उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
तमाशों से उबरें, सच्चा अध्यात्म जानें
भाइयो! अपना ये कुटुंब हमने बहुत दिनों पहले बनाया था। उस समय हमारे पास बच्चे-ही-बच्चे थे। बच्चों के बारे में जो नीति अख्तियार करनी चाहिए, वो ही नीति हमारी थी। बच्चों के लिए, उन्हें देने के लिए क्या हो सकता है? पिताजी गुब्बारा देना, टॉफी देना, लेमनचूस देना। पिताजी चाबी की रेलगाड़ी लाना। हम बरफ की कुल्फी खाएँगे, आदि सारी-की-सारी माँगें, फरमाइशें-डिमांड बच्चे करते रहते हैं। ये कौन हैं? बच्चे। अध्यात्म क्षेत्र में फरमाइश करने वाले ये कौन हैं? बिलकुल बच्चे हैं, बालक हैं। इनको इसी बात की फिक्र पड़ी रहती है कि हमको दीजिए, हमको दीजिए। इसलिए ये बालक हैं। बेटे, आज से तीस साल पहले हमने बिलकुल बालकों का समूह जमा किया था और लोगों से कहा था कि हमारे पास जो कुछ है, आप ले जाइए। तब लोगों ने कहा था, पिताजी! आपके पास क्या है? गुब्बारे हैं। तो हमको दे दीजिए। बस एक गुब्बारा पेटी से निकाला, फूँक मारकर हवा भर दी और कहा ये रहा तुम्हारा गुब्बारा। एक ने कहा, पिताजी! आप तो सबको बेटा देते हैं? हाँ बेटे, हमारी पेटी में बहुत-सी चीजें हैं। ये देख टॉफी है, ये लेमनचूस हैं। ये नौकरी में तरक्की है। ये दमे की बीमारी का इलाज है।
ये क्या है? ये बेटे सब तमाशे हैं, खेल-खिलौने हैं। ये सब बहुत दिनों पहले थे। हमारी दुकान बड़ी हो गई है और अब मैं आपसे दूसरे तरीके से उम्मीद करता हूँ। अब आप गुब्बारे माँगते हैं, तो मैं नाराज होता हूँ और आप से कहता हूँ कि अब आप तीस साल के हो गए हैं। आपको शर्म नहीं आती, जो गुब्बारे माँगने आए हैं। तो पिताजी! मुझे क्या करना चाहिए? बेटे अब हम बुड्ढे हो गए हैं और तू कमाने लगा है। तुझे साढ़े छह सौ रुपये मिलते हैं। देख, हम ये फटा हुआ पाजामा पहनते हैं, हमारे लिए नया पाजामा ला दे और देख हम बुड्ढे हो गए हैं और हमको कम दिखाई पड़ता है। डॉक्टर ने कहा है कि आँखों को टेस्ट कराना और चश्मा खरीद देना। डॉक्टर ने बताया था कि अट्ठाईस रुपये का चश्मा आएगा। बेटे, निकाल अट्ठाईस रुपये का चश्मा। बेटे, निकाल अट्ठाईस और हमारी आँखों का टेस्ट कराकर ला। चश्मा खरीदकर ला। अरे! पिताजी, आपने तो ‘टर्न’ ही बदल दिया। हाँ बेटे, बदल दिया। पहले हम गुब्बारे दिया करते थे, अब हम चश्मे के लिए पैसे माँगते हैं। ये क्या बात हो गई? ये तो बिलकुल उलटा हो गया। हाँ बेटे हमारा ही क्या उलटा हो गया, तेरा भी उलटा हो गया। जब तू गोदी में था, तब नंगा फिरता था और अब तो तू कच्छा भी पहनता है, पैंट भी पहनता है। तूने बदल दिया कि नहीं? हाँ महाराज जी! मैंने तो बदल दिया। बेटे बदल गया, तो हम भी बदल गए।
मित्रो! अब हमारा कुटुंब जवान हो गया है। हम जवान आदमियों से अपेक्षा करते हैं देने की। अब हम माँगने की अपेक्षा करते हैं और हमारा हक है कि हम आपसे माँगें। अब आपसे माँगा गया है और माँगना चाहिए। जहाँ कहीं भी वास्तविकता का उदय हुआ है, जहाँ कहीं भी जवानी आई है, जहाँ कहीं भी प्रौढ़ता आई है, जहाँ कहीं भी विवेकशीलता आई है, वहीं परंपरा पलट जाती है। अब हम आपसे लेने की परंपरा आरंभ करते हैं, क्योंकि आप अब जवान हो गए हैं। खासतौर से इस जमाने में, जिसमें हम और आप जिंदा हैं। यह जीवनभर का सवाल है। आज मनुष्य जाति जहाँ चली जा रही है, आदमी का चिंतन जिस गहराई के गड्ढे में धँसता हुआ चला जा रहा है, ये ठीक वही परंपराएँ हैं, जो कि रावण के जमाने में आई थीं। इसमें वह मनुष्यों को मारकर हड्डियों का ढेर लगा देता था। आज हड्डियों के ढेर, तो नहीं लगाए जाते, पर हम हड्डियों के ढेर को चलते-फिरते आदमियों के रूप में देख सकते हैं। हड्डियाँ जो जिंदा तो हैं, पर जिनको चूस लिया गया है। मैं समझता हूँ कि प्राचीनकाल में ज्यादा भले आदमी थे और शरीफ आदमी थे। कौन से आदमी? वे जो मारकर डाल देते थे, उनको मैं ज्यादा पसंद करता हूँ, क्योंकि तब आदमी को मारकर खत्म कर देते थे, लेकिन आज का तरीका बहुत गंदा है। आज तो आप रुला-रुलाकर मारते हैं, टोंच-टोंचकर मारते हैं, तरसा-तरसाकर मारते हैं। ये गंदा तरीका है। रावण के जमाने में तब भी अच्छा तरीका था, सीधे खत्म कर देने का।
आज की विडंबना
मित्रो! आज हम क्या करते हैं? आज हम अपनी स्वार्थपरता के कारण हर एक को चूसते हैं। किसको चूसते हैं? जो कोई भी हमारे पास आता है, हम उसको चूस जाते हैं, उसे जिंदा नहीं छोड़ना चाहते, केवल उसकी हड्डियाँ रह जाती हैं। उदाहरण के लिए, जैसे हमारी बीबी। हमने अपनी बीबी को चूस लिया है। अब वह हड्डी का ढाँचा मात्र है। कैसे हुआ? बेटे, जब वह अपने बाप के घर से यहाँ आई थी, तो यह उम्मीद लेकर आई थी कि हमारा स्वास्थ्य अच्छा बनाया जाएगा। हमको पढ़ाया जाएगा। शिक्षित किया जाएगा और यह उम्मीद लेकर आई थी कि बाप हमको जितना स्नेह देता है, जितनी सुविधा हमें देता है, हमारा पति और भी अधिक प्यार और सुविधा देगा। लेकिन हमने उसको चूस लिया। हर साल बच्चे पैदा किए। कामवासना-पूर्ति की वजह से हमने उसके पेट में से पाँच बच्चे निकाल दिए। पाँच बेटियाँ हो गईं, अभी एक बेटा और होना चाहिए। अब वह बेचारी लाश रह गई है। बार-बार हमारे पास आती रहती है और कहती रहती है कि हमारे पेट में दरद होता है, कमर में दरद होता है और हमारे सिर में दरद होता है। मैं कहता हूँ कि बेटी तू जिंदा है, भगवान् को बहुत धन्यवाद दे कि ये पिशाच तुझे अभी तक जिंदा छोड़े हुए हैं। इसका बस चले, तो तुझे खाकर तेरी जिंदगी खत्म कर दे, चाण्डाल कहीं का। इसे तो अभी और बच्चे चाहिए।
मित्रो! उस बेचारी के पास न माँस है, न रक्त है शरीर में और न उसके पास जान है। उसके पास कुछ भी नहीं है। न जाने किस तरीके से साँस ले रही है और कैसे दिन बिता रही है। नहीं साहब! मेरा तो वंश चलना चाहिए। इस राक्षस का, दुष्ट का वंश चलना चाहिए? ये क्या है? ये बेटे, कसाईपन है। आज हर आदमी कसाई होता हुआ चला जा रहा है। आज हम देखते हैं कि न हमको अपनी बीबी के प्रति दया है, न अपने माँ-बाप के प्रति दया है, न अपने बच्चों के प्रति दया है। रोज बच्चे पैदा कर लेते हैं। इस बात की लिहाज-शर्म नहीं है कि आखिर इनको पढ़ाएगा कौन? शिक्षा के लिए पैसा कहाँ से आएगा? इनको खेलने के लिए रेल कहाँ से आएगी? हमको तो बस काम-वासना से प्यार है। हम तो चौरासी बच्चे पैदा करेंगे। आज आदमी चांडाल होता हुआ चला जा रहा है।
मित्रो! आज हमें किसी के ऊपर दया नहीं है। हमारे पास कहीं भी धर्म नहीं है। हमारे पास कहीं भी ईमान नहीं है। आज आदमी इतना खुदगर्ज होता हुआ चला जा रहा है कि मुझको ये मालूम पड़ता है कि हमारी खुदगर्जी का पेट इतना बढ़ता हुआ चला जा रहा है कि इंसानों से हमारा गुजारा नहीं हो सकता। अब जो कोई भी सामने आएगा, हम उसको अपनी खुदगर्जी का शिकार बनाएँगे। किसको बनाएँगे? देवी-देवताओं में से जो भी हमारे चक्कर में फँसेगा, हम उसको खत्म करके रहेंगे। संतोषी माता हमारे चक्कर में आ जाएँगी, तो उनको बदनाम करके रहेंगे। हम उन्हें दो बकरे खिलाएँगे और ये कहेंगे कि हमको डकैती में फायदा करा दो। हम उसको बदनाम कराकर रहेंगे। हर एक को हम बदनाम कराएँगे। जो कोई भी हमारा गुरु होगा, हम उसको बदनाम कराकर रहेंगे। हम कहेंगे कि हमारा गुरु ऐसा है, जिसको न इंसाफ की जरूरत है, न उचित-अनुचित की जरूरत है। जो कोई भी हाथ जोड़ता है, जो कोई भी सवा रुपये देता है, उसी की मनोकामना पूरी कर देता है।
दुर्मतिजन्य दुर्गति से हुआ आदमी का अवमूल्यन
बेटे, हम कहाँ जा रहे हैं और न जाने क्या हो रहा है? हम जिस जमाने में रह रहे हैं, उसमें आदमी न जाने क्या होने जा रहा है? अगर आदमी इसी तरीके से बना रहा, तो उसका परिणाम क्या होगा? अभी जितनी ज्यादा मुसीबतें आई हैं, आगे उससे भी ज्यादा आएँगी। इससे तो अच्छा होता अगर युद्ध हो जाता और दुनिया खत्म हो जाती, लेकिन हमारी स्वार्थपरता जिंदा रही और आज हम पर हावी होती चली जा रही है। आदमी, जैसा निष्ठुर, जैसा नीच, जैसा स्वार्थी होता हुआ चला जा रहा है, अगर यही क्रम जारी रहा, तो मैं आपसे कहे देता हूँ कि आदमी-आदमी को मार करके खाएगा। पकाकर खाएगा कि नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन आदमी-आदमी से डरने लगेगा। अभी तक हमको भूत का डार लगता था, साँप का डर लगता था, चोरों का डर लगता था, लेकिन अब हमको मनुष्यों का डर लगेगा। इतना तो अभी ही हो गया है कि आदमी की कीमत उसके बिस्तर से कम हो गई है। आज आप बिस्तर लेकर धर्मशाला में जाते हैं, तो धर्मशाला वाला कहता है, आइए साहब! कमरा खाली है, लेकिन अगर आपके पास बिस्तर नहीं है, अटैची नहीं है और आप एक थैला लेकर जाते हैं और कहते हैं कि साहब! धर्मशाला में ठहरने की जगह है कि नहीं? धर्मशाला वाला कहता है कि आपके साथ और कौन-कौन हैं? आपका सामान कहाँ है?
अरे भाई! गरमी के दिन हैं, सामान की क्या जरूरत है? अरे साहब! आजकल बड़ी भीड़ है। सारी जगह भरी हुई है। कहीं जगह नहीं है। आप ऐसा कीजिए, चौथे नंबर की धर्मशाला है, वहाँ चले जाइए। वहाँ जाते हैं, तो वह कहता है कि अरे साहब! आप अब आए हैं? आपसे पहले पच्चीस आदमियों को मना कर दिया है कि यहाँ जगह नहीं है। ऐसा क्यों होता है? क्यों मना करते हैं? यह आदमी का मूल्य, आदमी की प्रामाणिकता, आदमी की इज्जत को बताता है कि आदमी की कीमत से धर्मशाला के बिस्तर की कीमत ज्यादा है। आज आदमी का मूल्य इतना गिर गया है। कल आदमी और भी भयंकर होने वाला है।
मित्रो! आदमी जब कल और भयंकर हो जाएगा, तब वह भूत बन जाएगा, पिशाच बन जाएगा। तब आदमी को देखकर आदमी भागेगा और कहेगा, ‘‘आदमी आ गया चलो भागो यहाँ से। वह देखो आदमी खड़ा है।’’ कल यही परिस्थितियाँ पैदा होने वाली हैं। यह हमारे मन का घिनौनापन है। अभी हमारे ऊपर स्वार्थ छाया हुआ है। हम समाज के किसी काम में भाग लेना नहीं चाहते। हम समाज के लिए कोई सेवा करना चाहते हैं, तो पहले यह देखते हैं कि सेवा के बहाने हमारा उल्लू सीधा होगा कि नहीं होगा। हमारा उल्लू सीधा होता है, तो बेटे हम संस्था में जाते हैं, कमेटी में जाते हैं, प्रेसीडेंट बनते हैं, मीटिंग में जाते हैं, अगर उल्लू सीधा नहीं होता है, तो कहते हैं कि समाज के जीवन से हमारा कोई लगाव नहीं है, कोई संबंध नहीं है।
मित्रो! लोकहित के लिए हमारे मन खाली होते चले गए। उदारता हमारे मन में से निकलती चली जा रही है और निष्ठुरता हमारे रोम-रोम में घुसती चली जा रही है। परिणाम क्या होगा? आप देख लेना, इसका परिणाम बहुत भयंकर होगा। कलियुग के बारे में पुस्तकों में जो बताया गया है, उसको मैं सही मानता हूँ। आदमी का चिंतन जैसा और जितना घटिया होगा, मुसीबतें उसी हिसाब से आएँगी। आज भगवान् की दी हुई मुसीबतें हमारे पास आती हुई चली जा रही हैं। बीमारियाँ हमारे पास बराबर बढ़ रही हैं। डॉक्टर बढ़ रहे हैं, अस्पताल बढ़ रहे हैं, लेकिन बीमारियों का दौर अभी और बढ़ेगा। डॉक्टर कितने बढ़ गए हैं, भगवान् करे डॉक्टर दोगुने-चौगुने हो जाएँ। लेकिन बीमारियों का क्या हो जाएगा? बीमारियाँ अच्छी नहीं हो सकतीं। बीमारियाँ सौ गुनी ज्यादा होंगी, हजार गुना ज्यादा होंगी। वे तब तक अच्छी नहीं हो सकतीं, जब तक आदमी आध्यात्मिकता के रास्ते पर लौटकर नहीं आएगा, तब तक आदमी का पिंड बीमारियों से नहीं छूटेगा। और घर का नरक? बेटे घर का नरक भी दूर नहीं हो सकता।
अगले दिन और खराब होंगे
गुरुजी! हमारे घर का नरक तो दूर हो जाएगा। कैसे हो जाएगा? गुरुजी! हमने तो अपने चारों बच्चों को चार-चार सौ रुपया महीना देकर देहरादून के पब्लिक स्कूल में भेज दिया है। उससे क्या हो जाएगा? उससे गुरुजी! हमारे बच्चे एटीकेट सीखकर के आएँगे। एटीकेट क्या होता है? एटीकेट उसे कहते हैं, जब कोई आदमी आए और घर में पानी पीने को माँगे, तो उसको कहना चाहिए, ‘‘थैंक यू वैरी मच।’’ तो क्या इसी को एटीकेट कहते हैं? हाँ इसी को कहते हैं। हमने चार सौ रुपये महीने पर बोर्डिंग स्कूल में अपने बच्चे को दाखिल करा दिया है। वह क्रीज किया हुआ पैंट पहनेगा। हमारा लड़का अच्छा बनेगा। नहीं बेटे, तेरा लड़का अच्छा नहीं बन सकता, क्योंकि उसके भीतर, उसकी जीवात्मा में भाइयों के लिए, बहनों के लिए, माता-पिता के लिए जो प्रेम और सेवा की वृत्ति होनी चाहिए, वह कहाँ से आएगी? बेटे, हमको ये मालूम पड़ता है कि अगले दिन बहुत बुरे आने वाले हैं। अगले दिनों युद्ध के दौर भी आ सकते हैं। बीमारियों के दौर भी आ सकते हैं। टेंशन बढ़ता हुआ चला जा रहा है। क्यों महाराज जी! सबको टेंशन हो जाएगा? शायद सबको हो जाए। अमेरिका में तो छाप भी दिया गया है कि सिगरेट पीजिए, टेंशन बुलाइए। सिगरेट पीजिए, कैंसर बुलाइए। तो क्या सबको टेंशन हो जाएगा? हाँ। अगर टेंशन न हुआ, तो और बीमारी हो जाएगी। डायबिटीज हो जाएगी। नींद न आने की शिकायत हो जाएगी। पेप्टिक अल्सर हो जाएगा और बहुत-सी बीमारियाँ हैं, जो आदमी को धर दबोचेंगी।
ये कैसे हो जाएँगी? मित्रो! आदमी की जो घटिया वृत्तियाँ हैं, वे न केवल आदमी के शरीर को, वरन् उसके ईमान को और अंतःकरण को गलाती और जलाती चली जाएँगी। घर नरक बनते चलते जाएँगे। नहीं साहब! हमारे बेटे की बहू तो एम.ए. पास है। तो बेटे, तेरे घर में जल्दी नरक आएगा। हमारे बेटे की बहू तो इंटर पास है। तो तेरे घर में थोड़ी देर भी हो सकती है। अरे साहब! हमारी औरत तो बिना पढ़ी-लिखी है। तो तेरे घर और भी कुछ ज्यादा दिन तक शांति रह सकती है। लेकिन अगर मेरी बहू एम.ए. पास है, तो बेटे, तेरे घर में नरक जल्दी आएगा, तू देख लेना।
मित्रो! ऐसा क्यों होता चला जा रहा है? शिक्षा की दृष्टि से, धन की दृष्टि से, अमुक की दृष्टि से, सब तरह से आदमी संपन्न होता चला जा रहा है, लेकिन ईमान की दृष्टि से, अंतरंग की दृष्टि से इतना खोखला होता चला जा रहा है कि उसके ऊपर मुसीबतें आएँगी। नेचर हमारे ऊपर मुसीबतें पटक देगी। वह हमें क्षमा करने वाली नहीं है। हमारे शरीर का स्वास्थ्य सुरक्षित रहने वाला नहीं है। हमको किसी से प्यार-मोहब्बत रहने वाली नहीं है। हम मरघट के प्रेत-पिशाच के तरीके से अब जिंदा रहने वाले हैं। मरघट के प्रेत-पिशाच के तरीके में एक ही बात होती है कि न तो कोई उसका होता है और न वह किसी का होता है। प्रेत-पिशाचों में क्या फर्क होता है? बेटे, एक ही होता है, हर भूत के मन की ये बनावट होती है कि न वह किसी का और न कोई उसका। तो महाराज जी! आपने देखे हैं कि भूत कैसे होते हैं? हाँ, हमने देखे हैं और आपको भी दिखा सकते हैं।
चलते-फिरते प्रेत-पिशाच
ये भूत आपको कहाँ मिलेंगे? मित्रो! आप पाश्चात्य देशों में चले जाइए। वहाँ आपको प्रेत मिलेंगे, पिशाच मिलेंगे। कैसे? जो अशांत-ही-अशांत हैं। पैसा जिनके पास अंधाधुन्ध है, लक्जरी जिनके पास बहुत सारी है, टेलीविजन है, पीने को फलों का जूस है, लेकिन वे इतने अधिक अशांत हैं, टेंशन में हैं कि प्रेत-पिशाचों से कम नहीं हैं। न कोई उनका और न वे किसी का। न बीबी उसकी, न भैया उसका। दोनों-के-दोनों वेश्या और भडुवे हैं। जब तक दोनों आते हैं, तब तक तमाशा दिखाते हैं और जब मन भर जाता है, तो एक-दूसरे को लात मारकर भगा देते हैं। हम ये किसकी बात कह रहे हैं? बेटे, इसी को पिशाच कहते हैं। पाश्चात्य देशों में यही होता है।
मित्रो! इसका परिणाम क्या होगा? इसका परिणाम यह होगा कि हमारा अंतरंग खोखला होता चला जाएगा। पैसा बढ़ेगा, तो हम क्या कर सकते हैं? शिक्षा बढ़ेगी, सभ्यता बढ़ेगी, तो हम क्या कर सकते हैं? दौलत बढ़ेगी, तो हम क्या कर सकते हैं। मित्रो! इससे आदमी के ऊपर मुसीबतें ही आएँगी। हम और आप जिस जमाने में रहते हैं, बेटे, हमारे प्राण निकलते हैं-उसे देखकर। जब हम भविष्य की ओर देखते हैं, विज्ञान की ओर देखते हैं, तब हमें खुशी होती है कि हमारे बाप-दादे कच्चे मकानों में रहते थे और हम पक्के में रहते हैं। हमारे बाप-दादों में से कोई पढ़ा-लिखा नहीं था और हम सब पढ़े-लिखे हैं। सुविधाओं को देखते हैं, तो हमारे पास टेलीफोन है और बहुत सारी चीजें हैं, लेकिन जब उनके साफ-सुथरे जीवन को, उज्ज्वल चरित्र को देखते हैं, तो उस दृष्टि से हम किस कदर दिनों दिन घटते हुए चले जा रहे हैं, यह स्पष्ट दिखाई देता है।
विवेकानंद के पास रामकृष्ण परमहंस जाया करते थे और कहते थे कि बेटा! हमारा कितना काम हर्ज होता है? तू समझता नहीं है क्या? महाराज जी मैं बी.ए. करूँगा, एम.ए. करूँगा, नौकरी करूँगा। नहीं बेटे, तू नौकरी करेगा, तो मेरा काम हर्ज हो जाएगा और हम जिस काम के लिए आए हैं और तू जिस काम के लिए आया है, सो उसका क्या होगा? नहीं महाराज जी! देखा जाएगा, पहले तो मैं नौकरी करूँगा। नहीं बेटे, ऐसा नहीं हो सकता। एक दिन रामकृष्ण परमहंस रोने लगे। उन्होंने कहा, बेटे तू नौकरी करेगा, तो मेरा काम हर्ज होगा। मित्रो! विवेकानंद चले गए और रामकृष्ण ने उन्हें क्या-से-क्या बना दिया। कई आदमी कहते रहते हैं कि गुरुजी! हमको आशीर्वाद देकर आप विवेकानंद बना सकते हैं? बेटे, हम आपको बना सकते हैं। इसके लिए हम व्याकुल भी हैं और लालायित भी, लेकिन पहले तू कीमत तो चुका। नहीं, महाराज जी! कीमत तो नहीं चुकाऊँगा। आप तो आशीर्वाद दीजिए। बेटे, जो तू आशीर्वाद-ही-आशीर्वाद माँगता है, वह जीभ की नोंक से कह देने भर से आशीर्वाद नहीं हो जाता। उसे आशीर्वाद नहीं कहते। आशीर्वाद के लिए आदमी को अपना पुण्य देना पड़ता है, मनोयोग देना पड़ता है, तप देना पड़ता है, श्रम देना पड़ता है। नहीं, महाराज जी! जीभ हिला देते हैं, सो वही आशीर्वाद हो जाता है।
आशीर्वाद इतना सस्ता नहीं
बेटे, तू जीभ हिलाकर के आशीर्वाद माँगता है। मैं समझता हूँ-तू जीभ हिलाकर के ही राम के नाम को भी हजम करना चाहता है, मंत्र को हजम करना चाहता है। जीभ को हिलाकर और न जाने क्या-क्या काम कराना चाहता है। मंत्र जपने से देवता मिल सकते हैं, स्वर्ग मिल सकता है, तो फिर गुरुजी का आशीर्वाद क्यों नहीं मिल सकता? जीभ से सब चीजें मिल सकती हैं। हाँ, महाराज जी! जीभ की नोंक हिलाइए फिर देखिए, क्या करामात आती है। हाँ बेटे, जीभ की नोंक हिलाकर वहाँ चला जाना बैंक में और जीभ हिला देना-दीजिए दो हजार रुपये। देखें कहाँ से लाएगा जीभ हिलाकर। बेटे, तुझे सब जीभ-ही-जीभ दिखाई पड़ती है और कोई दूसरी चीज नहीं दिखाई पड़ती। गुरुजी का आशीर्वाद भी जीभ और हमारा भजन भी जीभ, सब जीभ-ही-जीभ क्रिया की जरूरत ही नहीं पड़ेगी? हाँ गुरुजी! क्रिया की क्या जरूरत है। आप तो जीभ हिला दीजिए, बस हो जाएगा, आशीर्वाद। बेटे, ऐसा कोई आशीर्वाद नहीं है, न था और न कभी होगा।
युग की पुकार सुनिए
मित्रो! फिर क्या करना पड़ेगा? अब मैंने आपको इसलिए बुलाया है क हमको आपकी आवश्यकता आ पड़ी है। हम तीस साल से कुटुंब बनाकर रह रहे थे और तीस साल से आपको बुला रहे थे। अब हम आपसे पूछते हैं कि क्या आपके लिए ऐसा संभव है कि आप अपने जीवन में दैवी संपदा का खरच और सबूत दे पाएँ। क्या आपके लिए यह संभव है कि आप अपने जीवन में त्याग का, बलिदान का, परोपकार का और परमार्थ का कोई प्रमाण दे सकते हैं कि नहीं? मित्रो! अभी ये लड़कियाँ गा रही थीं और मेरे मन में भी लहर आ रही थी। वे गा रही थीं, जरूरत आ पड़ी है, ‘‘काल की भी चाल मोड़ो तुम।’’ ये समय ने पुकार की है, युग ने पुकार की है, धर्म ने पुकार की है, मानवी सभ्यता ने पुकार की है कि आपके पास कुछ है, तो आप दीजिए। गुरुजी हमारे पास नहीं है। ठीक है, जहाँ तक पैसे का सवाल है, मैं जानता हूँ कि आपके पास पैसा होता तो शायद आप मेरे पास न आते। मैं जानता हूँ आपकी गरीबी को और परेशानी को, पर इस गरीबी के बीच में भी मेरी ये आँखें चमकती हैं और एक चीज के बारे में दृष्टि डालती हैं, तो पाती हैं कि अभी भी आपके पास मन है, आपके पास कलेजा है। आपके पास दिल है। अगर आप अपने मन, अपने हृदय और अपने श्रम की बूँदें लगा सकते हों, तो इस परीक्षा की घड़ी में आपका आना जीवन धन्य बनाने के लिए पर्याप्त है।
मित्रो! अब परीक्षा की घड़ी सामने आ गई है। इसको हमने पुनर्गठन योजना कहा है। इसके कितने पहलू हैं, पहले भी हमने इसके बारे में बताया था और फिर आज बताएँगे कि इसके क्या परिणाम आ सकते हैं। हम अपने जवान कुटुम्ब से क्या कराना चाहते थे और क्या करा सकते हैं? क्या संभावना है? हाँ, सौ फीसदी संभावना है। महाराज जी! आप तो ऐसे ही सपने देखते हैं। हाँ बेटे, हमने सपने ही देखे हैं और हमारे सपने पूरे होकर रहे हैं। हमने सपने देखे, जब गायत्री तपोभूमि नहीं बनी थी। जब हमारे पास मात्र छह हजार रुपये थे, तब हमने ‘गायत्री तपोभूमि’ का एक नक्शा छापा था-अखण्ड ज्योति पत्रिका में, तो लोगों ने कहा, क्यों साहब! आपने तो बड़ा लंबा-चौड़ा सपना छाप दिया। हाँ भाई ये सपना है। गायत्री तपोभूमि हम ऐसे ही बनाएँगे। महाराज जी! ये तो कितनों रुपयों की हो जाएगी? आपके पास इतने रुपये कहाँ हैं। देख बेटे, मेरे पास छह हजार रुपये हैं। इतने से नहीं बनेगी, तो छह लाख से बन जाएगी।
मित्रो! हमारा ख्वाब और हमारा सपना पूरा होकर के रहा। गायत्री तपोभूमि जो बनी है, वह उससे तीन-चार साल पहले छपे हुए गायत्री तपोभूमि के चित्र से हू-बहू मिलती हुई बनाई गई है हमारे सपने युग को बदलेंगे, नया जमाना लाएँगे। दैवीय सभ्यता और दैवीय संपदा की फिर से स्थापना करेंगे। हम असुरता को चैलेंज करेंगे। क्यों? क्योंकि हम मनुष्यता से प्यार करते हैं, क्योंकि हम मानवी भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहते हैं, क्योंकि हमको अपनी नई पीढ़ियों के बारे में बड़ी उमंग है। हम अपनी नई पीढ़ियों को बहुत प्यार करते हैं। जिन मुसीबतों से हम गुजर रहे हैं, अपनी नई पीढ़ियों को गुजरवाना नहीं चाहते, क्योंकि हम बच्चों को बहुत प्यार करते हैं।
इसलिए मित्रो! हम नई सभ्यता लाने के लिए और नया युग लाने के लिए प्रयत्न करते हैं और उस प्रयत्न के लिए आपसे सहयोग माँगते हैं। पुनर्गठन योजना हमारे और आपके समय की परीक्षा की एक कसौटी है। इसमें हम आपका पी.एम.टी. के लिए इम्तिहान लेते हैं, क्योंकि अगले चरण में, जिनमें हमको ब्रह्मवर्चस की स्थापना भी करानी है, अपने अनुदान भी देने हैं, आपके यश भी अजर-अमर बनाने हैं, आपकी जीवात्मा में शक्ति का संचार भी करना है। इसके लिए यह देखना है कि आप लोगों में से कुछ में जान है, जिसको ‘दैवीय सभ्यता’ कहते हैं, ‘दैवीय संपदा’ कहते हैं। उसमें त्याग-बलिदान की बात होती है। क्या उसके लिए आप कुछ कर पाएँगे?
दैवीय संपदा का विस्तार करें
साथियो! दैवीय सभ्यता जिसका अर्थ भजन करना नहीं होता, वरन् जीवन को दैवीय सभ्यता के अनुरूप ढाल लेना होता है। छोटे-से अनुदान के रूप में हर एक का हमने समय माँगा है। हमने जो कार्यक्रम बनाए हैं, सब एक उद्देश्य से बनाए हैं। वह सब इसलिए बनाए हैं कि हममें से कोई भी आदमी निष्क्रिय न रहने पाए। हर एक से कहा है कि अगर आपके अंदर निष्क्रियता है, तो उसे दूर कीजिए और अपने अंदर सक्रियता का विकास कीजिए। अपने युग निर्माण परिवार के हर सदस्य को हम सक्रिय देखना चाहते हैं। किसके लिए? जो हमारा मिशन है, उसके लिए। गुरुजी! आपने किसको क्या-क्या सक्रियता सौंपी है? बेटे, हमने उन आदमियों के लिए भी, जो घोर व्यस्त हैं, कार्य सौंपा है। जिसके पास योग्यता है, उनको भी कार्य सौंपा है और कहा है कि आप इस विचारधारा को फैलाने में योगदान दीजिए, मदद कीजिए।
महाराज जी! हम आपकी मदद कैसे करें? बेटे, आपके पास जो हमारी रिसर्च है, जिसको आपने माना है, जो आप हमारी पत्रिकाएँ पढ़ते हैं, उनको आप पाँच आदमियों को पढ़ाइए। अगर आप पुस्तकालय नहीं चला सकते हैं, तो कोई बात नहीं, लेकिन आप एक पत्रिका को पाँच आदमियों को पढ़ा सकते हैं। इससे हमारा मिशन पाँच गुना अधिक दो महीने के भीतर हो जाएगा। इस तरह जितना हमने तीस साल में किया है, उतना आप एक साल में कर सकते हैं।
गुरुजी! और हम क्या कर सकते हैं? बेटे, कब से हमारे झोला पुस्तकालय चल रहे हैं, चल पुस्तकालय चल रहे हैं। इन्हें आप दो घंटे भी चला दिया करें, तो मजा आ जाए। दो घंटे का उदाहरण मैं अक्सर देता रहता हूँ। हमारे यहाँ सुलतानपुर के कई बच्चे आए हुए हैं। वहीं के एक वकील हैं-लखपत राय। वे अभी भी हैं, यद्यपि अब बुड्ढे हो गए, शरीर उतना काम नहीं करता। लेकिन अब से दस साल पहले उनका नियम था कि वे चल पुस्तकालय की धकेलगाड़ी लेकर चल पड़े बाजार में, लीजिए साहब पुस्तक पढ़िए। लीजिए हमारे गुरुजी का साहित्य पढ़िए, युग निर्माण का साहित्य पढ़िए। जितने भी मुवक्किल थे, दुकानदार थे, सबको साहित्य देते हुए चले जाते थे। सारे-के-सारे सुलतानपुर में उन्होंने इस तरह रौब गाँठ दिया।
एक अकेले का पुरुषार्थ
एक बार मैं सुलतानपुर गया। पहले भी कई बार जा चुका था। लोग पाँच कुंडीय यज्ञ कराते थे, तब सौ-पचास आदमी इकट्ठा हो जाते थे। मुझे याद है, एक-दो बार मेरे प्रवचन भी हुए थे। वकील साहब ने जब मुझसे कहा, गुरुजी! एक बार आप आ जाएँ, तो मजा आ जाए। मैंने कहा, क्या आएँगे आपके यहाँ, पाँच कुंडीय यज्ञ ही तो करते हैं? नहीं, गुरुजी! अबकी बार बड़ी जोर से करेंगे। कैसे करेंगे? सौ कुंड का यज्ञ करेंगे। मित्रो! यज्ञ करने का निर्धारण होने के बाद चलते समय मैंने उनसे कहा कि जाने से पहले गायत्री तपोभूमि के लिए कुछ पैसे छोड़ जाने का हमारा मन है। क्या आप कुछ पैसे इकट्ठा करा सकते हैं? हाँ गुरुजी! हम करा देंगे। कितना? पच्चीस हजार का तो हमारा वायदा है, फिर आगे आपका भाग्य है।
मित्रो, उन्होंने क्या काम किया कि सारे शहर को हमारा साहित्य पढ़ा दिया और हर एक व्यक्ति से ये कहा, हमारे गुरुजी जिनका कि आपने साहित्य पढ़ा है, क्या आपको पसंद है? सबने एक स्वर से कहा कि अरे भाई! पढ़ा ही क्या, हम तो पगला गए हैं, उनके विचारों को पढ़कर। हम गुरुजी को बुलाकर लाएँ, तो आप उनके लिए कुछ खरच करेंगे क्या? उनको बुलाएँ, तो आप अपना कुछ समय हर्ज करेंगे क्या? हाँ साहब! खरच करेंगे। मित्रो! उन्होंने तीन-चार दिन का कार्यक्रम रखा था। जब मैं वहाँ गया, तो मैंने अचंभा देखा। देखा कि सुलतानपुर, जो कि छोटी-सी बस्ती है, छोटा-सा जिला है, वहाँ उन्होंने लगभग पचास हजार आदमियों के बैठने के लिए पांडाल बनाया था। मैं सोचता हूँ, उसमें एक लाख से कम आदमी नहीं थे। इतना बड़ा विशाल आयोजन देखकर मैं अचंभे में पड़ गया कि ये सुलतानपुर है या और कोई शहर है। इसकी तो आबादी ही इतनी है। दूर-दूर के देहातों से लोग आए थे।
मित्रो! मैं यह एक व्यक्ति की बात कह रहा हूँ कि एक अकेले आदमी ने क्या-क्या कर डाला। एक आदमी की सक्रियता का परिणाम ये हुआ कि उसने सारे सुलतानपुर को जगा दिया था। तीन-चार दिन यह चमत्कार मैंने देखा और जब विदा हुए, तो मैं समझता हूँ कि उन्होंने हमको यज्ञ में से बचाकर पैतीस-चालीस हजार रुपये दिए थे। यह मैं एक आदमी की करामात कहता हूँ, जिसमें उसके सहयोगी भी शामिल थे। उन्होंने भी सहयोग किया, पर मैं बात एक की कहता हूँ। आपसे पूछता हूँ कि आप क्या ये काम नहीं कर सकते? आप एक घंटा समय नहीं दे सकते? दो घंटे समय नहीं दे सकते? कलेजा है आप में? हृदय है आप में? हिम्मत है आप में? जीवन है आप में? निष्ठा है आप में? श्रद्धा है आप में? अगर ये नहीं हैं, तो ये बहाने मत बनाइए कि शाखा बंद हो गई है। कोई आता नहीं है। सबमें लड़ाई हो गई है। सबमें फूट फैल गई है। गुरुजी! कोई सुनता नहीं है। कमेटी में कोई आता नहीं है। धूर्त, बेकार की बातें बकता है, वह नहीं करता, जो मैं कहता हूँ। कितनी बार एक ही बात को कहता है। मैं पूछता हूँ तू क्या करता है?
मिशन-नया युग-नया मानव का भविष्य
मित्रो! जब एक आदमी लड़ने के लिए खड़ा हो जाए, तो क्या कर सकता है, यह बात मैंने एक उदाहरण देकर बताई। ऐसे मैं ढेरों उदाहरण बता सकता हूँ आपको। एक आदमी सक्रिय हो गया, तो उसने सारे इलाके को सक्रिय कर दिया। आपसे मैं पूछता हूँ कि आपके अंदर अगर निष्ठा है, तो क्या आप समय नहीं दे सकते मिशन के लिए? मिशन से मतलब ‘नया युग’ से है। मिशन से मतलब मानवी सभ्यता, मानवी भविष्य। इस पर आपकी आस्था है या कुछ भी नहीं है? नहीं, महाराज जी! हमारी तो बेटे पर आस्था है और पैसे पर आस्था है। तो बेटे, मैं तुझे बालक मानूँगा और ये कहूँगा कि अध्यात्म की किरणें तेरे पास नहीं आई। अध्यात्म की किरणें जब भी आई हैं, तो देवत्व को आसुरी सभ्यता खिलाफ खड़ा होना पड़ा है। हमारे अंदर जब गायत्री मंत्र आया, तो साथ में देवत्व भी आया। देवत्व और गायत्री मंत्र दोनों ने मिलकर के चमत्कार दिखाया। बेटे, तू तो गायत्री मंत्र लिए ही फिरता है, देवत्व कहाँ है तेरा? देवत्व तो है ही नहीं। केवल मंत्र-ही-मंत्र रटने चला है।
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? मैं चाहता हूँ कि हमारी परीक्षा की घड़ी में आप लोग साथ दें। पुनर्गठन योजना आपकी एक परीक्षा है, ब्रह्मवर्चस के आधार पर और दूसरे आधारों पर यह आपकी परीक्षा है। हम अपने कुटुंब को कुछ और मजबूत बनाना चाहते हैं, सक्षम बनाना चाहते हैं, लेकिन हम क्या कर सकते हैं? आप चाहें, तो झोला पुस्तकालय के माध्यम से, चल पुस्तकालय के माध्यम से इसे अकेले ही चला सकते हैं। तीर्थ यात्राओं के माध्यम से, स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से अकेले ही चला सकते हैं। यह मैं एक व्यक्ति की बात कहता हूँ। अब हम नए किस्म के स्लाइड प्रोजेक्टर बनाने वाले हैं। अब कुछ ऐसी योजना बना रहे हैं, जिससे ये सब चीजें तीन सौ-साढ़े तीन सौ के भीतर ही तैयार हो जाएँ। आप तीन सौ रुपये खरच कीजिए और हर घर में हमारा सिनेमा दिखाइए।
मित्रो! यह मैं अकेले की बात कहता हूँ, ‘एकला चलो रे-एकला चलो रे’ की बात कहता हूँ। अकेले चलकर भी आप जाने क्या-से-क्या कर सकते हैं। तीर्थयात्रा के लिए, साइकिल यात्रा के लिए, पदयात्रा के लिए आप निकल सकते हैं और एक-दो आदमी साथ ले सकते हैं। दीवारों पर सद्वाक्य लिखने का काम आप अकेले कर सकते हैं। अकेले के इस तरह ये इतने काम हैं, झोला पुस्तकालय, तीर्थयात्रा, दीवारों पर वाक्य-लेखन आदि। ये सब एक आदमी का काम है। इसे एक व्यक्ति अकेले ही कर सकता है। इसलिए अगर आप चाहें, अगर आपके अंदर जीवन हो, देवत्व की भावना उदय होती हो, तो आप इन सब चीजों को कर सकते हैं।
संगठित हों, इंजन बनें
यह तो हुई नंबर एक बात। नंबर दो-अगर आप अकेले नहीं कर सकते और आप में कोई संगठन की वृत्ति है, तो संगठन की वृत्ति के लिए आप हमारा हाथ बँटाइए और अपना थोड़ा समय दीजिए। टोली नायकों का काम स्थानीय है। आप उसमें सम्मिलित होकर के एक घंटा-दो घंटा समय लगा सकते हैं और आपको लगाना चाहिए। दस-दस आदमी की आप टोली बना लें और पचास पाठकों को इकट्ठा कर लें, तो बेटे, ये साठ की मंडली होती है। साठ व्यक्तियों की मंडली बहुत बड़ी होती है। साठ डाकुओं ने सारे चंबल को हिलाकर रख दिया था। साठ आदमियों का संगठन अगर आपके पास है, तो आप गजब कर सकते हैं। अगर आपके पास जीवट है, तो साठ आदमी बहुत होते हैं। इंजन अगर जीवित हो, तो साठ डिब्बों की रेलगाड़ी जाने कहाँ-से-कहाँ जा सकती है। इंजन जिंदा हो तो, लेकिन अगर इंजन मरा हुआ हो तो बेटे हम नहीं जानते।
इसलिए मित्रो! टोली नायकों की दृष्टि से आपको काम करना चाहिए। आप चाहें, तो समय दिए बिना अपने स्थानीय क्षेत्र में घर में रहकर एक काम यह भी कर सकते हैं कि आप जन्मदिन मनाने की परंपरा को जीवंत करने के लिए समय लगा सकते हैं। घर-घर में गोष्ठियाँ, घर-घर में सभा, घर-घर में सम्मेलन हर जन्मदिन के माध्यम से फिर से शुरू कर सकते हैं। शुरू के दिनों में दिक्कत मालूम पड़ेगी, फिर बाद में आप देखेंगे कि कितना ज्यादा लोग सहयोग देते हैं। आपको साथ-साथ सत्संग में सहयोग नहीं मिलता था, लेकिन अगर आप देखें, तो पाएँगे जन्मदिन के आधार पर जन्मदिन मनाते समय लोग कितना खुश होते हैं। उसमें व्यक्ति को अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने का मौका मिलता है, खुशी का मौका मिलता है। सब आदमी आशीर्वाद देते हैं, कोई फूल चढ़ाता है और कोई प्रणाम करता है। आज हमारा जन्मदिन है। हम अपना मुँह शीशे में देखते हैं, तो कितनी खुशी होती है। आप ये भी नहीं जानते? इसमें जनता के सहयोग का कितना लाभ भरा पड़ा है, क्या आप इसे नहीं जानते? अगर आप हकीकत में आएँ, तो आप इसे देख सकते हैं। हकीकत में नहीं आएँ, तब मैं नहीं कह सकता। अगर आप जन्मदिन मनाने की परंपरा को फिर से फैला सकें, तो आप देखेंगे कि ये मिशन, जिसमें देवत्व के पुनरुज्जीवन का संकल्प छिपा हुआ है, उसको जिंदा करने के लिए आप क्या कर सकते हैं।
वार्षिकोत्सव अनिवार्य
बेटे, एक और काम के लिए हमने आपसे कहा था कि अगले वर्ष हम और भी सामूहिक जोश उत्पन्न करेंगे, वार्षिकोत्सव के रूप में। अब यह नियम बना दिया गया है कि कोई भी शाखा ऐसी नहीं रहनी चाहिए, जिसका कि वार्षिकोत्सव न मनाया जाता हो। जो शाखा वार्षिकोत्सव नहीं मनाएगी, उसका हमारे रजिस्टर में से शाखा के नाम से नाम कट जाएगा। क्यों साहब! नाम कट जाएगा कि नाक कट जाएगी? चाहे जो समझ ले बेटा। तू अपने संबंध में समझ ले कि नाक कट गई और हम समझ लेंगे कि तेरा नाम कट गया। बात एक ही है।
मित्रो! हमने हर एक जीवंत शाखा के ऊपर यह वजन डाला है कि उसको वार्षिकोत्सव करना ही पड़ेगा और करना ही चाहिए। कम-से-कम कितने में यह कार्यक्रम हो सकता है? हमने छाप दिया है कि ढाई सौ से चार सौ रुपये तक में बहुत बढ़िया यज्ञ हो सकता है, आयोजन हो सकता है। इसमें हजार आदमी भी आएँ, तो यज्ञ भी हो जाए और जुलूस भी निकल जाए, सब हो जाए। यह सब चार-पाँच सौ रुपये में हो सकता है। इतना पैसा गुरुजी! हम इकट्ठा कर लेंगे। हाँ, बेटे! इतना इकट्ठा करने में क्या लगता है। एक दिन की तनख्वाह निकालता हुआ चला जाए, तो एक साल में अकेले ही इतना खरच कर सकता है। बेटे, एक माह में तुझे कितने रुपये मिलते हैं। सात सौ रुपये मिलते हैं। तो एक दिन की तनख्वाह कितनी होगी? गुरुजी! इक्कीस-बाईस रुपये होती है। तो बाईस रुपया महीने के हिसाब से कितना हो गया? महाराज जी! ये तो कोई दो सौ साठ रुपये हो गए। बस बेटे, तू अकेला हो जा और हर महीने में एक दिन की तनख्वाह निकालता चल। अब साथ में दस व्यक्ति और ले ले। इसी से एक वार्षिकोत्सव पूरा हो जाएगा। नहीं, गुरुजी! इससे चंदा माँगूगा, उससे माँगूगा। अपने पास से कुछ देगा? अपने में से तो कुछ नहीं दूँगा। कंजूस कहीं का, पहले अपने पास से निकाल, तब चंदा माँगना।
मित्रो! क्या करना चाहिए? वार्षिकोत्सव में कहीं कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। अगर आपके पास रोटी खाने के लिए आर्थिक तंगी नहीं है, सिगरेट पीने के लिए आर्थिक तंगी नहीं है, सिनेमा देखने के लिए आर्थिक तंगी नहीं है। हाँ, महाराज जी! इसके लिए तो तंगी नहीं है। बड़ा आया आर्थिक तंगी वाला। न उद्देश्य को समझता है, न धर्म को समझता है, न संस्कृति को समझता है और न देवत्व को समझता है। आर्थिक तंगी की रट लगाता है। मित्रो! चाहे तो यह सब एक आदमी अकेले ही कर सकता है।
हमारा एक ही लक्ष्य
मित्रो! हम चाहते हैं कि वार्षिकोत्सव हर जगह हो। उसके लिए हमको एक और दिक्कत पड़ेगी। हमने छाप दिया है कि हमारा प्रतिनिधि आएगा, रिप्रजेन्टेटिव आएगा। अब हमको वक्ता नहीं चाहिए। वक्ताओं से हमको घृणा होती चली जा रही है, क्योंकि वक्ता जीभ तो चलाते हैं, परंतु जीभ चलाकर जितना काम करना चाहिए, उससे चौगुना सफाया कर जाते हैं। अपना आचरण, अपना व्यवहार, अपना खान-पान अपने रहन-सहन से ऐसी छाप डालकर आते हैं कि उसे देखकर लोग कहते हैं कि ऐसे वक्ता को गोली मारो। जो बक्-बक् करता है, उसका नाम वक्ता है। हमें ऐसा वक्ता अब नहीं चाहिए, जो बकता तो बहुत है, पर आचरण और व्यवहार में बिलकुल विपरीत है। अब हम वक्ता नहीं, अपना प्रतिनिधि भेजेंगे। यह प्रतिनिधि कैसा होगा? हमारा नमूना होगा और हमारे आचार्य कैसे होने चाहिए? उनका रहन-सहन उनकी बोल-चाल उनका व्यवहार, उनका आचरण, उनका उठना-बैठना उनका खान-पान बिलकुल ऐसा होना चाहिए, जैसा कि हमारा है। उसे देखकर लोग ये कहें कि यह आचार्य जी का प्रतिनिधि है, आचार्य जी का बेटा है। बेटे, हमको ऐसे व्यक्तियों की बहुत तलाश है। क्योंकि हम ये घोषणा कर चुके हैं कि हम छह हजार शाखाओं का वार्षिकोत्सव करेंगे। इसे हम थोड़े ही समय में पूरा करने के इच्छुक हैं। अक्टूबर से लेकर मार्च तक पूरा कर लेना चाहते हैं, क्योंकि फिर गरमी आ जाती है, इम्तिहान आ जाता है। स्कूलों में स्पीकर लगाना बंद हो जाता है। गरमी में लू चलती है, आँधी-तूफान चलते हैं। इसलिए इस अभियान को हम जल्दी पूरा करना चाहते हैं।
मित्रो! इस कार्यक्रम के लिए हमें प्रतिनिधियों की विशेष रूप से आवश्यकता पड़ेगी। हमको आप लोगों में से जो अपने आपको इस लायक समझते हों कि हम गुरुजी के विचारों को, युग निर्माण के विचारों को, पुनर्गठन के विचारों को जन-साधारण के सामने व्यक्त कर सकते हैं, तो अपने नाम हमें नोट करा दें और जो ये प्रतिज्ञा कर सकते हों कि हम जाएँगे तो आपकी फजीहत कराकर नहीं आएँगे, आपकी बदनामी कराकर नहीं आएँगे, वहाँ आपकी बेइज्जती कराकर नहीं आएँगे। बेटे, वह आपकी बेइज्जती नहीं, हमारी बेइज्जती है। आप यहाँ से हमारे वक्ता हो करके जाएँगे और होटलों में चाय पिएँगे, तो वह आप नहीं हम पी रहे होंगे, क्योंकि आप हमारे प्रतिनिधि हैं, रिप्रजेंटेटिव हैं। रिप्रजेंटेटिव को न केवल वक्ता होना चाहिए, न केवल व्याख्यानदाता होना चाहिए, बल्कि उसके अंदर वे सारी विशेषताएँ होनी चाहिए, जो हमारे रहन-सहन में, उठने-बैठने में हैं।
वाणी से नहीं, आचरण से शिक्षण
मित्रो! ये आपको अभ्यास का मौका है। इस बहाने, इस लोक-लाज के बहाने आपको हम बंधन में इतना बाँधकर भेजेंगे कि अगर आप छह महीने अभ्यास कर लें, तो आप समझना कि आपने छह महीने का योगाभ्यास कर लिया। छह महीने की तप-साधना कर लेंगे आप। आपकी जीभ के ऊपर अंकुश, खान-पान के ऊपर अंकुश, उठने-बैठन के ऊपर अंकुश, हजार अंकुश लगाने पड़ेंगे। नहीं गुरुजी! हम तो व्याख्यान देंगे। बेटे, हमें नहीं कराना व्याख्यान। अगर हमारी शर्तें पूरी कर सकता है, तो तेरे व्याख्यान का स्वागत है। नहीं साहब! हम कोई शर्त पूरी नहीं करेंगे, हम तो बक्-बक् करेंगे और चाहे जैसे रहेंगे। बेटे, हम तुझे चाहे जैसे नहीं रहने देंगे।
इसलिए मित्रो! ऐसे लोगों की खासतौर से हमको आवश्यकता है, जो बक्-बक् से नहीं, अपने आचरण और व्यवहार से हमारा प्रतिनिधित्व करें। ये शिविर, जो हमने बुलाया है, इस हिसाब से भी बुलाया है कि हमको छह हजार शाखाओं में वार्षिकोत्सव कराने के लिए अपने छह हजार प्रतिनिधियों को जरूरत पड़ेगी। क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि अपने दो लाख मित्रों में से, जिनमें अधिकांश व्यक्ति पढ़े हों, सुशिक्षित हों, इस लायक हों कि आत्मशोधन और आत्मनिर्माण के अलावा लोक निर्माण की जिम्मेदारी निभा सकते हों, उनको हम छह महीने का योगाभ्यास कराना चाहते हैं। यह विशुद्ध प्रशिक्षण है, जिसमें लोक-लाज की वजह से और हमारी शरम की वजह से, दोनों दबावों की वजह से व्यक्ति अपने चरित्र को ठीक ढालता हुआ चला जाएगा और लोकहित के लिए, जिसमें मानव-जाति का हित जुड़ा हुआ है, दोनों काम करता हुआ चला जाएगा। आप हमारे प्रतिनिधि के रूप में जाना और जो शाखाएँ, जो शक्तिपीठें निष्क्रिय पड़ी हुई हैं, उनमें उमंग पैदा करना, टोलियाँ बनानी पड़ेंगी, जन्मदिन मनाना पड़ेगा और अपने आचरण एवं व्यवहार से लोगों को शिक्षण देना पड़ेगा। यदि इतना काम आप कर सकें, तो हमारा यह शिविर सार्थक हो जाएगा, हम और आप दोनों धन्य हो जाएँगे। आज की बात समाप्त।
ॐ शांति॥