उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
अखण्ड ज्योति मई २०१४
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
देवियो! भाइयो! लोकशिक्षण के लिए हमने आप लोगों को बुलाया है। अब हम आपको बाहर भेजने वाले हैं। अब वह दिन समीप आ गया, जब आप लोग यहाँ से चले जायेंगे और लोकशिक्षण की प्रक्रिया को पूरा करेंगे। लोकशिक्षण की प्रक्रिया भगवान की सबसे बड़ी पूजाहै। इंसान को भगवान से दूर करने का एक ही कारण है और वह है उसका अज्ञान और भ्रान्तियाँ। अज्ञान और भ्रान्तियों ने मनुष्य को भगवान से दूर कर दिया। कषाय और कल्मषों ने मनुष्य को भगवान से दूर कर दिया। मनुष्य भगवान के कितने नजदीक था। बेटा माँके कितने नजदीक होता है, आप कल्पना नहीं कर सकते? मनुष्य भगवान से कषाय-कल्मषों के कारण कितना दूर चला गया? लाखों-करोड़ों मील दूर चला गया अज्ञान के अलावा इसका और कोई कारण नहीं है।
मित्रो! अज्ञान की व्याख्या जो हम किया करते हैं, वह जानकारी की कमी नहीं होती, वरन् हम इस अर्थ में किया करते हैं कि इस अज्ञान के कारण ही दुनिया में दुःख आये, कष्ट आये। उस अज्ञान से हमारा मतलब गैर जानकारी से नहीं है। जानकारियाँ तो जितनीआवश्यक हैं, उनको मनुष्य शुरू से ही लेकर के आया है। बच्चा जब जरा सा बड़ा हो जाता है, तो यह समझ जाता है कि हमें आग को नहीं छूना चाहिए। आप बच्चों को जलती हुई लकड़ी दिखाइये। आग देखकर वह दूर से ही भाग जाता है। नहीं साहब! हम नहीं जलेंगे।बच्चा रोने लगता है। बच्चे से कहिये कि अभी हम तुझे कमरे में बंद कर देते हैं, तो बच्चा रोने लगता हैं, यद्यपि अभी आपने उसे कमरे में बंद नहीं किया; क्योंकि वह जानता है, इसलिए रोता है। आवश्यक जानकारियाँ मनुष्य को स्वयं मिली हुई हैं। जानकारियों को-जिनको हम ज्ञान का शिक्षण कहते हैं और धर्म का शिक्षण कहते हैं, वह हमको पहले से ही मिला हुआ है।
मित्रो! हमको इस बारे में कोई गलतफहमी नहीं होना चाहिए कि चोरी करने वाला भी ईमानदारी को अच्छा मानता है। अगर लोगों से यह पूछा जाय कि चोरी करना अच्छा होता है कि ईमानदारी से रहना अच्छा होता है? चोरी करना खराब बात है और ईमानदारी से रहनाअच्छी बात है। जो व्यक्ति चोरी किया करते हैं, वे भी ईमानदारी की छाया में करते हैं। दूध में हम पानी मिलाते हैं, फिर भी बोर्ड पर यह लिखा होता है --‘‘नकली साबित करने वाले को सौ रुपये इनाम।’’ अगर वह अपनी दुकान पर यह लिखकर रखे-‘‘हमारे यहाँ दूध मेंआधा पानी होता है और आधा दूध होता है।’’ इसमें पाउडर मिला हुआ है और पाउडर की मलाई जमी हुई है। गलत बात साबित करने वाले को सौ रुपये इनाम।’’ अगर इस तरह का बोर्ड लगा दें, फिर आप देखिए कि आपके दूध की बिक्री होती है कि नहीं। कोई भी दुकान परनहीं आयेगा और एक पैसे का दूध नहीं बिकेगा। हर आदमी समझता है कि ईमानदारी का सहारा लिए बिना ईमानदारी की आड़ लिए बिना मनुष्य के लिए कोई ठिकाना नहीं है। इसे हर आदमी जानता हैं। दुनिया में ऐसा कोई आदमी नहीं है जो यह न जानता हो।
साथियो! आवश्यक जानकारियाँ हमको जन्म से ही मिली हुई हैं। गीता में भी यही लिखा हुआ है और रामायण में भी यही बात लिखी हुई है। रामायण पढ़ने से भी पहले हमको उन जानकारियों की मालूमात थी। उन्हीं जानकारियों को अगर आप दोबारा, तिबारा, चौबारालोगों से कहने के लिए चले जायेंगे, तो क्या आपको यकीन है कि लोग आपकी बात मान जायेंगे? नहीं मानेंगे। जानकारियाँ देना महत्त्वपूर्ण कार्य है। जानकारियों को तो देना चाहिए, परन्तु अगर आपने उन्हीं जानकारियों को देना शुरू किया और उन्हीं घिसी-पिटी बातोंको, जिनको हमने रामायण में हजारों बार पढ़ा और सुना है, सत्संगों में हजारों बार सुना है। व्याख्यानों में हमने पढ़ा और सुना ही नहीं, वरन् कहा भी हैं, दूसरों को सुनाया है। अगर आप यहाँ से जाने के बाद उन्हीं चीजों को सभाओं और सम्मेलनों में कहना शुरू किया, तोहो सकता है कि इससे लोगों का मनोरंजन हो जायेगा, परन्तु उससे हमारा उद्देश्य पूरा नहीं होगा।
प्रवचन नहीं, परिष्कार करें
वह उद्देश्य कैसे पूरा होगा? मित्रो! वह उद्देश्य ऐसे पूरा होगा कि जो कषाय और कल्मष मनुष्यों के ऊपर हावी हो गये हैं और चढ़ गये हैं, जिसने कि भगवान को और मनुष्यों को हजारों-लाखों मील दूर फेंक दिया है। उन कषाय-कल्मषों की दीवार को गिराने के लिएजनता को तैयार करना पड़ेगा और लोगों को तैयार करना पड़ेगा। लोगों को हम किस तरीके से तैयार करेंगे? वह बात आप किस तरीके से कहेंगे? वह बात कहाँ से आरंभ होनी चाहिए? जिस जनता को आप शिक्षण करने चले हैं, उस जनता का सबसे निकटवर्ती, सबसेसमीपवर्ती आदमी और आपका सबसे अधिक कहना मानने वाला और आपकी आज्ञा से चलने वाला आदमी, आपके अधिकार में रहने वाला आदमी कौन है? वह हम स्वयं हैं। पहले हमको यह बातें स्वयं को सिखानी होंगी। जो बातें आप जनता को सिखाने के लिए चलेहैं, पहले उसे आप स्वयं सीख लें। अगर आप स्वयं को यह सिखाने में समर्थ हो गये, तो फिर दूसरे आदमी भी यह सीखना शुरू करेंगे।
दूसरों को नसीहतें न दें
मित्रो! लोगों में एक ऐसी विशेषता हैं, जिसे आप अच्छाई कहें तो कह सकते हैं, बुराई कहें तो बुराई कह लीजिए। आदमी के भीतर यह विशेषता है कि वह नसीहत के ऊपर ध्यान नहीं दिया करता। नसीहतों को वह मजाक समझता हैं, मखौल समझता हैं। लेकिन आदमीअगर प्रभावित होता है, प्रभाव ग्रहण करता है, तो वह एक-दूसरे की कॉपी करके, नकल करके ग्रहण करता है। आदमी ने कॉपी करके प्रभाव ग्रहण किया है। एक दिन में आपसे कह रहा था कि आदमी का स्वभाव कॉपी करने का हैं। अगर हमारे कान खराब हो जायँ, तो हमबोल नहीं सकते, क्योंकि हमारा कॉपी करने का रास्ता खत्म हो गया। हम लोगों के मुँह से जो आवाज सुनते हैं, उसी की नकल करना शुरू कर देते हैं, छोटा बच्चा माँ-बाप के मुँह से जो आवाज सुनता है, उसी की नकल शुरू करता है। नकल करने का गुण उसकी ऐसीविशेषता है कि हम कुछ कह नहीं सकते कि यह कहाँ से आ गयी और क्यों आ गयी? न जाने कैसे आ गयी? मुझे मालूम पड़ता है कि मनुष्य के उन्नति करने का सारा का सारा आधार यही रहा है कि उसने कॉपी करना सीखा-नकल करना सीखा। नकल करने में हमसबसे ज्यादा आगे हैं।
मित्रो! हमको जिनके पास जाना है, उनको आपने अपनी जबान से क्या कहा और क्या व्याख्यान दिये। रामायण कैसी कही और गीता कैसे कही, इस पर कोई बहुत ध्यान देने वाला नहीं है और कोई बहुत बात सुनने वाला नहीं है। थोड़ा-बहुत होगा भी, तो लोग आपकाइम्तहान लेने आयेंगे और आपको पास और फेल होने का सर्टीफिकेट देकर चले जायेंगे। आपकी जबान में मिठास होगी और धड़ल्ले से बोलने की शैली आ गयी होगी, तो लोग तालियाँ बजायेंगे और तालियाँ बजा करके आपको पास कर देंगे। इम्तहान लेने वाले कौन हैं? वह लोग, जो बैठे हुए हैं, वे आपके परीक्षक और निरीक्षक हैं। आप कौन हैं? आप एक विद्यार्थी हैं। अगर आपके कहने का ढंग अच्छा नहीं है और आपके कहने की शैली अच्छी नहीं है और सही ढंग से कहने में आप समर्थ नहीं हो सके। कहने में आपकी आवाज औरआपकी वाणी चक्कर खा गयी, तो लोग आपको फेल कर देंगे और आपको उल्लू बनायेंगे। आपके ऊपर सीटियाँ बजायेंगे और आपको फेल कर देंगे।
मित्रो! लोग तो आपका इम्तहान लेने के लिए आते हैं। आप जहाँ व्याख्यान देने जाते हैं, वहाँ कोई नसीहत करने नहीं जाते। कोई आदमी आपकी बात सुन लेगा और आपकी नसीहत मान लेगा, हम इस बात पर यकीन नहीं करते। वे सब आपका तमाशा देखने के लिएआते हैं और यह देखने के लिए आते हैं कि आपको कुछ कहने की तमीज है कि नहीं और कुछ कहने की अक्ल है कि नहीं? कहने का आपने अभ्यास किया है कि नहीं और आप कह पाते हैं कि नहीं? सर्कस वाले जो आदमी होते हैं, वे सीखकर आते हैं। जो लोग सर्कसदेखने जाते हैं, वे यह देखते हैं कि किसको तार के ऊपर चलना आ गया? झूला झूलना किसको आ गया। जिसको झूला झूलना आ जाता है, उस पर हम ताली बजाते हैं। जिसको झूला झूलना नहीं आता और वह चक्कर खा-जाता है, तो हम सीटी बजाते हैं और उल्लूबनाते हैं।
व्याख्यान दे पाना ज्ञान का आधार नहीं
मित्रो! व्याख्यान देने के लिए, कथा कहने के लिए जब आप जनता के बीच जायेंगे, तो आपको इससे ज्यादा उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए। हमको धुँआधार व्याख्यान करना आयेगा, धुँआधार बोलना आयेगा और हम गीता का प्रवचन करेंगे और रामायण का प्रवचन करेंगे।आपकी बात को लोग बहुत ध्यान से सुनेंगे और जो कुछ भी आप चाहते हैं, उसी राह पर चलना शुरू कर देंगे, ऐसे उम्मीदें करना आप इसी वक्त अपने मन से निकाल दीजिए। क्यों? क्योंकि प्रवचन कोई बहुत ज्यादा काम करने में समर्थ नहीं हो सके। प्रवचन अगर कामकरने में समर्थ हो गये होते, तो इस जमाने में इतने ज्यादा व्याख्यानदाता हैं कि मैं कुछ कह नहीं सकता। रामायण पर व्याख्यान देने वालों का क्या कहना? जहाँ कहीं भी हम जाते हैं अचंभे से दंग रह जाते हैं। और तो और छोटी-छोटी छोकरियाँ अब ऐसे बोलने में माहिरहो गयी हैं कि बस उन्हें सुनकर मजा आ जाता है। लोग कहते हैं कि इन देवी जी का भाषण तो सुनना ही चाहिए। इनका भजन तो सुनना ही चाहिए। छोटी-छोटी छोकरियाँ ऐसी पारंगत हो गयी हैं और ऐसे फटाफट बोलती हैं जैसे बंदूक की गोली चलती है। वे लोगों को अचंभेमें डाल देती हैं, हैरत में डाल देती हैं।
मित्रो! इतना ज्यादा भाषणों का प्रचार होते हुए भी फिर क्या वजह हैं कि अभी भी समाज जहाँ का तहाँ बैठा हुआ हैं और राई की नोंक के बराबर चलने के लिए और आगे बढ़ने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। ऋषिकेश में सत्संग भवन बना हुआ है। वहाँ चार महीने तक ऐसाबढ़िया सत्संग होता है कि बस मजा आ जाता है। ऐसे-ऐसे स्वामी जी लोग आते हैं, कोई रामायण की कथा कहता है, कोई भागवत् की कथा कहता है। क्या-क्या कथाएँ कहते हैं? इसके क्या-क्या नाम हैं? सत्संगों के लिए कितने भवन बने हुए हैं? जहाँ प्रवचनों की कोईकमी नहीं है। एक के बाद एक कथा होती चली जाती है। रामायण की कथा होती चली जाती है। सुनते हुए ऐसा मालूम पड़ता है कि ऋषियों के पास जो सारा का सारा ज्ञान था, वो तो राई के बराबर था और असली ज्ञान तो इनके पास है।
व्याख्यानों से नहीं, आचरण से तैयार होते हैं व्यक्तित्व
मित्रो! जब कभी हम रामायण की कथा सुनने के लिए जाते हैं, तो हमको यह शंका होती है कि तुलसीदास जी इतने जानकार नहीं थे, जितने कि रामकिंकर जी जानकार हैं। एक-एक चौपाई में से ऐसी चौपाइयाँ निकालते हैं और एक अर्थ में से ऐसा अर्थ निकालते हैं, जैसे- ‘‘ माँगी नाव न केवट आना’’ आहाऽऽ ....। हमने उनको सुना था। एक सप्ताह तक प्रवचन सुना। एक चौपाई पर कहते थे और दोनों हाथों से बजाते थे। ऐसी मजेदार कथा बाँचते थे। रामचरित मानस लिखने वाले तुलसीदास जी अगर जिन्दा रहे होते और इन लोगों कीकथा सुनने के लिए बैठ जाते, तो वे यह कहते कि हाय रे भगवान! यह क्या हो गया? हमने जो रामकथा लिखी थी, उस वक्त इसका तो हमें ख्वाब भी न था और हमने सपने में भी न सोचा था और देखा था। ये लोग जो ऐसे व्याख्यान करते हैं। तुलसीदास जी यह सबदेखकर कान पकड़कर भाग जाते। अरे बाबा! ये हैं असली तुलसीदास, हम तो वहाँ तक समझ भी नहीं पाये थे और ख्वाब भी नहीं आया था और कल्पना भी नहीं आयी थी जैसे कि इसने बाल में से खाल निकाल-निकाल करके रख दी।
मित्रो! जिस देश में ऐसे जबरदस्त कथावाचक हों, उस देश में हनुमान क्यों नहीं पैदा होने चाहिए? उस देश में तो रामभक्त पैदा होने ही चाहिए और हनुमान पैदा होने ही चाहिए। जिस देश में गीता के ऐसे जबरदस्त कथावाचक हों, उसमें तो अर्जुन पैदा होने ही चाहिए।लेकिन हम यह देखते हैं कि अर्जुन पैदा नहीं होते। हम यह भी देखते हैं कि भागवत् की कथाएँ रोज होती रहती हैं, पर परीक्षित कहीं पैदा नहीं होते। क्या वजह है? यही कि हमारी कथाओं और प्रवचनों में कहीं न कहीं कुछ खामी रह जाती है। कहीं न कहीं कुछ गलती रहजाती है। उन खामियों और गलतियों को दूर करने के लिए आपको अभी से तैयारी करनी चाहिए। अगर वही खामियाँ और गलतियाँ ले करके आप भी चले गये, तो बहुत सारे व्याख्यान करने वालों और कथ कहने वाले, गीता-प्रवचन करने वालों, रामायण कहने वालों, सत्संग करने वालों और शिक्षण करने वालों की लाइन में एक आप भी अपना नाम लिखा लेंगे और एक नट आप भी हो जायेंगे। ऐसे लोगों को मैं नट कहूँगा और मुझे कहने दीजिए।
लक्ष्मी व्यायामशाला का अनुपम उदाहरण
मित्रो! नट तरह-तरह की हाथ-पावों की कलाबाजी दिखाते हैं और जबान की भी तरह-तरह की कलाबाजी दिखाते हैं। असल में हम नट हैं। नट जो है, वह जनता का क्या मार्गदर्शन कर सकता है? नट किसी को पहलवान बना सकते हैं? नट पहलवान नहीं बना सकते। अगरपहलवान बनना हो, तो आपको दूसरे लोग तलाश करने पड़ेंगे। इसके लिए आपको बाबा अन्ना साहब तलाश करने पड़ेंगे, जो व्यायाम के लिए फिदा हो गये थे और जिन्होंने ‘‘लक्ष्मी व्यायामशाला’’ की स्थापना की थी। इसके बाद में विश्वविद्यालय का रूप दे दिया गया।यह झाँसी में है। इसे किसने स्थापित किया था? यह अन्ना साहब थे, जो ग्वालियर जिले की एक छोटी सी कैंटीन में कही मामूली-सा क्लर्क का काम करते थे। उनको व्यायाम का बड़ा शौक था। उन्होंने स्वयं व्यायाम सीखा, अपनी औरत को सिखाया और अपने बच्चों कोसिखाया। व्यायाम के ऊपर वे इस कदर फिदा हो गये थे कि चाहते थे कि हिन्दुस्तान के बच्चे-बच्चे को व्यायाम करना सिखाया जाय। व्यायाम करने की शैली सिखायी जाय। व्यायाम करने का शिक्षण दिया जाय, ताकि हमारे देश के लोग मजबूत बन सकें।
अन्ना साहब जब तक नौकरी करते रहे छः से आठ घण्टे तक, तब तक तो अपना काम करते और नौकरी के बाद जो भी समय मिलता-वहाँ से आने से लेकर सोने के समय तक, वे घर-घर में जाते, मोहल्ले में जाते। वहाँ लोगों को अकेले-अकेले व्यायाम करना सिखाते।दो, चार बच्चों को बुलाकर इकट्ठा कर लेते और व्यायाम सिखाते। लड़कियों को व्यायाम सिखाया। जल्दी चार बजे सबेरे उठ जाते और स्नानादि से निवृत्त होकर निकल जाते। लड़कों को आवाज देते-अरे छोकरे! तू व्यायाम क्यों नहीं सीखता? अरे उमा की माँ। तू बीमाररहती है, तेरा पेट खराब रहता है। चल मैं तुझे व्यायाम सिखाता हूँ। तू क्यों नहीं सीखती। कार्यालय जाने से पहले वे लगातार व्यायाम का प्रशिक्षण दिया करते थे। झाँसी डिवीजन के सारे के सारे लोग, जहाँ उनका ट्रांसफर होकर आया था, व्यायाम सीखने लगें।
आखिर में जब उनसे नहीं रहा गया, तो उन्होंने कहा कि अगर मैं अपनी जिन्दगी में इतना महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकता हूँ और हजारों मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक स्थिति को अच्छा बना सकता हूँ, तो मेरे जो आठ घण्टे ज्यादा अच्छे और ज्यादा कीमती हैं, उसेमुझे पेट पालने के लिए क्यों खर्च करना चाहिए? अन्ना साहब ने इस्तीफा दे दिया। लोगों ने पूछा-यह पागलपन क्यों करते हो? तुम्हारे पास तो खाने का इंतजाम भी नहीं है और तुम्हारे पास तीन-चार बच्चे भी हैं। उनके पालन-पोषण का इंतजाम कैसे होगा? गुजारे काइंतजाम कैसे होगा? उन्होंने कहा कि अब तो मैंने अपनी नाव को भँवर में छोड़ दिया है। जो कुछ होने वाला होगा, भगवान सँभालेगा। अगर मैं मर जाता, तब भी तो कोई संभालता। चलिये, लोग यह समझ लेंगे कि मैं मर गया। बस, वे व्यायाम के लिए शहीद हो गये।
मित्रो! व्यायाम के लिए फिदा होने वाला अन्ना साहब! झाँसी के घर-घर में, पड़ोस के गाँवों में साइकिल लेकर निकल जाते। उन पर व्यायाम का ऐसा भूत सवार हुआ कि वे हरेक को व्यायाम का शिक्षण करते हुए चले गये। मित्रो! ऐसा मजा आया कि उस डिवीजन में, उसक्षेत्र में, उस इलाके में हजारों छोकरे और छोकरियाँ, हजारों बुड्ढे और नौजवान, हजारों महिलायें-सब व्यायाम करने लगे। चारों ओर व्यायाम ही व्यायाम दिखाई देने लगा। एक खाली सरकारी जमीन पड़ी हुई थी। उसमें उन्होंने एक व्यायामशाला बना दी-‘‘लक्ष्मीव्यायामशाला।’’ व्यायामशाला बनकर चालू हो गयी। लोगों को जब मालूम हुआ कि अन्ना साहब आठ-आठ दिन के लिए पड़ोस के गाँवों में व्यायाम का प्रशिक्षण देने के लिए निकल जाते हैं। इनके बच्चों के लिए अनाज आदि की जरूरत पड़ती होगी, वो अनाज कहाँ सेआयेगा? वही लोग, जिन्होंने अन्ना साहब की लगन को देखा था, अन्ना साहब के घर अनाज आदि चुपचाप पहुँचा देते थे। बच्चों के पढ़ने के लिए पुस्तकों आदि का प्रबंध कर देते। चंदा जाने कहाँ से आने लगा? उनको पता ही नहीं लगा, कानों-कान खबर नहीं हुई।
(क्रमशः)
अखण्ड ज्योति जून २०१४
निष्ठा और श्रद्धा की शक्ति
मित्रो! मनुष्य की निष्ठाएँ और मनुष्य की श्रद्धाएँ इतनी मजबूत होती हैं कि मैग्नेट के तरीके से जन-सहयोग जाने कहाँ से खिंचता हुआ चला आता है। मालवीय जी मामूली से वकील के पास जन-सहयोग जाने कहाँ से खिंचता हुआ चला आया। हिन्दू विश्वविद्यालयबनकर खड़ा हो गया। स्वामी श्रद्धानन्द मैट्रिक तक पढ़े थे। इंटरमीडिएट तक पढ़े हुए कायस्थ परिवार में पैदा हुए थे। पिता का पाँच हजार रुपये का मकान बेचकर उनने झोपड़ियों में गुरुकुल बना दिया। जन-सहयोग कहाँ से खिंचता हुआ आता है? न जाने कहाँ से जादूका मैग्नेट खिंचता हुआ चला आता है? आज गुरुकुल में लाखों-करोड़ों रुपये की सम्पत्ति के मकान खड़े हुए हैं और विश्वविद्यालय खड़ा हुआ है। जिन अन्ना साहब की अभी मैं बात कह रहा था, झाँसी में उनकी लक्ष्मी व्यायामशाला अब छोटी संस्था नहीं हैं। अब क्या है? यू0पी0 में व्यायाम के जो प्रशिक्षित लोग निकाले जाते हैं, एन0सी0सी0 और पी0टी0सी0 सिखाने वालों की ट्रेनिंग वहीं होती है। व्यायाम का वह विश्वविद्यालय बनने जा रहा है। गवर्नमेंट कितना सहयोग देती है। वहाँ लक्ष्मी जी का कितना जबरदस्त स्टैच्यू बनायागया है। आज यू0पी0 की वह एक मानी हुई संस्था है। इसको बनाने और चलाने वाला कौन था? अन्ना साहब। व्यायाम प्रशिक्षक अन्ना साहब अभी जिन्दा है।
मित्रो! अभी मैं आपसे क्या कह रहा था? यह कह रहा था कि आदमी के भीतर प्रभाव डालने की क्षमता और कशिश पैदा करने की और लोगों को प्रभावित करने का बल कहाँ से आता है? जरा बताइये? लोग इसे कहाँ से ग्रहण करते हैं? इस बात को आप जितनी जल्दीसमझ जायँ, उतना ही अच्छा है। लोग केवल आदमी के चरित्र को देखते हैं। लोग केवल आदमी के व्यक्तित्व को देखते हैं। दोनों आँखें हमारी तो ऐसी हैं, जो आदमी की केवल शक्ल को देखती हैं। इसकी नाक कैसी है और इसकी आँख कैसी हैं? कोई बड़ा मोटा वाला स्वामीदिखाई पड़ता है। किसी की सफेद रंग की दाढ़ी दिखाई पड़ती है। उसके लम्बे-लम्बे बाल दिखाई पड़ते हैं। उससे हम प्रभावित हो जाते हैं और कहते हैं कि सारे के सारे महात्मा देखे, पर उन स्वामी जी का क्या कहना, ओहो! क्या भकाभक दाढ़ी थी। उनकी आँखें कटोरे जैसीथी और जब वे बोलते थे, तो उसे सुन कर सब भाव-विभोर हो जाते थे।
मित्रो! आँखें क्या देखती हैं? चेहरा देखती हैं और शक्ल देखती हैं। और कान क्या करते हैं? कान जो हैं आवाज सुनते हैं। इस आवाज में संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण हुआ है कि नहीं हुआ? सही श्लोक बोले गये या गलत बोले गये? इसके कहने की शैली बोलने कातरीका कैसा था? यह कौन सुनता है? कान सुनते हैं। कानों में भी एक जायका होता है और आँखों में भी एक जायका होता है। आँख और कान का जायका हमको कई तरीके से मिलता है। सिनेमा का जब हम तमाशा देखने जाते हैं, तो हमारी आँखों को जायका मिलता है।हमारे कानों को जायका तब मिलता है जब हम लता मंगेशकर के गाने सुनते हैं। बहुत मजा आता है। इससे हमारे कानों की बात पूरी हो जाती है और आँखों की बात पूरी हो जाती है। आँखों और कानों की बातों को पूरा करने के लिए अगर आप लोगों के पास चले गये, तोआपको यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि जो बात आप ले करके चले हैं, जो उद्देश्य और मिशन हम लेकर चले हैं, वह पूरा हो सकेगा। वह पूरा नहीं होगा, अधूरा रहेगा। जैसे असंख्य लोग करते रहे हैं, उन्हीं में से एक ड्यूटी आपकी हो जायेगी। आप यहाँ हमारे पास रहिए, हम आपको बहुत सी बातें सिखा सकते हैं। हम व्याख्यान करने की शैली और ढंग, व्याख्यान करने का ऐसा मजेदार तरीका सिखा सकते हैं कि लोगों को मजा आ जायेगा।
मित्रो! ये छोकरियाँ, जो आजकल लम्बे-लम्बे लेक्चर झाड़ती हैं, इन बाबाजियों ने इनको वर्ष-दो वर्ष में थोड़ी सी ट्रेनिंग दी है। गीता भारती नाम की लड़की उनमें से एक है। एक साधु थे-हरियाराम। उनके पास गाँव का एक आदमी आया और बोला कि हमारी पत्नी तो मरगयी है और हम भी बीमार रहते हैं। स्वामी जी! यह कन्या आपको हम दान कर जाते हैं। ग्यारह-बारह वर्ष की थी। अच्छा बेटा, कर जा दान। वह किसान अपनी कन्या उनको दे गया। हरियाराम ने उसे गीता पढ़ाना शुरू कर दिया। गीता में थोड़े से श्लोक हैं, थोड़े सेव्याख्यान है। कुल पाँच-सात ही व्याख्यान हैं। उन्हें चाहे एक बार सुन लीजिए, चाहे दो बार सुन लीजिए। चाहे अहमदाबाद में सुन लीजिए या फिर और कहीं सुन लीजिए। उस छोकरी को पाँच-सात व्याख्यान रटे-रटाये, गिने-गिनाये ऐसे याद हैं, जैसे ग्रामोफोन के रिकार्ड।बार-बार उन्हीं व्याख्यानों की बोलती हुए चली जाती है कि सुनने वाले को मजा आ जाता है।
व्याख्यान से नहीं, व्यक्तित्व से सिखाएँ
मित्रो! व्याख्यान सीखना कोई मुश्किल नहीं है। कई लड़कियाँ ऐसी हैं जो उम्र के हिसाब से बाइस-तेईस साल की हैं, परन्तु शरीर की बनावट ऐसी है कि मालूम पड़ता है कि ये तेरह-चौदह वर्ष की हैं। वे धड़ल्ले से व्याख्यान करती हैं और ऐसे छोटे-छोटे बालकों की तरीके सेमीठी आवाज में बोलती हैं कि लोग कहते हैं कि वह तो साक्षात् देवी है और हम उसी की बात सुनेंगे। मित्रो! यह कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं है। अगर आपको लेक्चर झाड़ने की बात सीखनी हो, तो आप यहाँ रह जाइये। मैं आपको बहुत बढ़िया लेक्चर देना सिखा दूँगाऔर सारे के सारे प्वाइंट सिखा दूँगा और अभ्यास करना सिखा दूँगा। आप जाना और वही बोलना। पाँच-सात व्याख्यान हम आपको सिखा देंगे और रटा देंगे। इससे आपकी जिन्दगी की नाव पर हो जायेगी। आप यहाँ भी वही करना और बाहर भी वही करना। बस गिने-चुने व्याख्यान हैं, आप उन्हें ही कहते रहना। आपकी जबान पर अभ्यास भी हो जायेगा। आपको रात को सोते समय मैं कहूँ, कि आप व्याख्यान करना शुरू कर दीजिए। तो आप आँख मींचकर बैठ जायेंगे और मजे से व्याख्यान करना शुरू कर देंगे। क्यों? क्योंकि आपकाअभ्यास बना हुआ है।
मित्रो! इसे आप सीखना चाहते हैं? नहीं, इन सबसे कोई फायदा नहीं होगा। हाँ, यह बात अलग है कि इससे आपको अपनी रोटी मिल जाय, धंधा मिल जाय और आपको लोग फूलमाला पहना दें। परन्तु इससे आपको और कोई फायदा नहीं हो सकता और हमारा मिशन काउद्देश्य भी इससे पूरा नहीं हो सकता। जिस लोक शिक्षण और लोक कल्याण की बात हम सीखने और सिखाने के लिए चले थे, वह भी पूरा नहीं हो सकता।
मित्रो! वह उद्देश्य कैसे पूरा होगा? जिसके लिए हमने आपको वानप्रस्थ बना करके बुलाया और अब हम आपको आगे भेजने वाले हैं। इसके लिए हमें वह काम करना पड़ेगा, जिसमें कि हम अपने जीवन के माध्यम से शिक्षण देने में समर्थ हो सकें। हमारा व्यक्तिगतव्यवहार ऐसा होना चाहिए जो हमारे बिना बोले और बिना भाषण दिये और बिना हमारे व्याख्यान दिये हमारे चरित्र के द्वारा और हमारे व्यक्तित्व के द्वारा अनायास ही बोलने लगे। आप जानता को मत सिखाइए, वरन् अपने आपको सिखाइए। लोगों को भाषण देने केलिए जल्दबाजी मत कीजिए। थोड़ा सा सिखाइए, लेकिन यह ध्यान रखिये कि आपको जो असली प्रभाव पड़ने वाला है, वह आपके व्यक्तित्व और चरित्र का विकास करने के लिए हमने आपको वानप्रस्थ का आह्वान करके बुलाया है। वानप्रस्थ की हमने शुरुआत करायीऔर हमने आपको वानप्रस्थ की दीक्षा दी।
मित्रो! हम जानते हैं कि आप गृहस्थ आदमी हैं और आपके ऊपर बाल-बच्चों की जिम्मेदारियाँ हैं। अभी आपको बच्चों का पालन करना पड़ेगा और उनकी शादी-ब्याह करनी पड़ेगी। हम यह जानते हैं। आपकी जिम्मेदारियों से हम परिचित न हों, ऐसी बात नहीं है। लेकिनफिर भी हमने आपको वानप्रस्थ का बाना पहनाकर इसलिए बुलाया है कि आपको यह महसूस होना चाहिए और यह अनुभव होना चाहिए और आपको विश्वास होना चाहिए कि अगर कभी कोई आदमी अपना कल्याण करने में समर्थ हो सका है, तो उसके व्यक्तिगतजीवन का स्वरूप वह होना चाहिए, जिसका अपने आरंभ किया है? शुभारंभ किया है। जिसका आपने शुभारंभ किया है, क्या उससे जनता में और आपमें जमीन-आसमान जैसा कोई फर्क पड़ गया? राई की नोंक के बराबर भी फर्क पड़ा। हमने आपको पीले कपड़े पहनादिये, कोई फर्क पड़ गया क्या? नहीं पड़ा। पीले से क्या मतलब है? पीले से तो दूसरे रंग और भी अच्छे होते हैं। काली पैंट और हरे टैरीलीन का सूट आपके लिए बनवा दें, तो पीले रंग से अच्छा हुआ कि खराब हुआ? नहीं साहब! पीले रंग से तो अन्य दूसरे रंग अच्छे हैं। फिरपीले रंग से क्या लेना-देना?
दिशाएँ सही हों तो लक्ष्य मिलकर रहेगा
फिर क्या हुआ? आपकी दिशाएँ हमने बदल दी, आपका लक्ष्य बदल दिया और जीवन का स्वरूप बदल दिया है। अगर आपने इस बात को अंगीकार कर लिया, मंजूर कर लिया, तो हम यह समझेंगे कि आपने वानप्रस्थ आश्रम की शुरुआत करके ठीक काम किया। आपकालक्ष्य ठीक है, अभी आपकी परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं हैं, इसलिए आप थोड़ा वक्त निकालेंगे। चलिए थोड़ा वक्त ही सही। अगर आपने एक बात का निश्चय कर लिया, फैसला करना ही अपने आप में बहुत बड़ी बात है। इस तरह का आपका निश्चय और फैसला करनाइस जन्म में सार्थक न हुआ, तो अगले जन्म में और अगले जन्म में न हुआ, तो फिर उससे अगले जन्म में जरूर सफल होगा। यह कभी न कभी आपको अपना रंग जरूर दिखायेगा और कभी न कभी अवश्य फलेगा, फूलेगा।
मित्रो! आपने क्या फैसला किया है? यही फैसला किया है कि अब हम भौतिकवादी जिन्दगी नहीं जियेंगे। अब आपने सिपाही की पोशाक पहन ली है, त्यागी की पोशाक पहन ली है, योगी की पोशाक पहन ली है, ब्रह्मचारी की पोशाक पहन ली है। इसमें बंधन आपकीसामाजिक और शारीरिक परिस्थितियों में तो है, लेकिन मानसिक परिस्थितियों में नहीं है। यदि आप उन चीजों को अपने मन से हटा दें, जो न केवल आपको, वरन् सारे समाज को भगवान से दूर रखे हुए है। उन चीजों को आप अपने मन से हटा दें, अपने सिद्धांतों सेहटा दें। अगर आप सिद्धांतों में से उस चीज को हटा देते हैं, तो आपकी अस्सी फीसदी समस्याओं का समाधान हो जाता है। आप अपने दिमाग में से इस बात को हटा दीजिए कि हम लोभ के लिए जिन्दा रहते हैं और मोह के लिए जिन्दा रहते हैं। लोभ के लिए और मोह केलिए आप जिन्दा मत रहिए। आप यह फैसला कर लीजिए कि लोभ के लिए और मोह के लिए आपको जिन्दा नहीं रहना है। यह दो काम अगर आपने कर लिया तो मैं आपको वास्तविक अर्थों में वैरागी कहने लगूँगा और चलिए थोड़े दिनों में मैं आपको संन्यासी भी कहनेलगूँगा।
वैरागी के जीवन-उद्देश्य
मित्रो! अगर आपने दो उद्देश्य त्याग दिये, तो आप वैरागी हो जायेंगे। एक उद्देश्य-पैसे के प्रति लोभ को त्याग दीजिए। आप पैसा जरूर कमाइए, लेकिन पैसा कमाने से पहले यह विचार अवश्य कर लीजिए कि पैसा खर्च कहाँ होना है? अगर आपके पास गुजारे के लिएगुंजाइश है और आपके बाप-दादे इतना छोड़कर के गये हैं कि उससे आप अपने बच्चों के लिए रोटी कमा सकते हैं और खा सकते हैं, तो फिर आप कमाना बंद कर दीजिए, अगर आपके पास गुजारे के लिए है। अगर आप रोटी खा सकते हैं और फिर भी कमाते हैं और जमाकरते हैं, तो यह लोभ है। आप समाज के लिए नहीं, लोकमंगल के लिए नहीं, वरन् अपनी औलाद के लिए जमा करते हैं, अपने लिए करते हैं और अपने बुढ़ापे के लिए करते हैं, तो मैं यह कहूँगा कि आप लोभी आदमी हैं। लोभी आदमी अध्यात्म का पहला दरवाजा बन्दकर देता है।
मित्रो! लोभी होकर के आप भजन करेंगे, तो बात कैसे बनेगी? लोभ की वजह से ही सारी दुनिया में अनाचार फैला हुआ है। इसकी वजह क्या है, बताइये? भूख की वजह से लोग नहीं मरते, वरन् लोभ की वजह से मरते हैं। दुनिया में भूख से बड़ा कौन है? दुनिया में चोरीहो रही है, डकैती हो रही है, अत्याचार, अनाचार हो रहे हैं। यह सब भूखे आदमी कर रहे हैं? नहीं भूखे आदमी नहीं कर सकते। भूखे आदमी मजदूरी कर सकते हैं। भूखे आदमी ज्यादा से ज्यादा भीख माँग सकते हैं, लेकिन भूखे आदमी डकैती नहीं डाल सकते। डकैती डालनेका जो माद्दा लोगों में पैदा हुआ है, वह किसकी वजह से पैदा हुआ है? लोभ की वजह से पैदा हुआ है। लोभ बहुत बड़ा राक्षस है। लोभ इतना बड़ा राक्षस है जिसने हमको और आपको तबाह करके रख दिया है और जिन्दगी को खत्म कर दिया है। हमारा जो सबसे कोमलवाला-मुलायम वाला हिस्सा था, जो हमको धन्य बना सकता था, हमारे हृदय को, अन्तःकरण को धन्य बना सकता था। जो माद्दा हमारी कोमल भावनाओं का समाज के लिए, लोकमंगल के लिए आगे बढ़ सकता था। जो हमारी असली दौलत थी, उसे दूसरे राक्षस ने खालिया। किसने खा लिया, इस अभागे लोभ ने खा लिया। हमारे दिमाग पर लोभ हावी रहा।
मित्रो! मैं क्या कह सकता हूँ? मुझे बड़ा क्लेश-होता है। हमारे यहाँ गायत्री तपोभूमि में एक स्वामी जी थे। नाम तो उनका मैं नहीं लेना चाहता। उनको हम प्रायः उपदेशों के लिए बाहर भेजते रहते थे। वे संगीत गाना जानते थे। हम उनको शाखाओं में जहाँ-तहाँ भेजते रहतेथे। अब तो मँहगाई हो गयी है, मालूम नहीं है, उस समय तो वे पन्द्रह रुपये रोज लेते थे। किसकी फीस लेते थे? अपने व्याख्यान करने की फीस लेते थे। अपना किराया-भाड़ा हमसे अलग से वसूल करते थे और व्याख्यान के पन्द्रह रुपये रोज अलग से लेते थे। चार दिनोंके लिए हमने कहीं कथा कहने के लिए भेजा है, तो दस रुपया भी कम नहीं लेंगे। अगर शाखा वाले ने पचास रुपये दिये, तो हमारे दरवाजे पर धरना देकर बैठ जायेंगे और यह कहेंगे कि हमको पचास रुपया मिला है, आप दस रुपया और दीजिए। दस रुपये उनको जेब सेदेने पड़ते थे। आप शाखा वालों से शिकायत मत करना, चलिए शाखा वाले ने पचास रुपये दिये, आप हमसे दस रुपये ले जाइये। दस रुपये हम दे देते थे।
मित्रो! उनकी न कोई बीबी थी, न बच्चा था। न घर था, न बाप था, न बेटी थी। स्वामी जी कुछ खाते भी नहीं थे। जब कभी भी उनको रोटी खानी होती थी, वहाँ मथुरा में पन्द्रह पैसे की रोटी बिकती है, बस वहीं जाकर दुकान पर बैठ जाते और पन्द्रह पैसे की रोटी खा जायाकरते थे। उन्हें किसी होटल में नहीं देखा कि वहाँ बैठकर दो रुपये का खाना खालें। बस पन्द्रह पैसे के हिसाब से साठ पैसे दिये और पत्ते पर शाक रखा और रोटी थामकर चले गये। जाने इतने पैसे का क्या करते थे? हमने कई बार पूछा कि स्वामी जी आप इन पैसों का क्याकरते हैं? हर साल आपको हजारों रुपये की आमदनी होती है, आप उसका क्या करते हैं? बता दीजिए। वे कहते थे कि पैसे फँस जाते हैं।
मित्रो! आदमी बड़ा पागल है, बड़ा जाहिल है। वह क्या करता है? उसकी समझ में ही नहीं आता कि उसको करना क्या है? पैसों के सदुपयोग का इसका जरा भी भान नहीं है। पागलों के तरीके से जमा करता चला जाता है। मथुरा में इसी तरह का एक व्यक्ति रहता था। जोकुछ भी चीजें मिलती, वह जमा करता रहता। टूटे हुए डिब्बे, सिगरेट के पुराने बक्से आदि जो कुछ भी मिल जाता, जमा कर लेता। न जाने कितना कमाया। टोकरी पर टोकरी बाँधे पीठ पर लिए फिरता। फिर शाम को सो जाता, तो भूल जाया करता था और उसे ऐसे ही छोड़देता। फिर दूसरे दिन इसी तरह दूसरे डिब्बे और सिगरेट के डिब्बे जमा कर लेता और फिर चला जाता।
लोभ और लालच नहीं, अपरिग्रह सीखें
मित्रो! हम और आप में से अधिकांश लोग इसी तरह के पागल हैं। जिनके पास गुजारे लायक है और जमा करने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन वे अभागे और दुष्ट-इनको मैं अभागे और दुष्ट कहूँगा। जिनके पास गुजारा करने के लिए है, अगर वे चाहते तो मजे में अपनीरोटी खा सकते थे। लेकिन इन अभागे और दुष्टों को हर समय यही लपक और ललक लगी रहती है कि हमें किसी तरीके से और दौलत इकट्ठी करनी चाहिए। किसी तरीके से अधिक से अधिक धन इकट्ठा करना चाहिए और मालदार बनना चाहिए।
मित्रो! इनकी लपक और ललक हमेशा यही बनी रहती है कि किसी भी तरीके से कमाई करके धन इकट्ठा करना चाहिए। जिनकी इस तरह की ललक और लिप्सा बनी रहती है, फिर वे रामायण पढ़ने वाले हों तो क्या, गीता की कथा पढ़ने वाले हों तो क्या, अमुक कथाकहने वाले हों तो क्या? इनकी वाणी का कभी कोई असर पड़ने वाला नहीं है, आप देख लेना। इनकी वाणी का कोई असर पड़ने वाला नहीं है, आप याद रखना। गृहस्थों की बात नहीं कहता हूँ, मैं तो साधुओं की बात कहता हूँ।
मित्रो! पिछले दिनों मैं अफ्रीका गया था। वहाँ कई आदमियों से मिला, बातचीत की। उन्होंने कहा कि पंडितजी! हमको यहाँ रहते हुए मुद्दतें हो गयीं। यहाँ हर साल दो-पाँच बाबा जी आते हैं, स्वामी जी आते हैं, दो-चार संन्यासी आते हैं। उनमें सौ में सौ, निन्यानवे भी नहीं, सभी यही धंधा लेकर के आते हैं कि हमको यहाँ मंदिर बनाना है, यहाँ मस्जिद बनानी है, भण्डारा करना है। ये करना है, वो करना है, फलाना करना है। हमको पैसा दीजिए। हमको विद्यालय चलाना है। एक के बाद एक महात्मा इसी ख्याल से आते हैं। हमने देख लिया किये तो बड़े चोर चालाक आदमी हैं। हमारी निष्ठाएँ इनमें समाप्त हो गयी हैं। अब हमारा मन रहा नहीं कि हिन्दुस्तान से कोई बाबा जी आयें। चलिए हम किराये भाड़े का थोड़ा-बहुत इंतजाम कर देते हैं। दरवाजे पर भिखारी माँगने आया है, तो पैसा हम दे भी देते हैं, लेकिनहमारी निष्ठा समाप्त हो गयी है। हर साल ढेरों बाबा जी, पण्डित जी, विद्वान और ज्ञानी आते हैं और इनसे हमको बहुत घृणा हो गयी है।
मित्रो! लोभ और मोह इन व्यक्तियों को हिन्दुस्तान से अफ्रीका ले आया। वही लोभ इन बाबा जी और संन्यासियों के पास भरा पड़ा है। जब भी वे आते हैं तो हम अफ्रीका निवासी हिन्दुओं को शिक्षण करने के बजाय माँगने के लिए चले आते हैं? हिन्दुस्तान में इस तरह केऔर कितने बाबा जी हैं? छप्पन लाख हैं। इसमें से दो-पाँच बाबा जी यहाँ रह जायें और हम लोगों को बीच काम करना शुरू कर दें, तो मजा आ जायें। उनके खाने का, कपड़े का और रहने का प्रबंध हम लोग कर दिया करेंगे। परन्तु ये बाबाजी यहाँ आते हैं और दाँत निकाललेते हैं और कहते हैं कि वहाँ राजकोट में हमारा गीता मंदिर बनने के लिए पड़ा है, उसके लिए आप पैसे दे दीजिए।
मित्रो! इस तरह से धन का लोभ हर जगह हावी हो गया। कथावाचकों पर हावी हो गया, पण्डितों पर हावी हो गया, विद्वानों पर हावी हो गया। हर आदमी पर हावी हो गया। भगवान से मिलने के लिए-ईश्वर को प्राप्त करने के लिए जिन कषाय-कल्मषों का मैं जिक्र कर रहाथा, उनमें से एक कषाय-कल्मष वे हैं, जिसने हममें से हरेक काम के आदमी को कसकर जंजीरों से बाँध दिया है। प्राचीन काल में मसक कसी जाती थी। आजकल हाथ में हथकड़ी लगाते हैं, पहले हथकड़ी नहीं लगाते थे। चोर, डाकुओं को पकड़ने पर पहले उनकी मसककसी जाती थी। मशक आपने देखी है, जिसमें पानी पिलाते हैं। मशक जिस तरीके से टाँग दी जाती है, उसी तरीके से अपराधियों को दोनों हाथ-पाँव बाँधकर जैसे घोड़े के पाँव में नाल ठोकते हैं, वैसे ही उनके हाथ-पाँव बाँधकर डाल देते थे। हमारी भी मसक कसके डाल दीगयी है। हमारी मसक कस करके जिसने डाल दी है, उस अत्याचारी का नाम है-लोभ।
मित्रो! पैसे की आवश्यकता है तो पूरी कीजिए। मैं किससे कहता हूँ कि रोटी नहीं खानी चाहिए। रोटी तो मैं भी खाता हूँ। हर आदमी रोटी खाता है, परन्तु आदमी के सामने रोटी का सवाल नहीं है। आदमी के सामने सवाल है-लोभ का। आदमी बड़ा बनना चाहता है, अमीरबनना चाहता है और मालदार बनना चाहता है। वह ऐय्याशी की जिन्दगी जीना चाहता है, खुशहाली की जिंदगी जीना चाहता है और मजे की जिन्दगी जीना चाहता है। लोभ इसी का नाम है। अगर आपने अपने जीवन में से लोभ को नहीं निकाला, तो आपका वानप्रस्थ लेनाबेकार है। फिर आप सेवा नहीं कर पायेंगे और किसी पर प्रभाव नहीं डाल पायेंगे। जनता का शिक्षण करने से पहले, लोक शिक्षण करने से पहले आपको वह कदम बढ़ाना चाहिए, जिसको लोभ का परित्याग कहते हैं। आप लोभ का परित्याग करना और मोह का परित्यागकरना।
मित्रो! मोह क्या होता है? मोह उसे कहते हैं जिसमें कि हमको दो-चार मनुष्यों ने अपना गुलाम बनाकर रखा है। हम खरीदे हुए गुलाम हैं। किनके गुलाम हैं? हम कुछ नहीं कर सकते। हमको इनके इशारे पर कठपुतली के तरीके से नाचना पड़ेगा। वे कौन हैं जिन्होंने हमकोखरीद करके रखा है? वे हमारे खानदान वाले लोग हैं और हमारी औलाद वाले लोग हैं। जिनके इशारे पर हमको चलना है, जिनके हम खरीदे हुए गुलाम हैं। हमारा कोई जीवन लक्ष्य नहीं है। हमारा केवल यही लक्ष्य है कि हमारा बेटा किसी तरीके से प्रसन्न रहे। हमको बसवही करना है जिससे किसी तरीके से हमारी औलाद खुश रहे। हमको वही करना है कि जिससे किसी तरीके से हमारी बीबी खुश रहे। हमको बस यही करना है और कुछ नहीं करना है। क्योंकि हमारी बीबी ने हमारी मशक बाँध कर डाल दिया है। हमारे बेटे ने हमारी मशकबाँधकर डाल दिया और हमारे खानदान वालों ने हमारी मशक बाँधकर डाल दिया है।
लोभ-मोह छोड़े बिना लोक-शिक्षक न बनें
मित्रो! मैंने किससे कहा कि आपको अपने कुटुम्ब वालों के प्रति अपने कर्तव्यों और फर्जों को पूरा नहीं करना चाहिए? मैंने किसी से नहीं कहा और न किसी से कहना। जिस दिन से मैंने धार्मिक क्षेत्र में प्रवेश किया है, उस दिन से मैंने नियम बना लिया है कि जिस दिनतक मैं जिन्दा रहूँगा, गृहस्थ हो करके जियूँगा और संन्यासी नहीं बनूँगा और आप उसी समय से देख रहे हैं कि मैं गृहस्थ हूँ और गृहस्थ ही रहूँगा। मैं गृहस्थ इसलिए नहीं हूँ कि मैं ब्रह्मचर्य से रहने में असमर्थ हूँ या मुझे एकाकी जीवन जीने में कुछ कठिनाई होती है यामेरे साथ बीबी रहनी चाहिए खाना पकाने के लिए। नहीं, मैंने इसलिए शादी नहीं की है। मैंने तो एक घंटे में रोटी बनाकर खायी और खिलायी है। आप कहें तो मैं फिर से एक घंटे में रोटी बनाकर खा सकता हूँ और खिला सकता हूँ। रोटी के लिए बीबी नहीं, मैंने शादी इसलिएकी और इस तरीके से रहा, ताकि यह बताऊँ कि एक दूसरे के लिए कर्तव्य और फर्ज पूरा करते हुए भी जिन्दा रह सकते हैं और शानदार जिन्दगी जी सकते हैं और खुशी की जिन्दगी जी सकते हैं, जिसमें गुलामी की कोई बात न हो।
मित्रो! हम और आप खानदान वालों के गुलाम हैं। मुझे कहने दीजिए कि हम और आप गुलाम हैं खानदान वालों के। भगवान के गुलाम नहीं हैं हम, हम तो खानदान वालों के गुलाम हैं। हम अपने बेटी-बेटों के गुलाम हैं और औरत के गुलाम हैं। गुलाम अगर हम न रहेहोते और हमने इतना ही काफी समझा होता कि उनके प्रति जो हमारे कर्तव्य हैं, हमारे जो फर्ज हैं, उनको पूरा कर दें, बस। इसके आगे जरूरत नहीं है। आपके फर्ज और कर्तव्य वहाँ तक रहते हैं जहाँ तक कि उनको शारीरिक भरण-पोषण की जरूरत है। जहाँ तक कि उनकोशिक्षा की जरूरत है। आप उनको शिक्षा दीजिए, ठीक है। कहाँ तक? वहाँ तक, जहाँ तक कि वे स्वावलम्बी नहीं हो जाते। बस यही आपके कर्तव्य और फर्ज पूरे हो जाते हैं। उनको काम-धंधों से लगा दीजिए, आपके कर्तव्य और फर्ज पूरे हो जाते हैं।
मित्रो! कर्तव्य और फर्ज पूरा करने के बाद भी यदि आप यह समझते हैं कि हमने जो कुछ भी जिंदगी में कमाया है, वह और आगे जो भी कमाने वाले हैं, वह सारे का सारा धन, हमारी बुद्धि और हमारी अक्ल उनकी है। उन्हीं लोगों को मिलनी चाहिए, जिनको आप अपनाघर वाला और खानदान वाला कहते हैं। अगर हमारे मन में यही रहेगा तो मित्रो। हम लोभ और मोह की जंजीरों में कसे हुए कैदी के तरीके से होंगे। जिसकी आवाज बंद है, जिसका गला बंद है, जिसका प्रभाव बंद है, जिसका वर्चस बंद है, वह आदमी कुछ नहीं कर सकेगा।वाणी से तो वह कहेगा, व्याख्यान से तो कहेगा, लेकिन जिसने लोभ और मोह से मुक्ति प्राप्त नहीं की, ऐसा आदमी अधिकारी नहीं हो सकता कि वह जनता को लोकशिक्षण की बात करे और भावनात्मक शिक्षण की बात करे। ऐसा व्यक्ति इतिहास पढ़ा सकता है, शरीरविज्ञान पढ़ा सकता है, टेक्नोलॉजी पढ़ा सकता है, बस काफी है। इससे आगे धर्म की शिक्षा, ज्ञान की शिक्षा और अध्यात्म की शिक्षा देने की बात करना बेकार है, दिल्लगीबाजी है, मखौल है। उसके मुँह से यह शोभा नहीं देता।
(क्रमशः)
अखण्ड ज्योति जुलाई २०१४
कषाय-कल्मषों के कारण—गुनाह और पाप
मित्रो! दूसरों को हमको क्या सिखाना है? उनको जो भी बात सिखानी है, उसे पहले स्वयं के जीवन में सीखना होगा। हमको दूसरों को रामायण की कहानी क्या सिखानी है? वह तो सबको मालूम है कि एक रामचन्द्र जी थे। उनकी पत्नी को रावण चुरा ले गया था। रामचन्द्रजी को गुस्सा आ गया। वे हनुमान जी को साथ लेकर लंका गये। रावण को मारकाट कर फेंक दिया और अपनी पत्नी को ले आये। लीजिए, हम भी उस कहानी को एक-दो मिनट में सुना देते हैं। नहीं साहब! हम तो रामायण का पाठ करेंगे। आप किसका पाठ करेंगे, हमकोमालूम है। वह हमको सिखाना नहीं है। रामायण हमारा बहाना है और माध्यम है।
मित्रो! हम लोगों को यह सिखाने वाले हैं कि गुनाह और पाप क्या है, जिसकी वजह से आदमी कषाय और कल्मषों को लेकर जीता है। इसकी हजार शाखायें हैं। किसकी? लोभ और मोह की हजार शाखायें हैं। पहली शाखा यह है कि हमारे पास जो क्षमता और बुद्धि है, उसक्षमता और बुद्धि का हम कभी उपयोग नहीं कर सकते। उसका असली आकर्षण, असली चुम्बकत्व हमारे पैसे में पड़ा रहेगा। इसलिए हम जहाँ कहीं भी भागवत् की कहानी कहने के लिए जायेंगे, यह मानकर जायेंगे कि यहाँ से हमको सौ रुपया मिलने वाला है, ढाई सौरुपया मिलने वाला है। ढाई सौ रुपये जहाँ से हमें मिलेगा, हम वहाँ पर भागवत् की कहानी कहने जायेंगे और जहाँ सौ रुपये मिलने वाला है, वहाँ यह कह देंगे कि अभी हमें फुर्सत नहीं है। तबियत बहुत खराब है, अगली साल आयेंगे। इस वक्त तो हमारा स्वास्थ्य अच्छानहीं है। सौ रुपये देने वाले से कहेंगे कि देख ऐसा है कि पहले वहाँ जबान दे दी है, इसलिए वहाँ जाना पड़ेगा। ढाई सौ रुपये देने वाले के यहाँ हम जायेंगे और सौ रुपये देने वाले के यहाँ नहीं जायेंगे।
मित्रो! इस तरह तो हमारी जबान कुण्ठित हो जायेगी और हमारी जबान का कोई असर नहीं होगा। असर डालने के लिए आपको अपने भीतर जो मैग्नेट पैदा करना है, वह वाणी का नहीं है। हवन कराने की विधि-विधान का नहीं है। लेकिन असली मैग्नेट वह है, जो आपकोलोभ और मोह से दूर करने की हिम्मत और जुर्रत आपके अंदर पैदा करता है। बल पैदा करता है। मित्रो! मैं यही शिक्षण प्रारंभ करता हूँ। आपको मालूम नहीं है कि हिन्दुस्तान में और हिन्दुस्तान से बाहर मैं कितने आदमियों को हिला देता हूँ और चकमका देता हूँ। सबूतके रूप में आप सब लोग सामने बैठे हुए हैं। कोई आदमी एक दिन या एक घंटा समय खराब करने के लिए तैयार नहीं होता, लेकिन आपको मैंने बुला लिया। अगर आप दो महीने रहेंगे या इस जिंदगी में हर साल एक-एक महीना खर्च करेंगे, तो आपकी परिस्थितियाँ ढीलीऔर अनुकूल हो जायेंगी। उस दिन आप लोकमंगल के लिए सारे विश्व को अपना कुटुम्ब समझेंगे और संसार में अपने गुणों का और अपनी विभूतियों के-संवर्धन को अपना गौरव समझेंगे। इसके लिए मैंने आपको तैयार कर लिया है, जो इस जमाने को देखते हुएबिलकुल असंभव बात मालूम पड़ती है और नामुमकिन बात मालूम पड़ती है।
क्या है अध्यात्म की व्याख्या
मित्रो! आज अध्यात्म की व्याख्या कहाँ है? अध्यात्म की व्याख्या कहीं नहीं है जिसमें त्याग करना सिखाया जाता है। आज तो भोग करना सिखाया जाता है। आज तो अध्यात्म का मतलब ही भोग बन गया है। आपको जिन्दा रहना है तो यहाँ भोग कीजिए। आपकोलक्ष्मी मिलेगी और मनोकामना पूर्ण होगी, आपके संतान होगी और आपका पैसा बढ़ेगा। आपको संसार में जाना है, अध्यात्म आपका यह काम करेगा। मरेंगे तो आपके लिए सोने का विमान बना हुआ रखा है, स्वर्ग बना हुआ रखा है, चाँदी का सिंहासन बना हुआ रखा है, कल्पवृक्ष बना हुआ रखा है आज का अध्यात्म हमको क्या-क्या सिखाता है। इस तरह का जो गंदा अध्यात्म है, इसको मैं कोरा अध्यात्म कहता हूँ। यह हमको लोभ सिखाता है, भोग सिखाता है और कुछ नहीं सिखाता। यह बड़ा वाहियात अध्यात्म है, जो हर जगह फैलहुआ है।
मित्रो! हमने आपको वाहियात अध्यात्म से छुटकारा दिलाकर त्याग करने और कष्ट सहने के लिए, मुसीबत उठाने के लिए और दुनिया का नुकसान न उठाने के लिए तैयार कर लिया है। यह कशिश और चुम्बकत्व कहाँ से आया? यही कशिश और चुम्बकत्व आपको यहाँसे ले करके जाना है। गुरुजी हवन कराने की विधि को जानते हैं और गुरुजी को व्याख्यान करना आता है। गुरुजी स्लाइड प्रोजेक्टर दिखाना जानते हैं। हम यह सीख करके जायेंगे। मित्रो! आप गुरुजी के बालों की नकल बनाकर जायेंगे? गुरुजी के बाल खड़े रहते हैं, तो हमभी बाल खड़ा करेंगे। गुरुजी कुर्ता इस तरह का पहनते हैं, तो हम भी वैसा ही कुर्ता पहन करके जायेंगे। तो बेटे! तू क्या गुरुजी बन जायेगा? नहीं, ऐसे गुरुजी नहीं बनेगा। इसके लिए क्या करना पड़ेगा।
मित्रो! करना यह पड़ेगा कि आपको स्वयं में, एक आकर्षण, एक ऐसा चुम्बकत्व या मैग्नेट तैयार करना पड़ेगा, ताकि जहाँ कहीं भी आप शिक्षण करने के लिए जायें, वहाँ आपके कहे बिना ही हवा बनती चली जाये। जिस तरह से हम आपको और हजारों लाखों लोगों कोखींचते हुए चले आयें। अभी तो हमारी जवानी शुरू हुई है। आपने सुना होगा कि जो आदमी साठ वर्ष का होता है, वह पाठा होता है-‘‘साठा तो पाठा’’। पाठा कौन होता है़ साठ साल का। ‘गधा पच्चीसी’ कब तक रहती है पच्चीस वर्ष तक रहती है। पच्चीस वर्ष तक गधाबिल्कुल गधा होता है। जानता ही नहीं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिये। लड़के और लड़कियाँ ऐसे कदम उठाते हैं कि उनको यह ज्ञान ही नहीं होता कि क्या करना है और क्या नहीं करना है? इसलिए लोग उसे गलत ठहराते हैं और कहते हैं गधा है।
जब समझ आए तभी से शुरू होती है जिंदगी
मित्रो! जिन्दगी चालीस वर्ष से शुरू होती है। चालीस वर्ष से आदमी को समझ आती है। अक्ल की चालीस वर्ष में आदमी को समझ आती है। अक्ल की दाढ़ पच्चीस वर्ष के बाद निकलती है और समझदारी की दाढ़ जो निकलती है, वह चालीस वर्ष के बाद निकलती है।चालीस वर्ष से आदमी जिन्दगी जीना शुरू करता है। पिछले दिनों मेरे पास अमेरिका से एक किताब आई थी। उसका नाम ही है-‘‘जिन्दगी चालीस वर्ष से शुरू होती है’’। साठ वर्ष तक मनुष्य अनुभव इकट्ठा करता है। ज्ञान इकट्ठा करके, अक्लमन्दी इकट्ठी करके औरठोकर खाकर के मनुष्य इस लायक होता है कि कुछ काम करने लायक बन जाता है। अभी तो हम साठ वर्ष के हुए हैं। अभी तो हम जवान हुए हैं। अभी तो हम पाठा हुए हैं। कितने वर्ष हुए? चार साल हो गये। देखना जरा, अब हम काम करेंगे। अब लोगों की कशिश इकट्ठीकरेंगे, आप देखना तो सही। आप हमको पाँच-छः साल जिन्दा रहने दीजिए। अब जरा लहर आयी है, जवानी आयी है। अब हम कुछ काम करके दिखायेंगे और लाखों आदमियों को हिलायेंगे।
मित्रो! आप गहराई में घुसिए। आप गहराई में नहीं घुसेंगे, तो वह कशिश और वह सत्य, वह चुम्बकत्व और वह मैग्नेट और वह प्रभाव आपके भीतर पैदा नहीं हो सकेगा, जो आपको शांति प्रदान करे और आपका समाधान कर सके। आपके भीतर वह ब्रह्मतेजस् औरब्रह्मवर्चस् पैदा नहीं हो सकेगा, जो हजारों मनुष्यों और सारी दुनिया को जगा सकने और हिला डालने और चकमका देने की कोई भूमिका अदा कर सके। आपको उसे अपने भीतर पैदा करना ही पड़ेगा। हमारा जो असली शिक्षण है, वह आपको सीखकर जाना ही पड़ेगा।
क्या है हमारा असली शिक्षण?
मित्रो! हमारा असली शिक्षण क्या है? हमारा असली शिक्षण वहाँ से शुरू होता है, जब हमारे चौबीस अनुष्ठान पूरे हुए थे। ठीक है लोग जौ की रोटी कमा लेते हैं। तो महाराज जी! हम जौ की रोटी खा लेंगे, तो हमको भी जादू आ जायेगा। बेटे, नहीं आयेगा। जौ की रोटी मतखाइये। जौ की रोटी मैंने जवानी में खायी थी, जो हजम हो गयी थी। अगर अब आप इस उम्र में खायेंगे तो आपको पेट में दर्द हो जायेगा। तो मैं जौ की रोटी नहीं खाऊँ? हाँ, जौ की रोटी मत खा। इससे कुछ पैदा होने वाला नहीं है। महाराज जी! आपने छाछ पिया था, मैं भीछाछ पीकर रह जाऊँ? नहीं बेटे, छाछ पीने से भी तेरा काम नहीं चलेगा। तू दाल-रोटी खाता है, तो वही खा और जैसे भले आदमी जिन्दा रहते हैं, वैसे ही तू भी रह। मेरी नकल करने से क्या फायदा? मेरी नकल जब करनी हो, तो दो ही मेरे तप के माध्यम हैं, उन्हीं कीनकल कर। लोग कहते हैं कि आपने गायत्री का जप किया और हवन भी कराया। लेकिन मेरा गायत्री का जप और गायत्री का हवन वह है, जहाँ कि मैं आपको ले जाना चाहता हूँ। इसके लिए आप लोभ और मोह को त्याग दीजिए।
मित्रो! आध्यात्मिक जीवन में जब मैंने प्रवेश किया, तो वहाँ पर क्या हुआ? जब मैं गायत्री तपोभूमि बनाने के लिए खड़ा हुआ, तो जरूरत इस बात की पड़ी कि इसके लिए धन-संग्रह किया जाना चाहिए और बड़ी चीज बनायी जानी चाहिए; क्योंकि जो बनाये जाने वाला प्लान था, वह दस लाख रुपये का था। दस लाख रुपये कहाँ से इकट्ठा होना चाहिए? इसके लिए हमको चलना चाहिए और लोगों से माँगना चाहिए, धन इकट्ठा करना चाहिए। मन ने कहा-त्याग करने के लिए लोगों से कहने से पूर्व हमको स्वयं त्याग करना चाहिए। अगर स्वयं त्याग करने का माद्दा हमारे भीतर विकसित नहीं हुआ है, तो हम कौन सी वाणी से और कौन से शब्दों से और कौन से बोलों से लोगों से यह कहेंगे और कहने में समर्थ होंगे?
मित्रो! बचपन में मैंने जुलाहे की एक कहानी सुनी थी। उसने एक दिन किसान को देखा कि उसके खेत में बहुत अनाज पैदा होता है। गेहूँ बो देता है तो खूब गेहूँ पैदा होता है। उसने भी सोचा कि हम भी अपना सूत बोयेंगे, तो सूत की गठरी पैदा हुआ करेगी। सूत के धागे को लेकर वह खेत में सब जगह बो आया और पानी लगा आया। उसने सोचा कि हमारे सूत का पेड़ बनेगा और सूत की गठरी आया करेगी। मैंने जुलाहे की यह कहानी सुनी थी, लेकिन यह कहानी सही नहीं थी, वरन् वह गलत थी। मैंने भी सोचा कि अपनी दौलत को बोकर दिखायेंगे कि उसमें फल आता है कि नहीं आता। मेरे पास ज्यादा तो नहीं था, थोड़ा ही पैसा था। केवल डेढ़-दो लाख रुपये के आस-पास था। मैंने एक दिन आपको बताया भी था कि पैतृक जमीन आदि से करीब डेढ़ लाख रुपये मिले थे। मैंने इसे गायत्री तपोभूमि में जमाकर दिया था। लोगों ने कहा कि इससे आप मकान बना लीजिए। मैंने कहा कि क्यों मकान बना लूँ?
मित्रो! जब इतने ट्रस्ट बने हुए हैं, धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। किराये के मकान जब पच्चीस रुपये महीने पर मिल जाते हैं, तो डेढ़ लाख का मकान मैं क्यों बनवाऊँगा? मेरा अपना मकान होगा तो क्या हो जायेगा और मकान नहीं होगा तो क्या हो जायेगा? किराये के मकान में रह लूँगा, तो क्या हर्ज हो जायेगा? मेरे मन ने और मेरे ईमान ने कहा और फटाफट मैंने उसे जमाकर दिया। माता जी के पास जो पैसा था, उनके सास-ससुर का दिया हुआ जो जेवर था, (सोना) उसको उन्होंने चौंसठ रुपये तोले के भाव से बेच दिया। उससे साढ़े चौदह हजार रुपये मिले। यह तब मिला, जब सोना चौंसठ रुपये भाव का था। अब तो पचहत्तर रुपये का भाव है। अब तो वह कितने दाम का होता है? वह पैसा हमने गायत्री तपोभूमि में जमा कर दिया।
यह क्या कर दिया? मित्रो! यह जादू, यह चुम्बकत्व और यह मैग्नेट वहाँ से शुरू हो गया। परिणाम क्या हुआ? परिणाम आपने देखा नहीं हैं? गायत्री तपोभूमि की जो इमारत खड़ी है, वह दस लाख की है। वहाँ का जो छापाखाना है-वहाँ का जो प्रेस है, वहाँ का जो प्रकाशन है, वहाँ की जो और चीजें हैं और जो वहाँ का फर्नीचर है, उसको भी लगायेंगे, तो वह भी बहुत दाम का हो जाता है। प्रकाशन से लेकर सारी व्यवस्था तक-सभी बहुत दाम की हो जाती हैं। यह तो वहाँ की बात है, और जो हमने लोगों का पैसा खर्च करा दिया, वह लाखों नहीं, करोड़ों रुपया खर्च कराया है। जिस साल हम हजार कुण्डीय यज्ञ करके आये थे, उसी साल हमने कुल सात हजार कुण्डीय यज्ञ किये थे। उसमें बड़ौदा वालों का, पोरबंदर वालों का, बहराइच वालों का कितना खर्च हुआ, हमको ठीक से मालूम नहीं है, लेकिन इतना तो हम अंदाजा लगा लेते हैं कि एक-एक यज्ञ में एक-एक लाख रुपये से कम खर्च किसी में नहीं हुआ था।
मित्रो! इसके अलावा हमने कितने यज्ञ किये थे? सौ-सौ कुण्डीय यज्ञ किये और कितने-कितने कुण्डीय यज्ञ हवन कराये हैं? सबका-जिन्दगी भर का हिसाब लगा लीजिए, तो करोड़ों रुपयों से ज्यादा का जा पहुँचेगा। हमारे कहने से, हमारी प्रेरणा से और हमारे प्रभाव से करोड़ों रुपया जमा हो गया। यह कहाँ से आ गया? बीज से आ गया। कौन-सा वाला बीज? वही, जो हमने गायत्री तपोभूमि की स्थापना करते समय बोया था। आप यहाँ से हिम्मत इकट्ठी करना। एकादशी के दिन आप उपवास कर लेते हैं और नमक नहीं खाते, यह तो बड़ी अच्छी बात है। आप बहुत अच्छा काम करते हैं, लेकिन आपने अपनी हिम्मत इतने तक ही सीमित रखी, तो बात बनने वाली नहीं हैं। आप पैसे को फेंक दें या आपके पास फालतू पैसा है, यह मैं नहीं कहता। हम और आप गरीब आदमी हैं, लेकिन गरीब आदमी होते हुए भी हम और आप में से हरेक की ललक और लिप्सा यही लगी रहती है कि हमको पैसा इकट्ठा करना है और अपने घर वालों को देना है। पैसा इकट्ठा करना और अपने घर वालों को देना —यह ललक-लिप्सा यदि आप अपने दिमाग से निकाल दें, तो आपकी न्यायोचित आवश्यकताओं की बात रह जायेगी।
आत्मबल साहस का नाम है
मित्रो! जब आप न्यायोचित आवश्यकताओं की परख करना शुरू कर देंगे, तो संभवतः आप में से ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के तरीके से बहुत से आदमी होंगे, जो यह विचार करेंगे कि हमको पाँच सौ रुपये वेतन मिलता है। उसमें से हम सौ-पचास रुपये में अपने बच्चों का गुजारा कर सकते हैं और साढ़े चार सौ रुपये हम विद्यार्थियों और शिक्षार्थियों के लिए खर्च कर सकते हैं। अगर आपके भीतर यह जुर्रत और हिम्मत हो, तो मैं इसको आत्मबल कहूँगा। गुरुजी! आत्मबल तो वह होता है जो फूँक मार देते हैं और जादू-मंत्र से बुखार अच्छा कर देते हैं। हाँ, बेटे! वह भी होता है, लेकिन फूँक मारकर या सवा लाख जप करने से हो जाता हो, सो बात नहीं है। यदि यह सवा लाख जप करने से हो गया होता, तो बाबा जी और भिखारियों के पास-सबके पास हो गया होता। वह आत्मबल कहाँ से आता है? आत्मबल जुर्रत का नाम है। आत्मबल साहस का नाम है। आत्मबल मैग्नेट का नाम है, जिसमें कि आदमी अपने लोभ को और पैसे की ललक को पैरों तले कुचलकर फेंक देता है। वह बल शेर के बल के बराबर है, हाथी के बल के बराबर है।
ओढ़ी हुई गरीबी का जीवन जीते हैं संत
मित्रो! आप जब वानप्रस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिए चले हैं, तो आप पहला काम यह करना है कि आप पता लगाना कि आपकी न्यायोचित न्यूनतम आवश्यकताएँ क्या हैं? आप यह जान लें कि संत गरीबी का जीवन जीता है। संत का पहला काम गरीबी को मंजूर करना होता है, कंगाली को नहीं। कंगाल तो वे होते हैं, जिनको हम मालदार आदमी कहते हैं। असली कंगाल तो वही हैं। संत को गरीबी से जीवन यापन करना पड़ता है। वह किफायतशारी की जिन्दगी जीता है और वहाँ तक सीमाबद्ध हो जाता है कि हमको अपने पेट का गुजारा करने के लिए, अपना तन ढकने के लिए और अपने बच्चों की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए आवश्यक धनोपार्जन करना है। संत की जिम्मेदारियों और गृहस्थ की जिम्मेदारियों में फर्क हैं। दोनों की जिम्मेदारियों में जमीन-आसमान का फर्क है। एक अपने घर वालों को मालदार बनाने में, उन्हें खुशहाल बनाने में और उनकी मनमर्जी के मुताबिक़ परिस्थितियाँ पैदा करने में लगा रहता है, तो दूसरा अपने कर्तव्यों को पूरा करने में लगा रहता है।
मित्रो! हम किसी को पसंद नहीं करते, हम केवल अपने कर्तव्यों को पसंद करते हैं। कर्तव्य को पूरा करने के लिए और फर्ज को पूरा करने के लिए, अपने शरीर का निर्वाह करने के लिए और जैसा गरीब हमारा देश है। उस गरीब देश में निर्वाह करने के लिए जितने पैसों की आपको जरूरत है, उतना पैसा आप खर्च करते हैं। खर्च करने के बाद में लोभ पर अंकुश दो ही तरीके से आप कर सकते हैं। इसके लिए या तो आप कामना बंद कर दीजिए। कामना बंद करके आप बचे हुए समय को समाज में लगाना शुरू कर दीजिए। यह तरीका नंबर एक है। तरीका नम्बर दो यह है कि अगर आप यह समझते हैं कि समाज की सेवा करने के लायक हम इतने सक्षम नहीं हैं और हमारे पास आमदनी सिर्फ सौ रुपये महीने की है। इसमें से पचास रुपयों में हम अपनी गृहस्थी का काम चला सकते हैं और पचास रुपये सीधे हाथ से समाज के लिए खर्च कर सकते हैं।
मित्रो! ऐसा मत कीजिए कि साहब! सबने एक-एक आना दिया है, हम भी एक आना देंगे। यह गलत बात है। भगवान के यहाँ आदमी का लेखा-जोखा इस बात का नहीं है कि आपने पच्चीस रुपये दिये और उसने भी पच्चीस रुपये दिये। उस आदमी का तो पच्चीस रुपया डेली कुत्ता खा जाता है। पच्चीस रुपये की चीजें कुत्ता रोज खाता है। कुत्ते को साबुन लगाने, नहलाने और मखमल का झूला लगाने के लिए नौकर रखा है। अगर उसने एक दिन का कुत्ते का खर्च पच्चीस रुपया दे दिया, तो क्या कर दिया? और जिसको पाँच रुपये महीने भर में बचाना भी मुश्किल पड़ता है, उसमें से वह एक रुपया दे देता है, तो वह एक रुपया लाख रुपये के बराबर है। जिसका कुत्ते के ऊपर पच्चीस रुपया रोज खर्च हो जाता है और अगर वह पच्चीस रुपया दे जाता है तो उसका योगदान सुई की नोंक के बराबर है। यहाँ परसेन्टेज का सवाल नहीं है, मितव्ययिता का सवाल नहीं हैं, तादाद का सवाल नहीं है। सवाल यह है कि आपने विषम परिस्थितियों में भी अपना पेट काटकर जो बचा करके रखा था, उसमें से कितना हिस्सा सामान के लिए खर्च कर दिया।
मित्रो! आपकी कशिश, आपकी शक्ति, आपका बल और आपका आत्मबल आपको बिना कहे भी बढ़ सकता है और बिना किसी के माँगे भी बढ़ सकता है। मैं बहुत दिनों से कहता रहा हूँ और अभी भी कहता हूँ कि देखिये, लोग कहते रहते हैं कि गुरुजी! आप चंदा नहीं करते और तस्वीर भी नहीं छापते। बेटो, मैं चंदा नहीं करूँगा और तस्वीर भी नहीं छापूँगा क्योंकि मैं देखता रहता हूँ कि वह कशिश, वह मैग्नेट, मेरा जो शुरू हुआ था, जब मैंने लोभ का त्याग करके प्रारम्भ किया था, आखिर उसमें कोई चुम्बकत्व है कि नहीं है? मैग्नेट है कि नहीं है? वहाँ भी मैंने ऐसे हिम्मत वाले काम कर डाले थे। वहाँ भी हजार कुण्डीय यज्ञ हुआ था। लोगों ने मुझसे पूछा कि इसमें कितना रुपया खर्च होगा? इसमें तो इक्कीस-बाइस लाख रुपया खर्च होगा। लोगों ने कहा कि गुरुजी! हजार कुण्डीय यज्ञ तो बड़ा जबरदस्त होगा, आपने पैसे का इंतजाम किया क्या? बेटे, देखता हूँ, करूँगा, जो भी करना होगा, कर लूँगा।
(क्रमशः समापन अगले अंक में)
अखण्ड ज्योति अगस्त २०१४
मैंने बोया और मैंने काटा
लेकिन मित्रो! अभी मैं देखना चाहता हूँ कि लोभ को त्यागने के बाद आदमी के भीतर जो मैग्नेट पैदा होता है, जो कशिश पैदा होती है, वह मेरे भीतर पैदा हुआ कि नहीं हुआ? वह अभी भी जिन्दा है कि नहीं? अभी आप मुझे अपने आपका इम्तहान लेने दीजिए। मैंने किसीसे नहीं माँगा। उस हजार कुण्डीय यज्ञ में चालीस लाख रुपया खर्च हुआ था। वह सारे का सारे पूरा हो गया। मित्रो! अभी भी जो काम करता रहता हूँ, बिना माँगे ही मेरे काम चलते रहते हैं। अभी देखिए, ढाई वर्ष हुआ है। मैं समझता हूँ कि इस ढाई वर्ष में दो-ढाई लाख रुपयेसे कम खर्च नहीं हुआ। मैं देखता हूँ कि वह मैग्नेट और वह कशिश लोगों के भीतर है कि नहीं? प्रभाव डालने की क्षमता है कि नहीं? और लोगों को हिला देने वाली और लोगों का पैसा जेब में से निकाल देने वाली कशिश है कि नहीं, मैं देखूँ तो सही।
हाँ मित्रो! है। क्यों है? क्योंकि मैंने बोया है। किसको बोया है? अपने लोभ को बोया है और उसका जो फल मिला वह लोगों से इस बात को मंजूर करने के लिए विवश करने में सफल रहा कि हम भी अपने लोभ का त्याग करने के लिए तैयार हों और लोभ का त्याग करेंगे।आपको भी मैंने इसके लिए तैयार कर लिया। कितनों को तैयार कर लिया और कितनों को तैयार करने वाला हूँ? भगवान बुद्ध ऐसा करने में समर्थ हो गये थे। उन्होंने असंख्य मनुष्यों को उनकी भरी जवानी में अपना घर छोड़ने के लिए, अपनी खुशहाली छोड़ने के लिएतैयार कर लिया था। उनकी जिन्दगी में ही ढाई लाख मनुष्य इस तरीके से तैयार हो गये थे कि भिक्षु और भिक्षुणियों के रूप में नौजवान-भरी जवानी वाले उनके कहने की वजह से क्यों तैयार नहीं होता? इसलिए नहीं होता कि बुद्ध के तरीके से त्याग का माद्दा औरकशिश उनके भीतर हमारी वाणी से पैदा नहीं होती। बुद्ध भगवान ने पैदा किया था। वे जहाँ कहीं भी चले गये, जिस जगह भी चले गये, न जाने कितने लोग उनके पीछे पड़ते हुए चले गये। विवेकानन्द जहाँ कहीं भी गये थे, सिस्टर निवेदिता से लेकर कितने आदमी कामकरते हुए चले गये। गाँधी जी के कहने के मुताबिक़ कितने आदमी जेल चले गये थे।
लोकशिक्षक को पहला शिक्षण—वैरागी बनें
मित्रो! यह कशिश आपको भी पैदा करनी है। आपको व्याख्यान करने की कला नहीं सीखनी है, पंडितों की कला नहीं सीखनी है। इस कला को सीख करके अगर आपका यह ख्याल हो कि हम समाज की बहुत बड़ी सेवा कर सकते हैं या जनता की वह सेवा कर सकते हैंजिसके लिए हम आपको आगे भेजने वाले हैं, यह नामुमकिन है। इसलिए पहली वाली योग्यता, पहला वाला शिक्षण, पहला वाला क्रियाकलाप जो आपको पूरा करना है, वह यह है कि पीला वस्त्र पहनने के बाद में आप अपने जीवन की रीति-नीति को बदल दें। इसके लिएआप कब और कितना कदम उठा सकते हैं, मैं नहीं जानता। आपकी परिस्थितियाँ क्या हैं, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं यह जानना और समझना चाहूँगा कि आपमें इस आध्यात्मिक जीवन के अंदर प्रवेश करने की क्षमता हो, तो आपको वैरागी बनना पड़ेगा।
मित्रो! वैरागी वे आदमी नहीं होते जो हाथ में चिमटा लेते हैं, कमण्डल धारण करते हैं, तिलक लगाते हैं और माला पहनते हैं, वरन् वैरागी वे होते हैं जो अपना दृष्टिकोण बिलकुल साफ कर लेते हैं, शीशे की तरह साफ कर लेते हैं। पैसे को कमाना ही नहीं, वरन् उसको खर्चकैसे करना चाहिए? हमारे पास जो कुछ है, उसको हमको कैसे खर्च करना है? अब आपको कमाने की उतनी ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए। अब आपको यह चिंता करनी है कि हमको खर्च कम कैसे करना हैं? आपके जो भी घरेलू खर्च हैं, क्या उसमें किसी प्रकार की कमीकरने की गुंजाइश है? अगर कमी करने की गुंजाइश हो, तो आपको फौरन कमी कर देनी चाहिए और आपको जान-बूझकर संत का जीवन ग्रहण कर लेना चाहिए। आपके व्यक्तिगत खर्चों में लग्जरी का माद्दा जहाँ कहीं भी है, आपको उन खर्चों को तुरन्त काट डालनाचाहिए और आपको अपने घर में ही रहकर संत जैसा जीवन जीना शुरू कर देना चाहिए।
संत गरीब होते हैं, दरिद्र नहीं
मित्रो! संत गरीब होते हैं, कंगाल नहीं होते। कंगाल और गरीब आदमी में जमीन-आसमान का फर्क है। कंगाल वो हैं जिसको हम दरिद्र कहते हैं। गरीब उनको कहते हैं, जो जान-बूझकर स्वेच्छापूर्वक कम खर्च में किफायतशीलता से अपना जीवन यापन शुरू करते हैं। किसतरीके से आप अपना जीवनयापन शुरू करेंगे? आपके पास अनावश्यक धन कहीं से संग्रहीत हो गया है, तो आप उसको फोड़े के तरीके से फोड़कर निकाल दें। यह आपको बड़ा कष्ट देगा और आपकी हड्डियों को गला देगा। अनावश्यक धन संचय संत को शोभा नहीं देता।जहाँ कहीं भी आपके फोड़ा हो गया हो, उसको चीरा लगवा दीजिए और मवाद को निकाल दीजिए, अन्यथा वह आपको सड़ा देगा, आपके परलोक को सड़ा देगा। आपकी बीबी को सड़ा देगा, आपके बच्चों को सड़ा देगा, आपके खानदान वालों को सड़ा देगा। सबको सड़ा देगा, आप यकीन रखना। आपने अनावश्यक दौलत इकट्ठी करके रखी हो, तो इसको निकाल देना और फोड़े के तरीके से फोड़कर खत्म कर देना।
मित्रो! जनता का शिक्षण करने के लिए आपको जो तप सिखाता हूँ, योगाभ्यास सिखाता हूँ, वह यहाँ से आरंभ करता हूँ। असली तप और असली योगाभ्यास वही है। आप तो बार-बार यही पूछते हैं कि महाराज जी! नाक में से रस्सी निकालना सिखा दीजिए। कान में घंटीबजाना सिखा दीजिए और ‘जय शिव ओंकारा’ सिखा दीजिए और गायत्री का जप करना सिखा दीजिए। बेटे, मुझसे खेल-खिलौना क्यों पूछता हैं? जो असली योगाभ्यास है, उसे क्यों नहीं पूछता? असली तपश्चर्या क्यों नहीं सीखता, जिसमें तुझको पसीना आयेगा, औरजिसमें तेरी ईमानदारी का इम्तिहान लिया जायेगा। वहाँ नहीं घुसना चाहता और यह खेल-खिलौना करना चाहता है। नहीं गुरुजी! हम तो ऐसा ही करेंगे? नाक में से पानी पी लिया करेंगे और मुँह में से निकाल दिया करेंगे। बेटे, यह तो अपने आप हो जाता है, इसमें कौनसी बड़ी बात है? नहीं महाराज जी! हमको नाक में से पानी निकालना सिखाइए। भगवान से मिलना सिखाइए। बिलकुल पागल आदमी है।
लोभ-मोह से मुक्ति पर मिलते हैं भगवान
मित्रो! नाक में कोई भगवान नहीं रहता है। नहीं साहब! नाक में से प्राणायाम करना बता दीजिए, भगवान मिल जायेगा। बेटे, तू बिलकुल पागल आदमी है। नाक में तेरा भगवान रहा होता, तो चल मैं यह भी बता देता, पर तेरी नाक में तो गन्दगी भरी पड़ी है। तुझे कभीजुकाम हो जाये, छींक आ जाय, तो देख लेना, भगवान है कहीं? कहीं नहीं है, केवल कफ़ है। जुकाम हो जाने पर ढेरों कफ़ निकलता है, वही तुझे मिल जायेगा। नाक में से बहुत प्राणायाम करेंगे, तो भी भगवान नहीं मिलेगा? नहीं बेटे, भगवान नहीं मिलेगा। भगवान कबमिलेगा? कहाँ मिलेगा? भगवान वहाँ मिलेगा, जबकि हम दो इम्तिहानों में पास होते चले जायेंगे। कौन-कौन से? लोभ और मोह के इम्तिहान में। आपकी सारी शक्ति यही दो राक्षस खा जाते हैं। वे कुछ भी बचने नहीं देते।
मित्रो! भगवान का भजन करने का मन आपका कहाँ है? मन हो तो न, भगवान के भजन में लगे। आपके पास जब मन ही नहीं है, तो भगवान के भजन में कैसे लगेगा। मन तो आपका गुलाम हो गया है, गिरवी रखा हुआ है, लगेगा कैसे? लगेगा किसके पास? आपकाभगवान कौन है? कोई आपका रिश्तेदार है भगवान? साला है? भगवान आपका कोई नहीं है। भगवान तो आपके लिए वह साधन है जिससे आप अपना उल्लू सीधा करा लें। आपके लिए वह शिकार खेलने की मछली जैसे है। आप उसको पकड़ लें, उससे वैकुण्ठ ले लें, स्वर्ग ले लें, उससे मुक्ति ले लें। उससे मनोकामना पूरी करा लें, उससे चाहे जो ले लें। भगवान आपका कौन है? भगवान आपका ‘ख्वाहमख्वाह’ है। उसके लिए आपका मन कैसे लग सकता है? आपका मन नहीं लग सकता।
इसलिए मित्रो! आपको अपने भीतर कशिश पैदा करनी हैं और यह कशिश मोह को त्याग करके पैदा करनी है। मित्रो! जब हम चलने लगे तो हमारे पास अस्सी बीघा जमीन बाकी रह गयी थी। हमारे खानदान वालों ने कहा कि अब तो आप हिमालय जा रहे हैं। क्या हमेशा केलिए जा रहे हैं? हाँ, अब नहीं आयेंगे? हाँ। तो फिर अस्सी बीघे जमीन की लिखा-पढ़ी कर जाइये, हमको और अपने घर वालों को, खानदान वालों को दे जाइये। मैंने कहा कि यह गलती मैं नहीं कर सकता। अगर मेरे खानदान वाले, मेरे घर वाले, मेरे बेटी-बेटे अपाहिज होते, लूले होते, लँगड़े होते, काने होते, जिनसे चला नहीं जाता, तो मैं इनको दे जाता। अगर बच्चे छोटे होते और जिनके पालन करने की जिम्मेदारी और कर्तव्य मेरा होता, तो मैं इनको दे जाता। मेरे दोनों बच्चे बड़े हो गये हैं, एम0ए0 पास कर लिया है। काम से लग गये हैं।इनकी शादियाँ हो गयी हैं। अब इनका कोई हक मेरे ऊपर नहीं रहा और कोई ड्यू नहीं रहा। अब इनका कोई अधिकार नहीं रहा।
मित्रो! जो चीजें मेरे बाप-दादों ने और मेरे बुजुर्गों ने और मैंने कमाई, जिस पैसे को लोकमंगल के लिए समाज को देकर मैं कितना लाभ उठा सकता हूँ, वह मैं आपको दे दूँगा? मैं तो नहीं देता। खानदान वालों ने, साले और रिश्तेदारों ने मुझे धमकी दी। लड़के और लड़कियोंके ससुराल वालों ने कहा कि यह कानूनी हक है और जमीन आपके बुजुर्गों की है, अतः सबका अधिकार है। मैंने कहा कि कानून तो चालाकों का बनाया हुआ है, चोरों का बनाया हुआ है। बाप की कमाई को बेटे को खाना चाहिए, यह चोरों का कानून है और चालाकों का कानूनहै। क्यों खाना चाहिए। मैं गवर्नमेंट के इस बात के पक्ष में हूँ और सही समझता हूँ कि उसे मृत्यु-टैक्स वसूल करना चाहिए। मैं तो यह कहता हूँ कि ऐसा टैक्स वसूल करना चाहिए कि जिसके नाबालिग छोटे बच्चे रह जायँ, उनकी तो बात अलग है। उनका तो उस हिसाब सेपढ़ने-लिखने का प्रबंध करना चाहिए। इसके बाद में जो कुछ भी बच जाता है, सबका सब जब्त कर लेना चाहिए।
लोकमंगल के लिए बने कानून
मित्रो! अगर मुझे हुकूमत सौंप दी जाय, तो मैं यही कहूँगा कि न्याय यही है-इंसाफ यही है कि जो आदमी मर गया है और जिसके ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं है और वह सम्पत्ति को अपनी औलाद के लिए छोड़कर मर गया है, तो उसका एक पैसा मत दो। उसका सारा पैसाजब्त कर लो। वह सारा पैसा गवर्नमेंट को दे देना चाहिए। उसकी औलाद को कानी कौड़ी नहीं मिलनी चाहिए। पर मैं क्या कर सकता हूँ, मेरा कानून तो चलेगा नहीं। लेकिन अगर इंसाफ की बात हो, तो वह यही है कि वह सारा का सारा धन लोकमंगल के लिए खर्च करनाचाहिए और समाज के लिए खर्च होना चाहिए।
मित्रो! अगर आपको अपने अंदर कशिश उत्पन्न करनी हो, तो वहाँ से करना चाहिए, जहाँ से आपके लोभ और मोह पर अंकुश लगे। जैसा कि मैंने आपको बताया था कि मेरे पास जो अस्सी बीघे जमीन थी, उसके लिए मेरे खानदान वाले एक ओर बैठे रहे और हरेक आदमीनाराज बैठा रहा, गुस्से में भरा बैठा रहा। मैंने हरेक की ओर आँख उठाकर देखा और कहा कि आपकी नाराजगी आपको मुबारक, मैं आपकी नाराजगी से पिघल नहीं सकता। आप मेरी संतान हैं और मुझे संतान के लिए फर्जों और उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों का ज्ञान है।अपने कर्तव्यों, फर्जों और उत्तरदायित्वों को पूरा करने के अलावा आपको प्रसन्न करने के लिए, आपको खुश करने के लिए, आपकी खुशामद करने के लिए और औलाद की मर्जी के मुताबिक़ चलने के लिए मैं कुछ कर सकता हूँ? मैं कतई नहीं करूँगा। आप सब नाराज होजायँ, तो भी नहीं। लोग अभी तक नाराज बैठे हुए हैं। कौन? जिनको सपने में भी रास्ता नहीं मिला। मैंने तो अस्सी बीघे जमीन हाईस्कूल के नाम कर दी। अब वहाँ माता जी के नाम का हाईस्कूल बना हुआ है। कॉलेज बना हुआ है। उसी स्कूल में हरिजन-आदिवासियों कीलड़कियों ने इण्टरमीडिएट पास कर लिया। जबकि हमको अपने गाँव से सात मील दूर मिडिल पढ़ने के लिए जाना पड़ता था।
मित्रो! हमारा छोटा सा गाँव है और छोटे से गाँव में केवल प्राइमरी स्कूल की व्यवस्था थी। मिडिल गाँव से बाहर जाकर पास करना पड़ता था। सोमवार के दिन सबेरे सात मील दूर जाते थे। सबेरे चार बजे उठकर नौ बजे पहुँचते थे। शनिवार के दिन फिर शाम को चार बजेचलते थे और रात को आठ-नौ बजे घर आ पाते थे। हमने सारी की सारी मिडिल की पढ़ाई वहाँ पढ़ी थी। हमारे गाँव के सारे लोगों में से दो-पाँच लड़के ही थे, जिन्होंने मिडिल तक शिक्षा पायी थी। बाकी सारे के सारे बच्चे प्राइमरी पढ़ने के बाद में स्कूल छोड़ गये थे। अब उसीगाँव में मैट्रिक और इंटरमीडिएट कॉलेज है जहाँ पचास-साठ बच्चियाँ तो हर साल मैट्रिक कर ही लेती हैं। लड़कों का तो कहना ही क्या? लड़कों में तो शायद ही कोई ऐसा बचा होगा, जिसने मैट्रिक पास न कर लिया हो, बी0ए0 पास न कर लिया हो। अब तो कॉलेज कीव्यवस्था हो रही है। शिक्षा का प्रसार न केवल आवश्यक है, वरन् अनिवार्य भी है। लोग अभी भी कहते हैं कि गुरुजी का अकेला बेटा नहीं है, वरन् सारा गाँव उनका बेटा है। उनकी अकेली बेटी नहीं है, वरन् सारे गाँव की बेटियाँ उनकी बेटियाँ हैं, जिनको पढ़ाने-लिखाने आदिकी सारी व्यवस्था करने का इंतजाम कर दिया।
हमारा प्यार है इस परिवार का आधार
मित्रो! यह क्या है? यह लोभ और मोह है, जो मैंने अपने छोटे से खानदान में से खींचा और छोटे से खानदान में से निकाला। मेरा वही मोह प्यार के रूप में बदलता हुआ चला गया। यह प्यार कितना बढ़ा, आपने देखा नहीं? लड़कियाँ जब यहाँ से विदा होती हैं, तो फूट-फूटकर रोती हैं और पाँच-पाँच दिन, सात-सात दिन तक हमको तंग करती हैं। लड़कियाँ आपस में हिल-मिलकर बैठ जाती हैं और कहती हैं कि आपने हमको बेकार बुलाया, इससे तो अच्छा था कि आप हमको नहीं बुलाते। नहीं, माताजी! आपको छोड़ने में हमको बड़ाकष्ट होता है। लड़कियाँ जाती हैं, उनके माँ-बाप ले जाते हैं और हमको भेजना भी पड़ता है। जिन्दगी भर सारी लड़कियों को हम कैसे रखेंगे? उनको घर जाना चाहिए और दूसरा काम करना चाहिए। वही लड़कियाँ यहाँ बैठी रहेंगी, तो नयी कहाँ से आयेंगी? हमारे पास इतनीजगह कहाँ हैं? इसलिए हम उनको विदा कर देते हैं।
मित्रो! जब उनकी विदाई होती है, तो उनकी आँखों में किस तरीके से आँसू निकलते हैं, जैसे सगी बेटियाँ रोती हैं, उसी तरीके से विदा होती ये लड़कियाँ रोती हैं। कितनी कशिश है। मित्रो! लाखों मनुष्यों से हमारा मोह जुड़ा हुआ है और हमारा प्यार जुड़ा हुआ है। मोह औरकशिश के बंधनों से हमने आपको बाँध रखा है। हमारे पास और कोई चीज नहीं है। विद्या हमारे पास नहीं है। हम आपकी मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ कहाँ हुए? आपकी कठिनाइयों को दूर करने में, आपको वरदान और आशीर्वाद देने में कहाँ समर्थ हो सके? आपकीदिक्कतें जहाँ की तहाँ हैं और आपकी कठिनाइयाँ जहाँ की तहाँ हैं। हमारा वरदान आपके क्या काम आया? क्या आप वरदान की वजह से आये हैं? वरदान की वजह से आप नहीं आये। क्यों आते हैं आप? आप हमारे प्यार की कशिश से खिंचे हुए चले आते हैं।
मित्रो! प्यार की यह कशिश आप पैदा कर सकते हैं? हाँ, आप पैदा कर सकते हैं। शर्त केवल यह है कि आपका जो प्यार है, वह छोटे से खानदान के बंधनों में इस कदर जकड़ा हुआ पड़ा है, जिसने आपकी मशक को बाँध दिया है। आप उस दायरे में से निकलिये और उसकोआगे बढ़ाना शुरू कीजिए। फिर देखिये कि आपको किस तरह का प्यार मिलता है। किस तरह की कशिश आपके भीतर पैदा होती है। जहाँ कहीं भी आप जाते हैं, लोग आपके पीछे-पीछे लगे हुए चलेंगे और आगे-आगे लगे हुए चलेंगे।
मित्रो! आपको लोगों का मन बदलना है। असल में आपको उनके दिमाग को नहीं बदलना है। दिमाग को बदलने का काम तो हमने कितने वर्ष से कर लिया। ‘अखण्ड ज्योति’ में हमने कितने लेख छापे हैं और ‘युग निर्माण योजना’ में लेख छापे हैं और कितनी पुस्तकेंछापी हैं। हमसे ऐसी कौन सी बात बची है, जो हमने छापी नहीं है। हमसे पहले रामायण वाले ने भी छाप दी थी। गीता वाले ने उससे भी पहले छाप दी थी और भागवत् वाले ने उससे पहले भी छाप दी थी।
वो सारी की सारी नसीहतें और शिक्षायें, जिनको आप वाणी के द्वारा देने के लिए चले हैं, मित्रो! उसमें कानों को आनंद आ जायेगा, आँखों को आनन्द आ जायेगा और आपको जानकारियाँ मिल जायेंगी। हमारा दिमाग कहाँ खराब हुआ है? हमारा तो ईमान खराब हुआ है।हम आज भी आदमी के ईमान को बदलना चाहते हैं। दिमाग को हम कब बदलना चाहते हैं? आप किसी से भी मालूम कर लीजिए, दिमाग तो बड़ा चालाक है। आप जैसा निषेध करने को तैयार हैं, वह इससे भी ज्यादा निषेध करने को तैयार है। उसे नसीहतों की जरूरतनहीं है, शिक्षाओं की जरूरत नहीं है, प्रवचनों की जरूरत नहीं है, वरन् उन तत्त्वों की जरूरत है, जो आदमी को प्रभावित कर सकते हैं, आदमी के ऊपर बल डाल सकते हैं और आदमी के ऊपर जोर डाल सकते हैं।
मित्रो! वह कहाँ से आयेगा? वह कॉपी करने के माद्दे से आयेगा। मनुष्य के अंदर एक विशेषता भरी पड़ी है। वह दूसरे आदमियों की नकल करना जानता है। वेश्या अपनी जिन्दगी में सैकड़ों-हजारों भड़ुए पैदा कर देती है। क्यों पैदा कर देती है? इसलिए पैदा कर देती है किउसका जो विचार है वही उसकी क्रिया भी है। उसके विचार और क्रिया दोनों मिले हुए हैं। वह जो भी गन्दा या अच्छा विचार करती है, क्रिया भी उसी के अनुरूप करती है। विचार और क्रिया दोनों के सम्मिश्रण का परिणाम यह होता है कि वह अपनी जिन्दगी में सौ भड़ुए पैदाकर लेती है। जुआरी अपनी जिन्दगी में सौ जुआरी पैदा कर लेता है। शराबी अपनी जिन्दगी में सौ शराबी पैदा कर लेता है, लेकिन एक भगत और एक पंडित और एक गुरु और एक ज्ञानी सौ भगत और सौ ज्ञानी पैदा नहीं कर सकता। क्या वजह है? आपने कभी देखा याविचार किया? उसकी एक ही वजह है कि वे ज्ञानी, गुरु और पंडित केवल दिमाग और जबान तक ही अध्यात्म को सीमित रखते हैं, जीवन में उसे प्रवेश नहीं करने देते। हृदय में प्रवेश नहीं करने देते, क्रिया में प्रवेश नहीं करने देते।
अंतःकरण में आने दें अध्यात्म को
मित्रो! ये कहते हैं कि अगर अध्यात्म हमारे हृदय में प्रवेश कर गया, तो मुश्किल खड़ी हो जायेगी और मेरे लोभ एवं मोह में दिक्कत आ जायेगी। इसलिए हम इन दोनों चीजों को जबान की नोंक तक सीमित रखेंगे। जबान की नोंक से गीता का पाठ करेंगे, रामायण का पाठकरेंगे। जबान की नोंक से उपदेश करेंगे, बस। इसे हम केवल कान तक सीमित रखेंगे। हम भागवत् सुनेंगे, सत्संग सुनेंगे और कथा-कीर्तन सुनेंगे, बस। इससे आगे नहीं। बस दिमाग में जानकारियाँ जमा करेंगे। फलाने स्वामी जी ने कौन से वेद का भाषण किया था औरउसके बारे में क्या कहा था? उसका मंत्र क्या होता है? ब्रह्म क्या होता है? जीव क्या होता है? नहीं साहब! हम दिमाग का शिक्षण करेंगे। मित्रो! यह दिमाग की कोई शक्ति नहीं है। यह कानों की कोई शक्ति नहीं है और आँखों की कोई शक्ति नहीं है। शक्ति जो रहती है, वहअंतःकरण में रहती है और आपको अपने अंतःकरण में अध्यात्म को प्रवेश कराना पड़ेगा। वानप्रस्थ जीवन का यही उद्देश्य है और यही शिक्षण है।
मित्रो! आपकी दिशाएँ हमने यहाँ से बना दी हैं। लक्ष्य हमने यहाँ से बना दिया है। हम कुछ कह नहीं सकते कि आप इसको कब तक पूरा करने में समर्थ होंगे? हमें नहीं मालूम है कि आपकी परिस्थितियाँ क्या हैं? आपके पारिवारिक उत्तरदायित्व क्या हैं? और आपकीजिम्मेदारियाँ क्या हैं? उनको हम छुड़ाना नहीं चाहते और आपको मजबूर करना नहीं चाहते। हम यह चाहते हैं कि आप यहाँ से वैरागी होकर जायँ। आप मन से वैरागी हो जायँ। परिस्थितियाँ जब आपको इसके लिए इजाजत दें कि हम पूरे वैरागी होने की परिस्थिति में हैं, तब आप अपना लक्ष्य यही रखना कि हम व्यक्तिगत जीवन नहीं जियेंगे। व्यक्तिगत सुखों की आकांक्षा के लिए नहीं जियेंगे। हमारी कोई व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ नहीं हैं। हमारी व्यक्तिगत सुविधाएँ नहीं हैं। व्यक्तिगत हमारी कोई मनोकामनाएँ नहीं हैं। व्यक्तिगततमन्नाएँ हमारी नहीं हैं। हमने अपना व्यक्तिगत जीवन खत्म कर दिया और अपना सामाजिक और सामूहिक जीवन शुरू कर दिया।
मित्रो! अभी आप ठीक हैं, छोटे से परिवार की जिम्मेदारियों के बंधन में बँधे हुए हैं। आप इसे निभाना। मैं आपको इजाजत देता हूँ कि आप इसे निभायें। मैं उन आदमियों में से नहीं हूँ जो बच्चों को बिलखते हुए, अपनी स्त्रियों को बिलखते हुए और घर की जिम्मेदारियों कोछोड़कर बाबा जी हो जाने के लिए कहूँगा। आप अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाना। कल तक पूरी करना, परसों तक पूरी करना, साल भर में पूरी करना, पन्द्रह साल में पूरी करना। जब परिस्थितियाँ आपको इजाजत दें कि अब आप पूरा वक्त समाज के लिए लगासकते हैं, लोकमंगल के लिए लगा सकते हैं, संस्कृति के लिये लगा सकते हैं। देश के लिए लगा सकते हैं, धर्म के लिए लगा सकते हैं, तो आप लगाना। अगर वे परिस्थितियाँ कल आती हैं, तो परसों का इंतजार मत करना। अगर परिस्थितियाँ आपको दस साल तकठहरने को मजबूर करती हैं, तो आप दस साल से कम पौने दस साल में करने की जल्दबाजी मत करना। आप समय से करना और परिस्थितियों के अनुरूप अपने बंधनों को ढीला करना और अपना समस्त समय लोकमंगल के लिए और समाज कल्याण के लिए खर्चकरना।
मित्रो! यह काम तो आप अभी से ही करना और आज से और यहीं से करना कि अपने लोभ और मोह की जंजीरों को कम से कम करना और ढीला करना। इन्हीं ने आपको कषाय और कल्मषों के बंधनों में बाँध कर रखा है। इन्हीं ने आपके प्रभाव डालने की शक्ति को, आपके वर्चस् को और आपके आत्मबल को अवरुद्ध करके रखा है। लोभ और पाप की जड़ यही हैं। संसार में जितने भी लोभ और पाप दिखाई पड़ते हैं, जितने भी अनाचार और बंधन दिखाई पड़ते हैं, वे इन दोनों के ही पैदा किये हुए हैं, तीसरे के पैदा किये हुए नहीं हैं।
जीवन को तपमय बनायें, ज्ञानमय बनायें
मित्रो! लोभ और मोह इन दोनों की जड़ें आप अपनी मनोभूमि से काटना और इनके विरुद्ध रोज जद्दोजहद करना। रोज आत्मपरीक्षण करना, रोज अपनी समीक्षा करना। रोज अपने आपसे सवाल पूछना कि अपने लोभ और मोह के लिए कोई अनावश्यक शक्तियाँ तोखर्च नहीं होतीं? सत्संग के लिए आपकी शक्तियाँ खर्च होती हों, तो मैं आपको आशीर्वाद देता हूँ और आपको इजाजत देता हूँ कि आप अपने कर्तव्य के लिए, जिसमें शरीर का कर्तव्य भी शामिल है, घर का कर्तव्य भी शामिल है। उसे अवश्य करना, वह भी लोकमंगल है।लेकिन जो आपकी शक्तियाँ-जिनमें आपके दिमाग की शक्ति है, अक्ल की शक्ति है, आपके मन की शक्ति है और प्रभाव की शक्ति है, अगर वह धन के लिए और लोभ के लिए खर्च होती है; तो आप जितनी जल्दी हो सके और जितनी मुस्तैदी से सम्भव हो सके औरजितनी हिम्मत के साथ हो सके, उनको ढीला करना और काटना। अपने जीवन को तपमय बना देना और योगमय बना देना, भक्तिमय बना देना और और ज्ञानमय बना देना।
ज्ञानमय बनाने के लिए मित्रो! आपको वही करना चाहिए, जो मैंने अपनी जिन्दगी में किया और प्रत्येक संत ने किया और वही आपको करना पड़ेगा। आप इसकी तैयारी करना। यहाँ से जिन-जिन शाखाओं में हम आपको भेजें, जहाँ आपको भेजें, वहाँ आप तेजस्वी होकरके जायँ, प्रभावशाली हो करके जायँ। वैसे हो करके जायें जैसे कि बुद्ध के शिष्य सारे विश्व में गये थे। वे जहाँ भी गये थे, वहीं बौद्ध धर्म की पताका फहराते हुए और उसकी स्थापना करते हुए गये थे। यह प्रभाव उनकी वाणी का नहीं था, उनकी विद्या का नहीं था, वरन्यह प्रभाव उनके चरित्र का था। आदमी का आध्यात्मिक चरित्र इन दो बातों पर टिका हुआ है आदमी का लोभ और मोह किस कदर तक उस पर हावी है। अपने आपका इम्तिहान आप भी ले सकते हैं। बाहर वाला क्या जान सकता है कि आपकी परिस्थितियाँ क्या थीं औरआप क्या कर सकते थे?
मित्रो! अगर आप दो कामों में समर्थ हो सके, तो मैं आपको योगी कहूँगा और आपको तपस्वी कहूँगा। अगर आप यह दो काम न कर सके और आपने मंत्र, तंत्र और उपासना, भजन और कथा-कीर्तन जान लिया और उसे ही सब कुछ मान लिया, तो मैं आपको सिर्फपुजारी कहूँगा। पुजारी का प्रभाव हो भी सकता है और आपको सम्मान भी मिल सकता है और आपके अहंकार की पूर्ति हो भी सकती है। लेकिन जो काम आप करना चाहते हैं—अपने आपको शान्ति देने का, आत्मनिर्माण करने का और सारे विश्व का निर्माण करने का; वह तभी होना सम्भव है जबकि आप लोभ और मोह के कुम्भकरण को परास्त करने में समर्थ हो सकें।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥