उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलिए—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! जो कार्य और उत्तरदायित्व आपके जिम्मे सौंपा गया है, वह यह है कि दीपक से दीपक को आप जलाएँ। बुझे हुए दीपक से दीपक नहीं जलाया जा सकता। एक दीपक से दूसरा दीपक जलाना हो, तो पहले हमको जलना पड़ेगा, इसके बाद में दूसरा दीपक जलाया जा सकेगा। आप स्वयं ज्वलंत दीपक के तरीके से अगर बनने में समर्थ हो सकें, तो हमारी वह सारी की सारी आकांक्षा और मनोकामना और महत्त्वाकांक्षाएँ पूरी हो जाएँगी, जिसको लेकर के हम चले हैं और यह मिशन चलाया है और हमने आपको यह कष्ट दिया है और बुलाया है। आपका सारा ध्यान यहीं इकट्ठा होना चाहिए कि क्या हम अपने आपको एक मजबूत ठप्पे के रूप में बनाने में समर्थ हो गए? गीली मिट्टी को आप लाना। ठप्पे पर ठोंकना, तख्ते पर लगाना वह वैसे ही बनता हुआ चला जाएगा, जैसे हमारे ये खिलौने बनते हुए चले जाते हैं। हमें खिलौने बनाने हैं। खिलौने बनाने के लिए हमने साँचे और ठप्पे मँगाए हुए हैं। साँचे में मिट्टी लगा देते हैं और एक नया खिलौना बन जाता है। एक नए शंकर जी बन जाते हैं। एक नए गणेश जी बन जाते हैं। ढेरों के ढेरों श्रीकृष्ण और शंकर जी बनते जा रहे हैं। कब? जब हमारे पास छापने के लिए ठप्पे हों और साँचा हो। साँचा अगर आपके पास सही न होता, तो न कोई खिलौना बन सकता था, न कोई और चीज बन सकती थी ।
मित्रो! हमको जो सबसे महत्त्वपूर्ण काम मानकर चलना है, वह यह कि हमारा व्यक्तित्व किस प्रकार का हो? न केवल हमारे विचारों का वरन, हमारे क्रिया-कलापों का भी। आपके मन में कोई चीज है, आप मन से बहुत अच्छे आदमी हैं, मन से आप शरीफ आदमी हैं, मन से आप सज्जन आदमी हैं, मन से आप ईमानदार आदमी हैं, लेकिन आपका क्रिया-कलाप और आपका लोक-व्यवहार उस तरह का नहीं है, जिस तरह का शरीफों का और सज्जनों का होता है, तो बाहर वाले लोगों को कैसे मालूम पड़ेगा कि आप जिस मिशन को लेकर चले हैं, उस मिशन को पूरा करने में आप समर्थ होंगे कि नहीं? मिशन को आप समर्थ बना सकते हैं कि नहीं? आपके विचारों की झाँकी आपके व्यवहार से भी होनी चाहिए। व्यवहार आपका इस तरह का न होगा, तो मित्र लोगों को यह पता लगाने में, अंदाज लगाना मुश्किल हो जाएगा कि आपके विचार क्या है और सिद्धांत क्या हैं? जो विचार और सिद्धांत आपको दिए गए थे, वो आपने अपने जीवन में धारण कर लिए हैं, कि नहीं किए हैं। आपको ये बातें मालूम होनी चाहिए। जहाँ कहीं भी आप जाएँगे, आपको अपने नमूने का आदमी बनकर के जाना है ।
नमूना बनिए
नमूने का उपदेशक कैसा होना चाहिए? नमूने का गुरु कैसा होना चाहिए? नमूने का साधु कैसा होना चाहिए? नमूने का ब्राह्मण कैसा होना चाहिए और गुरुजी का शिष्य कैसा होना चाहिए? ये सारी की सारी जिम्मेदारियाँ हमने अनायास ही नहीं लाद दी हैं-आप पर। आपको बोलना न आता हो, तो कोई शिकायत नहीं हमें आपसे। आपको बोलना न आए लेक्चर देना न आए जो प्वाइंटस और जो नोट्स आपने यहाँ लिए हैं, उन्हीं को जरा '' फेयर '' कर लेना और अपनी कॉपी को लेकर के चले जाना। कहना गुरुजी ने आपके लिए हमको पोस्टमैन के तरीके से भेजा है। जो उन्होंने कहलवाया है, हम उस बात को कह रहे हैं। चिट्ठी को पढ़कर के हम आपको सुनाए देते हैं। आप अपनी डायरी के पन्ने खोलकर के सुना देना। मजे में काम चल जाएगा ।
हम जब अज्ञातवास चले गए थे, तो उससे पूर्व यहाँ लोगों ने आधा-आधा घंटे के लिए हमारे संदेश टेप कर लिए थे और जहाँ कहीं भी सम्मेलन हुआ करते थे, जहाँ कहीं भी सभाएँ होती थीं, लोग उन टेपों को सुना देते थे। कह देते थे कि गुरुजी तो नहीं हैं, पर गुरुजी जो कुछ भी कह गए हैं, संदेश दे गए हैं, शिक्षा दे गए हैं आपके लिए उसको आप लोग ध्यान से सुन लीजिए और ध्यान से पढ़ लीजिए। लोगों ने सारे व्याख्यान सुने और उसी तरह मिशन का कार्य आगे बढ़ता चला गया।
व्यक्तित्व और चरित्र
देवियो और भाइयो! जो काम हम करने के लिए चले हैं, उसका सबसे बड़ा और पहला हथियार हमारे पास जो कुछ भी है, वह है-हमारा व्यक्तित्व और हमारा चरित्र। हमको जो कोई भी कार्य करना है, जो कोई भी सहायता प्राप्त करनी है, वह रामायण के माध्यम से नहीं, गीता के माध्यम से नहीं, व्याख्यानों के माध्यम से नहीं, प्रवचनों के माध्यम से नहीं, यज्ञों के माध्यम से नहीं पूरा होने वाला है। अगर किसी तरह से हमारे मिशन को सफलता मिलनी है और वह उद्देश्य पूरा होना है तो आपका चरित्र-आपका व्यक्तित्व ही एक मार्ग है, एक हथियार है हमारा। व्याख्यान के बारे में आपको ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए और बहुत ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिए। व्याख्यान अगर आपको न आए तो आपने यहाँ इस शिविर में जो कुछ भी सुना हो, समझा हो उसे ही लोगों को सुना देना। हमने प्राय: यह प्रयत्न किया है कि अपने कार्यकर्ताओं के शिविर जहाँ कहीं भी आपको चलाने पड़े, वहाँ सबेरे प्रातःकाल जाकर के प्रवचन किया करना, जो हमने कार्यकर्ताओं के लिए और आपके क्रिया-कलापों के लिए कहे हैं। यहाँ आपको दूसरे लोग समझा देंगे कि कार्यकर्ताओं में कहे जाने के लिए प्रवचन कौन से हैं और जनता में कहे जाने वाले प्रवचन कौन से हैं। हमको जनता के विचारों का संशोधन और विचारों का संवर्द्धन करने के लिए व्याख्यान करने पड़ेंगे और लोकशिक्षण करना पड़ेगा, क्योंकि आज मनुष्य के विचार करने की शैली में सबसे ज्यादा गलती है। सबसे ज्यादा गलती कहाँ है? एक जगह है और वह यह कि आदमी के सोचने का तरीका बड़ा गलत और बड़ा भ्रष्ट हो गया है। बाकी जो मुसीबतें हैं, परेशानियाँ हैं, वे तो बर्दाश्त की जा सकती हैं, लेकिन आदमी के सोचने का तरीका अगर गलत बना रहा तो एक भी गुत्थी हल नहीं हो सकती और सारी गुत्थियों उलझती चली जाएँगी। इसलिए हमें करना क्या पड़ेगा? हमको जनसाधारण के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण सेवा जो है, वह यह करनी पड़ेगी कि उनके विचार करने की शैली, सोचने की शैली को बदल देना पड़ेगा। अगर हम सोचने के तरीके को बदल देंगे, तो उनकी कोई भी समस्या ऐसी नहीं है, जिसका समाधान न हो सके ।
समाधान संभव है
सारी समस्याओं का निदान, समाधान जरूर हो जाएगा, यदि आदमी इस बात पर विश्वास कर ले कि आहार और विहार, खान और पान, संयम और नियम, ब्रह्मचर्य, इनका पालन कर लेना आवश्यक है तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि अस्पताल को खोले बिना, डॉक्टरों को बुलाए बिना, इंजेक्शन लगवाए बिना और अच्छी कीमती खुराक का इंतजाम किए बिना हम सारे समाज को निरोग बना सकते हैं। आदमी की स्वास्थ्य से संबंधित समस्याओं का समाधान हम जरूर कर सकते हैं। हमारी लड़कियाँ पढ़ी -लिखी न हों, गाना-बजाना न आता हो और हमारी स्त्रियाँ सुशिक्षित न हों, उन्होंने एम.ए. पास न किया हो, लेकिन हमने एक-दूसरे के प्रति प्रेम, निष्ठा और वफादारी की शिक्षा दे दी, तो फिर जंगली हों तो क्या, गँवार हों तो क्या, आदिवासी हों तो क्या, भील हों तो क्या, कमजोर हों तो क्या, गरीब हों तो क्या? उनके झोपड़ों में स्वर्ग स्थापित हो जाएगा। उनके बीच में मोहब्बत और प्रेम, निष्ठा और सदाचार हमने पैदा कर दी तब? तब हमारे घर स्वर्ग बन जाएँगे ।
अगर ये सिद्धांत हम पैदा करने में समर्थ न हो सके तब फिर चाहे हम सबके घर में एक रेडियो लगवा दें, टेलीविजन लगवा दें। हर एक के घर में हम एक सोफासैट डलवा दें और बढ़िया से बढ़िया बेहतरीन खाने-पीने की चीज का इंतजाम करवा दें, फिर हमारे घरों की और परिवारों की समस्या का कोई समाधान न हो सकेगा। परिवारों की समस्याओं का समाधान जब कभी भी होगा, तो प्यार से होगा, मोहब्बत से होगा, ईमानदारी से होगा, वफादारी से होगा। इसके बिना हमारे कुटुंब दो कौड़ी के हो जाएँगे और उनका सत्यानाश हो जाएगा। फिर आप हर एक को एम.ए. करा देना और हर एक के लिए बीस? बीस हजार रुपए छोड़कर मरना। इससे क्या हो जाएगा? कुछ भी नहीं होगा। सब चौपट हो जाएगा ।
विचार परिवर्तन अनिवार्य
मित्रो! सामाजिक समस्याओं की गुत्थियों के हल, विचारों के परिवर्तन से होंगे। कौन मजबूर कर रहा है आपको कि नहीं साहब दहेज लेना ही पड़ेगा और दहेज देना ही पड़ेगा। अगर इन विचारों को और इन रीतियों को बदल डालें, ख्यालातों को बदल डालें, तो न जाने हम क्या से क्या कर सकते हैं और कहाँ से कहाँ ले जा सकते हैं। हमारे पास सबसे बड़ा काम मित्रो, जनता की सेवा करने का है। इसके लिए हम धर्मशाला नहीं बनवाते, हम चिकित्सालय नहीं खुलवाते, अस्पताल नहीं खुलवाते और हम प्रसूतिगृह नहीं खुलवाते। हम ये कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को परिश्रमशील होना चाहिए ताकि उसे किसी प्रसूतिगृह में जाने की और किसी नर्सिंग होम में जाने की आवश्यकता न पड़े। लुहार होते हैं, आपने देखे हैं कि नहीं, गाड़ी वाले लुहार, एक गाँव से दूसरे गाँव में रहा करते हैं। उनकी औरतें घन चलाती रहती हैं। घन चलाने के बाद उन्हें यह नहीं पता रहता कि बच्चा कोख में से पैदा होता है या पेट में से पैदा होता है। आज बच्चा पैदा हो जाता है, कल-परसों फिर काम करने लगती हैं। पंद्रह घंटे घन चलाती हैं। उनकी सेहत और कलाई कितनी मजबूत बनी रहती है। उनको नर्सिंग होम खुलवाने की और डिलीवरी होम खुलवाने की जरूरत नहीं है। हमको प्रत्येक स्त्री और पुरुष को यही सिखाने की जरूरत है कि हमको मेहनती और परिश्रमशील होना चाहिए। परिश्रमशील होने का माद्दा अगर लोगों के दिमागों में हम स्थापित कर सके तो मित्रो हमारे घरों की समस्याएँ परिवारों की समस्याएँ समाज की समस्याएँ और सारी समस्याएँ जैसे बेईमानी की समस्याएँ आदि कोई समस्या ऐसी नहीं है, जिसका हम समाधान न कर सकते हों ।
इसलिए महत्त्वपूर्ण कदम हमको यह बढ़ाना पड़ेगा कि जनता का लोकशिक्षण करने के लिए आप जाएँ और जनता में लोकशिक्षण करें। लोकशिक्षण करने के लिए हमने जो विचारधारा आपको यहाँ दी है, उसे एक छोटी सी पुस्तक के रूप में भी छपवा दिया है। ये व्याख्यान जो आपको यहाँ सुनने को मिले हैं, वे सारे के सारे प्वाइंट्स छपे हुए मिल जाएँगे। इनका आप अभ्यास कर लेना और इन्हीं प्याइंट्स को आप कंठस्थ कर लेंगे और डेवलप कर लेंगे, तो क्या हो जाएगा कि सायंकाल के प्रवचनों में जो आपको जनता के समक्ष कहने पड़ेंगे, बड़ी आसानी से कहने में पूरे हो जाएँगे। कार्यकर्ताओं के समक्ष भी आप यही कहना। जहाँ कहीं भी आपको समझाने की, प्रवचन करने की जरूरत पड़े, आप यह कहना कि गुरुजी ने हमें डाकिए की तरह से भेजा है और एक चिट्ठी देकर आपके लिए एक संदेश लिखकर के भेजा है। लीजिए चिट्ठी को पढ़कर के सुना देते हैं। सबेरे वाले प्रवचन जो हमने दिए हुए हैं, अगर आप सुना देंगे, समझा देंगे, तो वे आपकी बात को मान जाएँगे। आपको व्याख्यान देना न आता हो और समझाने की बात न आती होगी, तो भी बात बन जाएगी। व्याख्यान देना और प्रवचन देना, चाहे आपको न आता हो, कोई हर्ज आपका होने वाला नहीं है। ये जो प्वाइंट्स हमने आपको दिए हैं, किसी भी स्थानीय वक्ता को, किसी भी स्थानीय व्याख्यानदाता को आप समझा देना और कहना कि जो प्रवचन गुरुजी ने दिए हैं, इन्हें आप अपने ढंग से, अपनी समझ से, अपनी शैली से, अपने तरीके से, आप इन्हीं प्वाइंटों को समझा दीजिए। कोई भी अच्छा वक्ता जिसे बोलना आता होगा, बोलने की तमीज होगी या बोलने का ज्ञान होगा, इन बातों को समझा देगा, ये काम और कोई नहीं कर सकेगा, यह आपको ही करना है ।
जो आपको करना है
वे कौन से काम हैं, जो आपको करने पड़ेंगे? आपको यह करना पड़ेगा कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ जिस शाखा में भी आप जाएँ एक छाप इस तरह की छोड़कर आएँ कि गुरुजी के संदेशवाहक और गुरुजी के शिष्य जो होते हैं, वे किस तरह से और क्या कर सकते हैं और क्या करना चाहिए। आप यहाँ से जाना और वहाँ इस तरीके से अपना गुजारा करना, इस तरीके से निर्वाह करना जैसा कि संतों का गुजारा होता है और संतों का निर्वाह होता है। आप जहाँ कहीं भी जाएँ अपने खानपान संबंधी व्यवस्था को कंट्रोल रखना। खानपान संबंधी व्यवस्था के लिए हुकूमत मत चलाना किसी के ऊपर। वहाँ जैसा भी कुछ हो, जैसा भी कुछ लोगों ने दिया हो उसी से काम चला लेना। आपको तरह तरह की फरमाइशें पेश नहीं करनी चाहिए। जैसे कि बाराती लोग किया करते हैं। बारातियों का काम क्या है? बाराती लोग सारे दिन फरमाइशें पेश करते रहते हैं और नेताओं का क्या काम होता है? बारातियों का क्या होता है? जहाँ कहीं भी वे जाते हैं, तो ऑर्डर करते रहते हैं और तरह-तरह की चीजों के लिए अपने खाने-पीने की चीजें, अपनी सुविधा की चीजें, बीसों तरह की अपनी फरमाइशें करते रहते हैं। आपको किसी चीज की जरूरत पड़ती हो, चाहे आपको दिन भर भोजन न मिला हो, तो आप अपने झोले में सत्तू लेकर के जाना, थोड़ा नमक ले करके जाना। छुपकर के अपने कमरे में अपना सत्तू और अपना नमक घोल के पी जाना, लेकिन जिन लोगों ने आपको बुलाया है, उन पर ये छाप छोड़ करके मत आना कि आप चटोरे आदमी हैं और आप इस तरह के आदमी हैं कि आप खाने के लिए और पीने के लिए और अमुक चीजों के लिए आप फरमाइश ले करके आते हैं। इसलिए हमने एक महीने तक आपको पूरा अभ्यास यहाँ कराया। हमने ये अभ्यास कराया कि जो कुछ भी हमारे पास है, साग, सत्तू आप घोलकर खाइए। साग सत्तू आप खा करके रहिए और जबान को कंट्रोल करके रहिए। उन चीजों की लिस्ट को फाड़कर फेंक दीजिए कि अमुक चीज खाएँगे तो आप ताकतवर हो जाएँगे और अमुक चीज खाएँगे, तो आप पहलवान हो जाएँगे, अमुक चीज आप खाएँगे, तो आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। मित्रो हम यकीन दिलाते हैं कि खाने की चीजों से स्वास्थ्य का कोई ताल्लुक नहीं है और अगर आपको घी नहीं मिलता, तो कोई हर्ज नहीं, कुछ आपका बिगाड़ नहीं होने वाला है ।
ताकत का केंद्र कहाँ?
हम आपको कई बार कथा सुनाते रहे हैं। एक बार अपनी अफ्रीका यात्रा का हमने किस्सा सुनाया था, जिन बेचारों को मक्का मुहैया होती है। जिन लोगों के लिए सफेद बीज की दाल मुहैया होती है। जिन लोगों के लिए केवल जंगली केला मुहैया होता है। चार चीज उनको मिलती हैं। न कभी उनको घी मिलता है, न कभी और कोई पौष्टिक चीजें मिलती हैं लेकिन उनकी कलाइयाँ उनके हाथ कितने मजबूत होते है। ओलंपिक खेलों में सोने के मैडल जीतकर लाते और शेरों का शिकार करते रहते हैं। ताकत अनाज में नहीं है, ताकत शक्कर में नहीं है ताकत घी में नहीं है और ताकत मिठाई में नहीं है। मित्रो, ताकत का केंद्र दूसरा है। ताकत की जगह वह है, जो गाँधी जी ने अपने भीतर पैदा की थी। घी खाकर के पैदा नहीं की थी उन्होंने। वह अलग चीज है जिनसे ताकत आती है। इसलिए जहाँ कहीं भी आप जाएँ हमारे संदेशवाहक के रूप में, वहाँ पर आपका खान-पान का व्यवहार ऐसा हो जिससे कोई आदमी यह कहने न पाए कि ये लोग कोई बड़े आदमी आए हैं और कोई वी.आई.पी. आए हैं। यहाँ से जब आप जाएँ तो प्यार और मोहब्बत को ले करके जाना। अगर आपके अंदर कड़ुवापन रहा हो तो उसको यहीं पर छोड़कर जाना। कड़ुवापन मत ले करके जाना, अपना अहंकार ले करके मत जाना ।
कड़ुवापन क्या है? कड़ुवापन आदमी का घमंड है, कड़ुवापन आदमी का अहंकार है। अपने अहंकार के अलावा कड़ुवापन कुछ है ही नहीं। आप जब ये कहते हैं कि, हम तो सच बोलते हैं, इसलिए कड़वी बात कहते हैं। ये गलत कहते हैं। सच में बड़ा, मिठास -होता है। उसमें बड़ी मोहब्बत होती है। गाँधी जी सत्य बोलते थे, लेकिन उनके बोलने में बड़ी मिठास भरी होती थी। अँगरेजों के खिलाफ उन्होंने लड़ाई खड़ी कर दी और ये कहा कि आपको हिंदुस्तान से निकालकर पीछा छोड़ेंगे। आपके कदम हिंदुस्तान में नहीं रहने देंगे। मारकर भगा देंगे और आपका सारा जो सामान है, वो यहीं पर जब्त कर लेंगे और नहीं देंगे। गाँधी जी की बात कितनी कड़वी थी और कितनी तीखी थी और कितनी कलेजे को चीरने वाली थी, लेकिन उन्होंने शब्दों की मिठास, व्यवहार की मिठास को कायम रखा, हमको और आपको व्यवहार की मिठास को कायम रखना चाहिए। अगर आपके भीतर मोहब्बत है और प्यार है, मित्रो! तो आपकी जबान में से कड़वापन नहीं निकलेगा। इसमें मिठास भरी हुई होनी चाहिए। प्यार भरा हुआ रहना चाहिए। प्यार अगर आपकी जबान में से निकलता नहीं और मिठास आपकी जबान में से निकलती नहीं है, आप निष्ठुर की तरह जबान की नोंक में से बिच्छू के डंक के तरीके से मारते रहते हैं, दूसरों को चोट पहुँचाते रहते हैं और दूसरों का अपमान करते रहते हैं और विचलित करते रहते हैं, तब आपको यह कहने का अधिकार नहीं है कि आप सच बोलते हैं ।
वाणी में प्यार-शील
सच क्या है? जैसा आपने देखा है, सुना है, उसको ही कह देने का नाम सच नहीं है। सच उस चीज का भी नाम है,जिसके साथ में प्यार भरा हुआ रहता है और मोहब्बत जुड़ी हुई रहती है। प्यार और मोहब्बत का व्यवहार आपको यहीं से बोलना-सीखना चाहिए और जहाँ कहीं भी शाखा में आपको जाना है, और जनता के बीच में जाना है, उन लोगों के साथ में आपके बातचीत करने का ढंग, बातचीत करने का तरीका ऐसा होना चाहिए कि उसमें प्यार भरा हुआ हो, मोहब्बत जुड़ी हुई हो। उसमें आत्मीयता मिली हुई हो, दूसरों का दिल जीतने के लिए और दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए। यह अत्यधिक आवश्यक है कि आपके जबान में मिठास और दिल में मोहब्बत होनी चाहिए। आप जब यहाँ से जाएँ तो इस प्रकार का आचरण ले करके जाएँ ताकि लोगों को यह कहने का मौका न मिले कि गुरुजी के पसंदीदे यही हैं। अब आपकी इज्जत-आपकी इज्जत नहीं है, हमारी इज्जत है। जैसे हमारी इज्जत हमारी इज्जत नहीं है, हमारे मिशन की इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है। अपने वानप्रस्थ आश्रम की रखवाली करना आपका काम है ।
हमने ये तीन-चार तरीके की जिम्मेदारी आपके कंधे पर डाली है। इन जिम्मेदारियों को लेकर के आप जाना। फूँक-फूँक करके पाँव रखना। आप वहाँ चले जाना, जहाँ कि आबोहवा का ज्ञान नहीं है। कहीं गरम जगह हम भेज सकते हैं, कहीं ठंडी जगह हम भेज सकते हैं। कहीं का पानी अच्छा हो सकता है और कहीं का पानी खराब हो सकता है। आप वहाँ जाकर के क्या कर सकते हैं? आप बीमार नहीं पड़ सकते। बीमारी के लिए मैं दवा बता दूँगा, आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, आप बीमार नहीं पड़ेंगे और बीमारी आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैं ऐसी दवा दे दूँगा कि आप चाहे जहाँ कहीं भी जाना और जो चाहे कुछ खिला दे, वही खाते रहना। बेजिटेबिल की पूड़ियाँ खिलाता हो, तो पूरे महीने पूड़ियाँ खाना और बीमार होकर आए तो आप मुझसे कहना। मैं ऐसी गोली देना चाहता हूँ कि कोई भी चीज खिलाता हो, आप खाते रहना और आपके पेट में कब्ज की शिकायत हो जाए तो आप मुझसे कहना, मेरी जिम्मेदारी है। आप मुझसे शिकायत करना कि गुरुजी आपकी गोली ने काम नहीं किया, हमको कब्ज की शिकायत हो गई ।
खुराक से कम खाएँ
इसके लिए आप एक काम करना, अपनी खुराक से कम खाना। यहाँ चार रोटी की खुराक है, तो यहाँ से निकलते ही एक रोटी कम खाना। एक रोटी कम, तीन रोटी खाना शुरू कर दीजिए। आप जायके के माध्यम से जाएँगे, तो हर आदमी के मेहमान होंगे और मेहमान का तरीका हिंदुस्तान में यह होता है कि जो कोई भी आता है किसी के घर, तो उस आदमी के लिए अगर हम मक्का की रोटी खाते हैं, तो उसे गेहूँ खिलाएँगे और हम गेहूँ की खाते हैं, तो आपको चावल खिलाएँगे। चावल खाते हैं, तो मिठाई खिलाएँगे। हम अगर छाछ पीते हैं, तो आपको दूध पिलाएँगे। हर हिंदू यह जानता है कि संत-महात्मा का वेश पहन कर के आप जा रहे हैं, तो स्वभावत: आपको अपने घर की अपेक्षा अच्छा भोजन कराए अच्छी-अच्छी चीजें खिलाएँ। यदि आपने अपनी जबान पर कंट्रोल रखा नहीं, तो आप जरूर बीमार पड़ जाएँगे। आप ध्यान रखिए आबोहवा तो बदलती ही है। यहाँ का पानी आज, वहाँ का कल, वहाँ का पानी परसों। समय का ज्ञान नहीं, कुसमय का ज्ञान नहीं। यहाँ पर आप ग्यारह बजे खाना खा लेते हैं, संभव है कि कोई आपको दो बजे खिलाए आपका पेट खराब हो सकता है। आप बीमार हो सकते हैं, लेकिन ये खुराक जो मैंने आपको बताई है, अगर उसको कायम रखेंगे, तो आप कभी भी बीमार नहीं होंगे ।
मित्रो! हमने लंबे-लंबे सफर किए हैं और तरह-तरह की चीजें और तरह-तरह की खुराकें खाने का मौका मिला है। एक बार मैं मध्यप्रदेश गया, तो लाल मिरच बहुत खाने की आदत उन लोगों की थी। रामपुरा में यज्ञ हुआ। यज्ञ हुआ तो वहाँ वो बड़ी-बड़ी पूड़ी परोस रहे थे और ऐसी सब्जी परोस रहे थे, जो मुझे टमाटर की सी मालूम पड़ी। लाल रंग का सारे का सारा टमाटर का साग परोस रहे थे। टमाटर मुझे अच्छा भी लगता था, माताजी मेरे लिए अक्सर बना लिया करती थीं। मँगा लेती थीं। मैंने भी मँगा लिया और रख लिया थाली में। जैसे ही मैंने पूड़ी का टुकड़ा मुँह में दिया कि मेरी आँखें लाल-लाल हो गईं। अरे यह क्या? गुरुजी यह टमाटर का साग नहीं है, यह तो लाल मिरच है। जब हरी मिरच पक जाती है और लाल हो जाती है, तो उनको ही पीस करके उसमें नमक और खटाई मिलाकर के ऐसा बना देते हैं-लुगदी जैसी, उसको आप चटनी कह लीजिए। ऐसी भी जगह मुझे जाना पड़ा है कि मैं क्या कहूँ आपसे ।
एक बार मैं आगरा गया और वहाँ भोजन करना पड़ा। दाल -रोटी जो घर में खाते हैं, जहाँ कहीं भी जाता हूँ वही खाता हूँ और कहता हूँ कि तुम्हारे घर में जो कुछ भी हो, वही खिलाना। नहीं तो मेरे लिए बनाना मत, अलग चीज बनाओगे, तो मैं खाऊँगा नहीं। अगर तुम पूड़ी रोज खाते हो, तो पूड़ी बना दो मेरे लिए। मुझे एतराज नहीं, लेकिन तुम हमेशा कच्ची रोटी खाते हो तो मेरे लिए कच्ची रोटी ही बनाना, मक्का की रोटी खाते हो अपने घर में तो, वही खिलाना, क्योंकि मैं तुम्हारा मेहमान नहीं हूँ तुम्हारा कुटुंबी हूँ। आगरा में उन लोगों ने दाल बना दी और रोटियाँ धर दीं। दाल में जैसे ही मैंने कौर डुबोया इतनी ज्यादा मिरच कि मेरे तो बस आँखों में से पानी आ गया। मैं क्या कह सकता था। अगर मैं यह कहता कि साहब दाल बड़ी खराब है उठा ले जाइए। यह आपने क्या दे दिया और मेरे लिए तो दही लाइए और वह लाइए। मेरी आँख में से पानी तो आ गया और मैंने एक घूँट पानी पिया, पीने के बाद रोटी के टुकड़े खाता तो गया। रोटी के टुकड़े दाल तक ले तो गया, पर दाल में डुबोया नहीं। हाथ मैंने चालाकी से चलाया, जिससे मालूम पड़े कि मैं दाल खा रहा हूँ। दाल खाई नहीं और वैसे ही रूखी रोटी खाता और पानी पीता रहा। पानी पीने के बाद उतर कर आ गया। उसे पता भी नहीं चला, मुझे भी पता नहीं चला। न उसको शिकायत हुई कि आपने ये कैसे खाया ।
हमारे यहाँ एक स्वामी परमानंद जी और नत्थासिंह भी थे पहले। दोनों साथी थे। हम नत्थासिंह और परमानंद जी को अक्सर बाहर भेज देते थे। दोनों का जोड़ा था। जब भोजन होता था, तब स्वामी परमानंद उससे कहते थे-नत्थासिंह, हाँ! देख, मैं मर जाऊँ कभी और तुझे ये खबर मिले कि स्वामी परमानंद मर गया, तो ये मत पूछना कि कौन-सी बीमारी से मर गया। पहले से लोगों से यह कह देना कि परमानंद ज्यादा खा करके मर गया। सारा घी स्वामी जी खा जाएँ तो भी पता न चले। जहाँ कहीं भी जाते, खाने की उनकी ऐसी ललक कि एक बार खिला दीजिए खाने से पिंड छोड़ने वाले नहीं। टट्टियाँ हो जाएँ तो क्या? उल्टियाँ हो जाएँ तो क्या? पर खाने से बाज न आने वाले थे वे ।
जबान के दो विषय
मित्रो हमारी जबान के दो विषय हैं, जबान हमारी बड़ी फूहड़ है। एक विषय इसका यह है कि यह स्वाद माँगती है और जायके माँगती है। आप स्वादों को नियंत्रण करना-जायके को नियंत्रित करना। संत जायके पर नियंत्रण किया करते हैं और स्वाद पर नियंत्रण किया करते हैं। जिस आदमी का जायके पर नियंत्रण नहीं है और स्वाद पर नियंत्रण नहीं है, वह आदमी संत नहीं कहला सकता। आपने-हमने ऐसे संत देखे हैं, जो भिक्षा माँग करके लाए और एक ही कटोरे में-एक ही जगह में दाल को मिला दिया और उसको मिला दिया और इसको मिला दिया और साग को मिला दिया और खीर को मिला दिया और सबको मिला दिया। एक ही जगह मिलाकर खाया। वे ऐसा किसलिए खाते हैं? इसलिए कि वे जबान के जायके पर काबू करके खाते हैं। जबान के जायके का अभ्यास आपको यहाँ नहीं हो सका, तो आप जहाँ कहीं भी कार्यकर्ताओं के बीच में जाएँ? आपको एक छाप छोड़ने की बात मन में लेकर के जानी चाहिए कि हम जबान के जायके को कंट्रोल में करके आए हैं। अब देखना आपके ऊपर छाप पड़ती है कि नहीं पड़ती है ।
खान पान का भी हमारे हिंदुस्तान में ध्यान रखा जाता है। एक महात्मा ऐसे थे, जो हथेली के ऊपर रखकर के रोटी खाया करते थे। उनका नाम महागुरु श्रीराम था। अभी भी वे हथेली पर रोटी रखकर खाने वाले महात्मा के नाम से मशहूर हैं। मैं नाम तो नहीं लेना चाहूँगा, पर आप अंदाज लगा सकते हैं कि मैं किसकी ओर इशारा कर रहा हूँ। इस समय तो वे नहीं करते, इस समय तो वे मोटरों में सफर करते हैं और अच्छे चाँदी और सोने के बरतनों में भोजन करते हैं। पर कोई एक जमाना था, जब हथेली पर रख करके भोजन करते थे। एक ही विशेषता ऐसी हो गई कि सारे हिंदुस्तान में विख्यात हो गए। इस बात के लिए प्रख्यात हो गए कि वे हथेली पर रखकर के रोटी खाया करते हैं। भला आप संत नहीं हैं तो क्या, महात्मा नहीं हैं तो क्या? आपकी खुराक संबंधी आदत ऐसी बढ़िया होनी चाहिए कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ वहाँ हर आदमी आपको बरदाश्त कर सकता हो, ''अफोर्ड'' कर सकता हो। गरीब आदमी भी ये हिम्मत कर सकता हो कि हमारे यहाँ पंडित जी का भोजन हो। गरीब आदमी को भी ये कहने की शिकायत न हो कि हमारे यहाँ ये नहीं होता, हमारे घर में दूध नहीं होता, हमारे घर में दही नहीं होता, हम तो गरीब आदमी हैं, फिर हम किस तरीके से उनको बुलाएँगे, किस तरीके से भोजन कराएँगे। आपकी हैसियत संत की होनी चाहिए और संत का व्यवहार जो होता है, हमेशा गरीबों में ज्यादा होता है। गरीबों जैसा होता है, अमीरों जैसा संत नहीं होता, संत अमीर नहीं हो सकता। संत कभी भी अमीर होकर नहीं चला है। जो आदमी हाथी पर सवार होकर जाता है, वह कैसे संत हो सकता है? संत को तो पैदल चलना पड़ता है। संत को तो मामूली कपड़े पहनकर चलना पड़ता है। संत चाँदी की गाड़ी पर कैसे सवारी कर सकता है? आपको यहाँ से जाने के बाद अपना पुराना बड़प्पन छोड़ देना चाहिए और पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए ।
संतों जैसा जीवन व व्यवहार हो
बस, आपको यहाँ से जाने के बाद अपना पुराना बड़प्पन छोड़ देना चाहिए और पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए और जगह जगह ये नहीं कहना चाहिए कि हम तो रिटायर्ड पोस्टमास्टर थे या रिटायर्ड पुलिस इंस्पेक्टर थे या हमारे गाँव में जमींदारी होती थी। आप यह मानकर जाना कि हम नाचीज हो करके जा रहे हैं। संत नाचीज होता है। संत तिनका होता है और अपने अहंकार को त्याग देने वाला होता है। यदि आपने अपने अहंकार को त्यागा नहीं, तो फिर आप संत कहलाने के अधिकारी नहीं हुए। हमारी पुरानी परंपरा थी कि जो कोई भी संत वेष में आता था, उसको भिक्षायापन करना पड़ता था! क्यों? भिक्षायापन कौन करता है? भीख माँगने वाला गरीब होता है ना! कमजोर होता है ना! संत वेष धारण करने के पश्चात हर आदमी को भिक्षा माँगने के लिए जाना पड़ता था, ताकि उसका अहंकार चूर-चूर हो जाए। हम अपने ब्रह्मचारियों को जनेऊ पहनाते थे। जनेऊ पहनाने के समय ऋषि अपने बच्चों को भिक्षा माँगने भेजते थे कि जाओ बच्चों भिक्षा माँगो, ताकि किसी बच्चे को यह कहने का मौका न मिले कि हम तो जमींदार साहब के बेटे हैं, ताल्लुकेदार के बेटे हैं और धनवान के बेटे हैं, गरीब के बेटे नहीं हैं, हर आदमी का आत्मसम्मान अलग होता है और अपने धन का, अपनी विद्या का, अपनी बुद्धि का, अपने पुरानेपन का और अपनी जमींदारी का और अपने अमुक होने का गर्व होता है, वह अलग होता है। आप यहाँ से जाना, तो अहंकार छोड़ करके जाना ।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥