उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
धर्ममंच से लोकशिक्षण
देवियो, भाइयो! युग निर्माण योजना धर्ममंच से लोकशिक्षण का उद्देश्य लेकर चली है। मनुष्य के मस्तिष्क को जो बातें प्रभावित करती हैं, उनमें कई चीजें आती हैं। उनमें से सबसे पहला है—धर्म। हमारा देश धर्मप्रधान देश है। हिंदू समाज में जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे इसी माध्यम को लेकर चले हैं। हिंदू समाज में से ही क्यों? क्योंकि प्रत्येक महत्त्वपूर्ण कार्य, जो संसार में प्रारंभ किए गए हैं और विश्व का उत्थान करने की योजनाएँ बनाई गई हैं, उसको इसी वर्ग ने और इसी देश ने उठाया और आगे बढ़ाया है, क्योंकि इसके संचालक लोग इसी वर्ग और इसी देश में पैदा हुए थे। इसीलिए हिंदू धर्म को लेकर और भारतीय समाज को लेकर, भारतवर्ष की परिस्थितियों को लेकर हमारी सारी-की-सारी योजना बनाई गई हैं। हमारी शतसूत्री योजना में जहाँ तक धर्ममंच का सवाल है, हिंदू धर्म के उद्देश्य और लक्ष्य रखकर कार्यक्रम बनाए गए थे, लेकिन अब अगले कदम और भी बड़े महत्त्वपूर्ण बनने जा रहे हैं।
मित्रो! हमारे अगले कदम केवल हिंदू धर्म तक सीमित रहने वाले नहीं हैं, बल्कि अन्य सभी धर्मों को साथ लेकर हम चलेंगे। अब तक यही प्रयास किए गए हैं कि अपने धर्म के सभी लोग एकत्रित हो जाएँ। सभी धर्म इकट्ठे होकर अपने धर्म के अंतर्गत ही दीक्षित हो जाएँ। ईसाइयों ने यही प्रयास किए कि दुनिया के लोग ईसाई बन जाएँ, तब कुछ काम बने। मुसलमानों ने जोर-जबरदस्ती से लेकर दूसरे तरीकों से यही प्रयास किए कि सारी दुनिया के लोग मुसलमान बन जाएँ। आर्यसमाजियों ने भी ऐसा ही प्रयत्न किया। दूसरे लोगों ने भी ऐसे ही प्रयत्न किए, लेकिन ये योजना और ये विचारणा एक ख्वाब बन करके रह गई कि सारी दुनिया के लोग एक मजहब में हो जाएँगे। इसके बाद दुनिया में शान्ति मिल जाएगी, ऐसा कभी सम्भव नहीं है।
सभी ओर से एक कदम आगे बढ़ें
सम्भव सिर्फ यह है कि जो लोग जहाँ हैं, वहीं से आगे कदम बढ़ाएँ और एक लक्ष्य की ओर चलने के लिए तैयार हों। कुम्भ का मेला इलाहाबाद में हो, तो यही तरीका अच्छा है कि वाराणसी वाले अपने यहाँ से चलें। दूसरे जिले वाले अपने यहाँ से चलें। इस प्रकार भिन्न-भिन्न जगहों से सब चलें, लेकिन एक जगह पहुँच जाएँ, तो कुम्भ के मेले का उद्देश्य जरूर पूरा हो जाएगा, लेकिन अगर यह प्रयास किया गया कि सब लोग एक जगह इकट्ठे हो जाएँ, इसके बाद चलना प्रारम्भ करेंगे तो ख्वाब कभी पूरा नहीं हो सकेगा। सारे-के-सारे धर्म एक स्थान पर केंद्रित हों, एक धर्म में सारी दुनिया दीक्षित हो जाए, ये बहुत लम्बी और असम्भव योजना है। इसलिए हमें इस असंभव योजना के पीछे न पड़ कर यह प्रयास करना होगा कि सभी धर्म अपना-अपना प्रयास प्रारम्भ करें और उनकी दीक्षाएँ, उनके उद्देश्य, उनके लक्ष्य, उनके क्रियाकलाप वही हों, जो कि हिंदू धर्म को लेकर युग निर्माण योजना ने बनाए हैं। मुसलमानों में, ईसाइयों में भी यही प्रयास करना पड़ेगा, जो हमने हिंदू धर्म में किया है ।
मित्रो, जैसे वेदों के उदार और महान दृष्टिकोण को जनता के सामने लाया गया है। अब समय आ गया है कि हमें उसी तरह से कुरान में से भी वही दृष्टिकोण सामने रखने पड़ेंगे, जिसको मुसलमान समाज में उसी तरीके से हृदयंगम किया जाए, जिस तरीके से हिंदू समाज ने युग निर्माण योजना के विचारों को हृदयंगम किया है। ईसाई समाज और दूसरे समाजों के लिए भी यही करना पड़ेगा। अगले दिनों हमारे ये प्रयास होने चाहिए कि न केवल हिंदू धर्म, बल्कि अन्य अन्यान्य धर्मों का अवलंबन करने वाले लोग भी इसी तरीके से कदम बढ़ाएँ। ये धर्ममंच वाली बात हुई।
अब तक हम धर्ममंच तक ही सीमित बने रहे। केवल धर्म की सत्ता ही एकमात्र सत्ता नहीं है, जो कि मनुष्यों के मस्तिष्क को प्रभावित करती है। इसके अलावा भी दूसरी सत्ता और शक्तियाँ हैं, जो कि मनुष्य को उसी तरीके से प्रभावित करती हैं जैसे कि धर्म। अब हमारे प्रयास और आगे बढ़ने चाहिए।
साहित्य भी एक माध्यम बने
मित्रो, इनमें से साहित्य एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। किसी जमाने में लेखकों का नाम साहित्यकार था और उन्हें कलम का धनी समझा जाता था और कलम के लोग ही दुनिया को पढ़ सकते थे, लेकिन अब विज्ञान ने साहित्यकार की परिभाषा बदल दी है। उसका दायरा बड़ा हो गया है। अब केवल लेखक ही साहित्यकार नहीं है, अब प्रकाशक भी साहित्यकार है, अब अखबारनवीस भी साहित्यकार है, अब पुस्तक विक्रेता भी साहित्यकार है। ये सब मिलाकर साहित्यकार बनते हैं। ये साहित्यकार यदि चाहें तो जनता के विचारों को बदल सकते हैं। हमारे युग निर्माण योजना के भावी कार्यक्रमों में ये बात सम्मिलित की जा रही है कि हम न केवल भारतवर्ष के बल्कि दुनिया भर के साहित्यकारों को झकझोरें, क्योंकि उन्होंने अब तक जो विघातक और मनोवृत्तियों को नीचे गिराने वाला साहित्य लिखा है। उसके स्थान पर अब वे अपने दृष्टिकोण बदल दें और इस तरह के साहित्य का निर्माण करें, जो मनुष्य के मस्तिष्क को उच्चस्तरीय बनाने में सहायता कर सके। साहित्यकारों की ओर अभी तक ध्यान नहीं दिया गया। युग निर्माण योजना के अगले कदम साहित्यकारों तक भी जाएँगे। पुराने साहित्यकार इसमें सहमत न हुए, तो हमको नई सृष्टि कर नए साहित्यकारों का, नए लेखकों का सृजन करना पड़ेगा। नए पत्रकारों का सृजन और नया प्रेस स्थापित करना पड़ेगा। नए प्रकाशक और विक्रेताओं का अलग संगठन करना पड़ेगा, क्योंकि साहित्य की उपेक्षा करके हम नए निर्माण की आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकते।
चित्रकला से सृजन की ओर
मित्रो, इसके बाद एक और वर्ग है, उसका नाम है चित्रकार। चित्र कितने महत्त्वपूर्ण हैं। गंदे चित्र घरों में टँगे रहते हैं, जो हमको न जाने कैसा बना देते हैं। छोटे-छोटे बच्चों के मनों में इससे अश्लील भावना पैदा होती है। नारी के प्रति एक भाई के तरीके से भाव होने चाहिए, लेकिन गंदी तस्वीरों ने न जाने नारी का किस कुतूहल और कौतुक का रूप बना दिया। हमारे विचारों में नारी के प्रति कैसी घृणित और कुत्सित भावना पैदा कर दी। नर और नारी में क्या फर्क हो सकता है। बिना मूँछ वाला नर नारी के तरीके से है और नकली मूँछ यदि नारी के लगा दी जाए, तो वह भी तो नर जैसी दिख सकती है। उसको ऐसा घृणित रूप दिया गया, यह हमारी कला का दुरुपयोग है। यह दुरुपयोग बंद किया जाना चाहिए। कलाकार को इस बात से रोका जाना चाहिए कि नारी को वह वासना की मूर्ति, रमणी, कामिनी के रूप में चित्रित न करे, बल्कि उसका वह स्वरूप प्रस्तुत करे, जिसको हम देवी कहते हैं। उसकी गरिमा को अक्षुण्ण रखें। यह काम चित्रकार का था कि उसे नारी का चित्र बनाना था, तो वह एक बुढ़िया का चित्र बना सकता था। कैसा सौंदर्य उस चित्र में हो सकता था। किसी अस्सी वर्ष की बुढ़िया के चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी हुई हैं। कला की दृष्टि से ये झुर्रियाँ अपने आप में अत्यधिक सौंदर्य की सूचक हैं। इसी प्रकार से छोटी बच्चियों के-बालिकाओं के सौंदर्य का चित्रण नहीं हो सकता था? एक प्रौढ़ महिला जो अपने कंधे पर बच्चे को लिए हुए खेत पर काम करने जा रही थी, क्या सुंदर नहीं बन सकती थी? रमणी का वह अंग, जिसको कि नहीं देखना चाहिए, उसको दिखाने वाला चित्रकार अगर आज का कलाकार है, तो हम नहीं जानते कि फिर घटिया व्यक्ति किसे कहेंगे?
कलाकार साधक बनें, मार्गदर्शक बनें
यही बात गायकों-वादकों और अभिनय करने वालों के बारे में भी लागू होती है। ये नट और नर्तक हैं, कलाकार नहीं। नट और नर्तकों को हमारे यहाँ निम्नस्तरीय लोगों में गिना गया है। कलाकार अपने यहाँ एक सादा ब्राह्मण होता था, संत होता था, योगी होता था, साधक होता था। आज कलाकार कहाँ रह गया है? आज तो नर्तक और नट का स्वरूप है, क्योंकि उसने कला को एक वेश्या का रूप दे दिया और उस वेश्या ने मानव समाज को निम्नस्तरीय, अधोगामी बना देने में बहुत योगदान दिया है। कलाकार को अब कहना ही पड़ेगा कि कलाकार का मतलब भी साहित्यकार के तरीके से विस्तृत हो गया है। पहले कलाकार वे कहलाते थे, जो कि हाथ से तस्वीरें बनाते थे। अब तस्वीर बनाने वाला भी कलाकार है, प्रकाशक और विक्रेता भी कलाकार है। मूर्तिकार भी कलाकार होता है, गायक वादक भी कलाकार होता है। अभिनय करने वाला, नाटक करने वाला भी कलाकार होता है। अब ये सारे-के-सारे क्षेत्र मिल करके कला में आते हैं।
समानांतर कलातंत्र खड़ा हो
मित्रो, आगे चलकर कला के भावनात्मक क्षेत्र और मनुष्य की भावना का विकास करने के लिए कला को हमें अपने क्षेत्र में सम्मिलित करना पड़ेगा। जिस तरह से धर्म मंच के माध्यम से हम अब तक के प्रयास करते रहे हैं कि लोगों की भावनाओं में धार्मिकता की वृद्धि की जाए। अब केवल उस तक सीमित रहना काफी नहीं होगा, बल्कि कला को भी हमको अपने हाथ में लेना पड़ेगा। संगीतकारों को कहना पड़ेगा कि उनको अपना तरीका बदल देना चाहिए। फिल्म बनाने वालों को कहना पड़ेगा कि अब उनको भी अपना तरीका बदल देना चाहिए। अगर वे अपने आपको नहीं बदलते हैं तो हमको उनके मुकाबले के लिए परदे पर नए कलाकार खड़े करने पड़ेंगे। उस मुकाबले में नया स्टेज, दूसरा नाट्य मंच खड़ा करना होगा। दूसरे संगीत प्रचलित करने पड़ेंगे। दूसरे संगीत विद्यालय खड़े करने पड़ेंगे। हमें दूसरे गायन को जन्म देना पड़ेगा। कला के माध्यम से हम बहुत कुछ कर सकते हैं और हमें करना भी चाहिए। कला का जो मैंने जिक्र किया, साहित्य का मैंने जिक्र किया और धर्ममंच की बात का मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूँ। अब इसके बाद दो और शक्तियाँ रह जाती हैं जो बड़ी उपयोगी और बड़ी ही महत्त्वपूर्ण हैं।
संपदावान भी चेतें
मित्रो, इनमें से एक विज्ञान आता है और दूसरा धन आता है। धनवानों के पास हमें जाना ही पड़ेगा। धनवानों से हमें यह कहना पड़ेगा कि अब वह जमाना चला गया, जबकि लोग अपार संपदा इकट्ठी कर लेते थे और सम्मान भी प्राप्त कर लेते थे। अब कोई आदमी यदि संपदा इकट्ठी कर लेगा तो उसको उसी तरीके से निकृष्ट व्यक्ति माना जाएगा, जिस तरह से चोर-डाकू और दूसरों को माना जाता है। कोई आदमी ब्लैक तरीके से धन कमा लेता है तो जनता उसको बहुत बुरे-बुरे शब्दों से संबोधित करती है। जो चोर-बाजारी से पैसे इकट्ठे कर लेते हैं, उसे हर आदमी नफरत की निगाह से देखता है। गवर्नमेंट के दूत जब आते हैं तो उनको बुरे तरीके से निचोड़ते रहते हैं। हर आदमी उन्हें बेईमान मानता है। अगले दिनों वह समय आएगा कि जिसके पास अनावश्यक पैसा जमा होगा, उस आदमी को बेईमान माना जाएगा और यह माना जाएगा कि वह समाज में अनैतिक प्रवृत्तियों का जन्मदाता है, क्योंकि इससे डाह और ईर्ष्या पैदा होती है। अपराध करने की वृत्तियाँ भी उससे पैदा होती हैं।
बेटे, चोर-डाकू अपने आप पैदा नहीं होते हैं। सिर के अंदर जुएँ अपने आप पैदा नहीं होती। जब मैल सिर के अंदर होगा तो जुएँ पैदा होंगी ही। संपत्ति अनावश्यक रूप से जहाँ कहीं भी इकट्ठी होगी, वहाँ उससे डाह और ईर्ष्या करने वाले, डाकू-चोर और आपराधिक प्रवृत्तियाँ पैदा होंगी ही। व्यसन पैदा होंगे ही, संतान को कुमार्गगामी बनने का मौका मिलेगा ही। शराबखोरी बढ़ेगी, व्यभिचार बढ़ेंगे ही। धन जहाँ कहीं भी बढ़ेगा, वहाँ उस देश में यदि उसका वितरण ठीक न हुआ, कुछ लोग गरीब और कुछ लोग अमीर रहे तो उससे बुराइयाँ ही पैदा होंगी। धन मनुष्य के पास है जरूर, पर वह अमानत के रूप में है। हर संपत्तिवान से अगले दिनों हमको यह कहना पड़ेगा कि आप इस पैसे को अपने बेटे-पोतों के लिए जमा न कीजिए, अपनी विलासिता में खरच न कीजिए। खरच उस सीमा तक कीजिए, जिस तक कि देश का सामान्य नागरिक जीवन यापन करता है।
धन लोकमंगल में लगे
आप धन कमाते हैं मुबारक। कौन मना करता है कि धन नहीं कमाना चाहिए, लेकिन खरच करने पर बंधन है। आप खरच अनावश्यक नहीं कर सकते। आप अपना स्वास्थ्य बढ़ाइए, कोई रोक नहीं, मुबारक हो आपको। आप जितना चाहें स्वास्थ्य को बढ़ाएँ, लेकिन आप स्वास्थ्य को अनैतिक कार्यों में खरच करना चाहें, डकैती डालने में खरच करना चाहें तो समाज आपको रोकेगा। धन आपके पास है मुबारक, लेकिन आप धन को विलासिता में, वासना में और बेटे पोतों तक सीमित रखकर दूसरे लोगों को उससे वंचित रखेंगे तो उसके लाभ से तो समाज आपको रोकेगा ही। हमको हर पैसे वाले से कहना पड़ेगा और पैसे वाले को इस बात के लिए मजबूर करना पड़ेगा कि धन को लोकमंगल के लिए खरच किया जाए। लोकमंगल के कितने जरूरी काम आजकल ऐसे ही अधूरे पड़े हुए हैं। वह धन जो कि लोग अपने निजी खरच में खरच कर डालते हैं। उसको बचाया जा सके तो कितने काम हैं जो आगे बढ़ाए जा सकते हैं। शिक्षा की समस्या के लिए पैसे की जरूरत है। लोगों के स्वास्थ्य-संवर्द्धन के लिए भी पैसे की जरूरत है? हाँ, बहुत पैसे की जरूरत है। खासतौर से मनुष्यों के विचारों को ढालने और बदलने का काम हँसी-खेल नहीं है।
मित्रो, लोहे को ढालने के लिए कच्चे लोहे को गरम करना, पिघलाना और ढालना, बनाना अपने आप में बड़ा भारी काम है। इसके लिए बड़ी भट्टियाँ खड़ी करनी पड़ती हैं और उसको ढालने-गलाने के लिए बहुत टैक्नीशियन इकट्ठे करने पड़ते हैं। ठीक उसी प्रकार मनुष्यों के कच्चे, पिछड़े और उलझे हुए दिमागों को सुलझे हुए दिमाग के रूप में ढालने के लिए हमको अनेक प्रचारतंत्र ऐसे खड़े करने पड़ेंगे, जिससे कि लोगों के विचारों में परिष्कार किया जा सके। यह काम पैसे का है और पैसे वालों को आगे बढ़ना ही चाहिए। फिल्म उद्योग, जो कि जनता को प्रभावित करने का सबसे बड़ा माध्यम है, वह उस जनता को गिराने में सबसे बुरी तरह से लगा हुआ है। अखबार पढ़ने वालों की संख्या और रेडियो सुनने वालों की संख्या दोनों को मिलाकर भी सिनेमा देखने वालों की संख्या कहीं ज्यादा है। हमारा काम है, पैसे वालों का काम है कि सिनेमा का ऐसा ऊँचा स्तर बनाकर सामने लाएँ कि लोगों के विचारों को ढालने और बदलने में मदद करे। कला का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता। उसका सदुपयोग लोगों को उच्चस्तरीय ढाँचे में ढालने में होना ही चाहिए।
विचार-परिवर्तन में लगेगी पूँजी अगले दिनों
मित्रो, धनवान क्या केवल बीड़ी बनाने के उद्योग में ही अपना पैसा खरच करते रहेंगे? क्या चाय बागानों में ही लोगों की पूँजी लगी रहेगी? क्या वनस्पति तेल बनाने में ही लोगों की पूँजी लगी रहेगी? क्या चमड़े का व्यवसाय करने में ही लोगों की पूँजी लगी रहेगी? क्या पूँजी को ऐसे काम करने के लिए मौका-अवसर नहीं है, जिससे कि लोगों के भावों को परिष्कृत किया जाए? क्या पूँजी सस्ता साहित्य प्रकाशित करने में नहीं लगाई जा सकती। ईसाइयों की बाइबिल जिस तरह से सस्ते में छपती है, क्या हम नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विचारों को असंख्य भाषाओं में छापने के लिए पूँजी या प्रयोग नहीं कर सकते? क्या अच्छे चित्रों का प्रकाशन करने के लिए पूँजी की जरूरत नहीं है ? पूँजी का आह्वान है। हम पूँजी का आह्वान करेंगे और कहेंगे कि जिन लोगों के पास पूँजी है, उन लोगों को पूँजी इस काम में खरच करनी चाहिए।
अगर यों लोग इसके लिए तैयार नहीं होते हैं तो हमको पूँजी नए ढंग से इकट्ठी करने की बात सोचनी पड़ेगी। हर आदमी के पास बचत का पैसा जहाँ कहीं भी हो, उनसे यह कहना पड़ेगा कि बचत की जरूरत नहीं है, आप ऐसे काम में पैसा लगा दीजिए, यह भी एक तरह का बैंक है। हम भी ऐसा काम खड़ा करना चाहते हैं। आपके पास अनावश्यक खेत है, तो उसको बेच दीजिए। जेवर है तो उसको बेच दीजिए, दूसरी फालतू चीजें हैं, तो उसको बेच दीजिए। गरीब लोगों के यहाँ भी कुछ थोड़ी-बहुत बचत का सामान घर में फालतू हो तो उसे बेच देना चाहिए और उस पूँजी को थोड़ी-थोड़ी इकट्ठी करके हमको ऐसी लिमिटेड कंपनी या दूसरी सहकारी समिति के रूप में पूँजी एकत्रित करनी चाहिए। उससे उन अभावों की पूर्ति करनी चाहिए, जिनकी ओर अभी मैंने आपको संकेत किया।
मित्रो, हमको—युग निर्माण योजना को नई पूँजी की जरूरत है। अगर यह संपन्न लोगों से नहीं आती है तो गरीबों से भी आ सकती है। एक-एक मुट्ठी अनाज इकट्ठा करके। पचास करोड़ गरीब लोग हैं, अगर एक-एक रुपया इकट्ठा करें तो हम पचास करोड़ रुपया इकट्ठा कर सकते हैं। उस पचास करोड़ रुपये से हम वह काम कर सकते हैं, जो साहित्य निर्माण से लेकर फिल्म निर्माण तक का है। विचार आंदोलन से लेकर नए अखबार शुरू करने तक का है। इससे एक वर्ष के अंदर देश का कायाकल्प किया जा सकता है। पूँजी अगर पूँजीपतियों से नहीं आती है, तो हमको उसका कोई इंतजार नहीं है। हम जनता के पास जाएँगे, दरवाजा खटखटाएँगे और कहेंगे कि पूँजी की हमको जरूरत है और पूँजी को लिमिटेड कंपनी या सहकारी समिति के रूप में संग्रहीत होना ही चाहिए।
धर्म के नियंत्रण में राजसत्ता
मित्रो, अभी मैं युग निर्माण योजना के भावी कार्यक्रमों के बारे में कह रहा था। मैं यह निवेदन कर रहा था कि अगले दिनों हमें राष्ट्रसत्ता पर हावी होना पड़ेगा। राष्ट्रसत्ता के बारे में मैंने कभी यह नहीं कहा कि धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं है। दूसरे ढोंगी लोग हैं जो यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं है। मैंने हमेशा से यहीं कहा है कि धर्म के नियंत्रण के भीतर राजनीति को रहना ही चाहिए और रहना ही होगा। प्राचीनकाल में गुरु वसिष्ठ रघुवंश के ऊपर नियंत्रण रखते थे। चाणक्य का नियंत्रण चंद्रगुप्त के वंश तक रहा। धर्म की सत्ता पहले ब्राह्मण के हाथ में रहती थी और साथ ही राजसत्ता भी धर्म के नियंत्रण में रहती थी। धर्म के नियंत्रण में राजसत्ता को रहना ही चाहिए। जिनके हाथ में हुकूमत है, उनको नीति और सदाचार का पालन करना ही चाहिए। सदाचारी के हाथ में अगर हुकूमत हो और वे चाहें तो एक कदम में न जाने क्या-से-क्या कर सकते हैं !
मित्रो, जिन चीजों की मैं अभी शिकायत कर रहा था कि हमारे देश में दूध की नदियाँ बहती थीं, पर अब दूध का अभाव है। राजनीति चाहे, सत्ता चाहे तो पशुओं का कटना बंद कर सकती है, जिससे दूध और दही की नदियाँ फिर से बह सकती हैं। जिसकी अभी मैं शिकायत कर रहा था कि हमारे देश में फिल्म के नाम पर और कला के नाम पर अनाचार फैल रहा है। सरकार चाहे तो इनका राष्ट्रीयकरण कर सकती है और एक दिन में इनका सफाया हो सकता है। हमारे यहाँ अनाज का जितना खरचा है, ठीक उतना ही खरचा नशाबाजी का है, अगर सरकार चाहे तो एक दिन में नशेबाजी समाप्त कर सकती है। सरकार को बदलना चाहिए और उसे बदलना ही होगा।
युग निर्माण योजना के अगले कदम
साथियो, मैं इन बातों में यकीन नहीं करता, जिनको घिराव कहते हैं या दूसरे तरीके कहते हैं या सरकार से दूसरे झगड़े मोल लेना कहते हैं। मैं तो वोटर के पास जाना चाहता हूँ। युग निर्माण योजना को वोटर के पास जाना चाहिए, क्योंकि प्रजातंत्र की सारी शक्ति तो वोटरों के पास है। वोटरों को समझाना पड़ेगा कि उनको अपना प्रतिनिधि किन्हें चुनना चाहिए? उनको वोट किन सिद्धांतों के लिए देना चाहिए? जात-बिरादरी के नाम पर नहीं, मेल-मुलाकात के नाम पर नहीं, किसी के नाम पर भी नहीं, पैसे के नाम पर नहीं, सूरत के नाम पर नहीं। देश, धर्म, संस्कृति और समाज के उत्थान के नाम पर वोट देने के लिए उनको आगे आना पड़ेगा । इसके लिए हमको जनता का द्वार खटखटाना पड़ेगा। हम जनता का द्वार खटखटाएँगे। युग निर्माण योजना इसके लिए अपने कदम आगे बढ़ाएगी। उसका कार्यक्षेत्र अगले दिनों साहित्य भी होगा। उसका कार्यक्षेत्र अगले दिनों कला भी होगा। उसका कार्यक्षेत्र अगले दिनों अर्थव्यवस्था भी होगा। उसका कार्यक्षेत्र अगले दिनों राजनीति भी होगा।
मित्रो, इस तरह से ये युग निर्माण योजना का स्वरूप, जो कि पहले किसी समय में परिस्थितियों के अनुरूप धर्म से प्रारंभ हुआ था, अब इसका क्षेत्र बढ़ता ही चला जाएगा। अभी तक बढ़ते-बढ़ते हम इस स्थिति में आ गए हैं कि कल नहीं तो परसों अपने लक्ष्य तक पहुँच ही जाएँगे, जब मनुष्य में देवत्व का उदय किया जा सकेगा और पृथ्वी पर स्वर्ग का अवतरण किया जा सकेगा। समग्र शान्ति और प्रगति इसी तरीके से आएगी। समस्याओं का हल इसी तरीके से होगा। यही युग निर्माण योजना का लक्ष्य है। जिसके लिए हम प्रयत्नशील हैं और आप सबको उन प्रयत्नों में सहयोगी होना ही चाहिए। आज की बात समाप्त।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ग्वं शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सामाशान्तिरेधि।
ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः।