गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ बोलिए-
ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! व्यक्ति एवं समाज के ऊपर नियंत्रण करने वाली दो ही शक्तियाँ मुख्य हैं। एक शक्ति का नाम- धर्मतंत्र और दूसरी का नाम है- राजतंत्र। राजतंत्र मनुष्य के ऊपर नियंत्रगण करता है और धर्मतंत्र मनुष्य के भीतर श्रेष्ठताओं एवं रचनात्मक प्रवृत्तियों को ऊपर उठाता है, उभारता है। एक का काम संसार में और व्यक्ति में महत्ता को, श्रेष्ठता को ऊँचा उठाना है और दूसरे का काम मनुष्य की अवांछनीय गतिविधियों पर नियंत्रण करना है। भौतिक क्षेत्र राजनीति का है और आत्मिक क्षेत्र धर्म का है। दोनों ही एक गाड़ी के दो पहियों के तरीके से एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे का एक दूसरे से बहुत घनिष्ठ संबंध है। राजनीति यदि ठीक हो, राजसत्ता यदि ठीक हो, तो मनुष्यों की धार्मिकता, विचारणा, आध्यात्मिकता और श्रेष्ठता अक्षुण्ण बनी रहेगी और यदि मनुष्यों की धर्मबुद्धि ठीक हो, तो उसका परिणाम राजनीति पर हुए बिना नहीं रहेगा।
दोनों एक दूसरे के पूरक
मित्रो! अच्छे व्यक्ति, धार्मिक व्यक्ति अच्छी सरकार बना सकने में समर्थ हैं और अच्छी सरकार में यदि अच्छे व्यक्ति जा पहुँचे, तो साधन स्वल्प होते हुए भी, सामग्री स्वल्प होते हुए भी समाज का हितसाधन कर सकते हैं। धर्म के मार्ग पर जो रुकावटें पैदा हो या जो कठिनाइयाँ हों, उनको दूर करना राजसत्ता का काम है और राजसत्ता में तो विकृतियों पैदा हों, उनको नियंत्रित करना धर्मसत्ता का काम है। वस्तुतः दोनों ही एक- दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही समर्थ हैं। दोनों का ही क्षेत्र बड़ा व्यापक है और दोनों की सामर्थ्य लगभग एक समान है। हमारे देश में धर्मसत्ता राजनीति सत्ता से कहीं आगे थी। इस समय गई गुजरी अवस्था में भी जबकि विकृतियाँ चारों ओर से फैल पड़ी हैं। ऐसे समय में भी धर्मसत्ता का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है।
हम देखते हैं कि इतनी जनशक्ति, धनशक्ति, भावनाशक्ति, विवेकशक्ति इस धर्मक्षेत्र में लगी हुई है। यदि ये शक्तियाँ ठीक दिशा में नियोजित की गई होती और उनका ठीक तरीके से उपयोग किया गया होता, तो जो काम राजसत्ता देश भर में कर सकती है, उसकी अपेक्षा सौ गुना ज्यादा काम धर्मसत्ता ने कर लिया होता, क्योंकि अपने देश में धर्मसत्ता का स्थान बहुत ऊँचा और महत्त्वपूर्ण है। अपने यहाँ संसार के सभी क्षेत्रों से अधिक धार्मिक प्रक्रियाओं की ओर ध्यान दिया जाता है। अपने यहाँ संत- महात्माओं को ही लें, साधु- ब्राह्मण को ही लें, तो इतना बड़ा वर्ग जिस देश में है जो धर्म के आधार पर जीविका भी प्राप्त करता है। अपने मन में यह समझता भी है कि हम धर्म के लिए जीवित हैं। न केवल अपने आप को समझता है, अपितु समाज में यह घोषित भी करता है कि हम समाज के ही नहीं हैं, हम धर्म के लिए भी हैं। अगर इन लोगों की गतिविधियाँ सही रही होती और यदि इन लोगों के विचार करने की शैली सही रही होती तो इनके द्वारा इतना बड़ा विशाल कार्य देश में ही नहीं, समस्त विश्व में कर सकना संभव हो गया होता कि दुनिया को उलट- पुलट कर लिया जाता।
भगवान बुद्ध के केवल ढाई लाख शिष्य थे। उन ढाई लाख शिष्यों को भगवान बुद्ध ने आज्ञा दी कि आप लोगों को सारे एरिया और सारे विश्व के ऊपर छाप डालनी चाहिए। इस समय जो अनैतिक और अवांछनीय वातावरण पैदा हो गया है, उसे ठीक करना चाहिए। भगवान बुद्ध की इच्छा के अनुसार गृहत्यागी, धर्म पर निष्ठा रखने वाले ढाई लाख व्यक्ति रवाना हो गए और सारे एशिया पर छा गए, सारे योरोप पर छा गए, सारे विश्व पर छा गए। उन्होंने बौद्ध धर्म संस्कृति एवं बौद्ध भावनाओं का प्रसार सारे विश्व में कर दिया।
विराट संख्या एवं बढ़े हुए साधन
मित्रो! आज हमारे साधन बहुत ज्यादा बढ़े- चढ़े हैं। अपने इस भारतवर्ष में सरकारी जनगणना के हिसाब से छप्पन लाख व्यक्ति इस तरह के है, जो कहते हैं कि हमारी जीविका केवल धर्म के आधार पर चलती है। धर्म ही हमारा व्यवसाय है, रोटी कमाने का स्रोत है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनकी जीविका धर्म नहीं है, जो केवल अपने मन और संतोष के लिए स्वान्तः सुखाय और सामान्य कर्तव्य समक्ष करके पूजा- पाठ या धार्मिक कृत्य करते हैं। धर्म के माध्यम से जीविका कमाने वालों में साधु- बाबाजी, पंडे- पुजारी आते हैं। यह संख्या छप्पन लाख हो जाती है। यह संख्या इतनी बड़ी है कि सरकार के एम्प्लाइज- कर्मचारियों की संख्या उससे कम है। सेमी गवर्नमेंट और पूरी गवर्नमेंट दोनों को मिला करके हिन्दुस्तान में चालीस लाख के लगभग कर्मचारी हैं, लेकिन धर्मसत्ता के पास छप्पन लाख कर्मचारी हैं। यह जनशक्ति इतनी बड़ी है कि उसको यदि किसी रचनात्मक कार्य में लगा दिया जाए, तो सरकार के द्वारा जितने भी रचनात्मक और नियंत्रणात्मक कार्य होते हैं, उन सबकी अपेक्षा धर्म में काम करने वाले ज्यादा काम कर सकते हैं, क्योंकि सरकार की मशीनरी में केवल वेतनभोगी लोग होते हैं, समय पर काम करने वाले होते हैं। जरा भी समय प्यादा खरच हो जाए, तो वे ओवर टाइम माँगते हैं। उन्हें पेंशन देने की जरूरत पड़ती है और भी बहुत से खरचे करने पड़ते हैं, इसलिए वे कर्मचारी बहुत महँगे भी होते हैं। उनके जीवन का उद्देश्य सेवा नहीं होता। अधिकांश लोगों की इच्छा- उद्देश्य नौकरी करना, पेट पालना होता है।
लेकिन मित्रो! धर्म के लिए जिन्होंने आजीविका स्वीकार की है, उनके सामने तो लक्ष्य भी होना चाहिए। उनके पास तो समय भी ज्यादा होना संभव है। आठ घंटे ही काम करेंगे, यह क्या बात हुई! संत- महात्मा छह घंटे सो लिए, भिक्षा से रोटी मिल गर्व, बनी- बनाई रोटी मिल गई, दो घंटे नित्यकर्म के लिए लगा दिए, आठ घंटे हो गए। आठ घंटे के बाद सोलह घंटे उनके पास बच जाते हैं। यदि वे इस सारे के सारे समय को धर्मकार्यों में लगाना चाहें, तो उनमें से एक व्यक्ति दो आदमियों के बराबर काम कर सकता है। उनमें भावनाएँ होती हैं, निष्ठाएँ होती हैं, धर्म- विश्वास होता है और भी बहुत सी बातें होती हैं। ये छप्पन लाख व्यक्ति वस्तुतः इतनी बड़ी जनसंख्या है कि चाहें तो बुद्ध भगवान के ढाई लाख शिष्यों को अपेक्षा दुनिया भर में तहलका मचा सकते हैं।
एक लाख व्यक्तियों ने फैलाया तीन- चौथाई दुनिया में धर्म
ईसाई मिशनरी के पास केवल एक लाख के करीब पादरी हैं और वे पादरी सारी दुनिया में छाए हुए हैं। उत्तरी ध्रुव से लेकर भारतवर्ष के नागालैण्ड और बस्तर तक में, जंगलों में और आदिवासियों के बीच काम करते हैं। उनका यह विश्वास है कि ईसा मसीह का संदेश और ईसाईयत का संदेश घर- घर पहुँचाया जाना चाहिए। इस विश्वास के आधार पर अपनी सुविधाओं का ध्यान किए बिना पादरी लोग सारे विश्व भर में काम करते हैं। परिणाम क्या हुआ? केवल ईसाई धर्म को, भगवान ईसा को जन्म लिए सिर्फ उन्नीस सौ सत्तर वर्ष के करीब हुए हैं। तीन भी वर्ष तक, तो उनका सारा का सारा क्रिया- कलाप अज्ञात ही बना रहा। सेंट पॉल ने ईसा के लगभग तीन सौ वर्ष बाद ईसाई धर्म की खोज की और ईसा की खोज की, उनका जीवन चरित्र ढूँढ़ा, उनके उपदेशों को संकलित किया। तीन सौ वर्ष तो ऐसे ही निकल जाते हैं केवल सोलह सौ वर्ष हुए हैं, लेकिन एक लाख व्यक्ति जो आज हैं, इससे पहले तो एक लाख भी नहीं थे। इन थोड़े से निष्ठावान, धार्मिक व्यक्तियों ने ईसाइयत का कितना प्रचार कर डाला कि दुनिया में एक तिहाई मनुष्य अर्थात एक अरब मनुष्य आज ईसाई हैं। तीन अरब की आबादी सारी दुनिया में है। इस थोड़े से समय में सारे विश्व में इतनी बड़ी संख्या फैल गई। इसका क्या कारण है? कारण केवल उन एक लाख मनुष्यों का श्रम, उनकी भावनाएँ और प्रयत्न हैं, जिनकी वजह से उन्होंने ईसा को, बाइबिल के ज्ञान को दुनिया में फैलाया।
मित्रो! अगर अपने पास धर्म की शक्ति में लगे हुए व्यक्ति इस तरह की भावना की लेकर के चले होते कि हमको ऋषियों का, सभ्यता और संस्कृति का, भगवान का संदेश जनमानस में स्थापित करना है। उससे लोक- मानस को, जन- जन को प्रभावित करना है। हर व्यक्ति को धार्मिक बनाना है और एक ऐसा समाज बनाना है कि जिसमें धर्मप्रेमी लोग रहते हैं। मर्यादाओं का पालन करने वाले, परस्पर स्नेह करने वाले और बुराइयों- अनीतियों से दूर रहने वाले व्यक्ति पैदा हों। बताइए तो उसका परिणाम कितना बड़ा हो गया होता। जरा विचार तो कीजिए। जिसके मन में भगवान की, देश और धर्म की लगन लगी हुई हो, वह एक ही आदमी कितना बड़ा काम कर सकता है। हमने कल- परसों महात्मा गाँधी को देखा था, अकेले ही थे और सारे भारतवर्ष को जगा दिया। हमने कल- परसों बुद्ध भगवान को देखा, एक ही महात्मा थे और सारे विश्वभर को जगा दिया। कल- परसों स्वामी रामतीर्थ एवं एक ही विवेकानन्द को हमने देखा, एक ही योगी थे। उनने वेदांत का संदेश भारतवर्ष से लेकर अन्य द्वीप- द्वीपांतरों तक पहुँचा दिया।
शिक्षा नहीं, भावना प्रधान
आप कहेंगे कि वे लोग तो पढ़े- लिखे और सुशिक्षित महात्मा थे और ये छप्पन लाख तो सुशिक्षित नहीं हैं। शिक्षा से और धर्म से कोई खास समझौता नहीं है। शिक्षित व्यक्ति भी उतना ही काम कर सकते हैं, जितना कि बिना शिक्षित और बिना शिक्षित धर्मप्रेमी भी उतना ही काम कर सकते हैं, जितना कि शिक्षित। संत रैदास बिना पढ़े थे और कबीर की शिक्षा भी नाम मात्र की थी। मीरा कौन ज्यादा पढ़ी- लिखी थी। नामदेव की शिक्षा क्या बढ़ी- चढ़ी थी ! दादू से लेकर के अन्य महात्मा, जो भक्तिकाल में हुए हैं, उनको शिक्षा की दृष्टि से यदि तलाश किया जाए, तो उनकी योग्यता, उनकी विद्या और शिक्षा बहुत ही कम थी, लेकिन उन लोगों ने अपने- अपने समय पर कितने महत्त्वपूर्ण कार्य किए, आप सभी जानते हैं। समाज का संरक्षण और शिक्षण करने के लिए भावनाओं की जरूरत है, प्रभाव की जरूरत है, लगन और परिश्रम की जरूरत है। शिक्षा की उतनी जरूरत नहीं है।
भारतवर्ष में सात लाख गाँव हैं। यदि छप्पन लाख संत- महात्मा इस देश में काम करने के लिए खड़े हो गए होते, तो वह काम कर दिखाया होता कि हमने राष्ट्र का नया निर्माण ही कर लिया होता। कल्पना कीजिए कि आठ महात्मा एक गाँव के पीछे हैं, उनमें से कुछ तो पढ़े- लिखे होंगे ही। यदि कुछ भी पढ़े- लिखे नहीं हैं, तो भी अपने शारीरिक श्रम के द्वारा सारे गाँव की सफाई की व्यवस्था बना सकते हैं। अगर एक महात्मा झाड़ू लेकर चल पड़े, तो बाकी लोग उसका तमाशा देखते रहें, ऐसा तो नहीं को सकता। गाँव के लोग भी श्रमदान के लिए चलेंगे, तो जहाँ गाँव की गलियों -कूचों में हर जगह गंदगी ही गंदगी दिखाई पड़ती है, वहाँ स्वच्छता दिखाई देने लगे। एक महात्मा पेशाबघर और चलते- फिरते शौचालय बनाने के लिए फावड़ा लेकर खड़ा हो जाए, तो गाँव वालों को शरम नहीं आएगी क्या।
जरूर आएगी कि हम अपने गाँव में जहाँ- तहाँ गंदगी कर देते हैं। इसके लिए हमको एक कोने में छोटा सा पेशाबघर और शौचालय बना लेना चाहिए। मैं छोटी भी बात कह रहा था कि जापान ने अपने देश की खाद्य समस्या इसी प्रकार से हल कर ली है। वहाँ फर्टिलाइजर और दूसरे प्रकार के कारखाने नहीं है। मनुष्य के मल मूत्र का ही उपयोग किया जाता है और उससे ही करोड़ों रुपये को खाद पैदा कर ली जाती है। अपने देहातों में मल- मूत्र का कोई उपयोग नहीं होता। गाँव के आस- पास ही लोग मल त्याग करके जगह खराब कर देते हैं। यदि हर गाँव में चलते- फिरते शौचालय, ड्रेनेज के शौचालय बना लिए गए होते, सारे गाँव के लोग उसी में शौच के लिए जाते, तो कितना खाद मिल सकता था। यदि महात्मा चाहते, तो इस छोटे से काम को अपने हाथ में करके राष्ट्र में करोड़ों मन अन्त पैदा करने और गाँव में स्वच्छता रखने का काम कर सकते थे।
आठ संत- महात्मा प्रति गाँव लग जाएँ तो
मित्रो! शिक्षा के ही लें। आठ आदमियों में से एक भी पढा- लिखा हो, तो गाँव में एक पाठशाला चला सकता है। प्रौढ़ पाठशाला, रात्रि पाठशाला चला सकता है जिससे अपना आज का अर्द्ध निरक्षर देश थोड़े ही दिनों में साक्षर बन सकता है। कितनी सामाजिक कुरीतियाँ और व्यसन अपने देश भर में फैले हुए हैं। ब्याह- शादियों में होने वाला खरच हिंदुस्तान के सिर पर कलंक के तरीके से है। धन का कितना अपव्यय होता है। लोगों में गरीबी और बेईमानी पैदा करने के लिए मजबूर करता है। इससे सारे राष्ट्र की जड़ें खोखली हो गई हैं। यदि ब्याह- शादियों में इतना धन खरच न किया गया होता, तो किसी को अपने बच्चे और बच्चियाँ भारी नहीं पड़तीं। किसी पिता को अपने बच्चों के लिए चिंता करने की जरूरत न होती। इन बुराइयों को दूर करने के लिए आठ संत महात्मा प्रार्थना के द्वारा, प्रचार के द्वारा भी जनमानस तैयार कर सकते थे। कोई ऐसे अवांछनीय जिद्दी व्यक्ति हों, जो दुराग्रह दिखाते हों, तो उनको सत्याग्रह करने से लेकर घिराव तक की और अनशन से लेकर दूसरे काम करने तक की धमकी ही जा सकती थी। उनको बलपूर्वक रोका जा सकता था। सरकार जिस काम को नहीं रोक सकती, उसको ये लोग रोक सकते थे।
नशेबाजी किस तेजी के साथ बढ़ती चली जाती है, आप देख रहे हैं न! बीड़ी तंबाकू आज घर- घर का शौक बन गई है। इसमें दो करोड़ रुपया प्रतिदिन खरच होता है। इस हिसाब से सात सौ तीस करोड़ रुपया अपने भारतवर्ष के लोगों को प्रतिदिन खरच करना पड़ता है। यदि इस व्यसन को रोका जा सके, तो सात सौ तीस करोड़ रुपये की राष्ट्रीय बचत हो सकती है। यह बचत इतनी बड़ी है, जिसके सहारे सारे देश में उच्च श्रेणी की शिक्षा- व्यवस्था हम आसानी से बना सकते हैं। यदि हमने नशे को रोका होता और नशे के स्थान पर आवश्यक चीजों को उत्पन्न किया होता, वह पैसा उन कामों में खरच कराया होता, जो रचनात्मक हैं, तो मजा आ जाता और पैसे के अभाव में रुके हुए शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक के सारे के सारे काम कैसे बढ़िया बन गए होते। क्या कहा जाए कुछ कह नहीं सकते। हमारी धर्मबुद्धि न जाने कैसी है। हम सब विचारशील लोगों को और बाहर के लोगों को भी हमारी धर्मबुद्धि पर हँसी आती है।
यह तो अध्यात्म नहीं है
मित्रो! भगवान की प्रार्थना करें, पूजा करें, यह बात समझ में आती है, लेकिन डंडा लेकर भगवान के पीछे ही पड़ जाएँ और कहें कि तुमको तो न हम खाने देंगे, न खाएँगे, न कुछ करेंगे और न करने देंगे, तो भगवान भी कहेगा कि अच्छे चेलों से पाला पड़ा- ये न खाते हैं, न खाने देते हैं, न उठते हैं, न उठने देते हैं, न चलते हैं न चलने देते हैं, न कुछ करते हैं और न करने देते हैं। भगवान बहुत परेशान होगा कि बाबा इनसे पिंड कैसे छुड़ाया जाए। लोगों के मन में यह ख्याल है कि भगवान का ज्यादा नाम लो, उनके ऊपर ज्यादा पानी चढ़ाओ, उनकी ज्यादा उबटन करो, तो क्या हो जाएगा कि भगवान मजबूर होकर मनोकामना पूरी कर देगा। मित्रो ! भगवान का नाम लेना साबुन लगाने के बराबर है। थोड़ी देर साबुन लगाया भी जा सकता है, लेकिन इसके बाद यदि भगवान का नाम लिया जाए, तो उसके बराबर भगवान का काम भी किया जाए। तभी एक बात पूरी होती है, अन्यथा बात कहाँ पूरी होती है। यह बात अगर लोगों को समझ में आ गई होती, तो ये छप्पन लाख व्यक्ति राष्ट्र का निर्माण और देश की सामाजिक, नैतिक और दूसरी समस्याओं का समाधान करने के लिए जुट पड़े होते, यह संख्या कितनी बड़ी है। जितने आदमी सरकार की मशीनरी चलाते है, उतनी ही बड़ी मशीनरी धर्मतंत्र के द्वारा चलाई जा सकती थी।
मित्रो! धन को ही ले, तो गवर्नमेंट जितना रेवेन्यू वसूल करती है, टैक्स वसूल करती है, उससे ज्यादा धन जनता हमारे धर्मकार्यों के लिए दिया करती है। मंदिरों में कितनी बड़ी संपदा लगी हुई है। सरकार के खजाने में जितनी कुल पूँजी है और रिजर्व की के पास जितना धन है, लगभग उतना ही धन मंदिरों और मठों के पास इमारतों के रूप में, नकदी के रूप में, जायदाद के रूप में अभी भी विद्यमान है। धर्मतंत्र की संपदा एक तरह का रिजर्व बैंक है। अगर धर्मतंत्र की संपदा भोग- प्रसाद लगाने, मिठाई बाँटने, पंडे- पुजारियों का पेट पालने, शंख घड़ियाल बजाने और कर्मकाण्ड करने की अपेक्षा जनमानस को ऊँचा उठाने के लिए लगा दी गई होती, तो मजा आ जाता। मैं जहाँ मथुरा में रहता हूँ, वहीं के दो मंदिरों की बात बताता हूँ। सबका जिक्र तो मैं नहीं कर सकता। वहाँ दो भगवान दो मंदिरों में दो लाख रुपये मासिक का भोग खा जाते हैं।
क्या भगवान यह सब चाहता है?
ऐसे लगभग पाँच हजार मंदिर हैं। इसमें न्यूनाधिक मात्रा को लगाया जाए, तो मैं समझता हूँ कि रोज भगवान के खाने−पीने का खरचा मथुरा- वृन्दावन में दो नगरों में पन्द्रह लाख रुपये प्रतिदिन जा बैठता हो, तो कोई अचंभे की बात नहीं है। पंद्रह लाख प्रतिदिन से कितने करोड़ महीने के और कितने अरब साल भर के होते हैं, जरा हिसाब लगाइए न। यह सारा का सारा धन यदि भगवान को भोग लगाने की अपेक्षा उन कामों में खरच किया जाता, जो व्यक्ति के भीतर से कुछ चेतना उत्पन्न करने में, उनकी मनःस्थिति को ऊँचा उठाने में समर्थ हैं, जैसे लोगों को धर्मधारणा के प्रचार- प्रसार की व्यवस्था। जिस तरीके से पादरी काम करते हैं। ईसाई मिशन के लोग बाइबिल और दूसरी पुस्तकों को संसार को छह सौ भाषाओं में छापते हैं और घर- घर में एक- एक पैसे के मूल्य पर पहुँचाते हैं। जैसे- शिक्षा की व्यवस्था, ऐसे विश्वविद्यालय और विद्यालय स्थापित करने में पैसा खरच किया गया होता, जहाँ से समाज का नया निर्माण करने वाले व्यक्ति निकल सकें। उनकी शिक्षा- दीक्षा का समुचित प्रबंध किया जा सके, तो कितना काम आता। मित्रो! पंद्रह लाख रुपया केवल अपने मथुरा की बात मैंने बताई है। सारे हिन्दुस्तान का यदि ब्योरा लिया जाए, तो ये करोड़ों और अरबों रुपया प्रतिदिन के बीच जा बैठेगा। यदि धर्मतंत्र को सही दिशा देना संभव रहा होता, तो न केवल हिंदुस्तान, बल्कि सारी दुनिया को ठीक कर लिया गया होता। धर्मतंत्र को सही दिशा नहीं दी जा सकी, धर्म का उद्देश्य लोकमंगल नहीं समझा पाया, अपितु कर्मकाण्ड मात्र ही लोगों को बताया जा सका। जिसका परिणाम रचनात्मक न हो सका तथा व्यक्ति और समाज की कोई खास सेवा न हो सकी।
अत्यधिक अपव्यय धर्म के नाम पर
हिंदुस्तान में सोमवती अमावस्या के दिन गंगा स्नान का बहुत महत्त्व है। कल्पना कीजिए कि हरिद्वार से लेकर गंगासागर तक स्नान करने वालों की संख्या कम से कम हर सोमवती अमावस्या के दिन पचास लाख हो जाती है। एक आदमी के जाने जाने का, श्रम का, खाने−पीने का, दान दक्षिणा आदि का खरच बीस रुपया आता हो और उसे पचास लाख से गुणा कर दिया जाए तो दस करोड़ रुपया प्रति सोमवती अमावस्या का खरच आता है। आप कल्पना कीजिए कि कम से कम चार और ज्यादा से ज्यादा पाँच सोमवती अमावस्या हर वर्ष होती हैं। उनका खरचा लगा दिया जाए, तो पचास करोड़ रुपया खरच करने वालों से प्रार्थना की गई होती कि आप एक वर्ष स्नान करने की अपेक्षा गंगा का उपयोग, गंगा को महत्ता समाज में बनाए रखने के लिए विवेकपूर्वक विचार करें।
मित्रो! जिन शहरों की गंदी नालियाँ गंगा में डाली जाती हैं, वहाँ का मानी अपवित्र कर दिया जाता है। स्नान करने वाला उसी नाले के दूषित पानी मिले हुए गंगाजल को पीता है और उसी का आचमन करके चला जाता है। वह गंदा पानी यदि गंगा में डालने की अपेक्षा शहर की नालियों- ड्रेनेज के द्वारा शहर से बाहर निकाला गया होता और खेतों में, बगीचों में डाल दिया गया होता तो कितने एकड़ भूमि की सिंचाई हो जाती। गंगा में, यमुना में और दूसरी नदियों में जो गंदगी पैदा होती है, उनका पानी खराब होता है, जो कि स्नान करने और पीने के लायक भी नहीं रह जाता, बीमारियाँ और फैलाता है। वह पचास करोड़ रुपया यदि उस गंदे पानी का सदुपयोग करने और नदियों को साफ रखने में खरच किया गया होता, तो कैसा अच्छा होता, मजा आ जाता।
धर्मभावना नहीं, धर्मभीरुता
लेकिन क्या कहा जाए? इसे मैं धर्मभीरुता कहता हूँ, धर्मभावना नहीं कहता। अपने देश में सिर्फ धर्मभीरुता है, धर्मभावना नहीं है। धर्मभीरुता और धर्मभावना में जमीन आसमान का फरक है। गाँव- गाँव में रामचंद्र जी की लीलाएँ और श्रीकृष्ण की लीलाएँ होती हैं। एक- एक लीला में बीस- बीस, तीस- तीस हजार रुपया खरच हो जाता है। केवल मनोरंजन, तमाशा होता है। लोग तालियाँ बजाते हैं, मेला- ठेला, तमाशा देखते हैं और चले जाते है। मित्रो ! वह धन, जो अवांछनीय और अनावश्यक खेल- प्रसंगों में खरच किया जाता है, जिसको जनता पुण्य समझती है, उसके द्वारा हमने एक क्रमबद्ध रूप से अभिनय मंच बनाया होता, ऐसी थियेटरिकल कंपनियाँ बनाई होतीं, जो गाँव- गाँव में जाकर भगवान राम और श्रीकृष्ण भगवान के जीवन के उद्देश्यों का शिक्षण देने में समर्थ रही होतीं। उनके नाटक, प्रसंगों ने जनता के मन- मस्तिष्क को और जनता की दिशाओं को बदल दिया होता, जिससे उनमें नैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना उत्पन्न की जा सकती थी। पर हम देखते हैं कि तमाशे के, उपहास के, मजाक के रूप में भगवान को एक खिलौना बना देते हैं। भगवान का सम्मान करने की बात न जाने कहाँ चली जाती है।
मित्रो ! थोड़े दिन पहले पंजाब में गुरुनानक पर एक फिल्म बनाई जाते वाली थी, तो पंजाबियों ने घोर विरोध किया कि गुरुनानक को ड्रामे के रूप में नहीं दिखाया जा सकता। उनकी नकल बनाने के लिए कोई झूठा आदमी खड़ा नहीं किया जा सकता। नानक की महत्ता और श्रद्धा हमारे मन में है। उसे हम छोटे से कमजोर आदमी के लिए नष्ट नहीं कर सकते और कोई भी नानक का पार्ट अदा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। मित्रो ! भगवान का पार्ट अदा करने के लिए ऐसे छोकरे खड़े हो जाएँ, जिनमें न कोई विवेक है, न विचार है, न कोई दिशा है, न लक्ष्य है, तो इससे मनुष्यों की श्रद्धा में क्या कमी नहीं आएगी? केवल लकीर पीटने के लिए कितने आदमी कितना पैसा अनावश्यक रूप से खरच कर डालते हैं। यह पैसा कितनी विकृतियाँ पैदा करता है, यह किसी से छिपा नहीं है। जो भी आदमी राम की कमाई खाएगा, उसका नाम चाहे 'अ' हो, चाहे 'ब', उसके आचरण अच्छे नहीं रह सकते। वह समाज के लिए उपयोगी व्यक्ति नहीं रह सकता।
दुरुपयोग रुके
साथियो! अपने देश की सांस्कृतिक, सामाजिक सेवा और नैतिक उत्कर्ष के लिए धन की जरूरत है। धन के बिना कुछ संस्थाएँ और प्रवृत्तियाँ बेमौत भूख से मर जाती हैं। पैसा ऐसे लोगों को दिया जाता है, जिनकी समझ में नहीं आता कि उसका क्या इस्तेमाल किया जाए? इस धर्मभीरु जनता को क्या कहा जाए? उनकी धर्मभीरुता को किस तरीके से धिक्कारा जाए? इतना समर्थ धर्मतंत्र जिसके पीछे छप्पन लाख व्यक्ति काम करते हैं। इतने मंदिरों, मठों, तीर्थों और कर्मकाण्ड, श्राद्ध तर्पण और न जाने क्या- क्या करने में छप्पन करोड़ रुपया खरच हो जाता हो, तो जरा भी अचंभे की बात नहीं है। इतनी बड़ी पूँजी एक गवर्नमेंट का बजट बनाने के लिए काफी है। इतनी बड़ी धन की शक्ति, भावनाओं की शक्ति, इतनी बड़ी जनशक्ति, जो कि आज बिखरी पड़ी है और अवांछनीय दिशा में प्रवाहित हो रही है। आवश्यकता इस बात की है कि नई पीढ़ी के समझदार- विवेकशील लोग इस धर्म के अपव्यय को रोकें। जिसे मैं दुरुपयोग कहता हूँ।
मित्रो ! धर्म की भावना का बुरी तरह से दुरुपयोग हो रहा है। इसे उस दिशा में लगाया जाए जिससे कि व्यक्ति का श्रेष्ठ निर्माण हो। मनुष्यों की विचारणा- भावनाओं में परिष्कार हो और समाज को अच्छे रास्ते पर चलने के लिए प्रकाश मिले। इसके लिए समझदार- विवेकशील लोगों को आगे आना ही चाहिए। जिस तरीके से राजनीति में धक्का- मुक्की करके लोग आगे बढ़ते चले जाते हैं। उसमें उनका सत्ता और पद का लोभ रहा होगा, लेकिन सेवा का जो स्तर अपने धर्मक्षेत्र में है, वह अन्य किसी क्षेत्र में नहीं है। इसलिए मैं आह्वान करना चाहता हूँ। उन सब लोगों का, जिनके अंदर देशभक्ति और विश्वमानव की पीड़ा विद्यमान है, जो समाज का हितसाधन करना चाहते हैं, जो लोकमंगल के लिए कदम बढ़ाना चाहते हैं, उनको धर्म के विकृत स्वरूप का समाधान करने, धार्मिक भावनाओं और जनशक्ति को ठीक दिशा देने के लिए कदम बढ़ाकर आगे आना ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो राष्ट्र और विश्व की प्रगति के लिए एक भारी अभाव बना ही रहेगा। इतनी बड़ी पूँजी, जनशक्ति और भावनाशक्ति का दुरुपयोग होता ही रहेगा। इसको ठीक करना अब राष्ट्र की महती आवश्यकता है।
ॐ शान्तिः!
हमारा युग निर्माण सत्संकल्प
यह सत्संकल्प सभी आत्म निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण के साधकों को नियमित पढ़ते रहना चाहिए। इस संकल्प के सूत्रों को अपने व्यक्तित्व में ढालने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। इन सूत्रों की व्याख्या '' इक्कीसवीं सदी का संविधान' पुस्तक में पढ़े।
1- हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
2- शरीर को भगवान का मंदिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
3- मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
4- इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
5- अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6- मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7- समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
8- चारों और मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9- अनीति से प्राप्त सफलता को अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10- मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
11- दूसरों के साथ वह व्यवहार नहीं करेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।
12- नर- नारी के प्रति परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13- संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14- परंपराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
15- सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
16- राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रांत, संप्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
17- मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है- इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
18- हम बदलेंगे- युग बदलेगा' 'हम सुधरेंगे- युग सुधरेगा' इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।
युग निर्माण योजना- एक दृष्टि में
हमारे लक्ष्य एवं उद्देश्य ::
* मनुष्य में देवत्व का उदय, धरती पर स्वर्ग का अवतरण।
* स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन, सभ्य समाज।
* आत्मवत् सर्वभूतेषु, वसुधैव कुटुंबकम्।
* एक राष्ट्र, एक भाषा, एक धर्म, एक शासन।
* जनमानस का भावनात्मक परिष्कार
हमारे आधार है ::
* व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण।
* नैतिक क्रांति, बौद्धिक कांति, सामाजिक क्रांति।
* धर्मतंत्र से लोकशिक्षण (विचार क्रान्ति)।
हमारा उद्घोष ::
हम बदलेंगे युग बदलेगा, हम सुधरेंगे- युग सुधरेगा।
हमारा प्रतीक ::
लाल मशाल ज्ञान यज्ञ (( आलोक वितरण) का सामूहिक सशक्त प्रयास।
हमारा संविधान ::
युग निर्माण सत्संकल्प।
हमारी ध्रुव मान्यताएँ ::
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। जो जैसा सोचता और करता है, वह वैसा ही बन जाता है।
आत्मनिर्माण के दो सूत्र ::
उत्कृष्ट चिंतन, आदर्श कर्तृत्व।
जीवन के चार स्तंभ ::
साधना, स्वाध्याय, संयम सेवा।
आध्यात्मिक जीवन के तीन आधार ::
उपासना, साधना, आराधना।
प्रगतिशील जीवन के चार चरण ::
समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी।
संयमशीलता के चार स्तंभ ::
इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम, विचार संयम।
आत्मिक प्रगति के चार चरण ::
आत्मचिन्तन (आत्मसमीक्षा), आत्मसुधार, आत्मनिर्माण, आत्मविकास।
परिवार निर्माण के पंचशील ::
श्रमशीलता, सुव्यवस्था, शालीनता (शिष्टता), सहकारिता, मितव्ययिता।
तीन शरीर ::
स्थूल, सूक्ष्म, कारण।
तीन साधना ::
ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग।
मानवी सत्ता के तीन पक्ष ::
भावना, विचारणा, क्रिया प्रक्रिया।
उक्त तीनों के परिष्कार के तीन साधन ::
श्रद्धा, प्रज्ञा निष्ठा।
तीन को सुधारें ::
गुण कर्म, स्वभाव।
तीन को सँवारे ::
चिंतन, चरित्र, व्यवहार।
तीन को त्यागें ::
* लोभ, मोह, अहंकार।
* वासना, तृष्णा, अहंता।
* पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा।
तीन को धारण करें ::
ओजस्, तेजस, वर्चस्।
तीन सम्माननीय ::
संत, सुधारक, शहीद।
जाग्रत आत्माओं का दायित्व ::
* युग धर्म का निर्वाह
* वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः।
हमारी उद्घोषणा ::
इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य।