उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
आध्यात्मिकता का आधार—पारिवारिकता
(प्रथम किस्त)
परमपूज्य गुरुदेव के उद्बोधनों का वैशिष्ट्य यह है कि वे जीवन के दैनिक उदाहरणों से अध्यात्म के उन पहलुओं की विवेचना कर देते हैं, जिन्हें कई लोग विद्वत्तापूर्ण शैली अपनाने के बाद भी नहीं कर पाते। अपने इस प्रस्तुत उद्बोधन में वे परिवार की आध्यात्मिक व्याख्या करते हुए दिखाई पड़ते हैं। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि पारिवारिकता का आधार ही आध्यात्मिकता है और यदि व्यक्ति सही अर्थों में पारिवारिकता को अपनाता है तो उसके व्यापक विस्तार के साथ वह सच्ची आध्यात्मिकता को भी आत्मसात् करता है। वे कहते हैं कि पारिवारिकता का मूल आधार बाँटने के भाव से है और अर्जित संपदा के संयमपूर्ण वितरण से है। जो इन मूल भावों को समझ लेता है, उसके जीवन के प्रत्येक आयाम में ये आध्यात्मिक गुण दृष्टिगोचर होने लगते हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......
परिवार का अर्थ
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
देवियो-भाइयो! कुछ मूल्यवान बातें बताने के लिए हमने आपको बुलाया था। मुझे उम्मीद है कि आपने गौर से सुना होगा और सुना होगा तो उन पर ध्यान भी दिया होगा। अगर ध्यान दिया होगा, तो उनको करने के लिए साहस भी इकट्ठा किया होगा। मनुष्य को परिवार बसाने की प्रेरणा प्रकृति ने दी। परिवार का मतलब है—भगवान की बनाई हुई दुनिया में मिल-जुलकर रहने का आनंद लेते हुए श्रेष्ठ जीवन जीना।
व्यक्ति के अंदर कुछ खाने की ललक रहती है, तो बनाने में क्या जाता है? थोड़े समय में ही वह कुछ बना सकता है। जितना समय खाने में लगता है, उतने समय में ही या थोड़े ज्यादा समय में खाना पकाने में क्या दिक्कत है? नहीं साहब! कोई सहायता करने वाला होना चाहिए। इसके लिए प्रकृति ने परिवार की व्यवस्था की है कि मनुष्य को कुटुंब में रहना चाहिए। परिवार बसाना चाहिए। एकांगी भी आदमी रहता है। रोटी पकाने-खाने के भी अनेक तरीके हैं, परंतु इसके लिए ही मनुष्य को नहीं बनाया गया।
मित्रो! आत्मा की भूख है कि हमको इस तरह के समुदाय में रहना चाहिए, जिससे हमको अपने भीतर के माद्दे को विकसित करने के लिए मौका मिल सके। अपने आप को विकसित करने के लिए आपको उसी आधार पर मौका मिल सकता है कि आपने परिवार बसा लिया, शादी कर ली। यदि ऐसा कर लिया तो मुबारक, शादी नहीं भी की, तो क्या बनता-बिगड़ता है? परिवार में आप तो रहेंगे न, माँ-बाप के साथ तो रहेंगे न? बहन-भाइयों के साथ तो रहेंगे न? बोर्डिंग में तो रहेंगे न? समूह में तो रहेंगे न? कहीं भी रहेंगे, अकेले तो नहीं रहेंगे।
आप अकेले भी जहाँ कहीं रहते हैं, वह आपका कुटुंब ही है। परिवार को बसाने में कितना आनंद है। परिवार को बसाने के आनंद को आप समझते ही नहीं हैं। कुटुंब में बहुत आनंद है। मिल-जुलकर रहने के आनंद के बराबर दुनिया में कोई आनंद ही नहीं है। एक दिन मैंने आपसे स्वर्ग की बात भी कही थी। मिल-जुलकर रहना स्वर्ग भी हो सकता है।
परिवार का आध्यात्मिक संदर्भ
मित्रो! मिल-जुलकर रहना ही नहीं, इसके साथ में दो और भी चीजें जुड़ी हुई हैं। क्या चीजें जुड़ी हुई हैं? ये आध्यात्मिकता से जुड़ी हई हैं, आध्यात्मिकता से ताल्लुक रखती हैं। एक ताल्लुक यह रखती है कि आप कमाते हैं। यदि आप कमाते हैं, तो कमाने वाली चीजों को अपने लिए कम-से-कम खरच कीजिए। बाकी जो आपके नजदीक वाले लोग हैं, उन पर खरच कर दीजिए। यह ज्ञान आपने सीखा है कि नहीं सीखा? आप जो कमाकर लाए थे, उसमें से अपनी बीबी के लिए खरच किया कि नहीं? आपने माँ के लिए खरच किया कि नहीं किया? बच्चों के लिए खरच किया कि नहीं किया?
यह आध्यात्मिकता का सिद्धांत है कि आप कमायें, तो कमाने पर कोई रोक नहीं। इसके लिए कोई पूछताछ करने वाला नहीं है कि आप क्या कमाते हैं। इसमें कोई साथ देने वाला नहीं है, परंतु हाँ, आपकी अक्लमंदी इस बात पर है, समझदारी इस बात पर है कि आपने इसे खरच कहाँ किया और कैसे किया। आपकी सफलताओं का लेखा जोखा हम कभी नहीं लेंगे कि आपने कितना कमा लिया और क्या कमाते हैं। आपको क्या नौकरी मिलती है और आपने क्या जमा कर लिया। यह सब अलग है। मित्रो! आध्यात्मिकता का सिद्धांत यहाँ लागू होता है कि आपने खरच कहाँ कर दिया। बस, एक बात का हमें जवाब दीजिए कि आप खरच कहाँ करते हैं। बाकी से क्या मतलब, बस, आप खरच की बात बताइए कि कहाँ खरच करते हैं और किन कामों में खरच करते हैं। आपकी दयानतदारी, आपकी ईमानदारी, आपकी भलमनसाहत, आपकी शराफत और दूरदर्शिता, जो कुछ भी है, उन सबकी कसौटी एक ही है कि आपने जो कमाया, उसको खरच कहाँ कर दिया।
आपने पैसा कमाया न? ठीक है, उस पैसे का हिसाब दीजिए कि उसे किस काम में खरच किया। आपने अक्ल कमाई, विद्वान हो गए न, ठीक है। आपकी विद्या मुबारक, लेकिन मैं यह पूछना चाहता हूँ कि जो कुछ आप जानते थे, उसे किस माने में खरच कर दिया, इसका जवाब दीजिए। नहीं साहब! हमने तो लोगों को गुमराह करने में खरच कर दिया और दूसरों की भावनाएँ भड़काने में खरच कर दिया।
बुद्धि का उपयोग गुमराह करने में न करें
मित्रो! अगर आप कलाकार हैं, संगीतकार हैं, तो आपके कलाकार और संगीतकार होने पर लानत है। आप अक्लमंद हैं न? हाँ साहब! हमारी अक्ल तो बहुत पैनी है। कितनी पैनी है, जरा दिखाइए तो सही? हम तो वकील हैं। अच्छा साहब! आप वकील हैं, तो ठीक है। आपको तो बहुत अक्लमंद होना चाहिए, पर आपने अपनी अक्ल किस काम में खरच कर डाली? अरे साहब! हमने तो लोगों को झूठे मुकदमे लड़ने में, झूठे गवाह तैयार करने में, झूठी फाइलें तैयार करने में खरच कर दी। तो आपका जो गवाह आपसे झूठ बोलना सीखकर गया है, तो जिंदगी भर आप उसके गुरु और वह आपका चेला बन गया है। उससे जब आपने यह कहा था कि ऐसी गवाही देना, ये कहना, वो कहना—ऐसे कहना।
वह बार-बार पूछता था—साहब! ऐसा तो कुछ हुआ नहीं था, तो आपने कहा—नहीं, ऐसा ही कहना चाहिए। दुनिया में ऐसे ही काम चलता है। वह सीख गया न? रास्ता खोज लिया न? उस पर जो मर्यादा लगी हुई थी कि झूठ नहीं बोलना चाहिए, आपने अपनी अक्लमन्दी से उसे खतम कर दिया। आपकी अक्ल का क्या कहना? वह गवाह जो आपसे मुद्दा ले गया है, आपने उसके ऊपर से अब यह वहम हटा दिया है कि झूठ नहीं बोलना चाहिए। 'झूठ बोलना पाप है' आपने उसके इस वहम को खतम कर दिया। अब आप उसके गुरु और वह आपका चेला है। जब तक वह आपके पास नहीं आया था, ठीक था। आपकी ऐसी अक्ल आपको मुबारक। आपकी अक्ल को लानत है, जिसने दुनिया के अच्छे लोगों को गुमराह करने में सहायता की। ऐसे भी कोई इनसान होते हैं? ऐसे तो भेड़िये होते हैं। आप वकील हैं, तो भेड़िये भी हो सकते हैं। आप वकील हैं, तो हम क्या करें? आप बड़े अक्लमन्द बनते हैं।
पारिवारिकता के आध्यात्मिक सिद्धांत
मित्रो! पारिवारिकता, जिसमें आपको सिर्फ एक बात सिखाई जाती है कि आप जो कमाते हैं, वह कमाई उनके लिए खरच करें। किनके लिए खरच करें? जो आपसे गए-बीते आदमी हैं, पिछड़े आदमी हैं। आपकी बीबी कमाती तो नहीं है? नहीं साहब! तो आप उसकी सहायता कीजिए। आपका बच्चा कमाता नहीं है, तो उसकी सहायता कीजिए। और आपका पिता कमाता तो नहीं है? नहीं साहब! पिताजी बूढ़े हो गए हैं, अब क्या कमाने लगे? तो आप उनकी सहायता कीजिए। और आपकी माताजी? नहीं साहब! वह क्या कमाएँगी, बूढ़ी हो गई हैं। बूढ़ी हो गई हैं, तो उनकी भी सहायता कीजिए। समर्थ आदमी को तो मैं नहीं कहता कि निठल्लों को बिठाकर फोकट में खिलाएँ। उसके लिए तो मैं नहीं कहता, पर यह कहता हूँ कि जो कोई भी आपसे कमजोर आदमी हैं, योग्य आदमी हैं, उन्हें सुयोग्य और समर्थ बनाने के लिए सहयोग करें। ये पारिवारिकता के सिद्धांत हैं। इन्हें आपने सीख लिया न?
मित्रो! अब तक आपने किया तो सही, पर छोटे दायरे में किया है। अब अपना दायरा बढ़ा दीजिए न। आपने कुटुंब के छह आदमी बनाकर रखे हैं। अब छह के बजाय छब्बीस बना दीजिए न। 600 के बजाय 6000 बना दीजिए और 6000 बनाने के बाद अपने मुहल्ले को, गाँव को और देश को पारिवारिकता की लपेट में ले लीजिए न। ये सिद्धांत हैं। कैसे? आध्यात्मिक उन्नति के लिए, आत्मिक प्रगति के लिए, ज्ञानी और तपस्वी बनने के लिए सिद्धांतों की जरूरत है। कर्मकाण्डों की जरूरत नहीं है। आप सुनते नहीं हैं, न जाने किस मिट्टी के बने हैं? आपको न जाने कौन दुष्ट, न जाने कौन बेईमान सिखा गया है कि कर्मकाण्ड कर लीजिए और वैकुण्ठ को जाइए। कर्मकाण्ड भर से आप वैकुण्ठ कैसे चले जाएँगे? नाक में से हवा निकालेंगे और कान में उँगली डालेंगे। ग्यारह माला लकड़ी की घुमाएँगे और तीन माला रुद्राक्ष की घुमाएँगे, ढोंगी कहीं के। वास्तविकता को समझिए।
मित्रो! आदमी का व्यक्तित्व और आदमी का चरित्र और आदमी का चिंतन ये प्रमुख हैं और सबसे बड़े हैं। अगर आप इनमें फेल होते हैं, तो आपकी 99 मालाएँ बेकार हैं और आपका चामुण्डा देवी का जप बेकार है। आप हनुमान जी को समझते क्या हैं? देवी को आपने क्या समझ रखा है? आपसे मैं पूछता हूँ कि आप लक्ष्मी जी को समझते क्या हैं? वे आपके जैसी फरेबी और आप जैसी जलील हो सकती हैं क्या? आप नारियल चढ़ाएँगे और उनकी जेब काटकर लाएँगे। आप जैसे बेवकूफों से जेब कटा लेंगी लक्ष्मी जी? क्या लक्ष्मी जी को अक्ल नहीं है? नहीं साहब! सड़ी सुपारी खिलाएँगे और दीपक जला देंगे और देवी की हजामत बना देंगे। खबरदार, अगर बेकार की बातें की तो? आप इन बातों से बाज आइए और इन बहानों को छोड़िए और वास्तविकता के नजदीक आइए।
अध्यात्म की वास्तविकता
मित्रो! वास्तविकता यह है कि देवता एक बात की तलाश करते हैं कि आदमी का व्यक्तित्व, आदमी का चिंतन और आदमी का चरित्र, आदमी के सोचने का तरीका और आदमी के काम करने का ढंग क्या है। बस, इन सबसे अध्यात्म शुरू होता है। इससे कम में अध्यात्म है ही नहीं। नहीं साहब! हम तो देवी पर बकरा चढ़ाएँगे और हनुमान जी पर लड्डू चढ़ाएँगे और महादेव जी पर बेलपत्र चढ़ाएँगे, आक के पत्ते चढ़ाएँगे और कमीना जीवन जिएँगे। नहीं, ऐसा नहीं चल सकता। आप अपने जीवन का ढंग बदलिए। आध्यात्मिकता को जीवन में लाइए। आध्यात्मिकता को चिंतन में लाइए।आध्यात्मिकता को स्वभाव में लाइए। आध्यात्मिकता को चरित्र में लाइए। इससे कम में न कोई सिद्धि पाने की बात होती है और न मुक्ति पाने वाली बात बनती है। न सफलता पाने वाली बात बनती है, न शांति वाली बात बनती है और न भगवान के पास वाली बात बनती है। नहीं साहब! हम तो बद्रीनाथ जाएँगे। तो जाइए, पत्थर का भगवान मिलेगा। बड़ा आया भगवान वाला?
नहीं साहब! हम बद्रीनाथ भगवान के यहाँ जाएँगे, तो भगवान जी हमको वैकुण्ठ में ले जाएँगे। आपको पता है कि सोमनाथ के मंदिर में महमूद गजनवी आया। वहाँ के पंडितों और लोगों ने कहा कि आप मूर्ति को मत तोड़िए। गजनवी ने कहा—क्यों? आप समझा दीजिए कि क्यों नहीं तोड़ना चाहिए। क्योंकि ये भगवान हैं। भगवान हैं, तो इन्हें तोड़ने से क्या नुकसान हो सकता है। उन्होंने कहा कि भगवान जी नाराज हो जाएँगे, तो आपका नुकसान कर देंगे। भगवान जी नाराज होते हैं, तो नुकसान कर देते हैं।
महमूद गजनवी ने पूछा—ये भगवान हैं? हाँ साहब! भगवान हैं। तो हम इनका अपमान करेंगे, तो वे हमारा नुकसान कर देंगे? हाँ साहब! बिलकुल नुकसान कर देंगे। अच्छा तो आप लोग इनका सम्मान करते हैं? हाँ। तो वे आपका फायदा करते होंगे? हाँ साहब! जो इनका सम्मान करेगा, जो इन पर चावल चढ़ाएगा, फूल-पत्ती चढ़ाएगा, तो ये प्रसन्न हो जाएँगे और उसको वरदान दे देंगे और मनोकामना पूरी कर देंगे। जो आदमी इनका अपमान करेगा, उसको नारकीय यातना देंगे। उसको गूँगा बहरा कर देंगे। उसके बाल-बच्चों को मार डालेंगे। मित्रो! महमूद गजनवी ने कहा—अच्छा, यही ख्याल है न आपका? हाँ साहब! यही ख्याल है। बैठ जाइए, हम तो सचाई के नजदीक जाना चाहते हैं। हम यह जोखिम उठाने को तैयार हैं। सोमनाथ का मंदिर अगर हम अपने हाथ से तोड़ते हैं, तो हमारा नुकसान होना चाहिए। अगर आपकी बात सही है, तो हमारा नुकसान होना चाहिए। हम तो नुकसान उठाने के लिए आए हैं। इतनी हिम्मत हमारे भीतर है। आप में हिम्मत नहीं है। आप तो लालची आदमी हैं? लालची आदमी हमेशा कमाने की बात सोचते हैं। हम आपकी अपेक्षा बहादुर आदमी हैं और हम यह जोखिम उठाते हैं। देखते हैं कि महादेव जी को तोड़ने के बाद हमारे ऊपर क्या मुसीबत आती है।
उन्होंने कहा—रुपया ले लीजिए, पैसा ले लीजिए, पर महादेव जी को मत तोड़िए। उसने कहा—महादेव जी को तोड़े बिना तो रहेंगे नहीं, चाहे आप उसके बराबर सोना डाल दीजिए, पैसा डाल दीजिए, पर महादेव जी को हम जरूर तोड़ेंगे; क्योंकि हमारा स्वार्थ है। हम देखना चाहते हैं कि वह आपको फायदा करता रहा, आपकी मनोकामना पूरी करता रहा, तो हमारा तो नुकसान जरूर करेगा। हम बीमार हो जाएँगे, हमारे खानदान वाले मारे जाएँगे। हम यही चाहते हैं कि हमारे खानदान वाले मर जाएँ और हम बीमार हो जाएँ।
मित्रो! महमूद गजनवी ने सब पंडितों को एक तरफ बैठा दिया। वे बहुत खुशामदें करते रहे, मिन्नतें करते रहे, पर वह माना नहीं। किसी जमाने में सोमनाथ का मंदिर सबसे बेहतरीन था। उसने अपने नौकरों से मना कर दिया कि आप लोग दूर रहिए। अगर शंकर भगवान नाखुश हो गए, तो आपका नुकसान कर देंगे। नुकसान तो हमारा होना चाहिए। उसने लोहे की राड़ और हथौड़े ले करके सोमनाथ के मंदिर के चार टुकड़े किए। और चार टुकड़े करने के बाद में बोला—देखिए साहब! अभी तो हमारा नुकसान नहीं किया, पीछे देख लेंगे। उसने उन चारों टुकड़ों को चार जगह भेज दिया।
सोमनाथ मंदिर के चार टुकड़े अभी भी चार मसजिदों में गड़े हुए हैं। नमाज पढ़ने वाले वहाँ पर जूते उतारते हैं। इनमें से एक टुकड़ा मक्का में गड़ा हुआ है। एक मदीने में गड़ा हुआ है। एक टुकड़ा अफगानिस्तान में गजनी के महल के प्रवेश द्वार पर गड़ा हुआ है और एक टुकड़ा गजनी के जामा मसजिद की सीढ़ियों पर गड़ा हुआ है। दुनिया की चार मसजिदें सबसे बड़ी मसजिदें हैं, जहाँ नमाज पढ़ने के लिए मुसलमान जाते हैं। उसने कहा कि अगर नुकसान होगा, तो नमाज पढ़ने वालों का होगा।
श्रेष्ठ गुणों को आत्मसात् करने का नाम है अध्यात्म
मित्रो! अध्यात्म उस चीज का नाम है, जिसमें आदमी का व्यक्तित्व, आदमी का चिंतन और चरित्र, आदमी के कार्य करने की शैली, आदमी के गुण, आदमी के कर्म, और आदमी के स्वभाव में परिष्कार होता है। इससे ज्यादा कोई अध्यात्म नहीं है और इससे कम कोई अध्यात्म नहीं है। सिद्धियों की बाबत सुना है न आपने, तो हम सिद्धियों की बाबत कहते हैं। चमत्कारों की बाबत सुना है न आपने, तो हम आपसे चमत्कारों की बाबत कहते हैं। आप स्वर्ग की बात कहते हैं न, तो हम स्वर्ग की बाबत कहते हैं। मुक्ति की बात कहते हैं न आप, तो हम मुक्ति की बाबत कहते हैं।
अध्यात्म के जो भी महत्त्व आपने सुने हैं, वे सारे-के-सारे माहात्म्य सच्चे हैं पूजा-पाठ भी करें, चलिए अब यहाँ आ गया, तो भी उन श्रेष्ठ गुणों को अपने जीवन में प्रवेश कराते चले जाएँ, तो सारे-के-सारे चमत्कार और सारी-की-सारी सिद्धियाँ आपके नजदीक आती चली जाएँगी। अगर नहीं, तो फिर जितने भी कर्मकाण्ड हैं, सारे-के-सारे कर्मकाण्ड, जितने भी देवी-देवता हैं, उन सबको आप गिरफ्तार कर लें और सबको पानी में डुबोते रहें और घी में डुबोते रहें, शक्कर में, फूल में, चावल में डुबोते रहें, तो देख लेना, आपको कुछ भी नहीं मिलने वाला है।
मित्रो! मैंने आपसे कहा था न कि आध्यात्मिकता के मूलभूत सिद्धांतों को समझकर आपको जाना चाहिए था। मैं एक ही बात कह रहा था कि आध्यात्मिकता के जिन सिद्धांतों को इस योगाभ्यास में, इस तपस्थली में, इस विद्या में, इस तीर्थ में आपको सीखना था, अभ्यास करना था उसका नाम परिवार है। परिवार में से आप सीखकर आइए। आप जो पैसा कमाते हैं, उसमें से कम-से-कम खरच कीजिए। आप औरों की अपेक्षा ज्यादा मत खाइए। आप बाजार से मिठाई लाए हैं न? हाँ साहब! तो आप क्या करना चाहते हैं! आप ही बैठकर खाएँगे? नहीं, यह मत कीजिए। हमारा कहना मानिए। इस मिठाई को सभी बच्चों में बाँट दीजिए। नहीं साहब! बच्चे तो कमाते हैं, खाते हैं। इसे तो हम ही खाएँगे। तो आप ही सारी रबड़ी खाएँगे? हाँ साहब! और अच्छी चीजें आप ही खाएँगे? और बीबी को? बीबी को भी नहीं देंगे। और माँ को? माँ को भी नहीं देंगे। हम कमाते हैं तो हम ही खाएँगे। भाई को भी नहीं देंगे, बहन को
भी नहीं देंगे।
मित्रो! हम आपसे यह कहते हैं कि मर्यादा के अनुसार आप अकेले नहीं खा सकते। हमने कमाया है? तो क्या करें? हम कमाते हैं, इसलिए हम अकेले ही खाएँगे—"केवलाघो भवति केवलादी" अर्थात जो आदमी आप ही कमाता है और आप ही खाता है, उसका नाम चोर है, उसका नाम लफंगा है, उसका नाम डाकू है। उसका नाम दुष्ट है और उसका नाम बेईमान है। उसका जो भी नाम देना चाहते हों, दे सकते हैं। नहीं साहब! हमने चोरी तो नहीं की। चोरी तो नहीं की, पर अकेले तो खाया।
अकेले खाना भी गुनाह है। सामाजिक क्षेत्र का तो नहीं है, पर आध्यात्मिक क्षेत्र का यह गुनाह है। कानून तो उसे गिरफ्तार नहीं कर सकता। आप जो कमाते हैं, वही खाते हैं। पुलिस आपको पकड़ने वाली नहीं है। आप पर मुकदमा चलने वाला नहीं है। आपको जेल होने वाली नहीं है, पर हम आपका आध्यात्मिक कानूनों की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। आध्यात्मिक कानून में आपको चोर से कम नहीं माना जाएगा। जब आप भगवान के नजदीक जाएँगे, तो आपको हिकारत की नजर से देखा जाएगा। आप कमाते हैं और आप ही खा जाते हैं, यह कैसे हो सकता है? अध्यात्म के क्षेत्र में ऐसा नहीं होता है।
मित्रो! फिर क्या करना चाहिए! आपको कुटुंब से यह शिक्षा लेनी चाहिए। यह शुरुआत है, प्रशिक्षण है? जैसे पट्टी के ऊपर ए.बी.सी.डी. और 'क' माने कबूतर और 'ख' माने खरगोश सीखा जाता है, इसी तरीके से आध्यात्मिकता के गुणों को सीखने के लिए परिवार में आप आइए और सीख करके जाइए कि कमाने वाला आदमी कभी अकेला नहीं खाता है।
[क्रमशः]
आध्यात्मिकता का आधार—पारिवारिकता
(गतांक से आगे)
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अपने इस सारगर्भित उद्बोधन में पारिवारिक जीवन को एक आध्यात्मिक आधार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि अनेक लोग अध्यात्म का अर्थ परिवार से विमुख होने एवं पारिवारिक कर्तव्यों से पलायन करने में मानते हैं, परंतु वह आध्यात्मिकता का सच्चा स्वरूप नहीं। यदि हम पारिवारिकता के सत्य सिद्धांतों का अनुशीलन करें, आपसी सौहार्द को बनाए रखें, प्राप्त आय का संयमशीलता के साथ नियोजन करें, बटोरने नहीं, बल्कि बाँटने के भाव से परिवार का पोषण करें तो ये ही गुण हमारे भीतर वास्तविक आध्यात्मिक गुणों को विकसित करने का माध्यम व आधार बन जाते हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......
शालीनता की निशानी परिवार
मित्रो! आपका परिवार उसे कहते हैं, जिसको भटियारखाना कहा जा सकता है। कामवासना के गुलाम तरह-तरह की रंग-बिरंगी औरतों को तलाशते फिरते हैं। बीबी का कट देखते हैं, रंगीन और खूबसूरती देखते हैं। खूबसूरती का क्या करेंगे? नहीं साहब! कामवासना में ज्यादा काम आएगी। इसकी आँखें बड़ी हैं, नाक बड़ी है। तो आप कामवासना के लिए विवाह करते हैं? तो वेश्या से विवाह कर लीजिए। वेश्यागमन कीजिए न। क्या कोई घरवाली वेश्या है? नहीं साहब! हमारे लिए तो सब वेश्याएँ हैं। घरवाली और बाहरवाली हमारी आँखों में तो सब वेश्या समान हैं। इसलिए जब हम अपने लिए बीबी की तलाश करेंगे, तो वह वेश्या की तरह हसीन, फिल्मी एक्ट्रेस की तरह होगी। तो आप नटनियों से विवाह करेंगे? इन्हें घरवाली बनाएँगे न? रंग-रूप को तलाश करेंगे न? आखिर आपको क्या हो गया है? मैं यह पूछता हूँ कि आपको क्या हुआ?
मित्रो! परिवार एक शालीनता की निशानी है। सफलता की निशानी है। सज्जनता की निशानी और दूरदर्शिता की निशानी है। इसलिए आपको क्या करना चाहिए था कि जो आप कमाते हैं, उसको खरच कर दीजिए। किसके लिए? सांसारिक कामों के लिए, ताकि आपके बच्चे पढ़-लिख सकें। ताकि आपके बच्चे योग्य हो सकें। ताकि आपके बच्चे कमाने-खाने लायक हो सकें। ताकि आपके बच्चे स्वावलंबी हो सकें। बच्चे ही नहीं, इसमें भाई-बहन भी शामिल हैं। वे भी बच्चे हैं। जो भी आपसे कमजोर हैं, वे सब बच्चे हैं, यहाँ तक की आपकी मम्मी भी आपका बच्चा है और आपका पिता भी आपका बच्चा है; क्योंकि वे कमजोर हैं। बच्चे का मतलब होता है—कमजोर। कमजोर का मतलब है—वह आदमी, जो अपने पैरों पर खड़ा नहीं है। वे सब आपके बच्चे हैं। आपका बाप भी बच्चा है, आपका दादा भी बच्चा है और आपकी दादी भी आपकी बेटी है इस मामले में। क्योंकि वे कमा नहीं सकते, तो छोटी बेटी और दादी में क्या फरक बच गया। दोनों ही एक हैं। जो आदमी कमजोर है, उसके लिए खरच कीजिए, चालाक के लिए नहीं।
मित्रो! फिर क्या करना पड़ेगा? आपको अपने ऊपर संयम रखना पड़ेगा। अगर आप बाजार में कोका-कोला पिएँगे, तो आपको उलटी आनी चाहिए और आपको यह ख्याल आना चाहिए कि हमारे बच्चे जो बिना दूध की चाय पी करके किसी तरीके से पेट भरते हैं और हम अकेले डेढ़ रुपये का कोका-कोला पी रहे हैं। अगर आप डेढ़ रुपये का दूध ले करके दोनों बच्चों को पिला देंगे, तो उनकी जिंदगी लंबी हो जाएगी। आपको अकेले कोका-कोला पीते हुए शरम नहीं आई। आपको उलटी नहीं हुई? आपका पेट फटा नहीं? सिगरेट के बंडल खाली करते रहते हैं, आपको शरम नहीं आती? आपको ख्याल नहीं आया कि हमारी बहन के घर में कैसी मुसीबतें हैं। उसके गुजारे का कोई साधन नहीं है। आपने अगर बीड़ी-सिगरेट के वे बंडल, कोका-कोला की बोतल वापस कर दिए होते, तो उस पैसे से किसी की मदद की जा सकती थी।
पारिवारिकता है आध्यात्मिकता
मित्रो! पारिवारिकता एक तरीका है, आध्यात्मिकता है। उसी तरीके को सिखाने के लिए हमने आपको यहाँ बुलाया है। नहीं साहब! आपने तो इसलिए बुलाया है कि आपके बहुत सारे बच्चे हो जाएँ और उनके शादी-ब्याह हो जाएँ। उनके बच्चे हो जाएँ। सही माने में यदि आप जानना चाहें, तो मैं बहुत बड़ा कुटुंब बसाने के खिलाफ हूँ। क्यों? आपमें से कुछ आदमी शराफत रखते हों, तो समाज के लिए, देश के लिए जैसे प्राचीनकाल में घर में से एक आदमी लड़ाई लड़ने के लिए चला जाता था। बाकी आदमी कहते थे कि घर-गृहस्थी को हम सँभालेंगे और एक आदमी फौज में भरती होने के लिए चला जाता था। नहीं साहब! सबको शादियाँ करनी चाहिए।
मैं पूछता हूँ कि शादियाँ करके क्या करेंगे आप? इससे ढेरों-की-ढेरों मुसीबतें आएँगी। देश में अनाज की कमी है। रोटी है नहीं, कपड़ा है नहीं। नहीं साहब! हमारी तो शादी होनी चाहिए। लड़की में तमीज नहीं है। यह बच्चे और घर-गृहस्थी को सँभाल नहीं सकती। यह भावी जिम्मेदारियों को निभा नहीं पाएगी। इसलिए अभी पढ़ने दीजिए। नहीं साहब! शादी करेंगे। साहब! यह हमारा लड़का है। इसकी शादी करेंगे। क्या कमाता है? साहब! कमाता तो नहीं है, पर शादी तो होनी चाहिए। कमाता नहीं है, तो काहे की शादी होनी चाहिए। कमाए या न कमाए शादी तो होनी चाहिए। बच्चा पैदा कर लेगा। बच्चों की परवरिश कैसे करेगा?
मित्रो! इस ख्याल का आदमी हूँ, जो हमेशा से यह कहता रहा हूँ कि कुटुंब बढ़ाने से पहले हजार बार सोच विचार कर लीजिए, लाख बार सोच-विचार कर लीजिए। इस बात पर अपने कलेजे पर हाथ रखकर अपनी परीक्षा कर लीजिए कि आप में इतनी तमीज है, आप में इतनी योग्यता है कि अपना गुजारा कर सकते हैं। औलाद तो कुत्ते भी पैदा कर लेते हैं। आप अपनी पत्नी को सहयोगी बना सकते हैं? उसका सहयोग कर सकते हैं?
आप अपनी पत्नी का दिल जीत सकते हैं क्या? अगर ऐसा बना सकते हैं, तो मैं खुशी से आपको शादी का आशीर्वाद दूँगा। कुत्ते-कुतिया के ब्याह में कोई आशीर्वाद देता है क्या? नहीं साहब! हमारे यहाँ तो पिल्ला-पिल्ली का ब्याह होता है। नहीं साहब! हमें तो ब्याह का निमंत्रण आया है। तो इसमें आग लगा दीजिए। हमने कुत्ते, बिल्ली, सुअर के ब्याह में कभी आशीर्वाद नहीं दिए। आपको विवाह करना है, तो भले मानस की तरह से विवाह करिए। समझदार, जिम्मेदार आदमी के तरीके से विवाह कीजिए और अगर आपको कुत्ते-कुतिया की तरह खेल खेलना है, तो खेलिए, फिर उसे विवाह क्यों कहते हैं?
जिम्मेदारी की सामर्थ्य हो तो ही करें विवाह
मित्रो! मैं तो विवाह के बारे में हमेशा से यही कहता रहा हूँ कि जिम्मेदारी उठाने में समर्थ हैं तो ही आप विवाह कीजिए और बाल-बच्चे पैदा करने के लिए तो मैंने हर आदमी से हाथ जोड़-जोड़कर प्रार्थना की है कि आपने शादी कर ली, वहाँ तक मुबारक, लेकिन आप बच्चे मत पैदा करना। कम बच्चे पैदा कीजिए। साहब! अगर लड़कियाँ हों तो? तो क्या लड़कियाँ बुरी होती हैं। नहीं साहब! लड़का तो होना ही चाहिए। हमारा वंश तो चलना ही चाहिए।
मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि जवाहर लाल नेहरू का वंश डूबा नहीं है। लड़की ने ही वंश चला दिया और आपका तो न लड़की चलाएगी और न लड़का चलाएगा। आपका वंश कोई भी नहीं चलाएगा। नहीं साहब! वंश तो चलना ही चाहिए। कुल में दीपक जलना ही चाहिए। पिंडदान देना ही चाहिए। आप ऐसी बातें करते हैं, जिससे हमारी समझ में आता है कि आप में समझदारी का माद्दा खतम हो गया है और आपके भीतर ऐसा कोई जाहिल, ऐसा कोई जलील प्रेत आपके ऊपर हावी हो गया है, जो विचार ही नहीं करने देता कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। आप हर साल बच्चे पैदा करते हैं। लड़कियाँ पैदा हो गईं लड़के पैदा हो गए। कुनबा बढ़ता चला गया।
मित्रो! अगर आपने कुटुंब, परिवार से मतलब इस तरह का समझा हो कि गुरुजी हमको यह कहने वाले हैं कि आपको शादी जरूर करनी चाहिए और बच्चे जरूर पैदा करने चाहिए, तो आप इस ख्याल से अपने को हटा लीजिए। हमने परिवार शिविर में इस बात के लिए नहीं बुलाया है, इसमें औलाद पैदा करना शुमार नहीं है और शादी करना भी इसमें शुमार नहीं है। मैं तो आपसे एक अलग बात कह रहा था। मैं पारिवारिकता की फिलॉसफी की बात कह रहा था और परिवार की फिलॉसफी जानकर उसे जीवन में अपनाने की बात कह रहा था। आपने क्या जान लिया और क्या समझा है, मालूम नहीं। नहीं साहब! परिवार को खुश रखना चाहिए। बीबी को जेवर बनवाने चाहिए, साड़ियाँ खरीदनी चाहिए और बच्चों को ढंग के कपड़े पहनाने चाहिए और पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलाना चाहिए। आप जानें आपका काम जाने। मेरा ऐसा कोई मतलब नहीं था।
आध्यात्मिकता का मेरुदंड
मित्रो! मेरा क्षेत्र आध्यात्मिक है और मैं आध्यात्मिक शिक्षा ही दूँगा। मैं आपको आध्यात्मिक फिलॉसफी के अलावा और क्या बताऊँगा। मैं यह कह रहा था कि परिवार में रहकर आप ज्यादा सरलता से, ज्यादा आसानी से उन गुणों का अभ्यास कर सकते हैं, जो आध्यात्मिकता का मेरुदंड हैं। आध्यात्मिकता का मेरुदंड माला नहीं है। आध्यात्मिकता का मेरुदंड मंत्र नहीं हैं। आध्यात्मिकता का मेरुदंड ये खिलौने नहीं हैं, जिनको आपने अपनी चौकी पर सजा करके रखा है। आध्यात्मिकता का मेरुदंड आरती नहीं है। आध्यात्मिकता का मेरुदंड वे खेल-खिलौने नहीं हैं, जिनको आपने न जाने कितना वक्त दिया है।
आध्यात्मिकता मूलतः आदमी के सिद्धांतों से ताल्लुक रखती है। इस परिभाषा का मैं बार-बार हवाला देता चला आ रहा हूँ। अभी मैंने आपसे यह कहा था कि यह वृत्ति, पारिवारिकता की वृत्ति, तप-सेवा की वृत्ति, अपने सुखों को बाँट देने की वृत्ति और दूसरों के दुःखों को बँटा लेने की वृत्ति आपने सीखी या नहीं सीखी। जब आपका लड़का मरा था, ढाई साल का था। तब आप रोये थे कि नहीं? आपको दुःख हुआ था या नहीं हुआ था? हाँ साहब! बहुत दुःख हुआ था। तो यह बच्चा कौन था? ढाई साल का हमारा बच्चा था। तो क्या वह आपके पेट में से पैदा हुआ था? नहीं साहब! हमारे पेट में से पैदा नहीं हुआ था। फिर उसके मर जाने से आपका क्या नुकसान हुआ? रोज दूध पीता था और अनाज खाता था। मर गया तो क्या हुआ? अरे गुरुजी! आप यह क्या कहते हैं? हाँ बेटे, मैं गलत कह रहा था।
मित्रो! दूसरों का दुःख, दूसरों का कष्ट, दूसरों का विछोह देख करके आपको पीड़ा होनी चाहिए। आपको तो कुछ नहीं हुआ था न, जब आपके खानदान में मृत्यु हुई थी। जब आपके पड़ोस में मृत्यु हुई थी, तो फिर आपको रोना क्यों आया? हमको रोना इसलिए आया, क्योंकि वे हमारे थे। हमारे आदमियों की जब मृत्यु होती है, तो हमें शोक होता है। वह शोक हमारे ऊपर भी हावी हो जाता है। ठीक बात है, यह भलमनसाहत की निशानी है।
जो भी आपके नजदीक हैं, जिनको आप अपना मानते हैं, उनके ऊपर कोई मुसीबत आ जाए तब? एक्सीडेंट हो जाए, तब? मृत्यु हो जाए तब? मुकदमा लग जाए तब, बीमारी हो जाए तब? तब आपको दुःखी होना ही चाहिए। मैं पारिवारिकता की ऐसी वृत्ति को विकसित होते देखना चाहता था। मैं यह देखना चाहता था कि सारा समाज भी तो अपना ही अंग है। दूसरे लोग जब मुसीबत में हों, तो आपकी आँखों में से आँसू आने चाहिए। अपितु तुरंत यह भी कोशिश करनी चाहिए कि मुसीबत को दूर करने के लिए हम क्या कर सकते हैं।
मित्रो! दुनिया में बहुत दुःख फैला हुआ है, तो आप कुछ करेंगे कि नहीं करेंगे? हम तो साहब! वह करेंगे जो नारद जी ने बताया है। नारद जी ने क्या बताया है। नारद जी ने बताया है कि विष्णु भगवान कहते थे कि सारे दुःखों को निवृत्त करने के लिए सत्यनारायण स्वामी की कथा करानी चाहिए। सौ रुपये पंडित जी को दक्षिणा दे करके हरि-हरि बोलना चाहिए। फिर पंचामृत, पंजीरी खानी चाहिए। बोलो सत्यनारायण भगवान की जय। चल धूर्त कहीं के, इनकी सहायता भी करेगा या सत्यनारायण की कथा सुनेगा। सत्यनारायण स्वामी इसीलिए बैठे होंगे। सारी दुनिया मुसीबत में इसलिए धकेल दी है कि हमारे चेले कथा कहें और सवा रुपये का प्रसाद हमको चढ़ा दें, तो सारी दुनिया की मुसीबतें हम दूर कर दें। किसी ने कथा पहले ही करा दी होती, प्रसाद चढ़ा दिया होता तो काहे को मुसीबतें आतीं।
आध्यात्मिकता का सच्चा सिद्धांत
मित्रो! आध्यात्मिकता का सिद्धांत यह कैसे हो सकता है? आप गलतफहमियों, अंधविश्वासों को, मूढ़ मान्यताओं को अध्यात्म के ऊपर कब तक थोपते रहेंगे। आप सचाई की कभी नहीं सुनेंगे। सचाई के नजदीक कभी नहीं आएँगे। सचाई को समझने की कभी कोशिश नहीं करेंगे। सचाई से आपका कोई वास्ता नहीं है। आपको अज्ञान ही पसंद है। आपको भ्रमजंजाल ही पसंद है। नहीं ऐसा मत कीजिए। फिर क्या करना चाहिए?
आपको अपने व्यक्तित्व के साथ में उन गुणों को विकसित करना चाहिए, जो पारिवारिकता के साथ जुड़े हुए हैं। मैंने कहा था न कि दूसरों के दुःखों को बँटा लेना। बच्चा रोता है न? बच्चे के पेट में दरद है न? आपके पेट में तो नहीं है। आँखें बच्चे की दुःख रही हैं, आपकी तो नहीं। आप क्यों हैरान हो रहे हैं? नहीं साहब! हमारा बच्चा है। ठीक है आपका बच्चा है, तो क्यों दुःखी नहीं होना चाहिए। पर आप अपने बच्चे तक ही सीमित रहेंगे? गूलर के भुनगे के तरीके से एक छोटे दायरे तक ही सीमित रहेंगे? घर के भीतर जो रहते हैं, क्या वही बच्चे होते हैं? पड़ोस में कोई बच्चा नहीं होता? अन्य बच्चों से आपका कोई ताल्लुक नहीं होता।
मित्रो! समाज के लोगों से भी आपका ताल्लुक होना चाहिए। आपने कभी एक सिनेमा देखा होगा। मैंने देखा तो नहीं, पर उसके बारे में सुना है। एक खेल आया था—'ब्रह्मचारी'। ब्रह्मचारी को बच्चों से बड़ा लगाव था। लोगों ने कहा कि बच्चे होने चाहिए। उसने क्या काम किया? ब्याह शादी तो नहीं की, पर पड़ोस के बच्चे, अनाथ बच्चे, अपाहिज बच्चे इकट्ठे कर लिए और उन्हें पालने लगा। उन्हें रिक्शे में बैठाकर स्कूल ले जाता और शाम को उन्हें स्कूल से लेकर आता। सबको प्यार से खिलाता-पिलाता और उन्हें सुलाकर तब सोता। नाम था ब्रह्मचारी और बारह बच्चे इकट्ठे कर लिए।
क्या आप ऐसे ब्रह्मचारी नहीं बनेंगे? क्या आपको ऐसा प्यार करना नहीं आता है? केवल अपने बच्चों को ही प्यार कर सकते हैं, दूसरों को नहीं कर सकते क्या? आपका बच्चा तो आपकी पिटाई करेगा, देख लेना। जिस मोह, अज्ञान की वजह से आप बच्चों को पालते हैं, वे आपको मारेंगे। स्वार्थी आदमी, कमीना आदमी, लुच्चा आदमी सारी जिंदगी थोड़े से आदमियों को ही अपना समझता रहा, उसने अपना दायरा कभी बढ़ाया ही नहीं। यह इनसान है कोई?
अगर आपका बेटा आपको गाली देता है, आपकी पिटाई करता है, आपके साथ में बदसलूकी करता है, तो कोई बड़ी बात नहीं है। आपको मरने के बाद परलोक में भी दंड मिलेगा। न मिले तो अच्छा है। यम के दूत भी तो मारेंगे आपको। वह आदमी जो स्वार्थ के लिए जिया। साहब! हमने चोरी नहीं की। तो हम क्या करें? यह व्यवहार क्या चोरी से कम है कि आपके पास जो माद्दा था, आपने थोड़े से स्वार्थी लोगों के लिए, सीमित आदमियों के लिए खरच कर डाला। यह डकैती या चोरी नहीं है, तो क्या है? उठाईगीरी नहीं है, तो क्या है?
मित्रो! हम कुटुंब में रह करके, परिवार में रह करके ही सीखते हैं कि हमें अपनी कमाई के ऊपर अंकुश होना चाहिए। ये हमारी सांसारिक योग्यताएँ हैं। इनमें कमाई भी शामिल है, अक्ल भी शामिल है, जायदाद भी शामिल है, रुपया-पैसा भी शामिल है, दुकान भी शामिल है। संसार की जो वृत्तियाँ आपके पास हैं, उन्हें कमाइए और दूसरों के लिए खरच कीजिए। अपना दायरा बढ़ने दीजिए। घर से समाज तक अपना दायरा ले आइए। ये देखिए कि दुःख, पीड़ा कहाँ है, दयनीय स्थिति कहाँ है।
जहाँ कहीं भी आपको सूखा दीखे, वहाँ बादलों के तरीके से बरसना शुरू कर दीजिए। सहायता करने का माद्दा विकसित करना शुरू कीजिए। पारिवारिकता यही है। आपको इस बात का अफ़सोस नहीं होना चाहिए कि हमने अच्छा खाया नहीं, अच्छा पहना नहीं। इसके लिए शरम करने की कोई जरूरत नहीं। हमने जिन लोगों की सेवा की, उन्होंने हमारी कोई सहायता नहीं की। पढ़ाया, योग्य बनाया, उनका विवाह कर दिया। तो अब आप क्या चाहते हैं? वह अपने पति के यहाँ से आपको मनीआर्डर भेजे। अरे गुरुजी! आप क्या बात कहते हैं? हमारी बेटी हमको मनीआर्डर क्यों भेजने लगी। तो फिर क्या होता है? ब्याह के बाद भी हम उसकी सहायता करते रहते हैं।
मित्रो! आप उन लोगों की भी सहायता कीजिए; जो गए-बीते आदमी हैं, पिछड़े आदमी हैं। उनसे मुआवजे की क्या आशा करते हैं। बदले का क्या भाव रखते हैं। जो काम करना है, उसे स्वभावतः कीजिए। वह अपनी जगह पर और आप अपनी जगह पर रहेंगे। घटिया आदमी से, धूर्त आदमी से बचिए। बढ़िया आदमी को बढ़िया जगह पर रहना चाहिए। आप जो कर सकते हों, सहायता कीजिए। आप बच्चों की सहायता करते हैं। उनकी नौकरी लग गई। ट्रांसफर हो गया और वे अपनी बीबी को लेकर अलग हो गए। अब आपकी शिकायत क्या है? हमने जो रुपये उनकी पढ़ाई में खरच किए थे, उनको ब्याजसहित चुकाना चाहिए था।
भाई साहब! वो जमाने चले गए। आप अगर बच्चों का पालन करते हैं, तो इसी ख्याल से कीजिए कि वे स्वावलंबी हो जाएँगे और अपना कमाएँगे, खाएँगे बस। आप अपने बुढ़ापे में हाथ-पाँव से कमाइए। नहीं साहब! बुढ़ापे में पिंडदान करेगा। भाई साहब! अपना पिंडदान अपने आप करके जाइए। नहीं साहब। हमारा बेटा पिंड देगा। बेटे से पिंडदान की उम्मीद मत कीजिए। बेटे ने पिंडदान नहीं किया तब? तब आपको क्या करना चाहिए?
मित्रो! गुरु गोलवलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी थे। उनके दिमाग में यह ख्याल था कि मरने के बाद में कुछ श्राद्ध-तर्पण और पिंडदान होना चाहिए। उन्होंने क्या किया? उन्होंने बदरीनाथ जा करके ब्रह्मकपालं नामक स्थान पर अपना पिंडदान, श्राद्ध-तर्पण स्वयं किया। आपको पिंडदान देने की फिक्र है न? आप अपने आप अपना पिंडदान कर लीजिए। अपना तर्पण आप कर लीजिए। अपना श्राद्ध आप स्वयं कर लीजिए।
मित्रो! आपको क्या करना चाहिए? उदारता की दृष्टि से, कर्तव्यों की दृष्टि से चाहे बेटा हो या बेटी हो, माँ हो अथवा बाप हो। अब बाप से आपको क्या मिलेगा? जब नौकरी करता था, तब दिया करता था। अब तो देने लायक नहीं रहा, तो बाप की सेवा नहीं करेंगे। माँ आपकी सेवा करने लायक नहीं रही, बुढ़िया हो गई, तो आप उसकी सेवा नहीं करेंगे? खूब सेवा कीजिए। मित्रो! न तो इनसानों की कीजिए, न गए-बीतों की कीजिए, न बुजुर्गों की कीजिए और न भगवान की कीजिए। बदले की कीमत पर किसी की सेवा मत कीजिए।
मित्रो! क्या आप अनुष्ठान इसलिए कर रहे थे कि आपका काम पूरा हो जाए? नहीं भाई साहब! इस ख्याल से मत कीजिए। हमने मूर्तियों की पूजा का प्रावधान सिर्फ इसीलिए किया है। कैसे किया है? मूर्तियाँ पत्थर की बनाई हैं। पत्थर की? हाँ भाई साहब! पत्थर की मूर्तियाँ हैं हमारी। फिर क्या काम करते हैं? हम पत्थर की मूर्ति को रोज नमस्कार करते हैं। रोज आरती उतारते हैं। रोज कपड़े पहनाते हैं। रोज मिठाई खिलाते हैं। भाई साहब! हम मूर्ति की बहुत सेवा करते हैं। और यह मूर्ति बदले में क्या करती है? बदले में यह चुपचाप बैठी रहती है। हम चाहे रोएँ, तो भी चुप, हँसें तो भी चुप, कोई जवाब ही नहीं देती है।
मूर्ति की अपेक्षा हमारा पड़ोसी ज्यादा अच्छा है; क्योंकि जब हम उसे मिठाई खिलाते हैं, तो वह 'थैंक्यू वेरी मच' तो कहता है। यह मूर्ति तो कुछ भी नहीं कहती है। अरे साहब! तो आपने तो बड़ी बेकार मूर्ति बनवाई है। आप कैसे भक्त हैं? चलिए ठीक है, हमारी गलती है। हम बार-बार उसके चरण छूते हैं और बार-बार मिठाई खिलाते हैं। भाई साहब! हमारे एक पड़ोसी हैं। हम उन्हें बार-बार चाय पिलाते थे। एक बार हम उधर से निकल रहे थे, तो उन्होंने पकड़ लिया। हमें आप बार-बार चाय पिलाते हैं, अब तो आपको हमारे घर पर चाय पीनी पड़ेगी। बिना चाय पिए हम आपको जाने नहीं देंगे। चाय पिलाई, नाश्ता कराया।
[क्रमशः समापन अंक]
परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-3
आध्यात्मिकता का आधार—पारिवारिकता
(अंतिम किस्त)
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अपने इस संबोधन में पारिवारिकता को आध्यात्मिकता का एक महत्त्वपूर्ण आधार एवं मेरुदंड बताते हैं। वे कहते हैं कि जो पारिवारिकता के भाव का सम्यक निष्ठा के साथ अनुशीलन करते हैं, बाँटने एवं सहयोग करने की वृत्ति को जीवन के प्रत्येक आयाम में आत्मसात् करते हैं, शालीनता को धारण करते हैं, संयमशीलता का पालन हर समय करते हैं, वे न केवल एक संस्कारवान परिवार का आधार गढ़ते हैं, वरन वे स्वयं के जीवन में आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों की प्रतिष्ठा भी करते हैं। परमपूज्य गुरुदेव के अनुसार, पारिवारिकता के सिद्धांत अध्यात्म के सही व सच्चे स्वरूप का आधार भी हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को..
अपने फर्ज को न त्यागें
मित्रो! ये देवी जी, सरस्वती जी, लक्ष्मी जी, गायत्री जी, इनको सारी जिंदगी हमने कपड़े पहनाए, मिठाई खिलाई, पर एक दिन भी यह नहीं कहा कि गुरुजी! हमारे यहाँ केले का पिटारा रखा हुआ है। इसमें से चार केले आप ले जाइए और खा लीजिए। उनके पास रखे तो रहे, कीड़ों ने तो खा लिए, चूहों ने तो खा लिए। वे केले रखे-रखे सूख गए, सड़ गए; पर उन्होंने हम से नहीं कहा कि साहब! आप हमारे भगत जी हैं, पंडित जी हैं, ये केले खा जाइए। तो साहब! आप ने पूजा-पाठ छोड़ दिया? नहीं, हमने कुछ नहीं छोड़ा; क्योंकि फर्ज एकांगी होते हैं। आपकी पत्नी कैसी है? बड़े कड़ुए स्वभाव की है, तो आप अपना फर्ज पूरा कीजिए। बीबी अपना फर्ज पूरा नहीं करती, तो हम क्या करें? नहीं साहब! वह कटु स्वभाव की है और हमारा कहना नहीं मानती। बड़ी ढीठ और उजड्ड है, ठीक है। समझाने की कोशिश कीजिए, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं होता है कि आपके जो फर्ज हैं, आप उन्हें भी त्याग देंगे। आप अपने फर्ज को मत त्यागिए।
मित्रो! दूसरे आदमी आपके लिए अपने फर्जों को पूरा नहीं करते। अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं करते, तो आप क्या कर रहे हैं? आप किसी पर दबाव तो नहीं डाल सकते, आप उन्हें मजबूर तो नहीं कर सकते, आप दूसरे आदमी के गुलाम तो नहीं हैं, वे आपके लिए तो नहीं बने हैं, न जाने कौन से जन्मों के संस्कार उनके भीतर जमा हो गए हैं, उन संस्कारों के कारण बेचारे न जाने कैसी-कैसी जिंदगी जी रहे हैं? आप अपनी जिंदगी जी रहे हैं और चाहते हैं कि वे अपने हिसाब से जियें। आप उनको नौकर बनाना चाहते हैं, गुलाम बनाना चाहते हैं। आप उनके मालिक बनना चाहते हैं। आप किसके-किसके मालिक बनेंगे?
पहले आप अपने शरीर के तो मालिक बन जाइए। अपनी आँख के तो मालिक बन जाइए। आपने आँख से कहा था न कि खबरदार, हमारी बात नहीं मानी तो? हाँ साहब! कहा था। जब आँख दुःखने लगी तो कहा था कि तुम हमारा कहना नहीं मानती हो। तुम अच्छी हो और हमारा कहना मान लो, पर वह मानी ही नहीं। अच्छा तो आपके घुटने में दरद होता है? हाँ साहब! घुटने हमको बहुत तंग करते हैं और चलने नहीं देते। आपने घुटनों से कहा नहीं कि या तो आप हमारा कहना मानिए, नहीं तो हम डंडों से पिटाई करेंगे। नहीं साहब! हमने तो कुछ भी नहीं कहा। क्यों? जो आपका कहना नहीं मानेगा। उसे डंडे से पिटाई नहीं करेंगे? जरूर करना, जो कोई भी कहना नहीं माने।
कुटुम्बपालन का आध्यात्मिक सिद्धांत
मित्रो! आँख, कान, घुटना जो भी कहना न माने, तो आप उसकी पिटाई लगाना और सिर जब नींद न आने दे, तब भाई साहब! ऐसा करना कि एक पत्थर लेना और सिर को फोड़ डालना। नहीं साहब! हम ऐसा नहीं कर सकते, तो फिर बीबी को क्यों मारा? सबके ऊपर आप हुकूमत चलाना चाहते हैं? सबके मालिक बनते हैं। आप सबके बॉस हैं, आप सबके भगवान हैं? आपने दूसरे आदमियों को खरीद रखा है? ऐसा मत कीजिए। यह गलतफहमी है। अपने व्यक्तित्व को विकसित करके सारे विश्वमानव के सामने उदाहरण प्रस्तुत करना है। यह आप अपने घर से सीखिए। सिद्धांतों को घर से सीखिए। घर का पालन करने का मतलब, परिवार बसाने का मतलब, परिवार में रहने का मतलब सिर्फ यह है कि आदमी अपने आध्यात्मिक सिद्धांतों को विकसित करता हुआ चला जाए। एक और भी आध्यात्मिक सिद्धांत है—कुटुंब के पालन करने का, इसका तात्पर्य यह है कि दूसरे आदमी को खुशहाल ही नहीं, बल्कि समझदार भी बनाइए। समझदार बनाने का मतलब अक्लमन्द नहीं है, वरन समझदार बनाने से मतलब सुसंस्कृत और सभ्य बनाने से है।
मित्रो! अगर आपने अपने बच्चों को सभ्य नहीं बनाया। अपनी पत्नी, अपने भाई, अपनी बहनों को सभ्य नहीं बनाया। अपने कुटुंबी-रिश्तेदारों को सभ्य नहीं बनाया, तो देख लेना, वे आपकी नाक में दम कर देंगे। अगर आपने इन्हें खुशहाल बनाया है, तो खुशहाल होना है। अगर आप गरीब हैं और आपने-अपने बच्चों को सुसंस्कारी बना दिया है, तब? तब आपके बच्चे श्रवण कुमार के तरीके से आपकी आँखें जाने के बाद भी कंधे पर काँवड़ में बैठाकर के तीर्थयात्रा करा सकते हैं। आपकी आज्ञा का पालन कर सकते हैं।
आप भले ही गरीब क्यों न हों, अगर आपने-अपने बच्चों को संस्कारवान बना दिया है, तो आपके बच्चे अपने कंधों पर बैठाकर के ले जाएँगे। अगर संस्कारवान नहीं बनाया, तब? तब भाई साहब! मैं किसके-किसके किस्से सुनाऊँ? आपको औरंगजेब का किस्सा बताऊँ, आपको शाहजहाँ का किस्सा बताऊँ। कितने सारे मुसलमान खानदानों के किस्से बताऊँ, जिन्होंने अपने बाप को जेल में डालकर गद्दी पर अधिकार किया। इतिहास में ऐसे अनेक राजा हुए हैं, हजारों के नाम गिना दूँ। यह तो पुराने इतिहास की याद आ गई, सो एक-दो नाम बता दिए। आप से निवेदन है कि आप लोग उन सभी को संस्कारवान बनाएँ, जो आप से ताल्लुक रखते हैं। जो आपके आश्रित हैं, जो भी आपके समाज में आते हैं, जो आपके कुटुंब में आते हैं, उन्हें खुशहाल बनाने की अपेक्षा संस्कारवान बनाएँ।
मित्रो! आपका दायरा सीमित है, अपनी मरजी तक और अपने अहंकार तक सीमित है। अपनी खुशहाली तक ही सीमित है, तो मैं आपको क्या कहूँ? फिर मुझे आपको पिशाच कहना पड़ेगा और जब आप इससे भी आगे बढ़ जाते हैं और भी छोटे दायरे तक सीमित हो जाते हैं, जिसमें आपकी बीबी, बच्चे और खानदान वाले ही आते हैं, तो मैं और कहूँ। जानवर तो नहीं कह सकता, पर आपको इनसान भी नहीं कहूँगा। इनसान के दायरे से आप कम हैं। इनसान और जानवर के बीच का कोई आदमी कह सकता हूँ, जैसे नृसिंह भगवान ने जन्म लिया था। नृसिंह भगवान कैसे थे? ऊपर से तो थे—शेर और नीचे से आदमी और भी थे कई—कच्छ, मच्छ थे। चेहरा तो आदमी का था और शरीर कछुए का, जो पानी में तैरते थे। आप मुझे उसी तरह के मालूम पड़ते हैं। मैं आपको उसी बिरादरी में सम्मिलित करता हूँ। अभी मैं आपको इनसान की बिरादरी में शामिल नहीं कर सकता; क्योंकि आप तो सीमित हैं। इनसान का दायरा घर से समाज तक, राष्ट्र तक फैला होता है। इनसान के सामने समाज भी होता है। इनसान के सामने संस्कृति भी होती है और इनसान के सामने राष्ट्र, विश्व भी होता है। इनसान के सामने इनसानियत नाम की कोई चीज भी होती है। नहीं साहब! हमें तो किसी और से नहीं, केवल भगवान से काम है। चलिए बाकी बात मैं पीछे करूँगा, पहले भगवान की बात बता देता हूँ।
भगवान विराट का नाम है
मित्रो! भगवान तो विराट को कहते हैं। अर्जुन को भगवान ने विराट रूप दिखाया था। वह मानता ही नहीं था, बार-बार कहता था कि अपना दर्शन करा दीजिए, तो भगवान ने कहा—इन चमड़े की आँखों से मेरा दर्शन कहाँ से होता है? मैं तुझे ज्ञान के चक्षुओं से करा दूँगा, तो करा दीजिए और उन्होंने अपना विराट रूप दिखाया अर्थात मानव समुदाय को दिखाया। कहा—देख हमारा रूप यह है। सेवा करनी हो, तो इसकी कर; समर्पण करना हो, तो इसको कर; आरती करनी हो, तो इसकी कर; पूजा करनी हो, तो इसकी कर। नहीं साहब! हम तो भगवान की पूजा करते हैं। कौन-सा भगवान? बताइए तो सही कि कौन से भगवान की पूजा करते हैं। साहब! वो बैल पर बैठकर घूमता है और चूहे पर बैठकर घूमता है और उल्लू पर बैठकर घूमता है। बेकार की बकवास बंद कीजिए। भगवान न उल्लू पर बैठकर घूमता है और न बैल पर बैठकर घूमता है। वह आदमी के गुणों पर, भावनाओं पर और आदमी की संस्कृति पर बैठकर घूमता है। आदमी के आचरण पर बैठकर घूमता है। ऐसा है भगवान, जिसको हम सिद्धांत कहते हैं, आदर्श कहते हैं। नहीं साहब! हमको तो भगवान रात में सपने में दिख गए थे। बेकार की बातें करते हैं। दिन में सपने क्यों देखते हैं? सपनों की दुनिया में ही घूमते रहेंगे, या वास्तविकता को भी समझेंगे?
मित्रो! मुझे ऐसे लोगों के ऊपर गुस्सा आता है, जो वास्तविकता से लाखों मील दूर हैं। महा अज्ञान के जंजाल में फँसे हुए हैं। मैं फिर आपसे कहता हूँ कि आध्यात्मिकता की उपासना के लिए आपको जिस तपोवन की जरूरत है, वह आपके अपने घर-परिवार से बेहतरीन तपोवन आपको कहीं भी नहीं मिलेगा। आपको क्या करना पड़ेगा? जहाँ तक कि आपका जितना बड़ा कुटुंब है, अगर छह आदमियों का है, तो आप उन सबको समुन्नत बनाइए। समुन्नत का अर्थ है—स्वावलम्बी, जो अपने पैरों पर स्वयं खड़े हों। आपके बच्चे स्वयं कमाकर खाएँ। नहीं साहब! हम तो इतनी धन-दौलत छोड़कर जाएँगे कि हमारी औलादें बैठकर खाएँगी, तो आपकी औलादें कैसी हैं? अंधी हैं, बहरी हैं, गूंगी हैं, अपाहिज हैं, जो बैठकर खाएँगी। आप ऐसी गलती मत करना। इन्हें स्वावलंबी बनने देना, अपने पसीने की कमाई खाने देना, ताकि उन्हें खरच करने की तमीज आ जाए। जिस आदमी ने अपने हाथ से कमाया है, वही सोच समझकर खरच करेगा। जिसने मेहनत से नहीं कमाया, हराम से कमाया है, चाहे जेब काटकर कमाया हो, चाहे बाप से उत्तराधिकार में मिला हो, वह सारे-के-सारे पैसे को शराबखोरी में, गलत कामों में खरच करेगा। आप ऐसा करेंगे क्या?
सिद्धांतों का नाम है आध्यात्मिकता
मित्रो! मैंने कुछ खरी बातें कहने के लिए आपको बुलाया है। आपका लगाव पैसे में हो सकता है और आपका लगाव कुटुंब में हो सकता है, लेकिन लगाव है—चाहे पैसा हो, चाहे कुटुंब हो, चाहे विद्या हो, चाहे दूसरी चीजें हों, लेकिन आप उन्हें सिद्धांतों के साथ समाविष्ट कर लीजिए। आध्यात्मिकता सिद्धांतों का नाम है। आध्यात्मिकता टेक्निक का नाम नहीं है। रामायण पढ़ने की टेक्निक को अध्यात्म नहीं कहते और अखण्ड कीर्तन की टेक्निक को अध्यात्म नहीं कहते और माला घुमाने की टेक्निक को अध्यात्म नहीं कह सकते। ये अध्यात्म के कलेवर तो हो सकते हैं, उपचार तो हो भी सकते हैं, पर ये उपचार कहलाएँगे। वास्तविकता वहाँ से प्रारंभ होगी, जहाँ से उपचारों के माध्यम से आप अपने गुणों को, कर्म को और स्वभाव को विकसित करना शुरू करेंगे। कलम अपने आप में उपयोगी हो सकती है, लेकिन शर्त यह है कि इसके सहारे आप विद्या पढ़ना सीखें। अरे साहब! जब हमारे पास पेन है, तो लिखना क्यों सीखें? माला हमारे पास है, तो हम जीवन को परिष्कृत क्यों करेंगे? जब हम देवी की पूजा कर ही लेते हैं, तो हमको आध्यात्मिकता के विकास की जरूरत क्या है? मनोकामना अपने आप पूरी हो जाएगी।
मित्रो! आप गलतफहमी में मत रहिए। मैं कहता हूँ कि आपके योगाभ्यास के लिए और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अपना घर और कुटुंब बेहतरीन जगह है। आप जो कमाते हैं, सांसारिकता की सामर्थ्य जो आपके भीतर है, वह चाहे अक्ल हो या पैसा हो, उसे समुन्नत बनाइए। कर्मठ बनाइए, स्वावलंबी बनाइए। एक और चीज आपके पास है। अगर आपके पास नीयत हो, आपके पास भावना हो, आपके पास चिंतन हो, आपके पास चरित्र हो, तो अपने लोगों को संस्कारवान बनाइए। अपने माध्यम से तो आप बनेंगे। हम रोटी खाते हैं, तो हाथ के माध्यम से ही तो खाते हैं। रोटी खाने के लिए हमको हाथ का सहारा लेना पड़ेगा, तभी पेट की भूख मिटेगी।
आप आत्मा की उन्नति अकेले नहीं कर सकेंगे। गुफा में एकांत कहीं बैठे रहेंगे। भाई साहब! ऐसा नहीं हो सकता। गुणों का विकास करने के लिए आप कोठरी में नहीं बैठ सकते। ध्यान के लिए कोठरी में बैठ सकते हैं, पर ध्यान से उद्देश्य कहाँ पूरा होगा? ध्यान से आज तक किसी का कोई उद्देश्य कहाँ पूरा हुआ है? जीवन के विकास से उद्देश्य पूरा हुआ है। जीवन के विकास के लिए सहायता की आवश्यकता होती है और साथियों की जरूरत होती है। जीवन समग्र है। जीवन एकाकी नहीं है। इसमें दाम्पत्य जीवन भी शामिल है। रोटी कमाना भी शामिल है। दवा दारू भी शामिल है, किताब पढ़ना भी शामिल है। ये सब चीजें क्या आप अकेले कर सकते हैं? सबका सहकार चाहिए। आपको अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए एक सहकारी क्षेत्र चुनना पड़ेगा। उसे चुनने के बाद आपको एक और काम करना पड़ेगा। वह यह कि आपको अपने घरवालों को संस्कारवान बनाना पड़ेगा, शिष्ट बनाना पड़ेगा, पुष्ट बनाना पड़ेगा, शालीन बनाना पड़ेगा। सदाचारी और उदार बनाना पड़ेगा, उदात्त बनाना पड़ेगा।
मित्रो! इसके लिए सबसे पहले आप अपने आप को अनुशासनप्रिय बनाइए, शिष्ट-सभ्य बनाइए, मितव्ययी बनाइए। वे सारे-के-सारे काम, जो आप अपने घर के लोगों को, परिवार के लोगों को अवगत कराना चाहते हैं, उनमें देखना चाहते हैं, उन सारे कामों को, गुणों को अपने जीवन में अभ्यास में ले आइए। वाणी पर नहीं, कथा में नहीं, बल्कि अपने दैनिक जीवन में अपनाइए। फिर देखिए, वे सब आपकी देखा-देखी आपका अनुकरण करेंगे और बाद में भी करेंगे। आपके बच्चों की ओर से मैं आपसे वायदा करता हूँ, आश्वस्त करता हूँ कि वे आपका कहना जरूर मानेंगे, लेकिन जो कहते हैं, वह आपके जीवन में, आचरण में घुला हुआ होना चाहिए। आपकी जीभ की बात कोई क्यों मानेगा? आपके मुँह में जीभ है, जिससे आप उपदेश करते हैं, पर व्यवहार अलग तरह का करते हैं। सारी दुनिया के लोग इस जीभ से जिरह करते हैं। दुनिया को गुमराह करते हैं। इसी घिनौनी जीभ से आप अपने बच्चों को और अपने घरवालों को नसीहत दे रहे हैं। इस जीभ का कहना लोग मान लेंगे? नहीं, कोई भी मानने वाला नहीं है। इसलिए आपको एक ही काम करना पड़ेगा कि आपको अपना व्यक्तित्व, अपना स्वभाव, अपना गुण, अपना चिंतन इस तरीके से बनाना पड़ेगा कि चाहे आपकी बीबी हो, चाहे बच्चे हों, चाहे बहन हों, चाहे भाई हों, सबके सब उसी साँचे में ढलते हुए चले जाएँ।
व्यक्तित्व से रखें उदाहरण
मित्रो! राम का जीवन आपने देखा नहीं, राम जिस घर में आए थे, सारे-के-सारे विरोधी बदलते हुए चले गए। कैकेयी विरोधी थी न, मंथरा विरोधी थी न, लेकिन कैकेयी और मंथरा का आखिर में क्या हुआ? लक्ष्मण का क्या हुआ? सारे-का-सारे खानदान किस तरीके से बदलता हुआ चला गया। नसीहत दीजिए, उपदेश कीजिए, दूसरों को आप कुछ मत कहिए। इनको सिखाइए। गुरुजी! ये तो हमारा कहना नहीं मानते। आप का कहना मानेंगे। आप आशीर्वाद दे दीजिए कि हमारे बच्चे सुधर जाएँ।
हम कुछ नहीं कर सकते, आपको सुधारने पड़ेंगे। साहब! कोई तरीका बताइए। तरीका एक ही है कि आप जिसकी उम्मीद उनसे करना चाहते हैं, उसका नमूना स्वयं पेश कीजिए। आपका व्यवहार और आपका दृष्टिकोण, आपका चिंतन, आपका स्वभाव, आपका आचरण और आपका उदात्त व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि जिसे छूकर के सारे-के -सारे खानदान के लोग, सारे-के-सारे कुटुंबी, आपके मिलने वाले लोग, आपके मित्र-सबके सब उसी साँचे में ढलते हुए चले जाएँ।
मित्रो! मैं क्या कह रहा हूँ? आत्मसाधना की बात कह रहा हूँ। आप तो परिवार शिविर लगा रहे थे? हाँ भाई साहब! परिवार शिविर से मेरा मतलब यही था कि आप परिवार के माध्यम से, परिवार की सहायता से, परिवार के उपकरणों का उपयोग करते हुए स्वयं के उत्थान में लगे रहें और स्वयं को विकसित करें और स्वयं के साथ-साथ अपना दायरा बढ़ाएँ। 'स्व' को जैसे परिष्कृत किया जाता है, 'स्व' को जैसे श्रेष्ठ बनाया जाता है, उसी तरह से अपने कुटुंबियों को, मित्रों को, संबंधियों को, अपने हितैषियों को और अपने मोहल्लेवालों को, अपने समाजवालों को और अपने देशवालों को उसी स्तर का विकसित करते हुए चले जाएँ। यही मेरा मकसद था।
आपको विदा करता हूँ और आपके भीतर बीजारोपण करता हूँ। परिवार समाज की धुरी है। परिवार आपके जीवन की महत्त्वपूर्ण इकाई है। परिवार आपके बहिरंग और अंतरंग जीवन के बीच की संध्या है। यह प्रभातकाल है। परिवार को कम महत्त्व मत दीजिए। परिवार को सँभालिए, परिवार को सँजोइए। परिवार की जिम्मेदारियों को समझिए। जिम्मेदारियों को समझने और सँभालने के लिए पहले अपने आप को ढालिए। अपने आप को ढालना बड़ा काम है; क्योंकि आप परिवार के बड़े मेंबर हैं और जब आप अपने आप को ढाल लेंगे और विकसित कर लेंगे, तो फिर देखिए आपकी छाया, आपका वातावरण सारे-का-सारा कैसे परिष्कृत होता है?
मित्रो! चंदन का वृक्ष झुक करके अपनी समीपवर्ती झाड़ियों को खुशबूदार बना सकता है, तो आप भी चंदन के पेड़ के तरीके से अगर विकसित होंगे, श्रेष्ठ गुणों से युक्त होंगे, तो अपने कुटुंबियों को, अपने खानदान वालों को और अपने बीबी-बच्चों को उसी ढाँचे में, ढालने में समर्थ क्यों नहीं हो सकेंगे? गुरुजी! आप तो अध्यात्म की बात कह रहे थे, तो मैं आप से क्या कहूँ? अध्यात्म का प्रयोग करने के हजारों तरीके हैं। उनमें से सबसे सरल, सबसे बेहतरीन तरीका यह है—जिसको हम परिवार कहते हैं।
यह सर्वसुलभ तरीका है और सबके लिए है। मनोरंजक भी है। हँसते-हँसाते यह उपासना और साधना की जाने लायक भी है। इसलिए मैंने आपको परिवार की महत्ता के बारे में ध्यान दिलाया। मेरा स्वयं तो ध्यान है ही। मैं तो परिवार संस्था बनाता रहा हूँ और आपको परिवार-परिजन कह रहा हूँ। कुटुंब की भावना मेरे मन में हमेशा से छाई रही है। सारे विश्व को मैं अपना कुटुंब मानता हूँ, इसीलिए सारे विश्व की समस्याओं के बारे में, कष्ट-कठिनाइयों के बारे में उतनी ही फिक्र करता रहता हूँ, जैसे कि अपने शरीर के बारे में और अपने मन के बारे में। आप भी हमारे कुटुंबी हैं। आपके बारे में भी उतनी ही फिक्र करता हूँ, जितनी कि औरों के बारे में करता हूँ।
मित्रो! यही कारण है कि आपकी सेवा में और आपकी सहायता में, आपके दुःखों में और आपके दरद में और आपकी मुसीबतों में हम हमेशा सहायता करते रहे हैं और जब तक जिएँगे, तब तक सहायता करते रहेंगे। आप हमको वरदान दीजिए। वह तो हम देंगे ही। आपकी सेवा करेंगे ही; क्योंकि हम आपके कुटुंबी हैं। हम आपके पिता हैं। हमारा बच्चा बीमार होगा, तो हम किस तरीके से देखेंगे? बच्चा गलती करेगा, तो हम कैसे देखते रहेंगे। आप में से कोई भी आदमी दुःख में होगा, परेशानी में होगा, कष्ट में होगा, पीड़ा में होगा, तो हम संत होने के नाते नहीं, वरन कुटुंब के बुजुर्ग होने के नाते आपके साथ चलेंगे। आपने वरदान माँगा हो तो, न माँगा हो तो, आप आशीर्वाद चाहो या न चाहो। आप अपनी परेशानियाँ, हैरानियाँ लेकर के आए हैं। आपने ये कही हों या न कही हों। आपके कहने की जरूरत क्या है? लड़की उन्नीस साल की हो गई है। पिताजी! हमारा विवाह करा दीजिए। नहीं बेटी, कहने की क्या जरूरत है? हमको दिखाई पड़ता है कि तुम उन्नीस साल की हो गई हो। हम अपनी जिम्मेदारी कहीं से भी पूरी करेंगे। तुम्हारा कहना जरूरी नहीं है कि पिताजी! हम बड़े हो गए, अब हमारा भी ब्याह-शादी कर दीजिए। हाँ, बेटे! हम तुम्हारा भी ब्याह करेंगे।
मित्रो! आपकी पत्नी तीन दिन से बुखार में पड़ी है। हमारा इलाज कराइए, कहने की क्या जरूरत है? हमको पहले से ही मालूम था कि आप बीमार हैं। आपकी हम सेवा करेंगे। जो आदमी समझदार होते हैं, वे कहे बिना भी जान सकते हैं। जिनके अंदर कौटुम्बिकता के सिद्धांत कूट कूटकर भरे हैं, वे सबकी सेवा और सहायता भी कर सकते हैं। आपके और हमारे भी कौटुम्बिकता के सिद्धांत हैं, इसीलिए हम आपकी सेवा-सहायता करेंगे। आप इसको वरदान मानें तो मानते रहें। एहसान मानें तो मानते रहें। आशीर्वाद मानें तो मानते रहें। चमत्कार मानें तो मानते रहें। सिद्धि माने तो मानते रहें, पर यह सिद्धि नहीं है। क्या है?
यह हमारी कौटुंबिकता, हमारी पारिवारिकता है, जिसको हमने विकसित किया है और आगे बढ़ाया है, ऊँचा उठाया है। स्वयं को इस लायक बनाया है कि हम आपकी सहायता कर सकें और दुनिया की सहायता करने में समर्थ हो सकें। यही हैं मोटे-मोटे सिद्धांत, जो आपके सामने पेश किए। अब आपको विदा करते हैं। आप इन सिद्धांतों को समझना और यदि संभव हो सके, तो आप अपने जीवन में भी उतार लेना। उतारने के लिए साहस करना, तो आप पाएँगे कि आपका परिवार आपके लिए कल्पवृक्ष के तरीके से कैसे सुख और शान्तिदायक बन जाता है।
आज की बात समाप्त।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखमाप्नुयात्।।
॥ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः॥