गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
परावलम्बी न बनें
देवियो, भाइयो! आपको बहुत से ऐसे मौके मिलेंगे, जहाँ आपको केवल एक ही प्रवचन करने का मौका मिलेगा। खासकर वहाँ, जहाँ कि अगले दिनों हमारी तीर्थयात्राएँ शुरू होने वाली हैं। हमारा अगला कार्यक्रम तीर्थयात्राओं का है, जिसका संचालन आप लोगों को करना है।यह कार्यक्रम परावलम्बी है। कौन-सा वाला? जिसके लिए हम आपको भेज रहे हैं। वहाँ कोई आदमी स्टेज बनाकर रखे, शिविर बनाकर रखे, प्रचार करके रखे, माइक लगाकर रखे और आपके लिए ठहरने का इंतजाम करके रखे—इसका क्या मतलब हुआ? यह तो ऐसेहुआ जैसे कोई जमाई अपने साले के यहाँ, ससुराल वाले के यहाँ जाते हैं और मटककर बैठ जाते हैं। इसमें आपका कोई गौरव नहीं है और आपकी कोई शान नहीं है। किसी आदमी ने आपको बुलाया और आप फूलमाला पहनने के लिए और जुलूस निकलवाने के लिए वहाँजा पहुँचे। आपकी क्या महत्ता रही और क्या आपकी विशेषता रही? आपकी कोई विशेषता नहीं रही और आपकी कोई महत्ता नहीं रही।
मित्रो! अभी तो हम आपको विद्यार्थी मानते हैं और जहाँ कहीं भी कुछ आयोजन किये जा रहे हैं, वहीं हम भेज रहे हैं। पर इसमें आपका कोई गौरव नहीं है, आपकी कोई महत्ता नहीं है। आपकी कोई गरिमा नहीं है, आपका कोई श्रेय नहीं है। सारा श्रेय उन लोगों का है, जिनलोगों ने आपको बुलाया है। जिन लोगों ने महीनों से मेहनत की है और पाई-पाई जोड़कर पैसा इकट्ठा किया है। जिन्होंने तैयारियाँ कीं और जिन्होंने पसीना बहाया। अगर श्रेय दिया जायेगा, तो उनको दिया जायेगा, आपको नहीं दिया जायेगा। आप स्टेज पर व्याख्यान देकरके आयें और अपना नाम छपा दें, फोटो छपा दें कि स्वामी शंकरानन्द जी वहाँ गए थे और स्टेज पर व्याख्यान दे करके आए।
मित्रो! यह शंकरानन्द जी की महत्ता है या उसकी महत्ता है जो तीन महीने भर से पसीना बहा रहा है। इसलिए फोटो छपना चाहिए, तो उसका छपना चाहिए जो मेहनत कर रहा है। गौरव और गर्व भी उसी का है। मित्रो! गौरव और गर्व प्राप्त करने के लिए आपको वह कामकरना पड़ेगा जो कि भगवान बुद्ध के शिष्यों ने किया था और प्राचीनकाल के प्रत्येक महापुरुष के शिष्यों ने किया था। बुद्ध ने अपने शिष्यों को बाहर भेज दिया। ऐसी जगह भेजा जहाँ कोई भी रास्ता नहीं था और जहाँ खाने-पीने का इंतजाम भी नहीं था। जहाँ बोली-भाषाका इंतजाम भी नहीं था। उस जगह वे चले गये और वहाँ जा करके गाँव-गाँव में, जहाँ न उनकी कोई जान-पहचान थी और न बोली-भाषा का परिचय था, अपनी क्षमता के द्वारा, अपनी योग्यता के द्वारा, अपनी लगन के द्वारा वहाँ स्थान प्राप्त किया। स्थान प्राप्त करकेवे वहाँ रुके, बैठे और लोगों को समझाया और अपने बौद्धधर्म का प्रचार-प्रसार किया और फिर आगे चले गये।
मित्रो! आपको भी वही काम करना पड़ेगा। हम आपको कठिन परीक्षाओं में डालना चाहेंगे और आपको परावलम्बी नहीं रहने देंगे। स्टेज पर व्याख्यान देने वाला परावलम्बी आदमी, कमजोर आदमी, बेअकल आदमी, जो परायी बनायी हुई स्टेज पर धमक जाता है। लेकिनवह व्यक्ति स्वावलम्बी है, मेहनतकश है, पुरुषार्थी है, पराक्रमी है जिसने कहीं दूसरी जगह जा करके अपना स्थान बनाया। जहाँ प्रकाश नहीं था, रोशनी नहीं थी, जहाँ हमारे मिशन की जानकारी नहीं थी, जहाँ हमारा क्षेत्र नहीं था, वहाँ आप चले गये। वहाँ जा करके आपनेएक नया कार्यक्रम खड़ा कर दिया और नयी जानकारी खड़ी कर दी और नयी शाखा खड़ी कर दी और नया प्रकाश खड़ा कर दिया। आपका पुरुषार्थ इसी कसौटी पर कसा जायेगा, इससे कम पर नहीं।
तीर्थयात्राओं के कार्यक्रम
इसलिए मित्रो! हमारे कार्यक्रम अगले वर्षों से जो वानप्रस्थों को सौंपे जाने वाले हैं, वे तीर्थयात्राओं के कार्यक्रम सौंपे जाने वाले हैं। शिविरों में व्याख्यान करने के लिए चूँकि अभी आपको अभ्यास नहीं है और आप कभी इस क्षेत्र में गये नहीं हैं। इसलिए आपको नौसिखिए केरूप में, सिखाने वाले के रूप में और जानकार के रूप में केवल वहाँ भेजते हैं, जहाँ हमारी छः हजार शाखाएँ हैं। जहाँ लोगों ने इस साल सम्मेलन करने की और आयोजन करने की व्यवस्था कर रखी है। सिर्फ इस साल के लिए आपको भेजते हैं, किन्तु अगले वर्ष की उम्मीदेंआप मत कीजिए कि फिर से हमको स्टेज पर बिठाया जायेगा, फिर हमारा स्वागत होगा और फिर माला पहनाई जायेगी। आपको यह शोभा नहीं देगा। अगली बार के लिए नये विद्यार्थी आयेंगे, नौसिखिए आयेंगे और उन्हें वहाँ भेजा जायेगा। इसके बाद में जो आदमीपरिपक्व बुद्धि के हो जायेंगे, जिनके अंदर में प्रभाव और प्रतिभा उत्पन्न हो जायेगी कि वे कहीं नयी जगह पर जा करके नया घोंसला बना सकते हैं और नया कुआँ खोद करके नया पानी पी सकते हैं, उनको वहाँ भेज देंगे। जब आपकी संज्ञा और आपकी स्थिति उन्हींलोगों में हो जायेगी, तब हम आपको वहाँ भेजेंगे। कहाँ? जहाँ विनोबा भावे के तरीके से आपको विभिन्न स्थानों की पदयात्राएँ करनी हैं।
मित्रो! पदयात्रा करना अगले वाले समय का हमारा मुख्य क्रियाकलाप है। हिन्दुस्तान में सात लाख गाँव हैं और अभी हमारी छः हजार शाखाएँ हैं। छः हजार शाखाएँ सात लाख गाँवों में किस तरीके से प्रकाश फैला सकती हैं? छः हजार शाखाएँ क्या होती हैं? पानी के बूँद केबराबर होती हैं। समुद्र में हम छः हजार शाखाओं में ही बात करते रहेंगे, तो बात किस तरीके से बनेगी? आपको दो-दो व्यक्तियों के जोड़े के रूप में तीर्थयात्रा करने के के लिए भेजने वाले हैं। इसकी थोड़ी सी रूप-रेखा एक दिन पहले ही हमने आपको बता दी थी। बाहर एकबैलगाड़ी रखी हुई है, आपने देखी होगी। यह आपको दिखाने के लिए रखी है। आपके लिए बिस्तर, हवन करने की सामग्री, चार्ट, प्रोजेक्टर की जरूरत हो तो वह, हारमोनियम-बाजे की जरूरत हो तो वह, नहाने के लिए दो बाल्टियाँ, मिट्टी के तेल की बत्ती तथा दूसरीआवश्यक चीजें हम देंगे। इसे आप बैलगाड़ी में ले करके जायेंगे।
मित्रो! हम बैल कहाँ से लायेंगे? आजकल बीस रुपये रोज पर बैल आते हैं। क्या भाव हो गया? चार रुपये किलो तो आजकल दूध आता है। एक रुपये में एक पाव दूध। अगर आपको बाजार में एक पाव दूध लेना हो, तो एक रुपया निकालिए। तब वह एक छोटे से कुल्हड़ मेंसाढ़े तीन छटाँक दूध आपको दे देगा। यह मँहगाई का जमाना है। बीस से तीस रुपये रोज से कम में आज आपको बैल नहीं मिलेंगे और गाड़ी को चलाने वाला भी पाँच से छः रुपये रोज से कम में नहीं मिलेगा। अगर कभी आपकी उससे लड़ाई हो गयी, तो वह आपकीबैलगाड़ी ले करके चल पड़ेगा और आप जहाँ के तहाँ बैठे रहेंगे। इस तरह वह आपका सारा प्रोग्राम ही ठप्प कर देगा। इसलिए हमको स्वावलम्बी क्रियाकलापों को ले करके चलना पड़ेगा।
मित्रो! बैलगाड़ी का एक छोटा-सा नमूना हमने आपके लिए इसलिए बनाकर रखा है कि अगले दिनों आप में से दो आदमी होंगे और जहाँ कहीं भी आप जायेंगे, वहाँ से कम से कम छः और अधिक से अधिक आठ आदमी ले लीजिए और विनोबा भावे के तरीके से पदयात्राकीजिए। प्राचीनकाल में ऋषि, मुनि कंधे पर गंगा जल रख करके काँवड़ निकालकर चलते थे। लोग जत्थे बना करके तीर्थयात्रा के लिए एवं गंगा का जल शंकर जी के ऊपर चढ़ाने के लिए निकलते थे। आपको उसी तरह के कार्यक्रम बनाना चाहिए। इसके लिए ज्यादा दिनके कार्यक्रम हो सकते हों, तो और भी ज्यादा अच्छा है। लेकिन पन्द्रह दिन के लिए बनायें तो अच्छा है। पन्द्रह दिन के लिए पाँच-पाँच मील पर विराम दें। विनोबा भावे के विराम दस-दस मील पर होते थे, जिससे वे एक स्थान से चलकर दूसरे स्थान पर ठहर जाते थे।हमको प्रत्येक गाँव में अपना कार्य करना है। जहाँ भी रास्ते में दो गाँव आये, तीन गाँव आये, उन सबमें एक-एक घण्टे का कार्यक्रम रखना पड़ेगा।
अलग है हमारा मिशन
मित्रो! मैंने कल आपको बताया था कि वहाँ जा करके आपको एक प्रभात फेरी के रूप में, गायन के रूप में, छोटे से जुलूस के रूप में गाँव में निकालना पड़ेगा। ताकि हर आदमी को यह मालूम पड़ जाय कि युग निर्माण नाम का मिशन सामाजिक कुरीतियों को दूर करने केलिए और व्यक्ति निर्माण करने के लिए, परिवार निर्माण करने के लिए चला है। लोगों को मालूम भी नहीं है, अतः इससे उन्हें पता चल जायेगा। जो इस तरह के भावनाशील आदमी हैं, वे हम तक नहीं आ पाते और हमें भी मालूम नहीं है कि कहाँ-कहाँ ऐसे विचारशीलऔर भावनाशील लोग हैं, जो हमारे मिशन से सहयोग रख सकते हैं। किसके विचार हमसे मिलते-जुलते हैं, ऐसे लोगों की जानकारी हमें बिलकुल नहीं है, जबकि लोगों को भी हमारी जानकारी नहीं है। ऐसे में दोनों का आपस में संबंध सूत्र तब तक नहीं मिलेगा, जब तककि आपस की जानकारियाँ बढ़ेंगी नहीं, तब तक हम तो यही तलाश करते रहेंगे कि इस तरह के आदमी कहाँ हैं? लोगों को भी यह मालूम नहीं हो पायेगा कि कोई इस तरह का मिशन है।
मित्रो! हमारी जैसी संस्थाएँ हिन्दुस्तान में हजारों की संख्या में भरी पड़ी हैं। कहाँ-कहाँ भरी पड़ी हैं? लोगों ने कागज छाप-छाप करके और लेटर पैड छाप-छाप करके और साइन बोर्ड बना करके जगह-जगह लगा रखे हैं। हर आदमी की तमन्ना और हर आदमी की ख्वाहिशअपने देश में यही है कि बस मेरी संख्या बड़ी हो जाये, मेरा नाम हो जाये। मेरा नाम होने की ख्वाहिशों ने हमारे देश में सब बिखेर डाला, सत्यानाश कर डाला। मंदिरों की हालत देखिये। सबकी यही ख्वाहिश रहती है कि मेरा मंदिर बन जाये और मेरा नाम हो जाये, मेरानाम चल जाये। हर आदमी ने गाँव-गाँव में मंदिर बनाकर खड़े कर दिये। उन्होंने न तो यह इंतजाम किया कि पुजारी कहाँ से आयेगा, मंदिर का भोग कहाँ से लगेगा? बस मेरा मंदिर बन जाये। पाँच हजार रुपये को मिट्टी में झोंक दिया और एक तमाशा खड़ा कर दिया।महीने-दो महीने पूजा-पाठ हुआ, फिर पूजा-पाठ भी बंद हो गया। खर्च पूरा नहीं हो सका, पुजारी मिले नहीं, देख−भाल हुई नहीं। बस, उसके किवाड़ों को चोर उखाड़ ले गये। मूर्ति को भी चोर उठा ले गये। मंदिर ऐसे ही टूट-फूटकर बर्बाद हो गया।
मित्रो! ऐसे मंदिर आपको देखना हो तो आप मथुरा-वृन्दावन चले जाना। मथुरा, वृन्दावन में क्या हो गया? हजारों ऐसे मंदिर पड़े हुए हैं, जिन पर यह बोर्ड लगे हुए हैं—‘‘रिपेयर बाइ म्युनिसपल बोर्ड’’, जिसमें कुत्ते टट्टी किया करते थे और चमगादड़ों ने अपना डेराजमाया हुआ था। मूर्तियों के ऊपर कुत्ते पेशाब किया करते थे, बंदर पेशाब किया करते थे। उन स्थानों पर म्युनिसपल बोर्ड ने किवाड़ तो लगवा दिये, सफाई करा दी और ताला लगवा दिया। पर ये स्थान गालियाँ किन लोगों को देते हैं। ये उन लोगों को गालियाँ देते हैं, जिनलोगों के ऊपर यह सनक सवार थी और यह हवस हावी हो गयी थी कि हमारा नाम चलना चाहिए। अपनी-अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी हर आदमी पका लेता है। मंदिर बना देता है, मस्जिद बना देता है, धर्मशाला बना देता है और इस तरह टूटी-फूटी बेकार, बेबुनियादचीजों को बिखेरते हुए चला जाता है।
मित्रो! यह हवस लोगों के ऊपर इस कदर हावी हो गयी है कि मेरे नाम की एक संस्था तो हो ही जाय और मैं भी स्वामी दयानन्द हो जाऊँ। मैं गुरु गोलवलकर हो जाऊँ और मेरा भी यश चले। इसलिए हर आदमी यह कोशिश करता है कि मेरे नाम की कमेटी तो जरूर बनजानी चाहिए। मेरे नाम की संस्था तो जरूर बन जानी चाहिए। मुझे तो संस्थापक बन ही जाना चाहिए। इसलिए मित्रो! हिन्दुस्तान के बराबर वाहियात, बेबुनियाद और निकम्मी और निठल्ली संस्थाएँ और कहीं नहीं हैं। ये इतनी ज्यादा भरी पड़ी हैं कि हम कुछ कह नहींसकते। सारी दुनिया में जितनी कमेटियाँ और संस्थाएँ होंगी, उससे ज्यादा कमेटियाँ और संस्थाएँ आपको हिन्दुस्तान में मिलेंगी। यह कौन सी बीमारी है? यह बड़ी सड़ी हुई बीमारी है, बड़ी वाहियात और बड़ी गंदी बीमारी है। हर आदमी इस बात के लिए व्याकुल हो रहा हैकि मेरा नाम हो जाय और मेरा यश फैल जाय। नाम और यश प्राप्त करने के लिए आदमी को जो परिश्रम करना चाहिए, लगन और त्याग करना चाहिए, योग्यता बढ़ानी चाहिए, उसका तो नाम ही नहीं है। बस छिटपुट खेल-खिलवाड़, खेल-खिलौने इकट्ठे कर लेता हैऔर अपना खेल बनाकर खड़ा करके रख देता है।
इसलिए मित्रो! हिन्दुस्तान में संस्थाओं का क्या कहना? इससे लोगों को बेकार का भ्रम और बेकार की उलझनें पैदा होती हुई चली जाती हैं। उलझन और भ्रम पैदा होता हुआ चला जाता है कि कौन संस्था देश के लिए काम कर रही है? ऐसे-ऐसे बढ़िया नाम हैं, ऐसे-ऐसेबढ़िया साइन बोर्ड हैं, ऐसे बढ़िया कागज हैं कि देखते हैं तो देखते ही रह जाते हैं, लेकिन इनमें खोखलेपन के अलावा कुछ है ही नहीं। इस तरीके से लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है। ये संस्थाएँ थोड़ी होतीं, दो-पाँच हों तो, तो शायद लोगों को जानकारी हो भी जाती।अमेरिका में राजनैतिक दलों की संख्या दो है, एक—डेमोक्रेटिक पार्टी और दूसरी—रिपब्लिकन पार्टी। दो के अलावा तीसरी और कोई पार्टी नहीं है। इंग्लैण्ड में भी एक लेबर पार्टी है और एक कंजर्वेटिव पार्टी। पहले दो-तीन पार्टियाँ थीं। कंजर्वेटिव पार्टी तो खत्म ही हो गयी।यहाँ की राजनैतिक पार्टियों को आप देखें और उनके नाम गिनें, तो सैकड़ों की संख्या में आपको मिलेंगी। पाँच-सात को तो आप जानते ही हैं। वे तो प्रख्यात हैं ही, जिनको आप नहीं जानते हैं, उन राजनैतिक संस्थाओं को आप देखें तो हजारों की संख्या में जा पहुँचती हैं।
मित्रो! यही बात धर्म के बारे में है। लोगों को मालूम नहीं है कि कौन-सी संस्था ऐसी है, जो वास्तव में देश का-राष्ट्र का वास्तविक मार्गदर्शन करने में सक्षम है। लोग बहुत गुमराह होते है इन संस्थाओं के माध्यम से, क्योंकि उन्हें यह मालूम नहीं है कि अध्यात्म का, धर्मका और आस्तिकवाद का वास्तविक रूप जो ऋषियों वाला था, उसको पुनर्प्रतिष्ठापित करने में कौन-सी संस्था समर्थ है। इसलिए मित्रो! हमारे लिए सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अंधाधुन्ध बढ़ते इन बरसाती मेढकों के बीच न हमको यह मालूम है और न लोगों को यहमालूम है कि असलियत कहाँ है और नकलीपन कहाँ है? विवेकशीलता कहाँ है, बुद्धिशीलता कहाँ हैं, दिशाएँ कहाँ हैं, प्रकाश कहाँ है? हमें भी नहीं मालूम है कि सही लोग कहाँ हैं? लोगों की कमी कहाँ है? गाँधी जी ने एक नारा लगाया था और लोगों को बुलाया था। इसीहिन्दुस्तान में से लाखों आदमी—जिसमें कि हमको बेकार और वाहियात आदमी दिखाई पड़ते हैं, वे कहीं छिपे हुए थे और निकलकर आ गये। कहीं छिपे हुए आदमी हैं तो जरूर, भले ही हमें दिखाई नहीं पड़ते। हम यकीन नहीं कर सकते कि धर्म और अध्यात्म के नामपर केवल वाहियात आदमी, बेवकूफ आदमी, सड़े हुए आदमी, चालाक आदमी और चोर आदमी भरे हुए पड़े हैं। बेशक वे हमको दिखाई नहीं पड़ते हैं। हम जानते हैं कि मंसादेवी पर कौन-कौन आदमी जाते हैं? हमको उनके फोटो मालूम हैं कि जो मंसादेवी के पहाड़ पर चढ़करके सवा रुपये का प्रसाद चढ़ाने के लिए जाते हैं। वह आदमी बुज़दिल है, जो पुरुषार्थी नहीं है और जो कम खर्च में बहुत सारा फायदा उठाने के लिए व्याकुल रहता है।
क्या यही है हिन्दुस्तान का अध्यात्म?
मित्रो! हमको बड़ी घृणा होती है और बड़ी नफरत होती है कि क्या हिन्दुस्तान ऐसे लोगों से ही भरा हुआ पड़ा है, जो पुरुषार्थ को महत्त्व नहीं देता और कर्मफल को महत्त्व नहीं देता। जो देवी के सामने, पत्थर के टुकड़े के सामने सवा रुपये का प्रसाद चढ़ा करके मनोकामनापूरी कराना चाहता है। क्या हिन्दुस्तान का अध्यात्म यही है? क्या हिन्दू धर्म यही है? क्या हिन्दुस्तान का पूजा-पाठ यही है? इसे देखकर हमको बड़ा दुःख होता है और बड़ी नफरत होती है कि अगर ऐसे ही लोगों का, इन्हीं लोगों का नाम धर्मवादी और अध्यात्मवादी है, पूजाकर्मी है, तो फिर ऐसे धर्म और पूजा को नमस्कार कर लेना ही अच्छा है। ऐसे में लोगों से भी कहना चाहिए कि आपका नास्तिक हो जाना अच्छा है, बजाय मंसादेवी पर सवा रुपया चढ़ा करके बेटे और बेटी पाने, दौलत पाने की उम्मीदों के लिए मारे-मारे फिरें। इसकीअपेक्षा लाख गुना बेहतर है कि आप नास्तिक हो जायँ, मेहनत मजदूरी करें और रोटी कमायें तो आपके लिए अच्छा है। आप बेकार की बातों में, वाहियात बातों में चक्कर काटते फिरते हैं। क्यों चक्कर काटते फिरते हैं?
मित्रो! अगर अध्यात्म का यही स्वरूप है, जो आज सर्वत्र दिखायी पड़ता है और जो पण्डे और पुजारी हैं, वे लाल-पीले कपड़े पहन करके समय खराब करते हुए और भीख माँगते हुए और लोगों में बदजुबानी और बेदिली की बात फैलाते हुए, परावलम्बन की बात फैलाते हुएघूमते हैं; अगर इसी का नाम धर्म और अध्यात्म है, इसी का नाम संतपन है, इसी का नाम पुजारीपन है, इसी का नाम ब्राह्मणपन है, तो हम इसे नमस्कार करना चाहेंगे। हम चाहेंगे कि यह अध्यात्म बंद हो जाना चाहिए और इसके नाम पर नास्तिकवाद की स्थापनाहोना चाहिए, हम फिर यही कहेंगे।
मित्रो! यह अध्यात्म नहीं है, लेकिन क्या किया जाय, हमारे सामने तो यही आदमी निकल करके आ जाते हैं। इसलिए हमारे देश में और विदेश में सब जगह समझदार लोगों में नफरत पैदा होती चली जाती है। अगर इसी का नाम अध्यात्म है, धर्म इसी का नाम है, पूजाइसी का नाम है और पाठ इसी का नाम है, ज्ञान इसी का नाम है और ईश्वर की भक्ति इसी का नाम है, तो यह बड़ी वाहियात चीज है। इससे आदमी निकम्मा और नालायक होता चला जाता है। इसको बंद करना चाहिए। लेकिन क्या आप समझते हैं कि धर्म औरअध्यात्म के निष्ठावान लोग नहीं हैं? हैं, पर हम उनको तलाश नहीं कर पाते। उनको हमारी बात नहीं मालूम है। मेले में जो बच्चा खो जाता है, वह अपनी माँ को तलाश करता फिरता है कि हमारी माँ कहाँ गयी? और माँ चिल्लाती फिरती है कि हमारा बच्चा कहाँ गया? बिल्कुल यही हालत हमारी है। हम चिल्लाते फिरते हैं कि वे आदमी कहाँ हैं, जिनको धर्म के प्रति निष्ठा है, आस्तिकता के प्रति निष्ठा है और ईश्वर के प्रति निष्ठा है, कर्तव्य के प्रति निष्ठा है।
कहाँ हैं सच्चे आदमी?
मित्रो! हमें उनकी बहुत तलाश है, पर वे हमको नहीं मिलते। सोमवती अमावस्या पर जाते हैं, वहाँ एक भी आदमी हमें नहीं मिलता। मंसादेवी के मंदिर पर जाते हैं, वहाँ भी एक आदमी नहीं मिलता। कुम्भ के मेले में जाते हैं, तो वहाँ एक भी आदमी नहीं मिलता। लेकिनइनको हमें तलाश करना ही चाहिए और तलाश करना ही पड़ेगा। हमने सारी जिन्दगी एक ही काम किया है। जिन लोगों के अंदर हमने विचारशीलता पायी, दिशाएँ पायीं, जिनके अंदर हमने भावनाएँ पायीं, प्रेरणाएँ पायीं, उनको बड़ी मेहनत के साथ में, मोती बीनने वालेजिस तरीके से पानी में डुबकी लगाते हैं, उसी तरीके से हमने डुबकी लगायी। क्या डुबकी लगाने का काम हमारे जिम्मे रहेगा? या डुबकी लगाने वाला काम खत्म हो जायेगा? क्या मोती तलाश करने वाली प्रक्रिया को हम समाप्त करेंगे? नहीं, समाप्त नहीं करेंगे। अब हममोतियों को तलाश करने के लिए, हीरों को तलाश करने के लिए गाँव-गाँव जायेंगे और घर-घर जायेंगे और यह पता लगायेंगे कि अध्यात्म की जो मूलभूत प्रेरणाएँ थीं, उनको समझने के लायक, सुनने के लायक किसी के पास दिल-दिमाग है क्या? हम उन दिल-दिमागवाले आदमियों को तलाश करेंगे।
इसलिए मित्रो! हमको तीर्थयात्रा का कार्यक्रम बना करके चलना पड़ेगा और जहाँ रोशनी नहीं पहुँची है, वहाँ हमको जाना पड़ेगा। जहाँ हैजे की बीमारी फैली हुई है, चेचक फैली हुई है, वे चेचक के मरीज, हैजे के मरीज बड़े अस्पताल में नहीं जा सकते, तो डॉक्टरों को घोड़े परसवार हो करके और पैदल चलते हुए उन गाँवों में पहुँचना पड़ेगा। बीमार लोग कैसे आ सकते हैं? अगले दिनों हमको तीर्थयात्रा का एक कार्यक्रम बनाना पड़ेगा और भूदान के कार्यक्रम की तरह पदयात्रा हमारा मुख्य कार्यक्रम होगा। हमको और आपको जत्थे बनाकर घर-घर जाना पड़ेगा। गाँव-गाँव जाना पड़ेगा और आध्यात्मिकता के प्रति विचारशील लोगों के वर्ग में जो नफरत पैदा होती चली गयी, उसको पुनर्प्रतिष्ठापित करना पड़ेगा।
मित्रो! पागलों की बात जाने दीजिए, पागल तो कहीं भी जा सकते हैं। पागलों को तो कोई भी बहका सकता है। पागल तो कुम्भ मेले में भी मारे-मारे फिरते हैं। पागलों का हवाला मैं नहीं देता। पागलों को तो चाहे जहाँ ले जाइये। सोमवती अमावस्या मेले में ले जाइये। वेरामलीला में, रामचन्द्र जी की बारात जो निकलती है, वहाँ भी इकट्ठे हो जायेंगे। कागज का पुतला बना लीजिए। यह कौन बन रहा है? रावण बन रहा है। पागल वहाँ भी इकट्ठे हो जायेंगे। पागलों की बात मैं नहीं कहता, मैं तो समझदार लोगों की बात कहता हूँ, जिसकाएक-एक पल और समय का एक-एक लमहा और एक-एक क्षण कीमती है और जो कीमती चीजों की तलाश करता है और कीमती लोगों के पास जाना चाहता है।
विचारशील व्यक्ति आगे आएँ
मित्रो! वे कीमती लोग कहाँ होंगे? हिन्दुस्तान में से कीमती लोग खत्म हो गये हों, ऐसी बात नहीं है। विचारशीलता अभी भी है और कहीं न कहीं जरूर है। अगर नहीं थी, तो बुद्ध को ढाई लाख आदमी कहाँ से मिल गये? अगर विचारशीलता दुनिया में से खत्म हो गयी थी, तो गुरुगोविन्द सिंह के साथ-इतने सारे सिक्ख हाथ में माला और भाला ले करके अपनी जान कुर्बान करने के लिए कहाँ से आ गये थे? फिर महात्मा गाँधी को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कहाँ से मिल गये थे? समझदार आदमियों को ढूँढ़ने के लिए मित्रो! हमें फिर सेनिकलना पड़ेगा। इसके लिए तीर्थयात्रा की जो पद्धति है, वह सबसे महत्त्वपूर्ण पद्धति है। अगले दिनों हम आपको वही सुपुर्द करेंगे और आपको गाँव-गाँव भेजेंगे और जो गाँव पाँच गाँवों के बीच में आयेगा, वहाँ परिक्रमा लगाने के लिए हम आपसे कहेंगे। दस आदमियोंका जत्था जिस गाँव में भी जायेगा, वहाँ दसों आदमियों के हाथ में बिगुल अथवा शंख होगा और वे बिगुल बजाते हुए, शंख बजाते हुए हर गाँव में जायेंगे। आपको शंख बजाना नहीं आता होगा, तो हम बिगुल खरीद करके देंगे और दसों आदमियों का जत्था बिगुल बजाताहुआ, शंख बजाता हुआ हर गाँव में परिक्रमा करेगा। दीवारों पर सद्वाक्य लिखता हुआ परिक्रमा करेगा और थोड़ी देर के लिए खड़ा हो करके एक व्याख्यान देगा।
मित्रो! आप तो ज्यादा देर नहीं ठहर सकते, थोड़ी ही देर तक ठहरेंगे और लोगों को मिशन की जानकारियाँ देंगे। आप किस तरीके से मिशन की जानकारियाँ देंगे। यह कि हमारा मिशन क्या है और आध्यात्मिकता क्या है? धार्मिकता क्या है? आस्तिकता क्या है? औरजिस मिशन को ले करके हम चले हैं, उसका उद्देश्य क्या है? जहाँ आपको एक ही घण्टा बोलने के लिए मिलेगा, वहाँ आप किस तरीके से कहेंगे? अगर आप वहाँ संक्षेप में एक ही बात बताकर चल देंगे, तो लोगों की समझ में नहीं आयेगा और आपको उसी तरह का मानलेंगे।
जादूगरी नहीं है अध्यात्म
हमारे बारे में लोगों को यही गलतफहमी होती रही है। बहुत से आदमियों ने हमको जादूगर मान रखा है। लोग हमारे पास आते हैं और कहते हैं कि गुरुजी! आप हिमालय गये थे, तो क्या-क्या चमत्कार सीखकर आये? ले बेटे, देख ले, तेरे बालों में से अभी कबूतरनिकालकर दिखा देते हैं। आऽऽहा! बस, बाबा! असली कबूतर तो यही है। गुरुजी आ गये और सिर में से, बाल में से ऐसा कबूतर निकाला। बस हम तो हिमालय के असली बाबाजी बन गये। पागल कहीं के।
बेटे, जो सिर में से कबूतर निकालता है, वह बाजीगर होता है, वह बाबा जी नहीं होता, वह संत नहीं होता। बाजीगर और बाबा जी में जमीन-आसमान का फर्क है। गुरु चमत्कार नहीं दिखाते, चमत्कार देखना है तो वहाँ जाकर देखना। कहाँ? वहाँ सड़क पर जो आदमी बैठाहुआ है और मिट्टी से साँप बना रहा है, झोले में से कबूतर निकाल रहा है। बेटे, बाबा जी चमत्कार नहीं दिखाते, संत चमत्कार नहीं दिखाते। नहीं साहब। चमत्कार दिखा दीजिए।
पागल कहीं का, बाबा जी के पास चमत्कार देखता है। गाँधी जी के पास कौन सा चमत्कार था? विवेकानन्द जी के पास कौन सा चमत्कार था? नानक जी के पास कौन से चमत्कार थे? कोई चमत्कार नहीं होते संतों के पास। चमत्कार होते हैं तो बस यही होते हैं किसामान्य मनुष्य लोभ, मोह के बंधनों में, सड़ी-गली कीचड़ में सड़कर मरा करते हैं। और संत? संत स्वयं अपना उद्धार कर लेते हैं और अपनी नाव में बैठा करके असंख्यों को पार करा देते हैं।
इसलिए मित्रो! पागलों की बात तो हम नहीं कहेंगे, जो जगह-जगह चमत्कार देखते फिरते हैं और अपना फायदा ढूँढ़ते फिरते हैं कि हमारा यह फायदा करा दीजिए, हमारा वह फायदा करा दीजिए। लोगों ने हमको भी यही समझ रखा है। लेकिन क्या यह हमारी असलीपहचान है? नहीं, हमारी यह असली पहचान नहीं है। हमारी असली पहचान वह है, जिसमें हम जादूगर नहीं है, बाजीगर नहीं है और मनोकामना पूर्ण करने वाले नहीं हैं, सिद्धि दिखाने वाले नहीं है और फोकट में आशीर्वाद देने वाले नहीं हैं। जिन्होंने हमारा यह स्वरूपजाना है, वास्तव में वे हमारे असली स्वरूप को नहीं जानते। हमारे बारे में वे बिल्कुल अनजान हैं।
क्या है हमारा असली स्वरूप?
हमारा असली स्वरूप वह है जिसके द्वारा हम इंसान में इन्सानियत पैदा करना चाहते हैं। इंसान में हम देवत्व का अवतरण करना चाहते हैं। इंसान में हम भगवान का अवतरण करना चाहते हैं। और क्या करना चाहते हैं? आपको हम देवता के रूप में, संत के रूप में, ऋषि के रूप में ढालना चाहते हैं, गढ़ना चाहते हैं। अभी जो नवरात्रि में आते हैं और अनुष्ठान करते हैं, उनको तो हमारा एक ही पहलू मालूम पड़ता है, बाकी पहलू तो मालूम ही नहीं पड़ते। बाकी दिशाएँ तो मालूम ही नहीं पड़तीं। जिन्होंने ‘‘गायत्री महाविज्ञान’’ पढ़ा है, उनको तो हमारा जादूगर और चमत्कार वाला स्वरूप ही मालूम है।
मित्रो! इसलिए क्या करना चाहिए? हमारे मिशन की समग्र और सर्वांग रूप में पूर्ण जानकारी अगर आपको देनी पड़े, तो हमारी विचारधाराएँ क्या हैं, कार्यपद्धतियाँ क्या है, थोड़े अंशों में बतानी पड़ेंगी। थोड़े से में अगर आप बताने में समर्थ न हो सके तो? और आपनेयज्ञ पर व्याख्यान देना शुरू कर दिया तो? तो आपको लोग यह समझेंगे कि ये हवन के और यज्ञ के प्रचारक हैं। और कभी आपने गायत्री मंत्र की व्याख्या करनी शुरू कर दी, जहाँ जिस जनता के पास आप गये हैं, वे लोग यह कहना शुरू कर देंगे कि ये तो गायत्री का जादू, गायत्री का चमत्कार, गायत्री की सिद्धि सिखाने वाले, संतोषी माता की सिद्धि सिखाने वाले और संतोषी माता का जादू और चमत्कार सिखाने वाले लोगों में से हैं। इस तरह लोगों में गलतफहमी पैदा होती चली जायेगी और नफरत पैदा होती चली जायेगी। इसलिएकरना क्या पड़ेगा? कभी आपको एक ही बात पर प्रवचन करने का मौका मिले, तो आपके मस्तिष्क में एक संतुलित व्याख्यान रहना चाहिए। उसमें कम से कम हम अपनी विचार पद्धति की पूरी-पूरी जानकारी करा सकें कि आखिर हम कहना क्या चाहते हैं और करनाक्या चाहते हैं?
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको तीर्थयात्राओं के लिए जाना पड़ेगा। जिस गाँव में आप पहुँचेंगे, जिस गाँव में आप बिगुल बजायेंगे, जिस गाँव में आप प्रभात फेरी निकालेंगे, जिस गाँव में आप दीवारों पर सद्वाक्य लिखेंगे और आधे घण्टे में यह बात कहना चाहेंगे किआपको हम अपने मिशन की जानकारी देना चाहते हैं। इसके लिए आपका व्याख्यान नपा-तुला, संतुलित; बँधे हुआ तैयार रहना चाहिए। आपको अपने मिशन की उन तीनों धाराओं और तीनों जानकारियों, तीनों विचार धाराओं को समझाने की कोशिश करना चाहिए।
गायत्री मंत्र की धाराएँ
उनको आप चाहे तो गंगा कहिए, जमुना कहिए और सरस्वती कहिए अथवा गायत्री मंत्र की तीन धारायें कहिए। यह त्रिवेणी है। गायत्री मंत्र के तीन चरण हैं और इन तीनों का समन्वय करके आपको एकाध-पौन घण्टा बोलने का मौका मिल जाय, तो आप इन तीन विचारधाराओं का समन्वय करके समझाने की कोशिश करना चाहिए। वास्तव में असली अध्यात्म यही है, असली धर्म यही है और असली भगवान की भक्ति यही है, जिसे हम अपने मिशन के माध्यम से लोगों के दिलों में उतारना चाहते हैं और लोगों के दिमागों में प्रवेशकराना चाहते हैं। आपको वहाँ यही निवेदन करना चाहिए।
मित्रो! आपको यह निवेदन करना चाहिए कि हमारे गुरुजी ने धर्मशास्त्रों का अध्ययन करने में बहुत सारा समय लगाया। उन्होंने न केवल समय लगाया, वरन् उसको सर्वसाधारण की जानकारी के लिए उपलब्ध कराया। उन्होंने हिन्दू-धर्म के सारे के सारे ग्रंथों को ‘अ’ सेलेकर ‘ज्ञ’ तक, ‘ए’ से लेकर ‘जेड’ तक सारे के सारे धर्मग्रथों को न केवल पढ़ा है वरन् सब लोगों को पढ़ाने के लिए प्रयत्न किया है।
मित्रो! उन ग्रंथों को हमने संस्कृत से हिन्दी में ट्रांसलेट किया है। न केवल ट्रांसलेट किया है, वरन् छपाने का प्रयत्न किया है। न केवल छपाने का प्रयत्न किया है, वरन् संसार के प्रत्येक विद्यालय में, दुनिया के हर कॉलेज में; हिन्दुस्तान में ही नहीं, संसार के हर कॉलेजऔर विश्वविद्यालयों में इन ग्रंथों को पहुँचाने का प्रयत्न किया है। ताकि लोग यह समझ सकें कि आखिर हिन्दू-धर्म क्या है और भारतीय संस्कृति एवं भारतीय सभ्यता क्या है? धर्म क्या है और भारतीय अध्यात्म क्या है, इसको समझने में हम समर्थ हो सकें, लेकिनयह सारा के सारा शिक्षण बहुत बड़ा है। हमने जो ग्रंथ लिखे हैं, वे बहुत बड़े हैं। उन्हें आप कैसे समझायेंगे?
मित्रो! जिनके पास समय नहीं है और जो कम समय में सारी की सारी चीजों को जानना चाहते हैं और समझना चाहते हैं, उनके लिए आपको यह बताना है कि उन्होंने तीन सिद्धान्त निर्धारित किये हैं। इन सारे के सारे ग्रंथों में तीन चीजें भरी पड़ी हैं। यहाँ हम आपकोआधा घंटे के अंदर इन सारी की सारी चीजों को सुनाने के लिए आये हैं और आप ध्यानपूर्वक सुन लीजिए। रामायण में क्या लिखा है, गीता में क्या लिखा है, भागवत् में क्या लिखा है? इन सबके सार के रूप में हमारे गुरुजी ने तीन चीजें निकाल कर रखी हैं। आपनेहलवाई की दुकान देखी है? हलवाई की दुकान में कितनी सारी मिठाइयाँ और कितने सारे पकवान रखे रहते हैं? ढेरों रखे रहते हैं। उनमें से एक का नाम जलेबी होता है, एक का नाम इमरती होता है, एक का नाम बालूशाही होता है, एक का नाम पेड़ा होता है, एक का नामखुरचन होता है। एक का नाम क्या होता है----आदि। इस तरह बहुत सारी मिठाइयाँ रखी रहती हैं। अगर आप बारीकी से देखें कि इन मिठाइयों में क्या है, तो आपको इन सारी की सारी मिठाइयों में केवल तीन चीजें दिखायी पड़ेंगी, चौथी चीज और कुछ है ही नहीं।
क्या-क्या तीन चीजें हैं? मित्रो! एक चीज है—दूध। दूध से खोवा-मावा बन जाता है, रबड़ी बन जाती है, घी बन जाता है, मक्खन बन जाता है, मलाई बन जाती है। असलियत में यह सब आपको मिठाई की दुकान में मिलेगी। यह हुआ दूध नम्बर—एक। नम्बर दो—आपको मिलेगा गन्ना। गन्ना में से शक्कर निकलती है। शक्कर से मिश्री बनती है। चासनी बनती है, गुड़ बनता है, खाँड़ बनता है; आदि। गन्ने से तरह-तरह की चीजें बना करके रखी जाती हैं हलवाई की दुकान में। तीसरी चीज है—अनाज। गेहूँ, चने को पीसकर कहीं-कहीं उसको जलेबी में मैदा मिला देते हैं, बूँदी के लड्डू में बेसन मिला देते हैं। यह क्या है? अनाज का पिसान—आटा।
इस तरह ये तीन चीजें हैं, चौथी कोई चीज नहीं है। तीन चीजों के द्वारा हलवाई की कला, हलवाई का चमत्कार और हलवाई का ढंग सब मिलाकर क्या-क्या बनाकर रख दिया। इस तरीके से गेहूँ का आटा इतनी मात्रा में शक्कर इतनी मात्रा में और पानी मिलाकर जलेबीबनकर तैयार हो गयी। यह क्या बन गया? इसमें इतना दूध और इतनी चीनी मिला करके क्या बना दिया? पेड़ा बना दिया। चाहे पेड़ा हो, चाहे जलेबी हो, सारी की सारी चीजों में केवल तीन ही चीजें आपको मिलेंगी। तीन के अलावा कोई चौथी चीज है ही नहीं।
गुरुदेव के चिंतन का सार-निष्कर्ष
मित्रो! धर्मग्रंथों में आप जहाँ कहीं भी पढ़ें, भले ही आप रामायण पढ़ लीजिए, भले ही आप भागवत् पढ़ लीजिए, भले ही आप वेद पढ़ लीजिए, भले ही आप उपनिषद् पढ़ लीजिए, सारे के सारे ग्रंथों के सार के रूप में गुरुजी ने जो चीजें पायीं है और उनका विश्लेषण करकेजो निष्कर्ष निकाला है, उसे उन्होंने तीन चीजों के रूप में रखा है। यही बात हम आपसे कहना चाहते हैं। यह बात आप कहाँ कहेंगे? वहाँ कहेंगे जहाँ आपको एक घण्टे का प्रवचन करने का मौका मिलेगा। जहाँ कहीं भी आपको थोड़ा मौका मिले, वहाँ आप यही कहना। शरीरके भीतर हड्डियाँ हैं, माँस है, पैर हैं, और न जाने क्या-क्या है, पर वास्तव में यह पाँच तत्त्वों का बना हुआ है। इसी तरीके से सत्, रज और तम-इन चीजों से प्रकृति बनी हुई है। सारी की सारी प्रकृति का निर्माण इन्हीं तीन चीजों से हुआ है।
मित्रो! इसी तरह सारे के सारे अध्यात्म का, धर्म का आविर्भाव इन तीन चीजों से हुआ है। ये हैं—आस्तिकता-ईश्वर विश्वास, कर्मफल की सुनिश्चितता एवं निर्भयता। पहली चीज क्या है? भगवान का विश्वास, जिसको मैं क्या कहता हूँ? ईश्वर की भक्ति कहता हूँ।ईश्वर की भक्ति के दो रूप हैं। पहला वाला रूप यह है जो कि पूजा और पाठ के रूप में सामने आता है। यह कलेवर है। इसे आप भूल मत जाना। किसे? कौन सा वाला? जो हम पूजा करते हैं, भजन करते हैं, ध्यान करते हैं, जप करते हैं, अनुष्ठान करते हैं, यह कलेवर है।
कलेवर के पीछे जो भावना है, उसको आप ध्यान रखना। कलेवर के पीछे जो प्राण भरा हुआ है, वह क्या भरा हुआ पड़ा है? वह ईश्वर का विश्वास भरा हुआ पड़ा है। ईश्वर का विश्वास अलग चीज है और पूजा अलग चीज है। यह सम्भव है कि पूजा करने वाला छः घण्टे पूजाकरता हो, सात घण्टे पूजा करता हो, पाँच घण्टे पूजा करता हो, लेकिन अगर उसके हृदय को खोलकर देखें तो वह पक्का नास्तिक हो सकता है, और पक्का चोर हो सकता है। यह बिल्कुल सम्भव है।
पहला सूत्र—आस्तिकता और ईश्वर विश्वास
मित्रो! पूजा करने वाले के बारे में हम यह राय निर्धारित नहीं कर सकते कि यह भगवान का भक्त भी है और भगवान का विश्वासी भी। भगवान का विश्वास अलग होता है और पुजारी अलग होता है। पुजारी किसे कहते हैं? पुजारी उसे कहते हैं, जो स्नान करता है, तिलकलगाता है, माला घुमाता है, चंदन चढ़ाता है। यह पुजारी है। और ईश्वर का विश्वासी? ईश्वर का विश्वासी वह है जिसको इस बात की जानकारी है कि भगवान हजार आँख वाला है। कोई ऐसी जगह बची हुई नहीं है जो कि भगवान की निगाह से बाहर हो। भगवान न्यायकारीहै, भगवान इंसाफ पसंद है। भगवान कर्मफल के महत्त्व को मानने वाला है। भगवान के यहाँ किसी को भी प्यार मिलता है, तो वह कर्म के आधार पर मिलता है, पूजा के आधार पर नहीं। आज तक भगवान ने मात्र पूजा के आधार पर किसी को प्यार नहीं किया और नभविष्य में कभी करेगा।
मित्रो! भगवान का प्यार जब कभी भी मिलेगा, तो वह इस आधार पर मिलेगा, जिसके लिए उसने आदमियों की परख करने के लिए दो रास्ते बना करके रखे हैं। पहला—इसके कर्म कैसे हैं? सिक्का खरा है या खोटा है, इसके लिए हम सिक्के को अँगूठे से बजाते हैं।उसकी आवाज टनटन है, तो हम रख लेते हैं, लेकिन यदि आवाज खट्-खट् आती है तो फेंक देते हैं। इससे पता चल जाता है कि सिक्का खरा है या खोटा है। जिसको हम प्यार करते हैं, अच्छे सिक्के को जमा कर लेते हैं। जिनके कर्म अच्छे हैं, जिनके विचार अच्छे हैं, वेभगवान के लिए पक्के सिक्के हैं, सही सिक्के हैं। इनको भगवान अपनी छाती से लगाकर रखते हैं और जो खोटे सिक्के हैं, जिसमें से खट्-खट् की आवाज आती है, उसे फेंक देते हैं। काट करके अलग फेंक देते हैं। नहीं साहब! हम तो पूजा करते हैं। अरे बाबा! यहाँ पूजा कीबात नहीं चल रही है, कर्म की चल रही है। पूजा करते हैं, तो अच्छी बात हैं, नहीं करते हैं, तो भी खराब बात नहीं है। पूजा-पूजा चिल्लाने की बजाय यह बताइये कि आपके विचार किस तरीके के हैं?
मित्रो! ईश्वर का विश्वासी हर जगह भगवान को हाजिर-नाजिर समझता है। ईश्वर विश्वासी इस बात को समझता है कि दुनिया में कर्म ही मुख्य है। कर्म के ऊपर ही व्यक्ति की सामाजिक उन्नति टिकी हुई है। कर्म के ऊपर ही मनुष्य की भौतिक उन्नति टिकी हुई है।कर्म के ऊपर ही मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति टिकी हुई है। कर्म के ऊपर ही भगवान का प्यार टिका हुआ है। सारी की सारी चीजें कर्म के ऊपर टिकी हुई हैं।
ईश्वर विश्वासी अर्थात
कर्म ही सबसे बड़ा योग है। गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने कर्मयोग की ही महत्ता बतायी थी। जो भगवान का विश्वासी होता है, वह भगवान के आदेशों के रूप में, भगवान के निर्देशों के रूप में अपने कर्तव्यों को सबसे बड़ा आधार समझता है और दुनिया में कर्तव्यों कापालन करता हुआ चला जाता है। अर्थात् उसके काम श्रेष्ठ होते हुए चले जाते हैं, उसके विचार श्रेष्ठ होते हुए चले जाते हैं। यही है ईश्वर विश्वासी की पहचान।
मित्रो! ईश्वर का विश्वासी निर्भय होता है। ईश्वर के विश्वासी को किसी का भय नहीं रहता। ईश्वर के विश्वासी की पहचान यह है कि वह कभी भी डरता नहीं। जो आदमी भगवान से डरेगा, उसको किसी और से डरने की कभी भी जरूरत नहीं है। जो आदमी भगवान से नहींडरेगा, उसको कदम-कदम पर डरने की जरूरत पड़ेगी। उसे पत्ते से डरना पड़ेगा, पेड़ से डरना पड़ेगा, पौधे से डरना पड़ेगा, हरेक से डरना पड़ेगा। लेकिन जिसने भगवान से डरना अंगीकार कर लिया, फिर उसको डराने वाला कौन है? अगर हमारे भीतर चोर नहीं है, तो फिरहमको कौन डरा सकता है? कोई नहीं डरा सकता।
हम ईमानदारी से जीवनयापन करते हैं, फिर हमारे ऊपर कोई कैसे अँगुली उठा सकता है? अँगुली उठायेगा तो धूल उसी के ऊपर गिरेगी। जहाँ जख्म होगा, वहाँ मक्खी बैठेगी, कीड़े पड़ेंगे। जहाँ जख्म नहीं है, वहाँ किस तरीके से कीड़े पड़ेंगे? जिसको भगवान का विश्वासहै, वह आदमी भगवान से डरता है, उसके इंसाफ से डरता है, उसके कायदे और कानून से डरता है। जो व्यक्ति उसके कायदे-कानून और इंसाफ से डरेगा, फिर उसको किसी से नहीं डरना पड़ेगा।
निर्भयी व्यक्ति ही सबसे सुखी
मित्रो! रामायण में यही कहा गया है कि दुनिया में सबसे ज्यादा सुखी आदमी कौन है? सबसे ज्यादा सुखी आदमी वह है, जिसको डरना नहीं है—‘‘सकल करम करि थकेउ गोसाईं। भये न सुखी अभय की नाईं॥’’ दुनिया में अभय के बराबर कोई सुख नहीं है। रात कोजिसको बढ़िया वाली गहरी नींद आती है और जिसको यह पता रहता है कि कल रोटी हमें अवश्य मिलने वाली है, तो फिर कल की चिंता करने की क्या जरूरत है? हमको परेशान रहने की क्या जरूरत है और हमको निराश रहने की क्या जरूरत है। यह सारी की सारीव्यवस्थाएँ जब भगवान ने अपने हाथ में सम्भाली हुई हैं। जब हम पैदा हुए थे तो हमारी माँ की छाती में गरम दूध के दो कटोरे दे करके भेजा था, तो फिर क्या वह हमारी आगे वाली जिन्दगी को सँभालने वाला नहीं है?
‘‘जाको राखे साइयाँ, मार सके न काये।
बाल न बाँका कर सके, जो जग बैरी होय॥’’
मित्रो! भगवान का विश्वास ऐसा होता है कि वह व्यक्ति कहता है कि साइयाँ से हमारा प्यार है। भगवान से हमारा प्यार है। लेकिन दूसरी ओर राहु के बारे में, केतु के बारे में, शनिश्चर के बारे में, मंगल के बारे में आपको डरने की जरूरत क्यों पड़ी? कल हमारा बैरी हमकोमार डालेगा। अरे भाई! बैरी मारेगा तो हमारे पास ही तो आयेगा, तब हम देख लेंगे। जो कुछ होगा, उसका मुकाबला करना पड़ेगा।
मित्रो! जिस आदमी में इतनी बहादुरी और हिम्मत भरी रहती है, वह कौन होता है? उसको हम ईश्वर का विश्वासी कहते हैं। ईश्वर विश्वासी उसे कहते हैं जो प्रत्येक व्यक्ति के भीतर, प्रत्येक प्राणी के भीतर एक भगवान के प्रकाश की ज्योति को देखता रहता है और हरेकके साथ में भलमनसाहत का व्यवहार करता रहता है। भलमनसाहत के साथ में लोगों की बुराइयों का निवारण करना भी शामिल है। भगवान की मूर्तियों की हम सफाई करते हैं। मूर्ति पर कहीं अगर चिड़िया की बीट पड़ जाती है, तो हम उसे हटा देते हैं। सफाई भी इसमेंशामिल है। लोगों को सुधार देना भी इसमें शामिल है और लोगों को सजा देना भी शामिल है और लोगों का विरोध करना भी शामिल है। किसमें? प्यार करने में। वह हरेक के अंदर यह समझता रहता है कि इसके अंदर भगवान की ज्योति है।
प्रत्येक इन्सान के कल्याण की सोचें
मित्रो! आदमी को आदमी का सम्मान करना चाहिए। जब किसी कैदी को फाँसी की सजा दी जाती है, तब पुलिस सुपरिन्टेन्डेंट, मजिस्ट्रेट और डी0एम0, जिसने हुक्म सुनाया था, वे वहाँ चले जाते हैं और टोपी उतार लेते हैं और काला कोट पहन करके जाते हैं। स्पष्ट है किआदमी की इज्जत है और सम्मान है। अतः इंसान को इंसान की इज्जत करनी चाहिए। जिस इंसान की भी हम इज्जत करते हैं, वह भावना हर आदमी के भीतर रहनी चाहिए। हमारे अंदर वह भावना रहनी चाहिए जो तुलसीदास जी ने ‘श्रीरामचरितमानस’ में कही थी—
‘‘सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥’’
यदि प्रत्येक प्राणी के भीतर राम और प्रत्येक प्राणी के भीतर सिया की यह वृत्ति हमारी आँखों में आ जाये, तो फिर क्या हम किसी आदमी के साथ में दुःख का व्यवहार करेंगे? किसी आदमी का शोषण करेंगे? क्या किसी आदमी के साथ में ठगबाजी करेंगे? क्या हम किसीके साथ में चालाकी करेंगे? नहीं करेंगे। तब हमारा हरेक साथ में ऐसा प्रेम भरा हुआ, सहानुभूति से भरा हुआ, श्रद्धा से भरा हुआ, ऐसा व्यवहार होगा, जिसमें उसका कल्याण भी शामिल है। जरूरत पड़ने पर हम उसके साथ में सख्ती से भी पेश आयेंगे।
मैं यह नहीं कहता कि हर आदमी के साथ में मुलायमियत ही आनी चाहिए। चोर, डाकू, बुरे और हत्यारों के साथ में भी आपको मुलायमियत के साथ पेश आना चाहिए। मैं तो यह कहता हूँ कि डाकू का कल्याण, चोरों का कल्याण, इसी में है कि जिस तरह अगर हमाराबच्चा नहीं मानता है, तो हम उसके कान पकड़ते हैं, उसके चपत लगाने की बात होती है, तो उसमें उसका कल्याण छिपा हुआ है।
मित्रो! कल्याण का मतलब यह नहीं है कि आप हर आदमी के साथ—जो बुरे-से-बुरे आदमी हैं, उनके साथ भी सहानुभूति का व्यवहार करते हुए चले जायें, उसके काम में भी सहायता करते हुए चले जायें। हमारा यह मतलब कदापि नहीं हैं। अगर आप यह गलती करेंगे तोआप कसाइयों को पूड़ी-हलवा खिलाने लगेंगे और सबको समान मानने लगेंगे। फिर तो सब गड़बड़ हो जायेगी। ऐसा आपको नहीं करना है। लेकिन मित्रो! हर आदमी के भीतर, हर प्राणी के भीतर जो हमारा कर्तव्य जुड़ा हुआ है, वह सेवा का जुड़ा हुआ है, सद्व्यवहार काजुड़ा हुआ है, भलमनसाहत से जुड़ा हुआ है, शराफत का जुड़ा हुआ है।
विचार शैली है आस्तिकता
मित्रो! भगवान का विश्वास—आस्तिकता विचार करने की एक शैली है, सोचने का एक तरीका है। यह पूजा का ढंग नहीं है। पूजा का ढंग अलग है। कर्मकाण्ड का भी एक तरीका है, लेकिन वह ऐसे ही है जैसे हम जैकेट पहने हुए बैठे हैं। जैकेट हमारे शरीर को ढकने के लिएहै। ईश्वर विश्वास को पक्का करने के लिए, ईश्वर की आस्थाओं को परिपक्व करने के लिए हम पूजा भी करते हैं, जप भी करते हैं और सूर्यनारायण को जल भी चढ़ाते हैं। और हम यह भी करते है और वह भी करते हैं। सारे के सारे काम करते हैं, पर वह मूल नहीं हैं। मूलवह है जिसको हम ईश्वर का विश्वास कहते हैं। मैंने आपसे कहा था कि हमारा मिशन आस्तिकवाद की स्थापना करने चला है। ईश्वर का विश्वास, जो दुनिया में से समाप्त हो गया है, उसकी पुनः स्थापना करने के लिए हम चले हैं, लोगों से आप यह बात अवश्य कहना।
मित्रो! सारे के सारे धर्मग्रंथों में और सारे के सारे ऋषियों की वाणियों में, सारे के सारे सत्संगों में अगर आपको कहीं से सार तलाश करना हो, तो सारभूत बात वही है, जिसे ईश्वर-विश्वास कहते हैं। कोई आदमी आपको रामायण की कथा पढ़ने के लिए कहता है, रामायणका पाठ करने के लिए कहता है, तो आप कहना कि यह बात ठीक है कि रामायण का पाठ करना चाहिए, क्योंकि वह रामायण का कलेवर है, रामायण का कंबल है। रामायण का पढ़ना या पाठ करना रामायण की जीवात्मा नहीं है।
रामायण की जीवात्मा कहाँ है? रामायण की जीवात्मा वहाँ है, जबकि हम रामचंद्र जी के उपदेश का परिपालन और रामचंद्र जी की भक्ति किस तरीके से की जा सकती है? इसके लिए हनुमान जैसे कदम उठाने के लिए, भरत जैसे कदम उठाने के लिए और अंगद जैसेकदम उठाने के लिए हम तैयार हो जाते हैं। तब जो स्फूर्ति हमारे मन में आती है, उमंग हमारे मन में आती है, उचंग हमारे मन में आती है, उस चीज का नाम क्या है? उस चीज का नाम ईश्वर विश्वास है। वह उसका प्राण है। वह उसका जीवन है। सिद्धियाँ उसी में हैं, चमत्कार उसी में हैं। वरदान उसी में है। कल्याण उसी में है। भजन में नहीं है कल्याण। राम के नाम में नहीं है कल्याण। राम के नाम का तो तोते भी उच्चारण कर लेते हैं, पर उससे उनका कल्याण होता है क्या?
तोतेरटन का नाम नहीं है ईश्वरविश्वास
मित्रो! तोते को मैंने ऐसा सुन्दर गायत्री मंत्र बोलते हुए देखा है और उसका मैं टेप करा करके भी लाया था। जब मैं पूर्वी अफ्रीका गया था, तो वहाँ अफ्रीका की ही विद्या नाम की एक लड़की भी आयी थी। उसने एक बड़ा तोता पाल रखा था। ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ से लेकर‘प्रचोदयात्’ तक पूरे वाक्यों में मंत्र बोलता था। मुझे शक होता था कि यह कोई मनुष्य बोल रहा है कि जानवर बोल रहा है। मैंने उस लड़की से पूछा कि इतने मधुर स्वर में कौन बोल रहा है? वह बोली—‘पॉली’ बोल रहा है। ‘पॉली’ कौन है? पॉली हमारा तोता है। कहाँ है? जरा हमको दिखाना? उसने दिखाया। पॉली को उसने बहुत सी बातें याद कराकर रखी थीं। उसका फोटो भी मैं खींचकर लाया था। उसको उसने न जाने क्या-क्या सिखाकर रखा था। सवाल-जवाब सिखाकर रखा था। और बहुत सी बातें सिखाकर रखी थीं। कांगो का वह तोताइतना बड़ा था, कबूतर जैसा काले रंग का। शक्ल उसकी तोता जैसी थी, किंतु रंग हरा नहीं था, वरन् काला था।
मित्रो! गायत्री मंत्र को जब तोते बोल लेते हैं, तब उनको क्या कहेंगे? पंडित जी कहेंगे या आचार्य जी कहेंगे? ब्रह्मा जी कहेंगे या गुरुजी कहेंगे? नहीं साहब! हम ज़बान से मंत्र बोलते हैं। बेटे, जबान से बोलने वाले मंत्र की कोई कीमत नहीं है। जबान से क्या मंत्र बोलता है, हमें मालूम नहीं कि तू गायत्री मंत्र बोलता है, कुरआन पढ़ता है। हमें नहीं मालूम क्या पढ़ता है। मर्जी आये तो पढ़, मर्जी न आये, तो मत पढ़। असलियत ज़बान में नहीं है। इंसान की जो असलियत है, वह हृदय में है। इसलिए अगर ईश्वर विश्वास की निष्ठा हमारे हृदयमें जगती हुई चली जायेगी, तो हम ईश्वर परायण होते हुए चले जायेंगे। ईश्वर के निर्देशों पर चलने वाले होते हुए चले जायेंगे। तब हम श्रेष्ठ जीवन जियेंगे, संत का जीवन जियेंगे, उदात्त जीवन जियेंगे, लोभ, मोह से मुक्त जीवन जियेंगे, अगर हमारे पास आस्तिकताहोगी तब।
आस्तिकता की स्थापना है गायत्री परिवार का लक्ष्य
मित्रो! हम इसी आस्तिकता की स्थापना करेंगे। क्योंकि यही आस्तिकता का प्राण है। वेदों से लेकर पुराणों तक में और भागवत् से लेकर गीता तक में इसी आस्तिकता की स्थापना करने के लिए ईश्वर के सारे के सारे क्रिया-कलापों की, ईश्वर की भक्ति की, ईश्वर कीउपासना की पद्धति का निर्माण किया गया। आपको अपने व्याख्यानों में एक बात यह भी जरूर बतानी चाहिए, समझानी चाहिए। इसका विस्तार उदाहरणों से किया जा सकता है। आप इस तरह के ढेरों उदाहरण सुना सकते हैं। उदाहरण के लिए एक चोर था। वह अपनेबच्चे को लेकर चोरी करने के लिए गया। उसने बच्चे से कहा—‘‘खेत के बाहर खड़े रहना। अगर कोई मालिक इधर आता दिखाई पड़े, कोई ऐसा आदमी इधर आता हुआ मालूम पड़े, तो हमें सचेत कर देना। हम और तुम भाग चलेंगे और खेत नहीं काटेंगे।’’
लड़का खेत की मेंड़ पर खड़ा हो गया। थोड़ी देर में लड़का चिल्लाया—‘‘पिताजी! भागो।’’ उसने कहा—‘‘क्यों क्या हुआ?’’ ‘‘अरे देखो! खेत का मालिक आ गया। जल्दी भागो।’’ बस वे दोनों भाग गये। चोर ने बेटे से पूछा—‘‘लड़के! बता मालिक कहाँ है?’’ उस लड़के ने कहा—‘‘वह तो भगवान था। वह सबका मालिक है और जर्रे-जर्रे का मालिक है। उसकी हजार आँखें हैं। वह आपको देख रहा था। खेत का मालिक नहीं देख रहा था, तो क्या हुआ? लेकिन सबका मालिक भगवान तो देख रहा था।’’
भगवान देख रहा था, यह यकीन और यह विश्वास हमारे भीतर आये जो कि लोगों को मालूम नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं? पड़ोसी को मालूम नहीं है, समाज को मालूम नहीं है, तो क्या हुआ, भगवान को मालूम है। वह तो सब कुछ देख रहा है। डर तो उसी भगवान काहै। सजा देने वाला तो वही भगवान है। पुरस्कार भी देने वाला वही है। अगर यह विश्वास हमारे जीवन में आ जाय, तो मित्रो! हम बेईमानी किस तरीके से करेंगे? हम चालाकी कैसे करेंगे? हम बुरे काम कैसे करेंगे? दगाबाजी हम कैसे करेंगे और विश्वासघात हम कैसेकरेंगे?
इन सब बातों से यदि हम अवगत हो जायँ, तो फिर हम अपनी ज़बान से कड़वा कैसे बोलेंगे? अगर हमारे सामने भगवान आकर खड़े हो जायँ, हनुमान अगर हमारे सामने आकर खड़े जो जायँ, तो क्या हम कड़वे वचन बोलेंगे? अगर रामचंद्र जी हमारे सामने आकर खड़ेहो जायँ, तो हम कड़वे वचन बोलेंगे? उनको गालियाँ देंगे? उनके सामने बुरा व्यवहार करेंगे? नहीं करेंगे। हमारे व्यवहार में मिठास आ जायेगी। इस तरह जो भगवान का विश्वासी होगा, उसके जीवन में मिठास आ जायेगी।
आंतरिक जीवन का परिष्कार है अध्यात्म
मित्रो! यह उद्देश्य नम्बर एक, गंगा की धारा नम्बर है, जिसे हमारा मिशन लेकर चला है। जिस अध्यात्म को लेकर के चला है। मानव जीवन का कल्याण करने के लिए ऋषियों ने अध्यात्म की त्रिवेणी बनायी थी। नम्बर—एक, नम्बर दो—यमुना। यमुना क्या है? यमुनायह है कि हमारे अपने आंतरिक जीवन का परिष्कार। आपको लोगों को यह बताना चाहिए कि भारतीय अध्यात्म की दिशा यह है। हर आदमी अपने भीतर सारी की सारी क्षमताएँ, सारी की सारी संभावनाएँ दबाये हुए बैठा है।
जब कभी भी किसी का भी विकास होगा, जब कभी भी किसी का कल्याण होगा, जब कभी भी किसी को शांति मिलेगी, तब उसको वह शांति अपने ही भीतर तलाश करनी पड़ेगी। जब कभी भी किसी आदमी का उद्धार होना होगा, तो उसके उद्धार की प्रेरणा और प्रकाशभीतर से ही आयेगा। जब कभी भी किसी आदमी को सिद्धियाँ और चमत्कार तलाश करने हों, तो वह बाहर से नहीं मिलेगा। मरघट में बैठकर खोपड़ी में पानी पीकर और मुर्दे की लाश के ऊपर चावल पका-पकाकर खाने से आपको चमत्कार नहीं आयेगा। चमत्कार जबकभी भी आयेगा, तो अपने भीतर से आयेगा। आपके भीतर ऋद्धियाँ भरी पड़ी है, सिद्धियाँ भरी पड़ी हैं, चक्र भरे हुए पड़े हैं और न जाने क्या से क्या भरा हुआ पड़ा है।
मित्रो! ये सारी की सारी चीजें हमारे अंदर परिपूर्ण मात्रा में भरी हुई पड़ी हैं। लेकिन आग के अंगारे के ऊपर जिस तरीके से राख की परतें जम जाती हैं और वह सारा का सारा अंगारा काला दिखाई पड़ता है और उस अंगारे के अंदर जो गर्मी होती है, वह दिखाई देनी बंद हो जातीहै। अंगारे के अंदर जो चमक होती है, वह दीखना बंद हो जाती है। क्योंकि काली वाली परत चारों ओर से छा जाती है। जब हम इस काली परत को हटा देते हैं तो अंगारा अपने वास्तविक रूप में आ जाता है। जलते हुए-धधकते हुए रूप में आ जाता है।
हमारी बाधाएँ—जिसको हम अज्ञान कह सकते हैं, अभाव भी कह सकते हैं, जिसको हम पिछड़ापन कह सकते हैं, जिसको हम मलीनताएँ कह सकते हैं और जिसको हम कषाय-कल्मष कह सकते हैं, मित्रो! यह हमारे भीतर वाली कमजोरियाँ हैं। जिसको हम योग कहतेहैं, उपासना कहते हैं, जिसको हम तप कहते हैं, इसका मतलब एक है और वह यह है कि हम अपने आपमें, अपने गिरेबान में मुँह डालें और अपने आपको तलाश करें कि हमारी भूलें कहाँ होती हैं? हमारी गलतियाँ कहाँ होती हैं? दोष हमारे कहाँ हैं? दुर्गुण हमारे कहाँ हैं? कषाय हमारे कहाँ हैं और कल्मष हमारे कहाँ हैं? मल हमारे कहाँ हैं? आवरण हमारे कहाँ हैं और विक्षेप हमारे कहाँ हैं।
आदर्शों की आग में तपने का नाम है अध्यात्म
इसलिए मित्रो! इन सब चीजों की सफाई करने के लिए, अपने आपकी सफाई करने के लिए तैयार हो जाइये। अपने आपको तपाने के लिए तैयार हो जाइये। जिस तरीके से आग में डालकर सोना को तपाया जाता है, उसी तरीके से हम सिद्धान्तों की आग में, आदर्शों कीआग में अपनी मलीनताओं को तपाना शुरू कर दें, तो हम क्या हो जायेंगे? तब हम तपा हुआ सोना हो जायेंगे, हम भस्म बन जायेंगे। जिस चीज का नाम ‘तप’ है, जिस चीज का नाम ‘योग’ है, मित्रो! वह और कुछ नहीं है। केवल यह है कि हमको अपने भीतर प्रवेशकरना चाहिए और अपने दोषों और अपने अवगुणों को समझना चाहिए। अपनी भूल और गलतियों को समझना चाहिए। और उनको सुधारने के लिए जद्दोजहद करना चाहिए। और स्वयं के बारे में अपने आपसे लड़ाई करना चाहिए।
हमारे अपने भीतर कितनी मलीनताएँ दबी पड़ी हैं। हमारे भीतर जो मलीनताएँ भरी पड़ी हैं, उन्हीं की ये प्रतिक्रियाएँ हैं, जो आपको दरिद्रता के रूप में दिखाई पड़ती हैं। बीमारियों के रूप में जो चीजें आपको दिखाई पड़ती हैं, वे और कुछ नहीं, वरन् आपके भीतर कीमलीनताएँ हैं। आपको जो अपने चारों ओर के वातावरण में वैर मालूम पड़ता है, दोष मालूम पड़ता है, वह और कुछ नहीं है, वरन् आपकी मलीनताओं की छाया है। उनकी प्रतिक्रिया है।
आंतरिक मलीनताएँ ही हैं रोग-शोक का कारण
मित्रो! हमको चारों ओर से जीवन कितना भयंकर, कितना क्लेशप्रद, कितना कर्कश, कितना दुष्ट दिखाई पड़ता है। वह कौन है जो हमको चारों ओर से कँपाता है, जो चारों ओर से भयभीत करता है, जो चारों ओर से संत्रस्त करता है, हताश करता है? मित्रो! वह और कोईनहीं है, वरन् अपने भीतर की कमजोरियाँ हैं। यह दुनिया तो बड़ी खूबसूरत है और बड़ी शानदार है। यहाँ पाप कहाँ है? यहाँ अनाचार कहाँ है? यहाँ गलतियाँ कहाँ हैं? कहीं नहीं हैं। हमारे भीतर जो कमजोरियाँ हैं, वही लौट-लौटकर दीवार पर आकर खड़ी हो जाती हैं उसके रूपमें और वही हमको भयभीत करती रहती हैं। वही डराती रहती हैं। आपकी बीबी भयंकर है और गाली देने वाली है, तो आपका क्या बिगाड़ सकती है?
आपको मैं कितनी बार एक किस्सा सुनाता रहा हूँ। संत तुकाराम का किस्सा न जाने कितनी बार सुनाया है। एक बार वे कहीं से एक गन्ना लाये थे। उनकी बीबी ने उसे उनकी पीठ पर दे मारा और उसके दो टुकड़े हो गये। एक टुकड़े को उन्होंने अपनी बीबी के हाथ में थमादिया था और एक को स्वयं चूसने लग गये थे। उन्होंने कहा कि पीठ में लग गयी, सो लग गयी। पीठ में लगने से क्या हुआ, लेकिन तुम्हारे हाथों का चमत्कार देख लिया कि तुमको कितना ठीक तरीके से निशाना मारना आता है। तुम एक गन्ने के दो टुकड़े कर सकती हो।तुम्हारे हाथ तो चूमने लायक हैं। उन्होंने यह गलती तो देखी नहीं कि हमारी पीठ में गन्ना क्यों मारा? वह तो उनकी कला को देखते रह गये। उन्होंने कहा-कि देखो इसको गन्ना मारने की कला कैसी बढ़िया आती है। एक बार में ही गन्ने के बराबर दो टुकड़े कर देती है। क्याकमाल के हाथ हैं? उन्होंने स्त्री के हाथ की खूबसूरती को देखा।
आप वही खूबसूरती लोगों में देखना शुरू कर दीजिए। फिर आप देखिए कि आपकी सामाजिक समस्याएँ सेकण्डों में हल होती हैं कि नहीं होती हैं। अभी आपका घर-जिसमें आपको नरक दिखाई पड़ता है और चारों ओर भयंकरता दिखाई पड़ती है, आप अपने विचारों कोबदल लीजिए और दृष्टिकोण को बदल लीजिए और फिर मजा देखिए कि आप नरक में से स्वर्ग में कैसे चले आते हैं।
स्वर्ग-नरक और कुछ नहीं, दृष्टिकोण मात्र हैं
मित्रो! नरक और कुछ नहीं है, बस हमारे विचार करने की एक शैली है, विचार करने का एक तरीका है, जिसमें सारी दुनिया बड़ी खौफनाक, बड़ी भयंकर और बड़ी खूनी दिखाई देती है। स्वर्ग कोई स्पेशल स्थान नहीं है। स्वर्ग किसी जगह का, किसी मोहल्ले का नाम नहीं है।स्वर्ग कोई गाँव नहीं है। स्वर्ग आदमी के विचार करने की एक शैली है और सोचने का एक ढंग है, जिसमें आदमी अपनी गलतियों को सुधारना शुरू करता है। चमत्कार वही है, सिद्धियाँ वही हैं, जादू वही है।
जो कुछ भी आप तलाश करना चाहते हैं, वह केवल और केवल आपके भीतर छिपा हुआ भरा पड़ा है। आप अपने आपकी सफाई कीजिए, अपने विचारों की सफाई कीजिए। अपने अवगुणों की सफाई कीजिए। अपने कर्मों की सफाई कीजिए। अपने स्वभाव की सफाईकीजिए। हर आदमी से आप कहिए कि यही महाभारत है जिसको गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सिखाया था। और यही है वह राम-रावण युद्ध, जो कि वाल्मीकि रामायण में दिखाया और समझाया गया है।
मित्रो! रावण हमारे भीतर बैठा हुआ है अहंकार के रूप में और पाप के रूप में। कंस हमारे भीतर बैठा हुआ है दुष्टता के रूप में और पाप के रूप में। दुर्योधन हमारे भीतर बैठा हुआ है अनाचार, अहंकार और पाप के रूप में। हमको इन्हीं का संहार करने के लिए भगवान कोपुकारना चाहिए। भगवान को बुलाना चाहिए कि आप धर्म की स्थापना करने के लिए और अधर्म का विनाश करने के लिए आइए। धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश बहिरंग विश्व में भी होना चाहिए, लेकिन उससे पहले हमारे अंतरंग विश्व में होना चाहिए। हममें सेहरेक आदमी को चरित्रवान होना चाहिए और कर्तव्यों का पालन करने वाला होना चाहिए। हमें शरीफ होना चाहिए, भला आदमी होना चाहिए और श्रेष्ठ आदमी होना चाहिए।
व्यक्तित्व की प्रामाणिकता विकसित करें
मित्रो! हमें लोगों को यही शिक्षण करना है। जहाँ कहीं भी हम समाज में जायेंगे और जहाँ कहीं भी हमको एक घंटा बोलने का मौका मिलेगा, हमें इन्हीं मूलभूत सिद्धांतों की व्याख्या करना है। ये प्रिन्सिपल हैं। इनके ऊपर एक-एक, दो-दो चीजें जो मैंने आपको बताई है, आपको तीन धारायें बताई हैं, उनके ऊपर उदाहरण और दृष्टांत देना चाहें, तो हजारों दृष्टांत हैं।
अगले दिनों हमारी एक पुस्तक प्रकाशित होने वाली है। अगर आपको इन धाराओं के ऊपर उदाहरण ढूँढ़ने हों, तो पुराणों के उदाहरण, कथाओं के उदाहरण, देश एवं विदेशों के उदाहरण—कितने सारे उदाहरण आपको मिलते चले जायेंगे। क्या आपको वह उदाहरण ध्यान नहींहै? कौन सा? वेस्टन वॉच कंपनी का। वेस्टन वॉच कंपनी की घड़ियों का मार्केट उसकी प्रामाणिकता पर निर्भर है। जहाँ अन्य कंपनियों का शेयर सौ रुपये का बिकता है। वहीं वेस्टन वॉच कंपनी का शेयर दो हजार रुपये का बिकता है। क्यों बिकता है? इसलिए बिकता है किवेस्टन वॉच कंपनी बनाने वालों ने यह कसम खायी हुई है कि हम लोगों के लिए अच्छी से अच्छी, बेहतरीन से बेहतरीन, बढ़िया से बढ़िया चीजें देंगे। कीमत जो भी लगेगी, हम लोगों से लेंगे। कीमत ज्यादा हो तो हो, लेकिन खराब चीज नहीं देंगे। उन्होंने यह निश्चय करलिया।
मित्रो! इसलिए वहाँ यह ईमानदारी अभी भी बनी हुई है। वेस्टन वॉच कंपनी की जो घड़ियाँ बनकर आती हैं, उन्हें पहले एक साल तक जाँचा परखा जाता है। वे उनकी दीवारों पर टँगी रहती हैं और इंजीनियर एक साल तक उनकी निरख-परख करते रहते हैं। चौबीस घंटे मेंअगर एक सेकेण्ड का भी फर्क पाया जाता है, तो घड़ी को उतार लिया जाता है और फिर से फैक्ट्री में भेज दिया जाता है। ये फिर से रिबिल्ट होती हैं—बनाई जाती हैं। बनाने के बाद में फिर टाँग दी जाती हैं और देखा जाता है कि एक साल तक वे बिना एक सेकेण्ड का फर्ककिए चलीं कि नहीं चलीं। इसके बाद में देख लिया कि अगर घड़ी सही है, तो उसको रिलीज करते हैं, बेचते हैं। अगर वह घड़ी चालू नहीं होती है और दो-तीन साल तक सही नहीं होती है, तो उसको फिर गला देते हैं और फैक्ट्री में गला करके दूसरी बना देते हैं। लोहे कोतोड़कर खराब कर देते हैं और कबाड़ में डाल देते हैं। उनका यह विश्वास है कि किसी के साथ में धोखेबाजी नहीं करनी चाहिए। किसी आदमी को खराब चीज नहीं देनी चाहिए। खराब चीज देना इनसान की इनसानियत का अपमान है और तिरस्कार है।
मित्रो! आदमी की सबसे बड़ी इज्जत इस बात में नहीं है कि उसके पास मकान है कि नहीं है। मोटर है कि नहीं है। यह इज्जत की बात नहीं है। आदमी की इज्जत इस बात में है कि उसने अपने फर्ज और कर्तव्यों को निभाया कि नहीं निभाया? दूसरों के साथ उसने शराफतऔर भलमनसाहत का व्यवहार किया कि नहीं किया? आदमी की इज्जत का प्वाइंट यही है और इज्जत की बात यही है, भगवान के सामने अपनी इज्जत साबित करने का प्वाइंट यही है और कोई प्वाइंट नहीं है।
मित्रो! व्यक्ति जिससे महान बनता है, योगी बनता है, तपस्वी बनता है, चमत्कारी बनता है और वरदान देने वाला बनता है, सिद्ध बनता है और संत बनता है, वह भी वहीं से बनता है। अगर हम अपनी ज़बान में सिद्धि पैदा करना चाहते हैं, तो हमको झूठ बोलना बंदकरना चाहिए। जो चीजें हमारे खाने के योग्य नहीं हैं, उन्हें खाना बंद करना चाहिए। बेईमानी का, हराम का पैसा खाना बंद करना चाहिए। लोगों का दिल दुखाना बंद करना चाहिए।
मित्रो! आप लोगों का दिल दुखाने वाला वचन मत बोलिए। झूठ मत बोलिए। जो चीजें हमारे खाने लायक नहीं हैं, उनको मत खाइये। हराम का पैसा मत खाइये, मत इस्तेमाल कीजिए। बस, इस ज़बान को इन चार योगाभ्यासों से कंट्रोल कर लीजिए, फिर देखिए किआपकी ज़बान में सिद्धि आती है कि नहीं आती है। चमत्कार आता है कि नहीं आता है। सरस्वती सिद्ध होती है कि नहीं होती है? राम का नाम सिद्ध होता है कि नहीं होता? हनुमान का नाम सिद्ध होता है कि नहीं होता।
चरित्रनिष्ठा और व्यक्तित्व परिष्कार का दें शिक्षण
आपने तो अपनी जबान गंदी कर रखी है और आप राम का नाम उच्चारण करते हैं और गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हैं, हनुमान जी का नाम उच्चारण करते हैं। ज़बान गंदी है तो क्या करेगी गायत्री और क्या करेंगे हनुमान जी? इनमें से कोई सिद्ध होने वाली नहीं है। गंदेनाले में आप थोड़ा सा गंगाजल डाल दीजिए, गंगा जल भी उसी तरह का हो जायेगा। आपने तो अपनी ज़बान को तो ऐसा बना रखा है जिस तरह से गंदा नाला होता है। अगर इस गंदी ज़बान से हनुमान जी का नाम लेंगे, तो वह भी इसी में गिरेगा और इसी में मरेगा। औरअगर आप गंगाजल डालेंगे, तो वह भी इसी में गिरेगा और वह भी नष्ट होगा। मुँह को साफ करिये, फिर देखिये कि क्या चमत्कार होता है। आपका बर्तन तो गंदा रखा हुआ है। उस गंदे वाले बर्तन में आप गंगा जल ले करके आएँ, या दूध लेकर आएँ, आपका दूध फटेगा ही।दूध सही नहीं रहने वाला है। पहले बर्तन साफ करके लाइए, तब इसमें दूध गरम करिए।
मित्रो! अध्यात्म का यह रहस्य और अध्यात्म का सार हमें हर जगह बताना पड़ेगा और यह कहना पड़ेगा कि हम आप लोगों को चरित्र निष्ठा सिखाने आये हैं। हम आप लोगों को भलमनसाहत सिखाने आये हैं, सज्जनता सिखाने आये हैं। सज्जनता और भलमनसाहतजब तक नहीं आयेगी, व्यक्ति का उत्कर्ष नहीं हो सकता, समाज का उत्कर्ष नहीं हो सकता, परिवार का उत्कर्ष नहीं हो सकता। नयी पीढ़ियाँ अच्छी नहीं बन सकतीं। आदमी सुख और शांति से नहीं रह सकता। आदमी के व्यक्तिगत एवं भौतिक जीवन में तथाआध्यात्मिक जीवन में प्रगति नहीं हो सकती। उन्नति नहीं हो सकती, फिर चाहे कितना ही भजन-पूजन क्यों न किया जाय। इसलिए हमको लोगों का शिक्षण करना पड़ेगा और यह बताना पड़ेगा कि हमारे धर्मशास्त्रों और वेदों में जो कुछ भी लिखा हुआ है, उसकी धारानम्बर दो है—यमुना। और धारा नम्बर तीन कौन सी है? सरस्वती। गंगा, यमुना और सरस्वती—अध्यात्म की यही तीन धाराएँ हैं।
गायत्री के तीन चरण
मित्रो! गायत्री के तीन चरण हैं, तीन धाराएँ हैं। यही त्रिवेणी संगम की गंगा, यमुना और सरस्वती नामक तीन धाराएँ हैं। बस, यही सारे के सारे अध्यात्म का सार है। गंगा यही है। दूध यही है। शक्कर यही है और अनाज यही है। इन तीनों चीजों की मिठाइयाँ बनी पड़ी हैं।अगर आप सारे धर्मशास्त्रों को पढ़ लें, तो भी अच्छा है। अगर धर्मशास्त्र पढ़ने में न आयें, सत्संग आपके सुनने में न आये, किसी महात्मा के पास सत्संग में जाने के लिए फुर्सत न मिले, कोई धर्मग्रंथ पढ़ने की आपको फुर्सत न मिले, तो केवल इन तीन सिद्धान्तों कोजान लेना, समझ लेना। इनको अगर आपने जान लिया, तो सारे का सारा ज्ञान आपको मिल जायेगा। सारे वेदों के पाठों का सार समझ में आ जायेगा और सारे के सारे संतों का और सारे के सारे ऋषियों का जो कुछ भी शिक्षण और प्रशिक्षण है, उसका मूलभूत समस्तसार आपकी समझ में आ जायेगा, अगर आप इन तीन बातों को जान लें तब।
मित्रो! तीसरी एक और बात रह गयी। तीसरी बात क्या रह गयी? तीसरी बात यह रह गयी कि इनसान के पास जो संपदाएँ हैं, वे एक अमानत के रूप में हैं। भगवान सबको प्यार करता है। भगवान के बेटे-बेटी सभी हैं। कीड़े-मकोड़े भी उसी के बेटे-बेटी हैं और पशु-पक्षी भीउसी के बेटी-बेटे हैं। चौरासी लाख योनियों के अलावा इनसान को जो कुछ भी अतिरिक्त रूप में विविधताओं से परिपूर्ण क्षमताएँ मिली हुई हैं, वे केवल एक अमानत के रूप में मिली हुई हैं। वे इसलिए मिली हुई हैं कि इस दुनिया में खुशहाली पैदा करें। इस दुनिया में शांतिपैदा करें और भगवान के सहायक इंजीनियर के रूप में, उसके मैनेजर के रूप में, उसके मिनिस्टर के रूप में दुनिया में सुख और शांति लाने के लिए भगवान की मदद करें। इसके लिए हमको बुद्धि मिली हुई है, अक्ल मिली हुई है, पैसा मिला हुआ है, जो कि दूसरेप्राणियों के पास नहीं है। वह खालिस अमानत है। जिस तरह बैंक के खजांची के पास अमानत होती है, ठीक उसी तरह से हमारे पास भी अमानत है।
भगवान की अमानत है इनसान की संपदाएँ
मित्रो! यह अमानत हमको सिर्फ इसलिए मिली हुई है कि खाने और पहनने के अलावा जो भी हमारी बुद्धि का हिस्सा बाकी बच जाता है, जो भी हमारे प्रभाव का हिस्सा बाकी बच जाता है, जो भी हमारे पैसे का हिस्सा बाकी बच जाता है—उन सारी की सारी चीजों कोदुनिया की खुशहाली के लिए, इस दुनिया में शांति लाने के लिए, इस दुनिया में सुख और समृद्धि बढ़ाने के लिए खर्च करना चाहिए। हमको पेड़ों से नसीहत लेनी चाहिए जो कि हमको रोजाना सिखाते हैं कि हमने अपने पत्ते पैदा किये, लेकिन खुद उनको खाया नहीं, खुदइस्तेमाल नहीं किया। पत्तों को जमीन पर गिरा दिया और वे खाद बनकर जमीन में चले गये, जमीन में मिल गये। पेड़-पौधों से, वृक्षों से हमको यह सीखना चाहिए कि उन्होंने अपना वैभव बढ़ाया, लेकिन स्वयं उससे कोई लाभ नहीं उठाया। जो भी उसके समीप आये, अंदर आये या नीचे आये, सबके सब लाभान्वित होते चले गये। जानवर आये और उसके नीचे बैठते चले गये। चिड़ियाँ डालियों पर बैठती चली गयीं। उनके भीतर चिड़ियों ने अपने घोंसले बना लिए। कीड़ों ने अपने रहने की जगह बनायी। जानवर उसके नीचे बैठते चलेगये। इनसानों ने भी फायदा उठाया। उसके फूल लोगों के काम आये। उसके फल दूसरे लोगों के लिए काम आये। पेड़ स्वयं के लिए नहीं जिया। अतः इनसान को कम से कम पेड़ों के बराबर तो होना ही चाहिए।
मित्रो! भेड़ों से हमको नसीहत लेनी चाहिए। भेड़ अपने वदन पर ऊन पैदा करती है। ऊन पैदा करने के बाद में वह उसे उन लोगों को मुहैया कराती है जिन लोगों को जाड़े में कम्बलों की जरूरत है, गरम कपड़ों की जरूरत है। अपने वदन पर से वह बार-बार ऊन कटवातीजाती है और भगवान उस ऊन का मुआवज़ा बार-बार देता हुआ चला जाता है। जितनी बार ऊन काटी जाती है, उतनी ही बार नयी ऊन पैदा होती चली जाती है। आदमी को कम से कम भेड़ जैसा तो होना ही चाहिए। उसे रीछ जैसा नहीं होना चाहिए। रीछ के वदन के ऊपर भीभगवान ने ऊन दी थी, लेकिन उसने कहा कि यह ऊन मेरे लिए है। इसका उपयोग मैं करूँगा और मेरा बेटा करेगा। मैं खाऊँगा और मेरा बेटा खायेगा, तीसरे प्राणी को नहीं खाने दूँगा। यह सब मेरे लिए है। मैं किसी को भी एक बाल देने के लिए तैयार नहीं हूँ। रीछ ने अपनीऊन किसी को नहीं दी। जो भी माँगने के लिए आया उसको काटने के लिए दौड़ा। फलस्वरूप कुदरत ने उसको ऊन देना बंद कर दिया। जितनी ऊन भगवान से लेकर के आया था, जन्म के समय से अंतिम समय तक एक अंश भी अधिक प्रकृति ने नहीं दी। भेड़ जो थी, वहहर बार ऊन देती चली गयी और प्रकृति भी उसे हर बार देती चली गयी।
संचयी न हों, दान देना सीखें
मित्रो! आपको भेड़ के बराबर समझदार तो होना ही चाहिए। आपने एम.ए. पास कर लिया है, जागीरदार हो गये, कलेक्टर हो गये, परन्तु आपको भेड़ के बराबर भी अक्ल नहीं आई। आपको पेड़ों-वृक्षों के बराबर भी अक्ल नहीं आई? आपको तालाब के बराबर भी अक्लनहीं आई? जो नदियाँ बहती गयीं और अपने पानी को लेती गयीं और पानी को खेतों में बिखेरती हुई चली गयीं और बाँटती हुई चली गयीं, उन नदियों को हिमालय से पानी मिलता हुआ चला गया। स्रोतों से पानी मिलता हुआ चला गया। झरनों से पानी मिलता चलागया। लेकिन जो तालाब रुककर सीमाबद्ध हो गये थे और जिन्होंने यह कहा कि यह पानी हमारा है। हमारे खर्च करने के लिए है। हमारे अलावा किसी को भी इस पानी का फायदा नहीं मिलना चाहिए। उनका पानी सड़ गया, सिकुड़ गया और वे जोहड़ सूख गये। वे कीड़ों सेभर गये और उन जोहड़ों में गंदगी पैदा हो गयी और बदबू पैदा हो गयी।
जो उदार है, वही इनसान है
मित्रो! हमारी अक्ल उन नदियों और झरनों के बराबर तो होनी ही चाहिए, जो सबके काम आते हैं। इनसानों की अक्ल उन बादलों के बराबर तो होनी ही चाहिए, जो बराबर अपना पानी बरसाते रहते हैं। पानी बरसाने के बाद में नदियाँ पानी को समुद्र में ले जाती हैं। समुद्रफिर उन बादलों को देता है। बादल फिर उन रास्तों से पानी बाँटते हुए चले जाते हैं, लेकिन बादलों के पास पानी की कमी नहीं होती है। बादलों ने अगर अपना पानी रोक करके रखा होता और यह कहा होता कि यह पानी हमारे लिए है और हम इसका इस्तेमाल करेंगे। फिरकैसे वृद्धि होती? फिर वर्षा नहीं हो सकती थी। फिर मुसीबत आ जाती और बादल बदनाम हो जाते और संसार में तबाही आ जाती। इनसान को बादलों के बराबर तो अक्ल रखनी चाहिए।
मित्रो! हर आदमी से हमको यह कहना चाहिए कि इनसान उसे कहते हैं, जो उदार होता है। इनसान वह होता है जो दूसरे के दुखों में अपने दुःख की अनुभूति करता है। इनसान उसे कहते हैं जो अपने सुखों को अकेला बैठकर नहीं खाता, वरन् अपने सुखों को बाँटकर औरदूसरों के दुखों को बँटाकर खाता है। उसकी तबियत ऐसी उदार होती है वह आदमी पूर्ण कहलाता है। वह आदमी तपस्वी कहलाता है। वह आदमी योगी कहलाता है। वह आदमी संत कहलाता है और जिसके अंदर उदारता का माद्दा पैदा न हो सका, जिसके अंदर संतपन कामाद्दा पैदा न हो सका, जिसके अंदर अपनी तबियत को चौड़ा करने का माद्दा पैदा न हो सका, जिसके अंतस् में—अंतर में करुणा का माद्दा पैदा न हो सका, तो फिर हम कैसे कहेंगे कि यह आदमी अध्यात्मवादी है। फिर हम कैसे कहेंगे कि यह आदमी भगवान का भजनकरने वाला है और रामायण पढ़ने वाला है, गीता पढ़ने वाला है। रामायण पढ़ने वाले को, गीता पढ़ने वाले को और भागवत् पढ़ने वाले को उदार तो होना ही चाहिए। तबियत तो उसकी चौड़ी होनी ही चाहिए। दूसरों के सुख और सुविधा को बढ़ाने के लिए उसके अंतःकरण मेंफुरफुरी तो आनी ही चाहिए। आध्यात्मिकता का यह लाभ तो मिलना ही चाहिए।
धर्म की सच्ची व्याख्या
मित्रो! यह क्या कहलायेगा? यह वह कहलायेगा जिसको हम धर्म कहते हैं। हर जगह-जहाँ कहीं भी आप जायें, जहाँ कहीं भी आपको आधा घंटा बोलने का मौका मिले, प्रवचन करने का मौका मिले, आप तीनों सिद्धान्तों को समझाना। मैंने आपको संक्षेप में समझाया, सारभूत समझाया। इसको आप चाहे जितना विस्तार कर सकते हैं और बहुत विस्तार से बता सकते हैं। कहानियों के द्वारा, दृष्टांतों के द्वारा, उदाहरणों के द्वारा हमको यह तीन सिद्धांत मनुष्य के हृदय में स्थापित करने हैं। यह तीन सिद्धांत अगर हम स्थापित करासकें, तो इन्हीं को हम ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहेंगे। अगर आपने इन तीनों सिद्धांतों को स्थापित करा लिया, तो हम इन्हीं को गायत्री कहेंगे, इन्हीं को सरस्वती कहेंगे, इन्हीं को काली कहेंगे और इन्हीं को लक्ष्मी भी कहेंगे।
मित्रो! यही तीन सिद्धांत हैं, यही तीन धारायें हैं, जिनको हम गंगा, यमुना और सरस्वती कहते हैं। इन्हीं तीन धाराओं पर अगर आपको आधे घंटे का प्रवचन करने का मौका मिले और लोग जिज्ञासा व्यक्त करें कि गुरुजी! कुछ बात कहिये। आचार्य जी ने हमारे लिए क्यासंदेश भेजा है? आचार्य जी ने हमारे लिए क्या कहलवा करके भेजा है? तो आप इन्हीं तीनों बातों के बारे में बताना और उनसे कहना कि आप इन्हें अपने जीवन में धारण करने की कोशिश करें, तो आप संत हो सकते हैं, भले ही आप गृहस्थ हैं। आप योगी हो सकते हैं, भलेही आप सामान्य कपड़े पहने हों और नौकरी करते हों। आप तपस्वी हो सकते हैं, भले ही आप बिना पढ़े-लिखे आदमी हों और आप खेती-बाड़ी करके अपना गुजारा करते हों। प्राचीनकाल के संत, ऋषि इसी तरीके से रहते और तपोमय जीवन जीते थे। संत रैदास को ही देखलीजिए। तुलाधार वैश्य को देख लीजिए। सारे के सारे आदमी इसी तरीके के थे, जो अपना पेट पालने के लिए, गुजारा करने के लिए मेहनत-मजदूरी करते थे।
मित्रो! कबीरदास सारी जिन्दगी जुलाहे का काम करते रहे। खड्डी बुनते रहे और सूत कातते रहे। सूत बुनते रहे और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए रोटी कमाते रहे। क्या संत कबीर तपस्वी नहीं थे? हाँ, औरों की अपेक्षा ज्यादा तपस्वी थे। क्या रैदास तपस्वी नहीं थे? हाँ, तपस्वी थे। वे जिंदगी भर चमड़े का काम करते रहे। अपना पेट पालने के लिए, अपना गुजारा करने के लिए और रोटी कमाने के लिए ईमानदारी से जिंदगी भर वही काम करते रहे। कौन सा? चमड़े का काम। और भी कितने ही संत हुए हैं, जो जिस दिन से पैदा हुए, किसानगीरी का काम किया और जिस दिन उनका शरीर साथ छोड़ गया, उस दिन तक बराबर खेती-बाड़ी करते रहे और किसानगीरी का काम करते रहे।
कैसे बनें संत? कैसे बनें आध्यात्मिक?
मित्रो! क्या हम संत नहीं हो सकते? हाँ, हम संत हो सकते हैं। हम ज्ञानी हो सकते हैं। हम तपस्वी हो सकते हैं। अध्यात्मवादी हो सकते हैं। धर्मात्मा हो सकते हैं। कब हो सकते हैं? जबकि हम बहिरंग क्रियाकलापों तक अपनी आध्यात्मिकता और अपनी धार्मिकता कोऔर अपनी आस्तिकता को सीमित रखने की अपेक्षा अपने मन को, अपने हृदय को और अपने अंतःकरण को रँगने की कोशिश करें। बाहर के कपड़े चाहे रँगे जायँ, चाहे नहीं रँगे जायँ, पर उन्हें धुला तो होना ही चाहिए और रँगा तो होना ही चाहिए। मन की धुलाई और मनकी रँगाई-इसी का नाम आध्यात्मिकता है। हमारे मिशन ने इसके लिए तीन प्रयोग जन साधारण के सामने प्रस्तुत करने के लिए कदम बढ़ाये हैं। हम लोगों को तीन बातें ही सिखाते हैं। हमारी सारी की सारी शिक्षाओं के और कथाओं के, योगों के, व्याख्यानों के और हमारेक्रिया-कलापों के तीन उद्देश्य हैं। चौथा और कोई उद्देश्य नहीं है।
युग निर्माण मिशन का पहला उद्देश्य—आस्तिकता
मित्रो! एक उद्देश्य यह है कि हम आस्तिकवाद की स्थापना करना चाहते हैं। आस्तिकवाद का अर्थ है—भगवान का विश्वास—नम्बर। भगवान की पूजा—नम्बर दो। पूजा नम्बर एक नहीं है, वरन भगवान का विश्वास नम्बर एक है। भगवान का विश्वास इसका प्राण है।भगवान का विश्वास न हो और भगवान की पूजा करते रहें, तो कुछ हाथ लगने वाला नहीं है, चलिए मैं यह भी कहने को तैयार हूँ कि आप पूजा नहीं भी करेंगे, तो भी काम चल जायेगा। भगवान का विश्वास मूल है और भगवान की पूजा गौण है। आप भगवान की पूजाकरें। भगवान की पूजा करने के लिए मैं किससे मना करता हूँ? पूजा करने से मेरा कोई विरोध नहीं है। पूजा का मैं समर्थक हूँ और पूजा की मैं शिक्षा देने वाला हूँ। लेकिन अगर आदमी यह मानना शुरू करेगा कि हम पूजा करते हैं तो भगवान के ऊपर हमारा अधिकार होगया, तो मैं उससे लड़ने के लिए तैयार हो जाऊँगा। अगर कोई व्यक्ति यह कहेगा कि हमने तो भगवान की भक्ति कर ली, लेकिन मन की सफाई नहीं करते हैं, तो क्या हुआ? भगवान के उद्देश्यों और आदर्शों पर नहीं चलते हैं, तो क्या हुआ? अगर कोई यह कहने लगातो मैं उसे गलतफहमी में पड़ा हुआ आदमी कहने लगूँगा।
मित्रो! आप लोग हरेक से कहना कि हमारा मिशन आस्तिकवाद की स्थापना करने चला है। लोग जब यह पूछें कि अध्यात्म तो सत्संग को कहते हैं। अध्यात्म तो रामायण पढ़ने को कहते हैं। अध्यात्म तो उपवास करने को कहते हैं। तब आप कहना कि अध्यात्म इसचीज का नाम नहीं है। यह अध्यात्म का कलेवर है। यह अध्यात्म की शाखायें हैं। ये अध्यात्म के वाहन हैं। ये अध्यात्म की सवारियाँ हैं, लेकिन असली अध्यात्म वह है जिसमें आदमी अपनी सारी की सारी परिस्थितियों की जिम्मेदारी अपने ऊपर उठाने को तैयार होता है।अपनी सफाई को सबसे बड़ा आवश्यक काम मानता है और यह मानता है कि हमको जो कुछ भी मिलने वाला है, जो कुछ भी हमारी समस्याओं का समाधान होने वाला है, वह तब होने वाला है जब हम अपने आपको सुंदर, स्वच्छ और निर्मल बनाना शुरू कर दें।
युग निर्माण मिशन का दूसरा उद्देश्य—आध्यात्मिकता
मित्रो! अपने ऊपर विश्वास करने का नाम ही आत्मबोध है। आध्यात्मिकता उसी का नाम है। आत्मचिंतन उसी का नाम है, वेदान्त उसी का नाम है। ‘सोऽहमस्मि’, ‘अयमात्मा ब्रह्म’, ‘तत्वमसि’, ‘प्रज्ञानम् ब्रह्म’—यह सारे के सारे वाक्य इसलिये बताये गये हैं किलोगों बाहर की तलाश करना बंद करो। जो कुछ भी आपको तलाश करना है, भीतर तलाश करो। अपने भीतर की ओर देखो। आपको भगवान को तलाश करना है, तो बाहर ढूँढ़ना बंद कर दो और अपने भीतर तलाश करो। आपको महान बनना है, दिव्य सम्पत्तियाँ चाहिए, सिद्धियाँ चाहिए, सामर्थ्य चाहिए, तो बाहर मरघट में जा करके आपको मुर्दे के ऊपर चावल पकाना और खोपड़ी में पानी पीना बंद करना पड़ेगा। अपने भीतर सिद्धियाँ तलाश कीजिए। सिद्धियों के भण्डार आपके भीतर भरे पड़े हैं। आपको यह शिक्षण करना है किअध्यात्मवाद का मतलब है—अपने ऊपर निर्भर हो जाना, अपने आपकी सफाई करना, अपने को श्रेष्ठ बनाना। अपने आपको प्रखर, पवित्र, ओजस्वी एवं तेजस्वी, मनस्वी बनाना ही अध्यात्म का मूलभूत उद्देश्य है।
युग निर्माण मिशन का तीसरा उद्देश्य—धार्मिकता
मित्रो! हमारे मिशन का यह उद्देश्य नम्बर दो है। आप हर जगह कहना कि आदमी को हम उदार बनाना चाहते हैं। आदमी को हम हृदयवान बनाना चाहते हैं। आदमी के भीतर हम सेवा भक्ति बढ़ाना चाहते हैं। हम आदमी को सहृदय बनाना चाहते हैं। हम आदमी कोसमाजनिष्ठ बनाना चाहते हैं, जिससे कि वह एकाकी जीवन जीने की अपेक्षा, अपने ही सुख और सुविधाओं की उन्नति करने की अपेक्षा परदुःखकातर होना चाहिए। आदमी दूसरों के दुःखों में सहायक होना सीखे। संसार में शांति लाने के लिए अपना पसीना बहाना सीखेऔर मेहनत को बढ़ाना सीखे। सत्कार्यों के लिए कष्ट उठाना सीखे। इस चीज का क्या नाम है? इस चीज का नाम है—धार्मिकता, कर्तव्यपरायणता। हम लोग धार्मिकता का विस्तार करने के लिए चले हैं। हम लोग आस्तिकता की स्थापना करने के लिए चले हैं। हमईश्वर का विश्वास और ईश्वर की भक्ति का संवर्धन करने चले हैं। बस यही तीन चीजें थीं, जो हमारे मिशन ने, संस्था के संस्थापकों ने वेदों का अनुवाद करके, पुराणों का अनुवाद करके, अन्य ग्रंथों का अनुवाद करके, संत और महात्माओं का सत्संग करके, अपना चिंतनऔर मनन करके मक्खन के रूप में तीन रत्न निकाले हैं।
मित्रो! समुद्र मंथन के बाद चौदह रत्न निकाले गये थे। धर्म के और संस्कृति के सारे के सारे कलेवर, जिसमें योगाभ्यास भी शामिल है, तप करने की विधियाँ भी शामिल हैं, उपासना करने के क्रिया-कृत्य भी शामिल हैं, धर्मग्रंथों के पाठ भी शामिल हैं, संत-महात्माओं केसत्संग और उपासना भी शामिल हैं, इन सबका सार यही तीन हैं। ये तीनों चीजें जानने की नहीं हैं, वरन् मानने से सम्बन्ध रखती हैं। अगर आप इन चीजों को जान भी लें, तो आपका कोई फायदा नहीं है। धर्म किसे कहते हैं? अगर इसे आप जान लें, तो इससे कोई फायदानहीं है। अध्यात्म क्या है? सारे के सारे उपनिषदों के व्याख्यान आप याद कर लें, तो भी इससे कोई फायदा आपको नहीं होने वाला है। भगवान के बारे में, भगवान के चौबीस अवतारों के बारे में जो कथाएँ हैं, उन्हें आप जान लें, सुन लें और जो चौबीस अवतार हुए हैं, उनकी शक्लों को आप देख लें, उनके सहस्रों क्रिया कलापों को आप याद कर लें, तो उससे कोई फायदा नहीं होगा। आपको फायदा तब होगा, जबकि इस सारी की सारी जानकारी को जीवन में क्रियान्वित करना शुरू कर दें। इन जानकारियों को जब आप क्रियान्वित करेंगे, क्रियारूप में करेंगे, तो उसका फायदा उठा लेंगे, उसका लाभ उठा लेंगे।
मित्रो! आप च्यवनप्राश लें। इसमें क्या-क्या दवाइयाँ मिलती हैं? क्या-क्या दवाइयाँ डाली जाती हैं और कैसे बनाई जाती हैं? यह जानकारी अगर आपको हो जाय, तो क्या कोई फायदा आपको मिल सकता है? च्यवनप्राश का एक डिब्बा आप ले आयें और ऊपर रख दें।उसकी पूजा कर लें, आरती उतार लें, तो उस च्यवनप्राश का कोई फायदा आपको नहीं मिलेगा। च्यवनप्राश का फायदा आपको तभी मिलेगा जब आप उसको खाना शुरू करेंगे। उसे हजम करना शुरू करेंगे, और खून का हिस्सा बनाना शुरू करेंगे। आस्तिकता का फायदा उसीसमय है जब हम आस्तिकता की प्रेरणा को अपने जीवन में क्रियान्वित करना शुरू करेंगे। अध्यात्म का लाभ केवल उसी को मिलने वाला है, जो अध्यात्म को अपने जीवन में क्रियान्वित करने के लिए कदम बढ़ायेगा। धार्मिकता का फायदा उसी को मिलने वाला है, जोसमाज परायण होना सीखे और लोकमंगल के लिए अपने कर्तव्यों और फर्जों के लिए कदम बढ़ाना सीखे।
मित्रो! यही वह सिद्धांत है, जिसमें मनुष्य जाति का सुख और शान्ति टिकी हुई है। जिसमें कि व्यक्ति के लक्ष्य का पूरा होना टिका हुआ है। जिसमें कि संसार की समृद्धि और शान्ति टिकी हुई है। इसलिए आप लोगों से कहना कि हम आपको तीन बातें बताने के लिएआये हैं। भारतीय धर्मग्रंथों में यह लिखा हुआ है। हर धर्मशास्त्र में यही है और अध्यात्म ग्रंथों में भी यही है। ऋषियों की प्रेरणाओं और सत्संगों में यही है। चमत्कारों की जड़ यही है। सिद्धियों की जड़ यही है। ईश्वर की प्राप्ति का आधार यही है। जो कुछ भी श्रेष्ठतम है, वहयही है सारे का सारा अध्यात्म और धर्म, जो दिखाई पड़ता है, वह तीन तरह का है। हलवाई की तीन चीजों के तरीके से उसका सार रूप यही है। इस तरीके से आप आधा घंटे-एक घंटे के भीतर, पंद्रह मिनट के भीतर, जहाँ कहीं भी आपको मौका मिले और एक ही व्याख्यानकरने का मौका मिले और आपको यह मालूम पड़े कि अब दोबारा-तिबारा हम यहाँ नहीं आ सकते, तो आप मिशन का सार, मिशन की निष्ठाएँ और आस्थाएँ, मिशन की क्रियापद्धति और मिशन के क्रिया-कलाप और योजना का सार बता करके चले जाना। आज कीबात समाप्त।
॥ ॐ शान्तिः॥