उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
इन्सान के अंदर का भगवान् जगाएँगी प्रतिभावान विभूतियाँ
(16-4-74 का शान्तिकुञ्ज में दिया गया उद्बोधन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! इन दिनों मनुष्य जाति एक ऐसे चौराहे पर खड़ी है, जिसके एक ओर सर्वनाश है, एक ओर उत्थान। हम सभी सामूहिक आत्महत्या करने के लिए खड़े हुए हैं। मनुष्य जाति चाहेगी, तो थोड़े दिनों पीछे सामूहिक रूप से आत्महत्या भी करनी पड़ेगी, क्योंकि तब हमारे ऊपर एटम बम बरसने लगेंगे और सारे-का-सारा वातावरण जहरीला हो जाएगा। मौत और जिंदगी में से एक का निर्धारण करने का सही वक्त यही है। ये चौराहा है। ये युग की संध्या है। इस युग की संध्या में हमको और आपको, उन लोगों को जिनके पास क्षमताएँ हैं, उनको थोड़े समय के लिए कम-से-कम जिंदगी के लिए इस बात का विचार करना चाहिए कि हम इस जन्म में मालदार नहीं बनेंगे, तो हमारा पुण्य अगले जन्म में हमें मालदार बना सकता है। इस जन्म में हम औलाद वाले और संतान वाले नहीं बनेंगे, तो अगले जन्म में हम संतान वाले और औलाद वाले बन सकते हैं। इस जन्म में अगर हमने वासना और तृष्णा को पूरा नहीं भी किया, तो अगले जन्म में हम पूरा कर सकते हैं, अगर अगला जन्म इन्सान का मिल गया तब।
भौतिक इच्छा में पुत्रैषणा आती है, लोकेषणा आती है, वित्तैषणा आती है, वासनाएँ आती हैं, तृष्णाएँ आती हैं, लोभ-मोह को पूरा करना आता है। इन्हीं चार-पाँच चीजों के चंगुल में इन्सान की जिंदगी बँधी हुई सड़ रही है। लोगों से हमें कहना है कि इन बंधनों में से अपनी जिंदगी को निकालिए और जहाँ समय ने, युग ने, मनुष्यता ने और भगवान् ने आपको पुकारा है, वहाँ जाकर के खड़े हो जाइए। आप यहाँ से ये प्रेरणा लेकर जाएँ, संदेश ले करके जाएँ, उद्बोधन लेकर के जाएँ और वहाँ जहाँ फूल खिला हुआ हो। बगीचा तो सारा है। वहाँ कहीं कलियाँ होती हैं, कहीं पत्ते होते हैं, लेकिन भौंरों और शहद की मक्खियों को खासतौर से वहीं चक्कर काटना पड़ता है, जहाँ खिलावट ज्यादा होती है। हमको और आपको सर्वसाधारण के पास भी जाना पड़ेगा, जन-जन के पास जाना पड़ेगा, हर आदमी को संबोधित करना पड़ेगा, लेकिन जहाँ कहीं भी आपको ज्यादा चमक दिखाई पड़ती हो, प्रभाव ज्यादा दिखाई पड़ता हो, वहाँ आपको अपनी आँखों को बहुत तीखी रखना पड़ेगा।
आप जादूगर होकर जाएँ
मित्रो! गाँधी जी में यह विशेषता थी कि वे मनुष्य को जानने-परखने में बहुत होशियार थे। उनकी समझ में और पकड़ में ज्यादा देर नहीं लगती थी कि इसका नाम जवाहर लाल नेहरू है। इस तरह लोगों की आँखों में आँखें डालकर, चेहरे पर निगाहें डालकर आदमियों को पहचानने में उन्हें जरा भी गलत-फहमी नहीं होती थी कि ये काम का आदमी है और मजेदार आदमी है। उन्होंने इस तरह के काम के और मजेदार आदमी जहाँ कहीं भी पाए, उनकी खुशामद की तो क्या, प्यार किया तो क्या, कहीं-न-कहीं से गढ़कर हिंदुस्तान की आजादी की सेना में एक-से-एक बढ़िया आदमी लाकर के खड़े कर दिए। आदमी को पहचानने वाले जादूगर थे और बाजीगर थे वे। आपको भी मैं चाहूँगा कि आप जादूगर होकर के जाएँ, बाजीगर हो करके जाएँ और आदमी को पहचानने वाला होकर के जाएँ। आपको जहाँ कहीं भी ये दिखाई पड़ता हो कि ये काम का आदमी है, तो आप उसके पास सौ बार जाना, सौ बार खुशामद करना। हमारे लिए तो यह संभव नहीं हो पाता। हम तो चिट्ठी भी नहीं लिख पाते। हमारे पास तो चार सौ-पाँच सौ चिट्ठियाँ आती हैं। हमारे लिए तो उस डाक को पूरा करना और जवाब देना ही मुश्किल हो जाता है। हम तो उन लाखों लोगों में से जिनमें चमक देखी, प्रभाव देखा, उनके पास जा भी नहीं सकते और बुला भी नहीं सकते। आपको हम उसी तरीके से ‘डेलीगेट’ नियुक्त करते हैं, जैसे हमारे गुरु ने हमको प्रतिनिधि नियुक्त किया हुआ है। मेरे गुरुजी ने कहा कि मुझे वहाँ जाना चाहिए जहाँ कहीं भी दुनिया में चमकदार आदमी दिखाई पड़ें, जबर्दस्त आदमी दिखाई पड़ें। उनकी खुशामद करनी चाहिए, जो आदमी आत्मविश्वास से भरे हुए हों, विद्या से भरे हुए हों, जीवट और जान से भरे हुए हों, प्रभाव से भरे हुए हों और प्रतिभा से भरे हुए हों।
जहाँ भी चमक है, वहाँ विभूति है
मित्रो! हम आपको अपना प्रतिनिधि, अपना डेलीगेट, अपना संदेशवाहक नियुक्त करके भेजते हैं। इस तरह की चमक जहाँ कहीं भी आपको दिखाई पड़े, वहाँ आपको खासतौर से ध्यान देना चाहिए। क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता की विभूतियों में ये कहा है कि जहाँ कहीं भी चमक दिखाई पड़ती है, वहाँ-वहाँ मैं हूँ। पेड़ों में पीपल का पेड़, खेलों में जुआ, नागों में वासुकी मैं हूँ। पांडवों में अर्जुन मैं हूँ, इत्यादि उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि जहाँ कहीं भी चमक पाई जाए, वहाँ ये मानकर चलना कि यहाँ भगवान का विशेष अंश है। भगवान् के उस विशेष अंश को, जो मिट्टी में पड़ा हुआ है, कूड़े में पड़ा हुआ है, उस हीरे को निकाल लें और मुनासिब जगह पर लगा दें, तो हीरे की कीमत निकल सकती है और वह पाँच हजार में बिक सकता है। जबकि अभी वह जहाँ मिट्टी में, कूड़े में पड़ा हुआ है, वहाँ दो आने का भी नहीं है।
साथियो! अगर दो आने के हीरे को जो मिट्टी में पड़ा हुआ था, उसको वहाँ से हटाकर हम उसे पाँच हजार का बना देते हैं, तो क्या हमने हीरे के ऊपर एहसान नहीं किया? हाँ, हमने हीरे के ऊपर एहसान किया और उसे पहनने वाले के ऊपर एहसान किया है, अगर हमने गिरे हुए हीरे को वहाँ लगा दिया है तब। जिन लोगों ने बालक प्रह्लाद को भगवान् की भक्ति में लगा दिया, क्या उन्होंने उसके ऊपर कुछ एहसान नहीं किया? बहुत एहसान किया। समाज के ऊपर कुछ एहसान नहीं किया? हाँ उन्होंने समाज के ऊपर बहुत एहसान किया, जिन्होंने दूसरों को एक जगह लगा दिया। चाणक्य ने चंद्रगुप्त को एक जगह लगा दिया, क्या कोई एहसान नहीं किया? बहुत एहसान किया। जिस विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र को मुनासिब जगह पर लगा दिया, क्या उन्होंने हरिश्चंद्र पर कोई एहसान नहीं किया? हाँ बहुत एहसान किया। हरिश्चंद्र को बहुत नुकसान उठाना पड़ा सो? उसकी बीबी बिक गयी सो? राज्य बिक गया सो?
हमने छीला है, तराशा है आपको
मित्रो ! इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है। हीरा, जो कच्चा आता है, इसको हम खराद पर चढ़ाते हैं, छीलते हैं। फ़िर छह पहल काटते हैं, नौ पहल काटते हैं, बारह पहल काटते हैं। तो क्या हीरे को कष्ट नहीं होता? हाँ होता है, लेकिन जैसा कुछ भी कच्चा था हीरा, काट देने और छील बाद में ही तो उसमें चमक आई। कीमत उसी की वसूल हुई। अँगूठी में लगाने लायक उसी से तो हुआ। अगर छीला न गया होता, तराशा न गया होता, घिसा न गया होता, तो उसमें चमक नहीं आ सकती थी। अगर लोग ये कहें कि आपकी संस्था में जाकर हमने क्या पाया है?हमने एक ही चीज दी है लोगों को। क्या? हमने आपको छीला है, हमने आपको तराशा है। हमने आपकी पहल काटी है और चमकदार बनाया है। ये भी हीरे के ऊपर कम एहसान नहीं है। गंदे वाले, निकम्मे वाले हीरे को आप एक पोटली में बाँधकर रख दें, तो क्या कोई एहसान है?नहीं वो एहसान नहीं है। एहसान वो है जिसकी पहल को हमने काट दिया, घिस दिया।
मित्रो ! लोगों को हम घिस दें, छील दें, तराश दें तो इसमें आपको डरने की जरूरत नहीं है कि हमने अमुक आदमी का पैसे से नुकसान करा दिया। अमुक आदमी को उसके बाल-बच्चों से छुड़ा दिया। अमुक आदमी को उद्योग-धंधे से हटा दिया। अमुक आदमी अपने बेटे, बेटी को पैसा देकर के जाने वाला था। उसके बेटे-बेटी नाखुश होते हैं कि हमको इतना सारा पैसा मिलने वाला था, किंतु गुरुजी ने हमारे बाप को बहका दिया। अपना जो वक्त वे घर में कमाई के लिए लगाते थे, अब समाज के लिए लगाने लगे और हमको पैसे का नुकसान पड़ गया। उसकी बीबी नाखुश होती है, औलाद नाखुश होती है, तो हम क्या कर सकते हैं? मित्रो ! जिस तरीके हम अपने घर में आग लगाकर आए हैं, दूसरों के घर भी उसी तरीके से जलें, तो हमें कोई ऐतराज नहीं है। उसे जलना ही चाहिए।
किनके पास जाएँ
साथियो ! ऐसा करना चाहिए कि आपको यहाँ से जाने के बाद केवल शिविर चलाना ही काफी नहीं है, तीर्थ यात्राएँ चलाना ही काफी नहीं है, हवन-पूजा चलाना ही काफी नहीं है, संस्थान चलाना काफी नहीं है, मंदिर बनवाना काफी नहीं है, लेकिन वो काम काफी है, जिससे कि आप किसी आदमी को अच्छी दिशा में लगा सकें और काम करा सकें। एक और लोगों के पास आप जाना। हम तो उनके पास नहीं गए हैं, लेकिन आपको जाना चाहिए। हम किनके पास नहीं गए? हम पैसे वालों के पास नहीं गए और आपको क्यों जाना चाहिए? मित्रो ! किसी पैसे वाले के पास हम इसलिए नहीं गए कि हम जिस मिशन को शुरू करने वाले थे, उसकी नींव में हमको ऐसे शुद्ध और पवित्र पैसे की आवश्यकता थी, जिसके पीछे आदमी की श्रद्धा जुड़ी हुई हो। दबाव जुड़ा हुआ न हो, लोभ जुड़ा हुआ न हो। लोभ और दबाव लेकर के अगर हम गए होते तो हमने कितना पैसा कमा लिया होता, आपको मालूम नहीं है।
आपके बड़ौदा जिले में एक चाणोद नाम का गाँव है। हमारे गायत्री तपोभूमि में एक कार्यकर्ता रहता था, जो वहाँ चला गया और अनुष्ठान करने लगा। उसने क्या काम किया, मुंबई के एक आदमी आते थे, उनसे कहा, देखो मैंने चौबीस लक्ष का अनुष्ठान किया है। तुम अपनी दुकान में मुझे शेयर होल्डर बना लो। मैं तुम्हें कभी नुकसान में नहीं पड़ने दूँगा और तुम्हें नफा ही होता रहेगा। उसने कहा, अच्छा दुकान में जो कुछ भी फायदा होगा, उसमें दो आना तेरे पक्के। मित्रो ! वो पार्टनर हो गया। पार्टनर होने के बाद में क्या हआ? दुकान में ज्यादा मुनाफा होने लगा। इसे भी छह सौ रुपये महीने की आमदनी होने लगी। दाढ़ी रखाकर वह भी खा-पीकर लाल पड़ गया और यहाँ-वहाँ डोला-डोला फिरने लगा। कभी-कभी हमारे यहाँ भी आ जाता था।
एक साल क्या हुआ? एक साल दुकानदार को पड़ गया नुकसान। बस दुकानदार को आ गया गुस्सा। उसने कहा कि मैंने तीन साल के अंदर तुमको बीस हजार रुपये दिए। मेरा बीस हजार रुपया निकाल या मेरा मुनाफा करा, नहीं तो मैं तेरी दाढ़ी उखाड़ लूँगा। उसने कहा, अब क्या करूँ, कैसे मुनाफा हो और कैसे घाटा पूरा हो? उसने कहा, चल अपने गुरुजी के पास चलता हूँ। उसे लेकर मेरे पास आ गया। मैंने कहा, बेटे क्या बीमारी लेकर आ गया। दुकानदार ने कहा, गुरुजी इसने कहा कि मैंने चौबीस लक्ष का अनुष्ठान किया है, तो तुम्हें ये फायदा हो जाएगा, लेकिन मुझे इस वर्ष नुकसान पड़ गया। मैंने उसे ठीक करके उसका घाटा पूरा करा दिया और दोनों से कहा कि बेटा तू अपने घर रह और तू अपने घर। दाढ़ी वाले लड़के से कहा कि बेटा तू भिक्षा माँग के खा। गायत्री का जप करता है और दुकानदारी के पैसे में शेयर होल्डर बनता है? तुझसे ये किसने कहा?
मित्रो! अगर मैं ये करना चाहूँ तो सोने-चाँदी के जखीरे खड़ा कर सकता हूँ। जो आशीर्वाद मैं फोकट में देता रहता हूँ, अगर उसकी कीमत बना दूँ, तो फिर जाने मैं क्या-क्या कर लूँ। लेकिन उस ओर मैं कभी गया नहीं। क्यों नहीं गया? क्योंकि वह धन, जिसके पीछे श्रद्धा जुड़ी हुई नहीं है, जिसके पीछे प्रेम जुड़ा हुआ नहीं है। जिस पैसे के पीछे आदमी की भावना जुड़ी हुई नहीं है, इस तरह का पैसा अगर मैंने लेना शुरू कर दिया, तो मित्रो! मेरा तेज, मेरा ब्रह्मवर्चस, मेरा मिशन और मेरे वो क्रियाकलाप सब नष्ट हो जाएँगे। ये जो इमारत है, इसमें जो कोई बैठेगा और जब तक व्याख्यान खत्म नहीं होता, तब तक तो उसके ऊपर इन इमारतों का चूना और इन इमारतों की ईंटें निकल-निकलकर उसके ऊपर गिरेंगी। जो कोई इसमें सोएगा, उसको रात में ऐसे सपने दिखाई पड़ेंगे और रात को वेश्याएँ दिखाई पड़ेंगी और भूत दिखाई पड़ेंगे और गुरुजी का प्रवचन जाने कहाँ छू हो जाएगा, इस तरह दबाव का पैसा हमारे मिशन में लगा होगा, तो वह सारे ईमान को भ्रष्ट कर देगा।
हमारा मूल है श्रद्धा
इसलिए मित्रो! मैंने जिंदगी भर यही रखा कि जहाँ श्रद्धा से भरा हुआ पैसा, ईमानदारी से भरा हुआ पैसा, भावनाओं से भरा हुआ पैसा आता होगा, उसे ही इस मिशन के लिए स्वीकार करेंगे। यह ठीक है कि हमारे मिशन को पैसे की बहुत जरूरत है, लेकिन हम जानते हैं कि हमारे बंधन कितने बँधे हुए हैं। अभी हम आप वानप्रस्थों को साठ-साठ और सत्तर-सत्तर की संख्या में हर महीने बुलाते हैं। अगर हमारे पास व्यवस्था हो, साधन हो, हमारे पास ठहरने का प्रबंध हो, खाने का प्रबंध हो, व्याख्यानों का प्रबंध हो तो हम बजाय साठ-सत्तर के छह सौ वानप्रस्थ हर महीने बुला सकते हैं और तीन सौ पेयर सारे हिंदुस्तान में और सारे विदेश में भेज सकते हैं और हम एक क्राँति ला सकते हैं। पर हम रुके हुए बैठे रहते हैं। हमारे यहाँ शिविर चलते रहते हैं। हम एक बार में पच्चीस महिलाओं को बुलाते हैं और उन्हें प्रशिक्षित करके पच्चीस शाखाओं में भेजते हैं। अगर हमारे पास उनके ठहरने, खाने, व्याख्यान आदि का प्रबंध हो तो हम क्यों बुलाएँगे पच्चीस महिलाएँ? फिर हम एक महीने के शिविर में एक हजार महिलाएँ बुला सकते हैं और एक हजार गाँवों में महिलाओं के विद्यालय चालू कर सकते हैं। पर हमारे पास साधनों का अभाव है।
मित्रो! अगर हमने चंदा माँगा होता, हर आदमी से कहा होता, हर आदमी को दबाव दिया होता और मजबूर किया होता। हर आदमी को लोभ और आश्वासन दिए होते, तो हमारे पास हीरे-जवाहरातों की खानें खड़ी होतीं, हमारे पास सोना खड़ा होता। हमको यह विद्या याद है और हमारा तप उस कीमत का है कि अगर हम उसकी कीमत पर पैसा इकट्ठे कर लें। अगर हम अपीलें करने लगें कि आपको देना चाहिए, तो अपील के नाम पर इकट्ठा कर लें। लेकिन हमने आज तक कभी माँगा नहीं और न माँगेंगे। हम जो काम करने चले हैं, उसमें हम ये चाहते हैं कि भावना से जुड़ा हुआ, श्रद्धा से जुड़ा हुआ, प्रेम से जुड़ा हुआ, मोहब्बत से जुड़ा हुआ, निष्ठा से जुड़ा हुआ और अपनी अंतःप्रेरणा से जुड़ा हुआ पैसा आए, चाहे वह कानी कौड़ी ही क्यों न हो? चाहे हम पच्चीस आदमी ही क्यों न बुलाएँ, पचास आदमी ही क्यों न बुलाएँ? चाहे हम जिंदगी भर में थोड़ा ही काम करें, छोटी ही बात रखें, लेकिन हम उतना ही करेंगे, जितना कि श्रद्धा से भरा हुआ पैसा हमारे पास आएगा।
आप जाइए ज्ञानयज्ञ के लिए धन एकत्र करिए
लेकिन हम आपको भेजते हैं और इसलिए भेजते हैं कि आप खुली जबान से और खुले हुए मुँह से कह सकें उन लोगों से भी, जिनके पास पैसा है। अगर वे लोग आपको इस तरीके से दिखाई पड़ते हैं कि वे किसी अच्छे काम के लिए और इस मिशन जैसे क्रियाकलापों के लिए खरच करने की स्थिति में और दान देने की स्थिति में हैं, तो आप इस तरीके से कहना। अगर इस तरीके के कामों में वे खरच करते हुए आपको दिखाई न पड़ें, तो उनसे कहना कि आपके पास जो दबा हुआ पैसा पड़ा है, रुका हुआ पैसा पड़ा है, उस पैसे को ऐसे क्रिया-कृत्यों में लगा दीजिए जिससे हमारे विचार क्राँति के लिए बहुत बड़ा साहित्य तैयार किया जा सकता है। मनुष्य की जीवात्मा की भूख मिटाने के लिए अभी एक ऐसा साहित्य नहीं लिखा गया है। किसी ने इस पर कलम छुई नहीं है, किसी ने पट्टी-पूजन किया नहीं है कि जो आदमी के दिलों को हिला दे। दिमागों को बदल दे। केवल गंदे उपन्यास और गंदी कहानियाँ, जादू की किताबें लिखी गई हैं, जिनमें वाहियात भरा हुआ पड़ा है। अभी तक इन्सान को हिलाने और जगाने वाला साहित्य किसी ने पढ़ा या लिखा नहीं है।
मित्रो! जो लोग तंबाकू की फैक्ट्रियाँ चलाते हैं, बीड़ियों की फैक्ट्रियाँ, शराब की फैक्ट्रियाँ चलाते हैं, कसाई खाने चलाते हैं, चमड़े का उद्योग करते हैं और केवल इसलिए करते हैं कि किसी भी कीमत पर, किसी भी तरीके से उनके पास पैसा आना चाहिए। आपकी अगर हिम्मत हो और कोई आपकी बात मान ले, तो आप ये कहना कि उसमें आपको रुपये में चार आने मिलते हैं, लेकिन इसमें रुपये में एक आना मिलेगा। अगर आप चाहें तो इस तरह के व्यापार और उद्योग-धंधे शुरू कर सकते हैं, जिससे कि हमारे समाज के खोए हुए मनोबल को पुनः जाग्रत किया जा सके। दान मत दीजिए, अपने पास ही रखिए! बाबा! हम दान नहीं माँगते हैं, लेकिन आप अपने उद्योग को बदल दीजिए। बीड़ी के उद्योग में आपने बीस करोड़ रुपया लगा दिया है। उसमें से निकाल लीजिए और उस बीस करोड़ रुपये को आप साहित्य के प्रकाशन में डाल दीजिए। फिर देखिए हम क्या व्यवस्था करते हैं?
नारी का जागरण करने के लिए एक भी किताब अभी तक नहीं लिखी जा सकी है, जो महिलाओं में जीवट उत्पन्न कर सके। इसी तरह बच्चों में जीवट उत्पन्न करने के लिए किसी ने कलम नहीं छुई है। मेढक की कहानी लिखी है, बंदर की कहानी लिखी है, कुत्ते की कहानी लिखी है, भूत की कहानी लिखी है, लेकिन बच्चों के अंदर जीवट पैदा करने की एक किताब नहीं लिखी गई। इस तरह का साहित्य जो हमारे समाज की कुरीतियों से लोहा लेने में समर्थ हो सके, इस तरह का साहित्य जो मनुष्य के भीतर दबे हुए भगवान् को जगा सके। हमारा अखण्ड ज्योति का जरा-सा साहित्य, मुट्ठी भर पैसों से प्रकाशित होने वाला साहित्य अपनी भूमिका को बखूबी प्रस्तुत कर रहा है। अगर यही साहित्य और यही प्रकाशन असंख्य धाराओं में लिखा जा सके और उसके प्रकाशन की व्यवस्था की जा सके तथा उसके लिए बुकसेलर तैयार किए जा सकें। उसका सारी-की-सारी हिंदुस्तान की चौदह भाषाओं में प्रकाशन किया जा सके, तो क्या आप समझते हैं कि हम हिंदुस्तान में नई फिजा पैदा नहीं कर सकते? नई दिशाएँ पैदा नहीं कर सकते? मुट्ठी भर निकलने वाली अखण्ड ज्योति क्या गजब ढा रही है, आप देख नहीं रहे हैं? इस तरह की अखण्ड ज्योतियाँ अगर सब भाषाओं में निकलने लगें और जगह-जगह निकलने लगें, तो गायत्री तपोभूमि एवं अखण्ड ज्योति संस्थान के रूप में छोटे-से केंद्र, जिनमें थोड़ा सा प्रकाशन होता है, इस तरह का प्रकाशन अगर जगह-जगह चालू हो सके, तो क्या हम कुछ भी काम नहीं कर सकते हैं। हाँ हम बहुत कुछ काम कर सकते हैं।
मित्रो! आप लोगों से यह कहना कि अगर आप में दान देने की या खरच करने की हिम्मत नहीं है, तो आप इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने व्यवसाय को बदल दें। मनुष्य के दिमाग को बदलने के लिए और जीवात्मा की भूख मिटाने के लिए आज जिस साहित्य की जरूरत है, उसके लिए आप पैसा दीजिए और इस काम को अपने हाथ में लीजिए। हम आपका एग्रीमेंट कर देंगे और आपकी व्यवस्था बना देंगे। हम आपके लिए साहित्य लिखकर दे देंगे, आपकी सहायता कर देंगे और आपको नुकसान नहीं पड़ने देंगे। ये गारण्टी हम दे सकते हैं। लेकिन हम क्या कर सकते हैं? मित्रो! हमारे पास धन नहीं है और हम कोई काम शुरू नहीं कर सकते। ऐसा उद्योग चालू करने के लायक हमारे पास कोई सामर्थ्य नहीं है, साधन नहीं है।
साहित्य के बाद सुरुचिपूर्ण कला
मित्रो! यह तो हुआ साहित्य का काम नंबर एक, दूसरा काम है चित्रों का। चित्र, आपने देखा नहीं कितने काम करते हैं? गंदे चित्र बिकते हुए आपने देखे नहीं? दीपावली के दिनों आपने गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले और चौराहे-चौराहे पर तसवीर वालों की दुकानों को देखा नहीं है कि इन तसवीरों में क्या है? आपको इनमें अस्सी फीसदी तसवीरें वे मालूम पड़ेंगी, जो मनुष्य की वासना को उद्दीप्त करती हैं, जो आदमी के अंदर के शैतान को भड़काती हैं। जो हमारी माँ को, बहन को और बेटी को वेश्या के रूप में प्रस्तुत करती हैं, उस तसवीर के माध्यम से। नारी, जिसको हमने सम्मान दिया, जिसको हमने माँ कहा, बेटी कहा, बहन कहा, उसकी शकल इन तसवीर वालों ने इस तरीके से हमारे सामने प्रस्तुत की है, जिससे कि हमारी आँखें खराब हो जाएँ और जो औरत हमें दिखाई पड़े, वो वेश्या के रूप में दिखाई पड़े और अपनी कामना की पूर्ति के लिए दिखाई पड़े। इस तरह तसवीर वालों ने हमारी आँखें बदल दी हैं।
साथियो! तो क्या इस बात की जरूरत नहीं है कि हम फिर से इस तरीके से लोगों में तसवीरों के प्रति अभिरुचि पैदा करें, जिसमें शिवाजी की जद्दोजहद और त्याग-बलिदान का स्वरूप परिलक्षित हो? क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि महर्षि दधीचि जिन्होंने अपनी हड्डियों तक का दान कर दिया था, उनकी तसवीरें लोगों को दें? ऐसी तसवीरें क्या कहीं दिखाई पड़ती हैं? मैंने तो आज तक नहीं देखीं। उनके जैसा हिंदुस्तान में त्याग करने वाला अनोखा उदाहरण एकमात्र वही थे। आज हम ऐसा अनोखा उदाहरण प्रस्तुत करने वाले की एक भी तसवीर नहीं खरीद सकते। जिन लोगों ने स्वराज्य के लिए और उसके पूर्व स्वराज्य के लिए त्याग-बलिदान और कुरबानियाँ दी हैं, क्या आपके पास उनकी तसवीरें हैं? गणेश जी की तसवीर तो आप कहीं से खरीद सकते हैं, लेकिन ऋषि दधीचि की कोई तसवीर आपके नहीं मिल सकती।
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? यह भी एक ऐसा काम है, जो मनुष्य के जीवन को और मनुष्य की दिशाओं को हिलाकर रख सकता है। अगर कहीं ऐसा उद्योग खड़ा करने में हम समर्थ हो जाएँ, कहीं हम स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को और अमुक समस्याओं को हल करने के लिए प्रकाशन का बड़ा संस्थान खड़ा कर सके, तो फिर मजा आ जाए। आप पैसे वालों के पास जाना और उनसे कहना कि हमारे पास बहुत सारे कीमती काम करने के लिए पड़े हैं। साहित्य के अलावा कला के मंच अभी जिंदा हैं। सरस्वती का प्रतीक कला के मंच क्या गजब ढा रहे हैं, आपको दिखाई नहीं पड़ता? हिंदुस्तान में जितनी संख्या में सारे अख़बार प्रकाशित होते हैं, हिंदी से लेकर अँग्रेजी तक सब भाषाओं के, उससे तीन गुने पाठक वे हैं जो सिनेमा को रोज देखने जाते हैं। सिनेमा अगर हमारे हाथ में रहा होता, सिनेमा तंत्र को चलाने के लिए अगर हमको धन मिल गया होता, तो मित्रो! हमने ऐसी सैकड़ों, हजारों फिल्में नई बनाकर समाज में फेंक दी होतीं, जिसमें कि ऋषियों का जीवन, देवताओं का जीवन, संतों का जीवन, महापुरुषों का जीवन, उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए होते। वे सारी-की-सारी घटनाएँ, जो लोगों को अपने जीवन में क्राँति और हलचल पैदा करने वाली दिखाई दे सकती थीं, उनको बनाने के लिए हम समर्थ हो सकते थे, लेकिन करोड़ों रुपया फिल्म उद्योग में लगा हुआ है।
मित्रो! अगर आप चाहें कि थोड़ा-सा भी पैसा ऐसे कामों के लिए मिल जाए, तो लोग तैयार नहीं हो सकते। क्योंकि वे देखते हैं कि ज्यादा मुनाफा इसमें नहीं है। वे यह देखते हैं कि लोगों की माँग क्या है? जमाने की माँग क्या है? जमाना जो चीज माँगता है, हम वह बराबर देते हुए चले जाते हैं। जमाना बीड़ी माँगता है, इसलिए हम बीड़ी देते हुए चले जाते हैं। जमाना शराब माँगता है और हम शराब की फैक्ट्रियाँ खोलते हुए चले जाते हैं। जमाना जुआ माँगता है, हराम का पैसा माँगता है और हम देते हुए चले जाते हैं। जमाना जो माँगता है, उसको हम देते हुए चले जाएँगे, तो मित्रो! जमाने को फिर उठाएगा कौन? जमाने को दिशाएँ देगा कौन? जमाने में हेर-फेर करेगा कौन? जमाने में हेर-फेर करने और दिशाएँ देने के लिए जरूरत उन लोगों की है, जो लोगों के दिमागों को मोड़ने में समर्थ हो सकें और लोगों की समझ को चैलेंज कर सकें, लोगों की समझ को ढालने के लिए नया प्रयास कर सकें।
धर्मतंत्र से चलें ढेरों प्रयास
मित्रो! इस तरह के प्रयास असंख्य दिशाओं में किए जाने आवश्यक हैं। हम और आप अपने संत के रूप में, ब्राह्मण के रूप में, पंडित के रूप में, कथावाचक के रूप में, और ज्ञानी के रूप में जाएँगे और धर्ममंच का सहारा लेकर धर्म के माध्यम से जहाँ कहीं भी हमको धार्मिक भावनाओं की जगह दिखाई पड़ेगी, वहाँ हम बदलने की कोशिश करेंगे, पलटने की कोशिश करेंगे। मित्रो! समाज को ऊँचा उठाने के लिए, राष्ट्र को ऊँचा उठाने के लिए, मानवता को ऊँचा उठाने के लिए आपकी जरूरत है। आपको धर्मवीर होना चाहिए और जहाँ कहीं भी धर्म की किरणें दिखाई पड़ती हों, धर्म के बीजांकुर दिखाई पड़ते हों, वहाँ जाकर के आपको खाद के तरीके से, पानी के तरीके से बरसना चाहिए, ताकि जहाँ कहीं धर्म के बीजांकुर जिंदा हों, वहाँ उनको उगाया जा सके, जगाया जा सके। ये आपका वैयक्तिक काम है और निजी काम है। इसे आप कर सकते हैं और आपको करना चाहिए। उसके अतिरिक्त ढेरों-के काम पड़े हैं। उनके लिए दूसरे आदमियों के सहायता की भी जरूरत है। इसके लिए आप वहाँ जाना, जहाँ कहीं भी आपको बुद्धि दिखाई पड़ती हों, चमक दिखाई पड़ती हो, प्रतिभाएँ दिखाई पड़ती हों, विभूतियाँ दिखाई पड़ती हों, प्रभाव दिखाई पड़ता हो, ज्ञान दिखाई पड़ता हो, धन दिखाई पड़ता हो।
आप उन सब लोगों के पास जाना और खुशामदें करना। आप उनको लेकर के चले आना और इस मोरचे पर खड़े करना, जहाँ कि आगे वाली लाइन में आप खड़े हैं। आपके दायीं ओर, बायीं ओर, आपके आगे और पीछे वे लोग सहायकों के रूप में साथ-साथ चलें। जिस राह पर चलते हुए हमको इन्सान के अंदर भगवान् की स्थापना करनी है और पृथ्वी पर स्वर्ग का अवतरण करना है, उस राह के लिए आपको अकेले चलना ही काफी नहीं है। प्रतिभावान विभूति को भी साथ-साथ लेकर चलना है। आप से ऐसा है मेरा निवेदन और ऐसा है अनुरोध। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥