उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
आशीर्वाद लूट नहीं है
महाराज जी! आप तप कीजिए और आशीर्वाद देकर हमारा फायदा करा दीजिए। बेटे, आशीर्वाद माने लूट नहीं है, जो तू समझता है-''राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट।'' ऐसे किसी चीज की लूट नहीं पड़ रही है। आशीर्वाद की तो पड़ रही है? नहीं बेटे, आशीर्वाद की तो बिलकुल नहीं पड़ रही है। आशीर्वाद की बहुत कीमत है। कीमत चुकाए बिना न आशीर्वाद मिलता है, न वरदान मिलता है, न सिद्धि मिलती है, न चमत्कार मिलता है और न मनोकामना पूरी होती है। हर आदमी को हर चीज की कीमत चुकानी पड़ी है। नहीं गुरुजी, हम तो बिना कीमत चुकाए ही पाएँगे। क्या करेंगे? लूट करेंगे। कैसे? ''राम नाम लड्डू गोपाल नाम खीर। हरि का नाम मिसरी तो घोल-घोल पी।'' हाँ बेटे ये तो हो जाएगा। ये लूट अलग है। इसमें कोई एतराज नहीं है, लेकिन जो व्यक्ति कीमती चीज पाना चाहता है, उसे कीमत चुकानी पड़ेगी ।
मित्रो! अभी मैं एकाग्रता की बात कह रहा था। एकाग्रता लाने का फैसला आप करते हैं तो मैं यह कहूँगा कि आप योग के मार्ग पर चल रहे हैं और योगी बनने की कोशिश कर रहे हैं। यह हुई नंबर एक की बात-एकाग्रता की बात। अब मैं नंबर दो-योग के दूसरे वाले लक्ष्य की बात बताता हूँ। योग के दूसरे वाले भाग में शामिल होता है-ध्यान। वह क्या है? बेटे, इसका मंतव्य यह है कि भगवान के चिंतन का कोई लक्ष्य होना चाहिए। इसका नाम हैं-इष्ट। इष्टदेव का ध्यान करना चाहिए। कौन सा इष्टदेव? जो भी आपने तय किया हो। महाराज जी! कौन सा इष्टदेव बनाऊँ? जो भी आपका मन हो, बना लीजिए लेकिन ध्यान पूरा कीजिए। इष्टदेव का आप ध्यान करेंगे तो क्या हो जाएगा? इष्ट माने लक्ष्य, इष्ट माने देवता। देवता पहला प्रतीक माना गया है। देवता किसी शक्ति के प्रतीक हैं, जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम। मर्यादा वाला व्यक्ति बनना है तो आपको अपना इष्टदेव राम को मानना चाहिए। आपको पूर्णपुरुष बनना है तो आपको अपना इष्टदेव कृष्ण को मानना चाहिए। अगर आपको रामभक्त बनना है तो आपको अपना इष्ट भक्त हनुमान को बनाना चाहिए ।
इष्ट हमारे लक्ष्य-ध्येय के प्रतीक
मित्रो! हनुमान से लेकर प्रत्येक देवता एक-एक इष्ट के प्रतीक हैं, एक-एक लक्ष्य के प्रतीक हैं। आपके जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए? जो भी आपका लक्ष्य हो, चाहे उसे आप सिद्धांत मान लीजिए चाहे उसकी शक्ल बना दीजिए। शक्ल बनने से, चेहरा बना लेने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। शक्ल तो ध्यान की सुगमता के लिए बना दी गई है। इस बात से मैं बहुत सहमत हूँ कि देवताओं के बारे में जो इष्टदेव बना दिए गए थे, वे इसलिए बना दिए गए थे कि आदमी यह समझे कि हमको कहाँ पहुँचना है? हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमको किस प्रकार की गतिविधियाँ अपनानी चाहिए? लेकिन पीछे क्या कर दिया गया कि देवता, जो इष्ट के रूप में बनाए गए थे, उनके साथ में हमने सांसारिक मनुष्य के सिद्धांत को जोड़ दिया। इससे अध्यात्म में विसंगतियाँ पैदा हो गईं, विकृतियाँ पनपने लगीं। इष्टदेवता के साथ जहाँ मनुष्यों के तरीके से उनके साथ में इतिहास जोड़ दिए गए हैं, उनको इष्टदेव मानना हमारे लिए मुसीबत पैदा करता है ।
उदाहरण के लिए जब भगवान श्रीकृष्ण को अपना इष्ट देवता मान लेते -हैं तो ठीक है। जहाँ तक गीता के योगेश्वर श्रीकृष्ण का संबंध है, इनको इष्टदेव मानने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन जहाँ उनके गृहस्थ जीवन की वात आ जाती है उसको मानने से हमारे ऊपर बुरा असर पड़ता है। कृष्ण जी का मनुष्य जीवन का इतिहास जानकर हम मुसीबत में फँस जाते हैं। कृष्ण जी के सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ थीं। एक पत्नी थी। उसका नाम था रुक्मिणी। रुक्मिणी के बाद थीं सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ। उनके कितने बाल-बच्चे थे? एक-एक औरत के अगर आठ-आठ बच्चे मान लिए जाएँ तो कितने हो गए-१६, १०८ * ८ = १, २८, ८६४ अर्थात एक लाख से भी ज्यादा बाल-बच्चे हो गए श्रीकृष्ण भगवान के। तो फिर अब आपको क्या करना चाहिए हम तो आपको फेमिली प्लानिंग की सलाह दे रहे हैं। नहीं साहब! अभी तो हमारे चार ही बच्चे हैं, श्रीकृष्ण के बराबर तो हो जाएँ कम से कम आठ-नौ बच्चे तो हो जाएँ। न जाने और क्या-क्या इतिहास में भरा पड़ा है। श्रीकृष्ण इसकी बहन का अपहरण कर लाए उसका अपहरण कर लाए। जाने क्या-क्या बवाल भर दिया है। इसलिए हम किसी ऐसे भगवान को अपना इष्टदेव नहीं मानेंगे, जो किसी व्यक्ति की तरह व्यवहार करता है ।
एक ही देवता-भगवान
मित्रो! हम भगवान को एक मानते हैं। भगवान एक है। अगर दुनिया में अनेक देवता रह गए तो आफत पैदा कर देंगे। इनमें आपस में लड़ाई हो जाएगी, मार काट मचेगी, फौजदारी हो जाएगी। इलेक्शन में प्रतिद्वंद्वी तैयार हो जाएँगे। दुनिया में अनेक देवता नहीं रह सकते। दुनिया में एक ही देवता रह सकता है और उसका नाम है-भगवान। अब प्रश्न उठता है कि भगवान को हम अपना इष्ट कैसे बनाएँ? इसको बनाने का एक ही तरीका है कि आप जीवन में यह निश्चय कीजिए कि आपको क्या बनना है? ऊँचाई के रास्ते पर चलने के लिए आपको क्या बनना है? आपको लोकहित करना है या आपको भगवान का भक्त बनना है? भगवान का भक्त बनना हो तो आपको हनुमान जी को इष्टदेव बनाने में कोई हर्ज नहीं है। यदि आपको उदात्त बनना हो और मानवता के सिद्धांतों से ओत-प्रोत होना हो तो गायत्री से बढ़िया इष्ट और क्या हो सकता है?
बेटे! ये देवियाँ देवियाँ नहीं हैं। ये भगवान की एक-एक कला है, एक-एक विशेषता है। अगर आपको सारी विशेषताओं को इकट्ठा करना हो तो आप सविता को अपना इष्ट मान सकते हैं। सविता में, सूर्य में बहुत सारी किरणें होती हैं, बहुत सी विशेषताएँ होती हैं। भगवान की दयालुता का, भगवान की नियमितता का, विश्वव्यापकता का, इन सारी की सारी विशेषताओं का सविता में समावेश है। इन विशेषताओं के समाविष्ट होने में आप एकमत हो सकते हैं। कोई इष्टदेवता आप बनाएँ चाहे न बनाएँ लेकिन अगर निराकार को मानने वाले हैं तो आपको देवता नहीं मिलेगा। अगर आप साकार को मानने वाले हैं तो देवता को बनाने के लिए बैठना नहीं पड़ता। मैं तो कहता हूँ कि आपका इष्टदेवता ऐसा होना चाहिए कि आपको अपने जीवन में पहुँचना कहाँ है, जो तदनुरूप आपके समग्र व्यक्तित्व को ढाल दे। इसके लिए आपका ''स्व'' में ध्यान एकाग्र होना चाहिए। यह योग की स्थिति है ।
एकाग्रता हेतु भिन्न प्रकार के ध्यान
साथियो! संस्कार उसे कहते हैं, जो विचार और कर्म, दोनों के समन्वय से बनता है। इसलिए हमें अपना योगाभ्यास अर्थात मानसिक स्तर अर्थात अपने चिंतन को ऊँचाई की ओर ले जाने के लिए क्या प्रयत्न करना चाहिए संक्षेप में यह योग की परिभाषा है। योग को पूरा करने के लिए एक काम करना पड़ता है और उसका नाम है-ध्यान। ध्यान की अनेक क्रियाएँ हैं, जैसे हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, पाँच कर्मेंद्रियाँ हैं। पाँच तत्त्वों से हमारा शरीर बना हुआ है और योग की भी पाँच धाराएँ प्रख्यात हैं। पाँच ध्यान मुख्य हैं। इनमें से एक ध्यान तो वह है, जो हमारे शरीर में अग्नितत्त्व के रूप में स्थापित है। अग्नितत्त्व का प्रतीक हमारी ये आँखें हैं। उसमें जब हम प्रवेश करते हैं तो हमको शक्ल का ध्यान करना पड़ता है। निराकार में जब आप जाएँगे तो प्रकाश का और साकार में जाएँगे तो किसी आकार का, देवी-देवता, मूर्ति, फल-फूल किसी भी शक्ल का ध्यान करना पड़ेगा। शक्ल का ध्यान करना हमारी तन्मात्रा से संबंधित है। इनमें से रूप तन्मात्रा का उद्देश्य है -हमारे नेत्र। इसी तरह अन्यान्य तन्मात्राओं का भी अपना अपना स्वरूप और उद्देश्य है, जिनमें मन को एकाग्र किया जाता है ।
मित्रो! मेरा उद्देश्य है, मन को एकाग्र करना। मन को एकाग्र करने के लिए मैं आपको बहुत से ध्यान बताऊँगा। मन को एकाग्र करके फिर क्या करना पड़ता है? उसे किसी दिशा में बढ़ा देना पड़ता है, जिससे कि हमको अभीष्ट परिणाम प्राप्त हो सके। ध्यानयोग का एक तरीका यह है कि हम किसी शक्ल की सहायता से अपने भीतर काम करने वाला जो 'अग्नितत्त्व है अर्थात हमारी जो नेत्र इंद्रिय है अर्थात उसका जो रूप तन्मात्रा है, उसका हम ध्यान करते हैं तो कोई शक्ल का ध्यान आता है। इसी तरह रस तन्मात्रा के बारे में है। यह सब मैं आगे चलकर आपको बताऊँगा। अभी हम आपको गायत्री के पाँच मुखों के रूप में पंचतत्त्वों की, पंचकोशों की उपासना सिखाते हैं। इन पाँच योगों से क्या ताल्लुक है, यह बताते हैं ।
पाँच प्रकार के ध्यान
पहला ध्यान हमने अग्नितत्त्व का बताया है, जिसका माध्यम नेत्र हैं। दूसरा ध्यान है नाद का। ''नादयोग'' किसे कहते हैं? नादयोग के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा वह है, जो गाने के माध्यम से, संगीत के माध्यम से करते हैं। जब हम गाना सुनकर कानों को बंद कर लेते हैं तो बाद में कई तरह की आवाजें सुनाई पड़ती हैं। कभी घंटे की आवाज, घड़ियाल की आवाज, कभी अमुक की आवाज, बादल गरजने की आवाज, पानी बरसने की आवाज, शंख बजने की आवाज सुनाई देती है। यह सब नादयोग का हिस्सा है। नादयोग का दूसरा हिस्सा वह है, जिसमें शब्द के साथ-साथ में हम लय हो जाते हैं। इसमें अखण्ड कीर्तन भी शामिल है, संगीत भी शामिल है, ओंकार की ध्वनि भी शामिल है ।
नादयोग कानों के माध्यम से शब्दों को सुनने की एक प्रक्रिया है, जो कबीर पंथ में सिखाई जाती है और कई मतावलम्बियों में सिखाई जाती है। नाथ संप्रदाय में सिखाई जाती हैं। वह तो मैं नहीं सिखाना चाहूँगा, लेकिन शब्द के माध्यम से अपने आप को लय कर देना, मन को, ध्यान को एकाग्र कर देना, यह भी एक तरीका हैं। इसके लिए ओंकार की ध्वनि सबसे श्रेष्ठ माध्यम है। अहमदाबाद में एक योगाश्रम है, जहाँ ओंकार की ध्वनि के साथ आदमी के मन को लय करना सिखाया जाता है। मन को लय करते करते साधक वहाँ पहुँच जाते हे, जहाँ पर हम अपने मन को ले जाना चाहते हैं। इसमें भगवान तक पहुँचने की वह समाधि अवस्था भी आ सकती है, जो हर साधक का लक्ष्य है। अभी मैं आपको इसकी प्रक्रिया सिखाने की व्याख्या कर रहा हूँ, विधियों नहीं सिखा रहा, वरन समझा रहा हूँ। इनमें पाँचों का समन्वय हो सकता है और पाँचों में से एक को लेकर भी आगे बढ़ सकते हैं। यह ध्यानयोग की बात मैं आपको बता रहा हँ ।
अगला योग हमारी नासिका से संबंधित है। तीसरी इंद्रिय है-नाक। नाक से हमें क्या करना पड़ता है? नाक से जब हम साँस अंदर खींचते हैं तो सामान्य प्राणायाम करना पड़ता है और प्राणायाम में ध्यान करना पड़ता है। प्राणायाम क्या है? एक ध्यान है। प्राणायाम में पाँच तत्त्वों में ध्यान ही ध्यान करते रहिए। जब हम साँस भीतर खींचते हैं तो ध्यान करते हैं कि साँस भीतर जा रही है, अब यह यहाँ तक पहुँच गई, इतनी देर तक रुकी रही, इतनी देर तक बाहर निकली, यह सब ध्यान का हिस्सा है। बाहर कितनी देर तक रुकी हुई है, यह सब ध्यान का हिस्सा है। जब हम प्राणायाम के माध्यम से ध्यान करते हैं तो साँस माध्यम बनती है। इससे मन का निग्रह करते हैं, मन को भागने से रोकते हैं, काबू में लाते हैं, मन को एक काम में लगा देते हैं। तब क्या हो जाता है, प्राणयोग होता है ।
बिंदुयोग हो गया, प्राणयोग हो गया, नादयोग हो गया। अब अगला योग आता है, जो हमारी जीभ का है। जीभ का क्या है? बेटे, जीभ का जो ध्यान है, वह जप है। जप किससे होता है? शब्द से। और शब्द कहाँ से निकलता है? हमारी वाणी से निकलता है। इसे जपयोग कहते हैं। जप के भी दो भाग हैं-जिह्वा का एक भाग उच्चारण करता है तो दूसरा भाग स्वाद चखता है। जिह्वा का जो भाग स्वाद चखता है, उसके लिए दूसरा अभ्यास कराते हैं और उसका नाम है-'खेचरी मुद्रा'। इस तरह जीभ का उच्चारण वाला अभ्यास है-जपयोग एवं स्वाद वाला अभ्यास है-खेचरी मुद्रा। खेचरी मुद्रा वाले अभ्यास से रसानुभूति होती है। रस के माध्यम से हम ध्यान को एकाग्र करते हैं। मन के एकाग्र होने के पश्चात हमारे पास इतना बड़ा हथियार आ जाता है कि उसकी तुलना में और कोई हथियार नहीं है। ये सारे के सारे पाँच ध्यान हैं, पाँच योग हैं, जो पाँचों इंद्रियों के माध्यम से हम आपको यहाँ सिखाते हैं। ये गायत्री की पंचकोशीय साधना से आसान हैं, जिनको हम सिखाते हैं।
मित्रो! हमने आपकी उपासना में इन्हें कैसे समन्वय किया हुआ है और समन्वय के साथ-साथ इसकी कैसे वृद्धि होनी चाहिए यह सब आगे अच्छी तरह से समझाने की कोशिश करेंगे। अभी तो हम इसकी भूमिका बता रहे हैं, कल से मैं आपको बताऊँगा कि इन पाँचों योगों का सम्मिश्रण हमने किस तरह से किया हुआ है? गायत्री उपासना में ध्यान के द्वारा मन को एकाग्र करने के लिए जो पहला उसूल आता है, उसको हमने आपको पहले भी बताया है, उसे आप न भूले होंगे। ध्यान के लिए गीता में जो उपाय बताए गए हैं, यदि उन्हें आप अपनाएँ तो आपका ध्यान सार्थक हो जाए। गीता में अर्जुन पूछता है कि से भगवान! यह मन तो हवा की तरह है, भाग जाता है, काबू में नहीं आता, रोकने से भी नहीं रुकता। इसको कैसे रोकें? तो उन्होंने जो उपाय बताए उनके नाम हैं-वैराग्य और अभ्यास ।
मन को काबू करने के उपाय
महाराज जी! वैराग्य क्या होता है? बेटे! वैराग्य -यह होता है कि जिन चीजों में मन के भागने की बहुत आदत है, उन आदतों से उसको विरक्त कर दिया जाए। आपको हमने ध्यान का पहला लक्षण यह बताया था कि आप कृपा करके जब तक यहाँ हैं, अपने घर की आदतों से छुटकारा पा लीजिए उन आदतों पर विचार करना छोड़ दीजिए। कई योगाभ्यासों में ऐसे भी नियम हैं कि अख़बार पढ़ना बंद कर देते हैं। चिट्ठी? पत्री के लिए मना कर देते हैं और डालना ही है तो गुरुजी के नाम डालिए। कोई बहुत आवश्यक बात होगी तो वे हमें बता देंगे। इससे क्या फायदा होगा? बेटे, यहाँ जो आप ध्यानयोग के लिए आए थे, जो आध्यात्मिक लाभ उठाने के लिए आए थे, उससे आपका ध्यान -बार बार वहाँ जाएगा, बार-बार वहीं बना रहेगा। आपको अपने अंतरंग जीवन में प्रवेश करने का जो अभ्यास हम यहाँ लाना चाहते थे, इससे आपको उसमें सफलता कभी नहीं मिल सकती। हमने आपको उस दिन भी कहा था कि आप अपनी सांसारिक समस्याओं को लिखकर हमारे हवाले कर दें और फिर आप मिशन पर जाएँ। नहीं साहब! हमारी दुकान का बहुत नुकसान हो जाएगा। तो बेटे, फिर दो ही उपाय हैं-या तो तू दुकान पर चला जा या फिर नुकसान उठाना बरदाश्त कर या फिर हमारे ऊपर छोड़ दे। गुरुजी! हम महीने भर यहाँ रहेंगे तो हमारी दुकान का नुकसान होगा। हम सँभाल लेंगे और हमारे ऊपर विश्वास नहीं होता तो नौकर दें। नहीं महाराज जी, इन तीनों में से मैं कोई भी काम नहीं करूँगा। तो फिर क्या करेगा? चिंता करूँगा। बेटे, चिंता करेगा तो यहाँ से भी मारा जाएगा और वहाँ से भी मारा जाएगा ।
वैराग्य एवं अभ्यास
मित्रो! मैंने आपसे यह कहा था कि जब तक आप यहाँ पर हैं, तब तक एक वैरागी के तरीके से रहें। मन का अभ्यास बार-बार यहाँ से भागने का है, अत: उसे रोकने का प्रयास करें तभी आपको ध्यानयोग में सफलता मिलेगी। ध्यानयोग की सफलता का अर्थ यह है कि आपकी मानसिक शक्ति इतनी मजबूत होती चली जाएगी कि कुछ ही दिनों में आप इसका चमत्कार देखेंगे। ''हिप्नोटिज्म'' में केवल एकाग्रता की शक्ति का -उपयोग किया जाता है। यूरोप आदि देशों में सम्मोहन के माध्यम से मानसिक शक्ति का प्रयोग किया गया हैं। इसमें केवल एकाग्रता की शक्ति का प्रयोग होता है। हिप्नोटिज्म क्या है? मैस्मेरिज्म क्या है? एक काला गोला लेते है और उसके मध्य सफेद बिंदु पर यह ध्यान करते हैं कि हम इस बिंदु के बीच में धँसते चले जा रहे हैं। हमारी ताकत धँसती चली जा रही है। दुनिया में एक ही बिंदु है और दूसरी कोई चीज नहीं है। काले सफेद बिंदु को पूरी एकाग्रता से देखते हैं। एकाग्रता से शक्ति आती है, तभी तो बेहोश करने से लेकर मैस्मेरिज्य तक बहुत तरह के लाभ मिलते हैं। नजर लगने में एकाग्रता की शक्ति काम करती है। आँख से देखकर किसी को अच्छा करने में एकाग्रता की शक्ति काम करती है। बहुत सी चीजें हैं, जो एकाग्रता से संबंध रखती हैं। आँखों में से एकाग्रता की शक्ति बाहर भी निकलती रहती है। अजगर की एक विशेषता होती है, वह अपनी आँखों की ताकत से सब चीजों को गिरा लेता है। वह पेड़ के नीचे बैठा रहता है और सिर ऊपर की ओर करके पेड़ पर बैठे हुए बंदर या पक्षी को एकटक देखता रहता है। बंदर या पक्षी नीचे गिरता है और उसे वह निगल जाता है। इसी तरह शिकारी लोग शेर का शिकार करने के लिए दूर जंगल में बकरा बाँध देते हैं। जब तक शेर की आवाज सुनाई देती है, गंध आती है, तब तक बकरा चिल्लाता है और जैसे ही शेर दिखाई देता है, ऐसे चुपचाप खड़ा हो जाता है, मानो हाथ जोड़कर कह रहा हो कि आप मुझे खा लीजिए। बंदरों के बारे में भी यही सुना है कि बंदर जहाँ होता है, वहीं का वहीं बैठा रहता है, न भागता है, न भाग सकता है और मारा जाता है। यह क्या चीज होती है? यह एकाग्रता की शक्ति है, जो हिप्नोटिज्म के नाम से, आँखों के प्रभाव के नाम से प्रतिभा के नाम से जिस भी आदमी में पाई जाती है, वह सब एकाग्रता का चमत्कार है ।
एकाग्रता के चमत्कार
मित्रो! एकाग्रता के चमत्कार, एकाग्रता की शक्ति के बारे में भला मैं आपको क्या बताऊँ! ध्यान की एकाग्रता जिसमें आ जाती है, वह फर्स्ट डिवीजन में पास हो जाता है। यह ध्यान की एकाग्रता है। ध्यान की एकाग्रता कालिदास के पास थी, जो उनकी धरोहर थी। ध्यान की एकाग्रता विद्वानों के पास होती है। एकाग्रता से जब वे अपने मन को एक जगह इकट्ठा कर लेते हैं तो हजारों तरह के विचार चले आते है। साहित्यकारों से लेकर कलाकारों तक, जितने भी दुनिया में सफल हुए हैं, वे ध्यान की पहली वाली कला, जिसे हम एकाग्रता कहते हैं, पकड़े हुए हैं। यह मनःशक्ति को विकसित करने वाला पहला तरीका है, पहला चरण है ।
सूक्ष्म में प्रवेश
साथियो! दूसरा चरण उससे बहुत ऊँचा है वह हमारे सूक्ष्म जगत से संबंधित है, जिसमें देवी-देवताओं का भी निवास है, जिसमें हमारे भगवान का भी निवास है, जिसमें हमारे अंतरंग जीवन की क्षमताएँ भरी पड़ी हैं, जिन्हें हम सिद्धियाँ कहते हैं। ये सभी एकाग्रता की शक्ति से ही हस्तगत होती हैं। हमारे अंतरंग जीवन में खजाने भरे पड़े हैं। ध्यान के सहारे हम अपने भीतर प्रवेश करके उनको तलाश कर सकते है। जमीन में से पानी तलाश करने वाले एक स्वामी जी थे, माधवानंद जी। उन्होंने राजस्थान में जाकर बहुत जगह बताया था कि यहाँ गड्ढा खोदिए पानी मिलेगा। पंडित नेहरू से वे मिले थे और उन्होंने उन्हें जल विभाग के हाथ सुपुर्द कर दिया था। कहा था कि स्वामी जी को ले जाइए और जहाँ ये पानी बताएँ वहाँ पर ट्यूब-वेल लगाइए जिससे राजस्थान में पानी मिल सकता है। उन्होंने बहुत से कुएँ बनवाए थे। उन्होंने जमीन में गड़ा हुआ धन बताया था, नमक बताया था, अमुक अमुक चीजें अमुक अमुक जगह होना बताया था ।
मित्रो! यह क्या है? एकाग्रता की शक्ति है। जब यही शक्ति बाहरी जीवन में प्रयुक्त होती है तो टेलीस्कोप की तरह से देखने में समर्थ हो जाती है, लेकिन जब हमारे अंतरंग जीवन में प्रवेश करती है तो सारे के सारे सूक्ष्म जगत में विद्यमान रहस्यों को खोलकर रख देती है, जिसमें देवी देवता भी शामिल हैं। चक्रों के रूप में देवता हमारे भीतर विद्यमान हैं। एक से एक बढ़िया चीजें हमारे भीतर विद्यमान हैं जिनमें कुंडलिनी भी शामिल है। हमारे भीतर दो ध्रुव हैं-एक उत्तरी ध्रुव और एक दक्षिणी ध्रुव। उत्तरी ध्रुव हमारा मस्तिष्क है, जो शक्तियों का पुंज है। इसमें अनेक लोक लोकांतर की चेतन शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। दक्षिणी ध्रुव हमारा मूलाधारचक्र है। एक हमारा सिर वाला सहस्रारचक्र उत्तरी ध्रुव है और मूलाधार दक्षिणी ध्रुव है। पृथ्वी को जो आंतरिक ताकत मिलती है, वह उसके दोनों ध्रुवों से मिलती है। इसी तरह हमारे भीतर विद्यमान दोनों ध्रुव शक्तिशाली जेनरेटर की तरह लगे हुए हैं। उनकी शक्ति के बारे में मैं क्या कह सकता हूँ किंतु ये दोनों सोए हुए पड़े हैं। सोई हुई चीज को ठीक करने के लिए क्या बाहरी शक्ति काम कर सकती है? नहीं कर सकती। हमारे भीतर कोई चीज प्रवेश नहीं कर सकती ।
हमारे भीतर एक ही चीज प्रवेश कर सकती है और वह है-ध्यान। अगर हम अपनी मनशक्ति को ध्यान द्वारा एकाग्र करना सीख लें, ध्यान को एक ताकत बना लें तो सब कुछ हस्तगत हो सकता है। ध्यान को जहाँ कहीं भी, जिस स्थान पर भी हमने भेजा है, एक चमत्कार देखा है। ध्यान की शक्ति अगर हृदय पर लगा दी जाए और हृदय से कहा जाए कि भाईसाहब, आपको बंद होना है तो उसका धड़कना बंद हो जाता है और आदमी समाधि में चला जाता है। लोग ६-६ महीने समाधि में रह सकते हैं। बस, करना इतना होता है कि ध्यान की स्थिति में मन को कहते हैं कि भागना मत और मरना भी मत। ये दो काम मत करना। समाधि में मन चला भी जाता है ।
योग से सिद्धि
समाधि का एक वर्णन आता है। पंजाब में एक महात्मा थे, संत हरिदास जी। उस जमाने में पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह थे। कोई एक रेजीडेंट आया और उनसे कहा कि मैंने सुना है, आपके यहाँ कोई योगी समाधि ले लेते हैं, मर जाते हैं और फिर जिंदा हो जाते हैं। हाँ साहब! बात तो ठीक है, हम आपको दिखा सकते हैं। उन्होंने महात्मा स्वामी हरिदास जी को बुलाया और कहा कि ये मेरठ से आए हैं, अँगरेज हैं और यह देखना चाहते हैं कि क्या मरा हुआ आदमी जिंदा हो सकता है? स्वामी जी ने कहा कि हम दिखा सकते हैं। अँगरेज ने कहा कि अगर ये चालाकी करते हैं तो हम पकड़ लेंगे। ठीक है, आप चालाकी पकड़ लेना। निश्चित हुआ कि स्वामी हरिदास छह महीने के लिए समाधि लेंगे। जमीन में गड्ढा बना दिया गया। उसमें स्वामी जी को बैठा दिया और ऊपर से बंद कर दिया गया। अँगरेज रेजीडेंट ने कहा कि इसे तो कोई भी खोल लेगा, हवा पहुँचा देगा, पानी पहुँचा देगा, भोजन पहुँचा देगा, चालाकी हो सकती है। उन्होंने दो इंतजाम किए। एक तो पहरा बैठा दिया और दूसरा उसी जगह पर उसी समय गेहूँ बो दिया, ताकि जब गड्ढा खोदा जाएगा तो गेहूँ पहले उखाड़े जाएँगे ।
समाधि के ऊपर मिट्टी बिछाई गई और गेहूँ बो दिया गया। ठीक छह महीने बाद उनको खोला गया। खोलने के बाद में स्वामी जी अचेत पाए गए और जब ठीक टाइम आया तो उन्होंने एक लंबी साँस खींची और फिर जिंदा हो गए ।
सब कुछ प्राप्त करना संभव
मित्रो! पुराने जमाने की बात मैं नहीं कहता हूँ। यह तो मैं अभी की बात कह रहा हूँ कि योग के द्वारा सब कुछ हो सकता है। इससे हम अपने शरीर पर नियंत्रण कर सकते हैं, हृदय को बंद कर सकते हैं, हृदय को चालू कर सकते हैं। अपने शरीर के नए नए जीवकोशों को उलटा -पुलटा कर सकते हैं। हमारे जो हॉरमोन्स गरम हैं, उन्हें ठंडा कर सकते हैं, ठंडे को गरम कर सकते हैं ये किससे कर सकते हैं? यह सिद्धियों की बात कह रहे हैं, समझदारों की बात कह रहे हैं कि हमारे भीतर जितनी विशेषताएँ हैं, उन्हें अतींद्रिय विशेषता कहते हैं। इन अतींद्रिय विशेषताओं की क्षमता को जगा लेना ध्यानयोग के द्वारा संभव है। यह तो हुई एक बात और दूसरी? दूसरी यह है कि ध्यानयोग के द्वारा वे विशेषताएँ प्राप्त करना भी संभव है, जिनको हम भगवान कहते हैं, ब्रह्मतत्त्व कहते हैं। ब्रह्मतत्त्व के साथ में हम अपने आप को मिला लें, जो सारे विश्व में छाया हुआ है, जिसके नियंत्रण में सारी सत्ता चलती है। जो विश्व का स्वामी है। जिसके अंतर्गत तमाम सारी चीजों की दिव्य धाराएँ बहती हैं, वह हमारी जीवात्मा को शांति-संतोष से लेकर के मुक्ति और मोक्ष तक प्रदान करती है। एक स्थिति यह है। दूसरी स्थिति वह है, जिसमें सिद्धियाँ रहती हैं, चमत्कार रहते हैं। हमारे पाँचों शरीरों, कोशों में विशेषताएँ भरी पड़ी हैं, छिपी पड़ी हैं। सौंदर्य हमारे शरीर में छिपा पड़ा है बल हमारे शरीर में छिपा पड़ा है, श्रम करने की क्षमता हमारे शरीर में छिपी पड़ी है। ऐसी क्षमताओं वाला हमारा सूक्ष्मशरीर है, प्राणशरीर है। पाँचों कोश हैं, जिनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं, विलक्षणताएँ हैं; जिनको सिद्धियों और चमत्कार कहते हैं ।
इनको प्राप्त करने के लिए क्या करना पड़ेगा? बेटे, इसके लिए हमारे पास एक ही हथियार है और उसका नाम है-ध्यानयोग। ध्यानयोग किसे कहते हैं? योग को। योग की व्याख्या कीजिए। योग की व्याख्या है-ध्यानयोग। ध्यानयोग के बहुत से तरीके हैं। इनमें से थोड़े-थोड़े तरीके हम आपको सिखाते हैं ।
ध्यानयोग
चेतना की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को अंतर्मुखी बनाना, अंतर्जगत् की विशेषताओं को देखना, आत्मा उच्च उद्देश्यों पर केन्द्रीकरण ही इन सबका एकमात्र आधार है। मानसिक बिखराव को एक केंद्र पर केंद्रित करने से एकाग्रताजन्य ऊर्जा उत्पन्न होती है उसे जिस भी दिशा में नियोजित किया जाएगा उसी में चमत्कार उत्पन्न करेगी। आत्मिक प्रगति के लिए उसे लगाया जाए तो उस दिशा में भी उसका लाभ मिलेगा ही। वैज्ञानिक, शोधकर्ता जैसे प्रबुद्ध व्यक्ति इस मानसिक केन्द्रीकरण के फलस्वरूप ही अपने-अपने कार्यों में विविध सफलताएँ प्राप्त करते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए योगीजन इसी शक्ति का उपयोग करके अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं। ध्यानयोग को चेतनात्मक पुरुषार्थों में अत्यंत उच्चकोटि का समझा जा सकता है ।
ध्यान के लिए आकार का आश्रय आवश्यक है। साधना का प्रमुख अवलंबन ध्यान है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए परब्रह्म को प्रकाशपुञ्ज माना जाता है। प्रकाशपुञ्ज की ईश्वरप्रदत्त प्रतिमा सूर्य है। उसी की छोटी-बड़ी आकृतियाँ बनाकर निराकारवादी ध्यान करते हैं। दृश्यमान प्रकाश को ज्ञान और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। परब्रह्म परमात्मा की सविता के रूप में इसी आधार पर प्रतिष्ठापना की गई है। गायत्री का प्राण सविता है। सविता की आकृति प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य जैसी मानी गई है ।
प्रकाश रूप में ध्यान साधना के सभी प्रकट ''त्राटक'' कहलाते हैं। सिद्धांत यह है कि आरंभ में खुले नेत्रों से किसी प्रकाश प्रतीक को देखा जाए फिर आँखें बंद करके उस ज्योति का ध्यान किया जाए। उगते हुए सूर्य को दो -पाँच सेकेंड खुली आँखों से देखकर आकाश में उसी स्थान पर देखने का कल्पना चित्र बनाया जाता है। वह अधिक स्पष्ट अनुभूति के साथ दीखने लगे इसके लिए चिंतन क्षमता पर अधिक दबाव दिया जाता है। सूर्य की ही तरह चंद्रमा पर, किसी तारक विशिष्ट पर भी यह धारणा की जाती है। प्रकाश को भगवान का प्रतीक माना जाता है और उसकी किरणें अपने तक आने की, चेतना में प्रवेश कर जाने की, दिव्य बलिष्ठता प्रदान करने की धारणा की जाती है। मोटे-तौर से इसी को त्राटक साधना का आरंभिक अभ्यास कहा जा सकता है ।
अंतःत्राटक से प्रकाश ज्योति की धारणा सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत विद्यमान अतीव क्षमता संपन्न शक्ति केंद्रों पर की जाती है। षट्चक्रों का वर्णन साधना विज्ञान में विस्तारपूर्वक दिया गया है। उन्हें जाग्रत बनाने के लिए जिन उपायों को काम में लाया जाता है उनमें एक यह भी है कि उन केंद्रों पर प्रकाश ज्योति जलने का ध्यान किया जाए। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहद, विशुद्धि और आज्ञाचक्र-ये षट्चक्र हैं। उनके स्थान सुनिश्चित हैं। उन्हीं स्थानों पर प्रकाश को धारण करने से उनमें हलचल उत्पन्न होती है और मूर्च्छना जागृति में बदल जाती है। दक्षिणमार्गी साधना में जागरण की प्रक्रिया ऊपर से नीचे की ओर चलती है और वाममार्ग में नीचे से ऊपर। गायत्री की उच्चस्तरीय पंचकोशी तप और साधना में आज्ञाचक्र प्रथम है और कुंडलिनी जागरण में मूलाधार से यह जागरण आरंभ होता है ।
इससे आगे का अभ्यास अंतःत्राटक का है। दोनों नेत्रों के बीच आज्ञाचक्र है। इसे तृतीय नेत्र भी कहते हैं। ध्यानयोग में अंतः त्राटक का अभ्यास आज्ञाचक्र से आरंभ होता है। सूर्य या दीपक की लौ का प्रकाश आज्ञाचक्र के स्थान पर किया जाता है और विश्वास किया जाता है कि उस अतिरिक्त ऊर्जा के पहुँचने से उस केंद्र में आलोक उत्पन्न होता है और प्रकाश से सूक्ष्मशरीर में अभिनव ऊष्मा का शक्ति संचार बढ़ता है ।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥