उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
नन्हा-सा बीज विकसित होने के बाद बन जाता है विशाल वृक्ष। बरगद का जरा-सा बीज होता है छोटा-सा, लेकिन आपने देखा होगा जब वह विकसित होता है फैलता-फूलता है; तब यह कितना बड़ा विशाल वृक्ष बन जाता है। छोटी चीजें विकसित होती चली जाती हैं। माइक्रोफिल्म एक छोटी-सी डिब्बी में होती है और कितनी बड़ी-बड़ी पुस्तकों-ग्रन्थों का सारे का सारा हवाला एक छोटी-सी फिल्म में भरा होता है। आदमी का सारा का सारा जिस्म एक छोटे-से शुक्राणु के भीतर जमा हुआ रहता है। हमारी ये वंश परम्पराओं के इतिहास एक छोटे-से जीन्स के भीतर बैठे रहते हैं; जो हमको दिखाई भी नहीं पड़ते। इतने छोटे जीन्स होते हैं, इनके अन्दर न जाने कितनी पीढ़ियाँ भरी पड़ी होती हैं। एटम छोटा-सा होता है और एटम के भीतर भी बहुत सारे हिस्से होते हैं। उसके भीतर सारे के सारे सौरमण्डल का नक्शा छिपा हुआ पड़ा रहता है। सौरमण्डल में ग्रह-नक्षत्रों के बीच में आपस के तालमेल कैसे हैं, यह छोटे-से छोटे हिस्से में आपको देखने का मन हो तो आप एक छोटे से एटम को देख सकते हैं और एटम के वर्गों का विश्लेषण करके जान सकते हैं कि ब्रह्माण्ड कैसा होना चाहिए।
भारतीय धर्म और संस्कृति को आपको देव-संस्कृति और देवधर्म कहना चाहिए। इसका अगर वास्तविक स्वरूप आपको छोटे रूप में देखना हो, विशाल रूप में देखने का हो तब तो मैं नहीं कह सकता, पर ‘‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’’ बृहत् रूप में देखने का हो तो बात अलग है, तब तो आपको विस्तार में ही जाना पड़ेगा और ज्यादा जानकारी प्राप्त करनी होगी। लेकिन अगर आपका मन ऐसा हो कि संक्षेप में ही हमको बता दीजिए, थोड़े में ही बता दीजिये तो सूत्र रूप में ही भारतीय धर्म और संस्कृति को आपको समझाया जा सकता है। उसका रहस्य और सामर्थ्य जहाँ छुपी पड़ी है, उसकी जानकारी कराई जा सकती हैं। पाणिनि का व्याकरण बड़ा विशाल है। संस्कृत का यह ग्रामर दुनिया में सबसे ज्यादा बड़ा और विस्तृत है, लेकिन ये छोटा-सा है। कितना बड़ा है? इस व्याकरण के आठवें अध्याय के प्रारंभिक सूत्र में यह बताया गया है कि शंकर भगवान् ने डमरू बजाया और डमरू बजाने के बाद चौदह सूत्र निकले, चौदह आवाजें निकलीं। बस इन्हीं चौदह आवाजों की व्याख्या करते हुए ऋषियों ने, पाणिनि ने और दूसरे शास्त्रकारों ने यह व्याकरण शास्त्र, भाषा शास्त्र, संस्कृत शास्त्र, निरुक्त और दूसरी चीजों को बना कर रख दिया है। चौदह सूत्र थे जब डमरू बजाया था तब उसमें से आवाजें निकली थीं। छोटी-सी चीज थी वह, और उसका बहुत बड़ा विस्तार हो गया।
मैं यह कह रहा था कि भारतीय संस्कृति वह संस्कृति है, जिसे देव-संस्कृति कहना चाहिए, जिसको ऋषि-संस्कृति कहना चाहिए। जिसने केवल हिन्दू समाज को नहीं, केवल हिन्दू धर्म को नहीं, इस भारत भूमि के छोटे-से जमीन के हिस्से को ही नहीं, सारे संसार को ज्ञान दिया। सारे संसार को विज्ञान दिया। सारे संसार को जानवर से भगवान बनाने तक के सारे रास्ते खोल करके साफ किए। इतनी बड़ी यह संस्कृति आखिर कहाँ से आती है? यह आती है—गायत्री मंत्र से। गायत्री मंत्र छोटा-सा बीज मंत्र है। छोटा-सा, नन्हा-सा बीज मंत्र है, इसी में से सारा का सारा विस्तार होता हुआ चला गया है। अगर आप बीज को समझ पाये तो अपने विस्तार को समझने में कोई कठिनाई आपको नहीं होनी चाहिए। गंगोत्री से गंगा जरा-सी निकलती है, गंगोत्री से नहीं गोमुख से। आप लोगों में से जो कोई भी गोमुख गए होंगे, मैं गोमुख गया हूँ और वहाँ देखा है, जहाँ से पानी का बहाव निकलता है। फायर ब्रिगेड की धार की तरह से कैसे छह फुट लम्बा और पाँच-छह फुट चौड़ा इतना बड़ा सुराख है ग्लेशियर में, वहीं से पानी की धार निकलती है। छोटी-सी धार गोमुख से निकलती है और फैलते-फैलते गंगासागर में पहुँचते-पहुँचते सहस्त्र धाराएँ बन जाती हैं। गाँव-गाँव में आप गंगा को देख सकते हैं। सब जगह देख सकते हैं। पटना में अगर आप जाएँ तो लम्बा वाला गंगा का चौड़ा वाला विस्तार देख सकते हैं। यहाँ से बिहार में सोनपुर आप जाएँ तो गंगा का विस्तार आप देख सकते हैं। शुरुआत जहाँ से हुई थी—छोटी-सी हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते न जाने कहाँ जा पहुँची? और गायत्री मंत्र से निकलने वाली भारतीय संस्कृति न जाने फैलते-फैलते कहाँ जा पहुँची है? इतना ज्यादा विस्तार हो गया है। धर्म-ग्रन्थों के रूप में, उपासनाओं के रूप में, ज्ञान और विज्ञान के रूप में।
ज्ञान का पक्ष गायत्री का कौन-सा है? यह भारत के सारे के सारे फिलॉसफी और तत्त्वज्ञान और ब्रह्म-विज्ञान से जुड़ा हुआ है। यह उसका ज्ञानपक्ष है। ज्ञानपक्ष में क्या आता है? ज्ञानपक्ष में वेद आते हैं। वेद कैसे? आपको पुराणों की कथा शायद मालूम नहीं है। पुराणों की कथा है कि ब्रह्मा जी विष्णु की नाभि से निकले कमल के फूल से पैदा हुए। ब्रह्मा जी बैठे हुए थे, विचार कर रहे थे कि अब हमें क्या करना चाहिए और हमने किसलिए जन्म लिया है? आकाश से आकाशवाणी होती है, आकाशवाणी से गायत्री मंत्र दिया जाता है, आकाशवाणी से संदेश आता है कि इस मंत्र की आपको उपासना करनी चाहिए। इससे आपको ज्ञान मिलेगा और विज्ञान मिलेगा। इसके आधार पर आपके जिम्मे जो दो काम सौंपे गए हैं, उन दोनों कामों को आप पूरा करने में समर्थ हो सकेंगे। विज्ञान वाला भाग वह है, जिसके आधार पर ब्रह्माजी ने सारी सृष्टि को बनाया। मैं यह पुराण की कथा कह रहा हूँ। सारी सृष्टि को बनाया, पदार्थ को बनाया, पंचतत्त्वों को बनाया, सत्, रज, तम को बनाया। जाने क्या से क्या बनाया? ये सृष्टि जो कुछ भी दिखाई पड़ती है, जिन वस्तुओं से बनी हुई है, विज्ञान वाला भाग है। गायत्री मंत्र की उपासना से विज्ञान पैदा हुआ। विज्ञान को बना देने के बाद में ज्ञान-विज्ञान का क्या उपयोग होना चाहिए? अगर गलत उपयोग होने लगा, तब? गलत उपयोग होने लगा तो मुसीबत आ जाएगी। आग का गलत उपयोग होने लगे तब? तब तो मुसीबत आ जाएगी। बिजली का गलत उपयोग होने लगे तब? तब तो बेटे मुसीबत आ जाएगी। अगर कहीं से कोई एक तार लीक करने लगे तो सारे के सारे टिन शेड में करेण्ट फैल जाएगा और जहाँ हम और आप बैठे हुए है, एक-दूसरे से चिपक करके सारे आदमी एक सेकण्ड के भीतर खत्म हो सकते हैं। बिजली का पंखा चला लीजिये, माइक लगा लीजिये एक सेकण्ड के अन्दर आपका सफाया कर सकती है।
विज्ञान को बना दिया, लेकिन विज्ञान की सामर्थ्य इतनी भयानक थी कि अगर उसका ठीक उपयोग न किया जा सका तो क्या से क्या हो सकता था? इसीलिए ब्रह्माजी को दूसरे चरण के रूप में आकाशवाणी फिर हुई और फिर कहा गायत्री का तप करना चाहिए। गायत्री का तप ब्रह्माजी ने किया और दूसरे पक्ष में ज्ञान बनाया। ज्ञान क्या बनाया? ज्ञान का सारे संसार में सबसे पहले विस्तार कहाँ से हुआ? उसका नाम है वेद। वेद क्या हैं? वेदों के बारे में पुराणों के जो उपाख्यान हैं—उनमें से बताया गया है कि ब्रह्माजी ने सबसे पहले गायत्री के चार चरणों का व्याख्यान अपने चार मुखों से चार वेदों के रूप में किया है। चार वेद क्या हैं? गायत्री के चार चरणों की व्याख्या। गायत्री के चार चरण कौन-से हैं? तीन चरण वे हैं, जो आठ-आठ अक्षरों के तीन टुकड़ों में बँटे हुए हैं और एक हिस्सा वह है, जिसको हम कहते हैं शीर्ष। शीर्ष क्या है? मोरध्वज-वह इसका शीर्ष है और तीन इसके चरण हैं। चारों को मिला करके गायत्री को चार पाद वाली भी कहा है। तीन पाद वाली भी कहा है। चार वेद क्या? चार वेद गायत्री के व्याख्यान। ये चारों गायत्री के व्याख्यान के रूप में हैं जिस गायत्री मंत्र को हम आप ले करके चले हैं। गायत्री मंत्र के आधार पर हम प्राचीन खोई हुई संस्कृति को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। गायत्री मंत्र वह जो कि नये युग का संदेश ले करके आया है। गायत्री मंत्र वह जो हमारी प्राचीनकाल की सारी की सारी गरिमा को अपने गर्भ में छिपाये बैठा है। वह गायत्री मंत्र जिसकी हम और आप उपासना करते हैं और जिससे सारे विश्व को उपासना करने के लिए प्रभावित करना चाहते हैं, वह है गायत्री मंत्र।
इस गायत्री मंत्र में दोनों ज्ञान और विज्ञान का सब कुछ बीज रूप में भरा हुआ पड़ा है। ज्ञान, ज्ञान को हम क्या कह सकते हैं? ज्ञान तो इसमें इतना भरा हुआ पड़ा है कि आदमी को, नर को नारायण तक पहुँचाने वाला रास्ता खोलने वाला सूत्र है यह और विज्ञान, विज्ञान भी बहुत कुछ है। वेदों में विज्ञान है, आप वेदों को पढ़िए सारा का सारा विज्ञान पक्ष है इसमें, पूरी की पूरी साइन्स है इसमें। पूरा अथर्ववेद केवल विज्ञान का पक्ष है। जर्मन वालों को जब मालूम पड़ा कि हम हैं आर्य। आर्यों का मूल ग्रन्थ कौन-सा हो सकता है वेद? जर्मन वालों ने मैक्समूलर को हिन्दुस्तान में भेजा और वह 17 साल तक वेदों का पता लगाते रहे, वेदों की खोज करते रहे। उन्होंने ऋग्वेद का भाष्य जर्मन भाषा में सबसे पहली बार किया। 15-16 वर्ष हिन्दुस्तान में रहने के पश्चात् वे ऋग्वेद ले गये थे। लोग कहते हैं कि विज्ञान की बहुत-सी जानकारियाँ उन्होंने वेदों से प्राप्त की थीं। मैं कह नहीं सकता कि जो वर्तमान विज्ञान है, वह भी वेदों से निकला कि नहीं निकला। लेकिन प्राचीनकाल में वेद अपने आप में विज्ञान था, उसका अपने आप में शोध था। आज से तालमेल खाता हुआ यह जरूरी नहीं कि आज का जो विज्ञान है और जिस पहलू से मनुष्य अपनी व्याख्या करता है और अपने प्रतिपादन करता है, प्राचीनकाल में उसी तरह का विज्ञान रहा हो विज्ञान की दूसरी धाराएँ भी हैं, दूसरे तरीके भी हैं, दूसरे ढंग भी हैं। जो आज हमारे हाथ में आ गया वही एक ‘मेथड’ नहीं है विज्ञान का और भी ‘मेथड’ हैं, जिसके आधार पर किसी पदार्थ के किसी हिस्से की जाँच के द्वारा न जाने कितनी शक्तियों का प्रतिपादन कर सकते हैं, कितने उभार पैदा कर सकते हैं? यह साइंस का एक पक्ष है, जो आज हमारे हाथ में है। साइंस का यह एक छोटा पक्ष है।
साइंस के क्या और पक्ष हैं? हाँ, और पक्ष हैं और वे पक्ष खोजे जाने बाकी हैं। अभी आपको ‘एंटीमैटर’ और ‘एण्टीयूनिवर्स’ की जानकारियाँ लोगों को जब मालूम पड़ेंगी तो लोगों को पता चलेगा कि आज का जो विज्ञान है, यह एक मजाक है, एक दिल्लगीबाजी है, एक छोटा-सा बच्चों के हाथ का खिलौना जैसा है। अभी तो बहुत सारी साइंस छिपी पड़ी है। वेदों में ज्ञान वाले पक्ष, विज्ञान वाले पक्ष-दोनों पक्ष हैं। वेदों की व्याख्या कर रहे हैं आप। नहीं बेटे, वेदों की व्याख्या नहीं कर रहा। वेद गायत्री माता के चार बालक हैं, क्योंकि उनको वेदमाता कहते हैं। बच्चे कैसे मजबूत हैं? बच्चे कैसे अच्छे हैं? बच्चों के हिसाब से उनकी पालनकर्ती माता का हवाला दे रहा हूँ। ये कह रहा हूँ कि सीता के दो बच्चे थे—लव-कुश, जिनकी बड़ी प्रशंसा की गयी है, लेकिन आपको उनकी माँ की प्रशंसा भी मालूम होनी चाहिए। भरत की प्रशंसा? भरत अपने आप में बड़े शानदार आदमी थे, लेकिन आपको भरत की प्रशंसा मालूम होने से पहले उनकी माँ शकुन्तला की गरिमा की भी जानकारी होनी चाहिए। विनोबा, बालकोबा, विठोबा तीनों बहुत शानदार थे। ठीक है, आपको ये जानना चाहिए, पर साथ ही यह भी जानना चाहिए कि इनको बनाने वाली क्षमता कौन थी? वह थी इनकी माँ। जिन्होंने तीनों बच्चों को बाल-ब्रह्मचारी बना दिया, ऋषि और तपस्वी बना दिया। चारों वेदों को बनाने वाली माँ, जिसका नाम है गायत्री मंत्र। गायत्री मंत्र बहुत शानदार मंत्र है। हम क्या कर सकते थे? हम भूल गए थे। पिछले दिनों से—अंधकार के युग से हमने बहुत सारी चीजें गँवा दी थीं, उसमें से एक चीज यह भी गँवा दी थी, जो हमारी मूल संस्कृति थी। अंधकार युग में मत-मतान्तर पैदा होते चले गए, सम्प्रदाय पैदा होते चले गए। अनेक तरह के विचार आते चले गए। कितना-कितना बिखराव पैदा होता चला गया? बिखराव पैदा होते हुए भी मूल सत्ता जहाँ की तहाँ है, मूल बात जहाँ की तहाँ है। अगर हिन्दू धर्म अर्थात् विश्व धर्म, भारतीय संस्कृति अर्थात् मानव संस्कृति के मूल का अध्ययन करना हो तो आपको वेदों के अन्दर जाना होगा, वेदों की गहराई में उतर करके आपको गायत्री मंत्र में प्रवेश करना होगा।
गायत्री मंत्र हमारी बहुत शानदार सम्पत्ति है। साँप के माथे पर मणि की बात कही जाती है। हाथी के माथे पर मणि की बात कही जाती है। मालूम नहीं हाथी और साँप के माथे पर मणि होती है कि नहीं, पर मैं जानता हूँ कि मानवीय गरिमा की एक मणि है, जब तक वह मणि हमारे पास रही हमारा भविष्य बहुत शानदार बना रहा और हमारा ध्येय बहुत शानदार बना रहा, परन्तु जब से ये मणि हमारे हाथ से चली गई, ढीली हो गई, उपेक्षा की जाने लगी तब से हम सब कुछ गँवा बैठे। मध्यकाल में ऐसा हुआ—सम्प्रदायवाद ऐसा तेजी से पनपा कि जो भी आदमी आया, जो भी बाबाजी जरा होशियार-सा हुआ वह अपने नाम का मजहब चलाता चला गया। बिखराव होते चले गए और मूल सत्ता से ध्यान हटाने और बँटाने के लिए उन्होंने ऐसे-ऐसे इल्जाम लगाए गायत्री मंत्र के ऊपर जिससे इसकी उपेक्षा होने लगी, जबकि वह हमारा मेरुदण्ड था। उपेक्षा होने के साथ-साथ यह भी कहा जाने लगा कि गायत्री मंत्र को श्राप लग गया है। अच्छा! गायत्री मंत्र ब्राह्मणों का है—अच्छा! गायत्री मंत्र को स्त्रियाँ नहीं जप सकतीं—अच्छा! गायत्री मंत्र को कान में ही कहा जा सकता है—अच्छा! न जाने क्या से क्या, बताते चले गये ताकि इस ओर से आदमी का ध्यान बँटे। सम्प्रदायवादियों द्वारा अपनी-अपनी ओर से बनाई गई पुस्तकें, मंत्र, ग्रन्थ, देवता उनकी ओर ध्यान खींचते चले गए। ये मध्यकाल का जमाना था, लेकिन अब फिर से नवयुग आ गया है, फिर प्रातःकाल हो रहा है। फिर नवयुग का सूर्य उदय होकर सामने आया और वे चमगादड़, वे उल्लू और वे निशाचर जो रातभर घूमते रहते थे, उन्होंने अपने आप को मोड़ लिया है। प्रातःकाल का दृश्य सामने है, हम फिर से पुरानी संस्कृति की ओर लौटकर आ रहे हैं। अब फिर हमें नया संदेश, वही जो ऋषियों ने ब्रह्माजी से लेकर देवताओं को दिया था, उसको स्वीकार करने के लिए व स्वीकार करवाने के लिए कदम बढ़ रहे हैं। हमारा आपका प्रयास यही है।
मित्रो, गायत्री मंत्र क्या है? इसके महान पक्ष को जरा आप देख पाएँ तो अच्छा है। मैंने अभी निवेदन किया था कि गायत्री मंत्र के चार चरणों को अच्छी तरीके से समझना हो तो चार वेदों को आपको पढ़ना पड़ेगा ताकि चार टुकड़ों में से हर टुकड़े का पूरी तरह से व्याख्यान किया जा सके। वेदों को और समझाइए? नहीं वेदों को हम पूरी तरह से नहीं समझा सकते। इसको कहानियों के माध्यम से-कथाओं के माध्यम से, पुराणों, दृष्टान्तों के माध्यम से समझाना पड़ेगा। इसके लिए ब्राह्मण, आरण्यक और आर्षग्रन्थ पढ़ने चाहिए। आरण्यक और ब्राह्मण ग्रन्थों की तो भाषा बड़ी दुरूह है। उसमें सांकेतिक भाषा है। अच्छा तो आपको उपनिषद् पढ़नी चाहिए। उपनिषद् में क्या है? अरे, वेदों का व्याख्यान है और क्या है? उपनिषदों में वेदों का सार है। इसके प्रत्येक मंत्र वेदों में समाये हुए हैं। आर्य समाज ने तो संहिता भाग को ही वेद माना है, लेकिन धर्म की व्याख्या के हिसाब से ब्राह्मण भी वेद होता है और उपनिषद् भी वेदवाणी मानी गई है। वेदों में बेटे, इसका विस्तार है और कुछ भी नहीं। बाप का बेटा होता है, बेटे का नाती होता है, नाती का पोता होता है। ये जो कुछ भी हैं, केवल गायत्री मंत्र का व्याख्यान है। गुरुजी और बताइए! और बेटे अठारह पुराण जो हैं। अठारह पुराण भी यही हैं। क्या है? गायत्री मंत्र का व्याख्यान है और भगवान के अवतार? भगवान के अवतार भी यही हैं। भगवान के अवतार क्या हैं? भगवान के अवतार-हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार चौबीस अवतार हैं। चौबीस अवतार क्या हैं—गायत्री के 24 अक्षर। चौबीस अक्षर में एक-एक अवतार का व्याख्यान भरा पड़ा है। एक अवतार के एक अक्षर में क्या शिक्षा है? क्या प्रेरणा है? क्या दिशा-धाराएँ हैं? क्या मनुष्य जाति के लिए आदर्श उपस्थित करते हैं ये? एक अक्षर को आपको समझना हो तो एक अवतार के कथानक के माध्यम से गायत्री का एक अक्षर समझ लेना चाहिए। सारी की सारी कथाएँ-सब जितनी भी कथाएँ हैं, आपको गायत्री मंत्र के एक-एक अक्षर को बता सकती हैं।
हिन्दू धर्म में दो अवतार मुख्य माने गए हैं। अवतार तो 24 हैं, पर 24 अवतारों में दो अवतार मुख्य माने गए हैं—राम और कृष्ण्। राम और कृष्ण् के जीवन के दृष्टान्त सुनाने वाले दो ग्रन्थ हैं—एक का नाम है—‘वाल्मीकि रामायण’ जिसमें राम चरित्र दिया हुआ है। दूसरी पुस्तकें उसके अनुवाद के रूप में अन्यान्य भाषाओं में बनाई गई हैं। रामायणों की बहुत-सी तादाद है। अरे पचास रामायण तो मेरे देखने में आई हैं। लेकिन इनका मूल वाल्मीकि रामायण ही है। दूसरा ग्रन्थ है—भागवत् कथा—जिसमें श्रीकृष्ण चरित्र दिया हुआ है। ये क्या हैं? ये दोनों ग्रन्थ गायत्री मंत्र के व्याख्यान हैं। ‘‘सत्यम् परम् धीमहि’’ श्रीमद्भागवत् में चौबीस हजार श्लोक हैं। चौबीस हजार श्लोकों में से एक-एक हजार श्लोकों के बाद एक-एक अक्षर गायत्री का संपुट के रूप में लगाया गया है। जैसे सम्पुट गायत्री का हम लगवाते हैं आपसे हृीं, श्रीं, क्लीं वगैरह का, उसी तरह से जैसे अखण्ड कीर्तन होता है। रामायण पाठ होते हैं। उसमें सम्पुट एक हजार श्लोकों में बाँटा हुआ है। बाल्मीकि रामायण में भी यही है। उसमें भी चौबीस हजार श्लोक हैं और एक हजार श्लोकों से पहले गायत्री मंत्र का एक सम्पुट लगा हुआ है। आप गायत्री माहात्म्य पढ़ लीजिए उसमें सारे के सारे कथानक दिए हुए हैं। कौन-से अक्षर के बाद में कौन-से श्लोक आते हैं, पूरा का पूरा व्याख्यान दिया हुआ है। आपको रामचरित पढ़ना हो, कृष्णचरित्र पढ़ना हो तो गायत्री मंत्र की शिक्षाएँ कथानक के माध्यम से समझ लीजिए। ये सारे का सारा गायत्री मंत्र है, जो कुछ भी आपको दिखाई पड़ता है।
यह ज्ञान-पक्ष हुआ। विज्ञान-पक्ष। विज्ञान-पक्ष भी है। विज्ञान-पक्ष क्या है? हमारे पास एक ऐसी मशीन है और एक ऐसी लेबोरेट्री है, एक ऐसी प्रयोगशाला है और एक ऐसा कम्प्यूटर है, जिसके आधार पर हम आवश्यक चीजों की पैदावार कर सकते हैं। ये कौन-सी प्रयोगशाला है? इसका नाम है हमारा शरीर। इसके तीन हिस्से हैं। त्रिपदा गायत्री, तीन चरणों वाली गायत्री का मतलब यह है कि हमारे पास तीन शरीर हैं और तीन फैक्ट्रियाँ हैं। जिस तरह एक के बाद एक लॉकर होता है। बाहर एक कमरा होता है, कमरे में तिजोरी होती है, तिजोरी में लॉकर होता है। इस तरह से तीन हमारे शरीर हैं। एक तो स्थूल शरीर, एक सूक्ष्म शरीर और एक कारण शरीर। इन तीनों शरीरों की अगर उपासना की जा सके, इसके भीतर रहस्यमय दुनिया भरी पड़ी है, उसे जाग्रत किया जा सके तो जाग्रत अतीन्द्रिय क्षमताएँ सामान्य को असामान्य बना देती हैं। ये मनुष्य को तपस्वी बना देती हैं, सामर्थ्यवान बना देती हैं, शक्तिवान बना देती हैं। जिस तरीके से भौतिक शक्तियों का प्रयोग हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं, उसी तरीके से आध्यात्मिक शक्तियाँ भी हैं, जो हमारे लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
हमारा शारीरिक-बल मशीन का बल नहीं है, हमारे शरीर का बल है और हमारा साहस मशीन का बल नहीं है, तलवार का बल नहीं है। तलवार अपने आप में काम की हो सकती है, पर हिम्मत हमारी अपनी ताकत है। मशीनों को चलाना, मेहनत को कम करना और दूसरे काम कर लेना मशीनों के द्वारा हो सकता है। आटोमैटिक मशीनें हम चला सकते हैं, लेकिन जो हमारे दिमाग की ताकत है, उसकी कोई आटोमैटिक मशीन बराबरी नहीं कर सकती। कम्प्यूटर में अपनी ताकत है और अपनी क्षमता है, लेकिन हमारे दिमाग की जो पहुँच और परख है, वह किसी कम्प्यूटर की नहीं हो सकती। कम्प्यूटर हमारा गुलाम है। वैज्ञानिकों ने इस तरह की मशीनें बना दी हैं और मनुष्य को इस तरह से सोचने पर मजबूर कर दिया है कि जब इस काम को मशीन कर लेती है तो वह उसे क्यों करे? लेकिन वह भूल जाता है कि अनेक तरह की परिस्थितियों के हिसाब के साथ अनेक तरह की नई धाराओं पर मशीन या कम्प्यूटर नहीं विचार कर सकता। ये हमारी अपनी विशेषता है। मनुष्य के अन्दर कितनी सामर्थ्य है, आप तो समझते भी नहीं हैं। इतनी सामर्थ्य है आदमी के भीतर जो बीज के रूप में और सोई पड़ी हुई है। उसको जगाने के लिए जो तपस्याएँ की जाती हैं, साधनाएँ की जाती हैं, योगाभ्यास किए जाते हैं, वे कहाँ से आते हैं? वे सारे के सारे गायत्री मंत्र में सन्निहित हैं। चौबीस अक्षर के भीतर चौबीस योग हैं और प्रत्येक आठ-आठ अक्षर गायत्री मंत्र में इस प्रकार से हैं, जो तीनों शरीरों की साधना के लिए अष्टांगयोग हैं। राजयोग किसका है? ये मानसिक हैं। शरीर के लिए हठयोग हैं और भी बहुत सारे योग हैं, जिसकी व्याख्या में मैं आपको नहीं ले जाना चाहता। मैं तो केवल आपको इतना बताना चाहता हूँ कि हमारा ज्ञान पक्ष और विज्ञान पक्ष दोनों ही पक्ष उससे जुड़े हुए हैं, जिसे हम गायत्री मंत्र कहते हैं। गायत्री मंत्र जिसकी उपासना, जिसकी विधि, जिसका प्रयोग और जिसका तत्त्वज्ञान ये सारी चीजें सिखाने के लिए मिशन का जिसके आप सदस्य हैं, जिसका निर्माण हुआ है और जिसमें कि हमको और आपको एक धागे में बाँध दिया है। हमारा आपसे स्नेह इसी एक धागे से बँधा हुआ है। हम बँधे हुए हैं। ये क्या चीज हैं? ये भारतीय संस्कृति का मूल है। कैसे? बताइए जरा।
अच्छा हम और बताते हैं कि किस तरीके से यह मूल है? शिखा और सूत्र ये हिन्दू धर्म की दो निशानियाँ है। शिखा क्या है? बेटे गायत्री मंत्र है। हमारे किले के ऊपर झण्डा फहरा रहा है। लाल किले के ऊपर झण्डा फहराते है। काँग्रेस का झण्डा फहराता है, राष्ट्रीय ध्वज फहराता है। इसी तरह से हमारे मस्तिष्क के ऊपर ज्ञान की देवी ऋतम्भरा-प्रज्ञा का झण्डा फहराता है। शास्त्रों में बताया गया है कि इस झण्डे को फहराते रहना चाहिए। हमारे इस किले के ऊपर ऋतम्भरा-प्रज्ञा अर्थात् गायत्री की ज्ञान शक्ति का, प्रज्ञा की शक्ति का इसके ऊपर बोलबाला है और ये मालकिन है इसकी। इसलिए हम शिखा रखाते हैं। शिखा क्या है? गायत्री का रूप। गायत्री का रूप कैसे? मूर्तियाँ तरह-तरह से बनाई जात हैं। कुछ संगमरमर की बनाई जाती हैं, कुछ अष्टधातु से बनाई जाती हैं, कुछ किसी की बनाई जाती हैं, लेकिन ये गायत्री की मूर्ति बालों की बना दी गई हैं, अन्यथा तरह-तरह की मूर्तियाँ इसमें कैसे टिकाई जाएँगी, कैसे रखी जाएँगी? ये गिर पड़ेंगी और उखड़ जाएँगी। इसलिए ऋषियों ने जहाँ जो चीज पैदा होती थी, उसी को बनाकर वहाँ उसकी स्थापना कर दी। पहाड़ों पर शंकर जी पैदा होते थे। पहाड़ों के पत्थर से शंकर जी गोल-मटोल वहीं बना दिए हैं और बालों से! सिर पर बाल पैदा होते हैं, अतः बालों से ही सिर पर गायत्री माता की मूर्ति बनाकर शिखा के रूप में स्थापित कर दी गई। ये झण्डा है, गायत्री मंत्र का झण्डा है।
‘‘ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे।।’’
यह गायत्री मंत्र की व्याख्या है—शिखा के रूप में।
सूत्र क्या है?—यज्ञोपवीत। यज्ञोपवीत क्या है? गायत्री मंत्र है। गायत्री मंत्र को शरीर रूपी देवालय में स्थापित करते हैं। शरीर के प्रत्येक अंग-अवयव को देवालय माने तो इसमें गायत्री की मूर्ति स्थापित करते हैं। सूत्र की स्थापना क्यों करते हैं? सूत्र की स्थापना हम इसलिए करते हैं कि जो किसी अन्य चीज की बनाई गई होती तो उसका ठहरना मुश्किल होता। अगर ये मूर्ति लोहे की बना देते और जब हम रात को सोते तो मुश्किल पड़ जाती। पत्थर की बनाते तो चौबीस घण्टे कहाँ लिए फिरते? सूत की इसलिए बना दी गई है कि चौबीस घण्टे इसे शरीर के साथ में लपेटा जा सके। गायत्री मंत्र में नौ शब्द हैं और जनेऊ में नौ धागे हैं। गायत्री मंत्र में तीन व्याहृतियाँ हैं और जनेऊ में तीन गाँठें लगी हुई हैं। गायत्री में एक ओऽम है और यज्ञोपवीत में एक बड़ी गाँठ ब्रह्मगाँठ लगी हुई है। इस गायत्री मंत्र को कहाँ रखना चाहिए? सारे के सारे महत्त्वपूर्ण अंश, अंग जो हमारे पास हैं, उन सबको गायत्री मंत्र में लपेट दिया है। कंधों पर लपेट दिया है। कंधा हमारे जिम्मेदारी की निशानी है। यह वजन हमारे कंधे पर रखा हुआ है। हमको जिम्मेदारी का निर्वाह करना है। गायत्री मंत्र में जो ज्ञान और विज्ञान है, उसको हम जीवन में धारण करेंगे, उसका हम प्रयोग करेंगे। उसके लिए इसकी जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व कंधे पर निबाहते हैं। कंधे पर निभाने के बाद में कहाँ ले जाते हैं—हृदय पर ले जाते हैं। क्यों? इसलिए कि ये बात हमारे हृदय पर बसी हुई है अर्थात् हमारी भावनाओं में और हमारी आस्थाओं में और हमारी अन्तरात्मा में आ गई है। ये चीजें हृदय से ताल्लुक रखती हैं। जनेऊ कंधे पर से निकलने के बाद में कलेजे पर आता है। कलेजे के बारे में भी यह कहा जाता है। कलेजा हिम्मत, अपनत्व पैदा करने की थैली है। जहाँ तक साथी का सवाल है, कहते हैं—आइए आपको कलेजे से लगा लें। ये हमारे कलेजे का टुकड़ा है। यहाँ पित्त की थैली का सवाल नहीं है यह साहित्यिक भाषा है। इसमें ये कह देते हैं कि मनुष्य के भीतर वाले हिस्से को गायत्री मंत्र के साथ में चिपका देते हैं। ये कलेजा कहलाते है। हमारी पीठ पर वजन रखा हुआ है और हम इस वजन को लेकर चलेंगे। हमारी पीठ भारी है इत्यादि ये साहित्यिक शब्द है और यह प्रतीक के रूप में हैं।
इस तरह जनेऊ को पीठ पर रखा जाता है। कंधे पर रखा जाता है, हृदय पर रखा जाता है और कलेजे पर रखा जाता है। इसका अर्थ यह है कि गायत्री मंत्र के भीतर जो सिद्धान्त और जो शिक्षण और जो आदर्श दिए गए हैं, वे हमको इतने प्यारे होने चाहिए, जिससे हर क्षण हम यह समझते रहें कि मनुष्य जीवन के साथ में ये जिम्मेदारियाँ भी हमारे कलेजे पर हैं। हमारे हृदय में स्थान इनको भी प्राप्त होना चाहिए। इनको भी हृदय में ग्रहण करना चाहिए और अपनी पीठ के ऊपर इस वजन को लेकर चलना चाहिए। जीवन का इतना भार जब हम लेकर चलते हैं तो इन सिद्धान्तों का और इन आदर्शों का, जो भगवान ने मनुष्य के जीवन के साथ-साथ हमारे सुपुर्द किए हैं, उनको भी लेकर चलते हैं। यही बात है कि सारी की सारी शिक्षाएँ गायत्री मंत्र के साथ जुड़ी हुई हैं अर्थात् जनेऊ के साथ जुड़ी हुई हैं। शिखा और सूत्र प्रतीक हैं। शिखा सूत्र क्या हैं? अरे, कुछ भी नहीं हैं—गायत्री मंत्र हैं। एक को हमने शरीर के ऊपर अर्थात् दिमाग के ऊपर अर्थात् चेतना के ऊपर स्थापित किया हुआ है और ज्ञान के रूप में और दूसरा हमारा शरीर है। शरीर अर्थात् कृत्य या कर्म। शरीर अर्थात् पदार्थ, भौतिक जीवन। भौतिक जीवन के ऊपर भी हमने यज्ञोपवीत स्थापित किया हुआ है अर्थात् गायत्री की सत्ता हमने स्थापित की हुई है। विचारणा, चेतना जीवन इसके ऊपर भी हमने इसे स्थापित की हुई है। दोनों अंशों के ऊपर गायत्री मंत्र की स्थापना करने का भारतीय समाज में नियम है।
संध्या-वंदन हमारा नित्य कर्म है। संध्या-वंदन माने-प्रातःकाल भगवान का भजन करना चाहिए, सायंकाल को भजन करना चाहिए। दोनों समय भगवान की उपासना को संध्या-वंदन के नाम से पुकारा गया है। संधि-संध्या को कहते हैं। दिन और रात जब मिलते हैं तो संधि कहलाती है। प्रातः और सायंकाल जो गायत्री उपासना की जाती है वो संध्या है। संध्या क्या है? संध्या कुछ भी नहीं है, गायत्री मंत्र है और क्या है? आप गहराई से देखें तो आदमी क्या है, यह पता लग जाएगा। आदमी एक साँप है। साँप कैसा है? यह मस्तिष्क से चलता है और रीढ़ की हड्डी में आ करके नीचे खत्म हो जाता है। बाकी क्या है? इसके पंख हैं, ये हाथ-पाँव क्या है? ये तो पंख हैं तो फिर असली आदमी कहाँ है? असली आदमी की शक्ति कहाँ है? ये बेटे, मेरुदण्ड में रीढ़ की हड्डी में है। रीढ़ की हड्डी में आदमी के विचार से ले करके सारे शरीर में जो बल पैदा होता है, शक्ति पैदा होती है, इलेक्ट्रीसिटी पैदा होती है, जो कुछ भी हमारे भीतर काम हो रहा है, असल में सारे का सारा जो इसका ढ़ाँचा है रीढ़ की हड्डी में है। बाकी जितने भी कल-पुर्जे हैं, जितनी भी अन्य सब चीजें हैं, ये इसके बाहर के हिस्से हैं, मूल चीज नहीं है। इसकी रीढ़ हमारे प्राण हैं। इसी तरह से गायत्री महामंत्र मानव जीवन का प्राण हैं, भारतीय संस्कृति का प्राण है, मानवीय गरिमा का प्राण है और मानवीय आदर्श और मानवीय उत्कर्ष का सारे का सारा आधार है। यह गायत्री मंत्र है। इसकी महिमा-गरिमा आपको समझनी चाहिए।
यह दुर्भाग्य ही है कि लोगों ने गायत्री मंत्र का इतना छोटा स्वरूप बना लिया है। हम क्या कह सकते हैं? भूत भगाने के लिए जैसे सयाने-दीवाने झाड़-फूँक करते रहते हैं। पानी लिया, छिड़क दिया, ये कर दिया, वो बाँध दिया। ये मंत्र बिच्छू का मंत्र है, ये साँप का मंत्र है, ये भूत का मंत्र है, ये अमुक का मंत्र है। इस तरह से अनेकों छोटे-छोटे मंत्र-तंत्र पाए जाते हैं। लोगों ने गायत्री मंत्र को भी इसी में शुमार कर लिया और ये मालूम कर लिया कि बुखार आता हो तो गायत्री का प्रयोग कर देंगे। गायत्री का यह छोटा-सा स्वरूप है। हो तो यह भी सकता है, यह तो मैं नहीं कहता कि इसका स्वरूप नहीं है, लेकिन ये बहुत छोटा स्वरूप है, समग्र स्वरूप नहीं है। जैसे आप यह विचार करें कि आचार्य जी कान, बेटे, कान भी हमारे शरीर के हिस्से का ही है, शरीर के बाहर तो नहीं है। यह तो हम नहीं कहते कि बाहर का है। इसी तरह भूत भगाना गायत्री में नहीं है, यह तो मैं नहीं कहता कि गायत्री में नहीं है, पर आप गायत्री मंत्र को इतना सीमित कर देंगे, इतना छोटा कर देंगे, तो इसकी तौहीन होगी। यह इसकी तौहीन है। आप यह मानकर चलें कि अमुक-अमुक कामना के लिए, बाल-बच्चे पैदा करने के लिए, अमुक लाभ उठाने के लिए, मुकदमे में जीत जाने के लिए, इम्तिहान में पास हो जाने के लिए अगर इतनी सीमा में गायत्री को रखेंगे तो मैं यह समझूँगा कि आप गायत्री का बहुत छोटा स्वरूप समझते हैं। उसकी पूँछ के बाल के बराबर समझते हैं, असली गायत्री को आप समझते भी नहीं हैं। असली गायत्री वह है, जो मानवीय गरिमा को बढ़ाती है। जो सारे संसार में सुव्यवस्था बनाए रखती है। जो मानवीय भविष्य को उज्ज्वल व शानदार बनाती है। इसका इतिहास हम प्राचीन काल के पन्ने पलटकर देख सकते हैं।
प्राचीनकाल का हमारा अतीत और इतिहास इतना शानदार था जिसको हम देव-इतिहास कह सकते हैं। भारत भूमि का ही नाम स्वर्ग भूमि था। स्वर्ग और भी कोई रहा होगा क्या? रहा होगा यह बहस तो आपसे मैं नहीं कर सकता कि स्वर्ग था या नहीं था, पर मैं यह कहता हूँ कि स्वर्ग की जो व्याख्या की गई है, सारी की सारी स्वर्ग की व्याख्याएँ ऋषियों ने जो की हैं, वह इसी भारत भूमि के लिए की हैं। यहाँ बार-बार आता रहा है स्वर्ग। यह भारत-भूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ थी किसी जमाने में। किसी जमाने में यहाँ के नागरिकों को देवमानव बताया गया है। यहाँ के नागरिक देवमानव थे, यहाँ स्वर्ग लोक में देवता रहते थे, तैंतीस करोड़ देवता रहते थे। बेटे यही तैंतीस करोड़ देवता किसी जमाने में इस देश के नागरिक थे। यही सारे संसार भर में फैले हुए थे बादलों की तरीके से। दुनिया को ऊँचा उठाने और समुन्नत बनाने में इनकी शानदार परम्परा थी। देवता थे देवता। वे दिया करते थे। यहाँ के निवासियों को दिया, सारे संसार को दिया।
भारतवासियों के अनुदान की कथा आप सुनिए जरा। भारतवासियों ने संसार को क्या अनुदान दिया है? हमारी एक पुस्तक है, आप लोगों में से किसी ने पढ़ी होगी, उसका नाम है ‘समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान’। सारे विश्व को जब से यह जमीन बनी है, तब से लेकर के भारतवासी लोगों को क्या-क्या सिखाते रहे हैं, क्या-क्या देते रहे हैं? हिन्दुस्तान की पौराणिक पुस्तकों से ही नहीं वरन् सारे संसार के शिलालेखों से लेकर अन्यान्य पुस्तकों से जिसमें दो हजार के करीब जानकारियों के रेफरेन्स दिए हुए हैं। हमारी उस पुस्तक में सारा विवरण मौजूद हैं। सारे के सारे विश्व को वे देते रहे हैं। क्या-क्या दिया विश्व को भारतवासियों ने? शिक्षा दी, संस्कृति दी, स्वास्थ्य दिया, चिकित्सा दी, समाज विज्ञान दिया, कृषि दी, पशुपालन दिया। जो कुछ भी भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान हो सकता था, मानवीय परम्पराएँ हो सकती थीं, वे सारी की सारी चीजें न केवल हिन्दुस्तान ने हिन्दुस्तानियों को दीं, बल्कि सारे विश्व को दीं। इसलिए ये देवता कहलाते थे। जगद्गुरु कहलाते थे, चक्रवर्ती शासक कहलाते थे और न जाने क्या-क्या कहलाते थे? ये सारी की सारी विशेषताएँ जो भारतीय गरिमा के साथ जुड़ी हुई हैं, असल में अगर हम इनका प्राण ढूँढ़ना चाहें—आधार ढूँढ़ना चाहें तो बात घूम-फिर करके भारतीय संस्कृति पर आ जाएगी। और एक शब्द में अगर आप यह जानना चाहें कि भारतीय संस्कृति के सारे के सारे आधार समझ जाएँगे। ज्ञान को भी समझ जाएँगे और विज्ञान को भी समझ जाएँगे। ऐसी है गायत्री, जिसको कि हम और आप अपने जीवन में धारण करने की कोशिश करते हैं। जिसकी हम उपासना करते हैं, जिसका हम ब्रह्मविद्या के रूप में तत्त्वज्ञान जानने की कोशिश करते हैं।
गायत्री के दो अर्थ हैं, आप तो एक ही अर्थ समझ पाते हैं तो क्या समझ पाते हैं? आपको तो मात्र प्रयोग मालूम है। गायत्री की प्रेक्टिस ही मालूम है। गायत्री का जप कैसे किया जाता है, यह क्या है? यह प्रैक्टिस है। बेटे, प्रैक्टिस अपने आप में पूर्ण नहीं है। यह उत्तरार्द्ध है। तो पूर्वार्द्ध क्या है? पूर्वार्द्ध है फिलॉसफी-तत्त्वज्ञान। पहला अंश-तत्त्वज्ञान। गायत्री एक फिलॉसफी है। फिलॉसफी से क्या मतलब? ऋतम्भरा-प्रज्ञा। ऋतम्भरा से क्या मतलब? ब्रह्मविद्या। ब्रह्मविद्या से क्या मतलब? ब्रह्मविद्या से यह मतलब है कि जो कुछ भी मानव-जीवन की श्रेष्ठता और गरिमा से सम्बन्धित है, वह सारे के सारे भारतीय तत्त्वज्ञान में आ जाता है। गायत्री का पहला वाला अंश वह है, जिसको आप समझने की कोशिश भी नहीं करते केवल प्रैक्टिस करना जानना चाहते हैं। थ्योरी जानना चाहते हैं, जप करना जानना चाहते हैं। होड़ करना जानना चाहते हैं। ध्यान करना जानना चाहते हैं। यह भी ठीक हैं, मैं मना नहीं करता, पर थ्योरी और प्रैक्टिस दोनों जुड़ी हुई हैं। नहीं, हम तो प्रैक्टिस करेंगे, थ्योरी से क्या फायदा? ऑपरेशन करेंगे हम तो। उसकी एनोटॉमी, फिजिओलॉजी सीखने से क्या फायदा? भाईसाहब, पहले उसकी एनोटॉमी, फिजिओलॉजी सीखिए। नहीं साहब, ये तो बेकार का टाइम हम नहीं गवाएँगे। आप तो आपरेशन करना सिखा दीजिए। बेटे, आपको शरीर की संरचना मालूम नहीं है। टिशूज कैसे होते हैं? सैल कैसे होते हैं? अमुक चीज कैसी होती है? बिना इस जानकारी के आप ऐसे ही करेंगे आपरेशन, पेट को चीर डालेंगे, सुई-धागे से सी डालेंगे तो आप भी मरेंगे और वह भी मर जाएगा, जिसकी आप चीर-फाड़ करेंगे। पहले आप एनोटॉमी, फिजिओलॉजी वगैरह सीखिए।
इसी तरह गायत्री का तत्त्वज्ञान भी उतना ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण है जितना कि उसका प्रयोग। जितना कि उसका व्यवहार। लोगों ने व्यवहार करना सीखा है। चौबीस हजार का जप करना चाहिए। ध्यान ऐसे, जप ऐसे करना चाहिए। बेटे, यह प्रयोग वाला हिस्सा है, फिलॉसफी वाला पक्ष और भी शानदार है। जो कुछ भी ज्ञान और विज्ञान की धाराएँ हैं, ये दोनों की दोनों धाराएँ गंगा-जमुना की तरीके से मिलती हैं। इसलिए गायत्री के दो नाम दिए गए हैं। एक का नाम गायत्री और एक का नाम सावित्री। सावित्री किस हिस्से को कहते हैं? सावित्री उसे कहते हैं, जो विज्ञान वाला भाग है। वैज्ञानिक प्रयोग के लिए सावित्री का महत्त्व है। जब भी आपको जप करना पड़ेगा, ध्यान करना पड़ेगा, उपासना करनी पड़ेगी, अनुष्ठान करना पड़ेगा तो आप मनुस्मृति में पढ़ डालिए इसके प्रयोग के पक्ष में, जहाँ कहीं भी गायत्री के प्रयोग हुए हैं, उस सारे के सारे प्रयोग को सावित्री के नाम से पुकारा गया है। मनुस्मृति में हर जगह जहाँ कहीं भी सावित्री का जिक्र आया है। गायत्री का जिक्र नहीं है। प्रयोग में केवल सावित्री काम आती है और गायत्री? गायत्री किस काम आती है? गायत्री ब्रह्मविद्या है। चिंतन जिसको कहते हैं, फिलॉसफी जिसको कहते हैं, विचारणा जिसको हम कहते हैं। ये सारे का सारा पक्ष गायत्री का है। इसके ज्ञान और विज्ञान पक्ष दोनों हैं, जिनको हम समझ पाएँ तो गंगा और जमुना दोनों की धारा की तरीके से मजा आ जाए। इनके मिलने से जिस तरह से त्रिवेणी बन जाती हैं, उसी तरीके से दोनों के मिलने से त्रिवेणी बन जाती है। दो चीजों के मिलाने से तीसरा रंग बन जाता है। दोनों चीजों, दोनों तारों को जब हम मिला देते हैं तो एक नई चीज, एक नई धारा पैदा हो जाती है। बिजली के दोनों तार अलग-अलग हैं। एक का नाम निगेटिव है और एक का पॉजिटिव है। दोनों अलग-अलग हैं, पर दोनों को जब मिला देते हैं, तब एक तीसरी चीज बन जाती है, उसका नाम करेण्ट और वह बराबर दौड़ने लगती है। तत्त्वज्ञान दौड़ता नहीं है। तत्त्वज्ञान और उसका प्रयोग दोनों का उपयोग अगर हम करेंगे तो गायत्री की जो महत्ता और गरिमा है उसका हम लाभ उठा पाएँगे। तत्त्वज्ञान को नहीं समझेंगे, केवल प्रयोग करते रहेंगे, तो परिणाम यह रहेगा कि जो लाभ होना चाहिए वह काफी नहीं होगा। इसकी फिलॉसफी को समझते रहेंगे, आप विचारणा करते रहेंगे, आप इन चीजों को समझते रहेंगे लेकिन उसको जीवन में प्रयोग न कर सकेंगे तो भी थोड़ा ही मुनाफा मिल पाएगा।
मित्रो, थ्योरी भी अधूरी है और प्रैक्टिस भी अधूरी है। इसको जब हम मिला देते हैं—दोनों को, तो बात पूरी हो जाती है। दवा भी अधूरी है और उसका परहेज भी अधूरा है। परहेज हम करेंगे नहीं, नहाएँगे नहीं, कुल्ला नहीं करेंगे। हकीम जी ने दवा बतायी है, पर दवा नहीं खाएँगे, तो भी गलत और दवा खाएँगे, लेकिन परहेज नहीं करेंगे तो भी गलत है। दोनों चीजों का समन्वय हो जाने से बीमारी से उद्धार मिलता है। गायत्री मंत्र की जो सामर्थ्य और शक्ति ऋषियों और शास्त्रकारों ने बताई है, वह इस बात पर टिकी हुई है कि आप उसकी फिलॉसफी को भी समझें और प्रैक्टिस को भी समझें। दोनों को मिला देने से गायत्री मंत्र समर्थ हो सकता है और उसके बारे में जो महिमा बताई गई है, उनका साक्षात्कार करने में हम और आप समर्थ हो सकते हैं। ये दोनों काम नहीं करेंगे तो आपको शिकायत हो सकती है कि हमको लाभ नहीं मिला। लाभ नहीं मिलने की शिकायत बराबर बनी रहेगी। दोनों तारों को आप मिलाएँगे नहीं, तो आपको शिकायत रहेगी। साहब बेकार है, आपकी बिजली से कोई काम नहीं होता, बिजली हमारा पंखा भी नहीं हिलाती और हमारी बत्ती भी नहीं जलाती। ठीक है, आपने दोनों तारों को क्यों नहीं मिला दिया? आप उसकी फिलॉसफी को भी समझिए, उसकी शिक्षा और प्रेरणा को भी समझिए। जीवन में हमारे किस तरह से उसके आदर्श और सिद्धान्तों का समन्वय होना चाहिए? यह भी आप समझिए। नहीं ये तो बेकार है, इसे समझने से कोई लाभ नहीं है। हम तो चौबीस हजार जप करेंगे और सबेरे 11 माला जप करेंगे। बेटे ये तो प्रयोग हैं। प्रयोग को और तत्त्वज्ञान को मिला देने से पूरा लाभ मिलता है।
गायत्री मंत्र की महिमा के बारे में कि इस मंत्र से क्या लाभ हो सकता है? इसके बारे में अथर्ववेद की एक बहुत अच्छी साक्षी आती है। अथर्ववेद के गवाह से अच्छा कोई और गवाह चाहिए क्या? नहीं, बेटे इससे अच्छा गवाह नहीं मिलता। दूसरे गवाह गलत भी हो सकते हैं, झूठे भी हो सकते हैं, ऐसे गवाह भी हो सकते हैं, जो अपनी प्रसन्नता के लिए कुछ कहते हों या अपनी बात का महत्त्व बढ़ाने के लिए कहते हों, नमक-मिर्च मिलाते हों, लेकिन वेदों के बारे में मैं इस तरह की कल्पना भी नहीं कर सकता कि वे हमको गलत बात बताएँगे, झूठ-मूठ की बात बताकर बहका देंगे। गायत्री मंत्र जिसकी कि हम आपको उपासना सिखाते हैं, गायत्री मंत्र जिसको कि हम सारे विश्व में फैलाना चाहते हैं, गायत्री मंत्र जिसके आधार पर हम न्याय कराना चाहते हैं। गायत्री मंत्र जिसके आधार पर हमारी तमन्ना और हमारी उम्मीद यह है कि मनुष्य के भीतर देवत्व पैदा होना चाहिए और जिसके बारे में हमारी तमन्ना यह है कि सारे सामाजिक वातावरण में श्रेष्ठ परम्पराओं की स्थापना होनी चाहिए। इसके लिए क्या करना होगा? इसके बारे में गायत्री मंत्र की गरिमा को, स्वरूप को और उसकी महत्ता को, महिमा को समझना पड़ेगा कि गायत्री मंत्र से क्या हो सकता है? ठीक तरह से इसका उपयोग किया जा सके, फिर मैं आपसे कहता हूँ कि यदि ठीक तरह से उपयोग न किया जा सका तो बेटे, निरर्थक भी जा सकता है और हानिकारक भी हो सकता है। तलवार आपके हाथ में है, चाकू आपके हाथ में है यदि ठीक तरह से उसका इस्तेमाल करेंगे तो आप फायदा भी उठा सकते हैं ।। गलत इस्तेमाल करेंगे तो आप अपना पाँव काट सकते हैं। निरर्थक यों ही डाल दें तो, फिर आपका चाकू भी चला जाएगा, खो भी जाएगा। निरर्थक भी जा सकता है। गायत्री मंत्र के बारे में भी यही बात है। सांगोपांग न करने से कोई विशेष लाभ नहीं उठाया जा सकता है।
अभी व्याख्यानों में आपके सामने हम यही पेश करने वाले हैं आज, कल परसों गायत्री मंत्र को पढ़ाने वाले हैं। आज तो केवल यही कहना है कि गायत्री मंत्र का स्वरूप समझने और समझाने के लिए अथर्ववेद की साक्षी आपके ध्यान में रहनी चाहिए। इसमें यह बताया गया है कि सात लाभ जो इसके भीतर हैं, इन सात लाभों में से पाँच पंच भौतिक हैं और दो आध्यात्मिक। सात लाभ हैं गायत्री मंत्र के। गायत्री के सात विद्यार्थी हैं। सात विद्यार्थियों को सात ऋषि भी कहा गया है। लाभों में, पाँच सांसारिक हैं और दो आध्यात्मिक हैं। दोनों को मिला देने से सात लाभ मिल जाते हैं और मनुष्य के जीवन की प्रगति की समस्त आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं। कौन-कौन सी हैं? आप में से अधिकांश लोगों को वह मंत्र शायद याद होगा। यदि नहीं याद हो तो आप फिर समझ सकते हैं और इसे याद कर सकते हैं। यह मंत्र है—
‘‘स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां, पावमानी द्विजानाम्। आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यम् दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।।’’
ये सात चीजें इसमें बताई गई हैं और ये अथर्ववेद ने कही हैं अर्थात् भगवान ने कही है। अगर आप वेद को मानते हों तो इसे भगवान की वाणी कह सकते हैं और अगर आप पौरुषेय वेद मानते हों तो ऋषि कह सकते हैं। बहरहाल, यह ऋषि हों अथवा भगवान। दोनों में से जो भी हो, आपको सात चीजें मिलने का वायदा करता है, वचन देता है और कसम खाता है कि आप इन चीजों को निश्चित रूप से पा सकते हैं। पाँच भौतिक पंच भूत हैं ये और पाँच ही लाभ हैं इसके। पंच देवता भी कहलाते हैं ये। पाँच प्राण हैं हमारे। पाँच चीजों से चेतन और अचेतन दोनों को मिलाकर पाँच प्राण और पाँच तत्त्व इनको मिलाकर बनाया गया है और पाँच ही लाभ ऐसे हैं, जो गायत्री मंत्र के पाँच मुखों से निस्सृत हैं।
गायत्री मंत्र को भी पाँच मुखी बताया गया है। आपने ऐसे फोटो भी देखे होंगे। हमारे यहाँ से छपते हैं, जिसमें एक ही मुख होता है गायत्री का। इसे हम बताएँगे पीछे आपको, लेकिन ऐसे भी फोटो आपको बाजार में मिलते हैं, जिसमें गायत्री के पाँच मुख बताए गए हैं। पाँच भौतिक लाभ हैं? क्या-क्या हैं, भौतिक लाभ? भौतिक लाभों में बताया गया है आयुः-आदमी का दीर्घजीवन। आदमी गायत्री उपासना से दीर्घजीवी बन सकते हैं तो क्या साहब यह ठीक है? क्या यह कोई दवा है? क्या ये कोई कायाकल्प है? क्या ये कोई ऐसी चीज है जैसी कि अमेरिका में मरा हुआ आदमी किसी नीचे तहखाने में रखा हुआ है, ठण्डक में रखा हुआ है और यह उम्मीदें की गई हैं कि इतना समय विश्राम कर लेने के बाद में उसके शरीर को रिलीफ मिल जाएगा, सहायता मिल जाएगी। हम जब उठाएँगे तो मरा हुआ आदमी जिन्दा हो जाएगा तो साहब, क्या यह इसी तरह का प्रयोग है लम्बी जिन्दगी का या कोई और इसमें जादू है या कोई दवा है। बेटे, कोई जादू नहीं है इसमें, दीर्घजीवन के लिए। दीर्घजीवन के लिए और बीमारी से बचाव करने के लिए किसी जादू की जरूरत नहीं हैं। केवल एक ही जादू की जरूरत है और जिसके शिक्षण का नाम है संयम। अगर आपके जीवन में संयम आ जाए तब, निश्चित रूप से आप निरोग भी रह सकते है और दीर्घजीवी भी हो सकते हैं। दीर्घजीवन तो हमने बिगाड़ा है। अल्प आयु और बीमारियाँ तो हमने खरीदी हैं। ये खरीदी नहीं बुलाई गई हैं। जल्दी मौत हमने बुलाई है और बीमारी को भी हमने बुलाया है सृष्टि के किसी जानवर के पास बीमारियाँ नहीं आतीं। सब आदमी, सब जानवर पैदा तो होते हैं, जवान भी होते हैं, बुड्ढे भी होते हैं और समय आता है तो मौत के मुँह में भी चले जाते हैं। पर बीमारियों का जैसा हमला मनुष्य पर होता है, वैसा किसी प्राणी के ऊपर नहीं होता। क्या वजह है बता दीजिए। भाई साहब, कोई वजह नहीं है केवल एक वजह है कि दूसरे प्राणी प्रकृति की प्रेरणा से संयमशील जीवन जीते हैं, मर्यादाओं में रहते हैं, कायदा-कानून मानते हैं, प्रकृति की आज्ञाओं का उल्लंघन नहीं करते और आदमी पग-पग पर उल्लंघन करता रहता है और असंयम बरतता रहता है। असंयम न बरते तो प्रकृति की प्रेरणाओं के आधार पर चलने के लिए अपने आपको रजामंद कर लें तो आप विश्वास रखिए, न आपको बीमार होने की जरूरत पड़ेगी और न आपको जल्दी मरने की उतावली होगी। जल्दी मरने की उतावली करने की जरूरत नहीं है। हकीम लुकमान ये कहते थे कि आदमी अपने मरने के लिए कब्र खोदता रहता है जबान की नोक से। जबान की नोक से हम कब्र खोदते हैं अपने मरने के लिए और अपने को गाड़ने के लिए। लुकमान के मुताबिक़ हम कैसे रहते हैं? जीभ की ओर इशारा उनका असंयम से था, जो हमारे प्रत्येक हिस्से में समाया रहता है। केवल जीभ से ही इसका ताल्लुक नहीं है, दूसरी इन्द्रियों से भी ताल्लुक है। दूसरी इन्द्रियों से ही ताल्लुक नहीं है, हमारे रहन-सहन से ले करके उठने-बैठने, चलने-फिरने, विचार करने तक समस्त जीवन से ताल्लुक है।
गायत्री मंत्र की प्रेरणा, गायत्री मंत्र का लाभ हमको यह बताता है कि हम दीर्घजीवी हो सकते हैं और निरोग रह सकते हैं। शर्त यही है कि गायत्री मंत्र किस तरीके से हमारे शरीर में ‘एप्लाइड’ होना चाहिए, किस तरह से प्रयुक्त होना चाहिए, यह भी जानना चाहिए। गायत्री मंत्र के साथ-साथ में कुछ सिद्धान्त जुड़े हुए हैं। सिद्धान्तों के कुछ परिणाम जुड़े हुए हैं, पहले आप समझिए उन्हें। प्रत्येक आध्यात्मिकता का वर्ग और पक्ष आदमी को कुछ सिद्धान्त समझाता है। सिद्धान्तों को प्रयोग करने के बाद में लाभ होते हैं। कोई चीज हम खाते हैं, खाने के बाद में लाभ होते हैं। कोई चीज हम खाते हैं, खाने के बाद में खून बनता है, खून बनने के बाद ताकत आती है। नहीं, साहब—खाना खाने के बाद ही ताकत आती है। बेटे, ऐसे नहीं हो सकता। खाने का खून बनता है, खून के बाद में ताकत आती है। उसी तरह जो हम मंत्र जपते हैं या उपासना करते हैं, उससे हमारे जीवन में कुछ सिद्धान्तों का समावेश होता है, कुछ आदर्श हमारे जीवन में प्रवेश करते हैं और आदर्श-सिद्धान्त जीवन में प्रवेश कर जाते हैं तो उनके फलस्वरूप सुख मिलते हैं, सुविधा मिलती है। मशक्कत करते हैं तो मशक्कत करने के बदले में पैसा मिलता है। पैसे के बदले में हम सामान खरीद लाते हैं, पैसे के बदले में हम मिठाई खरीद लेते हैं, पैसे के बदले में हम खिलौना खरीद लेते हैं। नहीं साहब, मशक्कत के बिना खिलौना मिलता है, मशक्कत के बिना बेटे, खिलौना मिलना मिलना बड़ा मुश्किल है। मशक्कत के बदले में अनाज किसान तो दे भी सकता है, पर जिसके यहाँ कपड़े की दुकान है वह आपको कहाँ से दे देगा? वह पैसा दे देगा। पैसा देने के बाद में आप चीज खरीद सकते हैं। आध्यात्मिकता का लाभ आपको सीधे नहीं मिल सकता। गायत्री मंत्र का जप किया और चीजें सीधे आपको मिलीं, ऐसे नहीं हो सकता। विद्या पढ़ी और नौकरी मिल गई। नहीं बेटे, स्कूल गए और नौकरी मिल गई। स्कूल जाने के बाद में विद्या पढ़नी पड़ती है। विद्या पढ़कर आप जानकार हो जाते हैं, होशियार हो जाते हैं और परीक्षा पास कर लेते हैं। तब नौकरी मिलती है। नहीं साहब, स्कूल में घुसते ही नौकरी मिल जाती है। नहीं बेटे, स्कूल में घुसते ही नौकरी नहीं मिल जाती, स्कूल में घुसना पड़ता है, स्कूल में घुसने के बाद में हमको उसका अध्ययन करना पड़ता है। फिर अध्ययन करने के बाद में नौकरी मिलती है। नहीं साहब, स्कूल में घुसते ही नौकरी मिल जाती है, नहीं ऐसे नहीं मिलती है बेटे, मानता क्यों नहीं है? गायत्री मंत्र का जप करने का उद्देश्य है आदमी के विचारों में और आदमी के चिंतन में हेर-फेर होना चाहिए। आदमी का व्यक्तित्व और आदमी का चिन्तन परिष्कृत होना चाहिए। अगर ऐसा हो गया है तब आपको लाभ मिल जाएगा। चाहे सांसारिक हो, चाहे आध्यात्मिक हो। अगर आपके जीवन में हेर-फेर नहीं हुआ तो कुछ लाभ नहीं मिलेगा।
अगर आपके जीवन में गायत्री उपासना ने कोई हेर-फेर उत्पन्न नहीं किया है, अगर आपको कोई प्रकाश नहीं दिया है तो आपका जीवन जैसा सामान्य मनुष्यों का घिनौना और पिछड़ा हुआ होता है, उसी स्तर का घिनौना और पिछड़ा जीवन होगा तो मैं आपसे कहता हूँ कोई भी मंत्र जिसमें गायत्री भी शामिल है, जिसमें रामायण भी शामिल है, जिसमें गीता भी शामिल है, आपके लिए कोई खास फायदा पैदा नहीं कर सकते। गायत्री मंत्र जब शरीर में प्रवेश करता है तो किस रूप में आता है? वह संयम के रूप में आता है। आदमी संयमी होता है। जब संयमी होता है संयमी होने के पश्चात् में दीर्घजीवी हो जाता है। बहुत दिन जिन्दा रहता है नीरोग रहता है। कैसे जिन्दा रहता है? वैसे बेटे ढेरों आदमी हुए हैं प्राचीनकाल में जिन्होंने लम्बी जिन्दगी पाई और मौत के मुँह में से छुटकारा पाया। प्राचीनकाल में क्या-क्या नाम थे उनके बताइए? चलिए आपको नाम बता देता हूँ—आपने सत्यवान का नाम सुना होगा। मौत उसके नजदीक आ गई थी और कह रही थी कि भाईसाहब एक साल से ज्यादा आप जिन्दा नहीं रह सकते। लेकिन उसने सावित्री का वरण किया। सावित्री का वरण करने के बाद में लम्बी उम्र तक जिए और मौत उनसे भाग गई। क्यों साहब! यह हो सकता है? हाँ, बेटे यह हो सकता है। प्राचीनकाल में होता था और अभी भी हो सकता है। चंदगीराम पहलवान का नाम आपने सुना होगा। वे टी.बी. के मरीज थे और डॉक्टरों ने कह रखा था कि आप एक साल से ज्यादा दिन तक जिन्दा नहीं रह सकते, क्योंकि आपके फेफड़ों में कैविटी बहुत गहरी हो गई है और आपके कफ़ में बराबर खून आता है और दूसरी चीजें आती हैं। आप ज्यादा दिन जिन्दा नहीं रह सकते। लेकिन उन्होंने किसी के कहने के मुताबिक़ संयमशील जिन्दगी जीना शुरू की, आहार-विहार पर नियंत्रण करना शुरू कर दिया और आजकल आप देखते हैं कि वे हिन्द केसरी के नाम से विख्यात हैं और फिल्मों में काम करते हैं। क्यों, साहब ये तो पुराने जमाने की बात है। अरे बेटा, पुराने जमाने, नए जमाने की बात क्या चलती है? पुराने जमाने में भी वही बात थी और आज के जमाने में भी वही बात है। सूरज पुराने जमाने में भी वही था और आज के जमाने में भी वही सूरज है। पहले सूरज पूरब से निकलता था अब भी वहीं से निकलता है। रात में अँधेरा पहले भी होता था, रात में अँधेरा अभी भी होता है। प्राचीनकाल से क्या मतलब और नए जमाने से क्या मतलब? जमाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रकृति के सिद्धान्तों में, भगवान के सिद्धान्तों में समय बदल जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। प्राचीनकाल की जो बात है सो अभी की बात है। सत्यवान भी सावित्री की वजह से मौत के मुँह से निकल आया था, तो वह भी ठीक है। इस जमाने में भी निकल सकते हैं।
हम एक कहानी और बता रहे हैं आपको। सैण्डो के बारे में ऐसी ही बात कही जा रही है। सैण्डो भी ऐसे ही मरीज थे। जिनके बारे में कहा जाता था कि जुकाम की वजह से वे ज्यादा दिन जिन्दा रहने वाले नहीं थे सैण्डो, पर संसार के प्रख्यात वीर हुए। नहीं साहब, लम्बी जिन्दगी तो नहीं मिली? हाँ लम्बी जिन्दगी भी मिलती है। गुरु वशिष्ठ के बारे में आपने सुना है। उनकी लम्बी जिन्दगी थी। कितनी लम्बी जिन्दगी थी? आप पुराणों को पढ़कर देख लीजिए। सारे के सारे रघुवंशियों के गुरु वशिष्ठ थे। कौन-कौन के गुरु थे? रामचन्द्र जी के थे और उनके बाप के गुरु थे—दशरथ के और उनके बाप के गुरु थे—रघु के। उसके बाद उनके बाप के गुरु थे—अज के। उसके बाद उसके बाद उसके भी बाप के गुरु थे—दिलीप के और किसके रहे? बेटे, राजा दिलीप के। दिलीप के कोई संतान नहीं थी। वे अपने गुरु के पास गये तो उन्होंने कहा—नन्दिनी गौ चराइए। नन्दिनी किसे कहते हैं? नन्दिनी बेटे गायत्री मंत्र को कहते हैं। हमारी नन्दिनी गौ को चराइए। रानी ने और उन्होंने दोनों ने तप किया था और उनके संतान हो गई थी। किनके हो गई थी? दिलीप के और फिर? फिर पाँच-सात पीढ़ी के बाद वही झगड़ा खड़ा हो गया था। फिर क्या हो गया? फिर राजा दशरथ ने कहा—महाराज जी हमारे भी संतान नहीं होती। धत् तेरे की! तेरे परबाबा के सड़बाबा के भी नहीं हुई थी और तेरे भी नहीं होती। हमारे भी नहीं होती महाराज, हमारे भी बच्चा पैदा करिए। उनको भी उपाय बता दिया और उनके भी बच्चे हो गए तो गुरु वशिष्ठ कितनी उम्र के थे? बेटे हम क्या बता सकते हैं, आप खुद अंदाजा लगा लीजिए। दिलीप से ले करके और दशरथ तक के बीच में कितनी पीढ़ियाँ चली गईं। कई पीढ़ियाँ चली गईं। सात-आठ पीढ़ियाँ चली गईं मेरे ख्याल से। ठीक से मुझे याद नहीं है, पर कई पीढ़ियाँ चली गईं। उन सबके गुरु वशिष्ठ जी थे। तो कितनी उम्र थी उनकी? बहुत लम्बी उम्र थी।
क्यों साहब, लम्बी उम्र हो सकती है? हाँ लम्बी उम्र हो सकती है। कौन-कौन की हो सकती है? बहुतों की हो सकती है। क्यों साहब आपने भी देखी है। बेटे हमने भी देखी है। किसकी देखी है आपने? लम्बी उम्र का एक आदमी हमने देखा है। रशिया के उज़्बेकिस्तान के बारे में छपता रहता है। वहाँ सौ से ज्यादा उम्र के आदमी होते हैं। लेकिन मैंने एक आदमी हिन्दुस्तान में देखा है जिसकी उम्र दो सौ वर्ष के लगभग थी, जिसे सबने देखा था। उन लोगों की बात आप जाने दीजिए। हमारे गुरु हैं, वे आपने भी देखे नहीं हैं, उनके बारे में सबूत भी हम पेश नहीं कर सकते। लेकिन जो सबूत पेश कर सकते हैं, वे ऐसे आदमी थे जिन्हें हिन्दुस्तान का बच्चा-बच्चा जानता है कि वे दो सौ वर्ष तक जिए थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के समय पर मालवीय जी जिन महात्मा को ले करके गए थे उनका नाम स्वामी कृष्णानन्द था। स्वामी कृष्णानन्द के बारे में यह अफवाह थी कि वह जब बरफ पिघलती है तो वे उठ करके खड़े हो जाते हैं और जब बरफ जमने लगती है तो उसी में जम जाते हैं। ये किंवदन्ती है उनके बारे में। जब मालवीय जी उनको ले गये थे तो रातों-रात अँधेर में ले गए थे, क्योंकि वह नंगे रहते थे और मौन भी रहते थे। वे बरफ में रहते थे। उनसे उन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कराई थी। इसका वर्णन उसकी तारीख भी है कि उन्होंने उसकी स्थापना की थी। मालवीय जी ने रात को उनकी अगवानी की थी फिर रात को ही उनको विदा कर दिया था। ये स्वामी कृष्णानन्द जी गंगोत्री के पास रहते थे, जब मैं गया था। कितने वर्ष हो गए जब मैं गया था। कितने वर्ष हो गए जब मैं वहाँ गया था। पहले वहीं था हिमालय। हिन्दू विश्वविद्यालय को बने हुए लगभग अस्सी वर्ष हो जाते हैं। उस समय भी कितनी उम्र थी उनकी, मेरी समझ से अस्सी से भी ज्यादा उम्र थी। जिन लोगों ने पहाड़ी लोगों ने उनको देखा था, मालवीय जी ने जिनसे पता लगाया था, उनसे मालूम पड़ा था कि उन्होंने भी बाप-दादाओं से ये सुना था कि ये और भी ज्यादा उम्र के हैं। अभी जब उनकी मृत्यु हुई थी तब उनके बाल सारे के सारे सफेद नहीं हो पाए थे। दाँत, जब मैं वहाँ था, आश्रम में रहता था तो उनके दाँत बत्तीसों के बत्तीसों थे। एक भी दाँत कमजोर नहीं हुआ था। अस्सी वर्ष के तो आप मानेंगे ही। अस्सी वर्ष तो हिन्दू विश्वविद्यालय को बने हो गए थे। तो वे बच्चे थे क्या तब छह महीने के? नहीं बेटे, तब भी बूढ़े थे। बुड्ढा आदमी तो गुरुजी पचास, साठ-सत्तर वर्ष का तो होता ही होगा। हाँ बेटे, इससे कम का क्या हो सकता है। हिमालय में वे जहाँ रहते थे और जाड़े के दिनों में जब कड़ाके की ठण्ड पड़ती थी, तब वे बिल्कुल नंगे रहा करते थे। बीमार थे? नहीं, बीमार नहीं थे, बिल्कुल हट्टे-कट्टे थे और ऐसे मजबूत थे कि उनकी कलाइयों और हाथ-पाँव में कोई फर्क नहीं मालूम पड़ता था।
यह कैसे हो सकता है? कैसे हो सकता है? चलिए मैं बताता हूँ। अगर आदमी गायत्री मंत्र के आधार पर वास्तव में ध्यान करे तो क्या-क्या नहीं हो सकता है। गायत्री मंत्र का केवल जप ही न करे, बल्कि जप के साथ-साथ में जो प्रेरणा है, संयम की प्रेरणा उसको भी ग्रहण करे। शरीर के बारे में गायत्री मंत्र की एक ही प्रेरणा है। उसका नाम है संयम। व्यक्ति संयम बर्तता रहेगा, चाहे ‘अ’ हो चाहे ‘ब’ हो, चाहे संत हो, चाहे संत न हो वह लम्बी जिन्दगी पा लेगा। अथर्ववेद की साक्षी या गवाही सौ फीसदी सही है। हाँ गायत्री का दूसरा सबसे बड़ा जो गुण है, जिसके ऊपर गायत्री शब्द ही रखा गया है—‘गय’। गायत्री किसे कहते हैं? ‘गय’ कहते हैं प्राण को—संस्कृत में। प्राण को मजबूत बनाने वाली, प्राण् को ताकत देने वाली, प्राण का त्राण करने वाले को गायत्री मंत्र कहते हैं। शब्दार्थ ये होता है गायत्री का। प्राण किसे कहते हैं? प्राण कहते हैं बेटे हिम्मत को, प्राण कहते हैं जीवट को और प्राण कहते हैं साहस को। दुनिया में जितने भी उन्नतिशील लोग हुए हैं, सब आदमियों के पास और कोई गुण रहा हो चाहे नहीं रहा हो, विद्या रही हो चाहे नहीं रही हो, शारीरिक बल रहा हो चाहे नहीं रहा हो, पर एक चीज जरूर रही है अच्छे कामों के लिए साहस। बुरे कामों के लिए नहीं, बुरे कामों के लिए तो डाकुओं के पास भी होता है। चोरों के पास भी होता है। उचक्के और बेईमान और बदमाशों के पास भी होता है। उस साहस का हवाला नहीं दे रहा मैं। प्राण उसकी नीयत से नहीं आता, प्राण सिर्फ अच्छे कामों के लिए आता है। अच्छे कामों के लिए हिम्मत की जरूरत होती है और आदमी उसी हिम्मत के आधार पर बढ़ते हुए चले जाते हैं। सफलता के द्वार हर एक के लिए खुले हुए हैं। लेकिन उसमें प्रवेश करना केवल उन लोगों का काम है—जो बहादुर हैं, जो हिम्मत वाले हैं, लड़ाकू हैं, जिनके अंदर जीवट है, जिनके अंदर साहस है।
जीवट, साहस, हिम्मत ये सब हमारे मनःक्षेत्र की क्षमताएँ हैं। गायत्री मंत्र का प्रवेश जब भी हमारे भीतर होगा तो ये परिणाम सामने आयेंगे ही, तो हम कैसे जाने गायत्री मंत्र आपके पास आया कि नहीं? हम कैसे जानें कि गायत्री की फिलॉसफी का आपने अध्ययन किया कि नहीं किया? हम कैसे मानें कि आपका अनुष्ठान सही हुआ कि नहीं हुआ है? हमको इन्हीं दो बातों से मानना पड़ेगा। आपको बुखार है कि नहीं हम कैसे जानें? बुखार जानने का एक ही तरीका है कि आपका शरीर गर्म होना चाहिए, तो हम मान लेंगे कि आपको बुखार है और आपके भीतर वाले हिस्से में जलन होनी चाहिए। गले को सूखना चाहिए। आपकी आँखों में जलन होनी चाहिए। बार-बार प्यास लगनी चाहिए। भीतर भड़कन होनी चाहिए। भीतर की जलन और बाहर की गर्मी, इन दो चीजों को देखकर हम बता सकते हैं कि आपको बुखार है। अगर ये न हो तो आपको बुखार नहीं है। गायत्री मंत्र की उपासना वास्तव में अपनाने की है कि नहीं, इसकी परख करनी हो तो आपके मनःक्षेत्र में हमको एक ही जानकारी प्राप्त करनी पड़ेगी कि आपके भीतर जीवट और हिम्मत है कि नहीं। हिम्मत के अभाव में, शरीर की ताकत के अभाव में आदमी को चलना-फिरना तक मुश्किल पड़ जाता है, खड़ा होना मुश्किल पड़ जाता है और भीतर वाले हिस्से को—हिम्मत को जिसको हम प्राण कहते हैं, उस प्राण के अभाव में आदमी छोटे-छोटे संकल्पों तक को पूरा नहीं कर पाता है। गायत्री मंत्र का जप करेंगे, अमुक काम करेंगे, बीड़ी पीना बंद करेंगे, जल्दी उठा करेंगे, अरे साहब दो चार दिन तो हुआ फिर न हो सका। क्यों साहब, क्यों नहीं हो सका? अरे साहब ताकत नहीं है? उठे तो सही, पर ताकत नहीं है, गिर पड़े भट से जमीन पर। बच्चा उठता है फिर गिर पड़ता है, ताकत नहीं है। इसको अंदर की जीवट कहते हैं, इसको संकल्प-शक्ति कहते हैं इसको इच्छाशक्ति कहते हैं, ‘विल पावर’ कहते हैं और बहुत से नाम हो सकते हैं, जिसे हम जीवट कहते हैं, वह हमारे मनःक्षेत्र में प्रवेश करती है। गायत्री जीवट के रूप में आती है और जीवट के रूप में आ जाए तो छोटे-छोटे बिना ताकत के आदमी न जाने दुनिया में क्या से क्या कर सकते हैं?
जीवट आदमी के पास हो तो वह क्या नहीं कर सकता? पुराना इतिहास पढ़ लीजिए, चाहे नया इतिहास पढ़ लीजिए, जीवट वाले आदमियों ने ही संसार में कुछ करके दिखाया है। कोलम्बस को लीजिए। कोलम्बस एक मामूली नाविक था। चलते-चलते इतने लम्बे सफर को पार करता हुआ आगे निकल गया। मल्लाहों ने धमकी दी थी कि हम तुम्हें मार डालेंगे, नहीं तो वापस लौट चलो। उसने कहा—नहीं, हमको जाना ही है और इण्डिया का पता लगाना ही है और वह अमरीका जा पहुँचा। आप इतिहास के पन्ने पलट डालिए सारे के सारे हिम्मत वाले आदमी ही सफल होते हैं। अब्राहम लिंकन ने चुनाव लड़े और तेरह बार चुनावों में हारते चले गए, लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि हमारे तो भाग्य ही फूट गए, हमारे कर्म में ही नहीं लिखा है। हाथ में हमारे लकीरें होतीं चुनाव में तो हम जीत जाते। उन्होंने कहा नहीं इसका कोई मतलब नहीं है, जब तक हम जिएँगे हम प्रयत्न करते चले जाएँगे और तेरहवीं बार अब्राहम लिंकन को सफलता मिली चुनाव में और वे बढ़ते चले गए। कौन बढ़ता चला गया? उनका चरित्र—बेशक, उनका ज्ञान-बेशक, उनकी विशेषताएँ-बेशक। लेकिन इन सारी की सारी विशेषताओं में एक चीज आपको याद रखनी चाहिए और उसका नाम है—हिम्मत। हिम्मत के बिना बाकी चीजें काम की नहीं हो सकतीं। राकेटों पर रख करके, मिसाइलों पर रख करके एटम बम दूर-दूर तक फेंके जा सकते हैं। मिसाइल न हो तब, तब एटम बम रख दीजिए और फेंक दीजिए ऐसे ही। बंदूक की नली में रख करके गोली दूर तक फेंकी जा सकती है। इसी तरह हिम्मत के सहारे, सिद्धान्त और आदर्शों की, आदमी के उत्थान की बातें की जा सकती हैं। जिस आदमी में हिम्मत नहीं है तो वह मरेगा। सिद्धान्तवादी तो है पर हिम्मत इसमें है कि नहीं? हिम्मत तो नहीं है। हिम्मत नहीं है तो बेकार है इसका सिद्धान्तवाद और बेकार है मतवाद। ये तो मरा हुआ आदमी है, ये मुर्दा आदमी है। हिम्मत के बिना भी कोई आदमी होते हैं। रीढ़ की हड्डी जिस आदमी के न हो तो वह आदमी क्या? इसी तरह से हिम्मत जिस आदमी के भीतर न हो वह भी क्या आदमी?
गायत्री मंत्र आदमी को हिम्मत देता है। हिम्मत देने से छोटे-छोटे आदमी भी, साधनविहीन आदमी भी क्या से क्या कर गये हैं? आप चाहे पुराणों को पढ़ लीजिए, इतिहास को पढ़ लीजिए या अखबारों को पढ़ लीजिए। इन तीनों में से जो भी आपकी मर्जी हो पढ़ सकते हैं। हिम्मत वाले आदमी दुनिया में क्या कर सकते हैं? दुनिया में हिम्मत वालों के नाम बताइए? बेटा एक का नाम था नल और एक का नाम था-नील। नल-नील क्या होते हैं? नल-नील रीछ थे। रीछ क्या कर सकते हैं? नल-नील ने समुद्र पर पुल बना दिया था। इन्होंने ये पढ़ा कहाँ से? इंजीनियरिंग कैसे सीख ली? भीतर की कशिश और भीतर की लगन, आदमी की योग्यता बढ़ाने में इतने ज्यादा सहायक होते हैं, जितने हजार अध्यापक और हजार वर्षों तक साहित्य नहीं हो सकता। नल-नील इंजीनियर थे। पर साहब वे तो रीछ थे, इंजीनियर कैसे हो गए होंगे? बेटे, मैं ज्यादा बहस तो नहीं करना चाहता, पर पुराने जमाने पर शक हो तो मैं अभी भी सैकड़ों के नाम बता सकता हूँ। मि. विश्वेसरैया से लेकर के ढेरों नाम पेश कर सकता हूँ जो बड़े मुसीबत में, गरीबी में और बड़ी कंगाली की हैसियत में और बड़े-छोटे घरों में पैदा हुए थे और अपनी कोशिशों की वजह से कहाँ से कहाँ बढ़ते चले गए? नल-नील के अतिरिक्त अच्छा और बताइए? और बेटे हिम्मत के आधार पर हनुमान को ले लीजिए। हनुमान कौन थे—बंदर। अरे तो आप बंदरों की बात कहते हैं, मनुष्यों की बात कहिए। पहले आप बंदरों की बात सुन लीजिए। मनुष्यों की बात पीछे कहूँगा। रीछ और बंदर। बंदर क्या कर सकते हैं? बंदर, बेटे समुद्र लाँघ सकते हैं, पहाड़ को उखाड़ सकते हैं। अच्छा इतना बड़ा काम कर सकते हैं? हाँ, ऐसे ढेरों आदमी हैं। आपने शीरी-फरहाद का नाम सुना है। फरहाद ने कितने लम्बे पहाड़ को काटकर कितनी लम्बी नहर ला दी थी? फरहाद का नाम इतिहास का उदाहरण हुआ और हनुमान पुराणों के हुए। आल्पस पहाड़ को किसने उठा लिया था? नेपोलियन ने। उसने कहा था—भाईसाहब, रास्ता दीजिए हमको निकलने के लिए। अगर आप रास्ता नहीं देंगे तो हम पैरों के तले से कूट डालेंगे। किसने कहा था—आल्पस पहाड़ से और आल्पस पहाड़ ने क्या जवाब दिया था? आल्पस पहाड़ ने जो दुनिया के लिए चुनौती माना जाता था, सबसे ऊँचा पहाड़ था, जिसके बारे में यह कहा जाता था कि दुनिया के इतिहास में कोई भी आदमी इसे पार न कर सका। इतने शानदार पहाड़ ने सिर झुका दिया और कहा—अगर आपकी यही हिम्मत, यही जुर्रत है तो हम आपको रास्ता देंगे और खुशी से आप चले जाइए। नेपोलियन चला गया था।
बेटे, रास्ते कितने लोगों ने दिए हैं। समुद्र की बात कह रहा था। समुद्र को चैलेंज करने वाले और भी होते रहे हैं। अगस्त्य ऋषि ने सारे समुद्र का पानी चुल्लू भर में पी लिया था और लक्ष्मण जी ने तीर लेकर समुद्र से कहा था कि हम तुम्हें सुखा देंगे। अरे साहब, ये तो गप है, पुराणों की कहानी है। अरे बाबा गप है तो इतिहास सुन ले। इतिहास नहीं सुनता है तो अभी भी पढ़ ले। आप घटना की साक्षी लीजिए। हिम्मत वाले आदमी, जुर्रत वाले आदमी जमाने को बदल देते हैं, समय को बदल देते हैं, अपने आपको बदल देते हैं, वातावरण को बदल देते हैं। शर्त ये है कि आदमी में हिम्मत और जुर्रत होनी चाहिए, जीवट होनी चाहिए। गायत्री मंत्र यदि हमारे प्राण क्षेत्र में, प्राणमय कोष में अर्थात् मानसिक क्षेत्र में प्रवेश करेगा तो क्या चीज देगा, आप ये अंदाज लगाते रहिए। गायत्री की कृपा हुई कि नहीं हुई, इसकी पहचान यह नहीं है कि गायत्री किसी को बेटा-बेटी देती है। गायत्री माता किसी को बेटा-बेटी नहीं देती है। क्या देती है? आदमी को संयम देती है, एक संयम से क्या फायदा होता है? संयम से आदमी का भौतिक जीवन और शारीरिक जीवन बलवान हो जाता है और मानसिक क्षेत्रों में गायत्री क्या देती है? गायत्री देती है—जीवट, हिम्मत अच्छे कामों के लिए, श्रेष्ठ कामों के लिए जो हमारे आपके भीतर खत्म हो गई है। हिम्मत है तो सही, आपके अंदर भी है और हमारे अंदर भी है। पर वह हिम्मत काम आती है तो सिर्फ चालाकी के काम आती है, बदमाशी के काम आती है, संग्रह के काम आती है, लोभ के काम आती है, लालच के काम आती है। जो हिम्मत श्रेष्ठ कामों के काम आती है, ऐसी हिम्मत को न हमारे पास किसी ने सीखी, न किसी ने सिखाई। जो श्रेष्ठ सिद्धान्तों और आदर्शों पर चलने के लिए और कहने लायक कुछ करने के लिए समर्थ हो सके। ये प्राण और जीवट अगर आदमी के भीतर आ जाए तो क्या हो सकता है? बेटे मैं नाम गिनता हुआ चला जा रहा हूँ आपको कि हिम्मत वाला आदमी कितना जबरदस्त हो सकता है। साधनहीन आदमी हो करके भी कैसे बड़े से बड़े आदमी के साथ में लोहा ले सकता है। गिद्ध और गिलहरी के वैसे किस्से आते हैं। जटायु ने रावण को चैलेंज किया था। आप ऐसे नहीं कर सकते, आप दूसरे की स्त्री को नहीं भगा सकते। अगर ऐसा करेंगे तो हम आपका मुकाबला करेंगे। तो क्या साहब गिद्ध में इतनी ताकत थी। गिद्ध के बेटे शरीर में नहीं थी, उसके भीतर में थी। जिसको जीवट कहते हैं। हमको नहीं मालूम है बूढ़े शरीर में ताकत थी कि नहीं, लेकिन उसके भीतर वह जीवट था, जिससे वह काल से लड़ने के लिए, मौत से लड़ने के लिए भी आमादा हो गया।
बेटे, ये गायत्री मंत्र का वह असली स्वरूप है जिसको कि हम फैलाना चाहते हैं। नकली गायत्री का नहीं। नकली गायत्री वह होती है जो बाजीगरों के काम आती है। बाजीगरों के काम आने वाली नकली गायत्री है। बाजीगरों के काम क्या आती है? देखिए साहब, हम मंत्र बुदबुदाते हैं और मिट्टी ले लेते हैं और फूँक मार देते हैं। तो क्या बन गया? ये बन गया गोल। अच्छा और निकालिए। देखिए अभी और निकालते हैं-फूँ बन गया रुपया। फूँ-ये बन गया कबूतर। ये क्या चीज है? ये है-बाजीगरी। अध्यात्म बाजीगरी नहीं है। ग्यारह माला जप कीजिए और ये सिद्ध हो गया। बेटा, गायत्री बाजीगरी नहीं हैं, जो क्रिया करते ही परिणाम दे देती है। इसे तो हथेली पर सरसों जमाना कहते हैं। ये बाजीगरों का धन्धा है, ये पेशा बाजीगरों का है। ये साइंटिस्टों का धन्धा नहीं है। जमीन में से, मिट्टी में से पैसा कमाया तो जा सकता है, लेकिन कमाने का दूसरा तरीका है। जमीन के साथ में मशक्कत की जाती है, जमीन में से फसल पैदा होती है और तब जमीन में से रुपया कमाया जाता है। नहीं, साहब ये तो बड़ा झगड़ा है। तो क्या चाहते हैं आप? बिना झगड़े के काम बताइए। बिना झगड़े के काम वही हैं, जो मैं बता रहा था। बाजीगर का धन्धा कीजिए—मुट्ठी में बालू रखिए, तीन बार डण्डी फिराइए और फूँक दीजिए, रुपया आ जाएगा। मैं क्या कह रहा हूँ? मैं तो वही बात कह रहा हूँ जो आपने समझ रखी है। आपने गायत्री मंत्र को बाजीगरी समझ रखा है, आपने गायत्री मंत्र को जादूगरी समझ रखा है। ग्यारह माला जप दीं और ये मिल गया और वो मिल गया। ग्यारह माला जपने से नहीं मिलता। किससे मिलता है? बेटे, इससे मिलता है जीवट और साहस। गायत्री मंत्र की उपासना को, गायत्री मंत्र के तत्त्वज्ञान और फिलॉसफी को जीवन में हृदयंगम करने के पश्चात् यह हमारे भीतर जीवट और साहस उत्पन्न करती है, यह उसका परिणाम है। तब हम छोटे व्यक्ति होते हुए भी बड़ी सफलताएँ प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं, हम प्राणवान बन सकते हैं।
‘‘आयुः प्राणं, प्रजाम्’’ गायत्री उपासना के प्रतिफल हैं। प्रजाम्-संतान हैं। बेटा, इस जमाने में जहाँ कहीं भी संतान की बात सुनते हैं, तो हर आदमी हमको मायूसी देता है। डॉक्टर से कहते हैं, दीवार पर पढ़ते हैं। दीवार वाले कहते हैं—डॉक्टर का कहना मानिए। किसी का न मानें तो डॉक्टर का तो कहना मानें। क्या मानें? पहला अभी नहीं, दो के बाद कभी नहीं। पहला बच्चा अभी नहीं तो कब? आज नगद कल उधार। अभी नहीं फिर कब? अब? नहीं, अभी नहीं अब दो वर्ष बाद। नहीं, अभी नहीं। तो साहब छह वर्ष बाद, नहीं साहब अभी नहीं। ये सब दीवारें चिल्लाती रहती हैं। सब फैमली प्लानिंग के नारे लगाते रहते हैं। आप क्या कहते हैं कि हमारे बच्चे हो जाएँ ये तो महाराज जी आप देशद्रोह की बात कहते हैं, समाजद्रोह की बात कहते हैं। बाप के ऊपर मुसीबत ढाने की बात कहते हैं। माँ की तंदुरुस्ती खराब करने की बात कहते हैं। ये तो बच्चों का भविष्य खराब करने की बात कहते हैं और समाज में परेशानी बढ़ाने की बात कहते हैं। संतान नहीं पैदा करने की बात कहते हैं। हाँ बेटे, अगर मैं इसी रूप में कहूँगा तो आपको यही समझना चाहिए कि आपसे भगवान जब प्रसन्न होते हैं तो बच्चे नहीं देते। दूसरे शब्दों में ये कहता हूँ कि भगवान जिससे नाराज होते हैं, उसे बच्चे देते हैं। जिससे भगवान बहुत नाराज होते हैं उसे बहुत बच्चे देते हैं। भगवान का जिस पर कोप है, समझना चाहिए कि उस पर जितने ज्यादा बच्चे हैं भगवान उतना ही ज्यादा नाराज है आज के जमाने में। तो आप क्या कह रहे थे कि आप गायत्री मंत्र का जप करेंगे तो आपके बच्चे पैदा हो जाएँगे। नहीं बेटे, आपके बच्चे तो पैदा नहीं हो जाएँगे लेकिन आपको ‘‘प्रजा’’ शब्द जो आया है उसे समझना चाहिए। यह केवल बच्चे के अर्थ में नहीं आया है। प्रजा कहते हैं—पीछे चलने वालों को और सहायता करने वालों को। पीछे चलने वालों का स्तर, साथियों का स्तर, से प्रजा कहलाती है। गाँधीजी की प्रजा का नाम बताइए? गाँधीजी की प्रजा का नाम—गाँधीजी के बेटों का नाम—जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेन्द्र बाबू, सुभाषचन्द्र बोस, पट्टाभिसीतारमैया। अभी और बताइए? अभी और बताता हूँ। अभी याद कर लेने दीजिए—डॉ. राधाकृष्णन, जाकिर हुसैन। अभी और बताइए अभी और बताएँगे। ये कौन हैं? ये उनकी संतान हैं। संतान क्या होती हैं? संतान औरत के पेट से पैदा होने वाले बच्चे को नहीं कहते हैं। संतानें उन्हें कहते हैं जो पीछे चला करते हैं। गोत्र जो चले हैं दो आधार पर चले हैं—एक तो वंश-परम्परा से गोत्र चला है और एक शिष्य परम्परा से गोत्र चला है। कश्यप-कायस्थों में ज्यादा होते हैं और ब्राह्मणों में भी कश्यप पाए जाते हैं। भारद्वाज ब्राह्मणों में भी होते हैं और भारद्वाज दूसरे वर्णों में भी पाए जाते हैं तो ये क्या हुआ, वंश परम्परा नहीं, गोत्र परम्परा कहिए, गुरु परम्परा भी, अनुयायी परम्परा भी। अनुयायियों की परम्परा भी एक होती है।
अपनी संतान हो, चाहे परायी हो। ये मैं तो नहीं कहता पर स्तर और क्वालिटी, संख्या की दृष्टि से तो कुत्ते, बिल्ली ज्यादा संतान पैदा करते हैं। यदि संख्या को भगवान की कृपा माना जाता तो मैं कहता हूँ कि भगवान सुअरों के ऊपर सबसे ज्यादा प्रसन्न होता है। एक-एक बार में सुअरिया बारह-बारह बच्चे देती है और साल भर में 24 बच्चे दे देती है। सारी जिन्दगी में मान लो दस साल सुअरिया जिन्दा रही, तो ढाई सौ बच्चे दे दिए। सबसे ज्यादा कृपा है। ये संतान नहीं है। क्वालिटी की बात कैसे हो सकती है? क्वालिटी की बात वहाँ हो सकती है जहाँ कि माता और पिता अपने जीवन को और चरित्र को इस ढंग से बनाते हैं, जहाँ ठप्पा और साँचा ढलता हुआ चला जाता है। साँचे और ठप्पे में जैसे मिट्टी लगाते हैं वैसे ही बनते हुए चले जाते हैं। विनोबा की बात का जिक्र मैं अभी कर चुका हूँ आपको, मदालसा की बात कह चुका हूँ, शकुन्तला की बात कह चुका हूँ, गंगा की बात मैं कह चुका हूँ, सीता की बात मैं कह चुका हूँ। शृंगी ऋषि की बात मैं कह चुका हूँ। अभिभावक अगर अपने स्तर को और क्वालिटी को बना सकने में समर्थ हो तो उनकी संतानें, प्रजा भी इस तरीके की बन सकती हैं।
गायत्री मंत्र के बारे में कहा गया है कि ये प्रजा दिया करती है और चौथी क्या चीज देती है? चौथी चीज देती है आदमी को कीर्ति। कीर्ति और ख्याति मे फर्क है—आप ध्यान रखना। ख्याति क्या होती है? ख्याति वो होती है, जो पैसा देकर खरीदी जा सके। ख्याति पैसा देकर खरीदी जा सकती है, पर कीर्ति पैसा देकर खरीदी नहीं जा सकती है। कीर्ति शब्द आया है ख्याति शब्द नहीं आया है इसमें। जिस गायत्री मंत्र की आप उपासना करते हैं, यह बीज मंत्र हमारी संस्कृति का मूल है। अगर आपने उपासना की है तो आपको जानना चाहिए कि आपने उपासना की है कि नहीं की है। आपकी कीर्ति होती है कि नहीं। कीर्ति किसे कहते हैं? कीर्ति बेटे, इसे कहते हैं कि जो आदमी अपने व्यक्तिगत जीवन में प्रामाणिक होता है उस प्रामाणिक आदमी को दूसरे लोग भी विश्वास करते हैं और जिस आदमी का विश्वास किया जाता है, उस आदमी का करते हैं सहयोग और सहयोग जिस आदमी का किया जाता है, वह आदमी होता है सम्पन्न। चार सीढ़ियाँ हैं सम्पन्न बनने की। आप जहाँ कहीं भी चले जाइए दुनिया में बढ़िया से बढ़िया प्रामाणिक व्यक्ति हर क्षेत्र में हुए हैं। चाहें तो सामाजिक क्षेत्र में नेता हुआ हो या कोई आदमी महापुरुष हुआ हो अथवा व्यापारिक क्षेत्र में कोई आदमी सम्पन्न आदमी हुआ हो। बहरहाल टिकाऊ उन्नति केवल उसी के हिस्से में आई है, जिसने अपने आपको प्रामाणिक सिद्ध कर दिया। हम सही हैं और ईमानदार हैं। जो वायदा करते हैं उसको पूरा करते हैं और जो हमारा वचन है वह गलत नहीं हो सकता, जिसने अपने आपको इस तरह से प्रामाणिक साबित कर दिया उस प्रामाणिक आदमी के बारे में लोगों ने विश्वास किया, भरोसा किया। हाँ साहब, यह बहुत भरोसे का आदमी है, इसके यहाँ से जो सामान आता है भरोसे का सामान आता है। यह जाली चीजें नहीं बेचता, नकली चीजें नहीं बेचता। यह खरी चीजें बेचता है, विश्वास की चीजें बेचता है। उसका परिणाम क्या होगा? आपका विश्वास हो जाएगा और विश्वास होने के बाद में आपको सहयोग मिलेगा। बाटा का कभी एक दिन मैं किस्सा सुना चुका हूँ। बाटा एक छोटा-सा चमार का लड़का था। उसने जूते इस ढंग से बनाने शुरू किए कि हर आदमी ने विश्वास कर लिया कि बड़ा ईमानदार और बड़ा खरा लड़का है। वह अपने काम को मुस्तैदी से पूरा करता है और किसी के साथ में जालसाजी नहीं करता है। विश्वास कर लिया, विश्वास करने के बाद में लोगों ने पैसे दिए, उसके द्वारा नए जूते बनवाए। लोगों में उसकी ख्याति फैली कि बहुत अच्छा आदमी है और बढ़ते-बढ़ते बाटा की दुकानें न जाने कहाँ से कहाँ चली गईं। बाटा का व्यापार बढ़ता ही गया।
यह एक नहीं बेटा, सारी दुनिया का किस्सा है। यह ने केवल व्यापार का किस्सा है, बल्कि सामाजिक क्षेत्र का भी कहता हूँ, कि प्रामाणिक आदमी तीन सीढ़ियाँ पार करने के बाद में जनता का सहयोग और समर्थन पाकर विकसित और सफल होता हुआ चला जाता है। गायत्री मंत्र कीर्ति कैसे प्रदान करती है? कीर्ति उसे कहते हैं, जिससे आदमी को गर्व संतोष है। दुनिया ने जिस आदमी की प्रशंसा की उस आदमी को भी संतोष हो सकता है। प्रशंसा के लिए कितना प्यासा है आदमी, कहाँ से कहाँ मारा-मारा डोलता है? प्रशंसा के लिए जाने क्या-क्या करता है? कोई कपड़े पहनता है, कोई फैशन बनाता है, कोई मकान बनाता है, कोई ब्याह-शादियों में धूम-धड़ाका मचाता है, कोई विज्ञापन करता है, कोई अपने नाम के पत्थर लगवाता है। जाने कितने खेल-खिलौने करता है आदमी। लेकिन इस ख्याति के लिए आपको सारे के सारे चमत्कार और खेल-खिलौने करने की जरूरत नहीं है। गायत्री मंत्र अगर हमारे भीतर आएगा तो हमारे भीतर वह प्रामाणिक पैदा होगी जो निश्चित रूप से हमको कीर्ति देने में समर्थ होगी और अगर आप कीर्तिवान हैं तो आप सफल और सम्पन्न भी होकर रहेंगे।
मित्रो, ‘‘आयुः, प्राणं, प्रजाम्, पशुं, कीर्तिम्’’ के बाद ‘द्रविणं’ अर्थात् धन के बारे में भी मैं आपसे कह चुका हूँ कि धन की मात्रा कोई एक वस्तु नहीं है। आपका यह ख्याल हो कि धन की मात्रा का बड़ा होना ही सौभाग्य नहीं है। धन का उपयोग करना चाहिए। धन का उपभोग नहीं, उपयोग। थोड़े-से पैसे जिन लोगों के पास हैं, उन लोगों ने दुनिया में इस बढ़िया तरीके से धन का उपयोग कर दिखाया कि लखपति, करोड़पति, अरबपति और खरबपति भी वह लाभ नहीं उठा सकते जो उन लोगों ने थोड़े-से पैसे का सही इस्तेमाल करके उपयोग कर लिया है। धन की समस्या—आर्थिक समस्या तीन बातों पर टिकी हुई है। एक आदमी मशक्कत करता हो, मेहनती हो। जो आदमी मेहनती नहीं है, वह सारी जिन्दगी भर दरिद्र रहेगा। दरिद्रता क्या है? दरिद्रता का मूल है—आलस। आलस की मूल है—दरिद्रता। दरिद्रता और आलस दोनों आपस में जुड़े हुए हैं। आदमी अगर मशक्कत नहीं करेगा तो गरीब रहेगा और आदमी के अंदर अगर ये महत्त्वाकांक्षा नहीं होगी कि हम अपनी योग्यताओं को बढ़ाएँ तो वह जहाँ जमकर बैठ गया है वहीं बैठा रहेगा। वह यही रोना रोता रहेगा कि हमारे माँ-बाप ने पाँचवाँ दर्जा पास करा दिया था साहब, हमारे कर्म में इससे ज्यादा विद्या नहीं लिखी है। पाँचवें दर्जे तक पढ़ाकर बाप मर गया और फिर हमने स्कूल छोड़ दिया। फिर क्यों नहीं पढ़ा? फिर क्या पढ़ते, जब हमारा बाप मर गया। आदमी को हर दिन जिस तरह से रोटी कमाते हैं, उसी तरह से अपनी ज्ञान, योग्यता और क्षमता का संवर्द्धन करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए। विदेशों में आप जाकर देखिए, वहाँ नाइट स्कूल चलते हैं। आदमी नौकरी भी करते हैं और रात में अपनी योग्यता भी बढ़ाते हैं। शनिवार-इतवार के दो दिन के स्कूल सारी दुनिया में चलते हैं। अमेरिका में जितने विद्यार्थी सबेरे की स्कूल में पढ़ते हैं, उससे दूने विद्यार्थी शनिवार-इतवार के स्कूल में पढ़ते हैं। काम करते जाते हैं और बराबर पढ़ते जाते हैं चाहे वे बुढ्ढे हों, चाहे जवान हों, बराबर पढ़ने जाते हैं, योग्यता बढ़ाते जाते हैं और सम्पन्नता कमाते हैं। योग्यता बढ़ाते नहीं और कहते हैं कि पैसा दे दें। कहाँ से पैसा दे दें। योग्यता के लिए बैठा है बाबा आदम के जमाने की और बार-बार कहता है कि हमारी नौकरी बढ़ा दीजिए और तरक्की करा दीजिए। किस बात की तरक्की करा दें? पहले योग्यता बढ़ा। नहीं साहब, योग्यता तो हम नहीं बढ़ायेंगे, हमको ऐसे ही आशीर्वाद दे दीजिए। बेटा ऐसा नहीं हो सकता। पहले अपनी योग्यता बढ़ाओ, फिर देखो तुम्हारी आर्थिक उन्नति होती है कि नहीं होती।
तो मित्रो! परिश्रमशीलता और निरन्तर योग्यता की वृद्धि यह दो उन्नति के मार्ग हैं और तीसरा उपाय है—किफायतसारी। ज्यादा खर्चे जो हमने बढ़ा रखे हैं वे नहीं बढ़ाने चाहिए। खर्चे हम बढ़ाते हैं। ढाई सौ रुपये मिलते हैं और खर्चे बढ़ा रखे हैं—साढ़े चार सौ रुपये वाले। इसलिए बेईमानी करनी पड़ती है, चोरी करनी पड़ती है, कर्ज लेना पड़ता है। किसने कहा था? खर्च बढ़ाओ। खर्च में कोई कमी क्यों नहीं कर सकता? नहीं साहब, खर्च तो हमारा बहुत बढ़ा हुआ है तो आमदनी बढ़ाओ। और अगर आमदनी नहीं बढ़ाता तो खर्चा घटाओ। खर्च घटाता नहीं है, आमदनी बढ़ाता नहीं है फिर हाथ तंगी नहीं होगी तो फिर क्या होगी? मित्रो, यह आध्यात्मिकता के सिद्धान्त हैं। गायत्री मंत्र का यदि वास्तव में आपने जप किया होगा तो आर्थिक संतुलन के बारे में आपको बराबर ध्यान रखना होगा। हम कमाते तो हैं, पर साथ ही साथ योग्यता भी बढ़ाएँ, मेहनत करें ताकि ज्यादा आमदनी हो सके। किफायतसारी पर ध्यान रखें और उतना खर्च करें जो हमारी हैसियत और हमारी कमाई के भीतर हो। पाँव हम उतना ही पसारें जितनी कि पसारना चाहिए। यह गायत्री का व्यावहारिक पक्ष है। अध्यात्म हवाई नहीं है। अध्यात्म काल्पनिक नहीं होता, अध्यात्म में छप्पर फाड़कर दौलत नहीं बरसती। अध्यात्म उस चीज का नाम है जो आदमी के भीतर गुणों के रूप में, कर्म के रूप में, स्वभाव के रूप में प्रवेश करने के बाद में आदमी का व्यक्तित्व विकसित होता हुआ चला जाता है, आदमी समर्थ और सम्पन्न होता हुआ चला जाता है।
मित्रो! जो बात ‘‘प्राणं, प्रजां, पशुं, कीर्तिं’’ के बारे में लागू होती है वही ‘द्रविणम्’—धन के बारे में भी लागू होती है। तादाद ज्यादा हो या कम हो, तादाद की बात नहीं है। बहुत-से आदमी थोड़े पैसे वाले होते हैं, पर इतना लाभ उठा लेते हैं कि जिसके क्या कहने? एक दिन मैंने आपको ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की बात कही थी। वे अपनी नौकरी का बहुत थोड़ा हिस्सा अपने लिए रखते थे और बाकी का हिस्सा विद्यार्थियों के लिए खर्च कर देते थे। वही थोड़ा-सा पैसा उनके लिए अमीरों से—करोड़पतियों से भी अधिक लाभदायक हो गया। उनका नाम बढ़ाने में, यश बढ़ाने में, उनको इतिहास में अजर-अमर कराने में उनका थोड़ा पैसा भी काम का हो गया। कितनों के पास ढेरों के ढेरों पैसे होते हैं और वे छोड़कर मर जाते हैं और उसके लिए बेटों में-पोतों में फौजदारियाँ होती हैं, लड़ाइयाँ होती रहती हैं। दौलत का सवाल नहीं है, तादाद का सवाल नहीं है। दौलत का इस्तेमाल करने, दौलत का उपयोग करने का सवाल है। यह मुख्य सवाल है। दौलत कैसे कमाई गई और कैसे खर्च की गई, यह विवेकशीलता पर आधारित है। जिसको ऋतम्भरा-प्रज्ञा कहते हैं। गायत्री मंत्र का जप करने वालों में यह समझदारी भी आएगी कि पैसा अगर आया है तो उसे खर्च कैसे करें? पैसा कमाएँ कैसे? गलत तरीके से अगर आपने पैसा कमा लिया है तो गलत तरीके से ही जाएगा। जो पैसा आदमी को रुला करके आया है वह पैसा आपको रुला करके ही जाएगा। जो आपने रुला करके वसूल किया है, वह रुला करके जाएगा, ध्यान रखिए। इसलिए मित्रो, पैसे की तादाद की बात नहीं है। पैसे की क्वालिटी की बात है, पैसे की स्तर की बात है कि पैसा किस तरह का होना चाहिए? ‘द्रविणं’ इसी को कह सकते हैं।
इस तरह ‘द्रविणं’ सहित सांसारिक पाँच फायदे हो गए और दो फायदे आध्यात्मिक हैं। एक तो है ‘ब्रह्मवर्चस्’ और एक है—‘‘पावमानी द्विजानाम्’’ जो मनुष्य के जीवन को दुबारा से जन्म देती है। हर आदमी माँ के पेट में से अनगढ़ जानवर पैदा होता है। जानवरों की दो ही इच्छाएँ रहती हैं—एक पेट भरने की और दूसरी औलाद पैदा करने की इच्छा। इसलिए हर आदमी जानवर पैदा होता है—‘‘जन्मना जायते शूद्रः’’ अर्थात् जन्म से हर आदमी शूद्र पैदा होता है, लेकिन अगर भगवान् के सम्पर्क में आता है तो जैसे लोहा पारस के सम्पर्क में आता है तो सोना हो जाता है, इसी तरीके से यदि व्यक्ति अध्यात्म के सम्पर्क में आता है, गायत्री माता के सम्पर्क में आता है तो सोना हो जाता है, अर्थात् उसका स्वरूप बदल जाता है, फिर वह जानवर नहीं रहता, इनसान हो जाता है। इनसान को कहते हैं—द्विज। इनसान किसे कहते हैं? इनसान उसे कहते हैं जिसके सामने पेट मुख्य नहीं है, औलाद मुख्य नहीं है, उसके सामने सिद्धान्त मुख्य हैं, जिसके लिए जिन्दगी मिली है। जिसके सामने सिद्धान्त मुख्य है वह इनसान है और जिसके सामने सिद्धान्त मुख्य नहीं है, पशु-प्रवृत्तियाँ जिसके सामने मुख्य हैं वह शरीर की दृष्टि से आदमी होते हुए भी हैवान कहा जाएगा। एक शब्द नर-पशु आता है। नर-पशु किसे कहते हैं? नर-पशु बेटे उसे कहते हैं, जिसकी शक्ल तो इनसान-सी होती है, लेकिन ईमान जिसका जानवर जैसा होता है। ईमान जिसका जानवर जैसा है और शक्ल इनसान जैसी, उसका नाम है नर-पशु। नर-पशुओं के रूप में हम और आप सब विद्यमान हैं। लेकिन नर-नारायण के रूप में, नर-देवता के रूप में, पुरुष से पुरुषोत्तम के रूप में जो जिन्दा है उनको ही मनुष्य कह सकते हैं।
मनुष्य को द्विज कहना दुबारा जन्म की निशानी है। इसलिए उसे ‘द्विज’ कहा गया है कि उसका दुबारा जन्म हो जाता है। गायत्री माता के पेट से जो बच्चा पैदा होता है उसी का नाम है ‘द्विज’ अर्थात् सिद्धान्तवादी अर्थात् आदर्शवादी। जो वास्तव में मनुष्य होता है उसी का नाम है—द्विज। जो द्विज होता है वह पावमानी अर्थात् पवित्र होता है। आदमी अपवित्र होता है-खून का बना हुआ, माँस का बना हुआ, टट्टी-पेशाब का घड़ा अपवित्र है और पवित्र कैसे होता है? पवित्र ज्ञान से होता है। पवित्र सत्कर्म से हो जाता है। पवित्र सद्भाव से हो जाता है। गायत्री मंत्र आध्यात्मिक जीवन में जब प्रवेश करता है तो ‘‘पावमानी द्विजानाम्’’ दुबारा जन्म देता है और आदमी को भीतर से, बाहर से, हर जगह से पवित्र बना देता है। स्वच्छ, पवित्र, इसकी वाणी पवित्र, इसका शरीर पवित्र, इसके कपड़े पवित्र, इसका व्यवहार पवित्र, इसका वचन पवित्र, इसका दृष्टिकोण पवित्र हर चीज में जहाँ पवित्रता का समावेश है ऐसा द्विज बनाती है गायत्री। ये है आध्यात्मिकता का एक चरण—‘‘पावमानी द्विजानाम्’’—आध्यात्मिक सम्पदा।
आध्यात्मिक सम्पदा का दूसरा वाला चरण है—‘‘ब्रह्मवर्चसम्’’। ब्रह्मवर्चस् किसे कहते हैं? ब्रह्मवर्चस् भी एक ताकत है। दुनिया में बहुत सारी ताकतें हैं। एक ताकत वह है, जो शरीर की ताकत कहलाती है। एक ताकत वह है जो पैसे की ताकत कहलाती है। एक ताकत वह है, जो अक्ल की ताकत कहलाती है। एक ताकत वह है जो मनुष्य की संघबद्धता की, मनुष्यों के समूह की और समुदाय की ताकत कहलाती है। पाँच ताकतें दुनिया की हैं, लेकिन सबसे बड़ी ताकत जो आदमी की है वह है—रूहानी ताकत, ब्रह्मवर्चस् की ताकत। ब्रह्मवर्चस् की कैसे होती है? ब्रह्मवर्चस् की ताकत के बारे में पुराने ऋषियों की बात बताऊँ आपको। पुराने ऋषियों की बात जाने दीजिए, कल-परसों की बात मैं बता सकता हूँ। एक दुबला-पतला छियानवे पौण्ड का आदमी, कमजोर जैसा आदमी एक हंटर और एक चाबुक लेकर खड़ा हो जाता है और शेर को कहता है कि तमाशा दिखाइए, दो पैर से खड़े हो जाइए। उसने ब्रिटेन के शेर को कहा—‘क्विट इण्डिया’ हिन्दुस्तान छोड़िए। हिन्दुस्तान के सर्कस के रिंग मास्टर का हण्टर देखकर अँग्रेज काँप गए और अपना बोरिया-बिस्तर बाँध करके हिन्दुस्तान के बाहर चले गये। ये कौन-सी ताकत थी? ये रूहानी ताकत थी। ये आध्यात्मिक ताकतें थीं। आध्यात्मिक ताकतें कैसी होती हैं? इसे आप इतिहास में देखिए। महापुरुषों की ताकतें, महामानवों की ताकतें, ज्ञानियों की ताकतें, ऋषियों की ताकतें शारीरिक नहीं थी, मानसिक भी नहीं थी, बौद्धिक भी नहीं थी, दौलत के हिसाब से वह कोई बलवान् नहीं थे और पैसे वाले नहीं थे, लेकिन उनके पास असली ताकत जो थी वह रूहानी ताकत थी, जिसको हम आत्मबल कहते हैं। गायत्री मंत्र जब किसी के पास आता है, तब क्या करता है—उसको आत्मबल प्रदान करता है जिसको हम योगाभ्यास से तपश्चर्या के नाम से कभी बतायेंगे।
आत्मबल कैसे पैदा होता है? आत्मबल के लिए दो ही तरीके हैं। एक का नाम योग है और एक का नाम तप है। अध्ययनशीलता, विचारों का परिष्कार, इसका नाम योग है और तप का अर्थ है—व्यवहार में सिद्धान्तों को इस तरह से समावेश करना, भले ही हमको कठिनाइयाँ बर्दाश्त करनी पड़ें, लेकिन कठिनाइयों को बर्दाश्त करते हुए भी हम शालीनता के रास्ते पर चलते चले जाएँ। यह तप का सिद्धान्त है। योग का सिद्धान्त है अपने आपको, अपने चिन्तन को भगवान् के चिन्तन के साथ मिला देना। अपने आदर्शों को भगवान् के दृष्टिकोण के साथ में मिला देना—यह योग है। योग और तप दोनों को मिला देने से, गायत्री और सावित्री को मिला देने से, गायत्री का तत्त्वज्ञान और गायत्री का उपयोग, गायत्री की फिलॉसफी गायत्री की प्रक्रिया और गायत्री की उपासना दोनों को मिला देने से जो चीज पैदा होती है, उसका नाम है—‘ब्रह्मवर्चस्’। क्यों साहब ये बातें हमारी कुछ समझ में आई तो सही, जो कुछ आपने कहा व्याख्यान में, पर कुछ बात जमती नहीं है कि ये कैसे ठीक हो सकती है, कैसे नहीं हो सकती है। मित्रो, ज्यादा तो मैं क्या कह सकता हूँ पर अभी ऋषियों की बातें मैंने आपको बताईं। प्राणवानों की बातें बतायीं, अभ्यास की बातें बताईं। लेकिन अगर आपको इसमें भी शक हो तो मैं बड़ी नम्रतापूर्वक एक और गवाही आपके सामने पेश कर सकता हूँ, जिसको झुठलाने का हममें से कोई भी आदमी हिम्मत नहीं कर सकेगा। अच्छा बताइए एक और गवाही। एक गवाही के रूप में हमको इसीलिए आना पड़ा आपके सामने। हम दूसरे कामों में लगे हुए थे, पर भगवान् ने गायत्री मंत्र का प्रचार करने के लिए भेज दिया और साथ में उन सारी विशेषताओं को साथ लेकर के भेजा कि लोग ये पूछताछ करेंगे कि क्यों साहब, आप गायत्री मंत्र की जो विशेषता भौतिक और आध्यात्मिक लाभ के रूप में बताते हैं, वे कहाँ तक सही हो सकती है। आप साबित कीजिए। तो बेटे हम कैसे साबित करेंगे, हम कहाँ-कहाँ से सबूत लाते फिरेंगे, कहाँ-कहाँ से गवाही इकट्ठी करते फिरेंगे? इन गवाहियों और सबूतों के सामने हम अपने आपको पेश करते हैं आपके सामने। ये जो पाँचों, सातों बातें हैं यही ठीक ढंग से, सही ढंग से गायत्री की उपासना की जाए तो सहज ही उपलब्ध हो जाती हैं।
सही ढंग से गायत्री उपासना क्या होती है? आगे चलकर हम आपको बता देंगे, जो हमने की है। जिस ढंग से हमने गायत्री उपासना की है। हमारे ज्ञान और हमारे कर्म दोनों में ही गायत्री का समावेश हुआ है। परिणाम क्या हुआ? जो लाभ हम बता चुके हैं, अभी और उसे पूरा करते हैं कैसे? लम्बी जिन्दगी, हमारी कितनी जिन्दगी है, बहुत लम्बी जिन्दगी है। कितनी लम्बी जिन्दगी है? उम्र के हिसाब से, जन्मपत्री के हिसाब से डेट ऑफ बर्थ के हिसाब से हमारी सत्तर वर्ष उम्र होती है और वैसे कितनी होती है? वैसे जो अभी बता रहा था कि पाँच लाभ गायत्री के होते हैं। गायत्री के पाँच मुख और और पंचकोष हैं—इस हिसाब से हमारी साढ़े सौ वर्ष उम्र हो जाती है। जो हमने काम किए हैं जिन्दगी में, आप पता लगा सकते हैं और तलाश कर सकते हैं कि इतने काम कोई आदमी साढ़े तीन सौ वर्ष से कम में कर सकता है क्या? हमने जितना साहित्य लिखा है ये सत्तर वर्ष से कम में नहीं लिखा जा सकता है। हमने जो संगठन किया है—इतना बड़ा संगठन करने के लिए कम से कम इतनी उम्र चाहिए जो कि ऊपर बताई गई है। दस लाख आदमी हमारे पास हैं, वे हमारे संघ में इस कदर जुड़े हुए हैं जैसे आप देख सकते हैं। अगले वर्ष हमारा निश्चय है कि हमारे साथ में चौबीस लाख के करीब आदमी जुड़े हुए होंगे। इतना बड़ा संगठन है। अरे बेटे, हिन्दुस्तान के सब संगठनों से बड़ा संगठन है। हिन्दुस्तान में दस-ग्यारह लाख राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पास आदमी हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के पास पाँच-छः लाख आदमी हैं और दूसरी पार्टी जैसे जनता पार्टी के पास कह नहीं सकते हैं कि कितने हैं? काँग्रेस के पास पहले चार-पाँच लाख आदमियों का संगठन था। सबको मिलाकर बीस-इक्कीस लाख के करीब हो जाते हैं और हम अगले वर्ष के संगठन की दृष्टि से चौबीस लाख होंगे। सारे संगठनों को अगर मिला देते हैं—राजनीतिक संगठनों को, धार्मिक संगठनों को, सामाजिक संगठनों को तो भी सबसे ज्यादा हमारी तादाद जा पहुँचती है। हिन्दुस्तान से लेकर के सारे विश्व भर में इसकी शाखाएँ फैली हुई हैं। ये क्या बात है? कितना काम कर लिया? बेटे, हमने अपनी उपासना भी कर ली, चौबीस लक्ष पुरश्चरण भी कर लिए, साहित्य का निर्माण भी कर लिया और ये संगठन भी कर लिया। लाखों आदमी अपनी मुसीबतों को लेकर के आते हैं, उनकी सहायता करने के लिए भी हमको कुछ करना पड़ता है। देना पड़ता है कुछ। आशीर्वाद जबान से भी दिए जाते हैं, उसमें अपने तप का एक हिस्सा भी देना पड़ता है। उसमें भी हमको काम करना पड़ता है। पाँच हिस्सों में हम अपना काम करते हैं। एक समय में पाँच कल-पुर्जे और पाँच मशीनें हमारी काम करती रहती हैं। एक मशीन हमारी लेखन का काम करती है, एक मशीन हमारी संगठन का काम करती है, एक मशीन हमारी तपस्वी का काम करती है, ताकि दूसरों को वरदान देने के काम आ सके। एक मशीन हमारे गुर्दे के पास रहती है और अपना जो मूल लक्ष्य है, जीवन का उसको पूरा करने के लिए हम तालमेल बिठाते रहते हैं। इस तरह हम पाँच हिस्सों में एक साथ काम करते हैं।
आपकी उम्र कितनी है? उम्र को तो बेटे, काम से देखा जाता है। शंकराचार्य सोलह वर्ष की उम्र में पैदा हुए थे, बत्तीस वर्ष की उम्र में मर गए। सोलह वर्ष जिए। सोलह वर्ष नहीं जिए एक सौ साठ वर्ष जिए। समय को देखते हुए यह नहीं देखते हैं कि काम क्या किया है और कितना किया है? हम तो अस्सी वर्ष के हैं। अस्सी वर्ष के हैं तो काम क्या किया है बताइए? आप पच्चीस वर्ष जिए तो भी अच्छा है, यदि कुछ किया है तब। भगतसिंह के तरीके से तो पच्चीस साल भी आपके लिए काफी हैं। इसलिए काम क्या किया यह बताइए? ज्यादा लम्बी जिन्दगी से क्या मतलब है आपका? ज्यादा जिन्दगी तो साँप की होती है, कछुए की होती है। क्या आप इसी को ज्यादा जिन्दगी कहते हैं। मित्रो! आयु की दृष्टि से अभी हम सौभाग्यवान हैं। अभी आपकी कितनी आयु हो सकती है? बेटे, हमको मालूम नहीं है, कहीं ट्रांसफर हो गया तो अलग बात है। बेटे शरीर का जहाँ तक ताल्लुक है, हमारे शरीर में अभी कहीं बुढ़ापा नहीं आया है। अभी कहीं भी ऐसी चीज नहीं आई है, जिसे देखकर हमें यह कहना पड़े कि जवानी में कमी आ गई। सत्तर साल के हैं हम। इस सत्तर साल में भी हम बिल्कुल जवान हैं। कितने जवान हैं? सत्तर और एक—अब इकहत्तरवाँ वर्ष शुरू होता है तो कितना हो सकता है? एक को इधर रख लीजिए और सात को इधर रख दीजिए, तो हो जाते हैं—सैवण्टीन—सत्रह। सत्रह अरे ये अक्षरों का है बेटे, बोलने में गड़बड़ पड़ जाती है और प्रोनाउन्सिएशन का फर्क है अन्यथा सैवण्टीन या सेवण्टी—सत्रह और सत्तर में तो बोलने का फर्क है बात एक ही है। सत्रह और सत्तर में क्या फर्क होता है? बेटे कोई फर्क नहीं होता। फर्क होता है तो हमें देख लें। मित्रो! इतना लम्बा आयुष्य कैसे हो सकता है? गायत्री मंत्र की उपासना, जिसका हम आपको शिक्षण करते हैं, जिसको हम आपके द्वारा सारे विश्व में फैलाना चाहते हैं। इसके द्वारा हम आयु के बारे में अपनी गवाही देते हैं। हम आपको ‘प्राण’ की साक्षी देते हैं। हम प्राणवान भी हैं। सारा समाज एक ओर और हम अकेले। सारे समाज को, युग को बदल देने के लिए, जमाने को बदल देने के लिए, फिजाँ को बदल देने के लिए हम हिम्मत रखते हैं। सारे पानी की धारा एक ओर अकेली मछली एक ओर। जिस तरह पानी की धारा उल्टी दिशा में चीरती हुई, छरछराती हुई निकल जाती है उसी तरह हिम्मत न हारने की हमारी हिम्मत है। हम सिद्धान्तों के लिए, आदर्शों के लिए संघर्ष करते हैं। जब हर आदमी घबराता हो तो समाज में अच्छे काम के लिए कौन मदद करेगा? बुराइयों को आप दूर कैसे कर पायेंगे? हम बुराइयों को दूर करने के लिए और अच्छाइयों का संवर्द्धन करने के लिए एकाकी काम करते हैं। ‘‘एकला चलो रे’’, ‘‘एकला चलो रे’’ रवीन्द्र नाथ टैगोर की इस कविता को गाते हुए और गुनगुनाते हुए हम चलते हैं। कौन-कौन चलता है? एक हम चलते हैं और एक हमारा प्राण चलता है, एक हमारा जीवट चलता है और एक हमारी हिम्मत चलती है और कोई चलता है? और कोई नहीं चलता। एक हम और एक हमारी हिम्मत और कोई! और कोई नहीं है हमारे साथ। दो ही हैं एक हमारी आत्मा और एक हमारी जुर्रत और एक हमारी हिम्मत। इनको लेकर के हम बढ़ते चले जाते हैं।
हमारी तरह से आप भी प्राणवान हो सकते हैं, शर्त केवल यही है कि गायत्री उपासना के सही रूप को और सही सिद्धान्त को आप समझ पाएँ और सही रूप में जीवन में प्रवेश करने के लिए हिम्मत इकट्ठी कर पाएँ। कीर्ति भी मिल सकती है क्या? कीर्ति के लिए बेटे, हम क्या कह सकते हैं आपको। ‘प्रजाम’ प्रजा के लिए क्या कहेंगे? अभी तो आपसे कह चुके हैं। कितनी प्रजा है हमारी? अभी हमारी बेटे दस लाख प्रजा है और इस रजत जयन्ती वर्ष पर हमने कसम खाई है कि अपनी प्रजा में से प्रत्येक के एक पोता पैदा करेंगे। दस लाख बच्चों में से प्रत्येक के एक पोता पैदा करेंगे। इसी तरह का हम सबको आशीर्वाद देंगे कि एक पोता हर एक के होना चाहिए। क्यों साहब, हमारी उम्र तो बहुत हो गई, हम तो साठ साल के हैं, हमारे भी होगा क्या? बेटे, आपके भी होगा। कहाँ से होगा? आपकी दाढ़ी में से होगा, आपके पेट में से होगा। हमारी औरत तो है भी नहीं। तो क्या हुआ औरत से क्या मतलब है? औरत से बच्चे होते हैं कोई। ऋषियों के औरतें नहीं थीं फिर भी उनकी अनेकों संतानें थीं। औरतें होना अलग बात है और बच्चे होना अलग बात है। आपमें से दस लाख आदमियों में से एक-एक पोता हमारे होगा तो अगले एक साल के भीतर हम दो गुना हो जाएँगे। नौ महीने के भीतर बच्चे हो जाते हैं। ब्याह हो जाते हैं लड़कियों के और साल भर बाद वे गोदी में बच्चा ले आती हैं। एक साल में हम चौबीस लाख के करीब होंगे। ये हमारी प्रजा है। यह ऐसी प्रजा है जिस पर हमको फक्र है, गर्व है। आपको अपने बच्चों पर गर्व नहीं है, आप तो अपने बच्चों की शिकायतें लेकर आते हैं। हमारा बच्चा बड़ा नालायक है। हमारा बच्चा कहना नहीं मानता। हमारा बच्चा ऐसा है। हमें किसी बच्चे से शिकायत नहीं है। हमारे पास ऐसे-ऐसे बच्चे निकलकर आते हैं कि क्या कहने, जब हम हुक्म देते हैं तो वे चले आते हैं।
मित्रो! ‘प्रजाम’ के अतिरिक्त कीर्ति भी है हमारी। हिन्दुस्तान से लेकर संसार के कोने-कोने तक इस नाम को आप जानना चाहें जो हिन्दू-संस्कृति का आरंभ से अंत तक व्याख्यान करने वाला है। हिन्दू संस्कृति को आरम्भ से अंत तक समझाने वाला एक भी आदमी ढूँढ़कर लाइए तो, आपको दूसरा आदमी नहीं मिल सकता जिसने भारतीय संस्कृति को गायत्री मंत्र से लेकर के अठारह पुराणों तक का सारा का सारा सांगोपांग ढाँचा खड़ा कर दिया हो। साइन्स के आधार पर विज्ञान और अध्यात्म का प्रतिपादन करना एक नयी शैली है। साइन्स अलग मानी जाती थी और अध्यात्म अलग माना जाता था। दोनों में कोई तालमेल नहीं खाता था। दोनों में आपस में लड़ाई थी। आप कहेंगे कि जहाँ साइन्स खत्म होती है, वहाँ से अध्यात्म शुरू होता है। नहीं बेटे, दोनों को हम मिलाकर चलते हैं। हमारा शरीर और हमारी आत्मा दोनों मिलकर चलते हैं। शरीर खत्म हो जाता है तो आत्मा शुरू होती है। नहीं, ऐसा नहीं है। शरीर-आत्मा मिलकर चलते हैं। विज्ञान और अध्यात्म मिलकर चलता है। यह नयी बात है। रूसो ने कहा था—आप जनता पर राज कर सकते हैं। लोगों ने कहा—गलत है। जनता पर राज तो राजा करता है, प्रजा राज नहीं कर सकती है। प्रजा राज कर सकती है, रूसो ने कहा था। कार्ल मार्क्स ने कहा था—धन का वितरण होना चाहिए, धन पर सबका समान अधिकार होना चाहिए और हमने कहा है कि भौतिक-विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही जो तत्त्व हैं, ये आपस में मिलकर चलने चाहिए, आपस में दोनों को समन्वित होना चाहिए और वे समन्वित हैं भी। यह प्रतिपादन अब तक हम करते रहे हैं अखण्ड-ज्योति के द्वारा आपने पढ़ा भी है। अब हम और भी बड़े कदम उठाते हैं। आप देखेंगे कि थोड़े दिनों के बाद, हमारे मरने के बाद या हमारी जिन्दगी में लोग ये कहेंगे कि ऐसी शुरुआत एक आदमी ने की विज्ञान के आधार पर, जिसको कि आध्यात्मिकता के प्रतिपादन के लिए आवश्यक नहीं माना जाता था। इसको फिलॉसफी कहते हैं। लाजिक भी कह सकते हैं। यह भी विज्ञान का एक अंश है। इसके आधार पर अध्यात्म का प्रतिपादन करने के लिए कीर्ति के हिसाब से शायद दुनिया हमारा ख्याल करती रहे। पैसे के हिसाब से भी आपको मालूम ही है। आप देखते ही हैं। आप लोग चौके में भोजन करने जाते हैं—पाँच सौ आदमी नित्य भोजन करते हैं। फिर दूसरा दिन आता है। जब आप लोग चाय पीते हैं। पाँच सौ आदमी दोनों टाइम भोजन करते हैं। ये कहाँ से आ जाता है, बेटे हम नहीं जानते। नहीं, आपको तो कोई पैसा देता है? कोई सेठ-साहूकार देते हैं? जरा बताना आप लोगों में से कौन सेठ-साहूकार हैं, हम आपको दे जाते हैं। खाने के पैसे भी तीन-चौथाई मुश्किल से आ पाते हैं। कहाँ से आ जाता है? हम नहीं जानते, कहाँ से गायत्री तपोभूमि बनाई, इसमें दस लाख रुपया लग गया। शान्तिकुञ्ज बनाया इसमें दस लाख रुपया लग गया। ब्रह्मवर्चस बनाया, दस लाख रुपया लग गया। गायत्री भवन बनाने वाले हैं। कितना रुपया लगेगा मालूम नहीं, बेटे कितना रुपया लगेगा। हिसाब मत फैलाइए। कहाँ से आता है—‘द्रविणम्’। ‘द्रविणम्’ भी आता है। गाँधी जी के पास भी करोड़ों रुपये आते थे। हमारे पास भी आएगा। कहाँ से आएगा हम नहीं जानते। कहीं से आएगा पर आएगा जरूर। आपका कमाया हुआ नहीं है। नहीं हमारा कमाया हुआ नहीं है। लोगों का दिया हुआ है। लोगों का दिया भी हो सकता है। फिर कहाँ से आता है? हम नहीं जानते बेटे, कहाँ से आता है। इसी को तो मैं आपसे कहता हूँ—‘द्रविणम्’। अर्थात् भगवान् का दिया हुआ धन।
‘ब्रह्मवर्चसम्’ ब्रह्मवर्चस कैसे होता है? वैसे ही जैसे इमारत आपने देखी है, जब आप जाते हैं टहलने। यही ब्रह्मवर्चस है। नहीं, बेटे यह ब्रह्मवर्चस तो इमारत है। ब्रह्मवर्चस और होता है। कैसा होता है? हमारी मुँह से सुनने की अपेक्षा आप अंदाज लगाइए कि ब्रह्मवर्चस कैसा हो सकता है? ब्रह्मतेज कैसा हो सकता है? ब्राह्मण कैसा हो सकता है? ब्राह्मण की वाणी कैसी हो सकती है? ब्राह्मण का चेहरा कैसा हो सकता है? ब्राह्मण का वचन कैसा हो सकता है? ब्राह्मण का व्यक्तित्व कैसा हो सकता है? ये आप अंदाजा लगाइए। हम इस अंदाज को खत्म करते हैं और यह कहते हैं कि आप हमें देख लें। गायत्री मंत्र जिसका हम आपको शिक्षण करते हैं। गायत्री मंत्र जिसकी हमने जीवन भर उपासना की है। गायत्री मंत्र जिसका विस्तार हम सारे संसार में करना चाहते हैं। यह उन सारे के सारे सामर्थ्यों से भरा हुआ है, जो व्यक्ति की भौतिक और आत्मिक दोनों सफलताओं के द्वार खोलने में समर्थ है। यह है गायत्री मंत्र की सामर्थ्य। आज इतना ही। बाकी कल।
ॐ शान्ति।