उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। — पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो ! एक पहलवान की हर जगह ख्याति हो गई। जगह-जगह उसे बुलाया जाने लगा। अखाड़े में जीत-जीत करके वह नाम कमाने लगा। अखबारों में उसके फोटो छपने लगे। लोगों की इच्छा हुई कि हमको भी पहलवान बनना चाहिए। वे पहलवान के पास गए और यह देखा कि पहलवान क्या किया करता है। उसे दंड पेलते हुए देखा और बैठक करते हुए देखा। यह देखकर कई आदमियों ने दंड पेलना और बैठक करना शुरू कर दिया, लेकिन दंड पेलने और बैठक करने के बहुत समय बीत जाने के पश्चात भी कोई आदमी पहलवान नहीं बन सका, और न ही कोई आदमी इतनी ख्याति वाला बन सका जितना कि वो पहलवान था। वे फिर से उसके पास गए और कहा—"दोस्त ! सही-सही बताना कि जो हम करते हैं, क्या वही आप भी करते हैं या कोई और तरीके की दंड-बैठक करते हैं?" पहलवान ने उनको देखा, मुआयना किया और कहा—'जैसा आप करते हैं, वैसा ही हम करते हैं, कोई फरक नहीं है।" उन्होंने कहा कि फिर हम क्यों पहलवान नहीं बन सके और आप कैसे पहलवान बन गए?
मात्र कसरत नहीं, कुछ और विशेष
पहलवान ने कहा कि आपने जो चीज आँखों से देख ली, उसे तो नकल कर लिया और जो आँखों से नहीं देखी, उसको नकल नहीं किया। वो क्या चीज थी, जो आँखों से नहीं देखी? उन्होंने कहा कि आपने हमारे
आहार-विहार, संयम और ब्रह्मचर्य के बारे में गौर नहीं किया। हम अपने आहार-विहार के बारे में बहुत सावधान रहते हैं। सोने-जागने के बारे में हम बहुत ख्याल रखते हैं। हम ब्रह्मचर्य से रहते हैं। आप रहते हैं? नहीं साहब! ब्रह्मचर्य की कोई जरूरत नहीं है, हम तो कसरत करते हैं। हम अपने आहार पर नियंत्रण करते हैं। और आप? उन्होंने कहा कि नियंत्रण से क्या फायदा। आहार-विहार की, ब्रह्मचर्य की जरूरत क्या है। आप भी दंड पेलते हैं, हम भी दंड पेलेंगे। पहलवान ने कहा कि आपका कहना गलत है। व्यायाम की अपनी जगह बड़ी आवश्यकता है और बड़ा महत्त्व है, लेकिन व्यायाम से सौ गुना, हजार गुना महत्त्व इस चीज का है कि आदमी का रहन-सहन और आहार-विहार किस तरह का है। आप रहन-सहन, आहार-विहार की उपेक्षा करेंगे और केवल आँख से जो कसरत दिखाई पड़ती है, उसी को सब कुछ मान लेंगे। फिर कैसे फायदा हो सकता है? उसकी बात सही थी।
विधि से अध्यात्म नहीं समझ में आएगा
मित्रो! यही गलती हमारे आध्यात्मिक-क्षेत्र में भी होती रहती है। लोग क्रिया-कलापों को, कर्मकांडों को ही सब कुछ मान लेते हैं। गुरु जी, आपने कुंडलिनी जगाने में कौन-सा मंत्र जपा, कैसा प्राणायाम किया, कृपा करके उसका नियम बता दें। चक्रवेधन के लिए क्या-क्या किया? चलिए अभी बता देते हैं। तो गुरु जी ! हमारा भी चक्रवेधन हो जाएगा? नहीं, आपका नहीं हो सकता। तो फिर आप विधि छिपा रहे होंगे? नहीं बेटे ! विधि हम नहीं छिपाते हैं। विधि तो हम वही बताते हैं, जो हमने की है, पर उस विधि को करने के पश्चात भी आप कोई फायदा नहीं उठा सकते। आपकी मेहनत, आपका श्रम बेकार चला जाएगा और आपको निराशा होगी। आप मंत्र को गाली देंगे, विधि बताने वाले को गाली देंगे और विधान को गालियाँ देंगे। इसीलिए हम आपको नहीं बताते। तो महाराज जी केवल विधि से बात नहीं बन सकती? नहीं, विधि से बात नहीं बन सकती। तो क्या विधि बेकार है? मैं कब बेकार कहता हूँ।
परहेज, आहार-विहार का महत्त्व
बेटे ! मैंने आपको कब कहा कि दवा खाना बेकार है। दवा बहुत जरूरी है, लेकिन दवा के साथ में परहेज करना और भी ज्यादा जरूरी है। परहेज न करें और हम दवा खाते रहें तब? तव दवा बेकार, दवा में पैसा खराब करना होगा। डॉक्टर, वैद्य, आप और दवाएँ सब बेवकूफ सिद्ध होंगे। अरे महाराज जी! दवाओं की अभी आप प्रशंसा कर रहे थे और अब गाली देते हैं, ये क्या बात हुई? बेटे! हम गाली इसलिए देंगे कि आहार-विहार पर आप कोई ध्यान नहीं देंगे, परहेज नहीं करेंगे, चाहे जैसे रहेंगे, चाहे जो खाएँगे और सोचेंगे कि दवा खा करके अच्छे हो जाएँगे। उससे आपको फायदा नहीं हो सकता और आपका पैसा भी खराब होने वाला है। जिस हकीम ने आपको यह बात बताई है कि केवल दवा खाइए और अच्छे हो जाइए तो मैं उस हकीम और मरीज दोनों को गलत कहता हूँ। दोनों को ही ये जानना और बताना, समझना और समझाना चाहिए कि जितनी कीमत दवा की है, उससे ज्यादा परहेज की है। परहेज कीजिए तो आप बिना दवा के भी अच्छे हो सकते हैं। नेचर आपके स्वास्थ्य को ठीक कर देगी, जैसे कि जंगलों के भील और दूसरे लोग अच्छे हो जाते हैं। अगर आप अच्छी से अच्छी, कीमती से कीमती दवा खाएँ और अपने आहार-विहार का उल्लंघन करते चले जाएँ तो सारी दवाएँ बेकार, निरर्थक होती हुई चली जाएँगी।
मित्रो! उपासना के—राम नाम के महत्त्व आकाश-पाताल के बराबर बता दिए गए हैं। ये ठीक हैं, लेकिन? लेकिन तो हम भूल जाते हैं। एक किसान की जमीन में बहुत सारी फसल होती है और दूसरे की में फसल नहीं होती। क्या वजह है साहब? वही बीज आपने बोया, वही हमने बोया। बीज और बोना तो समान रहा, लेकिन जमीन का तो जमीन-आसमान का फरक रहा। आपने अपनी जमीन में न पानी लगाया, न खाद लगाई, न निराई-गुड़ाई की। बस, बीज बो दिया और अब आप कहते हैं कि आपके खेत में ज्यादा फसल हो गई और हमारी फसल क्यों नहीं पैदा हुई। बीज बोने की क्रिया जो आँख से दिखाई पड़ती है, उसे तो आप मान लेते हैं, पर जमीन को ठीक करने, नम रखने के लिए सिंचाई, निराई-गुड़ाई, खाद के लिए जो मेहनत की जाती रही और सरंजाम जुटाए जाते रहे, वे आपने नहीं देखे। बीज बोया और फसल काटेंगे साहब! राम का नाम ले लिया और चमत्कार पाएँगे! मंत्र जप करेंगे चमत्कार पाएँगे और कुंडलिनी जाग्रत करेंगे और चमत्कार पाएँगे !
क्रिया के साथ भाव भी
क्रिया के आधार पर क्रियायोग। क्रिया अपने आप में महत्त्वपूर्ण है, लेकिन उसके साथ भावयोग का समन्वय भी ज्यादा आवश्यक है। आपके पास धनुष-बाण है। उससे आप शिकार खेल सकते हैं, लेकिन उसके लिए हाथ की कलाइयों में ताकत का होना भी जरूरी है। तलवार का महत्त्व हम क्यों कर कम आँकेंगे? आपकी तलवार कितनी ही कीमती क्यों न हो, लेकिन उसको पकड़ने के लिए हाथों में, कलाइयों में बल होना चाहिए। नहीं साहब! हमारी कलाइयों में तो दम नहीं है, बुखार में पड़े हुए हैं। आप तलवार दीजिए और हम डाकुओं से मुकाबला करेंगे। नहीं बेटे! डाकू तेरी तलवार छीन ले जाएँगे और तेरी पचास रुपये की तलवार भी जाएगी। तू मत जा, तेरा जाना बेकार है। तलवार घुमाएगा तो तेरी कलाई में मोच आ जाएगी। नहीं, महाराज जी ! तलवार से मैं सबको मार डालूँगा। ठीक है, ले शिवाजी वाली तलवार, लेकिन इससे तू किसी को मार नहीं सकता, क्योंकि तेरी कलाई में बल नहीं हैं।
अध्यात्म एकांगी नहीं है
मित्रो! इसके बारे में मैं लोगों से कहता रहता हूँ, लेकिन लोगों को भ्रम हो जाता है। इसलिए आपसे भी जद्दोजहद करना पड़ता है। सारे अध्यात्म-क्षेत्र में जद्दोजहद करनी पड़ती है। लोगों ने कर्मकांडों के माहात्म्य को इतना अधिक बढ़ा-चढ़ाकर बादलों के बराबर बना दिया है। ये मंत्र और वो मंत्र, ये विधि-विधान कीजिए, लेकिन जाने क्यों यह भूल जाते हैं कि इन मंत्रों को, इन बाणों को जिस धनुष पर रखकर चलाया जाने वाला है, वह है कि नहीं? कारतूस को जिस बंदूक में रखकर चलाया जाने वाला है वह है कि नहीं है? बंदूक की जरूरत को, महत्त्व को जो नहीं समझते इसीलिए बहस हो जाती है। इसीलिए आप कारतूस को गाली दे रहे थे? हाँ बेटे! तेरे पास बंदूक तो है नहीं, फिर गोली कैसे चलाएगा? इसलिए क्रियायोग के माहात्म्य का खंडन करने पर जब मैं उतारू हो जाता हूँ तो आवेश में आकर कर्मकांडों के खिलाफ वो शब्द कहने लगता हूँ, जिससे आपको असलियत समझ में आ जाए। एकांगी और सरल वाला हिस्सा जो है, उसे आप पकड़ लेते हैं और जो मुश्किल वाला हिस्सा है, उसकी आप उपेक्षा करना चाहते हैं। उसको आप नजरअंदाज करना चाहते हैं। गहराई तक आप जाना नहीं चाहते और केवल बाहर की वह क्रिया जो सबसे सरल है, उसको आप पकड़ लेना चाहते हैं। बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधेगा? नहीं साहब! बिल्ली का मुँह पकड़ने की ताकत हममें नहीं है, हम नहीं पकड़ सकते। बिल्ली का मुँह नहीं पकड़ सकते तो बेटे ! घंटी कैसे बाँधी जाएगी? वह चूहे को खा जाएगी, उसे मार डालेगी।
वास्तविकता को समझें
मित्रो ! मैं ये निवेदन कर रहा था कि हमको वास्तविकता को समझना चाहिए। वास्तविकता को समझेंगे तो आपको अध्यात्म का जो माहात्म्य और जो लाभ और जो उसकी फिलॉसफी समझाई जाती है, आप पाएँगे कि वह हूबहू सही है। उसका एक-एक अक्षर सही है। राम के नाम का जो माहात्म्य बताया गया है, मंत्र का जो माहात्म्य बताया गया है, जप का जो माहात्म्य बताया गया है, योग का जो माहात्म्य बताया गया है, गायत्री मंत्र का जो माहात्म्य बताया गया है, वह एक-एक शब्द सही है। अगर आप यहीं पर अटके रहेंगे कि केवल कर्मकांड के आधार पर गायत्री मंत्र का चमत्कार देखना चाहेंगे तो फिर मैं आपसे कहूँगा कि इसका एक-एक अक्षर गलत है, झूठा है। गायत्री मंत्र जप करने से कोई फायदा नहीं हो सकता। महाराज जी! आप ये क्या कहते हैं? बेटे! तू समझता तो है नहीं कि मैं क्या कहता हूँ। तू एकांगी बात लिए फिरता है; जबकि अध्यात्म एकांगी नहीं हो सकता। एकांगी अध्यात्म संभव नहीं है।
मित्रो! अध्यात्म की दोनों धाराएँ जुड़ी हुई हैं। ये गाड़ी के दोनों पहिए हैं। एक पहिए पर गाड़ी नहीं चल सकती। प्राण और जीवन दोनों को मिला करके संपूर्ण अध्यात्म बनता है। हमारा संपूर्ण व्यक्तित्व न केवल शरीर से बना है और न केवल प्राण से बना हुआ है। प्राण और शरीर इन दोनों के समन्वय से हमारा व्यक्तित्व बना हुआ है। मैं शरीर को गाली देता हूँ, मिट्टी का बताता हूँ, पंचतत्त्वों का बताता हूँ। हड्डी-मांस का बताता हूँ। इसलिए बताता हूँ कि इसमें प्राण नहीं। जब इसमें प्राण होता है तो इसे मिट्टी का नहीं कह सकता। तब मैं यह कहूँगा कि यह देवता का मंदिर है और जब इसमें से प्राण निकल जाएगा तो मैं यह कहूँगा कि ये तो मिट्टी है, इसके लिए क्यों रो रहे हो? इसे जलाकर अलग करो। इसमें क्या रखा है? ये तो बेकार है. निरर्थक है। इसको गाड़ दो, नदी में बहा दो या इसको जला दो। इससे अब क्या बनने वाला है? नहीं साहब! यह तो हमारे पिताजी थे। बेटे! पिताजी थे तो वे हवा में चले गए। पिताजी ने तो कहीं जन्म ले लिया होगा। अब कहाँ हैं ये तेरे पिताजी, यह तो मिट्टी है। मिट्टी को तू कहाँ रख सकता है? इसे जला दे, हम और तुम दोनों चलेंगे। नहीं साहब! आप पिताजी को बेकार जलाने की बात कहते हैं, उन्हें गाली देते हैं। नहीं बेटे! पिताजी को नहीं, इस मिट्टी के लिए कह रहे हैं, जिसे रखना निरर्थक है।
कर्मकांड एवं भावनाओं का समन्वय हो
साथियो! इसी तरह आपको कर्मकांड और भावयोग के फरक को और समन्वय को समझना होगा। अगर आप अध्यात्म के मार्ग पर चलना चाहते हैं तो दोनों कदम मिलाकर चलने पर ही यह मंजिल पार की जा सकती है। एक कदम से मंजिल पार नहीं हो सकती। केवल कर्मकांड चाहे जितने ही आप क्यों न कर लें, आप चाहे कितने ही अनुष्ठान क्यों न कर लें, लेकिन अगर आप उन क्रियाओं को, जिनकी तुलना हम आहार और विहार से किया करते हैं। जिसको हम आत्मसंशोधन और आत्मपरिष्कार कहते रहते हैं, यदि आप उनकी उपेक्षा करने लगेंगे, यदि आप यह ख्याल करेंगे कि बस, जप करना ही काफी है, रामायण पढ़ना ही काफी है तो फिर मैं आपकी निंदा करूँगा और ये कहूँगा कि आप मकसद तक नहीं पहुँच सकते और जो फायदा उठाना चाहिए, वह आप नहीं उठा सकते। इसलिए वास्तविकता को आप जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा है। कर्मकांड निरर्थक नहीं हैं, उनकी निंदा नहीं कर रहा हूँ, लेकिन कर्मकांड के साथ में व्यक्तित्व का जुड़ा होना, मनुष्य का जीवन परिष्कृत होना, आदमी का सही होना नितांत आवश्यक है। आध्यात्मिकता की यह पहली शर्त है। अगर आप इस शर्त को पूरा नहीं करेंगे तो फिर बात कैसे बन सकती है। यह शर्त अनिवार्य है, आवश्यक है। इस शर्त की उपेक्षा नहीं हो सकती।
सही सलाह
मित्रो! स्वास्थ्य की दृष्टि से अगर आपको कभी दो में से एक (व्यायाम एवं आहार-विहार) की उपेक्षा करनी हो पड़े तो मैं व्यायाम की उपेक्षा करने के लिए आपको छोड़ सकता हूँ। गुरु जी! हम तो बहुत दिन तक जीना और स्वस्थ रहना चाहते हैं। अच्छा तो आप दो में से एक चुनिए? अगर आप व्यायाम के लिए कहेंगे तो हम आहार-विहार ठीक नहीं रखेंगे। अगर आप आहार-विहार के लिए कहेंगे तो व्यायाम ठीक नहीं रखेंगे। बेटे! दाेनों को मिलाकर चलने में क्या हर्ज है। नहीं साहब! दोनों तो हम नहीं करेंगे। एक कर लेंगे। आप सोने-जागने, ब्रह्मचर्य, आहार-विहार आदि की बातें मत कहिए। बस, हम आपका व्यायाम करते रहेंगे। बेटे ! दोनों कर लेगा तो तेरा क्या बिगड़ेगा? नहीं महाराज जी! आप दो में से एक का फैसला कर दीजिए, हम वही करेंगे। ठीक है, बेटे ! तो फिर मैं इस बात की सलाह दूँगा कि तू अपना आहार-विहार ठीक रख। अगर तू व्यायाम नहीं भी करेगा, तो कोई उतना ज्यादा नुकसान नहीं होगा। हाँ, अगर आहार-विहार ठीक रखने के साथ व्यायाम भी करेगा तो तेरी जिंदगी लंबी हो सकती है। तू मजबूत हो सकता है, लेकिन अगर तू इसी बात पर जम गया है कि मैं एक ही चीज करूँगा तो मैं यही कहूँगा कि तू ठीक से आहार कर, समय पर सोया और जगा कर। संयम रख, ब्रह्मचर्य का पालन कर, तभी बात बनेगी।
गहरा कुसंस्कार
मित्रो! इसीलिए अध्यात्म के लिए मुझे लोगों से बार-बार इन छोटी-मोटी बातों के लिए कहना पड़ता है। पिछली बार जब आप आए थे, तब भी यही कहा था। फिर आप कहते हैं कि गुरु जी ! यही बात आप पहले भी कहते थे, यही अब कह रहे हैं। क्या करूँ बेटे! आपकी समझ में यह बात अभी तक नहीं आई और मैं नहीं जानता कि कितने समय में यह समझ में आएगी। चलिए इसे मैं आध्यात्मिकता के क्षेत्र का कुसंस्कार कहता हूँ। यह कुसंस्कार इतना गहरा है कि लोगों ने यह समझ रखा है कि पूजा-पाठ की प्रक्रियाएँ करने के पश्चात आदमी को भगवान के पास जाने की इजाजत मिल जाती है और भगवान का तथा देवी-देवताओं का प्यार मिल जाता है इसको हम कुंसस्कार कहते हैं। इस कुसंस्कार को निकालने के लिए मुझे आपसे बार-बार लड़ाई लड़नी पड़ती है, बार-बार सत्यनारायण की कथा कहनी पड़ती है और बार-बार गायत्री मंत्र का जप करने की बात कहनी पड़ती है। बार-बार एक ही बात कहनी पड़ती है, ताकि यह कुसंस्कार आपके मन-मस्तिष्क से हट जाए। इसको भक्ति या योग न कह करके मैं कुसंस्कार ही कहूँगा, जिसे आपने सब कुछ मान रखा है। अगर यह कुसंस्कार आपके मन से निकल गया तो समझूँगा कि मेरा परिश्रम सार्थक हो गया और आपको आध्यात्मिकता के द्वार में प्रवेश करने और अंदर जाने का रास्ता खुल गया।
शिक्षण क्रमिक ही संभव
मित्रो! अगर आप इस बात को समझ गए होते और आपने इस बात पर गौर करना शुरू कर दिया होता कि हम अपने जीवन की रीति-नीति में हेर-फेर करना शुरू करेंगे। अपने क्रिया-कलापों में हेर-फेर करना शुरू करेंगे, अपने विचार करने की प्रक्रिया में और दृष्टिकोण में हेर-फेर करना शुरू करेंगे तो फिर मैं आपको अगले वाला पाठ पढ़ाता। फिर मैं आपको कुंडलिनी योग की शिक्षा देता, चक्र जागरण की शिक्षा देता। फिर मैं आपको क्या क्या शिक्षाएँ देता? जाने कितनी शिक्षाएँ मेरे पास पड़ी हुई हैं? लेकिन मैं देखता हूँ कि इन बच्चों के ऊपर जुल्म करना होगा, अगर मैं इन्हें सीधे एम० ए० का पाठ पढ़ाना शुरू कर दूँ। अरे! इन्हें तो अभी गिनती भी नहीं आती, पहाड़ा तक नहीं आता, कविता नहीं आती और मैं इनको फिजिक्स पढ़ाना शुरू कर दूँ, कैमिस्ट्री पढ़ाना शुरू कर दूँ, इससे अच्छा है कि इनको नहीं पढ़ाऊँ। इनको ये कहूँ कि आप पहले किताब पढ़ना सीखिए, अक्षरज्ञान सीखिए, गिनती गिनना सीखिए, मात्राएँ लिखना सीखिए। जब आपका इतना हो जाए, तब मैं आपको फिजिक्स सिखाने के लिए तैयार हूँ। नहीं महाराज जी! आप तो फिजिक्स की निंदा करते थे। हाँ बेटे! इसलिए निंदा करता था कि तू समय से पहले ही जिद लगाए वैठा है ! जिस काम को पूरा करना चाहिए, उसको पूरा करना नहीं चाहता, आसमान पर छलाँग मारना चाहता है। इसलिए मैं इसकी बुराई करने लगता हूँ।
अब बड़े बालिग बन जाइए
मित्रो ! जब छोटा बच्चा कहता है कि पिताजी हमारा विवाह करा दीजिए। अरे बेटा ! तेरी बहू तो कानी है। कानी बहू से तेरा विवाह नहीं करेंगे। अपने मुन्ना के लिए बढ़िया वाली अच्छी बहू लाएँगे। कितनी बड़ी बहू लेगा? दीवार के बराबर। नहीं, ये दीवार तो बहुत बड़ी होती है, छोटी लूँगा। अच्छा कितनी बड़ी, इस बैलगाड़ी के बराबर। हाँ, बैलगाड़ी के बराबर बहू ले लूँगा। ठीक है, आप लोगों को ऐसे ही मुझे बहकाना पड़ता है, क्योंकि आप लोगों को पाँच-छह वर्ष में कैसे बहू लाकर के दे दूँगा? नहीं साहब! हमारा तो विवाह करा दीजिए, भैया का विवाह हो गया है, हमारा विवाह नहीं हुआ है। बेटे! अभी तू छह साल का है और बड़ा भैया बाईस साल का हो गया है। तू जब बाईस साल का हो जाएगा, तब तेरे लिए भी बहू लाकर दूँगा। तेरी नौकरी भी लगवा दूँगा। अच्छा तो हमारे लिए भी साइकिल लाकर दीजिए। नहीं बेटे, अभी तू छह वर्ष का है, तुझसे चढ़ा भी नहीं जाएगा, गिर जाएगा। तू जरा बड़ा हो जा, फिर ला दूँगा।
मित्रो! आध्यात्मिक-क्षेत्र में अब आपको भी बड़ा होना चाहिए। आध्यात्मिक-क्षेत्र में आपको बालिग होना चाहिए, वयस्क होना चाहिए। जब आप वयस्क होंगे, बालिग होंगे, तब मैं या मेरे बाद कोई और इतने सारे लोग बैठे हुए हैं—सिखाने के लिए और पढ़ाने के लिए, वे आपको कर्मकांड, क्रियाकांड जिनको आप मैजिक समझते हैं और जिनका मैं मखौल उड़ाता रहता हूँ जादू कह करके कि वह मात्र जादू है। नहीं बेटे! वह जादू नहीं है। अध्यात्म की उपासनाएँ-साधनाएँ जादू नहीं हैं, वह सही हैं, लेकिन मैं आपको जादू इसलिए बताता हूँ कि मिट्टी में से सोना बन सकता है, रुपया बन सकता है, किंतु शर्त यही है कि उसे वैज्ञानिक ढंग से कमाया जाए। जमीन में आप खेती करें और उसमें से रुपया कमाएँ, यह तरीका सही है। मिट्टी में से आप सीधे रुपया कमाना चाहते हैं, इसका मतलब यह हुआ कि आप कर्मकांडों से, पूजा-उपासना से, मंत्र-तंत्र से चमत्कार चाहते हैं। मंत्र-तंत्रों में से चमत्कार मिले होते तो इन बाबाजियों और इन पंडितों ने कब के सारे चमत्कार समेट करके अपने झोले में भर लिए होते और आपको तमाशा देखने को भी नहीं मिलता। ऐसा नहीं हो सकता। आप क्रम से पढ़िए, हिसाब से पढ़िए। क्लासवाइज आगे बढ़िए, नंबर से बढ़िए और उसके लाभ उठाइए, जो लाभ उठा सकते हैं। समय से पहले आप बेकार में कहेंगे कि हमारी मूँछें लगा दीजिए। अच्छा बेटा! ला चवन्नी, देख अभी तेरी मूँछ मँगा देता हूँ। अरे ये कैसी मूँछ हैं, ये तो निकल पड़ीं। तुझे कैसी मूँछ चाहिए थी? आपकी-सी मूँछ चाहिए थी, जो खींचने पर भी नहीं निकलती है। बेटे! तो अभी तू ठहर जा। अभी तू छह साल का है। बीस साल बाद तेरी असली मूँछें आएँगी। अभी तेरी उम्र इतनी बड़ी नहीं हुई है।
शृंगी ऋषि का पुत्रेष्टि यज्ञ
साथियो! हममें से प्रत्येक को अपना व्यक्तित्व विकसित करना चाहिए। व्यक्तित्व के विकास के साथ में मंत्र काम करते हैं, तंत्र काम करते हैं। शृंगी ऋषि की घटना आपको बराबर याद रखना चाहिए। श्रृंगी ऋषि की घटना इस तरीके से है कि जब राजा दशरथ के यहाँ कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने गुरु वसिष्ठ जी से कहा कि महाराज जी! आप तो योग, तप और मंत्रों में बड़ी शक्ति बताते हैं। आप हमारे यहाँ संतान नहीं पैदा कर सकते? हाँ, मंत्रों से संतान हो सकती है। पुत्रेष्टि यज्ञ का शास्त्रों में बहुत माहात्म्य बताया गया है और कहा गया है कि पुत्रेष्टि यज्ञ करने वाले को ये हवन करना चाहिए। उससे संतान हो सकती है। महाराज जी! आप तो हमारे गुरु हैं। मुद्दतें हो गईं, एक भी बच्चा हमारे यहाँ पैदा नहीं हुआ और हमको तीन विवाह करने पड़े। हम बूढ़े हो गए आपने अभी तक पुत्रेष्टि यज्ञ क्यों नहीं कराया। अब तक तो बच्चे भी बड़े हो गए होते। आपने यह बात पहले क्यों नहीं कही? इसलिए नहीं कही कि पुत्रेष्टि यज्ञ में जो मंत्र काम आते हैं, उन मंत्रों को हम सार्थक नहीं कर सकते। क्यों नहीं? आप तो सार्थक कर सकते हैं। आप पढ़े-लिखे हैं, संस्कृत जानते हैं। नहीं, जीभ की नोक से मंत्रोच्चारण नहीं हो सकता। जीभ की नोक से बोली जाने वाली वाणी या वचन केवल जानकारी के काम आ सकते हैं, लेकिन चमत्कार नहीं दिखा सकते। उनके पीछे व्यक्तित्व होना चाहिए।
(क्रमशः)
अध्यात्म का मर्म समझने हेतु बालिग बनिए - २
गतांक से आगे—
पिछले माह पाठकों ने जाना कि एकांगी अध्यात्म संभव नहीं है। विधि महत्त्वपूर्ण है, पर इसके साथ भाव भी। दवा खाना जरूरी है, पर परहेज भी जरूरी है। आत्मसंशोधन और आत्मपरिष्कार दोनों जरूरी हैं। पूजा-पाठ से ही सब मिल जाता है, इसे पूज्यवर अध्यात्म-क्षेत्र का कुसंस्कार कहते हैं। यह कुसंस्कार निकल गया तो हम वरिष्ठ हो जाएँगे, बालिग हो जाएँगे। इसी क्रम में वे श्रृंगी ऋषि की कथा बताते हैं कि वाणी में चमत्कार व्यक्तित्व से, तप से आता है। इसी कथा को आगे बढ़ाते हुए विषय को समझने का, आत्मसात् करने का प्रयास करें।
पुत्रेष्टि यज्ञ कौन सफल करे?
मित्रो ! गुरु वसिष्ठ ने कहा—राजन्! हमने बच्चे पैदा कर लिए, इसलिए हमारा ओजस और व वर्चस जो कि मंत्र के साथ शामिल होने के पश्चात चमत्कार दिखाता है, वह चला गया। अब हम केवल मंत्र उच्चारण कर सकते हैं, विद्यार्थी को पढ़ा सकते हैं, सुना सकते हैं, उसकी साउंड ठीक कर सकते हैं, लेकिन कोई चमत्कार नहीं दिखा सकते। इसलिए हमारी वाणी के द्वारा बोले हुए मंत्र फलित नहीं हो सकते। तब फिर कोई और व्यक्ति ऐसा है, जो वही मंत्र बोलकर चमत्कार दिखा सके। हाँ। ऐसे भी एक व्यक्ति हैं। हम कोशिश करेंगे कि वे आ सकें और आपका पुत्रेष्टि यज्ञ संपन्न करा सकें। शृंगी ऋषि इसी तरह के थे, जिनके पिता ने, जिनके गुरु ने अट्ठाईस वर्ष की उम्र तक उनको यह ज्ञान नहीं होने दिया था कि दुनिया में कोई स्त्रियाँ भी होती हैं। जंगल में रहते थे, केवल मरदों का ही संपर्क था। स्त्रियों के बारे में कोई चर्चा ही नहीं होती थी। उन्होंने आश्रम की व्यवस्था में स्त्रियों का कोई जिक्र नहीं आने दिया था। शृंगी ऋषि ने स्त्रियों की कोई शक्ल नहीं देखी थी।
निर्मल-निष्पाप श्रृंगी
गुरु वसिष्ठ से जब राजा दशरथ ने यह सुना तो उन्होंने कहा कि हम यह नहीं मान सकते कि कोई आदमी स्त्री को नहीं जानता होगा। चलिए, हम आपको दिखा करके लाते हैं। गुरु वसिष्ठ राजा दशरथ जी को लेकर के लोमष ऋषि के आश्रम में गए और शृंगी ऋषि जिनकी उम्र अट्ठाईस साल की थी, उनके पास देव बालाओं को ले करके गए और वहाँ उनके सामने खड़ी कर दी। शृंगी ऋषि ने पूछा—"आप लोग कौन हैं?'' "हम भी विद्यार्थी हैं।" शृंगी ऋषि ने जब उनसे यह पूछा कि हम तो अट्ठाईस वर्ष के हो गए और हमारी दाढ़ी-मूँछें आ गईं, फिर आप लोगों की दाढ़ी-मूँछें क्यों नहीं आईं? उन्होंने कहा कि हम जिस गुरुकुल में पढ़ते हैं, वहाँ बहुत ठंढक पड़ती है। इस वजह से वहाँ मूँछें बहुत बड़ी उम्र में निकलती हैं। हमारी उम्र अभी इतनी नहीं हुई, इसलिए हमारी दाढ़ी-मूँछें निकलकर नहीं आती हैं। "तो फिर आपका गुरुकुल ठंढक में बहुत अच्छा होता होगा? आपके यहाँ खाने को बहुत अच्छे फल मिलते होंगे?" हाँ! हमारे यहाँ बहुत अच्छे फल होते हैं। कैसे फल होते हैं, जरा दिखाइए? उन्होंने टोकरी में से निकालकर मिठाइयाँ, गुलाब जामुन उनके हाथ पर रख दिया। शृंगी ऋषि भागते हुए अपने पिता लोमष ऋषि के पास गए और कहा कि बाहर से कुछ विद्यार्थी आए हुए हैं। वह कहते हैं कि हमारे गुरुकुल में ठंढक की वजह से मूँछें नहीं निकलतीं। उनकी भी उम्र अट्ठाईस साल है और हमारी भी अट्ठाइस साल है। उनके पेड़ों पर फल ऐसे लगते हैं, जैसे हमने कभी खाए नहीं। जरा आप भी देखिए। गुलाब जामुन हाथ पर रख दिया। लोमष ऋषि हँसने लगे—आऽऽहा....क्या बात है?
उस ब्रह्मतेज की ताकत समझें
लोमष ऋषि बाहर आए और देखा कि बाहर गुरु वसिष्ठ और राजा दशरथ खड़े हुए हैं, वे उनका मकसद समझ गए। उन्होंने कहा—बैठो। हम तो परीक्षा लेने आए थे कि क्या ऐसे भी व्यक्ति होने संभव हैं? अब हमें विश्वास हो गया कि ये जो मंत्र बोलेंगे, वे फलित होंगे। मित्रो! उसे आप क्यों नहीं समझते? अक्षरों को समझते हैं और उन्हें महत्त्व देते हैं। क्रिया-कांडों को महत्त्व देते हैं, लेकिन उस असलियत को आप महत्त्व क्यों नहीं देते हैं। मैं चाहता हूँ कि आप असलियत को समझें। इस असलियत को आप समझें कि कर्मकांडों के पीछे, क्रिया-कलापों के पीछे, पूजा-उपासना के विधि-विधानों के पीछे जो शक्ति काम करती है, जो फोर्स काम करती है; जो ताकत काम करती है, जो ब्रह्मतेज काम करता है, उसकी वजह से भगवान को मजबूर होना पड़ता है। देवताओं को मजबूर होना पड़ता है। मंत्रों को अपना चमत्कार दिखाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। आप उसका माहात्म्य क्यों नहीं समझना चाहते? नहीं साहब! यह तो बड़े झगड़े का काम है, बड़े झंझट का काम है। बड़ी जीवट का काम है, बड़े तूफान का काम है। हाँ बेटे! बड़े तूफान का काम है। खेती करना तूफान का काम है, पढ़ना बड़े तूफान का काम है। व्यापार करना बड़े तूफान का काम है। पहलवान होना बड़े तूफान का काम है। हर चीज बड़े तूफान की है।
अध्यात्म इतना सस्ता नहीं
मित्रो ! अध्यात्म-क्षेत्र में आगे बढ़ना, जैसे कि आपने समझा है कि पालथी मार करके आधे घंटे के लिए बैठ जाना और इधर की माला उधर घुमा देना और उधर की माला इधर घुमा देना है। इधर का चावल उधर चढा देना, इधर घंटी बजा देना, इस नाक में से हवा और उस नाक में से पानी निकाल देना है। क्या आप इसी खेल-खिलवाड़ को अध्यात्म समझते हैं और इसी से सब कुछ पा लेना चाहते हैं? नहीं, अध्यात्म इतना सस्ता नहीं हो सकता। अध्यात्म महँगा है और आपको इसकी महँगी कीमत चुकाने के लिए तैयार होना चाहिए। अगर आप उसकी महँगी मूल्य की कीमती चीजें पाना चाहते हैं, महँगे चमत्कार पाना चाहते हैं, तब? तब मित्रो! आपको कर्मकांड के साथ, क्रियायोग के साथ भावयोग का समन्वय करना चाहिए। कल मैंने इसकी ओर संकेत किया था और कर्मकांडों में से प्रत्येक के बाबत कहा था कि ये कर्मकांड हमें भावयोग की ओर घसीटकर ले जाते हैं। ये हमारी भावनाओं को विकसित करते हैं। ये हमारे दृष्टिकोण को परिष्कृत करते हैं और हमारे क्रिया-कलाप के बाबत दिशाएँ देते हैं, प्रेरणाएँ देते हैं कि हमारे जीवन का क्रिया-कलाप क्या होना चाहिए? और हमारे सोचने का तरीका क्या होना चाहिए? ये सारे के सारे क्रिया-कलाप हमको इस दिशा पर ले जाते हैं, ताकि हमारा व्यक्तित्व, हमारे भीतर की शक्ति, जो हमारी अंतरात्मा में सन्निहित है, उसके ऊपर चढ़ी हुई मलिनताएँ, उसके ऊपर चढ़े हुए मनोविकार लुप्त होते हुए चले जाएँ। बस, यही है कर्मकांडों का उद्देश्य और दूसरा कोई उद्देश्य नहीं है।
भगवान मात्र व्यक्तित्व देखता है
मित्रो! आप सोचते होंगे कि कर्मकांडों से प्रभावित होकर के भगवान खिंचते हुए चले आते होंगे, भगवान प्रसन्न हो जाते होंगे, बात ऐसी नहीं है। भगवान बड़े समझदार आदमी का नाम है। भगवान बड़े बुद्धिमान और दूरदर्शी का नाम है, दूरदृष्टि वाले आदमी का नाम है। इसको हम खेल-खिलौनों से और छिटपुट मंत्रों का उच्चारण करके और चावलों को इधर से उधर फेंक करके फुसला नहीं सकते। बेटे! रिझाने के लिए उसी स्तर की चीजों की जरूरत है, जिसको भगवान पसद करता है। भगवान मनुष्य के व्यक्तित्त्व के अलावा कुछ और नहीं देखना चाहता। आपको किया-कलाप, कर्मकांड कैसा आता है, कैसा नहीं आता, भगवान को यह देखने की फुरसत नहीं है। आप वाल्मीकि की तरह से 'राम-राम' की जगह 'मरा ' करने लगें तो भी भगवान जी को कोई शिकायत नहीं है। आप 'मरा मरा' कहिए, चाहे 'राम-राम' कहिए। नहीं, साहब! राम-राम कहने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं और 'मरा-मरा' कहने से नाराज हो जाते हैं। 'मरा मरा' कहने से देवी नाराज हो जाती हैं। बेटे! हमें नहीं मालूम कि 'मरा-मरा' कहने से कौन-सी देवी नाराज हो जाती हैं और 'राम-राम' कहने से कौन-सा भगवान प्रसन्न हो जाता है। नहीं महाराज जी! चंदन की पाला घुमाने से शंकर जी प्रसन्न होते हैं और रुद्राक्ष की माला घुमाने से शंकर जी नाराज हो जाते हैं। बेटे ! हमें न मालूम है।
भगवान को बच्चा समझते हो?
मित्रो! आप क्या समझते हैं कि शंकर जी इतने बेअक्ल और इतने नासमझ हैं कि चंदन की माला से तो खुश हो जाएँ और रुद्राक्ष की माला से नाराज हो जाएँ। ऐसा तो बच्चे करते हैं। आप उसे सफेद रंग का गुब्बारा दे दें तो बच्चा नाराज हो सकता और कह सकता है कि हम तो गुलाबी रंग का लेंगे, सफेद रंग का नहीं लेंगे और शंकर जी किस चीज की माला पहनेंगे, चंदन की या रुद्राक्ष की? नहीं साहब! हम तो रुद्राक्ष की पहनेंगे, चंदन का नहीं पहन सकते। बच्चे की तबियत जैसी भगवान शंकर की होगी, ये नहीं हो सकता, जैसा कि आपका ख्याल है, लेकिन अगर आप यह मानते हैं कि शंकर भगवान बच्चे नहीं हैं, शंकर भगवान कोई बुजुर्ग हैं, तब फिर आपको दूसरी तरह से विचार करना होगा। जब आपको मालाओं की परख करने की अपेक्षा, शंकर जी को प्रसन्न करने की अपेक्षा तथा दस दुकानदार के दरवाजे पर नाक रगड़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्यों ! यह रुद्राक्ष की माला असली है कि नकली है? क्या मतलब है आपका? यह मतलब है कि असली रुद्राक्ष की माला है तो शंकर जी प्रसन्न हो सकते हैं और अगर नकली होगी तो नाराज हो सकते हैं। आऽऽहा! तो यह चक्कर है, यह मामला है? शंकर जी असली रुद्राक्ष से प्रसन्न हो जाते हैं और नकली से नाराज हो जाते हैं।
सारा खेल भावनाओं का है
बेअक्ल आदमी यह समझता है कि मालाओं की शक्लें देख करके, उनकी पहचान करके शंकर जी की प्रसन्नता और नाराजगी टिकी हुई है तो ऐसा बिलकुल नहीं है। शंकर जी को आप मिट्टी की गोलियों से बनी हुई मालाओं से जप लें तो भी शंकर जी उतना ही चमत्कार दिखा सकते हैं, जितने कि मिट्टी के बने हुए द्रोणाचार्य ने चमत्कार दिखाए थे। यह सारे का सारा भावनाओं का खेल है, श्रद्धा का खेल है, मान्यताओं का खेल है। यह लकड़ी का खेल नहीं है। ताँबे के पात्र में पंचपात्र लगा दो तो कैसा हो सकता है? स्टील का पंचपात्र लगा दो तो कैसा हो सकता है? बेटे! मिट्टी का भी बना ले और अगर तेरे पास कोई पंचपात्र न हो तो हथेली में पानी रखकर पी लिया कर, उससे कोई फरक नहीं पड़ता। महाराज जी ! ये तो कर्मकांडों का, विधि-विधानों का सवाल है? है तो सही बेटे! कर्मकांडों का, विधि-विधानों का सारा का सारा ढाँचा या स्वरूप आपको सावधान रखने, सतर्कता बरतने, जागरूकता रखने, नियमों का पालन करने के लिए बनाया गया है। इसलिए इसका स्वरूप तो है सही और वह रहना चाहिए, ताकि आदमी को अटेन्शन रहने का, सावधान रहने का, जागरूक रहने का, विधि और व्यवस्था के साथ काम करने का, अनुशासन के निमयों का पालन करने का ध्यान बना रहे। अन्यथा ढीले-पोले आदमी सारा काम बिगाड़ देंगे। इसलिए अनुशासन कायम रखने के लिए शास्त्रकारों ने जो मर्यादाएँ बना दी हैं, उनका रक्षण होना चाहिए। उनका मैं हिमायती हूँ, विरोधी नहीं हूँ, लेकिन अगर आप यह समझते हों कि इनके द्वारा ही हमारा उद्देश्य पूरा हो सकता है तो ऐसा नहीं हो सकता।
शक्ति का स्रोत है भगवान
मित्रो ! मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा लाभ भगवान को प्राप्त करना है। मैं नहीं समझता कि इससे भी बड़ा कोई लाभ हो सकता है। असल में जितने भी लाभ हैं, जितनी भी क्षमताएँ हैं, जितनी भी सामर्थ्य हैं, उन सबका केंद्र एक शक्ति का स्रोत है, जिसको हम भगवान कहते हैं। जनरेटर कहाँ लगे हुए हैं? यहाँ से बहुत दूर रुड़की के पास बहादराबाद पथरी नाम की जगह है, वहाँ बिजलीघर बने हुए हैं। यहाँ जो बत्तियाँ जल रही हैं, माइक चल रहे हैं, एम्प्लीफायर में से बोल रहे हैं, वह सारी बिजली वहीं से आ रही है। इसी तरह मनुष्य के पास जो भी चीज है, सारे के सारे विश्व में, जड़ में चेतना का जो चमत्कार है, वह भगवान का है। चेतना एक ही है, भगवान के पास। उसके अंश जितने भी हमारे पास आ जाते हैं—उसके हिसाब से हम मजबूत, ताकतवर, संपत्तिवान और ज्योतिर्वान बन जाते हैं। भगवान की क्षमताएँ जितनी हमारे भीतर कम होती हैं, उतने ही हम कमजोर बने रहते हैं, दुर्बल बने रहते हैं, दीन-दुर्बल बने रहते हैं। असहाय बने रहते हैं और जब ये क्षमताएँ हमारे भीतर पर्याप्त मात्रा में इकट्ठी हो जाती हैं, तब फिर हम देवपुरुष बन जाते हैं, फिर हम अवतार हो जाते हैं। फिर हम महामानव हो जाते हैं, फिर हम देवात्मा बन जाते हैं और तब अंत में हम भगवान हो जाते हैं। कब? जब भगवान की शक्तियाँ हमारे पास आ जाती हैं। अंदर समाविष्ट हो जाती हैं।
सामर्थ्य की कीमत पर संपदा मिलती है
इसलिए करना क्या है? मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ-परम पुरुषार्थ यह माना गया है कि हम ऐसी शक्ति के साथ में अपना संबंध मिला लें, जहाँ से जा करके प्रचुर मात्रा में सामर्थ्य और उसके साथ-साथ में संपत्ति मिलती रहे। सामर्थ्य की कीमत है—संपत्ति ! आपके शरीर में सामर्थ्य है तो मजदूरी कीजिए और पैसा कमाइए। आपका चेहरा अच्छा है, हट्टे-कट्टे हैं, जवान हैं। हम ब्याह करेंगे? अच्छा साहब! आप ब्याह कर लीजिए, कोई हर्ज नहीं, परंतु यदि आपकी सामर्थ्य चली जाए, बुढ़ापे में सब बाल झड़ जाएँ और तब कहें कि हमारा ब्याह कर दो साहब! तब लोग कहेंगे कि चल-चल बुड्ढे को शरम भी नहीं आती है। अरे साहब! जैसे और आदमी, वैसे वह हैं। दोनों ही ढाई सौ रुपये महीने कमाते हैं। देखिए उसका भी तो ब्याह हो गया है, हमारा भी ब्याह करा दीजिए। नहीं, आपका ब्याह नहीं हो सकता, क्योंकि आप बुड्ढे हो गए हैं। आपके झुर्रियाँ पड़ गई हैं, आपके दाँत उखड़ गए हैं। आपका चेहरा बुड्ढा हो गया है। अब आपका ब्याह नहीं हो सकता। नहीं साहब! हमारा भी ब्याह रचा दीजिए। नहीं बेटे, सामर्थ्य ही सब कुछ है। सामर्थ्य की कीमत पर संपत्तियाँ आती हैं और दुनिया में सामर्थ्य का पुंज एक ही है भगवान। हम उसी की सामर्थ्य से सब काम करते हैं। दुनिया में जितना भी पानी भरा हुआ है, सब समुद्र की अमानत है। समुद्र में से बादलों में आता है। बादलों में से नदी और तालाब में भर जाता है। सारी की सारी सामर्थ्य भगवान में भरी पड़ी है। भगवान की सामर्थ्यों में से हम जितना अंश अपने भीतर ग्रहण कर लेते हैं, उतने ही अंशों में हम सामर्थ्यों के धनी होते हैं और धनी के हिसाब से हमारे पास वह संपत्ति है, जिसको आप चाहते हैं।
मित्रो! आप क्या चाहते हैं। संपत्ति ही चाहते थे न? हाँ ! संपत्ति चाहते थे तो आपको यह नहीं मालूम है कि संपत्ति किसे दी जाती है? आप मिठाई खरीदना चाहते हैं ना? तो आप मिठाई किससे खरीदेंगे? नोट लाइए, क्वाइन लाइए। क्वाइन—पैसे का क्या करेंगे? हम तो ऐसे ही खरीदेंगे। नहीं बेटे ! पहले रुपये लेकर आओ, तब चीज मिलेगी। सामर्थ्य की कीमत पर संपत्ति खरीदी जा सकती है, वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं। सामर्थ्य है तो वस्तुएँ आपकी अपनी हो जाती हैं। सामर्थ्य कहाँ रहती है? बेटे! कहीं नहीं रहती है। दुनिया में वह एक ही जगह रहती है और कहीं सामर्थ्य नहीं है। उस सामर्थ्य को प्राप्त करने के लिए क्या करना पड़ेगा? कैसे करना पड़ेगा? इसी विधि का नाम अध्यात्म है।
अध्यात्म की शुरुआत यहाँ से
अध्यात्म को हम दो हिस्सों में बाँट सकते हैं। बच्चों को जो अध्यात्म हम बताते हैं, वह दो चीजों से हम पढ़ाते हैं। एक का नाम है—पूजा, एक का नाम है—पाठ। बालकों की शिक्षा हम यहाँ से आरंभ करते हैं। अच्छा साहब! पूजा क्या होती है और पाठ क्या होता है? बेटे! जबान से जो कुछ भी उच्चारण किया जाता है, उसका नाम पाठ है। मसलन आप जप करते हैं तो वो पाठ हो गया। जब आप रामायण पढ़ेंगे, तब हम उसे पाठ कहेंगे। जीभ से जो कुछ भी बोला जाएगा, जीभ से जो कुछ भी उच्चारण किया जाएगा, वो सब पाठ में आ जाएगा और पूजा में क्या आएगा? पूजा में शारीरिक क्रियाएँ एक और वस्तुएँ दो आती हैं। इन दोनों को हम पूजा में शुमार करेंगे। जैसे आप आरती उतारते हैं। आरती में हाथों को चलाना पड़ता है और उसमें धूपबत्ती रखनी पड़ती है, दीपक रखना पड़ता है और घी जलाना पड़ता है, फूल चढ़ाना पड़ता है। वस्तुओं और क्रियाओं दोनों को जब मिला देते हैं तो यह क्या हो जाता है? तो यह पूजा हो जाती है।
मित्रो! पूजा और पाठ आरंभिक विद्यार्थी को हम यही सिखाते हैं। खड़िया और पट्टी ले करके बच्चों को हम यही सिखाते हैं। इससे पहले पढ़ाई आरंभ नहीं हो सकती। पूजा और पाठ दोनों आवश्यक हैं। बेटे ! मैं पूजा और पाठ का मखौल नहीं उड़ाता, कलम और पट्टी का मखौल नहीं उड़ाता। उड़ाऊँगा तभी, जब तू एम० ए० का विद्यार्थी होगा और जब खड़िया, मिट्टी का बुद्दका और पट्टी लेकर आएगा, तब मैं मखौल उड़ा सकता हूँ। आज तो मैं कैसे उड़ाऊँगा। आज तो मैं कहूँगा कि पट्टी लाइए और मैं तुझे बताऊँगा। बेटे ! पूजा और पाठ मैंने जिंदगी भर सिखाए हैं और अभी जिंदगी भर सिखाऊँगा। गुरु जी! उस दिन तो आप पूजा-पाठ का मखौल उड़ाते थे। बेटे! मखौल उड़ाता था तब, जब मैंने यह समझ लिया था कि तू एम० एस-सी० का विद्यार्थी है। तब मैंने तुझसे यह कहा था कि बेटे ! फाउन्टेन पेन और कॉपी ले करके आना। अब तू जवान है, इसलिए जवान के ढंग से यह कहता हूँ कि तुझे कॉपी की जरूरत है, पेन की जरूरत है। अब तुझे पट्टी की जरूरत नहीं है। तब तू बच्चा था, इसलिए बच्चे के ढंग से पढ़ाया था। अब अगर तू पट्टी और खड़िया ले करके आएगा तो मखौल उड़ा सकता हूँ।
पूजा-पाठ प्रारंभिक कक्षाएँ
साथियो! पूजा-पाठ प्रारंभिक है और आवश्यक है। वह जिंदा रहना चाहिए और जिंदा रखना है। पूजा और पाठ की प्रक्रिया को मैं दुनिया से नष्ट नहीं होने दे सकता। क्यों? क्योंकि यह सारा संसार अभी बालकों से ही भरा पड़ा है। शुरुआत हमको वहीं से करनी पड़ेगी। आगे चलना तो वहीं से पड़ेगा। तीन पहियों की गाड़ियों का विरोधी नहीं हो सकता मैं। तीन पहियों की गाड़ी जिस पर बच्चों को खड़े होना सिखाते हैं और जिस पर बच्चे ठुमक-ठुमककर चलते हैं, उसका मैं हिमायती हूँ। मैं कहता हूँ कि तीन पहिए की गाड़ी दुनिया में रहनी चाहिए। नहीं साहब! उस दिन तो आप मोटर की बात कर रहे थे, साइकिल खरीदने के लिए कह रहे थे। हाँ, बेटे! साइकिल खरीदने के लिए भी कहता हूँ, पर मैं तीन पहियों की गाड़ी का भी हिमायती हूँ। मैं चाहता हूँ कि तीन पहिए की गाड़ी बच्चों के लिए कायम की जाए। पूजा और पाठ का मैं हिमायती हूँ। पूजा और पाठ के बारे में जब कभी भी आप मेरे मुँह से सुनते हैं, तब मैं कड़वे शब्द उस समय इस्तेमाल करता हूँ; जबकि आप कॉपी और पेन से इनकार करते हैं। जब आप मुझसे इस बात के लिए बहस करते हैं कि आपने पट्टी और बुद्दका की बात कही थी और अब कॉपी की बात क्यों करते हैं। फिर मैं आपकी पट्टी को गाली दूँगा और आपके बुद्दके को फेंक दूँगा और अपने कॉलेज के नौकर को कहूँगा कि इसकी पट्टी को उठा ले जा और बुद्दका-खड़िया को बाहर फेंक दे। बी० ए० का विद्यार्थी हो गया, इसको शरम नहीं आती। क्यों? क्योंकि आप बड़े हो गए हैं।
समझदारी आने पर अगला पाठ
मित्रो! जब आप जानकार हो जाएँगे, समझदार हो जाएँगे, जब आप समझदारी में प्रवेश करना शुरू करेंगे, तब मैं आपको वास्तविकता समझाऊँगा। तब मैं आपसे यह कहूँगा कि आपको क्रियायोग के साथ-साथ भावयोग का समन्वय करना चाहिए। पूजा और पाठ का विकसित स्वरूप योग और तप हैं। पूजा-पाठ के साथ-साथ आपको इन दोनों का भी समन्वय करना चाहिए। योग किसे कहते हैं। योग को क्रिया के रूप में जब आप मुझसे पूछताछ करना शुरू करेंगे, तब मैं उन बातों को बताना शुरू करूँगा। कौन-सी बात? वही नेति, धौति, वस्ति, वज्रोली, कपालभाति आदि ये सारी बातें आपको बता सकता हूँ। कब? जब आप मुझसे क्रिया के रूप में पूछेगे तब, लेकिन अगर आप मुझसे यह पूछेगे कि आप इसकी फिलॉसफी बताइए, इसके कारण बताइए, इसकी वजह बताइए, तब मैं फिर दूसरे तरीके से आपको समझाना शुरू करूँगा। फिर मैं योग की व्याख्या क्रिया-कृत्यों के रूप में नहीं कर सकता, फिर मैं आपको न्यौली की शिक्षा नहीं दे सकता। फिर मैं आपको सर्वांगासन की शिक्षा नहीं दे सकता। शीर्षासन की शिक्षा दे करके यह नहीं कह सकता कि आपने यह विधि सीखी कि नहीं सीखी। अपने योगतंत्र की विधि सीखी, यह नहीं कहूँगा।
भाव-भूमिका में प्रवेश, परमात्मा से योग
मित्रो! फिर मैं यह कहूँगा कि भाव-भूमिका में प्रवेश करने के पश्चात जब योग की व्याख्या की जाती है तो उसका मतलब होता है—जोड़ देना। योग मीन्स—जोड़ देना। किसके साथ जोड़ देना—भगवान के साथ जोड़ देना। भगवान के साथ जब हम अपने आप को जोड़ देते हैं, तब उसका नाम 'योग' होता है। आपको जो हम उपासना सिखाते हैं, उसका भी मतलब वही होता है। उपासना का अर्थ क्या होता है? शब्दकोशों में 'उप' कहते हैं, पास को और 'आसन' माने बैठने को कहते हैं। पास-पास बैठ जाने का अर्थ उपासना होता है, जो प्रार्थी से एक कदम आगे है। भगवान के पास बैठ जाना, यह शुरुआत है और दोनों का समन्वित हो जाना, दोनों का मिल जाना, दोनों का जुड़ जाना, दोनों का एकाकार हो जाना—योग है। योग का अर्थ, भावनात्मक अर्थ, फिलॉसफी के साथ अर्थ होता है मिल जाना। कैसे मिल जाना? क्या भगवान के साथ मनुष्य को मिलाया जा सकता है? हाँ, बेटे! मिलाया जा सकता है। भगवान के साथ हम उसी तरीके से मिल सकते हैं, जैसे दो चीजें मिल करके एक हो जाती हैं। उसी तरीके से हम और भगवान एक हो सकते हैं। अर्थात—या तो भगवान हमारे जैसा होगा, या फिर हम भगवान जैसे हो जाएँगे। दो में से एक बात हो जाएगी और हम योगी हो जाएँगे, मिल जाएँगे। तब या तो भगवान इतना घटिया हो जाएगा जैसे कि हम हैं या फिर हम भगवान जैसे बड़े हो जाएँगे। मिल जाएँगे, फिर दो नहीं रह सकते। एक हो जाएँगे।
(क्रमश:)
अध्यात्म का मर्म समझने हेतु बालिग बनिए - ३
विगत दो कड़ियों (जुलाई-अगस्त, २००६) में पाठकों ने पढ़ा कि पूजा-पाठ का मूल आधार क्या होना चाहिए। कुसंस्कारों का निकलना ही वरिष्ठता को प्राप्त होना है। इसी क्रम में शृंगी ऋषि की पूरी कथा पूज्यवर ने हमें सुनाई, फिर कहा कि कर्मकांडों के पीछे ब्रह्मतेज काम करता है तो भगवान मजबूर होता है। अध्यात्म सस्ता नहीं है। भगवान भक्ति का स्रोत है और वह हमें संपदाएँ सामर्थ्य की कीमत पर, पात्रता के संवर्द्धन पर ही देता है। हम समझदारी विकसित करें तो ही यह मर्म समझ पाएँगे। अब आगे तीसरी कड़ी—
नाला मिला गंगा में
मित्रो ! योगी बनने की आध्यात्मिक प्रक्रिया यही है कि जैसे नाला गंगाजी में शामिल हो जाता है तो नाला खतम हो जाता है। गंगा बाकी रहती है। नाला अपनी सारी की सारी क्षमता, अशुद्धता, स्वरूप, इच्छा, नाम, रूप सब कुछ खतम कर देता है और गंगाजी में शामिल हो जाता है। परिणाम क्या होता है? गुरु जी उसको तो बड़ा नुकसान हो गया। हाँ बेटे! बड़ा नुकसान हो गया, नाला बेचारा मारा गया। बेचारा किसी काम का नहीं रहा। नाले का नाम भी इस दुनिया से चला गया, खतम हो गया। नहीं बेटे ! नाला खतम नहीं हुआ, वह जिंदा है, केवल परिष्कृत हो गया। परिष्कृत होकर के अब उसका नाम गंगा है। कल तक लोग उससे घृणा करते थे, नफरत करते थे, क्योंकि उसका पानी गंदा था। अब जबकि नाला गंगाजी में शामिल हो गया और गंगाजी में शामिल होने के बाद में उसका पानी भी गंगाजल हो गया तो लोग उसमें स्नान करते हैं, आचमन करते हैं। किसका?"जन्म शतभ्यं पीत्वा......।" इसी गंदे नाले के पानी में से लोग नहा रहे हैं, पानी भरकर ले जा रहे हैं। शंकर जी पर चढ़ा रहे हैं। तू भी उसमें से लोटे में भरकर ले जाना और देखना कि यह पानी खराब हो जाएगा क्या? खराब नहीं हो सकता। अब यह सड़ेगा नहीं। क्यों? क्योंकि अब यह गंगाजी में शामिल हो गया।
सामीप्य का चमत्कार
मित्रो! जब हम अपने व्यक्तित्व को, अपनी हस्ती को भगवान में शामिल कर देते हैं, तब हम योगी हो जाते हैं। तब मिलने का नाम योगी है, जैसे नदी और नाला मिल जाते हैं। बूँद और समुद्र मिल जाते हैं। बस, हम उसी तरीके से एक हो जाते हैं। चंद्रमा सूरज के नजदीक होता है और उसकी किरणों से प्रभावित होकर चमकने लगता है। चंद्रमा में चमक है? चंद्रमा में कोई चमक नहीं है। वह मिट्टी का लोंदा है। जैसे हमारी जमीन मिट्टी की बनी है, वैसे ही चंद्रमा मिट्टी का बना हुआ है और सूरज का प्रकाश ग्रहण करने के पश्चात वह चमकने लगता है। जीवंत हो उठता है। पारस के नजदीक जाकर के लोहा सोना हो जाता है। जब हम भगवान के नजदीक चले जाते हैं, उनमें घुल जाते हैं, पास बैठ जाते हैं, मिल जाते हैं तो हम नाले के तरीके से सम्मिलित होने के बाद में गंगा बन जाते हैं। पास जाने की बात चली तो मैं मान सकता हूँ कि लोहा पारस के पास जाता है। धुलता तो नहीं है, लेकिन पास जाने के बाद में कम से कम लोहे वाली शक्ल खतम हो जाती है और सोने वाली शक्ल शुरू हो जाती है। बच्चे के हाथ में डोरी के साथ लगी हुई पतंग हवा के साथ शामिल होने के बाद आसमान में उड़ती हुई कितनी ऊँची चली जाती है। धूल के कण और धूल के जर्रे हवा के साथ शामिल होने के बाद कहाँ तक चले जाते हैं? आसमान तक चले जाते हैं। राजा के मुकुट तक चले जाते हैं और मीनार तक चले जाते हैं। यही धूल के कण पहले चल नहीं सकते थे, ठोकरें खाते थे।
लिपट जाएँ भगवान से
साथियो! हम भगवान के साथ शामिल होने के पश्चात पतंग के तरीके से ऊँचे चले जा सकते हैं। धूल के कणों के तरीके से हवा के साथ शामिल होने के पश्चात कितने ऊँचे उठते हुए चले जा सकते हैं। हम बेल की तरह से पेड़ के साथ लिपटने की वजह से, जितना ऊँचा पेड़ है, उतने ऊँचे हम चले जा सकते हैं। बेल जमीन पर फैल सकती है, ऊँची नहीं उठ सकती। बेल को ऊँचा उठना हो तो क्या करना पड़ेगा? तब उसे किसी पेड़ का सहारा लेना पड़ेगा, तभी वह पेड़ के साथ-साथ उतने ऊँचाई तक जा सकती है, जितना ऊँचा पेड़ है। भगवान पेड़ का नाम है, जिसके साथ यदि हम लिपटने की कोशिश करें तो हम उतने ही बड़े बन सकते हैं, जितना कि स्वयं भगवान। लेकिन मित्रो ! क्या होता रहता है कि हम भगवान को प्राप्त करने के तरीके नहीं जान पाते। हमारी तरकीब और हमारा दृष्टिकोण तथा हमारी इच्छा बड़ी फूहड़ और कमजोर है। क्या इच्छा है? हम भगवान को थोड़ा-सा प्रसाद चढ़ाना चाहते हैं, धूपबत्ती चढ़ाना चाहते हैं, नाम लेना चाहते हैं और क्या करना चाहते हैं? बस, यही करना चाहते हैं, नाम लेना चाहते हैं। हमारे पंडित जी ने बताया था कि नाम लिया करो और क्या करेंगे? हाथ से फेरा-फेरी करेंगे, चावल रखेंगे, रोली रखेंगे, दक्षिणा रखेंगे, प्राणायाम करेंगे, न्यास करेंगे, माला पहनाएँगे।
अपनी मरजी से चलाएँगे भगवान को?
ठीक है, आप यह सब करेंगे, लेकिन इन सबके बदले में आप चाहते क्या हैं? यही चाहते हैं न कि इन सबके बदले भगवान हमारी मरजी के मुताबिक चलना शुरू करें। आपकी मरजी के मुताबिक? हाँ साहब! हमारी मरजी के मुताबिक भगवान को चलना चाहिए। आप यह क्या कह रहे हैं? जरा आप सोचिए तो सही, आखिर आप कहना क्या चाहते हैं। अगर आप ऐसा ख्याल रखते हैं कि आप भगवान को नसीहत देने की स्थिति में हैं और भगवान के ऊपर हुकूमत चलाने की स्थिति में हैं, आप भगवान को गलतियाँ बताने की स्थिति में हैं तो आप अपने बारे में गलत ख्याल लगाकर बैठे हैं और आप झूठी हिमाकत करने पर उतारू हो गए हैं। हाँ गुरु जी! हमारे पैर दबा दीजिए। बेटे ! हम तो तेरे गुरु हैं, हम कैसे दबाएँगे? अच्छा तो आप ऐसा कीजिए कि हमारी धोती धोकर लाइए। बेटे ! हम तेरे गुरु हैं हमारी धोती तू धोकर ला। वाह गुरु जी ! हमने तो इसीलिए आपको गुरु बनाया था कि आप हमारी धोती धोइए। बेटे ! ये तो तू गलती करता है। तू हमारे साथ गुस्ताखी से पेश आता है। अच्छा तो आप ऐसा कीजिए, हमारी तैल मालिश कर दीजिए। धत तेरे की, तू बड़ा पागल आदमी मालूम पड़ता है। तुझे यह नहीं मालूम कि हम तेरे गुरु हैं और तू हमारा चेला है। हाँ गुरु जी ! चेला हूँ, इसीलिए तो चलाता हूँ। नहीं बेटे! चेला कभी नहीं चला सकता।
कर्म व्यवस्था से खिलवाड़?
मित्रो ! गुरु वह होता है, जो सिखाता है और शिष्य उसे कहते हैं, जो सीखता है। भगवान उसे कहते हैं, जो हुक्म चलाता है, जो निर्देश देता है और भक्त उसे कहते हैं, जो भगवान के आदेशों को, आदर्शों को स्वीकार करने के लिए अपना कदम आगे बढ़ाता है और तू क्या करता है? महाराज जी! हम तो मनोकामना पूरी करा लेना चाहते थे। मनोकामना पूरी कराने की मंशा लेकर के तू गलती करता है। एक गलती यह करना चाहता है कि स्वयं के ऊपर, संसार के ऊपर, मनुष्यों के ऊपर जो कर्म व्यवस्था लागू की गई है, उस कर्म व्यवस्था को तू मटियामेट करने को उतारू हो गया है। सारी की सारी सृष्टि जो चल रही है यह कर्म व्यवस्था से चल रही है। समूचा संसार कर्म व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। कर्म के आधार पर हम अच्छे फल प्राप्त करते हैं, बुरे फल प्राप्त करते हैं। कर्म के आधार पर हम पुरुषार्थ करते हैं। कर्म के आधार पर हम उन्नति करते हैं। कर्म दुनिया के लिए एक व्यवस्था है। तू क्या चाहता है? साहब! कर्म के द्वारा जो अच्छे फल मिलने चाहिए, वह हम कर्म की अपेक्षा पूजा और पाठ के उपरांत पाना चाहते हैं। बेटे! पूजा और पाठ करके कर्म का फल प्राप्त करना चाहेगा, तब तो दुनिया में कोई भी आदमी कर्म करना नहीं चाहेगा। हर आदमी पूजा-पाठ करना चाहेगा। लक्ष्मी को पाने के लिए हर आदमी लक्ष्मी स्तोत्र का पाठ करना चाहेगा। तब कोई भी आदमी दुकानदारी नहीं करेगा, व्यापार नहीं करेगा, खेती-बाड़ी नहीं करेगा।
मनोकामना का खेल
अगर आप कर्म के फल को नहीं समझना चाहते तो कामना की बात कहकर के क्या करने चले हैं? इसकी प्रतिक्रिया क्या हो सकती है और क्या परिणाम हो सकते हैं, आप जानते नहीं? जिस आदमी को जो दंड मिलना चाहिए, जो सजा मिलनी चाहिए, आपका क्या यह ख्याल है कि थोड़ा-बहुत पूजा-पाठ करने से दंडों को कम किया जा सकता है? आप दुनिया में एक ऐसी नई व्यवस्था कायम कराना चाहते हैं कि किसी आदमी को गलत काम करने की सजा नहीं मिलनी चाहिए। अच्छी उन्नति करने के लिए किसी को कोई परिश्रम नहीं करना चाहिए और सारे के सारे काम पूजा-पाठ से पूरे होने चाहिए। क्या आप यही कहने चले थे? या यही करने चले थे? इसका परिणाम क्या होगा? कभी सोचा है कि यह दुनिया कैसे जिएगी? दुनिया के कायदे कैसे रहेंगे, दुनिया के नियम कैसे चलेंगे? दुनिया की व्यवस्था कैसे कायम रह पाएगी? बता बेटे! तू क्या कह रहा था? नहीं साहब! मैं तो मनोकामना की बात कह रहा था। बेटे! मनोकामना की बात तो ठीक है, पर इसका होगा क्या? भगवान अपनी सारी की सारी सृष्टि को एक कायदे के आधार पर, कानून के आधार पर, नियम के आधार पर चला रहा है। उस भगवान का क्या होगा, जो सूरज को कायदे पर चला रहा है, चंद्रमा को कायदे पर चला रहा है। गेहूँ में से गेहूँ पैदा कर रहा है, मक्के में से मक्का पैदा कर रहा है। गाय के पेट में से गाय का बच्चा पैदा हो रहा है। बकरी के पेट में से बकरी का बच्चा पैदा हो रहा है। कायदे के ऊपर सारी की सारी सृष्टि का नियम चल रहा है।
यह कैसा पागलपन?
आप क्या कह रहे थे भगवान से? भगवान से मैं यह कह रहा था कि हमारे कर्मों के फल को आप हटाइए और हमारे पूजा-पाठ के आधार पर नई व्यवस्था कायम कीजिए। अच्छा बेटे! भगवान की सृष्टि का जो क्रम है उस व्यवस्था को आप गलत करना चाहते थे? हाँ साहब! यही चाहता था कि कम से कम हमारे लिए भगवान अपने कायदे-कानून, नियम-व्यवस्था सब बिगाड़ दे। क्यों? आपके लिए ही क्यों बिगाड़ दे? क्या आप कहीं सोने के बने हुए हैं? बिगाड़ेगा तो सबके लिए बिगाड़ेगा, लेकिन अगर अपने नियम-व्यवस्था बिगाड़ेगा तो मैं आपसे यह पूछता हूँ कि दुनिया जिंदा रहेगी या मरेगी? नहीं महाराज जी! हमारी मनोकामना पूरी करा दीजिए। बेटे ! तू पागल है। मित्रो! भक्त के लिए मनोकामना जैसा कोई प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। भक्ति के द्वार में यदि आप प्रवेश करना चाहें और भक्ति को कभी आप जानना चाहें, तब आपको नए तरीके से विचार करना होगा। सोचने के वर्तमान तरीके सारे के सारे आपको बदल देने पड़ेंगे, फिर आपको नए सिरे से भक्ति का शुभारंभ करना होगा। भक्ति के सिद्धांत नए सिरे से कायम करने पड़ेंगे, फिर आपको इस तरीके से भक्ति के सिद्धांत प्रतिपादित करने पड़ेंगे कि हमारा 'बॉस' जो हुक्म चलाएगा, वह हम मानेंगे। आप अपने 'बॉस' से पूछिए कि आप हुक्म दीजिए, हम आपकी मरजी के मुताबिक चलेंगे।
मिलिट्री बनाम अध्यात्म
मित्रो! फौज का कप्तान हुक्म देता है और सिपाही कहना मानता है। मिलिट्री का सारा डिसिप्लिन—अनुशासन इस बात पर टिका हुआ है कि कप्तान हुक्म दे और सिपाही उसके अनुसार चले। नहीं साहब! सिपाही हुक्म दे और कप्तान चले तब? तब बेटे! मिलिट्री का सर्वनाश हो जाएगा, सत्यानाश हो जाएगा। सारे के सारे सिपाहियों में से कोई क्या कहेगा, कोई क्या कहेगा, कप्तान का कहना नहीं मानेगा। इससे कप्तान का दिमाग खराब हो जाएगा, वह पागलखाने चला जाएगा। मिलिट्री का सारा आधार इस बात पर टिका हुआ है कि कप्तान को हुक्म देना चाहिए और सबको मानना चाहिए। यही शिक्षण आध्यात्मिकता का भी है। इसका शिक्षण है कि कठपुतली के तरीके से हमको अपने आप को भगवान के सपुर्द करना चाहिए और भगवान से यह कहना चाहिए कि आप हुक्म चलाइए और हम आपकी मरजी के मुताबिक उसे कर दिखाएँगे। स्त्री और पुरुष का अर्थात पति-पत्नी का उदाहरण यहाँ ऐसा फिट-सही बैठ जाता है। कैसे? स्त्री और पुरुष दोनों की शादी हो जाती है। स्त्री अपनी हया और शरम, इज्जत और आबरू, मन की इच्छा, रहन-सहन का तरीका अपने मर्द के कहने के अनुसार बदल देती है और मर्द अपने पास जो संपत्ति है, दौलत-जायदाद है, अपना वंश, गोत्र सब कुछ स्त्री के सुपुर्द कर देता है। एक के सुपुर्द करने से दूसरा अपने आप को सुपुर्द कर देता है। भगवान से अगर आप यह चाहते हो कि वह अपनी संपदाएँ आपके सुपुर्द कर दे, आपको अपनी विभूतियाँ सुपुर्द कर दे, अपने क्रिया कलाप सुपुर्द कर दे तो उसकी कीमत कम से कम इतनी चुकानी चाहिए कि हम उससे ये कहें कि हम आपकी मरजी के मुताबिक चलेंगे। इसी का नाम समर्पण है।
समर्पण और सोऽहम्
समर्पण किसे कहते हैं? योग किसको कहते हैं? समर्पण को कहते हैं। उस योग को सिखाने के लिए हमने स्वर्ण जयंती साधना वर्ष में 'सोऽहम्' की उपासना के ऊपर बहुत ध्यान दिया। गायत्री का जप करने से पहले आप में से हर एक आदमी को यह कहा है कि आप 'सोऽहम्' की उपासना किया कीजिए। गुरु जी! 'सोऽहम्' क्या होता है? बेटे ! 'सोऽहम्' उसे कहते हैं कि जब हमारी श्वास भीतर जाए तो हमको यह ध्यान करना चाहिए कि हमारे भीतर जो हवा जाती है, उसके भीतर एक बहुत बारीक आवाज होती है—सोऽऽऽ। और जब श्वास बाहर निकला करे, तब भी ये ख्याल करना चाहिए कि हमारे भीतर से एक आवाज आती है—'हम'। सोऽऽऽ भीतर की ओर जाने वाली आवाज और 'हम' बाहर निकलने वाली। महाराज जी! इसे तो हम करते भी हैं और अच्छा भी लगता है। कभी तो यह आवाज सुनाई पड़ती है और कभी नहीं सुनाई पड़ती। बेटे ! सुनाई पड़ती है तो कोई हर्ज नहीं है और नहीं सुनाई पड़ती है तो भी कोई हर्ज नहीं है। इसकी वास्तविकता को समझें कि यह है क्या? 'सोऽ' माने—भगवान और 'हम' माने—मैं। हम और भगवान दोनों एक होते हैं। भगवान हमारे भीतर प्रवेश करता है, नाक में से श्वास के साथ-साथ और 'हम' माने 'मैं' या अपनापन, मैं पन श्वास के साथ हम बाहर निकाल देते हैं। अर्थात अब मैं की सत्ता खतम, अहं की सत्ता खतम और भगवान का स्वामित्व हमारे जीवन के ऊपर स्थापित। अब भगवान ही हमारा स्वामी है। हम भगवान के गुण गाते हैं। आज से अपनी सारी की सारी चीजें भगवान की हुईं।
सोऽहम् का शिक्षण
मित्रो! 'सोऽहम्' की उपासना में हम यह सिखाते हैं कि श्वास के साथ जो प्राण भीतर जाता है, वह भीतर जाकर के रोम-रोम में समाविष्ट हो जाता है। श्वास जो भीतर जाती है, उसी हवा की वजह से हमारे हाथ-पैर काम करते हैं, उसी हवा की वजह से हमारा दिमाग काम करता है। श्वास बंद हो जाए तो न हमारे हाथ काम करेंगे, न दिमाग काम करेगा और न अंत:करण काम करेगा। जैसे मैं पहले ध्यान के माध्यम से प्रकाश के तीनों ही क्षेत्रों में प्रवेश करने की बात कह रहा था, आज मैं आपसे यह कह रहा हूँ कि 'सोऽहम्' के माध्यम से हम अपनी सारी चीजें भगवान को सौंपते हैं। तीन चीजें हमारे पास हैं, एक चौथी चीज भी है। वह बाहर रहती है, पर बड़ी घटिया चीज है। वह भी हमारे साथ शामिल हो गई है। असल में हमारी दौलत और हमारा व्यक्तित्व तीन हिस्सों में बँटा हुआ है। एक है—हमारा कर्म, जिससे हम धन कमाते हैं और न जाने क्या-क्या कमाते हैं। यह हमारे शरीर से ताल्लुक रखता है। एक हमारा ज्ञान है, जो हमारे मस्तिष्क से ताल्लुक रखता है और एक हमारा अंत:करण है। एक हमारी भावना है, जो हमको वाल्मीकि ऋषि बना देती है। क्रौंच पक्षी को घायल देख करके जब वाल्मीकि की आँखों में आँसू आ गए, तब उनके अंत:करण में अच्छी भाव किरणों का उदय हुआ और तब उसमें से ज्ञानगंगा प्रवाहित हो उठी और उनके मुँह से वाल्मीकि रामायण निकल पड़ी।
भावना में है, प्रबल शक्ति
मित्रो! यह हमारी भावनाओं की शक्ति है, जो मिट्टी में से भगवान पैदा कर देती है, जो मिट्टी में से द्रोणाचार्य पैदा कर देती है, जो मिट्टी के टुकड़े में से गिरधर गोपाल पैदा कर देती है। यह हमारी भावना की शक्ति है, जो पत्थर के टुकड़े में से काली पैदा कर देती है और गोबर में से गणेश पैदा कर देती है और मनुष्यों में से भगवान पैदा कर देती है और मामूली से आदमी को गुरु बना देती है। यह सारी की सारी शक्ति बेटे! भावना की शक्ति है। भावना के बारे में मैं कैसे व्याख्या करूँ, इसे आपको समझाना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि भावना के क्षेत्र को आपने कभी छुआ तक नहीं। भावना में कितनी सामर्थ्य होती है, यह आपने कभी जाना तक नहीं। भावना का जादू. भावना का चमत्कार यही है। अध्यात्म वास्तव में भावना का चमत्कार है, जिससे आप रहित हैं। कामनाओं में डूबे हुए आदमी, वासनाओं में डूबे हुए आदमी भावना के बारे में कल्पना तक नहीं कर सकते। आपको मैं कैसे बताऊँ, कैसे समझाऊँ, किन शब्दों में समझाऊँ, ताकि आप भावना का महत्त्व, श्रद्धा का महत्त्व समझकर संवेदना का महत्त्व समझ पाएँ कि यह कितनी बड़ी चीज है। इसमें से जर्रे-जर्रे में हमको भगवान दिखाई पड़ सकता है और वस्तुओं में से भगवान हमारे सामने आ सकता है—श्रद्धा के माध्यम से। मित्रो ! तीन शक्तियाँ हमारे पास हैं और 'सोऽहम्' की उपासना के माध्यम से हम उन तीनों शक्तियों को तीव्र करते हैं, प्रखर करते हैं। इसके द्वारा हम अपनी तीनों चीजों को भगवान के सपुर्द करते हैं। हम अपने शरीर को भगवान के सपुर्द कर देते हैं और यह कहते हैं कि आप हुक्म कीजिए। हमारे क्रिया-कलाप और हमारे कार्य आपकी मरजी के मुताबिक हों।
अपनी मरजी भगवान पर मत थोपिए
मित्रो ! भगवान से आप यह मत कहिए कि आप हमारी मरजी के मुताबिक अपना कर्म करें। यह गुस्ताखी आप मत कीजिए। ऐसा कहने से पहले आप अपनी जबान बंद कीजिए और यह सोचिए कि आप कहने क्या जा रहे हैं? अरे, आप यह कहिए कि हे भगवान! हम आपकी मरजी के मुताबिक काम करेंगे। कठपुतली के धागे बाजीगर के हाथ में बँधने चाहिए और कठपुतली को यह जुर्रत दिखानी चाहिए कि हम आपके इशारों पर नाचना शुरू करेंगे। कठपुतली को यह नहीं कहना चाहिए कि आप हमारी मरजी के मुताबिक काम कीजिए। आपकी मनोकामना की कोई कीमत नहीं होती। अगर कोई कीमत हो सकती है तो केवल भगवान की मनोकामना की हो सकती है। जब आप अपनी मनोकामनाएँ भगवान के ऊपर लादने के लिए उतारू हो जाते हैं, तब फिर आप उस पुरानी वाली घटना, जो बड़ी नासमझी की मालूम पड़ती है, उसी घटना की आप नकल बनाते हैं। कौन सी घटना की? उस घटना की जिसमें कि नारद जी विष्णु भगवान के पास एक दिन गए और यह कहने लगे कि हमारी मनोकामना पूरी कर दीजिए। भगवान को बड़ा आश्चर्य हुआ। भक्ति और मनोकामना भक्त की जिंदगी में एक साथ कैसे हो सकती हैं? भक्त के भीतर मनोकामना बैठ गई तो फिर भक्ति कैसे आ जाएगी? भक्ति आएगी तो मनोकामना नहीं रहेगी और मनोकामना आ जाएगी तो भक्ति नहीं रह सकती।
नारद मोह
नारद जी मनोकामना की बात लेकर के गए थे। भगवान को बड़ा अचंभा हुआ। आज मैं क्या देख रहा हूँ और क्या सुन रहा हूँ? नारद के मुँह से क्या निकल रहा है, लेकिन हमारे आपके तरीके से नारद जी अपने स्वार्थ में इस कदर हावी थे कि अपनी ही बात कहते चले गए। उन्होंने भगवान जी के ऊपर हुक्म चलाया और निर्देश दिया कि हमारा कहना मानिए, हमारा हुक्म मानिए। क्या हुक्म है आपका? हमारा विवाह करा दीजिए। अरे नारद! तू बूढा हो गया है, मरने के दिन आ गए। अब तू विवाह करके क्या करेगा? नहीं साहब! हम तो विवाह करना चाहते हैं और न केवल विवाह करना चाहते हैं, वरन मालदार भी बनना चाहते हैं। आज हर मनुष्य के सामने दो ही कामना हैं, तीसरी कोई नहीं है। आदमी अमीर बनना चाहता है और अय्याशी करना चाहता है। अय्याशी और अमीरी के अलावा और कोई ख्वाहिशें नहीं हैं। नारद जी ने भी दोनों ही ख्वाहिशें भगवान के सामने रख दी। हम और आप भी घुमा-फिराकर वही दो बातें रखते हैं, तीसरी कोई बात है ही नहीं तो आप रखेंगे कहाँ से? नारद जी ने कहा कि वहाँ स्वयंवर होने वाला है और उस लड़की से हम विवाह करने वाले हैं। हमको दहेज का पैसा भी चाहिए और लड़की भी चाहिए। वासना भी चाहिए और तृष्णा भी चाहिए।
भगवान भक्त की कामना का अंत करते हैं
भगवान जी सोचते रहे कि भाई! यह क्या हो रहा है? उन्होंने विचार किया कि मेरा भक्त पाप के इस पंक में डूबेगा तो हजार जन्म में भी मुझ तक नहीं पहुँच सकेगा। इसलिए इसकी कामनाओं को खतम करना पड़ेगा। कामनाओं को पूरा करने से ये कैसे पूरी हो सकती हैं। एक के बाद दो, दो के बाद सौ, सौ के बाद हजार होती चली जाएँगी। अत: कामनाओं को शुरुआत में ही खतम कर देना चाहिए। भगवान भक्त की कामना को खतम करते हैं। नारद जी जब स्वयंवर में गए तो एक सुंदरी माला लेकर के आई और बस, सबको माला दिखाती फिरी। नारद जी को भी दिखाई, वह भी बैठे हुए थे। एक राजकुमार को माला पहनाकर चली गई। नारद जी को बहुत बुरा लगा। वे भगवान विष्णु के पास गए और वही शिकायत करने लगे, जो आप में से हर आदमी करता हुआ पाया जाता है। आपमें से हर एक आदमी की शिकायत है कि हमारी मनोकामनाएँ पूरी नहीं की। किसने पूरी नहीं की? साहब! मंसा देवी ने पूरी नहीं की, चंडी देवी ने पूरी नहीं की, हनुमान जी ने पूरी नहीं की, साँई बाबा ने पूरी नहीं की, आचार्य जी ने पूरी नहीं की, किसी ने भी पूरी नहीं की। सब खराब हैं और सब बेकार हैं और सब ठग हैं। इनमें से कोई भी हमारी मनोकामना पूरी नहीं कर सकता। आपका यही कहना है ना? जी हाँ, यही कहना है?
हमारी शिकायत, भगवान का जवाब
मित्रो! नारद जी भी यही कहते थे। नारद जी की जब मनोकामना पूरी नहीं हुई, तब वे भगवान जी के पास गए और गालियाँ सुनाने लगे। गालियाँ सुनाने के बाद नारद जी जब शांत हो गए, तब विष्णु भगवान ने कहा कि एक बात बताओ नारद? मैंने अपने भक्तों में से किस-किस की मनोकामना पूरी की है? एक भी ऐसे आदमी का नाम बता दीजिए कि जिसकी मैंने मनोकामना पूरी की है? मैंने हर एक आदमी की मनोकामना को परिष्कृत किया है, स्वच्छ किया है, निर्मल बनाया है। मैंने किसी की मनोकामना पूरी नहीं की। अगर मैं मनोकामना पूरी करने लगूँगा तो जैसे कमीने और घटिया आदमी हैं, उससे भी ज्यादा घटिया और कमीना मुझे बनना पड़ेगा और लोगों के कहने के मुताबिक मैं ऐसा नहीं बन सकता। लोग मुझसे जो काम कराना चाहते हैं और जिस काम के लिए मेरा इस्तेमाल करना चाहते हैं, मैं उनको अपने आपका इस्तेमाल नहीं करने दूँगा। लोगों की मरजी हो तो मेरे पास आएँ और मरजी न हो तो अपने घर बैठे। नहीं साहब! लोग तो यही कहते हैं कि भगवान जी हमारा हुक्म मानेंगे और हमारी मरजी के मुताबिक चलेंगे और हमारी मनोकामना पूरी करेंगे। नहीं बेटे! ऐसा नहीं हो सकता। हाँ, यदि आप भगवान की मनोकामना पूरी करें तो शायद हो सकता है कि भगवान जी आपकी मनोकामना पूरी कर दें, लेकिन आप तो अपनी मनोकामना पूरी कराना चाहते हैं और भगवान की मनोकामना पूरी करना ही नहीं चाहते। यह कैसे हो सकता है?
(क्रमशः समापन अगले अंक में)
अध्यात्म का मर्म समझने हेतु बालिग बनिए - ४
(समापन किस्त)
हमारी पूजा-उपासना का मूल आधार क्या हो इस पर युगऋषि की अमृतवाणी को तीन अंकों से पढ़ रहे हैं। वे कहते हैं कि कर्मकांड गौण हैं, उनके पीछे जो शक्ति काम करती है वह है—आत्मबल। सबसे महत्वपूर्ण है—आत्मपरिष्कार एवं फिर गुणों का समुच्चय भगवत्सत्ता का सामीप्य। नाला-गंगा, बेल-वृक्ष, पतंग-डोर आदि के उदाहरणों से उपासना का मर्म समझाने का प्रयास किया गया था। पूज्यवर कर्म-व्यवस्था को सर्वोपरि वरीयता देते हैं एवं इसके अनुशासन को मानना अध्यात्म का पहला पाठ बताते हैं। समर्पण और भावनाओं के महत्त्व को उनने समझाया। नारद प्रकरण के माध्यम से बताया कि मनोकामनाएँ इस तरह पूरी नहीं होतीं। अब पढ़ें समापन किस्त में मर्मस्पर्शी प्रतिपादन उनकी ही अमृतवाणी के माध्यम से—
अध्यात्म महँगा है
मित्रो ! जितने भी आदमी भगवान के भक्त हुए हैं, योगी हुए हैं, उनकी भक्ति और योग क्या योगाभ्यास तक, प्राणायाम तक या उपासना तक ही सीमित रहे? नहीं, मैं आपको बताना चाहूँगा कि विवेकानंद आधा घंटा उपासना करते थे, डेढ़ घंटा ध्यान करते थे और गांधी जी आधा घंटा सामूहिक प्रार्थना करते थे, लेकिन विवेकानंद से लेकर गांधी जी तक का, सभी का सारा का मारा जीवन भगवान के क्रिया-कलापों को पूरा करने के लिए समर्पित हो गया। बाकी भी जो महामानव हुए हैं. उनके जीवन की ओर जब हम देखते हैं तो भगवान बुद्ध ने क्या उपासना की, क्या पूजा की, हमें नहीं मालूम। नहीं साहब! आप बताइए कि भगवान ने क्या पूजा की
और कौन-सा मंत्र जपा? बेटे! हमें नहीं मालूम, लेकिन हाँ, उन्होंने अपनी जिंदगी के सारे सुखों को, संसार को, जाे उनके जीवन में शामिल थे, हर सुख को अलग फेंक दिया। बच्चे को अलग फेंक दिया, बीबी को अलग फेंक दिया, राज-पाट को अलग फेंक दिया। भगवान की इच्छा पूरी करने के लिए और भगवान की दुनिया को सुंदर बनाने के लिए अपनी सारी जिंदगी खतम कर दी। यही उनका असली मंत्र था।
नहीं महागज जी ! उसे रहने दीजिए और ये बताइए कि वे कौन सी माला से जप करते थे? बेटे ! तू पागल आदमी है, केवल माला पूछता रहता है, मंत्र पूछता रहता है। असली माला नहीं पूछता, जो बड़ी महँगी पड़ती है। नहीं साहब! सस्ती माला बताइए। सस्ती माला कहीं नहीं बिकती है। अध्यात्म वाली माला महँगी है, अध्यात्म महँगा है। गांधी जी कौन-सा मंत्र जपते थे? बेटे! हमें नहीं मालूम है। हमने उन्हें 'हरे राम-हरे कृष्ण' ये कहते देखा था। 'ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।' कहते सुना था। नहीं महाराज जी! कोई तो मंत्र जपते होंगे, उसी से ऐसा चमत्कार वे दिखा सके। यह तो हमें नहीं मालूम, लेकिन इतना मालूम है कि उन्होंने अपने जीवन का एक-एक अंश और एक-एक अंग इतना परिष्कृत बनाया था कि राम और गांधी में कोई फरक नहीं रह गया था। नानक जी ने कौन-सा मंत्र जपा था? बेटे! हमको नहीं मालूम। नहीं साहब! कोई तो जपा होगा? बेटे ! तुम तो बेकार की बहस करते हो, तुझसे हम यह कह सकते हैं कि उन्होंने अपने सारे जीवन का क्रम और स्वरूप ऐसा बना लिया था, जिससे कि भगवान को मजबूर हो करके उनके समीप आना पड़ा।
जीवन-साधना महत्त्वपूर्ण, विधि या माला नहीं
महाराज जी! नरसी मेहता ने कौन-सा जप किया था? बेटे ! तू बड़ा पागल है। हरदम मंत्र-तंत्र पूछता रहता है। यह नहीं पूछता कि नरसी मेहता ने जिंदगी कैसी जी थी। सुदामा जी ने भक्ति की थी तो श्रीकृष्ण भगवान के पास कौन-सा चावल लेकर के गए थे? महाराज जी आप बता दीजिए कि कितना ले जाऊँ तो मैं भी ले जाऊँ। बेटे! तू बासमती का डेढ़ किलो चावल लेकर श्रीकृष्ण भगवान के मंदिर में चले जाना और फिर यों कहना कि साहब! मैं नहीं देता हूँ..... | जब भगवान तुम्हारी पोटली छीन लें, तब कहना कि लाइए, राज-पाट दीजिए। मित्रो! पोटली नहीं, सुदामा जी की जिंदगी को देखिए। यह नहीं कि वे कौन-सा मंत्र जपते थे, वरन यह देखिए कि शुरू से अंत तक का उनका जीवन कैसा रहा? जीवन साधना कैसी रही? मित्रो! सारी जिंदगी साधना करनी पड़ती है। साधना आधे घंटे में नहीं होती। आधे घंटे में तो केवल नशा किया जाता है, जिसका असर कुछ घंटे तक रहता है, किंतु साधना की मस्ती, भक्ति की मस्ती सारे दिन, सारी जिंदगी छाई रहती है। शराब का नशा पाँच मिनट में भी हो सकता है और पंद्रह मिनट में भी हो सकता है। इसी तरह भजन का नशा जल्दी भी हो सकता है और देर में भी हो सकता है, पर नशा होना चाहिए। अगर नशा नहीं आए तब? तब तो बैठा रह घंटे भर तक, छह घंटे तक बैठा रह, नशा तो आना चाहिए। भक्ति का नशा हमारी जिंदगी में आना चाहिए।
आए जिंदगी में भक्ति का नशा
मित्रो! भक्ति का नशा अगर हमारी जिंदगी में आएगा तो आप पाएँगे कि आपके चिंतन और आपके स्वरूप सब बदलते हुए चले जाएँगे। आप सारे के सारे भक्तों के क्रिया-कलापों को मत पूछिए, जप की विधि मत पूछिए, वरन आप उनके जीवन को देखिए। आप देखिए कि उन्होंने कौन-सी भक्ति की थी और किस ढंग से की थी। सुदामा की भक्ति को देखिए, सुग्रीव की भक्ति को देखिए कि उसने किस तरह की भक्ति की थी। अंगद की भक्ति को देखिए, हनुमान की भक्ति को देखिए। हनुमान जी का जीवन देखिए। नहीं साहब! कौन से मंत्र का जप किया था और कौन-सा अनुष्ठान किया था और कुंडलिनी कहाँ से जगाई थी? हनुमान चालीसा का पाठ कैसे किया था? बेटे! तू बड़ा पागल और जाहिल आदमी है। जाहिल और पागल मैं इसलिए कहता हूँ कि तू केवल कर्मकांडों की बावत मालूम करना चाहता है। कर्मकांडों के साथ में जीवन की जो प्रक्रियाएँ जुड़ी हुई हैं, उनको सुनना नहीं चाहता, देखना नहीं चाहता, बोलना नहीं चाहता और सोचना नहीं चाहता। नहीं साहब! आप तो हनुमान चालीसा को गालियाँ देते हैं। नहीं, बेटे ! मैं गालियाँ नहीं देता, वरन मैं तो बीसों आदमियों से यह कहता रहता हूँ कि जिनको रात में खराब सपने दिखाई पड़ते हैं, वे हनुमान चालीसा सिर के नीचे रखकर सोया करें। रात में तुझे, जो वो भूत-प्रेत दिखाई पड़ते हैं और घर के चक्कर लगाते रहते हैं, जो गायत्री माता के जप से भी नहीं डरते तो फिर तु हनुमान जी का जप किया कर। हनुमान चालीसा पढ़ता हुआ सो जाया कर, निकल जाया कर। कोई आया भूत, बस, बुला लिया हनुमान जी को।
जीवन क्रम को बदलना होगा
महाराज जी! तो फिर आप हनुमान जी की भक्ति को गाली क्यों दे रहे थे? गाली इसलिए दे रहा था कि आप तो हनुमान चालीसा का पाठ करने तक सीमित हो गए? आपने यह विचार नहीं किया या नहीं करना चाहते कि भक्त को हनुमान जी जैसा, होना चाहिए। भक्त को अपने जीवन का स्वरूप इस तरीके से बनाना चाहिए, जिस तरह से कि हनुमान जी का श्रेष्ठ जीवन, आदर्श जीवन, उत्कृष्ट जीवन, आकांक्षाओं से रहित जीवन रहा है। 'राम काज कीन्हें बिना, मोहि कहाँ विश्राम' यह हनुमान जी का आदर्श है। राम के काज में दिन और रात लगे बिना आप हनुमान जी की पूजा करना चाहते हैं। नहीं साहब! मैं तो हनुमान चालीसा का पाठ करूँगा। भाड़ करेगा हनुमान चालीसा का पाठ, अपने जीवन को सुधारना नहीं चाहता और पाठ करेगा। मित्रो! आप योगाभ्यास का मतलब समझिए। आप जहाँ कहीं भी जाइए, ध्रुव को देख लीजिए, विभीषण को देख लीजिए, हनुमान जी को देख लीजिए, अर्जुन को देख लीजिए, हर एक को देख लीजिए। आप सांसारिक गुरुभक्ति को देखना चाहें तो शिवाजी को देख लीजिए कि समर्थ गुरु रामदास का चेला कैसा हो सकता है? इन सबको आप देख लीजिए।
वास्तविक चेला कौन?
नहीं महाराज जी! मैं तो आपका चेला हूँ। आपसे इसलिए गुरुदीक्षा ली थी कि आपकी कृपा हो जाएगी। कहाँ ली थी गुरुदीक्षा? महाराज जी! जब आप वहाँ कोटा-बूँदी गए थे। हाँ, बेटे! तब ली होगी, लेकिन बेटे! गुरुदीक्षा ले तो इस तरह की ले, जैसे शिवाजी ने समर्थ गुरु रामदास से ली थी। मैं तो ऐसी ही गुरुदीक्षा देता हूँ। नहीं साहब! हम तो आपसे आर्शीवाद माँगने के लिए गुरुदीक्षा लेते हैं। चालाक कहीं का, हमसे आशीवाद पाने के लिए दीक्षा लेता है? हमारा तीन साल का तप ले जाना चाहता है और हमें चवन्नी की माला पहनाना चाहता है, धूर्त कहीं का। तू चेला नहीं, हमारा असली गुरु है। इसलिए मित्रो! चेला बनने के लिए आपको इन खेल-खिलौनों की बात नहीं करनी चाहिए। आपको शिष्य बनना हो तो मांधाता जैसा शिष्य बनना चाहिए। मांधाता किसका शिष्य बना था? शंकराचार्य का और भगवान बुद्ध का शिष्य बना था अशोक और हर्षवर्द्धन। आप ऐसे शिष्य बनिए, नहीं महाराज जी! आप तो हमारे गुरु हैं? नहीं, बेटे ! तू क्या जाने गुरु और चेला। तू बेकार में गुरु और चेला बकता फिरता है। तूने ये दो शब्द कहीं से सुन लिए हैं कि कोई गुरु होता है और कोई चेला होता है, किंतु इनका मतलब नहीं समझता है कि गुरु-चेला का अर्थ क्या है?
बेटे! गुरु और चेला का मतलब होता है—गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसा, रामकृष्ण और विवेकानंद जैसा। महाराज जी! हमें भी विवेकानंद बना दीजिए? हाँ, बेटे! वायदा करता हूँ कि मैं किसी को विवेकानंद बना दूँ, पर पहले तू चेला तो बन। नहीं, महाराज जी! आप तो वैसे ही विवेकानंद बना दीजिए और अमेरिका का टिकट दिलवा दीजिए और जहाँ कहीं भी स्पीच दूँ, वहाँ की फोटो अखबारों में छपवा दीजिए। बेटे! तू अपनी चालाकी से बाज नहीं आएगा। हाँ, महाराज जी! मैं तो व्याख्यान देकर आऊँगा और फिर नौकरी कर लूँगा। ब्याह-शादी भी अगले साल कर लूँगा और देखिए फिर मैं तीन बच्चे भी पैदा करने वाला हूँ और विवेकानंद भी बनने वाला हूँ। हाँ, बेटे! तू बड़ा होशियार है। सारी होशियारी तो तेरे हिस्से में ही आ गई है। हाँ, महाराज जी ! मुझे विवेकानंद बना दीजिए। तुझे, पागल को विवेकानंद बना दें?
पात्रता का विकास करें
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको आध्यात्मिकता के उन सिद्धांतों को जीवन में समाविष्ट करना पड़ेगा और अपनी पात्रता का विकास करना पड़ेगा। योग के लिए आपको, अपनी पात्रता और प्रामाणिकता बढ़ानी चाहिए। स्वाति नक्षत्र में पानी की बूँदें सीप में गिरती हैं और उसमें मोती बनता है। हर जगह मोती नहीं बनता। आपको मोती वाली सीप बनना चाहिए और मुँह खोलना चाहिए, ताकि स्वाति की बूँदें आपके अंदर प्रवेश करने में समर्थ हो सकें। बरसात होती है तो किसी बरतन में केवल उतनी ही मात्रा में पानी जमा होता है, जितनी कि उसके पास जगह होती है। आप अपने बरतन का आकार बढ़ाइए, ताकि भगवान की कृपा और भगवान का अनुग्रह और गुरु का आशीर्वाद आपके ऊपर छाया रहे और आप उसको हजम कर सकें तथा उसको धारण कर सकें। धारण करने की ताकत इकट्ठी कीजिए। धारण करने की ताकत नहीं है और दुनिया भर से माँगते फिरते हैं। आप उसे रखेंगे कहाँ पर? नहीं, साहब! आप तो आशीर्वाद दीजिए। बेटे ! हम आशीर्वाद तो दे भी दें, पर तू उस आशीर्वाद को रखेगा कहाँ पर? उसे रखने के लिए तेरे पास जगह भी है या नहीं? नहीं, महाराज जी! घी दे दीजिए। अच्छा, बेटे! दे देंगे, लेकिन इसे रखेगा किसमें? महाराज जी ! कुरते में ले लूँगा। ठीक है, कुरते में ले-ले घी, लेकिन इससे तेरा कुरता भी खराब हो जाएगा, धोती भी खराब हो जाएगी और घी भी फैल जाएगा। नहीं, महाराज जी! आप तो दे सकते हैं? कैसे दें, लेगा कहाँ? आशीर्वाद को लेने के लिए ताकत चाहिए। हजम करने के लिए शक्ति चाहिए, उसको धारण करने के लिए क्षमता चाहिए। आप अपने भीतर उस क्षमता को पैदा कीजिए, फिर हम दे देंगे आशीर्वाद।
इच्छा भगवान को सौंप दें
मित्रो! पात्रता का विकास यही है, जिसके आधार पर हमारी भक्ति सफल होती हुई चली जाती है। भगवान की नाव पर सवार होकर के हम अपने आप को पार कर सकते हैं। हवा के तरीके से ऊँचे उठते हुए चले जा सकते हैं, लेकिन इसके लिए हमको एक काम करना पड़ेगा। हमको अपनी इच्छाएँ भगवान को सौंपनी पड़ेंगी। आप अपनी इच्छाएँ सौंप दीजिए और भगवान की बिरादरी में शामिल हो जाइए और यह कहिए कि अब हमारी कोई इच्छा नहीं है। अब भगवान की इच्छा ही हमारी इच्छा है। आप चलाइए. हम अपने जीवन की नीति का निर्धारण उसी तरीके से करेंगे। हम अपने विचारों का और दृष्टिकोण का नवीनीकरण इस तरीके से करेंगे, जैसे भगवान की, शास्त्रों की, आदर्शों और सिद्धांतों की प्रणाली है। बेटे! हमने यही किया। हम योगी हैं। कौन सा योग करते हैं? बेटे! हम शीर्षासन करते हैं। अच्छा तो गुरु जी! आप शीर्षासन में सिर के बल चलना शुरू कर देते हैं? नहीं, बेटे! ऐसे तो नट करता है। तो फिर आप नाक में से पानी निकालते हैं? नहीं, बेटे! तो फिर आप कैसे योगी हैं? बेटे हम ऐसे योगी हैं कि हमने अपने गुरु को भगवान माना है और उनसे यह कहा है कि आप हुकुम दीजिए और हम आपके साथ-साथ चलेंगे। सारी जिंदगी भर, पचास वर्ष हो गए, पंद्रह वर्ष की उम्र से लेकर के आज सड़सठ वर्ष की उम्र तक हमारे मन में दूसरा कोई ख्याल नहीं आया। एक ही ख्याल आया कि उत्तर की तरफ मुँह करके यह पूछते हैं कि हमारे मार्गदर्शक, हमारे मास्टर हुकुम दें, ताकि हमारी बची हई हड्डियाँ, बचा हुआ मांस, बचा हुआ रक्त, बचा हुआ धर्म और हमारी क्षमताएँ आपके काम आ सकें और हम आपके हुकुम के लिए काम आ सकें। इसके अतिरिक्त हम और कुछ नहीं सोचते हैं।
कामनाओं का विसर्जन
मित्रो ! उसका परिणाम क्या हुआ? उसका परिणाम यह है कि उनकी शक्तियाँ, उनकी सामर्थ्य, उनका तप, उनकी क्षमता हमारे पास असंख्य मात्रा में उड़ती हुई चली आती है। हमने एक सेर अपना कमाया है तो निन्यानवे सेर गुरु का खाया है। हमारा संबंध उसी रिजर्व बैंक से है। हमारे बैंक में तो पैसा रहता नहीं है, लेकिन हम ड्राफ्ट काट देते हैं, दूसरों को चेक दे देते हैं। कहाँ से पैसा आ जाता है? रिजर्व बैंक से आ जाता है। हमने अपने आप को रिजर्व बैंक में 'मर्ज' कर दिया है, इसलिए रिजर्व बैंक हमार 'क्रेडिट' और 'डेबिट' दाेनाें को सँभालता है। इसलिए मित्रो ! आप हिम्मत कीजिए, अपने कलेजे को कड़ा कीजिए, बहादुर बनिए और एक चीज त्याग दीजिए, जिसको इच्छा कहते हैं, कामनाएँ कहते हैं। आप अपनी कामनाएँ भगवान के ऊपर मत थोप दीजिए। आप अपनी कामनाएँ खतम कर दीजिए और भगवान की कामनाओं को अपने रोम-रोम में बसाकर के ले जाइए। आप योग्य हो जाइए। अगर आप भगवान में मिल गए, उनकी कामनाओं में शामिल हो गए, अगर आप बूँद की तरह समुद्र में शामिल हो गए, फिर आप भक्ति का कमाल देखिए, भक्ति का चमत्कार देखिए। फिर भगवान की सामर्थ्य का, भगवान की कृपा का चमत्कार देखिए। फिर योगाभ्यास का चमत्कार देखिए। योग ऐसा ही होना चाहिए। उलटा चलने वाला, नाक में से पानी पीने वाला, पेट में से हवा निकालने वाला योग नहीं है। आप योगी बनिए, फिर उसका मजा देखिए कि उसका क्या फायदा हो सकता है।
दुःखों को सहना, तप करना
साथियो! दूसरा हिस्सा है—तप। तप किसे कहते हैं? बेटे ! तप उसे कहते हैं कि कुछ मुसीबतें तो हमारे भाग्यवश आती हैं, परिस्थितिवश आती हैं। कुछ मुसीबतें ऐसी होती हैं, जिन्हें हम सिद्धांतों की वजह से, आदर्शों की वजह से अपने आप बुलाकर स्वीकार करते हैं। इसका नाम है, तप। मुसीबतें किसके पास नहीं आतीं, बताना जरा? आपमें से किसी के पास मुसीबतें आईं? हाँ, महाराज जी! हमारे व्यापार में बहुत घाटा हो गया। आपमें से इन मुसीबतों से कोई बचा हुआ है क्या? कोई एक भी आदमी बताए मुझे। कहा गया है—"रे रे मनुष्यः वदति अतिसुखम्.........!" अर्थात—अरे मनुष्यो ! किंचित तुममें से कोई एक आदमी भी ऐसा हो, जो ये कह सकता हो कि हमने सारी जिंदगी सुख के साथ व्यतीत कर ली, आपमें से कोई हो तो हमें बताओ। एक भी नहीं है। हर एक के ऊपर मुसीबतें आती हैं, आएँगी और आनी चाहिए, क्योंकि सुख जहाँ हमें उन्नति की ओर ले जाते हैं, वहीं दुःख और मुसीबतें हमें सावधानी की ओर ले जाती हैं, सतर्क बनाती हैं, मजबूत बनाती हैं, बहादुर बनाती हैं। हमारे ज्ञान और धर्म को सही करती हैं। दुःख भी अपने आपमें जरूरी है। शक्कर भी जरूरी है, नमक और मिरच भी जरूरी है। दोनों के बिना साग नहीं बन सकता।
आदर्शों के लिए करें गरीबी स्वीकार
मित्रो ! दुःखों की अपनी उपयोगिता है तो सुखों की अपनी उपयोगिता है, लेकिन जब हम दुःखों को सिद्धांतों के लिए, आदर्शों के लिए इच्छापूर्वक स्वीकार करते हैं, जब हम उन्हें बुलाते हैं कि आप आइए, हम सिद्धांत का जीवन जीना चाहते हैं, आदर्श का जीवन जीना चाहते हैं तो हमें स्वेच्छा से गरीबी मंजूर करनी पड़ती है। गरीबी के बिना आध्यात्मिक जीवन प्रारंभ नहीं हो सकता। एक गरीबी थोपी हुई होती है और एक गरीबी इच्छानुकूल ली हुई होती है। इसका क्या मतलब होता है? इसका मतलब होता है कि हम अपने आपमें किफायतशाली बनें। कम से कम में, न्यूनतम में, जितनी भी हमारी आवश्यकताएँ पूरी की जा सकती हैं, उतने में पूरी करें। इसके बाद जो बाकी हमारे पास पैसा बच जाता है, श्रम बच जाता है, समय बच जाता है, अकल बच जाती है, उन सारी की सारी चीजों को बचत करने के पश्चात उसे भगवान के तईं लगाएँ, समाज के तईं लगाएँ, श्रेष्ठकर्मों के तईं लगाएँ। ये तप कहलाएगा। कैसे कहलाएगा? क्योंकि इसमें आपको मुसीबतें उठानी पड़ेंगी, अपने आप को तंग करना पड़ेगा। आप किफायतशार बनेंगे तो आपको तंगी आएगी कि नहीं? फिर आपको कैसे अच्छा खाना मिल सकता है, जब आपको यह मालूम पड़ेगा कि हम इस गरीब मुल्क में रहते हैं, जिसमें मनुष्यों को दोनों वक्त का भोजन नहीं मिलता। फिर आप मक्खन की डिमांड नहीं कर सकते, दूसरी चीजों की डिमांड नहीं कर सकते।
अपने लिए कम औरों के लिए ज्यादा
तप का आरंभ यहीं से होता है, जिसको हम भूखा रहने के माध्यम से शुरू कराते हैं, तप में क्या-क्या नियम पालन करने पड़ते हैं? गायत्री अनुष्ठानों में हम आपको तप के नियम पालने के लिए कहते हैं। हम कहते हैं कि आप तपस्वी बनिए और तप करने के छोटे-छोटे नियम हम आपको बताए देते हैं। जीभ पर काबू रखिए, उपवास कीजिए, भूखे रहिए, ब्रह्मचर्य से रहिए, जमीन पर सोइए, अपने शरीर की सेवा स्वयं कीजिए। ये सारे के सारे तप के नियम हम आपको बताते हैं। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब केवल इतना है कि हम मुसीबतों का स्वेच्छा से अभ्यास करें, तितिक्षा का हम स्वेच्छा से अभ्यास करें। अगर हमें गरीबी में रहना पड़े, कंगाली में रहना पड़े, किफायतशारी में रहना पड़े तो हम कम खरचे में भी काम चला सकें। तप यहीं से प्रारंभ होता है। तप का दूसरा पक्ष है—'सादा जीवन, उच्च विचार'। उच्च विचार वही आदमी कर सकता है, जो 'Simple Living' में विश्वास करता है। ब्राह्मण के लिए, साधु के लिए यही नियम बताया गया है कि उसे किफायतशार होना चाहिए, मितव्ययी होना चाहिए, अपरिग्रही होना चाहिए। इसका क्या मतलब है? इसका एक ही मतलब है कि जो कुछ भी आपके पास है, अपने लिए उसका कम से कम इस्तेमाल करें और ज्यादा से ज्यादा समाज को दें।
प्राणवान बनिए, कष्ट उठाइए
मित्रो! तप वहाँ से आरंभ होता है। जबकि हमको भिन्न-भिन्न कामों के लिए कष्ट उठाने के लिए तैयार रहना पड़ता है। आपने देखा होगा कि अच्छे काम करने वालों को गालियाँ पड़ती हैं। समाज-सुधारकों को रोज गालियाँ पड़ती हैं। स्वामी दयानंद को जहर खिला दिया गया। गांधी जी को गोली मार दी गई। श्रीकृष्ण जी को तीर मार दिया गया। वे सब जिन्होंने समाज की विकृतियों से लोहा लिया, सबको मुसीबतें उठानी पड़ी। आप स्वेच्छा से तैयार हो जाइए और कहिए कि मुसीबतो आपका स्वागत है, कठिनाइयो आपका स्वागत है। लोग आपको गाली देंगे। गालियाँ देने वालो आपका स्वागत है। बेटे! मैं तो हरदम कहता रहता हूँ कि गांधी के चेलों ने गोलियाँ खाईं थीं। आचार्य जी का जो कोई चेला बनना चाहता है, वह कम से कम गालियाँ खाकर के आए। 'बॉस' की गाली खाकर के आए, बीबी की गाली खाकर के आए। पड़ोसी की गाली खाकर के आए। जब आप श्रेष्ठ सिद्धांतों को कार्यरूप में परिणत करने के लिए खड़े हो गए हों तो जिन-जिन लोगों के स्वार्थों को आघात पहुँचता होगा, वे सब आपकी बुराई करेंगे और ढेरों गालियाँ देंगे, रात को नुकसान कर जाएँगे। 'बॉस' आपका ट्रांसफर करा देगा, करेक्टर रोल खराब कर देगा, जुरमाना करा देगा। मित्रो! आपको मुसीबतें और कठिनाइयाँ उठाने के लिए तपस्वी का जीवन जीना चाहिए। अपने अंदर क्षमताओं का विकास करना चाहिए। आपको उदार बनना चाहिए, दानी बनना चाहिए। आपको प्राणों से भरा होना चाहिए, ताकि आप मुसीबतें उठा सकें।
मैं तो कंगाल बना सकता हूँ
नहीं, महाराज जी! आप तो हमें आमदनी करा दीजिए, बीमा दिलवा दीजिए। नहीं, बेटे ! मैं ऐसा नहीं करा सकता। तू अध्यात्म मार्ग पर चलने की हिम्मत करता है तो मैं तुझे कंगाल बना सकता हूँ। देख राजा भर्तृहरि को कंगाल बनना पड़ा, राजा हरिश्चंद्र को कंगाल बनना पड़ा, ध्रुव को कंगाल बनना पड़ा। गोपीचंद्र को कंगाल बनना पड़ा, बुद्ध को कंगाल बनना पड़ा, रामचंद्र जी को कंगाल बनना पड़ा, भरत जी को कंगाल बनना पड़ा। भगवान के भक्तों में से हर एक को कंगाल बनना पड़ा। नहीं, महाराज जी! आप तो हमें अमीर बना दीजिए। नहीं, बेटे! मैं अमीर नहीं बना सकता। अमीर बनने की तेरी इच्छा है तो राम नाम लेना बंद कर, फिर मैं एक और मंत्र तुझे बता सकता हूँ। उसका नाम है, रावण। तू रावण के नाम का जप कर, क्योंकि रावण के पास एक सोने की लंका थी। बाल-बच्चे भी थे। तू रावण का पाठ किया कर और 'रावणाय नमः-रावणाय नम:' का जप किया कर। इससे शायद लक्ष्मी जी भी आ सकती हैं। पैसा भी आ सकता है। राम के नाम से नहीं आएगा। राम के नाम से तुझे तपस्वी जीवन जीना पड़ेगा। ब्रह्मचारी रहना पड़ेगा और मर्यादाओं का पालन करना पड़ेगा। नहीं, साहब! रामचंद्र जी का जप करूँगा और पैसा कमाऊँगा। बेटे ! ऐसा नहीं हो सकता।
तप से आएगी मजबूती
मित्रो! तपस्वी का जीवन जीने के लिए आपको हिम्मत और शक्ति इकट्ठी करनी चाहिए। तपाने के बाद हर चीज मजबूत हो जाती है। कच्ची मिट्टी को जब हम तपाते हैं तो तपाने के बाद मजबूत ईंट बन जाती है। कच्चा लोहा तपाने के बाद स्टेनलेस स्टील बन जाता है। पारे को जब हकीम लोग तपाते हैं तो पूर्ण चंद्रोदय बन जाता है। पानी को गरम करते हैं तो भाप बन जाता है और उससे रेल के बड़े-बड़े इन्जन चलने लगते हैं। कच्चे आम को पकाते हैं तो पका हुआ आम बन जाता है। जब हम बेल्डिंग करते हैं तो लोहे के दो टुकड़े जुड़ जाते हैं। उस पर जब हम शान धरते हैं तो वह हथियार बन जाता है। बेटे! यह सब गलने की निशानियाँ हैं। आपको अपने ऊपर शान धरनी चाहिए और भगवान के साथ बेल्डिंग करनी चाहिए। आपको अपने आप को इतना तपाना चाहिए कि आप पानी न होकर स्टीम—भाप बन जाएँ। कौन-सी वाली स्टीम? जो रेलगाड़ी को धकेलती हुई चली जाती है। यह गरमी के बिना नहीं हो सकता। गुरु जी! हम तो मुसीबतों से दूर रहेंगे। आप मुसीबतों से दूर नहीं रह सकते। तपस्वी जीवन, आध्यात्मिक जीवन मुसीबतों से दूर नहीं रखा जा सकता। गुरु जी! आप तो ऐसी कृपा कीजिए कि हमारी जिंदगी शांति से व्यतीत हो जाए। शांति से तेरा क्या मतलब है? शांति से मेरा मतलब चैन से है। नहीं, बेटे! चैन की जिंदगी नहीं हो सकती। संघर्ष करने के बाद, अशांति को नष्ट करने के बाद जब हमको शांति मिलती है, विजयश्री मिलती है, उसी का नाम 'शांति' है। संतोष का नाम शांति है। संतोष श्रेष्ठ काम करने वालों को मिलता है। सफल को भी मिल सकता है, असफल को भी मिल सकता है। गरीब को भी मिल सकता है, अमीर को भी मिल सकता है। आपको तपस्वी बनने के लिए यही करना चाहिए।
योग एवं तप बनें जीवन के अंग
मित्रो ! हमने लोगों को यज्ञ की शिक्षा दी है। हम यज्ञ की प्रक्रिया बताते हैं, यज्ञ का प्रचार बताते हैं, यज्ञ का प्रचार करते रहते हैं, गायत्री का प्रचार करते रहते हैं। ‘धियो यो नः प्रचोदयात्' की शिक्षा देकर विवेक की शिक्षा देने के लिए, दूरदर्शिता की शिक्षा देने के लिए लोगों को हम योगी बनाते हैं। इसके लिए सवेरे आपको यज्ञ कराते हैं, गायत्री मंत्र का अनुष्ठान भी कराते हैं। यज्ञ का प्रचार हम इसलिए करते हैं कि लोगों में यज्ञीयवृत्ति पैदा हो जाए। यज्ञ में हम अपनी चीजों को हवन कर देते हैं, जला देते हैं, हवा में बिखेर देते हैं। समाज की संपदा बना देते हैं। आग जिस किसी को भी अपने पास पाती है, उसे अपने समान बना लेती है। आग अपना मस्तक नीचे नहीं झुकाती। यज्ञ हमारे इस शरीर में भी चल रहा है। यज्ञ आसमान में भी चल रहा है। पानी बादलों से बरसता है। बादल जमीन में से, समुद्र में से पानी लेकर के बरसते हैं और पानी का यह चक्र चलता रहता है। शरीर में भी चक्र चल रहा है। हाथ बनाते हैं, पेट खाता है। यह चक्र बराबर चल रहा है। इस चक्र को आप कायम रखें। एकदूसरे की मदद करें, एकदूसरे की सेवा करें, एकदूसरे की सहायता करें। हमने आपको तपस्वी बनने के लिए यज्ञ का शिक्षण दिया है। यज्ञ का आंदोलन वास्तव में तपस्या का आंदोलन है, कष्ट सहने का आंदोलन है। खुशी-खुशी से कष्ट सहने के लिए, त्याग और बलिदान करने के लिए, खुशी-खुशी से सेवा करने के लिए, आपके भीतर से प्रेरणा और उमंग उत्पन्न करने के लिए हमने यह आंदोलन चलाया है। इसका अर्थ है—तप। हमने गायत्री मंत्र का विस्तार इसलिए नहीं किया है कि आप मालदार होते हुए चले जाएँ और अमीर होते हुए चले जाएँ। हमने गायत्री मंत्र का विस्तार इसलिए किया है कि आपमें विवेकशीलता और समझदारी की शक्ति का विकास हो। अर्थात—योग, अर्थात गायत्री और तप, अर्थात—यज्ञ। ये हमारे आध्यात्मिकता के दोनों पहलू हैं, जो आपके व्यक्तित्व को श्रेष्ठ बनाते हैं। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥