उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
मध्यकाल की विकृति
देवियो, भाइयो! मध्यकालीन परंपरा में भौतिक आधार पर भगवान को प्राप्त करने की कोशिश की जाने लगी और भगवान को भौतिक बना दिया गया। भगवान को भौतिक बनाने से क्या मतलब है? भौतिक से मतलब यह है कि एक इनसान एक आदमी जैसा होता है, भगवान का स्वरूप भी एक आदमी जैसा बना दिया गया। एक आदमी जैसे मिट्टी, पानी, हवा का बना हुआ होता है, लगभग वही स्वरूप भगवान का बना दिया गया। और भगवान की इच्छाएँ? इच्छाएँ वही बना दी गईं, जो कि एक आदमी की होती हैं। आदमी खाना माँगता है और भगवान प्रसाद माँगता है। लाइए सवा रुपये का प्रसाद, हनुमान जी को लड्डू खिलाइए। हनुमान जी का पेट भर दीजिए और काम हो जाएगा। भगवान जी को कपड़ा पहनाइए। क्यों? आपको कपड़े पहनने चाहिए न, इसलिए भगवान जी को भी कपड़े पहनाइए। गायत्री माता पर साड़ी चढ़ाइए। और क्या-क्या दें? जो कुछ भी, हमको खुशामद की जरूरत है। आप हमारी निंदा करेंगे तो हम आपको गालियाँ सुनाएँगे। आपको हमसे कुछ काम निकालना है तो आप हमारी चापलूसी कीजिए, खुशामद कीजिए, पंखा झलिए, हाथ जोड़िए, पाँव छूइए और पैर धोइए। हम व्यक्ति हैं, मनुष्य हैं, इसलिए हमारे लिए भेंट लेकर के आइए। पान खिलाइए, सुपारी खिलाइए, इलायची दीजिए, पैसा दीजिए। कुछ दीजिए हमको तो हम आपसे प्रसन्न हो सकते हैं।
साकार और निराकार भगवान
इसी तरह भगवान को आदमी बना दिया गया। आदमी को भौतिक बना दिया गया और भौतिक आदमी का जैसा ईमान, जैसी इच्छाएँ, जैसी कामनाएँ होती हैं, वैसा ही भगवान को बना दिया गया। मध्यकाल में भगवान की बड़ी दुर्गति की गई। तो क्या भगवान का कोई स्वरूप नहीं है? बेटे! भगवान का स्वरूप तो है। साकार और निराकार भगवान के दो स्वरूप हैं, परंतु ये किसलिए हैं और उनका उद्देश्य क्या है? साकार मूर्तियाँ बनाई तो गई हैं, पर हैं नहीं साकार। साकार से हमको अंदाजा लगाना पड़ता है कि चेतनात्मक भगवान क्या होना चाहिए। हमने शंकर भगवान की मूर्तियाँ गोल-मटोल बनाकर रखी हैं। इसका मतलब यह है कि सारे विश्व ब्रह्मांड में विराट ब्रह्म समाया हुआ है। इसलिए हमने शंकर भगवान की और शालग्राम की गोल मूर्ति बनाई थी। जिस तरह से हम ग्लोब दिखाकर अपने बच्चे को यह सिखाते हैं कि सारा विश्व पृथ्वी के ग्लोब जैसा है, गोल गेंद जैसा है। हमने भगवान का स्वरूप बताने के लिए कि सारे ब्रह्मांड में एक सत्ता काम करती है, एक शक्ति काम करती है, जो कण-कण में समाई है, नस-नस में समाई हुई है, हर जगह में समाई हुई है। इस सारे विश्व-ब्रह्मांड में संव्याप्त इस विराट को लोगों को समझाने के लिए कि ये जो सारा विश्व विराट है—"सीय राममय सब जग जानी। करऊँ प्रनाम जोरि जुग पानी।" है।
इष्ट लक्ष्य
मित्रो! सारे विश्व-ब्रह्मांड में भगवान समाया हुआ है। इसीलिए हमने शंकर भगवान की और शालग्राम की मूर्ति ग्लोब के रूप में बनाई थी, पर उस सिद्धांत को समझा नहीं गया। समझा यह गया कि शंकर भगवान गोल-मटोल हैं। अरे भाई! जब गोल-मटोल हैं, तो तू पानी क्यों चढ़ा रहा है? खाना किसलिए खिला रहा है? ये तो गोल-मटोल हैं, इनके तो मुँह नहीं है, आँखें नहीं हैं। नहीं, महाराज जी! ये तो पाँच मुँह के हैं। बेटे ! ये बेकार की बातें हैं। शंकर जी ऐसे नहीं हैं। हमने मूर्तियाँ बनाई थीं और भगवान को साकार बनाया था। किसके लिए? इसलिए साकार बनाया था कि हमारे जीवन का एक लक्ष्य होना चाहिए। भगवान को हम 'इष्ट' कहते हैं। इष्ट माने है लक्ष्य। लक्ष्य आप किसे कहते हैं? इष्ट या लक्ष्य उसको कहते हैं कि हमको बनना क्या है? हमें क्या बनना चाहिए? इसके लिए हमने कई तरह के ठप्पे-साँचे बना करके रखे थे कि हमको यह बनना है। दयालबाग, आगरा में एक विशालकाय मंदिर बन रहा है—गुरुजी की समाधि। उसके लिए एक मॉडल बना हुआ रखा है कि यह ऐसे बनेगा। ताजमहल जब बन रहा था तो उसको बनाने से पहले शाहजहाँ ने ताजमहल का एक मॉडल बनवाया था, जो वहाँ के म्यूजियम में अभी भी रखा हुआ है। इंजीनियरों ने मुलायम पत्थर का एक मॉडल बनाकर दिया था कि देखिए साहब! इसकी लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई ऐसी है। बादशाह ने उसे घटा-बढ़ाकर पास कर दिया कि हाँ ये मॉडल ठीक है तो उसी अंदाज से, उसी नाप-तोल एवं प्रपोर्शन (अनुपात) के हिसाब से ताजमहल बनना शुरू हो गया था।
हमें बनना क्या है?
साथियो! नक्शे कागज पर बनाए जाते हैं और मॉडल मिट्टी के अथवा दूसरी चीज के बनाए जाते हैं। मॉडल के आधार पर, नमूने के आधार पर चीजें बनती हैं। मूर्तियाँ या मनुष्य के जो स्टैच्यू बनते हैं, पहले मूर्तिकार मिट्टी का बना लेते हैं, फिर उसी के हिसाब से काट-छाँटकर पत्थर का बना लेते हैं। कोई ढलाई होती है तो पहले साँचा बना लेते हैं। साँचे में मेन चीज को गरम करके पिघला देते हैं और पिघला करके उसमें ढाल देते हैं। ढलने के बाद चीज तैयार हो जाती है। हमने भी एक मॉडल तैयार किया हुआ है, एक इष्टदेव तैयार किया हुआ है कि आखिर हमें बनना क्या है। हमने योगेश्वर कृष्ण का—पूर्णपुरुष का एक मॉडल बना करके रखा है कि हमको पूर्णपुरुष बनना है, योगेश्वर बनना है। इसीलिए हम कृष्ण की उपासना करते हैं। कृष्ण कैसे होते हैं? कृष्ण ऐसे हो सकते हैं, ताकि हम भूल न जाएँ, इसका यह एक नमूना, एक मॉडल रखा हुआ है। हमको मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनना है, इसलिए हमने राम की मूर्ति बना करके रख दी है और हम यह हर वक्त ध्यान में रखते हैं कि हमारा लक्ष्य और हमारा इष्ट राम हैं। हमने शंकर भगवान बना करके रखा है और उसके भीतर बहुत सारे गुणों का समावेश करके रखा है। बहुत-सी बातें शंकर भगवान में बनाकर रखी हैं और हर वक्त उनका ध्यान रखते हैं कि हमारा इष्ट शंकर हैं। हमारा लक्ष्य शंकर बनना है।
शंकर जी से जुड़ी वृत्तियाँ
हमारे लक्ष्य क्या-क्या हैं? इसके लिए हमने नमूने के लिए खिलौने के भीतर तरह-तरह की आकृतियाँ बना दी हैं और उन आकृतियों के भीतर कुछ संदेश, कुछ उद्देश्य, कुछ लक्ष्य, कुछ विचारणाएँ, कुछ प्रेरणाएँ भरकर रख दी हैं, जैसे शंकर के खिलौने के भीतर भर दी हैं। शंकर की मूर्ति खिलौना है? हाँ, खिलौना है। ऐसा कोई शंकर नहीं है, जैसा कि हमने बना करके रखा है। हमने खिलौने में बहुत सारी वृत्तियाँ समावेश करके रखी हैं। शंकर भगवान के सिर में से गंगाजी का पानी निकलता है। इसका क्या मतलब है? हमारे मस्तिष्क में से, हमारे विचारों में से ज्ञान की गंगा—विचारधारा जो प्रवाहित होनी चाहिए, वह गंगा जैसी निर्मल होनी चाहिए। यह मॉडल का लक्ष्य है, जो उसके पीछे पहेली के रूप में और कहानी के रूप में छिपा हुआ है। यह हमारा लक्ष्य है। शंकर भगवान के सिर पर चंद्रमा टिका हुआ है, इसका क्या मतलब है? चंद्रमा का अर्थ है—शांति, संतुलन। हमारे मस्तिष्क में शांति और संतुलन का स्वरूप रहना चाहिए। शंकर भगवान के गले में मुंडों की माला पड़ी हुई है। इसका मतलब है कि हर समय हमको मौत याद रहनी चाहिए और हमारा घर श्मशान में होना चाहिए। हमको याद रहना चाहिए कि हमको मरना है।
शंकर भगवान विभूतिवान थे। उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी। अतः हमको भी बिना भौतिक संपत्ति से निस्पृह होना चाहिए। शंकर भगवान के अंदर क्या-क्या विशेषताएँ थीं। वे साँपों को गले से लगाते थे। हम भी पिछड़े हुए लोगों को, दुष्ट लोगों को गले लगाकर उन्हें ठीक कर सकते हैं, जैसे भगवान बुद्ध ने अपने समान कितनों को बना लिया। शंकर भगवान की तरह से हम भी यह कर सकते हैं कि हम अपनी भूत-प्रेतों की सेना बना करके रहें। भूत-प्रेतों से मतलब है—पिछड़े हुए लोग—बैकवर्ड लोग। बैकवर्ड से मेरा मतलब केवल अछूतों से नहीं है, वरन बैकवर्ड वे लोग हैं, जो भावनात्मक दृष्टि से, नैतिक दृष्टि से, चारित्रिक दृष्टि से गिर गए, पिछड़ गए, वे सब लोग बैकवर्ड हैं। गुरुजी! हमने तो यह सुना है कि सरकारी हिसाब से अछूतों को बैकवर्ड कहते हैं। नहीं बेटे! बैकवर्ड अछूतों को ही नहीं कहते। अछूत तो केवल पैसे की दृष्टि से बैकवर्ड हैं, सामाजिक दृष्टि से बैकवर्ड हैं। नीयत की दृष्टि से, भावना की दृष्टि से, चरित्र की दृष्टि से दूसरे लोग भी बैकवर्ड हैं। हमको उन्हें भी साथ लेकर चलना पड़ेगा। बैकवर्ड कौन हैं? बैकवर्ड है तू। नीयत के हिसाब से और चरित्र के हिसाब से पिछड़ा हुआ आदमी, गिरा हुआ आदमी, घटिया आदमी और निकम्मा आदमी—नैतिक दृष्टि से पतित और भौतिक दृष्टि से पीड़ित। पीड़ित और पतित लोगों को, जिनको कि शंकर भगवान की सेना के भूत-प्रेत कहते थे। शंकर भगवान उनकी सेना बना करके रखते थे। तन खीन कोउ अति पीन पावन, कोउ अपावन गति धरें। इन पावन और अपावन लोगों को अपनी संगति में लेकर उनकी सेवा करते थे।
आज के सच्चे भगवान
मित्रो ! मैंने एक दिन आपसे जापान के गाँधी कागावा का वर्णन किया था। उन्होंने अपनी सारी जिंदगी दुखियारों के लिए, पीड़ितों और पतितों के लिए निछावर कर दी थी। बेटे ! वे कौन थे? वे शंकर भगवान थे। हिंदुस्तान में भी कोई इस तरह का शंकर भगवान हुआ है? एक दिन हम आपको बाबा साहब आप्टे का नाम सुना रहे थे और कह रहे थे कि कोढ़ियों की सेवा करने के लिए, दुखियों की सेवा करने के लिए उन्होंने अपनी सारी जमीन खरच कर दी। उन्होंने उनके लिए एक विद्यालय बनाया, जो आज एक विश्वविद्यालय के रूप में है। सारी जिंदगी दुखियारों के लिए, पीड़ितों और पतितों के लिए निछावर कर देने वाले बाबा साहब आप्टे को आप क्या कहेंगे? आप चाहें तो शंकर भगवान कह सकते हैं। नहीं साहब! शंकर भगवान तो वहाँ रहते हैं। बेटे! वे कहीं नहीं रहते, वे यहीं जमीन पर रहते हैं और इनसान के रूप में रहते हैं। ये हमारे इष्ट और लक्ष्य हैं। अगर तू लक्ष्यों को समझ पाया होता तो मजा आ जाता। भगवान की भक्ति धन्य हो जाती और भगवान का भक्त भी धन्य हो जाता, पर हम क्या कर सकते हैं। इस अज्ञानता के जमाने में जहाँ के प्रत्येक क्षेत्र में अनैतिकता और अवांछनीयता सिद्धांतों के नाम पर, आदर्शों के नाम पर फैली पड़ी है। अगर वहाँ भगवान की भी मिट्टी पलीद हो जाए तो हर्ज की क्या बात है? बेटे ! हमको माँस खाने की आदत है। उस आदत को पूरा करने के लिए हम देवी का बहाना लेते हैं और देवी पर बकरा चढ़ाते हैं और खुलेआम खाते हैं। और कहते हैं कि यह तो भगवान का प्रसाद है। देवी नाराज हो जाएगी, आप भी खाइए। धर्म के नाम पर गुनाह, यही है मध्यकालीन परंपरा और यही मध्यकालीन परंपरा आज हमारे और आपके सिर पर छाई हुई है।
हमारी आध्यात्मिक धरोहर
बेटे! हमारी उपासना—जैसे कि कल मैंने आपको बताया था कि यह हमारे जीवन का अध्यात्म, ऋषियों का अध्यात्म, प्राणवान अध्यात्म, जिसकी प्रतिकृति और प्रतिच्छाया को हमने अपने जीवन में चरितार्थ करने की कोशिश की है। यह कोई नया मजहब या नया धर्म नहीं है। प्राचीनकाल के ऋषियों ने जिस तरह से अध्यात्म का उपयोग किया, उसकी फिलॉसफी जो कुछ भी थी। जिस आधार पर उन्होंने भगवान का पल्ला पकड़ा, जिस आधार पर उन्होंने आत्मिक उन्नति की, वही आधार हमारे हैं, जिनको कि हम अपने निजी अनुभव के रूप में इस शिविर में आपको सुनाते और समझाते चले आ रहे हैं। हमारा व्यक्तिगत अनुभव और ऋषियों का अनुभव एक है। आध्यात्मिक जीवन एक है। आध्यात्मिक जीवन सामर्थ्य का पुंज है। तो क्या धन का भी पुंज है? हाँ, धन का भी पुंज है, सामर्थ्य का भी पुंज है और पैसे का पुंज है। जो मालदार आदमी होते हैं, वे अपनी संपदा का उपयोग नहीं करते, हम जानते हैं, लेकिन जो अध्यात्मवादी होते हैं, उनकी संपत्ति का कोई ठिकाना नहीं होता। चाणक्य की संपत्ति का कोई ठिकाना नहीं था। वह बहुत मालदार था। जब वह उस संपदा को एक बच्चे के ऊपर बिखेरता हुआ चला गया तो उसे चंद्रगुप्त बना दिया और चक्रवर्ती राजा बना दिया। इतिहास बताता है कि चंद्रगुप्त का साम्राज्य जितना बड़ा था, उतना बड़ा साम्राज्य कोई नहीं हुआ। अफगानिस्तान हिंदुस्तान में था। 'समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान' के नाम से हमने एक पुस्तक लिखी है, जिसमें यह बताया गया है कि हिंदुस्तान कहाँ-कहाँ तक फैला हुआ था। इसमें इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलाया तक आ जाते हैं। ये जो मध्य पूर्व के देश हैं, वे सब इसमें आ जाते हैं। इतना बड़ा हिंदुस्तान था।
इतिहास के उदाहरण
इस सारे के सारे हिंदुस्तान साम्राज्य का एक ही चक्रवर्ती सम्राट था। उसका नाम था—चंद्रगुप्त। चंद्रगुप्त कौन था? बेटे! वह एक नाइन का बेटा था। नाई कौन होता है? हजामत बनाने वाला। चाणक्य ने उससे कहा कि हम आपको राजा बनाना चाहते हैं, चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहते हैं। वह हँसने लगा और बोला—आपको मालूम नहीं है कि मैं कौन हूँ? आप कौन हैं? हम नाई हैं और वर्तमान राज परंपरा के हिसाब से अछूत राजगद्दी पर नहीं बैठ सकता। ये सारे राजा मुझे मार डालेंगे कि एक अछूत राजगद्दी पर कैसे बैठ गया? उस जमाने में सवर्ण गद्दी पर बैठ सकते थे, राजपूत बैठ सकते थे, पर अछूत नहीं बैठ सकते थे। आज तो कोई रुकावट नहीं है, पर उस जमाने में रुकावट थी। उन्होंने कहा कि कोई हर्ज की बात नहीं है। आप अछूत हैं तो क्या हुआ, हम आपको अपना बल देते हैं और अपनी संपत्ति देते हैं, शक्ति देते हैं। चाणक्य का बल लेकर, चाणक्य की शक्ति और वैभव लेकर चंद्रगुप्त सम्राट बन गया। और क्या-क्या किया चाणक्य ने? बेटे ! चंद्रगुप्त के जमाने में वह नालंदा विश्वविद्यालय का डीन था। नालंदा विश्वविद्यालय में इकतीस हजार विद्यार्थी पढ़ते थे।
अभूतपूर्व स्थापना : नालंदा विश्वविद्यालय
पुराने जमाने में विश्वविद्यालय खोलना हँसी-खेल नहीं था। आज तो फीस ले लीजिए, बोर्डिंग की फीस ले लीजिए, खाने का पैसा, मेस की फीस जमा कराइए और स्कूल चला दीजिए। चार-पाँच सौ रुपये महीना पब्लिक स्कूल की फीस ली जाती है और बच्चों को मजे में रख लेते हैं। प्राचीनकाल में ऐसा नहीं था। प्राचीनकाल में मनीऑर्डर कहाँ से आते, जब डाकखाने ही नहीं थे। जहाँ कहीं भी विद्यालय होते थे, वहाँ के संचालकों को ही प्रबंध करना पड़ता था। विद्यार्थियों के निवास, भोजन, वस्त्र, चिकित्सा, पुस्तकों व अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खरच करना उसका काम था, जो विद्यालय चलाता था। नालंदा विश्वविद्यालय में तो तीस-इकतीस हजार विद्यार्थी पढ़ते थे और इतने विद्यार्थियों में कितना खरच होता है, हम जानते हैं। हमारे चौके में चार-पाँच सौ आदमियों का भोजन होता है। इतने लोगों का भोजन किसे कहते हैं? इसे तैयार करने में क्या खरच पड़ता है? आपका पहनावा तो हमारे जिम्मे नहीं है, हम आपको साबुन नहीं देते। और आपकी कोई जिम्मेदारी हमारे ऊपर नहीं है, केवल आपको हम भोजन करा देते हैं चार सौ आदमियों को। लेकिन चाणक्य तो तीस-इकतीस हजार आदमियों का खरच उठाता था। इसमें बहुत खरच होता था। नालंदा विश्वविद्यालय में केवल विद्यार्थी ही नहीं, अध्यापक भी रहते थे। एक हजार तो रहते ही होंगे। एक हजार अध्यापकों का क्या खरच हो सकता है? वेतन कितना हो सकता है? गुजारा क्या हो सकता है? बिल्डिंगों का मेन्टीनेन्स क्या हो सकता है? आप समझते हैं। बहुत खरच होता है।
ओढ़ी हुई शानदार गरीबी
मित्रो ! नालंदा विश्वविद्यालय का खरच कौन उठाता था? एक ही आदमी उठाता था और उसका नाम था—चाणक्य। चाणक्य तो महाराज जी! बड़ा गरीब था। हाँ बेटे! वह इतना गरीब था कि जहाँ राजधानी थी और जिसका वह प्रधानमंत्री था, उससे तीन मील (लगभग ५ किमी० ) दूर अपनी झोंपड़ी बनाकर रहता था और रोज पैदल जाता था। पैदल जाकर के अपनी सब्जी-रोटी बनाता था और रात को वहीं विश्राम करता था, संध्या करता था। सवेरे उठता था, उपासना करता और फिर रोटियाँ बनाता, खाता और फिर पैदल आता था एवं गुप्त साम्राज्य के प्रधानमंत्री का भी काम करता था। नालंदा विश्वविद्यालय के डीन का भी काम करता था और उपासना भी करता था। गरीब था? हाँ बेटे! बहुत गरीब था। संत लोग गरीब क्यों रहते हैं? बेटे! गरीबी उनकी शान है। गरीबी का गौरव और महत्त्व बढ़ाने के लिए, अपरिग्रह का गौरव बढ़ाने के लिए और संपन्नता का गौरव और महत्ता गिराने के लिए संत गरीब रहते हैं। लोगों को यह कहते हैं कि आपकी जो यह दलील है कि हमारे पास पैसा होगा तो हम खुशहाल होंगे। पैसा होगा तो सम्मान मिलेगा। पैसा होगा तो हमारी सेहत अच्छी रहेगी। पैसे के बिना मुसीबत आएगी और पैसे के बिना हम दुखियारे रहेंगे। इस लोक मान्यता को कंडेम करने के लिए—निरस्त करने के लिए संत गरीबी का जीवन जिया करते हैं। संत कहते हैं कि देखिए, हमारे पास सामान कम है, लेकिन हमारे सम्मान में कोई कमी नहीं आई। देखिए, हमारे पास पैसा कम है, लेकिन हमारे स्वास्थ्य में, हमारी प्रसन्नता में, हमारी खुशी में कोई कमी नहीं आई। इसलिए मनुष्य का वैभव की ओर से मन पीछे करने के लिए संत गरीबी का जीवन जीते हैं और अपने भीतर तपश्चर्या की शक्ति को कायम रखने के लिए गरीबी का जीवन अपनाते हैं।
अध्यात्म की शानदार परंपरा
मित्रो! गरीबी एक शान है। गरीबी एक परंपरा है, एक सिद्धांत है, अगर यह गरीबी स्वेच्छा से स्वीकार की गई हो तब। गरीबी अगर अपनी बेवकूफी और कमजोरी से स्वीकार की गई हो तो बेटे! वह एक लानत है। लेकिन अगर स्वेच्छा से स्वीकार की गई है तो हम उसे तपश्चर्या कहेंगे, योग-साधना कहेंगे। संत तपस्वी होते हैं। उनका व्यक्तिगत जीवन गरीबों जैसा होता है, कम खरच का होता है, लेकिन जब वे अपने वैभव को बाँटते हैं तो लोगों को निहाल कर देते हैं। यही है अध्यात्म की वह परंपरा, जिसमें कि आधार स्वयं संपन्न दिखाई नहीं देते, लेकिन संपन्नता बिखेरते फिरते हैं। ऐसा अध्यात्म प्राचीनकाल में था और ऐसा अध्यात्म अभी भी हो सकता है, अगर उसको सही तरीके से अपनाया जाए।
उपासना का मर्म
अध्यात्म की सही परंपरा क्या हो सकती है? यह कल मैंने आपसे निवेदन किया था कि अध्यात्म चार हिस्सों में बँटा हुआ है। अध्यात्म एक नहीं है, इसके चार हिस्से हैं, चार टुकड़े हैं और चारों टुकड़े अपने आप में पूर्ण हैं। चारों टुकड़े ऐसे हैं, जिनमें से एक की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। चारों क्या-क्या हैं? एक चीज मैं कल आपसे कह रहा था—साधना। साधना और उपासना वास्तव में एक ही चीज हैं, पर उपासना क्योंकि बदनाम हो गई। उसको लोगों ने सस्ता खेल-खिलौना मान लिया, इसलिए मैंने उपासना का नाम बदल दिया है और मैं उसे साधना शब्द कहता हूँ। असल में मेरा मतलब साधना करने से उपासना करना है। उपासना और साधना दोनों एक ही चीज हैं। उपासना किसे कहते हैं? बेटे! उपासना नजदीक बैठने को कहते हैं, लेकिन नजदीक बैठने के बारे में एक बात आपको और ख्याल में रखनी पड़ेगी। वह यह कि नजदीक बैठना शरीरों का नहीं है। शरीरों का नजदीक बैठना कैसा होता है? मंदिर में पत्थर का एक खिलौना रखा हुआ है और हमारा पत्थर का शरीर उस पत्थर के नजदीक जा बैठे। आप तो यही उपासना समझते हैं न कि उपासना माने चौकी के पास बैठना, मंदिर में भगवान के पास बैठना। भगवान कहाँ है? वह रखा तो है चौकी पर और उसी के पास बैठने को उपासना कहते हैं। नहीं बेटे ! वह भगवान स्थूल है, जो हमारी चौकी पर रखा हुआ है और हमारा यह शरीर भी जो उसके पास बैठा हुआ है, स्थूल है। उपासना स्थूल की बात नहीं है, क्योंकि उपासना में हम जिस भगवान के पास बैठते हैं, वह भगवान चेतन है और हमारी जो जीवात्मा बैठती है, वह भी चेतन है। चेतन का चेतन के साथ बैठना उपासना का मूलभूत उद्देश्य है। हमारी चेतना, हमारा चिंतन, हमारी भावना जब भगवान की चेतना के साथ, भगवान की भावना के साथ बैठती है और लिपट जाती है, तब क्या होता है? वह हमारी उपासना होती है। इस उपासना में शक्ति आती है, आनंद आता है, रस आता है। उपासना में अनुभूति होती है, मस्ती आती है, जब हमारा अंत:करण भगवान के अंत:करण के साथ लिपट जाता है, तब।
विधि नहीं विधा!
बेटे! मेरी उपासना का यही सार है कि हमारा अंत:करण भगवान के अंत:करण से किस तरीके से लिपट सकता है? मैं कैसे उपासना करता हूँ? अभी जो मैंने बताया बेटे ! यही गायत्री मंत्र की मेरी उपासना है। नहीं साहब! आप कोई और मंत्र कहते होंगे। गायत्री मंत्र में कोई और बीज मंत्र लगाते होंगे। नहीं, मैं और कोई बीज मंत्र नहीं लगाता। चौबीस अक्षर जिसके अंदर हैं और जिसकी तीन व्याहतियाँ हैं, यही गायत्री मंत्र है। इसके अतिरिक्त मैं और कुछ नहीं करता। तो फिर आप अलग विधि से करते होंगे, जिससे आपको चमत्कार होता होगा। बेटे! विधि नहीं, विधा। पूछ कि वह क्या होती है? विधि तो हम उसे कहते हैं, जिसको कि हम कर्मकांड कहते हैं। चीजों की इधर-उधर हेरा-फेरी करना, जीभ से अल्लम-गल्लम बकते रहना और हाथों से चीजों का इधर से उधर करते रहना, हाथ को इधर कर देना, उधर कर देना, हाथ की यों मुद्रा बना देना। ये क्या हैं? ये बेटे ! कलेवर हैं। वास्तव में जो उपासना मैं करता रहा हूँ, वह ऐसी है जिसमें हमारा अंत:करण भगवान के अंत:करण के नजदीक होता चला गया। उपासना में हमारा अंत:करण और भगवान का अंत:करण किस तरह से एक हो जाता है, आपको उदाहरण देकर बताता हूँ।
हम दो नहीं, एक हो जाएँ
कभी-कभी सवेरे मैं एक कप चाय बनाता हूँ। बिजली का एक छोटा-सा हीटर लगा रखा है। जब हम बटन दबा देते हैं तो बिजली का करेंट चालू हो जाता है और जो इसमें क्वाइल लगे हए हैं, बिजली के प्रवाह से उनके सारे तार लाल हो जाते हैं। वे इतने लाल हो जाते हैं कि अगर हम गलती से उन्हें छू लें तो बिजली हमारी जान ले लेगी। वे क्वाइल ऐसे होते हैं। तो उपासना में आप क्या करते हैं? उपासना में हम यह करते हैं कि भगवान की शक्ति हमारी अंतरात्मा में, हमारे क्वाइल में-लोहे के तार में आकर के इस तरीके से समा जाती है कि हमको यह फरक करना मुश्किल होता है कि हमारा अंत:करण और भगवान का अंत:करण एक है अथवा दो हैं। दोनों के अंत:करण एक हो जाते हैं। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जिस तरीके से भगवान चिंतन करता होगा, भगवान की जो इच्छाएँ रही होंगी, भगवान जैसा उदात्त और उदार रहा होगा, हम प्रयत्न यह करते हैं कि हमारी मनःस्थिति और भगवान की मनःस्थिति दोनों का मूल्यांकन, दोनों का लेखा-जोखा और दोनों का स्वरूप एक हो जाए। जब तक एक नहीं हो जाता, तब तक हम यही कोशिश करते हैं कि हमारी भावनाओं का स्तर भगवान की भावनाओं के स्तर के बराबर हो जाए।
(क्रमश:)
परिष्कृत अध्यात्म हमारे जीवन में उतरे - २
मनःस्थिति बेल जैसी हो
मित्रो! उपासना के समय असली कीमत भावना की है। लोग तो वही स्थूल बातें करते रहते हैं कि उपासना के समय हमारा मन नहीं लगता। उपासना के समय प्रकाश नहीं दीखता, गणेश जी नहीं दीखते और न जाने क्या-क्या बकते रहते हैं। ये सब बकवास हैं। उपासना का अर्थ यह है कि भगवान की भावनाएँ, भगवान का स्तर एवं हमारी भावनाएँ और हमारा स्तर दोनों को एक होना चाहिए। क्या कुछ कमी रह जाती है? हाँ बेटे! कुछ कमी भी रह जाती है। हम एक होने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाते, पर कोशिश करते हैं कि जितना ज्यादा नजदीक हो सकें, उतना ज्यादा नजदीक होने का हम प्रयत्न करें। इसके थोड़े से उदाहरण हमारे सामने आते हैं। कौन-कौन से उदाहरण सामने आते हैं? एक उदाहरण यह सामने आता है लता का—बेल का। बेल बड़ी कमजोर होती है, बड़ी असमर्थ होती है। बेल बहुत पतली होती है ! वह जमीन पर फैल सकती है, पर ऊँचे नहीं उठ सकती, लेकिन जब वह पेड़ से लिपटती हुई चली जाती है तो इतनी ऊँची हो जाती है, जितना ऊँचा पेड़ है। हम यह कोशिश करते हैं कि उपासना के समय हम भगवानरूपी पेड़ के साथ अपनी अंतरात्मारूपी बेल को लिपटाते हुए चले जाएँ और उसकी ऊँचाई, उसकी गरिमा, उसकी महिमा के बराबर अपने नाचीज व्यक्तित्व और अस्तित्व को उठाते हुए चले जाएँ। हमारी मनःस्थिति यही होती है—बेल जैसी।
निष्काम भाव सोऽहम्
महाराज जी! और कैसी मन:स्थिति होती है? बेटे! हम अपनी मन:स्थिति को इस तरह बनाने की कोशिश करते हैं कि हमारी कामनाएँ खत्म हो जाएँ और हमारी कामनाओं पर भगवान की कामनाएँ काम करें। हम खाली हो जाएँ और खाली हो करके उसके भीतर भगवान अपना काम करने के लिए स्वाधीन हो जाएँ। स्वच्छंद हो जाएँ। सोऽहम्' की उपासना में हम इसी की बात कहते हैं। जब 'हम्' कहते हैं, तब अपने अहंकार को निकाल देते हैं। और 'सो' को अपने भीतर प्रवेश कराते हैं। 'सोऽहम्' की उपासना में इसी मान्यता का वर्णन किया गया है और हम अपनी उपासना में इन्हीं भावनाओं को, इन्हीं वृत्तियों को विकसित करने की कोशिश करते हैं। क्या करते हैं आप? बेटे! हम यह भावना करते हैं कि हम खाली हो गए हैं और मन खाली करके फेंक दिया है और भगवान से कहा कि आपकी जैसी मरजी हो, वही वृत्ति पैदा कीजिए, वही आकांक्षा पैदा कीजिए और हमारी आकांक्षा को निकाल दीजिए।
मित्रो! हमारे भीतर चार शैतान समाए हुए हैं। पहला शैतान कौन है? वासना। वासना के गर्त में हम घिरे हुए हैं और आपकी कृपा को लेकर उसको भी इसी नरक में डालना चाहते हैं। दूसरे हम तृष्णा के जंजाल में, तृष्णा के दलदल में फँसे हुए हैं और आपका अनुग्रह, आपकी कृपा और आपके वरदान को भी घसीटकर इसी नरक में डालना चाहते हैं। हम बड़े दुष्ट हैं। आपकी महिमा और आपकी गरिमा को हम झपटना चाहते हैं, छीन लेना चाहते हैं। तीसरा अपने अहं की पूर्ति करने के लिए, अपनी अमीरी बढ़ाने के लिए, अपना वैभव बढ़ाने के लिए, अपना यश बढ़ाने के लिए हम आपके अनुग्रह को इसी नरक में डालना चाहते हैं। अंतिम अपनी उद्विग्नता और विक्षोभों के कारण हम जो अशांत रहते हैं, चाहते हैं कि हमारे विक्षोभों का समाधान करने के लिए आपका अनुग्रह काम करे। अपने लिए हम आपका इस्तेमाल करना चाहते हैं। आमतौर से हर आदमी की इच्छा यही होती है कि भगवान की कृपा, भगवान का प्यार हम किसी तरह से झपट लें। झपट लेने के बाद उसका इस्तेमाल अपने स्वार्थों के लिए, अपने लोभ को पूरा करने के लिए, अपने मोह को पूरा करने के लिए, अपने अज्ञान को पूरा करने के लिए, अपने अहं को पूरा करने के लिए खरच करें। प्रायः लोगों की यही वृत्ति रहती है।
भगवान के पीछे चलिए
मित्रो ! एक दिन भगवान ने मुझसे कहा था कि देख भाई! अगर तू मेरे साथ चलना चाहता है, तो मैं बड़ा हूँ और तू छोटा है। तू मेरे पीछे चलना चाहता है कि मुझे अपने पीछे चलाना चाहता है? हमने कहा कि हम ऐसी गुस्ताखी नहीं कर सकते कि हम जैसे घटिया आदमी आपसे यह कहें कि आप पीछे चलिए और हम जो हुक्म दें, उसे आपको पूरा करना चाहिए। तो फिर हमारे पीछे चलेगा ना? कोशिश यही करूँगा। तो फिर हमारे पीछे चल, हमारे निर्देशों पर चल। प्रकाश के पीछे चल और छाया की ओर से मुख मोड़ना शुरू कर। मित्रो ! मैंने अपना मन बदल दिया और 'अबाउट टर्न' कर दिया। जब मैं उपासना प्रारंभ करता हूँ तो एक ईमानदार आदमी की तरह से करता हूँ, बेईमान आदमी की तरह से नहीं करता। ईमानदार भक्त की तरह से अपनी मनःस्थिति बनाने की कोशिश करता हूँ। अपने को बाँसुरी की तरह से खाली कर देता हूँ और ये कहता हूँ कि प्रियतम अब इस पर आप जो कुछ भी बजाना चाहते हैं, बजा सकते हैं। आपका जो इशारा होगा, आपकी हवा जहाँ कहीं से भी आएगी, मेरे कण-कण से वही आवाज निकलेगी। मेरे कण-कण से वही ध्वनि निकलेगी। आप बजाइए, हम बजेंगे। चार आने कीमत की बाँस की जरा-सी नली, जब खाली होती है और खाली होने के बाद वादक के ओंठों के पास जा पहुँचती है। वादक जब उसमें फूँक मारना शुरू करता है तो कैसी-कैसी लहरें, कैसी-कैसी तरंगें, कैसे-कैसे गाने उसमें से निकलते हैं। बेटे ! हमारे भीतर से बहुत गायन निकलते हैं, बहुत संगीत निकलते हैं।
जीवन संगीत प्रभु का ही
हमारे जीवन में से जो संगीत निकलते हैं और जिन संगीतों को आप सुनते हैं, वस्तुत: वे हमारे नहीं हैं। ये प्रियतम के हैं और प्रियतम का संगीत-संदेश प्राप्त करने का अधिकार हमको इस कीमत पर मिला है कि हमने अपने आप को खाली कर दिया। हमने अपनी कामनाओं को और महत्त्वाकांक्षाओं को पैरों तले रौंदकर फेंक दिया। हमारी महत्त्वाकांक्षाएँ समाप्त हो गईं, हमारी कामनाएँ समाप्त हो गईं, इच्छाएँ समाप्त हो गईं। अब हमारी कोई कामना नहीं है, जिसे हम भगवान से कहें। अब हमारी एक ही कामना है कि आप हमको जिस तरीके से चलाना चाहते हैं, चला दीजिए। हम आपके पीछे एक अनुशासित व्यक्ति की तरह से, वफादार सेवक की तरह से, एक स्वामी भक्त, समर्पित व्यक्ति की तरह से चलेंगे।
सब उलटा चक्कर
बेटे! हमारा समर्पण, हमारी शरणागति शाब्दिक नहीं है, वास्तविक है और लोगों की शाब्दिक होती है। कैसे? "सब भार सौंप दिया, भगवान तुम्हारे हाथों में" गुरुजी ! हम तो आपकी शरण में हैं और हम आपको भगवान मानते हैं। अच्छा! हमको भगवान मानता है तो फिर हमारे कहने पर चल। नहीं, महाराज जी! आप! हमारे कहने पर चलें। अहाऽऽ तो ये बात है, इसीलिए तू हमें भगवान मानता है। हमको अपने कहने पर चलाएगा। हाँ, महाराज जी! आप! हमारे कहने पर चलिए और हमारी मनोकामना पूरी कर दीजिए और अपना तप हमारे हवाले कर दीजिए। तो तू इसलिए भगत बन रहा था? हाँ, महाराज जी! इसीलिए बन रहा था। तो बेटे! भगत का यह तरीका नहीं है। भगत का तरीका यह है कि हम बड़े हैं, ज्ञानवान हैं और तू चेला है, हमारा कहना मान और हमारे साथ चल। नहीं, महाराज जी! आप! हमारा कहना मानिए। तो तू इसीलिए चेला बनता था? नहीं, महाराज जी! मैं कहता तो था कि आपका चेला हूँ, पर हूँ गुरु! अच्छा, तो तू गुरु है, पर बनता है चेला। ऐसी मक्कारी क्यों करता है? या तो तू हमारे कहने पर चल या हम तेरे कहने पर चलें। अगर तू अपने कहने पर हमारा तपबल चलाना चाहता है तो तू गुरु है और अगर हमारे कहने पर तू अपने श्रम और मनोयोग को खरच करना चाहता है तो हम गुरु हैं। महाराज जी! ये क्या चक्कर उलटा बन गया। हाँ बेटे ! देख ले, सब कुछ उलटा हो गया।
समर्पण पतंग की तरह, कठपुतली की तरह
मित्रो! मेरे जो गुरु हैं, मैं उनके पीछे-पीछे चलता हूँ और अपनी मन:स्थिति को ऐसी बनाने की कोशिश करता हूँ, जैसी पतंग की होती है। पतंग अपनी डोर को किसी बच्चे के हवाले कर देती है और यह कहती है कि आप हमें उड़ाइए। बच्चा उसे उड़ाता है और पतंग आसमान में चढ़ती हुई चली जाती है। पतंग जिस दिन बच्चे से यह कहती है कि हमें आपके हाथ में अपनी डोर नहीं देनी है, अपनी डोर हमें अपने हाथ में रखनी है तो उस दिन से पतंग उड़ नहीं पाएगी। कठपुतलियों के धागे बाजीगर के हाथ में बँधे रहते हैं और बाजीगर अपनी उँगलियों को नचाता है और उँगलियों के इशारे पर कठपुतलियाँ नाचती हैं। नाचकर कैसा मजेदार और शानदार खेल होता है, देखने वाले तमाशा देखते और मजा उड़ाते हैं, तालियाँ बजाते हैं। किसका नाच हो रहा है? कठपुतलियों का हो रहा है। कठपुतलियों का नहीं हो रहा, बेटे! बाजीगर की उँगलियों में बँधे हुए धागों का हो रहा है। बाजीगर की उँगलियों में हमने अपनी जिंदगी के सब धागों को बाँध दिया है। भगवान के हाथों में बाँध दिया है।
स्वयं भगवान हमारे गुरु
भगवान कैसा है? बेटे! भगवान को हमने देखा नहीं है और कभी-कभी मन कच्चा हो जाता है कि भगवान न हुआ तो? भगवान को जब देखा नहीं, तो हम उससे बात कैसे कर सकते हैं? इसलिए हमने अपनी श्रद्धा का एक केंद्रबिंदु बना रखा है और वो है—हमारा 'बॉस,' अपना 'मास्टर'। जब पत्थर का भगवान बनाया जा सकता है, लकड़ी का भगवान बन सकता है, गोबर का गणेश बन सकता है तो जीवंत हाड़-मांस का भगवान क्यों नहीं बन सकता? हमारा गुरु हमारा भगवान है। हमारी श्रद्धा उसके लिए समर्पित है। हम यह प्रतीक्षा करते रहते हैं और एक बात कहते हैं कि आप हुक्म दीजिए। हमने कभी एक बार भी यह नहीं कहा कि आप हमको बुला लीजिए, हमको दर्शन दीजिए, हमको ये कर दीजिए। आज तक इतनी उम्र हो गई, पचपन साल से हम उनसे संबंधित हैं, लेकिन कभी हमारे मन में ये संकल्प उठा हो कि हे भगवान ! आप हमारा ये कर दीजिए, दर्शन दीजिए, जहन्नुम में डालिए या गड्ढे में पटक दीजिए, या हिमालय पर बुला लीजिए। बेटे! हमारी कोई इच्छा नहीं है। आप गुरु से प्रार्थना कीजिए। बेटे! गुरु से क्या प्रार्थना करनी चाहिए? गुरु को तो हुक्म देना है कि हमको ये करना है, बस, हमारे लिए वही सब कुछ है।
मित्रो! कोई हमसे ये पूछे कि यह मनःस्थिति लेकर आपने क्या पाया? आप घाटे में चले गए होंगे? नहीं, बेटे! हम घाटे में नहीं गए, वरन नफे में आ गए, क्योंकि हमें बहुत दिनों से मालूम है कि भगवान के कायदे-कानून क्या हैं? भगवान अपने आप को बेचता रहा है और ये कहता रहा है कि जिसकी मरजी हो, हमको खरीदकर ले जा सकता है और अपनी मरजी से हमको चला सकता है। राजा हरिश्चंद्र ने चौराहे पर खड़े हो करके कहा था कि जो भी चाहे, हमको खरीदकर ले जा सकता है। हम उसका काम करेंगे। हम उसके हाथ बिकने को तैयार हैं। हम एक वफादार नौकर की तरह से जिंदा रहेंगे, जो भी चाहे, हमें खरीद ले। राजा हरिश्चंद्र को एक डोम खरीदकर ले गया था और वे उसके हाथ बिक गए थे। डोम ने जो कुछ भी कहा था, उसका कहना उन्होंने माना था। भगवान ठीक राजा हरिश्चंद्र की तरह से बिकने के लिए तैयार है और आप में से हर आदमी का हुक्म बजाने को तैयार है। हर आदमी का कहना मानने को तैयार है भगवान। और उसकी शर्त की कीमत क्या है? भगवान को कीमत देकर पाया नहीं जा सकता और न किसी ने पाया आज तक। भगवान को जिस किसी ने भी पाया है, उसने कीमत देकर खरीदा है।
भगवान के हाथों स्वयं को बेच दें
नहीं साहब! भगवान फोकट में मिलता है। बेटे ! भगवान फोकट में नहीं मिलता। नहीं साहब! वह तो चावल, धूपबत्ती की कीमत पर मिलता है। चंदन की माला की कीमत पर मिलता है। जप-अनुष्ठान की कीमत पर मिलता है। नहीं, बेटे! भगवान इतनी कम कीमत का नहीं है। भगवान की कीमत हम चुका सकते हैं? हाँ, आप! भगवान की कीमत चुका सकते हैं। आपके पास इतना धन है कि आप चाहें तो भगवान को मजे में खरीद सकते हैं। बताइए, वो क्या कीमत है, जिससे हम भगवान जैसी महानशक्ति और महानसत्ता को खरीद पाएँ। बेटे! वो एक ही कीमत है, जिससे भगवान जैसी महानशक्ति और महानसत्ता को खरीद सकते हैं और वो है—अपने आप को भगवान के हाथों बेच देना। अगर अपने आप को बेच देंगे तो आप भगवान को खरीद सकते हैं। अपने आप को बेचा कैसे जा सकता है? बेचा ऐसे जा सकता है कि आप अपनी इच्छाओं को भगवान के हवाले कर दें और ये कहें कि अब हमारी इच्छाएँ खत्म हो गईं। अब आपकी इच्छाओं का शासन-अनुशासन हमारे ऊपर कायम होता है। आपके संकेत हमारे ऊपर कायम होते हैं। आप हमको चलाइए और हम आपकी मरजी के ऊपर चलेंगे।
भगवान प्रतिच्छाया
भगवान कैसा होगा? भगवान कैसा होना चाहिए? इसके लिए मैनें दो शब्दों का इस्तेमाल किया है और वो शब्द मुझे बहुत प्यारे हैं। कौन-कौन से वो शब्द हैं? एक शब्द है—'प्रतिच्छाया' और एक है—'प्रतिध्वनि'। प्रतिच्छाया क्या है? बेटे! प्रतिच्छाया से मेरा मतलब यह है कि एक बड़ा-सा शीशा हो और उस शीशे के सामने आप खड़े हो जाइए तथा अपने हाथ-पाँव को चलाना शुरू कीजिए। फिर देखिए कि शीशे में जो आदमी खड़ा है, बिल्कुल आपके तरीके से चलता है और जैसा भी आप चाहते हैं, उसी तरह से चलता है। शीशे के सामने, जब आप घूसा दिखाते हैं कि मार देंगे तो शीशे वाला कहता है कि मार दूँगा। जब आप शीशे वाले से कहते हैं कि नमस्कार भाईसाहब! तो शीशे वाला कहता है, नमस्कार भाईसाहब! आप और हम तो मित्र हैं। शीशे वाला कहता है हाँ, साहब! बिल्कुल मित्र हैं और जब हम यह कहते हैं कि तेरी जेब काटेंगे, तेरी हजामत बनाएँगे तो शीशे वाला कहता है कि तेरी जेब काटेंगे और तेरी हजामत बनाएँगे। किसकी बात कह रहे हैं—शीशे वाली प्रतिच्छाया की? नहीं बेटे ! ये भगवान की बात है। आपका ईमान, आपकी नीयत जैसी भी कुछ है, रबर की गेंद के तरीके से टक्कर मारती है भगवान से और ज्यों की त्यों लौटकर आपके पास आ जाती है। आपकी नीयत ज्यों की त्यों भगवान के पास से वापस आ जाती है, इसलिए मैंने भगवान को प्रतिच्छाया कहा है।।
भगवान प्रतिध्वनि
मित्रो! भगवान को मैंने प्रतिध्वनि कहा है। प्रतिध्वनि से क्या मतलब है? प्रतिध्वनि से मेरा मतलब यह है कि गुंबद के नीचे खड़े होकर जब हम आवाज लगाते हैं तो ज्यों की त्यों आवाज वापस आ जाती है। जो भी हम कहते हैं, वह गुंबद से टक्कर खाकर के ज्यों का त्यों आ जाता है। जैसे—हम कहते हैं कि कौन बोल रहा है? गुंबद भी कहता है—कौन बोल रहा है? हम कहते हैं—जो कुछ है, हमारे हवाले कीजिए। गुंबद भी कहता है जो कुछ है, हमारे हवाले कीजिए। हम कहते हैं—हमको वरदान-आशीर्वाद दीजिए। गुंबद भी कहता है—हमको वरदान-आशीर्वाद दीजिए। हम कहते हैं—हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। गुंबद भी कहता है—हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। ये कौन बोल रहा है? बेटे! ये भगवान बोल रहा है। जिन शब्दों में, जिस नीयत के साथ इस गुंबद में हम जो कुछ बोलते हैं वह लौटकर उसी रूप में हमारे पास आ जाता है। जब यह बोलते हैं कि हमें आपका कुछ नहीं चाहिए तो भगवान भी कहता है कि हमें भी आपका कुछ नहीं चाहिए। जब हम गुंबदरूपी भगवान से यह कहते हैं कि जो कुछ भी हमारे पास है, वह हम आपके हवाले करते हैं तो भगवान भी कहता है कि जो कुछ हमारे भी पास है, हम आपके हवाले करते हैं। कहते हैं कि भक्तों की परंपरा अनादिकाल से यही रही है और यही रहेगी।
कर्मकांड का मर्म समझिए
मित्रो! भक्तों का जीवन जीने के लिए भजन करने के साथ-साथ, अपने जीवन की प्रक्रिया में भक्ति का समावेश करने के लिए हमने दार्शनिक दृष्टि से, भावनात्मक दृष्टि से और अंत:करण की दृष्टि से हरचंद कोशिश की है। आपने तो इसका छिलका हाथ में पकड़ रखा है। किसका छिलका पकड़ रखा है? नारियल का छिलका आपने हाथ में पकड़ रखा है और गूदे को फेंक दिया है। छिलके से क्या मलतब है? छिलके से हमारा मतलब कर्मकांडों से है। कर्मकांड छिलका हैं? हाँ बेटे! छिलका उसकी हिफाजत के लिए बना है, ताकि उसके अंदर की गिरी-गोला खराब न हो जाय। इसलिए छिलके की भी जरूरत है, लेकिन आपने केवल छिलका पकड़ लिया है, कर्मकांड पकड़ लिया है और उपासना के लिए जिस भावना की जरूरत है कि भगवान की और भक्त की भावना एक होनी चाहिए, उसको आप भुलाते हुए चले जाते हैं। सबेरे मैं आपको ध्यान कराता हूँ और यह कहता हूँ कि समर्पण, विसर्जन, विलय, समन्वय, समाधान और शरणागति। इसका अर्थ यह है कि हमारी उपासना का स्तर ये होना चाहिए और उपासना की अनुभूति होनी चाहिए कि भक्त और भगवान एक, सविता और साधक एक। इसमें क्या होता है? दोनों एक हो जाते हैं। दोनों के एक हो जाने से क्या मतलब है? दोनों के एक हो जाने से ये मतलब है कि नाला नदी हो जाता है। नदी नाला नहीं हो सकती, नाला नदी हो जाता है। चंदन झाड़ी नहीं होता, झाड़ियाँ चंदन हो जाती हैं। हम झाड़ियाँ हैं और भगवान को हमारे जैसा बन जाना चाहिए। नहीं बेटे! ऐसा नहीं हो सकता। हमको भगवान जैसा बनना पड़ता है। यही मनःस्थिति है, यही भक्ति का स्वरूप है। उपासना का यही सिद्धांत है, यही कसौटी है और यही तथ्य और स्वरूप है।
इष्ट के साथ एकाकार
मित्रो! उपासना के साथ-साथ इसी तरह की अपनी मन:स्थिति बनाने की मैं कोशिश करता हूँ। जप तो करता रहता हूँ जबान से। हाथ से अक्षत चढ़ाता व माला भी घुमाता रहता हूँ, परंतु कोशिश यह करता हूँ कि मेरी अंतरात्मा, अंत:करण, चिंतन, विश्वास और आस्थाएँ, जीवन का स्वरूप उसी ढाँचे में ढलता हुआ चला जाए, जैसा कि मेरा इष्टदेवता है। गायत्री माता के ढाँचे में ढलने की कोशिश करता हूँ। उसके पास रहने वाले, उपासना करने वाले राजहंस का नमूना बनने की कोशिश करता हूँ, ताकि जिस तरीके से राजहंस के लिपटे हुए सफेद कपड़े होते हैं, ज्यों के त्यों सफेद बने रह सकें। नीर-क्षीर करने की विवेक-बुद्धि ज्यों की त्यों बनी रह सके। दूध और पानी का फरक करने की, उचित और अनुचित का फरक करने की बुद्धि ज्यों की त्यों बनी रह सके। उपासना में मैं गायत्री माता के नजदीक बैठने की, गायत्री माता का हंस बनने की कोशिश करता हूँ। सदा यही चिंतन करता रहता हूँ। बेटे! अगर यही चिंतन आपका भी प्रारंभ हो जाय और यही हिम्मत और जुर्रत आपके भीतर भी पैदा हो जाय तो मैं आपसे कहता हूँ कि आप भी उपासना का लाभ उठा सकेंगे। उपासना का फल मिलेगा। उपासना में आपको रस आएगा। उपासना आपको टॉनिक जैसी मालूम पड़ेगी। जब मैं उपासना से उठता हूँ तो ऐसा मालूम पड़ता है कि कुछ पी करके आया हूँ। कुछ ले करके आया हूँ, कुछ मेरे ऊपर लद गया है। कुछ पा करके आया हूँ। आप जब उपासना से उठते हैं तो थके हुए से उठते हैं, जंभाई लेते हुए उठते हैं, हारे हुए से उठते हैं। आप तो ये शिकायत करते हैं कि हमको नींद आ जाती है, झपकी आ जाती है। हमारा मन नहीं लगता। बेटे ! हमें ऐसी कोई शिकायत नहीं होती। हम तो आनंद से और मस्ती से भर जाते हैं। अगर आप भी अपनी मन:स्थिति ऐसी बनाने की कोशिश करें तो आपकी साधना का पहला चरण पूरा हो सकता है।
साधना और स्वाध्याय भी
मित्रो! दूसरा वाला एक चरण और है। दूसरा वाला चरण यह है कि उपासना के सिवाय जीवन की प्रक्रिया में एक और चीज को हमने समावेश कर लिया है। उसका नाम है—साधना एवं स्वाध्याय। स्वाध्याय का मतलब क्या होता है? स्वाध्याय से मतलब आमतौर से लोग धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने से निकालते हैं, पर वास्तविक मतलब यह नहीं है। स्वाध्याय का मतलब सत्संग से लिया जा सकता है। संगति का आदमी के ऊपर बहुत असर पड़ता है। संगति वातावरण की भी है। जहाँ कहीं भी हम जाते हैं, हर जगह से हमको नसीहत मिलती है। हर जगह से जो सलाह-मशविरा मिलता है, हर जगह से जो प्रभाव मिलता है, जो वातावरण मिलता है, वो हमको अपनी ओर घसीटता हुआ चला जाता है। हम अकेले एक ओर और सारी दुनिया एक ओर। हम कहाँ तक खड़े रह सकते हैं? बीबी से लेकर साले तक और जमाई से लेकर बेटे तक, हर आदमी इस बात में एक राय है कि हमको संपत्ति कमानी चाहिए, चाहे वो ईमानदारी से हो या बेईमानी से। बीबी से पूछते हैं कि बताइए आपकी क्या राय है, बेईमानी से पैसा कमा लें? कोई हर्ज की बात नहीं है। सारी दुनिया कमाती है। बाल-बच्चों के काम आएगा, मकान बना लेंगे। बीबी हमको इस मामले में यही सलाह देती है।
आज की दुनिया के प्रचलन
मित्रो! माँ से लेकर अन्यान्यों तक नैतिक सिद्धांतों के मामले में कोई समर्थन नहीं करता। ब्याह हुए छह वर्ष हो गए, कोई बच्चा नहीं हुआ। अम्मा क्या करें? बेटा ! तू मेरा कहना माने तो दूसरा ब्याह कर ले। लेकिन इसका क्या करूँ, जिसको ब्याह कर लाए थे। अरे! इसको फाँसी दे-दे, निकाल दे, जहर दे-दे, मायके भेज दे। ये कौन कहता है? ये हमारी माँ कहती है। और बीबी कहती है कि आप रिश्वत लिया करें और हमारे लिए सोने की अँगूठी बनवा दें। हमारा साला भी कहता है, पड़ोसी भी कहता है, हर आदमी कहता है। हमारे मित्र भी यही सलाह देते हैं। सारे का सारा समाज, जिससे हम घिरे हुए हैं, एक भी आदमी हमको ऐसा नहीं दिखाई पड़ता, जो नैतिक मामलों में, आध्यात्मिक मामलों में हमको सलाह देता हो और प्रोत्साहन देता हो। जिधर भी नजर डालते हैं, वहाँ हमको नैतिक दिशा में एक भी प्रोत्साहित नहीं करता। सौ में से सौ आदमी। हर आदमी हमारे पैर पकड़ करके पीछे घसीटता है।
वातावरण चाहता है चिकित्सा
न केवल मित्र और संबंधी घसीटते हैं, वरन हवा भी हमको उधर ले जाती है। हम बाजार में से निकलते हैं तो जर्रा-जरी, चप्पा-चप्पा हमको ये कहता है कि आपको अनैतिक होना चाहिए। बड़ी वाली इमारत से पूछा—"क्यों बहन जी! आप इतनी बड़ी खड़ी हुई हैं तो आपके अंदर रहने वाला व्यक्ति बहुत मजा करता होगा।" अजी साहब! पंडित जी मौज उड़ाता है। उसकी तिजोरी में रुपया भरा हुआ पड़ा है। उस हवेली से फिर हमने पूछा—"क्यों बहन जी! फिर तो आप हमको भी मिल सकती हैं?" मिल तो सकती हूँ, लेकिन जो तरीका इसमें रहने वाले आदमियों ने अख्तियार किया, वही तरीका आपको अख्तियार करना पड़ेगा। हम आपकी भी हवेली बन सकती हैं। क्या तरीका अख्तियार किया? उसने सारे कच्चे चिट्ठे कह सुनाए कि बदमाशी से और बेईमानी से इन्होंने पैसे इकट्ठे किए। हम हर जगह गए, इससे पूछा, उससे पूछा, बाबू से पूछा, क्लर्क से पूछा, इन्कम टैक्स वाले से पूछा कि भाईसाहब! आपकी क्या राय है? सबने कहा—''गुरुजी ! अगर आप ईमानदारी से धन इकट्ठा करना चाहते हैं तो पेट भरने लायक रोटी आपको मिल सकती है। ज्यादा गुजारा नहीं हो सकता। सब जगह ऐसा ही गंदा वातावरण है। बेटे इस वातावरण में क्या होगा?"
(क्रमश:)
परिष्कृत अध्यात्म हमारे जीवन में उतरे - ३
विगत दो कड़ियों में पूज्यवर ने आज के प्रचलित अध्यात्म, कर्मकांड प्रधान धर्म की सटीक आलोचना की है। वे उपासना की चर्चा करते हैं तो बेल के वृक्ष से लिपटने की बात कहते हैं। वे कहते हैं कि हम खाली हो जाएँ, निष्काम हो जाएँ तो ही हमें भगवत्कृपा प्राप्त हो सकती है। बाँसुरी की तरह हम पोले हो जाएँ, ताकि प्रभु का ही जीवन संगीत उसमें से प्रकट हो। समर्पण पतंग की तरह हो, कठपुतली की तरह हो। परमपूज्य गुरुदेव समर्पण की प्रतिमा के रूप में अपने गुरु का उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि भगवान को जिस किसी ने भी पाया है, कीमत देकर पाया है। अपनी इच्छाओं को उस महान शक्ति को सौंपकर पाया है। भगवान के लिए पूज्यवर ने प्रतिच्छाया, प्रतिध्वनि शब्द का प्रयोग किया है। कर्मकांडों को वे स्वीकार करते हैं, पर उन्हीं को सब कुछ मानने की विडंबना से बचने की बात कहते हैं। इष्ट के साथ एकाकार होना, नीर-क्षीर वृत्ति विकसित कर हंस बनने का प्रयास, यही उपासना का मर्म है। आज छाए हुए वातावरण की चिकित्सा हेतु वे जीवन-साधना और स्वाध्याय की बात कहते हैं। अब उसी का विवरण आगे पढ़ें—
एक आदर्श का नाम है भगवान
मित्रो! आज का वातावरण बहुत गंदा है। इस वातावरण में क्या होगा? इस वातावरण में हम भगवान की तरफ कैसे चलेंगे? भगवान का अर्थ नैतिकता और आदर्श है। नहीं साहब! भगवान तो कोई व्यक्ति विशेष है। नहीं बेटे! भगवान कोई व्यक्ति नहीं होता है। नहीं साहब! हमने भगवान की शक्ल देखी है। वह बाँसुरी बजाता है, गायें चराता है और तीर चलाता है। नहीं बेटे! वह तीर नहीं चलाता है। भगवान एक सिद्धांत का नाम है, एक संवेदना का नाम है, एक आदर्श का नाम है। हमने उसकी शक्लें गढ़ ली हैं। ये सारी शक्लें हमारी गढ़ी हुई हैं। यह सही है कि भगवान ने आदमी को बनाया है, लेकिन उससे भी ज्यादा यह सही है कि आदमी ने भगवान को बनाया है। क्या आदमी भगवान को बना सकता है? हाँ, आदमी भगवान को बना सकता है। कैसे बना सकता है? हम अपने छापाखाना में छाप-छाप करके बहुत से भगवान बना देते हैं। आप जयपुर चले जाइए। वहाँ दे-दनादन हथौड़े चल रहे हैं, पत्थरों के ऊपर। क्या बना रहे हो? गुरुजी! भगवान जी की नाक जरा-सी लंबी हो गई है, उसी की काट-छाँट कर रहा हूँ। तो तू भगवान जी की नाक काटेगा? हाँ गुरुजी! ये तो नाक काटने से ही काबू में आएगा।
शक्लें इनसान की गढ़ी हुईं
मित्रो! क्या हो रहा था? भगवान की नाक काट रहा था और ये क्या कर रहा था? भगवान की गरदन को ऐसे-ऐसे कर रहा था। मैंने कहा—अरे बाबा! ये तो भगवान हैं और तू भगवान की गरदन को घिस रहा है। यह बकरा थोड़े ही है। उसने कहा कि हमारे लिए तो बकरे में और भगवान में कोई फरक नहीं पड़ता। इनकी गरदन जरा मोटी है, उसे ठीक करूँगा। वह रेत-रेतकर भगवान को बना रहा था। इस तरह भगवान की जितनी शक्लें हैं, वो सब इनसान की बनाई हुई हैं, इनसान की गढ़ी हुई हैं। शक्लवाला भगवान नहीं हो सकता। भगवान का नाम है—आदर्श, भगवान का नाम है—करुणा, भगवान का नाम है—सज्जनता और संवेदना। भगवान का नाम है—शराफत और क्षमा। यह तो बेटे! एक खिलवाड़ है। यह भगवान नहीं है। भगवान शक्लों के रूप में नहीं आता, वह संवेदनाओं के रूप में आता है। इससे कम में वह नहीं आता है।
स्वाध्याय द्वारा समझें संवेदनारूपी भगवान को
मित्रो! क्या करना चाहिए? अपने भगवान को संवेदना में उतारने के लिए हमको ये करना पड़ेगा कि हमें एक अलग कंपनी बनानी पड़ेगी, एक अलग देश बसाना पड़ेगा। एक अलग तरीके से हमको अपनी व्यवस्था करनी पड़ेगी। लोगों में हम काम तो करेंगे, लेकिन उनसे अलग रहकर। लोगों की सलाह हम नहीं मानेंगे। किसकी सलाह मानेंगे?स्वाध्याय की। स्वाध्याय का मतलब सत्संग है। सत्संग के लिए हम एक ऐसी कंपनी, एक ऐसी कमेटी और एक ऐसी सोसायटी बनाएँगे, जो हमारे ढंग की हो, हमारे स्तर की हो, जिसके परामर्श और सलाह से हम अपनी जिंदगी की समस्याओं का समाधान कर सकें। बेटे! हमने एक ऐसी ही कंपनी बना रखी है। हम अकेले रहते हैं। कहाँ रहते हैं? ऊपर अकेले रहते हैं। तो महाराज जी! आपको डर नहीं लगता। कोई और नहीं रहता? बेटे! हमारे पास इतने आदमी रहते हैं कि बारह से पाँच बजे तक भीड़ लगी रहती है। किसकी? आप लोगों की भीड़ लगी रहती है। ये कितने घंटे रहती है? पाँच घंटे। इसके बाद जो उन्नीस घंटे रह जाते हैं, उसमें मेरे पास ऐसे-ऐसे लोग रहते हैं कि कभी आप किवाड़ खोलकर आ जाएँ तो दंग रह जाएँगे। गुरुजी! ये कौन-कौन बैठे हैं। बेटे! ऐसे-ऐसे लोग बैठे रहते हैं कि मैं उनका नाम नहीं बता सकता। नहीं महाराज जी! नाम बताइए। अच्छा, चल बेटे! तुझे बताता हूँ। हनुमान जी आ करके मेरे पास बैठ जाते हैं। रामचंद्र जी बैठ जाते हैं। सातों ऋषि बैठ जाते हैं। सब उसी में समा जाते हैं।
सभी महापुरुषों की संगम स्थली हमारा कक्ष
महाराज जी! इतने संत आते हैं तो आप चाय तो पिलाते होंगे? हाँ, बेटे। और कौन-कौन आते हैं? बेटे! महात्मा गाँधी आते हैं, रवींद्रनाथ टैगोर आते हैं। दुनिया के सारे श्रेष्ठ व्यक्ति—सुकरात से लेकर अफलातून तक, अरस्तू तक। हिंदुस्तान के ही नहीं, पूरे संसार के ऋषि आते हैं और मेरे पास बैठ जाते हैं। घुल-मिलकर हम खूब मजे की बातें करते हैं। आपस में ऐसी-ऐसी बातें करते हैं और खूब हँसते हैं। दुनियावालों का खूब मखौल उड़ाते हैं और कहते हैं कि दुनियावाले तो पागल हैं। तो क्या आप इनकी बातों को नहीं सुनते? मैंने कहा कि कभी-कभी तो मन में आ जाता है कि इनकी बात मान लें। तो वे कहते हैं कि हमारी कमेटी और हमारी कंपनी का कहना है कि इनकी बात नहीं सुनना। ये बहुत छोटे आदमी हैं। वे आपको भी अपने साथ गड्ढे में घसीट ले जाएँगे, नरक में धकेल देंगे। आप इनके कहने में मत आना। वे मरीज हैं, इनकी सेवा तो करना, पर इनका कहना न मानना। एक दिन विवेकानंद मुझसे कह रहे थे कि गुरुजी! पानी में डूबने वाले व्यक्ति को मल्लाह पार लगाता है। ऐसे डूबने वाले व्यक्ति को आपने देखा है? हमने कहा—नहीं देखा है। तो सुनिए ऐसे पार लगाता है कि जो कोई आदमी पानी में डूबने वाला है तो निकालने वाला डुबकी लगाता है और उसे पकड़ लेता है, पर एक बात का ध्यान रखता है। क्या ध्यान रखता है? उसको घसीटता लाता है, पर साथ-साथ में यह भी ध्यान रखता है कि कहीं वह हमारे पास तो नहीं आ गया। वह जब पास आने को होता है तो उसे कोहनी मार देता है।
हमारी सत्संगी सभा-हमारा स्वाध्याय
क्यों साहब! ये क्या बात है कि घसीटता भी लाता है और कोहनी भी मारता है? यह ऐसा क्यों करता है? यह इसलिए करता है कि डूबने वाला इतना थका हुआ होता है कि जो कोई पार लगाने वाला होगा, यदि उसे मौका मिल जाए तो उसकी पीठ पर सवार हो जाए। पीठ पर सवार होने का क्या परिणाम होगा? उसका परिणाम यह होगा कि वह खुद तो डूबेगा ही, बचाने वाले को और डुबो देगा। इसीलिए तैरने वाला ध्यान रखता है कि इसमें कोहनी मारते जाओ। क्या मतलब है इसका? यह कि डूबने वाले को कोहनी भी मारिए। यह बात विवेकानंद कह रहे थे। मैंने कहा कि अब से आपकी बात का ध्यान रखूँगा और इन लोगों को, जो मेरे संबंधियों से लेकर कुटुंबियों तक और मेरे खानदान वालों से लेकर मित्रों तक, सलाहकार से लेकर संबंधियों तक हैं। इनको पार तो मैं लगाऊँगा, पर कोहनी भी मारता रहूँगा। कहीं ऐसा न हो जाए कि ये अपने संग मुझे भी गड्ढे में घसीट ले जाएँ। इस तरह हमारी कंपनी बहुत बढ़िया है। इन लोगों से रोज उन्नीस घंटे बात होती है। गाँधी जी अपना जी खोलकर बात करते हैं और अगर गाँधी जी से मैं कभी बातचीत करना चाहता हूँ, तब? तब मैं उनसे यह पूछता हूँ कि जब मैं आपके साबरमती आश्रम में रहता था, तब तो मुझे आपके केवल पाँच मिनट मिलते थे। किसी दिन नहीं भी मिलते थे। पाँच मिनट में ही बिना भूमिका बनाए कि मैं तो आपके आश्रम में हो आया हूँ। आप तो महात्मा हैं, संत हैं, उद्धार कीजिए। बेटे! ये बेकार की बातें करने से क्या फायदा? बातें करनी हैं तो काम की करो, नपी-तुली बातें करो, ताकि मेरा समय भी न खराब हो और तुम्हारा भी समय खराब न हो। भूमिका क्यों बनाते हो?
ये हैं हमारे सलाहकार, हमारे हितैषी
मित्रो! तब वहाँ हमें पाँच मिनट मिलते थे। और यहाँ? गाँधी जी कहते हैं कि जब हम जिंदा थे, तब हमारे पास बहुत मुसीबतें थीं और बहुत सारे काम थे। इसलिए आपको टाइम के लिए मना कर देते थे। अब तो हमारे पास बहुत समय है, आप चाहे जितना इस्तेमाल कर सकते हैं, चाहे जिस समय बात कर सकते हैं। अब हमारा नहीं, आपका समय है। अब हम आपके हिसाब से चलेंगे। वे घंटों तक बोलते चले जाते हैं। बेटे! हमारी जिंदगी में मजा आ गया और उसकी वजह से हम ऊँचे उठते चले गए हैं। हमारे इन सलाहकारों ने हमारी हिम्मत बढ़ाई है और हमारी सहायता की है। आपको भी इनकी सहायता मिल सकती है और उस माध्यम का नाम है स्वाध्याय। हमने अपने यहाँ संतों की रूहों को डिब्बी में बंद करके रख लिया है। और वो रूह हैं—उनकी पुस्तकें, उनके ग्रंथ, जिन्हें हम रोज श्रद्धा से पढ़ते हैं। इस भावना से पढ़ते हैं कि ये महापुरुष हमारे सामने बैठे हुए हैं और हमें परामर्श दे रहे हैं। स्वाध्याय अर्थात—विचारों का संशोधन, अर्थात—विचारों में श्रेष्ठता का समावेश और अवतरण। यह भी ठीक उतना ही कीमती है, जितना कि भजन। यह भजन से कम कीमती नहीं है। इन दिनों हमारा बहुत सारा समय—चार घंटे पूजा में खरच होता है। हमारे स्वाध्याय के दोनों तरीके हैं—पुस्तकें पढ़ने के माध्यम से भी और जो हम मनन-चिंतन करते हैं, उसके माध्यम से भी। जब हम लिखते हैं तो उस माध्यम से भी। हमारे मस्तिष्क के प्रत्येक कण-कण में श्रेष्ठ और ऊँचे विचार छाए रहते हैं और उसका माध्यम है स्वाध्याय। इसकी कीमत उतनी है, जितनी कि भजन की। भजन और स्वाध्याय में कोई फरक नहीं पड़ता। मैं दोनों को एक ही मानता हूँ।
भजन, मनन और लेखन
भजन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से श्रेष्ठता की ओर चलने के लिए हमारी अंतरात्मा को प्रभावित करता है और स्वाध्याय हमारे बुद्धि संस्थान को, विचार संस्थान को निकम्मेपन से बचाकर के श्रेष्ठता और शालीनता की ओर ले जाता है। इसीलिए मेरे जीवन में भजन के बाद दूसरा स्थान स्वाध्याय का है। पढ़े-लिखे हैं तो क्या, नहीं पढ़े हैं तो क्या? पढ़े-लिखे लोगों के लिए स्वाध्याय और सत्संग हो सकता है। बिना पढ़ों के लिए चिंतन और मनन हो सकता है। बहरहाल दोनों को मिलाकर ऊँचे विचारों के संपर्क में हम जितने समय तक रहते हैं, असल में उसी का नाम सत्संग है और स्वाध्याय है। हमको ऊँचे उठाने वाले, आगे बढ़ाने वाले, उच्चस्तरीय विचारों से संपर्क कराने वाले जो श्रेष्ठ विचार हैं, वही स्वाध्याय है।
बिखराव का नियोजन : संयम
इस तरह उपासना का दूसरा अंग, दूसरा अंश है—स्वाध्याय। स्वाध्याय और साधना दो बातें हो गईं। एक अंग और रह गया। उसका नाम है—संयम। संयम से क्या मतलब है? बेटे ! संयम से मतलब यह है कि हमारी सारी शक्तियाँ बिखराव में नष्ट होती जाती हैं। अगर हम बिखराव को बंद कर दें और शक्तियों को केंद्रित करना शुरू कर दें तो हमारी शक्तियों के जखीरे जमा हो जाते हैं। बारूद को अगर हम फैला दें और दीयासलाई दिखा दें तो वह भक्क से जल जाएगी। अगर इसी बारूद को एक केंद्र में इकट्ठा कर दें बिखराव को रोक दें, बंदूक की नली में बंद कर दें और सामने निशाने की ओर चलाएँ तो वह निशाने की ओर सनसनाती हुई चली जाती है। केंद्रीभूत जरा-सी बारुद निशाने पर जाकर गोली मारती है। अगर आतिशी शीशे पर हम सूरज की किरणों को एकत्रित कर दें तो जाने क्या से क्या हो जाता है। आग जलने लगती है और सारे के सारे खेत-खलिहान, घर-आँगन को जलाकर राख कर देती है। वैसे यही धूप खेत-खलिहान, घर-आँगन में कितनी बिखरी रहती है, जो केवल प्रकाश भर करती है। केंद्रीभूत कर देने पर वही धूप कमाल दिखाती है। केंद्रीभूत करने से क्या मतलब है? बेटे! केंद्रीभूत करने से हमारा मतलब संयम करने से है। संयम किसे कहते हैं? संयम उसे कहते हैं, जो हमारे जीवन के बिखराव हैं, जिनकी वजह से हमने सब खो दिया, सब गँवा दिया। अगर हम अपने आप को केंद्रीभूत कर लें तो छलनी के छेदों में से जिस तरीके हम अपने भीतर के और भगवान के दिए हुए अनुदानों को सारा का सारा खत्म कर देते हैं, उन्हें केंद्रित कर सकते हैं। एक आदमी ने छलनी में दूध दुहा। छलनी के छेदों में से सारा दूध बह गया, फैल गया। जब उठाया तो देखा हाथ खाली थे, कपड़े और भीग गए थे।
संयम के प्रकार
मित्रो! हमारे भीतर का जो उत्पादन है और हमारे बाहर का जो उत्पादन है, वो असीम है। हमारी कमी और कमजोरी ये है कि हम उस असीम उत्पादन को फैलने देते हैं, बिखरने देते हैं। अगर बिखरने को हम रोक सकें तो मजा आ जाए। बिखराव को रोकने के लिए क्या करना पड़ता है? संयम का इस्तेमाल करना पड़ता है। उसमें एक है—जीभ का संयम। अगर आप जीभ का संयम कर पाएँ तो मैं आपसे कह सकता हूँ कि आपका स्वास्थ्य ठीक रखने की यह गारंटी हो सकती है। स्वास्थ्य कौन खराब करता है? वायरस। नहीं बेटे! वायरस नहीं। वायरस तो बहुत छोटा होता है और आदमी बहुत बड़ा होता है। वायरस को तो आदमी उँगली से दबाकर, मारकर फेंक सकता है। नहीं साहब! वायरस बड़ा जबरदस्त होता है। नहीं बेटे! वायरस बड़ा नहीं होता। कौन बड़ा होता है? बीमारियाँ कौन पैदा करता है? वायरस। नहीं, वायरस नहीं पैदा करता, वरन असंयम पैदा करता है। चंदगीराम तपेदिक के मरीज थे और उनके मरने के दिन नजदीक आ गए थे। एक कोई संत आया और उसने कहा—क्या मरने का मन है? नहीं महाराज जी! मरने का तो मेरा मन नहीं है। जीना तो चाहता हूँ, पर मौत हमारे पास आ गई। उन्होंने कहा—नहीं, मौत से जिंदगी बड़ी है। अगर आप जिंदगी को पसंद करते हैं तो मौत चली जाएगी। मौत का टाइम अभी नहीं आया है। जिंदगी को आप पकड़े रह सकते हैं। हम कैसे पकड़े रह सकते हैं? आपकी सेहत इस जीभ ने खराब की। आप जीभ पर कंट्रोल कीजिए और जीभ से कहिए कि हम आपका हुक्म, आपका कहना नहीं मानेंगे। आपको हमारा कहना मानना पड़ेगा। जीभ पर जैसे ही उन्होंने कंट्रोल करना शुरू किया, सेहत सुधरने लगी। जीभ हमारे पेट को खराब करती है। पेट खून को खराब करता है। खून खराब होकर के सैकड़ों तरह की बीमारियों में परिणत हो जाता है और वही जहर हमारी जिंदगी को गलाता और खत्म करता हुआ चला
जाता है। जीभ पर यदि काबू करना सीख लें तो आप पाएँगे कि आपकी सेहत का सँवरना शुरू हो जाता है।
इंद्रियों पर नियंत्रण करें
मित्रो! दूसरी, तीसरी और चीजें हैं अर्थात—इंद्रियाँ हैं। दूसरी इंद्रियाँ हैं—आँखें। गांधारी ने आँखों पर पट्टी बाँध ली थी। पट्टी से क्या मतलब है? आँखों का जो बिखराव है, उसे बंद कर दिया। आँखों पर पट्टी बाँध लेने से मतलब कपड़ा लपेट लेना नहीं है। बिखराव से मतलब है—आँखों के द्वारा जो हमारा तेजस् नष्ट होता है। हम जगह-जगह देखते रहते हैं और आकर्षण हमारी शक्तियों को खींचता रहता है जिससे ब्रह्मचर्य नष्ट होता है।
वास्तविक ब्रह्मचर्य
बेटे! ब्रह्मचर्य जो है, वो वास्तव में जननेंद्रिय से नष्ट नहीं होता। ब्रह्मचर्य आँखों से नष्ट होता है। आँख से हम दुराचार करते हैं। जननेंद्रिय से भी दुराचार होता है, लेकिन असली दुराचार इससे नहीं होता। जननेंद्रियों में से तो पानी निकलता है, लेकिन हमारी शक्तियाँ, हमारी बिजली, जो हमारी शक्तियों का केंद्र है, आँखों में से निकलती है। आँखों के तेजस का जब बिखराव होता रहता है तो हमारी आँखें ही कमजोर नहीं होती, हमारा दिमाग ही कमजोर नहीं होता बल्कि हमारा दिल और ईमान भी कमजोर होता है। हमारी आध्यात्मिक शक्तियाँ भी कमजोर होती हैं।
यही तप है
मित्रो! मैं इंद्रिय-निग्रह की बात कह रहा था। संयम की परिभाषा आमतौर से लोगों ने यहीं खत्म कर दी है, पर वास्तव में वह यहीं खत्म नहीं होती। संयम चार तरह का है। संयम को साधने के लिए तप किया जाता है। तप किसे कहते हैं? बेटे! तप किसी खास बात को नहीं कहते। तप रोकने का नाम है। हमारी शक्तियों की जो बरबादी होती रहती है, उसे हम रोक पाएँ तो हमारे पास शक्तियों का इतना बड़ा जखीरा हो जाए कि हमको कहीं से माँगना ही न पड़े। आपको शक्तिवान बनना है, अध्यात्मवान बनना है तो इसमें कुछ करना नहीं है, केवल आप अपनी शक्तियों को रोक लें, बस। बाँध होते हैं, उनमें पानी भरा होता है और बिजली पैदा होती है। उनमें क्या होता है? कुछ भी नहीं होता। बरसात का पानी, जो चारों तरफ फैल जाता है, बिखर जाता है, उसे रोक दें, बस। पानी रोक देंगे, आपके पास बाँध बन जाएगा। उसमें से नहर निकाल लेना, सिंचाई कर लेना, बिजली पैदा कर लेना, जो कुछ भी करना चाहो, कर लेना। बाँध का नाम है—संयम। आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए हर आदमी को संयमी होना चाहिए।
अर्थ संयम
संयम से क्या मतलब है? संयम की धाराएँ चार हैं। एक संयम है—इंद्रिय निग्रह-इंद्रिय संयम, जिसको आमतौर से लोग बस इतना ही समझते हैं। संयम की ज्यादा बात उनके ध्यान में ही नहीं आती। दूसरा संयम है—धन का संयम-अर्थ का संयम। अर्थ संयम किसे कहते हैं? बेटे! अर्थ संयम का अर्थ है—सादा जीवन, उच्च विचार। अपने जीवन में हम जो कुछ भी कमाते हैं, उसमें से अधिकांश धन लक्जरी के लिए, विलासिता के लिए, संचय के लिए खरच होता चला जाता है। अगर हम इसका संयम करना सीखें, अर्थ संयम करना सीखें तो हम थोड़े में गुजारा कर सकते हैं। अगर हम अपने धन के बारे में, अपने खरच के बारे में किफायत से रहना शुरू करें तो अपनी बची हुई शक्तियों के जखीरे को, बचे हुए धन को कितने अच्छे-अच्छे कामों में लगा सकते हैं। बेटे! आप किफायत से रहना शुरू करें। बेटे ! हमने मथुरा में पैंतीस साल बिताए। अखण्ड ज्योति कार्यालय के घर में हम पैंतीस साल तक रहे और उन पैंतीस सालों के खरच की डायरियाँ और पर्चे हमारे पास रखे हुए हैं। दो सौ रुपये महीने हम अपना काम चलाते रहे हैं। आप गरीब थे? नहीं बेटे! हम गरीब नहीं थे। हमारे पास बहुत पैसा था। हमारे पिताजी दो सौ बीघे जमीन छोड़कर मरे थे। उससे हमें अच्छी खासी आमदनी थी। अस्सी बीघे जमीन जो चार लाख की होती है, हम हायर सेकेंड्री स्कूल को देकर के आए हैं।
ऐसे साधा हमने
बेटे! हम कमा सकते थे। कमाने के लिए अभी भी मामूली लेखकों के लिए धर्म युग और दूसरे अखबार सौ रुपये एक लेख के देते हैं। हमारी कलम इससे कम कीमत की नहीं है। हम एक लेख रोज लिख दें, जैसे अखण्ड ज्योति के लिए लिखते हैं तो अभी भी सौ रुपये प्रतिदिन एक लेख की मजदूरी हो सकती है। इस तरह तीस दिन में तीन हजार रुपये बहुत आसानी से कमा सकते हैं। महाराज जी ! जब आप तीन हजार कमा सकते थे तो आपको अपना खरच तीन हजार करना चाहिए था, आपने गँवा दिए। नहीं बेटे! कमाने का अधिकार हमको है, लेकिन खरच करने का अधिकार हमें नहीं है। जिस समाज में हम पैदा हुए हैं, उस समाज का भी अधिकार और हक हमारे ऊपर है। इसीलिए अर्थ संयम का अर्थ है कि हमारे देश का औसत भारतीय नागरिक जिस स्तर का जीवनयापन करता है, उस स्तर का जीवनयापन हमको भी करना चाहिए। हमारे पास जो बचत हो जाती है, उस बचत से हम क्या-क्या काम कर सकते हैं? पैसे की बचत से हम इतना ज्यादा काम कर सकते हैं कि अपने कुटुंबियों को और बच्चों को शिक्षित और संस्कारवान बनाने से ले करके, अपने आप को सभ्य और शालीन बनाने तक के हम असंख्यों काम कर सकते हैं। अपने समाज के लिए इतने बड़े अनुदान दे सकने में समर्थ हो सकते हैं। लोकहित इतना ज्यादा कर सकते हैं कि कोई ठिकाना न रहे, अगर आप अर्थ संग्रह करना, अर्थ संचय करना शुरू करें तब !
अर्थ का सुनियोजन
मित्रो! इस संबंध में एक आदमी ईश्वरचंद्र विद्यासागर की कथा मैं आपको कई बार सुना चुका हूँ। एक और कथा मेरे ध्यान में आ जाती है। अमेरिका में एक बड़ा संपन्न आदमी था। वह करोड़पति था, पर था बड़ा कंजूस। फटे हुए कपड़े पहनता था और जब कोई लड़की उसके यहाँ शादी-विवाह के लिए आती और कहती कि आपसे हम विवाह करना चाहते हैं। तो वह व्यक्ति पूछता कि क्या आप कमा करके हमें पैसा देंगी? आपके पास क्या कमी है? आप तो करोड़पति हैं और आपसे विवाह हम इसलिए करना चाहते हैं कि आपकी कमाई का पैसा हमको मिलेगा और हम मजा उड़ाएँगी। तब तो आपको हमसे विवाह नहीं करना चाहिए। हाँ, अगर आप कुछ कमाकर हमारे यहाँ जमा कर सकती हैं तो आप हमारे साथ शादी कर सकती हैं, अन्यथा नहीं। बहुतों ने कहा कि आपने विवाह भी नहीं किया आप हमारे बाल-बच्चे ले लीजिए, गोद रख लीजिए। अच्छा तो आप ये बताइए कि जब आपका बच्चा हमारे घर आएगा तो कितनी संपत्ति ले करके आएगा? वो संपत्ति लेकर क्या आएगा, वह तो आपकी संपत्ति लेगा। नहीं साहब! हमको ऐसे बच्चे नहीं चाहिए।
वह बहुत कंजूस था। एक बार ऐसा हुआ कि कुछ लोग उसके यहाँ किसी काम के लिए धन माँगने के लिए गए। किसी विश्वविद्यालय में कोई खास फैकल्टी बन रही थी, इसलिए सब मालदारों से चंदा माँगा जा रहा था। उसके पास भी चंदा माँगने के लिए जब एक कमेटी पहुँची तो देखा उसके घर दो बत्तियाँ जल रही थीं। एक ऊपर जल रही थी और एक मेज पर जल रही थी। नमस्कार होते ही उसने एक बत्ती बुझा दी और बोला हम बेकार में बत्ती क्यों जलाएँ? जितनी देर तक आप से बातें करनी हैं, उतनी देर में इतने पैसे की बिजली जलेगी। बिजली बंद करने के बाद आपस में लोग हँसे और कहने लगे कि यहाँ बेकार में आए। यहाँ कुछ मिलने वाला नहीं है। जैसा सुना था, वैसा ही है, यह कंजूस। उसने पूछा—कहिए आप लोग कैसे आए? उन्होंने कहा कि यहाँ के विश्वविद्यालय में साइंस की एक फैकल्टी बनने वाली है। उसमें अमुक-अमुक काम कराए जाने वाले हैं। अमुक विषय की शिक्षाएँ दी जाने वाली हैं। उसने सारी बातें बड़े ध्यान से सुनी और कहा कि मेरे जीवन का भी यह लक्ष्य था कि मैं अपने अमेरिका निवासियों में इस तरह के साइंस के ज्ञान की वृद्धि करूँ, जैसा कि आप कह रहे हैं। तो क्या आप वास्तव में ऐसा कर रहे हैं। हाँ, हम वास्तव में ऐसा कर रहे हैं? तो आप मेरे लायक कोई सेवा बताइए। और आप जानते हैं, उसने क्या किया?
(क्रमशः)
(समापन किश्त अगले अंक में)
परिष्कृत अध्यात्म हमारे जीवन में उतरे — ४
परमपूज्य गुरुदेव व्यावहारिक परिष्कृत अध्यात्म के प्रतिपादक थे। इस अति महत्वपूर्ण प्रवचन में, बड़ी ओजस्वी वाणी में, उनने निष्प्राणत्-कर्मकांडप्रधान धर्म का जमकर आलोचना की है। उपासना के लिए समर्पण चाहिए। भगवान एक आदर्श का नाम है। हम उन आदर्शों को जीवन में अपनाएँ, जिनका कि वह समूह है। बाद में उनने जीवन-साधना, स्वाध्याय एवं संयम पर इन व्रतों के पालन से जीवनोत्कर्ष की चर्चा की है। इंद्रियनिग्रह की विस्तार से व्याख्या कर उनने चारों संयमों (अर्थसंयम एवं विचार इंद्रिय के अतिरिक्त) को उदाहरणों के साथ समझाया। अर्थसंयम की चर्चा में एक दानी की चर्चा वे कर रहे थे, जिसने जीवन भर कंजूसी से जीवन जिया, पर जब देने की बात आईतो लोकमंगल के लिए आगे बढ़-चढ़कर अनुदान दिए। इसी चर्चा का अगला क्रम इस समापन किस्त में—
विद्या विस्तार हेतु दान
मित्रो! दान माँगने आए लोगों ने देखा कि बुड्ढा मूड में है, इससे कुछ माँग लें तो अच्छा है। ज्यादा माँगेंगे तो गुस्सा हो जाएगा और भगा देगा। डरते-डरते उन्होंने कहा कि आप पाँच सौ डॉलर दे दें तो बहुत खुशी होगी। अच्छा, देता हूँ आपको। उसने चेकबुक निकाली, पचास हजार डालर का चेक बनाया और उनके हवाले कर दिया। सबने एकदूसरे को देखा और चेक को कमेटी के सदस्यों के बीच घुमाते रहे। वृद्ध ने पूछा—"क्यों साहब! कोई गलती मालूम पड़ती है क्या? बताइए?" "हाँ साहब! ये तो पचास हजार डालर का चेक है। हमने तो पाँच सौ डॉलर माँगे थे।" उसने कहा—"आपको मालूम नहीं है कि जिस काम के लिए मैंने विवाह नहीं किया, जिस काम के लिए मैं फटे कपड़े पहनता हूँ, जिस काम के लिए मैंने बच्चे गोद नहीं लिए, जिस काम के लिए मैं गरीबों जैसी जिंदगी व्यतीत करता हूँ, वह मेरा काम है। एक लक्ष्य है कि अपने देश और अपनी जाति की सेवा कर सकूँ, विद्या की सेवा कर सकूँ। इसीलिए मैंने ये दौलत जमा करके रखी थी। आप जैसा कहते हैं, अगर उसी साइंस फैकल्टी में यह धन लगाएँगे तो मैं पहली किस्त पचास हजार डॉलर एक टोकेन मनी के रूप में आपके सुपुर्द करता हूँ। फिर मैं देखूँगा कि आप जो कहते हैं, वो कहाँ तक सही है। तब फिर मैं दूसरा चेक पचास हजार डॉलर का, तीसरा और चौथा चेक भी पचास-पचास हजार डॉलर का दूँगा और अंत में, जो बात आप कह रहे हैं, अगर करने जा रहे हैं तो मेरी सारी की सारी कमाई, जो दो करोड़ डॉलर की है, वो सारी की सारी संपदा आपकी फैकल्टी के नाम वसीयत कर जाऊँगा कि मेरे धन का एक-एक चप्पा और एक-एक पैसा इनके सपुर्द कर दिया जाए।"
औसत नागरिक का जीवन जिएँ
बेटे! मैं क्या कह रहा हूँ? धन के संयम, अर्थसंयम की बात कह रहा हूँ। पैसे तो हम बहुत कमाएँ, लेकिन अपने लिए कम से कम खरच करें तो हम संत का जीवन जी सकते हैं। आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए केवल भजन करना ही काफी नहीं है, वरन औसत भारतीय स्तर का जीवनयापन आपका लक्ष्य होना चाहिए। आप क्या कमाते हैं, मैं नहीं जानता, लेकिन आपको खरच करने का अधिकार नहीं है। अगर आप आध्यात्मिकता में प्रवेश करते हैं, भगवान पर विश्वास करते हैं, सिद्धांतों पर विश्वास करते हैं तो आप यह मानकर चलिए कि हम जिस देश के नागरिक हैं, उसी स्तर का जीवन जिएँगे। आप उस स्तर से ज्यादा ऊँचा स्तर मत बढ़ाइए। हिंदुस्तान का औसत नागरिक जितने में गुजारा करता है, आप उतने में ही गुजारा कीजिए। इसके बाद जो धन आपके पास बच जाता है, उसे लोकहित के लिए, श्रेष्ठ कामों के लिए, पीड़ा और पतन जो देश में फैला हुआ है, उस पीड़ा और पतन के निवारण के लिए खरच कीजिए। लक्जरी पर मत खरच कीजिए। इकट्ठा करना बंद कीजिए। ये आध्यात्मिकता के सिद्धांत हैं।
सच्चा अध्यात्म समझिए
मित्रो! आध्यात्मिकता का सिद्धांत है, एक फिलॉसफी है। आध्यात्मिकता जीवन जीने की एक विधि है। आध्यात्मिकता का अर्थ है—स्प्रिचुएलिटी एवं एथिक्स। आध्यात्मिकता क्रिया-कृत्यों का नाम नहीं है। आध्यात्मिकता जादूगरी नहीं है कि इधर हाथ फेरा, उधर हाथ फेरा, उस पर चावल चढ़ा दिया, इस पर चंदन चढ़ा दिया। ये क्या है? मैजिक है। कौन-सा? जो आप करते हैं। आपको जो सिखाया गया है, वो मैजिक सिखाया गया है, जादू सिखाया गया है, जिसका अर्थ आप यह समझते हैं कि हाथ में, मुट्ठी में मिट्टी रखेंगे और फेंक मारने से रुपया पैदा हो जाएगा। भगवान को पकड़ेंगे, देवी को पकड़ेंगे, हनुमान चालीसा पढ़ेंगे और उस पर यह करेंगे, इधर का उधर करेंगे। बस, खट से देवी से काम निकाल लेंगे। बेटे ! ये मैजिक है, जादूगरी है, जो आपको सिखाई गई है और आपने सीखा है। जिस बात पर आप विश्वास करते हैं, वो जादूगरी है और जो चीज आपके हाथ में पड़ी हुई है, वो सिर्फ जादूगरी है। आपको पता होना चाहिए कि जादूगरी कभी सही नहीं होती। जादूगरी अगर सही होती तो जादूगर और बाजीगर जो रुपया बनाते हैं, उससे वे अब तक मालदार हो गए होते और पंडित जी! जो कभी देवी का पाठ कराते हैं। कभी कहते हैं कि ग्यारह रुपया दीजिए, हम आपका चौबीस हजार का अनुष्ठान कराएँगे। क्यों कराएँगे अनुष्ठान? आप अपने ही घर में क्यों नहीं अनुष्ठान करेंगे और अपने ही घर में क्यों नहीं कमा लेंगे? मुझसे क्यों माँगेंगे? नहीं साहब! हम आपके घर में लक्ष्मी जी का पूजन कराएँगे, जो आपको मालामाल बना देगी तो फिर आप अपने ही घर में लक्ष्मी पूजन क्यों नहीं कर लेते और स्वयं मालामाल बन जाते? ग्यारह रुपये क्यों माँगते हैं?
यह जादूगरी नहीं है
मित्रो ! यह मालूम होता है कि हमारी आध्यात्मिकता मैजिक और जादूगरी के स्तर की हो गई है, जिसमें क्रिया-कृत्य मुख्य रह गए हैं। कर्मकांड मुख्य रह गए हैं और जीवन का निर्माण करने का स्वरूप, जीवन की गतिविधियों का निर्धारण गौण हो गया है। अध्यात्म ऐसा नहीं हो सकता। असली अध्यात्म, जिसमें शक्ति है, सामर्थ्य है, वो अगर होगा तो उसमें इन बातों का समावेश होगा, जैसा कि मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि धन का संयम, इंद्रियसंयम, समय का संयम और विचारों का संयम आवश्यक है। समय का संयम किसे कहते हैं? बेटे! हमने एक घंटा रोज स्वाध्याय के लिए सुनिश्चित कर रखा है। विनोबा भावे तेईस भाषाओं के विद्वान थे। उन्होंने एक घंटा रोज अन्य भाषाओं को पढ़ने के लिए सुरक्षित कर रखा था। हमने एक घंटा रोज के हिसाब से नित्य स्वाध्याय करने का क्रम बना करके दस लाख पन्ने पढ़ लिए थे। अखण्ड ज्योति में जो आप बार-बार कोटेशन्स पढ़ते हैं, रेफरेन्सेज पढ़ते हैं और ये कहते हैं कि गुरु जी चलते-फिरते इन्साइक्लोपीडिया हैं। बेटे ! हमारे दिमाग में सैंकड़ों इन्साइक्लोपीडिया भरे पड़े हैं। ये कहाँ से लाए? बेटा ! एक घंटे रोज के हिसाब से इसका हमने संयम किया है। यह समय के संयम का प्रतिफल है।
काल और महाकाल
मित्रो! अगर आपने समय नाम की कोई चीज समझी होती, समय का उपयोग किया होता तो मजा आ जाता। हमने समय का इस्तेमाल करना सीखा है। रावण ने काल को पाटी से बाँध लिया था और जब कभी जरूरत पड़ती थी तो काल से कहता था कि रुपया निकाल नहीं तो अभी मारता हूँ। काल पाटी से बँधा रहता था और रावण से यह कहता था कि मुझे मारिए मत, जो आप कहेंगे, वही मैं ला करके आपको दूँगा। अच्छा सोने की लंका लाओ? काल कहता था कि अच्छा थोड़ी-सी मोहलत दीजिए, अभी आपको सोने की लंका बना दूँगा। एक रात में ही सब बना दिया था। यह किसका उपासक था? महाकाल का था। महाकाल कहाँ है? महाकाल का मंदिर वहाँ उज्जैन में बना हुआ है। रावण का आराध्य वही था। अच्छा! तो रावण महाकाल का उपासक था? हाँ बेटे! वह महाकाल का उपासक था। महाकाल किसे कहते हैं? टाइमपीस को महाकाल कहते हैं, घड़ी को महाकाल कहते हैं। तू समझता है कि टाइम किसे कहते हैं? समय किसे कहते हैं? अरे अभागे ! तूने तो सारा वक्त बेकारी में, गप्पबाजी में, आवारागर्दी में, निरर्थक कामों में खरच कर डाला। अगर एक दिशा में दिमाग में चिंतन करना संभव रहा होता तो बेटे आप दूसरे वैज्ञानिक होते, आप दूसरे कालिदास होते। बिखरे हुए दिमाग की वजह से कालिदास पहले बेकार आदमी थे, बेवकूफ आदमी थे। सारी की सारी चिंतन-प्रक्रिया को जब उन्होंने एक केंद्र में लगा दिया तो वही अक्ल इतनी पैनी और तीखी हो गई कि समस्त बाधाएँ पार करती हुई चली गई।
बिखराव को रोकिए, निग्रह कीजिए
लोहे की भोथरी कील लीजिए। उसे कहीं गाड़िए, ढूँसिए नहीं गड़ेगी, लेकिन अगर कील की नोक निकाल दीजिए, प्वाइंट बना दीजिए, प्वाइंट बनाकर आप सूराख कीजिए, वह सूराख करती हुई चली जाएगी। ड्रिलिंग मशीन सबको पार करती हुई चली जाएगी। कील नहीं, नोक काम करती है। आपने तो अपने मस्तिष्क को, मन:स्थिति को बिखराव से भर दिया है। आप जाने क्या-क्या विचार करते रहते हैं। अल्लम-गल्लम, बेकार के निरर्थक विचार करते रहते हैं। आप इन सभी निरर्थक विचारों को एकत्र कीजिए और एक प्वाइंट पर लगा दीजिए और फिर देखिए कि आपकी अक्ल कितनी पैनी हो जाती है। अक्ल कितनी तीखी हो जाती है और आप वैज्ञानिक हो जाते हैं, दार्शनिक हो जाते हैं। मस्तिष्क का बिखराव, समय का बिखराव, धन का बिखराव, इंद्रियों का बिखराव इन सब चीजों के बिखराव को रोककर आप अपने आप को रोकना शुरू करते हैं। अपने आप को काबू में लाना शुरू करते हैं, अपने आप को एकाग्र करना शुरू करते हैं तो आपका नाम तपस्वी हो जाता है, संयमी हो जाता है। अर्जुन मछली बेधने में सफल हुआ और स्वयंवर जीतने एवं द्रौपदी से विवाह करने में समर्थ हुआ। उसका एक ही कारण था कि उसने अपनी विचारशक्ति के फैलाव को, बिखराव को केंद्रित कर लिया था। जब उससे गुरु द्रोणाचार्य ने पूछा कि तुमको क्या दिखाई पड़ता है, तब उसने कहा कि हमको मछली की आँख दिखाई देती है और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। वही तीर सबके पास थे, जो अर्जुन के पास थे, लेकिन मछली की आँख को देखने वाला केवल अर्जुन ही सफलता प्राप्त करने में सफल हुआ।
संयम की महिमा अपार
मित्रो! आप अपने ऊपर संयम करना सीख पाएँ, बिखराव के ऊपर नियंत्रण करना सीख पाएँ, अपनी अव्यवस्थाओं के ऊपर नियंत्रण करना सीख पाएँ तो आपको बाहर से कहीं माँगना ही न पड़े। सामर्थ्य आपके भीतर है। बिखराव से वह शक्ति नष्ट होती रहती है।आप उस बिखराव को रोकिए। सूर्यकिरणों पर आजकल रिसर्च हो रही है। वैज्ञानिक कहते हैं कि सूर्यकिरणों को अगर हम एकत्रित कर पाएँ, फैलती हुई किरणों को अगर हम काबू में ला पाएँ तो हीट (गरमी) और बिजली की सभी जरूरतों को हम इसी से पूरा कर लेंगे। आप सूरज हैं और आपके भीतर शक्तियों के जखीरे भरे पड़े हैं। अगर आप अपनी शक्तियों के बिखराव को रोक पाएँ तो मजा आ जाए।
लोकहितार्थाय सेवा
ये तीन बातें हो गईं। चौथी बात एक और रह जाती हैं। चारों बातों को मिला देने से आपका अध्यात्म पूरा हो जाता है। चौथी बात क्या रह जाती है? चौथी बात रह जाती है—सेवा। आप अपनी सामर्थ्य को लोकहित के लिए, परमार्थ के लिए, परहित के कार्यों के लिए खरच कर दीजिए। फिर देखिए कि उसके बदले में आपको क्या-क्या मिलता है? दुनिया के महापुरुषों में से एक-एक का जीवन इतिहास उठाकर आप देख लीजिए, हरेक के जीवन में सेवा का समावेश रहा है। संतों के जीवन में सेवा का समावेश रहा है। लोग समझते हैं कि संत एकांत में बैठे रहते हैं।
बेटे! आइन्स्टीन भी एकांत में बैठे रहते थे, पर एकांत में बैठने का उनका उद्देश्य क्या था? उनका उद्देश्य यह था कि वे रिसर्च करते रहते थे और लोगों की वजह से, भीड़-भाड़ की वजह से उनके काम में हर्ज होता था। इसलिए वे एकांत में रिसर्च करके विज्ञान को आगे बढ़ाते थे। एकांत में भी रहा जा सकता है, पर उस एकांत का भी कोई उद्देश्य तो होना चाहिए? निरर्थक पड़े रहना, निरर्थक बैठे रहना, कोने में पड़े रहना और समय खरच करना—ये संतों का काम नहीं हो सकता। प्राचीनकाल के संतों में से हम हरेक को देखते हैं, जिसमें चरक आते हैं, सुश्रुत आते हैं, अश्विनीकुमार आते हैं, व्यास और सप्तर्षि आते हैं। इनमें से प्रत्येक ने अपने लिए नियमित जीवन, संयमित जीवन रखने के पश्चात सारे का सारा जीवन समाज सेवा में लगा दिया। व्यास जी ने अठारह पुराण लिखे। वसिष्ठ जी ने 'योगवासिष्ठ' लिखा। जाने कितने काम करते गए। हरेक ऋषि व संत के पास अपने ऋषिकुल और गुरुकुल होते थे और वे बादलों के तरीके से, अलख निरंजन करते हुए जगह जगह अलख जगाते थे।
आप समाज के ऋणी हैं
मित्रो! सेवा हमारे लिए आवश्यक है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमको जो मिला है, समाज से मिला है। अगर आपको समाज के अनुदान न मिले होते तो रामू भेड़िए के तरीके से आपको बोलना भी नहीं आता। आप जानते हैं कि जिनके कान खराब होते हैं, वे आदमी बोल भी नहीं सकते। अगर आपको दूसरों की नकल करने का और दूसरों के शब्द सुनने का मौका न मिला होता, अथवा आप कहीं एकांत में रखे गए होते तो आपको बोलना भी नहीं आता, आप गूँगे होते। आप जो आज बोलते हैं, ये अनुकृति आपकी नहीं हैं, वरन समाज की दी हुई हैं। शिक्षा आपके पेट में से निकल करके नहीं आई है। समाज ने आपको शिक्षा दी है। नौकरी आप स्वयं नहीं कर लेते, समाज का जो ढाँचा बना हुआ है, उसने आपको नौकरी दी है। बीबी आपकी नहीं है। वह आपके पेट में से नहीं निकली है। किसी और खानदान ने अपनी लड़की को बड़ा बनाया, पढ़ाया-लिखाया और आपके सपुर्द किया। आपके ऊपर समाज के असीम अनुदान हैं। मनुष्य समाज का कर्जदार है, ऋणी है और दूसरे जीव ऋणी नहीं हैं, पर आदमी ऋणी है।
आदमी समाज का अनुदान लेकर के ऊँचा उठा है। अतः हर आदमी का यह कर्तव्य और फर्ज हो जाता है कि जिस समाज के इतने ऋण हमारे ऊपर हैं, उसका कर्ज चुकाएँ। समाज ने आपको कर्जा चुकाने के लिए जितना लायक बनाया है, उस लायकी का आप कर्ज चुकाइए। आत्मा का विस्तार करने के लिए, अपना विस्तार करने के लिए समाज के साथ अपने सुख और दुःख को बाँटिए। सुख और दुःख बाँटने से हलके होते हैं। सुख अकेले नहीं भोगा जा सकता। सुख को भोगने के लिए भी सहायक चाहिए और दुःख को हलका करने के लिए भी सहायक चाहिए। अकेला आदमी दु:ख से दुखी हो करके पागल हो जाएगा। इसी तरह अकेला आदमी सुख का उपभोग करेगा तो न उपभोग कर सकेगा और यदि करेगा तो पागल हो जाएगा। मिल-बाँटकर खाना, सुख बाँटना और दूसरों का दुःख बँटाना, सहयोग-सहकार करना आध्यात्मिक जीवन के अंग हैं। आदमी बुद्धि के आधार पर बड़ा नहीं है। आदमी की विशेषता सहकारिता है। सहायता के आधार पर हम बढ़े हैं।
सारी विश्व-वसुधा का चिंतन करें
इनसानी समाज, मानवीय समाज, मानवीय शांति और मानवीय गरिमा सहकारिता के ऊपर टिकी हुई हैं। आदान-प्रदान के ऊपर टिकी हुई हैं, अनुदान के ऊपर टिकी हुई हैं और सारे विश्व में जो कुछ भी श्रेष्ठ है, वह सारा का सारा अनुदान बिखेरता हुआ चला जाता है। बादल अनुदान बिखेरते हैं, नदियाँ अनुदान बिखेरती हैं। हवा अनुदान बिखेरती है। चंदन अनुदान बिखेरता है। पेड़ अनुदान बिखेरते हैं और संत-महापुरुषों में से प्रत्येक को अपना अनुदान बिखेरना पड़ता है।
मित्रो! अगर आपकी आत्मा का विकास होता है, अगर आपकी आत्मा का विस्तार होता है तो आपको 'वसुधैव कुटुंबकम्' की मान्यता को ले करके चलना होगा। 'वसुधैव कुटुंबकम्' की मान्यता का मतलब यह होता है कि जैसे हम अपने छोटे से खानदान और कुटुंब का ध्यान रखते हैं, अपने बीबी-बच्चों का ध्यान रखते हैं। ठीक उसी तरह से हमको सारे समाज के दुःख और सुख का ध्यान रखना पड़ेगा। दूसरों के दुःखों को कम करने के लिए और दूसरों के सुखों को बढ़ाने के लिए, जैसे कि आप अपने कुटुंब के दायरे में काम करते हैं, वैसे ही आपको सारे के सारे समाज के दायरे में काम करना पड़ेगा।
मानव में देवत्व के उदय से चार फायदे
मित्रो! जैसा कि हमने कहा है कि आध्यात्मिकता चार आधारों पर टिकी हुई है। ये हैं—साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा। इन चारों को मिला देते हैं तो आप एक श्रेष्ठ व्यक्ति बन जाते हैं और आपके भीतर से देवत्व का उदय होता है। देवत्व के उदय से क्या फायदा होगा? देवत्व के उदय से चार फायदे तुरंत होते हैं। चार फायदे प्रत्यक्ष होते हैं और जो पाँचवाँ फायदा है, उसके बारे में कह नहीं सकते कि होता है कि नहीं होता। सबसे पहला फायदा यह होता है—आत्मा के भीतर संतों वाला गर्व अनुभव होता है। आदमी को भीतर से गर्व अनुभव होता है। अमीरी से भी गर्व अनुभव होता होगा, मालूम नहीं। मैं अमीर तो रहा नहीं, पर मैं यह कहता हूँ कि आध्यात्मिक अमीरी से आदमी के ऊपर गर्व और गौरव छाया रहता है। आदमी की दरिद्रता या गरीबी दूर हो जाती है। अमीरी उस पर छाई रहती है। आत्मसंतोष उस पर छाया रहता है। यह फायदा आप समर्थ अध्यात्म से पा सकते हैं, जैसे कि मैंने पाया। दूसरा फायदा क्या है? दूसरा फायदा ये है कि आपको समाज से श्रद्धा और सहयोग मिलता है। अगर आप अध्यात्मवादी हैं तो मैं वायदा करता हूँ कि जिसकी आप शिकायत करते हैं कि अपने खानदान वालों से लेकर अपने पड़ोसियों तक रिश्तेदारों से लेकर अमुक तक का सहयोग हमको नहीं मिलता, वह श्रद्धा और सहयोग आपको मिलेगा। नहीं साहब! हमको नहीं मिलेगा। बेटे! यह आपकी परीक्षा हो रही है। थोड़े दिनों तक परीक्षा होती है। परीक्षा की कसौटी पर, जब आदमी का इम्तहान ले लिया जाता है कि इस चालाक जमाने में भी यह आदमी सही है तो सहयोग और सम्मान बरसने लगता है। बेटे ! इम्तहान देने में थोड़ा समय लगता है और तू उसी चक्कर में आ जाता है। टिका रह अपनी जगह पर फिर देख। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, शुरू-शुरू में उनकी दिल्लगी उड़ाई गई, उनका विरोध किया गया। पीछे उनकी सहायता की गई और सहायता करने का जब अंतिम समय आया है तो सारी दुनिया ने उनके चरणों पर अपना मस्तक झुका दिया है।
यह क्या चीज है? बेटे ! यह वो चीज है, जिसको हम लोक-सम्मान और लोक-सहयोग कहते हैं। जिसके लिए आदमी आकुल-व्याकुल रहता है और प्यासा-प्यासा फिरता है। यह आपको मिलने वाला है। तीसरा फायदा—भगवान का अनुग्रह आपको मिलने वाला है, अगर आप अध्यात्मवादी हैं तब। अगर आप अध्यात्मवाद का दिखावा करते हैं, तब मैं नहीं कह सकता। अगर आप अध्यात्म का बहकावा और भुलावा दे करके ईश्वर की हजामत बनाना चाहते हैं तो मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ, लेकिन अगर आप असली अध्यात्मवादी हैं तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि ईश्वर का अनुग्रह, ईश्वर का प्यार आपके ऊपर बरसेगा और वो उद्देश्य पूरा होगा, जिसके लिए आपको मनुष्य का जीवन मिला हुआ है। स्वर्ग होता होगा तो वह भी मिलेगा, मुक्ति होती होगी तो वह भी मिलेगी, परंतु मैं आपसे कहता हूँ कि स्वर्ग और मुक्ति नहीं भी होती हो तो भी आप यह अनुभव करेंगे कि अपने जीवन में आप स्वर्ग में निवास करते हैं। संत इमर्सन ये कहते थे—"हमको नरक में भेज दीजिए और हम अपने लिए स्वर्ग पैदा कर लेंगे।" आपके वातावरण में स्वर्ग छाया रहेगा।
मित्रो ! चौथा फायदा है—हमारे वातावरण में स्वर्ग। यह हमेशा छाया रहता है। हम स्वर्ग में रहते हैं। हम श्रेष्ठ विचारों में रहते हैं, श्रेष्ठ लोगों के बीच में रहते हैं। श्रेष्ठ लोग हमारे पास आते हैं और जब भी बातें होती हैं तो श्रेष्ठ बातें होती हैं। श्रेष्ठता का हम चिंतन करते हैं, अत: हम स्वर्ग में रहते हैं। मनुष्य के भीतर जब देवत्व का उदय होता है तो उसे मालूम पड़ता है कि उसके नजदीक देवता ही देवता आ गए हैं। यहाँ जो कोई भी आता है. श्रद्धालु आता है. प्रेम करने वाला आता है, भक्ति की बात करने वाला आता है। उदार मनुष्य आता है, सेवाभावी आता है। हमारी सारी जिंदगी देवताओं के बीच रहते हुए, स्वर्गीय वातावरण और परिस्थितियों में रहते हुए बीत गई। अगर आप अध्यात्मवादी हैं तो मैं यह कहता हूँ कि जो नरक और जो दैत्य आपको तंग करते हैं, धीरे-धीरे स्वयं ही हारते हुए चले जाएँगे और आप उनको हटाते हुए चले जाएँगे। आप एक अलग वातावरण में रहेंगे और यह पाएँगे कि मरने के बाद जिस स्वर्ग और मुक्ति की अपेक्षा करते थे, वह इसी जीवन में नजदीक आते हुए चले जाते हैं।
असली अध्यात्म को समझें, यही जीवन का सार है
मित्रो! असली अध्यात्म समर्थ है, शक्तिवान है। अगर आपके पास असली अध्यात्म है तो आप समझिए कि जीवन का सबसे बड़ा लाभ आपने पा लिया। उस अध्यात्म को प्राप्त करने के लिए तीर्थाटन, पूजा और भजन काफी नहीं हैं। उसके लिए ये चार काम करने पड़ेंगे—साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा। जैसे कि मैंने अपने जीवन में इन चारों चीजों को समान रूप से अवतरित करने की कोशिश की, ऋषियों ने अपने जीवन में अवतरित करने की कोशिश की। जिसके माहात्म्य शास्त्रकारों ने बताए और मैं भी अपना अनुभव बताता हूँ कि समग्र अध्यात्म इन्हीं चीजों पर टिका होता है। अगर आप इसको प्राप्त करने की कोशिश करें तो मेरे ही तरीके से आप भी निहाल हो सकते हैं, धन्य हो सकते हैं और इसी जीवन में जीते-जी सुख और शांति पा सकते हैं, स्वर्ग और मुक्ति पा सकते हैं। मरने का इंतजार करने और तब यह सब देखने की जरूरत नहीं है। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥