उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
भगवान बुद्ध से उनके शिष्यों ने यह पूछा—मनुष्य इतना सशक्त और समर्थ होते हुए भी आखिर गिर क्यों पड़ता है? अधःपतित क्यों हो जाता है? भगवान बुद्ध ने एक तो घटना दिखाई और एक उदाहरण दिया। उन्होंने घटना ये दिखाई कि अपने कमण्डलु को पानी में फेंक दिया। कमण्डलु तैरने लगा। शिष्यों से पूछा—यह कमण्डलु डूबेगा कि नहीं? उन्होंने कहा—यह क्यों डूबेगा? यह डूबता थोड़े ही है। कमण्डलु डूबने वाला नहीं है। यह तो तैरता रहेगा। भगवान बुद्ध ने दुबारा उसको उठाकर उसमें एक सुराख कर दिया पैंदे में, फिर उसको पानी में फेंक दिया। धीरे-धीरे पानी उस कमण्डलु में भीतर भरने लगा और वह डूब गया। शिष्यों से पूछा—भाई! अभी तुम कह रहे थे कि कमण्डलु डूबता नहीं है; यह तो डूब गया। तो शिष्य कहने लगे महाराज जी! आपने सुराख कर दिया इसके भीतर। सुराख कर देंगे, तो डूबेगा नहीं? ठीक बात है—भगवान बुद्ध ने जवाब देते हुए शिष्यों से कहा—इनसान के भीतर सुराख हो जाए, उसमें पानी भरने लगेगा और वो डूब जाएगा और सुराख न हो, तब? तब न पानी भरेगा और न वह डूबेगा। एक ये उदाहरण भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को दिया। एक और भी दिया उन्होंने। उन्होंने कहा—अगर तुम्हारे पास गाय हो और गाय बहुत दूध देने वाली हो; बहुत दूध देने वाली गाय का दूध आप दूहें; लेकिन जिस बर्तन में आप दुहें, उसमें सुराख हों और छेद हों तब? तब फिर क्या होगा बताओ? शिष्यों ने कहा—महाराज जी! फिर वो दूध चलनी में रुकेगा थोड़े ही। चलनी में जो सुराख हैं, उससे तो नीचे जमीन पर टपक जाएगा, कपड़े भी मैले हो जाएँगे और ग्वाले के हाथ कुछ भी नहीं लगेगा, सिवाय थकान के। उँगलियों को बेचारा दबोचता रहा; थनों को दबाता रहा; गाय भी परेशान! ये भी परेशान! लेकिन दूध पीने का वक्त जब आया, तब ये मालूम पड़ा-इसमें कुछ भी नहीं है। नीचे से बर्तन का दूध टपक गया।
यह उदाहरण ये बताता है कि आदमी के जीवन में अगर बहुत सारे सुराख हों, तो उसकी सम्पदाएँ और उसकी विभूतियाँ और उसकी विशेषताएँ—सब खत्म हो जाएँगी। फिर कुछ बचेगा ही नहीं। इसलिए उन्नति की बात करना तो ठीक है, आदमी का वैभव उपार्जित करना तो ठीक है; लेकिन उनके साथ-साथ में ये भुला मत दीजिये। क्या न भुलाएँ? ये मत भुलाइए कि आपको अपने सूराखों को बन्द करना है, अपने छिद्रों की रोकथाम करनी है, अपनी मलीनताओं और अपनी असंयमितताओं के ऊपर हावी होना है तो क्या करें? मैंने बताया न आपको। चार बात करनी पड़ेगी आपको। तप, जिसका कल जिक्र किया गया था, चार प्रकार के होते हैं। एक तप इन्द्रिय तप कहलाता था, दूसरा जो है, ब्रह्मचर्य को भी तप कहते हैं। तीसरा-समय के संयम को तप कहा जाता है। चौथा धन के संयम को तप कहा जाता है और विचारों के संयम को तप कहा जाता है। विचारों का संयम-एक। पैसों का संयम-दो। समय का संयम-तीन और इन्द्रियों का संयम-चार। तपश्चर्या की चार धाराएँ हैं। आपको इन चार धाराओं में से सबसे पहली धारा का यहाँ बुला करके अभ्यास कराया गया और जिह्वा इन्द्रिय का अभ्यास कराया गया। आपकी जिह्वा को तपस्वी बनाया जा रहा है। स्वाद के लिए भटकने वाली जिह्वा इसने आपके स्वास्थ्य को खराब कर दिया, आपके मन को खराब कर दिया। आप काबू में रख सकें और लगाम को लगा सकें.........अगर आप घोड़े को लगाम नहीं लगाएँ तब? ऊँट को नकेल नहीं लगाएँ तब? आप बैल के नाक में रस्सी नहीं डालें तब? हाथी के ऊपर अंकुश नहीं लगाएँ तब? तब फिर आप समझ लेना, ये जानवर आपके लिए बड़े खौफनाक साबित होंगे और आपको तहस-नहस करेंगे। इसलिए इनको नियंत्रण में करने के लिए ये सब जरूरी हैं। इन्द्रियाँ हमारी हैं तो बहुत अच्छी इनसे ही सब काम चलता है; लेकिन इनको उच्छृंखल बनने दें, रोकथाम न करें, तपस्वी न बनाएँ, संयमी न बनाएँ, तो इन्द्रियाँ आपके लिए मुसीबत खड़ी कर देंगी, जैसे आप खान-पान के बारे में असंयम बरतते रहे हैं, उसका परिणाम ये हुआ है कि पेट खराब हो गया। पेट खराब होने का परिणाम ये हुआ कि, स्वास्थ्य खराब हो गया है। स्वास्थ्य खराब होने का दोष किसी को मत दीजिये। इस सृष्टि में जितने जानवर हैं; इनमें से कोई बीमार नहीं पड़ता। मरते तो सब हैं; पर बीमार कहाँ पड़ते हैं? कबूतर बीमार पड़ते हैं? लोमड़ी, खरगोश जो जंगल में उछलते हैं, कभी बीमार पड़ते देखे हैं आपने? कोई नहीं पड़ता। एक ही बेवकूफ जानवर है, जिसका नाम है—मनुष्य। यही बीमार पड़ता है। क्यों पड़ता है? सिर्फ एक वजह है उसकी, बीमार पड़ने की, कि अपनी जीभ को इतना छुट्टल बना देता है कि अभक्ष्य खाती रहती है; जरूरत से ज्यादा खाती रहती है; जो चीजें नहीं खानी चाहिए, वह खाती रहती है। पेट काम नहीं करता, पेट हजम नहीं करता, मशीन खराब हो जाती है और शरीर कमजोर और बीमार पड़ जाता है। अगर आप जीभ पर काबू कर लें तब! तो आप विश्वास रखिये, आपका खोया हुआ स्वास्थ्य मिल जाएगा। अगर आप जीभ पर काबू कर लें, तो आप दिन-दिन कमजोर होते गए हैं या होते जाएँगे, उससे आप निजात पा सकते हैं।
इसी प्रकार से ये जो अपना मन है, मन भी इसी का है। अन्न से विकसित होते हुए, अन्न से माँस बनता है, रक्त बनता है, हड्डियाँ बनती हैं; पर अन्ततः अन्न से मन बनता है। अन्तिम चरण जो अन्न का है, वह मन है। ‘जैसा खाएँ अन्न, वैसा बने मन’—ये सौ फीसदी सही है। आप अभक्ष्य खाते रहिये, तमोगुणी चीजें खाते रहिये, माँस खाते रहिए, दूसरी घिनौनी चीजें खाते रहिए, फिर आप देखिए आपका मन कैसा चंचल हो जाता है? आप नशेबाज होइए, फिर आप देखिए आपका मन कैसा चंचल हो जाता है? आपको मन स्थिर करना कैसा कठिन पड़ जाएगा! मन अपने आपे में नहीं है। ईंधन नीचे डालते हैं तब भगोने के पानी में उबाल आता है। मन तो ऊपर भगोने में पानी जैसा है। नीचे आप जैसी लकड़ी डालेंगे, वैसा ही तो उबाल आएगा। अगर आपने बराबर अभक्ष्य खाने का क्रम जारी रखा है, तो आपका मन बराबर चंचल बना रहेगा। आपको कभी ऐसा मौका नहीं देगा कि आप मन में स्थिरता को रख पाएँ। इसलिए जीभ पर काबू पाइए, स्वादेन्द्रिय पर काबू पाइए। स्वाद पर आपने काबू पा लिया, तो मन को सँभालने और शरीर की बीमारियों से मुकाबला करने में आप सफल हो जाएँगे। जीभ की बात चल पड़ी, तो जीभ का एक और हिस्सा है। जीभ को दो इन्द्रियों में बाँटा गया है—एक इसको स्वादेन्द्रिय भी कहते हैं और इसको वाक्इन्द्रय भी कहते हैं। वाणी पर संयम, वाणी पर अगर आपका संयम नहीं है, चाहे जिससे, चाहे जैसे शब्द बोलते हैं, कड़ुए बोलते हैं—इसका परिणाम क्या हुआ? इसका परिणाम कभी अच्छा नहीं हो सकता। ‘‘वशीकरण इक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।’’ कौआ अपने कड़ुवे वचन से सबको नाखुश करता रहता है और कोयल अपने मीठे वचनों से सबकी प्यारी बनती रहती है। जीभ से हमको दूसरों को सम्मान देना चाहिए; दूसरों की इज्जत और अपनी नम्रता का ध्यान रखना चाहिए। क्रोध और आवेश में कई आदमी ऐसे शब्द बोलते रहते हैं, जो मुनासिब नहीं होते। उसका परिणाम ये होता है, कितने आदमी वैरी-विरोधी हो जाते हैं। आपको मालूम है न! द्रौपदी ने व्यंग्य और उपहास में ऐसे शब्द कह दिये थे, कि जिसकी वजह से कौरवों को बहुत बुरा लगा। उसका अंतिम परिणाम महाभारत के रूप में आया। जीभ कटारी के तरीके से है। जीभ में बिच्छू का डंक बताया गया है। जीभ में साँप का जहर बताया गया है। जब आप कड़ुवा बोलते हैं तब! नहीं बोलते हैं तब! मीठा बोलते हैं तब! ये जीभ न जाने आपके लिए कितने काम की हो सकती है। इससे मोहब्बत कीजिए, दूसरों की इज्जत कीजिए, अच्छे परामर्श दीजिए, लोगों का उत्साह बढ़ाइये। लोगों की हिम्मत को तोड़िए मत। लोगों की हिम्मत बढ़ाने वाली बात कहिए। अगर आप ऐसा कर लेते हैं, फिर मैं आपको तपस्वी कहूँगा।
ये वाणी का तप हुआ, जिह्वा का तप हुआ। अब चलिये, इसमें एक और आती है। इन्द्रियों में एक और बात आती है। इन्द्रियों के तप में ब्रह्मचर्य का तप भी आता है। वैसे तो इन्द्रियाँ दस हैं; पर आप झंझट में मत पड़िए, दो को ही मान लीजिए। एक जीभ मुख्य है और दूसरी वाली कामेन्द्रिय मुख्य है। कामेन्द्रिय का मतलब केवल यौनकर्म ही नहीं होता, यौनकर्म के अलावा है। ये इन्द्रियाँ सब मस्तिष्क से सम्बन्ध रखती हैं। कामवासना के बारे में आपको विचार आते रहते हैं। उनको देख करके आपके दिमाग खराब होते रहते हैं। अमुक अंग को और अमुक अंग की खूबसूरती और बदसूरती को ढूँढ़ते रहते हैं। इसका परिणाम क्या होता है कि ये मानसिक दुराचार हैं। किसी भी औरत के बारे में आपके मन में कोई संस्कार या विचार आते हैं, तो इसका मतलब है कि प्रकारान्तर से पवित्रता का नुकसान हो गया है। आँख से भी ब्रह्मचर्य का क्षय होता है। आँख से आप कुदृष्टि से देखते रहिए; स्त्रियों को देखते रहिए; बहिन, बेटी और माँ की इज्जत मत कीजिए, धर्मपत्नी को भी रमणी और कामिनी की दृष्टि से देखिए, तो देखिए प्रत्येक औरत आपके लिए डाकिन और नागिन का काम करती है या नहीं और इन्हीं को आप बेटी मान पाएँ तब? बहिन मान पाएँ तब? माता मान पाएँ तब? सहधर्मिणी मान पाएँ तब? तब! यही महिलाएँ आपके लिए देवी की तरह से सहायक होंगी। आप चाहें स्त्रियों को देवी बना लीजिए, चाहे डाकिन बना लीजिए—आपकी मर्जी की बात है। स्त्रियाँ भी आपके तरीके से साधारण मनुष्य हैं। आप अपना दृष्टिकोण अगर पवित्र नहीं रखेंगे तो कुदृष्टि का परिणाम यह हुआ कि स्त्रियाँ आपके लिए कितनी हानिकारक हो गई हैं और आपके ब्रह्मचर्य को खण्डित करती हैं और आपको पतनोन्मुख बनाती हैं और आपकी मनःस्थिति को नष्ट-भ्रष्ट करती हैं। अगर आप ये अपने मन के ऊपर देख पाएँ, फिर आप कैसे अच्छे अच्छे हो सकते हैं। आपने गान्धारी का नाम सुना है न! आँख पर पट्टी बाँध ली थी और इन्द्रियों का संयम करना शुरू कर दिया था और अपने बेटे को लोहे का बना दिया था। आपने दमयन्ती का नाम सुना है? राजा नल की पत्नी का नाम दमयन्ती था। जंगल में अकेली रह रही थी और बहेलिया उससे छेड़खानी करने लगा। बस, छेड़खानी के समय दमयन्ती ने आँख उठाकर देखा, तो बहेलिया जलने लगा और खत्म हो गया। आपको गाँधी जी के बाबत मालूम है? बत्तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने ब्रह्मचर्य लिया था और अपनी धर्मपत्नी को माता कहने लगे थे। ये ब्रह्मचर्य का प्रताप था कि दुबले-पतले और कमजोर होते हुए भी मनःशक्ति के हिसाब से ऐसे थे, जैसे कि कोई बड़ा पहलवान भी नहीं हो सकता था। आपको भीष्म पितामह की बाबत मालूम है? भीष्म पितामह शय्या पर पड़े रहे, छह महीने बाद तक पड़े रहे और कहा मुझे फुरसत नहीं है। कितने तीरों से घायल थे! ये कैसे हो पाया? वे ब्रह्मचारी थे। ये इन्द्रिय-निग्रह की बात है। स्वामी दयानन्द के विषय में सुना है आपने? एक बार दो साँड़ लड़ रहे थे। स्वामी जी ने उन खूनी साँड़ों को दोनों के सींग पकड़कर इस तरीके से दबोचा और फेंका कि एक इधर गिरा और एक उधर गिरा। ये सामर्थ्य किसकी होती है? ब्रह्मचर्य की। हनुमान को आप नहीं जानते? हनुमान जी का ब्रह्मचर्य था, जिससे कि वे सामान्य बन्दर से हनुमान बन सके। शंकराचार्य के बारे में यही कहा जाता है, शंकराचार्य ब्रह्मचारी न होते तब? शादी-विवाह करके बहुत सारे बच्चे पैदा करते तब? काम-वासनाओं में अपने आपको उलझाए रहते तब? भगवान शंकर का अवतार बनने का मौका नहीं मिलता तब? लक्ष्मण जी ने मेघनाद को मारा था। मेघनाद को यह वरदान मिला था कि उसे वही आदमी मार सकता है, जिसने चौदह वर्ष का ब्रह्मचर्य पालन किया हो। लक्ष्मण जी ने चौदह वर्ष का ब्रह्मचर्य पालन किया था। अपनी पत्नी से भी दूर रहे और सीताजी को माता के समान मानते रहे। उनके बिछुए जमीन पर पड़े हुए मिले। रामचन्द्रजी ने पूछा कि इन जेवरों में से सीताजी का कौन-सा है? उन्होंने बिछुए को तो पहचान लिया, ये सीताजी का बिछुआ है; लेकिन गले के हार को नहीं पहचान सके, कानों के कुण्डलों को नहीं पहचान सके। उन्होंने कहा कि हमने कान तो कभी देखे नहीं हैं उनके, यद्यपि घूँघट नहीं मारती थीं। ये लक्ष्मण जी के ब्रह्मचारी होने का सबूत है, जिसकी वजह से वे इतना बड़ा काम करने में समर्थ हो सके। ये संयम है, कौन-सा वाला? ये इन्द्रिय संयम की बात मैं कह रहा था।
अभी मुझे आपसे और कहना है। समय का संयम—समय आपकी सम्पत्ति है। जीवन जो बँधा है, ये समय से गुँथा हुआ है। समय का अर्थ होता है—जीवन। जीवन का अर्थ होता है—समय। आप समय के एक-एक लमहे को, एक-एक मिनट को इस तरह से खर्च कीजिए, जिसमें, आपका एक भी लमहा व्यर्थ और बेकार खर्च न होने पाए। ये कैसे सम्भव है? ये इसी तरह सम्भव है। कैसे? जैसे कि संसार के प्रत्येक महापुरुष ने अपने-अपने समय का ठीक से नियमन किया है। विनोबा 23 भाषाओं के विद्वान थे, कैसे? कैसे उन्होंने भूदान की यात्राएँ कर लीं—कन्याकुमारी से लेकर रामेश्वरम् तक! ये कैसे हुआ? वे बराबर समय का विभाजन करते रहे, अन्य भाषाओं को सीखते-पढ़ते रहे। अब्राहम लिंकन जब सड़क से निकलते थे, तब लोग अपनी घड़ियों को सही करते थे। उनके उठने और टहलने का जो समय था, उसे उनकी लम्बी टाँगों की आवाज से लोग समझ लेते थे कि लिंकन जा रहे हैं। बिल्कुल समय पर जाते थे; क्या मजाल समय का एक लमहा भी खराब करते! ये क्या है? श्रम की शक्ति को, समय की शक्ति को आप समझते हैं, मूल्य समझते हों, तो न जाने आप क्या-से कर सकते हैं? मनोयोग वगैरह आप लगाएँ तब? मनोयोग लगाएँ, तो आपने देखा है न! मन लगा के परिश्रम करें तब? मन लगा के परिश्रम करने और बिना मन के परिश्रम करने में जमीन-आसमान का फर्क है। बिना मन के परिश्रम करने वाले का हर काम खराब, हर काम बेकार, हर काम घटिया और मन लगा के काम करने वाले का काम कैसा होता है, आप देख सकते हैं।
बया पक्षी होता है; एक-एक तिनके को ढूँढ़कर लाता है, उसकी लम्बाई-चौड़ाई नाप के लाता है, हिसाब से लाता है; मोटाई को देख के लाता है और जहाँ लगाता है घोंसले में, बड़ी सावधानी से और मनोयोग से लगाता है। दूसरी ओर घोंसला बनाने वाला है—कबूतर। उलटी-पुलटी, टेढ़ी-तिरछी लकड़ी ले आता है, जहाँ-के रख लेता है और अपना घोंसला बना लेता है। हवा चलते ही आमतौर से घोंसले उसके, किसके? कबूतर के, जमीन पर गिरते हैं और बच्चे सब तबाह हो जाते हैं। इसलिए अक्सर देखा गया है, कबूतर किसी पुराने मकान में या खंडहर में कुएँ में घोंसला बनाते हैं, ताकि हवा का झोंका उनके घोंसले को बरबाद न कर सके; लेकिन बया को ये परेशानी नहीं है। बया के बच्चे अपने घोंसले में बैठे रहते हैं और बड़ा मजा उड़ाते रहते हैं। क्या मजाल कि एक बूँद पानी भी चला जाए! क्यों? उसने मन लगा करके घोंसला बनाया है। यही बात आप हर किसी के बारे में देख सकते हैं। मन लगाकर काम करना—ये आदमी के सम्मान का प्रश्न होना चाहिए। ये प्रतिष्ठा का प्रश्न है। आदमी के बारे में उसे कोई कामचोर कहे, हरामखोर कहे, तो समझिए ये बहुत बड़ी बेइज्जती है। वह विश्राम भले ही करे इसमें, हर्ज नहीं है; लेकिन विश्राम टाइम पर होना चाहिए। आलसियों के तरीके से काम को इधर छोड़ दिया, उधर छोड़ दिया, आधा छोड़ दिया, अधूरा छोड़ दिया—आप ऐसा मत कीजिए। समय का संयम पालिए।
तीसरा हमारा संयम है—धन का संयम। पैसा भगवान् ने आपको दिया है। इसलिए आपको नहीं दिया है कि आप बेसिलसिले से खर्च करें। आप कमाएँ तो चाहे जितना, कमाने के ऊपर रोक नहीं है; लेकिन ईमानदारी से कमाएँ और शराफत के तरीके से खर्च करें। बेसिलसिले का खर्च मत कीजिए। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ का सिद्धान्त आपने सुना है न! जो सादा जीवन जिएगा, उच्च विचार उसी के हिस्से में आयेंगे। उसका विलासी जीवन, खर्चीला जीवन, ठाठ-बाट का जीवन, दिखावे का जीवन जितना ज्यादा होगा, उसका खर्च, पैसे का खर्च और समय का खर्चे इतने ज्यादा हो जाएँगे कि उससे ही बेचारे के पास न कुछ समय बच सकता है, न पैसा बच सकता है। खर्चीली जिन्दगी, विलासी जिन्दगी, ऐश की जिन्दगी, अकर्मण्यता से भरी हुई जिन्दगी, ठाठ-बाट से भरी हुई जिन्दगी ना ये नहीं। आप अपने पैसे को इसमें मत खर्च कीजिए। समय को भी खर्च मत कीजिए। आप किफायतसारी का जीवन जिएँ। संत जीवन वह है, जिसमें औसत भारतीय स्तर को अंगीकार किया है। औसत भारतीयों का जो स्तर है, आप अपने खर्चे का स्तर उसी हिसाब से रखिये। आप भी इसी मुल्क के निवासी हैं न! जो बाकी तीन-चौथाई आदमी जिस ढंग से गुजारा करते हैं, आप क्यों नहीं कर सकते? ईश्वरचन्द्र विद्यासागर यही करते थे। उनकी पाँच सौ रुपये की आमदनी थी। पचास रुपये में अपना गुजारा चलाते थे और साढ़े चार सौ रुपये बच्चों के लिए, विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति और दूसरे कामों के लिए खर्च कर देते थे। आप क्यों नहीं कर सकेंगे? किफायत से रहिए, कम खर्च में रहिए। ये मत कहिए, जो आदमी खर्चीला जिन्दगी जीते हैं, वह शक्तिशाली हो जाते हैं, बुद्धिमान हो जाते हैं, मजबूत हो जाते हैं। आप बेकार की बात मत कहिए। सही बात ये है, जो आदमी जितना खर्चीला होता है, उतना ही दुर्व्यसनों में उसका धन खर्च होता है। दुर्व्यसनों की कीमत पर क्या-क्या खरीदा जाता है? ईर्ष्या खरीदी जाती है, बीमारियाँ खरीदी जाती हैं, बेअकली खरीदी जाती है, आक्रोश खरीदा जाता है। सब चीजें तो खरीदी जाती हैं। आपके पास पैसा फालतू है? खर्च करेंगे, तो नशे जैसी चीजों पर खर्च करेंगे? नशे जैसी चीजों पर खर्च करेंगे, तब सेहत गँवा देंगे, तब अपनी अकल गँवा देंगे, तब अपनी औलाद गँवा देंगे, तब अपनी इज्जत गँवा देंगे, तब आप सब कुछ गँवा देंगे। ये कैसे हो सकता है? ये फिजूलखर्ची की बात है। पैसा फिजूलखर्ची में खर्च होगा, तो यह सब आफत क्यों न आएँगी, बताइये, इसलिए पैसे के बारे में आप हमेशा किफायत से काम लीजिये। आदमी होशियार है, समझदार है कि बेअकल है—इसकी पहचान सिर्फ एक है कि वो खर्च कैसे कर सकता है? कमाने में तो आप कुछ भी कमा लेते हैं? सट्टा मिल जाए तब लाटरी खुल जाए तब जमीन में गड़ा हुआ धन मिल जाए तब, कोई बाप बहुत ज्यादा धन देकर मर जाए तब, तो बेवकूफ आदमी भी धनवान बन सकता है; लेकिन समझदारी की परख एक है उसने खर्च कैसे किया? खर्च करना, बहुत समझदारी का काम है। आप फिजूलखर्ची करेंगे, तो अपने घर और औलाद के लिए ऐसी परम्परा छोड़ जाएँगे, जिससे कि वह तबाह हो जाए। इसलिए आप खर्चीली जिन्दगी मत जिएँ। ईमानदार आदमी मितव्ययी हो सकता है। जो फिजूलखर्च हो, उसको बेईमानी करनी पड़ेगी, फालतू पैसा लाएगा कहाँ से? रिश्वत लेनी पड़ेगी, चोरी करनी पड़ेगी, अमुक काम करना पड़ेगा; लेकिन जो आदमी किफायतशार है, वह आसानी से ईमानदारी की जिन्दगी जी पाएगा। ये तीसरा वाला तप था।
चौथा वाला एक और भी तप है, उसको अगर आप करने लगें, तो आपका यहाँ कल्प-साधना सत्र में आ करके उपासना करना सार्थक हो जाएगा। यह तप विचार-संयम है। विचारों को भटकने मत दें। विचारों की शक्ति आप समझते नहीं हैं। पैसे की शक्ति समझते हैं, विचारों को क्यों नहीं समझते? विचार असल में सबसे बड़ी शक्ति है। विचारों का अपव्यय मत होने दीजिए। विचारों को आवारा कुत्ते के तरीके मत घूमने दीजिए। विचारों को एक दिशा में लगाइये। विचारों को ऐसे लगाइए, जैसे बन्दूक की नली में कारतूस लगा करके एक दिशा में छोड़ते हैं, तो किसी निशाने पर लगता है। बारूद को फैला दें तब? तब कैसा अस्त-व्यस्त हो जाएगा। अर्जुन के बारे में आपने सुना नहीं? अर्जुन एक तरीके से मछली का कोई हिस्सा देखता था, इसलिए उसका निशाना लगाना सम्भव हो सका। जो दूसरे राजकुमार थे, जो मछली का सम्पूर्ण सिर-पैर देखते थे, उनका कोई निशाना नहीं लगा। आपको अपने विचारों को अर्जुन के तरीके से एकाग्र रखना चाहिए। एकाग्रता का मतलब केवल ये नहीं है कि आप इनको रोक लें। एकाग्रता का मतलब ये है कि एक दिशा में, अच्छी दिशा में, वैज्ञानिकों के तरीके से इन्हें नियोजित कर देना। वैज्ञानिक विचार करते रहते हैं; पर एक दिशा में विचार करते हैं, फालतू विचार ही नहीं है। साहित्यिक हैं, ज्ञानी हैं, तपस्वी हैं और विचारशील लोग हैं—सब एक दिशा में अपने विचारों को लगाये रखते हैं और एक दिशा में विचार रखने का परिणाम ये होता है कि इसके कई अच्छे नतीजे निकलते हैं। सूरज की किरणें चारों ओर फैलती रहती हैं। आतिशी शीशे के ऊपर इकट्ठा करके उनको एक जगह पर केन्द्रित कर दें, तब आप देखते हैं न! आग जल जाती है। इसी तरीके से आदमी के फैले हुए विचार, आवारागर्दी के विचार, अनावश्यक विचार, बेसिलसिले के विचार। आदमी की मनःशक्ति कितनी मूल्यवान है, सबको बर्बाद कर देती है। आप ऐसा मत होने दीजिए। विचारों को जहाँ-तहाँ मत घूमने दीजिए। आप अभ्यास डालिये। आप सिद्धान्तों पर विचार करें। सृजनात्मक विचार करें। आप ऐसे विचार करें, जिससे कि आपका भविष्य बनता हो अथवा कोई योजना बनती हो। आप ऐसे क्रमबद्ध विचारों का अभ्यास डालिए। बिना क्रम के विचारों को, जो भी आएँ, उनको हटा दीजिए। विचारों से विचारों की लड़ाई कराइए। कुविचार जब आपके मन में आते हों, तो सदाचार के विचारों की सेना बना के रखिये और उन्हें गुत्थम-गुत्था करा दीजिए। दुराचार के विचार जब आएँ, तो आप सदाचार और संयम के विचारों को आगे बढ़ा दीजिए, गुत्थम-गुत्था करा दीजिए तो वे विचार भाग जाएँगे। विचारों से विचारों को काटिए, विचारों को विचारों से सँभालिए। विचारों को सम्पत्ति समझिये। विचारों का संयम कीजिए। विचारों को ऊपर उठने दीजिए। विचारों को उथल-पुथल में गिरने से रोक दीजिए। अगर आप ऐसा करेंगे, तो मैं समझूँगा कि आप विचारों के क्षेत्र में तपस्वी हैं।
आपको चारों तप करने चाहिए। इन्द्रिय-निग्रह का तप-एक, समय संयम का तप—दो, धन के संयम और धन के बजट बना के खर्च करने का तप—तीन। अपने विचारों को एक विषय में रोके रहने का उपक्रम करना चाहिए—यह चौथा तप है। इसका नाम विचार-संयम है, विचार तप है। आप तपस्वी जीवन जिएँ। जरूरी नहीं है कि आप धूप में खड़े हों, खाना खाना बन्द कर दें और अमुक काम करें। ये जरूरी है कि अपने जीवन के जो सुराख हैं, जो आपकी गलतियाँ और कमजोरियाँ हैं, उनको रोकें और जो अच्छाइयाँ आपके भीतर नहीं हैं, उनको बढ़ाने की कोशिश करें। अगर आप ऐसे काम में लगातार लगे रहेंगे, तब मैं आपको तपस्वी कहूँगा। यहाँ कल्प-साधना शिविर में बुलाने का उद्देश्य था—आपको तपस्वी बनाना। आप यहाँ से जाएँ, तो तपस्वी हो के जाएँ। यहाँ हैं, तो तपस्वी होने का अभ्यास करें। तपश्चर्या में कितनी शक्ति भरी पड़ी है? इसका वर्णन मैंने अभी आपसे किया। आप चाहें तो इसका अनुभव करके स्वयं भी देख सकते हैं कि तपस्वी कितने समर्थ होते हैं, कितने शानदार होते हैं? आपको वैसा ही बनना चाहिए। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥