दो शब्द
परम पूज्य गुरुदेव ‘गायत्री परिवार’ को युग परिवर्तन के उद्देश्य से अवतरित जाग्रत् आत्माओं का संगठन कहते रहे हैं। लेकिन जागृतात्माओं का संगठन कहते रहे हैं। लेकिन जागृतात्माओं पर भी समयानुसार माया का- विस्मृति का आवरण पड़ जाता है। उसे हटाने पर ही वे अपनी क्षमता का उपयोग कर पाते हैं। समुद्र लाँघकर लंका से सीता की सुधि लाने के प्रसंग में हनुमान जी चुप बैठे थे, जामवन्त के बोध- वाक्यों से उन्हें स्मृति आई और असंभव सा लगने वाला कार्य उन्होंने कौतुक की तरह कर दिखाया।
इस संकलन में संगृहीत युगऋषि के बोध वाक्य जागृतात्माओं को अपना स्वरूप और अपने कर्तव्य का स्पष्ट बोध करा कर उन्हें दिव्य क्षमता जगाने और प्रखर पुरुषार्थ में जुट पड़ने के लिए प्रेरित कर सकेंगे, ऐसा विश्वास है।
- प्रकाशक
* हमें समझना चाहिए कि भौतिक उद्देश्यों के लिए यह युग निर्माण अभियान नहीं चल रहा है। जनमानस का भावनात्मक नवनिर्माण अपना उद्देश्य है। यह कार्य आत्म निर्माण से ही आरम्भ हो सकता है। अपना स्तर ऊँचा होगा, तो ही हम दूसरों को ऊँचा उठा सकने में समर्थ हो सकते हैं। जलता हुआ दीपक ही दूसरे दीपक को जला सकता है। जो दीपक स्वयं बुझा पड़ा है, वह दूसरों को जला सकने में समर्थ नहीं हो सकता। हम आत्मनिर्माण में प्रवृत्त होकर ही समाज निर्माण का लक्ष्य पूरा कर सकेंगे। युग निर्माण परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपनी स्थिति अनुभव करना चाहिए। उसे विश्वास करना चाहिए कि उसने दैवी प्रयोजन के लिए यह जन्म लिया है। इस युगसंधि वेला में उसे विशेष उद्देश्य के लिए भेजा गया है।
युग पुरुष के चरणों पर गायत्री परिवार की जो भावभरी माला सर्वप्रथम समर्पित की जा रही है, उसका अति महत्त्वपूर्ण मणि मुक्तक है। उसे ऐतिहासिक भूमिका संपादन करने का अवसर मिला है। इस अभियान के संचालकों ने उसे प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ा, सँभाला और भावभरी अभिव्यञ्जनाओं से सींचा- सँजोया है। उसे तुच्छता से ऊँचे उठना और महानता का वरण करना है। इसके लिए अवसर उसके सामने गोदी पसारे, चुनौती लिए हुए सामने खड़ा है। आत्मबोध की दिव्य ज्योति से अपने आपको ज्योतिर्मय बनाया जाना चाहिए। इतिहास जिन युग निर्माताओं की खोज में है, उसे उनकी पंक्ति में बिना आगा- पीछा सोचे साहसपूर्वक जा बैठना चाहिए।
* इस संध्याकाल में सभी उच्च आत्माएँ महाकाल का पुण्य प्रयोजन पूर्ण करने के लिए विद्यमान हैं। विश्वामित्र, अत्रि, कपिल, कण्व, व्यास, वसिष्ठ, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, गौतम, नारद, लोमश, महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य, कुमारिल आदि ऋषि, विवेकानन्द, रामतीर्थ, रामदास, तुकाराम, एकनाथ, ज्ञानेश्वर, कबीर, नानक, रैदास, रामकृष्ण परमहंस, सूर, तुलसी आदि संत, अर्जुन, द्रोण, भीष्म, कर्ण, आदि योद्धा, चाणक्य, शुक्राचार्य जैसे नीतिज्ञ, हरिश्चंद्र, शिवि, दधीचि, मोरध्वज, भामाशाह जैसे उदार परोपकारी और अनसूया, मदालसा, कुन्ती, द्रौपदी, अहल्या, शबरी जैसी देवियाँ और अभिमन्यु, प्रह्लाद, फतेहसिंह, जोरावर जैसे वीर बालक इन दिनों मौजूद हैं। वे साधारण जीवन व्यतीत कर रहे हैं, पर अगले ही दिनों उनको असाधारण बनते देर नहीं लगेगी। यह सब महाकाल का युग निर्माण प्रत्यावर्तन- महारास का दिव्य दर्शन जैसी ही अद्भुत घटना होगी।
* यह बात भली प्रकार समझ लेनी चाहिए कि परिवर्तन प्रक्रिया की अभीष्ट पृष्ठभूमि तैयार करने की ईश्वरीय जिम्मेदारी कुछ विशेष आत्माओं पर सौंपी गई है। उनमें से बहुत कुछ को गायत्री परिवार के अंतर्गत संगठित कर दिया गया। जो बाहर हैं, वे भी अगले प्रवाह में साथ हो लेंगी। यों देखने में हम एक साधारण स्तर का जीवन जीते हैं और बाहर से कोई विशेषता अपने अंदर दिखाई नहीं पड़ती, फिर भी परमार्थ प्रयोजनों के लिए बहुत कुछ कर गुजरने की अभिलाषा एक ऐसा तत्त्व है, जिसे ईश्वरीय प्रकाश एवं पूर्व जन्मों के संचित उत्कृष्ट संस्कारों का प्रवाह कह सकते हैं। अपने गायत्री परिवार की यही विशेषता है।
* गायत्री परिवार में एक से एक बढ़कर उत्कृष्ट स्तर की आत्माएँ इन दिनों मौजूद हैं। वे जन्मी भी इसी प्रयोजन के लिए हैं। ऐसे महान् अवसरों पर उत्कृष्टता संपन्न सुसंस्कारी आत्माएँ ही बड़ी भूमिकाएँ प्रस्तुत करने का साहस करती हैं। आंतरिक साहस उनकी सांसारिक सुविधाओं को मकड़ी के जाले की तरह तोड़- फोड़ कर रख देता है और लगता है कि यह व्यक्ति अपनी विषम परिस्थितियों के कारण कोई कहने लायक काम न कर सकेगा। देखा जाता है कि वही ऐतिहासिक महापुरुष स्तर के काम करता है।
यह और कुछ नहीं, उत्कृष्ट सुयोजनों के लिए दुस्साहस कर बैठने की हिम्मत ही है। जिसे ईश्वरीय प्रेरणा के रूप में परखा जा सकता है। हममें से अनेकों परिजन अभी अपनी ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत करने की बात सोच रहे हैं। कई उसके लिए कदम बढ़ा रहे हैं। कई दुस्साहसपूर्वक अग्रगामी होने की स्थिति को छू रहे हैं- यह शुभ लक्षण है।
* जिन्होंने अतीत में अपने- अपने समय पर महामानव, युग पुरुष, लोकनायक और वीर बलिदानी बनने का महानतम गौरव प्राप्त किया है, वे उस अनुपम, अलौकिक आनंद का रसास्वादन जानते हैं। अतएव जब अवसर आता है, तब उस सुअवसर का लाभ उठाने के लिए सबसे आगे आ जाते हैं।
* इतिहास अपनी पुनरावृत्ति कर रहा है। अपना गायत्री परिवार एक ईश्वरीय महान् प्रयोजन की पूर्ति में सहायक बनने के लिए पुनः इकट्ठा हुआ है। अच्छा हो हम अपने को पहचानें और अतीत काल की सूखी स्मृतियों को फिर हरी कर लें। निश्चित रूप से हम एक अत्यन्त घनिष्ठ और निकटवर्ती आत्मीय परिवार के चिर आत्मीय सदस्य रहते चले आ रहे हैं।
* नर पशुओं और नर पिशाचों का बाहुल्य जब कभी भी संसार में होगा, तो विपत्तियाँ आयेंगी और अगणित प्रकार की विभीषिकाएँ उत्पन्न होंगी।
यह अभिवृद्धि जब चिन्ताजनक स्तर पर पहुँच जाती है, तो ईश्वर की इस परम प्रिय सृष्टि के लिए सर्वनाश का खतरा उत्पन्न हो जाता है। इसी को बचाने के लिए उन्हें हस्तक्षेप करना पड़ता है, अवतार लेना पड़ता है।
* देवत्व का जागरण एवं पोषण करने की तैयारी ही वह प्रयत्न है, जिसके फलस्वरूप वर्तमान असुर- अंधकार का निराकरण होगा। परिपुष्ट देवत्व से वह व्यापक प्रभाव उत्पन्न होगा। जिससे प्रभावित होकर लोग पशुता और पिशाच वृत्ति का दुष्परिणाम समझ सकने योग्य विवेक एवं उन दुष्प्रवृत्तियों को त्याग सकने योग्य साहस कर सकें। देवत्व की बढ़ी हुई प्रखरता मानवीय मन पर आच्छादित समस्त कषाय- कल्मषों को धोकर रख देगी और यही आज नरक बनी हुई धरती कल स्वर्गीय सुख- शान्ति से सुसज्जित होगी।
* आशा करनी चाहिए कि वह दिन हम लोग अपनी इन्हीं आँखों से इसी जीवन में देखेंगे, जबकि अगणित देव प्रवृत्ति के व्यक्ति अपने- अपने स्वार्थों को तिलाञ्जलि देकर विश्व के नव निर्माण में ऐतिहासिक महापुरुषों की तरह प्रवृत्त होंगे और इन दिनों जिस पशुता एवं पैशाचिक प्रवृत्ति ने लोकमानस पर अपनी काली चादर बिछा रखी है, उसे तिरोहित करेंगे। अनाचार का अंत होगा और हर व्यक्ति अपने चारों ओर प्रेम, सौजन्य, सद्भाव, न्याय, उल्लास, सुविधा एवं सज्जनता से भरा सुख- शान्तिपूर्ण वातावरण अनुभव करेगा। उस शुभ दिन को लाने का उत्तरदायित्व देव वर्ग का है।
पूर्व जन्मों की अनुपम आत्मिक संपत्ति जिनके पास संग्रहीत है, ऐसी कितनी ही आत्माएँ इस समय मौजूद हैं। पिछले कुछ समय से अनुपयुक्त परिस्थितियों में पड़े रहने से इन फौलादी तलवारों पर जंग लग गयी। इस जंग को छुड़ाने की प्रक्रिया युग निर्माण योजना के प्रस्तुत कार्यक्रमों के अंतर्गत चल रही है। आशा करनी चाहिए कि अगले दिनों में यह प्रयोजन पूर्ण कर लिया जाएगा।
इन दिनों जो व्यक्ति बिलकुल साधारण स्तर के दिखाई पड़ते हैं और जिनसे किसी बड़े काम की संभावना नहीं मानी जा सकती, ऐसे कितने ही व्यक्ति असाधारण प्रतिभा और क्षमता लेकर कार्यक्षेत्र में उतरेंगे और नव निर्माण का महान् कार्य जो आज एक स्वप्न मात्र दिखाई पड़ता है, कल मूर्तिमान सच्चाई के रूप में प्रस्तुत करते परिलक्षित होंगे।
* देवमानवों का अवतरण समयानुसार हो चुका है। वे इतने समर्थ हो गये कि अपने उद्देश्य युग अवतार के सहभागी बनने की भूमिका को निभा सकें। प्रज्ञा परिजनों को अपने हिस्से का उत्तरदायित्व अंतःप्रेरणा से प्रेरित होकर स्वयं ही अपने कंधे पर वहन करना है। उसी में उसके वर्चस्व की सार्थकता है।
* महानता के श्रेयाधिकारी देवदूतों के उत्तराधिकारी बनने का लाभ उन्हें ही मिलता है, जो आदर्शवादियों की अग्रिम पंक्ति में खड़े होते हैं और बिना किसी के समर्थन- विरोध की परवाह किए आत्म- प्रेरणा के सहारे स्वयमेव अपनी दिशा- धारा का निर्माण निर्धारण करते हैं।
* जाग्रत् आत्माओं का देव परिवार युग परिवर्तन की सामयिक माँग को पूरा करने के लिए अदृश्य शक्ति की योजना एवं प्रेरणा के अनुरूप गठित हुआ है। प्रज्ञा परिवार के हर सदस्य को युगसंधि की प्रभात वेला में अपने कंधों पर आये उत्तरदायित्वों को निभाना है। युगसंधि के ऐतिहासिक अवसर पर अग्रगामी ही सुयोग- सौभाग्य को पहचानते, साहसपूर्वक आगे बढ़ते और अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए असंख्यों में अनुकरण का उत्साह भरते हैं। नवसृजन के युग निमंत्रण को कोई भी जाग्रत आत्मा अस्वीकार न करे। जिसे जैसा उत्साह एवं अवसर हो, वह न्यूनाधिक परिमाण में अपने योगदान को सम्मिलित करे ही।
* अपना स्तर ऊँचा होगा, तो ही हम दूसरों को ऊँचा उठा सकने में समर्थ हो सकते हैं। जलता हुआ दीपक ही दूसरे दीपक को जला सकता है। जो दीपक स्वयं बुझा पड़ा है, वह दूसरों को जला सकने में समर्थ नहीं हो सकता। हम आत्म निर्माण में प्रवृत्त होकर ही समाज निर्माण का लक्ष्य पूरा कर सकेंगे। युग निर्माण गायत्री परिवार के प्रत्येक सदस्य को विश्वास करना चाहिए कि उसने दैवी प्रयोजन के लिए जन्म लिया है। उसे लोभ- मोह के लिए नहीं सड़ना- मरना है।
* प्रकाशवान् ही प्रकाश दे सकता है। आग से आग उत्पन्न होती है। जागा हुआ ही दूसरों को जगा सकता है। जागरण की भूमिका जाग्रत् आत्माएँ ही निभायेंगी।
* युग निर्माण- गायत्री परिवार का प्रत्येक सदस्य आत्म चिंतन करे, आत्म बोध के प्रकाश से अपना अंतःकरण आलोकित करे। हमें अपने बारे में इस प्रकार सोचना चाहिए कि जन्म- जन्मांतर से संग्रहीत अपनी उच्च आत्मिक स्थिति आज अग्नि परीक्षा की कसौटी पर कसी जा रही है। महाकाल अपने संकेतों पर चलने के लिए बार- बार हमें पुकार रहा है। रीछ- वानरों के पथ पर हमें चलना ही चाहिए। उन्हें निराश नहीं करना चाहिए। युग की गुहार जीवित और जाग्रत् सुसंस्कारी आत्माओं का आह्वान कर रही है। उसे तिरस्कृत नहीं किया जाना चाहिए। यह समय ऐसा है, जैसा किसी सौभाग्यशाली के ही जीवन में आता है। इस समय की उपेक्षा उन्हें चिरकाल तक पश्चाताप की आग में जलाती रहेगी।
* युग निर्माण परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपने उच्च स्तर को, महान् कर्तव्य और दायित्व को समझना चाहिए। जो कुछ उसे करना है, उसके शुभारंभ के रूप में आत्म- परिष्कार के लिए आगे बढ़ना चाहिए। अपने आपको हममें से जो जितना उत्कृष्ट, परिष्कृत बना सकेगा, वह उतनी सफलतापूर्वक अपना उत्तरदायित्व पूरा कर सकेगा। समाज का निर्माण- युग का परिवर्तन हमारे अपने निर्माण एवं परिवर्तन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यदि हम दूसरे तथाकथित समाजसेवियों की तरह बाहरी दौड़- धूप तो बहुत करें, पर आत्म चिंतन, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्म विकास की आवश्यकता पूरी न करें, तो हमारी सामर्थ्य स्वल्प रहेगी और कुछ कहने लायक परिणाम न निकलेगा।
* हम अपना अंतःकरण टटोलें और उसमें यदि कुछ उदात्त जीवन तत्त्व के कण मिल जाएँ, तो उन्हें सींचें, सँजोएँ और जितना अधिक संभव हो सके ऋषियों की परम्परा जीवित रखने के लिए खुद ही कुछ कर दिखाएँ।
* युग निर्माण परिजनों को जेवर- जायदाद बनाने की नहीं, विश्व निर्माण की योजनाएँ बनानी चाहिए। ऐसा करने में ही युग सेनानी- युग निर्माताओं के अनुरूप शान रहेगी।
* युग निर्माण परिवार जाग्रत् और सुसंस्कारी आत्माओं का समूह है। नव जागरण का प्राथमिक श्रेय निश्चित क्रम से सुसंस्कारी जाग्रत् आत्माओं को मिलेगा। वे ही आगे आयेंगी, मशाल की तरह जलेंगी और सर्वत्र प्रकाश उत्पन्न करेंगी।
* युग निर्माण परिवार के हर सदस्य को यह देखना है कि वह लोगों को क्या बनाना चाहता है, उनसे क्या कराना चाहता है? उसे भावी कार्यपद्धति को, विचार शैली को पहले अपने ऊपर उतारना चाहिए, फिर अपने विचार और आचरण का सम्मिश्रण एक अत्यन्त प्रभावशाली शक्ति उत्पन्न करेगी। अपनी निष्ठा कितनी प्रबल है, इसकी परीक्षा पहले अपने ऊपर ही करनी चाहिए। यदि आदर्शों को मनवाने के लिए अपना आपा हमने सहमत कर लिया, तो निःसंदेह अगणित व्यक्ति हमारे समर्थक, सहयोगी, अनुयायी बनते चले जायेंगे। फिर युग परिवर्तन अभियान की सफलता में कोई व्यतिरेक शेष न रह जाएगा।
* महाकाल की युगान्तरीय चेतना ने उन सुसंस्कारी आत्माओं को ढूँढ़ा है, जिनके पास आत्मबल की पूर्व संचित सम्पदा समुचित मात्रा में पहले से ही विद्यमान थी। गायत्री यज्ञों के बहाने- सत्साहित्य के आकर्षण से, व्यक्तिगत संपर्क की पकड़ से मणि- मुक्तक की उस स्फटिक माला में उन्हें गूँथा है, जिसे युग निर्माण परिवार के नाम कहा- पुकारा जाता है।
* युग परिवर्तन की घड़ियों में भगवान् अपने विशेष पार्षदों को महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ सम्पादित करने के लिए भेजता है। युग निर्माण परिवार के परिजन निश्चित रूप से उसी शृंखला की अविच्छिन्न कड़ी हैं। उस देव ने उन्हें अत्यन्त पैनी सूक्ष्म दृष्टि से ढूँढ़ा और स्नेह सूत्र में पिरोया है। यों सभी आत्माएँ ईश्वर की संतान हैं, पर जिन्होंने अपने तपाया- निखारा है, उन्हें ईश्वर का विशेष प्यार- अनुग्रह उपलब्ध रहता है।
* ईश्वर जिसे प्यार करते हैं, उसे परमार्थ प्रयोजनों की पूर्ति के लिए स्फुरणा एवं साहसिकता प्रदान करते हैं। सुरक्षित पुलिस एवं सेना आड़े वक्त पर विशेष प्रयोजनों की पूर्ति के लिए भेजी जाती है। युग निर्माण परिवार के सदस्य अपने को इसी स्तर का समझें और अनुभव करें कि युगान्तर के अति महत्त्वपूर्ण अवसर पर उन्हें हनुमान, अंगद जैसी भूमिका संपादित करने को यह जन्म मिला है। युग परिवर्तन के क्रियाकलाप में असाधारण आकर्षण और कुछ कर गुजरने के लिए सतत अंतःस्फुरण का और कुछ कारण हो ही नहीं सकता। हमें तथ्य को समझना चाहिए। अपने स्वरूप और लक्ष्य को पहचानना चाहिए और आलस्य, प्रमाद में बिना एक क्षण गँवाए अपने अवतरण का प्रयोजन पूरा करने के लिए अविलम्ब कटिबद्ध हो जाना चाहिए। इससे कम में गायत्री परिवार के किसी सदस्य को शान्ति नहीं मिल सकती।
* प्रतिभा की सर्वोपरि विभूति हम सबके पास प्रचुर परिमाण में मौजूद है। किसने इसे कम निखारा, किसने अधिक इस भेद में न्यूनाधिकता हो सकती है, पर जिस प्रकार प्रत्येक परमाणु में अजस्र शक्ति भरी है और विस्फोट के अवसर पर उसकी प्रतिक्रिया स्पष्ट देखी जा सकती है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति में प्रतिभा मौजूद है। जाग्रत् आत्माओं में तो वह सहज ही अत्यधिक होती है। युग निर्माण परिवार के प्रत्येक सदस्य मे उसकी समुचित मात्रा विद्यमान है। जो आदर्शवादिता और उत्कृष्टता की उठती हुई हिलोरों के रूप में सहज ही जानी- परखी जा सकती है- इसे अग्नि प्रज्ज्वलन की तरह तीव्र से तीव्रतर व तीव्रतम किया जाना चाहिए। अन्धी भेड़ किधर- किधर जा रही है- क्या चाह रही है, यह देखने की अपेक्षा परमेश्वर के संकेत को, युगधर्म को शिरोधार्य करके ऐसे कदम बढ़ाने चाहिए, जो अपने लिए- संसार के लिए श्रेय साधन प्रस्तुत कर सके। तो महाकाल की एक महत्त्वपूर्ण माँग पूरी कर सकने में हमारी भूमिका चिरस्मरणीय- ऐतिहासिक हो सकती है।
* युग निर्माण परिवार इन दिनों भारत में एक सुधारवादी धर्म संगठन के रूप में दीखता है। कल उसकी भूमिकाएँ सर्वतोमुखी, सार्वजनीन होंगी। अनेकता को एकता में परिणत करने वाले प्रयास कहाँ से कहाँ किस तरह उभरते हैं? इनके मनमोहन और आश्चर्यचकित करने वाले दृश्य देखने के लिए प्रत्येक आँख वाले को अब तैयार ही रहना चाहिए।
* अग्रगामी पंक्ति में आने वालों को ही श्रेय भाजन बनने का अवसर मिलता है। महान् प्रयोजनों के लिए भीड़ तो पीछे भी आती रहती है और अनुगामियों से कम नहीं कुछ अधिक ही काम करती है, परन्तु श्रेय- सौभाग्य का अवसर बीत गया होता है। मिशन के सूत्र संचालकों की इच्छा है कि युग निर्माण परिवार की आत्मबल सम्पन्न आत्माएँ इन्हीं दिनों आगे आएँ और अग्रिम पंक्ति में खड़े होने वाले युग निर्माताओं की ऐतिहासिक भूमिका निबाहें।
* हमारी अभिलाषा है कि प्रज्ञा परिवार का प्रत्येक सदस्य विचार करने की कला सीखे, जिन्दगी जीने की विद्या की प्रवीणता प्राप्त करे और अपने दृष्टिकोण एवं कार्यक्रम में आवश्यक हेर- फेर करके आनंद और उल्लास का, प्रकाश और विकास का जीवन जिए। हममें से हर एक का परिवार सीता, सावित्री जैसी नारियों से, श्रवणकुमार जैसे बच्चों से, भरत जैसे भाइयों से, कौशल्या जैसी माताओं से, दशरथ जैसे पिताओं से भरा- पूरा हो। प्रेम और सद्भावना के वातावरण में अभावग्रस्त जीवन भी स्वर्ग जैसा लगता है। स्वभाव और दृष्टिकोण में थोड़ा अंतर कर लिया जाय, तो हमारे परिवार में सचमुच स्वर्गीय सुख- शान्ति विराजती दीख सकती है और उस वातावरण में पले हुए बालक नर- रत्न और महापुरुष बनकर निकल सकते हैं। ऐसे हीरे- मोतियों की खानें अपने परिवार में, हर घर में देखने की हमारी आकांक्षा अत्यधिक प्रबल होती जाती है।
* हमारा मन है कि अपने परिजन कमाने- खाने की ही एक बात सोचते- सोचते और उसी के लिए मानव जीवन को बर्बाद करते हुए खाली हाथ दुनिया से न उठ जाएँ। उन्हें ऐसा करने का भी अवसर मिले, जिसके लाभ से लाभान्वित होकर वे जीवन लीला समाप्त करते हुए गर्व अनुभव कर सकें और संतोष की साँस ले सकें। इसके लिए- सेवा और परमार्थ के लिए अपना कुछ समय और श्रम लगाना ही चाहिए। लोगों ने एक- एक ईंट खिसका कर हमारे आदर्श, देश, जाति और समाज को बर्बाद किया है। यदि हम उसके निर्माण के लिए एक- एक ईंट प्रस्तुत करें, तो हमारी संस्कृति का महल पुनः उतना ही ऊँचा उठ सकता है, जितना प्राचीनकाल में था। सेवा की अग्नि में पके बिना कोई जीवन पवित्र और परिपक्व नहीं बन सकता। अंतःप्रदेश में सद्गुणों की जड़ जमाने के लिए भी सेवा धर्म का अपनाना जरूरी है।
* हमने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया है। अब आपका कर्तव्य है कि आप अपना कार्य आरम्भ कर दें। दोनों हाथों से ही ताली बजेगी। युग निर्माण योजना साझे की खेती है। सब मिलकर कटिबद्ध होंगे, तो ही काम चलेगा। शरीर के सभी अंग अपने- अपने हिस्से का काम ठीक तरह करते हैं, तो ही स्वास्थ्य ठीक रहता है। यदि थोड़े से कम महत्त्वपूर्ण लगने वाले अंग- प्रत्यंग भी अपना काम करना छोड़ दें, तो सारे शरीर के लिए विपत्ति खड़ी हो जाती है। घड़ी के पुर्जों की तरह अखण्ड ज्योति परिवार के हर पुर्जे को अपने जिम्मे का काम निपटाने के लिए प्रसन्नता और उत्साहपूर्वक तत्पर हो जाना चाहिए।
* युग निर्माण योजना कागजी या कल्पनात्मक नहीं है। वह समय की पुकार, जनमानस की गुहार और दैवी इच्छा की प्रत्यक्ष प्रक्रिया है। इसे साकार होना ही है। इसके आरंभ करने का श्रेय ‘अखण्ड ज्योति’ परिवार को मिल रहा है, तो इस सौभाग्य के लिए हममें से प्रत्येक को प्रसन्न होना चाहिए और गर्व अनुभव करना चाहिए।
* युग परिवर्तन के जिस महान् उद्देश्य को लेकर हम लोग विश्व के एक ऐतिहासिक अभियान में संलग्न हैं, उसकी सफलता हमारी निष्ठा, तत्परता और परमार्थ बुद्धि की गहराई पर निर्भर है। जितना ही अधिक हमारा मनोयोग, पुरुषार्थ और त्याग, बलिदान होगा, लक्ष्य उतना ही समीप आता चला जाएगा। भगवान् ऐसे महान् उत्तरदायित्वों की पूर्ति कुछ विशिष्ट आत्माओं के कंधों पर डालता है। युग निर्माण परिवार के सदस्य गण एक ऐसी ही सुदृढ़ शृंखला की कड़ियाँ हैं, जिन्हें अपने पूर्व संचित उच्च संस्कारों के कारण वह गौरव प्राप्त हुआ है वे भगवान् की इच्छा पूर्ण करने वालों की अग्रिम पंक्ति में खड़े होने का सौभाग्य और गर्व- गौरव प्राप्त कर सकें। इस उत्तरदायित्व का भार अपने कंधों पर जब इच्छा- अनिच्छा से आ ही गया, तो उचित यही है कि उसकी पूर्ति में तत्परतापूर्वक जुटा जाय।
* केवल शरीर रक्षा, परिवार पोषण और धन उपार्जन जैसे कार्यों में ही अपना जीवन खपा देने वाले लोगों में ही अपनी गणना होती रहे, यह उचित न होगा। हमारे उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों की शृंखला में एक विशेष कड़ी परमार्थ की भी जुड़ी रहनी चाहिए। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जिनमें विचारणा की, भावना और उत्कृष्टता की जितनी मात्रा मौजूद है, उसके लिए उतना ही अधिक उत्तरदायित्व युग परिवर्तन का है। उच्च स्तरीय आत्माओं के लिए आज की स्थिति में यही सबसे बड़ा परमार्थ है।
* युग निर्माण योजना ने ज्ञान- यज्ञ की जिस मशाल को जलाया है, उसे प्रज्वलित एवं प्रदीप्त ही रहना चाहिए। इस अंधकार युग में यह प्रकाश ही आशा की आजीवन ज्योति है। व्यक्ति और समाज की उज्ज्वल भविष्य की संभावना अपने इस अभियान की सफलता पर निर्भर है। इसलिए हममें से किसी को भी इस दिशा में अन्यमनस्क नहीं होना चाहिए।
* विचार क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति एवं सामाजिक क्रान्ति के त्रिविध मोर्चों पर लड़ने वाली सृजन सेना का- युग वाहिनी का महत्त्व स्थल सेना, जल सेना और वायु सेना से किसी भी प्रकार कम नहीं। ध्वंस से सृजन में अधिक त्याग की, मनोबल की, सूझ- बूझ ओर श्रद्धा की आवश्यकता पड़ती है। ध्वंस से सृजन का महत्त्व अधिक है और वस्तुओं से भावना का मूल्य अधिक है। भावनात्मक नव निर्माण में संलग्न सृजन सेना के कंधों पर दुहरा उत्तरदायित्व है। वह सशस्त्र सेना की तरह अवांछनीयता के दमन करने तक ही सीमित नहीं, वरन् देवत्व को विकसित करने की भी उसकी जिम्मेदारी है।
* युग निर्माण की विचारधारा अपने- अपने देश, समाज, व्यक्ति के अनुरूप अपने- अपने क्षेत्रों में तथा समस्त विश्व में फैलनी है। अपनी परिस्थिति, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों के लोग अपने- अपने ढंग से उसे कार्यान्वित करेंगे। इसका आरंभ मात्र गायत्री परिवार द्वारा हो रहा है। यह आरंभ कितना ही छोटा क्यों न हो, उसका उत्तरदायित्व बहुत बड़ा है।
* कार्य कैसे हों? आरंभ कौन करें? सृजेताओं और साधनों की आवश्यकता पूरी कैसे हो? इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ने के लिए एक दूसरे का मुँह ताकने से काम नहीं चलेगा। जिनमें देवत्व की इतनी मात्रा विद्यमान हो कि सत्प्रयोजनों में अपना चिन्तन ही नहीं, समय और साधनों को भी नियोजित कर सकें, वे संख्या और योग्यता की दृष्टि से हलके होते हुए भी इस भारी उत्तरदायित्व को अपने कंधों पर वहन कर सकते हैं। मनुष्य मूलतः असमर्थ नहीं है। ईश्वर का राजकुमार होने के नाते उसे जो जन्मजात क्षमताएँ प्राप्त हैं, बात उनके सदुपयोग करने भर की है। यह बन पड़े, तो वह सब कुछ सरलतापूर्वक हो सकता है, जिसकी आज माँग और आवश्यकता है।
* युग निर्माण परिवार के हर व्यक्ति को अपने बारे में यह मान्यता बनानी चाहिए कि हमको भगवान् ने विशेष काम के लिए भेजा है। समय को बदलने का उत्तरदायित्व, युग की आवश्यकताओं को पूरा करने का उत्तरदायित्व हमारे कंधों पर है।
* प्रज्ञा परिजनों, गायत्री परिवार के सदस्यों को हम उसी दृष्टि से देखते हैं, जैसे कि कोई वयोवृद्ध व्यक्ति अपने निज के कुटुम्ब- परिवार को देखता है। जिस प्रकार हममें से हर एक को अपना- अपना परिवार सुविकसित करना है, उसी प्रकार हम भी ‘गायत्री परिवार’ के सदस्यों को अपना निजी कुटुम्ब मानकर उसे ऐसे सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनाना चाहते हैं, जिसे देखकर दूसरों को भी उसी ढाँचे में ढलने की प्रेरणा मिले, पर हमारे यह प्रयत्न तभी सफल हो सकते हैं, जब प्रत्येक परिजन हमें भी वैसी ही आत्मीयता की दृष्टि से देखें और जो कहा या लिखा जा रहा है, उसे भावनापूर्वक समझें।
* हमारा ज्ञानयज्ञ इस युग का सबसे महान् ऐतिहासिक अभियान है। इसमें परिवार के प्रत्येक परिजन को प्रतिस्पर्धा पूर्वक आत्म- योग प्रदान करना चाहिए। छुटपुट अनेक पुण्य- परमार्थों की बात सोचने की अपेक्षा युग की महती आवश्यकता को पूर्ण करने वाले इस एक ही अभियान को हमें एकाग्रता पूर्वक पूर्ण करना चाहिए। संस्कृति- सीता को अज्ञान- असुर के चंगुल से छुड़ाना हम रीछ- वानरों का एक ही लक्ष्य और एक ही कार्यक्रम होना चाहिए। अनेक दिशाओं में न भटकें, अपनी समस्त श्रद्धा इस एक ही बिन्दु पर केन्द्रित करें। हनुमान की तरह- ‘‘राम काज कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम’’ की एक ही रट लगानी चाहिए और अपने को तिल- तिल जलाकर संसार में सद्ज्ञान का प्रकाश विकीर्ण करने वाले इस ज्ञानदीप को, ज्ञानयज्ञ को प्रदीप्त रखने में बड़े से बड़ा पुरुषार्थ, त्याग- बलिदान करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
* आपके पास जो भी घटना, परिस्थिति, व्यक्ति या विचार आए, प्रत्येक के ऊपर कसौटी लगाइए और देखिये कि इसमें क्या उचित है और क्या अनुचित? कौन नाराज होता है और कौन खुश होता है- यह देखना बंद कीजिए। यह दुनिया ऐसे पागलों की दुनिया है कि अगर आपने यह विचार करना शुरू कर दिया कि हमारे हितैषी किस बात में प्रसन्न होंगे, तो फिर आप कोई सही काम नहीं कर सकते। अगर आपको भगवान् को प्रसन्न करना है और अपने ईमान को प्रसन्न करना है, जीवात्मा को प्रसन्न करना है, तो लोगों की नाराजगी और प्रसन्नता की बाबत विचार करना एकदम बंद कर देना पड़ेगा। हमको भगवान् की प्रसन्नता की जरूरत है, लोगों की प्रसन्नता की नहीं।
* आत्मीय परिजनों ! आपमें वह तत्त्व हमें दिखाई पड़ते हैं, जो जीवन्तों में होने चाहिए। जीवन्त वे जो सामान्य मनुष्यों से ऊँचे उठे हुए होते हैं। जैसे आपने सुबह सूरज को निकलते हुए देखा होगा। सबसे पहले सूरज की किरणें पहाड़ों की चोटी पर आती हैं, पेड़ों पर आती हैं, फिर नीचे आते- आते जमीन पर आती है। भगवान् भी उनके ऊपर आते हैं, जिनके पास दिल होता है, हृदय होता है, भावनाएँ होती हैं।
* हमारे इतने बड़े परिवार में थोड़े लोग अन्यमनस्क रहें, तो उनकी उपेक्षा की जा सकती है, पर अधिकांश को उस कसौटी पर खरा ही उतरना चाहिए कि मिशन की विचारधारा इतने लम्बे समय से पढ़ते रहने पर थोड़ा बहुत रंग चढ़ा या नहीं अथवा इस कान से सुन उस कान से निकाल देने वाली उपहासास्पद विडम्बना ही अब तक चलती रही?
* आज ऐसे शूरवीरों की जरूरत है, जो पीड़ित मानवता का परित्राण करने के लिए अपनी सुख- सुविधाओं का उत्सर्ग कर सकें। पेट भरने के लिए रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ा पाकर जो संतुष्ट हो सकें और जिन्हें संचय, संग्रह की, बड़प्पन और अमीरी की लालसा न हो। जो शरीर की नहीं, आत्मा को अपना स्वरूप मानें और आत्मा की शान्ति के लिए विश्व मानव की सेवा- साधना में अपने को समर्पित कर दें, उन्हें सच्चे अर्थों में संत, तपस्वी और साहसी कहा जाएगा।
* आज हमारा समाज ठीक मोहग्रस्त अर्जुन की स्थिति में है। दीनता और दासता ने उसे गई- गुजरी स्थिति में पहुँचा दिया है। छुटकारा राजनैतिक गुलामी भर से हुआ है। मानसिक दृष्टि से हम अभी भी गुलाम हैं। पश्चिम में से आई अनार्य संस्कृति के व्यामोह से हमारा कण- कण मूर्छित हुआ पड़ा है। अपना सब कुछ हमें तुच्छ दीखता है और बिरानी पत्तल का भात मोहन भोग जैसा मधुर सूझ रहा है। सामाजिक, नैतिक, मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, बौद्धिक, भावनात्मक सभी क्षेत्रों में कुण्ठाएँ हमें घेरे खड़ी हैं। प्रगति की स्वर्णिम किरणों का विश्व के नागरिक आनंद ले रहे हैं, पर हम अभी भी अवसाद की मूर्छा में पड़े इधर- उधर लुढ़क रहे हैं। इस अवांछनीय स्थिति से हमें उबरना ही होगा, अन्यथा इस घुड़दौड़ की प्रगति में बहुत पिछड़ जाने पर हम कहीं के भी न रहेंगे। समय की पुकार है कि हम जगें, उठें और आगे बढ़ें।
* युग परिवर्तन का आरंभ व्यक्ति परिवर्तन की उग्र प्रक्रिया के साथ आरंभ होगा। इसके लिए भगवान् ऐसा सूक्ष्म प्रेरणा- प्रवाह उत्पन्न कर रहे हैं, जो हर जीवित और जाग्रत् आत्मा को व्याकुल- बेचैन कर दे। अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करने के लिए हर घड़ी विवश करे और उसे घसीटकर उस स्थान पर खड़ा कर दे, जहाँ स्वतंत्र चिंतन अनिवार्य हो जाता है। विवेक का प्रकाश जब अपनाया जाता है, तब अँधेरे की आशंकाएँ और विभीषिकाएँ सभी तिरोहित हो जाती हैं। ईश्वरीय प्रकाश विवेक के रूप में अवतरित होता है और जहाँ भी वे दिव्य किरणें पड़ती हैं, वहाँ अंधानुकरण एवं पूर्वाग्रहों का विनाश होता है। मनुष्य इतना साहस अनुभव करता है कि औचित्य के मार्ग पर अकेला ही चल पड़े। भले ही उसके तथाकथित शुभचिंतक उसके लिए उसे रोकते- टोकते ही रह जाएँ।
* आत्म परिवर्तन के साथ- साथ यही जाग्रत् आत्माएँ विश्व परिवर्तन की भूमिका प्रस्तुत करेंगी। प्रकाशवान् ही प्रकाश दे सकता है। आग से आग उत्पन्न होती है। जागा हुआ ही दूसरों को जगा सकता है। जागरण की भूमिका जाग्रत् आत्माएँ ही निभाएँगी। आत्म परिवर्तन की चिनगारियाँ ही युग परिवर्तन के प्रचण्ड दावानल का रूप धारण करेंगी। यही सब तो इन दिनों हो रहा है। जाग्रत् आत्माओं में एक असाधारण हलचल इन दिनों उठ रही है। उनकी अन्तरात्मा उन्हें पग- पग पर बेचैन कर रही है, ढर्रे का पशु जीवन नहीं जियेंगे, पेट और प्रजनन के लिए, वासना और तृष्णा के लिए जिन्दगी के दिन पूरे करने वाले नर- कीटों की पंक्ति में नहीं खड़े रहेंगे, ईश्वर के अरमान और उद्देश्य को निरर्थक नहीं बनने देंगे। लोगों का अनुकरण नहीं करेंगे, उनके लिए स्वतः अनुकरणीय आदर्श बनकर खड़े होंगे। यह आंतरिक समुद्र- मंथन इन दिनों हर जीवित और जाग्रत् आत्मा के अंदर इतनी तेजी से चल रहा है कि वे पुराने ही हैं, पर भीतर कौन घुस पड़ा, जो उन्हें ऊँचा सोचने के लिए ही नहीं, ऊँचा करने के लिए भी विवश, बेचैन कर रहा है। निश्चित रूप से यह ईश्वरीय प्रेरणा का अवतरण है।
* मनुष्य अपने आप में महान् है। उसमें संपूर्ण देव सत्ता और उत्कृष्टतम गरिमा ओतप्रोत है। यह आत्मा ही परमात्मा का स्वरूप है। माया, मलीनता, भ्रान्ति ही समस्त दुःख, शोक का कारण है। इस आत्मानुभूति पर ही सारा ध्यान केन्द्रित किया गया है कि इस मार्ग पर जितनी प्रगति होगी, व्यक्ति उतना ही महान् बनता चला जाएगा। यही आत्मदर्शन है। इसमें न ईश्वर भक्ति की तरह पक्षपात की आशा है और न समाज भक्ति की तरह बुद्धिबल के आधार पर उलटी- सीधी व्यवस्थाएँ गढ़ डालने की गुंजायश। युग परिवर्तन का, भावनात्मक नवनिर्माण का आधार यह आत्मवाद ही हो सकता है। युग निर्माण परिवार के परिजनों को अपनी आस्थाएँ आत्म दर्शन के आधार पर विनिर्मित एवं विकसित करनी चाहिए।
* हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे। इस तथ्य का निरन्तर ध्यान बनाये रखा जाये। अपनी क्षुद्रताएँ और दुष्टताएँ दूसरों से छिपाकर रखी जा सकती है, पर अपने आपसे तो कुछ छिपाया नहीं जा सकता। दूसरे तो किसी भय या प्रलोभन से अपने दोषों को सहन कर सकते हैं, पर आत्मा तो वैसा क्यों करेगी। आत्म धिक्कार, आत्म प्रताड़ना, आत्म असंतोष, आत्म विद्रोह मानवी चेतना को मिलने वाला सबसे बड़ा दण्ड है। शरीर को दर्द, चोट, ताप आदि से कष्ट होता है। मन को शोक, अपमान, घाटा, बिछोह आदि से दुःख होता है, पर आत्मा को तिलमिला देने वाली पीड़ा तो आत्म- धिक्कार के रूप में ही सहनी पड़ती है।
* आत्मवादी हराम की, अनीति की कमाई नहीं खा सकता। उनका जीवन उसकी निष्ठा का सूचना पट होता है। बेईमानी की कमाई से जो वैभव प्रदर्शन किया जाता है, वह एक तरह से अपनी अनैतिकता की सार्वजनिक घोषणा है। कोई सुप्तात्मा ही अपने बेईमान होने के इस सूचना पट को लगाकर प्रसन्न हो सकता है। आत्मवादी इसके लिए ललचाना तो दूर, उस ओर फूटी आँख देखना भी पसन्द नहीं करेगा। उसे तो आत्मा का वर्चस्व बढ़ाने वाली हर क्रिया रुचिकर लगेगी। न वह भौतिकता की आकांक्षा करेगा और न उससे प्रभावित होगा। उसे कुछ प्राप्त भी हो जाएगा, तो किसी आवश्यकता युक्त व्यक्ति की ओर ही उसे बढ़ा देगा। आत्मवाद की प्रेरणा है- आत्म गौरव की रक्षा। हमें ऐसा ही जीवनक्रम स्वयं अपनाना चाहिए और ऐसी ही आस्था अपने परिवार- प्रभाव क्षेत्र में उत्पन्न करनी चाहिए।
* अपने आपको ढालने, बदलने, बनाने की सर्वोत्तम प्रयोगशाला है- अपना परिवार। जैसे तैरना सीखने के लिए तालाब चाहिए, निशाना साधने के लिए बंदूक, पढ़ने के लिए पुस्तक चाहिए और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए प्रयोगशाला। यों अपनी आस्थाएँ, मान्यताएँ एकाकी भी बनाई, बदली जा सकती हैं, पर वे खरी उतरी कि नहीं, परिपक्व हुई कि नहीं? इसका परीक्षण भी होना चाहिए। इसके लिए उपयुक्त कसौटी परिवार ही हो सकता है। फिर वह ईश्वर का सींचा हुआ एक बगीचा भी है। उसे कर्मठ और कुशल माली की तरह सम्भाला- सँजोया जाना भी है। विश्व मानव के चरणों में मनुष्य अपनी श्रेष्ठतम श्रद्धांजलि एक सुसंस्कृत परिवार के रूप में ही तो प्रस्तुत करता है। परिवार निर्माण की प्रक्रिया जहाँ पुनीत उत्तरदायित्व का निर्वाह करती है, वहाँ आत्म निर्माण का पथ- प्रशस्त करने में भी असाधारण रूप से सहायक होती है।
* हमारा सुदृढ़ निश्चय होना चाहिए कि यह संसार ही भगवान् का सच्चा स्वरूप है। लोकमंगल के लिए किये गये प्रयास भगवान् की सर्वोत्तम पूजा है। ईश्वरीय प्यार को प्राप्त करने के लिए अपना आंतरिक स्तर परिष्कृत करना ही सर्वश्रेष्ठ तप- साधना है। इन दिनों वही युग साधना है।
* इस समय आपको भगवान् का काम करना चाहिए। दुनिया में कोई व्यक्ति भगवान् का केवल नाम लेकर ऊँचा नहीं उठा है। उसे भगवान् का काम भी करना पड़ा है। हनुमान ने कितनी उपासना की थी, नल- नील, जामवन्त, अर्जुन ने कितनी पूजा−पाठ एवं तीर्थयात्रा की थी, यह हम नहीं कह सकते? परन्तु उन्होंने भगवान् का काम किया था। भगवान् ने भी उनके कार्यों में कंधे से कंधा मिलाया था। ये लोग घाटे में नहीं रहे। अगर आप भगवान् का नाम लेकर अपने आपको बहकाते रहे, तो आप खाली हाथ ही रहेंगे।
* जो युग निर्माण हम करने चले हैं, उसका बड़ा और कारगर हथियार हमारे पास है, वह है हमारा व्यक्तित्व और चरित्र। हमको जो भी कार्य करना है, जो कोई भी सहायता प्राप्त करनी है, वह रामायण, गीता, यज्ञ या धार्मिक व्याख्यानों के माध्यम से नहीं पूरा होने वाला है। अगर किसी तरह से हमारे मिशन को सफलता मिलनी है और वह उद्देश्य पूरा होना है, तो वह आपका चरित्र ही- आपका व्यक्तित्व ही एक मार्ग है- एक हथियार है।
* अध्यात्म क्षेत्र में वरिष्ठता, योग्यता के आधार पर नहीं, सद्गुणों की अग्नि की परीक्षा में जाँची जाती है। इस गुण शृंखला में निरहंकारिता को, विनयशीलता को अति महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सरकारी क्षेत्रों में योग्यता के आधार पर पदोन्नति होती और नौकरी बढ़ती है। वही मापदण्ड यदि अध्यात्म क्षेत्र में भी अपनाया गया, तो फिर भावनाओं का कहीं भी कोई महत्त्व नहीं रहेगा। महत्त्वाकांक्षी लोग ही इस क्षेत्र पर भी अपना आधिपत्य जमाने के लिए योग्यता की दुहाई देने लगेंगे, तब सदाशयता की कोई पूछ ही नहीं रहेगी।
* लोकसेवी को जनता सम्मान देती है। वह वस्तुतः उस सेवाधर्म की पुण्य परम्परा का- सूत्र संचालन तंत्र का सम्मान है। सत्प्रयोजनों के लिए लोकश्रद्धा बनी रहे, मात्र इसी एक प्रयोजन के लिए सम्मान के प्रकटीकरण की प्रथा चली है। गलती यह होती है कि सेवाभावी उसे अपनी व्यक्तिगत योग्यता का प्रतिफल मानते हैं। अहंकार में डूबा जाते हैं और उसे अपना अधिकार समझने लगते हैं। जहाँ उसमें कमी होती है, वहाँ अप्रसन्न होते हैं। अधिक पाने के लिए आतुर रहते हैं। बँटवारा होने के डर से साथियों को हटाने या गिराने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे ही हथकंडे अधिक मात्रा में सम्मान पाने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं। इस आपाधापी में कौन कितना सफल हुआ, यह तो ईश्वर ही जाने; पर यह आँख पसारकर सर्वत्र देखा जा सकता है कि यश लोलुपता, पद लोलुपता, अहमन्यता किसी के छिपाये नहीं छिपती।
* जिस प्रकार सिर, धड़ और पैरों के तीन भागों में हमारा शरीर बँटा हुआ है, उसी प्रकार जीवन भी वैयक्तिक, परिवार और समाज इन तीन भागों में विभाजित है। हम व्यक्तिगत रूप से अच्छे हों, परिवार भी सभ्य हो, पर चारों ओर रहने वाले वे लोग जिनसे निरन्तर अपना काम पड़ता है यदि असभ्य, असंस्कृत और अनैतिक प्रकृति के हों, तो प्रगति का पथ ही नहीं रुका रहेगा, वरन् पग- पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। जिस प्रकार जलवायु के अच्छे होने से घटिया आहार मिलने पर भी मनुष्य स्वस्थ रह सकता है, उसी प्रकार चारों ओर का वातावरण प्रसन्नता और प्रफुल्लता से भरा हो, तो असुविधाओं से भरा हुआ अभावग्रस्त जीवन भी हँसी- खुशी से कट जाता है। सिर, धड़ और अधोभाग इन तीनों में से एक भाग भी यदि रुग्ण या अशक्त रहे, तो सारा शरीर ही विपन्न स्थिति में पड़ा रहेगा, उसी प्रकार व्यक्तिगत और पारिवारिक विकास के साधन जुटा लेने पर भी यदि सामाजिक जीवन अस्त- व्यस्त बना हुआ है, तो उसके कारण चिन्ता और परेशानी की स्थिति बनी ही रहेगी। हमें अपने आसपास का वातावरण अच्छा बनाने का प्रयत्न करना ही चाहिए, इस ओर से उपेक्षा रखने और अपने मतलब से मतलब रखने की नीति अपनाने से लाभ नहीं घाटा ही रहता है।
* कहते हैं कि निर्जीव चीजें एक और एक दो होती हैं; किन्तु जीवित मनुष्य यदि सच्चेपन से एक दूसरे को प्रेम करें और एकता की सुदृढ़ भावना में संघबद्ध हों, तो वे एक और एक मिलकर ग्यारह बन जाता है। हमें इस प्रक्रिया को अपनाना ही होगा, इसके बिना और कोई मार्ग नहीं। सज्जनों का संगठन हुए बिना दुर्जनता का पलायन और किसी उपाय से नहीं हो सकता।
इतिहास साक्षी है कि अनैतिकता के प्रतिरोध के लिए नैतिक तत्त्वों को संगठित होना पड़ा है और संगठन के बलबूते पर ही दुष्टता को परास्त कर सकना संभव हुआ है। अवतारों और युग पुरुषों ने भी धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश केवल अपने एकाकी बलबूते पर नहीं कर लिया है, वरन् उन्हें भी संगठन की रचना करनी पड़ी है और उसी का सहारा लेकर यह लोकशिक्षण करना पड़ा है कि सज्जनता की रक्षा केवल संगठित शक्ति द्वारा ही संभव होगा। भगवान् राम को रीछ, बन्दरों की सेना इकट्ठी करनी पड़ी थी, भगवान् कृष्ण के साथ गोप और पशुपालकों का एक बड़ा संगठन था। राणा प्रताप को सेना इकट्ठी करने के लिए भामाशाह ने आर्थिक साधन जुटाये थे। महात्मा गाँधी ने स्वराज्य आन्दोलन के लिए कितना विशाल संगठन खड़ा किया था। वस्तुतः संगठन का सहारा लिए बिना समाज सुधार एवं युग निर्माण जैसे महान् कार्य तो और किसी प्रकार संभव ही नहीं हो सकते, इसलिए हमको भी अपने व्यक्तिगत जीवन को सुविकसित बनाने के लिए अपने साथ सज्जनों का एक संगठन रखना ही पड़ेगा। युग निर्माण की जनमानस विकास योजना के लिए भी इसकी अनिवार्य आवश्यकता है।