उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
भगवान होने की कसौटी
देवियो, भाइयो! स्थूल शरीर को स्वस्थ-निरोग बनाये रखने के लिए आहार-विहार के नियमों का पालन करते हुए योग, व्यायाम आदि की आवश्यकता पड़ती है, साथ ही कर्मठता, क्रियाशीलता, सत्कर्मों आदि के द्वारा उसे स्वस्थ-निरोग बनाये रखना पड़ता है, जैसा किकल हमने निवेदन किया था। हमारा दूसरा शरीर—सूक्ष्म शरीर कहलाता है। इसे हम भावनाओं का, विचारणाओं का शरीर कहते हैं। परिष्कृत भावना ही है जो मनुष्य को मानव से महामानव बनाती है, नर से नारायण बनाती है। आपने देखा होगा कि प्रेरणा देने वालीरामायण को कौन पढ़ता है? हम उसे कहीं फेंक देते हैं, किंतु जो भावनापूर्वक पढ़ते हैं, वे जानते हैं कि रामायण के निर्माण में श्रेय रामचन्द्र का नहीं, भावनाओं का है। भावना ही है जिसने छोटे से राजकुमारों को न जाने क्या से क्या बना दिया और वह भरत की भावना काश्रेय है, जिसने रामचन्द्र जी को भगवान बना दिया।
मित्रो! रामचन्द्र जी भगवान हैं, भरत जी भगवान है, मुबारक हो, मुझे कुछ लेना-देना नहीं। कौन भगवान है और कौन भगवान नहीं है? इसके लिए एक ही कसौटी है और वह यह है कि उसने आदर्शों को और उत्कृष्टता को कितनी मात्रा में अपने जीवन में कार्यान्वितकिया। जितनी मात्रा में कार्यान्वित किया, उतनी मात्रा में भगवान है और जितनी मात्रा में उसने आदर्शवादिता का, उत्कृष्टता का उल्लंघन किया है, उतनी मात्रा में बिना भगवान है। भगवान की और बिना भगवान की परख हम कैसे करेंगे? मुसलमान कहते हैं कि हमकैसे मानें कि वे भगवान थे कि नहीं थे? ईसाई भी नहीं मानते कि रामचन्द्र जी भगवान थे। हम भी कैसे मानेंगे? हम तभी मानेंगे जब उनको उत्कर्षों की कसौटी पर कसते हुए चले जायेंगे।
जटायु के बलिदान से लें प्रेरणा
मित्रो! रामचन्द्र जी! कसौटी पर खरे साबित होते चले गये और भगवान बनते चले गये। उनके छोटे भाई भरत भी उसी कसौटी पर खरे होते चले गये और इस तरह रामायण बनती चली गयी। हमको मुक्ति प्रदान करने वाली रामायण, हमारा उद्धार करने वाली रामायण, हमारी आँखों में आँसू भर देने वाली रामायण बनती हुई चली गयी। इसमें क्या है? भावनाओं की उत्कृष्टता का, आदर्शवादिता का, चरित्रनिष्ठा का, साहसिकता का, प्रेम का, मोहब्बत का, समर्पण का समुद्र भरा हुआ है। भक्त की आदर्शवादिता देखनी है, तो जटायु कीआदर्शवादिता को देखिये। उसने जब सीता जी का अपहरण देखा, तो कहा कि मैं बूढ़ा पक्षी हूँ तो क्या हुआ? अगर हमारे, आपके जैसा होता तो सोचता कि अरे भाई! फौज में भरती होने से क्या फायदा? अब तो हम बूढ़े हो गये हैं। अब तो जिन्दगी के दिन पूरे करेंगे, नाती, पोतों को खिलाया करेंगे।
मित्रो! नाती, पोते तो रामचन्द्र जी के भी थे और जटायु के भी थे, जिन्हें सबेरे गोदी में लेकर वह खिलाने जाया करता था। एक बार उसके जी में भी आया कि मुझे दुनिया से क्या मतलब? यह तो रामचन्द्र जी की भार्या हैं। रामचन्द्र जी को मिल जायेगी तो रामचन्द्र जी कोनफा होगा। नहीं मिलेगी तो, वे दूसरा ब्याह कर लेंगे। तू काहे को इस झगड़े में पड़ता है? अपने पेड़ पर बैठा रह और अपने मतलब से मतलब रख। अपने काम से काम रख और अपने नाती-पोतों को खिलाया कर। मन की एक कमजोरी ने यह कहा, तो दूसरा मन कीकमजोरी के विरुद्ध खड़ा हो गया और जटायु का वर्चस जाग उठा। उसने कहा कि बूढ़ा हूँ तो क्या? रावण से मैं लड़ नहीं सकता हूँ तो क्या? अनीति के विरुद्ध संघर्ष तो कर ही सकता हूँ। वह अपने घोसले में से निकला और रावण से लड़ने लगा। रावण ने कहा कि पक्षी तूपागल हो गया है क्या? तलवार तेरे पास नहीं, बंदूक तेरे पास नहीं, तू मेरा मुकाबला कैसे करेगा? उसने कहा कि मैं तुम्हारा मुकाबला नहीं कर सकता और तुम्हें मार नहीं सकता, जीत नहीं सकता, लेकिन जीत जाना ही काफी नहीं है। जीत जाना कोई आवश्यक नहीं है, हार जाना भी काफी है और मर जाना भी काफी है।
साथियो! दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं, जिन्हें जीत नहीं मिल पाई। वे हार गये या मर गये और कुछ काम न कर सके। भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में हजारों मनुष्य ऐसे हैं, जो जीत न सके, सफलता प्राप्त न कर सके। जिन्होंने केवल मौत को गले लगाया, लेकिन वे विजयी कहलाये। जटायु ने भी कहा कि मारा जाने पर भी मैं विजयी बन जाऊँगा और वह अपनी चोंच के सहारे रावण से लड़ने लगा। रावण ने तलवार उठाई और उसके पंखों पर दे मारी। पंख कट गये। जटायु जमीन पर पड़ा हुआ था। भगवान रामचंद्र जी आयेऔर उन्होंने अपने आँसुओं से जटायु को धोया। पानी से नहीं, आँसुओं से जटायु के घाव धोए जा रहे थे। जटायु के घावों पर गाँज-पट्टी नहीं लगायी जा रही थी, बस भगवान राम अपनी बिखरी हुई जटाओं से जटायु के बाल साफ कर रहे थे, छाती से लगा रहे थे। जटायुभगवान की छाती से चिपका हुआ था। कौन? साहसी जटायु, आदर्श के लिए मर मिटने वाला जटायु।
भावना के भूखे हैं भगवान
मित्रो! भगवान को पाने का तरीका यही है। भगवान भावना के भूखे हैं। चावल खिलाने वालों, रोटी खिलाने वालों, आरती उतारने वालों, तीन माला जपने वालों, भगवान के दिल दिमाग को समझो और पढ़ो कि भगवान की मोहब्बत किन लोगों के लिए सुरक्षित है? भगवान की मोहब्बत जटायु जैसे लोगों के लिए सुरक्षित है। भगवान की मोहब्बत गिलहरियों के लिए सुरक्षित है। जिस समय समुद्र बाँधा जा रहा था, उस समय एक गिलहरी आई और अपने बालों में मिट्टी भरकर ले जा रही थी और समुद्र को भर रही थी। बंदरों ने कहागिलहरी! तू क्या कर रही है? उसने कहा—‘तुम क्या कर रहे हो?’ हम समुद्र में पुल बना रहे हैं। क्यों? उन्होंने कहा—‘सीता जी को वापस लायेंगे, रावण को मारेंगे।’ तो मैं छोटी सी गिलहरी हूँ, तो क्या हुआ? मैं भी अपने बालों में मिट्टी भरकर ले जाती हूँ और समुद्र मेंडाल देती हूँ, ताकि समुद्र पटता हुआ ऊँचा होता हुआ चला जाए और आप लोगों का रास्ता सरल होता हुआ चला जाए। गिलहरी की हिम्मत को देख करके बंदर उसे पकड़कर रामचंद्र जी के पास ले गये और उनके हाथ पर रख दिया।
भगवान राम ने उस छोटे से जानवर को देखा और पूछा—यह कौन है? बंदरों ने कहा — यह गिलहरी है। यह क्या करती है? उन्होंने कहा कि यह अपने बालों में मिट्टी भरकर ले जाती है और समुद्र में पटक देती है। क्यों? इसलिए कि हमारे समुद्र के पुल बाँधने का मार्गसरल होता हुआ चला जाए। भगवान राम ने उसे कलेजे से लगा लिया। छाती से लगा लिया। और प्यार से उसके ऊपर हाथ फेरने लगे। अँगुलियाँ फिराने लगे। भगवान राम की अँगुलियाँ काली थीं। इसीलिए कहते हैं कि काली अँगुलियों के निशान गिलहरी की पीठ परअभी भी बने हुए हैं। जहाँ कहीं भी गिलहरियाँ दिखाई देती हैं, उनकी पीठ पर काली धारियाँ पायी जाती हैं। सुना गया है कि वे भगवान रामचन्द्र जी की अँगुलियों के निशान हैं। क्या सच है, क्या नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन मैं जानता हूँ कि भगवान का स्वरूप यही है।भगवान की आदत यही है। भगवान की परख यही है।
कैसे मिलेंगे भगवान?
गायत्री मंत्र का जप करने के बाद में आपको भगवान के साक्षात्कार हो जायेंगे? मैं नहीं जानता कि हो जायेंगे कि नहीं हो जायेंगे। नहीं गुरुजी! बता दीजिए कि कब हो जायेंगे? बेटे, मैं ज्योतिषी नहीं हूँ। आप उस पंडा के पास जाइये, जो आपका हाथ देखकर बता देगा कि कबतक हो जायेंगे। आप क्या कहते हैं? मैं तो एक बात कहता हूँ कि अगर आपके भीतर वह साहस, आपके भीतर वह हिम्मत जिस दिन भी उदय हो जायेगी, उसी दिन आपको भगवान के साक्षात्कार हो जायेंगे। उसी दिन भगवान आपको दर्शन देने के लिए आयेंगे। इसकेलिए आपको कहीं जाना नहीं पड़ेगा। हे, कमजोर तबियत के लोगो! स्वार्थ और कायरता से भरे हुए लोगों जब तक अपने मन की मलीनताओं को दूर नहीं कर सकोगे, तब तक भगवान को पाने का ख्वाब मत देखो। देखना है तो यह ख्वाब देखो कि हमको यह चीजें मिलजायेंगी, वह चीजें मिल जायेंगी।
मित्रो! माँगने के लिए खड़े हो गये हो, तो दुनिया में देने वाले भी हैं। देने वाले मिट नहीं गये हैं, जिन्दा हैं। माँगने वाले जिंदा हैं, तो दुनिया में देने वाले भी जिंदा हैं। दुनिया में बीमार हैं, तो दवाखाने भी हैं, अस्पताल भी हैं। बेशक, आप इसी बात पर कमर कसकर खड़े होगये हैं कि हम दुनिया से माँग-माँग कर लायेंगे और आप आशीर्वाद में माँग लेंगे। यद्यपि आशीर्वाद देने वालों की भी कमी नहीं है, वे भी हैं, लेकिन आपको जानना चाहिए कि उन लोगों ने जो कमाया है, सिर्फ उन्हीं आधारों पर कमाया है जिसका हवाला मैं देता हुआ चलाआ रहा हूँ। कमाने का और कोई तरीका नहीं है। उन्होंने जो कमाया है, सिर्फ उसी रास्ते से कमाया है और वे आपको भी दे सकते हैं, लेकिन उसी उदारता से प्रेरित हो करके जो आध्यात्मिकता के भीतर होनी चाहिए।
उदारता से विहीन मनुष्यो! तुम्हारे ही तरीके से वे लोग भी हैं, जिनके यहाँ तुम माँगने जा रहे हो। तुम्हारे लिए सब रास्ते बंद हो गये हैं। अगर द्वार खुले भी हैं, तो इसलिए कि दुनिया में आध्यात्मिकता अभी जिंदा है। आध्यात्मिकता के सिद्धान्त को मानने वाले, उनकाअनुकरण करने वाले लोग दुनिया में जिंदा हैं, जो जानते हैं कि अपना चरित्र और व्यक्तित्व ऊँचा उठाया जाना चाहिए और उसके द्वारा भगवान की संपदाओं को प्राप्त करने का अपने को अधिकारी बनाया जाना चाहिए। आपको वरदान देने के लिए, आशीर्वाद देने के लिएद्वार खुला हुआ है, बशर्ते आपके हृदय में वह उदारता विद्यमान होनी चाहिए और जिस तरीके से भगवान बच्चों को दिया करता है और भगवान के भक्त लोगों को दिया करते हैं। आपको भी उसी उदारता के साथ देना चाहिए। यही उनकी महत्ता है। यह आपकी नहीं, उनकी जीत है और आपकी हार है जो आप माँगने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। जीत उन लोगों की है जो देते हुए चले जाते हैं। नहीं साहब! माँगने वाला बड़ा होगा? नहीं, माँगने वाला बड़ा नहीं हो सकता। नहीं साहब! हम माँग कर लाये हैं। अच्छा, तो फिर आपने उसकाक्या किया? ध्यान रखना, किसी के कुछ लेने के बाद में आपको पश्चाताप करना पड़ेगा।
मित्रो! हम किसी का तप लेकर चले आयें, किसी का वरदान लेकर चले आयें। इसको हमें लेने का क्या अधिकार था? किसी का आशीर्वाद मांगने का हमको क्या अधिकार था? ठीक है, लोगों ने दिया। देने वाले बधाई के पात्र हैं। देने वाले महान हैं। देने वाले धन्यवाद केअधिकारी हैं। फिर आप अपना चेहरा भी शीशे में देखिए और यह विचार कीजिए कि आप क्या उन विशेषताओं को अपने भीतर नहीं पैदा कर सकते थे, जिनके द्वारा भगवान आपको भी इतना अनुदान देने में समर्थ हो गया होता और आपको किसी के आगे पल्ला पसारनेका मौका न आया होता।
साहस और विवेक जगायें
मित्रो! हमें अपना सूक्ष्म शरीर, साहसिकता और विवेकशीलता के आधार पर विकसित करना चाहिए। ऐसा साहस, जो दुनिया में लड़ाई-झगड़े के काम नहीं आता, वरन् वह अपने आपसे संघर्ष के काम आता है। हमारे भीतर कुविचार और कुसंस्कार भरे हुए हैं। हमारेभीतर कृपणता और संकीर्णताएँ भरी हुई हैं, जिसने कि हमारी सारी की सारी क्षमताओं को सीमाबद्ध कर दिया और किसी के काम न आने दिया। हमारे पास जो चीजें थीं, यदि वे समाज के प्रति लग गयी होतीं, तो न जाने उसका क्या से क्या स्वरूप हो गया होता।जमुनालाल बजाज का पैसा गाँधी जी के साथ लग गया था, तो गाँधी जी की शक्ति हजार गुनी हो गयी थी। मान्धाता का पैसा जगद्गुरु शंकराचार्य के साथ लग गया था और जगद्गुरु शंकराचार्य की शक्ति हजार गुना हो गयी थी। अशोक का धन भगवान बुद्ध के साथ लगगया था और बौद्ध धर्म का स्वरूप न जाने क्या से क्या हो गया था। अगर आपका सहयोग उन कामों के लिए लग गया होता, जिनसे आध्यात्मिकता का अभिवर्धन और मनुष्यता का सुधार संभव रहा होता, तो न जाने दुनिया में आज क्या से क्या हो रहा होता। अगरआपने एक-एक मुट्ठी सहयोग इन कार्यों के लिए दिया होता, तो आज न जाने हमारे राष्ट्र का स्वरूप क्या से क्या हो गया होता।
राष्ट्र जगाने की भी तो सोचें
मित्रो! एक गाँव में पाँच सौ मनुष्य निवास करते हैं और हर आदमी बीड़ी पीता है। चवन्नी की बीड़ी से आज कल क्या हो जाता है। चार आने की तम्बाकू हर कोई पी जाता है। पाँच सौ मनुष्यों का छोटा सा गाँव है। चार आने रोज की तम्बाकू पीने वाले लोगों का गाँव है। यदिगाँव की महत्ता को समझा होता और समाज के प्रति, अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहा होता और बीड़ी वाली चवन्नी को बचाकर अपने गाँव के लिए, विकास कार्यों के लिए खर्च करना शुरू किया होता, तो पाँच सौ मनुष्य, पाँच सौ चवन्नियाँ हर रोज बचाकर एक सौपच्चीस रुपये रोज बचा सकते थे। और एक गाँव में पौने चार हजार रुपया एक महीने में बच सकता था। एक वर्ष में पैंतालीस हजार रुपये बच सकते थे। पाँच सौ मनुष्यों का छोटा सा गाँव, चवन्नी वाला गाँव ठीक ढंग से उपयोग कर सकने में समर्थ रहा होता, तब उनपाँच सौ चवन्नियों से गाँव में पैंतालीस हजार रुपये बचाकर दे दिया होता तो उससे उस गाँव में एक हाई स्कूल बन गया होता। एक वर्ष में कन्या विद्यालय बना दिया गया होता। पैंतालीस हजार में प्रसूति गृह बना दिया होता। इस तरह एक साल में न जाने क्या से क्याबना दिया होता।
मेरे देश के निवासियो! आपने केवल उन कामों में पैसा खर्च किया है, जिसमें नहीं खर्च करना चाहिए था। आप लोगों ने उन कामों में पैसा खर्च किया जिसमें कि मेरी बिरादरी का सत्यानाश हो गया। आपने मेरी बिरादरी के लोगों को, मेरे भाई और भतीजों को बिना मूल्य-संस्कृत पाठशालाओं में रोटियाँ खिलाई और दान-दक्षिणा के पैसों से मेरे बच्चे पढ़ते हुए चले गये। जब हमारे बच्चे संस्कृत पाठशालाओं में से निकलकर आते हैं, तो वे सिवाय भीख माँगने के दूसरा काम नहीं कर सकते। वे सिवाय जन्मपत्रियाँ बनाने के दूसरा काम नहींकर सकते। सिवाय ख्वाब देखने के दूसरा काम इनके पास नहीं है। सिवाय सत्यनारायण की कथा कहने के दूसरा काम वे नहीं कर सकते। आपने मेरी सारी बिरादरी नष्ट कर डाली।
अभागे लोगों! अपना स्वर्ग पाने के लिए तुमने दान दिया और ब्राह्मण समाज को खा गये। दुष्टो! जिनका यह ख्याल था कि ब्राह्मणों को खिलाने के बाद हमें स्वर्ग भेज दिया जायेगा, उसका परिणाम क्या हुआ? मेरी सारी बिरादरी तेजहीन हो गयी, वर्चस्वहीन हो गयीऔर नष्ट हो गयी, भिखमंगी हो गयी। तुम लोग कायर हो। यदि तुमने दान का मूल्य समझा होता और दान का स्वरूप समझा होता, तो चवन्नियाँ बचा ली होतीं और उन चवन्नियों से हर गाँव का कायाकल्प कर डाला होता। अरे दिग्भ्रांत लोगों! भूले हुए लोगों! उलटेरास्ते पर चलने वाले लोगों! गलत रास्ते पर चलने वाले लोगों! तुम हर साल मंदिरों मे सोने-चाँदी के छत्र चढ़ाते हुए चले गये। पण्डाओं का पेट बढ़ाते हुए चले गये। माल इकट्ठा होता चला गया, संपदा इकट्ठी होती चली गयी और देश गलत दिशा में गुमराह होता हुआचला गया। विवेकहीन लोगों की दानशीलता धिक्कार योग्य है। विवेकशील लोगों के लिए सामाजिक उत्कर्ष के लिए एक पैसा खर्च करना आवश्यक है।
सच्चे अर्थ में अध्यात्म
मित्रो! मैं आपको निवेदन कर रहा था कि आपको अपना सूक्ष्म शरीर विवेकशीलता के आधार पर और साहस के आधार पर विकसित करना होगा, तभी आप सच्चे अर्थों में आध्यात्मिक व्यक्ति बन सकेंगे। मैं इन्हीं प्रयोगों को करता हुआ चला आ रहा हूँ और कारण शरीरकी भूमिका में प्रवेश कर गया हूँ। आप लोग जैसे-जैसे कारण शरीर की भूमिका में प्रवेश करते हुए चले जायेंगे, वैसे-वैसे आपको अंतरात्मा का प्रकाश प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता हुआ चला जायेगा। आध्यात्मिकता में कारण शरीर को साधना में संलग्न करने के दो रास्ते हैं।इनमें से एक का नाम प्रेम और एक का नाम सेवा है। प्रेम हमारे मन से छलकता हुआ चला जाए और यह दुनिया ऐसी बन जाय जैसे कि स्वर्ग है। इस पृथ्वी को स्वर्ग के रूप में परिवर्तित और प्रकट करने के लिए हमको इन पत्थर जैसे दिलों में प्रेम की धारायें बहानीपड़ेंगी।
मित्रो! लोगों ने केवल प्रेम का नाम याद कर रखा है। बेटे से प्रेम, औरत से प्रेम, दौलत से प्रेम, सिनेमा से प्रेम आदि। ऐसा प्रेम तो हर एक को आता है। सबसे बढ़िया प्रेम करना कौन जानता है? लकड़बग्घा जानता है। जब उसे कोई छोटा वाला बच्चा दिखाई पड़ता है, तोवह उस पर टूट पड़ता है और उसे गड़प कर जाता है। क्यों? क्योंकि बच्चे पर उसका बड़ा प्रेम है। बेटे, तुम्हारा क्या ख्याल है? गुरुजी! इस बच्चे पर मेरा बड़ा प्यार है। जिस तरह से छोटी वाली ककड़ी को देखकर के देखकर बच्चे के मुँह में पानी आ जाता है। जिस तरह सेपकौड़ी को देखकर आपके मुँह में पानी आ जाता है। हलुआ को देख करके जैसे आपको प्यार आता है, वैसे ही सारे समाज के लिए आपका प्यार है। जब आप किसी की बहन, बेटी को देखते हैं, तो आपको वैसा ही प्यार आता है जैसे लकड़बग्घे को किसी का छोटा बच्चा देखकरके आता है। जैसे कसाई वाले की दुकान को देख करके आपको प्यार आता है। यही प्रेम की विडम्बना है, जो आज सारे देश में फैली हुई है। पैसे से प्रेम, कुटुंब से प्रेम, यह प्रेम नहीं केवल मोह है, केवल स्वार्थ है। केवल संकीर्णता है।
क्या है प्रेम?
मित्रो! प्रेम दूसरी चीज का नाम है। प्रेम उस चीज का नाम है जिसमें कि आदमी दूसरों को खिलाने के लिए, आगे बढ़ाने के लिए कदम बढ़ाता हुआ चला जाता है। अपने आपको कष्ट में डालता हुआ चला जाता है और दूसरों को सुखी बनाता हुआ चला जाता है। प्रेम की एकही दिशा है। भगवान से हम प्रेम करना सीखते हैं। मैंने आपको बताया था कि कारण शरीर का विकास करने के लिए भगवान के साथ में प्रेम करना आवश्यक है। जिस तरह से हम व्यायामशाला में जाते हैं और डम्बलों के साथ में अपनी कलाइयों को मजबूत करते हुएचले जाते हैं, उसी तरह से हम भगवान से प्यार करते हैं। वह भगवान जो अनन्त शक्ति का भंडार है, सारे विश्व में समाये हुए हैं, जो करुणा के स्रोत हैं। जिनसे हम प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हम आपसे सम्बद्ध होते हैं। सम्बद्ध होने का अर्थ है आपके प्रकाश कोग्रहण करना। आपकी उदारता, आपका प्रेम-जो सारे विश्व में बिखरा हुआ है, पत्ते-पत्ते के साथ में आपने जो मोहब्बत दिखाई, प्राणियों के साथ जो मोहब्बत दिखाई, मनुष्यों के साथ जो मोहब्बत दिखाई। संसार को सुख-सुविधाओं से ओतप्रोत करने के लिए आपने जिसमहानता का प्राकट्य किया। आपकी उस महानता को हम भी अपने जीवन में काम लायेंगे और वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसे कि एक प्रेम करने वाले को करना चाहिए।
मित्रो! अगर भावना हमारे जी में रही होती, तो यह संसार आनन्द और उल्लास से ओतप्रोत हो गया होता। हमारा छोटा सा घर-परिवार आनन्द और उल्लास से भर गया होता। लेकिन आज हमारी मोहब्बत के तरीके बदलते हुए चले जा रहे हैं। भाई का भाई के साथ, बापका बेटे के साथ, बहन का भाई के साथ, पति का पत्नी के साथ-सारे के सारे रिश्ते जैसे कमजोर होते हुए चले जा रहे हैं। जरूरत आज आध्यात्मिकता ही है। भगवान के साथ हमको प्रेम करना चाहिए और वह प्रेम ऐसा विकसित होना चाहिए जो सीमाबद्ध न हो। जिसतरह हिमालय से निकलकर गंगा असीम बनती हुई गंगासागर में जा मिलती है, हमें भी उसी तरह अपने प्रियतम से जा मिलना है। प्रेम की यही तो परिणति है। प्रायः लोग कहते हैं कि प्रेम करने वाले मनुष्य ठग लिए जाते हैं, खाये जाते हैं, घाटे में रहते हैं और नुकसानमें रहते हैं। लेकिन मित्रो! मैंने अपने जीवन में यही अनुभव पाया है कि खिलाने वाला मनुष्य बहुत नफे में रहता है। केवल ठगने वाला मनुष्य ही घाटे में रहता है।
मित्रो! घाटे में केवल एक ही आदमी रहा है, जिसने दुनिया को ठगा और नफे में वही आदमी रहा है, जो स्वयं ठगा गया। कबीरदास जी ने कहा है—
कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठगे सुख ऊपजे, और ठगे दुख होय॥
कबीर ने प्रेम के आधार को निचोड़कर सबके सामने रख दिया है। प्रेम का आधार मनुष्य जाति का विकास ही नहीं है। एक आदमी दूसरे को देख करके जिये, यह काफी नहीं है। वरन् एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के विकास के लिए, दूसरे मनुष्य को शांति प्रदान करने के लिएअपने सारे अनुदान समर्पित करते हुए चला जाए। यही प्रेम का आधार है। यदि यही प्रेम मनुष्य के मन में से फूटने लगे और हमारा अंतरतम आनन्द से भर जाए, हमारा जीवन आनन्द से भर जाए। यदि हम सभी आपस में एक दूसरे को अपनों की भाँति प्रेम करनेलगें, तो हमारा समाज विकास से, आनन्द से भर जाए।
मित्रो! हमने क्या अपने जीवन को प्यार किया? नहीं, हमने अपने जीवन को प्यार नहीं किया। हमें भगवान का कितना बहुमूल्य अनुदान मिला था, जिसका हमें उपयोग करना चाहिए था, लेकिन हमने उसे उन निरर्थक क्रियाकलापों में खर्च कर डाला जिनका न तो कोईमूल्य था और न कोई महत्त्व था। जो केवल जानवरों के करने लायक क्रियाकलाप थे, केवल उन्हीं क्रियाकलापों में हमारा सारा जीवन खर्च हो गया। जीवन मैंने तुझे बहुत सताया और तेरा बड़ा दुरुपयोग किया। हे जीवन! आ, अब तुझे प्यार करें, तुझे महान बनायें। तुझेऐतिहासिक बनायें। तुझे ऐसा बनायें, जिसकी रोशनी से अनेक मनुष्य प्रकाश प्राप्त करते हुए चले जाएँ। आ जिन्दगी! तुझे प्यार करूँ। अगर हम अपनी जिन्दगी को प्यार कर सकते हों, तो मित्रो! हमारी जिन्दगी कितनी शानदार हो सकती है।
मित्रो! आज हम कितनी ही गई-गुजरी परिस्थितियों में क्यों न हों, कितनी ही छोटी परिस्थितियों में क्यों न हों, यदि हम अपने जीवन को प्यार करने लगें, जीवन को सार्थक बनाने वाले सिद्धांतों को क्रियान्वित करने लगें, तो हम छोटे-छोटे मनुष्य, दीपक जैसे मनुष्यअपने चरित्र में प्रकाश पैदा कर सकते हैं और वह प्रकाश दिवाली की अँधियारी अमावस्या के दिन पूर्णिमा का प्रकाश उत्पन्न कर सकता है और हर जगह प्रकाश उत्पन्न कर सकता है। यदि हम और आप जैसे छोटे-छोटे दीपक इस तरह अपने जीवन में प्रेम उत्पन्न करनासीख सकें, यदि हम अपने भगवान को प्यार करना सीख सकें, तो मजा आ जाए। प्यार करने का अर्थ दंडवत करना नहीं है। प्यार करने का अर्थ परिक्रमा करना नहीं है। प्यार करने का अर्थ है—भगवान की आकांक्षाओं की पूर्ति करना और भगवान के सुन्दर रूप कानिखार करना है। सारा विश्व भगवान का सुन्दर स्वरूप है। उसमें से शांति नष्ट हो गयी है। सुव्यवस्थाएँ नष्ट हो गयी हैं, सौजन्य नष्ट हो गया है। इस स्नेह और सौजन्य का अभिवर्धन करने के लिए हम अपना एक अनुदान दे सकते हों, अपना वक्त खर्च कर सकते हों, समय लगा सकते हों, अपनी क्रियाशीलता को सक्रिय कर सकते हों, तो मित्रो! यह विशुद्ध भगवान का प्यार है। यही वह भावना है जो हमें ईश्वर के समीप ले जाती है और हमें नर से नारायण बनाती है। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥