उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
क्रिया में उतरिए
देवियो, भाइयो! आपको अब तक हमने सिद्धांतों की जो बहुत-सी बातें बताई हैं, वे आपको अपने विचार क्षेत्र में स्थिर रखने की हैं और भावना-क्षेत्र में समावेश करने की हैं। विचार-क्षेत्र और भावना-क्षेत्र के अलावा एक क्षेत्र और बच जाता है—वह है क्रिया-क्षेत्र। आपको क्या करना चाहिए, यह स्पष्ट रूप से समझ करके जाइए। लोग कुछ करने को ही सब कुछ समझते हैं, पर मैं इसे ही सब कुछ नहीं समझता। चिंतन और भावना की भूमिका को मैं बहुत अधिक मानता हूँ, लेकिन कृत्यों के बारे में भी हम लापरवाह नहीं हो सकते। कृत्यों की उपेक्षा भी नहीं कर सकते। कर्म की उपेक्षा हम कैसे करेंगे! ज्ञान का अपना स्थान है, भक्ति का अपना स्थान है, लेकिन कर्मयोग भी तो कोई चीज है। गीता में तो कर्मयोग का ही उपदेश दिया है। इसलिए आपको क्या कर्म करने हैं, इसके बारे में थोड़ी-सी संक्षेप में जानकारी कराए देते हैं। इनको आप नोट कर लीजिए और यहाँ से जाने के बाद इन क्रियाओं के बारे में बहुत सावधानी से आचरण कीजिए।
यहाँ से जाकर आप अपनी साधना को नियमित कर लीजिए। साधना के बारे में एक ही खराबी है कि लोग साधना उपेक्षा से करते हैं। समय का ध्यान नहीं रखते। कभी करते हैं, कभी नहीं करते। अश्रद्धापूर्वक करते हैं, इसलिए साधना भी अस्त-व्यस्त हो जाती है। साधना भी चिकित्सा और व्यायाम के तरीके से है। आप व्यायाम समय पर नियमित रूप से करेंगे तो व्यायाम का फायदा मिलेगा। कभी आपने सौ बैठक लगा लीं, कभी दो बैठक लगा लीं, फिर तीन दिन बंद कर दी। छह दिन बहुत जोर से किया तो व्यायाम का लाभ मिलने के स्थान पर हानि होगी। घी कभी आपने छटाँक भर खा लिया, कभी पाव भर खा लिया, कभी आधा किलो खा लिया, कभी एक बूँद पी लिया, ऐसे कहीं बात बनती है क्या? दवा की एक सीमा है, एक मर्यादा है। उसकी खुराक होती है। च्यवनप्राश अवलेह आया तो एक छटाँक खाएँगे, तीन छटाँक खाएँगे। कल एक रत्ती सवेरे खाएँगे, आज दोपहर को खाएँगे, तीन दिन बिलकुल नहीं खाएँगे। कहीं ऐसे लाभ होते हैं?
मित्रो! नियमितता का बहुत लाभ है। उपासना की नियमितता का भी बहुत लाभ है। यहाँ से जाने के बाद आप अपनी उपासना को बिलकुल नियमित बना लीजिए। उसमें आलस्य-प्रमाद की वजह से कभी कोई गलती न होने पाए, इसके लिए आप दो बंधन लगा दीजिए। भोजन से पहले अथवा सोने से पहले। आप बंधन बाँध लीजिए कि भजन नहीं हो सकता तो ठीक है, खाना भी नहीं खाएँगे। नहीं साहब! खाना तो बहुत जरूरी है तो चलिए सोएँगे नहीं। रात को आप एक घंटे, आधा घंटा बाद सोइए। जो भी आपने उपासना का क्रम बना रखा है, उसको पूरा कर लीजिए। आप भोजन में 'डिले' नहीं कर सकते तो सायंकाल को सोने में देर कर लीजिए, अगर आप बहुत व्यस्त हैं तो। कोई व्यक्ति ऐसा व्यस्त नहीं है जो कि आधा घंटे का समय नहीं निकाल सकता हो। न्यूनतम उपासना आधा घंटे की हमने बना दी है, आधा घंटे की इस उपासना को प्रज्ञायोग कहा है।
समग्र जीवन-साधना
प्रज्ञायोग में ये सारी बातें—जप, ध्यान, चिंतन, मनन बता दिया है। ये जीवन की समग्र साधना है। इससे अधिक अच्छा साधना का 'कॉम्बिनेशन' और कहीं नहीं हो सकता। इसमें ब्रह्मविद्या से लेकर तपश्चर्या तक, योगाभ्यास से लेकर के संयम, साधना तक का सारा समावेश हो गया है। अब प्रज्ञायोग को तो मैं यहाँ नहीं बता सकता, वह अपनी छोटी पुस्तिकाओं, परचों में छपा हुआ है। बस, आप प्रज्ञायोग का नियम बना लीजिए, वह आधा घंटे में पूरा हो जाता है। आधा घंटे के हिसाब से दैनिक उपासना आप करते रहिए। इतना तो आप कम-से-कम कर ही सकते हैं, ज्यादा-से-ज्यादा तो आप चाहे कुछ करें। हमने कम-से-कम की मर्यादा बना दी है, कम-से-कम दस पैसे तो आप लोकहित के लिए निकालिए ही। ज्यादा का बंधन नहीं है, आप चाहे जितना निकालें। आप दस रुपये रोज निकालिए, कौन मना करता है। इसी तरीके से एक घंटे समय की बात कही है, वह न्यूनतम है। इससे कम मत कीजिए, ज्यादा भले ही कीजिए।
साथियो! उपासना का मतलब सिर्फ एक है—अपने कषाय-कल्मषों का परिष्कार, अपनी पात्रता का संवर्द्धन, अपने गुण-कर्म-स्वभाव में विशेषताओं का समावेश। अगर आपने अपनी उपासना को दूसरे फूहड़ लोगों के तरीके से घिनौना बना रखा होगा तो वह उपासना भी नहीं रह जाएगी। उपासना को आप कामनाओं के साथ मत जोड़िए। उपासना को आप जब कामनाओं के साथ जोड़ देते हैं तो उसका स्वरूप ही नष्ट हो जाता है और वह एक घिनौनी वस्तु बन जाती है, उसका सब महत्त्व ही चला जाता है।
सार्थक उपासना समाप्त हो गई
एक आप ही हैं ऐसे गंदे आदमी, जो आपने भगवान की भक्ति का न जाने कैसा स्वरूप बना दिया है। हिंदू समाज के ऊपर मुझे बड़ा क्रोध आता है कि हमने अपने उच्चस्तरीय दर्शन को ही खत्म कर दिया। उपासना को, भगवान को, साधना की विधि को ही खत्म कर दिया। कम-से-कम इसे तो जिंदा रखना चाहिए था। इसको तो केवल आत्मकल्याण के लिए, अंतरात्मा की शांति के लिए जोड़कर रखना चाहिए था। कामनाएँ-ही-कामनाएँ। दुष्टो! कामना ही खा जाएगी तुमको। भगवान की भक्ति का जो आनंद तुम ले सकते थे, उसे भी कामना के नरक में ढकेल करके इसका महत्त्व भी खो बैठोगे और तो तुम्हारे पास कुछ है नहीं, थोड़ी-सी बात राम-नाम लेने की, पूजा-उपासना की हाथ आई थी। शायद वह आपकी जीवात्मा के काम आ सकती थी, पर अब आप तो उसको भी गिराए डाल रहे हैं। आप तो ऐसा मत करना, अच्छा। दूसरे लोग क्या करते हैं, उन्हें ही करने देना।
मित्रो! आप अपनी उपासना को सिर्फ आत्मपरिष्कार के लिए, अपनी आध्यात्मिक प्रगति के लिए रखना। अपने गुण-कर्म-स्वभाव के संवर्द्धन के लिए ही उपासना का लक्ष्य रखना। आप चमत्कारों के लिए, तमाशा देखने के लिए मत रखना। उपासना में क्या तमाशा होते हैं? नहीं साहब! ये चक्र चमकेंगे, कुंडलिनी चमकेगी और रात को सपने दीखेंगे, गणेश जी दीखेंगे और आज्ञा चक्र चमकेगा। तमाशे दीखेंगे, आपके अपने सिनेमा हो रहे हैं क्या? अगर आपने सिनेमा और तमाशा देखने के लिए उपासना की है तो आपको धिक्कार है। मुझे ये कहना पड़ेगा कि आपने अभी आध्यात्मिकता का, उपासना का अ, आ, इ, ई भी नहीं पढ़ा। आपको तो इसके प्रारंभिक सिद्धांतों की भी जानकारी नहीं है। लोगों में कैसी गंदी हवा चल पड़ी है। इस गंदी हवा में आप भी बहेंगे क्या? आप मत बहिए और न चमत्कार देखिए।
सही मार्ग पर चलना सबसे बड़ा चमत्कार
मित्रो! आदमी के अंदर एक यही चमत्कार है कि दुनिया कैसे घिनौने रास्ते, गए-बीते रास्ते पर चल रही है, पर आप एक अच्छा रास्ता अख्तियार करते हैं। अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं, अपनी राह आप बना लेते हैं। इससे बड़ा चमत्कार और क्या हो सकता है! आप अपने भीतर से अंत:प्रेरणा को विकसित होने दीजिए और ये अनुभव होने दीजिए कि भगवान के नजदीक आने के बाद में उनकी विशेषताओं का, उनकी प्रेरणा का लाभ मिलेगा। उनकी दौलत का नहीं, उनकी प्रेरणाओं का लाभ लीजिए। इस तरीके से अगर आप दैनिक उपासना में आधा घंटे का समय लगाते रहे तो मजा आ जाएगा।
आदमी की जिंदगी में बहुत सारी बुराइयाँ हैं, जिनको हम 'क्राइम' कहते हैं। दूसरों को नुकसान पहुँचाने वाली चीजें-चोरी, उठाईगीरी वगैरह, लेकिन एक और भी क्राइम (अपराध) है—अपने ऊपर हमला करना, आत्महत्या कर बैठना। दूसरों की हत्या करना, दूसरों के भविष्य को अंधकारमय बना देना तो बुरी बात है, लेकिन अपने भविष्य को अंधकारमय बना लेना, अपनी ही आत्महत्या कर डालना, ये कौन-सी अच्छी बात है। आलस्य और प्रमाद को मैं इसी संज्ञा में गिनता हूँ, इससे निजात पाना। शरीर की दृष्टि से जो आदमी निकम्मे, निठल्ले बैठे रहते हैं, पसीना नहीं बहाते और समय को बरबाद करते रहते हैं। इन आलसियों-प्रमादियों को मैं क्या कहूँ, जो बैल के तरीके से मेहनत तो करते रहते हैं, पर उसमें मनोयोग लगाते ही नहीं, दिलचस्पी लेते ही नहीं, कर्म को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते ही नहीं, उसकी बारीकी समझते ही नहीं हैं। महज शरीर से काम कर दिया, बेगार भुगत दी तो बात कैसे बने? आप अपनी कार्यपद्धति में से आलस्य और प्रमाद को हटा देना। आप जिम्मेदारी, वफादारी और स्फूर्ति को शामिल करना। अगर ऐसा करेंगे तो आप देखेंगे कि जिंदगी का जो समय, श्रम आपके पास बचा है, जो शक्ति बची है, उसके आपको कितने बड़े चमत्कार मिलते हैं और कितनी सिद्धियाँ मिलती हैं।
दो सूराख : आलस्य और प्रमाद
साथियो! आदमी ने अपना सब कुछ गँवा दिया। इस गँवाने में बहुत सारे सूराख थे, उनमें से दो बड़े सूराख प्रमाद और आलस्य हैं। दिमागी और शारीरिक कायरता, ये आदमी के सबसे बड़े दुर्गुण हैं। दुर्गुण और भी बहुत से हैं—नशा वगैरह, पर इस दुर्गुण से तो पग-पग पर आदमी अपने आप को बरबाद करता जाता है। आप आलस्य और प्रमाद से बचने की हर क्षण कोशिश करना। अपना टाइमटेबल (दिनचर्या) बनाना, व्यस्त रहना, खाली समय मत जाने देना। विश्राम करना हो तो टाइम से करना। काम की चाल को धीमी मत करना, पूरी स्फूर्ति से और मेहनत से करना, जिससे उसका कुछ आउटपुट तो निकले। सारे दिन इधर-उधर बैठ गए, ढीले-पोले मन से, बेगार भुगतने की तरह काम करने के बाद उसका कोई परिणाम निकलता है क्या? नहीं। आप आलस्य-प्रमाद को यहाँ छोड़कर जाना और मेहनतकश परिश्रमशील और कर्मयोगी बनकर जाना तो बहुत अच्छा होगा।
इसके सिवाय आपको मेरा एक और शिक्षण है कि आप अपने कुटुंब में रहते होंगे, वह चाहे पुराना कुटुंब हो, चाहे नया बना लिया हो, जैसा भी हो। आप इस कुटुंब के बारे में दो खयाल हटा देना और दो खयाल बढ़ा देना। एक खयाल यह हटा देना कि आप इस कुटुंब के मालिक हैं और इनकी मरजी को पूरा करके आप इनकी प्रसन्नता को ग्रहण करेंगे। अगर यह खयाल करते रहेंगे तो आपके कुटुंब में कभी शांति नहीं होगी। लोगों की मरजी पर चलेंगे, कितनी तरह की मरजियाँ हैं? औरत आपसे कुछ चाहती है, बेटे आपसे कुछ और चाहते हैं, कोई क्या चाहता है, कोई क्या? ये जो चाहना हैं, उनमें से अधिकांश अनैतिक होती हैं, अस्वाभाविक होती हैं। ऐसी होती हैं, जिनमें कि वे हराम की, विलासी जिंदगी जीना चाहते हैं और आपसे सहायता चाहते हैं, ऐसा मत करना।
हर सदस्य को स्वावलंबी बना दीजिए
मित्रो! अपने कुटुंब के बारे में आप दो-तीन बातों का ध्यान रखिए। पहली यह कि कुटुंब के हर आदमी को स्वावलंबी बनाना है। उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना आपका काम है। वे चाहे बच्चे हों, बुड्ढे हों, औरत हों, चाहे जवान हों, हरेक के लिए आप यही दृष्टिकोण रखिए कि उन्हें स्वावलंबी बना देंगे। आप अभी हैं, भगवान न करे, कल आप न रहें तो ये किसके सहारे खड़े होंगे। आपकी बीबी किसके सहारे गुजारा करेगी, इसलिए उसे स्वावलंबी बनाइए—एक, संस्कारवान बनाइए—दो। उन्हें संपन्न बनाना तो आपके हाथ की बात नहीं है, पर संस्कारवान बना सकते हैं। आप लाख-करोड़ रुपया अपनी औरत के लिए छोड़कर मरें, यह मुमकिन नहीं है, क्योंकि ऐसी परिस्थिति नहीं है, व्यापार नहीं है, साधन नहीं हैं, फिर लाख-करोड़ रुपया कैसे कमा पाएँगे, रोजाना का गुजारा करना तो मुश्किल पड़ता है। लोग 'रोज कुआँ खोदते हैं रोज पानी पीते हैं' फिर यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि कोई आदमी इतनी बड़ी दौलत छोड़कर मरेगा, जिससे पीछे वालों का गुजारा हो जाए। आप हरेक को स्वावलंबन की शिक्षा दीजिए। बच्चे थोड़े बड़े हो जाएँ, तब से उनको कुछ काम सिखाइए। पढ़ने भी दीजिए, लेकिन पढ़ने के साथ-साथ उनसे घर का कोई ऐसा काम करा सकते हैं, जिससे यदि पैसे कमाए न जाएँ, पर बचाए तो जा सकते हैं। कपड़े धोने से लेकर टूट-फूट की मरम्मत तक ऐसे ढेरों काम हैं। बचत करना भी कमाई के बराबर है।
पंचशीलों का परिपालन
मित्रो! आप अपने कुटुंब में पंचशीलों का समावेश कीजिए, ये पंचशील पंचरत्नों के बराबर हैं। पहला श्रमशीलता-मेहनतकश । आपके कुटुंब के हर आदमी को परिश्रमशील होना चाहिए। आपके घर का एक भी आदमी हरामखोर और कामचोर न हो। अगर आप ऐसी कोशिश करें तो समझना चाहिए कि आपने अपने घर वालों के लिए एक बेशकीमती दौलत छोड़कर रखी है। दूसरी बात पंचशीलों में 'सुव्यवस्था' है। इसमें सफाई भी आती है, सुसज्जा भी आती है। हर चीज को यथास्थान रखा जाए। अस्त-व्यस्त, यहाँ-वहाँ पड़ी हुई चीजें गंदगी फैलाती हैं, लेकिन यथास्थान रखा गया कूड़ा भी सुंदर मालूम पड़ता है। सुव्यवस्था हर चीज में हो—समय की, खान-पान की सुव्यवस्था, टाइमटेबल की सुव्यवस्था, चीजें रखने की, सफाई की सुव्यवस्था। अपने घर में हर ओर देखिए कि आपका घर स्वच्छ रहता है या नहीं। घर वालों की दिनचर्या सुव्यवस्थित है या नहीं। सुव्यवस्था का आप ध्यान रखें।
पारिवारिकता के पंचशील में तीसरा गुण 'शालीनता', शराफत, भलमनसाहत का है। जो आदमी आपके विरोधी हैं, या जो नुकसान पहुँचाते हैं, उनसे लड़िए तो जरूर, मैं ये तो नहीं कहता कि खराब आदमियों से लड़ना नहीं चाहिए, उनकी बदमाशी बरदाश्त करनी चाहिए, लेकिन आप ये लड़ाई लड़ते हुए भी अपनी शराफत जारी रखिए। शराफत, शालीनता को मत गँवाइए। शराफत गँवा देंगे तो बहुत बुरी बात है। सज्जनता आपकी संपदा है, वह आपके स्वभाव का अंग है। आप शराफत, सज्जनता और शालीनता को कम मत होने दीजिए।
चौथा गुण है—'मितव्ययता' का, किफायतशारी का। पैसा कमाना समझदारी हो सकती है, लेकिन सबसे ज्यादा समझदारी उस पैसे को खरच करने में है। जो लोग बेहिसाब पैसा खरच करते हैं, उसके बदले में बहुत-सी बुराइयाँ, विलासिता और दुर्व्यसन खरीद लेते हैं। पैसा फजूलखरच करना बुरी बात है। कंजूसी करना? कंजूसी तो मैं सिखाता ही नहीं हूँ। मैं तो ये कहता हूँ कि आप अपने पैसे को ऐसे काम में खरच कीजिए, जिससे आपका हित होता हो, आपके बच्चों का हित होता हो, समाज का हित होता हो। किसी हित के काम में खरच कीजिए। अपव्यय मत कीजिए, फैशन में मत खरच कीजिए, फजूलखरची मत कीजिए। अगर आप फजूलखरची की आदत डाल लेंगे तो आप देख लेना आपके घर वाले लोग थोड़े दिन में कर्जदार, ऋणी हो जाएँगे। रिश्वतखोर हो जाएँगे, बेईमान हो जाएँगे और सारी-की-सारी जीवन की सुव्यवस्था गँवा देंगे। मितव्ययता का सूत्र है—'सादा जीवन उच्च विचार।' जिसका सादा जीवन होगा, जो किफायतशार होगा, ऊँचा जीवन उसी का रह सकता है और किसी का नहीं।
मित्रो! आप अपने घर में 'उदार सहकारिता' के पाँचवें सूत्र को स्थान दें। घर-परिवार में एकदूसरे का सहकार हो, ऐसा नहीं कि खाना खाया और भागे। बड़े लड़के से कहिए कि छोटे भाई को एक घंटा पढ़ाया करे। बड़ों को चाहिए कि छोटों की सहायता करें, छोटे बड़ों का आदर-सम्मान करें। घर में हर आदमी सराय के तरीके से रहता है। जैसे भटियारों की सराय में मुसाफिर आते हैं, रात को सोते हैं, रोटी खाकर भाग खड़े होते हैं, आपका परिवार ऐसा नहीं होना चाहिए। इसमें सहकारिता, एकदूसरे की सेवा जुड़ी रहनी चाहिए। एकदूसरे के प्रति मुहब्बत जुड़ी रहनी चाहिए। अगर आपने ये पंचशील अपने कुटुंब में शामिल कर लिए तो समझना कि आप यहाँ जो पंचकोशों का जागरण करने आए हैं, वह सफल हो गया।
कुटुंब के माली बनिए, मालिक नहीं
साथियो! पंचशीलों को फिर एक बार याद रखिए—श्रमशीलता-एक, सुव्यवस्था-दो, सज्जनता-तीन, मितव्ययता-चार और उदार सहकारिता-पाँच। इन पाँचों को पहले आप अपने जीवन में लाने की हरचंद कोशिश कीजिए, फिर आपकी देखा-देखी परिवार के दूसरे सदस्यों में ये गुण आएँगे। आप अपने भीतर इनको बढ़ाइए और घर के दूसरे लोगों को समझाइए। यदि समझाने से न मानें तो आप दबाव भी डाल सकते हैं। कुटुंब को प्यार करना ही एक काम नहीं है, दबाव डालना भी एक काम है। 'एक आँख प्यार की और एक आँख सुधार की' हममें से हरेक आदमी को रखनी चाहिए। अगर आपको किसी को सुधारना है तो एक आँख टेढ़ी रखिए, किसी को मुहब्बत देनी है तो एक आँख सीधी भी रखिए। दोनों तरीके अपनाएँगे तो ही बात बनेगी। आप हरेक के ऊपर झल्लाते रहेंगे, नाखुश होते रहेंगे तो भी बात बनने वाली नहीं है और अनावश्यक रूप से किसी की प्रशंसा करते रहेंगे, प्यार देते रहेंगे तो भी बात बनने वाली नहीं है, दोनों का समान रूप से इस्तेमाल कीजिए।
आप अपने कुटुंबियों के माली बनकर रहिए, मालिक मत बनिए। मालिक बनेंगे तो बहुत हैरान होंगे। आप सिर्फ अपना यह कर्त्तव्य मानकर चलिए कि इनको पानी लगाना है, काट-छाँट करनी है और रखवाली करनी है। मालिक बनने की कोशिश करेंगे तो आप अपना मानसिक संतुलन गँवा बैठेंगे। किसी के आप मालिक बनेंगे और उसने आपका कहना न माना तब? तब आप हैरान, परेशान हो जाएँगे। आप अपनी धर्मपत्नी और दूसरे परिजनों के लिए अपने कर्तव्य और फर्जों को पूरा कीजिए। ये आशा मत कीजिए कि दूसरे भी अपना कर्त्तव्य निभाएँगे। हो सकता है, दूसरे परिजन अपना फर्ज न निभाएँ, तब आप क्या करेंगे।
मित्रो! आप एक काम और करना कि अपनी संकीर्णता को यहाँ छोड़कर के जाइए। आप यहाँ से उदार हो करके जाइए। आप याचक मत बनिए। आप अभावग्रस्त न रहिए। आप कंगले और दरिद्र होकर के जीवन न जिएँ। आपके पास क्या कमी है, जरा बताना तो सही? अभी आपने अभावों की जो एक फेहरिस्त बना रखी है कि हमारे पास ये कमी है, वो कमी है। अब आप एक नई फेहरिस्त बनाइए कि हमारे पास दूसरों से ये ज्यादा है, लाखों से ये ज्यादा है। अगर इस तरह की फेहरिस्त बना लें तो आपके अपने सौभाग्य का कोई ठिकाना नहीं रहेगा। फिर आप अपने आप ये अनुभव करेंगे कि हम कहाँ-से-कहाँ आ गए। आप क्या-क्या करेंगे? आप स्वाध्याय, सत्संग को अपने जीवन का आवश्यक अंग मानिए। सत्संग किस तरीके से करें? सत्संग तो मिलना मुश्किल है, पर अपने घर वालों को नसीहत देने का, शिक्षा देने का, कथा कहने का क्रम जारी रखिए। स्वाध्याय का हरेक परिजन अपना नियम बना ले। आपको उचित और मुनासिब शिक्षाएँ कहीं से नहीं मिल सकतीं, वे केवल स्वाध्याय से मिलेंगी।
स्वाध्याय से बड़ा कोई तप नहीं
प्राचीनकाल में सत्संग भी होते थे, संत-महात्मा होते थे, ज्ञानी-गुणी होते थे, पर अब न कहीं संत है, न कहीं महात्मा हैं। न कहीं ज्ञानी हैं, न कहीं गुणी हैं। अगर हैं भी तो उनके पास इतना टाइम नहीं है कि आप किसी से दो-चार मिनट बात करेंगे। आपके लंबे समाधान कौन करेगा? रात भर कौन बैठेगा आपके पास, दो-दो घंटे सिर कौन फोड़ेगा? आप उनके पास किस तरीके से रहेंगे? वे अपना काम छोड़ करके आपके पास कैसे आएँगे? इसलिए एक ही तरीका है सत्संग का और वो सत्संग बहुत ही शानदार चीज है। उसका आसान तरीका है—स्वाध्याय। आप जब किसी पुस्तक को पढ़ते हैं तो उसके लेखक से उसी वक्त मिलना शुरू कर देते हैं। आप चाहें तो विवेकानन्द से मिल लीजिए, गाँधी जी से, विनोबा जी से मिल लीजिए, ऋषियों से मिल लीजिए। आप जिससे मिलना चाहें, उसी वक्त मिल लीजिए, ये कैसे हो सकता है, उनको मरे तो बहुत दिन हो गए। उनको मरे बहुत दिन हो गए, पर साहित्य को बने बहुत दिन नहीं हुए, इसलिए स्वाध्याय अवश्य करना।
मित्रो! आप यह अनुभव करना कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं। आप यहाँ से अपनी हैसियत बदलकर के जाइए। आपने सारी जिंदगी शरीर की दृष्टि से अपने आप को छोटा या बड़ा समझा है और जिंदगी भर शरीर के लिए ही जिए हैं। शरीर को खिलाना-पिलाना, शरीर को देखना, शरीर को शोभायमान बनाना, शरीर का ध्यान रखना यही तो किया है आपने। अब यहाँ से नया जन्म लेकर के जाना—आत्मा का जन्म। आपकी मूलसत्ता आत्मा है, शरीर तो आपका वाहन है, इसलिए आपको आत्मा का हित, आत्मा का संतोष देखना पड़ेगा। आत्म कल्याण की बात सोचनी पड़ेगी और आपका भविष्य किस तरीके से शानदार बने, इस पर विचार करना पड़ेगा। इसलिए आप अपनी आत्मा का भी ध्यान रखिए। शरीर और आत्मा दोनों को ही महत्त्व दीजिए।
शरीर और आत्मा : दोनों के लिए पुरुषार्थ
साथियो! आपके पास जो समय है, उसे दो हिस्सों में बाँट दीजिए। आपके पास साधन है, उसे दो हिस्सों में बाँट दीजिए—आधा शरीर के लिए और आधा आत्मा के लिए। अगर आप ऐसा करेंगे तो आप पुण्य की बात सोच पाएँगे, परमार्थ की बात सोच पाएँगे, लोक-मंगल की बात सोच पाएँगे और न केवल सोच पाएँगे, वरन उसके लिए व्यावहारिक कदम भी उठा पाएँगे। आप अपनी आत्मा के लिए समयदान कीजिए। आपका सारे-का-सारा समय शरीर के लिए खरच हो जाता है, अब आप आत्मा के लिए भी समय निकालिए। परोपकार के लिए समय निकालिए, परमार्थ के लिए समय निकालिए। आप केवल शरीर के लिए और कुटुंबियों के लिए ही क्या सारा समय खरच कर देंगे? नहीं, आप अपनी आत्मा के लिए भी समय निकालिए। आप अंशदान निकालिए। आपके पास जो साधन हैं, वे सारे-के-सारे साधन औलाद के लिए मत खरच कर डालिए। इसमें दूसरे भी हिस्सेदार हैं, आत्मा भी हिस्सेदार है। आत्मा के लिए भी अपने साधनों को निकालिए। लोक-मंगल के लिए साधन, परमार्थ प्रयोजनों के लिए साधन, सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन के लिए साधन, आज के युग को बदल जाने के लिए साधन चाहिए। आपके साधन, आपका समय, आपका अंशदान और समयदान—ये नियमित रूप से उसमें लगते रहने चाहिए।
अंशदान-समयदान नियमित
मित्रो ! बात बहुत पुरानी हो गई, जब टोकन के रूप में हमने इनको आरंभ कराया था, तब हमने कहा था कि दस पैसे नित्य देना, लेकिन आज दस पैसे किसे कहते हैं—बताइये? दस पैसे वाली तीस वर्ष पुरानी बात है। आज तो पैंतीस वर्ष बाद महँगाई कहाँ आ गई? आजकल दस पैसे में क्या आता है। चाय अस्सी पैसे की आती है और दस पैसे का क्या आएगा-१/८ कप चाय अर्थात एक घूँट चाय आएगी। एक घूँट चाय से आप भगवान का, समाज का और देश का—सबका ऋण पूरा कर लेंगे क्या? आप हर काम में महँगाई बरदाश्त कर रहे हैं। खाने में महँगाई बरदाश्त कर रहे हैं, कपड़े में महँगाई बरदाश्त कर रहे हैं, रेल किराए में महँगाई बरदाश्त कर रहे हैं तो समाज के हित के लिए क्यों महँगाई बरदाश्त नहीं करेंगे? आप उदार बनिए, अंशदान के बारे में उदार बनिए। एक घंटे समयदान के लिए कभी हमने कहा था, जब शुरू में आप बच्चे थे, अब आप बड़े हो गए हैं। अब समाज के लिए समय भी ज्यादा निकालना और अपना अंशदान भी निकालना।
मित्रो ! अगर ये बातें आप याद रखकर जाएँगे तो मैं कहूँगा कि आपने न्यूनतम कार्यक्रमों को समझ लिया
और उसके लिए आपके जो फर्ज और कर्तव्य थे, उसके बारे में नोट कर लिया। इन्हीं आवश्यकताओं को पूरा कराने के लिए और आपको यही प्रेरणा देने के लिए मैंने इस कल्प-साधना शिविर में आपको बुलाया था। आप कल्प-साधना का यह शिविर समाप्त करके जाइए, लेकिन इन मोटी-मोटी बातों को अवश्य ध्यान में रखिए, जिनको हमने कर्मयोग के नाम से, क्रियायोग के नाम से आपके सामने पेश किया है। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥