(जीवट है, तो महाक्रान्ति की चिनगारी को आग और आग को दावानल बनने में सहयोग दें)
युग बदलने के लिए बहुत बड़े काम करने पड़ेंगे; परन्तु यह काम नौकरों से नहीं हो सकेगा। यह काम भावनाशीलों का है, त्यागियों का है। हमको भावनाशील आदमियों की जरूरत है, जिनको हम प्रामाणिक कह सकें, जिनको हम परिश्रमी कह सकें। जो परिश्रमी हैं, वे प्रामाणिक नहीं हैं और वे जो प्रामाणिक हैं, वे परिश्रमी नहीं हैं और वे जो प्रामाणिक और परिश्रमी हैं, उनको मिशन की जानकारी नहीं है। हमारे पास समय बहुत कम है। हमको आदमियों की जरूरत है। अगर आप स्वयं उन आदमियों में शामिल होना चाहते हों, तो आइए आपका स्वागत करते हैं और आपको यह विश्वास दिलाते हैं कि आप जो भी काम करते हैं, उन सब कामों की बजाय यह बेहतरीन धंधा है। इससे बढ़िया धंधा और कोई नहीं हो सकता। हमने किया है, इसलिए आपको भी यकीन दिला सकते हैं कि यह बहुत फायदे का धंधा है।
हमें अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार करने के लिए आपकी सहायता की जरूरत है। हमको उनकी जरूरत है, जो राष्ट्र के निर्माण में काम आ सकें। नये वर्ग में, नये क्षेत्र में जाने के लिए आप सब हमारी मदद कर दीजिए।
क्या काम करेंगे? हमने एक बहुत ही शानदार भवानी तलवार निकाली है। ऐसी शानदार योजना दुनिया में आज तक नहीं बनी। क्या बनी है? हमने हर दिन पढ़े-लिखे को नियमित रूप से बिना मूल्य युग-साहित्य पढ़ाने की योजना बनायी है। आप पढ़े-लिखे लोगों तक हमारी आवाज पहुँचा दीजिए। हमारी जलन को, हमारी विचारणा की चिनगारियों को पहुँचा दीजिए।
लोगों से आप यह मत कहना कि गुरुजी बड़े सिद्ध-पुरुष हैं, बड़े महात्मा हैं और सबको वरदान देते हैं, वरन् यह कहना कि गुरुजी एक ऐसे व्यक्ति का नाम है, जिनके पेट से आग निकलती है, जिनकी आँखों में से शोले निकलते हैं। आप ऐसे गुरुजी का परिचय कराना, सिद्ध-पुरुष का नहीं।
हमारे विचारों को आप पढ़िए और हमारी आग की चिनगारी को, जो प्रज्ञा-अभियान के अन्तर्गत युग-साहित्य के रूप में लिखना शुरू किया है, उसे लोगों में फैला दीजिए। जीवन की वास्तविकता के सिद्धान्त को समझिए, ख्वाबी दुनिया में से निकलिए और आदान-प्रदान की दुनिया में आइए।
आपके नजदीक जितने आदमी हैं, उनमें आप हमारे विचार फैला दीजिए। हमको आगे बढ़ने दीजिए, सम्पर्क बनाने दीजिए और आप हमारी सहायता कर दीजिए; ताकि हम उन विचारशीलों के पास, शिक्षितों के पास जाने में समर्थ हो सकें। इससे कम में हमारा काम चलने वाला नहीं है और न ही हमें संतोष होगा।
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए।
विश्व चेतना का उद्घोष दसों दिशाओं में गूँज रहा है। उसी की लालिमा का आभास अंतरिक्ष के हर प्रकोष्ठ में परिलक्षित हो रहा है। न जाने किसका पाञ्चजन्य बज रहा है और एक ही ध्वनि नि:सृत कर रहा है-बदलाव! बदलाव!! बदलाव!!! उच्चस्तरीय बदलाव-समग्र बदलाव। यही होगी अगले समय की प्रकृति और नियति। मनुष्यों में से जिनमें भी मनुष्यता जीवित होगी, वे यही सोचेंगे-यही करेंगे।
शान्तिकुञ्ज की युग निर्माण योजना द्वारा युग-साहित्य इन्हीं दिनों सृजा गया है। जिसका मूल्य प्राय: कागज, स्याही जितना ही रखा गया है। कॉपीराइट भी किसी का नहीं है। कोई भी छाप सकता है।
जैसे श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को सभी तीर्थों की यात्रा कराई, वैसे ही आप भी हमें (विचार रूप में) संसार भर के तीर्थ, प्रत्येक गाँव, प्रत्येक घर में ले चलें। हमारे विचार क्रान्ति के बीज हैं, जो अगले दिनों धमाका करेंगे। तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा काम करेंगे।
क्रान्ति के बीज किसी महान् विचारक के दिमाग में जमते हैं। वहाँ से फूल-फलकर क्रान्तिधर्मी-साहित्य के रूप में बाहर आते हैं और संक्रामक रोग की तरह अन्य दिमागों में उपजकर बढ़ते हैं। सिलसिला जारी रहता है। क्रान्ति की उमंगों की बाढ़ आती है। सब ओर क्रान्ति का पर्व मनने लगता है। चिनगारी से आग और आग से दावानल बन जाता है। बुरे-भले सब तरह के लोग उसके प्रभाव में आते हैं। कीचड़ और दलदली क्षेत्र में भी आग लग जाती है।
ऐसे में नियति का नियंत्रण करने वाली अदृश्य सत्ता परिवर्तन के क्रान्तिकारी आवेग से भरी प्रतीत होती है। तोपों की गरज, फौजों के कदमों के धमाके, बड़े-बड़े सत्ताधीशों के अध:पतन और समूचे विश्व में व्यापक उथल-पुथल के शोरगुल से भरे ये क्रान्ति के समारोह हर ओर तीव्र विनाश और सशक्त सृजन की बाढ़ ला देते हैं। क्रान्ति के इस पर्व में दुनिया को गलाने वाली कढ़ाई में डाल दिया जाता है और वह नया रूप, नया आकार लेकर निकल आती है। महाक्रान्ति के इस पर्व में ऐसा बहुत कुछ घटित होता है, जिसे देखकर बुद्धिमानों की बुद्धिमत्ता चकरा जाती है और प्राज्ञों की प्रज्ञा हास्यास्पद बन जाती है।
वर्तमान युग में विचार-क्रान्ति के बीजों के चमत्कारी प्रभावों से क्रान्ति की केसरिया फसल लहलहा उठी है। परिवर्तन की ज्वालाएँ धधकने लगी हैं। क्रान्ति के महापर्व की उमंगों की थिरकन चहुँ ओर फैल रही है। ये वही महान् क्षण हैं, जब विश्वमाता अपनी ही संतानों के असंख्य आघातों को सहते हुए असह्य वेदना और आँखों में आँसू लिए अपना नवल सृजन करने को कटिबद्ध है।
संकलन-संदर्भ:) अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९९४ ,पृ.सं. -४३, (२) समस्याएँ आज की, समाधान कल के --पृ.सं.-२८, (३) शिक्षा ही नहीं विद्या भी, पृ.सं.-१०, (४) वाङ्मय-शिक्षा एवं विद्या, पृ.सं.-५/३५, (५) अखण्ड ज्योति, अक्टूबर-१९९७, पृ.सं.-२८, (६) अखण्ड ज्योति, क्रांति विशेषांक, सितम्बर -१९९७, पृ.सं. १ (७) प्रज्ञा अभियान (पाक्षिक) १ फरवरी १९९८।