उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
अखण्ड ज्योति नवम्बर २०१३
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
देवियो, भाइयो! कौन से कार्य मुनासिब हैं और कौन गैरमुनासिब हैं? कौन से काम करने से हमारा वास्तविक लाभ होता है और कौन से लाभ नहीं होता? इन वास्तविक सवालों का जबाब जानते हुए यदि हम अपना काम शुरू करें, तो मैं समझूँगा कि आपने कर्मयोग कीफिलॉसफी को जान लिया। गीता में कर्मयोग को खूब विस्तार से समझाया गया है। उसमें समझाया गया है कि आदमी में काम करने की ताकत तो है नहीं, कर्म करने की कुशलता तो है नहीं। क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, यह सब कुछ पता ही नहीं है। तमीज हैनहीं। हर काम अस्त-व्यस्त बेतुके ढंग से, बेसिलसिले ढंग से, बेतरतीब ढंग से हम काम करते रहते हैं। हमको थकान भी आती है। कोल्हू के बैल के तरीके से चलते तो रहते हैं, पर हम फायदा नहीं उठा पाते। श्रम के रूप में, समय के रूप में हमको जो भी संपदा मिली हुईहै, उसका फायदा हम नहीं उठा पाते हैं। कर्मयोग का मतलब यही है कि किसी काम को हम कितनी कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकते हैं। योग यही है।
ज्ञानयोग किसे कहेंगे?
मित्रो! ज्ञानयोग का मकसद यह है कि जिस तरह से हमको ऐसा बढ़िया और बेहतरीन शरीर मिला हुआ है कि हम क्या कह सकते हैं? देखने में कैसे खूबसूरत दिखता है इसलिए शीशे में हम बार-बार अपना चेहरा देखते हैं। बार-बार अपनी हजामत बनाते हैं। बार-बार क्रीमलगाते हैं, पाउडर लगाते हैं। बढ़िया वाले कपड़े पहनते हैं और जेवर पहनते हैं। हमको मालूम है कि कैसा बढ़िया शरीर है। शरीर से हम पैसा कमा कर लाते हैं और मजा करते हैं। विषय-वासनाओं के लाभ हमें शरीर के द्वारा मिलते हैं, जिन्हें हम पूरा करते हैं। अहंकार कीतृप्ति शरीर के द्वारा होती है। यदि शरीर का मूल्य हम समझते और इसका ठीक से इस्तेमाल कर सके होते, तो मजा आ जाता। ज्ञानयोग की फिलॉसफी यही है, कायदा और कानून यही है कि हमको अपने जीवन में किस तरह से कर्म करना चाहिए? कर्म हमारे लिएकिस तरह से फायदेमन्द हो सकते हैं और किस तरह से हानिकारक हो सकते हैं। कर्मयोग की फिलॉसफी, ज्ञानयोग की फिलासफी यही कहती है कि हमारे दिमाग और हमारी अक्ल का उच्चस्तरीय सदुपयोग होना चाहिए।
मित्रो! हमारी अक्ल हमारे शरीर की अपेक्षा हजारों गुनी अधिक ताकतवाली है। हमारा यह कम्प्यूटर इतना ज्यादा कीमती है। छेनी और हथौड़ा तो कीमती हैं ही, फावड़ा तो कीमती है ही, लेकिन हमारा कम्प्यूटर उससे भी ज्यादा कीमती है। हम जब वकील बन जाते हैं, तोढेरों पैसा कमा कर लाते हैं। इंजीनियर होते हैं तो और भी अधिक पैसा कमाते हैं। व्यापारी होते हैं तो और भी पैसा कमाकर लाते हैं। कलाकार होते हैं तो और भी कमाते हैं। शरीर की अपेक्षा हमारी अक्ल जितनी पैनी होती है, उतने ही ज्यादा हम अक्लमन्द हो जाते हैं, बुद्धिसम्पन्न हो जाते हैं। जब हमारी अक्ल, हमारा कम्प्यूटर बढ़ जाता है, तब हमारी समझ भी बढ़ जाती है कि इसका इस्तेमाल हमें कब और कहाँ, कैसे करना चाहिए। हमारी समझ कहाँ जानी चाहिए और कहाँ नहीं जानी चाहिए। हमारे दिमाग की लहरें और हमारेदिमाग की धारायें किधर बहनी चाहिए और किधर नहीं बहनी चाहिए? अभी हमारे दिमाग की धारा ऐसे गलत तरीके से बहती है कि हमारे खेतों का सफाया करती चली जाती है। अगर इन धाराओं को ठीक तरीके से बहाना हमको आता होता, अगर हमने इन्हें नदियों मेंहोकर बहाया होता, नहरों में होकर बहाया होता, तालाबों में होकर बहाया होता, तो हमारे पास पानी का बहुत बड़ा जखीरा होता और उससे हम बहुत फायदा उठा सके होते।
साथियो! अक्ल ने हमको इतना धोखा दिया, हमको इतना हैरान-संतापित किया कि इससे तो अच्छा होता कि हमको अक्ल मिली ही नहीं होती, तो हम अच्छे होते। जानवरों के तरीके से अगर हम बेअकल होते, तो सुखी रहते। जानवर सबेरे उठते हैं, चिड़िया सबेरे उठतीहै और राम का नाम लेकर चहचहाती हुई, गुनगुनाती हुई, गीत गाती हुई सारे दिन उछलती-फुदकती हुई, दाने खाती हुई, घास-पात खाती हुई नहाती हुई, मोरों के तरीके से नाचती हुई और कोयलों के तरीके से कुहुकती हुई सारे दिन घूमती है। फिर शाम को आकर वहीसंकीर्तन गाती और अपना तम्बूरा बजाती हुई पेड़ के ऊपर आराम से सो जाती है। लेकिन हमारी ऐसी शैतान अक्ल ने हमारी जिंदगी को खा लिया। भगवान का सबसे प्यारा वाला बेटा, जो इस संसार की सैर करने के लिए भेजा गया था। इस संसार में सिवाय आनन्द केउसे किसी दूसरी चीजों की कोई जरूरत नहीं थी और यहाँ आनन्द के अलावा और कुछ है भी नहीं। ‘‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’’-अर्थात् भगवान की यह दुनिया सत्य, शिव और सुन्दरता से भरी हुई पड़ी है। यहाँ पर इस जीवन में आनन्द के अलावा कुछ है ही नहीं। इन सारी कीसारी चीजों को छोड़कर हम चुड़ैल को चाहते हैं। इस बेहूदी अक्ल ने हमारे सामने नरक खड़ा कर दिया और स्वर्ग हमारे हाथ से छीन लिया।
कैसे जिएँ सुखी जीवन
मित्रो! अगर अक्ल का इस्तेमाल करना आया होता, तो हमारा ज्ञानयोग पूरा हो सकता था। हम ज्ञानयोगी बने रह सकते थे और हमारे जीवन में हँसी-खुशी इतनी ज्यादा होती कि हम चौबीसों घंटे खुश दिखाई पड़ते और अपने चारों ओर खुशियाँ बिखेरते फिरते। लेकिनआज तो हम नर्क में डूबे हुए हैं। नर्क के अलावा हमारे पास और कोई चीज नहीं है। भर्तृहरि ने वर्तमान परिस्थितियों की समीक्षा करते हुए लोगों से सवाल पूछा है-‘‘संसारे मनुष्याः वदन्ति अति सुखम् वसन्ति किं किं?’’ अरे लोगो! तुम में से कोई एकाध ऐसा हो जो यहकह सकता हो कि मैंने सुखी जीवन जिया, तो आगे बढ़कर अपना नाम बताओ। तुममें से कोई आदमी जो यह कह सकता हो कि हमने शान्ति का, चैन का जीवन जिया, आनन्द का जीवन जिया, हँसता हुआ जीवन जिया? कोई है आपमें से? कोई नहीं है। अरे लोगो! तुमने सुख नाम की चीज सुनी तो होगी? परन्तु किसी ने सुख पाया हो तो मुझे अपना नाम बता दे। कोई है आप में से? नहीं साहब! हम तो सुखी नहीं हैं। नहीं बेटे, कोई सुखी नहीं है। सारे के सारे कुढ़न से भरे हुए हैं। कुढ़न के अलावा कुछ नहीं है। हमारी अक्ल और हमारेदिमाग कैसे खराब और बेहूदे हैं।
मित्रो! इस अक्ल का किस प्रकार से इस्तेमाल किया जाय? इसे कहाँ और कैसे फिट किया जाय? अक्ल का फायदा कैसे उठाना चाहिए और अक्ल को किस रास्ते पर चलना चाहिए? इस विधा का नाम था-ज्ञानयोग। ज्ञानयोग माने-‘साइंस ऑफ सोल’-अर्थात् अपने बारेमें जानना। अपने कर्म को ठीक तरह से इस्तेमाल करना, अपने ज्ञान को ठीक तरह से इस्तेमाल करना और अपनी भावनाओं का ठीक तरह से इस्तेमाल करना ही ज्ञानयोग है। भावनायें, संवेदनाएँ, फीलिंग्स जितनी ज्यादा सरसता से भरी हुई होंगी, जीवन उतना हीअधिक आनन्दमय होगा। भगवान को ‘‘रसो वै सः’’ कहा गया है। भगवान ही रस है, आनन्द है। रस क्या है? भगवान है। रस कौन है? हमारी जीवात्मा है, जो रस से भरी पड़ी है। आनन्द के अलावा इसमें और कुछ है ही नहीं। अच्छा महाराज जी! आनन्द कहाँ रहता है? अमृत कहाँ रहता है? बेटे, केवल हमारी भावनाओं में रहता है। हमारी भावनाओं में कभी-कभी कोई चिंगारी उठती दिखती है और हमारी आँखें चमक उठती हैं। हमारे घर जब बेटा जन्म लेता है, तो खुशी से हमारा जीवन भर जाता है। क्या बात है बेटे में? बेटा तो हड्डी माँसका है। नहीं महाराज जी! हड्डी माँस का नहीं है। किसका है, जिसके पीछे हमारा प्यार है? हमारी प्रेयसी और हमारी प्रेमिका कैसी सुन्दर और प्यारी लगती है। यह कहाँ से प्यारा लगता है? स्त्री में क्या बात है, बताना जरा? इसमें माँस है, हड्डियाँ हैं, खून है। और क्या है? साहब कुछ भी नहीं है, फिर भी हमको बड़ी प्यारी लगती है।
बेटे, उसमें तुझे क्या चीज प्यारी लगती है, बता तो सही? प्यार। हाँ बेटे, मैं यही कह रहा था। जिस पर आपका प्यार रहेगा, वह कितना खुश, कितना मीठा, कितना मधुर, कितना जायके वाला हो जायेगा। जब हम पैसे से प्यार करते हैं, तो पैसा हमको प्राणों से भी ज्यादाप्यारा मालूम पड़ता है। जब हम अपने बेटे से प्यार करते हैं, तो वह हमें प्राणों से भी ज्यादा मालूम पड़ता है। और किसको प्यार करते हैं? जब हम मकान को प्यार करते हैं, तो वह हमको प्राणों से प्यारा लगता है। अपने सम्मान, ऐश्वर्य और यश को हम प्यार करते हैंऔर वह हमें प्राणों से भी ज्यादा प्यारा लगता है। हर चीज इतनी सुंदर, ऐसी जायकेदार, ऐसी मीठी, ऐसी मधुर मालूम पड़ती है कि हम क्या कह सकते हैं।
मित्रो! चीजों में कोई मिठास है क्या? चीजों में कोई मिठास नहीं है। यह मिठास कहाँ से आती है। कहीं से नहीं आती। यह हमारे भीतर से निकलती है और चाँद के तरीके से हम जिसके ऊपर अपना प्यार फेंक देते हैं, परावर्तित होकर वही प्यार आनन्द से भरकर चमकउठता है। जब हम अपनेपन को भुला देते हैं, तब सारा का सारा प्यार समाप्त हो जाता है, फिर चाहे वह जड़ वस्तु हो अथवा चेतन। उदाहरण के लिए हमने अपना मकान बेच दिया और वह पराया हो गया। देखिये साहब! आपका मकान खराब हो रहा है, टूट-फूट हो रही है।दरारें पड़ रही हैं। हो जाने दीजिए, हमें इससे क्या मतलब? अरे साहब! आपने इसे बनवाया था और हरेक को दिखाते थे कि देखो हमारा मकान कितना अच्छा है और अब कहते हैं कि मरने दीजिए, टूटने दीजिए। नहीं, भाई! अब हमने इसे बेच दिया है। नहीं साहब! आपनेही तो इसे बनवाया था। तब बनाया था, लेकिन अब इससे हमारा कोई ताल्लुक नहीं है। भगवान करे अगर यह कल गिरनेवाला हो, तो आज ही गिर जाय।
ज्ञानयोग का तत्त्वदर्शन
मित्रो! यह क्या हो गया? हमने अपनापन समेट लिया। जायका खत्म हो गया। यह हमारापन था-अपनापन था, जिसको हम भावनायें कहते हैं, संवेदनाएँ कहते हैं। अगर हमारी यह भावनायें-संवेदनाएँ विकसित हुई होतीं, तो अपने प्यार को हमने जहाँ कहीं भी फेंकाहोता, वहीं जायकेदार, वहीं खुशबूदार वहीं खूबसूरत, उतना ही सुन्दर, उतना ही आनन्द से भरा हुआ होता और हम चारों ओर आनन्द के समुद्र में लहरा रहे होते। अगर हमने अपनी संवेदना और भावना का ठीक से इस्तेमाल करना सीखा होता, तो जीवन कितना सुन्दरऔर शानदार होता। लेकिन हमने इन भावनाओं का मूल्य नहीं समझा। हमने अपनी भावनाओं को जगाया ही नहीं। भावना का विकास हम कैसे कर सकते हैं और कैसे उसका फायदा उठा सकते हैं? भावनाओं का कैसे विस्तार कर सकते हैं? हमारी फीलिंग्स और हमारीसंवेदनाएँ कैसे हमारे काम आ सकती हैं? कैसे हमारे भीतर आग जला सकती हैं और जिस किसी के ऊपर हम उन्हें बिखेर दें, तो वह कैसे निहाल हो सकता है? इस सारी की सारी फिलॉसफी का नाम है-ज्ञानयोग।
मित्रो! ज्ञानयोग या भक्तियोग की शुरुआत या अभ्यास हम भगवान से तो करते हैं, लेकिन यह अभ्यास भगवान तक सीमित नहीं रह सकता। गंगा हिमालय से निकलती है, पर सीमित नहीं रह सकती। यह सीधी सी बात आपकी समझ में आ जानी चाहिए। नहींसाहब! भगवान में भक्ति होती है। हाँ बेटे! भगवान में भक्ति तो होती है, यह हमने मान लिया, लेकिन अखाड़े में कसरत सीखी तो जा सकती है, परन्तु उसका व्यवहार या पता तो तब चलता है, जब दंगल में उतरा जाय। नहीं साहब! व्यायामशाला में छः महीने में कोईइम्तिहान नहीं हो सकता। नहीं साहब! पूजा की चौकी पर इम्तिहान होगा। नहीं बेटे! पूजा की चौकी पर कोई इम्तिहान नहीं हो सकता। पूजा की चौकी तो एक अखाड़ा है, एक व्यायामशाला है। वहाँ आप कसरत करना सीखें, तेल मालिश करना सीखें, दंड पेलना सीखें, फिरआप दंगल में मुकाबले में उतरें। हाँ साहब! दंगल में मुकाबला होगा। चलिए लाठी चलाइये, तब हम जानेंगे कि आपने व्यायाम किया कि नहीं किया।
मित्रो! सांसारिक क्षेत्र में वही मोहब्बत, जो हम भगवान के आधार पर, भगवान के नाम से स्वीकार करते हैं, सीखते हैं, अभ्यास करते हैं। वही मोहब्बत अपने समीपवर्ती क्षेत्र में अगर हम बिखेर सकें, अपनी बीबी पर बिखेर सकें, अपने बच्चों पर बिखेर सकें, अपनेमोहल्ले वालों पर बिखेर सकें, पड़ोसियों पर बिखेर सकें, जड़-चेतन के ऊपर बिखेर सकें। जिन-जिनके ऊपर बिखेर सकें, तो मित्रो! हमारा पहलवान होना सच। हमारे पहलवान की सही और सच की परख यही है कि हमारी भक्ति का इम्तिहान भगवान तक सीमित नहींहो। ध्यान में आपने क्या देखा? भगवान को देखा, मुझे नहीं मालूम। नहीं साहब! हमको ध्यान में हनुमान जी दिखते हैं। यह तो अच्छी बात है। ध्यान में हमको प्रकाश दिखता है। यह तो और भी अच्छी बात है। लेकिन जिस प्रकाश की हम बात करते हैं, या हम सिखातेहैं, वह यह चमक वाला प्रकाश नहीं है। आप तो बार-बार चमक पर ले जाते हैं। साहब! हमको चमक दिखाई पड़ती है। हमको चमक दिखाई नहीं पड़ती।
मित्रो! चमक दीखने या न दीखने से आध्यात्मिक उन्नति का कोई ताल्लुक नहीं है। नहीं महाराज जी! हमको चमक दीखती है, हमको नहीं दीखती है। तो, आ बेटे, हम तुझे अभी चमक दिखा देते हैं। सौ वॉट का बल्ब ले ले और उसे जलाकर थोड़ी देर आँख खोलकर देख लेऔर फिर आँखें बंद कर ले। हाँ महाराज जी! प्रकाश दिख रहा है। देख ले, मैंने तुझे प्रकाश दिखा दिया न, देख ले, कैसा मजा आ गया। प्रकाश देखता है कि चमक देखता है? चमक से क्या मतलब है? चमक से कोई मतलब नहीं है। अध्यात्म का चमक से कोई ताल्लुकनहीं है। चमक दिखाई पड़ती है, तो मुबारक, नहीं दिखाई पड़ती है तो उससे भी अच्छा। नहीं महाराज जी! हमें प्रकाश दिखाई पड़ता है। बेटे इस चमक से, इस प्रकाश से अध्यात्म का कोई ताल्लुक नहीं है। वह प्रकाश अलग है, जिसे हम ‘लेटेन्ट लाइट’ कहते हैं। इसका अर्थहोता है-ज्ञान। ज्ञान संवेदना से, चेतना से ताल्लुक रखता है और चमक एक भौतिक चीज है। सूरज एक भौतिक चीज है हनुमान एक भौतिक चीज है। चण्डी एक भौतिक चीज है, क्योंकि वह उसका शरीर है। जो चीजें शरीर हैं, वे सब भौतिक हैं और भौतिक चीजों सेअध्यात्म की राह पर चलने से थोड़ी मदद तो मिल सकती है, लेकिन वह आध्यात्मिकता का उद्देश्य पूरा नहीं कर सकती।
सम्वेदनाएँ जागेंगी तो अध्यात्म आएगा
मित्रो! आध्यात्मिकता का उद्देश्य पूरा करती हैं हमारी संवेदनाएँ। अगर हमारे अंदर संवेदनाओं का विकास हुआ है, हमारे अंदर मोहब्बत का विकास हुआ है। प्यार का हमारे भीतर विकास हुआ है, तो हम हर जगह अपने ज्ञान को बिखेरते फिरेंगे। प्यार की वजह से दुनियाचाहे जैसी भी क्यों न हो, हमारे लिए इतनी ज्यादा सुखद, इतनी ज्यादा आरामदायक, इतनी ज्यादा उन्नतिशील, इतनी ज्यादा संवेदनशील हो जायेगी कि हम उस आनन्द के समुद्र में डूबते हुए दिखाई पड़ेंगे। तब आनन्द हमारे चारों और फैला हुआ-बिखरा हुआ पड़ामिलेगा। लेकिन यह हमारा कैसा दुर्भाग्य है, कैसी हमारी बेवकूफी और बेअकली है कि हम अपने आपको नहीं जान सके। इस बेअकली पर हमें एक कहानी याद आ गयी। कई जुलाहे थे। वे मेला देखने गये। जब वे मेला देखने के लिए चलने लगे, तो उनकी औरतों ने कहाकि देखो जी, तुम सब जा तो रहे हो लेकिन जितने लोग जा रहे हो उतने ही लौटकर आना। ऐसा मत करना कि एकाध कोई मेले में खो जाय और हम विधवा हो जायँ। फिर हम लोग जायेंगे कहाँ? इसलिए मेला जाना चाहते हो, तो तुम सब मिलकर यह कसम खाओ किहम जितने लोग जा रहे हैं, उतने के उतने ही मेला देखकर आ जायेंगे।
जुलाहों ने कहा कि अच्छा हम सबको गिन लेते हैं। उन्होंने गिन लिया-१,२,३.......१०। दस के दस थे। अच्छा हम दस आदमी जा रहे हैं और लौटकर दसों आदमी आ जायेंगे। अच्छा तो आप जाइये। वे मेला देखने चले गये। मेला देखकर जब जुलाहे गाँव के पास आये तोउन्होंने कहा कि हमारी औरतें यह सवाल पूछेंगी कि सब लोग आ गये कि नहीं। चलो गिन लेते हैं। पहले जुलाहे ने गिना तो नौ ही लोग निकले। उसने कहा-अच्छा भाई! तुम भी गिनो। दूसरे ने भी गिना तो नौ ही निकले। इस तरह बारी-बारी से सभी ने गिना और एक कमअर्थात् नौ ही निकले। सबने कहा कि एक आदमी कहीं चला गया, कहीं गुम हो गया। हममें से एक मर गया। अब एक औरत जरूर विधवा हो जायेगी। उसके बाल-बच्चे क्या खायेंगे? उस बेचारी का क्या होगा? वह हम सबको पकड़ लेगी और रोयेगी, तो हम सब क्याकरेंगे? सभी जुलाहे बैठकर रोने लगे कि हममें से एक मर गया। हममें से एक कहीं चला गया। अरे! उसे कोई भी ढूँढ़कर ला दे, तो हमारा काम बने।
कहीं से एक समझदार आदमी आ गया। बोला-भाई! क्या मामला है? तुम सब क्यों रो रहे हो? अरे साहब! हममें से एक आदमी गायब हो गया है। कहाँ गायब हो गया? मेले में गायब हो गया? मेले में तुम कितने आदमी गये थे? दस आदमी। अब कितने हो? नौ। नौआदमी किस तरह से हो, गिनकर बताओ। उन्होंने बारी-बारी से एक, दो, तीन.....करके दिखाया और कहा देख लीजिए साहब! हम नौ ही हैं। वह व्यक्ति समझ गया कि ये अपने आपको नहीं गिनते हैं। इसलिए नौ हैं। उसने कहा कि अच्छा भाई! ऐसा है कि तुम घरजाओगे तो तुम्हारे ऊपर मुसीबत आयेगी और तुम्हारी औरतें दुखी होंगी। तुम्हारा जो एक आदमी खो गया है, हम उसे ढूँढ़ लायेंगे, लेकिन तुम लोगों को उसकी फीस देनी पड़ेगी। अरे साहब! हमारे पास जो कुछ भी है, वह आप सब ले लीजिए। अच्छा तो जेब में जो कुछ भीहै सब निकालिये। एक की जेब से दो रुपये चार आने निकले। दूसरे से कहा कि आप दिखाइये? हमारे पास तो कुछ भी नहीं है। कम्बल है चलिए रखिये। तुम्हारे पास क्या है? उसके पास भी चार रुपये थे। रखिये, जो भी तुम्हारे पास है। तुम्हारे पास क्या है? पीतल का लोटाहै। सबका सामान इकट्ठा कर लिया। जब पचास रुपये का सामान इकट्ठा हो गया, तो उसने कहा कि देखिए अब हम एक आदमी को जिन्दा किये देते हैं।
उसने सबको एक लाइन में खड़ा कर दिया और पहले वाले व्यक्ति के गाल पर एक चपत लगाया और कहा कि देखो बता देना कि लगा कि नहीं? हाँ साहब! लग गया। अच्छा तो तुम जिंदा हो। हाँ साहब! हम जिंदा हैं। अब दूसरे व्यक्ति के गाल पर चपत लगाया। अच्छा, तुम भी जिंदा हो। इस प्रकार दसों जुलाहों को चपत लगाई और दस की गिनती पूरी कर दी। अच्छा भाई तुम्हारा नम्बर कौन सा है? दस है। देख लो, एक आदमी जिंदा हो गया न। हाँ साहब! हो गया। इतना कहकर वह आदमी सब सामान लेकर चला गया। वे दसों हँसते हुएचले गये और गाँव में पहुँचकर कहा कि देखिये हम सब दस के दस जिंदा हैं।
खुद को जानें, स्वयं को पहचानें
मित्रो! हम अपने आपको भूल जाते हैं। यह हमारी सबसे बड़ी खराबी है कि हम अपने आपको भूलकर पैसे को ढूँढ़ते हैं। मकान को ढूँढ़ते हैं। यश को ढूँढ़ते हैं। सबको ढूँढ़ते हैं, पर अपने आपको भूल जाते हैं। अपने आपको भूलने का परिणाम है कि आज हमारी यह दुर्गति होरही है। जीवन में हमने अपने आपको भुला दिया और बाकी सब याद रहा। यदि हम अपने आपको जान पायें और अपने आपका ठीक से इस्तेमाल कर सकें तो मित्रो! हमारा जीवन धन्य हो जायेगा। अपने आपको जान पाने का मतलब है कि हम अपनी गतिविधियों केबारे में, अपने स्वरूप के बारे में, अपनी शक्तियों के बारे में, अपने क्रियाकलापों के बारे में और अपने भविष्य के बारे में, अपने बारे में जान लें, तो बस मजा आ जाय। इसी का नाम अध्यात्म है। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है अध्यात्म। नहीं साहब! माँगने का नामअध्यात्म है। नहीं बेटे, यह गलत है। करने का नाम अध्यात्म है। नहीं, यह भी गलत है। वरदान माँगने का नाम अध्यात्म है। नहीं, यह गलत है। बेटे, कोई वरदान नहीं दे सकता, सिवाय स्वयं आपके। आप अपने आपको वरदान देंगे, तो बाकी सब लोग आपको वरदानदेंगे। अगर आप अपने आपको शाप देंगे, तो सारी दुनिया आपको शाप देगी।
मित्रो! यह दुनिया गुम्बद की आवाज है। आप चिल्लाइए-बेवकूफ। गुम्बद भी चिल्लायेगा-बेवकूफ। पंडित जी की आवाज लगाओगे तो सारा गुम्बद चिल्लायेगा-पंडित जी। आपके अलावा आपको शाप देने वाला दुनिया में और कोई भी नहीं है। आपके अलावा आपकोवरदान देने वाली शक्ति किसी में नहीं है। अतः आप अपने बारे में सोचिए, अपने बारे में जानिए। नाक रगड़ना बंद कीजिए, खुशामदें करना बंद कीजिए, दिये जलाना बंद कीजिए, हाथ पसारना बंद कीजिए। हाथ पसारना है तो अपने आपके सामने हाथ पसारिए, ताकिसारी दुनिया आपको देती हुई चली जाय। आपको अपने बावत ही मालूम नहीं है। उदाहरण के लिए हमारे आँख की पुतली की ताकत इस दुनिया के सारे के सारे सौन्दर्य से कहीं ज्यादा है। हमारे आँख की रोशनी इतनी कीमती है कि सारी दुनिया का विशाल सौन्दर्य एक ओरऔर एक आँख की पुतली एक ओर। अगर आँख की पुतली खराब हो जाये तो सारी दुनिया का सौन्दर्य गायब हो जायेगा।
मित्रो! हमारे कान की झिल्ली एक ओर है और सारी दुनिया की आवाजें एक ओर हैं। अगर हमारे कान की झिल्ली खत्म हो जाय, तो दुनिया की सारी आवाजें बंद हो जायेंगी। सारे गीत बंद हो जायेंगे। सारे प्रवचन बंद हो जायेंगे। बातचीत बंद हो जायेगी। सलाह-मशविरा बंदहो जायेगा। महाराज जी! कान की झिल्ली बंद हो जाये तब? बेटे, हम अपनी दुनिया के मालिक हैं। हम दुनिया के गुलाम नहीं हैं। भाग्य को हमने बनाया है। अपने भाग्य के निर्माता हम स्वयं हैं। हम आज जैसे भी हैं, जो कुछ भी हैं-घटिया से घटिया अथवा बढ़िया सेबढ़िया-यह बनावट हमारी है। यह कृति हमारी है, वह जैसी भी कुछ है। गीता-१७/३ में कहा गया है-‘‘श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥’’ अर्थात् मनुष्य की जैसी श्रद्धा होती है, वैसा ही उसका स्वरूप होता है। मनुष्य क्या है? इसका विश्लेषण करने पर पताचलता है कि आदमी की जैसी मान्यताएँ, जैसा विश्वास, जैसी श्रद्धा होती है, उसका बाहरी स्वरूप भी वैसा ही होता है। काश! हम इस रहस्य को जान पाते, तो मजा आ जाता।
(क्रमशः)
परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी (२)
[गतांक से आगे]
हम मात्र शरीर नहीं हैं
मित्रो! एक सिंह शावक अपने झुंड से बिछुड़ गया और बकरियों के बीच में पलने लगा। वह भी बकरियों के साथ में-में...........करता रहा और घास-पत्तियाँ खाता रहा। एक दिन उसने अपना चेहरा पानी में देखा, तो पता चला कि मैं शेर हूँ। जब उसे मालूम पड़ा कि अगर मैंशेर हूँ, तो मेरा रहन-सहन, मेरा काम-धाम, मेरे विचार करने का तौर-तरीका भी अलग-अलग होना चाहिए। भेड़ों से भिन्न होना चाहिए। उसने दहाड़ना शुरू कर दिया, उछलना और छलांग मारना शुरू कर दिया। खेलना और शिकार करना शुरू कर दिया। उसकी जिंदगीबदल गयी। मित्रो! सिंह शावक के तरीके से आपने भी अपनी गतिविधियों को बदल दिया होता, तो मजा आ जाता। परन्तु नहीं, हम मिट्टी हैं और मिट्टी में भूल गये, मिट्टी में रम गये। शरीराध्यास अब हमारे ऊपर इतना हावी हो गया है कि अब हम शरीर-पोषण केअलावा कुछ भी नहीं कर सकते। हम क्या हैं? हम शरीर हैं। हम जीवात्मा हैं? नहीं साहब! हमको नहीं मालूम कि हम जीवात्मा हैं कि और कुछ हैं। हम तो यही जानते हैं कि हम जीवात्मा नहीं हैं, वरन् शरीर हैं। नहीं बेटे, तू जीवात्मा है। नहीं साहब! हम जीवात्मा नहीं हैं।हम तो शरीर हैं और शरीर का फायदा हमारा फायदा है। शरीर का यश हमारा यश है। शरीर का लाभ हमारा लाभ है। शरीर को जो कुछ भी मिलता है, वही हम हैं। शरीर माने हम और हम माने शरीर।
बेटे! ऐसा नहीं है। शरीर तो आपका नौकर है। नहीं साहब! नौकर नहीं है। यह तो हमारा मालिक है और हम नौकर हैं। कहिए-मिनिस्टर साहब! आप क्या हैं? हम तो चपरासी के नौकर हैं। चपरासी हमको खाना खिला सकता है, पानी पिला सकता है। चपरासी देवता की जयहो। चपरासी देवता आप अन्नदाता हैं। आप हमको पानी पिला सकते हैं। आप इन्द्र भगवान् हैं। आप चाहें तो हमें भूखे-प्यासे मार सकते हैं। आप चाहें तो हमारे सोने का इन्तजाम कर सकते हैं और आप चाहें तो हमें रात भर खड़े रहने के लिए कह सकते हैं। चपरासीदेवता हमारा उद्धार कीजिए। आप हमको पानी पिला दीजिए। बार-बार हम कह रहे हैं कि हमें कोई पानी नहीं पिलाता, आप तो हमारा भला कर दीजिए।
मित्रो! जिस तरह से एक मनुष्य की मिट्टी पलीत हुई थी कि उसने एक चपरासी के यहाँ नौकरी कर ली थी। ठीक उसी तरह से अध्यात्म की मिट्टी पलीत हो रही है शरीर का नौकर बन करके। आज हम शरीर के गुलाम हैं। हम शरीर के लिए काम करते हैं। शरीर हमसेकाम कराता है और कठपुतली के तरीके से नाच नचाता है। मित्रो! कदाचित् हमने भी स्थिति को बदल दिया होता और सोचने के तरीकों में परिवर्तन कर लिया होता, तो हमारा कायाकल्प हो गया होता। इसी का नाम था-महान् जागरण-ग्रेट अवेकनिंग, आत्मबोध आदि।आत्मबोध का अर्थ है-अपने आपको जानना, अपने को देखना और अपनी गतिविधियों को ठीक करना। अगर आप हिम्मत इकट्ठी कर सकते हों तो आपका-स्व का और शरीर का तरीका कुछ और हो जायेगा। अभी तो आपकी जीवात्मा प्रसुप्त पड़ी है और शरीर पोषण हीआपके लिए सब कुछ है। जीवात्मा से आप का कोई ताल्लुक नहीं है। ऐसी स्थिति में आपको नरक में जाना पड़ेगा। नहीं साहब! जीवात्मा को मरने दीजिए। जीवात्मा से हमारी कोई सहानुभूति नहीं है। जीवात्मा के साथ में हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। हमारा तो बस शरीरसे सम्बन्ध है। शरीर ही हमारा मालिक है। शरीर ही हमारा स्वामी है। शरीर के अलावा हमें किसी से सहानुभूति नहीं हूँ। बस शरीर को मजा मिलना चाहिए। जीवात्मा का कल्याण होता हो तो हो, नहीं होता हो तो न हो।
मित्रो! आप इस परिस्थिति को बदल सकते हों तो आपका कायाकल्प हो सकता है। तब यह कहा जा सकता है कि आपने पशु जीवन से दुबारा मनुष्य योनि में जन्म ले लिया है और तब यह कहा जायेगा कि आपने गुरुदीक्षा ले ली और यह भी कहा जायेगा कि आपनेयज्ञोपवीत ले लिया। तब यह कहा जायेगा कि आपने हिन्दू धर्म में प्रवेश ले लिया और आपका दुबारा जन्म हो गया। दुबारा जन्म लेने का मतलब यह होता है कि हम अपने जीवात्मा की सार्थकता के बारे में समझना शुरू करें। जीवात्मा क्या है? उसकी महत्ता क्या है? इसको हम जानें, उसमें सन्निहित शक्तियों को पहचानें और विकसित करने का प्रयास करें। जीवात्मा के लाभ में और शरीर के लाभ में फर्क करना सीखें। अभी तो हमारे लिए शरीर का लाभ ही सब कुछ है। हमारे लिए जीवात्मा नाम की कोई चीज नहीं है। जीवात्मा सेहमारा कोई ताल्लुक नहीं है। अगर जीवात्मा से कोई ताल्लुक है और भगवान् से कोई ताल्लुक है, तो सिर्फ इसलिए है कि इससे शरीर को फायदा मिलना चाहिए। शरीर को फायदा मिले, तब तो कोई भगवान् भी हो सकता है। परन्तु आत्मा? साहब! आत्मा को तो मरनेदीजिए। आत्मा से हमारा कोई मतलब नहीं है। हाँ, अगर भगवान् है तो उसे हमारे शरीर को फायदा पहुँचाना चाहिए। हमारे बच्चे नहीं हैं, तो उसे हमारे लिए बेटे-बेटी पैदा करना चाहिए। हमें पैसा दिलाना चाहिए। हमारी बीमारी दूर करनी चाहिए। अगर भगवान् है तो उसकाफायदा, उसका लेबर, उसकी नौकरी, उसकी मजदूरी हमारे शरीर को मिलनी चाहिए। नहीं भाई साहब! आपकी जीवात्मा को मिलनी चाहिए। नहीं साहब! जीवात्मा का तो जिक्र ही मत कीजिए।
श्रेय एवं प्रेय
मित्रो! जीवात्मा का नाम हमने सुना तो है, लेकिन हमने जाना नहीं है और माना नहीं है। जीवात्मा को अगर हमने जाना होता, तो हमारे काम करने के तरीके और सोचने के ढंग में फर्क हो जाता। फिर हम, हमारे काम, हमारी इच्छाएँ, हमारी चिन्ताएँ सबके सब इसतरीके से होते, जिनका ताल्लुक हमारी जीवात्मा से रहा होता। हमारी आत्मा को आनन्द कैसे मिल सकता है? आत्मा को आनन्द मिलने के लिए जिस रास्ते पर चलना पड़ता है, उस रास्ते को श्रेय कहते हैं और जिसमें शरीर को फायदा मिलता है, उसे प्रेय कहते हैं। प्रेयमनुष्य को कहाँ तक घसीट ले जाता है? वह मनुष्य को असुर बना देता है, शैतान बना देता है। प्रेय जितना असीम और तीव्र होता चला जाता है, उतनी ही हमारी लालसाएँ, इच्छा उद्विग्न होती चली जाती हैं प्रेय जब तक सामान्य स्थिति में रहता है, तब तक तो ठीक है, लेकिन जब वह अधिक तीव्र हो जाता है, तब वह इतना व्याकुल और इतना आकुल रहता है कि किसी भी कीमत पर जल्दी पैसा पैदा होना चाहिए। इसी का नाम चोरी है, इसी का नाम डकैती है। इसी का नाम बेईमानी है। इसी का नाम बदमाशी है। इसी का नाम हत्या है।जितने भी पाप हैं, वे सब इसी के नाम हैं। आदमी के भौतिक सुख की लालसा जितनी तीव्र और जितनी जल्द पूरी होने के लिए जाग्रत् हो रही होगी, आदमी उसे सही तरीके से ईमानदारी पूर्वक पूरा नहीं कर सकता। सही तरीके की तो एक सीमा है। सही तरीके से तो आपइतना कमा नहीं सकते। सही तरीके से आप धन दोगुना नहीं कर सकते। सिवाय गलत तरीका अख्तियार करने के और दूसरा कोई तरीका नहीं है।
इसलिए मित्रो! आदमी पापी भी इसी से होता है। शैतान भी इसी से हो जाता है। राक्षस भी इसी से हो जाता है। आदमी की भौतिकता के बारे में मान्यता और भौतिकता के बारे में इतनी ज्यादा व्याकुलता कि उसकी पूर्ति किये बिना चैन न पड़े। यह चीज तो हमारे पास होनाही चाहिए, यह तो हमें मिलना ही चाहिए। यह लिप्सा ही मनुष्य के पतन का कारण बनती है। इसीलिए कहा गया है-कामेच्छा, भोगेच्छा, महापाप और महाविघ्न हैं एवं यमद्वार तक घसीट ले जाने वाले हैं। यही तो मनुष्य को नरक के द्वार तक घसीट कर ले जाते हैंजैसे सुअर को शिकारी पकड़कर घसीट कर पेट फाड़ने के लिए ले जाते हैं। ठीक उसी तरह से ये तीनों हमारे बैरी हैं, जिसको हम शरीराध्यास कहते हैं। शरीर की क्रिया कहते हैं। यह हमको सुअर के तरीके से उसी तरह से घसीटते हुए जाने कहाँ ले जाती हैं और जाने हमाराक्या करेंगी? जाने हमारा पेट फाड़ेंगी, जाने हमारा बाल उखाड़ेंगी, जाने हमें भूनकर खा जायेगी। जल्लादों के तरीके से, भंगियों के तरीके से ये वृत्तियाँ हमें घसीटती हुई चली जाती हैं।
मौलिक चिंतन का नाम है — अध्यात्म
मित्रो! इनसे बचाव किया जा सकता है और इस मौलिक चिन्तन का नाम है-अध्यात्म। गायत्री मंत्र हम लोगों को सिखाते रहे हैं और समझाते रहे हैं। गायत्री मंत्र का मतलब कुछ इस तरह का नहीं है कि यह जादू है। नहीं साहब! यह जादू मंतर है। कैसे? मिट्टी हाथ में रखीऔर मुट्ठी बन्द कर तीन बार डण्डा फिराया और कहा-छू मंतर। बस मिट्टी से बन गया रुपया। अच्छा तो आपका यही अध्यात्म है। जादू-मंतर से कमाई ही आपका अध्यात्म है। जादू माने चमत्कार। इससे आपका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जो चीजेंजिस तरीके से मिलती है, वे उस तरीके से न मिल करके शॉर्टकट से मिल जाया करे। जैसे आपको अपनी सेहत अच्छी बनानी है, तो आपको व्यायाम करना चाहिए, आपको संयम करना चाहिए। नहीं साहब! इस झगड़े में हम नहीं पड़ना चाहते। आप तो हमें कोई ऐसाजादू मंतर बता दीजिए जिससे हमारा स्वास्थ्य अच्छा हो जाय। अच्छा तो यह मतलब है आपका? आप इसी को सिद्धियाँ कहते हैं। इसी को चमत्कार कहते हैं। वरदान इसी को कहते हैं। आशीर्वाद इसी को कहते हैं। यही तो है जादू-मंतर। हाँ महाराज जी! आप तो ऐसाआशीर्वाद दीजिए कि हमारा लड़का फर्स्ट आ जाय। वह स्कूल जाता नहीं, सारे दिन सिनेमा देखता रहता है। सारा दिन मक्कारी करता रहता है और नकल करके पास हो जाता है।
अच्छा तो आप हमसे क्या चाहते हैं? गुरुजी! हम आपसे यही चाहते हैं कि मेहनत करके, परिश्रम करके और मन लगा करके जो डिवीजन लाया जाता है, वह मेहनत उसे न करनी पड़े। बस आप कोई ऐसा जादू कीजिए, कोई ऐसा मंत्र फूँकिए कि हमारा लड़का फर्स्टडिवीजन आ जाय। डिस्टिंक्सन ले आये। तो बेटे को पढ़ने के लिए कहिए। नहीं महाराज जी। वह पढ़ने को मना करता है। वह कहता है कि मैं पढ़ूँगा नहीं। बस आप तो गुरुजी के पास जाइये और हमारे लिए आशीर्वाद ले आइए और उस आशीर्वाद से हमारा फर्स्ट डिवीजनआ जाय। बेटे, मैं समझ गया सिद्धि से तेरा क्या मतलब है। तू तो यही चाहता है कि सब काम शॉर्टकट से हो जाय। हाँ महाराज जी! मैं शॉर्टकट चाहता हूँ। बिना कीमत के, बिना परिश्रम के, बिना कीमत चुकाये बस हेरा−फेरी करके, जादू करके हमें यह सिद्धि मिल जाय, यह चमत्कार मिल जाय। बेटे, मेरी समझ में तो इस दुनिया में ऐसा कोई जादू मंतर और ऐसा कोई चमत्कार नहीं है। जहाँ तक मैंने समझा है, वहाँ तक जादूगरी पर मेरा कोई विश्वास नहीं है। नहीं महाराज जी। एक स्वामी जी हैं जो बालों में से बालू निकाल देते हैं। हाँ बेटे, निकाल देते होंगे, पर मेरी समझ में तो कुछ आता नहीं है। जहाँ तक मैंने फिलॉसफी को और साइंस को पढ़ा है मेरी समझ में इस तरह की बाजीगरी नाम की कोई चीज नहीं है। नहीं महाराज जी! जो सन्त-महात्मा होते हैं, वे चमत्कार दिखाते हैं, जादू दिखाते हैं।
मित्रो! मैं तो महात्मा गाँधी जी के साथ रहा हूँ। उन्हें मैं इस युग का सबसे बड़ा सिद्ध पुरुष मानता हूँ, किंतु उनके अंदर कभी कोई जादू नहीं देखा। न उन्होंने इलायची खिलाई और न कभी बालों में से बालू निकाला। उनका यही चमत्कार था। सामान्य आदमी कैसा घटियाऔर निकम्मा जीवन जीता रहता है, परन्तु उन्होंने कितना ही बेहतरीन जीवन जिया, बढ़िया जीवन जिया। उनका जीवन अपने आप में चमत्कार था। इतना बड़ा चमत्कार था कि सारी दुनिया ने करोड़ों रुपया उनके चारों तरफ न्यौछावर कर दिया। सारी दुनिया ने करोड़ोंरुपया उनके समर्थन के लिए दिया। गाँधी जी को करोड़ से कम की गिनती नहीं आती थी। उन्होंने चरखा संघ बनाया और लोगों से कहा कि लाइए चरखा संघ के लिए रुपये। लोगों ने कहा कि हर हफ्ते आप हमसे करोड़ों रुपये लीजिए। उन्होंने नवजीवन छापाखाना खोलाऔर कहा कि लाइए करोड़ों रुपये। लीजिए साहब। प्राकृतिक चिकित्सा का आयोजन किया। लोगों ने करोड़ों रुपये न्यौछावर कर दिया।
मित्रो! मैं समझता हूँ कि सिद्धि और चमत्कार देखना हो, तो पैसे की दृष्टि से लेकर प्रभाव की दृष्टि तक गाँधी जी को देखिए। रिंग मास्टर के तरीके से चाबुक लेकर एक दुबला-पतला आदमी खड़ा हो गया और उसने ब्रिटिश के शेर को ‘क्विट इंडिया’ हिन्दुस्तान छोड़ोकहकर खदेड़ दिया। मित्रो! उस सर्कस के शेर का-जिसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, काँपने लगा, थरथराने लगा और बिस्तर बाँधकर यहाँ से चलता बना। जैसे कि सर्कस का शेर कटघरे में घुस जाता है। उस ताकतवर आदमी ने, बहादुर आदमी ने, शक्तिशाली आदमीने लोगों से कहा कि शेर के बच्चे को चूमने के लिए चलो। लोग चल दिये। एक हम और आप हैं जो अपने बच्चों से कहते हैं कि बेटा जरा पानी पिला देना और बेटा है कि हमको अँगूठा दिखाकर चला जाता है। लेकिन गाँधी जी के बेटों में से हजारों को उन्होंने हुक्म दियाफाँसी के तख्ते को चूमने के लिए और गोलियाँ खाने के लिए और फाँसी के तख्ते को चूमने के लिए चले गये। जिसकी हुकूमत में, जिसकी आवाज में इतना दम हो कि जो भी सुने, उसको मना ही न कर सके। इतना शक्तिशाली आदमी चाहता तो चमत्कार दिखा सकताथा। बेटे यही तो चमत्कार है कि जिसकी एक आवाज पर सारा देश मर मिटने को तैयार हो।
बाजीगरी का नाम नहीं है अध्यात्म
मित्रो! आप तो बालों में से बालू निकालकर दिखाने वाली बाजीगरी के साथ अध्यात्म को जोड़ना चाहते हैं। अध्यात्मवादियों को बाजीगरों में शामिल करना चाहते हैं। तमाशबीनों में शामिल करना चाहते हैं। मदारीगीरी सिखाना चाहते हैं। नहीं महाराज जी! जिसकोचमत्कार आता है, वही सन्त है। नहीं बेटे, जिसको चमत्कार दिखाना आता है, उसे धूर्त कहते हैं। नहीं महाराज जी! फलॉ बाबाजी को चमत्कार दिखाना आता है। बेटे वह अव्वल नम्बर का धूर्त है, जो बालों में से बालू निकालता है और कान में से बिल्ली निकालता है। तोक्या महाराज जी! अध्यात्म में चमत्कार नहीं है? नहीं बेटे, कोई चमत्कार नहीं है। अगर चमत्कार है तो वह है जहाँ आदमी बादशाह बन सकता है। गाँधी जी ने ढेरों के ढेरों बादशाह बनाकर दिखा दिये। उनमें से एक बादशाह का नाम था-नेहरू। एक बादशाह का नाम था-राजगोपालाचार्य। एक बादशाह का नाम था-जाकिर हुसैन। एक बादशाह का नाम था-राजेन्द्र बाबू। वे ढेरों के ढेरों बादशाह बनाते चले गये। वे सभी एक से बढ़कर एक थे।
मित्रो! अध्यात्म शक्तिशाली होता है। लोग अध्यात्म को बाजीगरी समझते हैं, लेकिन अध्यात्म बाजीगरी नहीं है। फिर क्या है? अध्यात्म एक फिलॉसफी है। अध्यात्म भौतिक नहीं है, वह एक साइंस है। जमीन में से आप अनाज उगाइये। खेती−बाड़ी कीजिए। बगीचालगाइये। ईंट बनाइये और मिट्टी से पैसा कमाइए। नहीं महाराज जी! हम तो हथेली पर सरसों उगायेंगे, जादू करेंगे और पैसा कमायेंगे। बेटे अगर ऐसा रहा होता, तो मैं पूछता हूँ कि बाजीगर लोग जो मिट्टी से रुपया बनाकर दिखाते हैं, फिर वे भीख क्यों माँगते हैं? अगररुपया निकालना सही था, तो उन्हें मालदार होना चाहिए था। फिर वे अमीर क्यों नहीं हो गये? नहीं महाराज जी! मिट्टी से रुपया बन सकता है। नहीं बेटे, नहीं बन सकता। तू मानता क्यों नहीं है? बेटे, कोई चमत्कार नहीं है। अगर दुनिया में कोई चमत्कार है, तो एक ही हैकि आदमी अपनी खोई हुई शक्तियों को, गँवाई हुई शक्तियों को, बिना पैनी की हुई शक्तियों को समझने की कोशिश करे। अगर हम अपने आपके बारे में जान सकें, तो हमारा भविष्य कितना शानदार और कितना सुन्दर हो सकता है।
गायत्री की तीन धाराएँ
मित्रो! आपको मैं गायत्री मंत्र की तीन धारायें बता रहा था, जिसको सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् के नाम से पुकारा जाता है। ज्ञान की तीन धारायें हैं-सत्। गायत्री की तीन धाराओं को हमने ज्ञानयोग के नाम से, कर्मयोग के नाम से और भक्तियोग के नाम से पुकारा है। यहक्या है? हमारे तीन हिस्से हैं और हमारे यह हिस्से बेहतरीन किस्म के होने चाहिए। उनमें से एक हिस्सा हमारा स्थूल शरीर है, जिसको हम शरीर कहते हैं। इस शरीर की विशेषताएँ हमारे कर्म के साथ जुड़ी हुई हैं। हमारे कर्म इतने शानदार, इतने नैतिक, इतने साहसी होनेचाहिए कि हमारा एक क्षण भी बेकार न जाय। हम एक भी काम गलत न करें। केवल गलत काम करने से ही काम नहीं चलता। हमने अपनी जिंदगी का आधे से अधिक हिस्सा बेकार के कार्यों में गँवा दिया। हम चाहते तो रबर के तरीके से अपने समय को इतना खींचसकते थे कि मजा आ जाता; लेकिन आलस्य और कामचोरी जीवन में इस कदर हावी रही कि थोड़े-बहुत कुछ काम कर लिया और यही रोना रोते रहे कि साहब! काम के बोझ से मरे जाते हैं।
मित्रो! अगर आपको हँसी-खेल के साथ काम करना आया होता, आपने काम को खेल समझा होता और जिस तरह से खिलाड़ी बराबर खेलता रहता है और थकान नाम मात्र को भी नहीं आती। वह कहता है कि साहब! हम रोज खेलेंगे। बच्चे भी सारे दिन खेलते रहते हैं।उछलते-कूदते रहते हैं। उनको कभी थकान आती है? कभी नहीं आती। काम करने से भी थकान नहीं आती। नहीं साहब! हमने आज बहुत काम किया और काम के दबाव से मरे जा रहे हैं। नहीं बेटे, काम में अगर आपको रस आने लगता और काम के साथ में यदि आपनेमनोरंजन को मिला लिया होता, खेल के तरीके से काम किया होता, तो अब तक जिंदगी में जितने काम किये हैं मैं कहता हूँ कि उससे आपने दस गुने ज्यादा काम कर लिया होता; लेकिन आप कर न सके। आप हमेशा शिकायत करते रहते हैं कि यह हमारा दुर्भाग्य है। हाँबेटे यह दुर्भाग्य नहीं, तो और क्या है? आलस्य आदमी का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। आलस्य से बढ़कर दुर्भाग्य इस दुनिया के पर्दे पर और कोई हो नहीं सकता।
मित्रो। आलस्य हमको दिखाई भी नहीं पड़ता; क्योंकि हमने अपना मुकाबला, अपनी तुलना दुनिया के अपने से ज्यादा हरामखोरों के साथ में किया है। काम करने वालों के साथ में आपने अपना मुकाबला किया होता तो मालूम पड़ता कि जो काम आप कर रहे हैं या करसकते हैं, उसकी अपेक्षा काम करने की कितनी ज्यादा शक्ति हमारी पास थी। काम करने वालों में से गाँधी जी के साथ रहकर मैंने सीखा कि कोई भी काम क्रमबद्ध तरीके से कैसे किया जाता है। एक क्रम से, व्यवस्थित तरीके से, कायदे से काम करने के क्या फायदे हैं, यह मैंने उनसे सीखा।
आप तो किसी दिन ढेरों काम कर लेते हैं, फिर पीछे कहते हैं कि अरे साहब! एक दिन रात को बारह बजे तक जागना पड़ा। ग्यारह तारीख को हम ग्यारह बजे तक जगे। अरे बाबा! ग्यारह बजे तक जागने की जरूरत नहीं है। कायदे से काम कीजिए, ठीक से और समय परकाम कीजिये और समय को रबर के तरीके से खींचते रहिए तो फिर देखना जीवन में मजा आ जायेगा।
कर्मयोग की फिलॉसफी
मित्रो! कर्मयोग की फिलॉसफी को हमने जाना नहीं। अगर कर्मयोग हमारे पास आया होता, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपके जीवन में उन्नति हो गयी होती। तब आपके जीवन में भौतिक उन्नति भी होती और आध्यात्मिक उन्नति भी होती। आप ध्यान तोदीजिए कि कितना समय आप बेहिसाब और बेतरतीब रूप से गँवाते हैं। केवल समय को गँवाना ही बात नहीं है। वरन् कर्म का स्वरूप, कर्म का सिद्धान्त, कर्म का आदर्श आपकी समझ में आया होता तो आपको कितनी खुशी होती, कितना ज्यादा सन्तोष रहा होता।फिर आपके बराबर खुशहाल और सन्तोषी कोई नहीं होता, अगर आपने अपनी इच्छाओं को कर्म के ऊपर केन्द्रित किया होता तो; लेकिन नहीं, हमारी इच्छाएँ तो वस्तुओं के ऊपर केन्द्रित हैं कि हमारे बेटा होगा, तो सन्तोष होगा। तो पैदा करो न बेटा, हाँ साहब! हमारेतीन बेटियाँ हो गयीं। चौथी भी लड़की होने वाली है। पाँचवीं लड़की और होने वाली है। छठवीं भी लड़की होगी, तब इसके बाद लड़का होगा। पण्डित जी ने बताया है कि बाइस साल बाद बेटा होगा। जब तक बेटा नहीं होगा, तब तक चिंता, उदासी, निराशा बनी रहेगी। बेटामिलेगा, तब निश्चिन्तता मिलेगी। मेरा बेटा बहुत बड़ा वकील होगा, तब हमें खुशी होगी। बेटे का बेटा होगा, तब खुशी होगी।
निष्काम कर्म का अर्थ है कर्मयोग
मित्रो! हमारी खुशियाँ जाने किस-किसके ऊपर टिकी हुई हैं। हमारी खुशियाँ फल के ऊपर, परिणाम के ऊपर टिकी हुई हैं। अगर हमने इन्हें परिणामों के ऊपर से हटा करके अपने कर्म तक सीमित कर दिया होता, तो हमें चौबीसों घण्टे सन्तोष मिल रहा होता। हम अपनाकर्म पूरा करते हैं, बस इससे आगे हमें और कुछ सोचने की जरूरत नहीं है। हमने अपने बेटे को पढ़ाया, वह क्या बनेगा, हमें मालूम नहीं। वह वकील बनेगा तो और अच्छा, और सेवक बनेगा तो उससे भी अच्छा। रिक्शे वाले भी चाहिए दुनिया में। नहीं साहब! हमारा बेटातो वकील होना चाहिए। मित्रो! कोई जरूरी नहीं कि आपका बेटा वकील बने और वकील बनकर भी मोहम्मद अली जिन्ना की तरह से और पंडित नेहरू की तरह से कमा कर लाये। यह भी हो सकता है कि उसे किराये-भाड़े के लिए भी पैसे वसूल न हों। नहीं महाराज जी! हमें तो आप बेटा ही दीजिए। बेटे आप कामनाओं को हटाइए और मेहनत-मशक्कत कीजिए। गीता में एक ही बात समझाई गयी है-‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते....।’’ सारी गीता को याद करने की अपेक्षा यदि इस एक वाक्य को याद कर लिया होता, तो आपको कुछ चैन आता, कुछ सन्तोष आता।
मित्रो! हम कर्म कर रहे हैं। खेती-बाड़ी कर रहे हैं। वर्षा होगी तो अच्छी फसल हो सकती है और नहीं होगी तो? वर्षा नहीं भी हो सकती है। फसल होगी तो खुशी और नहीं होगी तो नाखुशी। मित्रो! अगर आप खुशी और नाखुशी के झूले में झूलते रहेंगे, तो मैं कहता हूँ किआपको कभी भी चैन और खुशी हासिल नहीं हो सकेगी। इसलिए अपने कर्म पर, कर्तव्य पर ध्यान केन्द्रित कीजिए। इसी का नाम है धार्मिकता। जीवन की तीन धारायें हैं। गायत्री की भी तीन धारायें हैं। उन्हीं में से एक कर्म की धारा का वर्णन मैं आपसे कर रहा था, जिसको हमारे आध्यात्मिक शास्त्रों में धार्मिकता कहा गया है। चोटी रखने को, तिलक लगाने को, प्राणायाम करने को धार्मिकता नहीं कहते, इनसे धार्मिकता का कोई मतलब नहीं है। धार्मिकता जीवन की नीति है। धर्म माने कर्म। ‘धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे’ अर्थात् धर्मक्षेत्र हीकर्मक्षेत्र है। धर्म का मतलब केवल कर्म से है। आदमी के कर्म श्रेष्ठ होने चाहिए। कर्म में आदमी को रस आना चाहिए। हमने अपना कार्य पूरी ईमानदारी के साथ किया। ठीक है कि हमने बीमार व्यक्ति को दवा दी, सेवा की। अच्छा किया, लेकिन अब वह मर गया, तो हमक्या कर सकते हैं? जिन्दा हो गया, तो क्या हमारे हाथ की बात है? बीमार के लिए जो भी काम आप कर सकते हैं, फर्ज समझकर कीजिए।
मित्रो! आदमी के फर्जों को आदमी को करना चाहिए। अगर आप यह समझ लें कि हमें अपने फर्ज पूरे करने हैं, तो बहुत अच्छा है, लेकिन साथ ही यह भी जान लें कि शरीर के साथ-साथ हमारे और क्या फर्ज हैं? शरीर के साथ हमारा फर्ज यह है कि यह हमारा घर है, जीवात्मा का मंदिर है, निवास स्थल है। इसको संयम के द्वारा, सुरक्षा के द्वारा कायदे में रखना चाहिए। करीने से रखना चाहिए। अगर आपको यह ख्याल है तो आपने अपने शरीर के प्रति कर्तव्यों का पालन करना जान लिया और शरीर के क्षेत्र में धर्मात्मा कहलाये।आपको अपने दिमाग के साथ में क्या सलूक करना चाहिए? उसकी शक्तियों का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए। बेटे, उपभोग नहीं, उपयोग करना चाहिए। आज हर आदमी प्रत्येक चीज का, अपनी शक्तियों का उपभोग करने के लिए तैयार है। वह सोचता है कि अपनेदिमाग के द्वारा हम इनका मजा कैसे उठा सकते हैं? मजा नहीं, इनका उपयोग कैसे हो सकता है? जब यह बात आपकी और हमारी समझ में आ जायेगी, तो मित्रो! शरीर के प्रति हमारा फर्ज और हमारा धर्म पूरा हो जायेगा।
[क्रमशः]
समापन अगले अंक में
अखंड ज्योति जनवरी २०१४
परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-३
[गतांक से आगे] (समापन किश्त)
दाम्पत्य जीवन के धर्मात्मा
मित्रो! हमें अपने जीवन के हर पहलू का उपयोग करना आ जाये, तो मजा आ जाये। हमको अपने बीबी-बच्चों के प्रति क्या कर्तव्य करना चाहिए? बीबी आपकी काली है तो मुबारक, खराब है तो अच्छी बात; लेकिन आपको अपना फर्ज पूरा करना है। हम किसी की प्यारीलड़की को, दिल के टुकड़े को हाथ पकड़कर, सात फेरे लेकर के आये हैं। उसके समूचे जीवन की रखवाली करने की जिम्मेदारी हमारी है। उसके माता-पिता ने हमारे हाथों में उसका हाथ थमाकर यह कहा है कि जैसी सेहत युक्त हम इसे आपको दे रहे हैं, उसकी रखवालीकरना आपका काम है। इसकी जैसी भी अक्ल है, इसको आगे बढ़ाना, निखार लाना आपका काम है। हमारे लिए यह आवश्यक था कि हमारी बीबी नौवीं कक्षा तक पढ़ी हुई आयी थी और हम एम.ए. पास हैं, हमको तुरन्त कोशिश शुरू कर देनी चाहिए कि हम अपनी बीबीको दसवाँ दर्जा करायेंगे, ग्यारहवाँ दर्जा करायेंगे, बारहवीं करायेंगे और एम.ए. तक पढ़ायेंगे। अगर आपने ऐसा समझा होता और अपनी धर्मपत्नी का व्यक्तित्व विकसित करने के लिए प्रयत्न किया होता, तो मैं आपको धर्मात्मा कहता और मैं यह कहता कि आप अपनेदाम्पत्य जीवन में धर्मात्मा हैं।
मित्रो! आप अपने बच्चों को सत्कर्मी बना रहे होते। उनको गुण, कर्म और स्वभाव से उत्कृष्ट बनाने की शिक्षा दे रहे होते, तो मैं कहता कि आप अपने बच्चों के प्रति धर्म का पालन कर रहे हैं और आप धर्मात्मा हैं। आप तो उनके लिए पैसा जमा कर रहे हैं। आप पैसे जमाकरके उनका सत्यानाश करने पर उतारू हो गये हैं। जिसका भी बाप हराम का पैसा छोड़कर मरा है, उसके लिए मैं कहता हूँ कि वह अपने बच्चों का भविष्य चौपट करेगा और सत्यानाश करेगा। आप बच्चों की योग्यता बढ़ाने के लिए मेहनत कीजिए। उनकी योग्यताबढ़ाइये, लेकिन आप तो कोढ़ियों के तरीके से, अन्धों के तरीके से, लूले-लँगड़े और गूँगों के तरीके से बच्चों के लिए जमा करना चाहते हैं, मानो आपके बच्चे अन्धे हों। मानो आपके बच्चे कोढ़ी हों। इसके लिए कमा-धमा कर रख जायेंगे, जिससे यह पेट भर खाता रहे।मित्रो! आप अपना कर्तव्य पूरा कीजिए। किसके लिए? बच्चों के लिए, माता-पिता के लिए, भाई-बहन के लिए। आपके पास अगर और भी जिम्मेदारियाँ पड़ी हुई हैं, तो नयी-नयी जिम्मेदारियाँ क्यों उठाते हैं? बाप का कर्ज आपने चुकाया नहीं, माँ का कर्ज आपने चुकायानहीं, बहन-बेटी का कर्ज चुकाया नहीं, तो फिर किसने कहा कि आप ब्याह कर लीजिए। ब्याह करना क्या जरूरी था। नहीं साहब! ब्याह तो होना ही चाहिए और बच्चे भी होने चाहिए। आपने अपने बहन-भाइयों को कम से कम इस लायक नहीं बना दिया कि वे अपने पाँवपर खड़े हो सकें, फिर आपको अपने ही बच्चे पैदा करने की क्या आवश्यकता थी? नहीं साहब! हमको नये बच्चे की जिम्मेदारी उठानी चाहिए, पुराने मरते हों तो मरें। बेटे, फिर तू कहाँ रहा धर्मात्मा? तू तो पापी है, जो अपने बच्चों को मारने जा रहा है।
मित्रो! आपको क्या करना चाहिए? आपको चारों ओर से अपने आपको कर्तव्यों से जकड़ा हुआ समझना चाहिए। मनुष्य के बराबर सक्षम कोई नहीं है। मनुष्य की सराहना इसलिए की जाती है कि वह कर्तव्यों से इतना ज्यादा भरा हुआ है कि उसकी कर्तव्यों से नस-नसजकड़ी हुई है। आप अपने को कर्तव्यों से जकड़ा हुआ मानिये और जहाँ कहीं भी निगाह उठाकर देखिये, अपने आपको कर्तव्यों से बाँध लीजिए। आप अपने बीबी-बच्चों से वैरागी हो जाइये, परन्तु अपने कर्तव्यों से वैरागी मत होइये। नहीं साहब! हम अपने बीबी-बच्चों कोछोड़ देंगे, मकान छोड़ देंगे और वैरागी हो जायेंगे। वैरागी होकर कहाँ रहेंगे। शान्तिकुंज में रहेंगे। शान्तिकुंज के बराबर तो शांति कहीं और नहीं है। नहीं महाराज जी! हम तो काली कमली वाले के यहाँ जायेंगे और वहाँ एकान्त में रहेंगे, शांति से रहेंगे। काली कमली वाले केयहाँ भाड़ में जायेगा। बेटे, शांति कहीं नहीं है। शांति अगर है तो आपके मन में है और कहीं नहीं है। नहीं महाराज जी! हमको शांति दिला दीजिए, हम शांति की खोज में हैं। अच्छा तू अशांति दूर करने के लिए गोली ले जा और खा ले, तुझे शांति मिल जायेगी। महाराज जी! यह किसकी गोली है। पहले तू खा ले फिर बताऊँगा। अच्छा महाराज जी! मैंने खा ली और अब शांति भी मिल रही है। यह गोली कौन सी है? बेटे, यह अफीम की है। शांति के लिए तू गाँजा भी ले ले, शराब भी पी ले, इससे शांति मिल जायेगी।
नहीं महाराज जी! ऐसी पक्की शांति दिला दीजिए जिससे बार-बार हमें अफीम नहीं खानी पड़े। मैं ऐसी शांति चाहता हूँ, जो हमेशा बनी रहे। बेटे, तू जिस शांति को घर में ढूँढ़ता है, मोहल्ले में ढूँढ़ता है, ऐसी शांति कहीं नहीं है। वह अपने ही भीतर भरी पड़ी है, बाहर कहीं भीनहीं है। मित्रो! मनुष्य कर्म करते हुए और कर्मफल पूरा करते हुए जैसे शांति पा सकता है, वह और किसी तरह से शांति नहीं पा सकता है। अशांति को परास्त करते हुए, अकर्म को परास्त करते हुए विजयी के रूप में हमें जो शांति मिलती है, वही टिकाऊ शांति है। औरमित्रो! यह कर्तव्य और फर्ज अध्यात्मवादी के ऊपर लागू होते हैं। अगर आप अध्यात्मवादी हैं, गायत्री के उपासक हैं, तो आपको धर्मात्मा होना चाहिए। धर्मात्मा का मतलब होता है कि आपको कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए। गंगाजी की, गायत्री की तीन धारायें हैं। उनमें सेएक धारा त्रिवेणी की यह होनी चाहिए कि हम धर्मात्मा रहेंगे, कर्तव्यपरायण रहेंगे। इस कर्तव्य पथ से हमें कोई नहीं हटा सकेगा।
मित्रो! मैं समझता हूँ कि इन्सान का बड़प्पन, इन्सान का गौरव, इन्सान का यश, इन्सान का वर्चस्व इससे ज्यादा नहीं हो सकता कि जो कोई भी उसके कर्तव्य उस पर लागू होते हैं, वह अपने कर्तव्यों को ठीक तरह से निभाये, अपने फर्ज को ठीक तरीके से पूरा करे।कठिनाइयाँ सहते हुए भी, कठिनाइयों को बर्दाश्त करते हुए भी, निन्दा को सहते हुए भी, लोगों के विरोधों का मुकाबला करते हुए भी, अभाव और गरीबी को बर्दाश्त करते हुए भी जो आदमी अपने कर्तव्यों पर खड़ा रहता है, उसे मैं धर्मात्मा कहूँगा। फिर मैं कहूँगा किगायत्री की एक विधा उसने जान ली। गायत्री की तीन धाराओं में से एक धारा में उसने स्नान कर लिया। गायत्री मंत्र की दूसरी वाली धारा है-अध्यात्म। इसके तीन चरण हैं। यह त्रिपदा कहलाती है-‘‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’’ चरण। ‘‘भर्गो देवस्य धीमहि’’-द्वितीय चरण, एवं ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्’’-तृतीय चरण। यह तीन चरण वाली गायत्री है। इसकी तीन धाराएँ हैं गंगा की तरह, जिसे हम आपको पढ़ाते हैं। इसे आपको पढ़ना चाहिए।
गायत्री मंत्र की दूसरी धारा —अध्यात्म
मित्रो! गायत्री मंत्र की दूसरी वाली धारा यह है कि आदमी अध्यात्मवादी हो। अध्यात्मवादी माने-अपनी जिम्मेदारियों को मंजूर करने वाला। पहले आप स्वीकार कीजिए कि आपने गलती की है। स्वीकार कीजिए कि हम अपने आपको सँवार सकते हैं और सँवारेंगे।अजामिल के तरीके से, सूरदास के तरीके से, तुलसीदास के तरीके से, बाल्मीकि के तरीके से और अशोक की तरीके से हम स्वयं बदल सकते हैं और अपने भाग्य का निर्माण स्वयं कर सकते हैं। अगर आप इस मंत्र को स्वीकार कर लें कि-‘आप अपने भाग्य के निर्मातास्वयं हैं, तो आपको यह स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं होगा कि आपने ही अपने आपको खराब किया है और अब आप ही अपने आपको ऊँचा उठा सकते हैं। अगर आप इसे स्वीकार कर लें तो मैं आपको अध्यात्मवादी कहूँगा। अध्यात्मवादी दूसरों पर इल्जामनहीं लगाते, अपने ऊपर लगाते हैं। जो आदमी अपने ऊपर इल्जाम लगायेगा, उसे रोने और कलपने की जरूरत नहीं है कि हाय! मैंने यह गलती कर डाली। गलती कर डाली, तो सँभालिए, इसको ठीक कीजिए। गिनना भूल गये तो दुबारा गिनना शुरू कीजिए। मैंअध्यात्मवादी उसे कहता हूँ जो अपने अधःपतन और अपनी कठिनाइयों की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता है और बहादुरी के साथ यह कहता है कि हमने यह गलती की है, तो हम सजा पायेंगे। हमको अपना भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो हम अपनी हिम्मत इकट्ठी करेंगेऔर आगे बढ़ेंगे। अगर आप अपनी गलती स्वीकार नहीं कर सकते, तो आप कायर और बुज़दिल हैं। आपने गलती की है, तो उसे ठीक कीजिए।
अध्यात्मवाद माने — स्वावलम्बन एवं स्वाभिमान
मित्रो! अध्यात्मवादी वह, जो अपनी गलतियों को सुधारने के लिए और गलतियों को सँवारने के लिए तैयार रहता है। अध्यात्मवादी वह है जो अपने आत्मविश्वास के बारे में जानकार है, अहंकार के बारे में नहीं। अहंकारी से मैं नफरत करता हूँ और उस पर लानत भेजताहूँ। अहंकारी वह है जो पैसे का घमण्ड करता है, शक्ल का घमण्ड करता है। अहंकारी वह है जो पद का घमंड करता है। अहंकारी वह है जो बाहरी चीजों का घमंड करता है, लेकिन अगर कोई आदमी अपनी जीवात्मा के आधार पर स्वावलम्बी जीवन जिये, इज्जतदार जिन्दगीजिये तथा अपनी इज्जत और आबरू बचाने के लिए, भगवान् के दिये हुए गौरव को कायम करने के लिए अपने को स्वावलम्बी और स्वाभिमानी बना ले, तो मैं उसको पसंद करता हूँ। अध्यात्मवादी की निशानी यही है कि उसे स्वावलम्बी होना चाहिए। अध्यात्मवादमाने-स्वावलम्बन एवं स्वाभिमान। यदि आपके पास यह दोनों हैं तो आपको अपनी इज्जत और आबरू का ध्यान रहेगा। फिर आप बुरे कर्म करके अपनी बेइज्जती, नहीं कराना चाहेंगे। भगवान् की आँखों में बेइज्जती, अपनी जीवात्मा की आँखों में बेइज्जती, समाज कीआँखों में बेइज्जती नहीं कराना चाहेंगे। नहीं साहब! वह तो हमारी बड़ी प्रशंसा कर रहा था। बेटे, तू समझता क्यों नहीं, यह जबान की प्रशंसा है। जबान की प्रशंसा से क्या फायदा हो सकता है? जबान की दुनिया इतनी बेईमान और मक्कार है कि बाहर से वह प्रशंसा करकेभीतर से तेरा मखौल उड़ाती है, दिल्लगी उड़ाती है।
मित्रो! यह दुनिया ऐसी भी हो सकती है कि बाहर से वह आपको बेवकूफ कहे और मखौल उड़ाये, लेकिन भीतर आपके लिए असीम श्रद्धा जमाये हो। आप उस असीम श्रद्धा को समझें। अपना सम्मान स्वयं करें और अपनी जीवात्मा के सम्मान को, भगवान् के सम्मानको खोजें। अपनी आत्मा और परमात्मा-दो की गवाही आपके लिए पर्याप्त है, बाकी सबकी गवाही को मानने से इन्कार कर दीजिए। अगर आप दुनिया के सर्टीफिकेट लेकर चलना चाहते होंगे, तो सिवाय हैरानी के आपके पल्ले कुछ पड़ने वाला नहीं है। घटिया आदमी, जाहिल आदमी, निकम्मे आदमी अगर आपको सर्टीफिकेट देंगे, तो वे आपके निकम्मेपन का ही सर्टीफिकेट देंगे, आपकी मक्कारी का ही सर्टीफिकेट देंगे। अगर आपने इन्कार कर दिया कि हमें किसी के सर्टीफिकेट की, किसी के सलाह की जरूरत नहीं है, हम किसी कीसलाह नहीं लेंगे। आपको अपने भगवान् की और अपनी जीवात्मा की सलाह लेना ही काफी है। यदि आपने घरवालों, मोहल्ले वालों-हरेक को जो आपको बहकाते हों, चापलूसी करते हों, तो इतनी हिम्मत पैदा कीजिए और सबको इन्कार कर दीजिए। तब मैं आपकोअध्यात्मवादी कहूँगा। जिस तरह से मीरा ने तुलसीदास जी के कहने पर सब कुछ छोड़ दिया था और पूर्णरूपेण अपने गिरधर गोपाल की हो गयी थी। आप भी अपने आत्मा की-भगवान् की सलाह मानिये।
मित्रो! अध्यात्मवाद उसे कहते हैं जिसमें आदमी अपने बूते, अपनी समझदारी के बलबूते, अपनी अकल के बूते, अपने ईमान के बूते और अपने भगवान् के बूते अपनी जिन्दगी के रास्ते अख्तियार करता है और लोगों की सलाह मानने से इन्कार कर देता है। लोगों कीसलाह सुनी जा सकती है, पर मानी नहीं जा सकती। सलाह मानने के लिए हम मजबूर नहीं हैं। मानने के लिए एक हमारा ईमान और एक हमारा भगवान्। दो गवाह पर्याप्त हैं-एक आपका ईमान और एक आपका भगवान्। इन्हीं दो की सलाह मानिये और किसी कीसलाह मत मानिये।
मित्रो! अध्यात्मवाद उसे कहते हैं जिसमें आदमी अपने बूते, अपनी समझदारी के बलबूते, अपनी अकल के बूते, अपने ईमान के बूते और अपने भगवान् के बूते अपनी जिन्दगी के रास्ते अख्तियार करता है और लोगों की सलाह मानने से इन्कार कर देता है। लोगों कीसलाह सुनी तो जा सकती है, पर मानी नहीं जा सकती। सलाह मानने के लिए हम मजबूर नहीं हैं। मानने के लिए एक हमारा ईमान और एक हमारा भगवान्। दो गवाह पर्याप्त हैं-एक आपका ईमान और एक हमारा भगवान्। इन्हीं दो की सलाह आप मानिये और किसीकी सलाह मत मानिये। अगर आप यह कर सकते हों, तो आप जिंदगी में श्रेष्ठ काम कर सकते हैं। अगर आपने हवा के पत्तों के तरीके से इसका सुनना, उसका सुनना-जिसे हम लोकमत कहते हैं, भेड़ चाल कहते हैं, उसकी सुनी और मानी, तो सर्वनाश सुनिश्चित है; क्योंकि प्रशंसा के नाम पर, सलाह के नाम पर वे हमसे गलत काम कराते हैं और हमारे अच्छे काम के लिए हमें बदनाम करते हैं। मित्रो! इन सबसे आप दूर रह सकते हों, तो हम आपको अध्यात्मवादी कह सकते हैं।
गायत्री मंत्र का तीसरा चरण—आस्तिकता
मित्रो! गायत्री मंत्र का दूसरा चरण अध्यात्मवाद है और तीसरा चरण आस्तिकता है। आस्तिकता मान ईश्वर विश्वास। ईश्वर का भजन भी इसमें शामिल है, पर भजन इसका शृंगार है। शृंगार भी जरूरी है। आध्यात्मिकता का, धार्मिकता का शृंगार-जिसे हम पूजा कहते हैंऔर भजन कहते हैं, आवश्यक है; लेकिन यह आध्यात्मिकता का प्राण नहीं है। यह कलेवर है, आप ध्यान रखना। कर्मकाण्ड कलेवर है, आप ध्यान रखना। आपका भजन और ध्यान कलेवर है, यह प्राण नहीं है। आस्तिकता का सारा है-भगवान् पर विश्वास। भगवान् काभजन और भगवान् पर विश्वास-ये दोनों समान तो मालूम पड़ते हैं, पर इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है और कई बार तो ये दोनों एक दूसरे के विरोधी भी होते हैं। कई बार लोग देवी के सामने केवल पानी पीकर रहते हैं। देवी का भजन करते हैं, बकरा चढ़ाते हैंऔर देवी से यह कहते हैं कि हे देवी। डकैती में फायदा कराना ये कौन हैं? नास्तिक हैं। नास्तिक कैसे? क्योंकि इन्हें धर्म के ऊपर, ईमान के ऊपर, सिद्धान्तों के ऊपर विश्वास नहीं है। आप देवी से भी मक्कारी कराना चाहते हैं, जैसे कि आप हैं।
मित्रो! राम के नाम पर, भजन के नाम पर कहाँ-कहाँ क्या-क्या नहीं हो रहा। भजन के नाम पर, ध्यान लगा करके और जप करके हम क्या-क्या नहीं करते? एक बार रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण जी से कहा कि-हे लक्ष्मण! इस बगुला को देखो। कितना ध्यानमग्न है। धीरे-धीरेपग बढ़ाता है और जलाशय से जैसे ही कोई मछली बाहर आती है, चट कर जाता है। अरे महाशय जी। इसने मेरे पूरे खानदान को खा लिया। अतः किसी के बारे में जानना हो तो उसके सहवासी-साथ रहने वाले से पूछिये। अरे महाराज जी! आप क्या कह रहे हैं। इनके किस्सेसुनेंगे, तो नौ-नौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली वाली कहावत चरितार्थ होगी। हम सब जानते हैं कि वे कैसे हैं? इनकी गवाही सहवासी आपको बतायेंगे। मित्रो! भजन करना धूर्त और मक्कार के लिए भी सम्भव है। यदि आपके पास ईश्वर का विश्वास है, तो चारों ओरहजारों आँखवाला, हजारों हाथ वाला-हजारों भुजाओं वाला भगवान् हर जगह बैठा हुआ दिखाई पड़ेगा। उसकी न्याय की तलवार से कोई आदमी बच नहीं सकता। जिस आदमी को यह विश्वास है-उसका नाम है-आस्तिक।
मित्रो! आस्तिकता माने कोई व्यवस्था है, कोई शासन सत्ता है, कोई नियंत्रक सत्ता है, कोई कर्मफल व्यवस्था है। जो कर्मफल की व्यवस्था है। जो कर्मफल की व्यवस्था को नहीं मानता, जो किसी अंकुश को मानने से इन्कार करता है-वह नास्तिक है। जो यह कहता है किसाहब! कर्म का फल कहाँ मिलता है। देखिये-डाकुओं को नहीं मिलता। लुटेरों को नहीं मिलता, कसाइयों को नहीं मिलता, तो हमें क्या मिलेगा? कर्म फल के बारे में जिस आदमी को अविश्वास है, वह नास्तिक है। जिस आदमी को यह विश्वास नहीं है कि कोई हुकूमत, कोई शासन व्यवस्था इतनी जबरदस्त है, जो न्यायप्रिय और निष्पक्ष है। जिसको अपने हुकूमत से डिगाया नहीं जा सकता, हिलाया नहीं जा सकता। जिसको फुसलाया नहीं जा सकता, जो अपनी हुकूमत के बारे में, कायदे-कानून के बारे में इतना मजबूत है कि हमकोआज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों सजा दिये बिना रह नहीं सकता। आदमी के अच्छे या बुरे कर्मों का फल आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों मिले बिना रह नहीं सकता। जिनका यह विश्वास है, उनका नाम आस्तिक है।
कर्मफल सिद्धान्त में विश्वास का नाम है आस्तिकता
मित्रो! भजन का उद्देश्य जितना मैं समझ पाया हूँ, वह यह होना चाहिए कि आदमी को यह भय बना रहे कि हमारे ऊपर कोई शासन करता है। समाज व्यवस्था से भी आगे एक ऐसा शासन काम करता है और हर समय चौबीस घण्टे हमारी देख-भाल करता है और हमारीहर गतिविधि को, हर कर्म को नोट करता है। अगर आदमी को यह ध्यान बना रहे, तो आस्तिक आदमी दुष्कर्म नहीं कर सकता, दगाबाजी नहीं कर सकता। आस्तिक आदमी कोई चालाकी और चोरी नहीं कर सकता, क्योंकि वह हर जगह हर समय देखता रहता है कि कोईहुकूमत, कोई शासनसत्ता हमारे प्रत्येक कर्म को नोट करता जाता है और उसकी अदालत में किसी को छूट नहीं मिल सकती। जिसका ऐसा विश्वास है, उसी के लिए बेटे, हमने भजन करना सिखाया है। राम नाम हम इसीलिए लेते हैं कि हमें यह सब याद रहे। आज हमनेराम को भुला दिया और यह भी भूल गये कि उसने हमें मनुष्य का जीवन क्यों दिया? बेटे, मनुष्य जीवन की गरिमा को समझ और यह समझ कि मनुष्य को भगवान् ने इतनी कीमती चीज क्यों दी? कीड़े-मकोड़ों को, पशु-पक्षियों को क्यों नहीं दी?
मित्रो! यह जो फर्क है, इसलिए है कि मनुष्य को जो विशिष्टताएँ, विभूतियाँ दी गयी हैं वह इस दुनिया को सुन्दर बनाने के लिए और समुन्नत बनाने के लिए और शानदार बनाने के लिए और समुन्नत बनाने के लिए और शानदार बनाने के लिए हैं। उसी के लिए आपखर्च करें। नहीं साहब! मैं तो मौज करूँगा, मस्ती में खर्च करूँगा। नहीं बेटे, ऐसा नहीं हो सकता। आदमी की जिन्दगी बेहतरीन जिन्दगी है, जो उसे अमानत के तौर पर, धरोहर के रूप में दी गयी है। आदमी के पास जो प्रतिभायें हैं, वे एक बैंक के खजांची की तरह से उसकेपास जमी की हुई हैं। मनुष्य के पास ये अमानतें हैं। यह स्वयं के खाने के लिए नहीं दी गयी है। अगर खाने के लिए मिला होता, तो प्रत्येक जानवर को प्रत्येक प्राणी को समान रूप से मिला होता, फिर आदमी को ही क्यों ज्यादा मिलता? बेटे, यह अमानत है। मनुष्यभगवान् का बड़ा बेटा है, वरिष्ठ राजकुमार है, इसलिए उसके पास अमानत सौंपी गयी है कि वह अपने छोटे-भाई बहनों को खुशहाल रखे। उनकी सहायता करने के लिए उदारतापूर्वक इस सम्पदा का सदुपयोग करे, प्रयोग करे।
मित्रो! मनुष्य के पास जो चीजें हैं, अगर हम उसका ठीक से उपयोग करें, तो हमारा नाम आस्तिक है, लेकिन अगर हम उस दौलत को अमानत में खयानत करके अपने लिए, अपनी मक्कारी और अपनी ऐय्याशी पर खर्च कर दें, तो हम नास्तिक हैं। आस्तिकता कीकसौटी और नास्तिकता की कसौटी हमको समझनी चाहिए। भजन आवश्यक और सही है। लेकिन उससे भी ज्यादा सही यह है कि एक बार आप भजन न भी करें, तो मैं यह क्षमा कर सकता हूँ और आपसे कुछ कहूँगा भी नहीं; लेकिन आपको अगर यह विश्वास नहीं हैकि कोई शासन, कोई हुकूमत है और आप उसकी अवज्ञा करते हैं और यह सोचते हैं कि कर्मफल से आपका कोई ताल्लुक नहीं है और हम चाहे जैसा कर सकते हैं, तब बेटे आप नास्तिक हैं। आपको आस्तिक होना चाहिए।
मित्रो! गायत्री मंत्र की तीन धारायें हैं। एक है-आस्तिकता, दूसरी है-आध्यात्मिकता और तीसरी है-धार्मिकता। इतनी सारी पुस्तकें मैं लिखता रहा और पढ़ता रहा और जहाँ तक मैंने समझा, सारे के सारे वेदों को ढूँढ़ डाला, उपनिषदों को ढूँढ़ डाला। उन सबमें से मुझे जो ज्ञानमिला, वह एक ही था कि हमको आस्तिक होना चाहिए और हमको धार्मिक होना चाहिए। अभी तक मैंने जितने भी सत्संग सुने, जितने भी सन्तों के पास गया हूँ, जितना भी चिन्तन, मनन किया है, मुझे इन तीन के अलावा और कोई चीज दिखाई नहीं दी। मिठाई वालेके पास गया तो वहाँ मुझे तीन चीजें दिखाई पड़ी-एक अनाज, दूसरा दूध-और तीसरा गन्ना। आदमी हाथों की सफाई से तरह-तरह की मिठाइयाँ बना देते हैं। कभी गुलाबजामुन बना देते, कभी जलेबी बना देते। बेटे, इसमें अनाज, दूध और गन्ना-इन तीन के अलावा चौथीकोई चीज नहीं है। मिठाई ढेरों हैं। इसलिए वेद ढेरों हैं, पुराण ढेरों हैं, सत्संग ढेरों हैं, लेकिन मिठाइयों की दुकान की तरह से बस तीन चीजें ही सबमें काम करती हैं।
धर्म और संस्कृति का आधार है गायत्री
मित्रो! गायत्री मंत्र को बीजमंत्र इसीलिए कहा गया है। गायत्री को धर्म और संस्कृति का आधार भी इसीलिए कहा गया है। गायत्री को धर्म का प्राण इसीलिए कहा गया है कि इसके तीन चरणों में वह तीन धारायें समायी हुई हैं, जिसे हम सत्यं, शिवं और सुन्दरम् कहते हैं।जिसको हम सत्, चित् और आनन्द कहते हैं। जिसको हम ज्ञान, भक्ति और कर्म के बावत कहते हुए धार्मिकता कहते हैं, आस्तिकता कहते हैं और आध्यात्मिकता कहते हैं। यही गायत्री के तीन चरण हैं। अगर ये हमारे जीवन में समाविष्ट हो सकें, अगर ये हमारेव्यवहार में काम आ सकें और हमारे जीवन में चरितार्थ हो सकें, तो हम गायत्री के भक्त हैं अन्यथा कर्मकाण्डी मात्र हैं। नहीं महाराज जी! हम चौबीस हजार का जप करते हैं, लेकिन मैं आपको कर्मकाण्डी के अलावा अध्यात्मवादी नहीं कहूँगा और गायत्री का उपासक नहींकहूँगा, जब तक कि आप अपने सारे के सारे जीवन को नीतियों के आधार पर, सिद्धान्तों के आधार पर चलाने का, निर्वहन करने का विश्वास नहीं करेंगे और इसके लिए साहस एकत्रित नहीं करेंगे। आप ऐसा ही करें तो आप गायत्री के असली और सच्चे साधककहलायेंगे और गायत्री भक्तों को जो चमत्कार मिलने चाहिए जो लाभ और सिद्धियाँ मिलनी चाहिए, वह आपको मिलेगी और आप अपने आपको गायत्री का सच्चा अधिकारी पायेंगे। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्तिः