१. हमारा निर्णय और परिजनों का असमंजस
२. सूक्ष्मीकरण साधना के तथ्य एवं औचित्य
३. प्रचण्ड सूक्ष्म शक्ति का जागरण
४. टालना ही होगा तीसरा विश्वयुद्ध
५. मूर्धन्यों को झकझोरने वाला भगीरथ पुरुषार्थ
६. दार्शनिकों-वैज्ञानिकों की दिशा बदलनी ही होगी
७. ऋषि-मनीषी के रूप में हमारी परोक्ष भूमिका
८. युग परिवर्तन—नियन्ता का सुनिश्चित आश्वासन
९. सत्पात्रों को हमारे वर्चस् का बल मिलेगा
१०. जाग्रत् आत्माओं से भाव भरा आग्रह
पूर्व निवेदन
युगऋषि का व्यक्तित्व और कर्तृत्व गहरी शोध के विषय रहे हैं। उनकी विशेषताएँ-क्षमताएँ जितनी अद्भुत रहीं, उतनी ही अद्भुत रही है उनकी सहजता। उनके सान्निध्य में आने वाले व्यक्ति उनकी सहजता के प्रभाव में यह लगभग भूल ही जाते थे कि वे किसी अद्भुत-अलौकिक क्षमता सम्पन्न व्यक्ति के पास बैठे हैं। वसंत पर्व सन् 1984 से 1986 तक जनसामान्य की दृष्टि में वे केवल मौन ‘एकान्त साधना’ में रहे; किन्तु वास्तव में वह साधना का एक युगान्तरकारी अनोखा प्रयोग था। इस साधना प्रयोग को उन्होंने सूक्ष्मीकरण साधना कहा। पौराणिक काल से अब तक के इतिहास में ऐसे प्रयोग गिने चुने ही हुए होंगे। संभवतः महर्षि वसिष्ठ ने युगों के क्रम में परिवर्तन-संशोधन के लिए अथवा महर्षि विश्वामित्र ने नये स्वर्ग की रचना के लिए इस स्तर के प्रयोग किये हों? संभवतः भगवान् महावीर एवं भगवान् बुद्ध ने वेद और ईश्वर के नाम पर फैली विकृतियों के शमन तथा विवेक सम्मत नयी परम्पराओं को स्थापित करने के लिए इस स्तर के साधना पुरुषार्थ किये हों?युगऋषि ने अपने अवतरण का उद्देश्य ‘नवयुग निर्माण की ईश्वरीय योजना’ को मूर्त रूप देना बताया है। नवयुग-प्रज्ञायुग का स्वरूप क्या होगा? यह तो दिव्य योजना के अनुसार निर्धारित है; किन्तु वर्तमान विसंगतियों-विनाशकारी विभीषिकाओं से मनुष्यता की रक्षा करके, सतयुग जैसी गरिमामय मनःस्थितियों तथा परिस्थितियों के निर्माण के लिए किस प्रकार क्रमशः सुदृढ़ कदमों से लक्ष्य तक पहुँचा जाय, यह रणनीति बनाने और सफलतापूर्वक लागू करने की जिम्मेदारी तो युगऋषि पर ही डाली गई। इसके लिए उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से युग निर्माण योजना के दर्शन, स्वरूप और कार्यक्रम को गति देने हेतु असाधारण पुरुषार्थ किया। प्रत्यक्ष कार्यक्रमों के लिए परोक्ष सूक्ष्म तंत्र को अनुकूल और समर्थ बनाने के लिए उन्होंने सूक्ष्मीकरण साधना की।ऐसी युगान्तरकारी दिव्य योजनाओं के कुछ अनिवार्य अनुशासन होते हैं। केवल मानवीय पुरुषार्थ के बूते वे संभव नहीं होतीं। जैसे खेती के लिए किसान का पुरुषार्थ जरूरी तो होता है; परन्तु अकेला वही काफी नहीं होता। मौसम की अनुकूलता भी तो उसके साथ जुड़नी ही चाहिए। युग की विनाशकारी विभीषिकाओं को निरस्त करना, युग निर्माण के पक्ष में सृजनशील प्रतिभाओं को जाग्रत्, प्रेरित करना तथा सूक्ष्म जगत् में सृजन पुरुषार्थ को फलित करने योग्य अनुकूल प्रवाह उत्पन्न करने जैसे कार्यों के लिए उन्होंने सूक्ष्मीकरण साधना का अति विशिष्ट प्रयोग किया।विशिष्ट व्यक्तियों के सामने एक बड़ी कठिनाई सत्य को शालीनता के साथ प्रस्तुत करने की होती है। वे क्या हैं, क्या करना चाहते हैं, इसे उनके अलावा कौन समझे? वे स्वयं अपने बारे में कहें, तो शालीनता टूटती है, यदि न बताएँ तो लोगों तक सत्य कैसे पहुँचे? इसलिए वे शालीनतापूर्वक हलके से; किन्तु स्पष्ट संकेत भर कर देते हैं। शेष बात समझदारों पर छोड़ देते हैं। विज्ञ पाठकगण यदि ध्यान देंगे, तो उन्हें अनुभव होगा कि प्रस्तुत लेखन चेतना के किस स्तर से उतर कर आया है?उन्होंने स्वयं अपनी कलम से अखण्ड ज्योति पत्रिका के जून 1984 से जून 1986 तक के अंकों में अपनी इस साधना से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला था। इस पुस्तक में उन्हीं को संकलित संपादित कर दिया गया है। युगऋषि द्वारा लिखी गई अपनी जीवनी ‘हमारी वसीयत और विरासत’ से भी कुछ अनिवार्य अंशों को लिया गया है, अन्यथा सूक्ष्मीकरण प्रयोग की बात अधूरी रह जाती।उनके लेखन को ज्यों का त्यों एक प्रकार के टाइप में छापा गया है। ध्यानाकर्षण अथवा व्याख्या के लिए लिखी गई टिप्पणियाँ भिन्न टाइप में रखी गई हैं। आशा है विज्ञ पाठकगण इसे गंभीरता से पढ़-समझकर उज्ज्वल भविष्य संरचना की दिव्य योजना को गति देने में अपना भी योगदान दे सकेंगे।—ब्रह्मवर्चस
१. हमारा निर्णय और परिजनों का असमंजस
[महापुरुष शरीर में रहते हुए भी आत्म भाव में प्रतिष्ठित रहते हैं। स्वयं को आत्मा रूप में कर्ता तथा शरीर को उपकरण भर मानते हैं। संत तुलसीदास जी ने भी मनुष्य शरीर को ‘साधन धाम मोक्ष कर द्वार’ कहा है। आत्मा अपना कर्म कौशल इसी के माध्यम से प्रकट कर पाती है। अस्तु, मोह ग्रस्तों के लिए यह शरीर जीवात्मा के पतन का कारण बन जाता है, तो योग युक्तों के लिए वही अत्यंत उपयोगी साधन उपकरण बन जाता है। युगऋषि यहाँ इसी योग दृष्टि के अनुसार आत्मा एवं शरीर के शाश्वत सम्बन्धों पर प्रकाश डाल रहे हैं।]
शरीर और आत्मा का चोली दामन जैसा साथ है। आत्मा को इसमें रहने का स्वेच्छा से आकर्षण होता है। इसलिए गर्भनिवास, मृत्यु कष्ट जैसी अनेकों यातनाएँ सहते और आये दिन संघर्ष करने का कष्ट सहते हुए भी वह उसी में बार-बार निवास करने के लिए मचलती है। कहने को जन्म-मरण की व्यथा पर क्षोभ प्रकट करते हुए भी विज्ञजन इसी को धारण करने के लिए लौट पड़ते हैं। कितने ही जीवन मुक्त इसके लिए बाधित किये जाते हैं। भगवान् के पार्षद सदा रिजर्व फोर्स के रूप में उनके समीप ही नहीं बैठे रहते, वरन् समय की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए समय-समय पर मार्गदर्शकों की भूमिका निभाने के लिए लौटते हैं। आत्मा अमर है, अदृश्य है, तो भी उसका परिचय इस शरीर से ही मिलता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण वह आत्मा को परम प्रिय है। उसे सजाने, सुविधाओं के अम्बार लगाने में वह चूकता भी नहीं। यहाँ तक कि कुकर्मरत होकर भावी दुष्परिणामों को जानते हुए भी उसे सन्तोष देने, प्रसन्न करने के लिए वैसा ही कुछ करता है, जैसा कि स्नेह दुलार भरे अभिभावक अपने इकलौते बेटे की मनमर्जी-हठधर्मी पूरी करने के लिए करते रहते हैं। संक्षेप में यही है शरीर और आत्मा का मध्यवर्ती सम्पर्क सूत्र और सघन सहयोग का सार संक्षेप।
[सैद्धान्तिक रूप में आत्मा और काया के सम्बन्धों का सार संक्षेप प्रस्तुत करने के बाद ऋषि स्वयं को आत्मा के रूप में अनुभव करते हुए अपने तथा अपने शरीर के तालमेल पर प्रकाश डालते हैं तथा इस अनन्य सहयोगी के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करते हैं।]
अपने को भी यह शरीर लेकर जन्मना पड़ा और जो कुछ भी भला-बुरा बन पड़ा है, सो इसी के माध्यम से सम्पन्न किया है। इसे निरोग और दीर्घजीवी रखने के लिए ईमानदारी और सतर्कता के साथ प्रयत्न किया है। सदा इसे स्रष्टा की अमानत माना और उसमें सन्निहित क्षमताओं को उभारते हुए श्रेष्ठतम सदुपयोग का ध्यान रखा है। आत्मोत्कर्ष और लोकमंगल के निमित्त जो प्रयास बन पड़े हैं, उनके पीछे प्रेरणा तो चेतना में से ही उभरी है, पर श्रम तो शरीर को ही करना पड़ा है। इसलिए इस अनन्य सेवक और परम सहयोगी शरीर के प्रति हमारा घनिष्ठ मैत्री भाव है। इसके प्रति असीम स्नेह और सम्मान भी। इसे सार्थक और श्रेयाधिकारी बनाने के लिए कुछ उठा नहीं रखा है। जीवन को निरर्थक मानने, उसे भारभूत समझने की भूल कभी भी नहीं की। मल-मूत्र की गठरी इसे कोई भी क्यों न कहता रहे, झंझटों से निपटने के लिए मरने की प्रतीक्षा अन्य कोई भले ही करता रहे, पर अपने मन में ऐसे विचार कभी भी नहीं उठे। न मरने की जल्दी पड़ी और न इसे भार-भूत समझकर ऐसे ही खीजते-खिजाते दिन गुजारे। समय के एक-एक क्षण का सदुपयोग करने की बात हर समय ध्यान में रही। सोचा जाता रहा कि स्रष्टा की सर्वोत्तम कलाकृति का अनुदान मिला है, तो इसी जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग क्यों न कर लिया जाय। गिनी हुई साँसें मिली हैं। इनका सदुपयोग करने में ही बुद्धिमानी है। जब बुद्धि मिल ही गई, तो जीवन की हर इकाई का, हर साँस का श्रेष्ठतम प्रयोग करने में क्यों चूका जाय? यही चिंतन सिर पर सदा छाया रहा, फलतः समय कदाचित् ही कभी निरर्थक गया हो। शरीर को नित्यकर्म और आवश्यक क्षणिक विश्राम के उपरान्त कदाचित् ही कभी खाली रहने दिया गया हो। इसका सन्तोष है। यों जन्म कितने ही लिये हैं एवं अभी कितने ही और लेने पड़ेंगे, पर जहाँ तक स्मरण आता है, इतने लम्बे समय तक-इतनी समझदारी के साथ अन्य शरीरों का इतना महत्त्वपूर्ण सदुपयोग नहीं बन पड़ा। ऐसी दशा में कृतज्ञता का तकाजा है कि मात्र रूखी रोटी खाकर उतना कठिन सेवा धर्म निबाहने वाले का भरा-पूरा अहसान माना जाय और उसे सदा-सर्वदा साथ रखने और काम देने-काम लेने के बहाने मैत्री धर्म का लम्बे समय तक निर्वाह किया जाय। इस स्थिर विचारधारा के रहते हुए हमें इन दिनों कुछ ऐसे कदम उठाने पड़ रहे हैं, जो उपर्युक्त प्रतिपादन से लगभग ठीक उलटे पड़ते हैं। नये निर्धारणों के अनुसार अब इस शरीर का लोकोपयोगी प्रयोग घटते-घटते समाप्त हो जायेगा और वह नित्य कर्म जैसे कुछ सीमित कार्यों में ही प्रयुक्त होता दीख पड़ेगा। लोकोपयोगी सेवा कार्यों में निरंतर संलग्न रहने का अभ्यस्त शरीर भविष्य में निष्क्रिय जैसी स्थिति में समय गुजारे, इसमें औरों को आश्चर्य और अपनों को असमंजस हो सकता है। इसमें समाज को उपयोगी सेवा कार्यों से वंचित होना पड़ेगा और जन कल्याण की दृष्टि से अभी बहुत कुछ करने की जो स्थिति थी, उसमें कमी पड़ सकती है। कम से कम प्रत्यक्षतः तो स्पष्ट ही ऐसा दीखता है।अब तक जो बन पड़ा है शरीर से ही बना है। अस्तु, सहज ही यह आशा की जा सकती है कि भविष्य में भी जब तक यह काम देगा, पिछले दिनों जैसे ही महत्त्वपूर्ण काम करेगा। परिपक्वता बढ़ जाने के कारण यों आशा तो और अधिक की जा सकती है। इतने उपयोगी शरीर तंत्र को इतने आड़े समय में इस प्रकार स्वेच्छापूर्वक जाम कर दिया जाय, यह सामान्य रीति से समझ में आने वाली बात नहीं है। ईश्वरेच्छा से तो कुछ भी हो सकता है। मरण सभी का निश्चित है। कभी कोई पक्षाघात आदि से भी असमर्थ हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में सन्तोष कर लिया जाता और विधि का विधान समझकर किसी प्रकार मन समझा लिया जाता है। संसार चक्र ऐसा ही है, जिसमें कभी किसी के बिना काम नहीं रुका। अवतार, ऋषि, देव, मानव इस धरती पर आये और बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य करते रहे, पर जब चले गये, तो कुछ समय तक ही उनका अभाव खटका। बाद में ढर्रा अपने ढंग से चलने लगा। किसी के रहने, न रहने से इतनी बड़ी दुनिया का गतिचक्र रुकता नहीं है; पर यह होता है विवशतापूर्वक। जाने वाले बुलाये गये हैं। अपने आप मैदान छोड़ने वालों को पलायनवादी कहा और धिक्कारा जाता है। मिलिटरी में तो ऐसे समर्थ सेवारतों के भाग खड़े होने पर कोर्ट-मार्शल तक होता है। यह बातें अपने ध्यान में न रही हों, सो बात नहीं। फिर क्या कारण हुआ कि गतिविधियाँ जाम करने का निश्चय बन पड़ा? इस नये निश्चय में कई पक्षों की कई प्रकार की हानियाँ दृष्टिगोचर हो सकती हैं।
तरह-तरह के असमंजस—
सर्वप्रथम अपने को-जिसने आजीवन एक से एक बढ़कर कठिन और महत्त्वपूर्ण काम करने की आदत डाली और प्रसन्नता अनुभव की हो, उसको समर्थ रहते निष्क्रिय होकर बैठना कितना कठिन पड़ेगा। कितना मन मारना पड़ेगा। इसे कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। निष्क्रिय पड़े लोहे को जंग खा जाती है। प्रकृति के नियम सब पर एक समान लागू होते हैं। निठल्लापन चढ़ते ही हाथ-पैर जकड़ सकते हैं, ऊब चढ़ सकती है, भारभूत जिन्दगी जल्दी समाप्त हो सकती है।द्वितीय वर्ग वह आता है, जो हमें लोकसेवक की दृष्टि से देखता है। उसे आघात लगेगा-स्थूल दृष्टि से करनी और कथनी में अन्तर देखकर अपने द्वारा हर किसी को युग धर्म निभाने के समय निकालने के उपदेश दिये जाते रहे हैं। लाखों ने उन्हें अपनाया भी है। तथाकथित भजनानन्दी लोगों को कुटिया छोड़कर प्रव्रज्या पर निकल पड़ने की प्रेरणा मिली है। जिनके पास जो समय बचता है, उसे जन कल्याण में लगाने का नया व्रत लिया है औरों को ऐसा उपदेश देने के उपरान्त स्वयं एकान्तसेवी बन जाना, हर किसी को अटपटा लगेगा। सामने न सही पीठ पीछे तो लोग इसमें करनी और कथनी का अंतर देखेंगे ही और जो मन में है, उसे प्रकट भी करेंगे। इस प्रकार प्रशंसा निन्दा में बदलेगी। कहने वाले इसे समाज के साथ विश्वासघात भी कहेंगे। जिनके पास है और वे दें नहीं, तो कृपण या निष्ठुर कहे जाते हैं, ऐसा लांछन अपने ऊपर भी तो लग सकता है। संचित प्रशंसा और प्रतिष्ठा पर इस कारण हड़ताल और फिर कालिख भी पुत सकती है।तीसरा वर्ग वह है कि जो कन्धे से कन्धा और कदम से कदम मिलाकर साथ देता और साथ चलता रहा है। इस वर्ग में से जो अधिक साहसी हैं, वे प्रथम पंक्ति में आकर जीवनदानी बने हैं। शान्तिकुञ्ज, ब्रह्मवर्चस एवं गायत्री तपोभूमि में आकर रह रहे हैं। सन्त और ब्राह्मण की जीवनचर्या जिनने अपनाई है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह और बारह घण्टे जमकर काम करने का जिनने ऋषि-मुनियों जैसा जीवनक्रम अपनाया है। फिर ऐसे परिवार बड़ी संख्या में हैं, जो हरिद्वार तो नहीं बुलाये गये, पर अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में रहकर काम करने के लिए नियुक्त कर दिये गये हैं। प्रज्ञा पीठों का संचालन प्रायः ऐसे ही लोग कर रहे हैं। वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों की परिव्राजक की भूमिका निरन्तर निभा रहे हैं।चौथा वर्ग समाज सेवा से जिनका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है, जो व्यक्तिगत जीवन तक सीमित हैं, जो पत्रिकाओं के-साहित्य के माध्यम से प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं, जो पत्र-व्यवहार द्वारा गुत्थियों को सुलझाने और सुखी-समुन्नत बनने के लिए प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं, उनकी संख्या भी कम नहीं है। जिनका सहज स्नेह है वे ऐसे ही जब मन में उमंग उठती है, तब हरिद्वार अकारण भी दौड़ पड़ते हैं। तीर्थयात्रा पर्यटन के बहाने परिवार को लेकर हजारों-लाखों हर वर्ष आते हैं। ठहरने की सुविधा शहर में होते हुए भी ढेरों मार्ग व्यय और आने जाने का झंझट उठाते हुए भी शान्तिकुञ्ज पहुँचते हैं, ठहरते हैं। इस समुदाय में हैरानियों से राहत पाने के इच्छुक ही नहीं, उत्साहवर्धक प्रगति पथ प्राप्त करने के उत्सुक ही नहीं, बल्कि ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिनका सहज स्नेह है। वह स्नेह ही उन्हें ढेरों पैसा और समय खर्च करके दर्शन करने का नाम लेकर एक बार नहीं, बार-बार आने को विवश करता है। इनकी सहज और सघन आत्मीयता सहज ही जानी और छलकती देखी जा सकती है।इस समुदाय को जब विदित होगा कि निष्क्रियता ही नहीं अपनाई गई, मिल-जुल कर बोलना, बात करना भी बन्द कर दिया गया, तो निश्चित ही उन्हें चोट लगेगी। जो लोग हमें प्रेम, बटोरने और लुटाने वाला मानते रहे हैं, उन्हें नीरस-निष्ठुर कहते भी देर न लगेगी। इसमें उनका कसूर भी नहीं है, जो आँखों के सामने प्रत्यक्ष देखा जा रहा है, उसे झुठलाया भी कैसे जाय? हरिद्वार से शान्तिकुञ्ज जाने वाले ताँगे-रिक्शे वाले तक यह कहते सुने गये हैं कि गुरुजी अब समाधि ले रहे हैं, तो हरिद्वार के सबसे अधिक चहल -पहल वाले आश्रम में भी सन्नाटा छा जायेगा। जब वे मिलेंगे-दीखेंगे ही नहीं, तो दर्शनार्थियों-शिविरार्थियों की भीड़ क्यों आयेगी? हमारी भी रोजी-रोटी में कटौती होगी और आश्रम की शोभा महत्ता तो घट ही जायेगी। ईर्ष्यालुओं को भी अच्छा नहीं लग रहा है। वे तरह-तरह की नुक्ताचीनी करते रहने का एक बहाना तो पा जाते थे। अब बहाना भी न रहेगा, तो चुहल-बाजों का एक प्रसंग भी हाथ से चला जायेगा। अब किसी और को भड़ास निकालने के लिए तलाशना पड़ेगा। पाँचवाँ वर्ग-अनेकों ने अध्यात्म की सजीव प्रतिमा के रूप में हमें समझा है और उस तत्त्वज्ञान को अपनाये जाने का वास्तविक स्वरूप क्या हो सकता है? उसे समझने-समझाने के लिए एक जीवन्त उदाहरण सामने पाया है। साधना से सिद्धि के सिद्धांत पर जिन्हें अनेकों संदेह थे, जो फल श्रुतियों को प्रत्यक्ष की कसौटी पर खरा उतरते नहीं देखते थे, उन्हें ऋद्धि-सिद्धियों की बात कपोल-कल्पना भर लगती थी, ऐसे निराश, उदास, दुःखी, असंतुष्ट, अन्यमनस्क और अविश्वास की ओर चल पड़े लोगों में से अनेकों ने अपने विचार बदले हैं। प्रत्यक्ष परिणति देखकर उनके डगमगाते हुए पैर रुके हैं। अब जब वह प्रत्यक्ष प्रकाश भी बुझने जा रहा है, तो किसी दूसरे का कब किस प्रकार वह विश्वास और साहस प्राप्त कर सकेगा, जो पिछले दिनों करता रहा है?[सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान युगऋषि कायारूप में लोगों से मिल जुल नहीं रहे थे। लेकिन चेतना स्तर पर वे जनसामान्य से लेकर विशिष्ट सहयोगियों तक के मनों का अध्ययन कितनी गहराई से कर रहे थे, यह तथ्य यहाँ स्पष्ट होता है। यही नहीं, वे उन सब के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी अनुभव करते हैं और सहज संवेदना के नाते सबके समुचित समाधान का भी प्रयास करते हैं।]ऐसे-ऐसे अनेकों आक्षेप, असमंजस इस नये निर्णय से उठते हैं। विगत वसंत पर्व से यह नया निर्णय घोषित होने के उपरान्त फरवरी, मार्च एवं अप्रैल के महीनों में जितने भी प्रज्ञा परिजन वसन्त के सत्रों में अथवा सहानुभूतिवश शान्तिकुञ्ज आये हैं, उन सबके चेहरों पर इस असमंजस को उभरता देखा गया है। उचित समझा गया कि उसका निराकरण समय रहते कर दिया जाय। विपन्न मनोदशा में न स्वयं ही रहना चाहिए और न दूसरों को रहने देना चाहिये। यही उचित है। यह लेखमाला विशेष रूप से इसी निराकरण हेतु लिखी गई है।
२. सूक्ष्मीकरण साधना के तथ्य एवं औचित्य
निर्दोष और निर्भ्रान्त तो केवल परमेश्वर है, पर सौभाग्य से अभी इस जीवन में ऐसे अवसर नहीं आये, जिससे प्रतिपादित आदर्शों के विपरीत आचरण करने पड़े हों। आमतौर से लोग लोभ और मोहवश ही कुमार्ग अपनाते और कुकृत्य करते हैं। इन दोनों में निरंतर कुश्ती होती रहती है। ऐसा दुर्दिन अभी नहीं आया, जिससे वह हमें पछाड़ पाया हो। फिर जो एकान्तवास जैसे कदम उठे हैं। उनमें कष्ट ही कष्ट और कठिनाइयाँ ही कठिनाइयाँ हैं। बुढ़ापे की काया अब आराम चाहती और सहारा ताकती है। इसके स्थान पर सपरिश्रम आजीवन कारावास जैसी कठोर यातनाएँ सहनी पड़ें और ऊपर से पलायनवादी निष्ठुर होने का लांछन सहना हो, तो उसे अंगीकार करने में कोई वज्र मूर्ख ही तैयार हो सकता है। हमारी विवेक बुद्धि और औचित्य की दृष्टि में अभी राई रत्ती भर भी अंतर नहीं आया है, इसलिए यह सोचना उचित न होगा कि अकारण कोई सनक उठ खड़ी हुई है और वह किया जा रहा है, जिसे प्रियजन नहीं चाहते। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए उन कारणों को समझना पड़ेगा, जिससे प्रस्तुत कटु प्रयोग को अपनाने की मजबूरी लद गई। सूक्ष्मीकरण का अपना नया कदम यों लोकमंगल और उच्च उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपेक्षाकृत और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है फिर भी उसके संबंध में गहराई तक उतर कर सोच न पाने के कारण ऐसा प्रतीत हो सकता है कि निर्णय गलत हुआ। इससे हर किसी के लिए असुविधा उत्पन्न होगी और युगसंधि की इस ऐतिहासिक वेला में जो होना चाहिए था वैसा बन नहीं पड़ेगा। उलटे अवरोध उत्पन्न होगा। आवश्यक समझा गया कि इसका समय रहते निराकरण करने का प्रयत्न किया जाय।
उमड़ती विनाशकारी विभीषिकाएँ—
समय की विपन्नता दिन-दिन बढ़ती जा रही है, इसमें संदेह नहीं। दृश्यमान और अदृश्य क्षेत्रों में सर्वनाशी विभीषिकाएँ जिस क्रम में गहरा रही हैं, उसे देखते हुए कभी भी ऐसा अनिष्ट हो सकता है, जिसके कारण पृथ्वी को ऐसे ही चूरे में बदलना पड़ा, जैसा कि मंगल और बृहस्पति के बीच निरंतर एक अंधड़ की तरह घूमता रहता है। अणु आयुधों की, रासायनिक अस्त्रों की घातक किरणों की संख्या एवं विचित्रता इतनी बढ़ गई है कि उनके द्वारा बिना आमने-सामने का युद्ध छिड़े भी ऐसा हो सकता है कि रात को अच्छे-खासे सोये हुए आदमी मृतक या अर्द्ध मृतक जैसी स्थिति में मिलें। समर्थ राष्ट्र विनाश की क्षमता बढ़ाने में इस कदर लगे हैं और उस स्तर के पराक्रम को इस प्रकार प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहे हैं कि कदाचित् पीछे कदम हटाने की हेठी कराने को कोई भी तैयार नहीं। मृत्यु के साधन जब चरम सीमा पर पहुँचेंगे, तो कोई भी पगला इस बारूद के ढेर में एक तीली फेंक कर उस प्रलय को क्षण भर में प्रत्यक्ष कर सकता है, जिसके आने में पौराणिक प्रतिपादनों के अनुसार अभी लाखों वर्ष की देर है।महायुद्ध न भी हो तो भी वायु प्रदूषण, विकिरण, जनसंख्या विस्फोट, खनिज सम्पदा का समापन, पृथ्वी की उर्वरता का घटना, वृक्ष कटना, पशुओं का मिटना-जैसे अनेक ऐसे कारण विद्यमान हैं, जो शीतयुद्ध बनकर वही काम करें, जो शहतीर में लगने वाला घुन धीरे-धीरे, किन्तु निश्चित रूप से करता है। विषाणु कितने छोटे होते हैं, किन्तु वह अच्छे खासे पहलवान को क्षय, कैंसर जैसे रोगों से ग्रसित करके देखते-देखते मौत के मुँह में धकेल देते हैं।कुविचारों और कुकर्मों से चरम सीमा तक पहुँच जाने पर अब मर्यादा और वर्जनाएँ लगभग समाप्त होती जा रही हैं। उच्छृंखलता, उद्दण्डता, अपराध, अनाचार अति की सीमा लाँघ रहे हैं। छल-प्रपंच कौशल के रूप में मान्यता प्राप्त कर चला है। परिवार बुरी तरह टूट और बिखर रहे हैं। चरित्र कहने-सुनने भर की वस्तु रह गई है। आदर्शों का अस्तित्व इसलिए है कि वे कथन प्रवचन को लच्छेदार बनाने के काम आते हैं। लिखते समय भी उनका पुट लगाने की आवश्यकता पड़ती है। मूर्धन्यों ने इस विग्रह को अपने लिए तो अपनाया ही है, छुटभइयों को भी अनुगमन की प्रेरणा देकर वैसा ही अभ्यस्त कर दिया है। प्रचलन और आन्दोलन उस दिशा में चल रहे हैं, जिनका अंत सर्वनाशी परिणतियों के अतिरिक्त और कहीं कुछ हो ही नहीं सकता। न व्यक्ति को चैन है, न समाज में शांति। पीढ़ियाँ अपने जन्मकाल से ही ऐसे दुर्गुण साथ लेकर जन्मती हैं कि अपना, परिवार और समाज का सर्वनाश करके ही रहें।गरम युद्ध से मरना पड़े या शीतयुद्ध से, अंतर कुछ नहीं पड़ता। ‘सरदार जी का झटका’ ठीक कि ‘कसाई का हलाल’। अंतर क्या पड़े? बकरे की परिणति तो एक ही हुई। अपने इस जनसमुदाय का-इस विश्व उद्यान का विनाश तो होना ही ठहरा। लू में सुलझने पर या पाला मारने पर फसल का बंटाधार ही होना है। अविश्वास, आशंका, अनिश्चितता, असुरक्षा और आतंक के घुटन भरे वातावरण में मानवीय गरिमा देर तक सुरक्षित नहीं रह सकती। भेड़िये और कुत्ते जब पागल होते हैं, तो आपस में ही एक-दूसरे को नोंच खाते हैं। मनुष्य जब पागल होते हैं, तो मरघट के भूत-पिशाचों जैसे आचरण करते हैं। जलने और जलाने, डरने और डराने के अतिरिक्त और कुछ उन्हें सूझता ही नहीं। ऐसी दशा में व्यक्ति और समाज को पतन पराभव के किस गर्त में गिरना पड़ेगा? इसकी सहज कल्पना की जा सकती है, जो तथ्य सामने हैं, वे किसी भी विचारशील का दिल दहलाने के लिए काफी हैं।यह कल्पनाएँ, मान्यताएँ या आकांक्षाएँ नहीं, वरन् ऐसी परिस्थितियाँ हैं, जो दर्पण की तरह सामने हैं। उन्हें ज्योतिषियों, भविष्यवक्ताओं की अटकलें भी नहीं कहा जा सकता। प्रस्तुत तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार कर सकने में समर्थ राजनेता, अर्थशास्त्री, समाज विज्ञानी, विज्ञानवेत्ता, अपनी-अपनी कसौटी पर कसकर एक स्तर से यही कहते पाये जाते हैं कि मनुष्य सामूहिक आत्महत्या की राह पर बदहवास होकर सरपट दौड़ता चला जा रहा है। कुछ समय बाद ही स्थिति ऐसी उत्पन्न हो जायेगी, जिसमें पीछे लौट सकना भी संभव न रहेगा। वापसी की भी एक सीमा होती है। सुधार की गुंजाइश भी एक समय तक ही रहती है। वह निकल चले, तो फिर पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ रहता नहीं।हम निश्चित रूप से इन दिनों ऐसी विषम परिस्थितियों के बीच रह रहे हैं। पौराणिक विवेचन के अनुसार इसे असुरता के हाथों देवत्व का पराभव होना कहा जा सकता है। कभी हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, वृत्तासुर, भस्मासुर आदि ने आतंक उत्पन्न किये थे और देवताओं को खदेड़ दिया था। आलंकारिक रूप से किया गया वह वर्णन आज की परिस्थितियों के साथ पूरी तरह तालमेल खाता है। रावण और कंस काल की परिस्थितियों के साथ आज के वातावरण की तुलना करते हैं, तो पुनरावृत्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है। उन दिनों शासक वर्ग का ही आतंक था, पर आज तो राजा-रंक धनी-निर्धन, शिक्षित-अशिक्षित, वक्ता-श्रोता, सभी एक राह पर चल रहे हैं। छद्म और अनाचार ही सबका इष्टदेव बन चला है। नीति और मर्यादा का पक्ष दिनों-दिन दुर्बल होता जाता है।उपाय दो ही हैं। एक यह कि शुतुरमुर्ग की तरह आँखें बंद करके भवितव्यता के सामने सिर झुका दिया जाय। जो होना है, उसे होने दिया जाय। दूसरा यह कि जो सामर्थ्य के अंतर्गत है, उसे करने में कुछ उठा न रखा जाय। टिटहरी समुद्र से लड़कर अण्डे वापस ले सकती है, तो अपने से कुछ न बन पड़े, ऐसा नहीं होना चाहिए।
हो रहे प्रयास ना काफी—
अनिष्ट का प्रतिकार करने के लिए हर कोई अपनी-अपनी सूझबूझ और सामर्थ्य के अनुरूप काम करता है, पर स्थिर समाधान के लिए ताला खोलने वाली ताली ही तलाश करनी पड़ती है। लोग प्रयत्नशील न हों, सो बात नहीं है। सरकारें धन खर्च करने, वैज्ञानिक दिन-रात प्रयोगशालाओं में तत्पर रहने, अर्थशास्त्री सम्पन्नता बढ़ाने और विज्ञान सोचने, खोजने में संलग्न है। संकट को निरस्त करने के लिए बरते जा रहे उपाय कुछ भी कारगर सिद्ध नहीं हो रहे हैं। रस्सी दो गज जुड़ पाती नहीं कि चार गज टूट जाती है। ‘अंधी पीसे कुत्ता खाय’ वाली उक्ति लागू हो रही है। राजनैतिक मोर्चे पर न धमकी काम दे रही है, न काना-फूसी। विग्रह के बादल सघन ही होते चले जा रहे हैं। क्षेत्रीय समस्याओं में भाषावाद, सम्प्रदायवाद, उग्रवाद, यूनियनवाद, हड़ताल, तोड़-फोड़ के उपद्रव आये दिन खड़े रहते हैं। अस्पतालों और डॉक्टरों की संख्या वृद्धि के साथ बीमारों और बीमारियों की संख्या और भी बड़े अनुपात के साथ बढ़ रही है। पुलिस बढ़ रही है, पर अपराधों की वृद्धि पर तनिक भी अंकुश नहीं लग रहा है। मँहगाई के साथ-साथ मिलावट, भ्रष्टाचार का भी पूरा जोर और दौर है। नशेबाजी जैसे दुर्व्यसन, दहेज जैसे कुप्रचलन, दिन-दूने रात चौगुने वेग से उभर रहे हैं। प्रचार-प्रस्तावों का उन पर कोई असर नहीं। व्यक्ति खोखला होता हुआ चला जा रहा है और समाज जर्जर। विपत्तियों और समस्याओं का ओर-छोर नहीं। कुछ कुचक्री और स्वेच्छाचारी दोनों हाथों से दौलत भी बटोर रहे हैं, किन्तु वे भी ईर्ष्यालुओं, अपराधियों और रिश्वत माँगने वालों से हैरान ही बने रहते हैं। खोटी कमाई इस हाथ आकर दुर्व्यसनों में उस हाथ फुलझड़ी की तरह जल जाती है।यह अत्युक्तिवादी कल्पना चित्र नहीं है। आँख उठाकर इर्द-गिर्द देखने पर दृष्टिगोचर होने वाला वातावरण है। इसके प्रमाण परिचय कहीं भी, कभी भी मिल सकते हैं। चिन्ता की बात अनर्थों का-संकटों का बढ़ना तो है ही, पर उससे भी अधिक हैरानी की बात यह है कि किसी क्षेत्र में कोई समाधान निकल नहीं रहे हैं। सुधारवादी प्रयास जलते तवे पर कुछ बूँदें पानी पड़ने की तरह अपने अस्तित्व का परिचय देकर समाप्त हो जाते हैं। सर्वोदय जैसे उत्साहवर्धक आंदोलन दम तोड़ गये। कुरीति निवारण में आर्यसमाज को कितनी सफलता मिली? नशा निवारण और भ्रष्टाचार उन्मूलन के काम करने वाले संगठन कितने सफल हो रहे हैं? यह उन्हीं से उन्हीं के मुँह-से कच्चा चिट्ठा पूछकर भली-भाँति जाना जा सकता है। धर्मोपदेशक और कथा कीर्तनकारों के बूते भी एक प्रकार का विनोद मनोरंजन ही बन पड़ता है। अनाथालयों, नारी ग्रहों, भिक्षुक ग्रहों, अपंग आश्रमों, गौशाला में कितनों की, कितनों को, कितनी-कितनी राहत मिली, इसका पर्यवेक्षण बताता है कि सारा आवाँ ही बिगड़ गया। पूरे कुएँ में भाँग पड़ गई, जो सुधार का जिम्मा उठाते हैं, वे अधिकारी भी दूध के धुले कहाँ है? पक्षपात और भ्रष्टाचार को कहाँ प्रश्रय नहीं मिल रहा है? ऐसी दशा में हर विचारशील की आँखों के आगे अँधेरा छाता है और लगता है कि बुरे दिन तेजी से बढ़ते आ रहे हैं। रोकथाम करने वाले प्रयत्न दूसरों को उत्साह दिलाते हैं, पर स्वयं निराशा से ही ग्रसित रहते हैं।
आशा की किरण—
इस अंधकार भरी निविड़ निशा के बाद प्रभात के आशा की किरण यदि जीवित है, तो वह एक ही है कि अदृश्य जगत् से कोई सृजन प्रवाह उमँगे और वर्षा के बादलों की तरह तपते धरातल को शीतलता और हरीतिमा से भर दे। ऐसे अवसरों पर दैवी चमत्कार ही काम आते हैं। हेमन्त में जब शीताधिक्य से जंगलों के जंगल पत्ते रहित होकर ठूँठ बन जाते हैं। पाले के दबाव से पौधे मुसकराते और मृतक जैसे दीखते हैं, तब वसंत का मौसम ही उत्साहवर्धक परिवर्तन का माहौल बनाता है। यह कार्य कोई व्यक्ति या संगठन करना चाहे, तो कठिन है। पतझड़ ग्रस्त पेड़-पौधों को पुष्प-पल्लवों से लादने में मानवीय प्रयत्नों की पहुँच कहाँ तक हो सकती है? सूखी जमीन को हरा-भरा बनाने में सिंचाई के प्रयत्न कितने क्षेत्र में सफल हो सकते हैं। इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। वर्षा और वसंत ही हैं, जो हरीतिमा उगाने और उसे फलने-फूलने की स्थिति तक पहुँचाने की जिम्मेदारी उठा सकते हैं।मानवीय पुरुषार्थ को यहाँ तो नगण्य नहीं ठहराया जा रहा है। कहा इतना ही जा रहा है कि बड़ी समस्याओं का समाधान, बड़े संकटों का निराकरण और बड़े अभावों की पूर्ति के लिए प्रायः दैवी अनुकूलता ही काम देती है। पहाड़ों पर बर्फ जमाना और उसे पिघलाकर नदियों को जलधारा से भरी-पूरी रखना मानवीय पुरुषार्थ के बाहर की बात है। उसके द्वारा समुद्र के जल को बादल के रूप में परिणत करना और दूर तक बरसने के लिए खदेड़ देना भी संभव नहीं। सूर्य जैसा ताप और चन्द्रमा जैसा शीत बरसाने में मनुष्य कहीं सफल हो सकेगा? उपग्रहों का निर्माण करने पर भी अभी नया ग्रह बना देना या पुरानों को हटा देना, किसके लिए कब तक संभव हो सकेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।इतिहास साक्षी है कि मनुष्य वातावरण को बिगाड़ने में तो अनेक बार सफल हुआ है, पर जब-जब परिस्थितियाँ बेकाबू हुई हैं, तब-तब नियंता ने ही उलटे को उलटकर सीधा किया है। पर यह दैवी अनुग्रह भी अनायास ही उपलब्ध नहीं होता, उसके पीछे भी ऋषिकल्प देवताओं का दबाव काम करता है।जल के लिए सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची थी। आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त से लेकर मगध, बंगाल तक का इलाका प्यास से मर रहा था। उपयोगी उपाय गंगावतरण समझा गया। इसके लिए तपस्वी की प्रार्थना ही सुनी जा सकती थी। यह कार्य भगीरथ ने अपने जिम्मे लिया। उद्देश्य की पवित्रता को देखकर शिव जी सहायक बने और जाह्नवी स्वर्गलोक से धरती पर उतरीं। अभाव दूर हो गया। ऐसे-ऐसे असंख्यों उदाहरणों का इतिहास-पुराणों में वर्णन है। दैवी अनुकम्पा अंधविश्वास नहीं है। दैवी प्रकोपों का कुचक्र जब मानवीय प्रगति प्रयत्नों को मटियामेट कर सकता है, तो दैवी अनुग्रह से अनुकूलता क्यों उत्पन्न न होगी? बाढ़, भूकम्प, दुर्भिक्ष, महामारी, अतिवृष्टि, ईति-भीति आदि विनाशकारी घटनाक्रम दैवी प्रकोप से ही उत्पन्न होते हैं। उसी क्षेत्र की अनुकम्पा से समृद्धि प्रगति और शांति के अप्रत्याशित द्वार भी खुल सकते हैं।दैवी प्रकोप या अनुग्रह अकारण नहीं बरसते। सृष्टि की सुव्यवस्था में व्यतिरेक उत्पन्न करने पर सुयोग सँजोने में मनुष्य की बहुत बड़ी भूमिका होती है। कुकृत्य ही अदृश्य वातावरण को दूषित करते और प्रकृति प्रकोपों को टूट पड़ने के लिए आमंत्रित करते हैं। इसके साथ ही एक सुनिश्चित तथ्य यह भी है कि ऋषि स्तर के व्यक्ति जब उच्च प्रयोजनों के निमित्त तपश्चर्या करते और वातावरण में उपयोगी ऊर्जा उत्पन्न करते हैं, तो दैवी अनुकम्पा का भी सुयोग बनता है। देवता न किसी पर कुपित होते हैं, न दयालु। स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए वे तदनुरूप दण्ड पुरस्कार का तालमेल बिठाते रहते हैं। इस प्रकार दुरात्माओं का बाहुल्य संसार में विपत्ति बरसाने का सरंजाम जुटाता है। उसी प्रकार देव मानवों की तपश्चर्या प्रत्यक्ष और परोक्ष क्षेत्र के सुयोग जुटाती है। संत अपनी सेवा-साधना में जहाँ धर्म-धारणा और पुण्य-प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते हैं, वहाँ उनकी विशिष्ट साधनाओं से अदृश्य जगत् का परिशोधन भी होता चलता है। यही कारण है कि अध्यात्मवेत्ता लोकसाधना और अध्यात्म साधना को समान महत्त्व देते हैं। दोनों के लिए समान प्रयत्न करते हैं।इन दिनों अदृश्य वातावरण की विषाक्तता ही अनेकानेक संकटों को जन्म दे रही है। विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार बढ़ते प्रदूषण और तापमान में ध्रुवीय बर्फ पिघलने, समुद्र उफनने और हिम युग लौट आने जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी हैं। अदृश्य वेत्ताओं के अनुसार दुर्भावनाओं, उद्दण्डताओं और कुकर्मों ने देव जगत् को रुष्ट कर दिया है और वे सामूहिक दण्ड व्यवस्था करके मनुष्य समुदाय को कड़ुआ पाठ पढ़ाने करारे चपत लगाने के लिए आमादा हो गये हैं। प्रस्तुत समस्याओं का कारण चाहे वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय, चाहे आध्यात्मिक दृष्टि से, उसमें अदृश्य जगत् में संव्याप्त वातावरण की विषाक्तता प्रमुख कारण है। इसका समाधान भी उतने ही वजनदार पुरुषार्थ चाहता है, जिससे खोदी हुई खाई पट सके और लगी हुई कलंक-कालिमा धुल सके।समस्या भावनात्मक है। मनुष्य ने दुर्गति अपनाई और दुर्गति न्यौत बुलाई है। इसके लिए परिमार्जन प्रयत्न ऐसे चाहिए कि जो प्रत्यक्ष रूप से लोकमानस का परिष्कार कर सकने वाले सत्प्रवृत्ति संवर्धन प्रयासों को अग्रगामी बना सकें। साथ ही अदृश्य जगत् से देवत्व की शक्तियों की अनुकम्पाएँ भी अर्जित कर सकें। द्रौपदी की पुकार पर भगवान् दौड़े आये थे। प्रह्लाद का रुदन भगवान् तक पहुँचा था। सशक्त आत्माओं का दबाव भगवान् को भी बाधित कर सकता है। शबरी को दर्शन देने और यश बढ़ाने के लिए स्वयं ही भगवान् पहुँचे थे। उदाहरणों में भक्त की पात्रता ही सब कुछ थी। उसी में दैवी अनुकम्पा उत्पन्न करने की क्षमता होती है।प्रस्तुत एकान्तवास के नाम से समझा गया कदम वस्तुतः ऐसी विशिष्ट तपश्चर्या का एक स्वरूप है, जो ऋद्धि-सिद्धियों की प्राप्ति के लिए उलटे प्रवाह को उलटकर सीधा करने के लिए उठाया गया है।
३. प्रचण्ड सूक्ष्म शक्ति का जागरण
विशेष समय, विशेष दायित्व—
युग परिवर्तन की यह ऐतिहासिक वेला है। इन बीस वर्षों में हमें जमकर काम करने की ड्यूटी सौंपी गई है। सन् १९८० से लेकर अब तक के चार वर्षों में जो काम हुआ है, वह पिछले ३० वर्षों की तुलना में कहीं अधिक है। समय की आवश्यकता के अनुरूप तत्परता बरती गई है और खपत को ध्यान में रखते हुए तदनुरूप शक्ति उपार्जित की गई है। ये वर्ष कितनी जागरूकता, तन्मयता, एकाग्रता और पुरुषार्थ की चरम सीमा तक पहुँचकर व्यतीत करने पड़े हैं, उनका उल्लेख उचित न होगा। क्योंकि इस तत्परता का प्रतिफल २४०० प्रज्ञा पीठों और ७५०० प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण के अतिरिक्त और कुछ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। एक कड़ी हर दिन एक फोल्डर लिखने की इसमें और जोड़ी जा सकती है। शेष सब कुछ परोक्ष है। परोक्ष का प्रत्यक्ष लेखा-जोखा किस प्रकार संभव हो?[वे लिखते हैं कि विशेष समय में उन्हें विशेष ड्यूटी सौंपी गई है। ड्यूटी सौंपने वाली कौन है? इस संदर्भ में थियोसोफिकल सोसायटी के विद्वानों का मानना है कि ऋषि तंत्र कुछ भी करने में समर्थ होता है, किन्तु जब तक निर्देश नहीं मिलता, वे अपने आप कुछ नहीं करते। स्पष्ट रूप से उन्हें निर्देश देने वाली सत्ता विश्व नियंता स्तर की ही हो सकती है। युग ऋषि ने अपनी वसीयत और विरासत तथा प्रज्ञोपनिषद में इस संदर्भ में संकेत किए हैं।निर्देश मिलने पर उनका पुरुषार्थ किस स्तर का होता है, यह भी झलक उनके लेखन में पाई जा सकती है। युगऋषि के लेखन तथा उनके प्रभाव से कुछ ही वर्षों में हजारों पीठों-प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण को लोग इतिहास की अद्भुत घटना कहते हैं; किन्तु वे किये गये दिव्य पुरुषार्थ का एक छोटा-सा प्रत्यक्ष अंश भर कहते हैं। सामान्य रूप से वे भी अपने कार्यों की उपमा समुद्र में तैरने वाले उन ग्लेशियरों (हिमखंडों) से करते हैं, जिनका केवल १/१०भाग प्रत्यक्ष दिखाई देता है और शेष ९/१० भाग पानी में डूबा-अप्रत्यक्ष रहता है।]युगसंधि की वेला में अभी १६ वर्ष और रह जाते हैं। इस अवधि में गतिचक्र और भी तेजी से भ्रमण करेगा। एक ओर उसकी गति बढ़ानी होगी, दूसरी ओर रोकनी। विनाश को रोकने और विकास को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ेगी। दोनों ही गतियाँ इन दिनों मंथर हैं। इस हिसाब से सन् २००० तक उस लक्ष्य की उपलब्धि न हो सकेगी, जो अभीष्ट है। इसलिए सृष्टि के प्रयास चक्र निश्चित रूप से तीव्र होंगे। उसमें हमारी भी गीध-गिलहरी जैसी भूमिका है। काम, कौन, कब, क्या किस प्रकार करे? यह बात आगे की है। प्रश्न जिम्मेदारी का है। युद्धकाल में जो जिम्मेदारी सेनापति की होती है, वही खाना पकाने वाले की भी। आपत्ति काल में उपेक्षा कोई भी नहीं बरत सकता।इस अवधि में एक साथ कई मोर्चों पर एक साथ लड़ाई लड़नी होगी। समय ऐसे भी आते हैं, जब खेत की फसल काटना, जानवरों को चारा लाना, बीमार लड़के का इलाज कराना, मुकदमे की तारीख पर हाजिर होना, घर आये मेहमान का स्वागत करना जैसे कई काम एक ही आदमी को एक ही समय पर करने होते हैं। युद्धकाल में तो यह बहुमुखी चिंतन एवं उत्तरदायित्व और भी अधिक सघन अथवा विरल हो जाता है। किस मोर्चे पर कितने सैनिक भेजना, जो लड़ रहे हैं, उनके लिए गोला बारूद कम न पड़ने देना, रसद का प्रबंध रखना, अस्पताल का दुरुस्त होना, मरे हुए सैनिकों को ठिकाने लगाना, अगले मोर्चे के लिए खाइयाँ खोदना जैसे काम बहुमुखी होते हैं। सभी पर समान ध्यान देना होता है। एक में भी चूक होने से बात बिगड़ जाती है। करा-धरा सब चौपट हो जाता है।
स्थूल की सीमा—
हमें अपनी प्रवृत्तियाँ बहुमुखी बढ़ा लेने के लिए कहा गया है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई स्थूल शरीर का सीमा बंधन है। यह सीमित है, सीमित क्षेत्र में ही काम कर सकता है। सीमित ही वजन उठा सकता है। काम असीम क्षेत्र से संबंधित हैं और ऐसे हैं, जिनमें एक साथ कितनों से ही वास्ता पड़ना चाहिए। यह कैसे बने? इसके लिए एक तरीका यह है कि स्थूल शरीर को बिल्कुल ही छोड़ दिया जाय और जो करना है, उसे एक तरह या अनेक सूक्ष्म शरीरों से सम्पन्न करते रहा जाय। निर्देशक को यदि यही उचित लगेगा, तो उसे निपटाने में पल भर की भी देर न लगेगी। स्थूल शरीरों का एक झंझट है कि उनके साथ कर्मफल के भोग विधान जुड़ जाते हैं। यदि लेन-देन बाकी रहे, तो अगले जन्म तक वह भार लदा चला जाता है और फिर खींचतान करता है। ऐसी दशा में उसके भोग भुगतते हुए जाने में निश्चिन्तता रहती है।रामकृष्ण परमहंस ने आशीर्वाद वरदान बहुत दिये थे। उपार्जित पुण्य भण्डार कम था। हिसाब चुकाने के लिए गले का कैंसर बुलाया गया। बेबाकी तब हुई। आद्य शंकराचार्य को भी भगन्दर का फोड़ा ही जान लेकर गया था। महात्मा नारायण स्वामी को भी ऐसा ही रोग सहना पड़ा। गुरु गोलवलकर कैंसर से पीड़ित होकर स्वर्गवासी हुए। ऐसे ही अन्य उदाहरण भी हैं, जिनमें पुण्यात्माओं को अंतिम समय व्यथापूर्वक बिताना पड़ा। इसमें उनके पापों का दण्ड कारण नहीं होता, वह पुण्य व्यतिरेक की भरपाई करना होता है। वे कइयों का कष्ट अपने ऊपर लेते रहते हैं। बीच में चुका सके, तो ठीक अन्यथा अंतिम समय हिसाब-किताब बराबर करते हैं, ताकि आगे के लिए कोई झंझट शेष न रहे और जीवन मुक्ति की स्थिति बनी रहने में पीछे का कोई कर्मफल व्यवधान उत्पन्न न करे।
सूक्ष्मीकरण की विशिष्ट साधना—
मूल प्रश्न जीव सत्ता के सूक्ष्मीकरण का है। सूक्ष्म व्यापक होता है, बहुमुखी भी। एक ही समय में कई जगह काम कर सकता है। जबकि स्थूल के लिए एक स्थान, एक सीमा के बंधन हैं। स्थूल शरीरधारी अपने भाग-दौड़ क्षेत्र में काम करेगा। साथ ही भाषा ज्ञान के अनुरूप विचारों का आदान-प्रदान कर सकेगा, किन्तु सूक्ष्म में प्रवेश करने पर भाषा संबंधी झंझट दूर हो जाते हैं। विचारों का आदान-प्रदान चल पड़ता है। विचार सीधे मस्तिष्क या अंतराल तक पहुँचाए जा सकते हैं। उनके लिए भाषा माध्यम आवश्यक नहीं है। यातायात की व्यवस्था भी स्थूल-शरीरधारी को चाहिए। पैरों के सहारे तो वह घण्टे में प्रायः तीन मील ही चल पाता है। वाहन जिस गति का होगा, उसकी दौड़ भी उतनी ही रह जायेगी।एक व्यक्ति की एक जीभ होती है। उसका उच्चारण उसी से होगा। किन्तु सूक्ष्म शरीर की इन्द्रियों का इस प्रकार का बंधन नहीं है। उनकी देखने की, सूँघने की, बोलने की सामर्थ्य स्थूल शरीर की तुलना में अनेक गुनी हो जाती है। एक ही शरीर समयानुसार अनेक शरीरों में भी प्रतिभासित हो सकता है। रास के समय श्रीकृष्ण के अनेक शरीर गोपियों को अपने साथ सहनृत्य करते दीखते थे। कंस वध के समय तथा सिया स्वयंवर के समय उपस्थित जनसमुदाय को कृष्ण और राम की विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ दृष्टिगोचर हुई थीं। विराट् रूप दर्शन में भगवान् ने अर्जुन को, यशोदा को जो दर्शन कराया था, वह उनके सूक्ष्म एवं कारण शरीर का ही आभास था। अलंकार काव्य के रूप में उनकी व्याख्या की जाती है, सो भी किसी सीमा तक ठीक ही है।[युगऋषि अगले चरण में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि स्थूल शरीर की तरह सूक्ष्म शरीर भी हर व्यक्ति के साथ जुड़ा होता है; किन्तु उनकी सामर्थ्यों में बड़ा अन्तर होता है। जैसे स्थूल शरीर में अपाहिजों से लेकर परम बलवान् तक की अनेक श्रेणियाँ होती हैं, उसी तरह सूक्ष्म शरीर की सामर्थ्य की भी श्रेणियाँ होती हैं, जिन्हें विशिष्ट साधनाओं द्वारा ही विकसित किया जाना संभव है।]यह स्थिति शरीर त्यागते ही हर किसी को उपलब्ध हो जाय, यह संभव नहीं। भूत-प्रेत चले तो सूक्ष्म शरीर में जाते हैं, पर वे बहुत ही अनगढ़ स्थिति में रहते हैं। मात्र संबंधित लोगों को ही अपनी आवश्यकताएँ बताने भर के कुछ दृश्य कठिनाई से दिखा सकते हैं। पितर स्तर की आत्माएँ उनसे कहीं अधिक सक्षम होती हैं। उनका विवेक एवं व्यवहार कहीं अधिक उदात्त होता है। इसके लिए उनका सूक्ष्म शरीरों को उच्चस्तरीय क्षमता सम्पन्न बनाने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं। वे तपस्वी स्तर के होते हैं। सामान्य काया को सिद्ध पुरुष स्तर की बनाने के लिए अनेक साधनाएँ करनी पड़ती हैं।इससे अगला कदम सूक्ष्मीकरण का है। सिद्ध पुरुष अपनी काया की सीमा में रहकर जो दिव्य क्षमता अर्जित कर सकते हैं, कर लेते हैं। उसी से दूसरों की सेवा-सहायता करते हैं। किन्तु सूक्ष्म शरीर विकसित कर लेने वाले उन सिद्धियों के भी धनी देखे गये हैं, जिन्हें योगशास्त्र में अणिमा, महिमा, लघिमा आदि कहा गया है। शरीर का हलका, भारी, दृश्य, अदृश्य हो जाना, यहाँ से वहाँ जा पहुँचना, प्रत्यक्ष शरीर के रहते हुए संभव नहीं; क्योंकि शरीरगत परमाणुओं की संरचना ही ऐसी नहीं है, जो पदार्थ विज्ञान की सीमा मर्यादा से बाहर जा सके। कोई मनुष्य हवा में नहीं उड़ सकता और न पानी पर चल सकता है। यदि ऐसा कर सका होता, तो उसने वैज्ञानिकों की चुनौती अवश्य स्वीकार की होती और प्रयोगशाला में जाकर विज्ञान के प्रतिपादनों में एक नया अध्याय अवश्य ही जोड़ा होता। किम्वदन्तियों के आधार पर कोई किसी से इस स्तर की सिद्धियों का बखान करने भी लगे, तो उसे अत्युक्ति ही माना जायेगा। अब प्रत्यक्ष को प्रामाणित किए बिना किसी की गति नहीं।प्रश्न सूक्ष्मीकरण का है। यह एक विशेष साधना है, जो स्थूल शरीर में रहते हुए भी की जा सकती है और उसे त्यागने के उपरांत भी करनी पड़ती है। दोनों ही परिस्थितियों में यह स्थिति बिना अतिरिक्त प्रयोग पुरुषार्थ के तप साधना के संभव नहीं हो सकती। इसे योगाभ्यास तपश्चर्या का अगला चरण कहना चाहिए।इसके लिए किसे क्या करना होगा? यह उसके वर्तमान स्तर एवं उच्चस्तरीय मार्गदर्शन पर निर्भर है। सबके लिए एक पाठ्यक्रम नहीं हो सकता, किन्तु इतना अवश्य है कि अपनी शक्तियों का बहिरंग अपव्यय रोकना पड़ता है। अण्डा जब तक पक नहीं जाता, तब तक एक खोखले में बंद रहता है। इसके बाद वह इस छिलके को तोड़कर चलने-फिरने और दौड़ने, उड़ने लगता है। लगभग यही अभ्यास सूक्ष्मीकरण के हैं। प्राचीन काल में गुफा सेवन, समाधि आदि का प्रयोग प्रायः इसी निमित्त होता था।
यह परम्परा पुरातन है—
सूक्ष्म शरीरधारियों का वर्णन और विवरण पुरातन ग्रंथों में विस्तारपूर्वक मिलता है। यक्ष और युधिष्ठिर के मध्य विग्रह तथा विवाद का महाभारत में विस्तारपूर्वक वर्णन है। यक्ष, गंधर्व, ब्रह्मराक्षस जैसे कई वर्ग सूक्ष्म शरीरधारियों के थे। विक्रमादित्य के साथ पाँच वीर रहते थे। शिवजी के गण वीरभद्र कहलाते थे। भूत, प्रेत, जिन्न, मसानों की एक अलग ही बिरादरी थी। अलादीन का चिराग जिनने पढ़ा है, उन्हें इस समुदाय की गतिविधियों की जानकारी होगी। छाया पुरुष साधना में अपने निज के शरीर से ही एक अतिरिक्त सत्ता गढ़ ली जाती है और वह एक समर्थ अदृश्य साथी सहयोगी जैसा काम करती है।इन सूक्ष्म शरीरधारियों में अधिकांश का उल्लेख हानिकर या नैतिक दृष्टि से हेय स्तर पर हुआ है। संभव है उन दिनों अतृप्त विक्षुब्ध स्तर के योद्धा रणभूमि में मरने के उपरांत ऐसे ही कुछ हो जाते रहे हों। उन दिनों युद्ध की मार-काट ही सर्वत्र संव्याप्त थी, पर साथ ही सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षियों का भी कम उल्लेख नहीं है। राजर्षि और ब्रह्मर्षि तो स्थूल शरीरधारी ही होते थे, पर जिनकी गति सूक्ष्म शरीर में काम करती थी, वे देवर्षि कहलाते थे। वे वायुभूत होकर विचरण करते थे। लोक-लोकान्तरों में जा सकते थे। जहाँ आवश्यकता अनुभव करते थे, वहाँ भक्त जनों का मार्गदर्शन करने के लिए अनायास ही जा पहुँचते थे।ऋषियों में से अन्य कइयों के भी उल्लेख मिलते हैं। वे समय-समय पर धैर्य देने, मार्गदर्शन करने या जहाँ आवश्यकता समझी है, वहाँ पहुँचे हैं, प्रकट हुए हैं। पैरों से चलकर उन्हें जाना नहीं पड़ा है। अभी भी हिमालय के कई यात्री ऐसा विवरण सुनाते हैं कि राह भटक जाने पर कोई उन्हें साथ ले गया और उपयुक्त स्थल तक छोड़ कर चला गया। कइयों ने किन्हीं गुफाओं में, शिखरों पर अदृश्य योगियों को दृश्य तथा दृश्य को अदृश्य होते देखा है। तिब्बत के लामाओं से ऐसी कितनी ही कथा गाथाएँ सुनी गई हैं। थियोसोफिकल सोसाइटी की मान्यता है कि अभी भी हिमालय के ध्रुव केन्द्र पर एक ऐसी मण्डली है कि जो विश्व शांति में योगदान करती है। इसे उन्होंने अदृश्य सहायक का नाम दिया है। यहाँ स्मरण रखने योग्य बात यह है कि यह देवर्षि समुदाय भी मनुष्यों का ही एक विकसित वर्ग है। योगियों, सिद्ध पुरुषों और महामानवों की तरह वह सेवा-सहायता में दूसरों की अपेक्षा अधिक समर्थ पाया जाता है। पर यह मान बैठना गलती होगी कि वे सर्व समर्थ हैं और किसी की भी मनोकामना को तत्काल पूरी कर सकते हैं या अमोघ वरदान दे सकते हैं। कर्मफल की वरिष्ठता सर्वोपरि है। उसे भगवान् ही घटा या मिटा सकते हैं। मनुष्य की सामर्थ्य से वह बाहर है। जिस प्रकार बीमार की चिकित्सक, विपत्तिग्रस्त की धनी सहायता कर सकता है। ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षि भी समय-समय पर सत्कर्मों के निमित्त बुलाने पर अथवा बिना बुलाये भी सहायता के लिए दौड़ पड़ते हैं। इसमें बहुत लाभ भी मिलता है। इतने पर भी किसी को यह नहीं मान बैठना चाहिए कि पुरुषार्थ की आवश्यकता ही नहीं रही या उनके आड़े आते ही निश्चित सफलता मिल गई। यदि ऐसा रहा होता, तो लोग उन्हीं का आसरा लेकर निश्चिन्त हो जाते और फिर निजी पुरुषार्थ की आवश्यकता न समझते। निजी कर्मफल आड़े आने-परिस्थितियों के बाधक होने की बात को ध्यान में ही न रखते। यहाँ एक अच्छा उदाहरण हमारे हिमालयवासी गुरुदेव का है। सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण ही वे उस प्रकार के वातावरण में रह पाते हैं, जहाँ जीवन निर्वाह के कोई साधन नहीं हैं। समय-समय पर हमारा मार्गदर्शन और सहायता करते रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें कुछ करना ही नहीं पड़ा, कोई कठिनाई मार्ग में आई ही नहीं, कभी असफलता मिली ही नहीं। यह भी होता रहा है। पर निश्चित है कि हम एकाकी जो कर सकते थे, उसकी अपेक्षा उस दिव्य सहयोग से मनोबल बहुत बढ़ा-चढ़ा रहा है। उचित मार्गदर्शन मिला है। कठिनाई के दिनों में धैर्य और साहस यथावत् स्थिर रहा है। यह कम नहीं है। इतनी ही आशा दूसरों से करनी भी चाहिए। सब काम करके कोई और रख जाएगा, ऐसी आशा तो भगवान् से भी नहीं करनी चाहिए।[युगऋषि के हिमालयवासी गुरुदेव का यहाँ संकेत भर किया गया है। उनके बारे में तथा ऋषि तक से युगऋषि के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सम्बन्धों के बारे में जानने के लिए युगऋषि की जीवनी ‘हमारी वसीयत और विरासत’ पढ़ी जा सकती है।]भूल यही होती रही कि दैवी सहायता का नाम लेते ही लोग समझते हैं कि वह जादू की छड़ी घूमी और मनचाहा काम बन गया। ऐसे ही अतिवादी लोग क्षण भर में आस्था खो बैठते देखे गये हैं। दैवी शक्तियों से, सूक्ष्म शरीरों से हमें सामाजिक सहायता की आशा करनी चाहिए। साथ ही अपनी जिम्मेदारियाँ स्वतः वहन करने के लिए कटिबद्ध भी रहना चाहिए। असफलताओं तथा कठिनाइयों को अच्छा शिक्षक मानकर अपने कदम अधिक सावधानी के, अधिक बहादुरी के उठाने की तैयारी करनी चाहिए।सूक्ष्म शरीर की शक्ति सामान्यतः भी अधिक होती है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, पूर्वाभास, विचार सम्प्रेषण आदि में प्रायः सूक्ष्म शरीरों की ही भूमिका रहती है। उनकी सहायता से कितनों को ही विपत्तियों से उबरने का अवसर मिला है। कइयों को ऐसी सहायताएँ मिली हैं, जिनके बिना उनका कार्य रुका ही पड़ा रहता। दो सच्चे मित्र मिलने से लोगों की हिम्मत कई गुना बढ़ जाती है। वैसा ही अनुभव अदृश्य सहायकों के साथ संबंध जुड़ने से भी करना चाहिए।जिस प्रकार अपना दृश्य संसार है और उसमें दृश्य शरीर वाले जीवधारी रहते हैं। ठीक उसी प्रकार उससे जुड़ा हुआ एक अदृश्य लोक भी है। उसमें सूक्ष्म शरीरधारी निवास करते हैं। इनमें कुछ बिलकुल साधारण, कुछ दुरात्मा और कुछ अत्यन्त उच्चस्तर के होते हैं। वे मनुष्य शोक में समुचित दिलचस्पी लेते हैं। बिगड़ों को सुधारने और सुधरों को अधिक सफल बनाने में यथोचित सहायता करते रहते हैं। फिर सहयोग माँगने का प्रयोजन और माँगने वाले का स्तर उपयुक्त होने पर तो वह सहायता अच्छी तरह और भी बड़ी मात्रा में मिलती है।
हमें भी यही करना है—
यह सूक्ष्म शरीर की, सूक्ष्म लोक की सामान्य चर्चा हुई। प्रसंग अपने आप का है। यह विषम वेला है। इसमें प्रत्यक्ष शरीर वाले, प्रत्यक्ष उपाय उपचारों से जो कर सकते हैं, सो तो कर ही रहे हैं। करना भी चाहिए। पर दीखता है कि उतने भर से काम चलेगा नहीं। सशक्त सूक्ष्म शरीरों को बिगड़ों को अधिक न बिगड़ने देने के लिए अपना जोर लगाना पड़ेगा। सँभालने के लिए जो प्रक्रिया चल रही है, वह पर्याप्त न होगी। उसे और भी अधिक सरल-सफल बनाने के लिए अदृश्य सहायता की भी आवश्यकता पड़ेगी। यह सामूहिक समस्याओं के लिए भी आवश्यक होगा और व्यक्तिगत रूप से सत्प्रयोजनों में संलग्न व्यक्तित्वों को अग्रगामी-यशस्वी बनाने की दृष्टि से भी उचित होगा। हमें यह काम सौंपा गया है, तो उसे करने में आना-कानी कैसी? दिव्य सत्ता के संकेतों पर चिरकाल से चलते आ रहे हैं और जब तक आत्मबोध जाग्रत् रहेगा, तब तक यही स्थिति बनी रहेगी। यही गतिविधि चलेगी। यह विषम वेला है, इन दिनों दृश्य और अदृश्य क्षेत्र में जो विषाक्तता भरी हुई है, उसका परिशोधन प्रयास अविलम्ब आवश्यक हो गया है, तो संजीवनी बूटी लाने के लिए पर्वत उखाड़ लाने और सुषेण वैद्य की खोज में जाने के लिए जो भी करना पड़े, करना ही चाहिए। यह कार्य स्थूल शरीर से बनता न देखकर सूक्ष्म शरीर को प्रसुप्त से जाग्रत् स्थिति में लाने के लिए हमें अविलम्ब जुटना पड़ रहा है।
४. टालना ही होगा तीसरा विश्वयुद्ध
इन दिनों हमने अनेकानेक ऐसी गुत्थियाँ गूँथ ली हैं, जिनका इतिहास में कोई प्रमाण, उदाहरण नहीं मिलता। लगभग सभी मौलिक हैं। भले ही उनका आधारभूत कारण एक ही हो। उनके समाधान के लिए मौलिक सूझ-बूझ और मौलिक साहस की जरूरत पड़ेगी। पुरातन उदाहरण और समाधान इस सन्दर्भ में अधिक काम न आ सकेंगे। प्रस्तुत गुत्थियों में से एक-एक करके इस क्रम से विचार करें कि कौन अधिक भयावह है और किसकी प्रतिक्रिया अधिक विनाशकारी हो सकती है। इस क्रम में सम्भावित तृतीय विश्वयुद्घ की समस्या सबसे बड़ी है। पिछले दो युद्धों में अपने-अपने ढंग के विशेष आयुधों का विकास हुआ था। इस बार अणु शक्ति सबसे आगे है। अणु-बमों, उद्जन (हाइड्रोजन) बमों की चर्चा अत्यधिक होती है। यों उन्हीं के समानान्तर रासायनिक बम भी कम घातक नहीं हैं और इतनी अधिक संख्या में बन चुके हैं कि इनके प्रहार होने की सम्भावना निरंतर सामने रहती है। उनकी घातकता के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक बम से न्यूयार्क, मास्को, इंग्लैण्ड, पेरिस आदि में से किसी का भी कुछ ही सेकण्डों में सफाया हो सकता है। यदि वे लगातार एक मिनट तक चलते रहें, तो फिर संसार का एक भी महत्त्वपूर्ण नगर जीवित न बचेगा। इसके अतिरिक्त इनके कारण जो विषाक्तता फैलेगी, उसके कारण छोटे देहातों तक भी जीवन सुरक्षित न रहेगा। हवा, पानी और खाद्य में इतना विष घुल जायेगा, कि उसका आश्रय लेने वाले किसी की भी खैर न रहेगी। यदि यह बम कुछ और अधिक मात्रा में चलते रहे, तो पृथ्वी खण्ड-विखण्ड होकर उस चूरे के रूप में अन्तरिक्ष में उड़ने लगेगी, जैसा कि मंगल और बृहस्पति के बीच में अभी कोई कचरा चक्कर काटता रहता है। पिछले युद्धों में आमने-सामने लड़ने वालों की शामत आती थी, छावनियों और राहगीरों पर ही बम बरसते थे, अधिकांश युद्धरत ही मरते थे। अब की बार सीमाबन्धन भी समाप्त हुआ। परमाणु बमों, रासायनिक बमों की लपेट में ऐसे वनवासी आ सकते हैं, जिन्हें युद्ध से कुछ भी लेना-देना नहीं। विषाक्त हवा और विकिरण की चपेट से कोई भी, कहीं भी रहने वाला सुरक्षित नहीं। ऐसी दशा में समस्त संसार को युद्ध भूमि में खड़ा हुआ माना जा सकता है। इसमें लड़ने वाले, न लड़ने वाले, बाल-वृद्ध, मोर्चे से सैकड़ों मील दूर रहने वालों में से भी किसी की खैर नहीं।इस प्रकार इन पंक्तियों के पाठकों में से भी प्रत्येक के लिए उतना ही बड़ा संकट विद्यमान है, जितना कि अणु बम बनाने या चलाने वालों के लिए होता है। इसकी चपेट में पृथ्वी के मानवेतर प्राणी भी आते हैं और वृक्ष-वनस्पतियों का, जलाशयों का जीवन समाप्त हो जाने की भी पूरी-पूरी आशंका है। इतने बड़े पैमाने पर कोई बचाव का प्रबन्ध भी सम्भव नहीं। ढाल छोटी-सी होती है और वह शत्रु के प्रहार से मात्र सीने और सिर का कुछ भाग बचा सकती है। शेष अंग शत्रु की पकड़ से नहीं बचते। इस प्रकार अणु बमों की मार से खाईं-खन्दकों में बचाव छतरियों में कुछ सौ या हजार को बचा भी लिया जाय, तो भी उससे क्या बनेगा? निकलने के बाद भी उन्हें उसी विषाक्त संसार में साँस लेनी पड़ेगी। इतने भर से उनका भी सफाया हो जायेगा।
स्थिति की भयंकरता—
आज का यह संकट सबसे बड़ा है। भले ही वह प्रत्यक्ष आँखों के सामने खड़ा दीखता हो और तत्काल अपनी भयंकरता के प्रमाण प्रस्तुत न करता हो, तो भी यह निश्चित है कि किसी का भी जीवन या भविष्य सुरक्षित नहीं। कोई ऐसा अधपगला स्टोरकीपर इस बारूद के भण्डार में एक तीली फेंककर-बटन दबाकर वह दृश्य उपस्थित कर सकता है, जिसकी चर्चा इन पंक्तियों में की जा रही है। एक ओर आक्रमण हो और दूसरा चुप बैठा रहे, यह भी नहीं हो सकता। प्रश्न हलके-भारी आक्रमण का नहीं, उसका थोड़ा-सा प्रयोग भी सर्वनाश कर सकता है। उससे न शत्रु पक्ष के लोग बचने वाले हैं और न मित्र पक्ष के। पिछले युद्धों में यह कठिनाई नहीं थी, उसमें प्रति पक्षियों को मारने का ही ताना-बाना बुना जाता था, पर इसमें तो वैसा भेद भी नहीं हो सकता। वायु किसी क्षेत्र में सीमित नहीं रहती। विकिरण फैलने पर उसकी परिणति समस्त क्षेत्र को ही सहनी पड़ती है, भले ही उसमें मित्र-समुदाय ही क्यों न रहता हो? समस्त विश्व के प्रत्येक घटक को अपनी विभीषिका-परिधि में चपेटे हुए इस अणु युद्ध की सम्भावना को आज की महती समस्या माना जा सकता है एवं सर्व प्रमुख महत्त्व की भी।कुछ दिन पूर्व तक यह जखीरे रूस, अमेरिका के पास ही थे, पर अब वे फ्रांस, ब्रिटेन, चीन आदि के पास भी हैं। इसलिए कौन, कब, क्या कर बैठे? इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता है। इस विस्तार से गुत्थी उलझी ही है।समाधान सोचने से पूर्व इस संकट के उत्पन्न होने और बढ़ने के कारणों पर तनिक विचार कर लें, तो ठीक होगा। हिटलर हारा तो उसकी पोटली में से अणु बम का नुस्खा निकल आया। अमेरिका ने उसे विकसित किया और जापान के विरुद्ध उसका छोटा उपयोग भी कर लिया। जापान इस बड़े आघात के लिए तैयार न था, उसने आत्म समर्पण कर दिया। बात यहीं से आरंभ होती है। हर वरिष्ठ राष्ट्र के मुँह में पानी भर आया कि वह भी अपने प्रति पक्षियों के विरुद्ध यही चाल चल सकता है और उसे देखते-देखते नीचे दबा सकता है। जो कर सकते थे, उनने यह होड़ आरम्भ कर दी और रूस एवं अमेरिका इस निर्माण में औरों से आगे निकल गये। अब प्रमुख प्रतिद्वन्द्विता इन्हीं दो के बीच चल रही है। इन्हीं के दो खेमे अब बन गए हैं।
समाधान आसान नहीं है—
असमंजस इस बात का है कि न आगे बढ़ते बन पड़ रहा है, न पीछे हटते। आगे बढ़ते चलने में अनेक समस्याएँ सामने हैं। जितने बन चुके, वे प्रतिपक्षी को ही नहीं, समस्त संसार को धूल में मिला देने के लिए पर्याप्त हैं। फिर और अधिक बनाकर उनका क्या किया जाय? इतने पर भी यह प्रश्न सामने है कि इस कार्य में जितने कारखाने, जितने वैज्ञानिक लगे हुए हैं, उनका क्या हो? फिर शत्रु ने कोई और भी बड़ा आयुध निकाल लिया, तो पिछड़ जाने का जोखिम कौन मोल ले?बन्द करने पर दूसरा पक्ष जारी रखे रहा, तो अन्य प्रकार का ऐसा आयुध ढूँढ़ निकाला जा सकता है, जिसमें अब तक निर्माण छोटा साबित हो। ऐसी दशा में प्रतिद्वन्द्वियों का आतंक और पिछड़ जाने का भय दोनों ही ऐसे हैं, जो हाथ रोकने की सलाह नहीं देते।जारी रखने में यह प्रश्न है कि अब तक जो बन चुका उसका क्या होगा? इस कार्य पर जो असाधारण लागत लग रही है, वह कब तक लगती रहेगी। फिर प्रयोग में दस-पाँच आयुध ही आने के उपरान्त जो बचेंगे, उन्हें कहाँ रखा जायेगा? वे विकिरण फैलाते हैं और अन्त में कहीं-न समापन के लिए जगह माँगते हैं। इन भट्ठियों में से निकली हुई राख कितनी भयानक होती है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। निर्माण जारी रखने पर न केवल विनिर्मित निर्माण का, वरन् राख का भी सवाल है, जो उससे अधिक पेचीदा है।इन कारणों को देखते हुए लाभ इसमें है कि जापान जैसा प्रयोग कोई एक किसी दूसरे के विरुद्ध कर ले और तत्काल लाभ उठा ले। पर ऐसा कर सकना वर्तमान परिस्थितियों में सम्भव नहीं रहा। जापान के पास बदला लेने के साधन नहीं थे, पर आज तो कोई भी बदला ले सकता है। चीन, ईरान और इजराइल जैसे वैज्ञानिक प्रगति में पिछड़े समझे जाने वाले देश भी बदला लेने की स्थिति में हैं। फिर कोई किसी की सहायता पर भी तो आ सकता है। यही है वह असमंजस जिसके कारण प्रहार करने की हिम्मत भी नहीं पड़ती और पीछे हटने की जोखिम भी उठाये नहीं उठती। इस निर्माण कार्य में जो कारखाने और वैज्ञानिक विपुल पूँजी अपने पेट में समाये बैठे हैं, उस सबका क्या हो? आक्रमण से पूर्व अब बचाव का प्रश्न और अहम है। अपनी ओर से हाथ खींचें तो सामने वाला भी वैसा करेगा। इसका कोई भरोसा नहीं। जारी रखा जाय तो कैसे, कब तक? अभी कितनी और पूँजी इस गोरखधन्धे में लगानी पड़ेगी? वह आयेगी कहाँ से?आत्म रक्षा को महत्त्व देने वाली समर-नीति समझौतों की चर्चा की इजाजत नहीं देती। पुरानी बात अलग थी, जब आन-बान ही सब कुछ थी। अब मूँछें मरोड़ने और तत्काल उन्हें नीची कर लेने में किसी को संकोच नहीं लगता। ऐसी दशा में पहल होना भी कठिन है और हाथ रुकना भी उससे कठिन। क्रम यही चलता रहा, तो इस जखीरे का, उस कचरे-कूड़े का, उसमें लगे साधनों का क्या होगा? ये प्रश्न ऐसे हैं, जिनके उत्तर सरल नहीं हैं। जापान का उदाहरण देखकर जो कल्पनाएँ की गई थीं, वे हजारों मील दूर गईं।कोई भी राज हड़पना चाहता हो, सो बात भी नहीं है। कभी प्रजातन्त्र और साम्यवाद का नशा जोरों पर था। अपने मत का संसार बना लेने की झक कभी थी, इसलिए जिहाद बोल देने का भी जोश था। अब वह ठण्डा पड़ गया। अब प्रजातन्त्र, राजतन्त्र, साम्यवाद की मिली-जुली खिचड़ी पक रही है और सभी के मस्तिष्क राष्ट्रवादी संकीर्णता पर आकर अवरुद्ध हो गये हैं। अपने यहाँ कोई किसी सिद्धांत का पालन करे, तो दूसरे देशों में उसे चलना ही चाहिए। इसका किसी को आग्रह नहीं। ऐसी दशा में शासन पद्धति अपने हिसाब से बनाने के लिए कोई बाहरी देशों में जाकर युद्ध जैसी जोखिम उठाने को तैयार नहीं। शीत युद्ध में गुपचुप सहायता इस या उस पक्ष की करता रहे, यह बात दूसरी है। यह समस्त परिस्थितियाँ यह बताती हैं कि न महायुद्ध छेड़ना सरल है, न उससे हाथ खींचना। स्थिति को यथावत् बनाये रखना इतना खर्चीला है कि वह भी लम्बे समय तक इसी प्रकार चलते रहने नहीं दिया जा सकता। आखिरकार देने वाले भी इतना बोझ कब तक वहन करेंगे।जापान पर हमले के दिनों में सभी को वह प्रक्रिया बहुत लाभदायी लगी थी, पर अब वैसी बात नहीं रही। सभी पक्ष पीछे हटना चाहते हैं। जो अपने हाथ हैं, उसे बचाये रखने में ही खुशी देखते हैं। आक्रमण का जोश ठण्डा पड़ता जाता है, पर प्रतिपक्ष के प्रति अविश्वास और भय का भाव इतना अधिक बढ़ा हुआ है कि कोई निर्णय करते नहीं बन पड़ता। अब वायदों का कोई भी तो मूल्य नहीं रह गया है।
समाधान की दिशाधारा—
यह स्थिति का विश्लेषण हुआ। समाधान एक ही है कि पैर पीछे हटाना और हाथ समेटना पड़ेगा। इसके लिए भय, आशंका और आतंक इन तीनों का सामना करना पड़ेगा। एक पक्ष को जोखिम उठानी पड़ेगी। दोनों पक्ष सहमत हो जायें तब कहीं राजी-नामा हो, यह कठिन है। फिर वही राजी-नामा चलेगा, इसकी क्या गारण्टी है? यहाँ ऐसा आत्मबल उत्पन्न होने की आवश्यकता है, जो यह सोचने पर विवश कर दें कि युद्ध में नष्ट होने की अपेक्षा शान्ति के लिए पहल करने में जो जोखिम है, उसे उठाया जाए। गाँधी जी ने यही कर दिखाया था। अंग्रेजों की शक्ति असीम थी, वे सशस्त्र थे। दमन के द्वारा वे कुछ भी कर सकते थे। पर भयभीत रहकर कुछ न करने की अपेक्षा संकट मोल लेना और आपत्ति को चुनौती देना उन्होंने अंगीकार किया। लड़ाई बराबर की नहीं थी, तो भी वह जीती गयी और यह अनुभव किया गया कि नैतिकता का अपना पक्ष है, उसका अपना बल है। वह जिस पलड़े में भारी पड़े, उसके पराजित होने की संभावना कम रहती है। पर पराजय मिलेगी तो भी युद्ध विनाश की तुलना में कम ही रहेगी।यह समझदारी उत्पन्न करने के लिये हम अपनी सूक्ष्मीकरण द्वारा उपार्जित शक्ति का उपयोग करेंगे। दोनों को पीछे हटने के लिए दबाव डालेंगे और यह विश्वास किसी न किसी प्रकार करा सकेंगे कि आक्रमण की तुलना में पीछे हटने में बुद्धिमत्ता है। इस दबाव से आज का आक्रोश ठण्डा होगा। समझदारी और जिम्मेदारी का नया दौर चलेगा। गरम-युद्ध शीत-युद्ध में बदलेंगे और शीत-युद्ध उस स्थिति में जा पहुँचेंगे जिसे लम्बे समय के लिए-सदा के लिए युद्ध विराम के रूप में देखा जा सके।[समाधान कैसे होगा? इस संदर्भ में ये पंक्तियाँ जुलाई ८४ तक की अखण्ड ज्योति में छपी थीं। उस समय कोई उस प्रकार होने की कल्पना भी नहीं कर सकता था; परन्तु १९८७ में रसिया के राष्ट्रपति श्री गोर्वाचोव की एकतरफा पहल के बाद वैसा ही हुआ, जैसा युगऋषि ने घोषित किया था।]
५. मूर्धन्यों को झकझोरने वाला भगीरथ पुरुषार्थ
धरती पर रहने वाले मनुष्यों में से तीन चौथाई संख्या बालकों, असमर्थों एवं न कमाने वालों की है। इनके अतिरिक्त जो भी बचते हैं, उनमें बड़ा भाग उनका होता है, जिनकी दुनिया पेट-प्रजनन तक सीमित है। दिन गुजारने के अतिरिक्त न उनकी कोई महत्त्वाकांक्षा है, न क्षमता। धरती अधिकांश इन्हीं के भार से लदी है। जिसमें दूरदर्शी विवेकशीलता की मात्रा विद्यमान है, वस्तुतः उन्हीं को मनुष्य कहना सार्थक है। वे अपनी, समाज की समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने और उनके समाधान खोजने में सक्षम भी हैं।हमारी भावी क्षमता इसी समुदाय के लिए कार्यरत रहेगी। सूक्ष्मीकरण के उपरान्त जो भी कुछ कार्यक्षमता हस्तगत होगी, उसका उपयोग इस जाग्रत् समुदाय के निमित्त होगा। इन जाग्रतों में वे बालक भी सम्मिलित हैं, जो आयु या शरीर की दृष्टि से छोटे होते हुए भी भविष्य में कुछ करने की क्षमता पूर्वजन्मों से ही सँजोए हुए हैं। एक शब्द में हमारे कार्यक्षेत्र को जाग्रत् आत्माओं का समुदाय कह सकते हैं। हम इस वर्ग के पीछे लगेंगे और प्रयत्न करेंगे कि उनकी सहायता से स्रष्टा का वह प्रयोजन पूरा हो, जिसमें मनुष्य को अशुभ से बचाकर उज्ज्वल भविष्य तक घसीट ले जाया जाना है। उक्त मूर्धन्यों में संसार के भाग्य-विधाताओं की गणना होती है, जो संसार को अपनी उँगलियों पर नचाते हैं। इनमें चार स्तर के लोग हैं। एक वे जिन्हें राजनेता कहते हैं। दूसरे-वैज्ञानिक, तीसरे-धनाध्यक्ष, चौथे-मनीषी, जिनमें साहित्यकार, कलाकार से लेकर सेनापति तक के वे लोग आते हैं, जो अपनी प्रतिभा से परिस्थितियों को असाधारण रूप से प्रभावित करते हैं। सभी समस्याएँ इन्हीं चारों का समुदाय उपजाता है और चाहे तो समेट भी सकता है; पर ऐसा होता नहीं दिखता। युद्ध की दृष्टि से दो भागों में बँटी हुई दुनिया अब झगड़ते-झगड़ते इतनी समीप आ गई है कि किसी को भी पीछे हटना कठिन पड़ रहा है। विपक्षी दबोच ले, तो हम कहीं के भी न रहेंगे-यह डर खाये जा रहा है। साथ ही अर्थचक्र जिस ढर्रे पर घुमा दिया है, उसमें यही एक राह है कि जो चल रहा है वह चलते रहने दिया जाय। अन्यथा पूँजी व्यय हो जायेगी। कारखाने बन्द होंगे। बेकारी फैलेगी और उपद्रव होंगे।नयी सूझबूझ उभरेगी-इन असमंजसों का हल किसी को सूझ नहीं रहा है। न आगे बढ़ने में ठिकाना, न पीछे हटने में। ऐसी दशा में सर्वनाश के अतिरिक्त और क्या हल हो सकता है? यह ढूँढ़ना समझदारी का काम है। समय रहते यह प्रकट होगी। नये विकल्प सूझेंगे। पीछे हटने में भलाई लगेगी। विनाश-साधन बनाने के स्थान पर सृजन के लिए अभी नये निर्माण का क्षेत्र बहुत बड़ा खाली पड़ा है। उसकी ओर मुड़ने में, दिशा बदलने में वर्तमान ढर्रे में उलट-पुलट तो बहुत करनी पड़ेगी पर ऐसा नहीं है, जो न हो सके। यह कार्य चारों मूर्धन्यों के मनःक्षेत्र में यदि नयी सूझ-बूझ उदित हो, तो हो सकता है। वह होगी भी। शासनाध्यक्ष अपने ढंग से सोचेंगे और धनाध्यक्षों की पूँजी सुरक्षित रखने और बढ़ाने के लिये नये विकल्प ध्यान में आयेंगे। वैज्ञानिकों को नये मार्ग मिलेंगे। सूर्य-ऊर्जा का दोहन, समुद्र के खारे पानी को मीठा बनाना, खाद्य उत्पादन जैसे कितने ही काम ऐसे हैं जो वैज्ञानिकों द्वारा इन्हीं दिनों किये जाने चाहिए। अन्तरिक्ष यात्रा और सर्वनाशी आयुध बनाना उतना जरूरी नहीं है। इसी प्रकार साहित्यकारों, कलाकारों के लिए मानवी गरिमा को मान्यता देने वाली विचारणा एवं भाव संवेदना देने का बहुत बड़ा काम करने के लिए सूना पड़ा है। क्या आवश्यकता कि वे धनाध्यक्षों के लिए ‘कसाई के कूकर (कुत्ते)’ की भूमिका निबाहें और वह करें, जो न तो आवश्यक है और न ही शोभनीय। [प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति ‘कसाई के कूकर’ की भूमिका में क्यों रहे? इस वाक्य में युगऋषि की सूक्ष्म दृष्टि के साथ उनके अन्दर की पीड़ा की भी झलक मिलती है। बहेलिया जंगल के तेज दौड़ने वाले जानवरों को स्वयं नहीं पकड़ सकते। वे खास प्रजाति के कुत्ते पालते हैं, जो उन्हें पकड़कर बधिक का काम आसान कर देते हैं। उन कुत्तों की सहायता से वे बहेलिया जानवरों का शिकार करने में सफल हो जाता है, शेष का लाभ बधिक उठाता है। धनाध्यक्ष जनता की जेब से सीधे पैसा नहीं निकलवा सकते, वे विभिन्न प्रतिभा सम्पन्नों से यह काम करवाते हैं। उस शोषण की कमाई का एक अंश उन्हें देकर शेष लाभ वे स्वयं उठाते रहते हैं। यदि प्रतिभा सम्पन्न जनता के शोषण बनने के माध्यम से इनकार कर दें, तो उन्हें शायद अपनी थोड़ी सुविधाएँ कम करनी पड़ें, किन्तु शोषण में सहायक के पातकों आक्षेपों से बचकर अपनी गरिमा की रक्षा कर सकते हैं।]अगले दिनों इन चारों वर्गों में परस्पर फूट पड़ेगी। अभी तो मिलजुल कर काम कर रहे हैं और संयुक्त प्रयास से गाड़ी प्रलय युद्ध की ओर सरपट चाल से दौड़ रही है। पर अगले दिनों चारों घोड़े अपनी-अपनी मर्जी प्रकट करेंगे और अलग-अलग दिशा में चलने की सोचने लगेंगे और अपनी मर्जी के अनुरूप दिशा निर्धारित करेंगे, तो यह विनाश-तंत्र इस रूप में न रहेगा, जिसमें कि आज है।युुद्ध के उपरान्त दूसरी समस्या है, औद्योगीकरण की। विशालकाय यंत्रों ने जनता का शहरीकरण किया है और उसके कारण संकट भरी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। उपनिवेशवाद को उसी के कारण प्रोत्साहन मिला है। पूँजीवाद पनपा है। प्रदूषण के कारण सर्वत्र विष व्याप्त है। यह भी एक धीमा महायुुद्ध है जो चलता रहा, तो सर्वनाश किये बिना रुकेगा नहीं। भले ही अणु युद्ध की तुलना में देर लगे।हमारा प्रयत्न होगा कि सादगी आंदोलन चले। विकेन्द्रीकरण की बात सूझे। लोग हाथ से बनी वस्तुओं से काम चलाने की आदत डालें। फैशन छोड़ें। अपव्यय, ठाट-बाट के विरुद्ध जनता में घृणा-भाव उत्पन्न हो। लोग शहरों से विमुख हों। कस्बे पनपें। गाँधीजी ने स्वराज्य आंदोलन के साथ-साथ खादी को जोड़ा था। तब यह विचित्र लगता था। पर अब अर्थशास्त्र का दूरदर्शी विद्यार्थी यह स्वीकार करता है कि यदि शान्ति से रहना है, तो सादगी को जीवनचर्या में अविच्छिन्न स्थान देना पड़ेगा। बड़े कारखाने मात्र मशीन बनाने जैसे अनिवार्य प्रयोजनों के लिए रहें, पर उन्हें जन-जीवन की आवश्यकताओं के क्षेत्र में प्रवेश न करने दिया जाय। वस्त्र-उद्योग विशेषतया हथकरघों के लिए सुरक्षित रहें। दैनिक आवश्यकता की अन्यान्य वस्तुएँ गाँव में बनें। इस कार्य में शायद पूँजीपति और सरकारें सहमत न हों। तो भी यह सादगी की, हाथ उद्योग की, देहातों में लौटने की हवा जनसामान्य में प्रारम्भ करनी होगी। इसके बिना बेकारी का और कोई विकल्प नहीं। प्रदूषण से निपटने के लिए छोटे उद्योग, छोटे कारखाने, देहातों में चलाने से काम बन सकता है। खाली स्थानों पर पेड़ लगाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किये जायें, क्योंकि बढ़ते प्रदूषण से बचने के लिए वही एक कारगर उपचार है। वाहनों की द्रुतगामिता कम की जा सकती है। बैलगाड़ियाँ काम में लाई जा सकती हैं। बिजली से चलने वाले वाहन भी विनिर्मित हो सकते हैं। साइकिल युग तो लौटने ही वाला है।[समीक्षात्मक अध्ययन करने से यह तथ्य सामने उभर कर आते हैं कि युगऋषि द्वारा इस प्रकार की घोषणा करने के बाद सन् ८७-८८ से प्रतिभा शक्तियों के चिन्तन एवं प्रयासों की दिशाधारा में तेजी से परिवर्तन आया है। औद्योगीकरण से होने वाली हानियों के प्रति पर्यावरण संतुलन के प्रति जागरूकता बढ़ी है। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के स्थान पर जैविक कृषि, पशु ऊर्जा से चलने वाले उपकरणों के विकास की दिशा में प्रतिभाओं ने उल्लेखनीय कार्य कर दिखाया है। विकासशील देशों के वैज्ञानिकों ने विकसित देशों को पर्यावरण बिगड़ने वाली गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण रखने की चुनौतियाँ दी हैं। धन की अंधी दौड़ के रास्ते में मानवाधिकारों की रक्षा के जोरदार आग्रह उभरने लगे हैं।]शिक्षा क्रान्ति इन्हीं सिद्धान्तों पर अवलम्बित है। नौकरी के लिए उच्चशिक्षा प्राप्त करने की वर्तमान भेड़चाल ने युवा वर्ग को दिग्भ्रान्त, निराश एवं क्षुब्ध किया है। शिक्षा ऐसी हो जो दैनिक जीवन की सभी आवश्यकताओं की जानकारी दे। जो विशेषज्ञ बनने के इच्छुक हैं, वे उन विषयों को पढ़ें। सर्वसाधारण पर व्यर्थ भार न लदे।अभी तो समूची मानव-जाति अनेक टुकड़ों में बँटी है और विश्व परिवार का कोई सुयोग नहीं बन पड़ रहा है। पर वह दिन दूर नहीं, जब एक राष्ट्र, एक भाषा, एक संस्कृति और एक व्यवस्था इस संसार में चलेगी और विग्रह न्यायालयों द्वारा निपटाया जाया करेंगे। बड़े युद्धों की कहीं आवश्यकता नहीं पड़ेगी। स्थानीय झंझट पुलिस निपटा लिया करेगी। सामर्थ्य भर काम-आवश्यकतानुरूप दाम की जब अर्थ नीति चलेगी और विलास तथा संग्रह पर अंकुश रहेगा, तो अपराधों का आधारभूत कारण ही समाप्त हो जायेगा। चिंतन, चरित्र और व्यवहार में जब शिक्षा व्यवस्था तथा प्रचलन-परंपरा द्वारा आदर्शों के समावेश का भरपूर प्रयत्न रहेगा, तो कोई कारण नहीं कि उन जघन्य अपराधों का अस्तित्व बना रहे, जो आज सर्वत्र बेतरह छाए हुए हैं। जन-जन को आशंकित-आतंकित बनाये रहते हैं।राजनेता, धनाध्यक्ष, वैज्ञानिक, मनीषी-यह चार वर्ग जन-सामान्य की वर्तमान दुर्दशा के लिए उत्तरदायी हैं। इन चारों को ही व्यापक स्तर पर ढूँढ़ा, झकझोरा और कचोटा जाएगा। यह कार्य एक स्थूल शरीर से सम्भव नहीं हो पा रहा था। इसके लिए असंख्यों तक पहुँचने की आवश्यकता समझी गई। उसे अगले दिनों सूक्ष्म शरीर से सम्पन्न करके रहा जाएगा। उत्पादित सामर्थ्य और ईश्वरेच्छा का समन्वय इस कठिन कार्य को सरल बना दे, तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
६. दार्शनिकों-वैज्ञानिकों की दिशा बदलनी ही होगी
किसी समय मुनि, मनीषी और दार्शनिक समाज के सर्वाेच्च वर्ग में गिने जाते थे; क्योंकि उन्हीं के प्रतिपादन शासनाध्यक्षों तथा अन्यान्य विशिष्ट वर्गों को मान्य होते थे। उनकी अवज्ञा करने का दुस्साहस कोई करता नहीं था; क्योंकि समय के अनुरूप राह बताने और निर्धारण करने की उनकी क्षमता असाधारण भी होती थी और उनका वर्चस्व भी था।दार्शनिक इसी श्रेणी में आते थे। वे शास्त्र रचते थे और सामयिक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करते थे। प्रवचन के लिए व्यास पीठों पर उन्हीं का अधिकार था। राजा से लेकर रंक तक उनकी असामान्य मान्यता थी। आज भी यह वर्ग लेखकों, कवियों, कलाकारों के रूप में है तो सही, पर अपनी गरिमा गँवा बैठा है। उसका अपना न तो स्तर है, न लक्ष्य। इनमें से अधिकांश को धनाध्यक्षों की सेवा में चारणों की तरह निरत रहना पड़ता है। जो उनसे सोचने के लिए कहते हैं सो ही वे सोचते हैं, जो लिखने का निर्देश मिलता है सो ही लिखते हैं।चूँकि प्रेस प्रकाशन एक व्यवसाय बन गया है और व्यवसाय सदा धनिक चलाते हैं। जो संचालक है उसी की नीति भी चलेगी। इन दिनों अनेक पत्र-पत्रिकाएँ निकलती हैं। पुस्तकें भी छपती हैं। पर उनमें लेखक की अपनी कोई स्वतन्त्र आवाज नहीं। प्रकाशक को जिसमें अपना लाभ दीखता है, लेखक वही लिखता है; क्योंकि पैसा उसे अपने मालिक की मर्जी के अनुरूप लिखने को मिलता है। अब स्वतन्त्र लेखक रह नहीं गये हैं, जो अपनी मर्जी से लिखें। यदि मर्जी हो भी तो वह मालिक की मर्जी से भिन्न नहीं होनी चाहिए। अन्यथा मालिक ऐसे धन्धे में पैसा क्यों लगायेगा? जिसमें उसे लाभ नहीं दिखता। लेखक का अपना निज का कोई प्रेस नहीं। जो कहीं, जहाँ-तहाँ हैं, वे प्रतिस्पर्धा में ठहर न पाने के कारण लँगड़े-लूले—ज्यों करके चलते हैं। उन्हें न ग्राहक मिलते हैं और न खपत का जुगाड़ बनता है। ऐसी दशा में स्वतन्त्र प्रेस का अस्तित्व प्रायः नहीं के बराबर है। लेखक, चिन्तक या दार्शनिक अब घटते या मिटते जा रहे हैं।मनीषियों का दूसरा वर्ग वैज्ञानिकों का है। पुरातन काल में वैज्ञानिकों और दार्शनिकों की जिम्मेदारी एक ही वर्ग उठाता था। जिनकी रुचि भौतिक क्षेत्र में होती वे चरक, कणाद, नागार्जुन, याज्ञवल्क्य, द्रोणाचार्य आदि की तरह भौतिक अनुसन्धानों को हाथ में लेते थे। अन्यथा व्यास, कपिल, वसिष्ठ, गौतम की तरह युग दर्शन में नये अध्याय जोड़ते रहते थे।
प्रतिभा का भटकाव—
इन दिनों दोनों की ही दुर्गति हुई है। वैज्ञानिक आविष्कारकों की एक पीढ़ी बहुत ही प्रसिद्ध और कृतकृत्य हुई थी। उसने सामान्य योग्यता रहते हुए भी ऐसे आविष्कार किये थे, जिससे जन-साधारण को असीम और असाधारण लाभ पहुँचा। बिजली का आविष्कार उसमें सर्वाधिक महत्त्व का है। अब वह मनुष्य जीवन का अविच्छिन्न अंग बनकर रह रही है। इसके बाद वाहनों का नम्बर आता है। साइकिल से लेकर रेल, मोटर, जलयान, वायुयान इसी स्तर के हैं, जिनने लम्बी यात्राएँ सरल बना दीं। भार वहन का खर्च भी बहुत कम कर दिया। फलतः व्यापार तेजी से पनपने लगे। टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन की उपयोगिता ऐसी ही है। एक युग था जब मनुष्य जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने में वैज्ञानिकों ने— उनके आविष्कारों ने असाधारण सेवा-सहायता की। उत्पादन में काम आने वाले अनेक छोटे-बड़े यन्त्र भी ऐसे हैं, जिनके लिए मनुष्य जाति उनकी सदा कृतज्ञ रहेगी। कोल्हू, चक्की, पम्प आदि की गणना ऐसे ही संयन्त्रों में होती है।किन्तु वह वर्ग भी अपनी गरिमा दार्शनिकों की तरह अक्षुण्ण बनाये न रह सका। आविष्कारकों का अपना कोई उत्पादन क्षेत्र न था। उन्हें उत्पादक धनाध्यक्षों के लिए काम करने के लिए बाधित होना पड़ा। बात यहीं से गड़बड़ी की आरम्भ होती है। फिल्म-उद्योग लोकशिक्षण का एक उपयोगी माध्यम हो सकता था, पर उसके उत्पादनों को देखकर दुःख होता है। फिल्म दर्शक और साहित्य पाठक अन्ततः इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि यदि इनसे दूर रहते तो भ्रम जंजाल से बचकर कहीं अधिक नफे में रहते।इन दिनों प्रायः पचास हजार ऊँची श्रेणी के वैज्ञानिक मात्र युद्ध आयुध बनाने की नई-नई विधियाँ खोजने में निरत हैं। उन्हें इसके लिए पूरा सम्मान और पूरा पैसा दिया जा रहा है। इतना वे अन्यत्र कहीं नहीं पा सकते। इसलिए मौलिक चिन्तन के सुनियोजन का रास्ता ही बन्द है। सरलता और सुख-सुविधा हर किसी को प्रिय लगती है। चाहे दार्शनिक हो या वैज्ञानिक। स्थिति को देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि दोनों ही क्षेत्रों में मौलिक वैचारिकता समाप्त प्राय हो गई। दोनों को ही अपने मालिकों और धनाध्यक्षों के लिए काम करना पड़ रहा है।
इस दुर्गति से उबारना ही होगा—
यह दुर्भाग्य पूर्ण दुर्गति है। इससे उबरा कैसे जाय? उबारे कौन? वैज्ञानिकों के लिए कुटीर उद्योग से सम्बन्धित अगणित यन्त्र ऐसे बनाने के लिए पड़े हैं जिन्हें बनाया जा सके, तो असंख्यों को बेकारी से त्राण पाने का अवसर मिले और अभावजन्य कठिनाइयों से पीछा छूटे। घरेलू आटा चक्की, घरेलू तेल कोल्हू, घरेलू चरखा, करघा, लुहारी, बढ़ईगीरी की मशीनें, कुम्हार के चाक जैसे यन्त्र ऐसे निकल सकते हैं, जिनके सहारे सामान्य जीवन की सुविधा भी बढ़े और आमदनी भी। सस्ते पम्प सेटों की हर जगह आवश्यकता है। कागज बनाने का उद्योग हर देहात में चल सकता है। सूर्य की गर्मी से चालित भट्ठी एवं चूल्हे से मुफ्त में गरम पानी मिलने और वस्तुएँ पकाने-सुखाने का काम हो सकता है।इन सब कार्यों में अपने वैज्ञानिक पूरी तरह समर्थ हो सकते हैं और उन यन्त्रों के उत्पादन का एक नया बड़ा उद्योग चल सकता है। पर ऐसा कुछ हो नहीं रहा है। जो कुटीर उद्योग के नाम पर बना हुआ है वह इतना लँगड़ा, लूला है कि लगाने वालों की कमर तोड़कर उसे मजा चखा देता है। इन सभी उपकरणों के निर्माताओं का-अाविष्कारकों का पारस्परिक सहयोग यदि सच्चे मन से हुआ होता और उसके लिए आवश्यक पूँजी जुट सकी होती, प्रयोक्ताओं को व्यावहारिक शिक्षा मिल सकी होती, सहकारी माध्यमों से कच्चा माल देने और बनी वस्तुएँ लेने का, उपयुक्त मण्डियों में बेचने का यदि प्रबन्ध हुआ होता, तो परिस्थितियाँ कुछ और हुई होतीं। तब हम मात्र कृषि पर निर्भर न रहते। गोबर के अतिरिक्त दूसरे सस्ते वानस्पतिक खाद भी आविष्कृत कर रहे होते। पशुओं के लिए खेतों में सस्ती और अधिक फसल वर्ष भर देने वाली घास उगाते और पशुपालन घाटे का सौदा न रहा होता।[जागरूक पाठकगण यह निष्कर्ष आसानी से निकाल सकते हैं कि ९० के दशक से इस दिशा में पर्याप्त प्रयास हुए हैं तथा इक्कीसवीं सदी प्रारंभ होने तक काफी कुछ सफल शोध प्रयोग हुए हैं। जन सामान्य ने उक्त शोध प्रयोगों का लाभ उठाना शुरू कर दिया है।]शिकायतें कौन किसकी करे? पर गुंजाइश इस बात की पूरी-पूरी है कि देश को कुटीर उद्योग स्तर पर योजनाबद्ध ढंग से खड़ा किया जाय। यों चलने को तो यह सब कुछ अभी भी चल रहा है, पर उसे अपर्याप्त और असन्तोषजनक ही कहा जा सकता है। जापान जैसी लगन हमारे वैज्ञानिकों, निर्माताओं, उपभोक्ताओं की लगी होती, तो अपने देश के मनीषी ही इस क्षेत्र में चमत्कार करके दिखा सकते थे। पर बने कैसे? जबकि सबको अधिक कमाने की, हाथों-हाथ सुविधा समेटने की पड़ी है। प्रतिभाएँ विदेशों को-पूँजीवादी राष्ट्रों की ओर भागती चली जा रही हैं। कुटीर उद्योग जहाँ भी चल रहे हैं, घाटा दे रहे हैं। जिनने पैर बढ़ाया उनका जोश ठण्डा कर रहे हैं।यही बात दार्शनिकों-मनीषियों के सम्बन्ध में भी है। समय जिस तेजी से बढ़ा है, उसी तेजी से समस्याएँ भी उपजी तथा उलझी हैं। वे सभी अपने समाधान चाहती हैं-बुद्धि संगत, व्यावहारिक और तथ्यों पर निर्धारित। ऐसे मार्गदर्शन का साहित्य लिखा गया होता, छपता और पाठकों तक उचित मूल्य में पहुँचता तो कैसा अच्छा होता? पर दिखता इस क्षेत्र में भी अँधेरा ही है।पुस्तकों के नाम पर पहाड़ के बराबर हर दिन कागज काला होता है। पत्र-पत्रिकाएँ भी आये दिन एक गोदाम खाली कर देती हैं। वह छपता भी है और बिकता भी है। इसे कोई न कोई लिखता भी है पर आदि से अन्त तक इस मुद्रण-प्रकाशन की समीक्षा की जाय, तो निराशा ही हाथ लगती है।जिन व्यावहारिक जानकारियों की जन-साधारण को आवश्यकता है, क्या वे गम्भीरतापूर्वक सोची-समझी गई हैं और इन पर अपने पिछड़े देश की परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाते हुए कुछ ऐसा प्रस्तुतीकरण हुआ है, जिसे काम का कहा जा सके? अँगरेजी किताबों के पन्ने उलट-पुलट कर उनका भाषान्तर होता रहता है और लोग अपने नामों से छापते रहते हैं। कम समय में अधिक पारिश्रमिक प्राप्त करने की दृष्टि से यही तरीका सरल भी पड़ता है। अब उन मनीषियों की पीढ़ी मिटती चली जा रही है, जो जन समस्याओं पर सामयिक, व्यावहारिक एवं तथ्यपूर्ण प्रस्तुतीकरण अपना कर्तव्य समझते थे। अब वे कार्ल मार्क्स कहाँ हैं, जो सत्रह वर्ष की निरन्तर परिश्रम साधना कर एक ग्रन्थ लिखें। अब वे परिवार, पत्नी, बच्चे कहाँ हैं, जो पुराने कपड़ों को काटकर नये कपड़े बनायें और अपना पेट पालते हुए लेखक को अपनी तपस्या में लगा रहने दें।दार्शनिकों और वैज्ञानिकों का क्षेत्र सूना हो जाना अथवा उनका अपने स्तर से नीचे उतर आना, भटक जाना बहुत ही बुरी बात है। इस स्तर के ब्रह्मचेता लोग जब भटकते हैं और दिशा भ्रम देने वाला-हैरानी में धकेलने वाला कर्तृत्व रचते हैं, तो उसकी प्रतिक्रिया अत्यंत भयंकर होती है। पुराने जमाने में उन्हें ब्रह्मराक्षस कहा जाता था। अब वैसा कोई नया नामकरण हुआ है या नहीं, इसका पता नहीं, पर पीढ़ी निःसंदेह उन्हीं की बढ़ रही है। [युगऋषि बहुधा यह कहते रहे हैं कि यह देश ब्रह्म -राक्षसों द्वारा सताया गया है। इसका अर्थ होता है, ऐसे व्यक्ति जो प्रत्यक्ष ब्राह्मण दिखते हैं, किन्तु उनके परोक्ष कार्य राक्षसों जैसे हैं। देव संस्कृति में ब्राह्मण जन्म जाति से नहीं; गुण, कर्म के अनुसार माने जाते रहे हैं। ब्राह्मण का अर्थ होता है-ऐसा प्रतिभाशाली, आदर्शनिष्ठ व्यक्ति जिसने अपनी आवश्यकताएँ बहुत सीमित कर ली है तथा शेष पूरी सामर्थ्य लोकहित के लिए समर्पित कर दी है। लोगों को आध्यात्मिक जीवन की प्रेरणा देने, शिक्षा, चिकित्सा जैसे कार्य ब्राह्मणों के जिम्मे रहा करते थे। वे किसी कार्य को व्यवसाय नहीं बनाते थे, सेवा के बदले केवल सादगीपूर्ण निर्वाह भर लेते थे, इसलिए अपने महान दायित्व के साथ न्याय कर पाते थे।कालान्तर में वह परम्परा विकृत हुई। सेवा कार्य व्यवसाय बुद्धि से किये जाने लगे। लोभ-मोह में पड़कर ब्राह्मण कर्मी जनहित को भूलकर शासकों, सम्पन्नवानों के संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति करने लगे। शोषण उत्पीड़न के माध्यम बनकर तो ब्राह्मण दिखने वाले प्रतिभा सम्पन्न राक्षसी कार्यों में भागीदार बनने लगें, तो उन्हें ब्रह्मराक्षस कहा जाने लगा।]
पर्यवेक्षण के साथ सार्थक प्रयास—
यह वस्तुस्थिति का पर्यवेक्षण हुआ। इतने भर से बात क्या बनती है? समीक्षाएँ, भर्त्सनाएँ आये दिन होती रहती हैं। उन्हें एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। होना तो कुछ ऐसा चाहिए, जिससे काम बने। हम अब वही करने जा रहे हैं। वैज्ञानिक और दार्शनिक हमारी एक मुहिम में हैं। वैज्ञानिकों को भड़कायेंगे कि युद्ध के घातक शस्त्र बनाने में उनकी बुद्धि सहयोग देना बंद कर दे। गाड़ी अधर में लटक जाये। युद्धोन्माद ग्रस्त-दोनों पक्ष इसी फिराक में हैं कि उनके वैज्ञानिक ऐसे अमोघ उपाय निकाल लेंगे, जिससे अपनी जीत निश्चित रहे और सामने वाला अपंग होकर बैठा रहे। सूक्ष्मीकरण के उपरांत अब हम वैसा न होने देंगे। उच्चस्तरीय वैज्ञानिकों की प्रतिभा और सूझ-बूझ उन्हें वैसा न करने देगी। जैसा कि अपेक्षा की जा रही है। अब उनका मस्तिष्क ऐसे छोटे उपकरण बनाने की ओर लौटेगा, जिससे कुटीर उद्योगों को सहायता देने वाला नया माहौल उफन पड़े। इसका उदाहरण देने के लिए एक नमूना अपने सामने बनाकर जायेंगे। [युगऋषि ने शान्तिकुञ्ज में प्रतीकात्मक रूप में लोकसेवी (युग शिल्पी) के साथ कुटीर उद्योग प्रशिक्षण भी उन्हीं दिनों चालू कर दिया गया था। उनकी अनेक धाराएँ विकसित हो रही हैं। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में ग्राम स्वावलम्बन, ग्राम प्रबन्धन का पाठ्यक्रम भी चालू कर दिया गया है।]लेखकों, दार्शनिकों का अब एक नया वर्ग उठेगा, वह अपनी प्रतिभा के बलबूते एकाकी सोचने और एकाकी लिखने का प्रयत्न करेगा। उन्हें उद्देश्य में सहायता मिलेगी। मस्तिष्क के कपाट खुलते जायेंगे और उन्हें सूझ पड़ेगा कि इन दिनों क्या लिखने योग्य है? एक मात्र वही लिखा जाना है।क्या बिना सम्पन्न लोगों की सहायता लिये, बिना वर्तमान पुस्तक विक्रेताओं की मोटे मुनाफे की माँग पूरी किये, ऐसा हो सकता है कि जनसाधारण का उपयोगी लोक साहित्य लागत मूल्य पर छपने लगे और घर-घर तक पहुँचने लगे? हमारा विश्वास है कि यह असंभव नहीं है। समय अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिए रास्ता निकालेगा और छाये हुए अँधेरे में किसी चमकने वाले सितारे का प्रकाश दृष्टिगोचर होगा। दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों ही मुड़ेंगे। इन दिनों खदानों में से ऐसे नररत्न निकलेंगे, जो उलझी हुई समस्याओं को सुलझाने में आश्चर्यजनक योगदान दे सकें। ऐसी परिस्थितियाँ विनिर्मित करने में हमारा योगदान होगा, भले ही परोक्ष होने के कारण लोग इसे देख या समझ न सकें।
७. ऋषि-मनीषी के रूप में हमारी परोक्ष भूमिका
मनुष्य अपनी अंतःशक्ति के सहारे प्रसुप्त के प्रकटीकरण के द्वारा ऊँचा उठता है। यह जितना सही है, उतना ही यह भी मिथ्या नहीं है कि तप-तितिक्षा से प्रखर बनाया गया वातावरण, शिक्षा, सान्निध्य, सत्संग-परामर्श अनुकरण भी अपनी उतनी ही सशक्त भूमिका निभाता है। देखा जाता है कि किसी समुदाय में नितांत साधारण श्रेणी के सीमित सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्ति एक प्रचण्ड प्रवाह के सहारे असंभव पुरुषार्थ संभव कर दिखाते हैं। प्राचीन काल में मनीषी-मुनिगण यही भूमिका निभाते थे। वे युग साधना में निरत रह, लेखनी वाणी के सशक्त तंत्र के माध्यम से जनमानस के चिंतन को उभारते थे। ऐसी साधना अनेक उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों को जन्म देती थी-उनकी प्रसुप्त सामर्थ्य को उजागर कर उन्हें सही दिशा देकर समाज में वांछित परिवर्तन लाती थी। शरीर की दृष्टि से सामान्य दृष्टिगोचर होने वाले व्यक्ति भी प्रतिभा-कुशलता चिंतन की श्रेष्ठता से अभिपूरित देखे जाते थे।सर्वविदित है कि मुनि एवं ऋषि ये दो श्रेणियाँ अध्यात्म क्षेत्र की प्रतिभाओं में गिनी जाती रही हैं। ऋषि वह जो तपश्चर्या द्वारा काया का चेतनात्मक अनुसंधान कर उन निष्कर्षों से जनसमुदायों को लाभ पहुँचाये तथा मुनिगण वे कहलाते हैं, जो चिंतन-मनन और स्वाध्याय द्वारा जन मानस के परिष्कार की अहम भूमिका निभाते हैं। एक पवित्रता का प्रतीक है, तो दूसरा प्रखरता का। दोनों को ही तप साधना में निरत हो सूक्ष्मतम बनना पड़ता है, ताकि अपना स्वरूप और विराट् व्यापक बनाकर स्वयं को आत्मबल सम्पन्न कर वे युग चिंतन के प्रवाह को मरोड़-बदल सकें। मुनि जहाँ प्रत्यक्ष साधनों का प्रयोग करने की स्वतंत्रता रखते हैं, वहाँ ऋषियों के लिए यह अनिवार्य नहीं। वे अपने सूक्ष्मरूप में भी वातावरण को आंदोलित करते-सुसंस्कारिता बनाये रख सकते हैं। लोक व्यवहार में मनीषी शब्द का अर्थ प्रायः उस महाप्राज्ञ से लिया जाता है, जिसका मन उसके वश में हो। जो मन से नहीं संचालित होता, अपितु अपने विचारों द्वारा मन को चलाता है, उसे मनीषी एवं ऐसी प्रज्ञा को मनीषा कहा जाता है। प्रतिभाशाली, बुद्धिमान होना अलग बात है एवं पवित्र शुद्ध अंतःकरण रखते हुए बुद्धिमान होना दूसरी। यह कथन आज की परिस्थितियों में नितांत सही है। आज सम्पादक, बुद्धिजीवी, लेखक, अन्वेषक, प्रतिभाशाली वैज्ञानिक तो अनेकानेक हैं, देश-देशान्तरों में फैले पड़े हैं, लेकिन वे मनीषी नहीं हैं। क्यों? क्योंकि तपःशक्ति द्वारा अंतःशोधन द्वारा उन्होंने पवित्रता नहीं अर्जित की।
अनिवार्य है विचार क्रांति—
जैसा कि हम पूर्व में भी कह चुके हैं कि नवयुग यदि आयेगा, तो विचार शोधन द्वारा ही क्रांति होगी। वह लहू और लोहे से नहीं, विचारों की विचारों से काट द्वारा होगी, समाज का नवनिर्माण होगा तो वह सद्विचारों की प्रतिष्ठापना द्वारा ही संभव होगा। अभी तक जितनी मलिनता समाज में प्रविष्ट हुई है, वह बुद्धिमानों के माध्यम से ही हुई है। द्वेष, कलह, नस्लवाद, जातिवाद, व्यापक नरसंहार जैसे कार्यों में बुद्धिमानों ने ही अग्रणी भूमिका निभाई है। यदि वे सन्मार्गगामी होते, उनके अंतःकरण पवित्र होते, तपः ऊर्जा का संबल उन्हें मिला होता, तो उन्होंने विधेयात्मक चिंतन प्रवाह को जन्म दिया होता, सत्साहित्य रचा होता। ऐसे आन्दोलन चलाये होते। हिटलर ने जब नीत्से के सुपरमैन रूपी अधिनायक को अपने में साकार करने की इच्छा की, तो सर्वप्रथम सारे राष्ट्र के विचार प्रवाह को उस दिशा में मोड़ा। अध्यापक-वैज्ञानिक वर्ग नाजीवाद का कट्टर समर्थक बना, तो उसकी उस निषेधात्मक विचार साधना द्वारा जो उसने ‘मीन केम्फ’ के रूप में आरोपित की। बाद में सारे राष्ट्र के पाठ्यक्रम, अखबारों की धारा का मोड़ उसने उस दिशा में मोड़ दिया, जैसा कि वह चाहता था। जर्मन राष्ट्र नस्लवाद के अहं में सर्वश्रेष्ठ जाति का प्रतीक होने के गर्वोन्माद में उन्मत्त हो व्यापक नरसंहार कर स्वयं ध्वस्त हो गया। यह भी मनीषा के एक मोड़ की परिणति है, ऐसे मोड़ की जो सही दिशा में होता, तो ऐसे समर्थ सम्पन्न राष्ट्र को कहाँ से कहाँ ले जाता। कार्लमार्क्स ने सारे अभावों में जीवन जीते हुए अर्थशास्त्र रूपी ऐसे दर्शन को जन्म दिया जिसने समाज में क्रान्ति ला दी। पूँजीवादी किले ढहते चले गये एवं साम्राज्यवाद दो तिहाई धरती से समाप्त हो गया। ‘दास कैपिटल’ रूपी इस रचना ने एक नवयुग का शुभारम्भ किया। जिसमें श्रमिकों को अपने अधिकार मिलें एवं पूँजी के समान वितरण का वह अध्याय खुला, जिसमें करोड़ों व्यक्तियों को सुख-चैन की, स्वावलम्बन प्रधान जिन्दगी जी सकने की स्वतंत्रता मिली। [भारतीय संस्कृति में आर्थिक साम्यवाद को बहुत महत्त्व दिया जाता रहा है। ऋषि तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘॥ यावद् म्रियते जठरं, तत्वत् स्वत्वं हि देहिनाम्, यो अन्ये अभिमन्येत सस्तेनोदण्डमर्हति॥’’ अर्थात् देहधारी का नैतिक अधिकार इतना ही है कि वह अपने जीवन की रक्षा के लिए अपना पेट भर ले। जो उससे अधिक का मन बनाता है, वह चोरी करने वाले की तरह दण्डनीय है; किन्तु वर्तमान समय में तो विशेषकर यूरोप में तो किसी प्रकार धन कमाने को दूसरों का शोषण करके भी अपने लिए सुविधाएँ समेटने को भी उचित माना जाने लगा था। श्री कार्ल मार्क्स ने उसके विरुद्ध आवाज ही नहीं उठाई, उसके समानान्तर एक चुनौती पूर्व व्यवस्था की रूपरेखा भी प्रस्तुत की। शासन व्यवस्था के रूप में साम्यवाद भले असफल रहा हो, किन्तु साम्यवादी अर्थनीति को आज पूरे विश्व में मान्यता मिली है। ऐसे महान् क्रान्ति करने वाले कार्लमार्क्स को युगऋषि ने ऋषियों की श्रेणी में गिना है।]रूसों ने जिस प्रजातंत्र की नींव डाली थी, उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद के पक्षधर शोषकों की रीति-नीति ही उसकी प्रेरणा स्रोत होगी। मताधिकार की स्वतन्त्रता, बहुमत के आधार पर प्रतिनिधित्व का दर्शन विकसित न हुआ होता, यदि रूसो की विचारधारा ने व्यापक प्रभाव जन समुदाय पर न डाला होता। जिसकी लाठी-उसकी भैंस की नीति ही सब जगह चलती, कोई विरोध तक न कर पाता। जागीरदारों एवं उत्तराधिकारों के आधार पर राजा बनने वालों का ही वर्चस्व होता। इसे एक प्रकार की मनीषा प्रेरित क्रान्ति कहना चाहिए कि देखते-देखते उपनिवेश समाप्त हो गए, शोषक वर्ग का सफाया हो गया। इसी संदर्भ में हम कितनी ही बार लिंकन एवं लूथर किंग के साथ-साथ उस महिला हैरिएट स्टो का उल्लेख करते रहे हैं जिसकी कलम ने कालों को गुलामी के चंगुल से मुक्त कराया। प्रत्यक्षतः यह युगमनीषा की भूमिका है।[भारतीय इतिहास में इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि यहाँ अधिनायकवाद से लेकर प्रजातंत्र तक के विभिन्न प्रयोग होते रहे हैं। श्रीकृष्ण ने कंस के अधिनायकवाद को समाप्त करके यादवी गणतंत्र की स्थापना की थी। आचार्य चाणक्य के समय में भी लिच्छिमि, मालव, शूद्रक आदि गणतंत्रों का उल्लेख मिलता है; किन्तु कालान्तर में यह धारणा बन गई कि राजवंश तो अलग ही होते हैं। उन्हें तो प्रजा पर शासन करने के लिए ईश्वर ने बनाया है। इस प्रकार की भ्रान्त धारणाओं को खुली चुनौती देकर रूसो ने यह विचार जनमानस में बिठाया कि प्रजा की शासन व्यवस्था प्रजा के लिए, प्रजा द्वारा ही चलाई जा सकती है। आज यह प्रजातान्त्रिक पद्धति लगभग पूरे विश्व में लागू है।हैरिएट स्टो अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की समकालीन थी। उन्होंने अमेरिका में गुलाम प्रथा पर भावनात्मक आघात करते हुए एक उपन्यास लिखा था टाम काका की कुटिया (अंकल टॉम्स केबिन)। उसमें लेखिका ने पीड़ित गुलामों की वेदना को इस कुशलता से उभारा कि जनता ने उस व्यवस्था के प्रति खुला विद्रोह कर दिया था।]बुद्ध की विवेक एवं नीति-मत्ता पर आधारित विचार क्रान्ति एवं गाँधी-पटेल द्वारा पैदा की गयी स्वातन्त्र्य आन्दोलन की आँधी उस परोक्ष मनीषा की प्रतीक है, जिसने अपने समय में ऐसा प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न किया कि युग बदलता चला गया। उन्होंने कोई विचारोत्तेजक साहित्य रचा हो अथवा विशेष वक्तृता की हो, यह भी नहीं। फिर यह सब कैसे सम्भव हुआ? यह तभी हो पाया जब उन्होंने मुनि स्तर की भूमिका निभायी, स्वयं को तपाया, विचारों में शक्ति पैदा की एवं उससे वातावरण को प्रभावित किया।परिस्थितियाँ आज भी विषम हैं। वैभव और विनाश के झूले में झूल रही मानव जाति को उबारने के लिये आस्थाओं के मर्मस्थल तक पहुँचना होगा और मानवी गरिमा को उभारने, दूरदर्शी विवेकशीलता को जगाने वाला प्रचण्ड पुरुषार्थ करना होगा। साधन इस कार्य में कोई योगदान दे सकते हैं, यह सोचना भ्रांतिपूर्ण है। दुर्बल आस्था अन्तराल को तत्त्वदर्शन और साधना प्रयोग के उर्वरक की आवश्यकता है। अध्यात्मवेत्ता इस मरुस्थल की देख-भाल करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते व समय-समय पर संव्याप्त भ्रांतियों से मानवता को उबारते हैं। अध्यात्म की शक्ति विज्ञान से भी बड़ी है। अध्यात्म व्यक्ति के अन्तराल में विकृतियों के माहौल से लड़ सकने—निरस्त कर पाने में सक्षम तत्त्वों की प्रतिष्ठापना कर पाता है। हमने व्यक्तित्वों में पवित्रता व प्रखरता का समावेश करने के लिए मनीषा को ही अपना माध्यम बनाया एवं उज्ज्वल भविष्य का सपना देखा है।[सामान्य विचारशील लोग मनीषियों को समझाने की बात करते है। ऋषि कहते हैं कि वे ‘मनीषा’ को अपना माध्यम बना रहे हैं। ‘मनीषा’ अर्थात् वह विशिष्ट मानसिक क्षमता जिसके कारण व्यक्ति मनीषी बनते हैं। जैसे रेडियो फ्रीक्वेन्सी द्वारा एक साथ तमाम रेडियो-ट्रांजिस्टरों से प्रसारण किया जा सकता है, वैसे ही तप शक्ति मानवीय मानसिक चिंतन तरंगों को प्रभावित किया जाना संभव है। युगऋषि ने इसी विधा को अपनाया है।]
हमारी भावी भूमिका—
हमने अपने भावी जीवनक्रम के लिये जो महत्त्वपूर्ण निर्धारण किये हैं, उनमें सर्वोपरि है लोक-चिन्तन को सही दिशा देने हेतु एक ऐसा विचार प्रवाह खड़ा करना, जो किसी भी स्थिति में अवांछनीयताओं को टिकने ही न दे। आज जन समुदाय के मन-मस्तिष्क में जो दुर्मति घुस पड़ी है, उसी की परिणति ऐसी परिस्थितियों के रूप में नजर आती है, जिन्हें जटिल, भयावह समझा जा रहा है। ऐसे वातावरण को बदलने के लिये व्यास की तरह, बुद्ध, गाँधी, कार्लमार्क्स की तरह, मार्टिन लूथर, अरविन्द, महर्षि रमण की तरह भूमिका निभाने वाले मुनि व ऋषि के युग्म की आवश्यकता है, जो प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रयासों द्वारा विचार क्रान्ति का प्रयोजन पूरा कर सकें। यह पुरुषार्थ अन्तःक्षेत्र की प्रचण्ड तप साधना द्वारा ही सम्भव हो सकता है। इसका प्रत्यक्ष रूप युग मनीषा का हो सकता है, जो अपनी लेखनी की शक्ति द्वारा उस उत्कृष्ट स्तर का साहित्य रच सके, जिसे युगान्तरकारी कहा जा सकता है। अखण्ड ज्योति के माध्यम से जो संकल्प हमने आज से सैंतालीस वर्ष पूर्व लिया था, उसे अनवरत निभाते रहने का हमारा नैतिक दायित्व है।युगऋषि की भूमिका अपने परोक्ष रूप में निभाते हुए उन अनुसंधानों की पृष्ठभूमि बनाने का हमारा मन था, जो वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का प्रत्यक्ष रूप इस तर्क, तथ्य, प्रमाणों को आधार मानने वाले समुदाय के समक्ष रख सकें। आज चल रहे वैज्ञानिक अनुसंधान यदि उनसे कुछ दिशा लेकर सही मार्ग पर चल सकें, तो हमारा प्रयास सफल माना जायेगा।आत्मानुसन्धान के लिये अन्वेषण कार्य किस प्रकार चलना चाहिए? साधना, उपासना का वैज्ञानिक आधार क्या है? मनः शक्तियों के विकास में साधना उपचार किस प्रकार सहायक सिद्ध होते हैं? ऋषिकालीन आयुर्विज्ञान का पुनर्जीवन कर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को कैसे अक्षुण्ण बनाया जा सकता है? गायत्री की शब्द शक्ति एवं यज्ञाग्नि की ऊर्जा कैसे व्यक्ति को सामर्थ्यवान एवं पवित्र तथा काया को जीवनी शक्ति सम्पन्न बनाकर प्रतिकूलताओं से जूझने में समर्थ बना सकती है? ज्योतिर्विज्ञान के चिर पुरातन प्रयोगों के माध्यम से आज के परिप्रेक्ष्य में मानव समुदाय को कैसे लाभान्वित किया जा सकता है? ऐसे अनेकानेक पक्षों को हमने अथर्ववेदीय ऋषि परम्परा के अंतर्गत अपने शोध प्रयासों के अभिनव रूप में प्रस्तुत कर दिया है।[युगऋषि ने अध्यात्म विज्ञान की विभिन्न धाराओं को पदार्थ विज्ञान के माध्यम से समझाने, सिद्ध करने की एक बड़ी चुनौती स्वीकार करते हुए उक्त विषयों पर शोध के लिए ‘ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान को स्थापना प्रत्यक्ष रूप में सन् १९७९ में कर दी थी। लेकिन वे सूक्ष्मीकरण प्रयोग के इस कार्य को भी विविध धाराओं, में परोक्ष रूप से विकसित करने की व्यवस्था बनाते हैं। अगले पैराग्राफ में वे अपने इसी मन्तव्य को स्पष्ट करते हैं। सामयिक तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि उसके बाद विश्व मनीषा में आध्यात्मिक अभिरुचि तेजी से बढ़ी है और विभिन्न भूभागों में अनेक ढंग से जीवन में आध्यात्मिक सूत्रों को स्थान देने के प्रयास चल पड़े हैं।]हमने उनका शुभारम्भ कर बुद्धिजीवी समुदाय को एक दिशा दी है, आधार खड़ा किया है। परोक्ष रूप में हम उसे सतत पोषण देते रहेंगे। सारे वैज्ञानिक समुदाय का चिन्तन इस दिशा में चल पड़े, आत्मिकी के अनुसंधान में अपनी प्रज्ञा नियोजित कर वे स्वयं को धन्य बना सकें, ऐसा हमारा प्रयास रहेगा। सारी मानव जाति को अपनी मनीषा के द्वारा एवं शोध-अनुसंधान के निष्कर्षों के माध्यम से लाभान्वित करने का हमारा संकल्प सूक्ष्मीकरण तपश्चर्या की स्थिति में और भी प्रखर रूप लेगा, इसे आने वाला समय बतायेगा।
८. युग परिवर्तन—नियन्ता का सुनिश्चित आश्वासन
प्रस्तुत समय की समस्याओं की तुलना समुद्र में बहते रहने वाले उस हिम खण्ड से की जा सकती है जिसका लगभग १/१० भाग ऊपर तैरता दिखाई देता है एवं शेष पानी में डूबा अदृश्य बना रहता है। जो नाविक इस तथ्य से अनभिज्ञ होते हैं, वे अनजाने विशाल समुद्र में अपने जहाजों को इनसे टकरा देते हैं एवं जीवन तथा सम्पदा खो बैठते हैं। आज जो दृश्यमान है, वही सब कुछ है, यह सोचने की आत्म प्रवंचना हमें नहीं करना चाहिए।युद्धोन्माद, जघन्य स्तर के अपराध, पवित्र स्थलों का आश्रय लेकर धर्म के नाम पर हिंसा व अलगाववाद की दुहाई, सम्प्रदायवाद, जातीय आधार पर टिकी राजनीति के, राजघरानों के जमाने के षड्यंत्र एवं दुरभिसन्धियाँ बीसवीं सदी के इस सातवें-आठवें दशक की त्रासदी भरी कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। इन्हें देखते-देखते गत बीस-पच्चीस वर्षों में हम मोटी चमड़ी के हो गए हैं। अब हमें ये समस्याएँ नजर नहीं आतीं, जीवन का अभिन्न अंग लगती हैं। लेकिन जो भुक्त भोगी हैं, वे बहुसंख्यक हैं एवं वे समस्याओं का समाधान किसी भी स्थिति में चाहते हैं कि विश्व-वसुधा की नैया युग विभीषिकाओं के इस आइसवर्ग से टकरा-टकरा कर चूर-चूर हो जाए।नियन्ता भी यह नहीं चाहता। चाहता होता तो सृष्टि रचता ही क्यों? उस परम सत्ता की एक ही इच्छा है कि मानवी पराक्रम-आत्मबल स्वयमेव उभरकर आए और इन विध्वंसक शक्तियों से मोर्चा ले। श्रुति का कथन सच है कि आत्मबल का पूरक परमात्मबल है। वह परमसत्ता तभी अपनी भूमिका निभाने आगे आती है, जब मनुष्य अपने सारे प्रयास करके थक जाता है एवं रक्षा हेतु गुहार लगाता है।
स्थिति बहुत गंभीर है—
जो समझदार हैं, वे समय की इस विषमता को भली-भाँति समझते हैं। वे जानते हैं कि बड़े राष्ट्रों द्वारा अस्त्र एकत्र कर लेने का अर्थ है-सामूहिक आत्मघात। बढ़ती जनसंख्या एवं संव्याप्त प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रदूषण की परिणति भी वे जानते व भली-भाँति समझते हैं। वे इस तथ्य से भी अवगत हैं कि पूँजी के आधार पर विलासिता की पृष्ठभूमि पर एवं चिन्तन को विकृत कर देने वाले साधनों के बलबूते यह विश्व तकनीकी दृष्टि से कितना भी बढ़ा-चढ़ा होने पर भी वस्तुतः विनाश को ही प्राप्त होगा।इस सम्बन्ध में द्वितीय विश्व युद्ध के समय फ्रांस के आश्चर्यजनक पतन का प्रसंग उल्लेखनीय है। जर्मनी के खूँखार डिक्टेटर हिटलर ने जब नस्लवाद के नाम पर अपनी विनाश लीला का आरंभ किया, तब पोलैण्ड को तो उसने पहले ही दाँव में धूर्त्तता से हथिया लिया। उसके समक्ष एक विस्तृत साम्राज्य फ्रांस का था, जिसे हस्तगत करने पर विश्व विजय की उसकी सबसे बड़ी बाधा दूर हो जाती। विदेशी आक्रामकों के बर्बर इरादों से अनभिज्ञ फ्रांसीसी सुरक्षा के स्थान पर विलासिता के मद में चूर बने हुए थे। हिटलर ने अपनी शक्ति, सैनिक बल, धन इस कार्य में अधिक नष्ट करना उचित न समझा। सुरा-सुन्दरी के नशे में डूबे फ्रांसीसियों ने मात्र चौबीस घण्टे में आत्मसमर्पण कर दिया और हिटलर फ्रांस में अपना झण्डा फहराकर नये मोर्चे की तैयारी करने लगा। तत्कालीन विचारकों ने चिन्तन करने पर पाया कि आत्मबल की दृष्टि से हीन, खोखले नागरिकों को जीता नहीं गया, उन्होंने स्वयं आत्मसमर्पण कर दिया।जिन्हें भगवान् ने थोड़ी भी समझ दी है वे भली-भाँति जानते हैं कि आज सारे विश्व की स्थिति लगभग वैसी ही है जैसे द्वितीय विश्व युद्ध के समय थी। राष्ट्रीयता, नैतिक अनुशासन मात्र किताबों में लिखने के लिये रह गया है। अश्लील साहित्य हमारे अपने ही देश में नहीं, सारे विश्व में इतनी बड़ी मात्रा में छपता व नित्य पढ़ा जाता है, जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। नशीली दवाओं की खपत नित्य बढ़ती चली जा रही है। हशीश, कोकीन, चरस, हिरोइन जैसी घातक-मादक वस्तुओं की एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे देश में तस्करी का ऐसा जाल बिछा हुआ है जो तोड़ने में नहीं टूटता। फिल्मों ने ऐसे अवसर पर एक उत्प्रेरक (केटेलिस्ट) की भूमिका निभाने का दायित्व उठाया है। वे अपराधों, कामुकता, व्यभिचार, उच्छृंखलता एवं आत्मघाती उन्मादी मनोवृत्ति को जन्म देने वाली प्रवृत्तियों को ही प्रश्रय देती नजर आती हैं।समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने भी मानो नैतिक अनुशासन के पतन में भागीदार बनने का दायित्व अपने हाथों में ले लिया है। मात्र वे ही समाचार प्रकाश में आते हैं, जिनसे अन्यों को उन्हीं (पतनोन्मुखों) का अनुकरण करने की प्रेरणा मिले। राज्य प्रमुखों-राष्ट्राध्यक्षों कर्मचारी वर्गों में ईमानदारी का अंश उतना ही है जितना कि पानी मिले दूध में घी का हो सकता है। वे एक ओर देश भक्ति की दुहाई देते दिखाई देते हैं, दूसरी ओर क्षेत्रवाद, जातिवाद का नारा लगाते दिखते हैं। आज एक दल में हैं, तो कल अन्तरात्मा की पुकार पर दूसरे दल में पहुँचकर निष्ठावान् होने की शपथ गीता पर हाथ रखकर लेते हैं। एक वर्ग उनका रह जाता है, जिन्हें हम अर्थतन्त्र की बागडोर सँभालने वाले पूँजीपति नाम दे सकते हैं। अपनी मनमर्जी से, मिलावट, रिश्वतखोरी का आश्रय लेकर चरित्रहीन व्यक्ति धन-कुबेर बने बैठे उन सभी को अँगूठा दिखाते नजर आते हैं, जो दिन भर मेहनत कर आधा पेट भरने लायक रोटी भी नहीं कमा पाते।
यह परिस्थितियाँ बदलेंगी—
अब यह स्थिति अधिक दिन चलने वाली नहीं है। भले ही बहुसंख्यक व्यक्तियों की स्थिति उन बकरों की तरह हो, जिन्हें कसाई गृह ले-जाने के पूर्व घास खिलाई जा रही हो एवं वे आगत के प्रति अनभिज्ञ हों। एक ऐसा वर्ग भी है जो भले-बुरे परिणामों को समझता व विश्व के नव निर्माण हेतु अपना पुरुषार्थ जुटाता है। भले ही इसमें उन्हें तात्कालिक हानि दिखाई पड़े, वे विषम परिस्थितियों से जूझने हेतु विलम्ब न कर मोर्चा जुटाते एवं ऐसी रणनीति बनाते हैं; जिससे अनीति, अभाव एवं अज्ञान मिटें, सतयुगी प्रकाश धरती पर आए।भारतभूमि सदा से युग परिवर्तन की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती आयी है। समय-समय पर पूर्वानुमानों एवं दिव्य दृष्टि के आधार पर अपना मत व्यक्त करने वाले देश-विदेश के मनीषियों ने कहा है कि जब-जब भी दैवी विपत्तियाँ बढ़ी हैं एवं मानव आसुरी आचरण में प्रवृत्त हुआ है, इस देवभूमि में उद्भूत दिव्यात्माओं ने ही युग-परिवर्तन की महती भूमिका निभाई है। स्वतन्त्रता संग्राम में जितना श्रेय प्रत्यक्ष क्रियाशील क्रान्तिकारियों एवं स्वाधीनता सैनिकों को दिया जाता है, उससे अधिक इन दिव्य दृष्टि सम्पन्न व्यक्तियों ने उन सिद्ध महापुरुषों को दिया है जिन्होंने वातावरण बनाने हेतु तप-साधना की, परोक्ष में क्रियाशील रहे एवं युग परिवर्तन की प्रचण्ड आँधियाँ ला सकने में समर्थ हुए। रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द से लेकर रामतीर्थ, योगीराज अरविन्द, महर्षि रमण आदि का नाम इसी सन्दर्भ में लिया जाता है। जिनके नाम इस सूची में नहीं हैं, वे सदा से उत्तराखण्ड की कन्दराओं में तप साधना में निरत हैं एवं उस सारे लीला संदोह को देख रहे हैं, जो परोक्ष में दृश्यमान है, प्रत्यक्ष में घटने वाला है।
यह कठिन है पर असंभव नहीं—
परिवर्तन शब्द कहने-सुनने में सरल है, रुचिकर भी है, अभीष्ट भी। किन्तु विडम्बना एक ही है कि लगभग असम्भव तो नहीं, किन्तु कष्ट साध्य इस प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिये न तो साधन जुटाने से काम चल सकता है, न तो अनथक परिश्रम से कोई प्रयोजन सध सकता है। इस प्रयोजन की पूर्ति हेतु तो आदर्शवादी श्रद्धा का उथला नहीें गहरा स्तर चाहिए। यह जब तक न होगा सारे बाह्योपचार निरर्थक हैं। युग बदल सकने में समर्थ इस बहुमूल्य पूँजी का भाण्डागार मानवी व्यक्तित्व के गहन अन्तराल में छिपा पड़ा है जिसे कुरेदने, उभारकर प्रखर बनाने की आवश्यकता है। यही समस्त समस्याओं का समाधान है। यदि आस्थाओं में आमूल-चूल परिवर्तन हो, उनका सुनियोजन भी हो गया, तो मानना चाहिये कि श्रुति की मान्यतानुसार कलियुग चला गया एवं सतयुग का पदार्पण हो गया।हम इसी आशावादी दृष्टिकोण के साथ उन चिरायु तपस्वी ऋषियों की युग साधना में सहभागी बने हैं कि नवयुग अवश्य आयेगा। वह श्रद्धायुग कहा जायेगा। आस्थाओं के स्तर के मीटर के आधार पर ही किसी की महानता-क्षुद्रता का मूल्यांकन किया जायेगा। महाप्रज्ञा का तत्त्वदर्शन जन-जन के मन-मन में प्रविष्ट होगा एवं विवेक का सारथी उन मूर्धन्यों की ज्ञानेन्द्रियों का संचालन करेगा; जिनके हाथों में अर्थ, सुरक्षा, शासन एवं विचार तंत्र है। सूक्ष्मीकरण साधना के इस पुरुषार्थ के बलबूते ही हम यह कह सकते हैं कि छोटे-छोटे अकिंचन माने जाने वाले मनुष्य इतनी समर्थ भूमिका निभायेंगे कि पर्वत जैसी अवांछनीयताओं को उलट पाना एवं स्वाति नक्षत्र की वर्षा जैसी सत्प्रवृत्तियों का नन्दन वन उगा सकना सम्भव हो सके। जो समर्थ होता है, वही यह पुरुषार्थ कर दिखाने का दावा कर सकता है। [युगऋषि ने यहाँ लिखा है कि वे चिरायु तपस्वी ऋषियों की युग साधना में भागीदार बने हैं। इस सन्दर्भ में विवरण जानने के लिए ‘हमारी वसीयत और विरासत’ पुस्तक का अध्ययन किया जा सकता है।]विचार-क्रान्ति शब्द तो अच्छा है, किन्तु व्यवहार में इसे प्रयुक्त कर दिखाने के लिये एक समर्थ, दैवी तन्त्र का संरक्षण चाहिए। हमारा दावा है कि असम्भव को सम्भव कर दिखाने का यह पुरुषार्थ आगामी कुछ दशकों में सम्पन्न होकर रहेगा। विवेक और श्रद्धा के जिस समन्वित ऋतम्भरा रूप का आद्यशक्ति का हमने अवलम्बन लिया है, उसमें लाखों-करोड़ों को अपना सहभागी बनाया है। प्रत्यक्ष जितना किया जा सकता था, हो चुका। वह पृष्ठभूमि तैयार हो गयी, जो नियन्ता को अभीष्ट थी। अब राष्ट्रीय नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ग्लोबल क्राइसिस के निवारणार्थ परोक्ष भूमिका ही अभीष्ट थी। मौन-नितान्त एकाकी पुरुषार्थ क्या कुछ कर सकेगा, अन्त में श्रद्धा का बीजारोपण कर कैसे वांछित प्रयोजन पूरा कर सकेगा? इसे विश्व स्तर पर देखा जा सकना अगले दिनों सम्भव होगा। इतिहास भी इस तथ्य का साक्षी है कि जब-जब भी बिगाड़ बेकाबू हुआ है, उसे नियंत्रित करने हेतु महाकाल रूपी महावतों की मार ही सफल हो पाई है। प्रकारान्तर से इसे भगवान् के अवतार की संज्ञा भी दी जा सकती है। अदृश्य युग प्रवाह का विनिर्मित होना ही प्रज्ञावतरण है। समझ जब काम नहीं करती, तब अदृश्य जगत् से-परोक्ष के व्यवस्था उपक्रम से यह अपेक्षा की जाती है कि इस धरित्री को महाविनाश के गर्त में जाने नहीं देगा। जिसकी इच्छा से इस सृष्टि का प्रारूप बना व मानव रूपी युवराज जन्मा, उसे जगती का वर्तमान चोला ही पसन्द है, यह सोचना नासमझी है। नियन्ता ने सदैव सन्तुलन स्थापित करने हेतु दौड़ लगाने का अपना वचन निबाहा है।इन दिनों भले ही प्रत्यक्ष में तमिस्रा का व्यापक साम्राज्य संव्याप्त नजर आता हो। वह दैवी सत्ता निराकार रूप में ही देखते-देखते एक छोटा सा सूरज उगाकर सारी परिस्थितियाँ उलट सकती है। हरीतिमा रहित ठूँठों पर वासन्ती बहार ला देना उसके लिए बायें हाथ का खेल है। इसके लिए ऋषि-महामानव सदा-सदा से ही अवतरित होते रहे हैं। वर्तमान क्रिया-कलापों में उस दैवी चेतना के सक्रिय क्रियान्वयन को ज्ञान-चक्षुओं द्वारा देखा जा सकता है। अन्यथा वह उमंग कैसे उठती, जिसने इस दैवी मिशन को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया? जो इतना समझते हैं, वे इस आश्वासन को भी सुनिश्चित समझें कि समय बदलेगा, नासमझी का स्थान विवेकशीलता लेगी और समग्र सूत्र-संचालन सोये* मूर्धन्यों के हाथों से निकलकर जाग्रत् आत्माओं के हाथों में आयेगा। हमारी अन्तर्मुखी-एकाकी साधना को उसी दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जा सकता है।[* सोये मूर्धन्यों से मतलब है, ऐसे प्रभावी लोग जिनमें प्रतिभा तो है, परन्तु वे अपने नैतिक दायित्वों के प्रति जागरूक नहीं हैं। जाग्रत् आत्मा वे जो अपनी अंतरंग जागृति के कारण ईश्वरीय निर्देशों को सुनने तथा क्रियान्वित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।]
९. सत्पात्रों को हमारे वर्चस् का बल मिलेगा
पिछले पृष्ठों पर जिन मूर्धन्य वर्गों के माध्यम से क्या कुछ किया जाना है, किया जा रहा है, उसका संक्षिप्त ऊहापोह हुआ है। अपना निज का संबंध अदृश्य जगत् का एक विशाल परिकर है। यह किस प्रकार क्या करेगा? इसकी चर्चा से सर्वसाधारण को यह विदित हो सकेगा कि भावी महान परिवर्तन में वे किस-किस प्रकार अपनी भूमिकाएँ सम्पन्न कर सकेंगे।इसी प्रकार दूसरा परिकर वरिष्ठों का है जिसमें शासनाध्यक्ष और मनीषी आते हैं। मनीषियों में दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों की ही गणना होती है। इन्हें विशेष रूप से शक्तिशाली माना जाता है और यह आशा की जाती है कि वे जिस प्रकार समाज के अन्यान्य लोगों को प्रभावित करते हैं उसी प्रकार सामयिक समस्याओं के समाधान में भी अपना योगदान प्रस्तुत करेंगे, तो किसी प्रकार उनसे बलपूर्वक कराया जाएगा।परोक्ष जगत्, जहाँ अदृश्य आत्माएँ रहती हैं, जिनके सहचर सहयोगी हम बनने जा रहे हैं, को छोड़ दिया जाय तो अब एक वर्ग और रह जाता है जाग्रत् आत्माओं का। इन्हें युग प्रहरी, अग्रगामी, वर्चस्व सम्पन्न आदि नाम भी दिए जाते रहे हैं। यह समाज का मेरुदंड है जो अपनी सत्ता एवं प्रभुता का परिचय हर जगह देता है। समाज के सभी सुधारात्मक एवं निर्माणात्मक कार्य इसी के बलबूते संपन्न होते हैं।
उपयोगी वर्ग को उभारना है—
बड़े आदमी और दरिद्र दोनों ही एक प्रकार से निरर्थक गिने जाने योग्य हैं। बड़ों की तृष्णाएँ इतनी बढ़ी-चढ़ी होती हैं कि उन्हें अपने गोरखधंधे के बाहर की कोई बात सोचने तक का अवसर नहीं मिलता। कर पाना तो बाद की बात है। संग्रह, विलास, प्रदर्शन यही इतने भारी पड़ते हैं कि उनका भार वहन करने के उपरान्त और कुछ कर सकने की स्थिति में ही वे नहीं रहते। कुछ करना भी चाहें तो इर्द-गिर्द घिरी हुई चाण्डाल-चौकड़ी उन्हें चंगुल से न निकलने देने में सावधान रहती है और किसी ऐसे काम में हाथ नहीं डालने देती, जिसका अंतिम परिणाम उन्हीं का पत्ता काटने के रूप में सामने आए।दरिद्रों का कहना ही क्या? वे पहले से इतना लम्बा चौड़ा और कुसंस्कारी परिवार जमा कर चुके होते हैं कि जिसके लिए उदरपूर्ति तक कठिन पड़ती है। अन्न, वस्त्र तक के साधन नहीं जुट पाते, शिक्षा, चिकित्सा आदि के प्रसंग आने पर लाले पड़े रहते हैं। अतिथि सत्कार और विवाह शादियों के खर्च और भी रही बची कमर तोड़ डालते हैं। वे अपने लिए ही जिस-तिस की सहायता चाहते रहते हैं। फिर आदर्शों के परिपालन में, सत्प्रवृत्तियों के परिपोषण में वे किस प्रकार, क्या कर पायेंगे?निश्चित ही दोनों वर्ग, समाज के लिए समान रूप से निरर्थक और भारभूत हैं, बहुत ऊँचे भी बहुत नीचे भी। काम का समुदाय मध्यम वर्ग होता है। उसे ही थोड़ा अवकाश भी रहता है, थोड़े साधन भी बचते हैं। दीन-दुनिया की ओर ध्यान दे सकना उसी के लिए संभव भी होता है। यहाँ इस मध्यम वर्ग में से उनकी चर्चा की जा रही है जिसे विचारशील, भावनाशील लोकहित के प्रयोजनों में रुचि लेने वाला कहा जा सके। जाति-वंश से कोई मतलब नहीं, सभी ऐसे नहीं होते, किन्तु इतिहास का लम्बा अध्ययन करने के उपरान्त इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा-साधना में मध्यवर्ती समुदाय के लोग ही काम आए हैं।उनमें भी प्रौढ़ स्थिति को प्राप्त व्यक्ति। लड़के नई जवानी में अस्थिर रहते, उनमें जोश तो होता है, पर होश नहीं। अनुभव की कमी से वे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन जैसे कार्यों को उतना नहीं कर पाते, जितना अभीष्ट होता है। यही बात बुड्ढों के सम्बन्ध में भी है। ढलती आयु में शारीरिक-मानसिक क्षमताएँ चुकने लगती हैं। तब दूसरों का सहारा ताकना पड़ता है। फिर गृहस्थी के कितने ही काम लिपटे-चिपटे होते हैं। आदतों के अभ्यस्त ढर्रे को बदलना उनके लिए भी कठिन पड़ता है। मध्यवर्ती स्थिति के मध्य आयु के व्यक्ति ही प्रायः ऐसे आदर्शवादी कार्यों में कुछ शौर्य पराक्रम दिखा पाते हैं, जिनकी इन पंक्तियों में चर्चा हो रही है।हमारा विश्वास है कि यह शक्ति समुदाय समूचे संसार में फैला पड़ा है। धर्म, सम्प्रदायों, भाषाओं एवं देशों के विभाजन ने मनुष्य को एक दूसरे से बहुत हद तक अलग अवश्य कर दिया है, तो भी हम देखते हैं कि समझदारी का माद्दा अभी भी उस समुदाय में अधिक है और वह इस आड़े समय में कुछ कहने लायक भूमिका निभा सकता है।प्रज्ञा परिवार में कोई बीस लाख के लगभग सदस्य हैं, जिसमें से अधिकांश भारतवर्ष में हैं और हिन्दू धर्मानुयायी हैं। किन्तु यह मध्यम वर्ग तो समस्त विश्व में फैला हुआ है, जिसके साथ अभी हम प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं साध सके। न अपना साहित्य उन तक पहुँचा है और न ही उन्हें इस विचारधारा से अवगत होने का अवसर मिला है। सीमित साधनों में यह संभव भी नहीं था। अब अभीष्ट साधनों की उपलब्धि होने से इस समुदाय के साथ हम सघन संपर्क बना सकेंगे। आवश्यक नहीं कि इसके लिए प्रज्ञा अभियान का, गायत्री परिवार का नाम वे जानें, पर वे निश्चित रूप से यह अनुभव करेंगे कि कहीं से-किन्हीं के माध्यम से ऐसी विचार धारा बहती हुई आती है, जो उन्हें अनायास ही अपनी लपेट में लेती है। कुछ कहती है और कुछ करने के लिए मजबूर करती है।[प्रज्ञा परिवार कोई संस्था नहीं है। जिसकी सदस्यता के लिए कोई फार्म या शुल्क निश्चित है। यह तो विचार परिवार है, अन्तःप्रेरणा से ऋषि अनुशासनों को स्वीकार करते हुए परस्पर सहयोगपूर्वक नवसृजन के ईश्वरीय उद्देश्य की दिशा में बढ़ते-बढ़ाते रहते हैं। उक्त पंक्तियाँ लिखी जाने के समय उनकी अनुमानित संख्या २० लाख के लगभग थी, अब वह संख्या करोड़ों में पहुँच गई है। यहाँ युगऋषि वह भी स्पष्ट कर रहे हैं कि देश और संगठन विशेष की सीमाओं को लाँघ कर सत्पात्रों को नवसृजन में भागीदारी के लिए प्रेरित करेंगे, भले ही वे प्रत्यक्ष रूप में इस अभियान से परिचित न भी हों। सन् २००० के बाद से ऐसा होता बहुत कुछ घटित होता अनुमान किया जा रहा है]इस वर्ग के पास अपने निज के साधन नहीं होते, तो भी वे निज की प्रतिभा द्वारा साधन सम्पन्नों को प्रभावित कर लेते हैं और उन्हें सहयोग देने के लिए उत्साहित उत्तेजित करते हैं। साधन संपन्न एक तरह के छकड़े के समान हैं। यदि उनके साथ मजबूत बैल जोत दिए जाएँ, तो ही उन्हें इधर से उधर ले जा सकते हैं, अन्यथा जहाँ के तहाँ जड़भरत बने बैठे रहते हैं।
क्रान्तियाँ जरूरी हैं—
अगले दिनों सामाजिक क्रान्तियों में कई बड़ी क्रान्तियाँ सम्पन्न होनी हैं जैसे-(१) नर और नारी का भेद-भाव मिटना है। शृंगार-सज्जा ने कामुकता बढ़ाई है और नारी का अवमूल्यन हुआ है। अगले दिनों नर-नारी भाई-भाई की तरह और बहिन-बहिन की तरह रहना सीखेंगे। सहयोग के हजार क्षेत्र खुले पड़े हैं, उनमें वे एक दूसरे की भरपूर सहायता करेंगे। यौन कार्य अत्यंत जिम्मेदारियों से लदा हुआ माना जाएगा, उसमें हाथ डालने से पहले दोनों पक्षों को सौ बार विचार करना पड़ेगा कि आखिर हम क्या करने जा रहे हैं और इसका परिणाम हम दोनों को दो परिवार वालों को-सारे समाज को कितने दिन तक कितनी कष्टसाध्य प्रक्रिया के साथ भुगतना पड़ेगा? कामुकता का वर्तमान माहौल गैर जिम्मेदारी की चरम सीमा है। इस संदर्भ में नए विचार नए प्रचलन करने में क्या-क्या करना पड़ेगा, किन-किन कठिनाइयों से किस-किस प्रकार निपटना पड़ेगा? यह एक बड़ी बात है। मध्यम वर्ग ही इस संदर्भ की अनेक योजनाएँ हाथ में लेकर उसे कार्यान्वित कर सकेगा।(२) शिक्षा की दूसरी समस्या है। न केवल भारत में, वरन् समस्त संसार में तीन-चौथाई लोग अनपढ़ हैं। इनमें अधिकांश प्रौढ़ हैं। इन्हें पढ़ाने के लिए सरकारी स्कूल-कालेज काम नहीं देंगे। जनसेवा का माध्यम लेकर इसके लिए तंत्र खड़ा करना पड़ेगा। शिक्षा के विषयों का निर्धारण बिलकुल नई बात होगी। आज जो पढ़ाया जाता है वह प्रायः वही है, जो लार्ड मैकाले ‘काले बाबू’ ढालने के लिए पढ़ाना चाहते थे। समर्थ नागरिक को क्या जानना चाहिए अभी तो ऐसा पाठ्यक्रम तक निर्धारित नहीं हुआ है? फिर उसे पढ़ाने वाले तंत्र का ढाँचा खड़ा करना तो और भी आगे की बात है। अगले दिनों जनशिक्षा का विशालकाय ढाँचा खड़ा होगा और उसे सहकारिता के बल-बूते मिलजुल कर ही पूरा किया जाएगा।(३) कुटीर उद्योग तीसरा तंत्र है। बेरोजगारी मिटाने के लिए देहात-कस्बों में छोटी-छोटी मशीनों के सहारे चलने वाले कुटीर उद्योग ही काम देंगे। सहकारी समितियाँ उनके उत्पादन और विकास का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाएँगी। यह कार्य सरकारी अफसरों द्वारा हो सकने वाला नहीं है। भले ही पंचायत समितियाँ उन्हें पूरा करें-सहकारी समितियाँ अथवा कर्मठ कार्यकर्ताओं द्वारा गठित हुए सेवा संगठन। यह कार्य नई पीढ़ी को ही करने होंगे। नई से मतलब है मध्यवर्ती मनःस्थिति का जनसेवी समुदाय।अपने देश में ही नहीं, सारे संसार में सामूहिक श्रमदान से किए जाने योग्य कितने ही काम हैं। मनुष्यों और पशुओं के मल-मूत्र को खाद रूप में बदलना। घर आँगन और छत पर शाक-वाटिका उगाना। वृक्षारोपण के लिए सार्वजनिक उत्साह उभारना, यह ऐसे काम हैं जिसके लिए देवता स्वर्ग से उतर कर नहीं आयेंगे और न अफसरों के इशारों पर वे बन पड़ेंगे। इसके लिए अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर पीछे अनेकों को अनुकरण की प्रेरणा देनी होगी। (४) उन्मूलन परक-बुराइयों में कितनी ही ऐसी हैं, जिन्हें एक दिन भी सहन नहीं किया जाना चाहिए। नशेबाजी इनमें प्रमुख है। स्वास्थ्य, पैसा, इज्जत और अक्ल यह चारों ही वस्तुएँ इस कारण बर्बाद होती हैं। पीढ़ियाँ खराब होती हैं और रुग्णता बढ़ती है। नशा न कोई उगाए न कोई पिये, इसके लिए प्रायः गाँधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन जैसा ही रोकथाम कर सकने वाला मोर्चा खड़ा करना होगा।विवाह-शादियों में होने वाला अपव्यय-दहेज देश में एक बुरी किस्म का अभिशाप है। इसी से मिलती-जुलती मृतक-भोज जैसी अन्य कुरीतियाँ भी प्रचलित हैं। इन सबको एक बारगी एक साथ उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है। भिक्षा-व्यवसाय भी एक ऐसी ही लानत है, जिसके कारण समर्थ व्यक्ति भी स्वाभिमान खोकर वेश्या वेश की आड़ में भिखारियों की पंक्ति में जा बैठता है। तलाश करने पर हर क्षेत्र में अपने ढंग की चित्र-विचित्र कुरीतियों का प्रचलन है। आलस्य और प्रमाद ऐसे दुर्गुण हैं, जिनके कारण अच्छे-खासे प्रगतिशील मनुष्य भी अपंग असमर्थों की स्थिति में जा पहुँचते हैं और दरिद्रता का पिछड़ेपन का अभिशाप भुगतते हैं। इन मुद्दतों से जन-जीवन में घुसी हुई बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंकना एक व्यक्ति का काम नहीं है। इसके लिए मोर्चाबंदी करनी होगी और देखना होगा कि इस कुचक्र में फँसे हुए जन-जीवन को किस तरह मुक्त कराया जाए।सृजन से संबंधित इस तरह के हजारों काम हैं और उससे भी अधिक उन्मूलन स्तर के हैं। इन्हें कर सकना मात्र जीभ चलाने या विरोध व्यक्त करने भर से नहीं हो सकता। कितने लोगों द्वारा व्यवहार में लाए जाने पर यह कुरीतियाँ प्रथा बन चुकी हैं। इन्हें स्थानान्तरित करने के लिए उससे कम नहीं, वरन् अधिक ही पुरुषार्थ की अपेक्षा होगी।[यहाँ सत्प्रवृत्ति संवर्धन के सृजनात्मक तथा दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के सुधारात्मक कार्यक्रमों में से कुछ का उल्लेख करके, उनकी संख्या हजारों में है, ऐसा संकेत भर करके बात आगे बढ़ा दी गई है। युग निर्माण के शतसूत्रीय कार्यक्रमों में इनका विस्तार मिल सकता है। वैसे सृजनशील प्रतिभाओं को अपने-अपने क्षेत्र के अनुरूप कार्यक्रमों को चुनने तथा आन्दोलनों को आगे बढ़ाने का खुला निमंत्रण युग ऋषि द्वारा दिया जाता रहा है। इस दिशा में प्रेरणा भरने तथा आगे बढ़ने वालों को अदृश्य सहायता उपलब्ध कराने का कार्य ऋषि सत्ता करती रहेगी।]
देश से विश्व तक—
अपने भारत की तरह ही हर देश की हर क्षेत्र की अपने-अपने ढंग की अनगिनत समस्याएँ हैं। उनके समाधान में आगे-आगे कदम बढ़ा सकने वाले शूरवीरों की पग-पग पर आवश्यकता पड़ेगी। ये कहाँ से आएँ? आज तो इनका अभाव दीखता है। रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई प्रातःकाल में जिस प्रकार चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई पड़ती है, वैसा ही कुछ अगले दिनों सर्वत्र माहौल बनेगा। जन-जन को इसका पाठ कौन पढ़ाएगा, हर किसी को स्वार्थ में कटौती करके परमार्थ में हाथ डालने के लिए कौन विवश करेगा? इसका उत्तर आज तो नहीं दिया जा सकता; किन्तु कल-परसों ऐसा समय अवश्य ही आयेगा, जिसमें सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन की आँधी-तूफान जैसी हवा चलेगी। आँधी चलती है तो तिनके, पत्ते और धूल-कण तक आकाश चूमने लगते हैं। अगले ही दिनों ऐसी वासंती बयार चलेगी, जिससे ठूँठ कोपलें फोड़ने लगें और कोपलों पर फूल आने लगें।इस संसार का इतना विकास अनायास ही नहीं हो गया है। इसमें असंख्य लोगों ने-जिसमें समझदार भी बड़ी संख्या में रहे हैं, अपना अमूल्य सहयोग दिया है। अब बचाव की बारी है, तो उसके लिए भी भाव-भरी जनशक्ति चाहिए। इसका उत्पादन समय-समय पर अनेक रचनात्मक आंदोलन करते रहे हैं। अबकी बार फिर से परोक्ष जगत् से कुछ ऐसी ही पावस आने वाली है, जो सूखे धरातल को हरियाली से भर सके। प्यासी धरती को जलाशयों से लबालब भर सके।
१०. जाग्रत् आत्माओं से भाव भरा आग्रह
मूर्धन्य-वर्गों को विशेष रूप से प्रभावित परिवर्तित करने के प्रयास में संलग्न होने के अतिरिक्त हमारा दूसरा कार्यक्षेत्र होगा जाग्रत् आत्माओं को कचोटना। यह वर्ग दूध में घी की तरह छिपा रहता है, पर गरम करने पर उछलकर ऊपर भी तैरता हुआ देखा जाता है। ब्राह्मण और साधु इसी की देन हैं। महामानव, मनीषी इन्हीं को कहा जाता है। एक शब्द में देवमानव इन्हीं को कहते हैं। यह वर्ग जब जिस अनुपात से सक्षम, सक्रिय रहा है, तब तक सर्वतोमुखी सुख-शान्ति के दृश्य दृष्टिगोचर होते रहे हैं। इन्हीं का बाहुल्य किसी समय सतयुगी वातावरण बनाये हुए था। आवश्यकता इस बात की है कि वह समुदाय फिर से नव जागरण के क्षेत्र में प्रवेश करे और समय की जिम्मेदारियाँ सँभाले।मनुष्य की अद्भुत क्षमता-मनुष्य की क्षमता असीम है। साथ ही आवश्यकताएँ बहुत कम। यदि औचित्य की मर्यादा में रहें, तो औसत भारतीय स्तर का निर्वाह कुछ घण्टे के परिश्रम से ही पूरा हो सकता है। परिवार छोटा रखा जाये, जो है उसे सुसंस्कारी और स्वावलम्बी बनाया जाये, तो परिवार भी किसी पर भार न रहे। थोड़े में गुजर करने वाला, स्वल्प सन्तोषी, ब्राह्मण कहलाता है और जब वह चरम पुरुषार्थ में संलग्न रहकर शेष सामर्थ्य को युगधर्म के निमित्त समर्पित करता है, तो उसे साधु कहते हैं। इस देश की महती गरिमा और विश्व की सुख-शान्ति स्थिर रखने का उत्तरदायित्व ये साधु-ब्राह्मण ही पूरा करते रहे हैं। भविष्य में भी संव्याप्त विकृतियों का निराकरण और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण उन्हीं के द्वारा सम्भव होगा। अस्तु, समय की सबसे बड़ी माँग इसी वर्ग के अधिकाधिक उत्पादन की है। हम प्रयत्न करेंगे कि जहाँ भी इस स्तर के बीजांकुर हों, वहाँ उन्हें विकसित, पल्लवित करने में कुछ कमी न रखेंगे।अनुदानों में यही सबसे बढ़कर है। हमारे गुरुदेव ने हमें यही दिया और निहाल कर दिया। इस उपहार के स्थान पर यदि उनने धन, वैभव, पद आदि दिया होता, तो उससे गर्व और विलास की अनुभूति तो अवश्य होती, पर साथ ही यह भी निश्चित था कि लोभ, मोह और अहंकार के तीनों ही पिशाच अपना आधिपत्य अधिक अच्छी तरह जमाते। वासना, तृष्णा और अहंता की कभी न पटने वाली खाई और अधिक चौड़ी होती। अनेक दुर्व्यसन और दुर्गुण पनपते। आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उपलब्ध साधन कम पड़ते, फलतः कुकर्म करने पड़ते। इस ईश्वर प्रदत्त अनुपम सुयोग की सार्थकता न बन पड़ती और पापों का पोटला अगले जन्मों तक परिपक्व करने के लिए साथ ले जाना पड़ता। तब वे उपहार बहुत महँगे पड़ते। जिनके लिए लोग लालायित फिरते हैं और सन्त-महात्माओं से वैसा कुछ झटक लेने की फिराक में रहते हैं।
दिव्य अनुदानों के अनुशासन—
गुरुदेव ने हमें जो दिया है। वह अद्भुत है-अनुपम है। वही हम अपने प्राण प्रिय परिजनों में से सत्पात्रों को देना चाहते हैं और उसी प्रकार निहाल करना चाहते हैं, जैसे कि हम स्वयं हुए। सांसारिक दृष्टि से हम किसी प्रकार के घाटे में नहीं रहे, वरन् औरों की तुलना में कहीं अधिक अच्छे रहे। संयम की शिक्षा मिली, तो चटोरेपन पर तनिक-सा अंकुश लगा, पर बदले में पेट ठीक रहा और स्वास्थ्य फौलाद जैसा बना रहा। कामुकता में कटौती हुई। पर बदले में मस्तिष्कीय क्षमता ऐसी रही, जिसे देखकर लोग दाँतों तले उँगली दबाते हैं।आलसी, अस्त-व्यस्त जीवनक्रम को लोग शौक-मौज कहते हैं। वह तो छिना, पर बदले में समय को नियमित अनुबन्धित करके इतना काम कर लिया जितना ७५ वर्षों में नहीं, ७५० वर्षों में ही किया जा सकता था। विवेकानन्द, शंकराचार्य, रामतीर्थ, ज्ञानेश्वर आदि तीस वर्ष के लगभग जिये, पर इतने दिनों में ही ३०० वर्षों के बराबर काम कर गये। यह समय की सुव्यवस्था का प्रतिफल है। गुरुदेव ने आरम्भिक जीवन में उपासना, साधना, आराधना का जो क्रम बताया था। वे तीनों ही एक से एक बढ़कर थे। लोग उन अनुशासनों में से मात्र एक अत्यन्त प्रत्यक्ष को ही स्मरण रखे हुए हैं-२४ लक्ष्य पुरश्चरण को। वस्तुतः हमें जो मिला वह मात्र जप संख्या की परिणति ही नहीं, वरन् समग्र जीवन में आध्यात्मिक आदर्शों का पूरी तरह समन्वय किये रहने का ही प्रतिफल है। इसके लिए आवश्यक परामर्श और दबाव देकर गुरुदेव ने हमारा कितना बड़ा उपकार किया इसका अनुमान वे लोग नहीं लगा सकते, जिन्हें धन और पद के अतिरिक्त और कुछ चाहिए ही नहीं।जो इतनी ही मर्यादा में वरदान को सीमित रखते हैं, जिन्हें निरर्थक मनोकामनाओं की पूर्ति ही आशीर्वाद प्रतीत होता है, जो लिप्साओं की हविश बुझाने के लिए सन्तों के कष्टसाध्य तप की जेब काटने को फिरा करते हैं, उन्हें न भक्त कहा जा सकता है न शिष्य। मात्र जीभ हिला देने भर से तो कोई आशीर्वाद फलित होता नहीं, उसके साथ तप का भी तो एक बड़ा अंश देना पड़ता है। किसी सन्त का तप लेकर अपना विलास-वैभव बढ़ाना, अध्यात्म-तत्त्वज्ञान से कोसों दूर की बात है। उसमें तो तपना ही पड़ता है। तप से ही प्रसुप्त शक्तियों को जगाते हुए मनुष्य महान बनता है।मनुष्य की अपनी इच्छाएँ, योजनाएँ बड़ी अनगढ़ होती हैं। उनमें प्रकारान्तर से यश, लाभ जैसे हेय उद्देश्य ही छिपे रहते हैं। अपने लिए हितकर क्या है? यह रोगी स्वयं कहाँ जानता है? उसे चिकित्सक के अनुशासन में चलना पड़ता है। बच्चे अपनी दिनचर्या तभी ठीक रख पाते हैं, जब अध्यापक का निर्देशन मानें। हमने भी यही नीति अपनाई। गुरुदेव ने इतना ही कहा-हमारे परामर्शों को, आदर्शों की कसौटी पर कसते रहना। यदि वे खरे हों, तो अपनी अनगढ़ अकल को उसमें विक्षेप, व्यतिरेक उत्पन्न न करने देना। इसी समर्पण को उनने भक्ति का सार-संक्षेप बताया और उसे अपनाये रहने के लिए सहमत किया।अब हम देखते हैं कि एक सुनिश्चित मार्गदर्शन में चलते हुए हमने सही रास्ता अपनाया और सही कदम उठाया। इस बीच अपने मन में भी अनेक योजनाएँ आती रहीं, मित्रगण भी चित्र-विचित्र परामर्श देते रहे, पर उन सभी की अनसुनी करके जिस मार्ग पर चला गया, वह ठीक सिद्ध हुआ।
सत्पात्रों की खोज—
इन दिनों हमारे अन्तराल में ऐसे ही अनुयायी ढूँढ़ने की बेचैनी है जो अपना जीवनक्रम साधु-ब्राह्मण की परम्परा अपनाकर संयम और तप से श्री गणेश कर समग्र अध्यात्म का अवलम्बन प्राप्त करें। मात्र पूजा-पत्री से ही सब कुछ मिल जाने के भ्रम-जंजाल में न भटकें। उपासना, साधना और आराधना की वे तीनों ही शर्तें पूरी करें, जो आध्यात्मिक विभूतियाँ उपार्जित करने के लिए आवश्यक हैं। ऐसे लोगों को औसत भारतीय-स्तर के निर्वाह से अपनी जीवनचर्या का नया अध्याय आरम्भ करना चाहिए और कटिबद्ध होना चाहिए कि जो क्षमता बचती है, उसे भगवान् के खेत में बोने का साहस जुटायेंगे। निश्चित ही यह साहस सौ गुना, हजार गुना होकर फलित होगा।हमने अपना श्रम, समय, मनोयोग, प्रभाव तथा धन समग्र रूप से भगवान् के-समाज के-सत्प्रयोजनों के निमित्त बोया है। उसी का प्रतिफल है, जो लोगों को हमारे वैभव और चमत्कारों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। कृपणता बरती होती और जादूगरी तथा चिड़ीमारी के धन्धे को अध्यात्म माना होता, तो औरों की तरह झक मारते और पूरी तरह खाली हाथ फिरते। विभूतियाँ और उपलब्धियाँ जिन्हें भी अभीष्ट हैं, उन्हें बीज बोने की रीति-नीति पर विश्वास करना चाहिए।परामर्श तो हर तथाकथित मित्र-सम्बन्धी देता है, पर सत्परामर्श देने की क्षमता किन्हीं परिष्कृतों में ही होती है और धारण कर सकना, तो कुछ ही वरिष्ठों का काम होता है। नारद ने उपदेश तो अनेकों को दिया होगा, पर उसे धारण कोई-कोई ही कर पाए। जो कर सके वे धन्य हो गए। गाँधी के प्रवचन और लेख अनेकों ने पढ़े-सुने होंगे, पर उनमें से हृदयंगम कुछ ही कर सके। जिनने वैसा साहस जुटाया वे बिनोवा, नेहरू, पटेल, राजेन्द्रबाबू, राजगोपालाचार्य आदि कहलाये। बात कहते सुनते रहने भर से नहीं बनती। कदम उठाना और साहस करना पड़ता है, जो कर-गुजरते हैं, वे नफे में रहते हैं। आदर्शों पर चलने का मार्ग ऐसा है, जिनमें आरम्भ के दिनों में थोड़ी कसमकस सहनी पड़ती है। बाद में तो संतोष और श्रेय दोनों ही मिलते हैं। हमारा जीवन इस मार्ग पर चला है। इतिहास के पृष्ठ उलटते हैं, तो प्रत्येक महामानव को इसी राजमार्ग पर चलना पड़ा है। किसी पर भी आसमान से सोने-चाँदी के सितारे नहीं बरसे।सूक्ष्म शरीर की जागृति का लाभ मिलते ही हम यह प्रयत्न करेंगे कि जहाँ कहीं भी आत्माएँ जाग्रत् स्तर की हों, वे हमारा उद्बोधन, परामर्श, अनुरोध और आग्रह सुनें-समझें कि यह समय ऐतिहासिक है। ऐसे ही अवसरों पर हनुमान्, अंगद, नल, नील, केवट, शबरी, गीध, गिलहरी सहयोग के हाथ बढ़ाकर धन्य हुए थे। समय चूक जाने के बाद तो भारी वर्षा का लाभ भी नगण्य होता है। रेल निकल जाने पर अगली के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। जिनका अन्तराल युग चेतना से अनुप्राणित हो, उनका एक ही कर्तव्य है कि न्यूनतम में निर्वाह करने और अधिकतम युगधर्म में विसर्जित करने की बात सोचें। यदि साहस साथ दे, तो उसे कर भी गुजरें। इसमें सम्बन्धियों, कुटुम्बियों, मित्रों की सहमति मिलने की प्रतीक्षा न करें।
युग धर्म को साधें—
क्या करें? इस प्रश्न का इन दिनों एक ही उत्तर है-विचारक्रान्ति के युगधर्म का परिपालन करने के लिए एकनिष्ठ भाव से जुट पड़ें। आज की समस्याएँ अगणित हैं। उनके स्वरूप और प्रतिफल भी भिन्न-भिन्न हैं; किन्तु यह मानकर चलना होगा कि सभी का निमित्त कारण एक है-चिन्तन में विकृतियों का भर जाना। आस्था-संकट ही अपने युग का सबसे बड़ा विनाश का कारण है। इससे बड़ा दुर्भिक्ष और कोई हो नहीं सकता। निराकरण का उपाय भी एक ही है। उलटे को उलट कर सीधा करना। यदि लोकमानस को परिवर्तित, परिष्कृत किया जा सके, तो हर समस्या सरलतापूर्वक सुलझने लगेगी। नाली के कीचड़ को साफ किए बिना मक्खी-मच्छरों से पीछा छूटना कठिन है। हमें युगधर्म के रूप में विचार क्रान्ति को ही मान्यता देनी चाहिए और छुटपुट कार्यों में ध्यान बँटाने, शक्ति खपाने की अपेक्षा इसी काम में जुट जाना चाहिए। इस मन्त्र को गुनगुनाते रहना चाहिए कि ‘एकहि साधे सब सधे-सब साधे सब जाय।’ नाम और यश को प्रधानता देने वाले, अपनी ढाई ईंट की मस्जिद अलग खड़ी करने को आतुर दृष्टिगोचर होते हैं। डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग से पकाते तो हैं, पर उसमें क्या किसी का पेट भरता है? ढिंढोरा भर पिट जाता है। जिन्हें अपना ढिंढोरा पिटवाना ही अभीष्ट हो, वे चित्र-विचित्र योजनाएँ बनाते और सेवा के नाम पर कौतुक-कौतूहल खड़े करते रहें; पर जिन्हें एक ही चाबी से सब ताले खोलने का मन हो, वे विचार परिवर्तन के कार्य को सर्वोपरि मानकर उसी को लक्ष्य रखें, उसी से सम्बन्धित कार्यों में हाथ डालें।समय के कुप्रभाव से इन दिनों कोई व्यक्ति लोभ और मोह की परिधि से बाहर एक कदम नहीं रखता और पूजा-पाठ से लेकर व्यवसाय-अपराध तक इसी निमित्त करता है। समय के परिवर्तन का प्रत्यक्ष चिह्न यहाँ से प्रकट होना चाहिए कि सब न सही, जाग्रत् आत्माओं में से जो जीवन्त हों, वे समय को समझें और व्यामोह के दायरे से निकलकर बाहर आयें। उन्हीं के बिना प्रगति का रथ रुका पड़ा है।अपने सम्पर्क क्षेत्र में एवं बिना सम्पर्क क्षेत्र में, जहाँ कहीं भी हमें जाग्रत् आत्माएँ दृष्टिगोचर होंगी-पकड़ में आयेंगी। उन्हें वाणी से न सही बिना वाणी के, एक ही अनुरोध करेंगे कि वे इन दिनों व्यामोह में कटौती कर लें। उस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए हमारे गुरुदेव ने हमें सहमत किया और धन्य बनाया। आप भी इस दिशा में आगे बढ़ें और स्वयं को धन्य बनाएँ।
इक्कीसवीं सदी - उज्ज्वल भविष्य
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