी मनुष्य एक क्षण के लिए भी शांति अनुभव नहीं कर सकता। भीतर की प्रताड़ना, बाहरी दण्डों से अधिक हानिकारक होती है। उसके कारण व्यक्ति निरन्तर दुर्बल, उद्विग्न, एकाकी, नीरस और विक्षिप्त बनता चला जाता है। व्यक्तित्व को हेय, पतित और अस्त-व्यस्त बनाने में आत्मग्लानि ही सबसे बड़ा अवरोध होती है।
फिर ईश्वरीय विधान भी निःस्वत्व नहीं हुआ है। आज नहीं तो कल उसकी व्यवस्था के अनुसार कर्मफल मिलकर ही रहेगा। देर हो सकती है अन्धेर नहीं। सरकार और समाज से पाप को छिपा लेने पर भी आत्मा और परमात्मा से उसे छिपाया नहीं जा सकता। इस जन्म या अगले जन्म में हर बुरे-भले कर्म का प्रतिफल निश्चित रूप से भोगना पड़ता है, आज का लिया कर्ज कल चुकाना पड़ेगा, इससे यह नहीं सोचा जा सकता कि कर्ज के नाम पर लिया हुआ पैसा मुफ्त में मिल गया। पाप का दण्ड आज नहीं भुगतना पड़ेगा तो किसी को यह नहीं समझ बैठना चाहिए कि उससे सदा के लिए छुट्टी हो गई। ईश्वरीय कठोर व्यवस्था उचित न्याय और उचित कर्म-फल के आधार पर ही बनी हुई है सो तुरन्त न सही कुछ देर बाद अपने कर्मों का फल भोगने के लिए हर किसी को तैयार रहना चाहिए।
मनुष्यता की कसौटी सन्मार्गगामिता है। विवेक की परख कुमार्ग से बचने में है। मानवीय गरिमा का तकाजा है कि हम न्याय, औचित्य और कर्तव्य को अपनायें। न तो अशुभ सोचें और न अनुचित कदम उठायें। इसी में बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता सन्निहित है।
दुष्कर्मों के दण्ड से प्रायश्चित्त ही छुड़ा सकेगा
जान-बूझकर या अनजाने में कुबुद्धि-वश मनुष्य कई प्रकार के अनुचित कार्य करता रहता है। ये बुरे कर्म उसकी आत्मिक प्रगति, व्यक्तित्व के विकास तथा भौतिक सफलताओं में भारी अवरोध सिद्ध होते हैं। आत्मा पर कषाय-कल्मषों का जितना आवरण चढ़ता जाता है। उतना ही अन्तःकरण भारी और कलुषित होता चला जाता है। इस रुग्ण स्थिति में कोई क्या आत्म-संतोष अनुभव करेगा और किसे उत्कृष्टता की ओर बढ़ने के लिए साहस होगा। आन्तरिक दुर्बलता सबसे बड़ी दुर्बलता है, वह मनुष्य को ऐसा अपंग और निःस्वत्व बनाकर छोड़ती है कि कोई महत्त्वपूर्ण काम कर सकना उसके लिए संभव ही नहीं रहता।
शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता के अनेक कारण हैं। बीमारी होने की अनेक वजह हो सकती हैं और मानसिक उद्विग्नता के भी अनेक वजह हो सकते हैं पर सब से बड़ा कारण है वह आत्म-प्रताड़ना, जो अनैतिक एवं अवांछनीय कार्य करने के कारण निरन्तर अन्तरंग में उठती रहती हैं। जिसने अनैतिक एवं असामाजिक कार्य किये हैं-जीवन की शुद्ध चादर पर तरह-तरह के दाग-धब्बे लगाये हैं, उसके लिए चैन से बैठ सकना कठिन है। आत्मधिक्कार कुछ कह सुनकर ही चुन नहीं हो जाती वरन् अनेक रास्तों से फूटकर दबी हुई आग की तरह निकलती है। खाया हुआ पारा शरीर से फूट-फूट कर निकलता है, वह किसी को भी पचता नहीं। इसी प्रकार पाप कर्म भी आत्मधिक्कार या आत्मग्लानि के रूप में भीतर ही भीतर कचोटते ही हैं, इसके अतिरिक्त वे अनेक कष्टकर प्रताड़नाओं के रूप में फूटकर बाहर भी आते हैं।
शारीरिक रोगों के बारे में नवीनतम शोध यह है कि कष्ट साध्य, असाध्य और किसी भी चिकित्सा से काबू में न आने वाले शारीरिक रोग अनाचार अपनाने के कारण उत्पन्न होते हैं। आहार-विहार के व्यतिक्रम से जो बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं वे साधारण उपचार से स्वल्पकाल में ही अच्छी हो जाती हैं किन्तु मस्तिष्क के गहन अन्तराल में छिपी हुई आत्मधिक्कार की प्रताड़ना नाड़ियों, कोषों स्वस्थ जीवन कणों में इतनी गहराई तक प्रवेश कर जाती हैं कि दवाओं का उन तक प्रभाव नहीं पहुँचता और वह उद्वेग ऐसे शरीर कष्टों के रूप में बिखरता रहता है। शास्त्रों में कष्टसाध्य रोग संचित पापों के परिणाम ही माने हैं, यह तथ्य आज का शरीर शास्त्र और मनोविज्ञान अक्षरशः सिद्ध कर रहे हैं।
दुष्कर्मों के और कुविचारों के जो कुसंस्कार मन पर जमते हैं वे एक प्रकार से विषैली पर्तों के रूप में चेतन मस्तिष्क और अचेतन चित्त पर जमते रहते हैं। ये मन की चंचलता, उद्विग्नता, अस्थिरता, आवेग, विक्षोभ के रूप में फूटते हैं और व्यक्ति को अर्द्ध-पागल जैसा बना देते हैं वह किसी काम को एकाग्रचित्त होकर कर नहीं पाता और हर घड़ी उधेड़-बुन में लगा रहता है। फलस्वरूप पग-पग पर असफलता मिलती और ठोकर लगती है। असंतुलित व्यवहार से सम्बन्धित व्यक्ति रुष्ट और असन्तुष्ट होकर असहयोगी एवं विरोधी बन जाते हैं। स्वजनों से कलह करने का अभ्यस्त व्यक्ति प्रेत-पिशाच की तरह हर घड़ी विक्षुब्ध बना रहता है। मस्तिष्क न कुछ ठीक तरह सोच पाता है, न कोई सही रास्ता मिलता है। भटकता और भ्रमता हुआ मन जीवन को ऐसी कँटीली झाड़ियों में उलझा देता है, जहाँ केवल शोक-संताप ही दृष्टिगोचर होता है। शरीर से रुग्ण और मन से विक्षुब्ध व्यक्ति जीवित रहते नरक भोगता है। भीतर ही भीतर उसे इतने घाव रहते हैं कि जिनके कारण सिर्फ कराहते और तड़पते हुए ही उसे देखा जा सकता है। उन पाप कर्मों से निवृत्ति कैसे मिले? जिससे चित्त हलका हो और उन अन्तर्व्यथाओं से पीछा छूटे जो यमदूतों की तरह व्यक्ति को दुःखी और असफल बनाने के लिए पीछे लगी हुई हों। इस प्रश्न का भारतीय संस्कृति में सनातन उत्तर एक ही रहा है-प्रायश्चित। अपने यहाँ हर पाप के प्रायश्चित हैं। उन्हें करके ही अवांछनीय आचरणों की मलिनता धोई जा सकती है। रास्ते में गड्डा खोदा हो तो उसका प्रायश्चित यही है कि उसे पाटने के लिए उतना ही प्रयत्न किया जाये जितना कि खोदने के लिए किया गया था। किसी को हानि पहुँचाई हो तो उसका प्रायश्चित यही है कि उस हानि की भरपाई कर दी जाये। अपने दोष को स्वीकार करना उसके लिए दुःख मानना, लज्जित होना और आगे के लिए, इस तरह की भूलों की पुनरावृत्ति न करना यह मनोभूमि तो प्रायश्चित कर्ता की होनी ही चाहिए अन्यथा फिर उसका कुछ प्रयोजन ही नहीं रह जाता। एक ओर प्रायश्चित की बात सोची जाये और दूसरी ओर उसी दुष्कर्म को दुहराते रहा जाये तो यह विडम्बना एक प्रकार की मखौल ही मानी जायेगी।
ईश्वर से क्षमा माँगना उचित है। इससे आत्मशोधन को बल मिलता है। तीर्थयात्रा, देव-दर्शन, व्रत उपवास करने से चित्त हलका होता है और उस भूल को आगे न दुहराने की प्रेरणा मिलती है पर इतने से ही पूर्व कृत्यों का फल भोगने या खाई पाटने जैसी तो कोई बात नहीं। ऋण से उऋण वही हो सकता है जो लिए हुए धन को वापिस कर दे। समाज को हमने दुष्कर्मों से जितनी क्षति पहुँचाई है उसकी पूर्ति तभी होगी जब हम उतने ही वजन के सत्कर्म करके समाज को लाभ पहुँचाये। इस प्रकार हानि और लाभ का बैलेन्स जब बराबर हो जायेगा तभी यह कहा जायेगा कि पाप का प्रायश्चित हो गया और आत्मग्लानि एवं आत्मप्रताड़ना से छुटकारा पाने की स्थिति बन गई।
यह ठीक है कि जिस व्यक्ति के साथ अनाचार बरता अब उसे घटना को बिना हुई नहीं बनाया जा सकता। सम्भव है व्यक्ति अन्यत्र चला गया हो। ऐसी दशा में उसी आहत व्यक्ति की उसी रूप में क्षति पूर्ति करना सम्भव नहीं। किन्तु दूसरा मार्ग खुला है। हर व्यक्ति समाज का अंग है। व्यक्ति को पहुँचाई गई क्षति वस्तुतः प्रकारान्तर से समाज की ही क्षति है। इसे दूसरी प्रकार से समाज सेवा के लिए श्रम, समय एवं धन आदि देकर पूरा कर सकते हैं। चोरी, बेईमानी, रिश्वत, कमतोल, मिलावट, धोखेबाजी आदि से जो धन कमाया हो उसे लोकमंगल के लिए विद्यादान, पिछड़ापन दूर करने, असहायों की सहायता आदि के आयोजनों में खर्च करके प्रायश्चित की विधि पूरी की जा सकती है। पिता के मरने पर उसकी आत्म-शांति के लिए श्राद्ध के नाम पर किये गये पुण्य परमार्थ दूसरों को ही लाभ देते हैं। स्वर्गीय पिता जी तो उसे लेने नहीं आते। फिर भी श्राद्ध का प्रयोजन पूरा हो जाता है क्योंकि स्वर्गीय आत्मा भी समाज की एक अंग थी और उसी समाज के कल्याण के लिए जो किया गया उस श्राद्ध से पिता की सेवा-सहायता करने जैसा ही पुण्य मिल गया। यही नीति-नियम प्रायश्चित विधान पर लागू होता है।
यदि हमने बेईमानी से धन कमाया हो तो सारा अथवा जितना अधिक संभव हो लोक-मंगल के लिए लौटा दें। यदि व्यभिचार करके किसी का शील डिगाया हो तो समाज में शील-संवर्द्धन और सदाचार संस्थापन के लिए समय या दूसरे प्रकार का अनुदान देकर उस सामाजिक क्षति की पूर्ति करें। उत्पीड़न का प्रायश्चित पीड़ितों की सुख-सुविधा बढ़ाने में होना चाहिए। पूर्वजों तथा दूसरों से जो सेवा-सहायता एवं स्नेह का लाभ उठाया है उससे उऋण होने के लिए पिछड़ी मनोभूमि तथा परिस्थितियों के लोगों को ऊँचा उठाने में योगदान दिया जाना चाहिए। जीवन में सेवा-सहायता का समावेश पुण्य-परमार्थ संचित करने की दृष्टि से तो आवश्यक है और पिछले पापों का प्रायश्चित करके आत्म-प्रताड़ना के फलस्वरूप मिल रहे कष्टों की निवृत्ति की दृष्टि से भी।
सस्ते मूल्य के कर्मकाण्ड करके पापों के फल से छुटकारा पा सकना सर्वथा असम्भव है। स्वाध्याय, सत्संग, कथा, कीर्तन, तीर्थ, व्रत आदि से चित्त में शुद्धता की वृद्धि होना और भविष्य में पाप वृत्तियों पर अंकुश लगाने की बात समझ में आती है। धर्म कृत्यों से पाप नाश के जो माहात्म्य शास्त्रों में बताये गये हैं उनका तात्पर्य इतना ही है कि मनोभूमि का शोधन होने से भविष्य में बन सकने वाले पापों की सम्भावना का नाश हो जाये। पिछले पाप तो प्रायश्चित किये हुए पापों की तुलना में वैसे ही भारी पुण्य कर्मों के द्वारा सम्भव है। ईश्वरीय कठोर न्याय व्यवस्था में ऐसा ही विधान है कि पाप परिणामों की आग में जल मरने से जिन्हें बचना हो व समाज की उत्कृष्टता बढ़ाने की सेवा-साधना मे संलग्न हों और लदे हुए भार से छुटकारा प्राप्त कर शांति एवं पवित्रता की स्थिति उपलब्ध कर लें।
हम कामनाग्रस्त न हों-प्रगतिशील बनें
प्रगतिशील की आकांक्षा और लालसाओं की पूर्ति का सामान्य स्वरूप एक-सा दीखता है, पर बारीकी से देखने पद इनमें जमीन-आसमान का अन्तर मिलेगा। प्रगति उस आवश्यकता का नाम है जो व्यक्तित्व का उभारती, प्रतिभा को निखारती तथा योग्यताओं को बढ़ाती है। इसका अर्थ है उन क्षमताओं का विकास जो शरीर, मन, कर्तृत्व एवं स्वभाव को स्वस्थ, स्वच्छ एवं सुविकसित बना सके। यही वास्तविक प्रगति है। इसी के आधार पर मनुष्य जो भी सांसारिक सम्पदाएँ चाहे प्राप्त कर सकता है। धन उपार्जन करने की क्षमता, हाथ में लिए हुए काम में सफलता, कुशाग्र, सूझ-बुझ, आकर्षक व्यक्तित्व, पदोन्नति, सम्बन्धित लोगों का स्नेह-सहयोग आदि न जाने कितनी सिद्धियाँ इसी विशेषता के आधार पर मिलती हैं। निखरा हुआ व्यक्तित्व ही साहसिक कदम उठा सकने की हिम्मत और चमत्कारी उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकने में समर्थ होता है। अपनी इसी प्रसुप्त विशेषता को जाग्रत एवं प्रखर बना सकना प्रगति का मूल्य तथ्य है। जिसके हाथ यह पारस लग गया उसे दीन, दुर्बल जीवन नहीं जीना पड़ता वरन् एक से एक बढ़ी-चढ़ी सफलताओं और सम्पदाओं के प्राप्त करने का अवसर निरन्तर मिलता रहता है।
बाहर से जो सम्पदाएँ या सफलताएँ दीखती हैं वे स्थिर व लाभदायक तभी हो सकती हैं जब उनके पीछे सुविकसित व्यक्तित्व की श्रम-साधना सन्निहित हो। यदि यों ही उत्तराधिकार में भाग्यवश, अनायास या अनैतिक तरीके से कोई सफलता या सम्पदा मिल गई तो वह देर तक टिकेगी नहीं, उसे सँभालना और रोकना कठिन हो जायेगा। किसी प्रकार वह बनी भी रही तो इतनी सम्भावनाएँ और उलझनें उत्पन्न करेंगी जिससे यही सोचना पड़ेगा कि इससे तो निर्धन या असफल रहना अच्छा था। व्यक्तित्व का निखार ही वस्तुतः अनेक तरह की भौतिक और आत्मिक सम्पदाएँ उत्पन्न करने में समर्थ रहता है। और उसी के आधार पर उनका सदुपयोग और लाभ भी है अन्यथा अनुपयुक्त व्यक्तित्व अनायास प्राप्त सम्पदा से अपना और दूसरों का अहित करते और शोक, सन्ताप फैलाते दीखेंगे। प्रगति शब्द का ठीक अर्थ और स्वरूप समझना हो तो यही कहा जायेगा कि परिष्कृत शरीर और मन के आधार पर सुविकसित व्यक्तित्व का निर्माण कर सकने में सफलता प्राप्त कर लेना ही सच्ची प्रगति है।
आकाँक्षाएँ एक नशेबाजी जैसी मानसिक स्थिति ही समझी जानी चाहिए। वे असीम हैं। परिस्थिति, योग्यता और साधनों का ध्यान न रखकर अक्सर लोग आकाश-पाताल प्राप्त करने की अनियंत्रित कामनाएँ मन में सँजोये बैठे रहते हैं और उन्हें जल्द जिस-तिस मार्ग से पूरा करने के लिए व्याकुल रहते हैं। यह ललक पूरी तो हो नहीं सकती, व्यक्ति को बुरी तरह उद्विग्न रखती है। कामना की पूर्ति के लिए योजनाबद्ध तैयारी करनी पड़ती है और निरन्तर श्रम-साधना धैर्य और संतुलित मन से तब तक चलानी पड़ती है जब तक कि उस उपलब्धि के लिए उपयुक्त साधन और अवसर न मिल जायें। उनमें देर हो सकती है और अनेक विघ्न आ सकते हैं। कामनाग्रस्त इस सम्बन्ध में अति अधीर होता है और छलाँग मारकर जो चाहता है उसे तुर्त-फुर्त प्राप्त करने का उतावला-बावला बना रहता है। ऐसे व्यक्ति असफल तो रहते ही हैं, उतावली में ऐसे कार्य और भी करते हैं, जिन्हें अवांछनीय और मूर्खतापूर्ण कहना पड़े और जिनका परिणाम अन्ततः विभीषिका जैसी विपत्ति के रूप में सामने आये। इसी स्थिति से तालमेल न बिठा कर चलने वाली ललक को आकांक्षा या कामना कहते हैं। यह प्रगतिशीलता का नहीं छिछोरापन का चिह्न है।
प्रगतिशीलता और कामनाग्रस्त का आरम्भिक उत्साह एक जैसा लगता है, पर वस्तुतः दोनों की दो दिशाएँ और परिणाम भी एक दूसरे से विपरीत ही होते हैं। वे भौतिक लिप्साएँ जो क्षमता बढ़ाने का इन्तजार न करके तुर्त-फुर्त मनोकामना पूर्ण करने के लिए लालायित रहती हैं, आध्यात्मिक भाषा में एषणाएँ कहीं जाती हैं। एषणाएँ में प्रधान तीन हैं-(१) वित्तैषणा (२) पुत्रैषणा (३) लोकेषणा। उन्हें सरल भाषा में अमीरी, विषय-वासना और वाहवाही कहा जा सकता हैं। उचित और न्यायानुकूल मार्ग से उचित मात्रा में इनकी आवश्यकता भी है पर जब इनकी ललक एक नशेबाज की उन्मत्तता जैसी स्थिति पैदा कर देती है ओर जिस-तिस मार्ग से उनकी असीम उपलब्धि के लिए मनुष्य व्याकुल-पागल हो सकता है। सीधे रास्ते से हर काम उचित समय, उचित श्रम और उचित पात्रत्व द्वारा ही सीमित मात्रा में पूरा होता है पर अधीरता में इन साधनों को बढ़ाने एवं अपनाने की स्थिति नहीं रहती। उतावली में, अवास्तविक कल्पना लोक में मनुष्य विचरण करने लगता है। बच्चों जैसी उपहासास्पद योजनाएँ बनाता है और बुरी तरह ठगा जाता है तथा उसे ठोकर खाता है। अनुचित, अनैतिक मार्ग अपनाने में भी उसे झिझक नहीं होती ।। एषणाएँ के पीछे बावला मनुष्य पाता कम और खोता ज्यादा है, इसलिए तत्त्वदर्शियों ने उन्हें खतरनाक और अवांछनीय कहा है।
तुर्त-फुर्त अमीर बनने की लिप्सा में लोग जुआ, चोरी, बेईमानी, विश्वासघात, शोषण और छल आदि से बुरे से बुरे अपराध करते देखे जाते हैं। काम-वासना की भट्टी में जिनका मन उबल रहा है वे बहिन, भानजी, बेटी, पोती किसी को नहीं देखते। स्वास्थ्य, यश, ईमान गँवाते हैं और हर जगह भेड़िये की तरह खूनी नजर से निहारते हैं। इनसे मिलता क्या है-केवल गँवाना ही गँवाना है पर वासना का गुलाम यह सब देखता कहाँ है? पहाड़ भर चाहता है, पर तिल पर भी पा नहीं सकता, केवल जलन, अशान्ति और खीज़ ही पल्ले पड़ती है। इसी प्रकार सस्ती वाहवाही के लोभी विविध प्रकार के ढोंग रचते, नेतागिरी के लिए मरते, अपना चेहरा लोगों को दिखाने के लिए अकुलाते देखे जा सकते हैं। सजधज, शृंगार, फैशन, ठाट−बाट बनाकर लोग दूसरों पर अपने बड़प्पन या आकर्षण का रौब जमाते हैं। इस प्रवंचना में समय और पैसे की पूरी बर्बादी होती है। बड़ी-बड़ी दावतें, विवाह-शादी की धूमधाम आदि में इसी सस्ती वाहवाही के भूखे लोग धन की होली फूँकते देखे जा सकते हैं। लोग हमें धर्मात्मा समझें इसके लिए कितने ही लोग तीर्थयात्रा करते, बन्दरों को चने, कछुओं को आटा खिलाते देखे जा सकते हैं। दान करने की इच्छा ख्याति का स्वार्थ लेकर होती है। नाम का पत्थर जड़वाने, पत्थर लगवाने के लोभ में कई व्यक्ति निरर्थक कामों में पैसा खर्च करते देखे जाते हैं। जबकि कितने ही अति उपयोगी कामों की ओर इसलिए लोग आँख उठाकर भी नहीं देखते क्योंकि उनमें उनकी दानशीलता का ढिंढोरा पिटने वाला नहीं होता। फिल्म में अपनी तस्वीर खिंचवाने और आवाज सुनवाने के लिए सम्भ्रान्त परिवारों के सुरक्षित लड़के-लड़कियाँ अपने शील और भविष्य को बर्बाद करते हुए आये दिन दिखाई देती हैं। यह सब लोकेषणा पिशाचिनी का माया जाल ही समझना चाहिए, जिससे प्रतिभाओं को आदर्शवाद की ओर बढ़ने से रोककर निरर्थक की मृगतृष्णा में लुभाया और उन्हें छिछोरी बालबुद्धि में उलझा कर बर्बाद कर लिया।
धन, वासना और लापरवाही की तीव्र आकांक्षा उठना ओर इसकी बेचैनी से व्याकुल रहना, ऐसा लगता है कि मानो यह प्रगतिशीलता और पुरुषार्थ-परायणता का चिह्न है पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। यह नशेबाजी जैसा एक उन्माद भर है, जो ललक को तुर्त-फुर्त पुरा करने के लिए घसीटता चला जाता है। भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं की अनियंत्रित आकांक्षा, लालसा, कामना जितनी ही तीव्र होगी उतना ही अधीर, अविवेकी, अशान्त, अनैतिक एवं उन्मत्त सरीखा व्याकुल होता चला जायेगा। इस मनःस्थिति में उसने कुछ प्राप्त कर भी लिया हो तो वह इतना महँगा पड़ता है, जितना अभावग्रस्त रहना भी नहीं अखरता।
हमें प्रगतिशील होना चाहिए कामनाग्रस्त नहीं। प्रतिभा के बढ़ाने को धैर्य और परिश्रमपूर्वक संतुलित मस्तिष्क से की गई साधना हमारे व्यक्तित्व को निखारती है और उसी आन्तरिक उत्कर्ष के आधार पर वह समर्थता प्राप्त होती है जिसके आधार किसी भी उपयुक्त दिशा में भरपूर ओर चिरस्थायी उन्नति कर सकना सुलभ हो जाये। हमें गाँठ बाँध कर रखना चाहिए कि सद्गुणों की सम्पत्ति वह आधार है। जिसके द्वारा सांसारिक सफलताएँ कभी भी, कितनी ही बड़ी मात्रा में मिल सकती हैं। आनन्द वासना में नहीं हँसती-हँसाती मनोवृत्ति में है जो पग-पग पर उल्लास के अवसर उत्पन्न कर सकती है। वाहवाही के ओछे प्रदर्शनों से नहीं महामानवों के पद चिह्नों पर चल सकने का साहस एकत्रित करने से वह सच्ची और चिरस्थायी श्रद्धा मिलती है जिसका अल्प अनुकरण, अनुगमन करने वाले भी यशस्वी बन सकें।
भाग्यवाद हमें नपुंसक और निर्जीव बनाता है
एक ही औषधि हर मर्ज पर हर व्यक्ति के लिए काम नहीं आ सकती। इसी प्रकार परिस्थितियों के अनुरूप अनेक सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है। विद्यार्थियों और वानप्रस्थों के लिए ब्रह्मचर्य धर्म है किन्तु विवाहितों के सन्तानोत्पादन के लिए कम-सेवन भी धर्म बन जाता है। साधुओं का सम्मान एवं दुष्टों का प्रताड़ना परस्पर विरोधी सिद्धान्त विपरीत परिस्थितियों में प्रयुक्त होते हैं। भाग्यवाद का सिद्धान्त भी एक ऐसा ही प्रयोग है जो केवल तब काम में लाया जाता है, जब मनुष्य के पुरुषार्थ करने पर भी अभीष्ट सफलता न मिले। असफलता में निराशा और खीज़ उत्पन्न होती है और अपनी भूल तथा दूसरों के असहयोग के अनेक प्रसंग ध्यान में आते हैं। ऐसी दशा में असफलता की हानि के साथ लोग भावी सतर्कता के लिए शिक्षा तो नहीं लेते, उल्टे अपने या दूसरों के ऊपर झल्लाते, उद्विग्न होते देखे जाते हैं, इन परिस्थितियों में भाग्यवाद की चर्चा करके चित्त को हल्का किया जा सकता है। उस समय के लिए यह उपयुक्त औषधि है।
पर यह दवा यदि कुसमय में काम में लाई जाये तो पुरुषार्थ के उत्साह को ठण्डा कर सकती है और व्यक्ति को अकर्मण्य बना सकती है। अपने देश में ऐसा ही कुछ बहुत दिनों से होता चला आ रहा है और हम अपने कर्तव्यों के प्रति निर्जीव, नपुंसक, अन्यमनस्क और निराशाग्रस्त होते चले जा रहे हैं। ‘‘जो भाग्य में लिखा है, सो होगा-होतव्यता टलेगी नहीं-जितना मिलना है, उतना ही मिलेगा-कर्म मिटती थोड़े ही है-जब अच्छे दिन आयेंगे, तभी सफलता मिलेगी’’-जैसी मान्यताएँ यदि मजबूती से मन में जड़ जमा लें तो किसी भी मनुष्य को अकर्मण्य और निराशावादी बना देगी। वह यही सोचता रहेगा कि जब अच्छा समय आयेगा तब वह सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा यदि अपने भाग्य में नहीं है, तो मेहनत करने पर भी क्यों मिलेगा? ऐसे भाग्यवादी व्यक्ति न अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करते हैं और न पूरे उत्साह से किसी काम में लगते हैं, फलस्वरूप उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण सफलता भी नहीं मिलती। आशा की ज्योति जलती ही न हो तो प्रगति पथ पर प्रकाश कैसे उत्पन्न होगा?
यह विचारधारा भारतीय दर्शन के सर्वथा विपरीत है। अपने यहाँ सदा पुरुषार्थ, कर्म, प्रयत्न और संघर्ष को मानव-जीवन की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में प्रतिपादित किया जाता है। अपना सारा अध्यात्म इतिहास और दर्शन इसी प्रतिपादन से भरा पड़ा है। फिर यह भाग्यवाद विकृत विचारधारा कहाँ से चल पड़ी? इसकी खोज करने पर स्पष्ट हो जाता है कि सामन्तवादी शोषकों ने अपनी अत्याचारों से पीड़ित जनता को किसी प्रकार शांत-संतुष्ट करने के लिए यह मनोवैज्ञानिक नशे की गोली विनिर्मित की। उनके इशारे पर साधु-पण्डित भी इसी तरह के किस्से-कहानी गढ़कर पीड़ितों के रोष-प्रतिरोष को शांत व शमन करने में लगे रहे।
नृशंस विदेशी शासन के द्वारा उत्पीड़ित जनता बहुत क्षुब्ध और आवेश ग्रस्त थी। आये दिन कत्लेआम, मन्दिरों को गिराया जाना, सयानी लड़कियों को जबरदस्ती ले जाना, बलात् धर्म परिवर्तन करना जैसी घटनाएँ किसका खून न खौला देंगी? कौन प्रतिरोध के लिए तैयार न होगा? पर आश्चर्य इस बात का है कि मुट्ठी भर अत्याचारियों के विरुद्ध समुद्र जितनी विस्तृत और परम तेजस्वी भारतीय जनता प्रतिरोध की दृष्टि से कुछ भी न कर सकी और वे दुष्ट उत्पीड़न लम्बी अवधि तक यथावत चलते रहे। इस नपुंसकता के पीछे हमारी भाग्यवादी दार्शनिक भ्रष्टता का ही प्रमुख हाथ रहा, जिसने क्षोभ, रोष प्रतिरोध एवं संघर्ष की शौर्य प्रकृति को चकनाचूर करके फेंक दिया।
कत्लेआम हुए ओर हमें कहा गया-जिनको जिस प्रकार, जिस दिन, जिसके हाथों मरना है, वह उसी तरह मरेंगे। उस विधान को कोई मेट नहीं सकता। उनका प्रारब्ध ऐसा ही था, जिसके कारण उन्हें मरना पड़ा। मारने वाले तो निमित्त मात्र थे, उन पर रोष करने से क्या लाभ? लड़कियों को घरों से उठा कर ले गये तो कहा गया, जिस लड़की का अन्न जहाँ बदा है, जिसके साथ इसका जूरी-संयोग लिखा-बदा है, जहाँ दुःख-सुख इसे भोगना है वहीं तो यह रहेगा-इस विधि-विधान के प्रतिकूल रोष करने से क्या बनेगा? मुट्ठी भर विदेशी, रोमांचकारी, लूट-खसोट और नृशंस उत्पीड़न करते रहे और हमें कहा गया-भगवान की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, फिर यह अप्रिय लगने वाली घटनाएँ भी उन्हीं की इच्छा से हो रही हैं। उनका पुण्य-फल रहा होगा और हमारा पाप उदय हो रहा होगा। इसी से भगवान का यह विधान चल रहा है, इसे सहन कर लेना और चुप बैठे रहना ही उचित है।
इन धारणाओं ने हमें नपुंसक बना दिया और एक हजार वर्षों तक हम मुट्ठी भर विदेशी शासकों के पैरों तले बेतरह कुचले जाते रहे। इतना ही नहीं हमारा व्यक्तिगत पौरुष, उल्लास, उत्साह एवं पराक्रम भी सो गया। जब ग्रह-दशा, भाग्य-चक्र, हस्त-रेखा ही अनुकूल ने हों तब प्रयत्न करने का झंझट ही क्यों उठाया जाये? जब समय बदलेगा तब भाग्य-लक्ष्मी का उदय होने से घर बैठे सम्मान बरस पड़ेगा-इस मान्यता के रहते कष्टसाध्य पराक्रम करने का महत्त्व ही क्या रहा? ऐसी दशा में कोई कुछ सुधारात्मक बड़ा काम किस आधार पर आरम्भ करे? किसी बड़े परिवर्तन के लिए कोई किसलिए साहस इकट्ठा करे?
शोषक और दुष्ट-दुराचारी अपने द्वारा उत्पीड़ित शोषित लोगों को इसी आधार पर ठण्डा करते रहे कि तुम्हारे भाग्य में कुछ ऐसा ही लिखा था, जिसके कारण दुःख-दारिद्र सहन करने पड़ रहे हैं। हम तो निमित्त मात्र हैं। असली कारण तो तुम्हारा भाग्य है। गायें कटती रहें तो हम बधिकों को किस मुख से कह कह सकते हैं कि तुम्हारा कृत्य अनुचित है? भाग्य और भगवान की इच्छा ही जब एकमात्र कारण है, तब उस कुकृत्य को रोकने की, विरोध करने की बात सोचना ही बेकार है। हर पाप और अपराध करने वाला अपने पक्ष में ही यही दलील देकर अपने को निर्दोष सिद्ध कर सकता है, फिर उस बेचारों को क्यों कोई रोके? संसार के दीन-हीन, पीड़ित, अपंग जब भगवान की इच्छा से ही इस स्थिति में पड़े हैं, विधि का विधान भोग रहे हैं तो उनकी सेवा, सहायता करना व्यर्थ है। इससे तो भगवान और विधाता दोनों ही नाराज होंगे कि हमारे विधान में क्यों हस्तक्षेप किया? ऐसी दशा में दीन-दुःखियों की सेवा, सहायता करना भी एक अपराध बन जाता है।
किसी समाज का दर्शन-दृष्टिकोण भ्रष्ट हो जाये तो उसमें सर्वांगीण भ्रष्टता आती है। भाग्यवाद हमारी दार्शनिक भ्रष्टता है, जिसने हमारी कर्तव्यनिष्ठा को बुरी तरह कुचल-मसल कर फेंक दिया और हम किसी समय के विश्व मूर्धन्य आज दुःख-दरिद्र की हीन परिस्थितियों में पड़े बिलख रहे हैं। बड़े से बड़े झटके खाकर भी जर्मनी और जापान पुनः अपनी पूर्व स्थिति में पर पहुँच गये, पर इतने वर्ष बीत जाने पर भी हमारी राजनीतिक स्वाधीनता हमें प्रगति पथ पर अग्रसर न कर सकी। इसका एक बहुत बड़ा कारण हमारी दार्शनिक पराधीनता है। बौद्धिक दृष्टि से हम अभी भी गुलाम हैं। अँग्रेज, मुसलमान भले ही चले गये हों पर हमारे मस्तिष्क को भाग्य, देवता, ग्रह-नक्षत्र, विधि-विधान, ईश्वर-इच्छा, समय का फेर आदि मूढ़ मान्यताओं की जंजीर उसी तरह से जकड़े हुए है।
भाग्यवाद के सिद्धांत का यदि कुछ उपयोग है तो केवल इतना कि जब मनुष्य असफल या हताश हो जाये तो थोड़ी देर के लिए अशांति को हल्का करने के लिए उसका वैसा ही प्रयोग कर लिया जाये जैसा कि तेज बुखार के सिर दर्द में ‘एस्प्रो’ की गोली खाकर थोड़ी देर के लिए राहत मिल जाती है। इसके अतिरिक्त यदि कर्तव्य क्षेत्र में उसका उपयोग किया जाने लगा तो उससे केवल अनर्थ ही उत्पन्न होगा। लोग अपना कर्तव्य और पुरुषार्थ खो बैठेंगे। आशा और उत्साह, साहस और शौर्य सब कुछ कुण्ठित हो जायेगा। न अनीति के विरुद्ध संघर्ष कर सकना सम्भव रहेगा और न सेवा तथा सुधार के लिए किसी के मन में उत्कण्ठा जागेगी। इस मान्यता के रहते हम युग-युगान्तरों तक दयनीय परिस्थितियों में ही निर्जीव और निश्चेष्ट बने पड़े रहेंगे। इसलिए आवश्यक है कि इस बौद्धिक दासता के भ्रष्ट सिद्धांत को ठोकर मारें, जिसे शोषकों ने हमारे रोष की प्रतिक्रिया से बचने के लिए गढ़ा और फैलाया है। कल का कर्म ही आज भाग्य बन सकता है। इसलिए यदि भाग्य कुछ है भी तो केवल हमारी कर्मठता की प्रतिक्रिया, प्रतिध्वनि मात्र है। इसलिए हमें भाग्य की ओर न देखकर कर्मनिष्ठा को ही प्रधानता देनी चाहिए।
बौद्धिक परावलम्बन का जुआ उतार फेंके
ग्रह-नक्षत्र आसमान में रहते हैं। वे पंचभौतिक अणु-परमाणुओं से बने पिण्ड मात्र हैं। जैसा कि चन्द्रमा पर पदार्पण करके तथा मंगल, शुक्र आदि की वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त करके पता लगा लिया गया है। उनमें न देवता रहते हैं न प्राणी। यदि रहते भी हों और कुछ प्रभाव भी डालते हों तो वह समस्त पृथ्वी या उसके किसी भाग पर ही हो सकता है। यह किसी प्रकार सम्भव नहीं कि ये निर्जीव पिण्ड अलग-अलग व्यक्तियों पर अलग-अलग प्रकार के प्रभाव डालें। भारतीय ज्योतिष शास्त्र खगोल विद्या का महत्त्वपूर्ण अंग है। उसमें नक्षत्रों की गतिविधियों का बहुत बड़ा समाविष्ट है। यह विद्या अति महत्त्वपूर्ण है पर पिछले दो हजार वर्षों से तो उस विज्ञान में फलित ज्योतिष की एक नई शाखा रचकर भ्रम और अज्ञान फैलाने का एक घृणित साधन बना लिया गया है। गणित ज्योतिष ऋषियों की देन है उसमें वैज्ञानिक तथ्यों का समावेश है पर फलित ज्योतिष तो यों ही अटकल-पच्चू हैं, लोगों को अशुभ ग्रह दशा के भय से डराना और डरे हुए लोगों से ग्रह देवता की पूजा-पत्री के नाम पर कुछ ऐंठ लेना यही इस नई गढ़न्त का एकमात्र आधार है। पिछले दिनों व्यवसायी लोगों ने भोली जनता की धर्म श्रद्धा का अनुचित शोषण करने के लिए यह जाल-जंजाल रचकर खड़ा कर दिया है और असंख्य व्यक्ति उन मान्यताओं के शिकार होकर अकारण दुःखी रहते और अपना भारी अहित करते रहते हैं।
विवाह-शादियों में जन्मपत्र मिलाने की प्रथा से असंख्य सुयोग्य जोड़े मिलने से वंचित रह जाते हैं। लड़की-लड़के सुयोग्य हैं, सम्बन्धी भी रजामंद हैं पर पण्डित जी ने पन्ना देखकर बता दिया कि विधि वर्ग नहीं मिलता। बस सारा आधार नष्ट हो गया। मन नहीं भर रहा है, विवाह जोड़ना कुछ जम नहीं रहा है, पण्डित जी ने बता दिया विधि वर्ग बहुत अच्छा मिलता है-बस स्वीकृति मिल गई। परिणामों की शोध की जाये तो पता लगेगा कि विधि वर्ग की संगति मिलाकर जो विवाह किये गये थे उनमें से कितने सफल रहे। परिणाम उलटा ही मिलेगा, क्योंकि विधि-वर्ग की सनक में जो लोग अन्य बातों की उपयोगिता, अनुपयोगिता की परवाह नहीं करते, उन्हें स्पष्टतः घाटे में रहना चाहिए और रहते भी हैं।
लड़की मंगली है। लड़का मंगली है। बस इतने भर से उनके विवाह-शादी असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य हो जाते हैं। सुयोग्य साथी पाने के अधिकारी थे, इस मूढ़-मान्यता के शिकार हो गये कि उनकी कुण्डली मे मंगल बैठा है। उन्हें सुयोग्य साथी के चुनाव में वंचित रहना पड़ा। कोई मंगली जोड़ा बैठे तब काम चले। ढूँढ़-खोज में निराश अभिभावक जहाँ भी मंगली की तुक बैठती है, वहीं विवाह की बला काट देते हैं, ये बच्चे आजन्म रोते-बिलखते रहते हैं।
देखना यह है कि करोड़ों मील दूर रहने वाले ग्रह-नक्षत्र पृथ्वी निवासी किसी व्यक्ति विशेष को प्रभावित ही नहीं करें वरन् उनकी विवाह-शादी जैसी आवश्यकताओं में हस्तक्षेप करें। विवेक कहता है-यह सर्वथा असम्भव है। एक तो ग्रह-नक्षत्रों में कोई जीवन ही संदिग्ध है। विवाह उन्हें निर्जीव पिण्डमात्र सिद्ध कर रहा है। यदि ये सजीव भी हों, तो हर व्यक्ति के प्रति उनकी बार-बार बदलने वाली रीति-नीति का कोई कारण या आधार समझ में नहीं आता। हिन्दू-समाज का एक बहुत छोटा वर्ग फलित-ज्योतिष पर विश्वास करता है। इस देश के निवासियों में से भी अधिकांश की मान्यता अलग तरह की है। अन्य देशों की तो बात ही क्या कहनी। वहाँ इस तरह की कोई मान्यता नहीं। तब क्या उन्हें ग्रह-नक्षत्रों का कोपभाजन ही बनता पड़ता होगा?
पिछले दो हजार वर्षों से हम बौद्धिक गुलामी के बेतरह शिकार हुए हैं। स्वतंत्र चिन्तन और विवेकशीलता को हम छोड़ बैठे। फलस्वरूप इस जीवन के हर क्षेत्र में परावलम्बी होते चले गये। एक हजार वर्षों की राजनैतिक पराधीनता इस बौद्धिक गुलामी की ही प्रतिक्रिया थी। जो मानसिक दृष्टि से परावलम्बी हो जाता है, उसे व्यावहारिक जीवन में भी किसी का गुलाम बनकर ही जीना पड़ता है। विदेशियों और विधर्मियों के पैरों तले हम एक हजार वर्ष तक इसीलिए दबे पड़े रहे कि स्वतन्त्र चिन्तन और विवेकपूर्वक दिशा निर्धारण की प्रवृत्ति खो बैठे। जो कुछ होना है, जो कुछ होगा देवताओं की, भाग्य की, नक्षत्रों की कृपा से होगा। हमारी स्वतंत्र चेतना तो निरर्थक है। इस प्रकार की मान्यता हमारी ही सबसे बड़ी दुर्बलता है। इस दुर्बलता का फूहड़ उदाहरण फलित ज्योतिष के रूप में देखा जा सकता है। जन्मपत्रों में ही हमारा सब कुछ भूत-भविष्य लिखा है। यह मान्यता हमारे पुरुषार्थ को निरर्थक सिद्ध करती है। जो होना है सो जन्म कुण्डली में ही लिखा है। हमें इसी के अंगुलि निर्देशों पर घूमना है। यह मान्यता स्वतंत्र चिन्तन और पुरुषार्थपूर्वक कर्तव्य के सारे द्वार बन्द कर देती है। मनुष्य बौद्धिक दृष्टि से पराधीन और भाग्यवादी बनकर किसी अज्ञात के संकोच और सहयोग, असहयोग से बँधी हुई पतंग की तरह अपने को मानने लगता है। जीवन के प्रगति पथ पर यह स्थिति सबसे बड़ी बाधा और विपत्ति है। इसने हमारे विवेक और कर्तव्य को जितनी क्षति पहुँचाई, उतनी शायद ही किसी और भ्रान्ति ने पहुँचाई हो। हमारा भविष्य निर्धारित और विश्वस्त है, इस मूढ़मान्यता पर जो विश्वास करेगा वह न तो पराक्रमी हो सकता है और न अपनी प्रतिभा को सजग करने के लिए आवश्यक उत्साह ही उत्पन्न कर सकता है। फलित ज्योतिष एक प्रकार से हमें भाग्यवादी, परावलम्बी और नपुंसक बनाकर रख देती है। यह हमारे आध्यात्मिक जीवन की एक महती विपत्ति ही कही जा सकती है। जिन्होंने इस जंजाल का सृजन किया उन्होंने मानव-समाज का कितना अहित कर डाला, वे बेचारे शायद ही यह अनुमान लगा सके हों।
जन्म-पत्र बनवाने और किसी को दिखाने का अर्थ है अपने ऊपर बैठे-ठाले एक चिन्ता, भय एवं अशान्ति का आवरण ताल लेना। नौ ग्रहों में से कभी कोई प्रतिकूल न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। ज्योतिषी इसी बात को बताकर डरा देगा और प्रयत्न करेगा कि उसे पूजा-पाठ के, ग्रह-शान्ति के नाम पर कुछ ऐंठने को मिले। डरा हुआ व्यक्ति देता भी है और ज्योतिषी की गहरी छनती रहती है पर अपने ऊपर को आशंका और भ्रांति सवार हो गई वह हर घड़ी खून सुखाती रहेगी और मानसिक शान्ति को नष्ट करती रहेगी। ग्रहों को शान्त या अशान्त कर सकना ज्योतिषी के हाथ में होता तो वह गर्मी के दिनों में सूर्य को जरूर शान्त कर देता ताकि पृथ्वी पर सुहावना मौसम बना रहे। चन्द्र आकर्षण को जरूर शान्त कर देता ताकि समुद्र में ज्वार-भाटे न उठते और जहाज एवं नावों का आवागमन निरापद हो जाता। जो इतना भर नहीं कर पाते उनसे कैसे आशा करें कि ग्रहों की गतिविधियाँ उनकी मुट्ठी में हैं।
शकुन, मुहूर्त हमारी गतिविधियों को पग-पग पर रोकते हैं। अभी कोई काम आवश्यक करना है, मुहूर्त नहीं निकला तो उसे रोकना ही पड़ेगा। सोमनाथ मन्दिर पर महमूद गजनबी ने आक्रमण किया तो उसका प्रतिकार करने का मुहूर्त ही नहीं निकला फलस्वरूप बिना लड़े ही उस विशाल सम्पत्ति पर आक्रमणकारियों का अधिकार हो गया। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ आये दिन घटित होती रहती हैं और हर क्षण मूल्यवान है इस तथ्य को भूलकर हम किसी अच्छे मुहूर्त की राह जोहते रहते हैं। बिल्ली का रास्ता काट जाना, कुत्ते का कान फड़फड़ा देना, पनघट की ओर जाता खाली घड़ा, किसी जुकाम पीड़ित की छींक हमारे उत्साह को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है। अपशकुन हो गया तो दिल धड़कने लगा। हिम्मत आधी रह गई। ऐसी दशा में यदि घबराये हुए व्यक्ति को असफलता का मुँह देखना पड़े तो आश्चर्य ही क्या है?
कोई नई वस्तु, पशु या व्यक्ति घर में आया तो देखते हैं कि यह शुभ है या अशुभ। संयोगवश कोई हानिकर प्रसंग आ गया तो दोष बेचारे उस नवागन्तुक का है। सारा दोष नई बहू का, यह अभागिन है। इसी प्रकार किसी अयोग्य का संयोग शुभ सिद्ध होने का बन जाये, तो फिर तो पौ बारह हैं। लाखों विधवाएँ, अपराधिनी की तरह इसीलिए मुँह छिपाये फिरती हैं कि उनका पति मर गया और मृत्यु का कारण उनका अशुभ भाग्य ठहराया गया।
अशुभ भविष्यवाणियों के आधार पर लोग अपने उज्ज्वल भविष्य की आशा छोड़ बैठते हैं। हाथों की रेखाओं की, चेहरे पर किसी अंग की, बनावट देखकर जिन्हें भाग्यहीन घोषित कर दिया है, उन बेचारों की मनोभूमि एक प्रकार से कुचल दी गई। उन्हें प्रगति पथ पर अग्रसर होने का उत्साह अब कहाँ से मिल सकेगा? भ्रांतियों के जंजाल से हम निकलें और इस बौद्धिक परावलम्बन की बेड़ियाँ तोड़ फेंके यही हमारे लिए उचित एवं उपयुक्त है।
प्रश्न—
(१) ज्योतिष कितने प्रकार का होता है। उसमें कौन-सा श्रेष्ठ है? (२) फलित ज्योतिष की हानियों पर प्रकाश डालिए? (३) विवाह के पूर्व कुण्डली मिलाने से लाभ है या हानि? (४) ग्रह दशा से डरकर जनता को गुमराह करना कहाँ तक उचित है? (५) दो हजार वर्ष की गुलामी का भयंकर दुष्परिणाम क्या हुआ? (६) सिद्ध कीजिए ‘‘भाग्यवाद निरर्थक है।’’ (७) उन्नति या प्रगति का आधार स्वतंत्र चेतना है या भाग्य? (८) स्वतंत्र चिन्तन एवं पुरुषार्थ पूर्ण कर्तव्य ही सुख के सारे द्वार खोलता है? सिद्ध कीजिए (९) सिद्ध कीजिए कि शकुन, मुहूर्त, कुण्डली, राशिफल, मनुष्य को भयभीत व कमजोर बनाते हैं? (१०) असफलता का मूल कारण क्या है?
ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग की महान साधना
आत्मा और परमात्मा को जोड़ देने वाली प्रक्रिया का नाम योग है। योगाभ्यास, योगसाधना करके श्रेयार्थी पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। योगाभ्यास के दो मार्ग हैं, एक भौतिक दूसरा आत्मिक है। भौतिक वे हैं जिनमें शरीर की क्रियाएँ करनी पड़ती हैं, आत्मिक वे जिनमें मन और चेतना को परिष्कृत किया जाता है। शरीर भौतिक पदार्थों से बना है और उसमें भौतिक शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। अन्तःकरण चेतना तत्त्व से बना है। इसलिए वह सूक्ष्म और दिव्य-शक्तियों का निवास है। शरीर द्वारा किये गये योगाभ्यास से भौतिक उत्कर्ष का लाभ मिलता और मानसिक साधनाओं द्वारा और आत्मबल बढ़ने और आत्मतत्त्वों के विकास का मार्ग खुलता है। शरीर क्षेत्र की अपेक्षा आत्मिक क्षेत्र की समर्थता और सम्भावना एवं सामर्थ्य अधिक है, इसलिए तत्त्वज्ञानी सर्वसाधारण के लिए मानसिक साधनाओं का निर्देश विशेष रूप से देते रहे हैं और विशिष्ट व्यक्तियों की शरीरगत अभ्यासों की बात कहते रहते हैं।
शरीरगत अभ्यास में आसन, प्राणायाम, नेति, धोति, वस्ति, वज्रोली कपालभाति, मुद्रा, बंध, व्रत, यात्रा, स्नान, कीर्तन जैसे साधन बताये जाते हैं। यह सब कार्य शरीर को करने पड़ते हैं। इसलिए उनके परिणाम भी प्रायः भौतिक स्तर के होते हैं। मानसिक साधनाओं में ध्यान धारण-ध्यान प्रत्याहार, समाधि जैसे प्रसंग आते हैं। शरीरगत योग 84 प्रकार के विख्यात हैं। क्रियाएँ भी ऐसी करनी पड़ती हैं जो कष्टसाध्य होती हैं और भूल होने पर उल्टी हानिकारक हो सकती हैं। मानसिक साधनाओं में ऐसी कठिनाई नहीं है। इसलिए वे सर्वसाधारण के लिए सुलभ हैं। उन्हें बिना किसी की सहायता से भी किया जा सकता है। मानसिक योग साधनाओं में तीन प्रमुख हैं-(१) ज्ञानयोग (२) कर्मयोग (३) भक्तियोग। इन्हें बाल-वृद्ध, नर-नारी, रोगी-नीरोग, शिक्षित-अशिक्षित। कोई भी किसी स्थिति में रहकर बिना किसी कठिनाई के कर सकता है और आत्मा को परमात्मा से मिलाने का योग लक्ष्य प्राप्त कर सकता है।
ज्ञानयोग का प्रयोजन है जीवन के स्वरूप, प्रयोजन लक्ष्य और सदुपयोग की रूपरेखा ठीक तरह हृदयंगम करना और अन्तःकरण में इतना उत्साह एवं साहस उत्पन्न करना कि आत्मकल्याण के उद्देश्य से अपनी विचारणा और कार्य-पद्धति के निर्माण में जुट जाये। इसके लिए हमको बार-बार आत्म-चिन्तन करना चाहिए। यह भी विचारणा चाहिए कि बोलने, सोचने, पढ़ने की, उपार्जन, गृहस्थ, शिक्षा, चिकित्सा, वाहन, मनोरंजन आदि की जो भी सुविधाएँ किसी भी प्राणी को नहीं मिलीं, केवल मनुष्य को ही भगवान ने क्यों दी? यदि अकारण दी होतीं तो वह पक्षपाती कहलाता और समस्त जीव-जन्तु परमात्मा से शिकायत करते कि अकेले मनुष्य को ही वे लाभ क्यों दिये? इस प्रश्न का उत्तर एक ही है कि परमात्मा ने मनुष्य को अपने प्रतिनिधि एवं सहयोगी के रूप में इसलिए सृजा कि वह उसके संसार को अधिक सुन्दर, सुव्यवस्थित, सुगन्धित, समुन्नत बनाने में उसका हाथ बटाए। यदि अतिरिक्त सुविधाएँ मनुष्य को प्राप्त हैं तो वे उसी महान उद्देश्य को पूरा कर सकने के साधन मात्र हैं। इनको तृष्णा वासना की पूर्ति में नहीं वरन् निर्वाह मात्र के लिए आवश्यक न्यूनतम उपभोग करके अपने भौतिक ओर आत्मिक साधनों को, विराट ब्रह्म के लिए, विश्व मानव के लिए नियोजित करना चाहिए। यह सच्चाई जितनी स्पष्ट होने लगे और अन्तःकरण इस प्रयोजन में रस लेने लगे तभी समझना चाहिए कि आत्मबोध हुआ, अज्ञान का आवरण हटा, माया के बन्धन कटे और मन के प्रभाव का आलोक अंतःकरण में फैला। ज्ञान का उद्देश्य इसी विचारणा को इस स्तर तक जानना है कि इसकी पूर्ति के लिए अन्तःकरण बेचैन हो उठे।
ज्ञान योग का प्रकाश जब अन्तःकरण में जाता है तब व्यक्ति यह भान होता है कि उसे पेट और प्रजनन की तृष्णा-वासना जैसे पशु प्रयोजनों के लिए मानव-जीवन जैसी बहुमूल्य विभूति को नष्ट न कर डालना चाहिए वरन् अपनी आन्तरिक एवं बाहरी गतिविधियों का निर्धारण इस प्रकार करना चाहिए जिससे ईश्वर की इच्छा को पूर्ण करने और उपलब्धियों को अभीष्ट उद्देश्य में लगाने का सुयोग बन पड़े। इस विचारणा को चिन्तन और मनन द्वारा स्वाध्याय और सत्संग द्वारा प्रबल और सक्रिय बनाना ही ज्ञानयोग है।
ज्ञानयोग का व्यावहारिक रूप अगला कदम कर्मयोग है। कर्तव्य की दृष्टि से-आदर्श और उद्देश्य के लिए, प्रत्येक कार्य करने के लिए अपने को मुस्तैदी के साथ जुटा देना कर्मयोग की साधना है। लोभ और मोह के लिए, तृष्णा, वासना और अहंकार की पूर्ति के लिए अपने क्रिया-कलाप न हों, वरन् उनके पीछे यही भावना काम करे कि हम अपने मानवीय कर्तव्यों में किसी भी कारण राई-रत्ती अन्तर न पड़ने देंगे। दूसरे लोग हमारे प्रति अनुचित व्यवहार करें तो उसके समाधान के अन्य उपाय किये जायें, पर यह न सोचा जाये कि हम भी उसी स्तर पर उतर आवें और अवांछनीय एवं अनुचित कार्य करने लगें। अपने समस्त कार्य आदर्शवादिता और उत्कृष्टता से भी भरे होने चाहिए। इस सम्बन्ध में अपनी आत्मा इतनी सुदृढ़ हो कि समस्त संसार के दुर्व्यवहार मिलकर भी उसे विचलित न कर सकें।
अधिकार में कमी पड़ती हो तो पड़े पर कर्तव्य पालन में अन्तर न आये। जीवन सादगी भरा जिये, जिससे उच्च विचारों को कार्यान्वित करना सम्भव हो जाये। जो जितना महँगा, जितना आडम्बरी और जितना महत्त्वाकाँक्षी जीवन जियेगा उसकी आवश्यकताएँ उतनी ही बढ़ेंगी और उनके दावानल में ही उसकी शुभकामनाएँ समाप्त हो जायेंगी। जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए न समय बचेगा न श्रम, न मन, न धन। इसलिए उत्कृष्ट जीवन जीने वाले को सादगी ही वरण करनी चाहिए। अपने साधन महत्त्वाकाँक्षाओं की सम्पन्नताओं की ललक में नहीं वरन् गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने वाली सत्प्रवृत्तियों में नियोजित किये जाने चाहिए। नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, आत्मा से परमात्मा, पशु से देवता, क्षुद्र से महान होने की महत्त्वाकाँक्षाएँ ही श्रेयस्कर हैं। दूरदर्शी दौलत जमा करने, अहंकार पुजवाने और वासना की आग में जल मरने के लिए नहीं जीते वरन् वे ऐसे अनुकरणीय पद चिह्न छोड़ते हैं जिन पर चलकर असंख्य मनुष्य महानता की दिशा में अग्रसर हो सकें। ऐसा आदर्श जीवन बनाना ही कर्मयोग की साधना है।
भक्ति का अर्थ है—प्यार, भक्तियोग का अर्थ है—प्यार का विकास। ईश्वर से प्रेम करने का-परमात्मा से भक्ति करने का उद्देश्य है। इस विराट् ब्रह्म-विश्व मानव से प्रेम करना। यह समस्त संसार ही ईश्वर का विराट् रूप है। सबमें समाई हुई आत्मा का सम्मिलित रूप ही परमात्मा है। समष्टि-समाज एवं विश्व चेतना के रूप में हम ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं। अर्जुन और यशोदा को दिव्य चक्षु देकर भगवान ने अपना वास्तविक विराट् रूप इसी प्रकार दिखाया है। हमारे दिव्य चक्षु खुलेंगे तो समस्त संसार ईश्वर का रूप दिखाई देगा और उनके साथ आत्मीयता, सद्भावना, सेवा, उदारता का प्यार भरा व्यवहार करने को जी मचलेगा। ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की भावना जगेगी। जिस प्रकार अपने परिवार के प्राणियों को समुन्नत बनाने की बात याद रहती है। उसी प्रकार समस्त विश्व को सुखी-समुन्नत बनाने के लिए अपने आप को जुटा देने, खपा देने की आकांक्षा प्रबल होगी। तब लोकमंगल के लिए बहुत से कष्ट, श्रम, प्रयत्न और त्याग कर गुजरना जीवन की पहली आवश्यकता प्रतीत होगी और इस उद्देश्य के लिए निरंतर कटिबद्ध रहना दैनिक जीवन का एक अविच्छिन्न अंग बन जाएगा। यही भक्ति योग का वास्तविक स्वरूप है।
ज्ञान-योग, कर्म-योग और भक्ति-योग की जीवन साधना वस्तुतः अति उच्चकोटि का सर्वसुलभ योगाभ्यास है। इस त्रिविध योग की विचारणा और कार्य-पद्धति यदि हमारे व्यावहारिक जीवनक्रम में घुल-मिल जाये तो निस्सन्देह आत्मा को परमात्मा से मिला देने का-अपूर्णता को पूर्णता में परिवर्तित कर देने का जीवन लक्ष्य सहज ही पूर्ण हो सकता है।
प्रश्न—
(१) योग की परिभाषा बताओ? (२) शारीरिक योग कितने हैं, उनसे क्या लाभ मिलता है? (३) मानसिक योग कितने प्रकार के होते हैं? (४) योग का प्रयोजन और सदुपयोग क्या है? (५) ज्ञानयोग किस प्रकार बन्धन खोलता है? (६) कर्मयोग की व्याख्या करो? (७) सादगी श्रेष्ठता का निर्माण कैसे करती है? (८) भक्तियोग का क्या अर्थ है? (९) वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना कैसे जागती है? (१०) आत्मा-परमात्मा में किस प्रकार मिलती है?
आध्यात्मिक जीवन के पाँच कदम
अध्यात्मवादी उज्ज्वल और उत्कृष्ट जीवन की गतिविधियाँ-सामान्य नर पशुओं की तरह पेट और प्रजनन, वासना-तृष्णा पर आधारित नहीं होतीं वरन् उच्च आदर्शवादिता ही उनकी आकांक्षाओं और प्रेरणाओं की जननी होती है। अध्यात्मवादी वह है जो आत्मा और शरीर को एक नहीं दो मानता है। दो नहीं एक को अधिपति और दूसरे को उपकरण समझता है। यह अन्तर जिसकी दृष्टि में स्पष्ट हो गया वह काया की सुख-सुविधा, इन्द्रियों की लिप्सा और झूठी वाहवाही, शानशेखी का महत्त्व न देकर इस बात को महत्त्व देता है कि आत्मकल्याण और आत्मविकास जैसे महान प्रयोजन के लिए लाखों वर्षों बाद भूले हुए इस अमूल्य मानव जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग कैसे करें? इसी धुरी के इर्द-गिर्द उसकी आकांक्षा, अभिलाषा, विचारणा घूमती है और रीति-नीति का निर्धारण होता है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए यदि शारीरिक सुविधाओं, भौतिक सम्पदाओं में कुछ कमी आती है कि शरीर एक उपकरण मात्र है। इसकी सुविधाएँ घटती हैं तो आत्मा के उत्कर्ष का द्वार खुलता है। इससे हानि कम और लाभ अधिक है। इस मान्यता से प्रेरित जीवन को अध्यात्मवादी अथवा देव-जीवन कह सकते हैं।
इसके विपरीत भौतिकवादी पशु-जीवन वह है जिसमें सारी आकांक्षाएँ, शारीरिक सुविधा और पार्थिव उपलब्धियों के लिए लालायित और नियोजित रहती हैं। हमारे पास पैसा अधिकाधिक हो, ऐश-आराम के साधन बढ़ें, इन्द्रिय भोगों की पूरी छूट हो, शौक, मौज, मनोरंजन के साधनों की कमी न रहे, लोग अपना रौब मानें और वाहवाही की झड़ी लगा दें। बस इतनी भर लालसा जिनकी हैं वे इस स्तर का ताना-बाना बुनते हैं। सारा समय, सारा श्रम, सारी क्षमता और सारी योग्यता इसी गोरखधन्धे में समाप्त हो जाती है। आत्मकल्याण की बात तो तब याद आये जब आत्मा नाम का कोई अलग तत्त्व या तथ्य उनके सामने हो। शरीर ही उनके लिए आत्मा है वही परमात्मा है, वही सर्वस्व है। शरीर और आत्मा के स्वार्थ भिन्न-भिन्न हैं और आमतौर से एक दूसरे से टकराते हैं जो इस रहस्य को नहीं समझता उसे यह सोचने की फुरसत कहाँ है कि आत्मा की आवश्यकताओं का हनन करके शरीर की सुविधाएँ बढ़ाने में बुद्धिमानी नहीं है। चन्द रोज की जिन्दगी में काया को क्षणिक सुख देने का प्रलोभन में जो जीवन लक्ष्य और आत्मकल्याण का उद्देश्य खो बैठेगा उसे दुनियादारी की दृष्टि से तो बुद्धिमान न कहा जाएगा पर जन्म-जन्मान्तरों का भविष्य इतने भर के लिए अन्धकारमय बना लेने की दृष्टि से तो उसे महामूर्ख के अतिरिक्त कुछ कहा, समझा नहीं जा सकता।
अध्यात्मवादी जीवन मनुष्य के गौरव की दृष्टि से, उज्ज्वल भविष्य की दृष्टि से, सामाजिक सुव्यवस्था की दृष्टि से और सर्वोपरि आत्मशान्ति एवं आन्तरिक संतोष की दृष्टि से नितान्त आवश्यक और अति महत्त्वपूर्ण है। ऐसा जीवन जीने के लिए प्रेरणा हो और अभिलाषा जागे, उसे सच्चे अर्थों में सौभाग्यशाली और दूरदर्शी कहना चाहिए। ऐसा दिव्य जीवन जीने के जिए किसी को कपड़े रंगने-घर छोड़ने या भीख माँगने या वेश बदलने की जरूरत नहीं है। न सारे दिन जप, तप, व्रत, स्नान, देव-दर्शन, कथा-कीर्तन में संलग्न रहने की जरूरत है। थोड़े समय आत्मचिंतन और ईश्वरीय प्रकाश की प्राप्ति के लिए उपासना करना उचित है। पर इसका प्रभाव तो इस कसौटी पर आँका जायेगा कि अध्यात्मवाद के सिद्धान्तों और आदर्शों को किस सीमा तक हमारी विचारणा, आस्था और कार्य-पद्धति में कितना स्थान मिला? शरीर और मन को सुख देने वाली तृष्णाओं से कन को मोड़कर उन्हें आत्मकल्याण के प्रयोजनों में किस सीमा तक लगाया जा सका, इस मार्ग पर चलाने वाले को आरम्भिक कदम (१) सादा जीवन (२) उच्च विचार की संगति मिलाते हुए चलना पड़ता है। विलास और आडम्बर की पूर्ति के लिए जो ढेरों समय और ढेरों पैसा लगाता रहता है उसे बचाकर ही आदर्शवादी प्रयोजनों के लिए अपनी क्षमता का एक अंश लगाया जा सकना सम्भव हो सकता है। जो जितना खर्चीला और आडम्बरपूर्ण जीवनक्रम चला रहा होगा उसकी उतनी ही आवश्यकताएँ उलझनें तथा चिन्ताएँ तथा व्यस्तताएँ बढ़ेंगी इसलिए दिव्यत्व का आरम्भ मितव्ययता से किया जाता रहा है। उच्च विचारों का सीधा सम्बन्ध सदाचार, नम्रता, सादगी और साधना से है। औरों से अधिक अपना प्रदर्शन करने की या सुख भोगने की लिप्सा को जो जितना घटाता चलेगा उसे अपने तथा अपने परिवार के निरर्थक खर्च और आडम्बर अनावश्यक लगेंगे और आत्मकल्याण के लिए-लोक कल्याण के लिए अधिक समय, मन और शक्ति लगा सकना संभव हो जाता है। यह परिवर्तन जहाँ भी दिखाई दे वहाँ आध्यात्मिकता की प्रकाश की किरणें अवतरित होना आरम्भ हो गईं, यह माना जा सकता है।
उपर्युक्त दो चरणों के अतिरिक्त आध्यात्मिक जीवन के अगले तीन चरण और हैं जा (३) ‘मातृवत परदारेषु’ (४) ‘पर दृव्येषुलोष्टवत्’ (५) ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ के रूप में उठते हैं। यदि साहसपूर्वक इन्हें अपना लिया जाये तो इस यात्रा का आगामी क्रम आसानी से चल पड़ेगा। जितनी कठिनाई है वह उपरोक्त आरम्भिक पाँच चरणों में ही है। स्त्रियों के प्रति पवित्रता की उच्च भावनाएँ रखना अध्यात्मवादी के लिए आवश्यक और स्वाभाविक है। नर और नारी में तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं। दोनों की शारीरिक मानसिक बनावट में यत्किंचित् ही अन्तर है। प्रजनन की आवश्यकता पड़ने पर काम-क्रीड़ा की उपयोगिता हो सकती है पर सामान्य समय में जिस प्रकार पुरुष-पुरुषों के प्रति, नारी-नारियों के प्रति काम विचार मन में नहीं लाते उसी प्रकार नर और नारी में भी परस्पर स्वाभाविक साधना बनी रह सकती है। कामुक दृष्टि विशुद्ध रूप से एक मनोविकार है जो सम्भव-असम्भव का विचार छोड़कर उच्छृंखल मृगतृष्णा में अकारण मन को भटकाता और सारे चिन्तन तन्त्र को अस्त−व्यस्त एवं दूषित करके रख देता है। नर-नारी की और नारी-नर की शारीरिक, मानसिक, आत्मिक सुन्दरता एवं महानता को देखें, समझें और प्रसन्नता व्यक्त करें इससे हर्ज नहीं। पर यदि कामुकता, उपभोग, जुगुत्सा जैसी शोषक एवं पतनोन्मुख दृष्टि से एक दूसरे को देखें तो वह दृष्टि दोष असंख्य मानसिक एवं सामाजिक उलझनें, विकृतियाँ उत्पन्न करेगा। नारी को आयु की दृष्टि से माता, बहिन और पुत्री की दृष्टि से देखना चाहिए। अपनी पत्नी को सखा-सहचर, मित्र और भाई जैसे समता वर्ग में रखा जा सकता है। कामुकता की पाप दृष्टि नितांत अनावश्यक और अस्वाभाविक है। प्रजनन के लिए उपयुक्त अवसर पर कुछ समय के लिए अपने दाम्पत्य जीवन में थोड़ी आवश्यकता पड़ सकती है। उसके अतिरिक्त शेष सारा समय और सारा मन भिन्न लिंग वाले व्यक्ति के प्रति स्वाभाविकता और पवित्रता में ही ओत प्रोत रहना चाहिए। यह दृष्टि शोधन ही सच्चे अर्थों में ब्रह्मचर्य है। इसका विवाहिता, अविवाहिता सभी पालन कर सकते हैं और अपने आत्मबल ओर ब्रह्मवर्चस को अभीष्ट मात्रा में बढ़ा सकते हैं। धन ठीकरी के समान अर्थ और अनुपयोगी मानना आध्यात्मिकता का चौथा चरण है। हम केवल श्रमअर्जित, ईमानदारी और उचित साधनों से कमाये हुए धन की ही इच्छा करें और वह जितना भी न्यूनाधिक कमाया जा सकता हो उतने में ही निर्वाह का बजट बनायें।
आध्यात्मिकता का पाँचवाँ चरण यह है कि हम अपने समान बस के दुःख की और दूसरे के दुःख में अपने दुःख की अनुभूति जोड़ें। अपना सुख बाँटने और दूसरों का दुःख बाँट लेने की आकांक्षा हमें वसुधैव कुटुम्बकम् के उच्च आत्म-स्तर तक पहुँचा देती है। पीड़ित मानवता की सेवा करने की इस स्थिति में उत्कृष्ट अभिलाषा जागती है और अपने चारों ओर बिखरे पड़े पिछड़ेपन, अज्ञान, अनाचार, पाप और पतन को हटाकर उसके स्थान पर मानवीय देव आदर्शों की प्रतिष्ठा करने का उल्लास उमड़ता है। आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना से ओत-प्रोत मनुष्य जिस तरह अपने व्यक्तिगत कष्टों और अभावों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। उसी तरह व्यापक क्षेत्र में मानवता पर लगे कलंक को धो डालने और धरती पर स्वर्ग अवतरण जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए व्याकुल रहता है और क्षुद्र स्वार्थों की कीचड़ मे से निकलकर लोकमत के लिए अपने आपको समर्पित कर देता है। आत्मिक जीवन जीने वाले को उपयुक्त पाँच कदम उठाने का जैसे ही साहस हुआ कि उसकी अगली मंजिल सहज ही पूरी होने लगती है और आत्मा को परमात्मा के रूप में परिणित करने का प्रत्यक्ष आनन्द इसी जीवन में मिलने लगता है।
हर दिन को एक नया जन्म समझें और उसका सदुपयोग करें
हमारा कितना सौभाग्य है कि सुर-दुर्लभ मनुष्य शरीर मिला और कितना दुर्भाग्य है कि उसे पेट प्रजनन की पशु प्रवृत्ति से ही नष्ट-भ्रष्ट नहीं किया वरन् पाप और पतन का वह कलंक और ओढ़ लिया जो कीट-पतंग रहते तो न ओढ़ना पड़ता।
जीवन के सदुपयोग की समस्या, हमारी सबसे बड़ी महत्त्वपूर्ण और सबसे सारगर्भित समस्या है। दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का तकाजा है कि उसे सुलझाया जाये। उसे उलझी हुई छोड़कर बालक्रीड़ा में दिन गुजारते रहना इतनी बड़ी भूल है कि जिसके लिए चिरकाल तक असीम पश्चाताप करने के अतिरिक्त और उपचार न रह जायेगा।
शरीर और परिवार के निर्वाह भर के लिए ही अपने पास शक्ति-सामर्थ्य हो सो बात नहीं है वरन् बारीकी से सोचा जाये तो प्रतीत होगा कि उसके अतिरिक्त भी हमारे पास कितना समय, धन एवं बल शेष रह जाता है जिसे चाहें तो आत्मिक प्रयोजन की पूर्ति के लिए ईश्वर की नियोजित कर सकते हैं। बाधा इतनी ही है कि अज्ञान के आवरण ने हमें इस बुरी तरह जकड़ रखा है कि इन्द्रियों की वासना, मन की तृष्णा एवं कुटुम्बियों की अवांछनीय मोह-ममता के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। औचित्य का तकाजा यह है कि हम निर्वाह और सामाजिक कर्तव्य का पालन जितनी शक्ति शरीर और परिवार के लिए लगावें, उसे उचित प्रगति करते रहने लायक बनाये रहें और शेष सामर्थ्य को जीवनोद्देश्य के लिए लगावें। जीवन को शरीर और आत्मा का सम्मिलित व्यवसाय माना जाना चाहिए और दोनों को उसका समान लाभ मिलना चाहिए। शरीर और उसका परिवार तो उपार्जन का सारा लाभ उठाता रहे और आत्मा के हाथ कुछ भी न लगे तो इसे अनीति ही कहा जायेगा। विवेकशीलता इसमें है कि दोनों के हित का ध्यान रखा जाये। शरीर की लालसाओं और आवश्यकताओं को पूरा किया जाये पर आत्मा की भूख, शांति और प्रगति को सर्वथा उपेक्षित न छोड़ दिया जावे। हमें अपने अन्तःकरण में बैठे भगवान की भी आवाज सुननी चाहिए और उस निर्देश के लिए भी अपना कुछ कर्तव्य निर्धारित रखना चाहिए। ऐसा उभयपक्षीय संतुलित जीवन ही सार्थक कहा जा सकता है अन्यथा आत्मा के हितों को पददलित करते रहने और सारा मनोयोग माया पर ही निछावर कर देने की रीति-नीति अन्ततः मूर्खतापूर्ण सिद्ध होगी और महँगी पड़ेगी।
आध्यात्मिक प्रगति के दो पक्ष हैं— (१) अपने दोष-दुर्गुणों, दुष्प्रवृत्तियों, दुर्भावों, कुविचारों एवं कुसंस्कारों को खोजें और उनके निराकरण का प्रबल प्रयत्न करें। साथ ही गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का अधिकाधिक समावेश करते हुए पूर्णता प्राप्त करने के लिए अग्रसर हों। (२) इस संसार को भगवान का विराट् रूप मानें और उसे अधिक सुरभित, सुगंधित, सुविकसित बनाने के लिए निर्वाह से बची हुई सारी सामर्थ्य लगायें। ईश्वर की पूजा प्रसन्नता का केन्द्र लोकमंगल के लिए नियोजित परमार्थ प्रयोजनों को ही माने, और फैले हुए पिछड़ेपन अज्ञान एवं अनाचार को हटाने के लिए जो कष्ट सहना पड़े उसे उच्चकोटि की तपश्चर्या मानें। इन दोनों पक्षों पर जितना ध्यान दिया जायेगा और प्रयत्न किया जायगा उसी क्रम से आत्मिक प्रगति होती हुई और आत्मशक्ति मिलती हुई तत्काल दिखाई देने लगेगी।
जीवन और मृत्यु को सहचर बनाकर चलने की भावना यदि मन में बनी रहे तो यह ध्यान बना रहेगा कि वर्तमान अवसर सदा ही बना रहेगा। जो सुविधा आज मिली है, उसका अधिक से अधिक सदुपयोग किया जाये। इसका एक प्रयोग यह है कि, सबेरे आँख खुलते ही, कुछ क्षण बिस्तर पर पड़े हुए यह विचारें कि आज हमारा नया जन्म हुआ है और रात को सोते समय तक समाप्त हो जाने वाला है। इसलिए उस एक दिन को जीवन मानकर उसके प्रत्येक क्षण का सदुपयोग कर लिया जाये। हर दिन नया जन्म हर रात नई मौत, इस मंत्र को जपने की जरूरत नहीं, इसे हृदयंगम किया जाना चाहिए और इसी आधार पर दिनचर्या एवं मनोदशा निर्धारित की जानी चाहिए।
समय की सम्पत्ति है, उसके मूल्य पर ही प्रगति और समृद्धि खरीदी जाती है। हमें एक क्षण भी आलस्य, प्रमाद में बर्बाद नहीं करना चाहिए वरन् ऐसी दिनचर्या बनानी चाहिये जिससे सारा समय पूरी तरह व्यस्त बना रहे। मनोयोगपूर्वक किया हुआ श्रम और व्यवस्थित रूप से नियोजित किया हुआ श्रम और व्यवस्थित रूप से नियोजित किया हुआ समय हमारे सामने अगणित ऋद्धि-सिद्धियाँ और सफलताएँ सहज ही प्रस्तुत करता है। ऐसी दिनचर्या जिसमें समय की बर्बादी के लिए कोई गुंजाइश न हो और शरीर तथा आत्मा के स्वार्थों का ध्यान रखते हुए क्रम निर्धारित किया गया हो, वस्तुतः उच्चकोटि की बुद्धिमत्ता है।
दिन भर के क्रियाकलाप के ऊपर बारीकी से ध्यान रखा जाये कि सांसारिक कर्तव्यों में कुछ उपेक्षा तो नहीं हुई और मानसिक दृष्टि से दोष-दुर्गुणों को हाथ-पैर फैलाने को तो मौका नहीं मिल गया। क्रोध, आवेश, ईर्ष्या, द्वेष, छल, अनाचार के भाव जब भी मस्तिष्क में आवें विरोधी उत्कृष्ट विचारों से उन्हें भिड़ा देना चाहिए। यह भिड़न्त जब भी होगी कुविचार तत्काल भाग खड़े होंगे। वे तभी विकसित होते हैं जब उन्हें बेरोक-टोक बढ़ने दिया जाता है। जिस प्रकार शत्रु के आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए सेना सदा तैयार रहती है, उसी तरह हमें हर कुविचारों, से लड़ने के लिए स्तर के सद्विचार तैयार रखने चाहिए, ताकि दुर्भावनाओं का आक्रमण होते ही उन्हें लड़ पड़ने के लिए जुटाया जा सके। साथ ही सद्विचारों के कार्यान्वित होने के लिए अपनी दिनचर्या में जुटा रहने का भी अवसर देना चाहिए, ताकि सत्प्रवृत्तियों सक्रिय एवं अभ्यस्त होती चली जायें। पूरा समय इसी प्रकार शारीरिक और मानसिक सतर्कता से बिताया जाये तो उस दिन के नये जन्म में आश्चर्यजनक आत्मशान्ति एवं आत्मिक प्रगति परिलक्षित होगी।
रात को सोते समय दिन भर की गतिविधियों का लेखा-जोखा लेना चाहिए और पिछले दिनों की तुलना में जो प्रगति हुई हैं उसके प्रति संतोष अनुभव करें। साथ ही यह भी देखें कि आज शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से क्या-क्या भूलें हुई हैं जो चूक हुई है उन्हें भविष्य में अधिक सतर्कता के साथ रोकने के संकल्प के अतिरिक्त कुछ प्रायश्चित भी करना चाहिए। गाल में चपत, उठक, बैठक, खड़े रहना, भोजन का कुछ अंश जुर्माने में कम कर देना आदि शारीरिक दण्ड यदि एकान्त में देते रहा जाये तो भविष्य में वैसा न करने की याद बनी रहती है और प्रायश्चित भी हो जाता है। उसके बाद शान्तचित्त से सांसारिक राग-द्वेषों से छुटकारा पाकर निर्मल मन से नींद की गोद में जाते हुए अनुभव करना चाहिए कि हमने निर्मल मन से विदाई ली और एक दिन का जन्म सार्थक बना लिया।
इस क्रम से यदि नित्य हर नया दिन नया जन्म, हर नई रात मौत की भावना करते हुए दिन बिताये जायें तो जीवनोद्देश्य के लिए आशाजनक प्रगति होती चली जायेगी। (१) दोष-दुर्गुणों का निवारण और गुण, कर्म, स्वभाव में सत्प्रवृत्तियों का समावेश (२) कुत्साओं और कुण्ठाओं में डूबे हुए मानव-समाज का पिछड़ापन दूर करने वाले लोकमंगल प्रयत्नों में अधिकाधिक तत्परता, इन दो लक्ष्यों की ओर हम जितना ध्यान देंगे, उतनी ही जीवन की सार्थकता अनुभव होती चली जायेगी।
स्वाध्याय दैनिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकता
मनुष्य का मन कोरे कागज या फोटोग्राफी की प्लेट की तरह है जो परिस्थितियाँ, घटनाएँ एवं विचारणाएँ सामने आती रहती हैं उन्हीं का प्रभाव अंकित होता चला जाता है और मनोभूमि वैसी ही बन जाती है। व्यक्ति स्वभावतः न तो बुद्धिमान है और न मूर्ख, न भला है और न बुरा। वस्तुतः वह बहुत ही संवेदनशील प्राणी है। समीपवर्ती प्रभाव को ग्रहण करता है और जैसा कुछ वातावरण मन−मस्तिष्क के सामने छाया रहता है उसी ढाँचे में ढलने लगता है। उसकी यही विशेषता परिस्थितियों की चपेट में आकर कभी अधःपतन का कारण बनती है। कभी उत्थान का।
आगरा जिले के खंदौली गाँव के निकट शिकारियों ने भेड़िये की माँद में एक छः वर्षीय बालक पाया। मादा भेड़िये ने कहीं से उठाये इस बच्चे को खाया नहीं वरन् उसे अपना दूध पिलाकर पाल लिया। जब यह बच्चा पकड़ा गया तो भेड़िये की तरह चार पैर से चलता, बोलता और सिर्फ कच्चा माँस खाता था। सर्वत्र यही सिद्धांत लागू होता है। अपनी मौलिक प्रतिभा लेकर तो कोई बिरले ही जन्मते हैं, आमतौर से सामने प्रस्तुत परिस्थितियाँ ही विचारों और आकांक्षाओं का सृजन करती हैं। उसी आधार पर व्यक्तित्व का एक कार्यक्रम ढलने लगता है। विचारों का उच्च स्तर पर ढालना मानवीय विकास की आधारभूत आवश्यकता है। प्राचीनकाल में सुसम्पन्न व्यक्ति भी अपने बालकों को निविड़ वन प्रदेशों में ऋषियों के समीप गुरुकुलों में सुशिक्षण के लिए भेजते थे। यों पढ़ाई-लिखाई के लिए नौकर, ट्यूटर, राजमहलों में भी रहते थे, रखे जा सकते थे पर परिष्कृत वातावरण में रहने के कारण मनोभूमि का लाभ उन महान् व्यक्तित्वों के सान्निध्य में ही मिल सकता था। इसलिए हर विवेकवान सत्संग का लाभ उठाने के लिये न केवल बच्चों को ऋषिकुलों में भेजता था वरन् स्वयं भी तीर्थयात्रा वनवास, वानप्रस्थ आदि के बहाने उस वातावरण में रहने का प्रयत्न करता था ताकि उस प्राण प्रवाह में अपने को प्रभावित कर सकना संभव हो सके।
व्यक्तित्व की उत्कृष्टता के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता उस विचारणा की है जो आदर्शवादिता से ओत-प्रोत होने के साथ-साथ हमारी रुचि और श्रद्धा के साथ जुड़ जाये। यह प्रयोजन दो प्रकार से पूरा हो सकता है। एक तो आदर्शवादी उच्च चरित्र महामानवों का दीर्घकालीन सान्निध्य, दूसरा उनके विचारों का अवगाहन व स्वाध्याय। वर्तमान परिस्थितियों में पहला तरीका काफी कठिन है। एक तो तत्त्वदर्शी महामानवों का एक प्रकार सर्वनाश हो चला। श्रेष्ठता का लबादा ओढ़े कुटिल, दिग्भ्रान्त, उलझे हुए लोग ही श्रद्धा की वेदी हथियाए बैठे हैं। उनके सान्निध्य में व्यक्ति कोई दिशा पाना तो दूर, उलटा भटक जाता है। जो उपयुक्त हैं वे समाज की वर्तमान परिस्थितियों को सुधारने के लिए इतनी तत्परता एवं व्यस्तता के साथ लगे हुए हैं कि सुविधापूर्वक लम्बा सत्संग दे सकना उनके लिए भी संभव नहीं, फिर जो सुनना चाहता है वहीं कहाँ खाली बैठा है। इसलिए जिन सौभाग्यशालियों को प्रामाणिक महापुरुषों का सान्निध्य जब कभी मिल जाये तब उतने में ही संतोष कर लेना पड़ेगा। दीर्घकालीन सत्संग की संभावनाएँ आज की स्थिति में कम नहीं ही हैं।
दूसरा मार्ग ही इन दिनों सुलभ है। स्वाध्याय के माध्यम से मस्तिष्क के सम्मुख वह वातावरण देर तक आच्छादित रखा जा सकता है जो हमें प्रखर और उत्कृष्ट जीवन जी सकने के लिए उपयुक्त प्रकाश दे सके। स्वाध्याय में बौद्धिक भूख और आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए पेट को रोटी और तन को कपड़ा जुटाने से भी अधिक तत्परता के साथ प्रयत्नशील होना चाहिए। स्वाध्याय दैनिक नित्य कर्मों में शामिल रखा जाये, क्योंकि चारों ओर की परिस्थितियाँ जो निष्कर्ष निकालती हैं उनमें हमें निकृष्ट मान्यताएँ और गतिविधियाँ अपनाने का ही प्रोत्साहन मिलता है। यदि इस दुष्प्रभाव की काट न की गई तो सामान्य मनोबल का व्यक्ति दुर्बुद्धि अपनाने और दुष्कर्म करने में ही लाभ देखने लगेगा।
स्नान करने, दाँत माजने, कपड़े धोने और झाडू लगाने की नित्य आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि निरन्तर मलीनता की जो पर्त जमा होती रहती है, उसे जल्दी-जल्दी हटाये बिना स्वच्छता खतरे में पड़ जाती है। इसी प्रकार मन के ऊपर चारों ओर के गर्हित वातावरण का प्रभाव पड़ते रहने से जो मलीनता जमती है उसके परिष्कार का एकमात्र उपाय स्वाध्याय ही रह जाता है। जीवित या मृत महामानवों के विचारों, चरित्रों का प्रभाव जब चाहे तब, जितनी देर तक चाहें उतनी देर तक उनके साथ सामीप्य-सान्निध्य का लाभ ले सकते हैं। उनका साहित्य हमें हर समय उपलब्ध रह सकता है और अपनी सुविधानुसार चाहे जितना सम्बन्ध उसके साथ जुड़ा रखा जा सकता है। इस सम्बन्ध से माता का दूध पीने का लाभ उठाने वाले बच्चे तथा रक्तदान प्राप्त करने वाले रोगी की तरह हर किसी को स्वाध्याय द्वारा समुचित लाभ उठाने का अवसर मिल सकता है। पुस्तकों का मूल्य स्वल्प होता है पर उनके द्वारा जो प्रभाव उपलब्ध किया जा सकता है उसे बहुमूल्य या अमूल्य ही मानना पड़ेगा?
सत्साहित्य ने अगणित व्यक्तियों को ऊँचा उठने और आत्मबल सम्पन्न हो सकने का अवसर दिया है। भगवान श्रीकृष्ण गीता का ज्ञान सुनाकर एक अर्जुन को ही लाभ दे सके पर उस महाग्रन्थ ने न्यूनाधिक मात्रा में उस समय से लेकर अब तक करोड़ों-अरबों मनुष्यों को प्रकाश दिया है और उस प्रकाश के माध्यम से असंख्य ने जीवन लक्ष्य प्राप्त करने में सफलता पाई है। प्रेरक साहित्य सदा व्यक्तित्व, चरित्र, मनोबल और आत्मनिर्माण में सहायता करता रहा है। इस प्रेरणा से प्रभावित अगणित व्यक्ति तुच्छता के बन्धनों को तोड़कर महानता वरण करने में असमर्थ हुए हैं। अस्तु, उपासना, पूजा, अर्चना, तप, व्रत, दान आदि के समकक्ष ही ‘स्वाध्याय’ को भी पुण्य प्रयोजनों में अति आदरपूर्वक सम्मिलित किया गया है। तत्त्वदर्शियों ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि मनुष्य को स्वाध्याय बिना प्रमाद किये नित्य नियमित रूप से करना चाहिए।
इन दिनों इस संदर्भ में एक चिन्ता की बात यह बन गई है कि रूढ़िवादिता ने इस क्षेत्र में भी गहराई तक अड्डा जमा लिया है। सड़ी-गली, अप्रासंगिक और बेतुकी पौराणिक कहानियों की पुस्तकों को ही लोग धर्मग्रन्थ मान बैठे हैं और जो पुराना सो अच्छा की पृष्ठभूमि में उन्हें ही रोज-रोज दुहरा कर स्वाध्याय की लकीर पीटने लगे हैं।
इस निरर्थक विडम्बना से भला किसका क्या लाभ हो सकता है? स्वाध्याय के लिए वह चुना हुआ साहित्य ही उपयुक्त होगा जो व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने का व्यावहारिक मार्गदर्शन करे। आज व्यक्ति और समाज की परिस्थितियाँ प्राचीनकाल से भिन्न हैं, सो उनके समाधान भी युग के अनुरूप ही होने चाहिए। हर युग में स्थिति के अनुरूप मार्गदर्शन करने के लिए विचारक, तत्त्वदर्शी, युगद्रष्टा और देवदूत अवतरित होते रहे हैं। समय की भिन्नता के कारण को ध्यान में रखते हुए ही बार-बार और नये-नये संदेश लेकर आने वाले संदेशवाहकों की आवश्यकता पड़ती है। आज की परिस्थितियों के अनुरूप मार्गदर्शन इस युग के ऋषि ही दे सकते हैं और स्वाध्याय के लिए वैसे ही साहित्य की उपयोगिता हो सकती है।
कहना न होगा कि युग-निर्माण योजना के प्राचीनतम और नवीनतम का अनुपम सम्मिश्रण किया है। सृष्टि के आदिकाल से लेकर चले आ रहे सनातन धर्म सिद्धान्तों के आधुनिक बुद्धिवाद और विज्ञानवाद के साथ जोड़कर वर्तमान परिस्थितियों के उपयुक्त ऐसे समाधान प्रस्तुत किये हैं, जिन्हें विवेकवानों ने अद्भुत और अनुपम कहा है। स्वाध्याय के लिए यह सस्ता और छोटा दीखने वाला साहित्य वस्तुतः तथाकथित पोथी-पत्रों से हजार गुना अधिक महत्त्वपूर्ण है। स्वाध्याय के लिए उपयुक्त साहित्य जिसने व्यक्ति और समाज के सर्वांग विकास को सांगोपांग दिशाएँ प्रस्तुत की हों शायद ही अन्यत्र कहीं उपलब्ध है। जो कुछ सर्वश्रेष्ठ इस संसार में उपलब्ध है उन फूलों का सार-मधुर मधु ही इसे कहा जाये तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी। उचित यही होगा कि हर दिग्भ्रान्त करने वाली विभिन्न पुस्तकें पढ़ने की अपेक्षा स्वाध्याय के लिए युग-निर्माण साहित्य चुनें और उसे पढ़ने का क्रम नित्यकर्म की तरह अपने दिनचर्या में सम्मिलित कर लें।
प्रश्न—
(१) सिद्ध कीजिये कि मनुष्य संवेदनशील प्राणी है। (२) मनुष्य में विचारों एवं आकांक्षाओं का सृजन कैसे होता है? (३) मानवीय विकास की आधारभूत आवश्यकता क्या है? (४) प्राचीनकाल में छात्रों को ऋषिकुल में क्यों भेजा जाता था? (५) व्यक्तित्व की उत्कृष्टता किन-किन तत्त्वों पर निर्भर है? (६) स्वाध्याय क्यों आवश्यक है? (७) प्रेरक साहित्य के अध्ययन से क्या लाभ हैं? (८) स्वाध्याय के लिए कैसा साहित्य होना चाहिए? (९) युग निर्माण योजना के साहित्य पर प्रकाश डालें? (१०) स्वाध्याय को नित्यकर्म क्यों मानना चाहिए?
अपना महान महत्त्व समझें और अपने को सुधारें
हमें दुनियादारी का बहुत ज्ञान है पर अपने सम्बन्ध में एक प्रकार से अनजान ही बने हुए हैं। भूगोल, इतिहास, वाणिज्य, शिल्प, कला, विज्ञान, कानून, लोक व्यवहार आदि के सम्बन्ध में हमने बहुत कुछ जाना-सीखा है। उसके बल पर आजीविका कमाने और प्रतिष्ठा पाने में भी एक हद तक सफल हुए हैं। पर उस सबसे महत्त्वपूर्ण जानकारी से वंचित ही हैं, जिसके बिना वह सारा सीखा जाना और सिखाया जाना निरर्थक है। बाहर की जानकारी और चमक-दमक के आकर्षण में हम अपने को ही भूल बैठे हैं। अपना मकान बन जान से कितनी सुविधा होगी यह कल्पना तो है पर अपना व्यक्तित्व बन जाने से प्रगति की संभावनाएँ कितनी प्रशस्त हो जाती हैं यह पता ही नहीं। घर, कपड़े, बर्तन, फर्नीचर एवं शरीर की सफाई का महत्त्व तो मालूम है पर अन्तःकरण की स्वच्छता के फलस्वरूप हम कितने श्रद्धाभाजन बनते हैं यह तथ्य सूझता ही नहीं। शरीर और मस्तिष्क के बलवान ओर सुखी बनने के लिए हर संभव उपाय करते हैं। पर आत्मबल, मनोबल, प्रतिभा, दूरदर्शिता आदि की भी कुछ उपयोगिता है, यह बात सूझ नहीं पड़ती। तृष्णा और वासना की तृप्ति में जो अधिक सुख मिलता है उसके लिए मन बहुत ललचाता है और उसे प्राप्त करने का ताना-बाना निरन्तर बुनता रहता है पर यह समझ में नहीं आता कि आत्म-संतोष और आन्तरिक आनन्द जैसी कुछ दिव्य अनुभूतियाँ भी होती हैं और उनका भी अपना कुछ मूल्य होता है।
अपना आपा सबसे महत्त्वपूर्ण है। बाहरी दुनियाँ में जो कुछ दीखता अनुभव होता है उसकी अनुभूतियाँ अपनी आन्तरिक स्थिति पर निर्भर हैं। सूर्य चमकता रहे पर अपनी आँखें न हों तो उसकी रोशनी से क्या लाभ मिलेगा? अन्धे के लिए दिन और रात समान हैं। सूर्य का अस्तित्व उसे सुन्दर शोभा भरी वस्तुओं का दर्शन नहीं करा सकता है। जीभ में कोई बीमारी हो जाये तो बोलने और चखने में बहुत साधन उपलब्ध होने पर भी उससे क्या कुछ लाभ मिलेगा? कान बहरे हो जायें तो मधुर भाषण, संगीत आदि की परिस्थितियाँ संसार में भरीपूरी रहने पर भी वे अपने लिए समाप्त ही हो गई। अपना दिमाग खराब हो तो अपने-पराये का व्यवहार बदलते देर न लगेगी और जो उपलब्धियाँ आज हाथ बाँधे खड़ी रहती हैं उनमें से एक का भी अवसर न मिलेगा। शरीर चला जाये, प्राण निकल जायें तो समझना चाहिए कि प्रलय हो गई, न कोई हमारा न हम किसी के। जिस पर, जिन पर अधिकार समझते थे वे सभी पराये हो जायेंगे। उनसे सम्बन्ध टूट जायगा और प्रस्तुत वसुधा के उपयोग करने की कोई गुंजाइश न रहेगी।
जो कुछ इस संसार में है उसकी अनुभूति हम अपने ही मापदण्ड से करते हैं। गुरु ने युधिष्ठिर को भेजा कि नगर में जो बुरे आदमी रहते हैं उनका पता लगाकर आओ। वे कई दिन घूमे और तलाश करते रहे पर उन्हें सबमें अच्छाइयाँ ही दीखीं और लौटकर गुरु को अपनी असफलता बताई। दूसरे दिन दुर्योधन भेजे गये उन्हें नगर के अच्छे आदमी ढूँढ़ने के लिए कहा गया। कई दिन की तलाश के बाद उनने यही सूचना दी कि इस नगर में दोनों ही तरह के लोग रहते थे पर अपने दृष्टिकोण के अनुरूप उपर्युक्त दोनों छात्रों को केवल एक ही प्रकार के लोग मिले। संस्कार जैसा भी कुछ भला-बुरा दीखता है उसमें मूलतः अपना ही दृष्टिकोण काम करता हे। यदि उसे सुधार लिया जाय तो विक्षोभ भरी परिस्थितियाँ संतोषजनक बन सकती हैं। हर व्यक्ति और हर परिस्थिति में कुछ उज्ज्वल पक्ष रहता है। यदि उसे ही देखा जाये तो हमें सर्वत्र शुभेच्छा और शिक्षा बिखरी दिखाई पड़ेगी। लोगों में जो मिलता है वह ही पर्याप्त दीखेगा और क्षोभ, असंतोष व्यक्त करने के स्थान पर उस स्वल्प दीखने वाले सहयोग की तौल बढ़ जायेगी।
संसार में काँटे-कंकड़ बहुत हैं उन सबको हटा सकना बहुत ही कठिन है। पर यह सरल है कि अपने पैसे से जूते पहनने और बिना काँटे-कंकड़ों से कष्ट पाये निश्चिन्ततापूर्वक विचरण करें। सारी दुनिया को अपनी इच्छानुकूल चलाने वाला नहीं बनाया जा सकता पर अपना सोचने का ढंग ऊँचा उठा कर लोगों से बिना टकराये सरलतापूर्वक अपने को बचाकर रखा जा सकता है। सज्जनता के आगे दुर्जनों को भी नतमस्तक होना पड़ता है। कम से कम वे अपनी शांति भंग कर सकने में तो सफल कदाचित् ही हो पाते हैं।
बीमारियाँ बाहर से नहीं आतीं, हमारी आहार-विहार सम्बन्धी बुरी आदतों और प्रकृति के प्रतिकूल चलने से आती हैं। यदि संयमी व्यवस्थित और प्राकृतिक जीवन जिया जाये तो प्रकृति की गोद में स्वच्छन्द विचरने वाले दूसरे पशु-पक्षियों की तरह हम भी पूर्ण स्वस्थता और दीर्घ जीवन का आनन्द लाभ कर सकते हैं। अपनी भूलें ही हमें बीमारियों की आग में घसीट कर ले जाती हैं और असह्य कष्ट सहने के लिए विवश करती हैं। अपने शत्रु तथा निंदक अधिक बनते जाते हों और मित्र तथा प्रशंसक घटते जा रहे हों तो समझना चाहिए कि इसमें केवल बाहर वालों का ही सारा दोष नहीं है। वस्तुतः अपने में कुछ ऐसी कमियाँ आ गई हैं जिनके कारण लोग दूर हटते, खिन्न होते और विरोधी बनते चले जा रहे हैं। विद्या से हम वंचित रह गये। शिक्षा भी नगण्य है पर अपने निरन्तर और नियमित अध्यवसाय से अपने ज्ञान अनुभव को पहाड़ की तरह ऊँचा उठा लिया। निर्धनता के लिए भाग्य को दोष देना बेकार है। मितव्ययता, दूरदर्शिता बजट बनाकर खर्च करना और अर्थ स्रोतों से सम्बन्ध रखने वालों के साथ उदार मधुर सम्बन्ध रखने पर कोई भी व्यक्ति आर्थिक उन्नति की संभावनाएँ बढ़ा सकता है। जिसे कठोर परिश्रम से प्यार है वह दरिद्र क्यों रहेगा? जो हर काम को मनोयोगपूर्वक सोच-समझ कर और प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अच्छे से अच्छे ढंग से करता है उसे घाटा पड़ेगा और तंगी क्यों भुगतनी पड़ेगी?
चिन्ता, निराशा, भय, शोक, आशंका, उद्वेग, आवेश आदि मनोविकारों में जकड़े हुए व्यक्ति निरन्तर उदास, दुःखी, क्षुब्ध और रोते हुए दिखाई पड़ेंगे। पर जिसको यह मालूम है कि विवेक के आधार पर हर स्थिति में मस्तिष्क को संतुलित रखा जा सकता है और प्रतिकूलताओं से खिलाड़ियों की तरह हलके मन से लड़ा जा सकता है उसे हर सम्भावना और घटना बहुत स्वल्प महत्त्व की संसार में चलने वाले ढर्रे की तरह सामान्य प्रवृत्ति मात्र दीखती है। नाटक में विभिन्न अभिनय करने वाले नर जिस प्रकार खेल में प्रस्तुत किए जाने वाले हर्ष-शोक के प्रदर्शनों से प्रभावित नहीं होते उसी प्रकार इस संसार की रंगस्थली में जो उतार चढ़ाव आते हैं, उनमें कोई भी संतुलित मस्तिष्क वाला व्यक्ति अप्रभावित रह सकता है।
हमें बाहर कम और भीतर अधिक देखना चाहिए। दूसरों की समीक्षा कम और अपनी अधिक करनी चाहिए। दुनिया की गतिविधियों को पढ़ने, समझने से भी ज्यादा अपनी आन्तरिक स्थिति और प्रकृति को समझना चाहिए। परिवार और संसार को सुधारने से ज्यादा अपने सुधार पर ध्यान देना चाहिए। आत्मचिन्तन, आत्म-निरीक्षण द्वारा अपने अन्वेषण करें और देखें कि अपने गुण, कर्म, स्वभाव में क्या दोष दुर्गुण है जिनके कारण हमें पग-पग पर व्याधियों का सामना करना पड़ रहा है। प्रगति के पथ पर चलने के लिए जिस मनस्विता, प्रतिभा और चरित्रनिष्ठा की आवश्यकता हैं उसमें जितनी कमी हो उसे पूरा करने के लिए क्रमबद्ध योजना बनानी चाहिए। अपने जीवनोद्देश्य को समझें। मनुष्य जन्म के पीछे छिपे ईश्वर के प्रयोजन को समझें। तदनुरूप विचारणा बदलने और तदनुकूल कार्यपद्धति अपनाने का साहस उत्पन्न कर सकें तो समझना चाहिए कि आत्मबोध का लाभ मिला ओर आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो गया।
कर्तव्य परायणता-मानव जीवन की आधारशिला
आकाश के अधर लटके हुए ग्रह-नक्षत्र एक दूसरे की आकर्षण शक्ति के बल पर खिंचे हुए टँगे रहे हैं। यदि यह आकर्षण शिथिल हो जाये तो अन्तरिक्ष के शोभायमान यह सितारे अपनी कक्षा से च्युत होकर किसी दूसरे ग्रह से जा टकरायें या अनन्त आकाश की किसी दिशा में डूबकर-विलीन हो जायें। इन्हें अतीत काल से यथास्थान स्थिर रखने वाली और अपनी निर्धारित क्रियाप्रणाली में नियोजित किये रहने वाली शक्ति एक ही है-ग्रहों की पारस्परिक आकर्षण क्षमता इसके बिना किसी नक्षत्र का अस्तित्व एवं क्रियाकलाप एक क्षण भी स्थिर नहीं रह सकता।
मनुष्य जीवन की स्थिरता एवं प्रगति की आधारशिला है, उसकी कर्तव्य परायणता। यदि हम अपनी जिम्मेदारियों को छोड़ दें और निर्धारित कर्तव्यों की उपेक्षा करें तो फिर ऐसा गतिरोध उत्पन्न हो जाये कि प्रगति एवं उपलब्धियों की बात तो दूर मनुष्य की तरह जीवनयापन कर सकना भी सम्भव न रहे।
जीवन की हर विभूति कर्तव्य परायणता पर निर्भर है। हर उपलब्धि की स्थिरता एवं सुरक्षा, कर्तव्यनिष्ठा पर ही निर्भर है। हमें बहुमूल्य शरीर मिला है। उसे निरोग, परिपुष्ट एवं दीर्घजीवी तभी बनाया जा सकता है जब शौच, स्नान, स्वच्छता, कठोर श्रम, समय का पालन, आहार की सुव्यवस्था, इन्द्रिय संयम, विश्वास आदि की जिम्मेदारियों को ठीक तरह निबाहा जाये। मन की प्रखरता एवं समर्थता इस बात पर निर्भर है कि चिन्ता, शोक, निराशा, भय, क्रोध, आवेश आदि से उसे बचाये रखे और स्थिरता, एकाग्रता जैसे सद्गुणों से, सुसज्जित रखा जाये। यदि मन को वैसे ही जंगली घास-फूस और झाड़-झंखाड़ की तरह चाहे जिस दिशा में बढ़ने दिया जाये तो वह आप ही आप अपने लिए सबसे बड़ा शत्रु सिद्ध होगा। मन को साधने और सुसंस्कृत बनाने की जिम्मेदारी उस प्रत्येक व्यक्ति की है, जिसे मानसिक क्षमता का वरदान मिला है।
परिवार से जीवन में बहुत सुविधा और सुव्यवस्था रहती है। पर वे उपलब्धियाँ केवल उन्हीं को प्राप्त होती हैं, जो परिवार के हर सदस्य के साथ अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तत्परता, सावधानी और ईमानदारी के साथ निबाहते हैं। स्त्री केवल सेवा के लिए नहीं मिली है। उसके विकास, सुविधा, सन्तोष एवं स्वास्थ्य की हर आवश्यकता को पूरा करना भी कर्तव्य है। गाय उसी को दूध देगी, जो भरपेट चारा खिलायेगा। दाम्पत्य जीवन का आनन्द उसे मिलेगा जो अपना परिपूर्ण कर्तव्य पालन करते हुए उसका हृदय जीत लेगा। बच्चे उसी के सुसंस्कृत और सुविकसित होंगे, जो उन्हें प्यार, समय और सहयोग देकर विकासोन्मुख एवं सुसंस्कृत बनाने को निरन्तर तत्पर रहेगा। माता-पिता एवं गुरुजनों का वात्सल्य एवं आशीर्वाद उसे मिलेगा, जो उनकी सुविधा तथा इज्जत में कमी न आने देने का शक्ति भर प्रयत्न करेगा। भाई और बहिनों का अनन्त प्रेम और सहकार पाने की आशा उन्हें ही करनी चाहिए जो उनके लिए जान देता और भरपूर प्यार करता है। परिवार का आनन्द केवल कर्तव्यपरायण ही लेते हैं। इसके विपरीत जिन्होंने सुविधाएँ पाने का अधिकार तो जाना, पर कर्तव्य पालन की शर्त भूल गये, उनके लिये घर और नरक में कोई अन्तर नहीं रहेगा। मनोमालिन्य और कलह से घर का वातावरण विषाक्त बना रहेगा। न पत्नी जीवनसंगिनी बनकर रहेगी, न बच्चे आज्ञानुवर्ती होंगे। माता-पिता का असंतोष और भाई-बहिनों का द्वेष घर को मरघट बनाये रहेंगे। परिवार स्वर्ग उनके लिए है, जो पग-पग पर अपनी जिम्मेदारियाँ निबाहने में, साथियों की कमियों को सहन करने में तत्पर हों। नरक उनके लिए है, जो घर वालों से बड़ी-बड़ी आशाएँ रखते हैं, पर अपनी जिम्मेदारियों की ओर से आँखें मूँद बैठे हैं।
धन सबको अच्छा लगता है, उसे पाना और बढ़ाना सभी चाहते हैं पर कठोर श्रम, सतर्क जागरूकता, क्रमबद्ध सुव्यवस्था, हिसाब की स्वच्छता और मिलनसारी, पुरुषार्थ और प्रतिभा पर निर्भर है। इन दोनों गुणों को बढ़ाते रहने की जिम्मेदारी जिसने समझी और उसके लिए सतत प्रयत्न किया, वह सम्पन्नता का अधिकारी बना। जिसने मितव्ययता, बजट हिसाब, धूर्तों से सतर्कता, सुरक्षा की सामर्थ्य, सदुपयोग की योजना बनाकर पैसा खर्च किया वह यशस्वी हुआ और कमाने की तरह खर्च का आनन्द लेने का सौभाग्य भी प्राप्त किया। धन आकाश से नहीं बरसता और न जमीन में से निकलता है। चोरी चाण्डाली से जो धन आता है वह हाथ-पाँव चलाकर बारूद की तरह ‘भक्क’ से उड़ जाता है। उससे किसी को न शान्ति मिलती है, न आनन्द आता है। सम्पदा और सम्पत्ति के उपार्जन एवं उपयोग के साथ उनके उत्तरदायित्व जुड़े हुए हैं, जो उन्हें निबाहना जानता है, उसी को सार्थक सम्पन्नता का लाभ मिलता है।
गैर जिम्मेदारी, लापरवाह और अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने वाले अपना और सम्बन्धित व्यक्तियों का केवल अहित ही करते हैं। कर्मचारी को निरन्तर अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा किया करता है, मालिक के लिए केवल घाटा ही दे सकता है और दुत्कार का भाजन ही बन सकता है। चोर और चालाक होते हुए भी तत्पर व्यक्ति लाभदायक रहता है, किन्तु ईमानदारी और भला व्यक्ति होते हुए भी लापरवाही और गैर जिम्मेदारी का व्यवहार करने वाला अधिक हानिकारक सिद्ध होता है। बेईमान नौकर भी मालिक की हानि करते हैं पर गैर जिम्मेदार तो जहाँ रहेंगे वहाँ का पट्टाढार करके रहेंगे।
महत्त्वपूर्ण कार्य सदा उन्हीं के द्वारा सम्पन्न होते हैं जो कर्तव्य पालन को प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं। सैनिक का सबसे बड़ा गुण अनुशासन और अपने महान उत्तरदायित्व को शानदार ढंग से निर्वाह करे देना ही तो है। सन्त, ब्राह्मण, पुरोहित, नेता और प्रवचनकर्ता अपनी जिम्मेदारियों के प्रति निष्ठावान रहें तो मानव जाति का हित साधन कर सकते हैं।
शासन तन्त्र और गैर जिम्मेदारी ने इस देश को कितनी क्षति पहुँचायी है, उसका लेखा-जोखा लिया जाये तो वह अकाल, बाढ़, भूकम्प एवं दैवी प्रकोप से उत्पन्न होने वाली समस्त क्षति की अपेक्षा कई गुना संकट उत्पन्न करने वाली सिद्ध होगी। लाल फीताशाही, रिश्वत, कामचोरी, बेगार भुगतने, टालने की वृत्ति आदि दोषों ने शासनतंत्र को लुंज-पुंज करके रख दिया है। इस गैर जिम्मेदारी ने अराजकता से भी बढ़कर क्षति पहुँचाई है। यदि हमारे शासकीय कार्यकर्ता अपने-अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी और जिम्मेदारी से पालन करें तो देश का कायाकल्प होने में देर न लगे।
समाज के सदस्य-राष्ट्र का नागरिक होना भी मानवीय उत्तरदायित्वों से लदा हुआ है। अपनी सुविधा भी उसी सीमा तक चाहें जिससे दूसरों की सुविधा में व्यवधान उत्पन्न न हो यह हर किसी की नैतिक जिम्मेदारी है। सड़कों पर केले और नारंगी के छिलके फेंककर हम दूसरों को फिसल कर गिरने की कठिनाई उत्पन्न करते हैं। बायीं ओर रहने की अपेक्षा सारी सड़क को घेरकर चलना, सड़क और गलियों में यों की घर का कूड़ा फेंक देना, बच्चों को नालियों में टट्टी करना, बहुत रात गये तक लाउडस्पीकर चलाना, सार्वजनिक स्थानों को घेर कर बैठे जाना या गन्दा करना, नियत समय पर वचन का पालन न करना आदि ऐसी बातें हैं, जो देखने में छोटी लगती हैं पर इन्हीं से पारस्परिक सद्व्यवहारों में भारी क्षति पहुँचती है। सभ्य समाज का हर नागरिक अपनी जिम्मेदारी को समझता है और नैतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जिम्मेदारियों के प्रति सजग रहकर अपनी ओर अपने देश की प्रतिष्ठा बढ़ाता है।
अपने समाज के प्रति हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है। हम समाज के एक सदस्य है। समाज का वातावरण हमें अतिशय प्रभावित करता है। वैयक्तिक और सामाजिक प्रगति का द्वार तब खुलता है, जब लोग अपने शरीर और परिवार की तरह सामाजिक सुव्यवस्था और उत्कर्ष का समुचित ध्यान रखें और उसके लिए कष्ट सहने और त्याग करने को तैयार रहें। सामूहिक उत्कर्ष में जो जितनी रुचि लेता है और लोकमंगल के लिए जो जितना त्याग प्रस्तुत करता है, वह उतना ही बड़ा महामानव गिना जाता है।
आत्मा के प्रति हमारी जिम्मेदारी है, ईश्वर के प्रति भी। उन्हीं के कारण हमारा अस्तित्व है। आवश्यक है कि हम आत्मा की आवाज सुनें और परमात्मा द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हुए मानव जीवन को सार्थक बनाने के लिए प्रयत्नशील रहें।
असत्य व्यवहार-सद्भावना और सामाजिकता पर कुठाराघात
भीतर और बाहर की एकता जिसे सत्य के नाम से पुकारा है-मनुष्यता का सर्वप्रथम गुण है। हम जैसे है वैसा ही दूसरों के सामने अपने को प्रकट करें। जो मन में है वही वाणी से प्रकट करें। इस सच्चाई से अन्तरात्मा की निर्मलता बनी रहती है और चित्त प्रफुल्ल रहता है। इस प्रकार के शुद्ध अन्तःकरण में ही शांति रहती है और ईश्वरीय प्रकाश की किरणों का उद्भव होता है।
हम वस्तुतः जैसे हैं उससे भिन्न प्रकार का घोषित करें तो यह लोगों के साथ धोखा करना है। हम एक दूसरे पर सहज विश्वास करें तो ही पारस्परिक सद्भावना से रह सकते हैं। समाज की सारी व्यवस्था एक दूसरे के विश्वास पर चल रही है। यह विश्वास नष्ट हो जाये तो न तो एक-दूसरे पर भरोसा करेंगे और न समाज व्यवहार स्थिर रखा जा सकेगा। प्रेम, मित्रता, सहयोग, सहायता का आधार सज्जनता है। जिसे हम भला समझते हैं उसी से स्थिर सम्बन्ध बनाते हैं और उसी से कोई भरोसे का व्यवहार करते हैं, सज्जनता की परख यह है कि व्यक्ति अपनी असलियत यथावत प्रकट करता रहता है या नहीं। भले ही किसी ने अपनी शेखी जताने के लिए, रौब जमाने के लिए, बड़प्पन दिखाने के लिए बात बढ़ा-चढ़ाकर कही हो, लोग उसके बारे में झूठा होने की मान्यता बना लेंगे और फिर कभी महत्त्वपूर्ण प्रसंग में भी उसका भरोसा न करेंगे। असलियत छिपती नहीं वह आज नहीं तो कल प्रकट होकर रहती है। झूठ में एक बड़ी कमजोरी है कि वह थोड़े समय तक प्रभावित किये रह सकता है, वस्तुस्थिति देर-सबेर में प्रकट होकर रहती है। तब उस असत्यभाषी को अप्रामाणिक और अविश्वस्त जान लिया जाता है और उसकी सही बातें भी आशंका की दृष्टि से देखी और संदिग्ध मानी जाती हैं।
विश्वास खो बैठना संदिग्ध एवं अप्रामाणिक रहना मनुष्य का अशोभनीय पतन है। प्रतिष्ठा उसी की है जिसका विश्वास किया जाता है। जिसका विश्वास उठ गया जिसे अप्रामाणिक गिन लिया गया और जिसे दूसरों को भ्रम में डालने वाला मान लिया गया उसकी सामाजिक इज्जत चली गयी ही मानी जायेगी। छल चाहे पैसा कमाने के लिये किया गया हो या भ्रम में डालकर किसी गलत निष्कर्ष पर पहुँचाने के लिए, दोनों ही समान रूप से निन्दनीय हैं। ठगी निकृष्ट स्तर का अनाचार है। चोर, उठाईगीर भी आकस्मिक लाभ दाव लगाने में दूसरे की लापरवाही और अपनी चतुरता से प्राप्त करते हैं। किसी को विश्वास दिलाकर झूठे सिद्ध नहीं होते। दूसरे प्रकार के जुआरी, लुटेरे, आक्रमणकारी, झगड़ालू को जो करना होता है अपना समझ और जता कर करते हैं। जो भरोसा कुछ दिलाता है और करता कुछ हैं, बताया कुछ है और होता कुछ है, उसे तो ऐसा कायर कहा जायेगा जिसने दूसरे की भलमनसाहत का अनुचित लाभ उठाया। यदि वह पहले ही झूठ मान बैठता या बात को संदेह की दृष्टि से देखता और भरोसा न करता तो सम्भवतः वह ठगी में न आता पर उसकी सज्जनता ही कहिए कि आदमी को आदमी मानकर उसकी इनसानियत पर भरोसा किया। इस प्रकार ठगा जाने वाला जितना नुकसान उठाता है ठगने वाला उससे अधिक घाटे में रहता हैं क्योंकि ठगे जाने वाले ने पैसे की या दूसरी तरह से हानि उठाई होगी जो सहज ही कुछ दिनों में पूरी की जा सकती है पर जिसने असत्य व्यवहार से अपना विश्वास खो दिया वह उस व्यक्ति की दृष्टि में तथा दूसरे जानकारों की दृष्टि में आजन्म अविश्वस्त रहेगा और कभी किसी की सच्ची घनिष्ठता, आत्मीयता, मैत्री न प्राप्त कर सकेगा। असत्य व्यवहार से व्यक्ति की धूर्तता सिद्ध होती है और धूर्त से कोई मतलब के लिए ऊपर मन से चापलूसी भले ही करे पर अन्तःकरण से कोई उसकी प्रामाणिकता स्वीकार न करेगा और न उसे गहरा मित्र बनायेगा। यह क्षति इतनी बड़ी है जिसकी पूर्ति आसानी से नहीं हो सकती।
दूसरों को धोखा देना एक प्रकार से अपने आप को ही धोखा देना है, अन्तरात्मा इस गिरावट को स्वीकार करती है और निरन्तर धिक्कारती है। जिसे अपनी वस्तुस्थिति तक प्रकट करने का साहस नहीं होता उस कायर का आत्मबल कहाँ टिकेगा। बहादुरी यहाँ से शुरू होती है कि व्यक्ति दूसरों से बिना डरे अपनी स्थिति ज्यों की त्यों प्रकट कर दे और फिर यथार्थता के कारण जो भी स्थिति सामने आये उसे सहन करे। वस्तुस्थिति से, भिन्न बात बताकर यदि दूसरों को अँधेरे में रखा और धोखेबाजी के फलस्वरूप कुछ लाभ उठा लिया तो यह प्रकारान्तर से मित्र बनकर विश्वास अर्जित करने और दूसरे क्षण उसकी पीठ में छुरा मारने की तरह विश्वासघात करके यदि कुछ कमा लिया तो इस असत्य भाषण को कोई कमाई करने की कला नहीं मान लेना चाहिए। यह तो लुटेरेपन की तरह एक लौकिक अपराध ही कहा जायेगा। ऐसी रीति-नीति अपनाने वालों को चतुरों की नहीं, अपराधियों की पंक्तियों में ही खड़ा किया जायेगा।
असत्य व्यवहार एवं असत्य भाषण करना, असत्य विश्वास दिलाना, अपनी मान्यता के विपरीत कुछ का कुछ बता देना, अपनी स्थिति को छिपाकर दूसरी तरह की प्रकट करना, अपने इरादों को छिपाना, यह सब असत्य भाषण के अन्तर्गत ही आता है। केवल झूठ बोलना ही असत्य नहीं है, अन्य प्रकार से अपने द्वारा किसी को भ्रम में डाल देना यह सारी क्रिया-कलाप असत्य की परिधि में आता है। उसे चाहें तो दूसरे शब्दों में छल या ठगी भी कहते हैं। भले ही किसी का पैसा ठग गया हो पर विश्वास को ठग लेना भी कुछ कम पाप या अपराध नहीं है।
असत्य को पातकों में मूर्धन्य माना गया है हर कर्तव्यनिष्ठ नागरिक से आशा की गई है कि वह सत्य का ही अवलम्बन करे। यह मानवीय कर्तव्य का शुभारम्भ है कि हम परस्पर एक-दूसरे को सही ही जानकारी दें और उचित ही विश्वास दिलाएँ। इसी आधार पर एक-दूसरे पर भरोसा कर सकेगा और पारस्परिक सहयोग की उस शृंखला को अग्रगामी बना सकेगा जिस पर प्रगति तथा समाज व्यवस्था पूर्णतया अवलम्बित है। यदि हम एक-दूसरे को गलत जानकारी देने की रीति-नीति अपना लें तो फिर कोई किसी पर क्या और क्यों विश्वास करेगा। परस्पर संदेह, आशंका, अविश्वास और प्रवंचना की बात ही सोचते रहें तो न सहयोग देते बनेगा न लेते। इस स्थिति में प्रेम और मैत्री के नाम पर अन्तरंग में पुलकन और उल्लास भरने वाले तत्त्वों का पनप सकना भी सम्भव न रहेगा। आशंका का आतंक हर बात में हर व्यक्ति के प्रति सन्देह ओर अविश्वास करने के लिए प्रेरित करेगा। उन परिस्थितियों में श्रद्धा भावना कौन किसी पर आरोपित कर सकेगा। सज्जनता का व्यवहार करते हुए ठगे जाने का सन्देह यदि मन में बना रहा तो सभी में घृणा और धूर्तता की गन्ध आयेगी तब कोई किसी को अपना कैसे समझेगा और कैसे उसकी ओर से निश्चिन्त रह सकेगा। तब किसी को किसी से कुछ आशा भी न रहेगी। वचन का पालन ओर विश्वास जब मनुष्य अपने को एकाकी ही अनुभव करेगा और यह समझेगा कि वह धोखेबाज सियारों और भेड़ियों के बीच किसी प्रकार निर्वाह मात्र कर रहा है।
दाम्पत्य जीवन से लेकर लेन-देन के व्यवसाय-व्यापार तक हर व्यवस्था के पीछे कुछ सुनिश्चित आश्वासनों का आधार माना जाता है। यदि उनकी आधारशिला हिल जाये, एक-दूसरे को झूठा, ठग, जालसाज ओर विश्वासघाती जाने बैठें तो परस्पर निर्वाह कैसे होगा और सहयोग की गाड़ी के पहिये साथ-साथ कैसे लुढ़केंगे? एक झूठा व्यक्ति अपने दुर्व्यवहार से अनेक को आतंकित एवं आशंकित करता है इससे व्यापक क्षेत्र में अनिश्चितता फैलती है। झूठ को इसीलिए सबसे बड़ा पातक माना गया है कि इससे आत्मा अपनी दृष्टि में दुराव के कारण अगणित शारीरिक, मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं, परस्पर अविश्वास उत्पन्न होते हैं, परस्पर अविश्वास उत्पन्न होने के अतिरिक्त समाज व्यवस्था की नींव हिलती है जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। असत्य का अवलम्बन हम हँसी-मजाक में भी न करें यही उचित है।
बेईमानी का नहीं, ईमानदारी का मार्ग अपनायें
लगता ऐसा है कि जल्दी और अधिक कमाने के लिए बेईमानी का प्रयोग करना आवश्यक है। क्योंकि धनवान लोगों में से अधिकांश ऐसे दीखते हैं, जिनके क्रिया-कलाप में बेईमानी का पुट मिलता है। ईमानदार लोगों में से बहुत करके गरीब दीखते हैं, इसलिए सामान्य बुद्धि से यही प्रतीत होता है कि हम भी ईमानदार रहेंगे तो गरीब बन जायेंगे। चूँकि इन दिनों धन की प्रमुखता है। धन के आधार पर ही अधिक सुविधा-साधन और सफलता, सम्मान की उपलब्धि होती है। इसलिए मोटी बुद्धि से स्थिति का अवलोकन करने वाले और बहुसंख्यक जिस रास्ते चलें, उसी पर चलने वाले लोग आमतौर से उसी ढर्रे को अपना लेते हैं, जो पास-पड़ोस के लोग अपनाते दीखते हैं। आज की व्यापक क्षेत्र में फैली हुई बेईमानी का यही प्रथम कारण है।
वस्तुस्थिति को बारीकी से तलाश करने पर बुद्धि-भ्रम हो जाना स्वाभाविक है। बेईमानी की गरिमा स्वीकार करके लोग बुद्धि-भ्रम से ही ग्रस्त हुए हैं। वास्तविकता वैसी है नहीं। बेईमानी से धन नहीं कमाया जा सकता। कमा लिया जाये तो स्थिर नहीं रखा जा सकता। लोग जिन गुणों से कमाते हैं, वे दूसरे ही हैं। बेईमानी की आड़ में कुछ अनुपयुक्त लाभ प्राप्त कर लिया जाये तो इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि उसका परिणाम लाभदायक होता है। साहस, परिश्रम, सूझ-बूझ, मधुर भाषण, व्यवस्था आदि वे गुण हैं, जो उपार्जन करते हैं। बेईमानी तो अपयश, अविश्वास, घृणा, असहयोग, राजदण्ड, आत्मग्लानि आदि दुष्परिणाम ही उत्पन्न करती है। वस्तुतः लोग सद्गुणों के आधार पर कमाते हैं। बेईमानी का तात्पर्य है दूसरों को धोखा देना, यह तभी सम्भव है जब उस पर ईमानदारी का आवरण चढ़ा हो। किसी को ठगा तभी जा सकता है जब उसे अपनी ईमानदारी एवं विश्वसनीयता के बारे में आश्वस्त कर दिया जाये। यदि किसी को यह शक हो जाये कि हमारे साथ बेईमानी करने के लिए ताना-बाना बुना जा रहा है तो वह ठगाई में न आयेगा और चालाकी से मिलने वाला लाभ न मिल सकेगा। बेईमानी तभी लाभदायक हो सकती है, जब वह ईमानदारी की आड़ में भली प्रकार छिपा ली जाये। असलियत जैसे ही प्रकट हुई, बेईमानी करने वाला न केवल उस समय के लिए वरन् सदा सदा के लिए उन लोगों से अपना विश्वास खो बैठता है और लाभ कमाने के स्थान पर उल्टा घाटा खाता है।
बेईमानी का प्रतिफल घृणा, अविश्वास, असहयोग, राजदण्ड और आत्मदण्ड है, उसमें उपार्जन की कोई क्षमता नहीं। उपार्जन तो सद्गुण करते हैं। उन्हीं में उत्पादक तत्त्वों का समावेश है। संसार में बड़े काम, बड़े व्यापार, बड़े आयोजन ईमानदारी के आधार पर जमे, बड़े और सफल हुए हैं। जिसने अपनी विश्वस्तता का सिक्का दूसरों पर जमा दिया, अच्छी, सही, खरी चीजें उचित मूल्य पर दीं और व्यवहार में प्रामाणिकता सिद्ध कर दी, लोग उस पर मुग्ध हो गये और सदा-सर्वदा के लिए उसके ग्राहक, प्रशंसक एवं सहयोगी बन गये। उन्नति का रहस्य यही है। जिसकी प्रामाणिकता है, उसका भविष्य उज्ज्वल है, किन्तु जो अपनी मूर्खता के कारण बदनाम हो गया उसका ईश्वर ही रक्षक है। आज के मित्र, कूल के दुश्मन बनेंगे, कल के मित्र परसों घृणा करने लगेंगे और अन्ततः उसका कोई सच्चा सहयोग न रह जायेगा। स्वार्थ के लिए चापलूसी करने वाले भी आड़े वक्त काम न आयेंगे। विश्वास करके कोई जोखिम उठाने के लिए वे ‘चापलूस’ मित्र भी समय पड़ने पर तैयार नहीं होते।
हमें यह भ्रम निकाल ही देना चाहिए कि बेईमानी कुछ कमा सकती है। वह शराब की तरह उत्तेजना मात्र है, जिससे ठगने वाला और ठगे जाने वाला दानों बुद्धि भ्रम में ग्रस्त हो जाते हैं। नशा उतरने पर नशेबाज की जो खस्ता हालत होती है, वही पोल खुलने पर बेईमान की होती है। उसका न कारोबार रहता है, न कोई ग्राहक सहयोगी। दूध में पानी और घी में वेजीटेबिल मिलाने वाला तभी कमा सकता है जब वह कसम खा-खाकर अपनी ईमानदारी और चीज के असलीपन का विश्वास दिलाता रहे। यह ईमानदारी और विश्वास की विजय है। जो कमाया गया उसका आधार यही था। यदि वे लोग अपनी दुकान पर पानी और अरारोट मिला दूध, मिलावटी घी का साइनबोर्ड लगावें और अपनी वस्तु के दोषों को प्रकट कर दें, तब पता चले कि क्या बेईमानी अपने विशुद्ध रूप से कुछ कमा सकने में समर्थ है।
वेस्ट एण्ड वाच कम्पनी की घड़ियाँ, फोर्ड मोटरें, पार्कर के पैन लोग महँगे होने पर भी खुशी-खुशी खरीदते हैं, क्योंकि वस्तु की प्रामाणिकता पर हर कोई भरोसा करता है। उनकी दिन-प्रतिदिन उन्नति होती चली जा रही है। इसके विपरीत नकली, कमजोर, खराब चीजें बेचने वाले आये दिन दिवालिया होते रहते हैं। पूँजी गँवा बैठते हैं और फिर उसी बदनामी के कारण नया काम कर सकने में भी सफल नहीं होते। बेईमानी देर तक छिपी नहीं रह सकती। पारे को पचाया नहीं जा सकता और पाप छिपाया नहीं जा सकता है। प्रकट होते समय दोनों ही भारी कष्ट देते हैं।
व्यापार की ही भाँति जीवन के हर क्षेत्र की सफलता का स्थायित्व कठोर श्रम, सद्गुण, सद्व्यवहार, सच्चाई, ईमानदारी एवं प्रामाणिकता पर निर्भर रहता है। चालाकी से एक बार ही किन्हीं को चमत्कृत करके अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है पर उस लाभ को स्थिर नहीं रखा जा सकता। चोर, डाकू, जुआरी, गिरहकट आये दिन बहुत पैसा कमाते रहते हैं, पर उस कमाई को स्थिर रखना या सदुपयोग करना उनके बस की बात नहीं होती। बादल की छाँह की तरह अनीति की कमाई भी अपव्यय और दुर्व्यसनों में देखते-देखते समाप्त हो जाती है।
सम्पत्ति से नहीं, सद्बुद्धि और सत्प्रवृत्तियों से उन्नति होती है। धनवान नहीं, चरित्रवान सुख पाते हैं। ईमानदारी से यदि कम भी कमाया जाये तो वह अनीति से अधिक कमाने की अपेक्षा श्रेयष्कर है। पसीने की कमाई फलती-फूलती है और हराम का पैसा पानी के बबूले की तरह नष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं, विदाई के समय वह बहुत पश्चाताप, सन्ताप और अपयश छोड़कर जाता है।
यदि बेईमानी से ही धन कमाया जाता है तो आवश्यक नहीं कि धनवान ही बना जाये। संसार में अधिकांश गरीब ही रहते हैं। हम भी उन्हीं में से एक रहें तो क्या हर्ज है? किन्तु वास्तविकता यह है कि धन ही नहीं, स्वास्थ्य, संतोष और सम्मान के क्षेत्रों में समृद्ध और सफल चरित्रवान एवं ईमानदार लोग ही बनते हैं। सफलता प्राप्त कर लेना ही काफी नहीं उससे आत्म-संतोष और जन-कल्याण एवं स्वस्थ परम्परा का अभिवर्द्धन होना चाहिए। सही तरीके से प्राप्त की हुई सफलता ही वास्तविक सफलता है। यदि किसी ने कोई उन्नति या उपलब्धि अनुपयुक्त रीति से प्राप्त की है तो उससे अनेक को वैसा ही करने की इच्छा उत्पन्न होगी और समाज में एक ऐसी प्रथा चल पड़ेगी, जो हर किसी के लिए अहितकर परिणाम ही उत्पन्न करती रहे।
सद्गुणों की खाद और सच्चाई का पानी पाकर ही व्यक्तित्व का पौधा बढ़ता और फलता-फूलता है। जादू से हथेली पर सरसों जमाई तो जा सकती है, कौतुक तो देखा जा सकता है पर उसका तेल निकालकर धन कमाया जा सके, ऐसा सम्भव नहीं होता। बेईमानी का चमत्कार तो देखा जा सकता है पर उसके सहारे सच्ची प्रगति और स्थिर सम्पदा का लाभ नहीं उठाया जा सकता। यदि हम वस्तुतः कुछ कहने लायक और आनन्द दे सकने लायक उपलब्धियाँ प्राप्त करना चाहते हैं तो एक ही रास्ता है कि हम ईमानदारी और भलमनसाहत का जीवन-नीति की तरह हृदयंगम करें। सद्गुणों की सम्पदा से अपने व्यक्तित्व को सुसज्जित करते चलें। जिस प्रकार रुपये के बदले दुकानों पर बिकने वाली चीजें आसानी से खरीदी जा सकती हैं, उसी प्रकार सद्गुणों के मूल्य पर प्रगति की किसी भी दिशा में द्रुतगति से अग्रसर हुआ जा सकता है।
बेईमानी की रीति-नीति स्वीकार करने का प्रतिफल अपने लिए विपत्ति और समाज के लिए दुर्गति के रूप में ही प्रस्तुत होगा। हमें इस कंटकाकीर्ण पगडंडी पर चलने की अपेक्षा यही अच्छा है कि इस मार्ग पर चलने वालों की दुर्गति देखें और उतने से ही सावधानी बरतने लग जायें। इतिहास के किसी भी पृष्ठ पर यह तथ्य देखा जा सकता है कि विभूतियों और सम्पत्तियों का लाभ केवल उनके लिए सुरक्षित रहता है, जो सद्गुणी, चरित्रवान और ईमानदार हैं।
हँसती और हँसाती जिन्दगी ही सार्थक है
अपने पास दूसरों को देने के लिए धन-दौलत न हो, किसी को कुछ देने की स्थिति न हो तो भी हम एक वस्तु सदा सबको देते रह सकने में समर्थ हो सकते हैं और निरन्तर पुण्य और संतोष लाभ करते रह सकते हैं। उस वस्तु का नाम है-प्रसन्नता। यदि अपने स्वभाव में प्रसन्न रहने का समावेश कर लिया जाये, हँसने-मुस्कराने की आदत डाल ली जाये तो आप जहाँ कहीं रहेंगे वहाँ प्रसन्नता बिखेरते रहेंगे और जो कोई भी सम्पर्क में आवेगा प्रसन्न और प्रभावित होता चला जायेगा। अपने आपकी सन्तुष्टि भी प्रसन्नता की मनोदशा पर निर्भर है।
यह अनुमान सही नहीं है कि जो सुखी एवं साधन सम्पन्न होता है वह प्रसन्न रहता है। वस्तुस्थिति इससे बिल्कुल उलटी है। जो प्रसन्न रहता है वह सुखी और साधन सम्पन्न बनता है। प्रसन्नता विशुद्ध रूप से एक ऐसी मनोदशा है, जो पूर्णतया आन्तरिक सुसंस्कारों पर निर्भर रहती है। गरीबी में भी मुसकराते और कठिनाइयों के बीच भी जी खोलकर हँसने वाले असंख्य व्यक्ति ऐसे देखे जा सकते हैं। इसके विपरीत ऐसे भी अगणित लोग हैं, जिनके पास प्रचुर मात्रा में साधन सम्पन्नता भरी पड़ी है पर उनकी आँखें, नसें, तेवर तने और मुखाकृति रूठी रहती है। क्रुद्ध, चिन्तित, असंतुष्ट और उद्विग्न रहना एक मानसिक दुर्बलता मात्र है, जो अन्तःकरण की दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों में ही पाई जाती है। परिस्थितियाँ नहीं मनोभूमि का पिछड़ापन ही इस क्षुब्धता का कारण है। उदात्त और सन्तुलित दृष्टिकोण वाले व्यक्ति हर परिस्थिति में हमें हँसते-हँसाते रहते हैं। वे जानते हैं कि मानव जीवन सुविधाओं, असुविधाओं, अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं के ताने-बाने से बुना गया है। संसार में अब तक एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जन्मा, जिसे केवल सुविधाएँ और अनुकूलताएँ ही मिली हों एवं कठिनाइयों का सामना न करना पड़ा हो।
हर किसी के जीवन में कुछ अनुकूलताएँ रहती हैं, कुछ प्रतिकूलताएँ। प्रश्न इतना भर है कि कौन किसको कितना महत्त्व देता है जो अपनी प्रतिकूलताओं पर ही विचार करता रहेगा, इन्हीं की बाबत सोचेगा, उन्हें ही महत्त्व देगा, उसे प्रतीत होगा कि वह मात्र कठिनाइयों से घिरा हुआ है। अस्तु, उसे दुःखी रहना पड़ेगा। इस कठिनाइयों के निमित्त कारण जो भी प्रतीत होंगे, उन पर क्रुद्ध रहेगा। अधिक सम्पन्न लोगों के साथ अपनी तुलना करेगा तो अपने दुर्भाग्य पर चिढ़ आयेगी। इस स्तर पर अपनी मनोभूमि जमा देने वाला व्यक्ति सदा क्षुब्ध ही दिखाई पड़ेगा। उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन जुड़ जायेगा और जब भी अवसर मिलेगा वह अपनी व्यथा अथवा नाराजगी व्यक्त करते हुए अपनी मानसिक अस्त-व्यस्तता प्रकट कर रहा होगा।
इसके प्रतिकूल जिसने अपनी अनुकूलताओं पर विचार करना किया और अपनी तुलना पिछड़े लोगों के साथ करनी आरम्भ की, उसे लगेगा कि हम करोड़ों से अच्छे हैं हमारे पास जो है उसके लिए भी लाखों-करोड़ों तरसते हैं। इस तथ्य को जो समझ लेगा, वह अपने को सौभाग्यवान मानेगा और संतोष का बहुत बड़ा आधार प्राप्त कर लेगा। सभी सुविधाएँ किसे मिली हैं। जिसे हर सुविधा मिले तो उसे देवता या भगवान कहा जायेगा।
प्रसन्नता एक ईश्वरीय वरदान है और यह हर सुसंस्कृत मनोभूमि के व्यक्ति को प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो सकती है। जिसे शुभ देखने की आदत है वह प्रियदर्शी सर्वत्र आनन्द मंगल देखेगा, ईश्वर की अनुकम्पा और लोगों की सद्भावना पर विश्वास रखेगा। ऐसी दशा में हँसने और हँसाने के लिए उसके पास बहुत कुछ होगा। किन्तु जिन्हें अशुभ चिन्तन की आदत है, दूसरों के दोष-गुण और अपने अभाव-अवरोध ढूँढ़ने की आदत है, जो इसी शोध में लगे रहते हैं और जो प्रतिकूलताएँ दीखती हैं, उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर सोचते हैं, अपने चारों ओर केवल दुष्टता और विपन्नता ही दिखाई देती है, ऐसे लोगों को क्षुब्ध ही रहना पड़ेगा। वे असमंजस, खिन्नता ओर उद्विग्नता ही अनुभव करते रहेंगे। रोष उनकी वाणी से और असन्तोष उनकी आकृति से टपकता रहेगा, ऐसे व्यक्ति स्वयं दुःखी रहते हैं और अपने सम्पर्क में आने वाले दूसरों को दुःखी करते रहते हैं।
मनुष्य जीवन की एक भारी विडम्बना है कि वह सृष्टि का मुकुटमणि और संसार के समस्त प्राणियों की तुलना में अधिक साधन-सम्पन्न होते हुए भी अपने को दुर्भाग्यग्रस्त माने और दुःखी रहे। यह एकाकी मनोभूमि अर्द्धांग पक्षाघात के रोगी की तरह हैं, जिसका एक ओर का आधा शरीर तो काम करता है और दूसरी ओर निर्बलता, रुग्णता ओर पीड़ा की स्थिति बनी रहती है, हम जितनी देर जितना बढ़ा-चढ़ाकर अपनी प्रतिकूलताएँ सोचेंगे, उसी अनुपात से अपने रोष और विक्षोभ को बढ़ा लेंगे।
हमें क्रुद्ध, रुष्ट असन्तुष्ट ओर क्षुब्ध नहीं रहना चाहिए। इससे मस्तिष्क में नई विकृतियाँ उत्पन्न होती और बढ़ती चली जाती हैं। आग जहाँ रहेगी, वहाँ जलायेगी। असन्तोष जहाँ रहेगा, वहीं विक्षोभ पैदा करेगा और उससे सारा मानसिक ढाँचा लड़खड़ाने लगेगा। चिड़चिड़ा मनुष्य एक प्रकार का पागल ही है। दुःखी निराश और चिन्तित रहने वाले को सनकी और मूर्खों की पंक्ति में बिठाया जायेगा। ऐसा व्यक्ति अपने ही दुर्गुणों से अपने आपको जलाता-गलाता रहता है और अनेक शारीरिक-मानसिक रोगों से ग्रस्त होकर घोर अशांति की उद्विग्न जिन्दगी जीता है।
हँसते रहना एक दैवी गुण है, जिस पर अमीरों की सुविधाएँ निछावर की जा सकती हैं। हँसने की आदत चित्त को हल्का बनाती है और शरीर को नीरोग-दीर्घजीवी एवं सुन्दर बनने की सुविधा उत्पन्न करती है। अपना सबसे बड़ा उपहार और हँसने की आदत है। खिले हुए फूल के आस-पास जिस तरह तितलियाँ और मधुमक्खियाँ घिरी रहती हैं, उसी प्रकार हँसते-हँसाते रहने वाले व्यक्ति से समीपवर्ती लोग अनायास ही आकर्षित और प्रभावित होते हैं। प्रसन्नता की आवश्यकता सभी को है, हँसी का आनन्द हर कोई लेना चाहता है। मुसकराहट के साथ बिखरने वाला सौन्दर्य हर किसी की भी दिखाई पड़ती है, लोग उसकी ओर खिंचते चले आते हैं। मिठाई खरीदने वाले हलवाई की दुकान पर पहुँचते हैं। हर्ष और उल्लास की, प्रसन्नता और मुस्कान भी भूख हर किसी को प्रसन्नचित्त मनुष्य के पास खींचकर ले आती है। उसके मित्रों, समर्थकों, प्रशंसकों और सहयोगियों की कमी नहीं रहती।
दूसरों को हम सर्वथा निर्धन ओर अक्षम होते हुए भी जो बहुमूल्य उपहार निरन्तर देते रहते हैं, वह प्रसन्नता की अभिव्यक्ति ही है। चन्दन अपने चारों ओर सुगन्ध और पुष्प आस-पास शोभा-सौन्दर्य बिखरता है। हँसमुख और प्रसन्नचित्त मनुष्य अपने समीपवर्ती वातावरण में, परिचितों में हर्ष-उल्लास की लहरें उत्पन्न करता रहता है। संसार में दुःख बहुत हैं, दुःखियों की कमी नहीं। रोने और रुलाने वालों की भीड़ लगी है। चिढ़ने और चिढ़ाने वाले अगणित हैं। खोज उनकी है, जो हँसने और हँसाने की विभूतियाँ बिखेरते हुए अपनी आन्तरिक समर्थता और मानसिक प्रौढ़ता का परिचय दे सकें। ऐसे ही लोग इस संसार में आनन्द की अभिवृद्धि कर सकते हैं, उन्हीं का अनुदान समीपवर्ती लोगों के हृदय कलिका को खिला सकता है। कठिनाइयाँ अपने पुरुषार्थ से हल होती हैं पर दूसरों को उल्लास एवं उत्साह प्रदान कर हम किसी का भी चित्त हल्का कर सकते हैं और निराश जीवन में आशा की नई किरण बिखेर सकते हैं।
हँसना एक दैवी गुण है, हँसाना एक उत्कृष्ट स्तर का उपकार है। मुसकराता हुआ चेहरा भले ही काला-कुरूप क्यों न हो सदा अति सुन्दर लगेगा। प्रसन्नता एक आदत है, जो कुछ समय के निरन्तर अभ्यास से अपने अन्दर उत्पन्न की जा सकती है। अपनी सुविधाओं को देखें उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करें, सद्भावना ओर सत्प्रवृत्तियों का चिन्तन करें, हमें हँसने के लिए, प्रसन्न रहने के लिए बहुत कुछ मिलेगा। यदि हम हँसने और हँसाने का जीवन जी सके तो समझना चाहिए कि हमने एक सच्चे कलाकार जैसी मंगलमयी सफलता एवं उल्लास भरी उपलब्धि प्राप्त कर ली।
अपना ही नहीं, कुछ समाज का भी हित साधन करें
अन्य जीव अपने आप में पूर्ण हैं। अपनी आवश्यकताएँ अपने बलबूते स्वयं पूरी कर लेते हैं। आहार, निवास आदि के लिए वे किसी दूसरे पर निर्भर नहीं। पर मनुष्य की स्थिति ऐसी नहीं, उसका निर्वाह, विकास एवं स्थायित्व दूसरों की आशा पर पूर्णतया आश्रित है। अन्य जीवों के बच्चे जन्म के कुछ ही समय बाद अपने पैरों खड़े हो जाते हैं, पर मनुष्य का बालक दूध पीने, करवट लेने तक में समर्थ नहीं होता। उसकी विभिन्न व्यवस्थाएँ माता न जुटाए तो जीवित रह सकना सम्भव नहीं। अपने पैरों पर खड़ा होने लायक तो वह बीस-पच्चीस वर्ष की आयु में बनता है, तब तक उसे अभिभावकों की कृपा पर अवलम्बित रहना पड़ता है। भोजन, वस्त्र, चिकित्सा, शिक्षा, विवाह आदि का प्रबन्ध वे ही करते हैं। बोलना, बात करना वह दूसरों का उच्चारण सुनकर करता है। शिक्षा दूसरों के संग्रहीत ज्ञान के आधार पर होती है। किसी की लड़की आकर अपना घर बसाती है। चिकित्सा के लिए दूसरे के ज्ञान पर अवलम्बित रहना पड़ता है। कला-कौशल दूसरे सिखाते हैं। लाखों वर्षों से करोड़ों मनुष्यों द्वारा उपार्जित एवं संग्रहीत ज्ञान हमें मिलता है और तब कहीं कुछ सीख-समझकर किसी योग्य बन पाते हैं।
रेल, तार, डाक, प्रेस आदि आविष्कारों के आधार पर हमारी सुविधाएँ टिकी हुई हैं। व्यापार जिन आधारों से चलता है, वे अगणित मनुष्यों की सूझ-बूझ मेहनत के परिणाम हैं। छोटी-सी दियासलाई बनाने में जितने यन्त्र, श्रम, साधन एवं ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है, उनकी एक-एक प्रक्रिया का विकास लाखों, करोड़ों के सहयोग से ही सम्भव हुआ होता है। जंगलों, गुफाओं में रहने वाले साधु-महात्माओं को भी वस्त्र, माला, कमण्डल, कुल्हाड़ी, दियासलाई, खड़ाऊँ आदि की आवश्यकता पड़ती है। इसके बिना उनका निर्वाह नहीं होता। यह वस्तुएँ भी समाज के असंख्य व्यक्तियों के सहयोग श्रम, ज्ञान से ही उपलब्ध होती हैं। कहने का तात्पर्य इतना भर है कि मनुष्य ने जो कुछ पाया, कमाया, बढ़ाया है। उसकी स्थिति एवं प्रगति सब कुछ सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर है, इसलिए उसका स्वार्थ इस बात में समाया हुआ है कि सामाजिक वातावरण उत्तम बना रहे। यदि समाज में किसी तरह विपन्नता उत्पन्न होगी तो उसका प्रभाव अपने ऊपर पड़े बिना भी न रहेगा। मुहल्ले में दुष्ट, दुराचारी भरे पड़े हों तो अपनी इज्जत-आबरू तथा सुरक्षा खतरे में है। गाँव में हैजा फैले तो उसका प्रभाव अपने घर में भी जान-जोखिम खड़ी करेगा। पड़ोसी के छप्पर में आग लगे तो अपना छप्पर भी सुरक्षित न रहेगा। इसलिए हमें अपने-अपने बच्चों स्वार्थों की रक्षा के लिए सामाजिक जीवन के वातावरण को उत्कृष्ट बनाये रखने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। ऐसे प्रयत्न इसलिए भी आवश्यक हैं कि जिस समाज की सहायता से हमने अनेक सुविधाएँ प्राप्त की हैं, स्थिरता एवं प्रगति के उपहार पाये हैं, उसके प्रत्युत्तर में प्रवृत्त होकर अपनी मानवोचित कृतज्ञता प्रकट करें। जिससे कुछ पाया है उसे देना भी चाहिए, तभी ऋण से मुक्ति मिलती है। समाज-सेवा के लिए कुछ निरन्तर करते रहने का व्रत लेकर हमें समाज-ऋण से किसी कदर उऋण होने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।
पेट पालने के प्रयत्नों में जीवन की बहुमूल्य विभूति समाप्त नहीं कर दी जानी चाहिए। स्त्री-बच्चों की आवश्यकताएँ पूरी करते रहने में हमारी सारी क्षमता खर्च नहीं हो जानी चाहिए। पेट और परिवार से बाहर भी अपनत्व का विस्तार होना चाहिए। आत्म-विकास का यही रास्ता है कि हम अपनी आत्मीयता को व्यापक क्षेत्र में विस्तृत करें। दूसरे के सुख को अपना सुख और दूसरों के दुःख को अपना दुःख मानकर कुछ ऐसा भी सोचें, कुछ ऐसा भी करें जिससे दूसरों का दुःख घटे और सुख बढ़े। निश्चय ही किसी की इतनी सामर्थ्य नहीं कि लोगों के अभाव अपनी सारी सम्पत्ति देकर भी पूरी कर सके। इसी प्रकार चौबीस घण्टे का समय लोगों की सेवा करने में लगा दिया जाये तो भी बहुत थोड़े लोगों की तनिक-सी आवश्यकताएँ पूरी हो सकेंगी। इसलिए अन्न, वस्त्र, जल, दवा आदि बाँटकर समाज का पिछड़ापन कष्ट, अभाव एवं अवसाद दूर होने की कल्पना नहीं की जा सकती है।
संसार में सारे कष्ट दुर्बुद्धि एवं दुष्प्रवृत्तियों के कारण हैं। इसलिए रोग के कारण को समझकर जड़ पर ही कुठाराघात करना चाहिए। समाज-सेवा का सर्वोत्तम तरीका यह है कि लोगों की विचारणा एवं प्रवृत्तियों को निकृष्टता की स्थिति से उबारकर उत्कृष्टता की दिशा में मोड़ा जाये। लोग अपन रवैया और ढर्रा बदल दें तो अपने भीतर भरी हुई प्रचण्ड सामर्थ्य के आधार पर वे स्वयं ही अपने पिछड़ेपन एवं कष्टों का निवारण कर सकते हैं। हमें अपना सहयोग उनकी प्रवृत्तियों को इस ओर मोड़ने के लिए देना चाहिए। उनका ऐसा नेतृत्व करना चाहिए कि विघातक प्रवृत्तियों को छोड़कर वे रचनात्मक प्रवृत्तियों में रस लेने लगें और उनके अभ्यस्त बनकर अपना असंख्य दूसरों का भला कर सकें।
आज संसार ने उत्कृष्टता के आभूषण उतार दिये हैं और निष्कृष्टता का चोला धारण कर लिया है। विचार-पद्धति और कार्य-प्रणाली में निकृष्टता घुस पड़ने के कारण प्रेत-पिशाचों जैसे जीवन बन गये हैं और मरघट जैसा वीभत्स वातावरण बन गया है। धीरे-धीरे हम अन्तर्द्वन्द्वों में-गृह कलह में, परस्पर उत्पीड़न में निरत होकर सामूहिक आत्म-हत्या की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं। इन परिस्थितियों में मानव-जाति की एक ही सेवा हो सकती है कि बुद्धि-भ्रम, अविवेक एवं अशुभ चिन्तन से बचाकर नीर-क्षीर विवेचना, ऋतम्भरा प्रज्ञा का आश्रय लेने के लिए तत्पर किया जाये। आज की स्थिति में समाज की यही सबसे बड़ी सेवा है। विचार-क्रांति ही वर्तमान दुर्दशा को पलटकर धरती पर स्वर्ग का अवतरण सम्भव कर सकेगी।
विचार-क्रांति के लिए आदर्शवादी विचार-धारा का प्रतिपादन करने वाले पुस्तकालयों की सबसे बड़ी आवश्यकता है। देव-मन्दिरों की तरह आज ज्ञान-मन्दिरों की पुस्तकालयों की स्थापना नितान्त आवश्यक है, जिनसे जीवन को आदर्शमय बनाने और सामयिक उलझनों को सुलझाने वाला प्रकाश मिल सके। ऐसी पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ जहाँ आती हैं लोगों के पास तक उस साहित्य को पहुँचाने और लाने देकर अपनी कमाई को धन्य बना सकते हैं। पूर्वजों की स्मृति किसी को बनती हो तो उनके नाम पर पुस्तकालय ही स्थापित करना चाहिए। परस्पर मिल-जुलकर चन्दे से भी ऐसी संस्था स्थापित की जा सकती है। कोई ऐसा प्रबन्ध न हो सके तो व्यक्तिगत रूप से भी ‘झोला पुस्तकालय’ बनाकर घर-घर ऐसा प्रेरक साहित्य पहुँचाने का पुण्य-परमार्थ किया जा सकता है।
अपने देश में शिक्षा की बड़ी कमी है। लोग अभी भी शिक्षा की उपयोगिता समझ नहीं पाये हैं। देहातों में बहुत लोग अपने लड़कों को पढ़ने नहीं भेजते। लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज तो बहुत कम है। हमें टोलियाँ बनाकर घरों में जाना चाहिए और शिक्षा योग्य लड़के-लड़कियों को स्कूल भिजवाने की प्रेरणा देनी चाहिए। वयस्क पुरुषों के लिए तथा महिलाओं के लिए तीसरे पहर अथवा रात्रि को चलने वाली प्रौढ़-पाठशालाएँ स्थापित करनी चाहिए, पैसा या श्रम देकर ऐसी शिक्षा-संस्थाएँ लोग हर जगह चला सकते हैं। इन कार्यों के लिए सार्वजनिक धन-संग्रह भी किया जा सकता है। काम में लगे हुए व्यक्ति आगे पढ़ने के लिए जिनमें सुविधा प्राप्त कर सकें, ऐसे रात्रि विद्यालय तथा छात्रों की सहायता करने वाले कोचिंग स्कूल हर जगह चलने चाहिए। छोटे बच्चों के लिए मुहल्ले-मुहल्ले में शिशु मन्दिर होने चाहिए। शिक्षा का जितना विकास सम्भव हो सके सरकार और गैर सरकारी दोनों स्तरों पर इसके लिए पूरा-पूरा प्रबन्ध करना चाहिए। अपने 80 प्रतिशत अशिक्षित देशवासियों को साक्षर बनाकर ही हम उन्हें अविवेक, रूढ़िवादिता के चंगुल से निकाल सकते हैं।
आज की ज्वलन्त समस्याओं का स्वरूप समझने और उनका हल प्राप्त करने के लिए समय-समय पर, स्थान-स्थान पर विचार-गोष्ठियों के आयोजन होते रहना चाहिए जिनमें प्रश्न और उत्तर के रूप में आज की वैयक्तिक और सामाजिक समस्याओं का निराकरण की सुविधा सर्वसाधारण को मिल सके।
समाज सेवा का सबसे पहला कार्य जन-मानस में विवेकशीलता जगाना है, ताकि लोग अपनी अवांछनीय आदतें और सन्मार्ग पर चलने के लिए तत्पर हो सकें। यह कार्य जिन प्रयत्नों से हो सकता हो उन्हें सर्वोत्तम समाज-सेवा माना जायेगा। हममें से हर भावनाशील व्यक्ति को मन से इस प्रकार के कार्यों की व्यवस्था करने में संलग्न होकर अपना परम पवित्र कर्तव्य पालन करना चाहिए।
सज्जनता और मधुर व्यवहार मनुष्यता की पहली शर्त
किसके भीतर क्या है, इसका परिचय उसके व्यवहार से जाना जा सकता है। जो शराब पीकर और लहसुन खाकर आया होगा, उसे मुख से बदबू आ रही होगी। इसी प्रकार जिसके भीतर दुर्भावनाएँ, अहंकार और दुष्टता का ओछापन भरा होगा, वह दूसरों के साथ अभद्रतापूर्ण व्यवहार करेगा। उसकी वाणी से कर्कशता और असभ्यता टपकेगी। दूसरे से इस तरह बोलेगा जिससे उसे नीचा दिखाने, चिढ़ाने, तिरस्कृत करने और मूर्ख सिद्ध करने का भाव टपके। ऐसे लोग किसी पर अपने बड़प्पन की छाप नहीं छोड़ सकते, उलटे घृणास्पद और द्वेषभाजन बनते चल जाते हैं। कटुवाचन मर्मभेदी होते हैं और सदा के लिए शत्रु बना लेते हैं। कटुभाषी निरन्तर अपने शत्रुओं की संख्या बढ़ाता और मित्रों की घटाता चला जाता है।
दूसरों के साथ असज्जनता और अशिष्टता का बरताव करके कई लोग सोचते हैं, इससे बड़प्पन की छाप पड़ेगी, पर होता बिल्कुल उल्टा है। तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करने वाला व्यक्ति घमण्डी और ओछा समझा जाता है। किसी के मन में उसके प्रति आदर नहीं रह जाता। आश्रित परिवार के सदस्यों और कुछ स्वार्थ-सिद्धि के लिए कानाफूसी करने वालों के अतिरिक्त और किसी की हमें दिलचस्पी नहीं रह जाती। उद्धत स्वभाव के व्यक्ति अपना दोष आप भले ही न समझें, दूसरे लोग उन्हें उथला, हल्का मानते हैं और उदासीनता, उपेक्षा का व्यवहार करते हैं। समय पड़ने पर ऐसा व्यक्ति किसी को अपना काम नहीं आता। सच तो यह है कि मुसीबत के वक्त वे सब लोग प्रसन्न होते हैं। जिनको कभी तिरस्कार सहना पड़ा था। ऐसे अवसर पर वे बदला और कठिनाई बढ़ाने की ही बात सोचते हैं।
हमें संसार में रहना है तो सही व्यवहार करना भी सीखना चाहिए। सेवा-सहायता करना है तो आगे की बात है पर इतनी सज्जनता तो हर व्यक्ति में होनी चाहिए कि जिससे वास्ता पड़े उससे नम्रता, सद्भावना के साथी मीठे वचन बोलें, थोड़ी-सी देर तक कभी किसी से मिलने का अवसर आये तब शिष्टाचार बरतें। इसमें न तो पैसा व्यय होता है, न समय। जितने समय में कटुवचन बोले जाते हैं, अभद्र व्यवहार किया जाता है उससे कम समय में मीठे वचन और शिष्ट तरीके से भी बरता जा सकता है। जो बात कडुवेपन और रुखाई के साथ कही गई थी उसे ही मिठास के साथ उतनी ही देर में कहा जा सकता है। उद्धत स्वभाव दूसरों पर बुरी छाप छोड़ता है और उसका परिणाम कभी-कभी बुरा ही निकलता है। अकारण अपने शत्रु बढ़ाते चलाना, कुछ बुद्धिमानी की बात नहीं। इस प्रकार के स्वभाव का व्यक्ति अन्ततः घाटे में रहता है। जिसके साथ दुर्व्यवहार किया गया अप्रसन्न केवल वही नहीं होता वरन् जिनने उस प्रसंग को देखा, सुना है वे भी दुःखी और असन्तुष्ट होते हैं। उद्धतता के ओछेपन की बुरी छाप उन सुनने, देखने वालों पड़ती है और उसके मन में भी ऐसा व्यक्ति हेय स्तर का ही जँचता है। ऐसे लोग किसी का सच्चा सम्मान नहीं पा सकते और उसके बिना सहयोग भी कैसे मिलता है? एकाकी मनुष्य जिसे दूसरों का सहयोग न मिल सके। कभी कोई बड़ी प्रगति न कर सकेगा।
श्रेष्ठ उदार और सज्जन प्रकृति के मनुष्य सदा दूसरों का आदर करते हैं और हर किसी से सम्मान और मिठास भरे शब्द बोलते हैं। इसमें उनका जाता कुछ नहीं-अपने बड़प्पन की छाप ही दूसरों पर पड़ती है। उद्धतता से नहीं, सज्जनता से हम दूसरों का आदर पा सकते हैं। उन्हें अपना बना सकते हैं और ऐसे ही शिष्ट व्यवहार की आशा उनसे भी कर सकते हैं। सज्जनता में ही मनुष्य का वास्तविक बड़प्पन छिपा है और उसका प्रमाण मीठे वचन और शिष्ट व्यवहार से ही पाया जा सकता है। यह संसार कुँए की आवाज की तरह प्रतिध्वनि करता है। जैसा व्यवहार हम दूसरों के साथ करते हैं। लगभग उसी स्तर की प्रतिक्रिया उनसे हमें प्राप्त होती है। कटुवादी, अहम्मन्य और तिरस्कार का व्यवहार करने वाले लगभग वैसा ही व्यवहार बदले में पायेंगे। हो सकता है तत्काल किसी कारणवश लोग वैसा ही बरताव न करें पर उनके मन में वही भाव दूने-चौगुने वेग से अवश्य ही उठ रहे होंगे। अच्छा होता वे लड़ाई-झगड़े के रूप में तत्काल निकल जाते, पर यदि वे दबे पड़े रहे तो कालान्तर में ब्याज समेत छूटेंगे। तब और भी अधिक घातक सिद्ध होंगे। कटु व्यवहार की घातक प्रतिक्रिया जो दूसरों पर होती है, वह लौटकर अन्ततः अपने ही ऊपर आती है। हम दूसरे को तिरस्कृत, अपमानित करते हैं। अपने ही ओछेपन और निकृष्ट व्यक्तित्व को दुनिया के सामने प्रसिद्ध करते हैं।
सज्जनता, मनुष्यता का ही दूसरा नाम है, जिसमें सज्जनता नहीं उसे नर-पशु ही कहना पड़ेगा। हम सच्चे अर्थों में मनुष्य हैं, इसको प्रामाणित करने के लिए ही सज्जनता की रीति-नीति अपनानी चाहिए। इसका आरम्भ मधुर भाषण और विनम्र एवं शिष्ट व्यवहार से होता है। छोटे या बड़े किसी से भी बात करनी हो, तो हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि कटु या ओछे वचन बोलकर जहाँ उसे तिरस्कृत करते हैं। वहाँ अपने को भी ओछा सिद्ध करते हैं। हमें पहले अपनी चिन्ता करनी चाहिए। अपना स्वभाव स्तर और अभ्यास गिरा कर चाहे किसी की भर्त्सना की गई तो अपने लिए ही महँगी पड़ेगी दूसरे लोग गन्दे हैं, इसलिए हम क्यों गन्दे बनें? हमें अपना स्तर हर हालत में ऊँचा उठाये रहना चाहिए और जिससे भी-जो कुछ भी कहना हो-उसे कहें तो पर सज्जनता और शिष्टता की भाषा में ही बोलें। अच्छे शब्दों में भी हर बुरी-भली बात कही जा सकती है। इस कला की सीख लेना भलमनसाहत का पहला चिह्न है।
घर में छोटों से जो ‘आप’ या ‘तुम’ कहकर बोलना चाहिए। जहाँ आवश्यकता हो वहाँ नाम के आगे ‘जी’ भी लगाना चाहिए। ‘तू’ कहना अधिक निकटवर्ती स्त्री, पुत्र पौत्र आदि के लिए ही चलता है। इसमें आत्मीयता का पुट माना जाता है। पर इसमें दोष अपनी आदत बिगाड़ने का है। दूसरे वे लोग जिन्हें ‘तू’ से सम्बोधन किया जाता है, देखा-देखी दूसरों से भी वैसा ही कहने लगेंगे। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य एक मात्र दूसरे की आयु, शिक्षा, धन अथवा पद का विचार किये बिना एक दूसरे के प्रति नम्रता और आदर भरा व्यवहार एवं वार्तालाप करें।
जब हम किसी से मिलें या कोई हमसे मिले, प्रसन्नता व्यक्त की जानी चाहिए। मुसकराते हुए अभिवादन करना चाहिए और बिठाने-बैठने, कुशल समाचार पूछने और साधारण शिष्टाचार बरतने के बाद आने का कारण पूछना, बताना चाहिए। यदि सहयोग किया जा सकता हो तो वैसा करना चाहिए। अन्यथा अपनी परिस्थितियाँ स्पष्ट करते हुए सहयोग न कर सकने का दुःख व्यक्त करना चाहिए। इसी प्रकार यदि दूसरा कोई सहयोग नहीं कर सका है तो भी उसका समय लेने और सहानुभूति रखने के लिए धन्यवाद देना चाहिए तथा नाराजगी एवं अविश्वास उस हालत में भी व्यक्त नहीं करना चाहिए। साधारण पूछताछ का उत्तर भी मीठे और सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में ही देना चाहिए। रूखा, कर्कश, उपेक्षापूर्ण अथवा झल्लाहट, तिरस्कार भरा उत्तर देना ढीठ और गँवार को ही शोभा देता है। हमें अपने को इस पंक्ति में खड़ा नहीं करना चाहिए।
बड़े जो व्यवहार करेंगे बच्चे वैसा ही अनुकरण सीखेंगे। यदि हमें अपने बच्चों को अशिष्ट, उद्दण्ड बनाना हो तो ही हमें असभ्य व्यवहार की आदत बनाये रहनी चाहिए अन्यथा औचित्य इसी में है कि आवेश, उत्तेजना, उबल पड़ना, क्रोध में तमतमा जाना, अशिष्ट वचन बोलना और असत्य व्यवहार करने का दोष अपने अन्दर यदि स्वल्प मात्रा में हो तो भी उसे हटाने के लिए सख्ती के साथ अपने स्वभाव के साथ संघर्ष करें और तभी चैन लें जब अपने में सज्जनता की प्रवृत्ति का समुचित समावेश हो जाये।
हम अपनी और दूसरों की दृष्टि में सज्जनता और शालीनता से परिपूर्ण एक श्रेष्ठ मनुष्य की तरह अपना आचरण और और व्यक्तित्व बना सकें तो समझना चाहिए कि मनुष्यता की प्रथम परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये। उसके आगे के कदम नैतिकता, सेवा, उदारता, संयम, सदाचार, पुण्य, परमार्थ के हैं। इसमें भी पहली एक अति आवश्यक शर्त यह है कि हम सज्जनता की सामान्य परिभाषा समझें और अपनायें, जिसके अन्तर्गत मधुर भाषण और विनम्र शिष्ट एवं मृदु व्यवहार अनिवार्य हो जाता है?
साहस जुटायें-औचित्य अपनायें
भय हमारी स्थिरता और प्रगति में सबसे बड़ा बाधक है। कितने ही काम ऐसे हैं जिन्हें बहुत आसानी से किया जा सकता है पर भावी कठिनाइयों, असुविधाओं और अवरोधों की मिथ्या कल्पना करके हम आगे कदम बढ़ाने की हिम्मत ही नहीं करते और उस लाभ से अकारण ही वंचित हर जाते हैं जो सहज ही उठाया जा सकता था।
आन्तरिक दुर्बलता का बड़ा प्रमाण मनुष्य की भीरुता है और कायर मनुष्य उनसे अकारण डरता है। जिन बातों का हँसते-खेलते सामना किया जा सकता है या सहा जा सकता है, उनकी भयावह कल्पना गढ़कर डरपोक व्यक्ति राई को पहाड़ बना देता है और भी फिर उसे स्वनिर्मित भूत से डर-डर का प्राण सुखाता चला जाता है। भीरुता एक मानसिक रोग है और वह इतना कष्टकारक है कि ज्वर, दस्त, खाँसी, दमा आदि की अपेक्षा शरीर को कहीं अधिक क्षति पहुँचाता है। मन तो उसके कारण हर घड़ी उद्विग्न रहता है। ध्यान से देखा तो राई-रत्ती भर होती है और यह आशंका मूर्तिमान हो जाये तो उससे उतनी विपत्ति नहीं आती जितनी कि कल्पना की गई थी।
हमें शारीरिक रुग्णता और दुर्बलता की तरह ही मानसिक दुर्बलता से बचना चाहिए। काया-कष्ट अपने अंग की पीड़ा को देखकर समझा जाता है। मानसिक अस्वस्थता की परख इस आधार पर करनी चाहिए कि हमें कहीं कायरता और भीरुता ने तो नहीं आ घेरा है। भविष्य की अशुभ कल्पनाएँ करके कहीं अपना चित्त विक्षुब्ध या उद्विग्न तो नहीं बना रहता। यदि ऐसा हो तो हमें अपने आपकी भर्त्सना करनी चाहिए जिनने भयंकर विपत्तियाँ सामने आ खड़ी होने पर संतुलन नहीं खोया और साहसपूर्वक सामना करके अन्धकार को प्रकाश में बदल दिया।
अवरोध हर कार्य में आते हैं। प्रगति का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जहाँ सहज ही अभीष्ट उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती हों। किसी वर्ग के मनुष्य ऐसे नहीं है जिनमें केवल सज्जनता ही भरी पड़ी हो। घटनाक्रम अपनी इच्छानुकूल हो ऐसा नियम इस सृष्टि का नहीं है। प्रतिकूलताओं और विपरीतताओं से टकराकर अपने लिए रास्ता बनाने की प्रक्रिया हरी अग्रगामी को अपनाना पड़ी है। दुर्जनों को सज्जन अनायास ही नहीं बना लिया जाता। वरन् उन्हें बार-बार नरम-गरम करना पड़ता है। उनके आतंक की उपेक्षा करके साहसपूर्वक उन्हें यह बताना पड़ता है कि उन्हीं की मर्जी सब कुछ नहीं, न्याय और औचित्य का भी कोई स्थान है। आतंक की व्यर्थता और औचित्य की समर्थता अनुभव कराये बिना दुर्जनों को रास्ते पर लाने का और कोई मार्ग नहीं है, पर इस पर केवल साहसी ही चल सकते हैं। डरपोक तो अपनी कायरता को भाग्य के पर्दे में छिपा कर रोते-कलपते रहते हैं।
प्रतिकूल को अनुकूलता में बदलने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है। निर्धनता को सम्पन्नता में बिना कठोर श्रम किए कैसे बदला जा सकता है, दुर्बल शरीर का परिपुष्ट बनाने के लिए स्वास्थ्य साधना करनी पड़ती है और अशिक्षित, अविकसित मस्तिष्क को विद्वानों, मनीषियों जैसा सुविकसित बनाना हो तो मनोयोगपूर्वक अध्ययन के तप में संलग्न होना पड़ता है। जिसके भीतर से इस प्रकार का पराक्रम करने की हिम्मत न उठती हो उसके लिए सफलता और सम्पन्नता के सारे द्वार सदा के लिए अवरुद्ध ही पड़े रहेंगे।
ईश्वर उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करने का खड़े होते हैं। कहावत है कि हिम्मत वाले के लिए पहाड़ रास्ता देते हैं। मानवीय अन्तरात्मा में अपार शक्ति के स्रोत और सामर्थ्य के भंडार भरे पड़े हैं। पर इन्हें जगाने के लिए साहस का सम्बल चाहिए। संसार के अगणित महापुरुषों की जीवन गाथा गढ़कर इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि जन्मजात सिद्धियाँ साथ लेकर कोई नहीं आया। हर एक को कठिन परिस्थितियों से धैर्यपूर्वक स्वयं लड़ना पड़ा है और अपने लिए अपने हाथों स्वयं रास्ता बनाना पड़ा, अपनी मंजिल अपने पैरों चलनी पड़ी है। दूसरों ने तभी सहयोग दिया है जब देख लिया है कि इसमें बहादुरी कम नहीं। जब लोग किसी में कायरता भरी देखते हैं तो सहज ही अनुमान लगा लेते हैं कि इनकी नाव पार पहुँचने वाली नहीं। डूबने वाले के साथ कौन अपनी कीमती सहायता डुबोना पसंद करेगा? ऐसे लोगों को हर दिशा में असहयोग ही मिलता है। यद्यपि इस संसार में उदार सहायता की कोई कमी नहीं है।
अपने भीतर अनेक दोष-दुर्गुण भरे पड़े हैं यदि उन्हें जैसे का तैसा पड़ा रहने दिया जाये, उखाड़ने की हिम्मत न की जाये तो निश्चय ही अपना व्यक्तित्व औंधा और ओछा ही बना पड़ा रहेगा। इसे बाजार में कौड़ी मोल भी कोई नहीं खरीदेगा। शोषकों का एक विशाल घेरा अपने चारों ओर घिरा पड़ा है, जो उचित-अनुचित लाभ ही पूरा लेना चाहते हैं पर बदले में सहानुभूति तथा कृतज्ञता तक व्यक्त करना नहीं चाहते। इनके चंगुल में यदि ऐसा ही फँसे पड़े रहे तो हाड़-माँस कुछ बचने वाला नहीं है। औचित्य का प्रतिपादन और अनीति का प्रतिरोध यदि न किया जाये तो फिर न्याय की आशा नहीं रखना चाहिए और अपने आप को उस शोषण में ही गलाने के लिए तैयार करना चाहिए। यदि न्याय और औचित्य की आकांक्षा हो तो अपनी कठिनाई को साहसपूर्वक कहना चाहिए। कहना ही नहीं-सुधार के लिए अड़ना भी चाहिए। परिवर्तन इसी क्रम से होते रहे हैं, आगे होंगे पर यह है हिम्मत वालों का काम। कायर तो कोल्हू में पिलने वाले तिलों की तरह अपनी हड्डी-पसली के तेल निकलवाने के लिए ही जन्मते-मरते हैं। भाग्य भी केवल बहादुरों की सहायता करता है, कायरों की बात सुनने की शायद उसे भी फुरसत नहीं।
नैतिक अनाचार, राजनैतिक भ्रष्टाचार और सामाजिक कुरीतियों का एक चक्रव्यूह-सा बन गया है। उसे तोड़ा न जायेगा तो हम सब रोते -कलपते ही दिन गुजारेंगे। हिम्मत न जमी, अनौचित्य का प्रतिरोध न किया गया तो यह सघन अन्धकार ऐसे ही हजारों वर्षों तक चलता रहेगा। घर-परिवार के लोगों को अपने-अपने कर्तव्य पालने के लिए इंगित न किया गया तो उसी में इतनी अवांछनीयता जम जायेगी कि दम घुटने जैसी स्थिति को वहन करना कठिन हो जायेगा। हर अवांछनीय स्थिति बदली जा सकती है। पर उसके सुधार और प्रतिरोध की तो आवश्यकता पड़ेगी ही।
प्रचलित ढर्रे को बदले बिना अपना वर्तमान माया-मोह निष्ठ जीवन उत्कृष्टता और आदर्शवादिता के अनुरूप न ढाला जा सकेगा। शरीर की आदतें, मन की अभिरुचि, तृष्णा-वासना में डूबी पड़ी गतिविधियाँ जीवन की बर्बादी ही करेंगी। आत्मिक उत्कर्ष के लिए कुछ नया ढर्रा, कुछ नया क्रम, कुछ नई रीति-नीति अपनानी पड़ती है इससे अपने को भी अनोखा-सा लगता है और घर वाले भी व्यंग्य विरोध करते हैं। यदि उस परिवर्तन के लिए साहस न जुटाया जाये तो वही पुराने ढर्रे की अस्त-व्यस्त जिन्दगी जीनी पड़ेगी?
मस्तिष्क में न जाने कितने प्रकार के असंबद्ध, अनर्गल और अनुपयुक्त विचार चिरकाल से ऐसा अड्डा जमाये बैठे हैं कि अब उनके प्रति मोह और पक्षपात तक जुड़ गया है। यह सूझता तक नहीं कि इनमें कुछ अनौचित्य भी है। दूसरों को जिस ढर्रे पर चलते देखते हैं उसी पर चलने की अपनी भी इच्छा होती है। उचित-अनुचित का वर्ण भेद कौन करे? जो चल रहा है वह उचित है, इस मानसिक आलस्य ने हमारी मनोभूमि का अधिकांश भाग मूढ़ता एवं अविवेक भरे विचारों से ही घेर लिया है और हम ऐसी रीति-नीति अपनाये रहते हैं जो अपने को ही भले अच्छी लगे पर हर विचारशील उसे अशोभनीय और अग्राह्य ही प्रतिपादन करेगा। यदि औचित्य और न्याय पूर्ण मान्यताएँ अपनानी हों तो नीर-क्षीर विवेक की नीति अपनानी पड़ेगी और जो अनुपयुक्त है उसे छोड़ने और जो उपयुक्त है उसे ग्रहण करने का साहस जुटाना पड़ेगा।
हिम्मत एक आध्यात्मिक गुण है, सो हर प्रगतिशील के लिए उसे अपनाना ही उचित है। हम अपने स्वरूप को समझें, निर्मल रहें, प्रगति के लिए पुरुषार्थ करने और अनौचित्य से जूझने के लिए साहसपूर्वक कटिबद्ध हों तो इसी में अपनी महानता है।
आलस्य त्यागें, सुसम्पन्न बनें
छोटे से बीज में वृक्ष की विशालता सूक्ष्म रूप से छिपी रहती है। उसी प्रकार मानव-जीवन की महान सम्भावनाएँ उसकी श्रमशीलता में छिपी हुई हैं। अगणित विभूतियाँ, समृद्धियाँ, सफलता और महान सम्भावनाएँ मानव-जीवन में सन्निहित हैं पर सभी सुप्त रूप में पड़ी हैं। उन्हें जगाने के लिए श्रमशीलता की आवश्यकता है। जिन्हें परिश्रम से प्रेम है, जो मेहनत करने में, व्यस्त रहने मे रस लेता है, वह किसी भी दिशा में आशाजनक प्रगति कर सकता है। जिसने परिश्रम से जी चुराया उसके लिए प्रगति का हर द्वार बन्द होता चला जायेगा।
आलस्य और दुर्भाग्य एक ही वस्तु के नाम हैं। जो आलसी है, न श्रम का महत्त्व समझता है, न समय का मूल्य ऐसे मनुष्य को कोई सफलता नहीं मिल सकती। सौभाग्य का पुरस्कार उनके लिए सुरक्षित है, जो उसका मूल्य चुकाने को तत्पर हैं। यह मूल्य कठोर श्रम के रूप में चुकाया जाता है। समय ही भगवान की दी हुई सम्पदा है। हमारी हर श्वास बड़ी मूल्यवान है। यदि प्रस्तुत क्षणों का ठीक तरह उपयोग करते रहा जाये तो बूँद-बूँद से घट भरने की तरह अगणित सफलताएँ ओर समृद्धियाँ अनायास ही इकट्ठी होने लगेंगी। पर यदि समय को आलस्य में व्यर्थ गँवाते रहा गया तो फूटे बर्तन में से बूँद-बूँद से टपकने वाले दूध की जैसी दुर्गति होगी। हम सुख-सुविधाओं और सम्पदाओं से वंचित होते चले जायेंगे और केवल दरिद्रता और दुर्भाग्य भरा पश्चाताप हाथ रह जायेगा। विजयलक्ष्मी केवल पुरुषार्थी का वरण करती है। आलसी का भविष्य तो दुर्भाग्य का रोना रोने के लिए हैं।
भगवान ने मनुष्य जीवन में असंख्य महान सम्भावनाओं का समावेश किया है। हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने की सुविधा प्रस्तुत है, पर साथ ही यह भी नियन्त्रण रखा है कि उन विभूतियों का लाभ सत्पात्र ही उपलब्ध करें। सत्पात्रता का पहला चिह्न है-श्रमशीलता। कई अनैतिक और असदाचारी भी सफलताएँ प्राप्त कर लेते हैं, भले ही पीछे उन्हें कुमार्गगामिता का दण्ड भुगतना पड़े। पर संसार में एक उदाहरण ऐसा न मिलेगा, जिसमें परिश्रम के बिना बड़ी सफलताएँ प्राप्त की गई हों। इसलिए सद्गुणों की पंक्ति में नैतिकता से भी पहला नम्बर श्रमशीलता का आता है।
जिन्हें अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने में दिलचस्पी न हो, जिन्हें कुछ महत्त्वपूर्ण सफलताएँ पानी हों, उन्हें कठोर परिश्रम करने की आदत डालनी चाहिए और समय के एक-एक क्षण को व्यस्त रखने के लिए तत्पर रहना चाहिए। प्रगतिशील राष्ट्रों के नागरिक घोर परिश्रमी होते हैं। जिन समाजों ने अपना वर्चस्व प्रतिपादित किया है, उनका जातीय गुण कठोर श्रम करने में रस लेना रहा है। जिन व्यक्तियों ने उत्कर्ष किया है, उनने अपना एक-एक क्षण कड़ी मेहनत के साथ गुजारा है।
आलसी का भविष्य अन्धकारपूर्ण है। जिसे श्रम करने में रुचि नहीं, जो मेहनत से डरता है, आरामतलबी जिसे पसन्द है जो समय को ज्यों-ज्यों करके अस्त-व्यस्त करता रहता है, समझना चाहिए दुर्भाग्य उसके पीछे लग गया। वह कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकना तो दूर यदि संयोगवश उत्तराधिकार में कुछ मिल गया है तो उसे भी स्थिर न रख सकेगा। कहते हैं-लक्ष्मी आलसी के घर नहीं रहती और दारिद्रय वहीं घोंसला बनाता है, जहाँ आलस्य की सघनता छाई रहती है।
संसार में अनेक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों ने अनेक महान सफलताएँ सम्पादित की हैं। उनमें मूलतः कोई विशेषता एवं प्रतिभा न थी। सामान्य मनुष्यों जैसा ही शरीर और मन उनका भी था, पर एक गुण उन्होंने अपने में उत्पन्न किया-श्रम में रस लेना और निरन्तर मेहनत में संलग्न रहना। बस इस एक गुण ने ही उनकी प्रतिभा को निखारा, अनेक सद्गुण पैदा किये ओर विद्या, बुद्धि, धन, स्वाध्याय, सहयोग एवं सुविधा-साधनों से उन्हें भरा-पूरा बना दिया। जिस काम को हम मेहनत, लगन और दिलचस्पी के साथ हाथ में लेते हैं वह चमकने लगता है। जिसे बेगार भुगतने की तरह आधे मन से करते हैं, वह बिगड़ता और घटिया होता है। यही प्रगति का रहस्य है। जो आगे बढ़ना चाहता हो, ऊँचा उठना चाहता हो, उसे यह गुरु मंत्र गाँठ बाँध लेना चाहिए कि ‘‘निरन्तर कठोर श्रम करने में रस लिया जाये और एक क्षण भी व्यर्थ बर्बाद न किया जाये।’’
आराम की ऐसी जिन्दगी जिसमें कुछ काम न करना पड़े केवल निर्जीव, निरुद्देश्य, निकम्मे लोगों को रुचिकर हो सकती है। वे ही उसे सौभाग्य गिन सकते हैं। प्रगतिशील महत्त्वाकाँक्षी लोगों की दृष्टि में तो यह एक मानसिक रुग्णता मात्र है, जिसके कारण व्यक्ति का भाग्य, बल और वर्चस्व निरन्तर घटता ही जाता है। अपने देश का दुर्भाग्य श्रम के प्रति उपेक्षा करने की दुष्प्रवृत्ति के साथ आरम्भ हुआ है और वह तब तक बना ही रहेगा जब तक कि हम प्रगतिशील लोगों की तरह परिश्रम के प्रति प्रगाढ़ आस्था उत्पन्न न करेंगे।
अपने यहाँ लड़कियाँ वे सुखी मानी जाती हैं। जिन्हें हाथ से कुछ काम न करना पड़े। नौकर-नौकरानी सब काम किया करें और उन्हें आराम के दिन गुजारने का अवसर मिले। ऐसी महिलाएँ सदा शारीरिक और मानसिक दृष्टि से रुग्ण ही बनी रहेंगी। प्रसव के समय उन्हें बहुत कष्ट सहना पड़ेगा। आये दिन जुकाम, बदहजमी, सिर दर्द आदि दूसरी किस्म की बीमारियाँ घेरे रहेंगी। डॉक्टरों के महँगे बिल चुकाने पड़ेंगे और इन्जेक्शनों के दर्द-दण्ड सहने पड़ेंगे। श्रमशील महिलाएँ नीरोग रहती और स्वस्थ एवं दीर्घजीवी सन्तान उत्पन्न करती हैं। आरामतलबी को भ्रमवश सौभाग्य भले ही मान लिया जाय, अन्ततः यह गरीब मजदूरों के पल्ले पड़ने वाली सुविधाओं से भी अधिक महँगी पड़ती है।
अपने यहाँ रईस, अमीर, महन्त, विद्वान, कलाकार अक्सर शारीरिक श्रम से बचना चाहते हैं, फलतः वे रुग्ण बने रहते हैं और प्रस्तुत प्रतिभा से जो अपना और दूसरों का हित साधन कर सकते थे नहीं कर पाते। धोबी, मोची, राज, मजूर, चमार, कुम्हार, श्रमजीवी वर्ग को अपने यहाँ नीच समझा जाता है। मेहनत करने वाले नीच, आरामतलब ऊँच। इस मान्यता ने हमारे समाज में हरामखोरी को प्रोत्साहन दिया। फलस्वरूप हम दरिद्र होते चले गये। दूसरी ओर रूस, ब्रिटेन, जापान और अमेरिका आदि समृद्ध देशों के नागरिकों के कठोर श्रम में भारी अभिरुचि लेने की प्रवृत्ति को देखते हैं तो सहज ही यह पता चल जाता है कि उनकी समृद्धियों और सफलताओं का कारण क्या है? हालैण्ड, डेनमार्क, यूगोस्लाविया आदि कितने ही देशों की समृद्धि वहाँ के महिला वर्ग की श्रमशीलता पर ही निर्भर है। हमें भी यदि वर्तमान अज्ञान और दरिद्रता के दुःखदायी चंगुल से छूटना हो तो देश के हर नागरिक में कठोर श्रम करने की आलस्य से घृणा करने की और समय का एक भी क्षण व्यर्थ न गँवाने की प्रवृत्ति उत्पन्न करनी चाहिए।
हम विद्या से वंचित इसलिए नहीं हैं कि अमुक साधन नहीं। अशिक्षा का एकमात्र कारण इस ओर बरती जाने वाली उपेक्षा है। कोई व्यक्ति यदि एक दो घण्टा भी नियमित रूप से पढ़ने में लगाता रहे तो कुछ ही दिनों में अच्छा विद्वान बन जायेगा। परिश्रमी मनुष्य कभी भूखा-नंगा नहीं रह सकता। उपार्जन के अनेक द्वार उद्योगी के लिए खुले रहते हैं। जो मेहनत करेगा, नीरोग रहेगा। बेकार पड़े हुए चाकू को जंग खा जाती है, पर जो काम में आता रहता है, उसकी जिन्दगी बढ़ती है। तलवार वही तेज रहती और चमकती है जो शान के पत्थर पर घिसी जाती है। हीरा खराद पर चढ़कर कीमती बनता है। जिसे चमकना हो-जीवन का वास्तविक आनन्द लेना हो-उसे चाहिए कि तन्मयता, तत्परता ओर मनोयोगपूर्वक सामने प्रस्तुत कार्यों को पूरी मेहनत और दिलचस्पी के साथ करना सीखे।
‘‘खाली मस्तिष्क शैतान की दुकान’’ की कहावत सोलह आने सच है। जो फालतू बैठा रहेगा उसके मस्तिष्क में अनावश्यक और अवांछनीय बातें घूमती रहेंगी और कुछ न कुछ अनुचित, अनुपयुक्त करने तथा उद्विग्न, संतप्त रहने की विपत्तियाँ मोल लेगा। जो व्यस्त है, उसे बेकार की बातें सोचने की फुरसत नहीं। गहरी नींद भी उसी को आती है, कुसंग और दुर्व्यसनों से भी वही बचा रहता है। जो मेहनत से कमाता है, उसे फिजूलखर्ची भी नहीं सूझती। इस प्रकार परिश्रमी व्यक्ति अनेक दोष-दुर्गुणों से बच जाता है।
प्रगतिशील वर्गों का जातीय गुण श्रमशीलता है। हमें अपने आपको कड़ी मेहनत करने का अभ्यस्त बनाना चाहिए। जो भी लक्ष्य, प्रयोजन एवं कार्य सामने हों उनमें तत्परतापूर्वक दिलचस्पी के साथ लगे रहना चाहिए, एक क्षण का भी समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। यदि यह प्रकृति अपने में-अपने परिवार में और अपने समाज में हम उत्पन्न कर सके तो अगले दिनों हर दिशा में हम बहुत ही समृद्ध और समुन्नत बन सकते हैं।
समय का सदुपयोग सफलता के लिए अमोघ वरदान
समय मनुष्य जीवन की वह मूल्यवान सम्पत्ति है जिसकी कीमत पर संसार की कोई भी सफलता प्राप्त की जा सकती है। भगवान ने मनुष्य को अपने राजकुमार के रूप में भेजा है और साथ ही समय नाम की ऐसी बहुमूल्य सम्पदा प्रदान की है कि उसके बदले वह संसार का जो भी सुख-वैभव चाहे खरीद सकता है।
मनुष्य का समय, मनोयोग और परिश्रम जिस दिशा में भी लग जायें उसी में चमत्कार पैदा होगा। संसार के महापुरुषों की प्रधान विशेषता यही रही है कि उन्होंने अपने जीवन का एक-एक क्षण निरन्तर काम में लगाये रखा है। वह भी पूरी दिलचस्पी और श्रमशीलता के साथ। यह रीति-नीति जो आदमी अपना ले और अपने जीवनक्रम की दिशा निर्धारित कर ले वह हर क्षेत्र में सफलता की ऊँची मंजिल पर सहज ही पहुँच सकता है। मनुष्य की सामर्थ्य का अंत नहीं, पर कठिनाई इतनी ही है कि वह चारों तरफ बिखरी और अस्त-व्यस्त पड़ी रहती है। इसका एकीकरण, केन्द्रीकरण जा व्यक्ति कर लेगा अपनी प्रचुर शक्ति का परिचय सहज ही दे सकेगा। सूर्य की किरणें बिखरी पड़ी हैं। इसलिए उनके महत्त्व का पता नहीं चलता पर यदि एक इंच परिधि में फैली हुई धूप को आतिशी शीशे द्वारा एक केन्द्र पर इकट्ठा कर लिया जावे तो तत्काल आग जलने लगेगी और उसे थोड़ा भी ईंधन मिल जाये तो भयंकर अग्निकाण्ड प्रस्तुत कर देगी। ठीक उसी तरह मनुष्य की बिखरी शक्तियों को यदि किसी विषय पर एकाग्रता और दिलचस्पी के साथ केन्द्रित कर दिया जाये और परिश्रमी पुरुषार्थ तन्मयता के साथ जुट पड़ा जाये तो आश्चर्यजनक सफलता सहज ही सामने उपस्थित हो सकती है।
यों देखते-देखते जिन्दगी के कितने वर्ष ऐसे ही हँसते, रोते, खाते, खेलते जिन्दगी व्यतीत हो जाते हैं और शरीर यात्रा सम्पन्न करते चलने के अतिरिक्त और कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं हो पाता। पर यदि दिनचर्या बनाकर समय के एक-एक क्षण का ठीक तरह उपयोग करने वाला क्रम बना लिया जाये, तो पता चलेगा कि थोड़े ही समय में अभीष्ट दिशा में कितनी बड़ी प्रगति सम्भव कर सकता है, इस पर सुनने से नहीं अनुभव करने से ही विश्वास होता है।
विदेशों में लोग अपने दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर दो घण्टा रोज रात्रि पाठशालाओं में पढ़ने जाते रहते हैं। मामूली श्रमिक और छोटी स्थिति के लोग यह क्रम चलाते रहने पर दस-बीस वर्ष एम० ए आदि की उच्च परीक्षाएँ पास कर लेते हैं। जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान एण्डरसन ने एक घण्टा रोज अन्याय भाषा सीखने के लिए निर्धारित किया और वे तीस वर्ष में संसार की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं के विद्वान बन गये। अपने देश में संत विनोबा भावे 24 भाषाओं के विद्वान कहे जाते हैं। यह ज्ञान उन्होंने अपने व्यस्त कार्यक्रम में से थोड़ा-सा समय उपर्युक्त ज्ञान सम्पादन के लिए नियमित रूप से लगाकर ही उपलब्ध कर लिया था। यह रास्ता हर किसी के लिए भी खुला पड़ा है।
आलस्य और प्रमाद में हम बहुत समय गँवाते हैं। जो काम जितनी देर में हो सकता है, सुस्ती और आधे मन से करने पर वह उससे दूने-चौगुने समय में होता है। मुस्तैद ओर फुर्तीला मनुष्य एक घण्टे में दाल-रोटी बना, खाकर निश्चित हो सकता है पर आलसी, ढीला और मन्दचर व्यक्ति उसी काम को अव्यवस्थित ढंग से करते रहने पर आधा दिन गुजार देगा। लोग ऐसे ही ऊँघते, सुस्ताते, जैसे-तैसे करते धरते, छोटे-छोटे थोड़े से कामों में अपना सारा समय बर्बाद कर लेते हैं। जबकि मुस्तैदी और समय का मूल्य समझने वाले व्यक्ति उतने से समय में दस गुने काम निपटाकर रख देते हैं। शिथिलता से समय सिकुड़ता और मुस्तैदी से फैलता है, रबड़ खींचने से लम्बी हो जाती है और छोड़ने से सिकुड़ जाती है। इसी प्रकार ढीले-पोले मन और शरीर को लेकर काम करने से बहुत थोड़ा ही परिणाम निकलता है पर मन और शरीर को एकजुट करके उत्साह के साथ तत्परता दिखाई जाये तो थोड़े समय में कितना अधिक काम कितनी खूबसूरती के साथ सम्पन्न होता है उसका चमत्कार कहीं भी देखा जा सकता है।
समय के प्रतिफल का सच्चा लाभ उन्हें मिलता है जो अपनी दिनचर्या बना लेते हैं और नियमित रूप से निरन्तर उसी क्रम पर आरूढ़ रहने का संकल्प लेकर चलते हैं। एक दिन एक सेर घी खालें और एक महीने तक जरा भी न खायें, एक दिन सौ दण्ड पेलें और बीस दिन तक व्यायाम का नाम भी न लें तो उस ज्वार भाटे जैसे उत्साह के उठने व ठण्डे होने से क्या परिणाम निकलेगा? नियत समय पर काम करने से अन्तर्मन को उस समय वही काम करने की आदत भी पड़ जाती है और इच्छा भी होती है। चाय, सिगरेट आदि नशे जो लोग नियमित रूप से करते हैं उन्हें नियत समय पर उसकी तलब उठती है और न मिलने पर बेचैनी होती है। इसी प्रकार नियत समय पर कुछ काम करने का अभ्यास डाल लिया गया है तो उस समय वैसा करने की इच्छा होगी, मन लगेगा और काम ठीक तरह पूरा होगा। मन्द चाल से चलने वाले कछुए ने तेज उछलने वाले किन्तु क्षणिक उत्साही खरगोश से बाजी जीत ली थी। यह कहानी नियमित और निरन्तर काम करने वालों पर अक्षरशः लागू होती है। मन्दबुद्धि और स्वल्प साधनों वाले कालिदास सरीखे लोगों ने एक कार्य में दत्तचित्त होकर नियमित रूप से निरन्तर काम करते रहने का क्रम बनाकर उच्चकोटि का विद्वान और कवि बनने में सफलता पाई। इस तरह की सफलता कोई भी प्राप्त कर सकता है। उसमें कोई जादू-चमत्कार नहीं, केवल व्यवस्थित और नियमित रूप से मनोयोगपूर्वक क्रमबद्ध काम करने का ही प्रतिफल था। यह मार्ग कोई भी अपना सकता है और उन्नति के शिखर तक पहुँच सकता है।
सामान्यतः रोटी कमाने के लिए आठ घण्टे, सोने के लिए सात घण्टे, नित्य कर्म करने के लिए दो घण्टे माने जायें तो कुल मिलाकर 17 घण्टे हुए। 24 घण्टे में से 7 घण्टे फिर भी बचते हैं, जो लगभग एक पूरे काम के दिन के बराबर होते हैं। व्यक्ति चाहे तो इन 7 घण्टों को किसी भी अभिरुचि के विषय में लगाकर आशातीत सफलता प्राप्त कर सकता है। दो-तीन घण्टे नियमित व्यायाम में लगाने वाले कुछ ही दिन में पहलवान बन जाते हैं। दो-तीन घण्टा रोज स्वाध्याय करने वाले अपने विषय में कुछ ही वर्षों में निष्णात हो जाते हैं। स्कूली परीक्षाएँ पास करते जाने के लिए सामान्य बुद्धि के व्यक्ति का तीन घण्टे का परिश्रम काफी है। रोजी-रोटी कमाते हुए उतना समय आसानी से निकाला जा सकता है। शर्त इतनी है कि किसी विषय में सच्ची रुचि हो और समय को नियमित रूप से लगाने का दृढ़ संकल्प कर लिया गया हो।
लोकसेवा, आत्मिक आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ समय लगाया जाना आवश्यक है। यह भी यदि कोई चाहे तो इसी बचे हुए सात घण्टे के समय में से आसानी के साथ लगा सकता है। पिछले स्वाधीनता संग्राम के नेताओं तथा कार्यकर्ताओं में से अधिकांश ऐसे थे जो अपनी रोजी-रोटी भी कमाते थे और उस आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हाथ बँटाते थे। अभी भी युग-निर्माण आन्दोलन के अनेक कार्यकर्ता अत्यधिक व्यस्त कार्यक्रम में से बहुत सारा समय निकालकर उतना काम कर डालते हैं जितना कि पूरे आठ घण्टे काम करने वाला कर्मचारी भी नहीं कर सकता। यह केवल लगन और मनोयोग का चमत्कार है। समय सबके पास 24 घण्टे होता है। पर जो उसके सदुपयोग का महत्त्व समझते हैं और थोड़े से भी समय की बर्बादी को अपनी भारी क्षति समझते हैं, उनके लिए उतने ही समय में आश्चर्यजनक मात्रा में काम कर सकना संभव होता है।
फुरसत न मिलने की बात का सिर्फ इतना ही तात्पर्य है कि उस कार्य में दिलचस्पी कम है अथवा हल्के दर्जे का बेकार काम माना गया है। जिस काम को हम महत्त्वपूर्ण समझते हैं उसे अन्य कामों से आगे की पंक्ति में रखते है और उसके लिए पर्याप्त समय आसानी से निकल आता है। थकान भी उन्हीं कार्यों में आती है जिन्हें बेकार समझकर किया जाता है। किसान 14 घण्टे काम करता है, वो भी एक दिन जीवन भर। पान और दूध की दुकान वाले 14 घण्टे दुकान खोले बैठे रहते हैं वो भी एक दिन नहीं जीवन भर। पर न उन्हें थकान आती है न ऊब, कारण उनकी दिलचस्पी भर है।
यदि हम जीवनोत्कर्ष के महत्त्वपूर्ण कार्यों में दिलचस्पी पैदा करें तो उसके लिए समय की कमी न रहेगी। नियमितता और व्यवस्था से भरी दिनचर्या बनाकर कोई भी व्यक्ति समय का सदुपयोग कर सकता है और अभीष्ट दिशा में आश्चर्यजनक प्रगति कर सकता है।
अवरोध हमें अधीर न बनाने पावें
भगवान ने यह संसार हमारे लिए ही नहीं बनाया, इसमें अनेक लोगों का साझा है। सबको कुछ न कुछ सुविधाएँ मिल सकें, जिससे थोड़ा सन्तोष बना रहे और कुछ न कुछ असुविधाएँ भी बनी रहें, जिनको हल करने के लिए शारीरिक एवं मानसिक पुरुषार्थ में संलग्न रहें। लगता है यही तरीका मनुष्य की प्रगति और सुव्यवस्था के लिए ठीक जँचा होगा।
हमारी इच्छानुसार सारी परिस्थितियाँ बनती चलें और हर आदमी हमारी मनमर्जी का बनकर रहे, यह असम्भव है। धूप-छाँह की तरह, दिन और रात की तरह हमारा जीवन रूपी वस्त्र सुविधा और असफलता के ताने-बाने से बुना हुआ है। सरसता और शोभा, प्रगति और स्पर्धा यहाँ यही कारण हैं कि संसार में विशेषताएँ बहुत हैं। यदि यहाँ केवल सुविधाएँ सफलताएँ अनुकूलताएँ ही बनाई गई होती और असुविधा, असफलता एवं प्रतिकूलता का किसी को सामना न करना पड़ता तो यह संसार बड़ा नीरस हो जाता। केवल मिठाई ही खाने को मिले, नमक, मिर्च, खटाई आदि कोई स्वाद चखने को न मिले तो भोजन का सारा आनन्द ही चला जाये। भगवान को अपना संसार सरस बनाना है, अतः उसमें प्रतिस्पर्धा, पुरुषार्थ, सूझ-बूझ एवं सन्तुलन को विकसित करने की ऐसी गुंजाइश रखी है कि हर किसी को कुछ करने और कुछ सोचने की आवश्यकता अनुभव होती रहे। प्रगति का मार्ग संघर्ष ही तो है। संघर्ष किससे किया जाये? सूझ-बूझ, संतुलन एवं समाधान के लिए प्रतिभा कैसे विकसित हो। इस आन्तरिक विकास के बिना, अपूर्णता से संघर्ष करते हुए पूर्णता का लक्ष्य कैसे पूरा हो? उलझनों को सुलझाने के बहाने मनुष्य अपने बुद्धि-कौशल को बढ़ाने, संसार की वस्तुस्थिति को समझने, धैर्य और साहस का परिचय देने एवं परिस्थिति के अनुरूप अपने को लचकदार बनाने की महान मानसिक प्रगति उपलब्ध करता है। यदि उपलब्धियाँ तुच्छ मनुष्य को महामानव बनाने एवं व्यक्तित्व को प्रखर एवं ज्योतिर्मय बनाने में समर्थ होती हैं चाकू शान के पत्थर पर घिसे बिना न तो तेज होता है, न संघर्षों का सृजन इसलिए हुआ है कि उससे टकराकर मनुष्य अपनी क्षमता और प्रतिभा का विकास करते हुए आत्म-बल और मनस्विता की महान विभूतियाँ अधिकाधिक मात्रा में संग्रह करता रहे।
देखा यह जाता है कि कितने ही व्यक्ति अपनी आकांक्षा पूरी न होने, तनिक-सा व्यवधान आने पर बुरी तरह दुःखी होने लगते हैं। लगता है उन्हीं पर कोई वज्र गिरा हो। परीक्षा में फेल होने पर, मामूली-सी गृह कलह होने पर, व्यापार में घाटा आने पर, प्रतिस्पर्धा में पुरस्कृत न होने पर अधीर हो जाते हैं और उस असंतुलित स्थिति में घर छोड़कर निकल भागने, आत्म-हत्या करने की, हिम्मत ही हार बैठते हैं। छुई-मुई का पौधा किसी के ऊँगली छूने मात्र से मुरझा जाता है, दुर्बल मनःस्थिति के मनुष्य अवरोध का एक हलका झटका लगने मात्र से अपना उत्साह खो बैठते हैं और फिर ऐसे खिन्न रहने लगते हैं मानों इसका सब कुछ डूब गया हो।
कई व्यक्ति भविष्य की कठिनाइयों, विपत्तियों की आशंकाएँ करके चिन्तित बने रहते हैं। मन में केवल कुकल्पनाएँ हो उठती रहती हैं। लगता रहता है मानो अब विपत्ति आई, अब मुसीबत में फँसे। कर्मक्षेत्र में प्रवेश करने वाला कभी अनुकूलता का लाभ लेता है और कभी प्रतिकूलता का सामना करता है। लाभ मिलने पर हर्षोन्मत होकर उछलने वाले और हानि होने पर सिर धुन-धुनकर रोने वाले लोग दयनीय हैं। प्रकृति उन्हीं को जीवित रखती है जो अवरोधों का सामना करने में समर्थ है। गर्मी का सामना न कर सकने वाली घास अल्पायु होती है और सर्दी का सामना न कर सकने वाले मक्खी-मच्छर बेमौत मरते हैं। जिन्हें केवल सफलता, केवल लाभ, केवल अनुकूलता की चाहिए वे संघर्षशील संसार में अपनी समर्थता एवं दृढ़ता सिद्ध नहीं कर सकते और हवा के एक ही झोंके से इधर से उधर उड़ जाते हैं।
चिन्ता, भय, निराशा, आशंका एवं अधीरता की मानसिक दुर्बलताएँ हमारा इतना अहित करती हैं जितना कि सौ शत्रु मिलकर नहीं कर सकते। दुर्बल मन सदा अन्धकारमय भविष्य और सम्भावित विपत्तियों की ही कुकल्पना करता रहता है और इस प्रकार की अशुभ विचारणाएँ मनुष्य को घबरा देने के लिए पर्याप्त हैं। आधी शक्ति आशंकाएँ खा जाती हैं। चिन्ता एक प्रकार की ठण्डी आग है जो मनुष्य को भीतर ही भीतर जलाती रहती है। आधी से अधिक आशंकाएँ निर्मूल होती हैं। साहसी व्यक्ति हिम्मत से काम लेते हैं और सोचते हैं जो जैसा होगा सो देखा जायेगा। समय पर आगत कठिनाई का मुकाबला कर लेंगे। उसका कोई हल ढूँढ़ लेंगे। ऐसी हिम्मत वालों को यदाकदा ही सम्भावित आशंकाओं से जूझना पड़ता है। यदि कोई अवरोध आ खड़ा भी हुआ तमो उसे शांतचित्त, प्रत्युत्पन्नमति एवं मानसिक सूझ-बूझ से हल कर लेते हैं। धैर्यवान् और साहसी मनुष्य मानसिक शक्ति के उस अपव्यय से बच जाते हैं जो सफलता का पथ प्रशस्त करने में महत्त्वपूर्ण योगदान करती है।
पेड़ की जड़ें निरन्तर बढ़ती हैं। रास्ते में कोई पत्थर आ जाता है और वे उसे तोड़कर पार नहीं कर सकतीं पर दूसरी ओर मुड़ जाती हैं, अपना रास्ता दूसरा बना लेती हैं। यह मुड़ने और बदलने की कला जिन्हें मालूम है, वह लचकदार तरीका अपनाते हैं और अपने लिये दूसरा रास्ता तलाश कर लेते हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को अपने जीवन में 18 बार तिलमिला देने वाली असफलताएँ मिलीं। कोई कमजोर तबियत का आदमी रहा होता तो टूट गया होता निराश होकर हिम्मत खो बैठा होता। पर उन्होंने हर अवरोध के बाद दूनी-चौगुनी हिम्मत से काम लिया और अपनी रीति-नीति में जो परिवर्तन आवश्यक था सो तुरन्त कर लिया। एक व्यक्ति एक कार्य में आज असफल हुआ तो वह सदा सब कार्यों में असफल ही नहीं होता रहेगा। दूसरे काम में उसकी प्रतिभा बड़े-बड़े चमत्कार दिखा सकती है। एक बार सफलता न मिली तो कई बार प्रयत्न किया जा सकता है। राजा ब्रूसो 13 बार लड़ाई में हारा किन्तु उसने हिम्मत नहीं छोड़ी, चौदहवीं बार वह सफल हुआ। हर व्यक्ति के लिए मनोबल बढ़ाने का यही रास्ता है कि अवरोध या असफलता के आगे सिर न झुकाये, हिम्मत न हारे वरन् दूने उत्साह और उल्लास के साथ आगे बढ़े और उन त्रुटियों को दूर करे जिनके कारण पिछली बार सफलता न मिल सकी।
शोक-संताप में व्यथित ही बैठना व्यर्थ है। इस संसार का यही क्रम है कि एक की हानि, दूसरे का लाभ बनती रही है। एक घर के बच्चे के जन्म की खुशी तभी मनाई जा सकेगी तब किसी के घर मृत्यु का शोक छाये। एक तभी जीतेगा जब दूसरा हारे। हार-जीत की आँख-मिचौनी यहाँ अनादि काल से चलती रही है। ताश की बाजी की तरह जो उसमें क्षुब्ध नहीं होते केवल आनन्द भर लेते हैं ऐसे खिलाड़ी की मनोवृत्ति रखने वाले लोग हँसते और हँसाते, आनन्द और संतोष का जीवन जी सकते हैं।
हमें सफलता की बड़ी-बड़ी आशाएँ रखनी चाहिए और मनोरथों की पूर्ति के बड़े-बड़े सपने देखने चाहिए पर साथ ही इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि बुरी से बुरी परिस्थितियों का सामना करना पड़े। दिन और रात का, सर्दी और गर्मी का अपना-अपना आनन्द है। सफलता और असफलताएँ भी अपनी-अपनी विशेषताएँ और विभूतियों से सम्पन्न हैं। सफलताएँ जहाँ हमारा उत्साह बढ़ाती हैं और प्रगति के लिए सुविधाएँ उत्पन्न करती हैं वहाँ असफलताएँ हमारे धैर्य, साहस, सन्तुलन, पौरुष और विवेक को चुनौती देकर हमारा आत्मबल बढ़ाती हैं, जो किसी भी साधारण सफलता की उपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी सिद्ध होती हैं।
आवेशग्रस्त न हों, शान्ति और विवेक से काम लें
शरीर में बुखार आने पर उसका तापमान बढ़ जाता है और कई तरह की विकृतियाँ, गड़बड़ियाँ पैदा हो जाती हैं। देह जलती है, प्यास लगती है, सिर दर्द होता है, पैर भड़कते हैं, नींद नहीं आती, भूख नहीं लगती, बेचैनी होती है, आदि कितने ही कष्टकारक लक्षण होने से रोगी का बुखार के कारण असुविधा होती है। कमजोरी बहुत आ जाती है, कुछ काम करते नहीं बन पड़ता, सोचना और बोलना भी ठीक तरह से सम्भव नहीं होता। इस कमजोरी और शारीरिक अस्त-व्यस्तता की क्षति-पूर्ति काफी समय लेकर आती है। थोड़े दिन का बुखार भी देह को तोड़-मोड़ कर रख जाता है।
शरीर की तरह मन, मस्तिष्क को भी बुखार आता और वह शरीरगत उस बुखार व्यथा की अपेक्षा अधिक हानिकारक सिद्ध होता है। इस संताप का नाम है-‘आवेश’। तनिक-सी बात पर उत्तेजित हो जाना और मानसिक संतुलन खो बैठना, आवेश से भर जाना, मस्तिष्क पर बुखार चढ़ जाना ही कहा जायेगा। मनुष्य का जीवनक्रम और संसार का क्रिया-कलाप कुछ ऐसे ही ढंग का है कि इसमें हर बात अपनी इच्छानुकूल नहीं हो सकती। दूसरे लोग वहीं करें जो हम चाहते हैं वे अपने स्वभाव और संस्कार को हमारी मन-मर्जी के अनुरूप तत्काल बदल लें, यह आशा करना अनुचित है।
जो उपरोक्त वास्तविकता को नहीं समझते, वे तनिक-सी प्रतिकूलता आने पर मर्जी से भिन्न किसी का व्यवहार देखकर आग-बबूला हो उठते हैं, आवेश में आ जाते हैं और मानसिक संतुलन खोकर इतने विक्षुब्ध हो जाते हैं कि अपने को, सम्बन्धित व्यक्तियों तथा समीपवर्ती वातावरण को अस्त-व्यस्त बनाकर ही रहते हैं।
आवेश एक प्रकार का मस्तिष्कीय बुखार है। इसे मानवीय दुर्बलता भी कह सकते हैं। उत्तेजना सारे आन्तरिक ढाँचे को लड़-खड़ाकर रख देती है। क्रोध का आवेश जब चढ़ता है, तब मनुष्य आधा पागल जैसा हो जाता है। उसके हाव-भाव, चेष्टाएँ ,, मुख-मुद्राएँ ऐसी हो जाती हैं, जैसे वह आपे से बाहर हो। न सोचने लायक बात सोचता है और न बोलने लायक वाणी बोलता है, कटुता, व्यंग्य, तिरस्कार, अहंकार, अशिष्टता आदि न जाने कितने विष उसमें घुले रहते हैं। दूसरों का राई भर दोष पर्वत जैसा दीखता है, बहुत बार तो उस आवेश ग्रस्त स्थिति में इतनी कुकल्पनाएँ और आशंकाएँ उठती हैं कि दूसरा बुरे से बुरा दीखने लगता है और प्रतीत होता है, मानो उसने जान-बूझकर द्वेषवश हानि पहुँचाने या नीचा दिखाने के लिए ही सब कुछ किया है। मस्तिष्क उत्तेजना में सही बात सोच नहीं पाता, वस्तुस्थिति समझने और वास्तविकता जानने की बुद्धि ही नहीं रहती। अस्तु, सामने वाला दोषी ही नहीं, शत्रु भी दीखता है और जिस प्रकार किसी पर आक्रमण किया जाता है, उसी तरह की गतिविधियाँ बन जाती हैं। इससे सामने वाले को भी प्रत्युत्तर और प्रतिशोध में खड़ा होना पड़ता है। बात बढ़ती है और कई बार तनिक-सी बात पर इतना बड़ा विग्रह खड़ा हो जाता है कि उसकी क्षति पूर्ति कर सकना कठिन हो जाता है। मित्र शत्रु बन जाते हैं और जहाँ से सहयोग की आशा थी, वहाँ से विरोध और अवरोध प्राप्त होने लगता है। इन परिस्थितियों में कई बार ऐसा कटु व्यवहार बन पड़ता है, जिसका घाव आजन्म नहीं भरता और अपने पराये हो जाते हैं।
आवेश में दुर्व्यवहार करके दूसरों को जितनी क्षति पहुँचाई जाती है, उससे कहीं अधिक हानि अपना करता है। इसी प्रकार आवेशग्रस्त क्रोध में दूसरों को जितनी चोट पहुँचाता है, उससे कहीं अधिक हानि अपना कर लेता है। शरीर विष से भर जाता है और अगणित मस्तिष्कीय तथा नाड़ी संस्थान के रोग उठ खड़े होते हैं। एक घण्टे के क्रोध में एक दिन के तेज बुखार से अधिक शक्ति नष्ट होती है। क्रोधी व्यक्ति कभी पनपता नहीं। उसकी जीवन शक्ति आवेग की आग में ही जलाती, भुनती रहती है और ठीक तरह सोच सकने की क्षमता दिन-प्रतिदिन कम होने लगने से वह अर्द्ध-विक्षिप्त एवं सनकी जैसी मनोदशा में जा पहुँचता है।
उचित यह है कि हम सन्तुलित स्वभाव रखना सीखें। यदि किसी का व्यवहार अप्रिय है तो तलाश करें कि उसमें उसका कितना दोष था। कई बार परिस्थितियाँ, मजबूरियाँ एवं वस्तुस्थिति समझने की भूल के कारण लोग ऐसी गलतियाँ कर बैठते हैं, जिनसे पीछे तो पछताते हैं पर समय पर वैसी कल्पना नहीं होती। मनुष्य जहाँ श्रेष्ठ है, वहाँ त्रुटियों ओर दुर्बलताओं से भी भरा है। पूर्ण निर्दोष, परम सज्जन एवं निर्भ्रान्त व्यक्ति आज तक इस संसार में पैदा नहीं हुआ। आगे अभी हो सकेगा इसकी सम्भावना कम ही है। इस वास्तविकता को समझते हुए यदि हमें इसी संसार में रहना है तो कामचलाऊ समझौता की नीति अपनाकर ही चलना होगा। अप्रिय व्यवहार जिनका लगता हो उनसे शान्ति और प्रेमपूर्वक वस्तुस्थिति पूछनी चाहिए और जो कारण रहा हो उसकी हानि समझाकर उसे उसके लिए तैयार करना चाहिए कि भविष्य में वैसी गलती न करे। यदि हमें ही समझने में भूल हुई है और कुछ का कुछ समझ लिया है तो अपनी भूल तुरन्त स्वीकार करने और सुधारने को तैयार रहना चाहिए। सज्जनता की पहिचान सन्तुलन से की जाती है। दूरदर्शी विवेकवान व्यक्ति की पहिचान यह है कि तर्क और विवेक से काम लेता है। अप्रिय प्रसंगों के कारण बारीकी से ढूँढ़ता है और उनके समाधान का शान्तचित्त से उपाय निकालता है। हर रोग की दवा है और हर अप्रिय प्रसंग का समाधान। सज्जन समाधान ढूँढ़ते हैं और उसे निकालकर रहते हैं। वे जानते है कि क्रोध और आवेश से, लड़ाई-झगड़े से, कटु वचन और अशिष्टता से कोई प्रयोजन पूरा नहीं होता-उलटी उलझनें बढ़ती हैं।
जिस व्यक्ति के दुर्व्यवहार से या भूल हमें चोट पहुँचती है, उसके सम्बन्ध में यही सोचना चाहिए कि यह अपनी भूल सुधार कर भविष्य में हमारे अनुकूल हो जाये। इसके लिए क्रोध या दुर्व्यवहार करना व्यर्थ है। आतंक और आक्रमण से रोष और विक्षोभ से सम्भव है सामने वाला कुछ समय के लिए चुप हो जाये या डरकर सहमत हो जाना स्वीकार कर ले। पर यह केवल उतनी बाह्य प्रक्रिया मात्र ही होगी। भीतर से रोष की प्रतिक्रिया निश्चित रूप से प्रतिकूल ही होगी। प्रताड़ना और तिरस्कार को वह घायल साँप की तरह चोट को भीतर ही छिपाये रहेगा और जब अवसर मिलेगा उस दुर्व्यवहार का बदला लेगा। सुधार के लिए सज्जनतापूर्ण सद्व्यवहार ही कारगर उपाय है। क्रोध का उद्देश्य यदि भूल करने वाले को सुधारना और क्षति की पूर्ति करना हो तो समझ लेना चाहिए कि यह तरीका गलत है जो बात हम चाहते हैं, वह तो गलती करने वाले को अनुकूल बनाकर ही पूरी हो सकती है और उसके लिए जो भी उपाय कारगर होंगे, वे निश्चित रूप से क्रोध के अतिरिक्त ही कोई होंगे।
शारीरिक स्वास्थ्य की तरह हमें मानसिक स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना चाहिए अन्यथा मानसिक रुग्णता हमारे लिए रोगी शरीर से भी अधिक घातक सिद्ध होगी। मनोविकारों में सर्वप्रथम है क्रोध। भय सबसे बुरे किस्म का रोग है। चोरी, छल, बेईमानी, व्याभिचार आदि से दूसरों को अधिक हानि होती है। अपनी पीछे भले ही होती रहे पर तत्काल तो कुछ लाभ ही होता है किन्तु क्रोध से सारी की सारी हानि अपनी ही है। लाभ रत्ती भर भी नहीं। खून अपना सूखा, मस्तिष्क अपना खराब हुआ, स्वास्थ्य गिरा, शत्रुता बढ़ी और जो चाहते थे, उससे ठीक उल्टी प्रतिक्रिया हुई। इन सब बातों का ध्यान रखते हुए हर विवेकवान व्यक्ति का कर्तव्य है कि आत्मनिरीक्षण करके हम यह देखें कि अपना मानसिक सन्तुलन सही रहता है या नहीं। लोग बुरे हैं, गलती करते हैं तो उनके दण्ड के लिए प्रेम और सहानुभूति के साथ उनकी कठिनाई समझनी चाहिए और सदाशयता एवं सज्जनता के साथ यह बताना चाहिए कि क्या न करके क्या किया जाना चाहिए था। अपना संतुलन बनाये रहकर शांति-चित्त, सौम्य मुद्रा हितैषी, मित्र के रूप में यदि कुछ परमार्थ किया जायेगा तो गलती करने वाले अपने को बहुत कुछ सुधार लेंगे और यदि अपनी भूल से दूसरों की गलती मान ली गई है तो विवेक उसे भी सुधार देगा और क्रोध का कोई कारण शेष न रह जायेगा।
विचार शक्ति का महत्त्व समझें और सदुपयोग करें
मनुष्य का विकास और भविष्य उसकी मनःस्थिति पर निर्भर है। जैसा बीज होगा वैसा ही पौधा उगेगा। जैसे विचार होंगे वैसे कर्म बनेंगे। जैसा कर्म करेंगे वैसी परिस्थितियाँ अनायास ही सामने नहीं आ खड़ी होतीं। उनका अपना कर्तव्य से बड़ा सम्बन्ध होता है। वृत्तियों की प्रतिक्रिया परिस्थितियों के रूप में सामने आती हैं। यह तथ्य है कि कृतियाँ अनायास ही नहीं होने लगतीं वरन् चिरकाल से मन में स्थित विचार पद्धति का परिणाम होती हैं।
वास्तविक पूँजी धन नहीं विचार है। वास्तविक शक्ति साधनों में नहीं, विचारों में सन्निहित है। व्यक्तित्व का निखार विचारशीलता पर अवलम्बित है। सोचने के ढंग से जीवन की दिशा मिलती है और दिशा निर्धारण पर भविष्य का भला-बुरा होना निश्चित है। सच तो यह है कि आज कोई व्यक्ति जिस भी स्थिति में है वह उसके अब तक के विचारों का ही परिणाम है और भविष्य में जैसा कुछ बन सकेगा उसका आधार उसकी विचारशैली ही होगी।
कहा जाता है कि खोपड़ी में मनुष्य का भाग्य लिखा रहता है। इस भाग्य को ही कर्म लेख भी कहते हैं। मस्तिष्क में रहने वाले विचार ही जीवन का स्वरूप निर्धारित करने और सम्भावनाओं का ताना-बाना बुनते हैं। इसलिए प्रकारान्तर से भी यह बात सही है कि भाग्य का लेखा-जोखा कपाल में लिखा रहता है। कपाल अर्थात् मस्तिष्क। मस्तिष्क अर्थात विचार। अतः मानस शास्त्र के आचार्यों ने यह उचित ही संकेत किया है कि भाग्य का आधार हमारी विचार पद्धति ही हो सकती है। विचारों की प्रेरणा और दिशा अपने अनुरूप कर्म करा लेती है। इसलिए कर्म में लिखा है, जैसी भाषा का प्रयोग पुरातन पंथ से करते हुए भी तथ्य यही प्रकट होता है कि कर्तृत्व अनायास ही नहीं बन पड़ता, उसकी पृष्ठभूमि विचार शैली के अनुसार धीरे-धीरे मुद्दतों में बन पाती है।
हाड़-माँस के खोखले में जो जादू भरा है वह विचार शक्ति ही है। अब तक के मानवीय विकास का सारा श्रेय उसकी उसी विशेषता को दिया जा सकता है। आज व्यक्ति की स्थिति क्या है? उसे देखकर उसके भूतकाल की विचार शैली को बताया जा सकता है और आगे उसका भविष्य क्या होगा? इसकी भविष्यवाणी इस आधार पर की जा सकती है कि उसका विचार प्रवाह किस दिशा में प्रवाहित हो रहा है। मोड़ आने पर परिवर्तन हो सकता है। वह चमत्कार भी विचार परिवर्तन का माना जायेगा। विचार निस्सन्देह मनुष्य जीवन का अतिशय महत्त्वपूर्ण तथ्य एवं ईश्वरीय अनुदान है। इसे यदि ठीक तरह सम्हाला, सुधारा जा सके तो नर पशु या नर पिशाच की स्थिति में पड़ा हुआ व्यक्ति देखते-देखते महामानवों की पंक्ति में खड़ा हो सकता है। महत्त्वपूर्ण सफलताओं का अधिकारी बन सकता है और उज्ज्वल व्यक्तित्व उपलब्ध करके अपना ही नहीं असंख्य, अनेक का भी उद्धार-उत्कर्ष कर सकता है। मानव के भौतिक शरीर में दिव्य तत्त्व का जो महान अंश विद्यमान है उसे ‘विचार’ ही कहा जा सकता है। अध्यात्म की भाषा में उसे ही मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय कहते हैं।
अध्यात्म का सारा ढाँचा हमारी विचारणा, मान्यता, आस्था, निष्ठा और आकांक्षा को परिष्कृत करने के लिए ही खड़ा किया गया है। ईश्वर, कर्मफल, पुनर्जन्म, पाप, पुण्य, स्वर्ग, नरक आदि की मान्यताएँ और पूजा-उपासना, धर्म-कर्म आदि के सारे कर्मकाण्ड, धर्मानुष्ठान इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुए हैं कि आदमी के सोचने का ढंग उच्च आदर्शों पर अवलम्बित हो। कथा वार्ता, स्वाध्याय, सत्संग, धारणा, ध्यान, शास्त्रदर्शन के पीछे छिपे तथ्य को समझा जाये तो उसका मूल प्रयोजन विचारों को अस्त-व्यस्त दिशा में भटकने न देकर उन्हें सुसंस्कृत बनाने का ही दृष्टिकोण होगा। लोग स्वास्थ्य, शिक्षा, धन-वैभव, प्रभाव, पद आदि सम्पत्तियों का महत्त्व तो जानते हैं पर न जाने क्यों अभी तक यह समझ नहीं पाये कि वास्तविक सम्पदा तो विचारणा ही है और उसी के बल पर विभिन्न स्तर की सफलताओं तथा समृद्धियों का ताल-मेल बैठता है।
हमें अत्यंत बारीकी के साथ अपनी विचार-शृंखला पर गौर करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि उनका स्तर क्या है यह प्रवाह किस दिशा में बह रहा है यदि वासना, तृष्णा, क्रोध, लालच, आवेश, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार जैसी आकांक्षाओं की प्रधानता है तो समझना चाहिए कि हमें उलझाने वाली परिस्थितियों में जकड़ा रहना पड़ेगा। अपने दोष-दुगुर्णों को समझने और उन्हें सुधारने की आकांक्षा यदि जाग पड़े तो समझना चाहिए कि विचारों का महत्त्व समझ में आने लगा। कुविचार और असंस्कृत विचार ही मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं और वे ही पतन के गर्त में गिराते तथा प्रगति के पथ में अवरोध उत्पन्न करने के कारण हैं इसलिए दूरदर्शी लोग अपनी परिस्थिति को सुधारने से पूर्व मानसिक स्थिति को निष्पक्ष भाव से समझने और तीखी दृष्टि से यह देखने की कोशिश करते हैं कि किन अवांछनीय, असामाजिक और अनैतिक विचारों ने मनोभूमि पर कब्जा जमा रखा है। जिस प्रकार शत्रुओं और दुष्टों द्वारा आपने ऊपर होने वाले आक्रमण को निरस्त करने के लिए हम सतर्कता बरतते और सुरक्षात्मक तैयारी करते हैं उसी प्रकार कुविचारों की मनःक्षेत्र में कितनी जड़ जम गई हैं उसे देखने और उखाड़ने के लिए प्रबल प्रयत्न किया जाना चाहिए। आत्मशोधन को सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना गया है जिससे चित्तवृत्तियों की चंचलता ओर कुपथगामिता पर नियन्त्रण कर लिया जाना चाहिए। बाहरी शत्रुओं से निपटना सरल है क्योंकि वे दिखाई पड़ते हैं किन्तु आन्तरिक शत्रु समझ में नहीं आते, दीखते भी नहीं, इसलिए उनकी ओर ध्यान भी नहीं जाता और निपटने की आवश्यकता भी अनुभव नहीं होती। इसी उपेक्षा में वे अपनी जड़ें गहराई तक जमाते चले जाते हैं और क्रमशः सारे चिंतन तन्त्र पर कब्जा करके मनुष्य को गई-गुजरी स्थिति में ला पटकते हैं।
जिस प्रकार हम दूसरे लोगों की समीक्षा करते हैं दोष ढूँढ़ते और आलोचना, निन्दा किया करते हैं। इसी तरह वरन् उससे भी अधिक कड़ाई के साथ अपने विचार संस्थान की-गुण, कर्म, स्वभाव की परख करनी चाहिए। यह क्रम आत्म-चिंतन के लिए एक नियत निर्धारित समय पर नित्य ही चलाना चाहिए। असत्य, छल, निष्ठुरता, व्यभिचारी, बेईमानी आदि असामाजिक अपराधों पर ही नहीं आलस्य, प्रमाद, आवेश, असहिष्णुता, कटुभाषण, अशिष्टता, अधीरता, चिन्ता, निराशा, कायरता आदि व्यक्तिगत दुर्गुणों पर भी नजर रखनी चाहिए और उन्हें हटाकर प्रतिपक्षी सद्विचारों और सद्भावना को मनोभूमि में प्रतिष्ठापित करने का वैसा ही प्रयत्न करना चाहिए जैसा चतुर किसान अपने सबसे अच्छे खेत में सबसे अच्छा बीज बोकर सबसे अच्छी फसल उगाने का लाभ प्राप्त करता है।
चोर पर निगाह रखने से उसे चोरी करने का अवसर नहीं मिलता और अपनी हानि बच जाती है। उसी प्रकार अपने दुर्गुणों पर भी सतर्क रहा जाये और उनके आक्रमण का अवसर न आने देने के लिए पहले से ही सावधानी रखी जाये तो वे ईंधन न मिलने पर बुझ जाने लगी आग की तरह समाप्त हो जाते हैं जो विचार अभ्यास में आते ओर क्रियान्वित होते हैं उन्हीं की जड़ जमती है। बुरे विचारों को चित्त क्षेत्र में प्रवेश न करने दिया जाय और उनके स्थान पर तुरन्त प्रतिरोधक उच्च विचार प्रस्तुत कर दिये जायें तो चोर जैसी स्थिति के आसुरी विचारों को पलायन करते ही बनेगा। वे तभी तक ठहरते हैं जब तक कि उनका प्रबल प्रतिरोध नहीं होता, श्रेष्ठ विचारों को चिन्तन क्षेत्र में स्थान मिले और उन्हें कार्यान्वित होने के अवसर मिलते रहे तो कोई कारण नहीं कि वे हमारे गुण, कर्म, स्वभाव में सम्मिलित ने हो जायें और उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत न करें।
विचार निर्माण में सहायता करने वाले सत्साहित्य का क्रमबद्ध स्वाध्याय इस प्रयोजन के लिए नितान्त आवश्यक है। सद्विचार सम्पन्न, चरित्रवान, उत्कृष्ट गतिविधियों में संलग्न व्यक्तियों का सत्संग भी बहुत सहायक सिद्ध होता है। भूलों के लिए अपने आपको एकान्त में कान ऐंठने, उठक-बैठक करने, चाँटे लगाने, मुर्गा बनने, भोजन में कटौती करने जैसे शारीरिक दण्ड दिये जा सकते हैं। अगले दिन उन पिछले दिन वाली भूलों को न होने देने के लिए प्रातःकाल में ही निश्चय कर लिया जाये, दिन भर सतर्कता रखी जाये और रात को भूलों का लेखा-जोखा लेकर प्रायश्चित किया जाये तो यह प्रक्रिया थोड़े ही दिनों में हमारी विचार शक्ति को परिष्कृत कर देगी। विवेक, औचित्य, तर्क, प्रमाण, वस्तुस्थिति का निष्पक्ष भाव से पता लगाने का क्रम यदि चलता रहे तो बहुत-सी भ्रान्तियाँ सहज ही दूर हो सकती हैं और सुसंतुलित विचारणा के आधार पर शांति, समृद्धि, प्रगति और महानता की दशा में तेजी से बढ़ा जा सकता है।
आरोग्य रक्षा के लिए संतुलन आवश्यक है
भौतिक या आध्यात्मिक कोई भी पुरुषार्थ स्वस्थ शरीर से ही सम्भव है। शारीरिक सामर्थ्य बनाये रहकर ही हम जीवितों में गिने जा सकते हैं। अस्वस्थ, रुग्ण और दुर्बल तो अर्द्धमृतक ही बने रहते हैं। देहगत पीड़ा के साथ असफलता और असमर्थता की मनोव्यथा भी जुड़ी रहती हे। अस्तु, उचित यही है कि स्वास्थ्य के सम्बन्ध में उपेक्षा न बरती जाये।
स्वास्थ्य दवा-दारू पर निर्भर नहीं है। वह पैसों से भी नहीं खरीदा जा सकता। कीमती चीजें खाकर आरोग्य रक्षा की बात सोचना भी व्यर्थ है। यह सुरक्षा तो आहार-विहार, श्रम संतुलन पर निर्भर रहती है। जो इनकी विधि-व्यवस्था बनाये रहता है वही स्वास्थ्य का आनन्द लेता है और वही कमजोरी एवं बीमारी से अपनी रक्षा करने में समर्थ होता है।
काम में न आने वाले चाकू को जंग खा जाता है, काम में न आने से शरीर भी अपनी क्षमता खो बैठता है। जो खाते हैं, उसे पचाने एवं शरीर के कलपुर्जों को गतिशील बनाये रखने के लिए परिश्रम करते रहना आवश्यक है। जो कड़ी मेहनत करते हैं, उनके अंग-प्रत्यंग मजबूत बनते हैं जबकि आरामतलब और काम-चोरों की काया अशक्त होती चली जाती है न उनका अन्न पचता है और न गहरी नींद आती है। अभ्यास न होने से जरा-सा काम आ पड़ने पर थक जाते हैं। बाहर से ठीक दिखते हुए भी कड़ी मेहनत न करने वाले लोग भीतर से खोखले होते चले जाते हैं, भूख घटती है और रस रक्त भी कम बनता है। उतने भर से जीवन यात्रा को दूर तक खींचते ले जाना सम्भव नहीं रहता। आरामतलबी एक अभिशाप है। शारीरिक मेहनत से जी चुराना और अस्वस्थता को आमन्त्रण देना एक ही बात है।
लोग दिमागी बात को महत्त्व देते और शारीरिक मेहनत की उपेक्षा करने लगे हैं। लिखा-पढ़ी देर तक करते रहना पसन्द है, पर देह का श्रम बेइज्जती की निशानी मानी जाती है। पुरुष खेती-बाड़ी आदि कड़ी मेहनत के कार्यों से बचना और कलम घिसने की नौकरी करना पसन्द करते हैं। महिलाएँ चक्की पीसने जैसे पसीना लाने वाले कार्यों से कतराती हैं, उन्हें करने में अपनी हेटी समझती है। यही कारण है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य दिन-दिन गिरता चला जाता है और लोग बीमारी व कमजोरी के चंगुल में बुरी तरह ग्रसित होते चले जा रहे हैं।
स्वास्थ्य रक्षा के लिए यह नितान्त आवश्यक हो गया है कि हर किसी के मन में शारीरिक श्रम की महत्ता एवं उपयोगिता भली प्रकार बैठा दी जावे। उसके बिना न हमारी गरीबी दूर होगी, न बेकरी। न बीमारी से बचेंगे, न कमजोरी से। प्रगति तथा सफलता पाने के लिए परिश्रम और पुरुषार्थ आवश्यक है और इसे वही कर सकता है जिसके शरीर में पर्याप्त सामर्थ्य है। उक्त तथ्य जिस दिन हमारी समझ मे आयेगा, उसी दिन से शारीरिक श्रम व कड़ी मेहनत के पसीना बहाने वाले कार्यों के प्रति रुचि पैदा हो जावेगी। उन्हें आरोग्य का मूल समझते हुए अपनी नियमित दिनचर्या में उपयुक्त स्थान दिया जाने लगेगा। शरीर उचित परिश्रम से घिसता नहीं वरन् सशक्त और मजबूत ही होता है। आलसी मन इसे स्वीकार न करे तो भी उसे बलपूर्वक समझाना चाहिए। स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन की सम्भावना देहगत परिश्रम पर बहुत कुछ निर्भर करती है। मेहनत से बचने का दण्ड मनुष्य को बीमारी व कमजोरी से उत्पन्न परेशानियों के रूप में भुगतना पड़ता है।
पशु-पक्षी अपने आहार की खोज में, विनोद के लिए स्वभावतः इधर-उधर भागते दौड़ते हैं, फलतः उनका शरीर सुदृढ़ और समर्थ बना रहता है। प्रकृति की इच्छा यही है कि हर जीव कड़ी मेहनत का अभ्यासी बने और स्वास्थ्य एवं पूर्ण आयुष्य का सुख भोगे। मानसिक श्रम से अधिक पैसा कमाया जा सकता है, पर शारीरिक श्रम की अपनी उपयोगिता है। कम कमाया जाये या न कमाया जाये तो भी स्वास्थ्य व आरोग्य की दृष्टि से मेहनत हर हालत में करनी चाहिए, जिससे पसीना निकले और गहरी नींद का आनन्द मिले।
जिन्हें सुविधा हो, व्यायामशाला जाकर दण्ड-बैठक, डम्बल, मुदगर, कुश्ती आदि व्यायाम करें। जिनमें नर-नारी, बाल-वृद्ध सभी को अपने-अपने साथियों के साथ खेलने-कूदने, भागने-दौड़ने, ड्रिल, कवायद, लाठी, बनेठी चलाने आदि का शिक्षण प्राप्त करके मनोरंजन एवं स्वास्थ्य संवर्द्धन का अवसर मिले, ऐसे संगठित प्रयत्न आज की महती आवश्यकता हैं। समाजसेवियों को जगह-जगह ऐसी व्यवस्थाएँ बनानी चाहिए। व्यक्तिगत रूप से आसन प्राणायाम, सूर्य नमस्कार आदि किये जा सकते हैं। सबेरे तीन-चार मील तेज चाल से भ्रमण सामान्य स्वास्थ्य और शरीर वाले के लिए उपयोगी है। जिनका धन्धा बैठे-ठाले का है उनके लिए टहलने का व्यायाम नितान्त आवश्यक है। घर के पास पौधे लगाकर उनकी गुड़ाई, निराई, सिंचाई का काम भी किया जा सकता है। महिलाएँ कपड़े धोने, चक्की चलाने जैसे पसीना बहाने वाले कार्य स्वयं कर सकती हैं। स्वेटर बुनने, भोजन बनाने जैसे कार्यों में कड़ी मेहनत और सारे शरीर के अंगों का संचालन न होने से शारीरिक परिष्कृतता का उद्देश्य पूरा नहीं होता। शरीर के हर अंग को पूरी मेहनत मिले और पसीना निकले ऐसा कार्य हर व्यक्ति को अपने लिए निकाल ही लेना चाहिए। स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से यह प्रक्रिया अति आवश्यक है।
स्वास्थ्य को चौपट करने वाले मनोविकारों से सतर्कतापूर्वक बचना चाहिए। बुखार, खाँसी, जुकाम आदि बीमारियाँ तो प्रत्यक्ष दीखती हैं, पर चिन्ता, भय, उत्तेजना, आशंका, ईर्ष्या, द्वेष जैसी मानसिक बीमारियाँ दिखाई तो नहीं पड़ती समझ में नहीं आतीं, पर हानि बुखार, खाँसी से भी अधिक पहुँचाती हैं। चिन्ता एक तरह की आग है, जो भीतर-भीतर ही हाड़-माँस जलाती रहती है। जरा-जरा सी बात में गरम और उत्तेजित हो उठने की आदत रक्त को विषैला करती है और मस्तिष्क का संतुलन बिगाड़ देती है। इसका प्रभाव नाड़ी-संस्थान पर पड़ता है, जिससे कितने ही रोग उठ खड़े होते हैं। खाया-पिया सब क्रोध पाता, निराशा और घुटन की मनोभूमि पाचन क्रिया को चौपट कर देती है। सारे अंग शिथिल पड़ जाते हैं, रक्त-संचार, मल-विसर्जन और श्वास-प्रश्वास की क्रिया उनकी कुछ ही दिनों में ढीली पड़ जाती है जो अपने भविष्य को अन्धकारमय देखते हैं और अप्रिय प्रसंगों को याद करके दुःख, शोक में डूबे रहते हैं। अवांछनीय परिस्थितियों का सामना करने के लिए मानसिक सन्तुलन एवं सूझ-बूझ की आवश्यकता पड़ती है। चिन्ता, निराशा, आवेश, घुटन जैसे मनोविकार उसे आवश्यकता की पूर्ति में तो सहायता होते ही नहीं बल्कि सोचने की मशीन में गड़बड़ी कर समाधान ढूँढ़ना और भी कठिन बना देते हैं।
दूसरों की बढ़ोत्तरी देखकर कुढ़ना, दूसरों के दोष-दुर्गुण को ही ढूँढ़ते रहना, भविष्य में कोई विपत्ति आने या अशुभ घटना घटित होने की आशंका करके डरते रहना, यह देखने में बुरी आदतें मात्र मालूम होती हैं, पर बहुत कम लोग जानते हैं कि उनका स्वास्थ्य को नष्ट करने में कितना बड़ा हाथ रहता है। सदा असंतुष्ट रहने वाले व्यक्ति अनिद्रा, सिरदर्द, दिल की धड़कन, मधुमेह जैसे अकाल मृत्यु बुलाने वाले रोगों के चंगुल में फँसते और स्वाध्याय को बर्बाद करते रहते हैं। आठ घण्टे शारीरिक श्रम में उतनी शक्ति नष्ट नहीं होती जितनी आधा घण्टा तक मनोविकारों का उद्वेग बने रहने पर हो जाती है।
जिन्हें स्वस्थ रहना हो वे मन को हलका रखें। हँसने की आदत डालें और चित्त को प्रसन्न व संतुष्ट रखा करें। जो अभाव तथा कठिनाइयाँ सामने हैं उनका धैर्य, साहस और सूझ-बूझ के साथ मुकाबला करें। अनुपयुक्त परिस्थितियों को बदलने और समस्याओं को सुलझाने के लिए जो उपाय सम्भव हों उन्हें योजनाबद्ध ढंग से करने में लग जायें। जो कठिनाइयाँ न टाली जा सकें उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करें। समझदार और दूरदर्शी व्यक्ति ऐसी ही रीति-नीति अपनाते हैं और हानि-लाभ के क्षणों से बने जीवन के पहिए को लुढ़काते हुए अपना काम चलाते हैं। इसके विपरीत छिछोरी प्रकृति के व्यक्ति जरा-सी बात को आकाश-पाताल जैसा महत्त्व देकर स्वयं दुःखी होते, साथियों को उद्विग्न करते तथा अपना शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य चौपट करते रहते हैं। स्वस्थ रहने के लिए निश्चिन्त, संतुष्ट, श्रमशील और प्रसन्न रहना आवश्यक है। यह गुण अपने में न हों तो पैदा करने चाहिए, अन्यथा मनोविकार शरीर का गलाते और परिस्थितियों को उलझाते चले जावेंगे।
स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रकृति का अनुसरण आवश्यक
प्रकृति ने हर प्राणी को वह स्वाभाविक क्षमता और बुद्धि दी है जिसके आधार पर वह नीरोग, दीर्घजीवन प्राप्त कर सके। उस क्षमता और बुद्धि का प्रकृति के नियमों के अनुकूल उपयोग करने वाले सभी प्राणी नीरोग पाये जाते हैं। वन्य प्रदेशों में स्वच्छन्द विचरण करने वाले पशु-पक्षियों को देखते हैं तो उनमें से कोई भी रोगी नहीं दीखता। हिरण, लोमड़ी, खरगोश, शेर, कबूतर, किसी को भी तो बीमारियों के चंगुल में फँसा नहीं देखते। केवल एक ही मूर्ख जानवर मनुष्य है जो प्रकृति अवज्ञा करके अपना आहार-विहार कृत्रिमता से करता है और उस अवज्ञा के फलस्वरूप ही तरह-तरह के रोगों का संकट भोगता है। मनुष्य के चंगुल में फँसे हुए पशुओं में धीरे-धीरे अप्राकृतिक आहार-विहार की विवशता से रोगी रहने का सिलसिला चल पड़ा है।
यदि हम नीरोग रहना चाहते हैं तो उसका एक ही उपाय है अपनी शरीर की बनावट के अनुरूप आहार-विहार अपनायें और प्रकृति ने जिस ढंग से रहने का संकेत दिया है उसी का अनुसरण करें। यह प्रयोजन कृत्रिम दवा-दारू और तथाकथित डिब्बे में बन्द पौष्टिक आहारों से पूरा नहीं हो सकता। प्रकृति माता की शरण ही एक मात्र वह उपाय है, जिससे वर्तमान रुग्णता और दुर्बलता से छुटकारा पाया जा सकता है और भविष्य के लिए हँसता-खेलता दीर्घ-जीवन प्राप्त किया जा सकता है।
हमारे लिए क्या भोजन उपयुक्त है, उसके लिए किसी दूसरे से पूछताछ करने की या पुस्तकें पढ़ने की जरूरत नहीं है। मुख के दरवाजे पर बैठा हुआ जिह्वा रूपी डॉक्टर किसी भी वस्तु की परीक्षा करके यह बतला सकता है कि क्या अपने लिए ग्राह्य और अग्राह्य है। जो वस्तुएँ बिना जलाये-भुने, बिना मसाले-मिठाई मिले अपने-अपने मूल रूप में हमें रुचिकर, स्वादिष्ट लगें समझना चाहिए कि यही हमारा प्राकृतिक शुद्ध भोजन है। इस दृष्टि से फल हमारा सर्वोत्तम भोजन है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हमारी रुचि उधर से हटती जाती है, अन्यथा फलों की कृषि की जाने लगे तो वे अन्न की तुलना में सस्ते भी पड़ें और पैसा भी अधिक मिले। महँगे फल खरीद सकना सम्भव न हो तो भी ऋतुओं पर उस समय की शारीरिक स्थिति के लिए पूर्णतया उपयुक्त सस्ते ऋतु फल भी मिलते हैं वे भी कम लाभदायक नहीं होते। अपने मौसमों में आम, जामुन, बेर, अमरूद, शहतूत आदि खूब पैदा होते हैं और सस्ते भी मिलते हैं। केला, पपीता महँगे नहीं पड़ते शाक-वर्ग में उगने वाले कितने ही सस्ते फल सहज ही पाये जा सकते हैं। खरबूजा, तरबूज, ककड़ी, खीरा, टमाटर का अपनी ऋतुओं में बाहुल्य रहता है। कच्चे अन्न पकने में तो कुछ समय लगाते हैं पर जीवन तत्त्व उनमें भी कम नहीं रहते। मक्का, मटर, चने, ज्वार, बाजरा आदि पकने, सूखने से पहले हरी स्थिति में स्वादिष्ट भी रहते हैं और प्रकृति के अनुकूल भी। गेहूँ, चना, मूँग आदि सुपाच्य अन्न सूखे ही लेने हों तो उन्हें पानी में अंकुरित करके खाया जा सकता है। उबालने की नौबत आये तो सुपाच्य शाक अथवा चावल आदि उबाले जा सकते हैं। दलिया भी कामचलाऊ हो सकता है।
आहार को जितना अधिक जलाया जायेगा और उसमें मिर्च, मसाले, तेल, घी आदि मिलाये जायेंगे उतना ही वे अहितकर और निस्तत्त्व होता चला जायेगा। आज जीभ को चटोरी बनाकर उसकी आदत बिगाड़ी जाती है और उस बिगड़ी आदत को ही जायका कहकर उदरस्थ किया जाता है। जो स्वाभाविक रूप में जैसा हो वही उसका असली स्वाद है और कौन-सा स्वाद उपयुक्त है इसे बिना बिगड़ी हुई जीभ सहज ही बता सकती है। मिर्च खाते ही जीभ जलती है, नमक खाते ही उलटी आती है। हींग, लौंग, हल्दी आदि खाकर कोई देखे तो जीभ सहज ही बतायेगी कि यह जंजाल अपने लिए सर्वथा अग्राह्य है। पर चतुर कहलाने वाले मनुष्य ने जीभ को धीरे-धीरे अवांछनीय चीजों का अभ्यस्त बना दिया और वह नशेबाज की तरह कडुई और विषैली, नशीली चीजों की भाँति चिकनाई और मसालों से भरे जलाने और भुनने से निस्तत्त्व किये गये पकवान मिष्ठान्नों को स्वादिष्ट मानकर धोखा खाती रहती है। यह आहार उसके पचाने में अनुपयुक्त होते हैं और शरीर खाते रहते हैं। ऐसी दशा में पोषणविहीन और जीवन तत्त्वों से रहित अप्राकृतिक भोजन करने वाला व्यक्ति बीमारी के चंगुल में फँसता चला जाये तो आश्चर्य क्या है? माँस, मदिरा, तम्बाकू जैसे अभक्ष्य पदार्थ स्वास्थ्य की बर्बादी के अतिरिक्त रत्ती भर भी लाभ नहीं दे सकते ।।
स्वच्छ आहार की तरह स्वच्छ जलवायु भी निरोगिता के लिए आवश्यक है। सड़ा-गला, विषैला भोजन हानिकारक होने की बात सभी जानते हैं पर यह भूल जाते हैं कि वायु जो अन्न से भी अधिक आवश्यक है-स्वच्छ मिलनी आवश्यक है। सीलन भरे, बिना खिड़की के, तरह-तरह की चीजों से भरे मकानों में गन्दी हवा ही रहती है। गली-कूचों में, भेड़ियों की माँद की तरह गन्दे मकानों में रहने वालों की अपेक्षा खुली हवा में पेड़ों के नीचे रहने वाले अधिक नीरोग रह सकते हैं, धूल, धुएँ, सीलन, सड़न से भरा हुआ वातावरण धन कमाने के लिए भले ही उपयुक्त हो स्वास्थ्य को दिन-दिन गलाता जायेगा। मुँह ढककर खिड़की, दरवाजे बन्द करके सोने की आदत साँस के द्वारा शरीर में विषैले तत्त्वों के प्रवेश का खुला निमन्त्रण है। ऐसा करने वाले नीरोग कैसे रह सकते हैं?
साँस केवल नाक से ही, मुँह से ही नहीं लेते और छोड़ते हैं। यदि चमड़ी पर कोई हवा बाहर न निकलने वाला मजबूत लेन चढ़ा दिया जाये तो आदमी थोड़ी ही देर में बेहोश हो सकता और मर सकता है। कसे हुए कपड़ों के पर्त चढ़ाकर बने-ठने रहने वाले लोग फैशन भले ही बना लेते हों कपड़े के कसाव त्वचा को साँस लेने से रोकते हैं। बहुत कपड़े पहनना ऐसा ही है जैसे नाक पर पट्टी बाँधना। इससे चमड़ी की शक्ति क्षीण हो जाती है और सर्दी-गर्मी, जुकाम, खाँसी, लू लगने जैसी शिकायत होती रहती है। यह प्रकृति के अमूल्य उपहार प्राणवायु तथा सर्दी-गर्मी की अवज्ञा करने का ही दुष्परिणाम है, जो हमें बीमारियों के रूप में भुगतना पड़ता है। उचित यही है कि हम स्वच्छ वायु में रहें, मकानों में हवा की और प्रकाश की पूरी गुंजाइश रखें, मुँह ढक कर न सोया करें, कपड़े कम से कम तथा ढीले पहनें।
शारीरिक श्रम इतना होना चाहिए कि पसीना बहे और हर अवयव के क्रियाशील रहने की आदत पड़ी रहे। पशु-पक्षी सारे दिन आहार की तलाश में इधर-उधर घूमते हैं और उससे कठोर काम करने की आवश्यकता पूरी कर लेते हैं। मनुष्य आरामतलबी से बैठे रहने के हलके-फुलके काम करने का आदी-आलसी होता जाता है। श्रम न करने में हाथ-पाँव जैसे बाहरी और आँतें, आमाशय, दिल, गुर्दे जैसे भीतरी अवयव कमजोर होते चले जाते हैं और बीमारियों के शिकार बनते हैं। शरीर को समर्थ, शक्तिशाली और रोग निरोधक शक्ति से पूर्ण रखने की दृष्टि से कठोर शारीरिक श्रम की नितान्त आवश्यकता है। बैठे रहने वालों को यह प्रयोजन कई मील टहलने एवं आसन व्यायाम द्वारा पूरा करना चाहिए। आरामतलब, आलसी बनकर हम सुखी रहते हैं ऐसा नहीं सोचना चाहिए। स्मरण रखना चाहिए कि श्रम रहित जीवन न तो नीरोग रह सकता है और न दीर्घजीवी बन सकता है। कठोर परिश्रम हर व्यक्ति की एक स्वाभाविक आवश्यकता है जिसकी पूर्ति करने के लिए दैनिक जीवन में समुचित स्थान रहना चाहिए।
ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में जितनी अधिक सतर्कता बरती जाये उतना ही उत्तम है। पशुओं तक में इतनी बुद्धि है कि प्रजनन की आवश्यकता पड़ने पर वे चिरकाल बाद एक बार मैथुन करते हैं। मनुष्य ने इस प्रसंग को मनोरंजन या कौतूहल का विषय बनाकर अपने को खोखला करने की मूर्खता को ही अपनाया है, जीवन-तत्त्व की बेहिसाब बर्बादी करने वाला कितने दिन नीरोग और सशक्त रह सकेगा। मानसिक चिन्ताएँ, उद्वेग, आवेश, भय, शोक, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष जैसे मनोविकार भी मन और देह को भीतर ही भीतर घुलाते रहते हैं, जिन्हें नीरोग जीना हो उन्हें ब्रह्मचर्य की ही भाँति मानसिक संतुलन और संतुष्ट, हँसी-खुशी का जीवन जीने की आदत डालनी चाहिए कि दिन में सारे काम निपट जायें और रात सोने के लिए मिल जाये। बहुत रात तक जागना और दिन में सोना स्वास्थ्य का महत्त्व समझने वाले को तो छोड़ ही देना चाहिए। प्रकृति का अनुसरण करके ही मन नीरोग और दीर्घजीवी बन सकते हैं। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझ लिया जाये उतना ही अच्छा है।
आहार और विहार का असंयम न बरतें
शारीरिक सामर्थ्य मानव-जीवन की एक महती आवश्यकता है, स्वास्थ्य के बिना कोई गति नहीं। धन, विद्या, पद, सम्मान आदि के उपार्जन में जो श्रम करना पड़ता है, वह अस्वस्थ व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं। दुर्बल मनुष्य को सम्बन्धी अनुपयोगी ही नहीं, कुछ समय बाद परिचर्या, सहायता एवं सहानुभूति से भी हाथ खींचने लगेंगे। यह स्वाभाविक भी है। स्वयं शरीर कष्ट सहना और इन्द्रिय सुखों से वंचित रहना अस्वस्थता की ही देन है। आवश्यक कर्तव्यों की पूर्ति एवं महत्त्वाकाँक्षाओं की दिशा में प्रगति उसके लिए सम्भव नहीं, जो अस्वस्थता के कुचक्र में फँस गया। इसलिए यह आवश्यक है कि शारीरिक समर्थता को, निरोगिता को बनाये रखने और स्वस्थता, पुष्टता बढ़ाने के लिए समुचित सतर्कता बरती जाये।
व्यक्तिगत रूप से शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए (1)आहार (2)विहार (3)श्रम (4)सन्तुलन की दिशा सही होना आवश्यक है। इन चारों को पलंग के चार पायों की तरह सम्बद्ध मानना चाहिए। इनमें से एक भी गड़बड़ करेगा तो अस्वस्थता की विपत्ति आ दबोचेगी। कई बार प्रारब्ध एवं परिस्थितिवश संयमी लोगों को भी दुर्बलता एवं रुग्णता के कुचक्र में फँसना पड़ता है पर वह थोड़ी-सी घटनाएँ अपवाद मात्र हैं। आमतौर से यही सिद्धांत काम करता है कि जो स्वास्थ्य के नियमों की उपेक्षा करेगा वही अस्वस्थता का शिकार होगा। अतः हम में से प्रत्येक को इस दिशा में सतर्क रहना चाहिए।
आहार के थोड़े से नियम हैं। भूख से आधा खाये। आधा पेट अन्न से, चौथाई पानी से और चौथाई हवा आने-जाने के लिए खाली रखें। जो ठूँसकर खाता है वह पेट पर अत्याचार करता है और अपचन को आमंत्रित करता है। जो खाना हो नियत समय पर ही खाना चाहिए। दिनभर बकरी की तरह मुँह चलाते रहना पाचन क्रिया के साथ खिलवाड़ करना है। हाँडी में हर बार खिचड़ी डाल दी जाये तो खिचड़ी कुछ कच्ची, कुछ पक्की, कुछ जली, कुछ गली और बेकार खिचड़ी अपने पेट में पकाते हैं और हानि उठाते हैं। भोजन स्वाद के लिए नहीं शरीर-रक्षा की औषधि समझकर ग्रहण करना चाहिए। उसका स्वाद नहीं गुण देखा जाता है। जो वस्तुएँ सुपाच्य, सात्विक हों उन्हें भी बहुत जलाये, भुने बिना, मिर्च-मसालों की भरमार किये बिना खाना चाहिए। तले हुए, चटपटे मावा और चीनी वाले विषैला बनता है। स्मरण रखने की बात है कि अपचन ही समस्त रोगों का जनक है, जिसने अखाद्य खाया, अनावश्यक खाकर अपना पेट बिगाड़ा, उसे बीमारियों के चंगुल में फँसने से कोई बचा नहीं सकता।
जो खाया जाये मुँह में अच्छी तरह चबा लिया जाये। जल्दीबाजी में ग्रास निगलते चलने से आधा चबाया भोजन पेट का बहुत समय और श्रम लेकर पचता है। स्वच्छता पूर्वक और स्वच्छता के साथ खाया हुआ भोजन ही स्वास्थ्यकर होगा। गन्दगी के सम्मिश्रण से अच्छी वस्तुएँ भी विषैली बन जाती है। सड़ी-गली तथा बाजारू चीजों से बचना चाहिए। जब खाना हो प्रसन्नचित्त, सन्तुष्ट, निश्चिन्त मनोभूमि के साथ आहार को ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए। असंतुष्ट, रुष्ट, उद्विग्न मनःस्थिति में नाक-भौं सिकोड़ते, नुक्ताचीनी करते हुए खाया गया अच्छा आहार भी हानिकारक परिणाम उत्पन्न करता है। हमारे भोजन में शाक-भाजी और ऋतु-फलों की भी आवश्यक मात्रा रहनी चाहिए। ये बहुत महँगे नहीं हैं पर बहुमूल्य व्यंजनों से बढ़कर लाभदायक हैं।
जब तक पिछला भोजन न पच जाये तब तक अगला ग्रहण नहीं करना चाहिए। किसी कारण पेट में अपच हो तो एक समय का भोजन तुरन्त बंद कर देना चाहिए। सप्ताह में एक बार आधा दिन या पूरे दिन के लिए पेट को छुट्टी दे दी जाये, उपवास कर लिया जाये तो स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए यह बहुत लाभदायक सिद्ध होगा। उपवास का अर्थ है नियत अवधि तक पानी के अतिरिक्त और कुछ न लेना। आजकल की तरह फलाहार के नाम पर ही अलग-गल्लम ठूँसते रहने वाले उपहासास्पद उपवास स्वास्थ्य की दृष्टि से निरर्थक ही नहीं हानिकारक भी होते हैं। उपवास का उद्देश्य पेट को विश्राम देना है। उसमें पानी, ठण्डाई या नीबू की शिकंजी जैसा कोई हलका पेय ही चल सकता है।
थाली में कम से कम किस्म के भोजन रहें। खाद्य पदार्थों की भरमार से थाली सजाना, मेहमानदारी, चटोरेपन या अमीरी या दिखावा भले ही कर लें, पाचन की दृष्टि से उसमें केवल हानि ही हानि है। अपने देश में भोजन पकाने में इतना अधिक अग्नि सम्पर्क किया जाता है कि आहार के पोषक तत्त्व ही जल जाते हैं और खाने वाले को मूल पदार्थ का कोयला ही हाथ लगता है। मिष्ठान्न और पकवान, दूध और अन्न जैसे पदार्थों के जीवन को नष्ट करके जलाये, भुने पदार्थों में कुछ पोषण शेष नहीं रह जाता। इसलिए उचित यही है कि कम से कम अग्नि सम्पर्क पकाने के समय किया जाये। जो शाक-भाजी, फल बिना पकाये खाये जा सकते हैं, उन्हें उसी तरह खाना चाहिए। जिनका छिलका खाया जा सकता है उन्हें छिलका समेत लेना चाहिए। चीनी के बजाये गुड़ में कुछ जान बची रहती है। जिन्हें पकाना हो उन्हें उबाल भर लेना चाहिए। दलिया, चावल, खिचड़ी, शाक आदि सब भाप के द्वारा (कुकर पद्धति से) पकाये जायें तो उनमें पोषण बना रहेगा। सद्भावना वाले व्यक्तियों द्वारा पकाया, परोसा और हँसी-खुशी के वातावरण में मिल-जुलकर खाया हुआ सस्ता भोजन भी स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। आहार सम्बन्धी इन मुख्य नियमों की आदत डाल ली जाय तो समझना चाहिए कि शारीरिक समर्थता की पहली मंजिल पार कर ली।
आहार के बाद विहार का नम्बर आता है। विहार का अर्थ है नियमित एवं व्यवस्थित आचरण। स्वास्थ्य की दृष्टि से नियमितता का भारी महत्त्व माना गया है। नियत समय पर सोना, जागना, नहाना आवश्यक है। नित्य कर्मों में बरती जाने वाली अस्त-व्यस्तता एवं अनियमितता स्वास्थ्य को चौपट करके रख देती है। कोई व्यक्ति बड़े आलसी और लापरवाह होते हैं, अपनी दिनचर्या का कोई क्रम नहीं रखते। चाहे जब, चाहे जो करने की आदत शरीर की रक्षा की दृष्टि से एक गम्भीर खतरा है।
दिन काम करने और सोने के लिए है। नौ-दस बजे से अधिक नहीं जागना चाहिए और प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठ जाना आवश्यक है। उठते ही मल-मूत्र विसर्जन की नित्य क्रिया करनी चाहिए। जब टट्टी लगेगी तब जायेंगे की नीति बहुत बुरी है। आदतों का शरीर क्रम पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। मल विसर्जन, शारीरिक स्वच्छता और भोजन आदि का समय यदि कोई निर्धारित नहीं है, तो पाचन-यन्त्रों की क्रिया में अवश्य ही व्याघ्रात पड़ जायेगा। जब फुरसत मिले तब खाने की आदत पेट को खराब कर देती है। सतर्क और समझदार लोग शारीरिक क्रियाएँ समय पर करने का पूरा ध्यान रखते हैं और इस प्रकार अपने आरोग्य को नष्ट होने से बचाते हैं।
दिनचर्या को व्यवस्थित बना लेना आरोग्य-रक्षा की गारण्टी है। प्रातः उठने से लेकर रात को सोने तक की क्रमबद्ध विधि-व्यवस्था बनी रहनी चाहिए। समय का विभाजन जिस क्रम से किया जाये, कार्य-पद्धति जैसी भी निर्धारित की जाये, उसे कड़ाई से पालन किया जाये। शौच स्नान, व्यायाम भोजन, व्यवसाय, अध्ययन, खेल, शयन आदि की कार्यपद्धति निर्धारित क्रम से चलती रहे तो शरीर की आंतरिक प्रणाली एक ढंग पर चलने लगती है और हर कार्य किसी अड़चन के सहज और सुचारु रूप से होता चलता है। इस प्रकार की व्यवस्था का स्वास्थ्य पर बहुत अनुकूल प्रभाव पड़ता है और वह देर तक कार्यक्षम बना रहता है।
संयम में ब्रह्मचर्य की बात गाँठ बाँध रखने की है। शक्तियों का कोटा सीमित है। उसे बहुत ही सोच-समझकर खर्च करना चाहिए। आमदनी कम और खर्च अधिक करने वाले दिवालिया बनते हैं। ऐसा न हो कि हम अति उत्साह में असंयम की दिशा में दौड़ पड़ें और इन्द्रिय वासनाओं की अग्नि में बहुमूल्य जीवन-तत्त्वों को जलाने लगें। विशेषतया कामेन्द्रियों और सम्बन्धित मनोविकारों पर तो कड़ाई का अंकुश रखना चाहिए। आहार की तरह विहार पर भी यदि सचमुच ध्यान रखा जा सके तो निःसन्देह हम स्वास्थ्य-रक्षा की दृष्टि से बहुत हद तक सफल हो सकते हैं।
संयम बरतें, सुखी रहें
मनुष्य के शरीर और मन में शक्तियों का अकूत भण्डार भरा पड़ा है। उनको नष्ट होने से बचाया जा सके और उस बचत का सदुपयोग किया जा सके तो अभीष्ट दिशा में आशाजनक सफलताएँ प्राप्त की जा सकती हैं। इस तथ्य को न समझकर हम अपनी बहुमूल्य शक्तियों का निरर्थक अपव्यय करते रहते हैं और ईश्वर प्रदत्त शक्ति भंडार को खोकर खोखला, रुग्ण, अशक्त और असफल जीवन जीते हुए मौत के दिन पूरे करते हैं।
शरीर और मन अपने-अपने आहारों द्वारा शक्तियों का निरन्तर उत्पादन करते रहते हैं और हमारा सामर्थ्य भण्डार निरन्तर बढ़ता रहता है। इस उत्पादन को यदि अपव्यय से बचाया जा सके और उसे रचनात्मक दिशा में प्रयुक्त किया जा सके तो निस्सन्देह किसी भी दिशा में आशाजनक प्रगति का सुयोग मिल सकता है।
संयम का अर्थ है-शक्तियों के अपव्यय को रोकना। यह अपव्यय अधिकतर हमारी इन्द्रियों द्वारा होता है। इन्द्रियों में दो प्रमुख हैं-एक जीभ दूसरी जननेन्द्रिय। जीभ के द्वारा हम निरर्थक बकवास करते रहते हैं। निन्दा, चुगली शेखी तथा गप्पें हाँकने में जिह्वा की बहुत भारी शक्ति का अपव्यय होता है। असत्य और कटु न बोलने का जिह्वा संयम यदि बरता जा सके तो हमारी वाणी इतनी प्रभावशाली हो सकती है कि उसका दूसरों पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़े और वरदान, आशीर्वाद देने की क्षमता उत्पन्न हो जाये। निरर्थक बकवास से हमारा मनोबल नष्ट होता है। वाचाल व्यक्ति की अन्तरंग क्षमता खोखली होती जाती है और वह एक दिन विदूषक मात्र रह जाता है। मौन के तप माना गया है। तपस्वियों जैसा मौन तो हर किसी के लिए सम्भव नहीं पर इतना तो कोई भी कर सकता है कि अनर्गल बकवास पर नियन्त्रण करे और उतना ही नपा-तुला बोले जो अपने तथा दूसरों के लिए आवश्यक एवं हितकर हो।
जिह्वा का दूसरा असंयम है-चटोरेपन। विकृत जायके के लिए हम अवांछनीय अभक्ष्य पदार्थ खाते रहने हैं। स्वाद का आकर्षण आवश्यकता से अधिक मात्रा में खाने के लिए ललचाता है। यदि बढ़ी हुई मात्रा पेट पर भार बनती और उसे दिन-दिन दुर्बल करती चली जाती है, मसाले एक प्रकार के मन्द विष हैं। वे जीभ, पेट, आँतें और उदर के हर हिस्से को जलाते हैं। उत्तेजना में आदमी खा तो अधिक जाता है पर मात्रा से अधिक पचावे कौन? धीरे-धीरे अपच बढ़ता जाता है और पाचन-तन्त्र इतना कमजोर बन जाता है कि स्वल्प मात्रा में आहार पचाना भी कठिन पड़ता है। यहीं से दुर्बलता और रुग्णता की नींव पड़ती है। बिना पचा भोजन पेट का भार मात्र है। वह शक्ति पैदा न कर सकेगा तो दुर्बलता बढ़ेगी ही। अपच के कारण पेट में जो विषैली सड़न पैदा होती है, वही शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँचकर वहाँ विभिन्न रोगों को उत्पन्न करती चली जाती है और व्यक्ति व्यथा, पीड़ाएँ भोगता हुआ अकाल में ही काल-कवलित होता है।
लुकमान सच कहते थे कि-‘‘आदमी अपनी जीभ से अपने मरने-गड़ने के लिए कब्र खोदता है।’’ जीभ यदि काबू में हो तो मिठाई, खटाई, मिर्च और मसाले हमारे ऊपर क्यों सवार हों और तरह-तरह के व्यंजन, पकवान, आचार-चटनी की लपक क्यों लगे? लोग समझते भर हैं कि हमने जायकेदार और कीमती चीजें खाकर मजा उठाया पर वस्तुतः यह अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने की तरह है। यदि हम जायके को महत्त्व न दें और केवल गुण एवं लाभ को ध्यान में रखते हुए औषधि की तरह सात्विक आहार करें तो पेट खराब न हो और दुर्बलता एवं रुग्णता का शिकार न होना पड़े। यह जीभ ही है, जो जायके और चटोरेपन की शिकार बनकर हमारे स्वास्थ्य, आनन्द और दीर्घजीवन पर कुठाराघात करती है।
जननेन्द्रिय का संयम और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। शरीर जो कुछ उपलब्ध करता है, उसका सार तत्त्व-दूध में से घी की तरह बचाता है। इसी का नाम शुक्र, वीर्य और अन्ततः ओजस् है। चेहरे पर चमक, वाणी में प्रभाव, आँखों में ज्योति, मस्तिष्क में मेधा स्वभाव में साहस इसी तत्त्व का प्रतिफल है। देह में यह थोड़ी-सी बूँद रहती है पर वे समग्र प्रतिभा के रूप में प्रकाशवान बनती हैं। इसमें इतनी सामर्थ्य है कि अपने जैसे कितने ही नये मनुष्य विनिर्मित कर सकें। इस आश्चर्यजनक शक्ति को सर्प की मणि की तरह कहा जा सकता है। कहते हैं कि सर्प अपनी मणि जब खो बैठता है, तब उसकी देह निर्जीव जैसी बन जाती है। मनुष्य की भी यही स्थिति है। इस सार तत्त्व का जितना भी अपव्यय करता है, वह शारीरिक और मानसिक दृष्टि से उतना ही दुर्बल बनता चला जाता है। कामुक व्यक्ति न नीरोग रह सकते हैं और न दीर्घजीवन का आनन्द ले सकते हैं। उन्हें अनेक रोग घेरे रहते हैं और मनस्विता गँवाकर दीन, दुर्बल, कायर, भीरू, अस्थिर और अन्यमनस्क बनते चले जाते हैं। ब्रह्मचर्य की दिशा में असंयम बरतने वाले रुग्ण और दुर्बल सन्तान ही उत्पन्न करेंगे। कामुकता पर अंकुश लगाना ब्रह्मचर्य का समुचित ध्यान रखना, जननेन्द्रिय का संयम बरतना हर विचारशील व्यक्ति के लिए आवश्यक है। जिसे शारीरिक परिपुष्टता, दीर्घजीवन और समर्थ मनस्विता की आवश्यकता है, उसे यह तथ्य गाँठ बाँध लेना चाहिए कि शरीर के सार-तत्त्व को खिलवाड़ का विषय न बना लें। सन्तान वृद्धि की जितनी आवश्यकता हो उसके अनुरूप वासना में ढील दें, अन्यथा इस दिशा में आवश्यक मर्यादाओं का निरन्तर पालन करता रहे। विवाह का उद्देश्य दो आत्माओं का पवित्र गठबन्धन और एक-दूसरे के शारीरिक, मानसिक सार-तत्त्व को नष्ट-भ्रष्ट करने में जुट जाने का नाम विवाह-मैत्री नहीं है। यह तो प्रत्यक्ष शत्रुता है।
दाम्पत्य-जीवन के बाहर का दुराचार तो अति कुत्सित है। अप्राकृतिक दुर्बुद्धि का लुक-छिपकर प्रयोग आज नवयुवकों में बहुत बढ़ चला है। इस दुर्व्यसन से वे कलियाँ असमय ही मुरझा जाती हैं। जवानी का आरम्भ भी नहीं हुआ कि बुढ़ापे ने आ घेरा। कितने ही नासमझ लड़के ‘जिस डाल पर बैठना उसी डाल को काटना’ की दुर्बुद्धि चरितार्थ करते रहते हैं। इन्हें सिखाया जाना चाहिए कि जीवन रस को फुलझड़ी समझकर उसे जलाने का कौतूहल न बरतें यह खतरनाक खेल है, जिसकी कीमत आगे चलकर भारी पश्चाताप के साथ चुकानी पड़ेगी। इसी प्रकार नर-नारी के बीच पवित्र सम्बन्धों की पुण्य-परम्परा में विष घोलना हर दृष्टि से अवांछनीय है। प्रेम और मैत्री का अर्थ कामुकता नहीं है। शुभचिंतक और हितैषी होने का अर्थ अपने प्रिय पात्र का चरित्र गिराना और उसे अपने गृहस्थ-जीवन के प्रति अनास्थावान् बनाना नहीं है। नर और नारी में भी पवित्र प्रेम हो सकता है। इसमें कोई दोष नहीं, पर जब वह मैत्री कामुकता से विषाक्त होने लगे तो समझना चाहिए कि वह सद्भावना की आड़ में दुष्ट प्रयोजन खुलकर खेल रहे हैं। अच्छा हो, नर-नारी के बीच पनपने वाली मित्रता विषाक्त होने से बची रहे और उसके दूरगामी दुष्परिणामों से व्यक्ति और समाज को कुफल न भोगने पड़ें।
अन्य इन्द्रियाँ भी ऐसी ही हैं, जिन्हें संयम की शिक्षा मिलनी चाहिए। आँखों में शुद्ध सौन्दर्य की आकांक्षा तो बनी रहे पर कामुकता की दुर्भावना से चारों ओर बिखरे सौन्दर्य को न निहारें। इसमें मिलने वाला कुछ नहीं, केवल आन्तरिक शक्ति नष्ट होगी और अकारण उद्विग्नता बढ़ेगी। मन कलुषित होगा, कुमार्ग पर कदम बढ़ेंगे और अन्ततः पतन के पथ पर लुढ़क पड़ने का अवसर आ जायेगा। आँखों के लिए यही उपयुक्त है कि वे सौन्दर्य को उत्कृष्ट आध्यात्मिकता की पवित्र दृष्टि से देखें और हर घड़ी प्रमुदित और सन्तुष्ट रहने की ही स्थिति प्राप्त करें। कान शृंगार और अश्लीलता सुनने के लिए लालायित न रहें। निन्दा, चुगली मे रस न लें, बहुत कुछ आवश्यक तथ्य सुनने के लिए शेष हैं, उन्हीं के लिए प्रवृत्ति क्यों न मोड़ी जाये? नासिका माँस-मदिरा जैसे अभक्ष्यों की दुर्गन्ध को सहन क्यों करे? नासिका की स्वाभाविक प्रीति स्वच्छता और सात्विकता को पसन्द करने में है। अच्छा हो हमारी नासिका सही पथ प्रदर्शन करने में समर्थ बनी रहे।
संयम अर्थात् शक्तियों का संचय। असंयम अर्थात् सामर्थ्य की बर्बादी। यह मोटा तथ्य है कि बर्बादी का अवलम्बन करने वाला एक दिन दिवालिया बन जाता है और जो थोड़ा-थोड़ा बचाता रहता है, उसकी सम्पदा समय-समय पर अनेक सुविधाएँ प्रस्तुत करती हैं। इन्द्रियों का संयम अपने आपको बर्बादी से बचाकर समृद्धि की ओर अग्रसर करने का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयास है। इसी में हम सब का कल्याण है।
हम अस्वच्छ न रहें, घृणित न बने
अस्वच्छता मनुष्य की आन्तरिक और गई-गुजरी स्थिति का परिचय देती है। गन्दा आदमी यह प्रकट करता है कि उसे अवांछनीयता हटाने ओर उत्कृष्टता बनाये रखने में कोई रुचि नहीं है। लापरवाह, आलसी और प्रमादी ही गन्दे देखे गये हैं। जो अवांछनीयता से समझौता करके उसे गले से लगाये रह सकता है, वही गन्दा भी रह सकता है। गन्दगी देखने में सबको बुरी लगती है और उस व्यक्ति के प्रति सहज ही घृणा बुद्धि उत्पन्न करती है। गले से लगाये रह सकता है, वही गन्दा भी रह सकता है। गन्दगी देखने में सबको बुरी लगती है और उस व्यक्ति के प्रति सहज ही घृणा बुद्धि उत्पन्न करती है। गन्दे को कौन अपने समीप बिठाना चाहेगा? दुर्गन्ध से किसे अपनी नाक, मलीनता से किसे अपनी आँखें और हेय प्रवृत्ति को देखकर कौन अपनी मनोदशा क्षुब्ध करना चाहेगा। जिन्हें तिरस्कार, अपमान, घृणा, असहयोग, उपेक्षा और निन्दा प्राप्त करनी हो, दूसरों की आँखों में अपना स्तर गया-गुजरा सिद्ध करना हो उनके लिए सरल मार्ग खुला पड़ा है-गन्दा रहना शुरू कर दें। उपरोक्त सभी अभिशाप उन्हें सहज ही तुरन्त मिलने आरम्भ हो जायेंगे।
गन्दगी स्वास्थ्य की दृष्टि से अतीव हानिकारक है। उसे बीमारी का सन्देशवाहक कह सकते हैं। जहाँ गन्दगी रहेगी वहाँ बीमारी जरूर पहुँचेगी। गन्दगी से बीमारी को बहुत प्यार है। फूलों की तलाश करती हुई तितली जिसे प्रकार फूल पर जा पहुँचती है, उसी तरह जहाँ गन्दगी फल−फूल रही होगी वहाँ बीमारी भी खोज, तलाश मिलाती हुई जरूरी पहुँच जायेगी। बीमारी भी गन्दगी पैदा करती है यह ठीक है पर यह निश्चित है कि जो गन्दे हैं वे स्वस्थ न रह सकेंगे। जिन्हें बीमारी से प्यार हो उन्हें गन्दा रहना शुरू कर देना चाहिए।
मनुष्य की मूल प्रकृति गन्दगी के विरुद्ध है, इसलिए किसी व्यक्ति या पदार्थ को गन्दा देखते हैं तो अनायास ही घृणा उत्पन्न होती है वहाँ से दूर हटने का जी करता है। अस्तु, जिन्हें मनुष्यता का ज्ञान है उन्हें गन्दगी हटाने का स्वभाव अपनी प्रकृति में अनिवार्यतः जोड़ लेना चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं-इस दृष्टि से भारत जैसे-उष्ण देश में हर किसी के लिए खुरदरे तौलिये से रगड़-रगड़कर दिन में एक बार तो स्नान करना आवश्यक है। दो लोटे पीठ पर लुढ़का लेने और गीले बदन कपड़े बदल लेने की बेगार भुगतना, न नहाने से भी बुरा प्रभाव पड़ता है। उससे देह का मैल छूटता नहीं वरन् पानी पड़ने से और भी अधिक फूलता-सड़ता है। नहाना हो तो इस तरह नहाना चाहिए कि शरीर का एक भी गुप्त या प्रकट अंग खुरदरे तौलिये से भली प्रकार रगड़-रगड़कर इतना साफ कर लिया जाये कि चमड़ी पर थोड़ी लालिमा उभर आये। सर्दी के दिनों में बन्द स्नान घर में नहाया जा सकता है। कमजोर व्यक्ति गरम पानी ले सकते हैं। बीमारों का भीगे तौलिए से रगड़कर भी काम चला सकता है। हर हालत में हर व्यक्ति को स्वच्छता के लिए स्नान आवश्यक मानना चाहिए। चेचक जैसे रोगों में मजबूती उत्पन्न हो जाये तो बात दूसरी है, नहीं तो बीमारों को भी चिकित्सक के परामर्श से स्वच्छता का कोई न कोई रास्ता जरूर निकालते रहना चाहिए।
अन्य सभी इन्द्रियों के छिद्रों को भली प्रकार साफ किया जाना चाहिए अन्यथा वहाँ मैल जमने और सड़ने लगेगा। मुँह की सफाई बहुत ध्यान देने योग्य है। जीभ पर मैल की एक पर्त जमने लगती है और दाँतों की झिरी में अन्न के कण छिपे रहकर सड़न पैदा करते हैं। मुँह से बदबू आने के यह दो ही प्रधान कारण हैं। सबेरे कुल्ला करते समय दाँतों को भली प्रकार साफ करना चाहिए। जितने बार कुछ खाया जाये उतने ही बार कुल्ला करना चाहिए और रात को सोते समय तो जरूर ही मुँह की सफाई कर लेनी चाहिए। इससे दाँत अधिक दिन टिकेंगे, मुँह में बदबू न आयेगी और लोगों को पास बैठने पर दूर हटाने की आवश्यकता न पड़ेगी।
कपड़े जो शरीर को छूते हैं उन्हें विशेष ध्यान देकर साबुन से रोज धोना चाहिए। बनियान, अण्डरवियर, धोती, पाजामा आदि पसीना सोखते रहते हैं और रोज साबुन तथा धूप की अपेक्षा करते हैं। कोट जैसे कपड़े जिनका पसीने से सम्पर्क नहीं होता, नित्य धोने से छूट पा सकते हैं। भारी बिस्तरों को धोना तो कठिन पड़ेगा पर शरीर छूने वाले चादरें जल्दी-जल्दी बदलते रहना चाहिए और बिस्तर को कड़ी धूप में हर रोज सुखाना चाहिए।
घर के बर्तन इस तरह नहीं रहने चाहिए कि जिन पर चूहे और छिपकली पेशाब करें और उस जहर से अप्रत्यक्ष बीमारियाँ शरीरों में घुस पड़ें। खुले हुए खाद्य पदार्थ में कीड़े-मकोड़े घुसते हैं। इसलिए हर खाने में काम आने वाली वस्तु दबी-ढकी रहनी चाहिए। कपड़े, बर्तन, फर्नीचर, किताबें, जूते तथा अन्य सामान यथास्थान रखा हो तो ही सुन्दर लगेगा अन्यथा बिखरी हुई अस्त-व्यस्त चीजें कूड़े और गन्दगी की ही शक्ल धारण कर लेती हैं, भले ही वे कितनी ही मूल्यवान हों। जिस वस्तु को झाड़ते-पोंछते न रहा जायेगा वह धूल के पर्त में जमा होने तथा लगातार ऋतु प्रभाव सहते रहने से मैली, पुरानी हो जायेगी। हर चीज सफाई, मरम्मत और व्यवस्था चाहती है। घर का हर पदार्थ हमसे यही आशा करता है कि उसे स्वच्छ और सुव्यवस्थित रखा जाये। जिन्हें स्वच्छता से सच्चा प्रेम है वे शरीर का शृंगार करके ही न बैठ जायेंगे वरन जहाँ रहेंगे वह हर पदार्थ की शोभा, स्वच्छता एवं सुसज्जा का ध्यान रखेंगे। मकान की टूट-फूट और लिपाई-पुताई का, किवाड़ों की रंगाई का ध्यान रखा जाये तो उसमें बहुत पैसा खर्च नहीं होता। थोड़ा-थोड़ा समय बचाकर घर के लोग मिल-जुलकर यह सब सहज ही एक मनोरंजन की तरह करते रह सकते हैं और घर-परिवार में शरीर और बच्चों में मानवोचित स्वच्छता का दर्शन हो सकता है। कलाकारिता, स्वच्छता से आरम्भ होती है। अवांछनीयता का अस्वीकार करने की प्रवृत्ति का अभिवर्द्धन शरीर से आरम्भ होकर वस्त्रों तक और मन से लेकर व्यवहार तक की स्वच्छता तक विकसित होता चला जाता है और इस अच्छी आदत के सहारे परम सौन्दर्य से भरे हुए इस विश्व में भगवान ही प्रकाशवान कलाकारिता को देखकर आनन्दविभोर रहता हुआ पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है।
अपने यहाँ मल-मूत्र सम्बन्धी गन्दगी के लोग बुरी तरह अभ्यस्त हो गये हैं। पुराने ढंग के पाखानों में फिनायल, चूना आदि न पड़ने से उनमें भारी दुर्गन्ध आती है। बच्चों को नालियों पर गलियों में टट्टी कराके रास्ते दुर्गन्धपूर्ण एवं जी मिचलाने वाले बना दिये जाते हैं। घरों के आगे लोग कूड़े का ढेर लगा देते हैं। पेशाब ऐसे स्थानों पर करते रहते हैं जहाँ सार्वजनिक आवागमन रहता है। सफाईकर्मी के भरोसे सब कुछ निर्भर रहता है। यह नहीं सोचते कि मल-मूत्र आखिर है तो हमारे ही शरीर का, उसकी स्वच्छता के लिए कुछ काम स्वयं भी करें और सफाईकर्मी के काम में सहयोग देकर स्वच्छता बनाये रखने का अपना कर्तव्य निबाहें। देहातों में तो और भी बुरी दशा का वातावरण गन्दगी, दुर्गन्ध और अस्वास्थ्यकर घृणास्पद दृश्यों से भरा रहता है। कूड़े और गोबर के ढेर जहाँ-तहाँ लगे रहते हैं और उसकी सड़न सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए संकट उत्पन्न करती रहती है। इस दिशा में विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए। सोख्ता पेशाबघर, सोख्ता नालियाँ तथा गड्ढे खोदकर लकड़ी के शौचालय बहुत सस्ते में तथा बड़ी आसानी से बनाये जा सकते हैं। गाँव में पानी का लोटा साथ ले जाने की तरह यदि एक खुरपी भी लोग जाया करें और छोटा गड्ढा खोदकर उसमें टट्टी होने के उपरांत गड्ढे को ढक दिया करें, तो जमीन को खाद भी मिले और गन्दगी के कारण उत्पन्न होने वाली शारीरिक, मानसिक और सामाजिक अवांछनीयता भी उत्पन्न न हो।
स्वच्छता मानव जीवन की सुरुचि का प्रथम गुण है। हमें अपने शरीर, वस्त्र, उपकरण एवं निवास की स्वच्छता का ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए जिससे अपने को सन्तोष और दूसरों का आनन्द मिले। निर्मलता, निरोगता, निश्चिन्तता और निर्लिप्तता के आधार पर उत्पन्न की गई आत्मा की पवित्रता हमें ईश्वर से मिलाने का पथ प्रशस्त करती है। स्वच्छता को हम अनिवार्य मानें और अस्वच्छता का निष्कासन निरन्तर करते रहें, यही हमारे लिए उचित है।
ढलती आयु का उपयोग इस तरह करें
भारतीय परम्परा के अनुरूप मानव-जीवन चार भागों में विभक्त है। इस विभाजन को चार आश्रम कहते हैं। मनुष्य यदि सौ वर्ष पूर्ण आयु मानी जाये तो इसमें से 25 वर्ष ब्रह्मचर्य, विद्याध्ययन और शरीर पुष्टि के लिए। 25 वर्ष पारिवारिक उत्तरदायित्वों को निबाहने के लिए। 25 वर्ष परिवार को स्वावलम्बी, सुसंस्कृत बनाने की देख−भाल रखते हुए आत्म-विकास एवं लोक-मंगल की संयुक्त साधना के लिए तथा अन्तिम 25 वर्ष घर-परिवार की मोह, ममता से छुटकारा पाकर परिभ्रमण करते हुए विश्व-मानव के लिए, परमात्मा के लिए अपना पूर्णतया समर्पण करने के लिए है। इन चार अवधि विभाजन को चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास कहते हैं। यह ऐसा संतुलित विभाजन है कि जब तक उसे क्रियान्वित किया जाता रहा यह देश संसार वासियों की दृष्टि में स्वर्ग और इस देश का नागरिक देवता की तरह आदर्श एवं अभिनन्दनीय माना जाता रहा। जीवन का विभाजन-क्रम प्राचीनकाल की तरह आज भी आवश्यक एवं उपयोगी है।
यह सभी जानते हैं कि जीवन का आरम्भिक चौथाई भाग शारीरिक और मानसिक विकास के लिए है। संयम, व्यायाम, विद्याध्ययन, अनुशासन आदि सत्प्रवृत्तियों में निरत रहकर ब्रह्मचारी वर्ग भावी जीवन की आधारशिला सुदृढ़ करता है। जिसने यह मूल्यवान समय उच्छृंखलता में गँवा दिया वह शेष सारा जीवन रोते-कलपते ही गुजारेगा। युवावस्था उपार्जन, उत्पादन, अभिवर्द्धन एवं स्थिरता उत्पन्न करने के लिए है। जो विवाह करना आवश्यक समझते हों और उसके लिए अपने को सुयोग्य, समर्थ समझते हों, वे ऐसा कर सकते हैं अन्यथा माता-पिता, भाई-बहिन तथा समाज के अन्य दुर्बल परिस्थिति वालों की सहायता करने में उस आयु को नियोजित किया जा सकता है। विवाह उचित तो है पर अनिवार्य नहीं। गृहस्थ जीवन का अर्थ विवाह नहीं वरन् पारिवारिक सुव्यवस्था के लिए अपना कर्तव्य एवं अनुदान प्रस्तुत करना है। ब्रह्मचर्य की अवधि में जो शक्तियाँ प्राप्त की थीं, उनका उपयोग अपनी तथा दूसरों की परिवार संस्था के विकास में किस तरह किया जा सकता है, यही गृहस्थ जीवन की साधना है।
व्यक्तिगत जीवन की दृष्टि से यह आधा जीवन अपने व्यक्तित्व और परिवार के लिए नियोजित है। यों उसमें भी जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए समय-समय पर बहुत कुछ करते रहा जा सकता है। इसके उपरान्त वानप्रस्थ की स्थिति आती है। उसमें समर्थ और वयस्क बच्चों को स्वावलम्बी बनाना चाहिए। बूढ़े लोग अपना ही आधिपत्य नियन्त्रण घर-परिवार पर बनायें रहें तो बच्चे अनुभवहीन और अनुत्तरदायी बने रहेंगे और बूढ़ों के न रहने पर भारी कठिनाई अनुभव करेंगे। नवयुवकों में जोश तो बहुत होता है पर अनुभव के अभाव में वे अक्सर भूल करते रहते हैं। इसलिए परामर्श, मार्ग-दर्शन एवं देख−भाल की आवश्यकता बड़े लोग पूरी करते रहें, बाकी काम उन्हें करने और सँभालने दें। बड़े बच्चे अपने छोटे भाई-बहिनों को सँभालें। इस प्रकार व्यवस्था बना देने पर जो समय और मस्तिष्क बचे उसे अपनी आध्यात्मिक समर्थता बढ़ाने के लिए साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा में लगाना चाहिए। यही पूर्णता के लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने की तैयारी है। ब्रह्मचर्य अवधि में लौकिक जीवन की प्रगति एवं स्थिरता के लिए तैयारी की गई थी। वानप्रस्थ में आध्यात्मिक जीवन की, परमात्मा, विश्व-मानव की सेवा-साधना करने के लिए अग्रसर होते हैं। यह अति महत्त्वपूर्ण समय हैं इससे बच्चे भी सुयोग्य बनते हैं, अपनी आन्तरिक प्रगति का भी अवसर मिलता है और उस अवधि में लोक-मंगल के वे महत्त्वपूर्ण कार्य बन पड़ते हैं, जिनके ऊपर किसी समाज या राष्ट्र की वास्तविक प्रगति निर्भर रहती है।
जीवन का लक्ष्य पूर्णता प्राप्त करना है। अपूर्णताएँ, मानवीय दुर्बलताएँ, आत्म-निरीक्षण, आत्म-शोधन, आत्म-सुधार एवं आत्म-विकास के चार आधारों पर अवलम्बित हैं। चिन्तन और मनन के द्वारा आत्म-निरीक्षण और आत्म-समीक्षा अपनी दोष-दुर्गुणों को प्रकाश में लाती है। आत्म-सुधार के लिए शरीरगत बुरी आदतों और मनोगत दुष्प्रवृत्तियों से संघर्ष करके पुराने क्रम में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ता है। तपश्चर्या इसे ही कहते हैं। तप साधना का यही उद्देश्य है। यह वनवास की तरह घर में रहकर भी की जा सकती है। वानप्रस्थ इसी प्रयोजन के लिए है। लोक-मंगल में सेवा-संदर्भ में संलग्न रहने से आत्म-विकास होता है। जिस स्वार्थपरता के साथ हम अपने निजी प्रयोजनों में अब तक लगे रहें, उसी तत्परता के साथ लोक-मंगल और परमार्थ प्रयोजन में रस लेने लगे तो समझना चाहिए कि आत्म-विकास की प्रक्रिया चल पड़ी। अपनेपन की परिधि से निकलकर विश्व-मानव की सेवा में अपने समय, मन तथा धन को नियोजित करना होता है। वानप्रस्थ-साधना का यही क्रम है और भारतीय परम्परा के अनुरूप हमारा ढलता जीवन-पचास से पचहत्तर तक की आयु इसी में नियोजित होनी चाहिए।
व्यक्ति और समाज दोनों के ही कल्याण की दृष्टि से वानप्रस्थ की उपयोगिता असाधारण है। इससे समय रहते बड़े बच्चे सुयोग्य बन जाते हैं और अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व को समझने, निबाहने लगते हैं। उनमें जिम्मेदारी की भावना बढ़ती है और अनुभवी बनते हैं। यह व्यावहारिक प्रशिक्षण युवा बालकों को न मिले और वे देर तक परावलम्बी बने रहें तो आगे चलकर उन्हें उत्तरदायित्व सम्हालने, निबाहने में बड़ी कठिनाई पड़ती है। परिवार को स्वावलम्बी बना देना-उसकी एक बड़ी सेवा है। उसमें छोटे बच्चे भी अपने जिम्मेदारी अनुभव करने लगते हैं और वे बिगड़ते नहीं।
उपरोक्त प्रकार की व्यवस्था बनाकर ढलती आयु का हर व्यक्ति को स्वाध्याय, उपासना और आत्म-शोधन की तपश्चर्या के लिए समय निकालना चाहिए और लोक-मंगल की साधना में नियमित रूप से कम से कम चार घण्टा समय देना चाहिए। प्रातः और सायंकाल का समय व्यक्तिगत साधना के लिए और दिन का बचा समय लोक-मंगल की सेवा प्रक्रिया में लगाने के लिए नियुक्त रहना चाहिए। कहना न होगा कि समय की आवश्यकता को देखते हुए आज की सबसे बड़ी लोकसेवा विचार परिवर्तन की दृष्टि से किये गए प्रयत्नों पर ही निर्भर है। आर्थिक, शारीरिक या बौद्धिक सुविधाएँ बढ़ाने वाले कार्य भी यो सेवा क्षेत्र में आते हैं-पर उनका भी महत्त्व तभी है, जब लोगों की विचार-पद्धति का परिष्कार हो अन्यथा अगणित सुख-सुविधाएँ रहते हुए भी दुःखी बना रहेगा। सुखों की मूल प्रवृत्ति उच्च विचारणा ही है। समाज में विचारशीलता, विवेकशीलता और सद्भावना बढ़ सके, ऐसे लोकसेवा के कार्यों को हाथ में लेना वानप्रस्थ साधना का अविच्छिन्न अंग है। इस साधना को करते हुए आत्म-कल्याण, पूर्णता की प्राप्ति और ईश्वरीय प्रकाश की उपलब्धि का पूरा लाभ एवं आनन्द उठाया जा सकता है। सत्कर्मों से ही शुभ संस्कार बनते हैं ओर वे ही हमारी प्रधान आध्यात्मिक पूँजी हैं। सद्भावना अभिवर्द्धन की लोक-सेवा उसी प्रयोजन की पूर्ति करती है। वानप्रस्थ में साधु-ब्राह्मण जैसे लोक-मानस को परिष्कृत करने की सेवा-साधना करती होती।
जब तक वानप्रस्थ प्रणाली जीवित रही, देश को लाखों, लोक-सेवी अनुभवी और सुयोग्य कार्यकर्ता निःशुल्क मिलते रहे। उनके द्वारा ज्ञान कल्याण के असंख्य प्रयोजन पूरे किये जाते रहे और अपना देश सुसम्पन्न, समर्थ एवं सुसंस्कृत बना रहा। लोग स्वार्थी और संकीर्ण बनकर ढलती आयु को भी घर, परिवार के लिए ही व्यय करने लगें तो लोक-मंगल के लिए उच्च भावना सम्पन्न लोक-सेवियों का मिलना बन्द हो गया। व्यवसायी लोगों के हाथ सार्वजनिक क्षेत्र चला गया और समाज की भारी हानि हुई। देश के भावनात्मक अधःपतन का एक बहुत बड़ा कारण वानप्रस्थ परम्परा का लोप हो जाना ही है। समय की माँग है कि पचास वर्ष से अधिक आयु का हर व्यक्ति भले ही घर में रहे, पर आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की आध्यात्मिक प्रक्रिया में संलग्न होकर अपने और समाज के कल्याण का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन करने में संलग्न हो।
अनीति से सतर्क रहें, अन्याय को रोकें
अनीति इसलिए बढ़ती है कि उसे रोका नहीं जाता। निर्बाध गति से जिसे रास्ता मिलेगा वह आगे ही बढ़ता जायेगा। अच्छाई हो या बुराई सब की एक ही रीति है। अवरोध इन्हें रोकते हैं और निर्बाध निष्कंटक मार्ग मिले तो वे निरन्तर बढ़ती चली जाती हैं। हमें प्रगति के लिए, उपार्जन और उपलब्धियों के लिए प्रयत्न करना पड़ता है पर साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि आक्रमणकारी शक्तियाँ अपना अनिष्ट न करने लगें। उपार्जन की तरह सुरक्षा पर भी समान रूप से ध्यान न दिया जाये तो सारा गुड़-गोबर हो जायेगा।
पैसा कमाने के लिए कृषि, व्यापार, नौकरी आदि करते हैं और उस कमाई को सुरक्षित रखने के लिए घर, आलमारी, तिजोरी, ताला आदि का इन्तजाम करते हैं, बैंक में जमा करते हैं। यदि सुरक्षा का ध्यान न रखा जाये तो उस कमाई को चोर आसानी से अपहरण कर लेंगे। सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि के ऋतु प्रभावों से अपने को बचाये रखने के लिए वस्त्र पहनते हैं। गन्दगी के कृमि-कीटों से बचने के लिए साबुन-फिनायल आदि का प्रबन्ध करते हैं। चारों ओर आक्रमणकारी शक्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। वे हमारे अस्तित्व को चुनौती देती हैं। जो बचाव करना नहीं जानता, प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं होता वह बेमौत मारा जाता है। घर में चूहे इसलिए फिरते हैं कि हमारी खाद्य सामग्री खा जायें, सिर में चीलर, कपड़ों में जुएँ इसलिए उत्पन्न होते हैं कि हमें काटकर अपना पेट भरें, अपनी खाट में जन्मे खटमलों का उद्देश्य यह है कि हमें रात भर सोने न दें और रक्त पियें। मक्खी, मच्छर अपने विषैले प्रभाव से हमारे लिए जीवन संकट उत्पन्न करने की दुरभिसन्धि में लगे रहते हैं और तो और न दीखने वाले कीटाणु हवा में उड़ते रहते हैं और जब भी अवसर मिलता है चुपचाप हमारे शरीर में घुस जाते हैं और प्राणघातक बीमारियाँ उत्पन्न करते हैं। कीड़े-मकोड़ों की तो बात ही क्या है-चोर, डाकू, जेबकट, धोखेबाज, दुष्ट, दुर्जन, अन्यायी, आततायी गौर से देखते रहते हैं और जब भी उनका दाँव फँस जाता है, हमें बुरी तरह बर्बाद करके रख देते हैं।
भगवान की इस दुनिया में पुण्य और सहयोग बहुत है। वह न होता तो यहाँ जीवित रहना असम्भव हो जाता। पर साथ ही साथ और अन्याय भी कम नहीं है। यह इसलिए है कि हम सतर्क और संघर्षशील रहें। यह दोनों ही गुण मानवीय प्रगति के लिए अति आवश्यक हैं। जो सतर्क नहीं, सावधान नहीं, लापरवाह बरतता है, वह जरूर किसी आक्रमण का शिकार होगा और घाटा उठायेगा। जा अपने बचाव और सुरक्षा का ध्यान नहीं रखता वह दुष्टता के आक्रमण का शिकार बनेगा। प्रकृति चाहती है कि हर व्यक्ति सजग और सतर्क रहे। सावधानी बरते और घात-प्रतिघात से कैसे बचा जाता है, इस कला की जानकारी प्राप्त करे। सज्जन होना उचित है पर मूर्ख होना अक्षम्य है। हम दूसरों की सेवा-सहायता विवेकपूर्वक करें तो यह ठीक है, पर कोई मूर्ख अथवा कमजोर समझकर अपनी घात चलाये और ठग ले जाये यह अनुचित है।
हमें किसी के साथ अनीति नहीं करनी है, पर अनीति का शिकार भी नहीं होना चाहिए। ठगना बुरी बात है पर ठगाना उससे कम बुरा नहीं है। ठगी वहीं होगी जहाँ बेवकूफी और लालच की मात्रा बढ़ी-चढ़ी होगी। हमला उसी पर किया जायेगा जिसने अपना स्वरूप दूसरों की आँखों में दुर्बल जैसा बना दिया होगा। अनेक पापों में शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता भी एक भयंकर वर्ग के पातक हैं, हमें इनसे बचने के लिए अपना शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास इस तरह करना चाहिए कि किसी को अपनी दुर्बलता अनुभव न होने लगे और कोई अपनी कमजोरी भाँप कर आक्रमण की घात न लगाने लगे।
संसार में सज्जनता बहुत है। इस विश्व का सारा सौन्दर्य और विकास ही उस पर निर्भर है, पर दुर्जनता उससे किसी प्रकार कम नहीं। देवत्व से असुरता का पलड़ा कुछ भारी पड़ता है। खासतौर से यह समय तो ऐसा ही है कि जिसमें दुष्टता ओर दुर्जनता अपने चरमोत्कर्ष को पहुँच चुकी है। ऐसे समय में पुण्य-परमार्थ एवं सेवा-सहायता के लिए तत्पर होने के साथ-साथ इस बात के लिए भी सजग होना चाहिए कि अनीति के आक्रमण उसकी उपलब्धियों का अपहरण न कर ले जायें। अपने को किसी घात-प्रतिघात, दुरभि-सन्धि और छलना का शिकार न बनना पड़े। सतर्कता आवश्यक है। जैसे बुद्धिमान हाथी अपने चारों ओर की परिस्थितियों का पर्यवेक्षण करता हुआ आगे बढ़ता है वैसे ही हमें भी देखते रहना चाहिए कि आक्रमणकारी शक्तियाँ गुप्त और प्रकट रूप से घात लगाये तो नहीं बैठी है। डरना ओर आशंकायुक्त रहना बुरी बात है पर उससे भी बुरी यह है कि व्यक्ति भुलावे में पड़ा रहे और तब सजग हो जब सब कुछ गँवा दिया गया हो। दुनिया में विश्वास के बिना काम नहीं चलता पर अविश्वासी तत्त्वों के प्रति सजगता भी अनावश्यक नहीं है। असावधानी चोरी करने के लिए प्रोत्साहन देती है। अवसर न मिलें तो हर व्यक्ति ईमानदार रह सकता है पर यदि कुछ भी कर गुजरने की खुली छूट हो तो किसी का भी ललचा जाना सम्भव है। इसलिए व्यवस्था ऐसी बनानी चाहिए कि किसी को वैसी छूट न मिले जिसमें उसे ललचाने और अवांछनीय आचरण करने का अवसर मिले।
मित्रों के रूप में शत्रुता करना इस युग का नया फैशन है। पुराने जमाने के लोग आमने-सामने की लड़ाई पसन्द करते थे और जिससे लड़ना होता था उससे खुले मैदान दो-दो हाथ करते थे। अब नये जमाने में दूसरे तरीके काम में लाये जाते हैं। अब जिसे पछाड़ना होता है पहले उसका मित्र बना जाता है, घनिष्ठता बढ़ाई जाती है, विश्वासपात्र बना जाता है और जब यह स्थिति आ जाये कि अब पूरा भरोसा किया जाने लगा तभी ऐसी घात चली जाती है कि बेचारा विश्वासी बुरी तरह मारा जाये। इस घात-प्रतिघात की आक्रमणकारी रीति-नीति से हर किसी को सजग रहना चाहिए। भोलापन और भलमनसाहत बहुत ही प्रशंसनीय गुण हैं पर अति हर चीज की बुरी होती है। हमें इस सीमा तक भोला नहीं बनना चाहिए कि चारों ओर जाल बिछाकर बैठे हुए बहेलिए अपना उल्लू सीधा करने और हमें बर्बाद करने में सफल हो जायें। शत्रुओं से हमें सजग रहना चाहिए और मित्रों से सावधान। इन दिनों शत्रुता से जितना खतरा है मित्रता में उससे सैकड़ों गुने खतरे की सम्भावना समाई हुई है। दूसरों की नीयत पर अविश्वास करना बुरी बात है, पर उससे भी बुरा यह है कि बिना पूरी तरह जाँच-पड़ताल किये यों ही किसी पर भरोसा कर बैठा जाये। धोखा किसी को नहीं देना चाहिए पर धोखा खाना कहाँ की बुद्धिमानी है हमें हर किसी पर पूरा विश्वास करना चाहिए साथ ही पैनी निगाह से यह देखते रहना चाहिए कि कहीं असावधानी से वह अवसर तो उत्पन्न नहीं हो रहा है, जिससे दुर्बल मन मनुष्य का अविश्वासी बन जाना सम्भव है।
हमारी असावधानी ही लोगों को अनुचित लाभ उठाने के लिए ललचाती है। हमारी दुर्बलता ही अनेक आक्रमणकारियों को आमन्त्रित करती है। हम दुर्बल न रहें, शरीर से स्वस्थ और समर्थ रहें, मन को आशंका ग्रस्त नहीं, सजगता की सहज बुद्धि से सावधान रखें। विपदा से बचना उचित है पर जब वे सामने आ ही जायें तो इतनी हिम्मत रखनी चाहिए कि बहादुर योद्धा की तरह बिना घबड़ाए, धैर्य, साहस, विवेक और पुरुषार्थ के साथ उनसे निबटने और कट-कटकर लड़ने में कोई कठिनाई प्रतीत न हो। हमें मित्रवान होना चाहिए। चरित्रवान और आदर्शवादी व्यक्ति ही सच्चे मित्र हो सकते हैं। चापलूस, चालाक और चरित्रहीन व्यक्ति वक्त पर धोखा देते हैं। इसलिए अपनी घनिष्ठता ऐसे लोगों से बढ़ानी चाहिए जिनमें सज्जनता एवं समर्थता की कमी न हो। ऐसी मैत्री भी एक शक्ति है जिसके सहारे इस अनीति भरी दुनिया में अपनी सुरक्षा की किलेबन्दी की जा सकती है।
हमें किसी के साथ अनीति नहीं बरतनी चाहिए पर अन्याय को भी सहन नहीं करना चाहिए। संघर्ष के बिना कोई छुटकारा नहीं। प्रतिरोध में हानि उठानी पड़ सकती है पर प्रतिरोध न करने में-चुपचाप अनीति सहने रहने में और भी अधिक घाटे में रहना होगा। अनीति बरतने की प्रक्रिया तभी गतिशील रहती है, जब उसका अवरोध न हो। अनीति को हम कदापि सहन न करें भले ही उसके प्रतिरोध में कितनी ही बड़ी क्षति क्यों न उठानी पड़े। पाप को रोकना हो, अन्याय को घटाना हो तो उसके लिए समर्थ संघर्ष के लिए तत्पर होना ही पड़ेगा।
जो अनुचित है उससे सहमत न हों
पौधे की जड़ में पानी लगता जायेगा तो वह बढ़ता ही चलेगा। अनीति का पोषण होता रहा तो वह दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती रहेगी। अन्याययुक्त आचरण करने वालों को प्रोत्साहन उनसे मिलता है जो इसे सहन करते हैं। उत्पीड़ित चुपचाप सब कुछ सह लेता है, यह समझकर अत्याचारी की हिम्मत दूनी-चौगुनी हो जाती है और वह अपना मार्ग निष्कंटक समझकर और भी अधिक उत्साह से अनाचरण करने पर उतारू हो जाता है। अन्याय सहना-अपने जैसे अन्य असंख्य को उसी तरह का उत्पीड़न सहने के लिए परिस्थितियाँ पैदा करना है। अनीति सहना प्रत्यक्षतः आततायी को प्रोत्साहन देना है।
दूसरों को अनीति पीड़ित होते देखकर कितने ही लोग सोचते हैं कि जिस पर बीतेगी वह भुगतेगा। हम क्यों झंझट मोल लें। एक सताया जाता रहता है-पड़ोसी चुपचाप देखता रहता है। दुष्ट लोग हमें भी न सताने लगें यह सोचकर वे आँखें फेर लेते हैं और उद्दण्डों को उद्दण्डता बरतते रहने का निर्बाध अवसर मिलता रहता है। चार गुण्डे सौ आदमियों की भीड़ में घुसकर सरे बाजार एक-दो को चाकुओं से गोद सकते हैं। सारी भीड़ तमाशा देखेगी, आँखें फेरेगी या भाग खड़ी होगी। कहीं हम भी चपेट में न आ जायें-इस भय से कोई उन चार दुष्टों को रोकने या पकड़ने का साहस न करेगा। इस जातीय दुर्बलता को समझते हुए ही आये दिन दुस्साहसिक अपराधों की, चोरी, हत्या, लूट, कत्ल, बलात्कार आदि की घटनाएँ घटित होती रहती हैं। जानकार, सम्बन्धित और जिन्हें सब कुछ मालूम होती है वे गवाही तक देने नहीं जाते और आतंकवादी अदालतों से भी छूट जाते हैं और दूने, चौगुने जोश से फिर जन-साधारण को आतंकित करते हैं। एक-एक करके विशाल जन-समूह थोड़े से उद्दण्डों द्वारा सताया जाता रहता है। लोग भयभीत, आतंकित, पीड़ित रहते हैं पर कुछ कर नहीं पाते। मन ही मन कुड़कुड़ाते रहते हैं। विशाल जन-समूह ‘निरीह’ कहलाये और थोड़े से दुष्ट-दुराचारी निर्भय होकर संत्रस्त, आतंकित करते रहें यह किसी देश की जनता के लिए सामाजिकता के लिए भारी कलंक-कालिमा है। इससे उस वर्ग की कायरता, नपुंसकता, भीरुता, निर्जीवता ही सिद्ध होती है। ऐसा वर्ग पुरुष कहलाने का अधिकारी नहीं। पुरुषार्थ करने वाले को, साहस और शौर्य रखने वाले को पुरुष कहते हैं। जो अनीति का प्रतिरोध नहीं कर सकता उसे नपुंसक, निर्जीव और अर्द्धमृत ही कहना चाहिए। यह स्थिति हमारे लिए अतीव लज्जास्पद है।
हम एक-एक करके सताये जाते रहते हैं, इसका एक ही कारण है कि सामूहिक प्रतिरोध की क्षमता खो गई। उसे जगाया जाना चाहिए। आज जो एक बार बीत रही है वह कल अपने पर भी बीत सकती है। दूसरे पर होने वाले अत्याचार का प्रतिरोध हम न करेंगे तो कोई हमारी सहायता के लिए क्यों आयेगा? यह सोचकर व्यक्तिगत सुरक्षा की इस चपेट में अपने को भी चोट लगे, आर्थिक तथा दूसरे प्रकार की क्षति उठानी पड़े और इसे मनुष्यता के उत्तरदायित्व का मूल्य समझकर चुकाना चाहिए। इसे सहन करना ही चाहिए। शूरवीरों को आघात सहने का ही पुरस्कार मिलता है और वे इसी आधार पर लोक-श्रद्धा के अधिकारी बनते हैं।
लोक-श्रद्धा क अधिकारी तीन ही हैं-(1) सन्त, (2) सुधारक, (3) शहीद। जिन्होंने अपने आचरणों, विचारों और भावनाओं में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता का समावेश कर रखा है वे संत हैं। विपन्न परिस्थितियों को बदलकर जो सुव्यवस्था उत्पन्न करने में संलग्न हैं-अनौचित्य के स्थान पर औचित्य की प्रतिष्ठापना कर रहें हैं वे सुधारक है। अन्याय से जूझने में जिन्होंने आघात सहे और बर्बादी को हँसते हुए शिरोधार्य किया वे शहीद हैं। ऐसे महामानवों के प्रति मनुष्यता सदा कृतज्ञ रही है और इतिहास उनका सदा अभिनन्दन करता रहा है। भले ही आपत्ति सहनी पड़े पर इस गौरव से जो गौरवान्वित हो सकता हो उसे अपने को धन्य ही मानना चाहिए। अनीति का सामूहिक प्रतिरोध करने की प्रवृत्ति हमें जन-मानस में जाग्रत करनी चाहिए और जिन्होंने इस संदर्भ में कुछ कष्ट सहा हो, शौर्य दिखाया हो, त्याग किया हो उनका भाव भरा सार्वजनिक अभिनन्दन किया जाना चाहिए, ताकि वैसा प्रोत्साहन दूसरों को भी मिले और जन-जीवन में अनीति से लड़ने की उमंग उठ पड़े।
हमें कई बार ऐसी बात मानने और ऐसे काम करने के लिए विवश किया जाता है जिन्हें स्वीकार करने को अपनी आत्मा नहीं कहती फिर भी हम दबाव में आ जाते हैं और इन्कार नहीं कर पाते। इच्छा न होते हुए भी उस दबाव में आकर वह करने लगते हैं जो न करना चाहिए। ऐसे दबावों में मित्रों या बुजुर्गों का निर्देश इतने आग्रहपूर्वक सामने आता है कि गुण-दोष ध्यान रखने वाला असमंजस में पड़ जाता है। क्या करें, क्या न करें? कुछ सूझ नहीं पड़ता। कमजोर प्रकृति के मनुष्य प्रायः ऐसे अवसरों पर ‘ना’ नहीं कह पाते और इच्छा न रहते हुए भी वैसा करने लगते हैं। इस बुरी स्थिति में साहसपूर्वक इनकार कर देना चाहिए। जिसे हम बुरा समझते हैं उसे स्वीकार न करना सत्याग्रह है और यह किसी भी प्रियजन, सम्बन्धी या बुजुर्ग के साथ किया जा सकता है। इसमें अनुचित या अधर्म रत्ती भर नहीं है। इतिहास में ऐसे उदाहरण पग-पग पर भरे पड़े हैं। प्रह्लाद, भरत, विभीषण, बलि आदि की अवज्ञा प्रख्यात है। अर्जुन को गुरुजनों से लड़ना पड़ा था। मीरा ने पति का कहना नहीं माना था। मोहग्रस्त अभिभावक लोभग्रस्त अनेक तरह के कुकृत्य करने के लिए विवश करते हैं। बेईमानी का धन्धा करने वाले बुजुर्ग अपने बच्चों से भी वही कराते हैं। अपनी मूढ़ता और रूढ़िवादिता की रीति-नीति अपनाने के लिए भी दबाते हैं। न मानने पर नाराज होते हैं-अवज्ञा का आरोप लगाते हैं, ऐसी दशा में किंकर्तव्यविमूढ़ होने की जरूरत नहीं है। आदर्श यही रहना चाहिए कि केवल औचित्य को ही स्वीकार किया जायेगा, चाहे वह किसी के पक्ष में जाता हो। अनौचित्य को हर हालत में अस्वीकार किया जायेगा चाहे किसी ने भी उसके लिए कितना ही दबाव क्यों न डाला हो।
आज की सामाजिक कुरीतियों के अन्धानुकरण में पुरानी पीढ़ी ही अग्रणी है। बच्चों का जल्दी विवाह कर उन्हें स्वास्थ्य तथा शिक्षा से वंचित करना उनका मिथ्या मोह मात्र है। नम्रतापूर्वक ऐसे अवसरों पर अपनी हठ, असहमति व्यक्त की जा सकती है। दृढ़तापूर्वक स्पष्ट शब्दों में यह कह दिया जाये कि हमें किसी भी शर्त पर खर्चीला विवाहोन्माद स्वीकार नहीं। जब करना हो तो बिना दहेज, जेवर तथा बिना धूमधाम का विवाह ही करेंगे, देखने भर में यह अवज्ञा है पर वस्तुतः इसमें हर किसी का केवल हित साधन ही सन्निहित है। इसलिए बुरा लगने पर भी कड़वी दवा की तरह यह अवज्ञा सबके लिए श्रेयस्कर है। अतएव उसे किसी प्रकार अनुचित अथवा अधर्म नहीं कहा जा सकता
दोस्ती के नाम पर लोग सिगरेट, शराब, जुआ, सिनेमा आदि के कुमार्ग पर घसीटना चाहते हैं। ऐसे अवसरों पर भी अपनी असहमति को स्पष्ट और कड़े शब्दों में व्यक्त कर सकते हैं। दोस्ती का मतलब मित्र को कुमार्ग से छुड़ाना है। पथ भ्रष्ट करने के लिए घसीट ले जाना नहीं। इसी प्रकार कर्ज माँगने वाले, भीख के लिए अड़ने वाले, स्वार्थ के लिए अनुचित कृत्य कराने के लिए दबाव देने वाले, अनीति का विरोध न करके चुन रहने का आग्रह करने वाले लोग आये दिन सामने आते रहते हैं और चतुरतापूर्वक अपने तर्क तथा प्रतिभा का ऐसा प्रयोग करते हैं कि अनिच्छा होने पर भी उनके प्रभाव में आकर वैसा ही करने को विवश होते हैं। ऐसे अवसरों पर हमारा साहस इतना प्रखर होना चाहिए कि नम्र किन्तु स्पष्ट शब्दों में इनकार कर सकें। इनकार, असहयोग, विरोध और संघर्ष इन चार शस्त्रों से हम अनीति और अविवेक का सामना कर सकते हैं। सत्य और न्याय के लिए इन शस्त्रों का प्रयोग हमें साहसी शूरवीर योद्धा की तरह करते भी रहना चाहिए।
औचित्य की सराहना व अनौचित्य की भर्त्सना की जाये
मनुष्य में एक स्वाभाविक भूख प्रशंसा पाने की भी है। पेट पालने और मनोरंजन के साधन जुटाने के अतिरिक्त उसे अभिलाषा यह भी रहती है कि दूसरे लोग उसे बड़ा मानें। इस बड़ाई को पाने के लिए औसत मनुष्य उन कार्यों को करता है जिससे प्रशंसा और इज्जत मिल सके। इन दिनों जनसाधारण का मानसिक स्तर बहुत ही गये-गुजरे स्तर का हो चला है इसलिए पैसे वाले अमीर और आतंकवादी लोगों को इज्जत देते हैं। चूँकि धनियों को आदर मिलता है इसलिए लोग धनी बनना चाहते हैं। चूँकि दुष्ट और आततायियों के आतंक से लोग डरते हैं, उनका रौब मानते हैं ओर खुशामद, चापलूसी करते हैं। इसलिए वैसा बनने की इच्छा उठती रहती है। चूँकि लोगों को कुत्सित मनोरंजन पसंद है और कला का कुरुचिपूर्ण स्वरूप ही सराहते हैं इसलिए निर्लज्ज कामुकता भड़काने वाले नृत्य-गायन, वाद्य और अभिनयों को ही कलाकारों ने अपना रखा है। प्रशंसा का भूखा मनुष्य यदि सराहता मिले तो निरीह पशुओं की नृशंस हत्या से गर्व अनुभव करने वाला शिकारी, डाकू, जल्लाद, आततायी आदि कुछ भी बन सकता है।
आज की पतनोन्मुख लोकरुचि की ही करामात है कि गये-गुजरे कामों की प्रशंसा होती है और तमसाच्छन्न व्यक्तियों को वैसी ही गर्हित कार्यपद्धति अपनाने में प्रसन्नता अनुभव होती है। चूँकि दान को मूर्खता और संग्रह को बुद्धिमत्ता कहा जाता है इसलिए अब परमार्थ की मात्रा बुरी तरह घटती जा रही है और अमीरी की हविश पूरी करने को संलग्न संग्रहशीलता आकाश-पाताल छूने वाली तृष्णा की तरह बढ़ रही है। ठाठ-बाट, शान-शौकत वाली फिजूलखर्ची अपनाने वाले चूँकि बड़े आदमी माने जाते हैं इसलिए बड़प्पन के भूखे लोग किसी भी उचित-अनुचित रीति से वैभव जुटाने में कटिबद्ध हैं। अमीरी का प्रदर्शन करने के लिए विवाह-शादियों तथा दूसरे आडम्बरों में ढेरों पैसा इसलिए फूँकते हैं कि लोग उन्हें धनी-मानी मानें और इज्जत-आबरू की दृष्टि से देखें। इन दिनों चालाकी, धूर्तता, बेईमानी, दुष्टता से भी यदि कुछ मतलब गाँठ लिया जाये तो मिलने-जुलने वाले सराहना करने और बधाई देने आवेंगे ही। ऐसे वातावरण में अनैतिकता का आर्थिक और प्रशंसात्मक दुहरा लाभ उठाने के लिए हर किसी का मन चले तो यह स्वाभाविक है।
पतनोन्मुख समाज और बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्तियों को रोकने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि स्वार्थी, संकीर्ण और अवांछनीय व्यक्तियों तथा कार्यों की प्रशंसा ही बन्द न की जाये वरन् उनकी भर्त्सना का साहस भी समेटा जाये। इसी प्रकार सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन तथा सज्जनता के परिपोषण के लिए यह आवश्यक है कि जिसने अपने आचरण में अनुकरणीय आदर्शवादिता समाविष्ट की हो उनकी मुक्त कण्ठ से, व्यापक रूप से सराहना की जाये। प्रशंसा सफलता की नहीं वरन् सज्जनता की ही की जानी चाहिए। कुमार्ग पर चलकर पाई हुई सफलता की अपेक्षा सन्मार्ग पर चलते मिली हुई असफलता ही सराहनीय समझी जानी चाहिए फाँसी पर चढ़ने वाले ईसामसीह, जहर पीने वाले सुकरात, गोली से उड़ाये जाने वाले गाँधी एक प्रकार से असफल ही कहे जा सकते हैं पर उन्होंने जिस मार्ग को अपनाया वह वन्दनीय ही कहा जायेगा। यही रीति-नीति हर कार्य के लिए और हर व्यक्ति के लिए अपनाई जानी चाहिए। जिसने अपने स्वार्थ साधन और ऐशो-आराम के लिए सम्पदा कमाई, उसकी प्रशंसा क्यों की जाये? जिसने अनीति के मार्ग में सफलता पाई-जिसने लोकमानस को प्रेरणा न दी ऐसे पदवीधारी, विद्वान, कलाकार, नेता, अभिनेता की सराहना में एक शब्द नहीं निकाला जाना चाहिए। एक पंक्ति भी नहीं लिखी जानी चाहिए अन्यथा अनीति का आचरण रोका नहीं जा सकेगा। वरन् दिन-दिन बढ़ेगा। सिनेमा में नाचने वाली नटनियों के रंग-बिरंगे फोटो अखबारों में छपते देखकर अब लड़के-लड़कियों के मन में वैसी ही उमंगें उठती हैं। त्याग और बलिदान को जिन दिनों अख़बार सराहते थे उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम के लिए त्याग, बलिदान करने की लहर भी अपने देश में हिलोरें लेती हुई दीखती थी। आज मिनिस्टरों के गुणगान छपते हैं तो किसी भी तरकीब से उस पद तक पहुँचने के लिए हर प्रभावशाली व्यक्ति लालायित दीखने लगता है। यदि डाकुओं की प्रशंसा करने वाले लेख, फोटो, कविता, फिल्म, नाटक प्रस्तुत किये जायें तो निश्चित रूप से कुछ ही समय में सारा जोशीला वर्ग डाकू बनने की साधना-कामना करने लगेगा।
सज्जनता और सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्द्धन और अभीष्ट हो तो उसके लिए प्रशंसा और प्रोत्साहन करने की तैयारी करनी पड़ेगी। दुष्टता और सम्पदा की सराहना करने वाले लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या मौजूद है। फलस्वरूप वे अवांछनीय तत्त्व द्रुतगति से बढ़ रहें हैं। हमें एक ऐसा वर्ग खड़ा करना है जो सज्जनता और सत्प्रवृत्तियों को सराहें और उनकी प्रशंसा व्यापक बनाने के लिए आवश्यक साधन जुटायें, पर्चे, पोस्टर, विज्ञापन और छोटे-बड़े अख़बार निकालकर हमें सज्जनता के समाचार छापने चाहिए और जिन्होंने अनुकरणीय उदारता के कोई आदर्श प्रस्तुत किये हैं उनकी सराहनीय जानकारी को व्यापक क्षेत्र में फैलाया जाना चाहिए। इन दिनों राजा-रईसों के हिस्से में ही प्रशंसा पक्ष चला गया है। हमें ऐसे गरीबों और छोटे आदमियों के गुणानुवाद प्रस्तुत करने चाहिए जिन्होंने लोकमंगल के लिए अपनी छोटी शक्ति और छोटे साधनों के रहते हुए भी महानता एवं उदारता का साहसिक परिचय दे डाला। इस प्रयोजन के लिए प्रकाशन, लेखन और गायन की पूरी-पूरी साधन सामग्री जुटानी चाहिए। लोक-मंगल की दृष्टि से किये गये त्याग और बलिदानों को-फिर चाहे वे गरीब या पिछड़े लोगों द्वारा ही प्रस्तुत क्यों न हों सर्वसाधारण की जानकारी में प्रशंसात्मक घटनाएँ, जीवनियाँ खोजने और उन्हें गद्य या पद्य में छपवाने के लिए हमें हर भाषा में समर्थ तन्त्र खड़े करने चाहिए।
अभिवन्दन, आयोजन, जयन्तियों, शताब्दियों की एक ऐसी संगठित शृंखला चलानी चाहिए जिसके अन्तर्गत शानदार उत्सव मनाये जायें और उन जीवित या स्वर्गस्थ सज्जनों का अभिवन्दन किया जाये जिन्होंने मानवता को जीवित रखने के लिए अपने अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किये। ऐसे लोगों के स्मारक बनाये जा सकते हैं। इमारतें न बन सकें तो स्मृति चबूतरों पर शिलालेख जड़े जा सकते हैं या वृक्ष लगाये जा सकते हैं। जहाँ जाकर जन-साधारण को उपयुक्त अवसरों पर श्रद्धांजलि अर्पित करने का अवसर मिलता रहे। स्वर्गीय उदारमना लोगों के शिलाचित्र या प्रतिमाएँ सार्वजनिक स्थानों में स्थापित करने का तरीका अच्छा है। जीवित लोगों को मानपत्र या उपहार, अभिनन्दन अथवा पदवी प्रदान की कुछ व्यवस्था की जा सकती है पर यह ध्यान रखा जाये कि इस प्रकार का लाभ केवल उन्हें ही मिले जो वस्तुतः उसके अधिकारी हों। यदि अनधिकारी लोग तिकड़म भिड़ाकर इस प्रकार की प्रशंसा, प्रतिष्ठा प्राप्त करने में सफल हो गये तो फिर यह महान प्रक्रिया भी अपना महत्त्व खो बैठेगी। फिर ऐसे स्तर की प्रशंसा पाने, करने में सच्चे मनुष्य अपनी बेइज्जती अनुभव करने लगेंगे, इसलिए इस प्रकार की अभिनन्दन, प्रशंसा जुटाने वालों को पूरी सतर्कता से यह ध्यान रखना चाहिए कि अवांछनीय और अनधिकारी लोग दंद-फंद, पक्षपात या पार्टी बन्दी के आधार पर इस पुण्य प्रक्रिया का अपने पक्ष में अनुचित लाभ न उठाने पायें।
सम्पदा को प्रतिष्ठा मिलने से लालच बढ़ता है और अनैतिकता की कीमत पर अमीरी बढ़ाने की प्रवृत्ति पनपती है। अवांछनीयता के आतंक के सामने लोगों ने सिर झुकाया और विरोध से कतराकर दुष्टता को समर्थन दिया है। दुष्प्रवृत्तियाँ इसी प्रकार पनपी हैं। इसके दुष्परिणाम सामने हैं। नवनिर्माण के लिए इस विग्रह को उलटना होगा। पहले कदम के रूप में सज्जनता को अभिनन्दित प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। दूसरे कदम के रूप में दुष्टता और अवांछनीयता की भर्त्सना के लिए व्यापक मोर्चा खड़ा करना पड़ेगा और तीसरे कदम में दुष्टता के प्रतिरोध के लिए संघर्ष की ऐसी योजना बनानी पड़ेगी जिसके भय से अनाचार करने का उत्साह ही ठण्डा हो जाये और अवांछनीय, असामाजिक कार्य करने वालों को उनके फलस्वरूप उन कठिनाइयों के बारे में हजार बार विचार करना पड़े जो उन्हें अपने कुकृत्य के फलस्वरूप अनिवार्य रूप से भुगतनी पड़ा करेंगी।
सुव्यवस्था ही परिवारों को सुविकसित रख सकेगी
परिवार यदि विसंगठित, अनियन्त्रित हो तो उससे निरन्तर क्लेश-कलह ही बना रहेगा और जी चाहेगा कि छोटी इकाई बनाकर अलग रहा जाये पर यदि उसमें सद्भावना और आत्मीयता का पुट उचित मात्रा में मौजूद है-व्यवस्थापूर्वक सारा क्रम चलता है तो उस कुटुम्ब में स्वर्ग जैसी अनुभूति होगी। भारत जैसे देश में जहाँ बालकों और वृद्धों को घर के कमाऊ लोगों पर ही निर्भर रहना पड़ता है अधिकांश को कृषि, गृह उद्योग के माध्यम से मिल-जुल कर ही चलानी पड़ती है तथा पारस्परिक सेवा-सहायता के अच्छे साधन तुरन्त उपलब्ध करना सम्भव नहीं, वहाँ संयुक्त परिवार की आवश्यकता बनी ही रहेगी। इंग्लैण्ड, अमेरिका की बात जाने दें, जहाँ सरकार वृद्धों को बेकारी की पेन्शन देती है, शिक्षा, चिकित्सा, प्रसूत आदि की सुविधा हर नागरिक को उपलब्ध है। वहाँ पारस्परिक निर्भरता उतनी न रहने में आजीविका साधन सर्वत्र उपलब्ध रहने से संयुक्त परिवार की आवश्यकता नहीं रहती और वयस्क व्यक्ति विवाह होते ही अपना अलग परिवार बना लेते हैं पर यहाँ की आर्थिक दुर्बलता और भावनात्मक स्थिति मोह-ममता की दिशा में बढ़ी-चढ़ी रहने से संयुक्त परिवार ही उत्तम रहेंगे।
यदि हमें बड़े परिवार रखने ही हैं तो उनका ढाँचा ऐसा क्यों न बनाया जाये, जिससे सभी को उचित सम्मान, उचित अधिकार प्राप्त हो और उचित कर्तव्य पालन की आवश्यकता हर सदस्य अनुभव करे। इस ओर उपेक्षा बरती गई है तथा समयानुकूल आचार संहिता बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया है। यही कारण है कि एक घर में एक साथ रहने वाले परिवार के बीच वैसा स्नेह-सौजन्य, सद्भाव, सहयोग और संगठन नहीं दीखता जैसा होना चाहिए। साल भर से तो अधिक कौटुम्बिकता का आनन्द नहीं लिया जा सकता।
घर में एक व्यवस्था पद्धति होना चाहिए। जिसके अन्तर्गत बड़ों को उचित सम्मान, श्रद्धा, सुविधा देने का सभी छोटे लोग समुचित ध्यान रखें। उनके अनुभवों से लाभ उठाने और पिछली सेवाओं के लिए कृतज्ञ रहने की भावना विद्यमान रहे। समय-समय पर उनके पास परामर्श आदि के लिए जाते रहें और उनमें से जो उचित एवं आवश्यक हो उन्हें पालन भी करते रहा जाये तो वृद्धों का संतोष रह सकता है। जिनकी शारीरिक स्थिति अधिक अशक्त हो गई है उन्हें भोजन, स्नान, स्वच्छता, चिकित्सा आदि की सुविधा देने तथा शरीर यात्रा में आवश्यक सहायता करने की व्यवस्था रखने की आवश्यकता है। इतना सहारा बड़ों-वृद्धों को कुटुम्बियों से मिलना ही चाहिए। वृद्धों को भी घर के समझदार लोगों की विवेक बुद्धि विकसित करने में सहायता तो देनी चाहिए पर बहुत नियन्त्रण नहीं करना चाहिए। जमाना तेजी से बदला है और देखते-देखते पुराने ढर्रे और नई व्यवस्था में बहुत भारी अन्तर आ गया है। नई रोशनी के लोग नये ढंग से सोचते हैं और आधुनिक रीति-नीति का जीवनयापन करना चाहते हैं। चूँकि वे बातें पुराने जमाने में नहीं होती थीं। इसलिए बुजुर्गों को व अनावश्यक और अनुचित लग सकती हैं। इसलिए वे उनका आवश्यकता से अधिक विरोध, प्रतिरोध करते पाये जाते हैं। इसकी प्रतिक्रिया अवज्ञा के रूप में सामने आती है क्योंकि वृद्धों की बुद्धिमत्ता उस बात में है कि वे अपने अनुभव परामर्श का लाभ भी नई पीढ़ी को देते रहें और इतनी ढील भी छोड़ें कि उन्हें अपनी रुचि का रहन-सहन अपनाने की छूट रहे। हाँ स्वतन्त्रता को उच्छृंखलता और अनैतिकता की सीमा तक नहीं पहुँचने दिया जाये।
कमाऊ लोगों पर इस बात की भारी जिम्मेदारी है कि वे अपने द्वारा उपार्जित धन को पूरे परिवार की धरोहर समझें और अपने लिए अनावश्यक खर्च के लिए चाह न करें। उस पैसे से घर की नई पौध को शिक्षा, स्वास्थ्य, विनोद, अनुभव और संस्कार मिलने का समुचित अवसर मिले। इसके लिए खर्च की अपेक्षा रहेगी ही यदि कमाऊ लोग अधिक उड़ाने-खाने लगें तो उस छोटी पौध के विकास में कटौती करनी पड़ेगी। बच्चों को जन्म देने वाले माता-पिता से लेकर घर के अविकसित छोटी पौध को समुन्नत बनाने में कुछ उठा न रखें। यह तभी सम्भव है जबकि वे अपनी निजी आवश्यकताएँ उतनी ही रखें जितनी अनिवार्य हैं तभी कुछ बचत और उसका लाभ मिल सकना मध्यम श्रेणी के लोगों के लिए सम्भव है।
बड़े भाइयों को छोटे भाई-बहिनों का एक प्रकार से अभिभावक या पिता ही माना जाना चाहिए। उनका कर्तव्य है कि अलग-अलग रहकर अपनी कमाई खुद और पत्नी को खिलाने भर की ओछी बात न सोचें वरन् पिता ने जिस आत्मीयता और खर्च उठाकर उन्हें पाला-पोसा, समर्थ किया है इसका पितृऋण अपने छोटे भाई-बहिनों की सहायता करके चुका दें। घर में अच्छी परम्पराएँ स्थिर रखना न केवल वर्तमान लोगों की सुविधा के लिए आवश्यक है वरन् अगली पीढ़ी को संस्कारवान् बनाने के लिए भी पारिवारिक वातावरण में शालीनता सज्जनता और व्यवस्था का समुचित पुट रहना चाहिए। शिष्टाचार, मधुर भाषण, समय-समय पर विचार-विनिमय, मनोविनोद एक-दूसरे की सुविधा, असुविधा पूछते रहना, रुग्णता या अन्य कठिनाइयों में सहानुभूति, सहायता व्यक्त करना, सबकी सलाह से घर खर्च का बजट बनाना और वर्तमान तथा भावी व्यवस्था का ढाँचा सबकी सलाह से खड़ा करना आदि उचित परम्पराएँ बनी रहें तो परस्पर स्नेह, सद्भाव और संगठन की स्थिति बनी रह सकती है और आज के गृह संचालक जब वृद्ध होंगे तब उनके लिए उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। बड़प्पन के नाम पर न कोई निठल्ला बैठे और न मनमानी चलाये। इसी प्रकार छोटे होने के नाते किसी को सामर्थ्य से अधिक श्रम और तिरस्कार के कोल्हू में न पेला जाये तभी असंतोष भड़कने से रुक सकता है।
घर को सुन्दर, स्वच्छ, सुव्यवस्थित बनाने में बच्चा-बच्चा योगदान देने लगे और अनुशासन, नियमितता का हर एक को समुचित ध्यान रहे, ऐसा ढर्रा रहना चाहिए। स्थिति के अनुरूप जेब खर्च करने की छूट रहे। पैसे-पैसे के लिए मुहताज घर का कोई सदस्य नहीं रहना चाहिए। क्रोध, आवेश, उत्तेजना, अवज्ञा या उच्छृंखलता के बीज जहाँ भी जिसमें भी पनपे उसे आरम्भ से ही रोके जाने, सुधारे, सँभाले जाने का ध्यान पूरे परिवार को रहे, अनुचित गतिविधियाँ किसी की भी क्यों न हों कोई भी उनका परोक्ष समर्थन न करे और न उपेक्षा बरते। सब मिलकर ऐसे विष बीज यदि आरम्भ में ही उखाड़ फेंकने के लिए सतर्क रहें और प्यार, न्याय, तर्क एवं दबाव से ऐसी विकृतियों का समाधान करते रहें तो घर में कुसंस्कारिता पनपने न पायेगी और सुसंस्कृत परिवार की संरचना एवं संघटना सम्भव हो सकेगी।
प्रजनन की संख्या बढ़ने न पावे इसका ध्यान आरम्भ में ही रखा जाये। समय बड़ा नाजुक और मँहगाई का आ गया है। अधिक बालकों का उत्तरदायित्व अब न महिलाओं की शारीरिक स्थिति रह गई है और न पुरुषों की उपार्जन शक्ति उतनी है कि बालकों के समुचित विकास कर सकने योग्य साधन जुटा सकें, इसलिए हर विवाहित के मन में यह तथ्य कूट-कूटकर भरा जाना चाहिए कि वह न्यूनतम बच्चों तक सीमाबद्ध हो जाये और जितने बच्चे आवश्यक हों उनके बीच में कम से कम पाँच वर्ष का अन्तर रखें। अन्धाधुन्ध बच्चे पैदा करते जाना सुखी गृहस्थ की आधारशिला में पलीता लगाने जैसी मूर्खता ही मानी जा सकती है।
कुरीतियों और अन्ध-परम्पराओं में बहुत-सा पैसा और समय खर्च हो जाता है। बड़े-बूढ़े इन बातों पर प्रायः जोर देते हैं। इस सम्बन्ध में हमें विवेकवान होना चाहिए और निरर्थक रुढ़ियों को हटाने-घटाने में थोड़ा विरोध सहना पड़ता हो तो भी सहना चाहिए क्योंकि वे बुराइयाँ परिवार का अविवेक और दारिद्रय ही बढ़ा सकती हैं। एक से दूसरा अनुकरण करता है जो वह ढर्रा दूसरे परिवार में भी चल पड़ता है जिससे अन्ततः सारे समाज और देश को हानि पहुँचती है।
नित्य परिवार गोष्ठी के रूप में विचारोत्तेजक लेख या संस्मरण, कथा प्रसंग या समाचार सुनाने और उनकी समीक्षा करने की परिपाटी आवश्यक रूप से चलती रहनी चाहिए। शिक्षित लोग सत्साहित्य के चुने हुए प्रसंग रात्रि के समय थोड़ा समय निर्धारित करके नियमित रूप से सुनाया करें तो इस प्रशिक्षण से परिवार के भावनात्मक विकास और अनुभव में भारी वृद्धि हो सकती है और उसका आशाजनक लाभ मिल सकता है।
दाम्पत्य जीवन-एक आध्यात्मिक योग साधना
दो भिन्न स्थानों, भिन्न परिवारों, भिन्न वातावरणों में पैदा हुए और पले नर-नारी भिन्न प्रकृति और भिन्न आकृति के होते हुए भी समग्र एकता के सूत्र में बँधकर विवाह का प्रयोजन पूरा करते हैं। विवाह का वास्तविक उद्देश्य है दो आत्माओं की पृथकता समाप्त करके एक-दूसरे के लिए समर्पण। इस समन्वय और समर्पण से एक ऐसी सम्मिलित सत्ता का विकास होता है जो पृथकत्व के बाह्य लक्षण बनाये रहते हुए भी आन्तरिक एकता के रूप में परिणित हो सके।
आध्यात्मिक प्रगति का आधार है प्रेम। जिसके अन्तःकरण में जितना अधिक, जितना निर्मल प्रेम उफनता है वह उतना ही बड़ा संत है। भक्ति का अर्थ है प्रेम भावना, भक्त का अर्थ है प्रेमी। भगवान से प्रेम करने की साधना हमारे जीवन को प्रेम भावना से ओत-प्रोत करने के लिए है। प्रेम को परमेश्वर कहा जाता है। मनुष्य के अन्तःकरण में भगवान की अनुभूति उफनती हुई प्रेम भावनाओं के रूप में ही होती है। इस आध्यात्मिक महत्ता का अभ्यास दाम्पत्य-जीवन की प्रयोगशाला में किया जाता है। एक-दूसरे के प्रति अनन्य आत्मीयता, श्रद्धा-सौजन्य, समता और वफादारी का आरोपण कर इतना अनुराग उत्पन्न करते हैं कि साथी यदि दोष-दुर्गुणों से भरा हुआ, अयोग्य या अकिंचन हो तो भी वह संसार का सबसे बड़ा सुन्दर, रूपवान, गुणवान, योग्य एवं सज्जन प्रतीत होने लगता है। आत्मीयता ऐसी ही वस्तु है, जिस पर भी आरोपित की जाती है उसे परम प्रिय बना देती है। पति-पत्नी में भी मनुष्योचित दुर्बलताएँ एवं त्रुटियाँ रहती हैं पर यदि विवाह के उद्देश्य को समझकर परस्पर आत्मीयता, समर्पण, एकता और ममता का आरोपण कर लिया गया है तो उन त्रुटियों के रहते हुए भी, न सुधरते हुए भी गृहस्थ जीवन की नाव आनन्दपूर्वक आगे बढ़ चलती है। वैसे होता यह है कि अपने लिए कुछ नहीं-साथी के लिए सब कुछ की बात सोचने वाला पक्ष अपनी त्रुटियों को सहज ही सुधार लेता है ताकि उसके कारण साथी को किसी प्रकार की असुविधा आदि का सामना न करना पड़े। योग का अर्थ है जोड़। दो आत्माओं को जोड़ देना भी एक योग साधना है। राजयोग, हठयोग, जपयोग, प्राणयोग आदि की तरह गृहस्थयोग भी एक उच्चकोटि की साधना है। जिसका प्रतिफल पहले ही दिन से मिलना आरम्भ हो जाता है। अन्य साधनाएँ कालान्तर में फल देती हैं पर इस गृहस्थयोग की साधना से आरम्भ के दिन से ही प्रतिफल मिलना आरम्भ हो जाता है। एकाकीपन में जो सूनापन, नीरसता और अनिश्चितता है बात की बात में दूर हो जाती है। मिला तो एक ही साथी है पर लगता है कि उस साथी के गुण, कर्म और परिजन सभी अपनी सहायता करने वाली सेना के रूप में अपने साथी बन चले। इस अनुभूति में दाम्पत्य-जीवन के दोनों पक्ष अपने को बहुत समर्थ मानते हैं और साथी के स्नेह-सौजन्य की अमृतमयी अनुभूति से हर घड़ी सरसता अनुभव करते रहते हैं। गंगा और यमुना के मिलने का संगम तीर्थराज बन जाता है। दो आत्माओं का आन्तरिक मिलन, विवाह एक वैयक्तिक तीर्थराज है। जिसमें स्नान करते हुए पुण्य-प्रक्रिया का अनुभव पति-पत्नी को ही निरन्तर होता रहता है।
विवाह के उपर्युक्त परम प्रयोजन को समझते और चरितार्थ करने वाले जोड़े अपने छोटे-छोटे घरौंदों में गरीबी का जीवन जीते हुए स्वर्ग जैसी शांति, प्रसन्नता, प्रफुल्लता, संतुष्टि, सरसता और सुविधा का आनन्द लेते हैं। उन्हें साथी के रूप, शिक्षा, गुण अथवा योग्यता की चर्चा अनावश्यक लगती है क्योंकि सच्चा प्रेम इन सबके अभाव में भी साथी को देवता जैसा बना देता है। प्रेम भरे अनुरोध से वह या तो सहचर की त्रुटियों को सुधार लेता है अथवा अपनी सहिष्णुता से उन्हें दर-गुजर करके भी काम चला लेता है। जहाँ स्नेह और सद्भावना की समुचित मात्रा विद्यमान हो वहाँ क्लेश-कलह का कोई कारण शेष नहीं रह जाता है। मिलन का प्रतिफल आनन्द ही होना चाहिए। गृहस्थयोग की साधना से जो अनेक ऋद्धि-सिद्धि मिलती हैं उनमें से सतोगुणी सुयोग्य संतान और सुव्यवस्थित परिवार के प्रतिफल भी हैं। जिन पति-पत्नी में हार्दिक प्रेम और अटूट विश्वास होगी उनकी संतानें कभी कुपात्र नहीं निकलेंगी। प्रेम का पोषण जिन्होंने अपनी माता की प्रगाढ़ आत्मीयता में से किया है उन बालकों में अनायास ही असंख्य सद्गुण विकसित रहते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने छोटे या बड़े परिवार की स्नेह, सौजन्य की शृंखला में बँधे रहकर कुटुम्ब के हर सदस्य को सुखी एवं विकासोन्मुख होने का अवसर देते हैं।
आज लोगों ने विवाह के उच्च उद्देश्य एवं आदर्श को ही भुला दिया। अब काम-क्रीड़ा की पशुता का एक उद्घोषित प्रमाण पत्र विवाह रह गया है। वासना और विलासिता की दृष्टि से जोड़ मिलाये जाते हैं। लड़के रूपवती और उत्तेजित लड़कियाँ ढूँढ़ते हैं, ताकि वासना का अधिक आकर्षण एवं उपयोग प्राप्त हो सके। लड़कियाँ उपर्युक्त तथ्य के अतिरिक्त अर्थ उपार्जन के अधिक चौड़े स्रोत भी ढूँढ़ती हैं ताकि उन्हें विलासिता और आरामतलबी की अधिक सुविधा मिल सके। लड़के और लड़की का रूप-लावण्य आज प्रधानतापूर्वक देखे जाते हैं। सोचा जाता है कि यह उपलब्धियाँ मिल जायें तो विवाह सार्थक माना जायेगा पर यह भुला दिया जाता है कि विवाह की सफलता का आधार साथी की मनोभूमि, संस्कृति एवं आदर्शवादिता ही है। काम-कौतुक के लिए, उपभोग के लिए विवाह नहीं किए जाते, उनका प्रयोजन आध्यात्मिक है। जहाँ इस दृष्टिकोण से विवाह सम्पन्न होगा वहाँ गृहस्थ जीवन का आनन्द मिलेगा अन्यथा काम-कौतुक के क्षणों को छोड़कर शेष समय उनमें अविश्वास और असंतोष ही बना रहेगा। सच्ची सहानुभूति, ममता और एकता के बिना पास रहते हुए भी दूरवर्ती, अपरिचितों की तरह वे गृहस्थ की लाश ढो रहे होंगे।
आवश्यकता इस बात की है कि जो विवाह कर चुके हैं या जिन्हें विवाह करना है वे उसके उद्देश्य और आदर्श को भी समझें। अपनी मनोभूमि में उतनी कोमलता एवं उदारता हो कि साथी को स्नेहसिक्त करके उसके विरानेपन को अपनेपन में बदल सकें, तो ही विवाह करना चाहिए अन्यथा काम-कौतुक के लिए विवाह करना बहुत महँगा और झंझट भरा सौदा है। उसमें दोनों पक्षों के हाथ केवल बर्बादी ही लगती है। पुरुष कोल्हू के बैल की तरह पिसता और स्त्री प्रजनन के कुचक्र में अपनी तन्दुरुस्ती, मनस्विता, प्रतिभा ही नहीं, कई बार तो जिन्दगी ही असमय में खो बैठती है। बालकों का लालन-पालन और उनके दोष-दुर्गुणों से उत्पन्न परिणाम इतना कठिन पड़ता है कि विवाह के असली उद्देश्य से अपरिचित लोगों को इस मार्ग में केवल शोक-सन्ताप ही हाथ लगता है।
विवाह एक आध्यात्मिक साधना है। विवाह एक प्रेम वल्लरी का आत्मोत्सर्ग की उच्च भावनाओं द्वारा किया जाना वाला अभिसिंचन है। यह सज्जनों और शूरवीरों का काम है। कामी, दुष्ट, छली और विश्वासघाती लोग विवाह की पवित्र संस्था को बदनाम करने से दूर रहें और एकाकी जीवन जियें यही अच्छा है। जिनका विवाह हो चुका है या जिन्हें करना है उन्हें हजार बार सोच लेना चाहिए कि साथी के ऊपर समता, सद्भावना एवं आत्मीयता हमें उड़ेलनी है। उसकी प्रवृत्ति, मित्रता को निबाहना है। अभीष्ट अनुकूलता उत्पन्न न भी हो सके तो सहिष्णुता अपनाकर दर गुजर करनी है। दूसरी ओर से समुचित प्रत्युत्तर न मिले तो अपनी ओर से आजीवन ऐसा व्यवहार करते रहना, जिससे विवाह साधना के पुनीत आदर्श को कलंकित होने का अवसर न मिले।
इस दिशा में पति का कर्तव्य चौगुना-सौगुना है। क्योंकि परिस्थितियों ने आज उसे अधिक सार्थकता एवं सुविधा प्रदान की है। रंग-रूप की बात मस्तिष्क से निकाल देना चाहिए। चमड़ी का आकर्षण-खिंचाव, विशुद्ध रूप से व्यभिचार है। इन्हें भले ही वह अविवाहित हो या विवाहित जीवन में कभी न अपनाया जाये। गुणों के आकर्षण पर रीझना चाहिए। विवाह करने से पूर्व साथी के बारे में हजार बार विचार करें पर यदि उसे अपना लिया तो हजार दोष-दुर्गुण रहते हुए भी उसे छाती से बाँधकर रखना चाहिए और अपनी ओर से कर्तव्य पालन के अन्तिम छोर तक जाना चाहिए। भारतीय धर्म में देव-साक्षी देकर दूसरे का हाथ इस शर्त पर पकड़ा जाता है कि वह अयोग्य, असमर्थ, रुग्ण अथवा दुर्गुणी हो तो भी उसे परिपूर्ण निष्ठा के साथ निबाहा जायेगा। विवाह पूर्व के चारित्रिक दोषों के बारे में सोच-विचार करना निरर्थक है। जिस दिन से अपना विवाह हुआ उसी दिन से पतिव्रत और पत्नीव्रत आरम्भ हो जाता है। उदारता और क्षमा का जितना अधिक प्रयोग परस्पर किया जा सके उतनी ही गृहस्थ जीवन की सफलता सम्भव हो सकेगी।
ईश्वर करे अपने समाज के हर गृहस्थ में दाम्पत्य जीवन को एक पवित्र आध्यात्मिक साधना मानने और उसे निबाहने के लिए त्याग और उदारता का बढ़ा-चढ़ा परिचय देने की प्रवृत्ति पैदा हो, तभी हमारे पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन में स्वर्गीय परिस्थितियों का अवतरण होगा।
पतिव्रत ही नहीं, पत्नीव्रत भी निभाया जाये
विवाह का अर्थ कामसेवन की सुविधा, रोटी बनाने, घर रखाने की व्यवस्था अथवा एक कमाऊ सहयोगी मिल जाना नहीं, वरन् दो आत्माओं का एकीकरण है। प्रेम मानव तत्त्व की सबसे उत्कृष्ट विभूति है। आनन्द और उल्लास का सारा आधार उसी पर अवलम्बित है। प्रेम का उभयपक्षीय परिपोषण और निरन्तर अभिवर्द्धन आध्यात्मिक प्रगति की एक महत्तम साधना है। इस साधना के दो पूरक पात्रों की तरह पति-पत्नी विवाह सम्बन्ध से बँधते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि वे दोनों परस्पर आजीवन वफादारी, आत्मीयता, सेवा-सम्मान, उदारता, सहयोग, सद्भावना की दृष्टि से एक-दूसरे को अपना आराध्य मानकर गृहस्थ की नाव को खेते हुए जीवन-सागर के अन्तिम छोर तक पहुँचेंगे।
इसी आदर्श को निबाहने के ऊपर दाम्पत्य-जीवन एवं गृहस्थ-निर्माण की प्रयोजन पूर्ति सम्भव है। विवाह से तरुण वय की उमंग वासना का भी नियन्त्रण हो जाता है। छत पर परनाला लगा होने से वर्षा का पानी इकट्ठा होकर एक ही मार्ग से निकल जाता है अन्यथा उसके किधर भी फैलाने और गिरने का डर रहता है। यों विवाह का उद्देश्य एक दूसरे के आध्यात्मिक स्तर को उठाकर बौद्धिक विकास एवं सांसारिक जीवन को सुविधापूर्वक बनाना है और उसमें आध्यात्मिक संयम नितान्त आवश्यक है। फिर भी यदि दोनों पक्ष अपने मनोविकारों को नियंत्रित न रख सके तो कामसेवन की भी एक मर्यादित गुंजाइश है पर यह मानकर ही चलना चाहिए कि विवाह जैसा पवित्र प्रयोजन केवल वासना के लिए ही सम्पन्न नहीं किया जाता। यदि ऐसा ही होता तो पशुओं की तरह वह घृणित प्रयोजन पूर्ण होते ही पति-पत्नी एक-दूसरे को भूल जाते और उपेक्षा करने लगते। वेश्यावृत्ति और व्यभिचार में गृहस्थ की मर्यादित वासना की अपेक्षा आकर्षण बहुत अधिक होता है पर कोई उद्देश्य न होने से उन लोगों में कोई किसी के प्रति वफादार नहीं रहता।
गृहस्थ जीवन की मूल शांति साथी के प्रति वफादारी है। सुख-सुविधाओं में ही नहीं विपत्ति, रोग और असमर्थता में भी वफादारी अक्षुण्ण बनी रहे तो समझना चाहिए कि विवाह करने वालों ने उसका आदर्श समझ लिया। सच्चे साथी की हर किसी को प्यास है। इस सम्बन्ध में गहरी निश्चिन्तता मिल जाने पर मनुष्य को भारी सन्तोष और साहस मिलता है। बेजान चीजें एक होकर दो हो सकती हैं पर सजीव मनुष्य एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। जिन गृहस्थ में पति-पत्नी को एक-दूसरे से अटूट विश्वास है, जिनकी पारस्परिक वफादारी असंदिग्ध है, जिनके बीच दुराव का एक कण भी नहीं, जो सुख-दुःख में समान रूप से साझीदार रहते हैं, एक-एक पाई के आय-व्यय की जानकारी जहाँ दोनों को रहती है, जो अपनी सुविधाओं की उपेक्षा करते हुए साथी की सुविधा को प्रधानता देते हैं, जो हँसने-हँसाने की उपयोगिता समझकर एक-दूसरे के मन का भार हलका करते रहते हैं, उन्हें ही धन्य और सफल कहा जा सकता है। आनन्द ऐसे ही गृहस्थ का है। प्रगतिशील और समुन्नत जीवन में ऐसे दाम्पत्य जीवन का भारी योगदान रहता है। यदि विवाह करना हो तो ऐसा दाम्पत्य जीवन बनाने के लिए अपनी ओर से पूर्ण प्रयत्न करने और बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए उद्यत होकर कदम बढ़ाना चाहिए अन्यथा केवल कामसेवन की सुविधा के लिए विवाह करना वेश्वावृत्ति से भी गया-गुजरा घृणित कर्म है। उसमें विश्वासघात नहीं है। उसका स्वरूप स्पष्ट है पर विवाह के साथ जुड़े हुए आदर्शों की उपेक्षा कर केवल अपना निकृष्ट स्वार्थ सिद्ध करने के लिए साथी को असमंजस के दलदल में फँसा देना एक मित्रघात जैसी पैशाचिक धोखेबाजी है।
भारतीय दर्शन के अनुसार विवाह एक आत्म-समर्पण उत्सर्ग तथा आस्था परिपक्व करने की घर में रहकर की जाने वाली योग साधना है। हमारा दाम्पत्य जीवन इसी स्तर का होना चाहिए। तभी उसमें वफादारी, आत्मीयता, सेवा-संतोष एवं प्रगति के फल लगेंगे। सन्तान का सद्गुणी होना पति-पत्नी की इसी मनःस्थिति पर निर्भर है। गंगा और यमुना मिलकर तीर्थराज बनता है। रात्रि और दिन का मिलन संध्या-काल की पुनीत बेला विनिर्मित करता है। बिजली के दो तार मिलकर प्रवाह विद्युत उत्पन्न करते हैं। दो सच्चे अर्थों में मिले हुए अन्तःकरण वाले पति-पत्नी हो सद्गुणी, समर्थ और सुविकसित सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं। जिन जोड़ों के बीच अविश्वास, आशंका, रोष, घृणा, निराशा भरी होगी उनका प्रभाव सन्तान पर अवश्य आवेगा और बच्चे शरीर, मन एवं स्वभाव की दृष्टि से अनेक दोष-दुर्गुण जन्म-जात संस्कार के रूप में लेकर जन्मेंगे और सारे परिवार के लिए एक समस्या बनकर रहेंगे।
अविश्वास और अनुदार वातावरण के बीच विवाह करते हुए भी दोनों अपने को एकाकी समझते हैं और मन आशंका से भरा रहता है कि कभी भी विश्वासघात हो सकता है किसी तरह गाड़ी लुढ़कती भी रहे तो वह एक लोक-लाज की रस्सी में बँधा हुआ बन्धन मात्र रह जाता है। उसमें न आनन्द रहता है न उल्लास, न सरसता रहती है और न सुनिश्चितता। ऐसे लाभों से रहित गृहस्थ एक कठिनाई से ढोया जाने वाला भार मात्र ही बना रहेगा।
छोटे घर-घरानों को स्वर्ग का वातावरण निर्मित करने की एक प्रयोगशाला बनाकर रखा जाना चाहिए। पतिव्रत धर्म एवं पत्नीव्रत धर्म के अन्तर्गत दोनों के ऊपर जिन कर्तव्यों का, उत्तरदायित्व का भार आता है उसे अति उत्साहपूर्वक वहन किया जाना चाहिए और प्रयत्न यह होना चाहिए कि साथी की तुलना में अपनी भूमिका अधिक ऊँची बनी रहे। भारतीय नारियों की पतिव्रत-साधना एक ऐतिहासिक तथा मनोवैज्ञानिक तथ्य है। उनमें 90 प्रतिशत अपना भाग ईमानदारी से पूरा करती हैं। अशिक्षा, अनुभवहीनता एवं संकुचित वातावरण में आबद्ध रहने के कारण उनके कर्तव्य और व्यवहार में कुछ दोष रहने स्वाभाविक हैं। इन्हीं कारणों को निवारण करके बदला जा सकता है पर उनकी ईमानदारी, वफादारी, असन्दिग्ध है। यों 10 प्रतिशत में पुरुषों के उत्पन्न किये मूल दोष भी हो सकते हैं पर उनमें से अधिकांश की सज्जनता असंदिग्ध है। पतिव्रत धर्म ही स्वर्ग मोक्ष की साधना है, पति को परमेश्वर मानना चाहिए, उसके प्रति वफादारी, उदारता और सेवा-भावना बरतनी चाहिए, इन उपदेशों को बहुत दिन से सुना जाता रहा है। महिला वर्ग ने उसका पालन इतनी खूबी के साथ किया है कि इस इतिहास से संसार चमत्कृत है। आज भी भारत के गये-गुजरे गृहस्थ को देखकर पाश्चात्य सभ्यताभिमानी यही सोचते हैं कि आदर्श परिवार बसाने की प्रक्रिया भारत से सीखना होगी। इस गौरव में नारी का ही भूमिका प्रधान है।
जो आशाएँ हम पत्नी से करते हैं उसका प्रशिक्षण प्रति को अपने व्यवहार एवं सद्गुणों से करना चाहिए। कोई नहीं चाहता कि हमारी पत्नी दुराचारिणी, फिजूलखर्च, दुराव रखने वाली, असहिष्णु, आवेशग्रस्त, कटुभाषी जैसी दुर्गुणयुक्त हो। इसलिए उसका कर्तव्य है कि पत्नी के आगे इन्हीं अपनी विशेषताओं का ध्यान रखे। बीमारी, संतान न होने मन्दबुद्धि अथवा व्यवहार ज्ञान की न्यूनता के कारण पत्नी को छोड़ देने, अपमानित करने अथवा सताने की बात सोचना भी पत्नीव्रत धर्म के महान आदर्श के प्रतिकूल है। शंकर जी सर्पों को शरीर में लपेटे रहते थे। चन्दन वृक्ष पर भी साँप, बिच्छू लिपटे रहते हैं। एक सज्जन पति का भी कर्तव्य है कि पत्नी में इस प्रकार की कमियाँ हों तो भी अपनी ओर से कर्तव्य पालन मे रत्ती भर भी न्यूनता न आने देकर स्नेह, सद्भावना, सेवा और उदारता का ही व्यवहार करें। पतिव्रत धर्म नारी समाज में बहुत कर जिन्दा है। अब पुरुष का काम है कि पत्नीव्रत की आदर्शवादिता को अपनाये और गृहस्थ जीवन की उत्कृष्टता से घर को स्वर्ग बनाये और संसार को एक महत्तम मार्गदर्शन प्रस्तुत करे।
संयुक्त परिवार प्रणाली-एक श्रेयस्कर परम्परा
कुछ दिन पहले अनुभवहीनता के जोश और आवेश में यह प्रतिपादन शुरू किया गया था कि संयुक्त परिवार प्रणाली को तोड़ा जाये और उसके स्थान पर पति-पत्नी मात्र के छोटे परिवार बसाए जायें। जब तक बच्चे समर्थ न हों, तब तक माँ-बाप उनका संरक्षण करें और जैसे ही वे विवाह और आजीविका की दृष्टि से समर्थ हो जायें, वैसे ही उन्हें अलग परिवार बसाने के लिए स्वतन्त्र कर दिया जाये। पाश्चात्य देशों में यह प्रयोग पिछले दिनों बड़े उत्साह के साथ हुआ है। यूरोप, अमेरिका में अब संयुक्त कुटुम्ब-प्रथा जहाँ-तहाँ ही दीखती है। अधिकांश व्यक्ति अपना छोटा परिवार बसाते हैं। अपने देश में भी उसका अनुकरण सुशिक्षित वर्ग में धीरे-धीरे जोर पकड़ता जाता है। ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़कियाँ और नई रोशनी के लड़के सम्मिलित रहना नापसन्द करते हैं। वे घरवालों से अलग घर बसाने की चेष्टा करते हैं, ताकि सम्मिलित कुटुम्ब के बोझ, उत्तरदायित्व ओर नियन्त्रण से छुट्टी पाकर उन्हें अधिक सुविधा से दिन काटने का अवसर मिल जाये।
इस बढ़ती हुई अलगाव की प्रवृत्ति के बारे में हमें कई पहलुओं से उसके गुण-दोषों पर विचार करना होगा। प्रथम पाश्चात्य देश जहाँ से यह प्रवृत्ति आरम्भ हुई उनके सामने प्रस्तुत हुए प्रतिफलों को देखना पड़ेगा। आरम्भ में पति-पत्नी को, अधिक खर्च करने और कम काम करने की सुविधा मिल जाती है और नये लड़के इसमें अपना लाभ देखकर प्रसन्न होते हैं, पर कुछ ही दिनों में अपनी भूल प्रतीत होने लगती है। पत्नी गर्भवती होती है, शरीर में कितने तरह के विकार उठ खड़े होते हैं काम कम और आराम अधिक करने की इच्छा होती है, उस समय किसी सहायक की जरूरत पड़ती है पर एकाकी गृहस्थ में तो सब कुछ स्वयं को करना पड़ेगा। प्रसवकाल में कष्ट बहुत होता है उस समय भी गहरी सहानुभूति वाला कुटुम्बी आवश्यक लगता है। प्रसूति काल में लंघन के रोगी की तरह चारपाई पकड़ लेनी पड़ती है और हर घड़ी उसकी निगरानी, सफाई, सेवा की जरूरत पड़ती है। अस्वस्थ होने पर वह रोता-चिल्लाता बहुत है। कई बार तो नींद हराम कर देता है। उसे सँभालते हुए घर के दूसरे भोजन बनाने आदि का काम जो समय पर पूरा होना चाहते हैं-मुश्किल पड़ते हैं। बच्चे बढ़ते जाते, समस्याएँ भी बढ़ती जाती हैं। संयुक्त कुटुम्ब में यह सब पता भी नहीं चलता। कोई कुछ कर जाता है, कोई कुछ सँभाल जाता है। अकेली बेचारी स्त्री क्या-क्या करे। पति अपने ही गोरखधन्धे में लगे रहते हैं, सहायता करना तो दूर-अपनी ही फरमाइशें पूरी न होने और गृह व्यवस्था में कमी आने से उल्टे झल्लाए रहने लगते हैं। उस समय नववधू को समझ आती है कि सुविधा की दृष्टि से संयुक्त परिवार प्रथा ही अच्छी थी।
हारी-बीमारी, असमर्थता, दुर्घटना, लड़ाई-झगड़ा आदि अवसरों पर संयुक्त कुटुम्ब का लाभ प्रतीत होता है। जब एक की विपत्ति में दूसरे सब उठ खड़े होते हैं और अपने-अपने ढंग से सहायता करके बोझ हलका करते हैं। विवाह-शादियों में एक बारगी बहुत खर्च करना पड़ता है। एक व्यक्ति के लिए उतनी बचत कठिन पड़ती है पर कुटुम्ब की मिली-जुली पूँजी और आर्थिक स्थिति में वह पहिया भी लुढ़कता रहता है और खर्चीली शादियाँ भी उसी ढर्रे में होती चली जाती हैं। विधवा को आर्थिक संकट और विधुरों को गृह व्यवस्था की कठिनाई नहीं पड़ती, वे भी उसी खाँचे में समा जाते हैं ओर निर्वाहक्रम किसी प्रकार चलता ही रहता है। परित्यक्ताएँ और पति विमुक्त महिलाएँ अपने बच्चों समेत मैके चली जाती हैं और परिवार का भी गुजारा उसी शृंखला में बँधकर होने लगता है। ऐसी महिलायें एकाकी अपना भार स्वयं नहीं उठा पातीं और यदि एकाकी भाई है तो इतना बोझ उठाना उसके लिए भी कठिन पड़ता है। संयुक्त परिवार प्रणाली ही है, जिसमें अयोग्य, असमर्थ, पागल, दुगुर्णी भी खप जाते हैं। एकाकी होते तो उन्हें भीख मिलना, जीवित रहना भी कठिन पड़ता।
संयुक्त परिवार प्रथा में सब सदस्यों का उपार्जन एक जगह इकट्ठा होता है और उस सम्मिलित पूँजी में बड़े व्यवसाय आसानी से आरम्भ हो जाते हैं। नौकर महँगे पड़ते हैं, ईमानदार भी नहीं होते, दिन-रात जुटे भी नहीं रहते, अधिक लाभ में उनकी दिलचस्पी भी नहीं होती, इसलिए नौकरों की अपेक्षा घर के आदमी सदा अधिक लाभदायक सिद्ध होते हैं। घर की पूँजी और घर का श्रम जुट जाये तो किसी भी व्यवसाय में लाभ होगा। किसान के लिए तो यह जीवन-मरण का प्रश्न है। उसके पास घर, खेत और पशुओं के इतने अधिक काम रहते हैं कि उनमें छोटे बच्चे और बूढ़े असमर्थ भी बहुत सहायता कर सकते हैं। सबके मिले हुए श्रम से ही कृषि और पशुपालन लाभदायक रहता है अन्यथा नौकर रखकर मामूली किसान रोटी भी नहीं पा सकता।
वृद्धावस्था का जीवन शान और शांति से संयुक्त कुटुम्ब में ही सम्भव है। जरा-जीर्ण शरीर जब अपना बोझ आप नहीं ढो पाता और रुग्णता साथी बन जाती है। अपनी निज की कमाई या बचत न होने पर आवश्यक खर्च भी बेटे-पोते ही उठाते हैं। हारी-बीमारी में उन्हीं की सहायता मिलती है। शारीरिक और मानसिक दृष्टि से दुर्बल बने व्यक्ति की आमतौर से उपेक्षा हो होती है पर संयुक्त परिवार में मान, इज्जत ज्यों की त्यों बनी रहती है, वरन् और अधिक बढ़ जाती है। बिना पूछे कोई काम नहीं होता इससे वृद्ध का गर्व-गौरव एवं सम्मान भी अक्षुण्ण बना रहता है।
अपने गरीब और कृषि प्रधान देश के लिए संयुक्त परिवार प्रणाली का वरदान है। उसके अनेक लाभ हैं। आध्यात्मिक और भावनात्मक विकास की दृष्टि से भी उसका महत्त्व है। पिता-माता की सेवा, भाई-बहिनों की सहायता, कुटुम्बियों की समस्याएँ अपनी समझने और उन्हें सुलझाने में संलग्न रहकर व्यक्ति अपनी स्वार्थपरता को घटाता और उदारता को बढ़ाता ही है। जिसकी ममता का दायरा जितना बड़ा है, उसे उतना ही श्रेष्ठ कहा जायेगा। स्वार्थ को शरीर से बढ़ाकर कुटुम्बियों तक विस्तृत करना-‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ की महानता अपनाने का एक प्रारम्भिक ही सही पर महत्त्वपूर्ण कदम है। अपनी देह और बीबी तक की बात सोचने वाला कृपण ही कहा जायेगा और उसे चढ़ती उम्र में कुछ सुविधाएँ पा लेने के अतिरिक्त शेष जीवन में इस संकीर्णता का दण्ड ही भोगना पड़ेगा।
आज संयुक्त कुटुम्ब इसलिए अनुपयोगी और मनोमालिन्य के केन्द्र बनते और बिखरते चले जाते हैं कि विभाजन ठीक तरह नहीं हो पाता कुछ लोग बड़प्पन के नाम पर मौज करते हैं, कुछ को छोटे पद के कारण कोल्हू के बैल की तरह पिसना पड़ता है। जिनके हाथ में पूँजी या सत्ता है, वे मनमाना उपयोग करते हैं और शेष को जरा-जरा सी बात के लिए मुख ताकना और विवश रहना पड़ता है। परस्पर सौजन्य, शिष्टाचार, स्नेह, सद्भाव, सम्मान और सहयोग की भावनाएँ कम पड़ने पर भी असंतोष, रोष और मनोमालिन्य रहने लगता है। इन कारणों को दूर करने के लिए परिवार के हर सदस्य का प्रशिक्षण किया जाना चाहिए। एक आचार-संहिता रहनी चाहिए, जिसके आधार पर हर छोटे-बड़े को अपने कर्तव्यों का पूरा ध्यान हो और हर कोई अधिकार पाने की उपेक्षा करके कर्तव्य पालन के लिए अधिक तत्परतापूर्वक संलग्न रहे।
परिवार का एक सहकारी समिति मानकर इस प्रकार गठित किया जाना चाहिए कि हर किसी को अपना कर्तव्य पालन करने के लिए स्वेच्छापूर्वक विवश होना अपेक्षा अन्यों की सुविधा को प्राथमिकता देते रहें। आवेश और कटुता की, दुर्भाव और तिरस्कार की, आलस्य और अकर्मण्यता की, अहंकार और दबाव की क्षुद्रताएँ यदि निरस्त की जा सकें तो बिखरते परिवारों को पुनः संयुक्त रहने के लिए सहमत किया जा सकता है। सुव्यवस्थित आचार-संहिता पर निर्धारित हमारी संयुक्त परिवार प्रणाली अपने देश के लिए उपयोगी सिद्ध होगी ही साथ ही समस्त संसार को इस परम्परा को अपनाने के लिए आकर्षित करेगी।
संतान कितनी और क्यों पैदा करें
कोई समय था जब देश की जनसंख्या बहुत थोड़ी थी, विस्तृत वन भरे पड़े थे। पशुपालन और कृषि के लिए मनचाही जमीन उपलब्ध थी। तब अर्थव्यवस्था और सुरक्षा के लिए परिवार के सदस्यों की संख्या बड़ी होना उपयोगी था। जंगली जानवरों और दस्युओं से निपटने में भी वे समर्थ रहते थे, जिनका परिवार बड़ा था। उन दिनों पुत्र का जन्म, संतान की वृद्धि एक दैवी कृपा मानी जाती थी।
इन दिनों देश की जनसंख्या खतरे के चिन्ह तक बढ़ गई है। हर मनुष्य के हिस्से में इतनी कम भूमि आती है, जिससे पर्याप्त अन्न उत्पादन के लिए सिर तोड़ परिश्रम करने पर भी विदेशों से कर्ज उधार तथा बदले में अति आवश्यक वस्तुएँ देकर किसी प्रकार पेट पालना सम्भव होता है। अनाज की महँगाई आकाश को छू रही है। दूध, घी देवताओं को दुर्लभ हो रहा है। चाय और डालडा से इन पदार्थों की स्मृति जिन्दा है। जिस क्रम से आबादी बढ़ रही है, उसे देखते हुए अगले दिनों अन्न की कमी, महँगाई, दूध-घी की दुर्लभता बढ़ेगी। मनुष्यों के लिए ही जब निवास व अन्न कठिन हो जायेगा तो बेचारे पशु कहाँ रहेंगे-कैसे जियेंगे?
पचास वर्ष पूर्व और आज की परिस्थिति में इस जनसंख्या की वृद्धि न जमीन, आसमान जितना अन्तर उत्पन्न कर दिया। यह क्रम, चक्रवृद्धि क्रम से बढ़ रहा है। अस्तु, अगले दिनों यह विपन्नता और भी अधिक बढ़ेगी। उद्योग-धन्धे, व्यापार, शिक्षा, सवारी आदि के साधन कितने बढ़ाये जाएँ, आबादी जिस तेजी से बढ़ रही है, उसे देखते हुए व कम ही पड़ते चले जायेंगे और दरिद्रता से लेकर अव्यवस्था तक असंख्य समस्याएँ, बढ़ती और उलझती चली जायेंगी। निवास, बेरोजगारी, चिकित्सा की गुत्थियाँ अब भी पेचीदा हो रही हैं, अगले दिनों तो वे न सुलझने की स्थिति में जा पहुँचेंगी।
संतान की संख्या बढ़ाना आज की परिस्थिति में अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में विपत्तियों को सीधा आमन्त्रण देना है। महँगाई और अपर्याप्त जीविका के कारण बच्चों के निवास, खेल-कूद के लिए स्थान कम मिलता है उन्हें पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता है। महँगी शिक्षा और चिकित्सा के कारण न उनकी समय के अनुरूप ऊँची पढ़ाई की व्यवस्था बन पाती है और न चिकित्सा का समुचित प्रबन्ध होता है। ऐसी दशा में कौन आशा करेगा कि इन ढेरों बच्चों का समुचित विकास एवं पोषण एक औसत दर्जे का आदमी कर सकता है। उँगलियों पर गिने जाने वाले अमीरों की बात दूसरी है, सर्वसाधारण के लिए तो यह भार जितना बढ़ेगा उतना ही असह्य बनेगा। समय कम और बच्चे अधिक होने पर उनकी ओर समुचित ध्यान भी तो नहीं दिया जा सकता। उनका स्वभाव, संस्कार, स्वास्थ्य सुविकसित करने के लिए अभिभावकों को पूरा ध्यान देना सम्भव नहीं। इसलिए वे बेचारे जंगली घास-फूस की तरह बढ़ते अपनी मौत मरते-जीते और संस्कारी, कुसंस्कारी बनते रहते हैं। ऐसे बालक सारे परिवार के लिए समस्त समाज के लिए एक सिर-दर्द ही रहते हैं। कुमार्गगामी या अस्वस्थ हो गये, तब तो उन्हें एक विपत्ति एवं अभिशाप ही कहा जायेगा।
काम उतना ही हाथ में लेना चाहिए, जो ठीक तरह निबाहा जा सके। बच्चे उत्पन्न करना क्रीड़ा-विनोद मात्र नहीं है। उसके पीछे भारी उत्तरदायित्व लदे हैं। जो उसे ठीक तरह वहन कर सकने में समर्थ है। उन्हें ही यह बोझ उठाने का साहस करना चाहिए अन्यथा बिना आगा-पीछा सोचे संतान बढ़ाते जाना, अपने लिए, बच्चों के लिए, और समस्त समाज के लिए संकट प्रस्तुत करने का अपराध ही माना जायेगा।
संतान संख्या को बढ़ाना अपनी पत्नी के साथ प्रत्यक्ष अत्याचार है। बच्चे को नौ महीने पेट में रखना, उसका शरीर अपने रक्त-माँस से बनाना, प्रसव पीड़ा, दूध पिलाना और अधूरी नींद ले पाना माता के लिए असाधारण भार है। उसकी पूर्ति के लिए उसे बहुमूल्य पौष्टिक भोजन, विश्राम तथा कई तरह की सुविधाएँ चाहिए। ये न मिलें और एक के बाद दूसरे बच्चे जल्दी-जल्दी पैदा होते चले जायें तो निश्चित रूप से उस माता का स्वास्थ्य बिगड़ जायेगा। अपने देश की चौथाई स्त्रियों का स्वास्थ्य इसी कारण खराब है, उन्हें अनेक तरह के भीतरी रोग घेरे रहते हैं। जवानी दो चार वर्ष के भीतर चली जाती है और देखते -देखते बुढ़ापा आ घेरता है। प्रसव काल में अगणित स्त्रियाँ मरती हैं। दुर्बल शरीरों के लिए यह भार आखिर क्या परिणाम उत्पन्न कर सकता है? यह स्पष्टतः एक हत्या-काण्डों की शृंखला है। जो जिस वजन को उठाने में असमर्थ है उसके ऊपर लादते ही चले जायें तो आखिर बेचारे को मरना ही पड़ेगा। हम कहने भर को ही अपनी पत्नी से दिखावटी प्यार करते हैं, व्यवहार हमारा कसाई जैसा होता है। प्रजनन के भार से कराहती हुई, बेमौत मरती हुई, अनेक रोगों से ग्रस्त महिलाओं की अगणित आत्माएँ अपने पतियों के नृशंस अत्याचारों की शिकार होती है। भले ही कोई इस तथ्य की उपेक्षा करे पर सच्चाई तो अन्ततः सच्चाई ही रहेगी। दुर्बल माताएँ चिड़चिड़ी, दुर्गुणी और रुग्ण सन्तान ही उत्पन्न करेंगी। उससे किसी परिवार को प्रसन्नता अनुभव करने का नहीं, विपत्ति का ही मुख देखना पड़ेगा। अच्छा हो हम समझ से काम लें और प्रस्तुत परिस्थितियों को देखते हुए सन्तान की संख्या वृद्धि का संकट मोल लेने से पहले हजार बार उस जिम्मेदारी के सम्बन्ध में विचार करें। यदि अपनी पत्नी की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति इसके लिए हर दृष्टि से उपयुक्त है तो आगे बढ़ें अन्यथा कदम रोक लेने में ही दूरदर्शिता है।
अच्छा हो लड़के और लड़कियों के विवाह बड़ी आयु में किये जायें। अच्छा हो वानप्रस्थ की परम्परा फिर चले और चालीस वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति प्रजनन क्रिया से मुँह मोड़ लें। अच्छा हो जिनके बच्चे नहीं होते उनकी सब लोग मिल-जुलकर प्रशंसा करें और उनके सौभाग्य को सराहें। अच्छा हो पहला बच्चा देर से उत्पन्न करें और दो बच्चों के बाद उस प्रक्रिया को बन्द कर दिया जाये। जिस तरह भी हो हमें जनसंख्या वृद्धि को निरुत्साहित ही करना चाहिए।
आज की परिस्थिति में बच्चों को बढ़ाना सौभाग्य सूचक नहीं, दुर्भाग्य का प्रतीक बन गया है। प्राचीनकाल में सन्तान की कामना और प्रार्थना की जाती हो, उनके जन्म का उत्सव मनाया जाता हो तो बात समझ में आती है, पर आज भी उसी तरह सोचना अनुपयुक्त है। एक रुपये के बीस-तीस सेर गेहूँ बिकने के दिनों की बात आज पाँच सेर भाव के गेहूँ के दिनों में ज्यों की त्यों लागू नहीं की जा सकती। तब सन्तानहीन अभागे कहे जाते थे। पर आज तो सच्चे अर्थों में वे ही भाग्यवान हैं। उन्हें देशभक्त एवं पुण्यात्मा कहा जा सकता है क्योंकि उन्होंने राष्ट्रीय संकट को बढ़ाने का पाप नहीं किया।
अपना देश मूढ़-मान्यताओं के जंजालों में जकड़ा हुआ है। इसमें लोग पाँच हजार वर्ष पुराने ढर्रे पर ही अभी भी सोचने के आदी हैं। विवाह होते ही सन्तान की शीघ्रता पड़ती है। जिसने बच्चा पैदा कर लिया, उसने किला जीत लिया, जो उससे बचा रहा वह अभागा और अभावग्रस्त समझा गया। असंख्य नर-नारी इसी मूढ़ विचार-धारा में प्रवाहित होकर सन्तान के अभाव में रोते, कलपते पाये जाते हैं। सन्तान न होने पर पति-पत्नी अधिक स्वस्थ रहते हैं। शिशुपालन से बचे हुए समय और धन को समाज सेवा की ज्ञान-यज्ञ जैसी अति महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं में व्यय कर सकते हैं और अपना लोक-परलोक हर दृष्टि से शानदार बना सकते हैं। बेटे से वंश चलने और पिण्ड मिलने वाली बात दिल्लगीबाजी जितना ही महत्त्व रखती है। पिण्ड अपने ही सत्कर्मों का मिलता है, बेटे का उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं। वंश अपने यश का चलता है अन्यथा 3-4 पीढ़ी के बाद तो अपने ही अंश-वंश के लोग नाम भूल जाते हैं, फिर आगे उसके चलने की क्या आशा है।
हम आज की परिस्थितियों को समझें और सन्ताप उत्पादन का उत्तरदायित्व तभी वहन करें जब उसकी योग्यता एवं क्षमता अपने में हो, ऐसी दशा में भी संख्या न्यूनतम ही रखना उचित है।
सुसंस्कृत संतान के लिए पूर्व तैयारी आवश्यक
संतानोत्पादन एक शारीरिक मनोरंजन या इन्द्रियलिप्सा की परिणति नहीं वरन् एक महान उत्तरदायित्व है। जिसके दूरगामी परिणाम होते हैं। बच्चा माँ के पेट में जिस दिन से आता है उसी दिन से अपने पिण्ड की अभिवृद्धि के लिए माता के शरीर से खुराक माँगता है। नौ महीने पेट में रहकर वह अपना माँस, अस्थि आदि से सम्पन्न कलेवर धीरे-धीरे बनाता है, यह सारी खुराक माँ के शरीर में से ही निकल कर आती है। देखना होगा कि जननी के शरीर में इतना रक्त-माँस है कि नहीं जिसके बल पर वह अपना ढाँचा खड़ा कर सके और नये शिशु की खुराक सँजो सके। इतना ही नहीं अति कष्टदायक प्रसव पीड़ा गर्भावस्था के दिनों में भूख न लगने, उलटी आने, अपच रहने, सिर दर्द, नींद न आने सरीखे शारीरिक दबावों को सहन कर सकती है या नहीं यह देखना आवश्यक है। शिशु जन्मते ही अपना आहार माता के दूध से प्राप्त करता है। यह दूध और कुछ नहीं जननी के रक्त का ही प्रकारान्तर है, फिर पालन-पोषण में दिल दत्तचित्त रहने, नींद पूरी न कर पाने तथा दूसरी कठिनाइयों को सहने का बोझ माता पर ही पड़ता है। यदि उसका शरीर, स्वास्थ्य इस योग्य है तो ही उसे प्रजनन के लिए कदम बढ़ाना चाहिए। शिशु जन्म से पूर्व जननी बनने की इच्छुक माता का शारीरिक स्वास्थ्य उपरोक्त भार वहन कर सकने में समर्थ है या नहीं, यह देखकर ही किसी महिला के कंधे पर यह बोझ डाला जाना चाहिए।
पिता के ऊपर शिशु जन्म के साथ अनेक उत्तरदायित्व आते हैं। प्रजनन के साथ पत्नी के स्वास्थ्य को पहुँचने वाली क्षति की पूर्ति करने योग्य आहार-विहार की व्यवस्था, बच्चे को सुविकसित होने योग्य पौष्टिक आहार, वस्त्र, चिकित्सा आदि का प्रबन्ध, उच्च शिक्षा का सुप्रबन्ध, विवाह शादी, आजीविका जैसे खर्चीले उत्तरदायित्व पिता के कंधे पर आते हैं। अपनी आर्थिक स्थिति कितने बच्चों का कितना बोझ उठा सकती है। इस पर हजार बार विचार किया जाना चाहिए और जितने बालकों को सुविकसित बना सकने योग्य अपनी आय है उसी के अनुरूप सन्तानोत्पादन का साहस करना चाहिए। अपनी अर्थ क्षमता से अधिक सन्तानोत्पादन एक ऐसा निन्दनीय कार्य है जिसे बच्चों के साथ अत्याचार ही कहा जा सकता है। भूखे, नंगे, बीमार, अशिक्षित, कुसंस्कारी, अविकसित, अस्त-व्यस्त बच्चे, अपने स्वयं के लिए माता-पिता के लिए एक समस्या ही बनते हैं। वे समाज के लिए भी भार बनते हैं। अर्द्धविकसित और कुसंस्कारी बालक समाज में विकृतियाँ और विपत्तियाँ ही उत्पन्न कर सकते हैं। जिनका पाप उन अविवेकी माता-पिता पर पड़ता है जिन्होंने अपनी परिस्थितियों को तोले बिना सन्तानोत्पादन जैसे अति जिम्मेदारी के कार्य को ऐसे ही आरम्भ कर डाला।
पालन-पोषण ही नहीं, बच्चों की एक महती आवश्यकता सुसंस्कारी बनाने की है। यह स्कूली शिक्षा से भी अधिक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। बालक जब तक पूर्ण वयस्क नहीं हो जाता, शैशव और किशोर अवस्था से ही अपनी मनोभूमि, विचारणा और आदतें विनिर्मित करता रहता है। यदि अभिभावकों ने अपने का बुरी आदतों और कुसंस्कारों से निर्मित कर रखा है तो वे बुराइयाँ बच्चे की मनोभूमि में अनायास ही उतरती चली जायेंगी। उपदेशों का प्रभाव छोटी आयु में पड़ता है छोटा बच्चा तो समीपवर्ती गतिविधियों को ही हृदयंगम करता है और वैसा ही अनुकरण करने योग्य स्वभाव का निर्माण करता है। बालक देखने में ही नासमझ मालूम पड़ता है वस्तुतः उसकी स्थूल संवेदना शक्ति युवा व्यक्तियों से भी बहुत बढ़ी-चढ़ी होती है और वह बिना कहे-सुने ही जो हो रहा है सीखता रहता है।
अभिभावक की शान्ति और प्रसन्नता उन्हीं बालकों से मिल सकती है जो सज्जन प्रकृति के, सन्मार्गगामी और सुव्यवस्थित हों अन्यथा बड़े होने पर वे माँ-बाप की सहायता करना तो दूर उन्हें तरह-तरह से त्रास देते हैं। बड़े बच्चे अपने निमित्त घर की अधिकांश पूँजी खर्च करा लेते हैं। बाप इन्तजार देखता है कि वह कुछ कमाकर अपने छोटे भाई-बहिनों की सहायता करेगा पर कमाने योग्य होते ही बीबी को लेकर अलग हो जाते हैं। खोखली आर्थिक स्थिति का दण्ड शेष छोटे बच्चों को सहना पड़ता है। कुसंस्कारी बच्चे माँ-बाप से हमेशा खर्च ही कराते हैं, उन्हें सताते और अपमानित करते हैं जिनसे अभिभावकों को समाज में अपने उन कपूतों की करतूतों पर लज्जा से सिर झुकाये चलना पड़े।
इन सब आपत्तियों से बचने के लिए सन्तानोत्पादन से पूर्व माता-पिता को बार-बार विचार करना चाहिए और यदि अपने को इस उत्तरदायित्व को वहन करने योग्य पायें तो प्रजनन से बहुत पूर्व अपने शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक धरातल एवं पारिवारिक वातावरण को उतना उत्कृष्ट बनाने में जुट जायें कि जन्मने वाले बालक हर दृष्टि से परिष्कृत एवं सुसंस्कृत ही सिद्ध हों। गीली मिट्टी को जिस ठप्पे में दबाया जाता है उसी शक्ल के खिलौने में वह बदल जाती है। अभिभावक एक प्रकार के ठप्पे हैं उन्हीं की नकल, प्रतिच्छवि बालक बनते चले जाते हैं। यदि बालकों को सुख-शांति से जी सकने वाले और अपने सम्बन्धियों को प्रसन्न, संतुष्ट रख सकने वाले, सुसंस्कृत बनाने का मन हो तो उसका एक ही उपाय है कि माता-पिता अपने को पहले से ही वैसा बनाने और सारे परिवार को उसी ढाँचे में ढालने के लिए प्राण-पण से चेष्टा करने लग जायें।
बिना तैयारी के कुसंस्कारी और अविकसित बालक उत्पन्न करना समाज और देश के साथ अपराध, विश्वासघात करने के समान है। देश में गुजारे के लायक अन्न, वस्त्र पैदा नहीं होता संसार भर के सामने पेट दिखाकर, गिड़गिड़ाकर हम अन्न पाते हैं। ऐसी दशा में और बच्चे बढ़ाते जाना देश की दरिद्रता एवं संकट बढ़ाना ही है। इस पर भी यदि वे अविकसित हैं तो भूखे मरेंगे, लड़ेंगे और अपराध करेंगे। इससे राष्ट्र में अशांति एवं विपत्ति ही बढ़ेगी। उनकी गतिविधियाँ राष्ट्र की दुर्बलता ही बढ़ा सकती हैं। कुसंस्कारी नागरिकों से भरा हुआ देश, समाज सामूहिक रूप से पतन के गर्त में ही गिरता चला जायेगा।
प्रगति, पदार्थों या सुविधा-साधनों की अभिवृद्धि को नहीं कहते वह तो प्रतिभाशाली उत्कृष्ट व्यक्तियों की संख्या बढ़ाने पर निर्भर रहती है। कोई देश या समाज अपने सुयोग्य और सद्गुण सम्पन्न सुविकसित नागरिकों से ही बलवान, समृद्ध और यशस्वी बनता है। व्यक्तिगत और समूहगत वर्चस्व सुयोग्य पीढ़ियों पर ही अवलम्बित है। इस प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए प्रजनन की जिम्मेदारी उठा सकने में समर्थ दम्पत्ति पहले अपने को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर सुयोग्य बनाने में लग जायें और जब पूर्ण विश्वास हो जाये कि हम राष्ट्र को सुसंस्कृत एवं सुविकसित नये नागरिक दे सकने में सफल हो सकते हैं तभी उन्हें सन्तानोत्पादन का महान उत्तरदायित्व कंधे पर लेने का साहस करना चाहिए।
बालकों को जन्म ही न दें-उनका निर्माण भी करें
बालकों अपने साथ हमारे लिए कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी लेकर आते हैं और उन्हें पालन करना अभिभावकों के लिए आवश्यक होता है। बच्चे की शरीर रक्षा के लिए उसके भोजन, वस्त्र, सफाई, चिकित्सा, विश्रान्ति आदि का प्रबन्ध करना होता है। बड़े होने पर उनकी शिक्षा, शादी, आजीविका आदि आवश्यकताएँ पूरी करने के साधन भी जुटाने होते हैं। इतना ध्यान आमतौर से अभिभावकों को रखना होता है और वे अपने-अपने ढंग से उसकी पूर्ति भी करते हैं।
किन्तु बात यहीं तक समाप्त नहीं हो जाती। इससे भी आगे कर्तव्य और उत्तरदायित्व अभिभावकों के हैं जिनके न समझने एवं न निबाहने से बच्चे अनेक दुर्गुणों से घिर जाते हैं और अपने लिए, परिवार के लिए-समाज के लिए एक अभिशाप सिद्ध होते हैं। दुर्गुणों से बचाना और सद्गुणों से अभ्यस्त कराना भी अभिभावकों का कर्तव्य है। यह बात भुला नहीं दी जानी चाहिए।
बच्चा कुछ जन्मजात भले-बुरे संस्कार लेकर अवश्य आता है पर उनका विकसित अथवा नष्ट होना बहुत कुछ परिस्थितियों पर निर्भर रहता है। अभिभावकों की मनोभूमि और घर की परिस्थितियों पर प्रायः बच्चों का मानसिक विकास निर्भर रहता है। कुछ विरले ही बालक ऐसे अपवाद देखे जाते हैं जो परिवार की परिस्थितियों से भिन्न प्रकार का व्यक्तित्व निर्माण कर सके हों। व्यवसाय तो बदलते रहते हैं। गरीबी, अमीरी और रंग-रूप भी बदल जाते हैं पर स्वभाव और संस्कार प्रायः आजीवन वैसे ही बने रहते हैं जैसे बचपन में उपलब्ध हुए थे। इसलिए यदि अपने बच्चों के दुर्गुणों से बचना हो और सद्गुणी बनाना हो तो उनके जन्म से पूर्व ही वह तैयारी करनी चाहिए कि उन्हें सुसंस्कृत वातावरण मिले, जिसमें पलकर वे सज्जन, सुसंस्कृत एवं सद्गुणी बन सकें।
यह एक रहस्यमय तथ्य है कि बालक गर्भ में आने के दिन से ही सीखना आरम्भ करता है और पाँच वर्ष का होने तक अपनी मनोभूमि के निर्माण का कार्य तीन चौथाई पूरा कर लेता है। इस अवधि में बालक बहुत सम्वेदनशील रहता है। किशोर एवं युवा होने पर स्कूली पढ़ाई, व्यवसायिक ज्ञान, कला-कौशल, लोक-व्यवहार, खेल-कूद आदि की शिक्षा प्राप्त की जाती है, क्योंकि इन कार्यों के उपयुक्त मस्तिष्कीय विकास बड़ी आयु में ही होता है। किन्तु स्वभाव, संस्कार, चरित्र, आस्थाएँ जिस आयु में सीखी जाती हैं वह गर्भ में प्रवेश करने वाले दिन से लेकर पाँच वर्ष तक की हैं। उस अवधि में अचेतन मस्तिष्क बहुत संवेदनशील रहता है और निकटवर्ती वातावरण से जो कुछ सोचा या किया जाता है उसका बहुत ही स्पष्ट चित्र अपनी अन्तःभूमिका पर उतरता जाता है। यों यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है पर उसका बहुत बड़ा अंश शैशव काले में ही पूरा हो चुकता है। इसलिए अभिभावकों को यदि अपने बच्चे संस्कारवान और सद्गुणी बनाने हों तो वातावरण ऐसा बनाने का पूरा ध्यान देना चाहिए जिससे उन्हें सुसंस्कृत बनने का उपयुक्त आधार मिल सके।
यह भली-भाँति समझ रखना चाहिए कि व्यक्ति की सुख-शांति के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, शादी, आजीविका आदि की आवश्यकता तो है पर काम इतने से ही नहीं चल सकता। आदतें और अभिलाषाएँ यदि घटिया किस्म की हैं तो व्यक्ति का दृष्टिकोण, स्वभाव एवं व्यवहार ओछे स्तर का होगा, फलस्वरूप वह स्वयं विक्षुब्ध रहेगा, परिवार वालों को अपने व्यवहार से दुःखी करेगा और समाज के लिए ऐसी विकृतियाँ उत्पन्न करेगा जिनसे क्लेश और द्वेष भरी दुष्प्रवृत्तियों की एक लम्बी शृंखला चल पड़े।
यदि हम अपने बालकों को समुचित प्यार करते हों और वस्तुतः उनका भविष्य उज्ज्वल देखना चाहते हों तो उचित यही है कि उनको संस्कारवान बनाने की तैयारी में जुट जायें। सन्तानोत्पादन की क्रिया आरम्भ करने से पूर्व पति-पत्नी को अपने दोष-दुर्गुणों का परिष्कार करना चाहिए और सुसंस्कृति एवं सम्भ्रान्त सज्जनों की तरह आचरण, व्यवहार एवं सम्भाषण की समस्त गतिविधियाँ सुधार लेनी चाहिए। बीज में जो प्रकृति होगी वही पौधे में आवेगी मक्का से मक्का उगेगा और गेहूँ से गेहूँ। बाप का बीज और माता का जमीन दोनों का समान महत्त्व है सन्तान रूपी उपवन के निर्माण में। इसलिए जो केवल नर आकृति के ही नहीं मानव प्रकृति के बालक उत्पन्न करना चाहते हों उन्हें विवाह के बाद तुरन्त इस प्रयत्न से जुट जाना चाहिए कि अपने समस्त दोष-दुर्गुणों को जल्दी से जल्दी निकाल बाहर करें और प्रयत्नपूर्वक समस्त सद्गुणों को अपने आचरण में सम्मिलित कर लें। होनहार बालकों की उत्पत्ति का मूल आधार यहीं से प्रारम्भ होता है। गर्भावस्था में सुने हुए ज्ञान के आधार पर अभिमन्यु ने बड़े होकर चक्रव्यूह का वेधन किया था। अपने बालक भी माता के गर्भ में बैठे हुए बहुत कुछ सीखते, समझते और ग्रहण करते रहते हैं। गर्भवती के आस-पास प्रसन्नता, उल्लास, सद्भावना, आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता का वातावरण बना रहना चाहिए। उसे क्रुद्ध, असंतुष्ट, खिन्न एवं उद्विग्न रहने की स्थिति सहन न करनी पड़े इसका समुचित ध्यान रखा जाये।
शिशु जन्म के बाद माता-पिता के समस्त प्रकार की घर की ऐसी परिस्थितियाँ बनना चाहिए जिसमें अस्वच्छता, कुढ़न, मनोमालिन्य, उद्दण्डता एवं अनैतिकता के लिए कोई गुंजाइश न हो। सब लोग ध्यान रखें कि बहुत ही कुशल और सम्वेदनशील गुप्तचर की तरह नवजात बालक हमारे आचरण और व्यवहार से बहुत कुछ सीख रहा है। इन दिनों जो उसे सिखाया जायेगा उसी के आधार पर उसकी प्रकृति बनेगी और बड़े होने पर उसका भविष्य उसी प्रकार का विनिर्मित होगा। इस तथ्य को समझने वाले लोगों का यह एक अनिवार्य कर्तव्य हो जाता है कि अपने दुर्गुणों पर नियन्त्रण रखें और घर में जो सज्जनता की सौम्य परिस्थितियाँ बनाये रखने के लिए जो भी त्याग करना पड़े उसके लिए खुशी-खुशी तैयार हों। माता-पिता को परस्पर लड़ने-झगड़ने से पूरी तरह बचना चाहिए और काम-क्रीड़ा पर अधिक से अधिक नियन्त्रण रखना चाहिए ताकि बच्चों के कुसमय ही ही बिगड़ने का दुष्परिणाम सामने न आये।
बच्चे स्कूल में तो केवल भाषा, गणित, इतिहास, भूगोल आदि पढ़ते हैं। अब वहाँ प्राचीनकाल के स्कूलों जैसा वातावरण कहाँ हैं। जहाँ बालक सुसंस्कार भी प्राप्त करें। बच्चे का शिक्षण उपदेश पर नहीं अनुकरण पर निर्भर है। उनका अविकसित मस्तिष्क लम्बे, चौड़े उपदेशों या कठोर निर्देशों के समझने और अपनाने में उसका अन्तःकरण पूर्ण समर्थ होता है इसलिए उन्हें जो कुछ सिखाया जाना हो उसका प्रत्यक्ष रूप सामने प्रस्तुत करना चाहिए। आज के स्कूल, अध्यापक बच्चों को एक बहुत छोटी सीमा तक ही सुधार सकते हैं क्योंकि वहाँ न वातावरण है न चरित्र। बालकों के स्वभाव एवं चरित्र का निर्माण तो घर की पाठशाला से ही सम्भव है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक यह चेष्टा की जानी चाहिए कि घर का वातावरण बहुत ही निर्मल, शांतिमय, सदाचारी एवं सज्जनतापूर्ण हो। घर के सब लोग परस्पर मधुर सम्भाषण करें प्रेमपूर्वक रहें और एक-दूसरे की भरपूर सहायता करने को उदारतापूर्वक तत्पर रहें तो बिना किसी प्रशिक्षण, उपदेश के ही बालक उन सद्गुणों को ग्रहण करते चले जायेंगे और बड़े होने पर वैसे ही बनेंगे जैसा कि उन्हें बचपन में अभिभावकों द्वारा सिखाया एवं बनाया गया था।
बच्चे उत्पन्न करना व्यक्तिगत क्रीड़ा-विनोद का विषय नहीं है। एक नये व्यक्ति के जन्म एवं उसके व्यक्तित्व को निर्मित करने का यह महान उत्तरदायित्व है। यदि हम इस कर्तव्य को भूलते हैं तो स्वयं उद्विग्न रहने वाले, परिवार को दुःखी करने वाले और समाज में दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने वालो राक्षसों को उत्पन्न करेंगे और अपने पाप से अपने और सबके लिए नरक का सृजन करेंगे। उचित यही है कि यदि बालक उत्पन्न करने का साहस करते हैं तो उन्हें सुसंस्कृत बनाने का वातावरण भी उत्पन्न करें। तभी विवाह प्रजनन की सार्थकता है।
सन्तान को स्वावलम्बी भर बनाना ही पर्याप्त है
मनुष्य यदि सन्तान उत्पन्न करता है, तो स्वभावतः उसकी यह जिम्मेदारी भी होती है कि उसके पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, विवाह एवं आजीविका की व्यवस्था जुटाने का भी प्रबन्ध करें। सृष्टि के सभी जीवों में यह प्रचलन है कि संतान जब तक अपने पैरों पर खड़ी होकर अपना निर्वाह स्वयं न करने लगे तब तक उसकी सहायता करते हैं। मनुष्य के लिए यह उचित है कि बालकपन और किशोरावस्था में बच्चों के भरण-पोषण की, भोजन वस्त्र की, शिक्षा-चिकित्सा की व्यवस्था करें और उन्हें शारीरिक मानसिक दृष्टि से इस योग्य बनायें कि वे भावी जीवन में स्वावलम्बी जीवनयापन कर सकें। पौष्टिक आहार, उचित शिक्षा, सरल मनोरंजन, सही संगति के साधन जुटाना अभिभावकों का काम है और यह भी उन्हीं की जिम्मेदारी है कि उनके गुण, कर्म, स्वभाव को सुसंस्कृत बनाने के लिए ऐसा वातावरण एवं साधन उपस्थिति करें जिसमें उन्हें सभ्य, सुसंस्कारी एवं सज्जन बनने की दिशा मिल जाये। यदि कोई अभिभावक इन कर्तव्यों को पूरा नहीं करता है तो उसे कर्तव्य पालन में प्रमाद करने का दोषी कहा जायेगा। लाड़-प्यार के आवेश में यदि बच्चों को आलसी, विलासी, चटोरा, अहंकारी, उद्दण्ड एवं दुर्गुणी बनाया गया है तो उन अहितकर और अनावश्यक लाड़ दिखाने वाले अभिभावकों को बच्चों के साथ अन्याय करने वाला ही कहा जायेगा। जन्म देने के बाद निस्सन्देह बालकों को सुशिक्षित बनाने के लिए किशोरावस्था के अन्त और यौवन के प्रवेश तक आवश्यक साधन-सुविधाएँ उत्पन्न करना हर माता-पिता और अभिभावक वर्ग के व्यक्ति का ऐसा कर्तव्य है जिसका पालन किया ही जाना चाहिए।
विदेशों में जहाँ शासकीय और सामाजिक व्यवस्था ठीक है वहाँ उतने से ही काम चल जाता है, पर अपने देश में वे दोनों ही व्यवस्थाएँ काफी गड़बड़ हैं, इसलिए यहाँ के अभिभावकों की तो और भी जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि बच्चों को काम-धन्धे में लगायें और उन्हें उपार्जन कर सकने योग्य बनाने में सहायता प्रदान करें तथा उपयुक्त साथी ढूँढ़कर उनके विवाह की व्यवस्था करें।
इतना सब कर चुकने के बाद माता-पिता का कर्तव्य पूरा हो जाता है। बच्चों को स्वावलम्बी बनाने के बाद, उनको परामर्श देने और आवश्यक अनुशासन बनाये रखने का तो ध्यान रखना चाहिए पर साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य जीवन जैसा बहुमूल्य अवसर बच्चे पैदा करने, उन्हें लाड़ करने और अन्ततः सब कुछ उन्हीं पर निछावर कर जाने के लिए नहीं मिला है। इसके अतिरिक्त भी उनके कुछ कर्तव्य हैं और वे सन्तानोत्पादन एवं परिपोषण से भी अधिक पवित्र एवं महत्त्वपूर्ण हैं। मनुष्य जीवन की स्थिरता एवं प्रगति समाज के सहयोग से ही सम्भव होती है इसलिए वह स्वभावतः समाज का ऋणी है और इस बात के लिए धर्म कर्तव्यों से बँधा हुआ है कि सामाजिक ऋण चुकाकर ही संसार से विदा हो। यह विशाल विश्व ही भगवान का विराट रूप है। जिस भगवान ने हमारे ऊपर असीम उपकार किये उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का मार्ग समाज को सुविकसित, सुरभित एवं सुगन्धित बनाना ही है। इसलिए भारतीय धर्म की यह मर्यादा है कि ढलती आयु वानप्रस्थ के अनुरूप बिताते हुए अपनी बची-खुची शक्तियाँ लोक-मंगल के लिए अर्पित कर दें। आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण के लिए इसी रीति-नीति को अपनाया जाना और धर्म-कर्तव्य का पालन किया जाना आवश्यक है। इस देश में लाखों-करोड़ों वर्षों तक यही मर्यादा पालन की गई और यहाँ स्वर्गीय वातावरण बना रहा।
अब लोभ और मोह की दुष्प्रवृत्तियों ने अभिभावकों और सन्तान के सम्बन्धों को विकृत बनाकर सारा सामाजिक ढाँचा ही लड़खड़ा दिया है। बच्चों के स्वावलम्बी हो जाने के बाद भी अभिभावक अपनी संकीर्णता और मोहवृत्ति के बन्धनों से बुरी तरह जकड़े रहते हैं और उस ढलती आयु में जिस पर विशुद्ध रूप से समाज का हक था, पोतियों को खिलाते रहने और घर-कुटुम्ब पर अनावश्यक मोह, अधिकार दिखाकर एक अनावश्यक भार बने रहते हैं। इतना ही नहीं जो कुछ सन्तान के स्वावलम्बी बनाने के अतिरिक्त पूँजी बची थी उस भी उन्हीं लोगों को दे जाते हैं, जबकि उस धन पर विशुद्ध पर रूप से समाज का हक है और वह उसी की उऋणता के लिए खर्च किया जाना चाहिए था।
संतान के प्रति इस क्षुद्रता और संकीर्णता भरे अनावश्यक मोह ने भारतीय समाज को भारी हानि पहुँचाई है। जो पैसा और समय समाज के उत्थान और सुख सम्वर्द्धन मे खर्च होना चाहिए था यदि वह हराम की कमाई के रूप में स्वावलम्बी बच्चों को मिलता है तो उससे वे व्यसनी, आलसी, फिजूलखर्च और दुर्गुणी ही बनेंगे। आदमी उसी पैसे को ठीक और उचित तरीके से खर्च कर सकता है जो उसने कठिन परिश्रम के साथ पसीना बहाकर कमाया है। जो पैसा मुफ्त में मिलेगा उससे व्यक्ति की विलासिता ही नहीं दुर्बुद्धि भी बढ़ेगी। इसलिए जीवन भर ब्याज-भाड़े की कमाई खाने और चैन की वंशी बजाने की बात सोचकर जो लोग सन्तान के लिए ही अपनी कमाई उत्तराधिकार में छोड़ जाने की बात सोचते हैं वे सन्तान के साथ, आत्मा के साथ और समाज के साथ विशुद्ध रूप से एक अन्याय ही करते हैं और तीनों अदालतों में अपराधी सिद्ध होते हैं। यह एक बहुत ही भौंड़ा, फूहड़ और निकृष्ट संकीर्णता भरा व्यामोह है कि अभिभावक स्वावलम्बी सन्तान को ही अपना श्रम, समय मन और धन ऐसे अर्पित करें मानों वे ही भगवान हों।
प्राचीनकाल में सन्तान अभिभावकों के भरण-पोषण और शिक्षा-दीक्षा भर के ऋण को चुकाना ही बहुत भारी समझते थे। अस्तु उनके उत्तराधिकार में थोड़े धन को अग्राह्य मानते थे। आमतौर से ऐसा पैसा वे वयोवृद्ध लोग अपने जीते ही दान-पुण्य में, सत्कर्मों में खर्च कर जाते थे। मरने के बाद जो बच जाता था तो सन्तान उसे मृतक श्राद्ध में स्वर्गीय आत्मा को पुण्य फल प्रदान करने वाले लोकोपयोगी कार्यों में लगा देते थे। वे उसमें से एक पाई भी अपने लिए रखते नहीं थे। जो उन पर ऋण चढ़ा है वही क्या कम है जो अगले जन्म में गधा-घोड़ा बनकर इस मुफ्त के माल को एक अनावश्यक ऋण के रूप में सिर पर लादें।
आज की विचित्र स्थिति है। सन्तान से तरह-तरह के दुःख, तिरस्कार, उपेक्षा और प्रताड़ना सहते हुए भी निकृष्ट संकीर्णता के व्यामोह में जकड़ा हुआ वयोवृद्ध न देश की, धर्म की, न समाज की, न संस्कृति की आवश्यकता को समझता है, न आत्म-कल्याण, विश्व-कल्याण और ईश्वरीय निर्देशों को ध्यान में रखता है, जो कुछ पास है उसे केवल सन्तान को ही देने की बात सोचता है। संतान नहीं होती तो किसी की संतान गोद रखता है। सर्प की तरह पूँजी पर संकीर्णता की कुण्डली मारकर बैठा हुआ मूर्ख इतनी मोटी बात नहीं सोच पाता कि ढलती आयु के, स्वावलम्बी संतान से बचे हुए समय और पैसे का सदुपयोग किन्हीं उत्तम कार्यों के लिए किया जा सकता है या नहीं।
आचरण और घोर स्वार्थपरता, संकीर्णता और मोह-ममता का परिचय देने वाले उदारता और लोक-मंगल की आवश्यकता देखने में विमुख इन वयोवृद्धों की धृष्टता तो देखिए कि लकड़ी की माला सटक और पत्थर के भगवान पर धूप-दीप सँजोकर यह आशा करते हैं कि उन्हें आत्म-कल्याण और भगवान के प्यार का लाभ मिलेगा। इनकी प्रवंचना और मनोवांछा की संगति मिलाने पर कोई विचारशील इस बाल बुद्धि पर ठठाकर हँस ही सकता है।
काश, ढलती आयु के वयोवृद्धों में यह समझ आई होती कि सन्तान को स्वावलम्बी बनाने के बाद बचा हुआ समय और धन विशुद्ध रूप में विश्व-मानव का है और उसे लोक-मंगल में ही खर्च किया जाना चाहिए तो निस्सन्देह आज देश और विश्व का रूप ही दूसरा होता। मरणोन्मुखी ढलती आयु के लोग वानप्रस्थ की परम्पराओं को त्यागकर सन्तान के व्यामोह में जिस बुरी तरह ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि वे माला जपने का ढोंग बनाने पर भी अपने घृणित आचरण द्वारा अपना समाज का और सन्तान का सर्वनाश ही कर रहे हैं। ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे।
पर्दा प्रथा-नारी के साथ बरती जाने वाली एक नृशंस अनीति
नर और नारी मिलकर एक पूर्ण समाज बनाते हैं। वे दोनों पहिये मिलकर ही गाड़ी चलाते हैं, इसी प्रकार गृहस्थ जीवन भी नर और नारी दोनों के समान प्रयत्न और पुरुषार्थ से प्रगतिशील देशों में यही प्रतीत होता है। दो बैल जिस प्रकार कंधे से कंधा मिलाकर काम करते हैं उसी प्रकार नर और नारी एकजुट होकर अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुरूप पूरा पुरुषार्थ करके परिवार को सुखी एवं समुन्नत बनाने के साधन जुटाते हैं। संसार की प्रगतिशीलता का यही रहस्य है।
अपने समाज की कुछ विचित्र स्थिति है। यहाँ नारी को घर की चहारदीवारी के भीतर बन्द रहने वाले कैदी की तरह जीवन यापन करना पड़ता है। उसको घर से निकलना, अकेली कहीं जाना, दूसरों से बात करना निषिद्ध है। पर्दा प्रथा के कारण यहाँ स्त्रियों की स्थिति इतनी दयनीय है कि उनकी तुलना में पशु-पक्षी भी अच्छी स्थिति में पाये जा सकते हैं। गाय, भैंस, घोड़ी, बकरी, आदि खुले मुँह रह सकती हैं और मन्दी या जोर की आवाज में चाहे जब बोल सकती हैं। पर यह सुविधा भारतीय नारी को प्राप्त नहीं है। चिड़ियों के चहकने-फुदकने पर प्रतिबन्ध नहीं पर बेचारी भारतीय नारी के भाग्य में उतनी भी स्वतन्त्रता बदी नहीं है। उन्हें खूनी कैदी की तरह ही हर घड़ी प्रतिबन्धों से जकड़ी हुए एक छोटी कोठरी में आजीवन इस तरह रहना पड़ता है जहाँ अभिनव स्वतन्त्रता की हवा भी नहीं पहुँचने पाती। इस बन्धन में वे अपनी आत्मिक और मौलिक सभी प्रतिभाएँ खोकर पराधीन, परावलम्बी, असहाय और कातर किसी निरीह प्राणी की स्थिति में पहुँच जाती हैं।
पर्दा प्रथा सर्वथा अभारतीय है। इसका प्रचलन अरब के उस रेगिस्तान प्रदेश में हुआ जहाँ दिन-रात रेतीले अन्धड़ चलते थे और गोदी के बच्चों की आँखों में रेत घुस जाने का हर घड़ी डर रहता था, स्त्रियाँ अपना और बच्चों का मुँह ढके रहती थीं। पीछे जब सामन्ती लूटमार में युवा महिला लूटी और गुलाम बनाई जाने लगीं तो उसके हरम में रहने वाली बेगमें और रखैलें मुँह पर पर्दा डालकर रहें ताकि उन्हें पाने के लिए कोई दूसरा सामंत झंझट खड़ा न करे। भारत में जब मुसलमान आये तो वही सब उनके प्रभाव से प्रभावित लोगों ने सीखा। यहाँ भी बहु विवाह और सैकड़ों रखैलों रखने की सामंती प्रथा पनपी और चँगुल में फँसी महिलाओं को हाथ से न जाने देने के लिए इधर भी पर्दा प्रथा का प्रचलन हो गया। बहुतों ने उसे अन्धेर के दिनों में पर्दा प्रथा में अपना बचाव और भला समझा और स्वेच्छा से उसे अपना लिया। आततायी शासक और उनके गुमास्ते खूनी भेड़िये की तरह सुन्दर बहू-बेटियों के लिए घात लगाये फिरते थे, ऐसे विपत्ति काल में यही अच्छा समझा गया कि पर्दा अपनाकर किसी प्रकार अपनी आबरू बचाई जाये।
अब वे परिस्थितियाँ नहीं रहीं। जो कभी पहले थीं। ग्रहण के समय चन्द्रमा पर अशुभ छाया पड़ती है उसे सदा बने रहना आवश्यक नहीं। भारतीय संस्कृति में पर्दे का कभी कोई प्रचलन नहीं रहा। यहाँ के देवता और देवियों के मुख पर कोई ऐसी कालिख पुती नहीं होती थी जिससे उन्हें अपना कलंकी चेहरा ढके रहने की जरूरत पड़े। बीच में आपत्तिकाल में इसकी विवशता प्रस्तुत की होगी पर अब वह भी कोई बात नहीं, जिसके कारण हमें अपने आधे समाज को, नारी को पंगु प्रतिबन्धित बनाकर असहाय की तरह भारभूत बनाये रखने का औचित्य सोचना पड़े।
प्राचीन भारतीय नारी ने हर क्षेत्र में नर के कन्धे से कन्धा मिलाकर सृजनात्मक कामों में योग दिया है। घर और बाहर समान रूप से उसका कार्यक्षेत्र रहा है। रोटी पकाने और बच्चा पैदा करने की मशीन तो वह इस अन्धकार युग में बनी है। सदा से तो वह अपनी गौरव-गरिमा द्वारा समाज के हर क्षेत्र को अपनी प्रतिभा से चमत्कृत करती रही है ओर प्रगति एवं समृद्धि के लिए पुरुष के समान ही अपना योगदान देती रही है। संसार भर में आज भी उसका पुरुषार्थ वैसा ही उपादेय सिद्ध हो रहा है। एक समर्थ व्यक्ति के रूप में वह अपनी क्षमता और बुद्धिमत्ता का पूरा-पूरा लाभ अपने समाज को दे रही है।
पिछड़ा हुआ भारतीय समाज पर्दा प्रथा जैसी अनीतिमूलक मूर्खतापूर्ण कुरीतियों को अब भी छाती से चिपकाए बैठा है जबकि उसके बने रहने का कोई आपत्तिकालीन कारण शेष नहीं रह गया है। यहाँ न अरब जैसे रेतीले अन्धड़ चलते हैं और न अब स्त्रियों की लूटपाट, खरीद-फरोख्त होती है। जिसके कारण उन्हें लुकाने-छिपाने की जरूरत पड़े। अब तो विवेकशीलता की कसौटी पर इसे एक विशुद्ध सामाजिक अत्याचार और व्यक्ति के जन्म-जात ईश्वर प्रदत्त मानवीय अधिकार का हनन ही माना जायेगा। इस कुप्रथा ने हमारे समाज को अपंग बनाकर रख दिया है। बन्दी की तरह एक छोटे कटघरे में रहने वाली नारी दिनों-दिन शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से अशक्त होती चली जाती है। पुरुषों की तुलना में उसका स्वास्थ्य बहुत अधिक खराब है। प्रजनन के भार से उसकी बेतरह मृत्यु होती है। शिक्षा के अभाव में वह बालकों के उचित पालन-पोषण, गृह व्यवस्था और पति का महत्त्वपूर्ण सहयोग करने में असमर्थ है। अनुभव के अभाव से परिवार की किसी बड़ी समस्या को सुलझाने में कोई योगदान नहीं दे सकती। पति द्वारा उपेक्षित या परित्यक्त कर दी जाये अथवा वैधव्य की विपत्ति सिर पर आ पड़े तो उसकी दयनीय दुर्दशा पत्थर को भी रुला दे सकती है।
जिस समाज का, व्यक्ति का, आधा अंग नारी के रूप में इस प्रकार अपंग बना हुआ हो उसकी प्रगति और समृद्धि की आशा कौन करेगा? बालक, वृद्ध, अपंग, रोगी तो गृहपति पर भार होते ही हैं निरुपयोगी बनी बैठी नारी भी अब लगभग इसी प्रकार अपाहिजों में सम्मिलित हो गई है। पर्दा प्रथा ने हमारे समाज के आधे अंग को लकवा मार जाने वाली रोगी की स्थिति में ला पटका। आधी जनसंख्या की नारी अपने प्रबल पुरुषार्थ से पुरुष जनसंख्या की तरह ही प्रगति के हर क्षेत्र में एक कदम आगे बढ़कर दिखा सकती थी और समृद्धि भरी सुविधाएँ उत्पन्न कर सकती थी, आज निरीह बनी मन मसोसकर कैदी का तिरस्कृत और उपेक्षित जीवन जीने के लिए विवश हो रही है।
समय आ गया है जबकि पर्दा प्रथा जैसी अनीतिमूलक कुरीति को हटाया जाये और नारी को भी नर की ही भाँति मनुष्योचित सम्मानपूर्ण जीवन जीने का अधिकार दिया जाये। उसे शिक्षा-दीक्षा, स्वावलम्बन तथा कुशलता प्राप्त करने की अधिक सुविधा को उपलब्ध करने में हर पुरुष को पूरा-पूरा योगदान देना चाहिए। भारतीय नारी को अधिक शिक्षा, अधिक प्रतिभा, अधिक क्षमता, अधिक कुशलता प्राप्त करने का अवसर मिले तो राष्ट्र की प्रगति में देखते-देखते चार-चाँद लगा सकती है। इस मार्ग में सबसे बड़ी बाधा पर्दा प्रथा की है-उस पूतना का अब अन्त ही होना चाहिए।
अपव्यय एक पाई का भी न करें
आर्थिक क्षेत्र में बुद्धिमानी का चिन्ह उपार्जन ही नहीं खर्च करने की प्रक्रिया भी है। उपार्जन केवल बुद्धिमत्ता पर ही नहीं बहुत करके परिस्थितियों पर भी निर्भर रहता है। एक सी योग्यता और बुद्धिमत्ता होते हुए किसी को बहुत उपार्जन करने का मौका मिल जाता है और किन्हीं को परिस्थितियाँ काफी पीछे छोड़ देती हैं। पर अधिक उपार्जन करने वाला, अधिक सुयोग्य, अधिक बुद्धिमान या अधिक प्रयत्नशील हो सो बात नहीं है। जिसका खाँचा बैठा गया पूँजीवादी अर्थ प्रणाली में वही समृद्धि उपार्जित करने लगता है। पैसा पैसे को कमा सकता है, बाप-दादों की छोड़ी सम्पत्ति उत्तराधिकार में मिल सकती है। जुआ, सट्टा, लाटरी फल सकती है, चोरी-चाँडाली से भी बहुत कमाया जा सकता है। कहना इतना भर है कि उपार्जन की मात्रा को ही अर्थ-क्षेत्र की बुद्धिमत्ता नहीं माना जा सकता। बुद्धिमत्ता की वास्तविकता कसौटी यह है कि व्यक्ति किस तरह अपनी कमाई खर्च करता है।
अनेक व्यक्ति कमाते तो बहुत हैं पर खर्च करने के सम्बन्ध में बड़े अदूरदर्शी होते हैं। जो आता है वही अस्त-व्यस्त तरीके से फूँक देते हैं और आये दिन अभावग्रस्त एवं कर्जदार बने रहते हैं। वे पैसे का मूल्य नहीं समझते, उसे खिलवाड़ जैसी कोई चीज समझते हैं, कि लोग हमें जितना अधिक खर्च करते देखेंगे। उतना ही अमीर या बड़ा आदमी मानेंगे और उतना सम्मान करेंगे। इस दृष्टि से कई व्यक्ति बहुत फिजूलखर्ची करते हैं। कई ने तो इतने दुर्व्यसन पाल रखे होते हैं कि कमाई का बहुत भाग उसी में खर्च हो जाता है।
अनावश्यक रूप से हाथ खुला रखकर यदि पैसा उड़ाया जाये तो कुबेर का खजाना भी खाली हो सकता है और लक्ष्मी को भी दरिद्रता का शिकार बनना पड़ सकता है। कितने ही बड़े बर्तन में कितना ही पानी क्यों न भरा हो, तली का एक छोटा छेद कुछ ही समय में उसे खाली कर देने के लिए पर्याप्त है। वे सोचे-समझे, चाहे जिस काम में मन की तरंग के आधार पर खर्च करने वाले सदा अभावग्रस्त और दरिद्र ही रहेंगे भले ही उनकी आमदनी कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो।
पैसा किस प्रकार, किस काम में कितना खर्च किया जाता है? उसको पूरा जान लेने पर ही किसी की बुद्धिमत्ता का स्तर परखा जा सकता है। अपव्यय सबसे बड़ी मूर्खता है। अपनी हैसियत, औकात, आमदनी और आवश्यकता का ध्यान रखे बिना जो अनावश्यक खर्च किया जाता है वह व्यक्ति और परिवार के विकास में सबसे बड़ा अवरोध सिद्ध होता है। इन दिनों उचित और आवश्यक कार्य ही इतने बढ़े-चढ़े हैं कि उनकी पूर्ति कठिन हो जाती है। स्वास्थ्य, शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय आदि आवश्यक कार्यों के लिए ढेरों पैसा लगता है। अन्न, वस्त्र, मकान की जरूरतें बहुत सारा पैसा माँगती हैं। जब तक कुरीतियों का क्रान्तिकारी उन्मूलन न हो जाये जब तक विवाह-शादी, चाल-चलन, पर्व-त्यौहार आदि पर भी पैसा खर्च करना ही पड़ेगा। यदि फिजूलखर्ची की आदत पड़ गई है और पैसों को कागज का टुकड़ा समझकर ज्यों-त्यों उड़ा दिया जाता है, तो समय पर अनिवार्य आवश्यकताओं के लिए हाथ खाली रहेगा और उसमें खेदपूर्वक कटौती करनी पड़ेगी।
व्यक्ति अकेला नहीं है। वह अनेक पारिवारिक कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों से जुड़ा हुआ है। बूढ़े माता-पिता और छोटे भाई-बहिनों के अतिरिक्त घर में दूसरे लोग भी होते हैं जो उपार्जन करने वालों से अपनी आवश्यकता पूर्ति चाहते हैं। संयुक्त परिवार प्रणाली के साथ जुड़ा हुआ यह एक पवित्र कर्तव्य है, कि असमर्थ परिजनों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यथासम्भव कुछ उठा न खा जाये। विवाह होते ही पत्नी और उसके द्वारा संतान के लालन-पालन की जिम्मेदारी आती है। बड़े होने पर उनकी शिक्षा, शादी तथा आजीविका के साधन जुटाने पड़ते हैं। आजकल आये दिन अस्वस्थता का भी दौर रहता है। चिकित्सा में कंजूसी करके साथियों के जीवन से खिलवाड़ भी नहीं किया जा सकता। पारिवारिक प्रगति के अनेक द्वार खोले जा सकते हैं और प्रियजनों को सुयोग्य एवं समर्थ बनाने के लिए कितनी भी पूँजी जुटाई जा सकती है।
यदि अनावश्यक खर्च करने की आदत है तो अधिकतर धन बेकार बातों में ही उड़ जायेगा। फिर उचित आवश्यकताओं से वंचित ही रहना पड़ेगा। हमें समझना चाहिए कि कमाते भले ही हम हों उस आजीविका में परिवार के हर सदस्य की साझेदारी है। खर्च करते समय परिवार की वर्तमान और भावी आवश्यकताओं का ध्यान में रखकर ही करना पड़ता है। एक सद्गृहस्थ को इसी तरह सोचना चाहिए और अनावश्यक अपव्यय में एक कौड़ी भी खर्च करने से पूर्व हजार बार सोचना चाहिए।
आजकल ठाठ-बाट और फैशन के नाम पर न जाने कितने पैसों की बर्बादी होती है। कीमती पोशाकें, जेवर शृंगार-सामग्री, सजावट के लिए ढेरों धन बर्बाद होता रहता है। यदि विवेक से काम लिया जाता तो इसे आसानी से बचाया जा सकता था। शौक-मजा के नाम पर कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च होता है। खाते-पीते लोगों का एक नया व्यसन और है-यारबाजी। पतंगबाजी, नशेबाजी, रण्डीबाजी आदि की तरह ‘यारबाजी’ यह भी दुर्गति की निशानी है। निठल्ले, आवारा और सिरफिरे लोग इस तलाश में रहते हैं कि कोई आँख का अन्धा और गाँठ का पूरा ‘दोस्त’ मिले। समय काटने और अपने अपने दुर्व्यसन में सहायक ढूँढ़ने के लिए बड़ी चाल से और, चापलूसी से दूसरों पर दोस्ती गाँठते हैं और फिर उसकी पीठ पर सवार हो लेते हैं। गपशप, ताश, चौपड़, सैर-सपाटा यही उनके धन्धे रहते हैं। ऐसे दोस्त जिनके पीछे भूत-पलीत की तरह लग जायें तो समझना चाहिए अब उनका बहुमूल्य समय और गाढ़ी कमाई का पैसा पानी की तरह बहेगा। यारबाजी के कुचक्र में सैकड़ों ने अपने को बर्बादी के गर्त में गिराया है।
पारिवारिक उत्तरदायित्वों के अतिरिक्त सामाजिक उत्कर्ष एवं पीड़ितों की सहायता भी मनुष्य का एक पवित्र कर्तव्य है। अपनी आमदनी का एक अंश अपनी श्रद्धा और सुविधानुसार नियमित रूप से लगाते रहना चाहिए, शरीर निर्वाह के अतिरिक्त अपने और अपने परिजनों के बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कर्ष के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग के साधन भी जुटाये जाने चाहिए। अनुभवों के एकत्रीकरण के लिए योजनाबद्ध यात्राएँ उपयोगी होती है मनोरंजन के लिए भी कुछ खर्च करना चाहिए। निर्वाह के अतिरिक्त उपरोक्त खर्च भी आवश्यक मद में ही जोड़े जा सकते हैं। इसके लिए कुछ पैसा तभी बचाया जा सकता है जब फिजूलखर्ची की सारी मदें कड़ाई के साथ काट दी जायें। आमदनी हर एक की सीमित होती है। अपव्यय की कोई सीमा नहीं। यदि अविवेकपूर्ण खर्च किया जाता रहा तो उसमें महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ ही रोकनी पड़ेंगी, परिणाम दोनों ही तरह अहितकर होगा। अपव्यय से आदतें खराब होंगी, दुर्व्यसन पल्ले बँधेंगे, गैर जिम्मेदारी की प्रवृत्ति बढ़ेगी और तंगी भुगतनी पड़ेगी। दूसरी ओर अपने तथा परिवार के विकास की उचित आवश्यकताएँ पूरी न हो सकने की आत्मग्लानि ही रहेगी।
हमें अपनी आमदनी का एक भाग भावी उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए बचत के रूप में सुरक्षित रखना चाहिए इसके बाद जो बचे उसे बजट छोटा रहना चाहिए और कड़ाई बरती जानी चाहिए कि उसमें निर्धारित रकम से अधिक तनिक भी खर्च न किया जाये।
पैसा मनुष्य के कठिन परिश्रम का प्रतिफल है। उसका एक-एक छोटा सिक्का उचित और उपयुक्त कार्यों में ही खर्च होना चाहिए। धन हमारी भौतिक और आत्मिक प्रगति में बहुत सहायक हो सकता है। उससे अपना और दूसरों का भी हित साधन किया जा सकता है। पर यह सब होगा तभी जब खर्च के बारे में पूरी सतर्कता बरती जाये। उपयोगी प्रयोजनों की पूर्ति तभी हो सकती है, जब अनुपयोगी अपव्यय को कड़ाई के साथ रोका जाये। ऐसी अवस्था जहाँ बने वहीं बुद्धिमत्ता का कुछ प्रयोग समझा जाये।
धन का उपार्जन ही नहीं सदुपयोग भी ध्यान में रहे
आजीविका उत्पादन में जितनी योग्यता और श्रमशीलता की जरूरत पड़ती है उससे अधिक बुद्धिमत्ता उस उपार्जन को ठीक तरह खर्च करने में अभीष्ट है। कितने ही व्यक्ति कमाते तो बहुत तो बहुत हैं पर सदा तंगी और कठिनाई ही अनुभव करते रहते हैं जबकि उनसे कम आमदनी वाले व्यक्ति हँसी-खुशी, संतोष और सुविधा का जीवनयापन भली प्रकार कर लेते हैं।
अधिक आमदनी वाले के लिए अधिक खर्च करके, अधिक सुविधा साधन इकट्ठा कर लेना सुगम है। फिर भी यदि व्यवस्था वृद्धि न हुई तो वे उपलब्ध सुविधा साधन अस्त-व्यस्त एवं बर्बाद होते रहेंगे और पैसा खर्च हो जाने पर भी इनका लाभ मिल सकेगा। इसके विपरीत कम आजीविका वाले व्यक्ति अपने एक-एक पैसे को व्यवस्था पूर्वक खर्च करके अपने थोड़े धन का पूरा लाभ उठा लेते हैं और थोड़े में ही अपनी उचित आवश्यकताएँ सरलता पूर्वक पूरी कर लेते हैं। पैसा कमा लेने अलग बात है। खर्च करने में व्यवस्था और बुद्धिमत्ता का समावेश रखना दूसरी बात। सच तो यह है कि बुद्धिमत्ता कमाने में नहीं खर्च करने की रीति-नीति में परखी जा सकती है। बाप-दादे दौलत छोड़ मरे हों या कोई बढ़िया आमदनी का धन्धा हाथ लग गया हो तो कम अकल का आदमी भी मालदार बन सकता है। अकस्मात् गढ़ा धन, सट्टा, लाटरी या मंदी-तेजी किसी को अमीर बना सकते हैं और बेईमानी, बदकारी से भी कोई हाथों हाथ मालदार बन सकता है, इसमें बुद्धि नहीं अवसर की प्रधानता है। अच्छे बुद्धिमान और सुयोग्य व्यक्ति भी परिस्थितिवश गरीबी का जीवन जीते देखे गये हैं। यह अवसरों की करामात है। अन्धे के हाथ बटेर की तरह ऐसे मौके बेवकूफ और बेहूदे लोगों को भी मिल जाते हैं।
दूरदर्शिता की एक उपयुक्त कसौटी यह भी है कि आदमी अपनी कमाई को किस तरह खर्च करता है। यदि हाथ ढीला और मन अस्त-व्यस्त है तो अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक समझकर इन्हें इकट्ठी करते रहने की लत पड़ जायेगी फिर भले ही उनकी ऐसे ही इधर-उधर बर्बादी होती फिरे। यह आदत अच्छी आमदनी वाले को भी अभावग्रस्त बनाये रहेगी। जो कमायेगा उससे पूरा न पड़ेगा या तो इधर-उधर से कर्ज लेकर काम चलाना पड़ेगा या बेईमानी की अतिरिक्त कमाई जोड़कर उसकी पूर्ति करनी पड़ेगी। दोनों ही मार्ग ऐसे हैं जो व्यक्ति का सम्मान गिराते हैं। आशंकाएँ तथा चिंताएँ खड़ी करते हैं और असंतोष एवं व्यग्रता की आग में जलाते रहते हैं। यदि खर्च पर नियन्त्रण रखने की बुद्धिमत्ता को विकसित कर लिया जाये और हर पैसे को केवल उपयुक्त, आवश्यक एवं हितकारी कामों में ही खर्च करने का निश्चय कर लिया जाये तो उपरोक्त अर्थ-तंगी की चिन्ता से सहज ही बचा जा सकता है और सामान्य आजीविका से सुख-शान्तिपूर्वक निर्वाह किया जा सकता है।
क्या खर्च आवश्यक है और क्या अनावश्यक, इसकी जाँच मोटी अकल से नहीं होती। इसे बारीकी से देखना पड़ता है कि जीवन की स्थिरता और विकास के लिए अत्यधिक आवश्यक साधन क्या है? उनमें से कितने ही ऐसे होते हैं, जिनकी ओर ध्यान तक नहीं जाता। उनकी पूर्ति के लिए अपने बजट में गुंजाइश रहनी चाहिए। किन्तु कितने ही काम ऐसे होते हैं जो किसी पुराने ढर्रे के कारण अपने खर्च में शामिल हो गये हैं जबकि उनकी न तो कोई वास्तविक आवश्यकता है और न लाभ। इन्हें हटाने में शुरू में कुछ अखरने वाली बात वस्तुतः कोई सुविधा नहीं होती और काफी बचत हो जाती है।
अपनी आमदनी में से कुछ बचत समय-कुसमय के लिए निकालते रहना जरूरी है। जितना खर्च करना है उसमें से पत्नी तथा समझदार परिजन के परामर्श से बजट बना लेना चाहिए। बजट की मदों में निर्धारित पैसा उसी क्रम से खर्च हो। बिना विशेष कारण के उसमें हेर-फेर न हो इसकी कड़ाई की जानी चाहिए। अच्छा हो पुरुष सारी कमाई पत्नी या माता के हाथ रखे और बजट के अनुरूप उन्हीं को सौंप दे। महिलाएँ स्वभावतः इस सम्बन्ध में बहुत किफायतसार और समझदार होती है। उनके हाथ में पैसा रहे और वे ही खर्च करें तो हर परिवार की आर्थिक तंगी की उलझन सुलझ सकती है। बहीखाता हर घर में लिखा जाना चाहिए। ताकि समय-समय पर वह पता लगता रहे कि किस मद में कितना पैसा खर्च होता है। इसी आधार पर यह सोच सकना सम्भव हो सकता है कि कहीं अनावश्यक कार्यों में पैसे की बर्बादी तो नहीं हो रही और कहीं आवश्यक कामों की उपेक्षा तो नहीं की जा रही? तथ्य सामने होने पर ही उनका सुधार सम्भव है अन्यथा अँधेरे में कुछ पता ही न चलता कि कहाँ अनावश्यक खर्च हो रहा है और आर्थिक तंगी से बचने के लिए कहाँ कटौती और किफायत की गुंजाइश है।
अपने बजट पर बार-बार निगाह डाली जानी चाहिए और उचित-अनुचित का निर्णय परिवार के समझदार लोगों को पास बिठाकर उनसे परामर्श से करना चाहिए। देखा गया है कि जेब खर्च, फैशन, व्यसन, शान-शौकत के ठाठ-बाट बनाने, यार-दोस्तों का जमघट लगाने और सामाजिक कुरीतियों में बहुत पैसा उठाना पड़ता है। इस सम्बन्ध में कड़ाई के साथ किफायत की जाये तो बहुत बजट हो सकती है और स्वास्थ्य, स्वाध्याय, सत्कर्म चिकित्सा, मनोरंजन, संगीत, स्वच्छता आदि के आवश्यक साधन जुटाये जा सकते हैं।
जेब में रुपया भरके फिरते रहना बुरी बात है। इससे उन अनावश्यक चीजों को खरीदने का भी मन ललचा जाता है जो वस्तुतः अपने लिए बहुत उपयोगी नहीं होती। कीमती कपड़ा, कीमती फर्नीचर, कीमती सुसज्जा के स्थान पर सब कुछ सस्ता और मजबूत खरीदना चाहिए भले ही वे देखने में कम सुन्दर लगे। उधार लेने की आदत बहुत ही बुरी है। इससे चीज भी महँगी मिलती है जरूरत से ज्यादा भी खरीद ली जाती है। सामान्य नियम यही रखा जाना चाहिए कि जितनी अपनी हैसियत है उसी के भीतर खर्च किया जाये, भले ही घी-दूध जैसी चीजों से वंचित रहना पड़े।
पुरानी चीजों की मरम्मत करने में दिलचस्पी हो तो वे बहुत दिन चल सकती हैं। हाथ से काम करना पसन्द हो तो कपड़े धोने से लेकर हजामत बनाने तक और घर की सफाई, पुताई से लेकर पुस्तकों के जिल्द बाँधने तक बचे हुए समय में घरेलू मनोरंजन की तरह किए जा सकते हैं और पैसे बचाये जा सकते हैं। टूटी चीजों की मरम्मत, कपड़े सीना, पेटियों अथवा क्यारियों में शाक-भाजी उगा लेना, आटा पीसना, चर्खा कातना, साबुन बनाना जैसे छोटे गृह शिल्प बेकार समय को भी रचनात्मक काम में लगाने की अच्छी आदत डालने वाला प्रयोजन पूरा करते हैं और पैसे भी बचाते हैं। निर्माणात्मक योग्यता बढ़ती है अलग। कहना न होगा कि सुधार और सृजन का दृष्टिकोण परिष्कृत होकर यदि आदत के रूप में बदल जाये तो उन्नति के अनेक अवरुद्ध मार्ग सहज ही खुल सकते हैं और छोटा मनुष्य बड़ा बनने का रास्ता पा सकता है।
हमें किसी की नकल नहीं करनी चाहिए वरन् अपनी व्यवस्था तथा योजना अपनी स्वतंत्र बुद्धि से बनानी चाहिए। अमीरों के यहाँ जिस ढंग से खर्च होता है और जो साधन जुटाये जाते हैं। उनकी नकल करना आरम्भ कर दिया जाये तो अपनी सीमित आय में काम कैसे चलेगा, महँगी चीजों का अन्त नहीं। महँगे कपड़े, जेवर, उपकरण खरीदने में हाथ खुला रखा जाय तो कुबेर का भी खजाना खाली हो सकता है और उसे भी आर्थिक तंगी तथा कर्जदारी का कष्ट सहना पड़ सकता है।
उपार्जन के उपयुक्त अधिक योग्यता एवं अनुभव बढ़ाना, साधन जुटाना, कठोर श्रम करना तथा मिलनसारी का स्वभाव इन बातों को बढ़ाना आवश्यक है। क्षमता बढ़ने से आमदनी के स्रोत खुलते हैं। हर हालत में खर्च पर नियन्त्रण तो आवश्यक ही है। अपनी हैसियत से बाहर जो कुछ है वह सब अनावश्यक समझा जाना चाहिए। सारी कमाई शरीर निर्वाह के लिए इसे जोड़ते ही जाना चाहिए वरन् यह भी देखना चाहिए कि ज्ञान, अनुभव एवं लोकमंगल के लिए कमाई का एक अंश लगा है या नहीं। सब कुछ शरीर की सुविधा बढ़ाने में ही खर्च करते रहना आत्मिक प्रगति का द्वार अवरुद्ध करना है। ऐसी भूल पैसे सम्बन्धी व्यवस्था सोचते समय निश्चित रूप से ध्यान में रखनी चाहिए।
अपव्यय और फैशनपरस्ती − एक ओछापन
पिछले दिनों अमीरी को इज्जत का माध्यम माना जाता रहा है। इज्जत पाना हर मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा है। इसलिए प्रचलित मान्यताओं के अनुसार हर मनुष्य अमीरी का इच्छुक रहता है ताकि उसे दूसरे लोग बड़ा आदमी समझें और इज्जत करें। अमीरी सीधे रास्ते नहीं आ सकती। उसके लिए टेढ़े रास्ते अपनाने पड़ते हैं। हर समाज और देश की अर्थव्यवस्था का एक स्तर होता है। उत्पादन श्रम और क्षमता के आधार पर दौलत चढ़ती है। देश में वैसे साधन न हों तो सर्व-साधारण को गुजारे भर के लिए ही मिल सकता है। अपने देश की स्थिति आज ऐसी ही है, जिसमें किसी प्रकार निर्वाह चलता रहे तो पर्याप्त है। औसत देशवासी की परिस्थिति से अपने को मिलाकर कामचलाऊ आजीविका से संतोष करना चाहिए। हम सब एक तरह का जीवन जीते हैं और ईर्ष्या, असन्तोष का अवसर नहीं आने देते, इतना ही सोचना पर्याप्त है। अमीरी की ललक पैदा करना-सीधा मार्ग छोड़कर टेढ़ा अपनाने वाले, अमीरी इकट्ठी कर लेने वाले, इज्जत आबरू वाले बड़े आदमी माने जाते रहे होंगे पर अब वे दिन लद चुके। अब समझदारी बढ़ रही है। दौलत अब बेइज्जती की निशानी बनती चली जा रही है। लोग सोचते हैं, यह औंधे मार्ग अपनाने वाला आदमी है। यदि सीधे मार्ग से कमाता है तो ईमानदारी का तकाजा है कि देशवासियों के औसत वर्ग की तरह जिये और बचत को लोक-मंगल के लिए जोड़ा जमा किया जाता है तो ऐसा कर्तव्य विचारशीलता की कसौटी पर अवांछनीय ही माना जायेगा। अमीरी अब निस्सन्देह बेइज्जती की निशानी बनती चली जा रही है और वह दिन दूर नहीं, जब अमीरों को समाज की घृणित, अनैतिक एवं निष्ठुर वर्ग माना जायेगा। हमें सन्देह है कि अमीरी अब पचास वर्ष भी जीवित रह सकेगी। विवेकशीलता उसे छोड़ने के लिए बाध्य करेगी अन्यथा कानून अथवा विद्रोह उसका अन्त कर देगा।
अमीरी इकट्ठी तो कोई विरले ही कर पाते हैं पर उसकी नकल बनाने वाले विदूषक हर जगह भरे पड़े हैं। चूँकि अमीरी इज्जत का प्रतीक बनी हुई थी, इसलिए इज्जत पाने के लिए अमीरी इकट्ठी करनी चाहिए और यदि वह न मिले तो कम से कम उसका ढोंग ही बना लेना चाहिए, यह बात नासमझ वर्ग में घर कर गई है और वह इस नकलचीपन पर बेतरह अपने आपको बर्बाद करता और अर्थसंकट के दल-दल में धँसता चला जाता है। लोग सोचते हैं कि हम अपना ठाठ-बाट और अमीरों जैसा बना लें तो दूसरे यह समझेंगे कि यह अमीर और बड़ा आदमी है और चटपट उसकी इज्जत करने लगेंगे। इसी नासमझी के शिकार असंख्य ऐसे व्यक्ति जिनकी आर्थिक स्थिति सामान्य जीवनयापन के भी उपयुक्त नहीं, अमीरी का ठाठ-बाट बनाये फिरते हैं। कपड़े, जेवर, फर्नीचर, सुसज्जा आदि को प्रदर्शनात्मक बनाने में इतना खर्च करते रहते हैं कि उनकी आर्थिक कमर ही टूट जाती है। दोस्तों के सामने अपनी अमीरी का पाखण्ड प्रदर्शित करने के लिए पान, सिगरेट, सिनेमा, होटल आदि के खर्च बढ़ाते हैं और उसमें उन्हें भी शामिल करते हैं ताकि उन पर अपनी अमीरी का रौब बैठ जाये और इज्जत मिलने लगे। कैसी भौंड़ी समझ है यह और कैसे फूहड़ तरीका है। कोई समझदार व्यक्ति इस नासमझी पर हँस ही सकता है। पर असंख्य लोग इसी बहम में फँसे, फिजूलखर्ची और फैशन में पैसा उड़ाते रहते और अपनी आर्थिक स्थिरता को खोखली करते चलते हैं।
मामूली आमदनी के लोग जब अपनी स्त्रियों के बक्से कीमती साड़ियों से भरते हैं और जेवरों में धन गँवाते हैं तब उसके पीछे यही ओछापन काम करता है कि ऐसी सजी-धजी हमारी औरतों को देखकर लोग हमें अमीर मानेंगे। पुरुष साड़ी, जेवर तो नहीं पहनते पर सूट-बूट, घड़ी-छड़ी उनकी भी कीमती होती हैं, ताकि मित्रों के आगे बढ़-चढ़कर शेखी सकें। विवाह-शादियों के वक्त यह ओछापन हद दर्जे को पहुँच जाता है। बारातियों का औघड़पन देखते ही बनता है। ऐसा ठाठ-बाट बनाते हैं मानो कोई बड़े मिल मालिक, जागीरदार, अफसर अथवा सेठ-साहूकार हों। जानने वाले जब जानते हैं कि जरा-सी आमदनी वाला यह ढोंग बनाये फिरता है तो हर कोई असलियत समझ जाता है और दो ही अनुमान लगाता है या तो यह कर्जदार रहता होगा या बेईमानी से कमाता होगा। ये दोनों ही बातें बेइज्जती की हैं। सोचा यह गया था कि ठाठ-बाट से इज्जत बढ़ेगी पर होता ठीक उलटा है। ऐसी सज-धज वाले व्यक्ति आमतौर से ओछे और अविश्वस्त समझे जाते हैं। ठाठ-बाट वाले बाबू को गैर सरकारी नौकरी नहीं मिलती। मालिक जानता है, इतना वेतन तो ठाठ-बाट में ही उठ जायेगा। फिर बच्चों को खिलाने के लिए इसे हमारे यहाँ चोरी का जाल फैलाना पड़ेगा। यही बात स्त्रियों के सम्बन्ध में है। फैशन बनाने वाली महिलाएँ दो छाप छोड़ कर जाती हैं या तो इनके घर में अनुचित पैसा आता है अथवा इनका चरित्र एवं स्वभाव ओछा है। यह दोनों ही लांछन किसी कुलीन महिला की इज्जत बढ़ाते नहीं, घटाते हैं।
घर-परिवार में यह सज-धज की प्रवृत्ति मनोमालिन्य पैदा करती है। अपव्यय हर किसी को बुरा लगता है। जो पैसा परिवार के शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय, विनोद, पौष्टिक आहार आदि में लग सकता था, उसे फैशन में खर्च किया जाने लगे तो प्रत्यक्षतः परिवार के अन्य सदस्यों की सुविधा का अपहरण है। ठाठ-बाट की कोई बाहर से प्रशंसा कर दे। किसी को कुछ समय के लिए भ्रम में डाल दे यह हो सकता है, पर साथियों में घृणा और ईर्ष्या ही पैदा होगी, वहाँ इज्जत बढ़ेगी नहीं घटेगी। बढ़े-चढ़े खर्चों की पूर्ति के लिए अवांछनीय मार्ग ही अपनाने पड़ेंगे। कर्जदार और निष्ठुर जीवन जीना पड़ेगा। आमदनी सही भी है तो भी उसे व्यक्तिगत व्यय में सामाजिक स्तर के अनुरूप ही खर्च करना चाहिए। अधिक खर्च लोक-मंगल का हक मारना है।
अच्छा हो हम समझदारी और सज्जनता से भरा हुआ, सादगी का जीवन जियें। अपनी बाह्य सुसज्जा वाले खर्च को तुरन्त घटा दें और उस बचत को अपनी, अपने परिवार की तथा समाज की वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा करने में लगाने लगें। सादगी सज्जनता का प्रतिनिधित्व करती है। जिसका वेश-विन्यास सादगीपूर्ण है उसे अधिक प्रामाणिक एवं विश्वस्त माना जा सकता है। जो जितना ही उद्धतपन दिखायेगा समझदारों की दृष्टि मे उतनी ही इज्जत गिरा लेगा। इसलिए उचित यही है कि हम अपने वस्त्र सादा रखें, उनकी सिलाई भलेमानसों जैसी करायें, जेवर न लटकाएँ, नाखून और होठ न रँगें, बालों को इस तरह से न सजायें जिससे दूसरों को दिखाने का उपक्रम करना पड़े। नर-नारी के बीच मानसिक व्यभिचार का बहुत कुछ सृजन इस फैशन-परस्ती में होता है।
सादगी, शालीनता और सज्जनता का सृजन करती हैं। उसके पीछे गम्भीरता और प्रामाणिकता, विवेकशीलता और बौद्धिक परिपक्वता झाँकती है। वस्तुतः इसी में इज्जत के सूत्र सन्निहित हैं। सादगी घोषणा करती है कि यह व्यक्ति दूसरों को आकर्षित या प्रभावित करने की चालबाजी नहीं, अपनी वास्तविकता विदित कराने में सन्तुष्ट है। यही ईमानदारी और सच्चाई की राह है। यह आमदनी बढ़ाने का भी एक तरीका है। फिजूलखर्ची रोकना अर्थात् आमदनी बढ़ाना। समय आ गया है कि इस बाल-बुद्धि को छोड़कर प्रौढ़ता का दृष्टिकोण अपनाया जाये। हम गरीब देश के निवासी हैं। सर्वसाधारण को सामान्य सुसज्जा और परिमित खर्च में काम चलाना पड़ता है। अपनी वस्तुस्थिति यही है कि अपने सैकड़ों भाई-बहिनों की पंक्ति में ही हमें खड़ा होना चाहिए और उन्हीं की तरह रहन-सहन का तरीका अपनाना चाहिए। इस समझदारी में ही इज्जत पाने के सूत्र सन्निहित हैं। फैशन-परस्ती और अपव्यय की राह अपनाकर हम आर्थिक संकट को ही निमन्त्रित करते हैं।
स्वच्छता के साथ जुड़ी हुई सादगी अपने आप में एक उत्कृष्ट स्तर का फैशन है। उसमें गरीबी का नहीं महानता का पुट है। सादा वेश-भूषा और सुसज्जा वाला व्यक्ति अपनी स्वतंत्र प्रतिभा और स्वतंत्र चिन्तन का परिचय देता है। भेड़चाल को छोड़कर जो विवेकशीलता का रास्ता अपनाता है, वह बहादुर है। सादगी हमें फिजूलखर्ची से बचाकर आर्थिक स्थिरता में ही समर्थ नहीं करती वरन् हमारी चारित्रिक दृढ़ता भी प्रामाणित करती है। अकारण उत्पन्न होने वाली ईर्ष्या और लाँछनों से बचने का भी यही सरल मार्ग है।
जेवरों का भौंड़ा फैशन-हर दृष्टि से हानिकारक
कोई समय था जब धन को सुरक्षित रखने के कोई उपयुक्त माध्यम नहीं थे। बैंक उस जमाने में थे नहीं और न सहकारिता, शेयर, ब्याज, उद्योग की प्रणालियाँ विकसित हुई थीं जो उनकी न केवल रखवाली करें वरन् उसे बढ़ाती भी रहें। उस जमाने में लोग अपनी बचत के पैसे को सोने-चाँदी जैसी कीमती धातुओं के रूप में बदल लेते थे और कभी-कभी तो उन्हें जमीन में गाढ़ कर गुप्त कर देते तथा कभी-कभी जेवर बनवाकर उसे शरीर पर लादे रहते थे। चोर-उठाईगीरी से बचने के लिए किन्हीं में लादना। जब दस्युओं का आतंक अधिक था और राज विप्लव होते रहते थे, जब लूटमार से बचाव हेतु जमीन में दबाई हुई सम्पत्ति सुरक्षित समझी जाती थी। पर धीरे-धीरे जब आतंक काज जमाना कम हुआ तो जेवर वाली बात उपयुक्त जँचने लगी क्योंकि इससे सम्पन्नता प्रदर्शित करके गौरव पाने का अवसर मिलता था। उस पिछड़े जमाने में अपनी जमा पूँजी का विज्ञापन करने के लिए यह अच्छा ढंग था कि सोने-चाँदी के आभूषण पहने जायें। उनसे कुछ तो खूबसूरती समझी जाती थी और कुछ अमीरों का रौब-दाब जँचाने की बात भी। इस दृष्टि ये औरतें ही नहीं मर्द भी उन दिनों हाथ-पैर में ही जेवर नहीं पहनते थे वरन् नाक-कान आदि कोमल अंगों को छेदकर उनमें सोने की बालियाँ तथा दूसरी चीजें पहिनते थे। एक वह भी जमाना था और उस जमाने की यह अपने ढंग की सूझ-बूझ या आवश्यकता भी थी।
अब समय में जमीन-आसमान जैसा अन्तर आ गया है। पुरानी परिस्थितियों में फर्क पड़ गया है। अब पैसे को जेवर के रूप में बदलने की कोई उपयोगिता नहीं रह गई है। शेयर तथा बचत, धन को जमा कर ब्याज कमाने के अनेक रास्ते निकल आये हैं जिनसे कुछ ही समय के अन्दर पैसा ड्यौढ़ा-दूना हो जाता है। चोर-उठाईगीरी का कोई भय नहीं। पुराने जमाने में जेवर सीधे-सादे ढंग के गढ़ दिये जाते थे जिससे सोना-चाँदी असली रूप में ज्यों का त्यों बना रहता था और जरूरत के समय उसे लगभग उतने ही मूल्य में बेचा जा सकता था। अब फैशन की कुछ ऐसी बात आ गयी है कि जेवरों के तर्ज, डिजाइन और नमूनों ने कमाल ही कर दिखाया। टाँका, बट्टा मिलावट, मीना, नगीना आदि के जंजाल इतने अधिक हैं और उनकी गढ़ाई-बनाई इतनी महँगी है कि बनाने के दूसरे दिन यदि उन्हें गलाना, बदलना या बेचना पड़े तो मुश्किल से आधी कीमत खड़ी होगी। नाजुक किस्म के बने हुए यह हलके-फुलके जेवर घिसते, टूटते भी बुरी तरह हैं। इनकी मरम्मत और उलट-पुलट में लगती रहने वाली लागत की ब्यौरा तैयार किया जाये तो मालूम पड़ेगा कि थोड़े ही समय में बनवाने वाले की सारी पूँजी स्वर्णकारों को हथफेरी में समाप्त हो जाती है।
जो पैसा पाँच-छह वर्ष में जमा करने पर दूना हो सकता था, वह जेवर बनवाने पर जड़-मूल से गुम गया। आर्थिक दृष्टि से वैयक्तिक रूप से बड़ी हानि है। राष्ट्रीय दृष्टि से तो जेवर बनवाने और पहनने की आदत को एक प्रकार से अभिशाप ही कह सकते हैं। बचत बैंकों में जमा पूँजी अनेक उद्योग-धन्धों के सृजन और संचालन का आधार बनकर राष्ट्रीय सम्पत्ति के उत्पादन और अनेक लोगों को आजीविका देने में योगदान कर सकती थी, इसके स्थान पर उँगली भर गिनने लायक चन्द आभूषण निर्माताओं को एक अनुपयोगी धन्धा देने भर में सीमित रह गई। सोना और चाँदी अब राष्ट्रीय साख के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय आधार का व्यवसाय बनी हुई है। दूसरे देशों से जो सामान खरीदना पड़ता है उसकी कीमत सोने चाँदी के रूप में चुकाने का प्रचलन है। किसी देश के पास यह धातुएँ कम हों तो वह अपने यहाँ छपे नोटों के आधार पर अन्य देशों से कुछ भी न मँगा सकेगा। इसलिए अब सरकारों को अपने देश का सोना-चाँदी अन्तर्राष्ट्रीय साख के रूप में जमा रखना होता है। यदि वह दुर्लभ धातुएँ लोगों के शरीर पर जेवरों के रूप में लदी रहें तो निश्चित रूप से सरकार के पास जमा रखने व साख बनाने और आवश्यक आयात करने के साधन स्वल्प रह जायेंगे। इससे राष्ट्रीय व्यवसाय एवं उत्पादन में कठिनाई ही उत्पन्न होगी। जेवर पहनने की प्रथा राष्ट्र की अर्थ व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव ही डालेगी।
स्वास्थ्य की दृष्टि से जेवर केवल हानिकारक ही सिद्ध होते हैं। वे शरीर के जिस भी अंग पर धारण किये जायेंगे उसकी स्वच्छता में गड़बड़ी उत्पन्न करेंगे। वहाँ के रोमकूप रुकेंगे, पसीना ठीक तरह न निकलेगा, चमड़ी कड़ी पड़ेगी और बीमारियों की जड़ जमने का आधार बनेगा। नाक-कान जैसे कोमल मर्म स्थलों को छेदकर उनमें जेवर ठूँसना तो प्रकृति प्रदत्त इन अंगों की शोभा-सुषमा को नष्ट कर डालना ही है। नाक में पहने जाने वाले जेवर मैल जमा करते हैं। नाक से निकले वाला पानी उनके भीतर जमने और सूखने लगता है जिसकी दुर्गन्ध निरन्तर साँस के साथ मस्तिष्क में जाती रहती है और दिमाग को दुर्बल एवं बीमार की भूमिका प्रस्तुत करती है। नाक में बालियाँ, लौंग आदि पहनने वाली स्त्रियाँ अकसर सिर दर्द, जुकाम आदि की शिकायतों से ग्रस्त पाई जाती हैं। कान छेद-छेदकर उनमें ऊँट-पटाँग लटकन टाँगना आदि काल की जंगली आदतों का स्मरण दिलाता है। जानवरों के नाक-कान आदि छेदकर उसमें रस्सी डालकर काबू में रखने जैसा कर्तव्य यदि मनुष्यों के साथ दिखाया जाये तो इसे असभ्यता ही कहा जावेगा। देह पर गुदने-गुदाना, नाक-कान में छेदकर जेवर लटकाना किसी जमाने में सौन्दर्य साधन माना जाता रहा होगा पर इस बीसवीं शताब्दी में कोई सभ्य व्यक्ति इस कुरीतिपूर्ण भौंड़ेपन का समर्थन नहीं कर सकता है। यदि किसी के पास सौन्दर्य देखने को आँख हों तो वह इस भौंड़ेपन को असभ्य कुरूपता की ही पंक्ति में रखेगा।
अमीरी का प्रदर्शन सो भी जेवरों के रूप में-अब शालीनता का चिन्ह नहीं रह गया है। आर्थिक विषमता के विरुद्ध रोष बढ़ता जा रहा है और अमीरों को अप्रतिष्ठित और अप्रामाणिक, अवांछनीय वर्ग का घोषित किया जा रहा है। ऐसी लहर में अमीर लोग भी अपनी अमीरी छिपाने की बात सोचते हैं, जिससे लोकनिन्दा और रोष से बच सकें। ऐसे जमाने में जेवरों के रूप में अमीरी का भौंड़ा विज्ञापन करना अपने को चोर-बाजारियों, जमाखोरों, पूँजीपतियों, शोषकों को मिलने वाली घृणा और गाली आमन्त्रित करना है। गृह कलह के आधार जेवर हैं। क्रमबद्ध जेवर मिलने के कारण सद्गृहस्थों में भी ईर्ष्या, द्वेष की भावना भड़कती है। शौकीन स्त्रियाँ पतियों का आवश्यक काम रोककर जेवर बनवाने का आग्रह करती हैं फलस्वरूप मनोमालिन्य बढ़ते और अर्थ सन्तुलन बिगड़ते हैं। चोर, डाकुओं की घात लगती है सो अलग। उचक्के, उठाईगीरे जेवर के लोभ में बालकों महिलाओं को बहकाकर इन्हें अकेला-दुकेला पाकर जान के ग्राहक बनते रोज ही देखे-सुने जाते हैं। इन परिस्थितियों में नासमझ लोग ही जेवर की उपयोगिता और आवश्यकता का समर्थन कर सकते हैं।
विवाह-शादियों में दहेज की माँग को प्रोत्साहन देने का एक बहुत बड़ा कारण लड़की वालों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कीमती जेवर चढ़ाने की माँग करना भी है अच्छा हो हम जेवरों के जंजाल से छूटें। इस भौंड़े फैशन को छोड़ें और उन दुष्परिणामों से बचे जो जेवरों के कारण नैतिक, सामाजिक, शारीरिक एवं आर्थिक क्षेत्र में आये दिन विविध-विधि बुराइयाँ उत्पन्न करते रहते हैं।
माँस मनुष्यता को त्याग कर ही खाया जा सकता है
विश्व विख्यात सुप्रसिद्ध दार्शनिक जार्ज बर्नाड शा को एक बार डाक्टरों ने सलाह दी कि-‘‘आप माँसाहार न करेंगे तो जल्दी ही मर जायेंगे।’’ शा ने उत्तर दिया-‘‘यदि मैं दूसरों का प्राणघात किये बिना जिन्दा रह सकता तो मेरा मर जाना ही उत्तम है।’’ वे कहा करते थे-‘‘अपने कुटुम्बियों को मारकर खा जाना और पशु-पक्षियों का माँस खाना समान स्तर के अपराध है।’’
वस्तुतः मनुष्य के छोटे भाई-बहिनों की तरह ही अन्य पशु-पक्षी हैं। सब में एक ही आत्मा है। सभी ईश्वर के पुत्र हैं। शांतिपूर्वक जीने और दूसरों को जीने देने का अधिकार भले ही निम्न स्तर के जीव-जन्तु न मानें यह बात अलग है पर मनुष्य को इतना जानना और मानना ही चाहिए। मानव प्राणी की सबसे बड़ी विशेषता उसकी दया, करुणा, सहृदयता और स्नेह भरी सद्भावना है। इसी कारण वह ईश्वर का जेष्ठ पुत्र और सृष्टि का सबसे उत्तम प्राणी बना है। मनुष्य की महत्ता उसकी बुद्धिमत्ता पर नहीं सहृदयता पर निर्भर है। यदि वह उसे भी खो दे तो समझना चाहिए कि उसने मनुष्यता के सर्वप्रथम और सर्वप्रधान आदर्श को ही तिलाञ्जलि दे दी।
करुणा की प्रवृत्ति अविच्छिन्न है। उसे मनुष्य और पशुओं के बीच विभाजित नहीं किया जा सकता। पशु-पक्षियों के प्रति बरती जाने वाली निर्दयता मनुष्यों के साथ किये जाने वाले व्यवहार को भी प्रभावित करेगी। जो मनुष्यों से प्रेम और सद्व्यवहार का मर्म समझता है वह पशु-पक्षियों के प्रति निर्दय नहीं हो सकता। अपना प्राण सभी को समान रूप से प्रिय है। पीड़ा सबको समान होती है। अपनी चमड़ी में सुई चुभो कर अथवा कोई अंग काट कर हम अनुभव कर सकते हैं कि शरीर घात कितना कष्टकारक है। अपने बच्चों और प्रियजनों को अपनी आँखों के आगे काटे जाने और उनके करुण चीत्कार करने की कल्पना करके हम सोच सकते हैं कि माँस आखिर किस तरह प्राप्त होता है। स्वास्थ्य और स्वाद के लिए हम अपने बच्चों को मारकर खा सकें तो ही हमें दूसरे जीवों की हत्या के लिए तैयार होना चाहिए। बूचड़खाने में छुरी के नीचे तड़पते हुए पशु और कत्ल किये जाते मनुष्य को देखकर कोई अन्तर नहीं कर सकता कि पीड़ा के स्तर में दोनों के बीच कोई अन्तर नहीं है। पशु-पक्षी भी सिर कटते और पेट फटते समय उतना ही चीत्कार करते हैं जितना मनुष्य करता है। दोनों के हा-हाकार, तड़फन और व्यथा में कोई अन्तर नहीं। मनुष्यों को मारकर खाने वाला और अन्य जीवों को मारकर खाने वाला हमारे कानूनों की दृष्टि से न्यूनाधिक अपराधी हो सकता है, पर ईश्वर की दृष्टि में दोनों की पैशाचिकता एक स्तर की है।
किसी बड़े स्वार्थ के लिए कोई बड़ी दुष्टता कर बैठे तो बात समझ में आती है, पर अकारण, निष्प्रयोजन, निरर्थक ही नहीं-उल्टी हानि, बीमारी, विकृत एवं जोखिम की मूर्खतापूर्ण उपलब्धियों के लिए माँस खाया जाता हो तो दोनों ही बातें पूर्णतया अज्ञानमूलक हैं। माँस की गन्ध, बनावट, स्वाद सभी कुछ ऐसे हैं जो अपने असली रूप में घृणा उत्पन्न करते हैं और उसके समीप आने पर एक वीभत्सना अनुभव होती है और मितली आती है। उबालकर चिकनाई में भूनकर मसालों की भरमार में तब कहीं वह उस लायक होता है कि उसकी असलियत छिपा सके और मुख उसे में जाने के लिए इजाजत दे सके। माँस में हिंसक जानवरों के लिए कोई स्वादिष्टता हो सकती है पर मनुष्य की इन्द्रियों के लिए तो उसमें रत्तीभर भी आकर्षण नहीं है। जो आकर्षण है वह मसाले का है।
किस प्राणी के लिए कौन पदार्थ स्वास्थ्यवर्द्धक है। कौन-सा हानिकारक, इसकी मोटी परीक्षा उसके खाद्य-यन्त्रों की बनावट है। माँसाहारी जीवों के दाँतों के कीले बड़े नुकीले होते हैं ताकि वे जीवित प्राणी की चीर-फाड़ कर सकें। उनके नाखून इतने पैने और मजबूत होते हैं कि किसी के शरीर में गड़ाकर उसे जकड़ सकें। वे जीभ से चाट कर पानी पीते हैं और रतिक्रिया के समय जुड़ जाते हैं। यह एक भी स्थिति मनुष्य शरीर में नहीं है। बन्दर विशुद्ध शाकाहारी है। मनुष्य की भी बनावट शाकाहारी प्राणी की है। अपनी मूल प्रकृति के विपरीत आहार सदा हानिकारक होता है, क्योंकि पाचन यन्त्र में उत्पन्न होने वाले रस प्रकृति विरुद्ध वस्तुओं को हजम करने को उपयुक्त ही नहीं होते। शाकाहारी गाय, भैंस, बकरी, बन्दर आदि को माँस खिलाया जाय तो वह पहले तो उसके लिए तैयार ही न होंगे यदि किसी तरह खिला भी दिया जाये तो ठीक तरह हजम न होने के कारण बीमार पड़ जायेंगे। यही बात सिंह, व्याघ्र आदि के बारे में है उन्हें अन्न, शाक, घास पर रखा भी जाये तो पहले वह हजम ही न होगा। बलात् खिलाया जाये तो पाचन तन्त्र उसे स्वीकार न करेगा और बीमारी आ खड़ी होगी। मनुष्य की प्रकृति से माँस सर्वथा विपरीत है। वह कच्चा माँस पचा नहीं सकता, कच्चा रक्त पी ले तो आँतें सड़ जायें। कितनी ही उलट-पुलट करके उसे खाने योग्य बनाया जाये। प्रकृति के मूल आधार को नहीं बदला जा सकता। माँस हमारे लिए सदा हानिकारक परिणाम उत्पन्न करेगा। जो उसे मानवीय स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त बनाते हैं वे केवल गहरे अज्ञान में गोते लगा रहे हैं।
जिन्होंने मानव शरीर शास्त्र का गहरा अन्वेषण किया है, उनका निष्कर्ष स्वास्थ्य की दृष्टि से माँसाहार को सर्वथा अनुपयुक्त सिद्ध करता है। हेंग का कथन है-‘‘शाकाहारी ही शक्ति उत्पन्न करता है। माँस से केवल उत्तेजना बढ़ती है।’’ डाक्टर क्लेमड ने लिखा है-‘‘बच्चों को माँस की आदत डालना इन्हें आलसी, दुर्बल और झगड़ालू बनाने की शुरुआत हैं।’’ शोधकर्ता मेनरी पडरी ने लिखा है-‘‘शाकाहारियों की तुलना में माँसाहारी अधिक बीमार पड़ते और जल्दी मरते हैं।’’ डाक्टर पारकर ने कहा है-‘‘सिरदर्द, अपच, गठिया, थकान, रक्तपात, मधुमेह आदि का कारण यूरोप, अमरीका में बढ़ा हुआ माँसाहार ही है। डाक्टर रसेल ने कहा है-‘‘यदि माँसाहार बन्द हो जाये तो दुनियाँ में आधी बीमारियाँ स्वतः समाप्त हो जायेंगी।’’ डाक्टर एन० चर्चिन ने सिद्ध किया है कि माँस प्रोटीन का प्रमुख लाभ सोचा जाता है। पर वह प्रोटीन इतना घटिया होता है जिससे हानि की ही सम्भावना है।
जापान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो० वेज्ज अनेक निष्कर्ष के बाद इस नतीजे पर जा पहुँचे हैं कि ‘‘मनुष्य की प्रकृति में क्रोध, उद्दण्डता, आवेश, अविवेक, कामुकता और अपराधी प्रवृत्ति उत्पन्न करने तथा भड़काने में माँसाहार का बहुत बड़ा हाथ है।’’ वस्तुतः मनुष्य जैसा खाता है उसका मन भी वैसा ही बन जाता है। पशुओं का माँस खाकर अपने शरीर का भाग बनाने वालों का मन पशु-प्रवृत्तियों से भर जाता है और वे कोई उच्च आदर्श उपस्थित कर सकने में असमर्थ हो जाते हैं। उनकी चेतना में पशुता का बाहुल्य होते रहने से विचारपद्धति एवं कार्यशैली में लगभग वैसे ही लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
भारत यात्रा करने वाले प्रसिद्ध फाह्यान, मार्कोपोलो, जे०टी० द्वीलर, हारफ्लायर सरीखे विदेशी यात्रियों ने अपनी भारत यात्राओं के विशद् वर्णनों में यही लिखा है-‘‘भारत में चाण्डालों के अतिरिक्त और कोई सभ्य व्यक्ति माँस नहीं खाता था।’’ धार्मिक दृष्टि से तो इसे सदा निन्दनीय पाप कर्म बताया जाता रहा है। बौद्ध और जैन धर्म तो प्रधानतया अहिंसा पर ही आधारित है। वैष्णव धर्म भी इस सम्बन्ध में इतना ही सतर्क है। वेद, पुराण, स्मृति, सूत्र और निषेध भरा पड़ा है। बाइबिल में कहा गया है-‘‘ऐ देखने वाले देखता क्यों है, इन काटे जाने वाले जानवरों के विरोध में अपनी जुबान खोल।’’ ईसा कहते थे-‘‘किसी को मत मार। प्राणियों की हत्या न कर और माँस न खा।’’ कुरान में लिखा है-हरा पेड़ काटने वाले, मनुष्य बेचने वाले, जानवरों को मारने वाले और परस्त्रीगामी को खुदा माफ नहीं करता। जो दूसरों पर रहम करेगा, वही खुदा की रहमत पायेगा।
हमें बढ़ते हुए माँसाहार की प्रवृत्ति में होने वाली हानियों पर विचार करना चाहिए और अपनी मूल प्रकृति एवं प्रवृत्ति के अनुकूल आचरण करना चाहिए ताकि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होने से बच सकें। निष्ठुरता और क्रूरता का दूसरा नाम ही माँसाहार है। अच्छा हो हम अपनी प्रकृति में से इन तत्त्वों को निकालें अन्यथा हमारा व्यवहार मनुष्यों के प्रति भी इन्हीं दुर्गुणों से भरा होगा और संसार में नरक के दृश्य दीखेंगे।
तम्बाकू का दुर्व्यसन छोड़ा ही जाना चाहिए
बुद्धिमान समझा जाने वाला मनुष्य जब न करने योग्य करता है और न खाने योग्य खाने लगता है तब सहज ही उसकी बुद्धिमत्ता पर सन्देह होता है। तम्बाकू एक विषैला पदार्थ है जो मनुष्य की प्रकृति और शारीरिक स्थिति में समाविष्ट कराये जाने पर सुखद परिणाम कभी भी उत्पन्न नहीं कर सकता। उससे केवल हानि ही हानि है-लाभ तनिक भी नहीं। फिर न जाने क्यों उसके सेवन की प्रथा बढ़ती ही जा रही है। लोग उसे खाने, पीने से लेकर सूँघने, दाँतों से रगड़ने आदि कामों में लाकर अपने धन, समय और स्वास्थ्य की बर्बादी ही करते चले जा रहे हैं।
स्पष्टतः तम्बाकू एक विषैला पौधा है। उसमें निकोटीन, कोलतार, कार्बन मोनो आक्साइड जैसे घातक विष तत्त्वों की काफी मात्रा रहती है। इन विषों की थोड़ी मात्रा भी शरीर में इकट्ठी हो जाने पर मन्दाग्नि, रक्तताप, खाँसी, दमा, अनिद्रा, अन्धता, मधुमेह सरीखे रोग पैदा करने का कारण बन जाती है। कच्ची उम्र में बच्चे धूम्रपान करने लगें तो उनकी शारीरिक बढ़ोत्तरी रुक जाती है, नाटे और दुबले रह जाते हैं। स्वप्नदोष होने लगते हैं और मुँह से बदबू आने लगती है। रक्त में तम्बाकू का विषैलापन घुल जाने से फुन्सी, दाद, खाज, खुजली, छाजन, चमड़ी, फटना, बिवाई, गठिया और ब्लड प्रेशर, भयंकर फोड़े जैसे अन्य रोगों की सम्भावना बनी रहती है। कैन्सर जैसे अति भयंकर और असाध्य रोग का कारण तो प्रधानतया तम्बाकू ही बताया गया है।
संसार के समस्त देशों की शारीरिक शोध ने तम्बाकू को मनुष्य के लिए हर दृष्टि से अनुपयुक्त बताया है। अमेरिका की सरकार ने कानून बनाकर हर सिगरेट और पैकेट पर ‘‘स्वास्थ्य के लिए खतरनाक’’ लिखने तक का प्रतिबन्ध लगा दिया है। वहाँ यह घोषणा प्रत्येक सिगरेट पर छपी रहती है। मनोवैज्ञानिकों ने भी इसके प्रभाव ऐसे ही पाये हैं। तम्बाकू से क्रोध की मात्रा बढ़ती है। चिड़चिड़ापन, झुँझलाहट, आवेश में उत्तेजित हो जाना तम्बाकू के प्रसिद्ध परिणाम हैं। काम-वासना भड़काने में वह अग्रणी है। स्मरण शक्ति का घटना और आलस्य, प्रमाद का बढ़ना तम्बाकू की अपनी अलामतें हैं। जो इसे पियेगा अपने में इन दोषों की बढ़ोत्तरी देखेगा।
नशा एक क्षणिक उत्तेजना पैदा करता है। जैसे कि हण्टर मारने पर घोड़ा तिलमिला कर दौड़ने लगता है वैसे ही नशेबाजी भी संचित शक्ति-कोष को भड़काती है और पीते समय लगता है कुछ फुर्ती-सी आई पर अन्ततः इसका परिणाम घातक ही होता है। बार-बार हण्टर मारकर सामर्थ्य से अधिक दौड़ाने पर घोड़ा जल्दी थक और मर जाता है यही बात शरीर पर लागू होती है। तम्बाकू जैसे नशों से बार-बार भड़काए जाने पर शरीर का संचित शक्ति कोष बुरी तरह बहुत जल्दी समाप्त हो जाता है और जवानी में बुढ़ापा आ घेरता है और खाँसी-दमा तरह-तरह की बीमारियों से ग्रसित होकर समय से पहले ही मरने की स्थिति बन जाती है। दुःख इसी बात का है कि इतनी हानि उठाकर भी लोग पैसा खर्च कर दुर्व्यसन को खरीदते हैं। और खुशी-खुशी एक मन्द विष पीकर धीरे-धीरे आत्म-हत्या करने के खेदजनक मार्ग पर चलते रहते हैं।
धीरे-धीरे कितना पैसा इस दुर्व्यसन में खर्च हो जाता है इसका हिसाब लगाते हैं, तो आश्चर्य होता है कि अपने गरीब देश के निवासी क्यों इतनी बर्बादी करते हैं। प्रति व्यक्ति न्यूनतम 30 पैसा बीड़ी माचिस का खर्च माना जाये तो साल में लगभग 100) वार्षिक होता है। 15 साल की उम्र से लेकर 65 वर्ष की उम्र तक 50 वर्ष इसे पियें तो 5000 हुए। यदि यही पैसा बैंक में जमा करते रहा जाये तो चक्रवृद्धि ब्याज से लगभग तीन गुना अर्थात् 15000 हो जाता है। इतनी बड़ी धनराशि की ब्याज से कोई व्यक्ति बुढ़ापा काट सकता है अथवा किसी परमार्थ कार्य में लगा सकता है। पर होता उल्टा है। इतना धन भी खर्च होता है और शरीर की बर्बादी और मन की दुर्गति की भयावह हानियाँ भी उठानी पड़ती है।
मुँह से हर घड़ी दुर्गन्ध आते रहने से पास बैठने वाले को घृणा उत्पन्न होती है और इस विषाक्त धुएँ से वायु-मण्डल दूषित होकर समीपवर्ती लोगों को ही नहीं दूरवर्ती लोगों को भी क्षति पहुँचती है। इस प्रकार तम्बाकू का दुर्व्यसन अपने लिए ही नहीं दूसरों को क्षति पहुँचाने का पाप अनजाने ही बटोरता रहता है। राष्ट्रीय क्षति तो इससे अपार है। प्रतिदिन करोड़ों रुपये की तम्बाकू भारतवासी पी जाते हैं, जो प्रतिवर्ष के हिसाब से अरबों-खरबों रुपये तक जा पहुँचती है। इतनी बड़ी धन राशि यदि राष्ट्रोत्थान में लग सके तो अपने देश का कायाकल्प हो सकता है।
तम्बाकू का दुष्प्रभाव शरीर और धन तक ही सीमित नहीं है। उसके परिणाम सामाजिक भी हैं। जितने मजदूर इस उत्पादन में लगे हैं, वे यदि घर निर्माण, वस्त्र निर्माण, गो पालन, मधु उत्पादन जैसे उपयोगी कार्यों में लगा दिये जायें तो बढ़े हुए किरायों पर गन्दे मकान मिलने की कठिनाई हल हो जाय। कपड़े की तंगी और महँगाई हल हो जाय। दूध-घी और शहद की नदियाँ बहने लगें, पर लाखों श्रमिकों की इतनी बड़ी जन-शक्ति का पसीना जब विनाश के उत्पादन में लगा हो और कितने ही व्यापारी इस विष विक्रय में अपनी पूँजी चतुरता और मेहनत जोड़े हों, तो उपयोगी व्यवसायों का क्षेत्र संकुचित होता ही चलेगा। इस संदर्भ में होने वाला प्रचार और विज्ञापन यदि स्वास्थ्य और चरित्र बढ़ाने की दिशा में लगता तो जन-प्रवृत्ति को कुमार्गगामी बनाने की अपेक्षा विकास की दिशा में कितनी प्रगति होगी?
अन्य नशों की भाँति तम्बाकू में भी तामसिक दुर्बुद्धि और अपराधी दुष्प्रवृत्ति भड़काने का दोष है। नशेबाज व्यक्ति की आध्यात्मिक संवेदनशीलता घटती है और उसे दुष्कर्म करते लज्जा, संकोच नहीं होता। उद्धतकर्म करने और उच्छृंखलता बरतने में उसे झिझक नहीं लगती। मानवीय प्रवृत्ति में अपराधी तत्त्वों का समावेश करने में नशेबाजी का भारी हाथ है।
इसीलिए सभी धर्मों ने, शास्त्रों ने एक स्वर से नशेबाजी की तम्बाकू पीने की निन्दा की है, इसे पाप बताया है। वेदों में इसकी निन्दा है। मनुस्मृति में इसे द्योतक-पातक माना है। बौद्ध धर्म में गिनाये चार पापों में एक नशेबाजी भी है। कुरान के पारा सात सूरत माया का रूक एक में कहा गया है-‘‘हे ईमानवालो! नशीली चीजें हराम हैं। इनसे बचते रहो।’’ बाइबिल का कथन है-‘‘अन्त में नशेबाज की भी शैतान की तरह दुर्गति होगी, जो नशा पियेगा खुशहाल न रहेगा।’’
हमारी प्रकृति इस तथ्य को जानती है, इसलिए तम्बाकू की भीतर प्रवेश होने देने में हर सम्भव प्रतिरोध करती है। धुँआ पीते हैं तो नाक-मुँह से बाहर निकलना पड़ता है। खाते हैं तो थूकना पड़ता है। सूँघते हैं तो छींक उसे भगाती है। दाँत में रगड़ते हैं तो पानी का प्रवाह उसे बहा देता है। फिर भी न जाने क्यों हम प्रकृति विरोधी कार्य करके अपना चतुर्दिक विनाश करने में जुटे हुए हैं।
अच्छा हो हम स्वयं तम्बाकू से बचें। पीते हों तो साहसपूर्वक छोड़ें, जो पी रहें है उन्हें अनुरोध पूर्वक इसे छोड़ने का आग्रह करें।
देशभक्त नवनिर्माण के कार्य में जुट जायें
अपना समाज पिछले दो हजार वर्ष से अवसादग्रस्त चला आ रहा है। आन्तरिक दोष-दुर्गुण जैसे-जैसे बढ़ते चले गये वैसे-वैसे परिस्थितियाँ भी उलझती चली गईं और पग-पग पर कठिनाइयाँ बढ़ीं। व्यक्तियों के दोष-दुर्गुणों के कारण समाज कमजोर हो जाता है और कमजोर समाज का शोषण करने के लिए कोई न कोई आक्रमणकारी कहीं न कहीं से आ ही कूदता है। अपना भी यही हुआ। गिरे में लात जमाने के लिए विदेशी आक्रमणकारी यहाँ आते रहे और अपने -अपने ढंग से रोमांचकारी शोषण करते रहे। इस पराधीनता ने उस दोष-दुर्गुणों को और भी बढ़ाया जिनके कारण अनेक प्रकार की दुर्बलताएँ और विपत्तियाँ पहले से ही उत्पन्न हो रही थीं। अभी स्वाधीनता मिली है, पर हमारे जातीय दोष-दुर्गुण जहाँ के तहाँ है। फलस्वरूप संसार के स्वतंत्र राष्ट्र जिस प्रकार उन्नति कर रहे हैं, उसकी तुलना में हमारा पिछड़ापन नगण्य ही सुधरा है।
सरकार अपराधियों को दण्ड दे आर्थिक प्रगति के थोड़े साधन जुटा सकती है। व्यक्तिगत मूढ़ता एवं दुष्टता को, सामाजिक भ्रष्टता एवं अस्त-व्यस्तता को मिटाना उसके बलबूते की बात नहीं। अधिनायकवाद की बात दूसरी है। प्रजातन्त्र में यह बात नहीं। प्रजातन्त्र में व्यक्ति अथवा समाज-सुधार का कार्य लोकसेवियों पर निर्भर रहता है। उन्हीं की सत्ता, व्यक्ति या समाज का स्तर ऊँचा उठा सकने में समर्थ हो सकती है। प्राचीनकाल में देश का गौरव उच्च शिखर पर पहुँचाये रखने का सारा श्रेय यहाँ के लोक-सेवियों को है। वे अपना सारा समय दो कार्यों में खर्च करते थे। (1)अपना व्यक्तित्व उच्चकोटि का विनिर्मित करना, ताकि जनता पर उसका उचित प्रभाव पड़ सके। (2)निरन्तर अथक परिश्रम तथा अनवरत उत्साह के साथ जन-मानस में उत्कृष्टता भरने के लिए संलग्न रहना। साधु-ब्राह्मण और वानप्रस्थों की यही परम्परा एवं कर्म पद्धति थी। उनकी संख्या जितनी बढ़ती थी उसी अनुपात से राष्ट्रीय जीवन की हर दिशा में समृद्धि का अभिवर्द्धन होता चलता था। यही रहस्य था अपने गौरवमय इतिहास का। दुर्भाग्य की कहना चाहिए, कि वे तीनों ही संस्थाएँ आज नष्ट हो गईं। ब्राह्मण, साधु और वानप्रस्थ तीनों ही दिखाई नहीं पड़ते। उनकी तस्वीरें और प्रतिमाएँ बड़ी संख्या में घूमती-फिरती नजर आती हैं पर उनका लक्ष्य, आदर्श और कर्तव्य सर्वथा ‘अपरीत’ हो गया, ऐसी दशा में उनकी उपयोगिता भी नष्ट हो गई।
दुर्भाग्य का रोना-रोने से काम न चलेगा। अभाव की पूर्ति दूसरी तरह करनी होगी। हम गृहस्थ लोग ही थोड़ा-थोड़ा समय निकाल कर लोक-मंगल की सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्द्धन करना अपना धर्म कर्तव्य समझें और उसके लिए निरन्तर कुछ न कुछ योगदान देने के लिए तत्परता प्रकट करने लगें तो उस आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है, जिस पर प्रगति का सारा आधार अवलम्बित है। यदि हमारे मन में राष्ट्रीय प्रगति और सामाजिक उन्नति के लिए व्यक्तिगत लाभों जैसी दिलचस्पी पैदा हो जाये तो हम व्यस्त दिखाई देने वाले लोग भी थोड़ा-थोड़ा योगदान देकर ऐसे सामूहिक अभियान चला सकते हैं, जिनसे वर्तमान दुर्दशा का कायाकल्प होने में देर न लगे। आवश्यकता ऐसे लोगों की है, जिनके अन्तःकरण में देशभक्ति, समाज-सेवा एवं लोक-मंगल के लिए कुछ करने की उमंग भरी भावनाएँ लहरा रही हों। ऐसे ही नर-रत्न अपना जीवन धन्य करते हैं, अपने समय की महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ सम्पादित करते हैं।
यों राजनैतिक पार्टियों के पास अभी भी बहुत कार्यकर्ता हैं पर वे राजनीति को ही सब कुछ मान बैठें हैं। सत्ता-संघर्ष में यश, पद पाने में ही उनकी प्रधान अभिरुचि है। कूटनीति में जिस तरह की तिकड़में भिड़ानी एवं विडम्बनाएँ जुटानी पड़ती हैं, उन सबके अभ्यस्त होने से वे व्यक्तिगत आत्मबल भी खो बैठते हैं और ऐसे रचनात्मक कार्यों में उनकी रुचि भी नहीं रहती है।
उनका ढर्रा भी सन्त-महन्तों की तरह अपनी पूजा, महिमा और गद्दी बनाने की दिशा में ही लुढ़कने लगता है। जो जिस ढाँचे में ढल गया उसके लिए बदलना मुश्किल पड़ता है। इसलिए राजनीतिक क्षेत्र में लगे हुए लोगों से भी उनकी मनोभूमि देखते हुए आशा करनी कठिन है कि देश की प्रगति के लिए नितान्त आवश्यक जन-मानस का परिष्कार-रचनात्मक अभिवर्द्धन और समाज की दिशाएँ मोड़ने का अभियान उनके द्वारा सम्भव हो सकेगा। यह नया कार्य एक नये वर्ग को करना चाहिए। धार्मिकता के सहारे भावनात्मक नव-निर्माण की दिशा में जुट सकें-साधु ब्राह्मणों की परम्परा को गृहस्थ रहकर भी निभा सकें-ऐसे व्यक्तियों की आज नितान्त आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सबसे पहले हमें आगे आना चाहिए ताकि दूसरों को भी उसी मार्ग पर अनुगमन करने की प्रेरणा मिल सके।
भावनात्मक नव-निर्माण की आवश्यकता का महत्त्व समझने वाले और उसके लिए कुछ त्याग-बलिदान करने की हिम्मत करने वाले लोगों का एक वर्ग हर जगह ढूँढ़ा जाना चाहिए। उसे संगठित किया जाना चाहिए। क्योंकि एकाकी प्रयत्नों का परिणाम बहुत बड़ा नहीं होता। सम्मिलित शक्ति द्वारा किये गये संगठित प्रयत्नों का चमत्कार सदा से होता रहा है। उसी की आवश्यकता आज भी है। लोक-मंगल के लिए किये गये सामूहिक सत्प्रयत्न यदि सज्जनों द्वारा आरम्भ किये जायें तो उनसे जन-मानस के परिष्कार में, भावनात्मक नव-निर्माण में, भारी सहायता मिले और प्रगति के पथ का सबसे बड़ा अवरोध सहज ही दूर हो जाये।
कितने ही काम हैं जो ऐसे सत्प्रयत्नों द्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं। (1) प्रेरक विचारधारा प्रस्तुत करने वाले ज्ञान-मन्दिरों की-प्रेरक पुस्तकालयों की व्यापक शृंखला का निर्माण इस दिशा में सबसे पहला काम है। यदि व्यवस्थित रूप से वह प्रक्रिया पूरी की जा सके तो विचार-क्रांति का महायज्ञ बड़ी सफलतापूर्वक सम्पन्न होगा और उससे प्रबुद्ध पीढ़ी विनिर्मित होते हुए और उसके कर्तृत्व से वर्तमान दुर्दशा समाप्त होते हुए हम अपनी आँखों से देखेंगे। (2)अशिक्षा दूर करने-70 प्रतिशत अशिक्षित लोगों को साक्षर बनाने का काम बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए सरकारी, गैर सरकारी प्रयत्नों से विभिन्न स्तर के शिक्षण प्रयत्नों की वृद्धि होनी चाहिए। प्रौढ़-पाठशालाओं और रात्रि-पाठशालाओं की इस सन्दर्भ में महती आवश्यकता है। (3)व्यायामशालाएँ, खेलकूद, शस्त्र-संचालन और शरीर बल प्रदर्शन की प्रतियोगिताएँ, (4)देहाती क्षेत्रों में स्वच्छता आन्दोलन। नये ढंग के टट्टीघर, पेशाब घर, सोख्ता, नाली कूड़े के लिए गढ़े गोबर न जलाने मिल-जुलकर गाँव की सफाई करने जैसी प्रवृत्तियाँ पैदा करके ग्रामीण जीवन में व्याप्त गन्दगी को दूर करने का अभियान (5)खर्चीली विवाह-शादियों के स्थान पर बिना खर्च के आदर्श विवाहों का प्रचलन। मृत्यु-भोज, भूत-पलीत, भिक्षावृत्ति, पर्दा, ऊँच-नीच, बाल-विवाह जैसी अगणित सामाजिक कुरीतियों को हटाने के लिए विभिन्न स्तरों का प्रचार, विरोध एवं प्रतिरोधात्मक आन्दोलन का सृजन एवं नेतृत्व। (6)भावनात्मक नवनिर्माण के लिए साहित्य, संगीत, कला, अभिनय, चित्र-प्रदर्शनी, प्रवचन, सम्मेलन आदि के समस्त प्रचार साधनों का प्रारम्भ एवं अभिवर्द्धन। (7)शाक, फल, फूल, वृक्ष आदि उगाने, अन्न बचाने, जूठन न छोड़ने, दावतों पर नियन्त्रण, सुधरे ढंग की कृषि पकाने तथा खाने सम्बन्धी जानकारी, कम ईंधन से जलने वाले चूल्हे आदि के द्वारा खाद्य समस्याओं का समाधान। (8)धार्मिक, नैतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा के लिए व्यापक एवं प्रखर प्रशिक्षण व्यवस्था। व्यक्तिगत जीवन में सत्प्रवृत्तियों के समावेश को प्रोत्साहन, सत्कार्यों का अभिवन्दन। (9)जीव दया, पशु-पक्षियों के साथ सद्व्यवहार। (10) गृह उद्योगों का व्यापक प्रचलन। फैशन, फिजूलखर्ची एवं अपव्यय को निरुत्साहित करना।
इन दससूत्री कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने में हमें अपनी परिस्थिति एवं सुविधा के अनुरूप योजनाएँ बनाकर कार्य संलग्न होना चाहिए। इस दिशा में किये गये प्रयत्न ही राष्ट्रीय प्रगति के आधार बनेंगे।
नागरिक कर्तव्य पालें और समाज में स्वस्थ परम्परा डालें
समाज में स्वस्थ परम्पराएँ कायम बनी रहें उसी से अपनी और सबकी सुविधा बनी रहेगी। यह ध्यान में रखते हुए हम में से प्रत्येक को अपने नागरिक कर्तव्यों का पालन करने में भावनापूर्वक दत्तचित्त होना चाहिए। समाज सबका है। सब लोग थोड़ा-थोड़ा बिगाड़ करें तो सब मिलाकर बिगाड़ की मात्रा बहुत बड़ी हो जायेगी। किन्तु यदि थोड़े-थोड़े प्रयत्न सुधार के लिए चल पड़ें तो उस सुधार से सब मिलाकर सुधार भी बहुत हो सकता है। उचित यही है कि हम सब मिलकर अपने समाज को सुधारने, संचालित करने और स्वस्थ परम्पराएँ प्रचलित करने का प्रयत्न करें और सभ्य, सुविकसित लोगों की तरह भौतिक एवं आत्मिक प्रगति का सुख-संतोष प्राप्त कर सकें।
दूसरों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए अपनी सुविधा और स्वतंत्रता को स्वेच्छापूर्वक सीमित करना, सभ्य देश के सभ्य नागरिक का कर्तव्य है। स्वच्छता को ही लीजिए कहीं भी नाक, थूक साफ करना, पान-तम्बाकू की पीक डाल देना अपने लिए कुछ दूर जाने का कष्ट भले ही बचावे पर दूसरों को घृणा असुविधा पैदा होगी और यदि अपने को कोई रोग है तो उसका आक्रमण उस गंदगी में आने-जाने वाले पर होगा। यदि भले ही कोई रोके नहीं पर हमारा नागरिक कर्तव्य है, कि दूसरों कि असुविधा को ध्यान में रखते हुए स्वयं उस गंदगी को डालने के योग्य उपयुक्त स्थान तक जाकर उसे साफ करें। बीड़ी-सिगरेट हम पीते हैं तो ध्यान रखें कि अपने अस्वच्छ धुआँ छोड़ने से पास में बैठे हुए दूसरे लोगों कि तबियत खराब तो नहीं होती, स्वयं ही पता लगायें कि किसी को असुविधा तो नहीं होती। यदि हमारी उस क्रिया से दूसरों को तकलीफ होती है, तो सभ्यता का तकाजा यही है कि कहीं अन्यत्र जाकर बीड़ी पियें और धुआँ छोड़े।
घरों की गन्दगी लोग अक्सर गली या सड़क पर डाल देते हैं, उसमें रास्ता निकलने वालों को असुविधा होती है और सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता अस्त-व्यस्त होती है। उचित यही है कि घरों में कूड़ेदान रखें और जब सफाई कर्मचारी आवें तब उसे उठवा दें। छोटे बच्चों को अपने घरों में ही टट्टी कराने का प्रबन्ध करना चाहिए, यह अनुचित है कि गली की नाली के ऊपर उन्हें बिठावें और गन्दगी, बदबू तथा अशोभनीय अस्वच्छता से उस गली में रहने वाले तथा निकलने वालों को कष्ट पहुँचावें। छत की ऊपरी मंजिल से फूटा घड़ा फेंक देने से एक बार उस रास्ते से निकलने वाले बच्चे का सिर फूट गया और उसकी मृत्यु हो गई। सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता और व्यवस्था नष्ट करना यह बताता है कि इन घिनौने व्यक्तियों को मनुष्यता के आरम्भिक कर्तव्य नागरिकता तक का ही ज्ञान नहीं है।
मुसाफिरखाने, धर्मशाला, पार्क, नदी-किनारे, सिनेमाघर आदि सबके काम में आने वाले स्थानों में लोग जहाँ-तहाँ रद्दी कागज, दोने, पत्ते, सिगरेट के खोखे, मूँगफली के छिलके आदि पटकते रहते हैं और देखते -देखते स्थान गन्दगी से भर जाते हैं। रेलगाड़ियों के डिब्बे में जहाँ हर आदमी को घिचपिच बैठना पड़ता है, ऐसी गन्दगी बहुत ही अखरती है। सँडासों में मलमूत्र का विसर्जन गलत स्थानों पर करने से वहाँ की स्थिति ऐसी हो जाती है कि दूसरों को उसका उपयोग करना कठिन पड़ता है। जबकि कितने ही मुसाफिर खड़े चल रहे हैं तब कुछ लोग बिस्तर बिछाए, टाँग लम्बी किये लेटे रहते हैं और उठाने पर झगड़ते हैं। इन लोगों को मनुष्यता की आरम्भिक शिक्षा सीखनी ही चाहिए कि सार्वजनिक उपयोग के स्थान या वस्तुओं का उतना ही उपयोग करें जितना कि अपना हक है। थर्डक्लास के डिब्बे बैठने भर के लिए हैं। खाली हो तो कोई लेट भी सकता है, पर जबकि अनेक मुसाफिर खड़े या लटकते चल रहे हैं और चन्द लोग लेटने का ऐसा आनन्द उठायें जिसे प्राप्त करने का हक उन्हें नहीं है तो उसे ढीठता या पशुता ही कहा जायेगा।
प्रसिद्ध भारत भक्त अँग्रेज सी.एफ.इन्ड्रूज ने अपना जीवन हमारे देश की सेवा के लिए समर्पित किया। उनके वयोवृद्ध पिता का पैर सड़क पर पड़े हुए केले के छिलके पर से फिसला वे नाली में गिरे-पैर में पड़े रहे। उनकी मृत्यु का जिम्मेदार वह व्यक्ति था जिसने केले खाने की धुन में छिलका कहाँ फेंकना चाहिए इसका ध्यान नहीं रखा। ऐसे ही लापरवाही से उन्हें सड़क पर फेंकता चला गया। यदि उसने केले खाते या छीलते हुए यह सोचा होता कि इस प्रकार सड़क पर छिलका फेंकने से दूसरों का पैर फिसल सकता है और उसे घातक चोट लग सकती है तो जरूर उसे छिलका फेंकने के लिए धैर्यपूर्वक उसके लिए उचित स्थान तलाश करने की बात याद रहती। पर जहाँ दूसरों की सुविधा की बात कभी ध्यान में ही आती न हो, वहाँ ऐसा विचार करने का कष्ट कौन उठाये? नारंगी आदि के छिलके लोग यों ही फेंकते रहते हैं और आये दिन दुर्घटनाएँ होती रहती हैं।
कितने ही लोग गाय पालते हैं और दूध दुहकर उन्हें आवारा यह समझकर छोड़ देते हैं किसी की चीज खाकर अपना पेट भर लायेगी और हमें दूध देगी। गो माता के प्रति प्रचलित श्रद्धा के आधार पर कोई उसे मारेगा नहीं और अपना काम बन जायेगा। इस तरह वह गाय लोगों की वस्तुएँ खाकर, बिखेर कर, दूसरों का रोज नुकसान करती और पिटती, कुटती रहती है। इस तरह दूसरों को कष्ट देने तथा स्वयं लाभ उठाने को क्या कहा जाये? स्वयं कीर्तन करने का मन है तो अपने घर में पूजा के उपयुक्त मन्द स्वर में प्रसन्नतापूर्वक करें। पर लाउडस्पीकर लगाकर रात भर धमाल मचाने और पड़ोस के बीमारों, परीक्षार्थियों तथा अन्य लोगों की नींद नष्ट करने वाली ईश्वरभक्ति से भी पहिले हमें अपनी नागरिक मर्यादाओं और जिम्मेदारियों को समझना चाहिए। जिसका अर्थ है कि दूसरों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए अपनी स्वेच्छा को स्वेच्छापूर्वक सीमाबद्ध करना।
वचन का पालन और ईमानदारी का व्यवहार मनुष्य का प्राथमिक एवं नैतिक कर्तव्य है। जिस समय पर जिससे मिलने का, कोई वस्तु देने काम पूरा कर देने का वचन दिया है। उस वचन को ठीक समय पर पूरा करने का ध्यान रखना चाहिए ताकि दूसरों को असुविधा का सामना न करना पड़े। यदि हम दर्जी या मोची हैं तो उचित है कि वायदे के समय पर उसे देने की शक्ति भर प्रयत्न करें। बार-बार तकाजे करने और निराश वापिस लौटने में जो समय खर्च होता है और असुविधा होती है, उसे देखते हुए ऐसे दर्जी, धोबी अपनी प्राप्त मंजूरी से ग्राहक का चौगुना-दसगुना नुकसान कर देते हैं। भाषण करना है तो हमें ठीक समय पर पहुँचना और नियमित समय में ही पूरा करना चाहिए। समय का ध्यान न रखना सुनने वालों के साथ बेइन्साफी है। दावत जिस समय की रखी है, उसी समय आरम्भ कर देनी चाहिए। मेहमानों को घण्टों प्रतीक्षा में बिठाये रहना एक प्रकार से उनका समय बर्बाद करना है। जिसे धन की बर्बादी के समान ही हानिकारक समझा जाना चाहिए।
वस्तु का मूल्य और स्वरूप जो बताया गया है वही वस्तुतः होना चाहिए, असली में नकली की मिलावट कर देना, दामों में घिसा-पिटी करके कमीवेशी करना, व्यापार करने वालों के लिए सर्वथा अशोभनीय है। नागरिक कर्तव्य की अवहेलना है। दाम अधिक बताया पीछे फिर घिस-घिस कर कमी करना, अपनी विश्वसनीयता तथा प्रामाणिकता पर कलंक लगाना है। असली और नकली अलग-अलग बेची जायें और उनके दाम वैसे ही महँगे, सस्ते स्पष्ट किये जायँ तो व्यापारी की साचा बढ़ेगी और ग्राहकों का समय बचेगा तथा संतोष होगा। एक दुकानदार असली लालमिर्च बेचते थे और उचित दाम बताते थे जो बाजार के हिसाब के कुछ महँगे पड़ते थे। ग्राहक जब पूछते तो पिसा हुआ गेरू सामने रखकर वे पूछते आप जितना कहें उतना गेरू मिर्चों में मिला दूँ। उतने ही दाम सस्ते हो जाएँगे। दूसरी दुकान पर बिकने वाली लाल मिर्चों का नमूना मँगाकर वे पानी में घोलते और नीचे जब गेरू बैठ जाता तब कहते यह मिलावट ही सस्तेपन का कारण है। ग्राहक वस्तुस्थिति समझ जाता और फिर सदा उसी दुकान से महँगे दाम के शुद्ध मसाले खरीदता। ईमानदारी घाटे का सौदा नहीं है। वह प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता की परीक्षा भर चाहती है। इस कसौटी पर सही होना हर व्यवसायी का नागरिक कर्तव्य है। यह कर्तव्य पालन व्यक्ति का सम्मान भी बढ़ाता है और व्यवसाय भी।
दूसरों की असुविधा को ध्यान में रखते हुुए अपनी सुविधा को सीमाबद्ध रखना, शिष्टता और सभ्यता भरा मधुर व्यवहार करना और मीठे वचन बोलना, वचन का पालन करना, प्रामाणिकता और विश्वस्तता की रीति-नीति अपनाना, समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को ठीक तरह निभाना नागरिक कर्तव्यों का शुभारम्भ है। इतना तो हममें से प्रत्येक को सीखना और करना ही चाहिए अपने आचरणों से समाज में स्वस्थ परम्पराओं का प्रचलन करके हम वह स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं जिससे सभ्य समाज में शिष्ट नागरिकों की तरह हम ठीक जी सकें और दूसरों को जीने दे सकें।
व्यक्तिगत स्वार्थ भी सामाजिक सुव्यवस्था पर निर्भर है
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसकी प्रक्रिया का इतिहास यही प्रतिपादित करता है। पारस्परिक सहकारिता और उदारता के भावनात्मक सद्गुणों ने वह स्थिति पैदा की जिसके अनुसार लोग एक-दूसरे को अपना बौद्धिक और क्रियात्मक सहयोग दे सके और इस विनिमय ने ज्ञान, अनुभव, साधन, उत्पादन, चिन्तन एवं विकास के अनेक द्वार खोले। इसी सड़क पर चलता हुआ दुर्बल मानव प्राणी वर्तमान स्थिति तक पहुँच सकने में समर्थ हुआ है। यदि वह एक एकाकी अपने आप तक सीमित, स्वार्थी सहयोग में रुचि न लेने वाला और अनुदार रहा होता तो प्रकृति के झंझावातों में संभव है उसका अस्तित्व ही-अनेक प्रागैतिहासिक प्राणियों की तरह लुप्त हो गया होता। ऐसा न होता तो भी सहयोग साधना के बिना उसका वर्तमान विकसित स्थिति पहुँच सकना असम्भव था। बुद्धि की महत्ता बहुत मानी जाती है और श्रेय भी उसी का दिया जाता है। तथ्य यह है कि बुद्धि का विकास भी सामाजिक और परस्पर सहयोग की मूल मानवीय प्रवृत्ति द्वारा ही संभव हुआ। इस प्रवृत्ति को चाहे तो मानव धर्म का मूल आधार भी कह सकते हैं।
आज मनुष्य की आत्मनिर्भरता का अधिकांश भाग समाज के स्वरूप, स्तर और संगठन पर निर्भर है। वह ढाँचा जहाँ मजबूत, सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत है, वहाँ व्यक्ति को विकसित होने की सुविधा उतनी ही अधिक मिल सकती और उतना ही आनन्द, उत्साह का वातावरण बन जाता है। जहाँ यह व्यवस्था जितनी घटिया और विसंगतियों से भरी है वहाँ उतनी ही असुविधाएँ और पीड़ाएँ नागरिकों को सहनी पड़ती हैं। इन बातों को ध्यान में रखते हुए आधुनिक दर्शन शास्त्र, समाज शास्त्र, मनःशास्त्र एक ही प्रतिपादन करते हैं कि व्यक्ति अपनी सुख-सुविधाओं का जितना ध्यान रखता है और प्रयत्न करता है उससे कम नहीं अधिक ही समाज की सुव्यवस्था और उज्ज्वल परम्परा बनाये रखने में भी सचेष्ट रहना चाहिए। इसी मनोवृत्ति को देशभक्ति, नागरिकता, कर्तव्यनिष्ठा, लोकसेवा परायणता, सज्जनता आदि नाम से पुकारते हैं।
किसी जमाने में व्यक्ति वन्य पशुओं की तरह एकाकी और आत्मनिर्भर रहा हो पर आज तो उसकी स्थिरता, सुविधा, व्यस्तता, प्रगति और प्रसन्नता सब कुछ समाज व्यवस्था पर निर्भर हो गई है। अन्न दूसरे उगाते हैं तब अपने को रोटी मिलती है। चौका में काम आने वाले बर्तन आदि उपकरण दूसरों ने बनाये हैं। वस्त्र, साबुन, जूते, कंघा, तेल जो उपलब्ध हैं, अन्यत्र बने हैं। इन्हें हम तक पहुँचने में जिन यन्त्रों, वाहनों और साधनों का प्रयोग हुआ है वे दूसरे के बनाये हैं। दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली वस्तुओं के लिए हमें पूर्णतया दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यदि यह सुविधाएँ न मिल सकें तो तथाकथित एकाकी और अतिसीमित जीवन जी सकने की इन दिनों कल्पना कर सकना भी कठिन है।
डाकखाना, तार, रेल, मोटर, जहाज, रेडियो, सड़क, पुल, स्कूल, प्रेस, पुस्तकें, अस्पताल, कारखाने, बिजली आदि साधनों के बिना हम किस स्थिति में पहुँच जायेंगे, इसकी कल्पना करने पर पता चलता है कि उनके बिना हम क्या रह जायेंगे। सरकारी स्तर पर पुलिस, कचहरी, जेल, फाँसी, सेना, कानून, नियन्त्रण, निरीक्षण, शिक्षा व्यवस्था आदि के जो कार्य चलते हैं, यदि वे न रहें तो सुरक्षा और व्यवस्था का सारा ढाँचा ही लड़खड़ा जाये और सर्वत्र अनिश्चितता, आशंका और अशान्ति की काली घटाएँ ही छाई दीखें। कवि, कलाकार, गायक, साहित्यकार, चित्रकार, संत, सुधारक, लोकसेवी प्रतिभाएँ यदि अपने अनुदान देना बन्द कर दें, तो सर्वत्र नीरसता और कर्कशता ही दीखे, गम्भीरता से विचार करें तो प्रतीत होगा कि अपना और अपने परिवार का वर्तमान तथा भविष्य बहुत कुछ समाज की स्थिति पर निर्भर करता है। चोर, गुण्डे, दुष्ट, दुराचारियों का बाहुल्य ही चले और हम उनके दायरे में घिरे रहें तो व्यक्तिगत रूप से सज्जन और धार्मिक होते हुए भी विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा और आये दिन अवांछनीय एवं अक्रामणात्मक दुष्टता का सामना करना पड़ेगा। इस स्थिति में अपनी सुरक्षा, शान्ति व्यवस्था और भविष्य की आशा सब कुछ धूमिल तमसावृत्त बन जायेगी।
यह भली प्रकार समझ लिया जाना चाहिए कि समाज की स्थिति अच्छी रहना व्यक्ति की प्रगति और शान्ति की गारण्टी है। यदि वह बिगड़ती है तो कोई भी चैन से न बैठ सकेगा। अपने देश में इन दिनों बढ़ी हुई अशिक्षा, मूढ़ता, अनैतिकता और असामाजिकता ने प्रगति का पथ कितना अनिरुद्ध कर रखा है और पग-पग पर कितने कंटक बिखेर रखे हैं, उसका प्रभाव हम अपने वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन पर पड़ता हुआ प्रत्यक्ष देखते हैं। मिलावट भरे और नकली खाद्य पदार्थ ही विवश होकर खरीदने पड़ते हैं और उनके कारण स्वास्थ्य गिरता चला जाता है। नकली दवा-दारू और ओछे चिकित्सकों ने हमारे स्वास्थ्य को बर्बाद कर दिया, कुसंस्कारी बच्चों के साथ मिलने-जुलने पर अपने बालक वैसे ही आवारा हो गये। पक्षपाती और अनाचारी अफसरों के नीचे रहने से प्रगति के द्वार बन्द हो गये। गन्दे साहित्य, चित्र फिल्म और गायनों ने घर की नई पीढ़ी को कुमार्गगामी कर दिया। चोरों ने श्रम संचित पूँजी चुराकर दीन-दरिद्र बना दिया, गुण्डा तत्त्वों ने हमारी नींद हराम कर दी। रिश्वत खोरों के कारण हमारा उचित काम हो ही न सका जबकि दूसरों ने उसी आधार पर अपने अनुचित कार्य आनन-फानन में करा लिए।
यह एक झाँकी है जो बताती है कि सामाजिक अस्त-व्यस्तता की परिस्थिति में व्यक्ति की प्रगति, शांति और सुरक्षा असंभव है। इसलिए व्यक्तिगत सुख-सुविधाएँ बढ़ाने की तरह ही हमें सामाजिक सुव्यवस्था की बात परमार्थ देशभक्ति के आधार पर ही नहीं व्यक्तिगत सुविधा की दृष्टि से भी सोचनी चाहिए। सीमा पर सेना नियुक्त कर के ही हम अपनी नगर में शत्रु देशों के आक्रमण से बचे हुए हैं अन्यथा यदि अलग-अलग लोग अपनी-अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करते तो आक्रमणकारी सामंत युग की तरह कत्लेआम करने, सारे शहर की लूट करने और समर्थ नर-नारियों को गुलाम बनाकर घसीट ले जाने के कुकृत्य आज भी कर रहे होते। सेना की नियुक्ति हर सीमा पर करके हमने अपने घर, नगरों की सुरक्षा का ही प्रबन्ध किया है। इसी तरह हम समाज निर्माण और समाज सुधार के कामों में दिलचस्पी लेते और योगदान देते हैं, तो न केवल अपनी वरन् अपने स्वजन-सम्बन्धियों की सुख-सुविधा भी बढ़ाते हैं। स्वार्थ और परमार्थ का सुन्दर समन्वय इसी में है कि व्यक्ति अपनी ही नहीं सारे समाज की प्रगति एवं व्यवस्था पर पूरा-पूरा ध्यान दें।
सुविकसित समाजों में व्यक्ति की सुरक्षा और प्रगति सुनिश्चित रहती है। बुढ़ापे के लिए वृद्ध-गृह, अशक्तों की पेंशन, रोगियों को चिकित्सा, बालकों को शिक्षा का अच्छे से अच्छा प्रयत्न सामाजिक स्तर पर बड़ी खूबसूरती के साथ हो सकता है। प्रगतिशील देशों में वैसा हो भी रहा है। बुढ़ापे या अशक्तता के लिए अपनी चिन्ता करते रहने में उतना सार नहीं है जितना इस बात में है कि समाज को सुविकसित करके इस योग्य बना दिया जाये कि हमारी और हमारे तरह के दूसरे लोगों की सुनिश्चितता का भार उठा सकने योग्य समाज की स्थिति को बना दिया जाये। बच्चों के लिए धन छोड़ जाने पर भी कोई निश्चिन्तता नहीं, पर यदि समाज हर व्यक्ति को उचित काम देने में समर्थ हो जाता है तो बच्चों के लिए उत्तराधिकार में धन न छोड़ जाने पर भी यह निश्चिन्तता बनी रहेगी कि उन्हें रोटी कमाने और सुख से रहने के साधन मिल जायेंगे।
व्यक्तिगत स्वार्थपरता जिसमें मनुष्य अपने और अपने बच्चों के लाभ भर की बात सोचता है वस्तुतः एक मानसिक ओछापन और बौद्धिक संकीर्णता भर है। हमें ध्यान रखना होगा कि मनुष्य तेजी से कठोर सामाजिकता के बन्धन में आबद्ध होता चला जा रहा है। विज्ञान ने सारी दुनिया का एक कर दिया है और दूरी को समीपता में बदल दिया है। ऐसी दशा में सारा मानव समाज एक कुटुम्ब की तरह हो चला है। कुटुम्ब में एक आदमी मिठाई खाये और दूसरे भूखों मरें तो मिठाई खाने वाले को संकट में फँसना पड़ेगा। इसी प्रकार समाज का पिछड़ापन रहते, व्यक्तिगत उन्नति, समृद्धि और शौक-मौज के स्वप्न देखना, सर्वथा अदूरदर्शिता है। हममें से प्रत्येक को समय, श्रम, मन और धन समाज को समुन्नत बनाने में, व्यक्तिगत स्वार्थों की सुरक्षा की दृष्टि से भी लगाना चाहिए। क्योंकि सुव्यवस्थित समाज रचना पर ही व्यक्तिगत सुविधाओं की स्थिरता पूर्णतया निर्भर रहती है।
प्रौढ़ों को साक्षर बनाया जाना युग की अनुपेक्षणीय माँग
शिक्षा रहित व्यक्ति एक प्रकार से अन्धा है। जीवनोपयोगी जानकारियाँ आँख-कान के द्वारा ही प्राप्त नहीं हो जातीं वरन् उनका वास्तविक आधार तो साहित्य है। जिसके आधार पर बिना दूसरे के द्वारा प्रत्येक शिक्षण दिये, अपने आप व्यक्ति लोक-परलोक की, देश-विदेश की, अगणित सद्प्रवृत्तियों की उपलब्धि एवं दुष्प्रवृत्तियों की विभीषिका से परिचित हो सकता है। ज्ञान, विज्ञान, कला, शिल्प, चिकित्सा, अर्थ, शासन, धर्म, अध्यात्म आदि न जाने कितनी ज्ञानधाराएँ हमें साहित्य के द्वारा मिलती हैं और उन्हीं ही प्राप्त हो सकता है जो शिक्षित हैं। अशिक्षित बेचारा तो उतना ही जान सकता है जितना उसने आँखों से देखा और कान से सुना है। इस आधार पर ज्ञान प्राप्त कर सकने की मर्यादा और सम्भावना बहुत ही स्वल्प है। अतएव अशिक्षित व्यक्तियों की ज्ञान परिधि बहुत ही छोटी रहने से उनके मानसिक विकास की ज्ञान परिधि बहुत ही छोटी रहने से उनके मानसिक विकास की व्यवस्था भी नगण्य जितनी ही बन जाती है। यही कारण है कि अशिक्षितों को अर्द्धअन्ध-अर्द्धविकसित या अर्द्धमनुष्य कहते हैं। कोई व्यक्ति महत्त्वपूर्ण प्रगति शिक्षित होते हुए भी न कर सके यह हो सकता है पर जिस किसी ने कुछ कहने लायक भौतिक या आत्मिक उन्नति की है वह बिना शिक्षा का सहारा लिए वैसा कर सका है ऐसा नहीं देखा गया। शिक्षा निस्सन्देह मनुष्य की एक महती आवश्यकता है और उसे पूरा किया ही जाना चाहिए।
अशिक्षा एक अभिशाप है, जिसे दूर किये बिना कोई समाज प्रगति के पथ पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। हमें अपनी प्रगति की कामना करने के साथ सर्वप्रथम साक्षरता की समस्या को हाथ में लेना चाहिए। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि भारत में लगभग 80 प्रतिशत व्यक्ति अशिक्षित हैं। यदि सरकारी प्रयत्न इस दिशा में गहरे और गम्भीर होते तो स्वाधीनता प्राप्ति के बाद विगत 42 वर्षों में यह समस्या बहुत ही सरलता से हल हो गई होती। पर दोष अपने दुर्भाग्य का ही है, जिसने हमें क्यूबा सरीखी चेतना नहीं दी। ‘क्यूबा’ अमेरिका महाद्वीप में एक छोटा देश है। वहाँ भी दस वर्ष पूर्व निरक्षरता की ऐसी ही समस्या थी। सरकार ने ग्रेजुएटों को उपाधि पत्र देने से पूर्व यह प्रतिबन्ध लगाया कि उन्हें 5 निरक्षर व्यक्तियों को साक्षर बनाने की अपनी समाज सेवा का परिचय देना चाहिए। इसी प्रकार सरकारी नौकरों पर उन्नति के पद पाने की योग्यता सिद्ध करने के लिए अपनी लोकसेवा प्रवृत्ति बना देने को 4 निरक्षरों को साक्षर बना देने का नियम बना दिया। फलस्वरूप सुशिक्षित और सरकारी वर्ग के लोग निरक्षरता निवारण के प्रयत्नों में जुट गये और देखते-देखते साक्षरता की समस्या हल हो गई। अपने देश में ऐसा कभी कुछ हो सकेगा इसकी अभी तो प्रतीक्षा ही की जा सकती है।
जो सरकारी प्रयत्न शिक्षा प्रसार के चल रहे हैं वह बहुत ही अपर्याप्त हैं। जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है, उस गति से स्कूलों की अभिवृद्धि सम्भव नहीं हो सकती। फलस्वरूप शिक्षा प्रसार में बढ़ाई जाने वाली राशि में हर वर्ष वृद्धि होते चलने पर भी निरक्षरता का प्रतिशत बहुत ही धीमी गति से सुधर रहा है। यह प्रगति चींटी की चाल जैसी है और उसके ऊपर निर्भर रहा गया तो साक्षरता प्रसार की समस्या जो राष्ट्रीय प्रगति के लिए नितान्त आवश्यक है, बहुत लम्बी, अप्रत्याशित अवधि में कहीं जाकर पूरी हो सकेगी।
इसको हमें गैर सरकारी स्तर पर सँभालना होगा और जन-सहयोग से लोकसेवा की प्रवृत्तियों को जगाकर देशभक्त और उदार मनोवृत्ति के सज्जनों का सहयोग लेकर पूरा करना होगा। बच्चों की समस्या और व्यवस्था तो सरकारी स्कूल भी हाथ में ले सकते हैं, पर वयस्कों की तीन चौथाई जनता ऐसी है जिसकी निरक्षरता असह्य है। जिस पीढ़ी के हाथ में वर्तमान की बागडोर है वह वयस्क होते हुए भी अशिक्षित है। भारत 80 प्रतिशत गाँवों में बिखरा पड़ा है। वहाँ शिक्षा के न तो साधन हैं और न उत्साह। कुछ दिन से जहाँ-तहाँ स्कूल खुले हैं, और उनमें सिर्फ थोड़े-बहुत लड़के पढ़ने जाने लगे हैं, वे भी सवर्णों के। छोटी जातियों में लड़कों को पढ़ाने के लिए भी उत्साह नहीं। लड़कियाँ शहरों में तो पढ़ती हैं पर गाँवों में इसे आवश्यक नहीं माना जाता है। महिलाओं में से पीछे दो-चार भी पढ़ी-लिखी न मिलेंगी। सवर्णों में आधे, असवर्णों में 99 प्रतिशत अशिक्षित हैं। स्त्रियाँ तो सवर्णों की भी इन देहाती क्षेत्रों में अनपढ़ ही मिलेंगी। यह इन्तजार नहीं किया जा सकता कि अगली पीढ़ी जब शिक्षित होकर आवे तब राष्ट्रीय प्रगति की बागडोर हाथ में सँभाले। दुनिया इतनी तेजी से बढ़ और बदल रही है कि जो लोग आज सामने हैं उन्हीं को सुयोग्य और समर्थ बनाये बिना काम चलने वाला नहीं है। निरक्षरता निवारण की समस्या आगे के लिए नहीं टाली जा सकती, वह आज ही हाथ में लेनी होगी और सरकार का मुँह ताके बिना उसे जन-सहयोग के स्तर पर हल करना होगा।
उपाय एक ही है कि हर शिक्षित व्यक्ति अपने ऊपर यह ‘ज्ञान-ऋण’ समझे कि उसे साक्षरता प्रसार के लिए कुछ न कुछ योगदान देना है। प्रौढ़ पाठशालाओं की स्थापना और उनका संचालन हर शिक्षित का इन दिनों का धर्म कर्तव्य बन जाना चाहिए। थोड़े से उत्साही शिक्षित लोग ऐसी छोटी रात्रि पाठशालाएँ गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले चला सकते हैं, जिनमें निरक्षर वयस्कों को पढ़ने की सुविधा मिल सके। महिलाओं के लिए रात्रि का नहीं तीसरे पहर का समय सुविधाजनक रहता है। दो-दो तीन-तीन घण्टे की भी यह पाठशालाएँ चलती रहें, तो एक वर्ष में ये किसी भी व्यक्ति को प्राथमिक शिक्षा की जितनी योग्यता कराके उसे साक्षरों की पंक्ति में बिठा सकती हैं।
शिक्षा की उपयोगिता, आवश्यकता महत्ता से अभी अपने देशवासी बुरी तरह अनभिज्ञ हैं। इसलिए इस संदर्भ में यह काम भी साथ ही हाथ में लेना होगा कि जन-साधारण को अशिक्षा के बुरे परिणाम बताये जायें। इसके लिए घर-घर जाकर जनसम्पर्क, गोष्ठियाँ, पंचायतें, चित्र-प्रदर्शनियाँ, गीत, सम्मेलन, नाटक, अभिनय आदि जो भी प्रचार माध्यम सम्भव हों उन्हें काम में लाया जाना चाहिए। शिक्षितों में पुस्तक पर्चे आदि के माध्यम से भी कुछ प्रचार किया जा सकता है। पर अशिक्षितों में तो दृश्य और श्रव्य कार्यक्रमों के माध्यम से ही कुछ प्रभाव पड़ सकता है और यदि गाँव-गाँव, गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले, प्रौढ़, पाठशालाओं का रात्रि तथा तीसरे पहर का क्रम बनाया जा सके तो यह उत्साह एक से दूसरे में छूत की तरह लगेगा और उस उमंग भरे प्रवाह में देश के माथे पर से निरक्षरता का कलंक सुगमतापूर्वक धोया जा सकेगा।
आवश्यकता है विचारशील लोगों का ध्यान इस छोटे किन्तु महान रचनात्मक कार्य की ओर आकर्षित करने की। विद्यादान के इस पुनीत यज्ञ में हर व्यक्ति अपने ढंग से समय, श्रम या मनोयोग देकर सहयोग करने लगे तो जनस्तर पर भी चन्द दिनों में हमारा देश साक्षरता का लाभ प्राप्त कर तेजी के साथ प्रगति पथ पर अग्रसर हो सकता है।
व्यायाम एवं स्वास्थ्य शिक्षा समाज की एक महती आवश्यकता
शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आहार, स्वच्छता, स्नान, निद्रा आदि की तरह श्रम की भी अनिवार्य आवश्यकता है। शरीर के कलपुर्जों को ठीक तरह गतिशील एवं परिपुष्ट रखने के लिए हर प्राणी को समुचित श्रम करना पड़ता है। आहार की खोज में पशु-पक्षी लम्बी यात्राएँ करके और शरीर को श्रम से थकाकर स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रहते हैं। मनुष्य ने जब से आरामतलबी की आदत अपनाई तब से उसे अल्पायु और अस्वस्थता का अभिशाप भुगतने के लिए विवश होना पड़ा।
अभी भी जो प्रकृति पुत्र कृषक, मजदूर अथवा वन जातियों के रूप में कठोर श्रम के अभ्यस्त हैं, वे रूखा-सूखा खाकर, अभावग्रस्त जीवन जीते हुए भी अपेक्षाकृत अधिक दीर्घजीवी और निरोगी पाये जाते हैं। श्रम की अपेक्षा और आरामतलबी की आदत यदि आज की तरह ही अपने स्वभाव का अंग बनी रही तो देश की अर्थ-व्यवस्था, समृद्धि और प्रगति पर असर पड़ेगा ही-स्वास्थ्य की समस्या भी दिन-दिन अधिक विकट होती चली जायेगी। अमीर लोग फैशनेबुल बाबू और कोमलांगी महिलाएँ आरामतलबी का जितना आनन्द लेना चाहेंगे उससे हजार गुना अधिक दुःख अस्वस्थताजन्य संकटों के साथ भुगतना पड़ेगा। इस तथ्य को जितनी जल्दी गहराई तक जन-मानस में उतार दिया जाये उतनी ही भलाई है।
कठोर श्रम की उपयोगिता एवं आवश्यकता से हर मनुष्य को परिचित होना चाहिए। सम्पदाएँ और विभूतियाँ कठोर श्रम से ही उपलब्ध होती हैं। हरामखोरी पर दरिद्रता की लानत ही बरसती है। इतना ही नहीं जो काम से जी चुरायेगा, हरामीपन अपनायेगा उसे प्रकृति का कोप पग-पग पर दुर्बलता और बीमारियों के रूप में भुगतना पड़ेगा। इस तथ्य से सर्व-साधारण को अवगत कराने के लिए हमें श्रम की महत्ता प्रतिपादित कराने वाला आन्दोलन चलाना चाहिए। श्रम की प्रतिष्ठा के गीत गाये जाने चाहिए और पुरुषार्थी श्रमिकों का अभिनन्दन करना चाहिए। उन नौकरी पसन्द शिक्षितों की भर्त्सना करनी चाहिए जो श्रम से जी चुराकर देहातों को छोड़ शहरों के गन्दे वातावरण में भागते और सफेदपोश बाबू का खोखला और गन्दा जीवन जीने को पसन्द करते देखे जाते हैं।
श्रम की प्रतिष्ठा अपने देश की समृद्धि और स्वस्थता की दृष्टि से नितांत आवश्यक है। इसी विचार ने श्रमिकों को अछूत बनाकर तिरस्कार और उन्हें विधर्मी बनने के लिए विवश किया। हिन्दू जाति के घटते जाने और उसके अन्य धर्मों में घुसते जाने से जो राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक संकट उत्पन्न हो रहा है उसके मूल में यही श्रम के तिरस्कार की विडम्बना घुसी बैठी है। सामूहिक श्रमदान का महत्त्व हमने समझा होता तो गपशप में गुजारने वाले समय का सदुपयोग करके हम अगणित ऐसे रचनात्मक कार्य कर सकते थे जिससे राष्ट्र की समृद्धि, सुव्यवस्था और प्रगति में भारी सहायता मिल सकती है।
श्रम की महत्ता समझाने के लिए हमें व्यायाम आन्दोलन को प्रोत्साहन देना चाहिए। जगह-जगह व्यायामशालाएँ खोलनी चाहिए और खेल-कूदों से लेकर आसन, प्राणायाम तक, सामान्य परेड से लेकर शस्त्र संचालन तक की शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए। इस रचनात्मक प्रक्रिया द्वारा राष्ट्र के शारीरिक और मानसिक बल में आशाजनक अभिवृद्धि होगी।
नियमित व्यायाम एक बहुत ही अच्छी आदत है जिसका शारीरिक ही नहीं मानसिक बल-वर्द्धन पर भी आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। परिश्रमशील होकर दिनभर थकाने वाली कड़ी मेहनत करना अच्छी नींद लाने और खुल कर भूख लगने के लिए सबसे अच्छी और सस्ती दवा है। इसमें खर्च कुछ नहीं आमदनी बढ़ने की सम्भावना निश्चित है पर व्यायाम का चमत्कार तो दूसरा है। उसका प्रभाव केवल शरीर संचालन तक सीमित नहीं वरन् यह स्वभाव और मनोबल के परिष्कार की भी सुविधा प्रस्तुत करता है। दिनभर लोहा पीटने वाले लुहार की अपेक्षा अखाड़े में दो घण्टे कसरत करने वाला पहलवान अधिक परिपुष्ट पाया जाता है। इसका कारण व्यायाम के साथ जुड़ी हुई उत्साहवर्द्धन भावना है। कसरत करते समय यह मान्यता रहती है कि हम स्वास्थ्य साधना कर रहे हैं और इस आस्था का मनोवैज्ञानिक असर ऐसा चमत्कारी होता है कि देह ही परिपुष्ट नहीं होती, मन की हिम्मत तथा सशक्तता भी बहुत बढ़ जाती है।
व्यायाम के साथ जुड़े हुए खेलकूद बढ़िया किस्म के प्रत्यक्ष उल्लास करने वाले मनोरंजनप्रद होते हैं। शरीर की उपेक्षा से ही शरीर बिगड़ता है। व्यायाम हमारा ध्यान स्वास्थ्य की ओर आकर्षित करता है। आलस्य का त्याग और श्रम में अभिरुचि उत्पन्न करने वाली मनोदशा बनती है। खेलकूदों के साथ जुड़ी हुई प्रतियोगिताएँ मन में होना चाहिए और उनसे आगे बढ़ना चाहिए। शरीर तक ही सीमित नहीं वरन् वह मन को दुर्बल ओर रुग्ण बनाती है जो कि देह की अस्वस्थता से भी अधिक अहितकर है। व्यायाम इन विपत्तियों और व्याधियों से बचाता है। फौजी दौड़ के ढंग के व्यायाम, अनुशासन, क्रमबद्धता मिलकर चलना जैसे सद्गुणों को विकसित करते हैं। शस्त्र संचालन को यदि व्यायाम के साथ जोड़ लिया जाये तो व्यक्ति साहसी, शूरवीर, धैर्यवान्, अनीति का प्रतिरोध, बलिदान की तत्परता जैसी सत्प्रवृत्तियों को पनपाता है। आतंकवादी दुष्ट, दुरात्माओं को डराने और नियन्त्रण में रखने के लिए हमारी समर्थता और तेजस्विता को यह शस्त्र व्यायाम भली प्रकार प्रदर्शित कर सकता है और इस प्रदर्शन मात्र से दुष्ट-दुरात्माओं के आक्रमणकारी हौंसले आधे तो स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।
सर्वतोमुखी समर्थता का अभिवर्द्धन करने के लिए अपने देश में व्यायाम शिक्षा को, व्यायामशालाएँ स्थापित करने की प्रवृत्ति को, व्यायाम प्रतियोगिताओं का समुचित प्रोत्साहन मिलना चाहिए। हमें एक व्यायाम आन्दोलन चलाना चाहिए जिससे न केवल शारीरिक परिपुष्टता अभिवर्द्धन एवं स्वास्थ्य रक्षा की समग्र शिक्षा दी जाये वरन् यह भी सिखाया जाये कि ब्रह्मचर्य का शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य पर कैसा जादू भरा असर पड़ता है। चिन्ता, निराशा, भय, कायरता, लोभ, कृपणता, छल एवं दुष्टता आदि मनोविकारों के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव से यदि जन साधारण को भली-भाँति परिचित कराया जा सके तो लोग बीमारी से बचने के लिए सदाचरण की रीति-नीति अपनाकर एक समय सुविकसित समाज की रचना में योगदान देंगे।
स्वास्थ्य सम्बन्धी समुचित जानकारी न होने से स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध सभी को अल्पायु और रुग्णता का कष्ट सहना पड़ता है। स्वास्थ्य संरक्षण के सर्वतोमुखी शिक्षण के साथ जुड़ा हुआ व्यायाम आन्दोलन चलाने के लिए लोक-सेवी कार्यकर्ता यदि आगे आयें और उसकी सुव्यवस्थित योजना बनायें तो निस्संदेह वे मानव जाति की एक महती सेवा कर सकने में समर्थ हो सकते हैं।
अध्यापक अपने पद, गौरव और उत्तरदायित्व को निबाहें
अध्यापक का पद, गौरव और उत्तरदायित्व-आजीविका के लिए नौकरी करने वाले साधारण कर्मचारियों से कहीं ऊँचा है। भले ही उसे निर्वाह के लिए वेतन लेना पड़ता हो पर जिस प्रकार अन्य वेतनभोगी कर्मचारी सामने प्रस्तुत किये गये काम को निपटाकर छुट्टी पा लेते हैं उतने मात्र से अध्यापक का काम नहीं चल सकता। उसे अपने पद के साथ जुड़े हुए उस उत्तरदायित्व को समझना चाहिए कि बालकों का मानसिक स्तर, उनका भावी चरित्र और उस पर निर्धारित राष्ट्र का भविष्य निर्माण करना है।
निस्संदेह माता-पिता अन्य अभिभावकों की तरह अध्यापक का भी बालकों के निर्माण में बहुत बड़ा हाथ होता है। अभिभावक आमतौर से जन्म देते, भरण-पोषण की व्यवस्था करते तथा लाड़-चाव ही दे पाते हैं। वे बच्चों की विवाह-शादी, आजीविका जैसे साधन जुटाने तक ही सीमित रह जाते हैं क्योंकि अधिकांश अभिभावक उस ज्ञान और विधान से अपरिचित ही होते हैं जिसके आधार पर बालकों की मनोभूमि तथा प्रवृत्तियों का विकास सुसंस्कारिता की दिशा में किया जा सकना सम्भव होता है। इसी कमी की पूर्ति अध्यापक के जिम्मे आती है। छात्र के रूप में विद्यालय में प्रवेश करता हुआ बालक है। वहाँ उसे सहपाठियों के रूप में एक नया समाज मिलता है और अध्यापक के रूप में एक नया मार्गदर्शक। इस वातावरण का उसके गुण, कर्म, स्वभाव पर इतना अधिक प्रभाव पड़ता है जितना घर-परिवार का भी नहीं पड़ा था। यों पारिवारिक संस्कारों का महत्त्व भी कम नहीं है पर यह स्वीकार किया ही जाना चाहिए कि विद्यालय, शिक्षा पद्धति एवं अध्यापक की रीति-नीति की महत्ता उससे अधिक ही है कम नहीं।
बालकों का व्यक्तित्व ढालने में अध्यापकों के व्यक्तित्व प्रभाव एवं प्रयत्नों का भारी योगदान रहता है। प्राचीन का भरत इसीलिए देवोपम व्यक्तियों की शिक्षा और शिक्षण व्यवस्था ऋषियों के हाथ में थी। राष्ट्र का निर्माण शिक्षण द्वारा ही सम्भव है। आज का बालक ही कल के नागरिक, व्यवस्थापक और नेता होते हैं। जिस ढाँचे में उन्हें ढाला जायेगा कुछ दिनों बाद राष्ट्र का स्वरूप वैसा ही बन जायेगा। व्यक्तियों का समूह ही तो राष्ट्र है। इसमें से शिक्षकों का महत्त्व और अधिक है। शिक्षकों की विचारणा एवं रीति-नीति के अनुसार ही राष्ट्र बनते और बिगड़ते हैं। इस तथ्य को सदा से समझा जाता रहा है। हिटलर ने जर्मनी को फासिस्ट बनाने के लिए शिक्षा पद्धति को प्रधान माध्यम बनाया था। इटली में भी मुसोलिनी ने यही किया था। रूस और चीन के नागरिकों में जो अटूट निष्ठा साम्यवाद के प्रति पाई जाती है उसका कारण उनकी शिक्षा प्रणाली में ही देखा जा सकता है। जापान की समृद्धि और सुव्यवस्था का श्रेय वहाँ के सुशिक्षितों को ही दिया जाना चाहिए।
अपना देश एक हजार वर्ष की राजनैतिक गुलामी से अभी-अभी मुक्त होकर उठा है। दासता एक अभिशाप है जो पराधीन जातियों के नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक स्तर को बुरी तरह चकनाचूर करके रख देती है। अपने देश को दुर्भाग्य में लम्बे समय से पिसना पड़ा है। अस्तु, वैयक्तिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में अगणित दोष-दुर्गुणों का बुरी तरह समावेश हो गया, इन्हें ज्यों का त्यों पड़ा रहने दिया जाये तो राजनैतिक स्वतन्त्रता का काई लाभ न मिल सकेगा। दुर्गुणी समाज अपने ही अनाचार से संत्रस्त रहकर पतन के गर्त में गिरता है और आये दिन विविध विधि शोक-संताप भोगता है। इस विभीषिका से बचाव केवल सुशिक्षण द्वारा ही सम्भव है और वह आदि से अन्त तक शिक्षक का पद गौरव और महत्त्व की दृष्टि से अत्यधिक ऊँचा माना जाता रहा है। उसे ‘गुरु’ की पदवी दी गई है जो जनसम्मान की दृष्टि से सर्वोच्च कही जा सकती है।
इन तथ्यों को अध्यापक वर्ग स्वीकार करे तभी काम चलेगा। उसे नौकरी की दृष्टि से सौंपे गये सरकारी कार्यभार के अतिरिक्त अपने पद की गरिमा के अनुरूप अपने व्यक्तित्व को ढालने, गतिविधियाँ अपनाने तथा छात्रों की प्रेम-पिपासा तथा जिज्ञासाओं की भूख पूरी करने के लिए अपने को एक साधक की तरह विनिर्मित करना चाहिए। इससे कम में वह अपने और अपने पद का गौरव अक्षुण्ण न रख सकेगा। वेतन मात्र के लिए श्रम करने वाले, कमजोर और गैर जिम्मेदार मजदूरों की पंक्ति में यदि वे भी जा बैठे तो समझना चाहिए कि राष्ट्र का भविष्य अन्धकारमय ही बना रहेगा और कहीं उन्होंने अपने अवांछनीय दोष-दुर्गुणों की मात्रा बढ़ा ली तब तो समझना चाहिए कि पीढ़ियों का सर्वनाश होकर ही रहेगा।
दुर्भाग्य से अपने देश में शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण के तथ्य को नहीं समझा गया और अँग्रेजों ने काले साहब एवं किरानी लार्ड ढालने की जो शिक्षा पद्धति चलाई थी उसे ही छाती से चिपकाए रखा गया है। व्यक्ति और समाज के नये निर्माण के लिए जिस प्रखर चेतना समुन्नत शिक्षा पद्धति की जरूरत थी और उसके उपयुक्त जिस प्रकार के शिक्षक ढाले जाने थे उसके लिए कुछ ठोस काम नहीं हुआ। पढ़ाई का लँगड़ा-लूला ढर्रा भी चल रहा है। विद्यालयों में से निकलने वाले छात्र कोई उमंग या दिशा लेकर नहीं निकलते वरन् निराशा और आक्रोश के साथ ही शिक्षा की निरर्थकता और भविष्य की अनिश्चितता का आँकते हैं। उनकी यह घुटन विविध-विधि उच्छृंखलताओं के रूप में फूटती हम पग-पग पर देखते हैं और कड़ुवे-मीठे शब्दों में उनकी भर्त्सना करते हैं पर इस पारस्परिक विवाद-विषाद की चर्चा बनाये रखने से कुछ काम नहीं चलेगा। समस्या का हल तो प्रयत्नों से होता है। सरकार अपना कर्तव्य पालन करे तो इसका अर्थ यह नहीं कि सर्वसाधारण को हाथ पर हाथ रखे ही बैठा रहना चाहिए। इस सन्दर्भ में सबसे प्रमुख और सबसे पवित्र कर्तव्य अध्यापक वर्ग का है। उसे अपने पद और उत्तरदायित्व को वहन करने के लिए स्वेच्छापूर्वक आने चाहिए। वे चाहें तो व्यक्तिगत रूप से भी इतना कुछ कर सकते हैं जो राष्ट्र निर्माण के महत्त्वपूर्ण योगदान की तरह सराहा जा सके। यदि वे सच्चे मन से भावी नागरिकों की मनोदशा, चरित्रनिष्ठा एवं लोकसेवा जैसी सत्प्रवृत्तियों की ओर मोड़ने का संकल्प लें और तदनुरूप गतिविधियाँ अपनायें तो शिक्षा पद्धति कैसी ही क्यों न बनी रहे-असुविधाएँ कितनी ही क्यों न हों-अपनी अंतःप्रेरणा और कर्मनिष्ठा के बल पर इतना कर सकते हैं जिससे अन्धकार में प्रकाश की किरणें फूटती देखी जा सकें। अध्यापक के महान पद की माँग है कि प्रत्येक शिक्षक को चरित्रवान और उत्कृष्ट व्यक्तित्व का होना चाहिए। उनका व्यक्तिगत जीवन पवित्र, निर्दोष और दुर्गुणों से रहित होना चाहिए। इसके बिना छात्रों पर क्या किसी पर भी उनकी छाप न पड़ेगी और सम्मान न मिलेगा। साँचे में खिलौने ढाले जाते हैं उसी प्रकार चरित्रवान अध्यापक ही सच्चरित्र छात्रों का निर्माण कर सकते हैं। यों व्यक्तिगत दोष-गुण सभी को दूर करने चाहिए पर क्योंकि उनके आचरण रहन-सहन, वेश-भूषा आदि की सीधी छाप छात्रों पर पड़ेगी। उन्हें ऐसे वेष विन्यास नहीं बनाना चाहिए जो उनके पद की गरिमा को घटाये और बालकों को भी उद्धत अनुकरण करने की बुरी प्रेरणा दे।
मिठास, शिष्टाचार, आत्मीयता, सज्जनता, उदारता, और प्रेम भरा व्यवहार करने का अभ्यास उन्हें करना ही चाहिए। बालक छोटे हैं इसलिए उनके साथ अशिष्ट अथवा कर्कश व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। सद्व्यवहार की छाप सभी पर पड़ती है। बालकों के कोमल मन पर तो उसकी छाप और गहरी पड़ती हैं। इसे पूरी ध्यान में रखा जाये। बच्चों का निर्माण करने के लिए पहले अपने को ढालना चाहिए। उपदेश नहीं चरित्र ही प्रभाव डालता है। इसलिए अध्यापकों को आत्म-चिन्तन आत्म-सुधार और आत्म-निर्माण के लिए पूरा प्रयत्न करना चाहिए।
पाठ्य पुस्तकों में जो कुछ लिखा है उसी की उचित, बुद्धिसंगत और भावनापूर्ण व्याख्या करके इस प्रकार के निष्कर्ष समझाया जा सकता है कि शिक्षार्थी पर चरित्रवान, उदार, शिष्ट, सज्जन और सेवाभावी बनने की छाप पड़े। यों इस प्रकार का शिक्षण भी एक कला है पर उसे हर भावनाशील अध्यापक कुछ दिन में स्वयं ही अपने भीतर से विकसित कर सकता है।
प्रश्र-
(१) ‘‘अध्यापक का दायित्व केवल शिक्षा देना ही नहीं है।’’ इस कथन की पुष्टि करते हुए दर्शाइए कि अध्यापक के प्रमुख कर्तव्य क्या हैं? (२) छात्रों के गुण, कर्म, स्वभाव पर विद्यालय का प्रभाव सर्वाधिक क्यों होता है? (३) प्राचीनकाल में शिक्षा पद्धति किन लोगों के हाथ में थी? उससे क्या लाभ हुआ? (४) शिक्षक को राष्ट्र निर्माता क्यों कहा जाता है? (५) अध्यापकों के प्रमुख कर्तव्य बताइये? (६) अध्यापक में क्या-क्या गुण होना चाहिए? (७) अध्यापक का रहन-सहन ‘सादा जीवन उच्च विचार ’पर आधारित क्यों होना चाहिए? (८) उपदेश नहीं चरित्र का क्या प्रभाव पड़ता है-सिद्ध करें? (९) ‘आत्म-चिन्तन’ ‘आत्म-सुधार’ एवं ‘आत्म-निर्माण’ से क्या समझते हो? (१०) अध्यापन कला के आवश्यक तत्त्व बताइए।
छात्र अपने भविष्य का निर्माण आप करें
प्रत्येक छात्र को यह अनुभव करना चाहिए कि वह एक ऐसी अवधि में होकर गुजर रहा है जो उसके भाग्य और भविष्य का निर्माण करने की निर्णायक भूमिका अदा करेगी। मनुष्य शरीर की कोई महत्ता नहीं वह तो पशु-पक्षियों से भी अनेक बातों से पिछड़ा हुआ है। व्यक्ति की सारी गरिमा उसके गुण, कर्म, स्वभाव पर निर्भर है। क्या बाह्य-क्या आंतरिक दोनों ही क्षेत्र की प्रगति इस बात पर निर्भर है कि किसी का व्यक्तित्व किस स्तर का है। धन, विद्या, सम्मान, पर, स्वास्थ्य, मित्रता जैसी विभूतियाँ किसी को अनायास ही नहीं मिल जातीं। उसके लिए उपयुक्त साधन और तरीके प्रयुक्त करने पड़ते हैं और यह कर सकना उसी के लिए संभव है, जिसने अपना व्यक्तित्व और गुण, कर्म, स्वभाव सही ढंग से ढाला और विनिर्मित किया है। सफलताओं की इच्छा सभी करते हैं पर इन्हें पा सकना हर किसी के लिए नहीं केवल गुणवान व्यक्तियों के लिए ही सम्भव होता है।
व्यक्तित्व ढालने का सबसे उपयुक्त और सही समय वह है जिसे अध्ययन काल कहते हैं। किशोरावस्था और उभरती आयु में जोश रहता है। शरीर में सामर्थ्य और मस्तिष्क में धारण-शक्ति का बाहुल्य रहता है और भी कई प्रकृति प्रदत्त ऐसा इस अवधि में ढाला जा सकता है। आयु जैसी बढ़ती जाती है स्वभाव संस्कार परिपक्व होने लगते हैं फिर उनका बदलना कठिन पड़ता है। हरी लकड़ी को किधर भी मोड़ा जा सकता है सूखी से नहीं। उभरती आयु गीली मिट्टी या हरी लकड़ी की तरह जिसका उपयोग उस तरह की ढलाई से किया जाना चाहिए, जिससे भविष्य को उज्ज्वल बनाने की सम्भावना स्पष्ट होने लगे।
जोश अधिक और होश कम रहने के कारण उठती उम्र में किसी भी आकर्षण की ओर खिंच जाना सरल होता है। कहना न होगा की अवांछनीय प्रवृत्तियों में आकर्षण और मनोरंजन अधिक है। पानी का स्वभाव नीचे की ओर गिरना है। मनोवृत्तियाँ भी पानी की तरह अधोगामी बनने के लिए सहज ही तैयार हो जाती हैं, फिर जीवन भर पिण्ड नहीं छोड़तीं। कहना न होगा कि दुर्गुणी व्यक्ति अपने लिए और सम्बन्धित लोगों के लिए शोक संताप भरी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता हुआ अभिशाप जैसा नारकीय का सम्पर्क बना रहे और सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों को अभ्यास किया जाता रहे तो उसका प्रभाव सारे जीवन भर बना रहेगा और सुख-शान्ति की संभावनाएँ सदैव साकार होती रहेंगी।
मित्रों का आकर्षण यों सदा ही रहता है पर किशोरावस्था में उसके प्रति खिंचाव अपनी चरम सीमा पर रहता है। मित्रता बुरी नहीं-अच्छे साथी मिलें तो विकास एवं प्रसन्नता की वृद्धि में सहायता ही मिलती है। पर दुर्भाग्य से आज आवारा और दुर्गुणी लड़के ही मित्रता के जाल में फँसकर अच्छे लड़कों को अपने जैसा बना लेने का जाल फैलाते हैं। जो स्वयं पढ़ते-लिखते नहीं, खुराफातों में घूमते हैं। उन्हें अपनी आवारागर्दी के लिए साथियों की जरूरत पड़ती है। वे चालाक लड़के मीठी बातें करके सब्जबाग दिखाकर भले लड़कों फँसाते हैं और धीरे-धीरे उन्हें आवारागर्दी के अनेक हथकण्डे सिखाकर ऐसा बना देते हैं। जो शिक्षा से वंचित रह जायें, स्वास्थ्य खो दें, स्वभाव बिगाड़ लें और दोस्तों के साथ फिरने से पूर्व हजार बार सोचें कि कहीं उसे आवारागर्दी की ओर तो घसीटा नहीं जा रहा हैं। यों आज की परिस्थिति में अधिक उपयुक्त यही है कि बिना गहरी दोस्ती के काम चलाया जाये और हर साथी से सामान्य शिष्टाचार और मेल-जोल उस सीमा तक रखा जाए जिसमें समय की बर्बादी और किसी खतरे की आशंका न हो।
स्वास्थ्य-संरक्षण के लिए यही समय सबसे अधिक उपयुक्त है। आहार-विहार का, सोने-जागने का, यदि ठीक ध्यान रखा जाये तो तन्दुरुस्त ऐसी बन जायेगी जो जीवन भर साथ दे। इस सन्दर्भ में कामुकता के खतरे को पूरी तरह ध्यान में रखा जाना चाहिए। गन्दे फिल्म, गन्दे गाने, गन्दे उपन्यास, गन्दे मित्र तथा गन्दे विचार चित्त को उसी तरह उद्विग्न कर देते हैं और उन घिनौने कार्यों को प्रेरणा देते हैं जिससे शरीर और मस्तिष्क खोखला हो जाए और जवानी में बुढ़ापा घेरे। कच्ची उम्र में इस तरह का घुन लग जाने से देह जिन्दगी भर के लिए रोगों का शिकार बन जाती हैं। और गृहस्थ जीवन भार बन जाता है। इसलिए इन दिनों ब्रह्मचर्य और सद्विचारों के बारे में पूरी सतर्कता रखी जाये और अश्लील परिस्थिति से ऐसे बचा जाये जैसे साँप, बिच्छू आग या जहर से बचा जाता है।
अवज्ञा, उच्छृंखलता, अशिष्टता और अनुशासनहीनता जैसे दुर्गुण, साहसिकता की भयंकर विकृतियाँ जिनके कारण दूसरों को चोट ही नहीं पहुँचती अपना स्वभाव भी ऐसा निष्कृष्ट बना जाता है जिससे कोई सृजनात्मक कार्य नहीं बन सकता। साहस अच्छा गुण है-अनीति का प्रतिरोध करने की हिम्मत भी होनी चाहिए। यह साहसिकता उपयुक्त मर्यादाओं एवं नागरिक कर्तव्यों के उल्लंघन में लग पड़े तो यह अशिष्ट, असज्जन, अशालीन, आतंकवादी आचरण अपने सम्पर्क में लोगों का कुछ भी भला न कर सकेगा। भलाई सृजनात्मक, सज्जनोचित, सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने में है। विकास की सम्भावनाएँ सज्जनोचित प्रवृत्ति में है। उद्दण्ड मनुष्य किसी को डरा भर सकता है। प्रेममय सहयोग पाने से उन्हें वंचित ही रहना पड़ता है अन्ततः वह कमजोरी उन्हें सदा असफल और मनुष्य ही बनाये रखती है। प्रगति के स्वप्न देखने वाले हर दूरदर्शी युवक को शालीनता की सज्जनोचित आदतें ही अपने में पड़ने और बढ़ने देने के लिए सतर्क रहना चाहिए।
शिक्षा का ऊँचा स्तर ही व्यक्ति की भौतिक प्रगति का इन दिनों प्रमुख आधार है। अशिक्षित या स्वल्प शिक्षित व्यक्ति शारीरिक श्रम भर से थोड़ी आजीविका कमा सकता है। ऊँचे पर और कार्य कर सकने की योग्यता तो ऊँची शिक्षा के आधार पर ही मिलती है। व्यक्तिगत या स्वल्प शिक्षित व्यक्ति शारीरिक श्रम भर से थोड़ी आजीविका कमा सकता है। ऊँचे पद और कार्य कर सकने की योग्यता तो ऊँची शिक्षा के आधार पर ही मिलती है। व्यक्तिगत अर्थ लाभ या सम्मान प्राप्ति के लिए अथवा लोक-मंगल के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकने के लिए ऊँची शिक्षा आवश्यक है। विचारशक्ति और व्यक्तित्व के निखार की दृष्टि से भी शिक्षा के महत्त्व और महात्म्य को ठीक तरह समझा जाये तो उसके लिए अधिक तत्परता, मेहनत एवं एकाग्रता कुछ कठिन न रह जायेगी और यह स्पष्ट है कि परिश्रमी एवं दिलचस्पी लेने वाले मन्द बुद्धि लड़के अस्त-व्यस्त तीव्र बुद्धि लड़कों से बाजी मार ले जाते हैं।
घर के कामों में हाथ बँटाना, आत्मनिर्भरता विकसित करने के लिए अपने बहुत से काम निपटा लेना, कम खर्च में काम चलाना, समय का विभाजन करके नियत दिनचर्या के अनुरूप चलना, समय तनिक भी बर्बाद न होने देना, आवेश और चिड़चिड़ेपन से बचकर शान्त, सन्तुलित मस्तिष्क बनाये रहना, सत्साहित्य के स्वाध्याय की आदत डालना, कठोर परिश्रम की आदत डालना और हँसमुख, शिष्ट एवं विनम्र रहना युवावस्था को अलंकृत करने वाले सद्गुण हैं। उस स्तर की शालीनता, सज्जनता का उपार्जन अभ्यास आदि नवयुवक करने लगें तो उनके भीतर अनेक ऐसी विशेषताएँ उगती चली आवेंगी जिनके द्वारा उनका भविष्य स्वर्णिम और शानदार बन सके।
प्रश्र-
(१) व्यक्ति की गरिमा किस बात पर निर्भर है? (२) सफलता प्राप्त करने के उपाय? (३) व्यक्ति ढालने के उपयुक्त समय कौन-सा है व क्यों? (४) उठती उम्र में किसी भी आकर्षण की ओर खिंच जाना सरल क्यों होता है? (५) मित्रता का स्वर्णिम सूत्र क्या है? (६) विद्यार्थियों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन क्यों आवश्यक है? (७) आतंकवादी असुर प्रवृत्ति किसे कहते हैं? (८) युवावस्था को अलंकृत करने वाले सद्गुण कौन-कौन से हैं? (९) युवकों को अपना स्वर्णिम एवं शानदार भविष्य बनाने के लिए क्या करना चाहिए?
नवयुवक सज्जनता और शालीनता सीखें
जीवन निर्माण का महत्त्वपूर्ण समय १२ से लेकर २० वर्ष तक आयु तक रहने वाले किशोर अवस्था है। इस अवधि में मनुष्य गीली मिट्टी और सूखी लकड़ी की तरह जैसा उठती उम्र में बन गया, प्रायः वैसा ही अंत तक बना रहता है। जो बूढ़े हो चले उन ढलती आयु के लोगों के दिन करीब हैं, उनके दोष दुर्गुणों को सहन भी किया जा सकता है और उपेक्षा की जा सकती है, पर नई पीढ़ी के विकासवान बालकों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। पर नई पीढ़ी के विकासवान बालकों की उपेक्षा नहीं हो सकती। अगले दिनों महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ उन्हें ही सम्पादित करनी हैं। नेतृत्व उन्हीं के कन्धों पर आने वाला है। वे जैसे भी कुछ भले-बुरे होंगे उसी के अनुरूप समाज की भावी सम्भावनाएँ बनेंगी। यदि हम निकट भविष्य में अपने समाज को समुचित सुसंस्कृत देखना चाहते हैं तो करना पड़ेगा।
कहना न होगा कि समस्त श्री, समृद्धि, प्रगति और शान्ति का सद्भाव मनुष्य के सद्गुणों पर अवलम्बित है। दुर्गुणी व्यक्ति हाथ में आई हुई, उत्तराधिकार में मिली हुई समृद्धियों को गँवा बैठते हैं और सद्गुणी गई-गुजरी परिस्थितियों में रहते हुए भी प्रगति के हजार मार्ग प्राप्त कर लेते हैं। सद्गुणी की विभूतियाँ ही व्यक्तित्व को प्रतिभावान बनानी हैं और प्रखर व्यक्तित्व ही हर क्षेत्र में सफलताएँ वरण करते चले जाते हैं। विद्या, धन और स्वास्थ्य के आधार पर उन्नति करने की बात कही जाती है पर उनसे भी बढ़कर प्रगति के आधार पर सद्गुण हैं। दुर्गुणी व्यक्ति अपने कौशल के आधार पर कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त कर भी लें तो सुरक्षित नहीं रख सकता। इतना ही नहीं वह घमण्ड में उद्धत आचरण करके अपनी तथा दूसरों की शांति नष्ट करना है, अपने को तथा अपने समीपवर्ती समाज को संकट में डालता है।
उठती आयु में सबसे अधिक उपार्जन सद्गुणों का ही किया जाना चाहिए। विद्या पढ़ी जाए सो ठीक है, खेल-कूद, व्यायाम आदि के द्वारा स्वास्थ्य बढ़ाया जाये, सो भी अच्छी बात है, विभिन्न कला-कौशल और चातुर्य सीखे जायें, वह भी संतोष की बात है पर सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि इस आयु में जितनी अधिक सतर्कता और तत्परतापूर्वक सद्गुणों का अभ्यास किया जा सके, करना चाहिए। एक तराजू में एक ओर विद्या, बुद्धि, बल और धन आदि की सम्पत्तियाँ रखी जायें और दूसरे पलड़े में सद्गुण तो निश्चय ही यह दूसरा पलड़ा अधिक भारी और अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होगा। दुर्गुणी व्यक्ति साक्षात संकट स्वरूप है। वह अपने लिए पग-पग पर काँटे खड़े करेगा, अपने परिवार को त्रास देगा और समाज में अगणित उलझनें पैदा करेगा। उसका उपार्जन चाहे कितना ही बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो, कुकर्म बढ़ाने और विक्षोभ उत्पन्न करने वाले मार्ग में ही खर्च होगा। ऐसे मनुष्य अपयश, घृणा, द्वेष, निन्दा भर्त्सना से तिरस्कृत होते हुए अन्ततः नारकीय यन्त्रणाएँ सहते हैं।
अभिभावकों को केवल इतना ही नहीं सोचना चाहिए कि उनके बच्चे कमाऊ, चतुर और कोई पदाधिकारी बन जायें। अधिक ध्यान इस बात की रखनी चाहिए कि बच्चे सच्चरित्र, सद्गुणी, सज्जन एवं संस्कारवान बनें। यहीं उपलब्धि उनके जीवन की सबसे बड़ी लाभदायक सम्पदा सिद्ध होगी। इसी के आधार पर वे अपना जीवन सुखी एवं समुन्नत बना सकेंगे। सच्चा प्यार इसी को कहते हैं। वे अभिभावक ही अपने कर्तव्य पालन में सफल कहे जाएँगे, जिन्होंने अपने बच्चों को सद्गुणी बनाने में कुछ उठा नहीं रखा। सच्चे अध्यापक वे हैं, जो खेल, गणित, भूगोल, इतिहास आदि किताबी ज्ञान देकर ही निवृत्त नहीं हो जाते वरन् छात्रों की गतिविधियों में सद्गुणों की मात्रा बढ़ाने में संलग्न हैं।
आज कुछ ऐसी गन्दी हवा चली है, जिसने नई पीढ़ी को उद्धत एवं उच्छृंखल बनाने की विभीषिका खड़ी कर दी है। हमारे होनहार बच्चों में से अधिकांश में उच्छृंखलता, अवज्ञा, उद्दण्डता, अनुशासनहीनता की मात्रा बहुत बढ़ती चली जाती है, यह चिन्ता की बात है। परस्पर छुरेबाजी, अध्यापकों की अवज्ञा, परीक्षा में नकल, बिना टिकट यात्रा, लड़कियों को छेड़ना, सिनेमा की शौकीनी, शृंगार-सजाव की फिजूलखर्ची उद्धत आचरण एवं वार्तालाप में विनय तथा शिष्टता का अभाव आदि कितने ही दुर्गुण अपने होनहार बालकों में देखते हैं तो भारी चिन्ता होती है कि इतने उथले व्यक्तित्व को लेकर वे किस प्रकार अपने भविष्य को उज्ज्वल और अगले दिनों जो जिम्मेदारी उनके कंधे पर आने वाली है, उनका निर्वाह किस प्रकार कर पायेंगे।
जो नवयुवक अपना भला-बुरा समझने की स्थिति में हैं, उन्हें गिरह बाँध लेनी चाहिए कि मध्य समाज के जिम्मेदार नागरिक हमेशा अपने व्यक्तित्व को तेजस्वी बनाने के लिए सद्गुणों को अपने स्वभाव में निरंतर सम्मिलित करते रहते हैं। शिष्टता ही लोकप्रिय बनाती है। अनुशासनप्रिय व्यक्ति के अनुशासन में ही दूसरे लोग रहते हैं। सज्जनों को ही श्रद्धा मिलती है। सद्गुणी दूसरों का हृदय जीतते हैं और दसों दिशाओं में उन पर स्नेह, सहयोग बरसता है। इस राज-मार्ग को जिसने अपनाया उसे ही मनस्वी, तेजस्वी और यशस्वी बनने का अवसर मिला है और जो दुष्टता के दुर्गुणों में ग्रस्त हो गये, वे थोड़े समय औरों को आतंकित करके, क्षणिक रौब-दाब जमा सकते हैं और डरा-धमका कर कुछ उल्लू सीधा कर सकते हैं, पर यह तनिक-सी सफलता अन्ततः बहुत महँगी और भारी पड़ती हैं। लोगों की निगाह में जब व्यक्तित्व गिर गया और गुण्डा या उपद्रवी माना जाने लगा तो समझना चाहिए की सम्मान और सहयोग की स्थिति समाप्त हो गई। जीवन में प्रगति और शान्ति के लिए दूसरों की सद्भावना और सहायता की जरूरत होती है। पर यह दोनों ही अनुदान केवल सज्जनों को मिलते हैं। आतंकवादी और उद्धत व्यक्ति किसी के हृदय में अपने लिए स्थान न बना सकेंगे, उनके लिए सबके भीतर घृणा और अविश्वास भरा रहता है। ऐसे व्यक्ति जीवन में कोई ऊँचा स्थान प्राप्त नहीं कर सकता और न उन्हें कोई बड़ी सफलता ही मिलती है।
हमारे नवयुवकों को समझना चाहिए कि ध्वंसात्मक दुष्प्रवृत्तियों को, अशिष्टता एवं उच्छृंखलता को अपना लेना अति सरल है। छिछोरा साथी अथवा और उद्धत अगुआ लोग उठती आयु के बालकों को आसानी से गुमराह कर सकते हैं पर शालीनता और सज्जनता का अभ्यास बनाना उनके बस की बात नहीं। इसलिए हेय व्यक्तित्व के जोशीले और उच्छृंखल लोगों को अपने ऊपर हावी ही नहीं होने देना चाहिए। उनके प्रभाव और सान्निध्य से दूर रहना चाहिए, अन्यथा उनकी मैत्री अपने को उच्छृंखल बना देगी और वह स्थिति पैदा कर देगी, जिसमें अपनी निज की और दूसरों की आँखों में अपना व्यक्तित्व गया-गुजरा, ओछा, कमीना, और निकृष्ट स्तर का बन जाये। इस स्थिति में जो पड़ा उसके सौभाग्य का सूर्य एवं उज्ज्वल भविष्य अस्त हो गया ही समझना चाहिए।
सभ्य, समुन्नत देशों के नवयुवक अपने राष्ट्रों की स्थिरता एवं प्रगति में भारी योगदान दे रहे हैं। उनकी प्रवृत्तियाँ रचनात्मक दिशा में लगी हैं। अध्ययन में गम्भीर रुचि लेकर वे अपनी योग्यता बढ़ाते हैं, ताकि अवसर आने पर अपनी प्रतिभा को किसी भी प्रतिभा को किसी भी कसौटी पर खरी सिद्ध कर सकें।
एक हम हैं कि जिनके बच्चे हर कहीं सिर दर्द होते हैं। अभिभावक रुष्ट, अध्यापक दुःखी, साथी क्षुब्ध, स्वयं उद्विग्न। इन सबका एक ही कारण है-दुर्गुणों की मात्रा बढ़ जाना। बुखार बढ़ने की तरह मर्यादाओं का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति का बढ़ना भी खतरनाक है। अपने बालकों के उद्धत आचरण करते रहें यह स्थिति हम सबके लिए लज्जाजनक है।
जो भी हो हमें अपने बच्चों को समझाने और सिखाने का हर कडुआ-मीठा उपाय करना चाहिए कि वे सज्जन, शालीन, परिश्रमी और सत्पथगामी बनें, इसी में उनका और हम सबका कल्याण है।
प्रश्न-
(१) निकट भविष्य में यदि हमें अपने समाज को समुन्नत देखना है तो हमें क्या करना चाहिए और किस तरह करना चाहिए? (२) मनुष्य की प्रगति किन गुणों पर अवलम्बित है तथा दुर्गुणी व्यक्ति किस प्रकार भिन्न कहे जा सकते हैं? (३) उठती आयु में हमें सद्गुणों के साथ-साथ और किन-किन गुणों को हस्तगत करना चाहिए? (४) सद्गुण और अन्य गुणों में कौन-सा गुण श्रेष्ठ है? व क्यों? (५) दुर्गुणी व्यक्ति अपने स्वतः के लिए किस प्रकार हानिकारक है? (६) सच्चे अध्यापक और सच्चे अभिभावक कौन कहे जा सकते हैं? (७) क्या आप बता सकते है कि आज के होनहार बालकों में कौन-से दुर्गुण अधिक पाये जाते हैं? (८) मर्यादा उल्लंघन में क्या हानियाँ है? (९) आज के युवकों में अनुशासनहीनता क्यों है उन्हें कैसे सभ्य नागरिक बनाया जा सकता है?
उदार सहकारिता से हमारी उलझनें सुलझेंगी
अकेला व्यक्ति कितना ही प्रतिभावान क्यों न हो, अपने ही बल-बूते पर बहुत कुछ नहीं कर सकता। हाथी, सिंह, घोड़ा, गुरिल्ला आदि बलवान जानवर भी अपनी शक्ति से केवल अपना निर्वाह ही कर सकते हैं। समग्र प्रगति तो हमेशा सम्मिलित शक्ति से ही होती है। मनुष्य ने अन्य जीवों की तुलना में असाधारण प्रगति की है उसका प्रधान कारण उसकी बुद्धिमत्ता ही नहीं, दूरदर्शिता भी है, जिनके आधार पर सहकारिता की शक्ति को उसने पहचाना और मिल-जुलकर काम करने के लिए तैयार हो गया। यदि एकाकी जीवन पर ही उसका विश्वास रहा होता, संयुक्त प्रयत्नों की दिशा में उसकी प्रगति न मुड़ी होती तो सृष्टि के अनेक मानसिक क्षमता सम्पन्न प्राणियों की तरह मनुष्य भी केवल अपने शरीर निर्वाह मात्र की समस्याएँ सुलझाने तक सीमित रह गया होता।
सहकारिता की प्रवृत्ति में आध्यात्मिक आदर्श जुड़े हुए हैं। मिल-जुलकर कमाना, मिल-जुलकर खाना, मिल-जुलकर पारस्परिक समस्याओं को सुलझाना और मिल-जुलकर दुःख-सुख के भार को बाँट लेना, यह उदार हृदय अपनेपन को व्यापक बना सकने वाले सद्भाव सम्पन्न मनुष्यों के लिए ही संभव है। आध्यात्मिक आदर्श हमें इसी दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रकाश देते और प्रोत्साहित करते हैं। अपनी समस्याओं में उलझा, अपनी ही प्रगति और सुख-सुविधा चाहने वाला, आप ही कमाने और आप ही खाने वाला, अपनी ही चिन्ता में डूबा रहने वाला व्यक्ति संस्कृत में ‘कृपण’ और लौकिक भाषा ‘स्वार्थी’ कहा जाता है। स्वार्थी व्यक्ति कितना ही सम्पन्न क्यों न हो, लोगों की दृष्टि में घृणास्पद ही बना रहेगा।
सम्मिलित शक्ति का महत्त्व हम सभी जानते हैं। कमजोर सींक एकाकी होने पर अति दुर्बल होती है, जरा-से आघात से टूट सकती है। पर उन्हें इकट्ठा करके बनाई गई बुहारी झाड़ने-बुहारने का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध करती है। सूत के कच्चे धागे क्या सामर्थ्य रखते हैं? पर जब वे इकट्ठे हो जाते हैं, तो इतना मजबूत रस्सा बन जाता है, जो हाथी को बाँध सके। बूँद इकट्ठी होने से समुद्र बना है। अणुओं का पारस्परिक संगठन विशालकाय पर्वत के रूप में दृष्टिगोचर होता है। एक दिशा में साथ-साथ उड़ने वाली टिड्डियाँ गजब के करतब दिखाती हैं। मधुमक्खियों की सहकारिता शहद का भण्डार जमा करने में सफल होती है। अनुशासित और संघबद्ध सैनिक आक्रमण शत्रुओं के दाँत खट्टे करते हैं। किन्तु उपरोक्त तत्त्व एकाकी बिखरे पड़े हों, कोई किसी का सहयोग न करे, तो अपनी ढपली अपना राग बेसुरा बजने लगे। आठ कनौजिया नौ चूल्हे की उक्ति जैसा उपहास हो। डेढ़ चावल की अलग खिचड़ी पकाने को प्रयत्न करते हुए किसी को असफलता हाथ लगे।
थोड़े से डाकू मिलकर एक विशाल क्षेत्र की जनता को आतंकित कर सकते हैं, तब सज्जनों का सच्चा सहयोग यदि इकट्ठा किया जा सके तो अपना चमत्कार क्यों न दिखायेगा? सज्जन हमेशा मिटते इसलिए रहे हैं कि वे अपनी व्यक्तिगत उत्कृष्टता मात्र से सन्तुष्ट हो जाते हैं और यह भूल जाते हैं कि सम्मिलित शक्ति का कितना अधिक महत्त्व है। उसके बिना सज्जन भी अधूरी रहती है। सज्जन की परिभाषा में सत्प्रवृत्तियों वाले व्यक्तियों का संघबद्ध होना भी आता है। एकाकी जीवन से जो भी सन्तुष्ट हो जायेगा और अपनी विचारणा तथा गतिविधियों को अपने सीमित दायरे तक अवरुद्ध कर लेगा, वह कोई भी क्यों न हो-असफलता और अभाव को कष्ट सहने के लिए विवश होगा।
मनुष्य की अब तक की वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, शैक्षणिक, आर्थिक, पारिवारिक प्रगति का सारा श्रेय पारस्परिक सहयोग को दिया जा सकता है। यदि एक ने अपनी योग्यता का लाभ दूसरे को न दिया होता और सहयोग का क्रम अपनाया न होता तो हम अभी भी आदिम युग की जंगली दशा में विचरण कर रहे होते। यह तथ्य हम जानते तो हैं पर मानते नहीं। समय आ गया है कि हम संघबद्धता की शक्ति को समझें और वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रगति के लिए उसका उपयोग करें। इस प्रजातंत्र युग में तो यही शक्ति सर्वोपरि है। जन-समूह के गिरोह ने अँग्रेजों को भगा दिया और जन-समर्थन के आधार पर काँग्रेस पार्टी राज्य सिंहासन पर जा विराजी शास्त्रकार ने ‘संघे शक्ति कलौयुगे’ की सूक्ति में वर्तमान युग की सर्वोपरि शक्ति का संगठन को घोषित करके सामयिक तथ्य का ही उद्घाटन किया है।
सहकारिता की प्रवृत्ति हर क्षेत्र में विकसित होनी चाहिए। कृषि, व्यवसाय, उद्योग, उत्पादन जिस सरलता और सफलता के साथ सामूहिक प्रयत्नों से बढ़ सकते हैं उस स्तर की सम्भावना एकाकी प्रयत्नों से कदापि सम्भव नहीं हो सकती। विदेशों में जहाँ श्रम बहुत महँगा है और व्यवसाय के लिए बड़ी पूँजी अपेक्षित होती है, वहाँ सहकारिता के आधार पर ही सारे उद्योग-धन्धे चलते हैं। बड़े-बड़े फर्म, उद्योग और मिल शेयरों के आधार पर चलते हैं। छोटे पैमाने पर मिल शेयरों के आधार पर चलते हैं। छोटे पैमाने पर अब उत्पादन और व्यवसाय का जमाना धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है, जिनके कारण एकाकी प्रयत्न किया गया छुटपुट उत्पादन महँगा पड़ता है और उसकी निकासी स्वल्प प्रयास से छोटे क्षेत्र से सम्भव नहीं हो पाती फलस्वरूप घाटा उठाना पड़ता है। विकल्प में यदि थोड़ी-थोड़ी पूँजी और थोड़े-थोड़े श्रम का एकीकरण कर लिया जाये तो वह क्षमता इस स्तर की हो जायेगी कि पूँजीपतियों के एकाधिकार को चुनौती दी जा सके। लाभ एक व्यक्ति को न मिलकर समूह में मिले, इस प्रायोजन की पूर्ति केवल सहकारिता ही कर सकती है। भारत को कभी समृद्ध-सम्पन्न बनाना होगा तो उसके मूल में सहकारिता की उदीयमान शक्ति ही काम कर रही होगी।
सार्वजनिक क्षेत्र की अगणित समस्याएँ उलझी पड़ी हैं। इन्हें सुलझाने में ब्रह्मास्त्र केवल सहयोग ही सिद्ध होगा। ग्रामीण जीवन में स्वच्छता की समस्या अति विकट है। गन्दगी ने उस प्राकृतिक वातावरण में बसे जनसंकुलों को दुर्गन्ध, घृणा और रुग्णता का घर बना दिया है। खेल-कूदों और व्यायामशालाओं की अभिरुचि घट जाने से शारीरिक और मानसिक गिर गया। अशिक्षा ने हमें पशुवत् बना दिया है। अपराधों और उच्छृंखलता की वृद्धि ने सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है। पूँजीपतियों का शोषण अपने ढंग से चलता है। कष्टों के लिए की गई फरियाद कोई कोई सुनता नहीं। सामाजिक कुरीतियाँ जर्जर बनायें दे रहीं है और अनैतिक दुष्प्रवृत्तियाँ प्रतिरोध के अभाव में आँधी-तूफान की तरह तीव्र होती चली जा रही हैं। इन सब समस्याओं का हल इस बात पर निर्भर है कि लोकमंगल का उद्देश्य आगे रखकर सज्जन प्रकृति के लोग संगठित होते हैं या नहीं? यदि उसमें सहकारिता और सेवाप्रवृत्ति जाग पड़े और थोड़ा-थोड़ा समय, श्रम, तथा धन लोक-कल्याण के लिए नियोजित करने लगें, तो वह स्वयंसेवक सेना चमत्कार उत्पन्न कर सकती है। उपरोक्त स्तर की हर कठिनाई से यह संगठन सहज ही निपट सकता है। शक्ति का प्रदर्शन होने से ही लोग झुक जाते हैं, अक्सर शक्ति प्रयोग करने की आवश्यकता कम ही पड़ती है। आवश्यकता शक्ति के उद्भव की है और इस युग में बहुत करके संगठन पर ही निर्भर है।
हम एक हजार वर्ष की लंबी गुलामी से उठे हैं। इस अंधकार युग ने हमें अगणित बौद्धिक और सामाजिक दुष्प्रवृत्तियों का दास बना दिया है। अतीत का गौरवपूर्ण इतिहास तो है पर उसी अनुपात से हम दुर्दशाग्रस्त हो रहे हैं। यदि किसी को सुधार के लिए दर्द और परिवर्तन के लिए उत्साह उठता हो तो सबसे पहले काम यह हाथ में लेना चाहिए कि सेवाभावी सज्जनों को संगठित कर डालें और उनके सामूहिक सत्प्रयत्नों को हर क्षेत्र में नियोजित करने के लिए प्रेरित करते रहें। युग-निर्माण योजना का यही प्रयत्न है। इन प्रयत्नों का अभीष्ट सहयोग मिल सका तो संगठन और सहकारिता की सम्मिलित शक्ति से हर दिशा में प्रगति और समृद्धि का सत्परिणाम प्रस्तुत किया जा सकता है। उचित यही है कि उदार सहकारिता को अंगीकार करें तथा अपना और समस्त मानव जाति का भला करें।
प्रश्न-
(१) पशु और मानव दोनों की प्रगति अधिक अन्तर क्यों है? सामाजिक आधार पर समझायें। (२) सहकारिता की प्रवृत्ति में आध्यात्मिक आदर्श किस प्रकार जुड़े हुए हैं? (३) स्वार्थी व्यक्ति की परिभाषा कीजिए? (४) किस प्रकार इकाई-इकाई मिलकर एक विशाल समूह का निर्माण करते हैं? उदाहरणों के द्वारा समझाइए। (५) प्रजातंत्र युग में सहकारिता का महत्त्व कहाँ तक है? (६) कृषि, व्यवसाय, उत्पादन, उद्योग आदि में भी सहकारिता का महत्त्व कहाँ तक है? (७) युग निर्माण योजना इस समय सहकारिता का युग स्थापित करने के लिए क्या प्रयत्न कर रही है? (८) सामाजिक शोषण, अशिक्षा आदि सहकारिता के द्वारा किस प्रकार हल हो सकेंगे?
प्रगति के लिए श्रम सम्मान एवं गृह-उद्योगों की आवश्यकता
वह समय चला गया जब एक कमाता था और सारा परिवार आनंद से निर्वाह किया करता था। आसमान को छूने वाली आवश्यकताओं ने हमारा सारा आर्थिक सन्तुलन बिगाड़ कर रख दिया है। अब कोई बिरले ही आसानी से अपना खर्च चला पाते हैं। कइयों की स्थिति तो ऐसी है कि वे बेईमानी के अतिरिक्त कमाई छोड़ दे तो उन्हें पेट पालना कठिन हो जाये। इन परिस्थितियों में हमें अपने आर्थिक स्तर को व्यवस्थित करने के लिए नये सिरे से, नये ढंग से सोचना होगा। कुड़मुड़ाते रहने से नहीं वरन् उन उपायों को शान्त मस्तिष्क से ढूँढ़ना होगा, जिनसे इस अभाव और अशांति भरी परिस्थिति का हल निकाला जा सके।
अब न तो महँगाई कम की जा सकती है और न भोजन व्यवस्था, निवास, शिक्षा, चिकित्सा, आतिथ्य आदि के आवश्यक खर्चे घटाये जा सकते हैं। बेईमानी क्रम व्यापक हो गया तो ठगने वालों को भी ठग बेतरह हैरान करेंगे और जो अतिरिक्त कमाया था वह अतिरिक्त खर्चों में ही चला जायेगा। देश में इतने अधिक साधन नहीं हैं कि वेतन, उत्पादन या व्यवसाय में बहुत लाभ हो सके। चंद भाग्य के सिकन्दरों की बात दूसरी है, सर्वसाधारण के लिए यही परिस्थिति है। ऐसी दशा में आर्थिक स्थिति सम्भालने का एक ही हल दिखता है कि घर का समर्थ और वयस्क व्यक्ति कुछ उपार्जन की बात सोचे और उसका रास्ता निकाले। अब वह समय आ गया है कि जब सब कमायें तो सबका पेट भर सकेगा। एक की कमाई इतनी नहीं हो सकती कि समस्त आवश्यकताएँ ठीक तरी पूर्ण हो सकें।
जापान बहुत ही छोटा देश है पर उसकी समृद्धि संसार के सर्वाेच्च देशों की तुलना में अधिक है। समुद्र के बीच छोटा-सा टापू जहाँ प्राकृतिक साधन बहुत कम हैं। आये दिन भूकम्प आते रहते हैं, जिससे वहाँ के निवासी उनके झटकों को ध्यान रखते हुए लकड़ी के बने हलके मकानों में गुजारा करते हैं। ऐसी विषम परिस्थितियों का देश समृद्धि की चोटी पर पहुँच गया, इसका एक ही कारण है-घर-घर में गृह उद्योगों का प्रसार। जापान में एक भी घर नहीं, जहाँ कोई व्यक्ति खाली बैठा रहता हो। वयस्क पुरुष कल-कारखानों में काम करने जाते हैं और घर पर रहने वाले लोग अपनी सामर्थ्य और सुविधानुसार कुछ कुछ न कुछ कमाते रहते हैं। यह कमाई मिल-जुलकर इतनी हो जाती है कि कारखानों में काम करने वाले वयस्कों की तुलना में कुछ अधिक ही पड़ती है।
इससे कई लाभ होते हैं। बेकारी के समय में निरर्थक विचार और अवांछनीय कार्य करने की जो दुष्प्रवृत्ति पनपती है उसके लिए कोई अवसर नहीं रहता। हर व्यक्ति की कुशलता और क्षमता बढ़ती है, आर्थिक स्थिति सुधरती है और उत्पादन की वृद्धि से राष्ट्रीय समृद्धि में योगदान मिलता है। कहना न होगा कि पैसे की सुविधा रहने से स्वास्थ्य, शिक्षा, विनोद, पुण्य-परमार्थ आदि अनेक दिशाओं में प्रगति कर सकना सम्भव होता है। दरिद्र व्यक्ति को तो पग-पग पर मन मारकर बैठना होता है और उसकी प्रगति के सभी द्वार अवरुद्ध बने रहते हैं।
अपने देश का दुर्भाग्य ही है कि यहाँ काम करना बुरा और आराम से बैठे रहना अच्छा माना जाता है। जिन्हें काम नहीं करना पड़ता है वे अपने को भाग्यवान मानते हैं। पुरुष अपने घर के स्त्रियों को काम नहीं करने देते, करती हैं तो वे अपनी बेइज्जती समझते हैं, वे बड़े आदमी माने जाते हैं। शिक्षा प्राप्त करते ही हर युवक अपने बाप-दादे के धंधे कृषि व्यवसाय में परिश्रम लगता देखकर जी चुराने लगता है और क्लर्क बनकर किसी दफ्तर में मेज कुर्सी की आरामतलबी ढूँढ़ता है। गाँवों में श्रम के अभाव से खेती मुरझाई पड़ी है और शहरों में मुदरसी तथा मुहर्रिरी के लिए पोस्ट-ग्रेजुएट की लम्बी कतारें इधर से उधर दुत्कार खाती मारी-मारी फिरा करती हैं। श्रम के प्रति अरुचि अपने देश के दुर्भाग्य और दारिद्रय का प्रधान कारण है। सम्पन्न देश के नागरिकों ने बड़ी मशक्कत करके दौलत कमाई है। एक हम हैं, जो लाटरी, सट्टा, ब्याज तथा चोर-चाण्डाली की रीति-नीति अपनाकर मालदारी के सपने देखते रहते हैं। समय आ गया है कि हम अपनी गतिविधियों को बदलें और यह सोचना आरम्भ करें कि श्रमशीलता मनुष्य का गौरव है।
‘आराम हराम है’-की उक्ति हमें आज की आर्थिक दुर्दशा से उबारने में पतवार का काम कर सकती है। दरिद्रता और अभावग्रस्तता तत्परता प्रकट करना ही एकमात्र उपाय है, जिससे सभ्यता सम्पन्नता के साथ-साथ सद्गुणों की अभिवृद्धि भी संभव है। जो मेहनत से कमाता है वही उसका सदुपयोग करता है। हराम की कमाई तो ऐसे ही व्यसन-व्यभिचार में तथा रोग-शोक की परिस्थिति उत्पन्न करने में खर्च होती है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की स्थिरता भी उत्पादक श्रम पर निर्भर है।
शिक्षित नारी अपनी शिक्षा का लाभ समाज को देने के साथ समय बचाकर उपार्जन भी कर सकती है। अध्यात्म जैसी नौकरी कर लेने में तनिक भी हर्ज नहीं। शिशु-शिक्षण महिला शिक्षण की स्वतंत्र पाठशालाएँ भी वे आसानी से चला सकती हैं। भोजन, गृह-व्यवस्था से गृह व्यवस्था से बहुत सारा समय उपार्जन के लिए बचाया जा सकता है। घर की दूसरी महिलाएँ कुछ समय उनके बच्चे समय में भी कई तरह से काम कर सकती है। सिलाई या टाइप-राइटिंग यदि आता हो तो घर पर भी उन्हें किया जा सकता है।
गृह उद्योग शिक्षित और अशिक्षित सभी के लिए उपयोगी हो सकते हैं। कढ़ाई, बुनाई, जरी का काम, कण्ठी-माला बनाना, रेडीमेड कपड़े सीना जैसे काम घरेलू उद्योगों की तरह कितनी ही जगह होते हैं और उनसे महिलाएँ कुछ न कुछ उपार्जन करती रह सकती हैं। गाँधीजी ने भारत की स्थिति के अनुसार चर्खा कातने का गृह-उद्योग प्रस्तुत किया था, यदि उसे अपना किया होता तो देहाती क्षेत्रों में उपार्जन और बचत का वह सुन्दर समन्वय बड़ा उपयोगी सिद्ध होता।
शिक्षा के वृद्धि के साथ-साथ पढ़े-लिखे लोगों की बेकारी का प्रश्न भी टेढ़ा होता चला जाता है। अब हर शिक्षित को नौकरी मिलना मुश्किल है। पैतृक व्यवसाय में सब बच्चों की खपत और गुजर कर सकना कठिन है। ऐसी दशा में गृह उद्योगों पर ही ध्यान केन्द्रित होती है। जापान की तरह अपना गरीब देश भी घरेलू कला-कौशल को अपनाकर आजीविका के नये स्त्रोत उत्पन्न कर सकते है। इस संदर्भ में विचारशील लोगों को अधिक ध्यान देना चाहिए और छोटी पूँजी तथा स्वल्प प्रयत्नों से चल सकने वाले कुटीर उद्योगों को संगठित करना चाहिए और उत्पादन को उचित मूल्य पर बेचने के लिए तन्त्र खड़े करने चाहिए।
मथुरा में युग-निर्माण विद्यालय ऐसी एक अच्छी शुरुआत है। यहाँ रेडियो-ट्रांजिस्टर बनाना तथा सुधारना, बिजली फिटिंग तथा बिजली से चलने वाले पंखे-हीटर, लाउडस्पीकर आदि की मरम्मत, साबुन फिनायल, स्याही, सुगन्धित तेल आदि का निर्माण, प्रेस का सम्पूर्ण शिक्षण, रबड़ की मुहरें, जिल्दसाजी जैसे अनेक उद्योग सिखाये जाते हैं। एक वर्ष में इनमें से कितने उद्योग बिना किसी फीस के सीखे जा सकते हैं।
विद्यालय में जीवन जीने की कला तथा नव-निर्माण के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कार्य कर सकने की क्षमता भी छात्रों में विकसित की जाती है। जिस प्रकार उपरोक्त विद्यालय मथुरा में खोला गया है उसी तरह अनेक विद्यालय गाँव-गाँव में खुल जायें, सामान तैयार कराने और बेचने के लिए समितियाँ गठित हों या कोई व्यक्ति विशेष इस कार्य को अपने कन्धों पर उठायें तो बेकारी की समस्या का समाधान हो, आर्थिक प्रगति के सूत्र मिलें और मुरझाये चेहरों को ताजगी का नया आधार मिले।
जहाँ अपने देश में गृह-उद्योगों शिक्षण, संगठन और विक्रय केन्द्रों के संचालन की आवश्यकता है, वहाँ यह भी बहुत जरूरी हैं कि सर्वसाधारण के मन में श्रम के प्रति श्रद्धा उत्पन्न की जाये। दरिद्रता दूर करने के लिए प्रयत्न करने, मनुष्यों के जीवन स्तर उठाने एवं सद्गुणों के अभिवर्द्धन की दृष्टि से यह एक उपयोगी एवं आवश्यक कार्य है। यदि सर्वसाधारण की मनोभूमि में श्रम की उपयोगिता समा सके तो क्या गरीब, क्या अमीर सभी हरामखोरी से बचने का रास्ता ढूँढ़ लें। सरकार लघु उद्योगों को संरक्षण दे, जनता श्रम में रुचि ले और उत्पादन को खपाने के लिए तन्त्र खड़े हों तो हमारी आर्थिक दशा सुधरे तथा हमारी प्रगति की दिशा में एक नया द्वार खुल जाये।
प्रश्न-
(१) आर्थिक कठिनाई हम क्यों उठा रहे हैं? (२) आर्थिक कठिनाई की समस्या को हल करने के लिए क्या करना होगा? (३) जापान के आधार पर समझायें कि उन्नति किस प्रकार की जा सकती है? (४) जापान की तरह नीति अपनाने पर हमें क्या लाभ हो सकते हैं? (५) हमारे देश में बेकारी की समस्या फैलने के क्या कारण हैं? (६) ‘‘आराम हराम है, ’’ यह उक्ति हमें किस प्रकार आर्थिक दुर्दशा से उबरने के लिए पतवार का काम कर सकती है? (७) शिक्षित नारी भी किस विधि से आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद दे सकती हैं? (८) शिक्षित युवकों की बेकारी की समस्या किस प्रकार हल की जा सकती हैं? (९) ‘युग निर्माण विद्यालय’ यह आप किस आधार पर कह सकते हैं कि यह विद्यालय व्यक्ति को रोजगार, आर्थिक उन्नति प्राप्त करने में सहयोगी है? (१०) सरकार, जनता तथा पूँजीपति इसमें कहाँ तक सहयोग दे सकते हैं?
अन्न संकट की चुनौती का सामना कैसे करें?
जनसंख्या की वृद्धि और तम्बाकू जैसी हानिकारक फसलों से बहुत जमीन घिर जाने के कारण अब अपना अन्न-बाहुल्य कृषि-प्रधान देश दूसरों से उधार, कर्ज या खरीदकर पेट पालने वाले पिछड़े देशों की पंक्ति में आ खड़ा हुआ है। कारण जो भी हो पर यह ऐसा राष्ट्रीय दुर्भाग्य है जिसके खतरे की गम्भीरता हम सबको समझनी चाहिए और जितनी जल्दी हो सके इस पिछड़ेपन के कलंक से अपने मुख की कालिमा धोनी चाहिए। अन्न के लिए परावलम्बी देश सदा अपने अन्नदाता के पिछलग्गू बनकर रहने के लिए विवश किये जाते हैं। जो सहायता करेगा वह कुछ तो अपने स्वार्थ की सिद्ध चाहेगा ही। समय आने पर उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष दासता भी स्वीकार करनी पड़ सकती है। ‘विभुक्षित किं न करोति पापम्’ की उक्ति के अनुसार भूखे को जो भी काम करना पड़े कम हैं।
खाद्य पदार्थों के उत्पादन की वृद्धि के लिए देश में एक युद्धस्तरीय उमंग व स्वस्थ प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होने की जरूरत है। हर किसान अपने अथक परिश्रम और क्रिया-कौशल द्वारा अपने पड़ोसी से बाजी लगाये कि वह अधिक उत्पादन करके अपनी देशभक्ति का अधिक बड़ा प्रमाण प्रस्तुत कर सकता हैं। अपनी जमीनों से दूसरे देशों की तुलना में प्रायः आधी फसल उगती है। अधिक उत्पादन के तरीके आसानी से ढूँढ़े और सीखे जा सकते हैं। उमंग हो तो कुछ हो सकता है, सोचती तो सरकार भी बहुत कुछ है और योजनाएँ भी कई बनाती है, पर कर्मचारियों का जो ढर्रा है, उससे सब गुड़-गोबर हो जाता है फिर भी कुछ लाभ तो उससे भी लिया जा सकता है।
शाक-भाजियाँ कम भूमि में अधिक पैदा होती हैं। यदि हमारे खाने की आदत में शाक-भाजियों को कुछ अधिक स्थान मिल सके तो अन्न की कमी उससे पूरी होने लगे, उत्पादन का लाभ अधिक मिले और शाकों का जीवन तत्त्व स्वास्थ्य को भी सँभाले।
इस समस्या का दूसरा पहलू है अन्न के अपव्यय को रोकना। अपने देश में बड़ी दावतों का, उनमें अनेक प्रकार का व्यंजन परोसने का, आवश्यकता से अधिक खाने का बहुत रिवाज है। छोटे-छोटे हर्षोत्सवों में बड़े-बड़े प्रीतिभोज खड़े कर दिये जाते हैं। बच्चों के जन्म, मुण्डन, जनेऊ, विवाह में दावतों की धूम रहती है। इतना ही नहीं किसी के मर जाने पर भी लोग दावतें खाने और खिलाने से नहीं हिचकते। आये दिन दावतों की धूम रहती है। विदेशों में जलपान, चाय-पार्टी जैसे स्पल्पहारों का सीमित मित्र-मंडली तक प्रवचन होता है, पर गाँव भर के, बिरादरी भर लोगों को अंधाधुन्ध संख्या में स्त्री-बच्चों सहित दावतें देने की धूम कहीं नहीं रहती है। यहाँ तो दावतों ने धर्म-पुण्य का भी स्थान ग्रहण कर लिया है। पुण्य किसको, किस प्रयोजन लिए, क्या देने से होता है, इस सोच-विचार में पड़ने की अपेक्षा लोग लम्बी-चौड़ी दावतें कर देते हैं और अपने आपको धर्मात्मा-पुण्यात्मा मानकर, स्वर्ग में उसका लाखों गुना प्रतिफल पाने का इंतजार करने लगते हैं। अन्नदान अभावग्रस्तों की आपत्ति निवारण के लिए उपयोगी भी हो सकता है और उसे दान-पुण्य की गिनती में गिना जा सकता है पर भर पेट वाले, खाते-पीते लोगों को दावत खिलाने में धर्म-पुण्य की संगति कैसे बिठाई जाये, यह समझ में नहीं आता।
जो हो बड़ी दावतों में अन्न की बुरी तरह बर्बादी होती है। ड्यौढ़ा-दूना खाकर पेट भी खराब करते हैं और अनाज भी। इसके साथ-साथ एक बुरी प्रथा यह जुड़ी हुई है कि दावतों की शान पत्तलों पर छोड़ी हुई जूठन से की जाती है। खाने वालों की अमीरी और खिलाने वाले की दिलेरी इससे आँकी जाती है कि जूठन कितनी छोड़ी गई यह अन्न देवता का अपमान बहुत ही बुरा पहलू है। एक ओर तो हम अन्न को देवता कहें और दूसरी ओर उसे इस प्रकार तिरस्कृत स्थिति में फेंक दें, यह कितनी बुरी बात है?
जूठन भंगी के आगे फेंक दी जाती है, वह उसे समेट ले जाता है। अपने सुअर और जानवरों के आगे डाल देता है। लोभवश कुछ खुद भी खा लेता है। यह और भी अधिक दुःखदायी दृश्य है। भंगी को मानवीय स्वाभिमान का लाभ लेने देना चाहिए। उसमें भी आत्म गौरव की इतनी अनुभूति रहने देनी चाहिए कि किसी का फेंका हुआ-जूठा अन्न खाकर अपने स्वाभिमान और स्वास्थ्य को न गिराये। मिठाई ही क्यों न हो जूठन खाना प्रत्यक्ष ही हीनता का चिन्ह है। इससे एक की बीमारियाँ दूसरे को लग सकती हैं। जूठन देना भंगी के साथ उदारता बरतना नहीं है। यदि उसके साथ सहानुभूति है तो अच्छा स्वच्छ, ताजा-भोजन सम्मानपूर्वक दिया जाना चाहिए। किसी के स्वाभिमान को चोट पहुँचाकर उसे बीमारियों के चंगुल में फँस की विभीषिका के साथ, यह जूठन का उपहार दिया गया हैं, तो समझना चाहिए कि यह धन देने वाले और लेने वाले क पक्ष में प्रतिकूल पड़ने से अधर्म ही कहलायेगा। अन्न की बर्बादी का यह बहुत ही बुरा तरीका है, जिसका कुरुचि विरोधी आन्दोलन के स्तर पर तरीका है, सामूहिक निश्चय के साथ निषेध किया जाना चाहिए।
वर्तमान अन्न की तंगी के दिनों में जबकि हम अपनी बहुमूल्य विदेशी मुद्रा तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान बेचकर अमरीका आदि से अनाज मँगाते हैं, तब बड़ी दावतों द्वारा होने वाली अनाज की बर्बादी पर हमें अपने राष्ट्रीय कर्तव्य का ध्यान रखते हुए स्वयं प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। जूठन छोड़ने की प्रथा तो एकदम बन्द कर देनी चाहिए। खाने वाले यह ध्यान रखें कि जिसके यहाँ भोजन करने आये हैं, उसके शत्रु नहीं मित्र हैं जितना खाना हो उतना खा लें पर बर्बादी का भार तो उस पर न डालें। यह सज्जनता और भलमनसाहत का तकाजा है, जिसका स्मरण हर दावत खाने वाले को बराबर रखना चाहिए। इसी प्रकार भोजन परोसते समय ध्यान रखा जाये कि आग्रह भले ही कितना भी किया जाये, पर परोसा उतना ही जाये जिसके लिए खाने वाले ने स्पष्ट स्वीकृति दी हो। बिना माँगे या बिना पूछे पत्तल पर यों ही पटकते रहना, प्रेम, आदर या अनुग्रह का चिन्ह नहीं वरन् विशुद्ध रूप से गँवारपन है, जिसके कारण खाने वाले को असमंजस में पड़ता है और अन्न जैसे आज के बहुमूल्य पदार्थ की बर्बादी होती है।
अपने देश में उपवासों को धार्मिक दृष्टि का महत्त्व दिया गया है। कर्मचारियों की तरह सप्ताह में एक दिन छुट्टी मिल जाने से पेट को भी नई शक्ति सम्पादित करके अधिक उत्साह से काम करने का अवसर मिलता है और उदर रोगों से बचे रहने के साथ-साथ स्वास्थ्य-संवर्द्धन का भी संयोग प्राप्त होता है। सप्ताह में एक दिन अथवा कम से कम एक जून तो हर कोई बड़ी आसानी से उपवास रख सकता है। निराहार रहना कठिन लगे तो अन्न, रहित-शक, फल, दूध आदि लेकर भी ऐसा उपवास हो सकता है। हम सब यदि धार्मिक अथवा राष्ट्रीय दृष्टि से ऐसे उपवासों का नियम बना लें तो देश को इन दिनों जितनी कमी अन्न की पड़ती है, उसकी पूर्ति बहुत ही आसानी से हो सकती है। जिसमें देश भक्ति अथवा समाजनिष्ठा के तत्त्व मौजूद हैं उनको थोड़ी असुविधा या कष्ट सह लेना भी कठिन न होना चाहिये जिसके साथ आर्थिक बचत और स्वास्थ्य-रखा के लाभ जुड़े हुए हैं।
चूहों से, कीड़ों से अन्न बचाने की सावधानी यदि हर गृहस्थ में, अन्न भण्डारों में बरती जाने लगे तो भी बहुत काम चल सकता है। अधिक बच्चों की उत्पत्ति से बढ़ने वाले अन्न संकट की ओर भी हमारा ध्यान रहे तो हम उस विभीषिका का बहुत हद तक सामना कर सकते हैं, जो हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान और भविष्य को अन्धकारमय बनाने पर तुली हैं।
प्रश्न-
(१) हमारा देश कृषि प्रधान होते हुए भी कभी-कभी विदेशों से अन्न क्यों मँगाता है? (२) खाद्य पदार्थों के उत्पादन की वृद्धि के लिए क्या किया जाना चाहिए? (३) शाक-भाजियों के उत्पादन से क्या लाभ होगा? (४) अन्न के अपव्यय को रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए? (५) बड़ी दावतों से क्या हानि है? (६) जूठन खाने से स्वाभिमान व स्वास्थ्य दोनों गिरते हैं? सिद्ध कीजिए। (७) भोजन परोसने में क्या सावधानी रखनी चाहिए? (८) सप्ताह में एक उपवास क्यों आवश्यक है? उपवास के लाभ बताइए। (९) चूहों व कीड़ों से अन्न की बर्बादी बचाने के लिए क्या किया जाये? (१०) अन्न संकट को उत्पादन वृद्धि से ही नहीं संरक्षण एवं उपयोग के विवेकपूर्ण तरीकों से भी टाला जा सकता है-सिद्ध करें।
शाक हमारी खाद्य समस्या का हल करेंगे
अपने देश में इन दिनों अन्न की कमी है। जनसंख्या बहुत बढ़ जाने और उपयोगी जमीन कम होने से आज अनाज उतना पैदा नहीं होता जितनी की आवश्यकता है।
सरकार क्या करने जा रही है और नेता क्या सोचते हैं-इसकी परीक्षा किए बिना हमें अपनी स्वल्प सामर्थ्य पर छोटे विचार के अनुसार कुछ काम आरम्भ कर देना चाहिए। इस दिशा में हम दो कार्य कर सकते हैं-(१) शाक-सब्जियों को भोजन में अधिक स्थान देना। (२) शक-भाजी उगाना। इन दोनों कार्यों से भोजन की समस्या उपयुक्त ढंग से हल होती है और अन्न भी बचता है। यह बचत हमें अन्न की दृष्टि से स्वावलम्बी बना सकती है।
शाक-भाजी हर दृष्टि से हमारा उपयुक्त भोजन है। उनमें अन्न से अधिक जीवन-तत्त्व, क्षार, विटामिन लवण आदि भरे पड़े हैं। वे सुपाच्य होते हैं और अन्न न पचने पर जिन विकृतियों और बीमारियों की सम्भावना रहती है, शाकों से उसका बचाव सहज ही हो सकता है। सूखे अन्नों से हरे शाकों में फलों की अपेक्षा कुछ ही कम गुण होते हैं। वस्तुतः वे भी एक प्रकार के फल ही हैं-सस्तेपन के कारण उन्हें घटिया माना जाता है पर कई बार तो वे कीमती फलों से भी अधिक उपयोगी होते हैं। गाजर और टमाटर में बहुमूल्य विटामिनों की भारी मात्रा विद्यमान है। अन्य शाकों की अपनी-अपनी उपयोगिता व विशेषताएँ है। आलू अन्न के समान ही एक परिपुष्ट एवं समग्र भोजन है। खरबूज, तरबूज खीरा, ककड़ी जैसे शाक की तरह उगने वाले फल सस्तेपन के साथ-साथ लाभ में भी कीमती फलों का मुकाबला करते हैं। आहार में इनका अधिक समावेश करना स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिक लाभदायक सिद्ध होगा।
किसान जिनके पास जमीन हैं कुछ बीघे जमीन शाक उगाने के लिए सुरक्षित रखें। आलू, रतालू, अरबी, प्याज, शकरकन्द, गाजर, चुकन्दर, अदरक आदि कितने ही ऐसे कन्द हैं-जिनकी माँग भी रहती है और पैसे भी बहुत दे जाते हैं। लौकी, तोरई, बैंगन, भिण्डी, परवल, टमाटर, कद्दू, पेठा, गोभी, बन्दगोभी जैसे शाक उगाना अति सरल है। पालक, चौलाई, मेथी, पोदीना, धनिया, सरसों, बथुआ, नोनिया जैसे पत्ती वाले शाक कहीं भी उगा सकते हैं। खरबूजे, तरबूज, ककड़ी, खीरा आदि की फसलें उगाने वालों को मालामाल कर देती है। किसान समय-समय पर उन्हें बोने लगें तो बाजार में भी उनकी बहुत खपत हो सकती है और धर में उपयोग बढ़ाकर आर्थिक लाभ स्वास्थ्य रक्षा और अन्न-बचत में योगदान बन सकता है। किसान का ध्यान इस ओर मुड़ जाये और वे थोड़ी जमीन इसके उत्पादन के लिए निश्चित सुरक्षित रखने लगें तो शाक कि लिए आज जो तरसना पड़ता है और अनाज में भी अधिक दाम देने पड़ते हैं वह परिस्थिति न रहे। सजीव-भोजन से हमारे शरीर नीरोग एवं स्फूर्तिवान् हों और आर्थिक लाभ भी प्रत्यक्ष सामने आये।
इस दिशा में किसान भी काम कर सकते हैं और एक उत्साहवर्द्धक आन्दोलन खड़ा कर सकता है। बहुत घने शहरों में जहाँ काल-कोठरियाँ में चींटियों की तरह लोगों को किराये के घरों में रहना पड़ता है वहाँ की बात छोड़कर-अन्यत्र गाँव, कस्बों में लोगों के घर ऐसे होते हैं जिनमें आँगन, छतें, बरामदे तथा आस-पास की खुली जगह हो। गाँवों में तो अक्सर ऐसी गुंजायश जरूर रहती है। इस खाली जगह में थोड़ा खोदकर, खाद देकर शाक-भाजी उगाये जा सकते हैं। गमलों में मिट्टी भरकर आँगन या छत पर रखा जा सकता है और उसमें कुछ न कुछ उगाया जा सकता है। अदरक, धनिया, पोदीना, हरी मिर्च जैसी चीजें तो हर कहीं उग सकती हैं। यह चटनी का काम देंगी। भिण्डी, तोरई, लौकी, टमाटर, मेथी, पलक जैसी चीजों का उगना वर्षा के दिनों में तो अति सुगम है। थोड़ी मेहनत में तो घर के आस-पास इतना उत्पादन हो सकता है कि शाक-भाजी की आवश्यकता को एक हद तक पूरा किया जा सके। यह शौक बहुत ही लाभदायक है। व्यायाम एवं परिश्रम भी होती है, समय का सदुपयोग रहता है, उत्पादन एवं निर्माण की प्रवृत्ति बढ़ती है। हरीतिमा की शोभा रहती है। पौधों से आक्सीजन-प्राण वायु मिलती है और ताजे शाक-भाजी खाने तथा पैसे बचने की सुविधा रहती है। यह शौक यदि अपने जातीय स्वभाव में सम्मिलित हो सके-एक की देखा-देखी दूसरा अनुकरण करने लगे-तो उसके बहुत ही अच्छे परिणाम आ सकते हैं।
सौन्दर्य, शोभा, सुगन्ध, वायु शुद्धि और चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न होने की दृष्टि से फूलों का भी अपना महत्त्व है। शाकों की तरह जहाँ-तहाँ फूल भी उगा सकते हैं। भगवान की पूजा, मित्रों को उपहार, मेज पर गुलदस्ते, महिलाओं, बच्चियों के लिए बालों का शृंगार, गजरे गहनों की पूर्ति, बच्चों के कोट पर लगाने के गुलाब आदि अनेक उपयोग फूलों के हैं। इनसे धर-आँगन की शोभा-सुसज्जा कई गुना बढ़ जाती है। फूलों की कृषि, व्यवसायिक आधार पर भी की जा सकती है। बड़े नगरों और कस्बों के आस-पास तो उनकी दैनिक बिक्री ही बहुत होती है। छोटे देहातों में गुलाब की कृषि हो सकती है। इसमें सब फसलों से अधिक अर्थ लाभ है। दवाओं के लिए, ठण्डाई के लिए सूखे गुलाब पुष्पों की भारी माँग रहती है। इत्र और गुलाब जल बनाने का उद्योग भी थोड़ी से प्रशिक्षण से आरम्भ हो सकता है। अलीगढ़ जिले केक वरमाना गाँव में अधिकांश किसान गुलाब की कृषि बड़े पैमाने पर करते हैं और साधारण किसानों से कई गुना अधिक लाभ कमाते हैं। पुष्पवाटिका हमारे शौक का विषय बन जाये तो भी एक अच्छी प्रवृत्ति पनपे।
शक-भाजी का उद्योग अनेक बेकारों को जीविका दे सकता है। उनसे हाट-बाजार में एक मण्डी आरम्भ हो सकती है। शहरों के लिए उन्हें ढोने वाले वाहनों को काम मिल सकता है। फेरी वाले धन्धा पा सकते हैं। बीज और पौध बेचने का भी धन्धा हो सकता है। इस सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी देने वाली छोटी-बड़ी पुस्तकें छपने और बिकने का काम बढ़ सकता है। इस प्रकार इस उद्योग में कितने ही व्यक्ति खपाये जा सकते हैं।
एक बीघा जमीन में यदि अन्न बीस मन उत्पन्न होता हो तो आलू सहज ही उसमें १० गुना अर्थात् २०० मन मिलेगा। गेहूँ की फसल प्रायः एक वर्ष ले जाती है, इतने समय में शाक-भाजी की तीन फसलें आसनी से ली जा सकती है। किसी के पास थोड़ी जमीन हो तो भी अपने परिवार का निर्वाह उतने में ही कर सकता है। विस्तार कम होने से रखवाली, सिंचाई, गुड़ाई, निराई आदि आसनी से हो सकती है। उसे घर के थोड़े-से व्यक्ति भी बिना मजदूरों की खुशामद किये अपने आप सँभाल सकते हैं। नाश्ता हर समय तैयार है। कोई मेहमान आ जाये तो कुछ न कुछ उपहार देने की परिस्थिति हरियाली से आँखों की ज्योति ठीक रहना, रोज भोजन के समय शाक-भाजी की सरसता, गाय-भैंस दूध के पशु रखने के लायक घास तथा पत्तियों का मुफ्त चारा आदि कितने ही लाभ हैं जो शाक उत्पादन में हमें सहज ही मिल सकते हैं। घर-घर में तुलसी के पौधे लगाना भी एक आन्दोलन हो सकता है। तुलसी के बीज तथा पौधे रोपकर हर घर में आरोग्यवर्द्धक और धार्मिक वातावरण बनाया जो सकता है। यह लाभ सबकी समझ में आने योग्य है पर कठिनाई इतनी है कि इस ओर लोकरुचि में उपेक्षा तथा अन्यमनस्कता घुस गई है, इसे निकाला जाना चाहिए। लोगों को समझाया जाना चाहिए। हरित क्रान्ति के लिए, हरियाली उगाने के लिए एक जोश एवं उत्साह भरा आन्दोलन उत्पन्न करें। समझदार लोग इस संदर्भ में लोक-शिक्षण के लिए टोलियाँ बनाकर निकलें। घर-घर जाकर हरीतिमा का संदेश सुनायें। वर्षा के दिनों में तो इसे हर जगह तुरन्त कार्यान्वित कराया जा सकता है। बीज और पौध थोड़ी-थोड़ी उपहार में देकर-लगाने बोने में थोड़ी सक्रिय सहायता देकर, इस संदर्भ में आवश्यक उत्साह कहीं भी उत्पन्न किया जा सकता है।
प्रश्र-
(१) आज राष्ट्र की प्रमुख समस्या एवं चिंता की बात क्या है? (२) खाद्य समस्या को हल करने में प्रत्येक परिवार क्या योगदान दे सकता है? (३) शाकों का उपयोग अन्न से अधिक गुणकारी क्यों हैं? (४) सरलता से उगने वाले कंद, मूल, फलों के नाम बताओ? (५) किसानों को शाक-सब्जी क्यों उगाना चाहिए? (६) खाली जगहों का उपयोग शाक उगाने में कैसे किया जा सकता हैं? (७) हर जगह कौन-कौन से शाक उगाये जा सकते हैं? (८) फूलोत्पादन से क्या लाभ हैं? (१०) हरित-क्रान्ति से क्या समझते हो? (११) कम खर्च में थोड़ी भूमि में कौन-कौन उपाय पनप सकता है?
वृक्षारोपण और संवर्धन-एक अति आवश्यक कार्य
मनुष्य के जीवन धारण और उत्कर्ष में जिन अन्य जीवधारियों का प्रमुख सहयोग है, उनमें पशु और वृक्ष की गणना प्रमुख है। गौमाता के गुण गाते-गाते हम नहीं अघाते, क्योंकि उसके द्वारा प्राप्त होने वाले दूध, गोबर, बैल, चर्म आदि सभी उपकरणों द्वारा पौष्टिक आहार तथा दूसरी सुविधाओं की प्राप्ति होती है। ठीक ऐसा ही अनुदान वृक्षों से प्राप्त होता है। उसके द्वारा प्राप्त होने वाले लाभों की कोई गणना नहीं। वे बोलते भर नहीं, जीव तो उनमें भी हैं और वह जीव भी ऐसा है जो संतों जैसी गरिमा रोम-रोम में भरा बैठा है। वृक्ष यदि संसार में न होते तो संभवतः हमारे लिए जीवित रहना ही संभव न हुआ होता। घास−पात और वनस्पतियों की महिमा तो लोग पशुओं के आहार, औषधि, अन्न तथा रस्सी, फूँस आदि के रूप में जानते हैं पर वृक्षों की उपयोगिता की कम ही जानकारी लोगों के ध्यान में आई है।
आमतौर से इतना ही जाना जाता है कि वृक्षों की छाया या फल-फूल काम में आते हैं। हमें यह भी जानना चाहिए कि मनुष्य की साँस से निकलने वाली विषैली कार्बन गैस को सोख कर निरन्तर वायु को शुद्ध करते रहने का श्रेय वृक्षों को ही है, वे दिन भर यही काम करते रहते हैं। रात को वे थोड़ी कार्बन गैस निकालते तो हैं, पर वह मनुष्य शरीर से निकलने वाली विष-वायु जैसी हानिकारक नहीं होती। दिन भर वृक्ष आक्सीजन नामक प्राण वायु उगलते हैं। मनुष्य के लिए यही जीवन आधार है। ऑक्सीजन की कमी पड़ जाने से मनुष्य का जीवन संकट में पड़ जाता है और वह अन्न, जल से भी अधिक उपयोगी है। ऐसा बहुमूल्य आहार जिसकी पल-पल पर जरूरत पड़ती है और जो रक्त में लालिमा से लेकर जीवन धारक अनेक साधन जुटाता है, वृक्ष ही देते हैं। वृक्ष न हों तो ऑक्सीजन की सारे संसार में कमी पड़ जाये और शरीर से तथा आग जलने से निकलने वाली विष वायु सारे आकाश को दूषित कर ऐसी घुटन पैदा कर दे कि प्राणियों का जीवन धारण ही संभव न रहे। हर दृष्टि से उन्हें जीवन दाता कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी।
वृक्षों में एक विशिष्ट आकर्षण है जो बादलों को खींचकर लाता है और वर्षा की परिस्थितियाँ पैदा करता है। जहाँ वृक्ष अधिक होते हैं वहाँ वर्षा भी अधिक होती है। वृक्ष रहित प्रदेश में स्वयंमेव वर्षा की कमी हो जाती है। वृक्षों की अभिवृद्धि अपने सुख-साधनों को बढ़ाना है। उनमें कमी आना अपनी ही आवश्यकताओं की पूर्ति पर कुठाराघात होना है। प्राण-वायु कम मिले वर्षा कम हो और वनस्पतियाँ कम उगें तो हम कितने घाटे में रहेंगे, इसका लेखा-जोखा रख सकना कठिन है।
आँखों पर हरीतिमा का बड़ा शान्तिदायक प्रभाव पड़ता है ।। उससे सहज ही जी प्रसन्न हो उठता है। घास तो वर्षा के दिनों में ही शोभा देती है, पर वृक्ष तो साल भर अपनी शीतलता प्रदान करते रहते हैं। उनकी छाया में कितने मनुष्य और पशु-पक्षी विश्राम पाते हैं, यह देखते हुए उन्हें एक खुली धर्मशाला कहा जा सकता है। फलों की शोभा देखते ही बनती है। उनकी सुगन्ध मस्तिष्क में प्रफुल्लता और शक्ति का संचार करती है। फलों में ही वे जीवन तत्त्व हैं। अन्न-आहार तो मजबूरी और अभाव की परिस्थिति में स्वीकार करना पड़ा है, अन्यथा मनुष्य की शरीर रचना बन्दर जैसे फलाहारी-वर्ग में ही आती है। उसका प्राकृतिक और स्वाभाविक भोजन फल है। देह में जो-जो जीवन तत्त्व पाये जाते हैं और जिनकी निरन्तर आवश्यकता रहती है वे अधिकतर फलों में ही भरे रहते हैं। इसलिए पूर्ण समर्थ, पौष्टिक, सात्विक और स्वास्थ्य रक्षक आहार में फलों की ही गणना की जाती है। उनमें शरीर ही नहीं मस्तिष्क और स्वभाव को भी उच्चस्तरीय पोषण प्रदान करने की क्षमता है। इसलिए धार्मिक दृष्टि से फलों को बहुत प्रधानता दी गई है। देवता पर चढ़ाने में फल और उपवास में फल सर्वत्र उन्हीं की गरिमा फैली पड़ी है। चिकित्सक भी रोगियों को फलों का आहार बतलाते है क्योंकि वे शीघ्र पचने वाले, पेट पर बोझ न डालने वाले और जीवन तत्त्वों से भरपूर रहते हैं, रोगों से लड़ने की क्षमता पैदा करते हैं। ऋषि मुनियों का प्रधान आहार फल है। वन्य प्रदेशों में वे फल वाले वृक्षों का रोपण करके आहार समस्या से निश्चिन्त हो जाते थे। इसमें जहाँ सुगमता थी वहाँ दीर्घ, सुदृढ़ स्वास्थ्य बुद्धि में सात्विकता तथा मनोबल बढ़ने जैसे अगणित लाभ थे। ऐसे आहार से साधना, उपासना में प्रखरता आती थी और उसी क्षेत्र में रहकर विद्याध्ययन करने वाले छात्र मनस्वी, तेजस्वी और सुदृढ़ शूरवीर बनकर वापिस लौटते थे।
वृक्षों की इस उपयोगिता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित होना चाहिए और उत्साहपूर्वक वृक्षों का आरोपण, संवर्धन, संरक्षण करना चाहिए। कीमती फलों वाले वृक्ष आमदनी भी मामूली खेती से कहीं अधिक दे सकते हैं। संतरा, मौसमी, नीबू, चीकू, सेब, नाशपाती, अमरूद, लीची, लुकाट, आडू, अनन्नास, शहतूत, अंजीर जैसे फल आसानी से उगाये जा सकते हैं। तीन-चार वर्ष में उनकी रखवाली, सिंचाई आदि का प्रबंध कर लिया जाये तो आगे फिर उनके लिए कुछ अधिक नहीं करना पड़ता है। आम, जामुन, खिरनी, महुआ, कटहल, आँवला, गूलर, पीपल जैसे वृक्ष एक बार लगे तो सदा के लिए निश्चिन्तता हो गई। अंगूर, केले, पपीते जैसे सामान्य फलों को तो खेल-खेल में ही थोड़ी-सी जगह में उगाया जा सकता हैं और हरियाली की शोभा के साथ बहुमूल्य आहार भी प्राप्त किया जा सकता है।
दुर्भाग्य से अपने देश में वृक्षारोपण के लाभों की तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा हैं जबकि सुविकसित देशों में उनके सम्वर्धन के लिए हर नागरिक में पूरा उत्साह पाया जाता है। पशुओं से भी अधिक उपयोगी वृक्षों को उगाने और बढ़ाने की जहाँ विशाल योजनाएँ बनती रहती हैं वहाँ अपने देश में इनको काट-काट कर समाप्त करते हुए ‘गौहत्या’ जैसे कुकृत्य में हमें लगे हुए हैं। कृषि के लोभ में वृक्षों को सफाया हो चला और खेतों की मेढों पर चढ़कर बच्चे बढ़िया मनोरंजन व्यायाम करते थे वहाँ अब सर्वत्र सुनसान ही दिखाई पड़ता है। लोग सोचते यह है कि इससे जमीन खेती के लिए निकल आयेगी, पर वे यह भूल जाते हैं कि वृक्षों के अभाव में वर्षा की कमी तथा सर्दी-गर्मी की मात्रा अधिक हो जाने से फसलों को जो नुकसान होगा वह पेड़ों द्वारा छोड़ी हुई जमीन की अपेक्षा अधिक हानिकारक सिद्ध होगा।
हमें जहाँ भी सुविधा हो वृक्ष लगाने और उनकी रक्षा का प्रयत्न करना चाहिए। धर्म-शास्त्रों में वृक्ष लगाने का पुण्य बहुत माना गया है। पीपल, बरगद, आँवला जैसे वृक्षों की तो पूजा भी होती है। लोकोपयोगी हर कार्य धर्म, पुण्य की गणना में आता है। इस दृष्टि से शास्त्रों और ऋषियों ने वृक्षारोपण को यदि स्वर्गदाता परमार्थ बताया है तो उनका मन्तव्य सच ही माना जाना चाहिए।
आपने देश में लोग गोबर जैसी बहुमूल्य खाद को जलाऊ लकड़ी की जगह काम में लाते हैं। यदि हम बेकार और हल्की भूमि में जलाऊ लकड़ी वाले वृक्ष लगा दें तो ईंधन की समस्या हल हो सकती है और मजबूरी में जो गोबर खाद नष्ट हो जाती है उसे बचाकर उत्पादन की दृष्टि से प्रयोजन पूरा किया जा सकता है। इमारती लकड़ी अपने यहाँ कितनी कम होती जा रही हैं उसका अनुभव उसकी दिन-दिन बढ़ती जा रही कीमतों को देखकर तब किया जा सकता है जब इमारत या फर्नीचर की लकड़ी का उससे बनी वस्तुएँ खरीदनी पड़ती हैं। लकड़ी का उससे बनी वस्तुएँ खरीदनी पड़ती हैं। लड़की की जरूरत बात-बात में पड़ती है। वृक्षारोपण के अभाव में वह इतनी महँगी होती चली जाय कि सर्वसाधारण को उसका खरीदना कठिन पड़े तो इसे एक दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।
इस आवश्यकता को समझा ही जाना चाहिए कि वृक्ष मनुष्य की एक महती आवश्यकता हैं और उनकी अभिवृद्धि के लिए नया उत्साह और नई चेतना पैदा की जानी चाहिए। रास्ते के किनारे हर जगह वृक्ष लगाये जाने चाहिए ताकि पथिकों को सरलता और बिना थकान के यात्रा करने का अवसर मिलता रहे। जहाँ भी अवसर हो हमें फलदार अथवा जलाऊ या इमारती लकड़ी वाले वृक्षों को लगाने के लिए स्वयं आगे बढ़ना चाहिए और दूसरों को प्रोत्साहन देना चाहिए।
प्रश्न-
(१) वृक्षारोपण क्यों आवश्यक है? (२) वृक्षों के संरक्षण से मानव समाज को लाभ होते हैं? (३) वृक्षों की तुलना संतों से क्यों की जाती हैं? (४) वृक्ष बिना कारण ही मानव समाज का हित करते हैं- सिद्ध करो। (५) वन्य प्रदेश में वर्षा अधिक क्यों होती है? (६) वनों से नेत्रों की तेजी बढ़ती है- सिद्ध करो। (७) फल- फूल एवं हरियाली के लाभ बताइये? (८) वृक्षों से भूमि संरक्षण कैसे होता है? (९) पीपल, बड़ एवं आँवले की पूजा क्यों की जाती है? (१०) वृक्ष हमारी खाद्य समस्या को हल करने में कैसे सहायक होते हैं?