उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!
त्रिवेणी, जिसमें नहा करके कौए कोयल हो जाते हैं और बगुले हंस हो जाते हैं, आपने सुना होगा। रामायण में त्रिवेणी का माहात्म्य बताते हुए ये लिखा गया है—
मज्जन फल पेखिअ तत्काला। काक होहिं पिक बकउ मराला।।
कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस बन जाते हैं, ये हो सकता है; मगर ऐसे नहीं हो सकता । आकृतियाँ बदल सकती हैं? आकृतियाँ तो भगवान् ने जैसी बना दी हैं, माँ के पेट में से जिस दिन से आदमी बना है, बनावट तो वैसी ही रहेगी। कैसे बदल पायेंगे बनावट को? पर प्रकृति बदल सकती है। जिस पानी के स्नान करने का गोस्वामी जी ने माहात्म्य बताया है, वास्तव में वह पानी की तीन धाराओं का संगम नहीं है, वह तो उसके प्रतीक हैं। वास्तव में त्रिवेणी माहात्म्य वह है, जिसको आप त्रिपदा गायत्री कहते हैं। यह तीन धारा वालीगायत्री है। इसको ‘सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम्, भी कहते हैं। इसको सत्-चित् भी कहते हैं, फिर मैं आपको इसके व्यावहारिक अर्थ करके बताता हूँ। इसको उपासना, साधना और आराधना कहते हैं। तीन का संगम है यह। आपको तीन काम करने पड़ते है। तीन काम आपजब करते है, फिर आप पूर्णतया सिद्धपुरुष बन जाते है और आध्यात्मिक उन्नति के सारे लाभ उठा लेते हैं। उपासना के बारे में कहा था न? भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़िए; भगवान का अनुशासन स्वीकार कीजिए; भगवान की सत्ता पर विश्वास कीजिए; कर्मफलऔर न्यायकारी होने की बात को मान्यता दीजिए; फिर आप उसी के साथ-साथ मिल जाइए; धुल जाइए; उसी के सिद्धान्त और उसी की इच्छा पर चलना शुरू कीजिए। यह धारा नम्बर एक हो गई त्रिवेणी की और दूसरी धारा यमुना। यमुना के बारे में कल हम बता चुकेहैं। यह साधना की धारा है। साधिए अपने आप को; अपने आप को गलाइए; अपने आपको ढालिए; अपने आप को कुसंस्कारों से मुक्ति दिलाइए; अपने आप को सज्जन और सभ्य बनाने के लिए भरपूर कोशिश कीजिए।
आज आपको एक नई बात और बतानी है। एक चीज इसी त्रिवेणी के साथ में जोड़ दीजिए, जिसका नाम है ‘आराधना’। आराधना किसकी? उपासना भगवान की, साधना आत्मदेव की और आराधना? आराधना समाज की। आपका समाज के प्रति भी कुछ कर्तव्य है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसकी उन्नति अक्ल से नहीं हुई है। अक्ल तो बहुतों में ज्यादा है। आदमी की अपेक्षा बहुत से अतीन्द्रिय क्षमता वाले जानवर हैं, जिनकी अक्ल मनुष्य से बहुत ज्यादा है। आदमी का पुरुषार्थ, उसकी सहयोग-वृत्ति है, शरीर का बृहदाकारनहीं। विशाल कलेवर वाले प्राणी तो कितने ही हैं। हाथी, व्हेल, घोड़े, गैंडे जैसे प्राणियों का आकार तो मनुष्य से भी बड़ा है; लेकिन आदमी की जो उन्नति हुई है, वह वास्तव में सहकारी समाज की वजह से हुई है। एक ने दूसरे को सहायता दी है; दूसरे ने तीसरे को सहायतादी है। अगर यह सहायता का क्रम न चला होता, तो आदमी की उन्नति किसी भी प्रकार सम्भव न हुई होती। यहाँ तक कि जिस वृद्धि के बारे में आदमी बड़ी-बड़ी डींगें हाँकता है, वह वृद्धि भी उसके पल्ले न पड़ी होती। इसी सहकारिता को हमको कायम रखना है। आदमीको और हमको जो कुछ मिला है, यह दूसरों की कृपा से मिला है। माँ ने हमको दूध पिलाकर बड़ा किया। जानवर का बच्चा पैदा होने के बाद में, खरगोश का बच्चा पैदा होते ही घास खाने लगता है और भाग जाता है; लेकिन मनुष्य का बच्चा? मनुष्य का बच्चा तो कितनाबड़ा हो जाता है, फिर भी माँ की देख−भाल के बिना, संरक्षण के बिना, उसका दूध पिये बिना, उसकी सहायता पाये बिना करवट तक नहीं बदल सकता! अहसान हुआ न? बाप का अहसान न हो तब? कपड़ा बाप नहीं पहनाये तब? स्कूल के लिए फीस न दे तब? तबबताइये बच्चा कैसे आगे बढ़ेगा? शादी हुई हो आपकी, यह शादी की बीबी कहाँ से आई आपकी? किसी और ने दी न? किसी और ने उसे पाला-पोषा, पढ़ाया तब आपको दी न? आदमी अहसानों से दबा हुआ है। कपड़ा जो आप पहनते हैं, दवाएँ जो इस्तेमाल करते हैं, किताबेंजो आप पढ़ते है या जो उद्योग-धन्धा आप करते हैं, अकेले आप कैसे कर सकते हैं? यह समाज का ऋण है, जिसकी वजह से आप इतनी ऊँची श्रेणी में है। इस ऋण को चुकाना आपका काम है अर्थात् समाज-सेवा करना आपका काम है। आपने असंख्यों की सहायता सेजीवन का वर्तमान स्वरूप प्राप्त किया है, तो आपका यह फर्ज हो जाता है कि उसी समाज का, जिसने कि भिन्न-भिन्न प्रकार से सहयोग देकर के आपको पढ़ा-लिखा बनाया है, शिक्षक बनाया है, सभ्य बनाया है, उद्योग-धन्धों को चलाने लायक बनाया है, अफसरबनाया है, गृहस्थ बनाया है, उस समाज के ऋण को चुकाने के लिए आपको उसकी सेवा करनी चाहिए। सेवा अगर इनसान न करे तब, तब वह कर्जदार होकर मरेगा और कर्जदार होकर मरेगा तब? तब जीवन में आपने जो भी पा लिया हो, वह अलग बात है; लेकिन यहसारे-के कर्जे जो आपको इस जीवन में भिन्न-भिन्न पक्षों के द्वारा मिले हैं, उनको चुकाने पड़ेंगे और चौरासी लाख योनियों में रह-रह करके, घूम-घूम करके, जिन-जिन लोगों के अहसान आपने इनसान की जिन्दगी में जमा कर लिये हैं, वह सब चुकाने पड़ेंगे। इसलिएऋण-मुक्ति के हिसाब से आपको समाज की सेवा करनी चाहिए। ऋण-मुक्ति के अलावा एक और पक्ष है। आपको उन्नतिशील बनने के लिए, समर्थ बनने के लिए, आपको सेवा-धर्म ग्रहण करना चाहिए।
अगर आप सेवा-धर्म ग्रहण नहीं करेंगे, तो आप विश्वास रखिए, आपकी उन्नति के सारे-के-सारे रास्ते बन्द हो जाएँगे। देखा होगा आप खाते है; लेकिन खाते तब हैं, जब आप टट्टी हो आते हैं और पेट को खाली कर लेते है। पेट खाली न करें तब? तब आप खा नहीं सकेंगे।साँस को पहले बाहर निकाल लेते है, तब आपको प्राणवायु का नया सिलसिला मिलता है। अगर आप न निकाले तब? न छोड़ें तब? जो कुछ भी पल्ले पड़ा है, उसको कृपण के तरीके से, कंजूस के तरीके से दाब के बैठ जाएँ, अपने ही खर्चे के लिए रखे, दूसरी को न बाँटेंतब? तब मुश्किल हो जाएगी, आप ध्यान रखना। भेड़ ने अपनी ऊन दूसरों को देने का निश्चय कर लिया कि है तो हमारे ही, उगी तो हमारे ही शरीर पर है; पर इस ऊन की दूसरों को भी तो जरूरत है। उसने खुशी से यह मंजूर कर लिया कि हमारी ऊन को जो लोग चाहेंखुशी से काट लें; उससे कपड़े बनाना चाहें, खुशी से बना लें। क्या भेड़ नुकसान में रही? आपकी दृष्टि से तो नुकसान में रहनी चाहिए; क्योंकि उसने बिना कीमत के अपनी ऊन दे दी; लेकिन भगवान् की तरफ देखा क्या? भगवान् उसे बराबर नई ऊन देते चले आते हैं।उसको हर साल तीन इंच ऊन मिल जाती है और अगर मान लीजिए भेड़ बारह वर्ष तक जिएँ, तो छत्तीस इंच अर्थात् तीन मीटर ऊन मिल जाती है उसको भगवान् के दरबार से। अगर भेड़ देना बन्द कर दें तब? भेड़ की ऊन कटना बन्द हो जाए तब? तब फिर जितनी ऊनभेड़ जन्म के समय पर लाई थी, बस उतनी रहेगी। भगवान् देगा ही नहीं। जब भेड़ त्याग करने को तैयार नहीं है, तो प्रकृति क्यों त्याग करेगी? आप इस सिद्धान्त को समझते नहीं है? न समझने की वजह से ही आदमी कंजूस बनता जाता है, कृपण बनता जाता है, लोभी बनता जाता है, संकीर्ण बनता जाता है, स्वार्थी बनता जाता है। इस बात को हटाना चाहिए। आराधना इससे कम में नहीं बन सकती है। पेड़ों ने अपने फल जमीन को दिये, प्रकृति ने उनको हर साल फिर नये फल दिये। अगर पेड़ ने फल देना बन्द कर दिया होतातब? तब फिर नये फल नहीं आते। बीज गलता है, गलने के बाद में फलता है। अगर बीज गलना बन्द कर दे तब? तब फिर फलेगा नहीं; जितना है, उतना ही रह जाएगा। उन्नति के लिए, विकास करने के लिए और अपने आपको महत्त्वपूर्ण और बड़ा बनाने के लिए बीजके तरीके से हर आदमी को गलना चाहिए। गलने का यह मतलब नहीं है कि अपनी आत्महत्या कर डालें, स्वयं को तबाह कर डालें। गलने का मतलब यह है कि समाज की सेवा के लिए अपने आप को गलाते जाइए, अपने आपको खत्म करते जाइए अपने आपको त्यागकरते जाइए, फिर आप देखेंगे; आपकी आराधना कैसा चमत्कार लाती है! प्राचीनकाल के ऋषियों में से हर आदमी ने, भक्तों ने, सबने समाज-सेवा की है। यह ख्याल ठीक नहीं है कि केवल भजन करने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं।
भगवान को प्राप्त करने के लिए अपना मन और अपना जीवन सुधार करने के लिए, साबुन के तरीके से अपने आपको धोना तो चाहिए राम के नाम से; लेकिन राम का नाम लेने भर से भगवान् प्रसन्न क्यों होने लगें? भगवान को क्या चापलूसी पसन्द है? भगवान् कोईरिश्वतखोर है कि आपकी चापलूसी सुनते रहें और आप पर अनुग्रह कर दें? नहीं, भगवान् के यहाँ कसौटी एक ही है, वह यह कि आप कितने उदार है? अगर आप उदार हैं, तो भगवान का दरवाजा आपके लिए उदारतापूर्वक खुला हुआ है और अगर आपने अपना दरवाजाबन्द करके रख लिया है तब? तब भगवान का दरवाजा भी आपके लिये बन्द हो जाएगा। सन्तों में से प्रत्येक को, भक्तों में से प्रत्येक को अपना जीवन सेवा भावी बनाना पड़ा है। जिन ऋषियों के बारे में आपकी यह मान्यता है कि ऋषि जंगलों में रहते थे, भजन करते थेऐसी बात नहीं है। भजन भी करते थे, तीर्थ-संचालन करते थे गुरुकुल चलाते थे, आरण्यक चलाते थे, प्रव्रज्या करते थे, परिभ्रमण करते थे और गाँव-गाँव जाकर के संदेश सुनाते थे।
नारद जी को आप नहीं जानते हैं? उनका जीवन सेवामय था। जहाँ-तहाँ, जहाँ-तहाँ चले गए। चरक का जीवन पढ़ा है न? चरक ने सारी जिन्दगी जड़ी-बूटियों की खोज की और सुश्रुत ने शल्य-क्रिया का आविष्कार किया। नागार्जुन ने क्या नहीं किया? व्यास जी ने अठारहपुराण लिखे थे। आप प्रत्येक ऋषि के बारे में देख लीजिए; सब सेवा में थे। एक भी ऋषि ऐसा नहीं हुआ है, जो सेवा-भावना से रहित रहा हो। सेवा-भावना से रहित रहेगा, तो भगवान उसकी सेवा करना बन्द कर देंगे। भजन आवश्यक तो है; यह कोई नहीं कहता कि आपभजन मत कीजिए; जरूर कीजिए; लेकिन भजन के साथ में सेवा को मिला लीजिए; क्योंकि ‘भज सेवायाम्’ संस्कृत में एक धातु है, जिससे कि भजन शब्द बना है। ‘भज’ का अर्थ होता है सेवा। सेवा जिस जीवन में न हो, उसका भजन कैसा ! जो भजन न करता हो, वहभक्त कैसा! इसलिए सेवा को आप हटाइए मत। आप सेवाविहीन जीवन कर देंगे, तो आपकी उपासना बिल्कुल एकांगी हो जाएगी और आप उस सुख से वंचित रह जाएँगे, जो आपको मिलना चाहिए। हर भगवान् के भक्त को प्राचीनकाल में यही करना पड़ा है।
आपने उस नेवले की कथा सुनी है न? जो सोने का हो गया था। उसका आधा हिस्सा सोने का हो गया था। पाण्डवों के यज्ञ में गया था, वहाँ रोने लगा था कि आधा हिस्सा हमारा एक यज्ञ में सोने का हुआ और दूसरा नहीं हुआ। लोगों ने पूछा भाई! वह कौन-सा यज्ञ था, जोपाण्डवों के यज्ञ से भी बड़ा था? उन्होंने कहा—एक ब्राह्मण ने एक सप्ताह के बाद में चार रोटियों का अनाज पाया। उससे चार रोटियाँ बनाई। एक खुद, एक औरत की, एक कन्या की, एक बच्चे की थाली में रखी, तो उसको ध्यान आया कि अगर हमसे भी बड़ा दुःखी, कोईभूखा इस संसार में है, तो पहला हक उसका है। उसको देना चाहिए; क्योंकि सारा समाज एक है; सारी मानवता एक है; सारा विश्व एक है। हमसे भी कोई अभावग्रस्त है, तो पहला हक उसका है। वह छत पर चढ़कर चिल्लाने लगा। उसको एक सप्ताह से अन्न नहीं मिलाथा; लेकिन चिल्लाने लगा कि हमसे भी ज्यादा भूखा अगर कोई यहाँ हो, तो उसका पहला हक है। हम उसको बुलाते हैं कि वह आए और हमारी रोटी में से हिस्सा बँटाये।
महाभारत की कथा के अनुसार कहते हैं, एक चाण्डाल आ गया, कहने लगा—एक महीने से हमको अन्न नहीं मिला है, तो उन्होंने कहा-ठीक है, अगर आपको एक महीने से अन्न नहीं मिला है, तो आप पहले भोजन कर लीजिए। हम बाद में देख लेंगे। जब आप जी सकतेहैं, तो हम भी जिन्दा रह सकते है। ब्राह्मण ने अपनी रोटी दे दी। उसकी पत्नी ने भी एक रोटी दे दी। बच्चे ने भी अपनी रोटी दे दी और कन्या ने भी अपनी रोटी दे दी। चारों रोटियाँ को खाकर के जहाँ चाण्डाल ने कुल्ला किया था, उस स्थान पर पानी में नेवला बैठ गया; नेवलेका उतना अंग सोने का हो गया। नेवले से लोगों ने पूछा-वह क्या था? उसने कहा—वह धर्म था, जो करुणा के रूप में आदमी की परीक्षा करने आता है। जिस आदमी के भीतर कोई करुणा न हो वह कोई परमात्मा है? वह कोई भक्त है! नहीं, जिसके हृदय में कोई करुणानहीं, दया नहीं, सेवा की बुद्धि नहीं; जो उदार नहीं हो सकता; जिसका मन कोमल नहीं; जो अपने सुख को बाँट के नहीं खा सकता; जो दूसरों के दुःखों को घटा नहीं सकता, वह भक्त कैसे हो जाएगा? अगर आप दूसरों के दुःखों को घटाएँगे और अपने सुखों को बाँटेंगे, तोउसका तरीका एक ही हो सकता है कि आप जीवन में सेवा को स्थान दें। कहीं-न, कोई-न तरीका ऐसा निकालते रहें, जिससे कि आपके समय का एक बड़ा अंश और आपके साधनों का बड़ा अंश परोपकार के लिए और परमार्थ के लिए खर्च होता रहे। परोपकार और परमार्थमें दो बातें आती है। एक बात आती—‘यज्ञार्थाय’ और एक आती है—‘विपदवारणाय’। विपदवारणाय का अर्थ है—दुखियारों की सेवा करना। जो भूखे हैं, गरीब हैं, कंगाल है, कोढ़ी हैं, उनकी आप सहायता कर देते हैं, तो यह पुण्य का, परमार्थ का एक अंश कहलाता है ।इसका नाम है—‘विपदवारणाय’। भूकम्प आते हैं, बाढ़ आती है, बीमारी फैल जाती है, ऐसे अनेक अवसरों पर अनेक आदमी दानी और सेवाभावी बन जाते हैं और सेवा करते हैं। यह परमार्थ का अंश है—समय नहीं है।
दूरदर्शियों की सेवा इससे भिन्न प्रकार की है। दूरदर्शी इस प्रकार से समाज की सेवा नहीं करते क्योंकि इसको तो कोई भी कर सकता है। इसमें प्रकृति की प्रेरणा भी है, आत्म-संतोष भी है, समाज का सम्मान भी है। इसमें तो कई तरह की चीजें मिल जाती हैं, इसलिएआमतौर से आदमी को दूर करने वाले कामों को करने के लिए काम कर लेते है, जैसे—प्याऊ लगा देते हैं, धर्मशाला खोल देते हैं, शर्बत बाँट देते हैं, कम्बल बाँट देते हैं; लेकिन ये लाभ तो, जो भौतिक रूप से अभावग्रस्त है, उनके काम आते हैं। आत्मिकरूप से विपन्नों काकाम इनसे नहीं चलता। अन्तरात्मा को ऊँचा उठाने के लिए, जीवन को विकसित करने के लिए, आदमी को सुसंस्कारी बनाने के लिए परामर्श और शिक्षण दिये जाते हैं। इस निमित्त जो साधन दिये जाते हैं वह वास्तव में यज्ञार्थ हैं। यज्ञार्थ का पुण्य विपदवारणाय कीतुलना में हजार गुना ज्यादा माना गया है, क्योंकि विपदवारणाय से मनुष्य की शारीरिक मुसीबतें दूर होती हैं, बस। आदमी भूखा रहता है, तो आप खाना खिला देंगे। शरीर को ही तो खिला देंगे? आत्मा को क्या खिलाएँगे? आत्मा को रोटी थोड़े ही खिला सकते हैं आप? तब आत्मा को, अन्तःकरण को, जिसके आधार पर हम खुराक देते हैं, साधन देते हैं, असल में उसी के आधार पर कल्याण है; उसी से आदमी की वास्तविक भलाई होती है। इसलिए सबसे बड़ा पुण्य, सबसे बड़ा परोपकार आराधना है। आराधना यह मानी गई है कि हमदूसरों को प्रकाश दें, रोशनी दें, रास्ता बताएँ; ऐसे परामर्श बताएँ; जिससे कि लोग ऊपर उठें और अपने जीवन का स्वरूप ऐसा बनाएँ, जिसकी नकल करने की बहुत-से आदमियों की इच्छा होने लगे। यह वास्तव में परोपकार का काम है। आप दुःखी की सहायता नहीं करसकते, तो न सही; लेकिन आप वातावरण तो बनाइए न, प्रवृत्तियाँ पैदा कीजिए न।
हजारी किसान का नाम आपने सुना है? हजारी-किसान ने किसी भूखे को रोटी तो नहीं खिलाई, प्याऊ तो नहीं खोली; लेकिन वह जानते थे कि प्रेरणा से सारा वातावरण बनता है, हरियाली बनती है, स्वास्थ्य बनता है। इसलिए वह गाँव-गाँव घूमता रहा और अपनीजिन्दगी में हजारों आम के बगीचे लगा दिये। हजार आम के बगीचे लगा देने से सारे-का इलाका समृद्ध हो गया। वहाँ के लोगों का स्वास्थ्य इतना बढ़िया हो गया, वहाँ के लोगों की तबीयतें इतनी अच्छी हो गई, वहाँ हरियाली ऐसी पैदा हो गई कि लोगों ने अहसान मानाऔर उसका नाम हजारी प्रसाद के नाम पर हजारी बाग जिला रख दिया गया। आप ऐसा नहीं कर सकते क्या? कीजिए। परोपकार के लिए आगे बढ़िये। नकल कीजिए। किसकी? जिससे हजारों का भला होता हो। एक आदमी के दुःख को आप दूर कर दें वह भी है तो अच्छीबात, खराब बात तो वह भी नहीं है; पर उससे हजार गुनी और लाख गुनी अच्छी बात यह है कि लोगों के विचारों को, लोगों की भावनाओं को आप ठीक कर दें। जिन-जिन लोगों ने ऐसा किया है, असल में वह पुण्य-आत्मा कहलाएँगे। नारदजी ने लोगों को दिशाएँ दीं औरदिशा देने के बाद में लोगों को क्या-से कर दिया! अब आप उसी तरह से विचार कीजिए। यह पुण्य-परम्पराएँ आपको समाज मे फैलानी है; उसके लिए आप परिश्रम कीजिए। जिन कुरीतियों की वजह से समाज का सत्यानाश हुआ जाता है, उन कुरीतियों से संघर्ष करने केलिए आप सीना तानकर खड़े हो जाइये।
आप यह मत सोचिए कि लड़ाई-झगड़े की बात कही जा रही है। लड़ाई-झगड़े की बात तो भगवान भी कह रहे थे और अर्जुन को बार-बार कहा था कि आप लड़िए—‘‘ततो युद्धाय युज्यस्व’’ लड़ने के लिए दबाव डाला था तो क्या लड़ना भी पुण्य है? हाँ लड़ना भी पुण्य है।पुण्य को आप सीमाबद्ध मत कीजिए। केवल पानी पिलाने को ही पुण्य मत मानिये; रोटी खिलाने को पुण्य मत मानिये। व्यक्तियों को उछाल देने का नाम पुण्य है। ज्ञान देने का नाम, सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन का नाम-यह भी पुण्य और परोपकार हैं। जैसे कि आपलोग, जो इस मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं, जिसमें कि असंख्य मनुष्यों को उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना है और महाविनाश से रोकथाम करने के लिए जिसमें बहुत गुंजाइश है; आप ऐसे पुनीत काम में संलग्न होते हैं; अपना श्रम देते हैं, अपना समय देते हैं, अपनेप्रभाव का उपयोग करते हैं, तो आप निश्चित रूप से समझिये कि यह किसी सोना दान करने वाले राजा कर्ण से कम महत्त्व का काम नहीं है। आपको सेवा तो कभी करनी ही चाहिए। सेवा आप नहीं करेंगे तब? तब आपकी अन्तरात्मा? प्यासी रह जाएगी, भूखी रहजाएगी। आपकी आत्मा को आनन्द मिलेगा ही नहीं, जो कि एक देने वाले को मिलता है। देवता उन्हें कहते है जो कि दिया करते हैं। आप तो देवयोनि में जा रहे हैं। पशु की योनि छोड़कर मनुष्य की योनि में आ गये हैं न। अब एक और कदम बढ़ाइये। अब आपको देवताबनना है। देवता किसे कहते हैं? जो दिया करते हैं। देने वाले का नाम—सेवाभावी। तो आप देने वाले बन जाइये। आप देने वाले बन गए, तो आपका स्वर्ग आपके चरणों में आ गया। स्वर्ग से आप ज्यादा बेहतरीन बन सकेंगे; स्वर्ग में जाने वालों की तुलना में ज्यादा सुखीहोंगे। सेवा करने से और परोपकार करने से जो आनन्द आता है, उसकी अनुभूति आपको है नहीं।
जिस दिन आपको अनुभूति आयेगी, उस दिन आप ऋषि के सुर में सुर मिला करके एक शब्द कह रहे होंगे। क्या कह रहे होंगे?
‘‘न त्वहं कामये राज्यं न सौख्यं, न पुनर्भवम। कामये दुःखतप्तानां प्राणिनां आर्तनाशनम्।’’
प्राणियों के दुःख अभाव के कारण भी होते हैं अज्ञान के कारण भी होते हैं। अभाव के कारण, अशक्ति के कारण, अज्ञान के कारण सारे-के संसार में यह दुःख फैले हुए हैं। आप अभावों को दूर कीजिये; दान दीजिये, उपकार कीजिये। अपने हिस्से में से एक अंश दुखियारों कीसेवा के लिए रखिये! इन अभावों को दूर करना है। अशक्ति के लिए, लोगों की हिम्मतें बढ़ा दीजिए। ऐसी प्रवृत्तियों को उभरने दीजिए, जिससे कि आदमी शक्तिमान बनते हैं। आप गृह उद्योगों से लेकर के हरित-क्रान्ति तक के अनेक कार्य ऐसे कर सकते हैं, जिससे किआदमी भावनात्मक दृष्टि से सुखी, समृद्ध बनते हैं और आप ऐसे भी काम कर सकते हैं, जिससे कि अज्ञान दूर होता है। आजकल ज्ञानयज्ञ को आगे बढ़ाने के लिए विचारक्रान्ति के लिए आपको संसार में से अज्ञान को मिटाना है। अज्ञान के कारण ही अनास्था उत्पन्नहुई है। अनास्था के कारण ही आदमी भटक गया है और भटका हुआ आदमी जगह-जगह ठोकर खा रहा है, जगह-जगह दुःख पा रहा है। जगह-जगह ठोकर खाने वाले और दुःख पाने वाले आदमी को रास्ता बताना चाहिए। आदमी न जाने क्या-से चीजें चाहता है और उसकीयह मालूम भी नहीं है कि वह चीज हमारी नाभि में रखी है। कस्तूरी के लिए हिरन की तरह मारा-मारा फिरता है; मृगतृष्णा की तरह मारा-मारा फिरता है; थकान और निराशा में डूबा-डूबा फिरता है। आपको रास्ता बताना है। रास्ता अगर बताने लगे, तो आप मार्गदर्शक होजाएँगे; आप ऋषि हो जाएँगे और आपकी, सेवा बहुत उच्चकोटि की मानी जाएगी। ऋषियों ने वही उच्चकोटि की सेवा की थी। आदमियों को रास्ता बताया था, आदमियों को दिशा दी थी, आदमियों की धाराओं को बदल दिया था। आप इस काम को भी कीजिए। सेवा केलिए मैं मना थोड़े ही कर रहा हूँ कि आपको दुःखियों की सेवा नहीं करनी चाहिए, प्याऊ नहीं लगानी चाहिए, भूखों को रोटी नहीं बाँटनी चाहिए। वह तो करनी ही चाहिए; लेकिन इसको आप भूलिये मत। असली सेवा तो यही है। असली परोपकार यही है। आराधना भी यहीहै। राजा कर्ण सवा मन सोना रोज बाँटते थे और सन्त सवा मन ज्ञान रोज बाँटता है। हम सवा मन ज्ञान रोज बाँटते है। आपको भी सवा मन ज्ञान रोज बाँटने की अपनी भावी योजना बनानी चाहिए और जीवन को आराधना से भरा-पूरा करना चाहिए।
हमारी बात समाप्त।