किसी भी शक्ति का उपयोग रचनात्मक एवं ध्वंसात्मक दोनों की रास्तों से होता है। इसी तरह विचारों की शक्ति भी है। उसको पुरोगामी होने से मनुष्य के उज्ज्वल भविष्य का द्वार खुल जाता है और प्रतिगामी होने पर वही शक्ति उसके विनाश का कारण बन जाती है।अधोगामी विचार मन को चंचल, क्षुब्ध, असन्तुलित बनाते हैं। जबकि सद्विचारों में डूबे हुए मनुष्य को धरती स्वर्ग जैसी लगती है।
मानव जीवन विचारों का प्रतिबिम्ब
मनुष्य का जीवन उसके विचारों का प्रतिबिम्ब है। सफलता- असफलता, उन्नति- अवनति, तुच्छता- महानता, सुख- दुःख, शांति- अशांति आदि सभी पहलू मनुष्य के विचारों पर निर्भर करते हैं। किसी भी व्यक्ति के विचार जानकर उसके जीवन का नक्शा सहज हीमालूम किया जा सकता है। मनुष्य को कायर- वीर, स्वस्थ- अस्वस्थ, प्रसन्न- अप्रसन्न कुछ भी बनाने में उसके विचारों का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है। तात्पर्य यह है कि अपने विचारों के अनुरूप ही मनुष्य का जीवन बनता- बिगड़ता है। अच्छे विचार उसे उन्नत बनायेंगेतो हीन विचार मनुष्य को गिराएँगे।
स्वामी रामतीर्थ ने कहा है- ‘‘मनुष्य के जैसे विचार होते हैं वैसा ही उसका जीवन बनता है।’’ स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ‘‘स्वर्ग और नरक कहीं अन्यत्र नहीं, इनका निवास हमारे विचारों में ही है।’’ भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए कहा था- ‘‘भिक्षुओ! वर्तमान में हम जो कुछ हैं अपने विचारों के ही कारण और भविष्य में जो कुछ भी बनेंगे वह भी अपने विचारों के कारण।’’ शेक्सपीयर ने लिखा है- ‘‘कोई वस्तु अच्छी या बुरी नहीं है। अच्छाई- बुराई का आधार हमारे विचार ही हैं।’’ ईसामसीह ने कहा था- ‘‘मनुष्य के जैसेविचार होते हैं वैसा ही वह बन जाता है।’’ प्रसिद्ध रोमन दार्शनिक मार्क्स आरीलियस ने कहा है- ‘‘हमारा जीवन जो कुछ भी है, हमारे अपने ही विचारों के फलस्वरूप है।’’ प्रसिद्ध अमरीकी लेखक डेल कार्नेगी ने अपने अनुभवों पर आधारित तथ्य प्रकट करते हुए लिखा है- ‘‘जीवन में मैंने सबसे महत्त्वपूर्ण कोई बात सीखी है तो वह है विचारों की अपूर्व शक्ति और महत्ता, विचारों की शक्ति सर्वोच्च तथा अपार है।’’
संसार के समस्त विचारकों ने एक स्वर से विचारों की शक्ति और उसके असाधारण महत्त्व को स्वीकार किया है। संक्षेप में जीवन की विभिन्न गतिविधियों का संचालन करने में हमारे विचारों का ही प्रमुख हाथ रहता है। हम जो कुछ भी करते हैं विचारों की प्रेरणा से हीकरते हैं।
संसार में दिखाई देने वाली विभिन्नताएँ, विचित्रताएँ भी हमारे विचारों का प्रतिबिम्ब ही है। संसार मनुष्य के विचारों की ही छाया है। किसी के लिए संसार स्वर्ग है तो किसी के लिए नरक। किसी के लिए संसार अशान्ति, क्लेश, पीड़ा आदि का आगार है तो किसी के लिएसुख- सुविधा सम्पन्न उपवन। एक- सी परिस्थितियों में, एक- सी सुख- सुविधा समृद्धि से युक्त दो व्यक्तियों में भी अपने विचारों की भिन्नता के कारण असाधारण अन्तर पड़ जाता है। एक जीवन में प्रतिक्षण सुख- सुविधा, प्रसन्नता, खुशी, शान्ति, सन्तोष काअनुभव करता है तो दूसरा पीड़ा, क्रोध, क्लेशमय जीवन बिताता है। इतना ही नहीं कई व्यक्ति कठिनाई का अभावग्रस्त जीवन बिताते हुए भी प्रसन्न रहते हैं तो कई समृद्ध होकर भी जीवन को नारकीय यंत्रणा समझते हैं। एक व्यक्ति अपनी परिस्थितियों में सन्तुष्टरहकर जीवन के लिए भगवान् को धन्यवाद देता है तो दूसरा अनेक सुख- सुविधाएँ पाकर भी असन्तुष्ट रहता है। दूसरों को कोसता है, महज अपने विचारों के ही कारण।
प्राचीन ऋषि- मुनि आरण्यक जीवन बिताकर, कन्द- मूल खाकर भी सन्तुष्ट और सुखी जीवन बिताते थे और धरती पर स्वर्गीय अनुभूति में मग्न रहते थे। एक ओर आज का मानव है जो पर्याप्त सुख- सुविधा, समृद्धि, ऐश्वर्य, वैज्ञानिक साधनों से युक्त जीवनबिताकर भी अधिक क्लेश, अशान्ति, दुःख, उद्विग्नता से परेशान है। यह मनुष्य के विचार चिन्तन का ही परिणाम है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक स्वर्ट अपने प्रत्येक जन्मदिन में काले और भद्दे कपड़े पहनकर शोक मनाया करते थे। वह कहते थे- ‘‘अच्छा होता यहजीवन मुझे न मिलता, मैं दुनियाँ में न आता।’’ इसके ठीक विपरीत अन्धे कवि मिल्टन कहा करते थे- ‘‘भगवान् का शुक्रिया है जिसने मुझे जीने का अमूल्य वरदान दिया।’’ नेपोलियन बोनापार्ट ने अपने अन्तिम दिनों में कहा था- ‘‘अफसोस है कि मैंने जीवन का एकसप्ताह भी सुख- शान्तिपूर्वक नहीं बिताया।’’ जबकि उसे समृद्धि, ऐश्वर्य, सम्पत्ति, यश आदि की कोई कमी नहीं रही। सिकन्दर महान् भी अपने अन्तिम जीवन में पश्चाताप करता हुआ ही मरा। जीवन में सुख- शान्ति, प्रसन्नता अथवा दुःख, क्लेश, अशांति, पश्चाताप आदि का आधार मनुष्य के अपने विचार हैं, अन्य कोई नहीं। समृद्ध, ऐश्वर्य सम्पन्न जीवन में भी व्यक्ति गलत विचारों के कारण दुखी रहेगा और उत्कृष्ट विचारों से अभावग्रस्त जीवन में भी सुख- शान्ति, प्रसन्नता का अनुभव करेगा, यह एक सुनिश्चिततथ्य है।
संसार एक शीशा है। इस पर हमारे विचारों की जैसी छाया पड़ेगी वैसा ही प्रतिबिम्ब दिखाई देगा। विचारों के आधार पर ही संसार सुखमय अनुभव होता है। पुरोगामी उत्कृष्ट उत्तम विचार जीवन को ऊपर उठाते हैं, उन्नति, सफलता, महानता का पथ प्रशस्त करते हैं तोहीन, निम्नगामी, कुत्सित विचार जीवन को गिराते हैं।
विचारों में अपार शक्ति है। जो सदैव कर्म की प्रेरणा देती है। वह अच्छे कार्यों में लग जाय तो अच्छे और बुरे मार्ग की ओर प्रवृत्त हो जाय तो बुरे परिणाम प्राप्त होते हैं। विचारों में एक प्रकार की चेतना शक्ति होती है। किसी भी प्रकार के विचारों में एक स्थान पर केन्द्रितहोते रहने पर उनकी सूक्ष्म चेतन शक्ति घनीभूत होती जाती है। प्रत्येक विचार आत्मा और बुद्धि के संसर्ग से पैदा होता है। बुद्धि उसका आकार- प्रकार निर्धारित करती है तो आत्मा उसमें चेतना फूँकती है।। इस तरह विचार अपने आप में एक सजीव किन्तु सूक्ष्मतत्त्व है। मनुष्य के विचार एक तरह की सजीव तरंगें हैं जो जीवन संसार और यहाँ के पदार्थों को प्रेरणा देती रहती है। इन सजीव विचारों का जब केन्द्रीयकरण हो जाता है तो एक प्रचण्ड शक्ति का उद्भव होता है। स्वामी विवेकानन्द ने विचारों की इस शक्ति का उल्लेखकरते हुए बताया है- ‘‘कोई व्यक्ति भले ही किसी गुफा में जाकर विचार करे और विचार करते- करते ही वह मर भी जाय तो वे विचार कुछ समय उपरान्त गुफा की दीवारों का विच्छेद कर बाहर निकल पड़ेंगे और सर्वत्र फैल जायेंगे। वे विचार तब सबको प्रभावित करेंगे।’’ मनुष्य जैसे विचार करता है, उनकी सूक्ष्म तरंगें विश्वाकाश में फैल जाती हैं। सम स्वभाव के पदार्थ एक- दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं, इस नियम के अनुसार उन विचारों के अनुकूल दूसरे विचार आकर्षित होते हैं और व्यक्ति को वैसे ही प्रेरणा देते हैं। एक ही तरह केविचार घनीभूत होते रहने पर प्रचण्ड शक्ति धारण कर लेते हैं और मनुष्य के जीवन में जादू की तरह प्रकाश डालते हैं।
विचार शक्ति सर्वोपरि है
यों संसार में शारीरिक, सामाजिक, राजनीतिक और सैनिक- बहुत सी शक्तियाँ विद्यमान हैं। किन्तु इन सब शक्तियों से भी बढ़कर एक शक्ति है, जिसे विचार- शक्ति कहते हैं। वह सर्वोपरि है।
उसका एक मोटा सा कारण तो यह है कि विचार- शक्ति निराकार और सूक्ष्मातिसूक्ष्म होती है और अन्य शक्तियाँ स्थूलतर। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म में अनेक गुना शक्ति अधिक होती है। पानी की अपेक्षा वाष्प और उससे उत्पन्न होने वाली बिजली बहुत शक्तिशालीहोती है। जो वस्तु स्थूल से सूक्ष्म की ओर जितनी बढ़ती जाती है, उसकी शक्ति भी उसी अनुपात से बढ़ती जाती है।
मनुष्य जब स्थूल शरीर से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण शरीर, कारण- शरीर से आत्मा और आत्मा से परमात्मा की ओर ज्यों ज्यों बढ़ता है, उसकी शक्ति की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। यहाँ तक कि अन्तिम कोटि में पहुँच कर वह सर्वशक्तिमान बन जाता है। विचारसूक्ष्म होने के कारण संसार के अन्य किसी भी साधन से अधिक शक्तिशाली होते हैं। उदाहरण के लिए हम विभिन्न धर्मों के पौराणिक आख्यानों की ओर जा सकते हैं।
बहुत बार किसी ऋषि, मुनि और महात्मा ने अपने शाप और वरदान द्वारा अनेक मनुष्यों का जीवन बदल दिया। ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा मसीह के विषय में प्रसिद्ध है कि उन्होंने न जाने कितने अपंगों, रोगियों और मरणासन्न व्यक्तियों को पूरी तरह केवलआशीर्वाद देकर ही भला चंगा कर दिया। विश्वामित्र जैसे ऋषियों ने अपनी विचार एव संकल्प शक्ति से दूसरे संसार की रचना ही प्रारम्भ कर दी थी और इस विश्व ब्रह्माण्ड की, जिसमें हम रह रहे हैं, रचना भी ईश्वर के विचार स्फुरण का ही परिणाम है।
ईश्वर के मन में, ‘एकोऽहम् बहुस्यामि’ का विचार आते ही यह सारी जड़ चेतनमय सृष्टि बनकर तैयार हो गई, और आज भी वह उसकी विचार- धारणा के आधार पर ही स्थिति है और प्रलयकाल में विचार निर्धारण के आधार पर ही उसी ईश्वर में लीन हो जायेगी। विचारोंमें सृजनात्मक और ध्वंसात्मक दोनों प्रकार की अपूर्व, सर्वोपरि और अनन्त शक्ति होती है। जो इस रहस्य को जान जाता है, वह मानों जीवन के एक गहरे रहस्य को प्राप्त कर लेता है। विचारणाओं का चयन करना स्थूल मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। उनकीपहचान के साथ जिसको उसके प्रयोग की विधि विदित हो जाती है, वह संसार का कोई भी अभीष्ट सरलतापूर्वक पा सकता है।
संसार की प्रायः सभी शक्तियाँ जड़ होती हैं। विचार- शक्ति, चेतन- शक्ति है। उदाहरण के लिए धन अथवा जन शक्ति ले लीजिये। अपार धन उपस्थित हो किन्तु समुचित प्रयोग करने वाला कोई विचारवान व्यक्ति न हो तो उस धनराशि से कोई भी काम नहीं किया जासकता। जन- शक्ति और सैनिक- शक्ति अपने आप में कुछ भी नहीं हैं।। जब कोई विचारवान नेता अथवा नायक उसका ठीक से नियन्त्रण और अनुशासन कर उसे उचित दिशा में लगाता है, तभी वह कुछ उपयोगी हो पाती है अन्यथा वह सारी शक्ति भेड़ों के गले केसमान निरर्थक रहती है। शासन, प्रशासन और व्यवसायिक सारे काम एक मात्र विचार द्वारा ही नियन्त्रित और संचालित होते हैं। भौतिक क्षेत्र में ही नहीं उससे आगे बढ़कर आत्मिक क्षेत्र में भी एक विचार- शक्ति ही ऐसी है, जो काम आती है। न शारीरिक और नसाम्पत्तिक कोई अन्य शक्ति काम नहीं आती। इस प्रकार जीवन तथा जीवन के हर क्षेत्र में केवल विचार- शक्ति का ही साम्राज्य रहता है।
सभी मानसिक स्फुरणाएँ विचार नहीं
किन्तु मनुष्य की सभी मानसिक तथा बौद्धिक स्फुरणाएँ विचार ही नहीं होते। उनसे से कुछ विचार और कुछ मनोविकार तथा बौद्धिक विलास भी होता है। दुष्टता, अपराध तथा ईर्ष्या- द्वेष के मनोभाव, विकार तथा मनोरंजन, हास- विलास तथा क्रीड़ा आदि कीस्फुरणाएँ बौद्धिक विलास मानी गई है। केवल मानसिक स्फुरणाएँ ही विचारणीय होती हैं, जिनके पीछे किसी सृजन, किसी उपकार अथवा किसी उन्नति की प्रेरणा क्रियाशील रहती है। साधारण तथा सामान्य गतिविधि के संकल्प- विकल्प अथवा मानसिक प्रेरणाएँविचार की कोटि में नहीं आती हैं। वे तो मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियाँ होती हैं, जो मस्तिष्क में निरन्तर आती रहती हैं।
यों तो सामान्यतया विचारों में कोई विशेष स्थायित्व नहीं होता। वे जल तरंगों की भाँति मानस में उठते और विलीन होते रहते हैं। दिन में न जाने कितने विचार मानव- मस्तिष्क में उठते और मिटते रहते हैं। चेतन होने के कारण मानव मस्तिष्क की यह प्राकृतिकप्रक्रिया है।। विचार वे ही स्थायी बनते हैं, जिनसे मनुष्य का रागात्मक सम्बन्ध हो जाता है। बहुत से विचारों में से एक- दो विचार ऐसे होते हैं, जो मनुष्य को सबसे ज्यादा प्यारे होते हैं। वह उन्हें छोड़ने की बात तो दूर उनको छोड़ने की कल्पना तक नहीं कर सकता।
यही नहीं, किसी विचार अथवा विचारों के प्रति मनुष्य का रागात्मक झुकाव विचार को न केवल स्थायी अपितु अधिक प्रखर- तेजस्वी बना देता है।। इन विचारों की छाप मनुष्य के व्यक्तित्व तथा कर्तृत्व पर गहराई के साथ पड़ती है। रागात्मक विचार निरन्तर मथितअथवा चिन्तित होकर इतने दृढ़ और अपरिवर्तनशील हो जाते हैं कि वे मनुष्य के विषय व्यक्तित्व के अभिन्न अंग की भाँति दूर से ही झलकने लगते हैं। प्रत्येक विचार जो इस सम्बन्ध में साकार बन जाता है, वह उसकी क्रियाओं में अनायास ही अभिव्यक्त होने लगताहै।
अतएव आवश्यक है कि किसी विचार से रचनात्मक सम्बन्ध स्थापित करने से पूर्व इस बात की पूरी परख कर लेनी चाहिये कि जिसे हम विचार समझकर अपने व्यक्तित्व का अंग बनाये ले रहे हैं, वह वास्तव में विचार है भी या नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि वह आपकाकोई मनोविकार हो और तब आपका व्यक्तित्व उसके कारण दोषपूर्ण बन जाय। प्रत्येक शुभ तथा सृजनात्मक विचार व्यक्तित्व को उभारने और विकसित करने वाला होता है और प्रत्येक अशुभ तथा ध्वंसात्मक विचार मनुष्य का जीवन गिरा देने वाला है।
किसी भी शक्ति का उपयोग रचनात्मक एवं ध्वंसात्मक दोनों ही रास्तों से होता है। विज्ञान की शक्ति से मनुष्य के जीवन में असाधारण परिवर्तन हुआ। असम्भव को सम्भव बनाया विज्ञान ने। किन्तु आज विज्ञान के विनाशकारी स्वरूप को देखकर मानवता का भविष्यही अंधकारमय दिखाई देता है। जनमानस में बहुत बड़ा भय व्याप्त है। ठीक इसी तरह विचारों की शक्ति भी है। उनके पुरोगामी होने से मनुष्य के उज्ज्वल भविष्य का द्वार खुल जाता है और प्रतिगामी होने पर वही शक्ति उसके विनाश का कारण बन जाती है। गीताकारने इसी सत्य का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- ‘‘आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन’’ विचारों का केन्द्र मन ही मनुष्य का बन्धु है और वही शत्रु भी।
आवश्यकता इस बात की है कि विचारों को निम्न भूमि से हटाकर उन्हें ऊर्ध्वगामी बनाया जाय जिससे मनुष्य दीन- हीन, क्लेश एवं दुखों से भरे नारकीय जीवन से छुटकारा पाकर इसी धरती पर स्वर्गीय जीवन का उपाय कर सके। वस्तुतः सद्विचार ही स्वर्ग की औरकुविचार ही नरक की एक परिभाषा है। अधोगामी विचार मन को चंचल, क्षुब्ध, असन्तुलित बनाते हैं उन्हीं के अनुसार दुष्कर्म होने लगते हैं और उन्हीं में फँसा हुआ व्यक्ति नारकीय यन्त्रणाओं का अनुभव करता है। जबकि सद्विचारों में डूबे हुए मनुष्य को धरती स्वर्गजैसी लगती है। विपरीतताओं में भी वह सनातन सत्य के आनन्द का अनुभव करता है। साधन सम्पत्ति के अभाव, जीवन के कटु क्षणों में भी वह स्थिर और शान्त रहता है। शुद्ध विचारों के अवलम्बन से ही सच्चा सुख मिलता है।
विचारों का महत्त्व और प्रभुत्व
शुभ हो या अशुभ, मनुष्य के हर विचार का एक निश्चित मूल्य तथा प्रभाव होता है। यह बात रसायन- शास्त्र के नियमों की तरह प्रामाणिक है। सफलता- असफलता सम्पर्क में आने वाले दूसरे लोगों से मिलने वाले सुख- दुःख का आधार विचार ही माने गये हैं। विचारोंको जिस दिशा में उन्मुख किया जाता है उस दिशा के तदनुकूल तत्त्व आकर्षित होकर मानव मस्तिष्क में एकत्रित हो जाते हैं। सारी सृष्टि में एक सर्वव्यापी जीवन- तरंग आन्दोलित हो रही है। प्रत्येक मनुष्य के विचार उस तरंग में सब ओर प्रवाहित होते रहते हैं, जो उसतरंग के समान ही सदाजीवी होते हैं। वह एक तरंग ही समस्त प्राणियों के बीच से होती हुई बहती है। जिस मनुष्य की विचारधारा जिस प्रकार ही होती है, जीवन तरंग में मिले वैसे विचार उसके साथ उसके मानस में निवास बना लेते हैं। मनुष्य का दूषित अथवा निर्दोषविचार सर्वव्यापी जीवन तरंग से अपने अनुरूप अन्य विचारों को आकर्षित कर उन्हें अपने साथ बसा लेगा और इस प्रकार अपनी जाति की वृद्धि कर लेगा।
मनुष्य का समस्त जीवन उसके विचारों के साँचे में ही ढलता है। सारा जीवन आन्तरिक विचारों के अनुसार ही प्रकट होता है। कारण के अनुरूप कार्य के नियम के समान ही प्रकृति का यह निश्चित नियम है कि मनुष्य जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर। मनुष्य के भीतरकी उच्च अथवा निम्न स्थिति का बहुत कुछ परिचय उसके बाह्य स्वरूप को देखकर पाया जा सकता है। जिसके शरीर पर अस्त- व्यस्त, फटे- चिथड़े और गन्दगी दिखलाई दे, समझ लीजिये कि यह मलीन विचारों वाला व्यक्ति है, इसके मन में पहले से ही अस्त- व्यस्तता जड़ जमाये बैठी है।
विचार- सूत्र से ही आन्तरिक और बाह्य जीवन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। विचार जितने परिष्कृत उज्ज्वल और दिव्य होंगे, अन्तर भी उतना ही उज्ज्वल तथा दैवी सम्पदाओं से आलोकित होगा। वही प्रकाश स्कूल कार्यों में प्रकट होगा। जिस कलाकार अथवा साहित्यकारकी भावनाएँ जितनी ही प्रखर और उच्चकोटि की होगी, उनकी रचना भी उतनी ही उच्च और उत्तम कोटि की होगी।
जिस तरह के हमारे विचार होंगे उसी तरह की हमारी सारी क्रियाएँ होंगी और तदनुकूल ही उनका अच्छा- बुरा परिणाम हमें भुगतना पड़ेगा। विचारों के पश्चात् ही हमारे मन में किसी वस्तु या परिस्थिति की चाह उत्पन्न होती है और तब हम उस दिशा में प्रयत्न करनेलगते हैं। जितनी हम सच्चे दिल से चाह करते हैं, जिसकी प्राप्ति के लिये अन्तःकरण से अभिलाषा करते हैं, उस पर यदि दृढ़ निश्चय के साथ कार्य किया जाय, तो इष्ट वस्तु की प्राप्ति अवश्यम्भावी है। जिस आदर्श को हमने सच्चे हृदय से अपनाया है, यदि उस परमनसा- वाचा से चलने को हम कटिबद्ध हैं तो हमारी सफलता निस्सन्देह है।
जब हम विचार द्वारा किसी वस्तु या परिस्थिति का चित्र मन पर अंकित कर उसके लिये प्रयत्नशील होते हैं, तो उस पर दृढ़ निश्चय के साथ हमारा सम्बन्ध जुड़ना आरम्भ हो जाता है। यदि हम चाहते हैं कि हम दीर्घ काल तक नवयुवा बने रहें तो हमें चाहिये कि हमसदा अपने मन को यौवन के सुखद विचारों के आनन्द- सागर में लहराते रहें। यदि हम चाहते हैं कि हम सदा सुन्दर बने रहें, हमारे मुख- मण्डल पर सौंदर्य का दिव्य प्रकाश हमेशा झलका करे तो हमें चाहिए कि हम अपनी आत्मा को सौन्दर्य के सुमधुर सरोवर में नित्यस्नान कराते रहें।
यदि आपको संसार ने महापुरुष बनकर यश प्राप्त करना है, तो आप जिस महापुरुष के सदृश होने की अभिलाषा रखते हैं, उनका आदर्श सदा अपने सामने रक्खें। आप अपने मन में यह दृढ़ विश्वास जमा लें कि आपमें अपने आदर्श की पूर्णता और कार्य सम्पादन शक्तिपर्याप्त मात्रा में मौजूद है। आप अपने मन से सब प्रकार की हीन भावना को हटा दें और मन में कभी निर्बलता, न्यूनता, असमर्थता और असफलता के विचारों को न आने दें। आप अपने आदर्श की पूर्ति हेतु मन, वचन, कर्म से पूर्ण दृढ़तापूर्वक प्रयत्न करें और विश्वासरक्खें कि आपके प्रयत्न अन्ततः सफल होकर रहेंगे।
कुँए में मुँह करके आवाज देने पर वैसी ही प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है। संसार भी इस कुँए की आवाज की तरह ही है। मनुष्य जैसा सोचता है, विचारता है वैसी ही प्रतिक्रिया वातावरण में होती है। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही उसके आसपास का वातावरण बन जाता है।मनुष्य के विचार शक्तिशाली चुम्बक की तरह हैं जो अपने समानधर्मी विचारों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। एक ही तरह के विचारों के घनीभूत होने पर वैसी ही क्रिया होती है और वैसे ही स्थूल परिणाम प्राप्त होते हैं।
विचार की प्रचण्ड शक्ति असीम, अमर्यादित, अणुशक्ति से भी प्रबल है। विचार जब घनीभूत होकर संकल्प का रूप धारण कर लेता हैं तो स्वयं प्रकृति अपने नियमों का व्यतिरेक करके भी उसको मार्ग देती है। इतना ही नहीं उसके अनुकूल बन जाती है। मनुष्य जिसतरह के विचारों को प्रश्रय देता है, उसके वैसे ही आदर्श, हाव- भाव, रहन- सहन ही नहीं, शरीर में तेज, मुद्रा आदि भी वैसे ही बन जाते हैं। जहाँ सद्विचार की प्रचुरता होगी वहाँ वैसा ही वातावरण बन जायेगा। ऋषियों के अहिंसा, सत्य, प्रेम, न्याय के विचारों से प्रभावितक्षेत्र में हिंसक पशु भी अपनी हिंसा छोड़कर अहिंसक पशुओं के साथ विचरण करते थे।
जहाँ घृणा, द्वेष, क्रोध आदि से सम्बन्धित विचारों का निवास होगा वहाँ नारकीय परिस्थितियों का निर्माण होना स्वाभाविक है। मनुष्य में यदि इस तरह के विचार घर कर जायें कि मैं अभागा हूँ, दुखी हूँ, दीन हीन हूँ उसका अपकर्ष कोई भी शक्ति रोक नहीं सकेगी। वहसदैव दीन- हीन परिस्थितियों में ही पड़ा रहेगा। इसके विपरीत मनुष्य में सामर्थ्य, उत्साह, आत्म- विश्वास, गौरवयुक्त विचार होंगे तो प्रगति- उन्नति स्वयं ही अपना द्वार खोल देगी। सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति का उपयोग ही व्यक्ति को सर्वतोमुखी सफलताप्रदान करता है।
विकास और शोध का श्रेय विचार को
मनुष्य विचार शक्ति को जिस दिशा में प्रयुक्त करता है उधर ही आशाजनक सफलता उपलब्ध होने लगती है। चिन्तन की शोध द्वारा अनेकों प्रकार की रहस्यमय प्राकृतिक शक्तियों को जानने और उनको वशवर्ती बनाने में सफलता प्राप्त की गई है, इस शोध कार्य मेंसारा श्रेय मानव विचार शक्ति का ही है। ये प्राकृतिक शक्तियाँ तो अनादि काल से इस सृष्टि में मौजूद थीं पर उनको उपलब्ध कर सकना तभी सम्भव हुआ जब विचार- शक्ति की दौड़ उनके शोध तक पहुँची।
विचार- शक्ति के विशाल क्षेत्र के द्वारा ही वाणी, भाषा, लिपि, संगीत, अग्नि का उपयोग, कृषि, पशुपालन, जलतरण, वस्त्र निर्माण, धातु प्रयोग, मकान बनाने, संगठित रहने, सामूहिक सुविधा की धर्म- संहिता पर चलने, रोगों की चिकित्सा करने जैसे अनेकोंमहत्त्वपूर्ण आविष्कार मनुष्य ने जब- तब किए और उनके द्वारा अपनी स्थिति को देवोपम बनाया। मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यधिक विभूतिवान है। हम देवताओं के सुखों के बारे में सोचते हैं कि मनुष्य की अपेक्षा उन्हें असंख्य गुने सुध- साधन प्राप्त हैं।धरती के प्राणी भी यदि यह सोच सकें कि उनमें और मनुष्य की सुविधाओं में कितना अन्तर है तो हम उनसे कहीं अधिक सुख- सुविधा से सम्पन्न होंगे जितना कि हम अपनी तुलना में देवताओं को मानते हैं। यह देवोपम स्थिति हमने विचारशील की विशेषता के कारणउसके विकास और प्रयोग के कारण ही उपलब्ध की है।
पुष्ट विचार- शक्ति को जीवन की जिस दिशा में जितनी मात्रा में लगाना प्रारम्भ कर दिया है, हमें उस दिशा में उतनी ही सफलता मिलने लगती है। विज्ञान की शोध अस्त्र- शस्त्र की सुसज्जा, उत्पादन, राजनीति, शिक्षा, चिकित्सा आदि जिन कार्यों में भी हमारा ध्यानलगा हुआ है उनमें तीव्र गति से प्रगति दृष्टिगोचर हो रही है और यदि ध्यान इन काल में केन्द्रीभूत हो इसी प्रकार लगा रहा हो तो भविष्य में उस ओर उन्नति भी आशाजनक होगी निश्चित है। पिछले दिनों में अपनी आकांक्षा को सुव्यवस्थित रूप में केन्द्रीभूत करके रूसऔर अमेरिका बहुत कुछ कर चुके हैं। हमारी आकांक्षा एवम् विचार- धारा अपने लक्ष्य पर जहाँ भी तन्मयता से संलग्न रहेगी वहाँ सफलता की उपलब्धि असंदिग्ध है। विचार शक्ति को एक जीवित जादू कहा जा सकता है। उसके स्पष्ट होने से निर्जीव मिट्टीनयनाभिराम खिलौने के रूप में और प्राणघातक विष जीवनदायी रसायन के रूप से बदल जाता है।
हम दिन भर सोचते हैं नाना प्रकार की समस्याओं को समझने और हल करने में अपनी विचार शक्ति को लगाते हैं। ईश्वर ने मस्तिष्क रूपी ऐसा देवता इस शरीर में टिका दिया है जो हमारी आकांक्षा की पूर्ति में निरन्तर सहायता करता रहता है। इस देवता से जो हममाँगते हैं वह उसे करने की व्यवस्था कर देता है। विचार शक्ति इस जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है। इसे कामधेनु और कल्पलता कह सकते हैं। प्रगति के पथ पर महान सम्बल के आधार पर ही मनुष्य आगे बढ़ सकता है। यह शक्ति यदि जीवन में उपस्थित उलझनों कास्वरूप समझने और उसका निराकरण करने में लगे तो निःसन्देह उसका भी हल निकल सकता हैं। विक्षोभ की परिस्थिति को बदलने का मार्ग रचनात्मक विचारों से ही मिलता है।
विचारों की रचना प्रचण्ड शक्ति है। जो कुछ मन सोचता है, बुद्धि उसे प्राप्त करने में, उसके जुटाने में लग जाती हैं। धीर- धीरे वैसी ही परिस्थिति सामने आने लगती है, दूसरे लोगों का वैसा ही सहयोग भी मिलने लगता है और धीरे- धीरे वैसा ही वातावरण बन जाता है, जैसा कि मन में विचार प्रवाह उठा करता है। भय, चिन्ता और निराशा में डूबे रहने वाले मनुष्य के सामने ठीक वैसी ही परिस्थितियाँ आ जाती हैं जैसी कि वे सोचते रहते हैं। चिन्ता एक प्रकार का मानसिक रोग है जिससे लाभ कुछ नहीं, हानि की ही सम्भावना रहती है।चिन्तित और विक्षुब्ध मनुष्य अपनी मानसिक क्षमता खो बैठता है। जो वह सोचता है, जो करना चाहता है, वह प्रयत्न गलत हो जाता है। उसके निर्णय अदूरदर्शिता पूर्ण और अव्यावहारिक सिद्ध होते हैं। उलझनों को सुलझाने के लिए सही मार्ग तभी निकलता है जबकिसोचने वाले का मानसिक स्तर सही और शान्त हो। उत्तेजित अथवा शिथिल मस्तिष्क तो ऐसे ही उपाय सोच सकता है जो उल्टे मुसीबत बढ़ाने वाले परिणाम उत्पन्न करें।
अतः सदैव विचारों को आशान्वित रखना चाहिए और उन्हें सदा रचनात्मक दिशा में लगाये रहना चाहिए। आज जो साधन और सुविधाएँ प्राप्त हैं उन्हीं के सहारे कल प्रगति के लिए क्या किया जा सकता है, इतना सोचना पर्याप्त है। बड़े साधन इकट्ठे होने पर बड़े कार्यकरने की कल्पनाएँ निरर्थक हैं। जो कार्य आज हम नहीं कर सकते उनके लिए माथापच्ची क्यों की जाय? उद्देश्य ऊँचे रखने चाहिए, लक्ष्य बड़े से बड़ा रखा जा सकता है पर यह न भूला दिया कि आज हम कहाँ हैं? आज की परिस्थिति को समझना और उसी आधार परआगे बढ़ने की बात सोचना ही व्यावहारिक बुद्धिमत्ता है। भविष्य के सम्बन्ध में आशा करते ही रहना चाहिये। जो आपत्तियों और असफलता की बात ही सोचेगा उसे कभी सुअवसर प्राप्त नहीं हो सकते। प्रगतिशील जीवन बना सकना उन्हीं के लिए सम्भव होता है जोप्रगतिशील ढंग से सोचते हैं और अपनी मानसिक शक्ति को रचनात्मक दिशा में संलग्न किये रहते हैं।
अद्भुत उपलब्धियों का आधार
किसी भी कार्य के प्रेरक होने से कार्य की सफलता- असफलता अच्छाई- बुराई और उच्चता- निम्नता के हेतु भी मनुष्य के अपने विचार ही है। जिस प्रकार के विचार होंगे सृजन भी उसी प्रकार का होगा।
नित्यप्रति देखने में आता है कि एक ही प्रकार का काम दो आदमी करते हैं। उनमें से एक का कार्य सुन्दर सफल और सुघड़ होता है और दूसरे का नहीं। एक से हाथ- पैर, उपादान और साधनों के होते हुए भी दो मनुष्यों के एक ही कार्य में विषमता क्यों होती है? इसकाएकमात्र कारण उनकी अपनी- अपनी विचार प्रेरणा है। जिसके कार्य सम्बन्धी विचार जितने सुन्दर, सुघड़ और सुलझे हुए होंगे उसका कार्य भी उसी के अनुसार उद्दात्त होगा है।
जितने भी शिल्पों, शास्त्रों तथा साहित्य का सृजन हुआ है वह सब विचारों की ही विभूति है। चित्रकार नित्य नये- नये चित्र बनाता है, कवि नित्य नये काव्य रचता है, शिल्पकार नित्य नये मॉडल और नमूने तैयार करता है। यह सब विचारों का ही परिणाम है। कोई भीरचनाकार जो नया निर्माण कर करता है, वह कहीं से उतार कर नहीं लाता और न कोई अदृश्य देव ही उसकी सहायता करता है। वह यह सब नवीन रचनाएँ अपने विचारों के ही बल पर करता है। विचार ही वह अद्भुत शक्ति है जो मनुष्य को नित्य नवीन प्रेरणा दिया करतीहै। भूत, भविष्य और वर्तमान में जो कुछ दिखलाई दिया, दिखलाई देगा और दिखलाई दे रहा है वह सब विचारों में वर्तमान रहा है, वर्तमान रहेगा और वर्तमान है। तात्पर्य यह कि समग्र त्रयकालिक कर्तृत्व मनुष्य के विचार पटल पर अंकित रहता है। विचारों केप्रतिबिम्ब को ही मनुष्य बाहर के संसार में उतारा करता है। जिसकी विचार स्फुरणा जितनी शक्तिमती होगी उसकी रचना भी उतनी ही सबल एवं सफल होगी। स्थिर- शक्ति जितनी उज्ज्वल होगी, बाह्य प्रतिबिम्ब भी उतने ही स्पष्ट और सुबोध होंगे।
मनुष्य की विचार पेटी में संसार के सारे श्रेय एवं प्रेय सन्निहित रहते हैं। यही कारण है कि मनुष्य ने न केवल एक अपितु असंख्यों क्षेत्रों में चमत्कार कर दिखाये हैं। जिन विचारों के बल पर मनुष्य साहित्य का सृजन करता है उन्हीं विचारों के बल पर कल- कारखानेचलाता है। जिन विचारों के बल पर आत्मा और परमात्मा की खोज कर लेता है उन्हीं विचारों के बल पर खेती करता और विविध प्रकार के धन- धान्य उत्पन्न करता है, व्यापार और व्यवसाय करता है। यही नहीं, जिन विचारों की प्रेरणा से वह संत, सज्जन और महात्माबनता है उन्हीं विचारों की प्रेरणा से वह निर्दय अपराधी भी बन जाता है। इस प्रकार सहज ही समझा जा सकता है कि मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व तथा कर्तृत्व में उसकी विचार शक्ति ही काम कर रही है।
एक दिन पशुओं की भाँति सारी क्रियाओं में पूर्ण पशु मनुष्य आज इस सभ्यता के उन्नति शिखर पर किस प्रकार पहुँच गया? अपनी विचार- शक्ति की सहायता से। विचार शक्ति की अद्भुत उपलब्धि इस सृष्टि में केवल मानव प्राणी को ही प्राप्त हुई है। यही कारण हैकि किसी दिन का पशुओं के समकक्ष मनुष्य आज महान उन्नत दशा में पहुँच गया है और अन्य सारे पशु- पक्षी आज भी अपनी आदि स्थिति में उसी प्रकार रह रहे हैं। पशु- पक्षी, नीड़ों और निविड़ों में पूर्ववत् ही निवास कर रहे हैं किन्तु मनुष्य बड़े- बड़े नगर बनाकरअनन्त सुविधाओं के साथ रह रहा है। यह सब विचार- कला का ही विस्मय है।
विचारों के बल पर मनुष्य न केवल पशु से मनुष्य बना है वह मनुष्य से देवता भी बन सकता है और विचार प्रधान ऋषि, मुनि, महात्मा और सन्त मनुष्य से देवकोटि में पहुँचे हैं, पहुँचते रहेंगे।
मनुष्य आज जिस उन्नत अवस्था में पहुँचा है वह एक साथ एक दिन की घटना नहीं है। वह धीरे- धीरे क्रमानुसार विचारों के परिष्कार के साथ आज इस स्थिति में पहुँच सका है। ज्यों- ज्यों उसके विचार परिष्कृत, पवित्र तथा उन्नत होते गये उसी प्रकार अपने साधनों केसाथ उसका जीवन परिष्कृत तथा पुरस्कृत होता गया। व्यक्ति- व्यक्ति के रूप में भी हम देख सकते हैं कि एक मनुष्य जितना सभ्य, सुशील और सुसंस्कृत है अपेक्षाकृत दूसरा उतना नहीं। समाज में जहाँ आज भी सन्तों और सज्जनों की कमी नहीं है वहाँ चोर, उचक्केभी पाये जाते हैं। जहाँ बड़े- बड़े शिल्पकार और साहित्यकार मौजूद हैं वहाँ गोबर गणेशों की भी कमी नहीं है। मनुष्यों की यह वैयक्तिक विषमता भी विचारों, संस्कारों के अनुपात पर ही निर्भर करती है। जिसके विचार जिस अनुपात से परिमार्जित हो रहे हैं वह उसीअनुपात से पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवता बनता जा रहा है।
विचार शक्ति के समान कोई शक्ति संसार में नहीं है। अरबों का उत्पादन करने वाले दैत्याकार कारखानों का संचालन, उद्वेलित जन- समुदाय का नियन्त्रण, दुर्धर्ष सेनाओं का अनुशासन और बड़े- बड़े साम्राज्यों का शासन और असंख्यों जनता का नेतृत्व एक विचार बलपर ही किया जाता है, अन्यथा एक मनुष्य में एक मनुष्य के योग्य ही सीमित शक्ति रही है, वह असंख्यों का अनुशासन किस प्रकार कर सकता है? बड़े- बड़े आततायी हुकुमरानों और सुदृढ़ साम्राज्यों को विचार बल से ही सलट दिया गया। बड़े- बड़े हिंस्र पशुओं औरअत्याचारियों को विचार बल से प्रभावित कर सुशील बना लिया जाता है। विचार- शक्ति से बढ़कर कोई भी शक्ति संसार में नहीं है। विचारों की शक्ति अपरिमित तथा अपराजेय है।
विचार एक शक्ति है, विशुद्ध विद्युत शक्ति। जो इस पर समुचित नियंत्रण कर ठीक दिशा में संचालन कर सकता है वह बिजली की भाँति इससे बड़े- बड़े काम ले सकता है। किन्तु जो इसको ठीक से अनुमानित नहीं कर सकता वह उल्टा इसका शिकार बन जाता है।अपनी ही शक्ति से स्वयं नष्ट हो जाता है अपनी ही आग में जलकर भस्म हो जाता है। इसीलिये मनीषियों ने नियंत्रित विचारों को मनुष्य का मित्र और अनियन्त्रित विचारों को उसका शत्रु बतलाया है।
दिव्य विचारों से उत्कृष्ट जीवन
संसार में अधिकांश व्यक्ति बिना किसी उद्देश्य का अविचारपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं किन्तु जो अपने जीवन को उत्तम विचारों के अनुरूप ढालते हैं उन्हें जीवन- ध्येय की सिद्धि होती है। मनुष्य का जीवन उसके भले- बुरे विचारों के अनुरूप बनता है। कर्म काप्रारम्भिक स्वरूप विचार है। अतएव चरित्र और आचरण का निर्माण विचार ही करते है, यही मानना पड़ता है। जिसके विचार श्रेष्ठ होंगे उसके आचरण भी पवित्र होंगे। जीवन की यह पवित्रता ही मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है, ऊँचा उठाती है। अविवेकपूर्ण जीवन जीने में कोईविशेषता नहीं होती। सामान्य स्तर का जीवन तो पशु भी जी लेते हैं किन्तु उस जीवन का महत्त्व ही क्या जो अपना लक्ष्य न प्राप्त कर सके।
भले और बुरे- दोनों प्रकार के विचार मनुष्य के अन्तःकरण में भरे होते हैं। अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार वह जिन्हें चाहता है उन्हें जगा लेता है, जिनसे किसी प्रकार का सरोकार नहीं होता वे सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। जब मनुष्य कुविचारों का आश्रय लेता है तोउसका कलुषित अन्तःकरण विकसित होता है और दीनता, निकृष्टता, आधि- व्याधि, दरिद्रता, दैन्यता के अज्ञानमूलक परिणाम सिनेमा के पर्दे की भाँति सामने नाचने लगते हैं। पर जब वह शुभ्र विचारों में रमण करता है तो दिव्य- जीवन और श्रेष्ठता का अवतरणहोने लगता है, सुख, समृद्धि और सफलता के मंगलमय परिणाम उपस्थित होने लगते हैं। मनुष्य का जीवन और कुछ नहीं विचारों का प्रतिबिम्ब मात्र है। अतः विचारों पर नियन्त्रण रखने और उन्हें लक्ष्य की ओर नियोजित करने का अर्थ है जीवन को इच्छित दिशा मेंचला सकने की सामर्थ्य अर्जित करना। जबकि अनियमित, अनियोजित विचार का अर्थ है, दिशा- विहीन, अनियन्त्रित जीवन प्रवाह।
समस्त शुभ और अशुभ, सुख और दुःख की परिस्थितियों के हेतु तथा उत्थान पतन के मुख्य कारण- विचारों को वश में रखना मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य है। विचारों को उन्नत कीजिये, उनको मंगल मूलक बनाइये, उनका परिष्कार एवं परिमार्जन कीजिये और वे आपकोस्वर्ग की सुखद परिस्थितियों में पहुँचा देंगे। इसके विपरीत यदि आपने विचारों को स्वतन्त्र छोड़ दिया उन्हें कलुषित एवं कलंकित होने दिया तो आपको हर समय नरक की ज्वाला में जलने के लिये तैयार रहना चाहिये। विचारों की चपेट से आपको संसार की कोई शक्तिनहीं बचा सकती।
विचारों का तेज ही आपको ओजस्वी बनाता है और जीवन संग्राम में एक कुशल योद्धा की भाँति विजय भी दिलाता है। इसके विपरीत आपके मुर्दा विचार आपको जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पराजित करके जीवित मृत्यु के अभिशाप के हवाले कर देंगे। जिसके विचार प्रबुद्धहैं उसकी आत्मा प्रबुद्ध है और जिसकी आत्मा प्रबुद्ध है उससे परमात्मा दूर नहीं है।
विचारों को जाग्रत कीजिये, उन्हें परिष्कृत कीजिये और जीवन के हर क्षेत्र में पुरस्कृत होकर देवताओं के तुल्य ही जीवन व्यतीत करिये। विचारों की पवित्रता से ही मनुष्य का जीवन उज्ज्वल एवं उन्नत बनता है इसके अतिरिक्त जीवन को सफल बनाने का कोई उपायमनुष्य के पास नहीं है। सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति से बड़ी शक्ति और क्या होगी?
विचारों का व्यक्तित्व एवं चरित्र पर प्रभाव
भावनाओं और विचारों का प्रभाव स्थूल शरीर पर पड़े बिना नहीं रहता। बहुत समय तक प्रकृति के इस स्वाभाविक नियम पर न तो विश्वास किया गया न उपयोग। लोगों को इस विषय में जरा भी चिन्ता नहीं थी कि मानसिक स्थितियों का प्रभाव बाह्य स्थिति पर पड़सकता है और आन्तरिक जीवन का कोई सम्बन्ध मनुष्य के बाह्य जीवन से भी हो सकता है। दोनों को एक दूसरे से प्रथक मानकर गतिविधि चलती रही। आज जो शरीर शास्त्री अथवा चिकित्सक यह मानने लगे हैं की विचारों का शारीरिक स्थिति से बहुत घनिष्ठसम्बन्ध है, वे पहले बहुत समय तक औषधियों जैसी जड़ वस्तुओं का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है- इसके प्रयोग पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किये रहे।
इससे वे चिकित्सा के क्षेत्र में आन्तरिक स्थिति का लाभ उठाने के विषय में काफी पिछड़ गये। चिकित्सक अब धीरे- धीरे इस बात का महत्त्व समझने और चिकित्सा में मनोदशाओं का समावेश करने लगे हैं। मानस चिकित्सा का एक शास्त्र ही अलग बनता और विकासकरता चला जा रहा है। अनुभवी लोगों का विश्वास है कि यदि यह मानस चिकित्सा शास्त्र पूरी तरह विकसित और पूर्ण हो गया तो कितने ही रोगों में औषधियों के प्रयोग की आवश्यकता कम हो जायेगी। लोग अब यह मानने के लिए तैयार हो गये हैं कि मनुष्य के जीवनमें के अधिकाँश रोगों का कारण उसके विचारों तथा मनोदशाओं में निहित रहता है। यदि उनको बदला जाय तो रोग बिना औषधियों के ही ठीक हो सकते हैं। वैज्ञानिक इसकी खोज, प्रयोग तथा परीक्षण में लगे हुए है।
शरीर रचना के सम्बन्ध में जाँच करने वाले एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने अपनी प्रयोगशाला में तरह- तरह के परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य का शरीर अर्थात् हड्डियाँ, माँस, स्नायु आदि मनुष्य की मनोदशा के अनुसार एक वर्ष में बिल्कुल परिवर्तित होजाते हैं और कोई- कोई भाग तो एक- दो सप्ताह में ही बदल जाते हैं।
इसमें सन्देह नहीं कि चिकित्सा के क्षेत्र में मानसोपचार का बहुत महत्त्व है। सच बात तो यह है कि आरोग्य प्राप्ति का प्रभावशाली उपाय आन्तरिक स्थिति का अनुकूल प्रयोग ही है। औषधियों तथा तरह- तरह की जड़ी- बूटियों का उपयोग कोई स्थाई लाभ नहीं करता, उनसे तो रोग के बाह्य लक्षण दब भर जाते हैं, रोग का मूल कारण नष्ट नहीं होता। जीवनी शक्ति जो आरोग्य का यथार्थ आधार है, मनोदशाओं के अनुसार बढ़ती- घटती रहती है। यदि रोगी के लिए ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जाय कि वह अधिक से अधिक प्रसन्न तथाउल्लसित रहने लगे तो उसकी जीवनी- शक्ति बढ़ जायेगी, जो अपने प्रभाव से रोग को निर्मूल कर सकती है।
बहुत बार देखने में आता है कि डाक्टर रोगी के घर जाता है, और उसे खूब अच्छी तरह देख- भाल कर चला जाता है। कोई दवा नहीं देता तब भी रोगी अपने को दिन भर भला- चंगा अनुभव करता रहता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण यही होता है कि वह बुद्धिमान डाक्टरअपने साथ रोगी के लिए अनुकूल वातावरण लाता है और अपनी गतिविधि से ऐसा विश्वास छोड़ जाता है कि रोगी की दशा ठीक है, दवा देने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। इससे रोगी तथा रोगी के अभिभावकों का यह विचार दृढ़ हो जाता है कि रोग ठीक हो रहा है।विचारों का अनुकूल प्रभाव जीवन तत्त्व को प्रोत्साहित करता है और बीमार की तकलीफ कम हो जाती है।
कुछ समय पूर्व कुछ वैज्ञानिकों ने इस सत्य का पता लगाने के लिए कि क्या मनुष्य के शरीर पर आन्तरिक भावनाओं का कोई प्रभाव पड़ता है, एक परीक्षण किया। उन्होंने विभिन्न प्रवृत्ति के आदमियों को एक कोठरी में बन्द कर दिया। उनमें से कोई क्रोधी, कोई विषयीऔर कोई नशों का व्यसनी था। थोड़ी देर बाद गर्मी के कारण उन सबको पसीना आ गया। उनके पसीने की बूँदें लेकर अलग- अलग विश्लेषण किया गया और वैज्ञानिकों ने उनके पसीने में मिले रासायनिक तत्त्वों के आधार पर उसके स्वभाव घोषित कर दिये जो बिल्कुलठीक थे।
मानसिक दशाओं अथवा विचार- धाराओं का शरीर पर प्रभाव पड़ता है, इसका एक उदाहरण बड़ा ही शिक्षाप्रद है- एक माता को एक दिन किसी बात पर बहुत क्रोध हो गया। पाँच मिनट बाद उसने उसी आवेश की अवस्था में अपने बच्चे को स्तनपान कराया और एक घण्टेके भीतर ही बच्चे की हालत खराब हो गई और उसकी मृत्यु हो गई। शव परीक्षा के परिणाम से विदित हुआ कि मानसिक क्षोभ के कारण माता का रक्त तीक्ष्ण परमाणुओं से विषैला हो गया और उसके प्रभाव से उसका दूध भी विषाक्त हो गया था, जिसे पी लेने से बच्चेकी मृत्यु हो गई।
यही कारण है कि शिशु- पालन के नियमों में माता को परामर्श दिया गया है कि बच्चे को एकान्त में तथा निश्चिन्त एवं पूर्ण प्रसन्न मनोदशा में स्तन- पान कराये। क्षोभ अथवा आवेग की दशा में दूध पिलाना बच्चे के स्वास्थ्य तथा संस्कारों के लिए हानिप्रद होता है।जिन माताओं के दूध पीते बच्चे, रोगी, रोने वाले, चिड़चिड़े अथवा क्षीणकाय होते हैं, उसका मुख्य कारण यही रहता है कि वे माताएँ स्तनपान के वांछित नियमों का पालन नहीं करतीं अन्यथा वह आयु तो बच्चों के स्वस्थ- तन्दुरुस्त होने की होती है।
इस नियम की वास्तविकता का प्रमाण कोई भी अपने अनुभव के आधार पर पा सकता है। वह दिन याद करें कि जिस दिन कोई दुर्घटना देखी हो। चाहे उस दुर्घटना का सम्बन्ध अपने से न रहा हो तब भी उसे देखकर मानसिक स्थिति पर जो प्रभाव पड़ा उसके कारण शरीरसन्न रह गया, चलने की शक्ति कम हो गई, खड़ा रहना मुश्किल पड़ गया, शरीर में सिहरन अथवा कम्पन पैदा हो गई, आँसू आ गये अथवा मुख सूख गया। उसके बाद भी जब- जब उस भयंकर घटना का विचार मस्तिष्क में आता रहा शरीर पर बहुत बार उसका प्रभावहोता रहा।
मनोवैज्ञानिकों तथा चिकित्सा शास्त्रियों का कहना है कि आज रोगियों की बड़ी संख्या में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, जो वास्तव में किसी रोग से पीड़ित हों। अन्य या बहुतायत ऐसे ही रोगियों की होती है, जो किसी न किसी काल्पनिक रोग के शिकार होते हैं। आरोग्य काविचारों से बहुत बड़ा सम्बन्ध होता है। जो व्यक्ति अपने प्रति रोगी होने, निर्बल और असमर्थ होने का भाव रखते हैं और सोचते रहते हैं कि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता। उन्हें आँख, नाक, कान, पेट, पीठ का कोई न कोई रोग लगा ही रहता है। बहुत कुछ उपाय करनेपर भी वे पूरी तरह स्वस्थ नहीं रह पाते। ऐसे अशिव विचारों को धारण करने वाले वास्तव में कभी भी स्वस्थ नहीं रह पाते। यदि उनको कोई रोग नहीं भी होता है तो भी उनकी इस अशिव विचार साधना के फलस्वरूप कोई न कोई रोग उत्पन्न हो जाता है और वे वास्तव मेंरोगी बन जाते।
इसके विपरीत जो स्वास्थ्य सम्बन्धी सद्विचारों की साधना करते हैं, वे रोगी होने पर भी शीघ्र चंगे हो जाया करते हैं। रोगी इस प्रकार सोचने के अभ्यस्त होते हैं। वे उपचार के अभाव में भी स्वास्थ्य लाभ कर लेते हैं। मेरा रोग साधारण है, मेरा उपचार ठीक- ठीक पर्याप्तढंग से हो रहा है, दिन- दिन मेरा रोग घटता जाता है और मैं अपने अन्दर एक स्फूर्ति, चेतना और आरोग्य की तरंग अनुभव करता हूँ। मेरे पूरी तरह स्वस्थ हो जाने में अब ज्यादा देर नहीं है। इसी प्रकार जो निरोग व्यक्ति भूलकर भी रोगों की शंका नहीं करता और अपनेस्वास्थ्य से प्रसन्न रहता है। जो कुछ खाने को मिलता है, खाता और ईश्वर को धन्यवाद देता है, वह न केवल आजीवन निरोग ही रहता है, बल्कि दिन- दिन उसकी शक्ति और सामर्थ्य भी बढ़ती जाती है।
जीवन की उन्नति और विकास के सम्बन्ध में भी यहीं बात लागू होती है। जो व्यक्ति दिन रात यही सोचता रहता है कि उसके पास साधनों का अभाव है। उसकी शक्ति सामर्थ्य और योग्यता कम है, उसे अपने पर विश्वास नहीं है। संसार में उसका साथ देने वाला कोईनहीं है। विपरीत परिस्थितियाँ सदैव ही उसे घेरे रहती हैं। वह निराशावादी व्यक्ति जीवन में जरा भी उन्नति नहीं कर सकता। फिर चाहे उसे कुबेर का कोष ही क्यों न दे दिया जाय और संसार के सारे अवसर ही क्यों न उसके लिए सुरक्षित कर दिये जाय।
इसके विपरीत जो आत्मविश्वास, उत्साह- साहस और पुरुषार्थ भावना से भरे विचार रखता है। सोचता है कि उसकी शक्ति सब कुछ कर सकने में समर्थ है। उसकी योग्यता इस योग्य है कि वह अपने लायक हर काम कर सकता है। उसमें परिश्रम और पुरुषार्थ के प्रतिलगन है। उसे संसार में किसी की सहायता के लिए बैठे नहीं रहना है। वह स्वयं ही अपना मार्ग बनायेगा और स्वयं ही अपने आधार पर, उस पर अग्रसर होगा- ऐसा आत्मविश्वासी और आशावादी व्यक्ति अभाव और प्रतिकूलता में भी आगे बढ़ जाता है।
विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं
डॉ. एफ. ई. विल्स, डॉ. लेलाड काडल राबर्ट मैक कैरिसन आदि अनेक स्वास्थ्य शास्त्रियों ने दीर्घायु के रहस्य ढूँढ़े। प्राकृतिक जीवन, सन्तुलित और शाकाहार, परिश्रमशील जीवन, संयमित जीवन शतायुष्य के लिए यही सब नियम माने गये हैं, लेकिन कई बार ऐसेव्यक्ति देखने में आये जो इन नियमों की अवहेलना करके, रोगी और बीमार रहकर भी सौ वर्ष की आयु से अधिक जिये। इससे इन वैज्ञानिकों को भी भ्रम बना रहा कि दीर्घायुष्य का रहस्य कहीं और छिपा हुआ है। इसके लिए उसकी खोज निरंतर जारी रहीं।
अमेरिका के दो वैज्ञानिक डॉ. ग्रानिक और डॉ. बिरेन बहुत दिनों तक खोज करने के बाद इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचे कि दीर्घ जीवन का सम्बन्ध मनुष्य के मस्तिष्क एवं ज्ञान से है। उनका कहना है कि अनुसंधान के समय 92 और इस आयु के ऊपर के जितने भीलोग मिले वह सब अधिकतर पढ़ने वाले थे। आयु बढ़ने के साथ- साथ जिनकी ज्ञान वृद्धि भी होती है वे दीर्घजीवी होते हैं पर पचास की आयु पार करने के बाद जो पढ़ना बन्द कर देते हैं— जिनका ज्ञान नष्ट होने लगता है, जल्दी ही मृत्यु के ग्रास हो जाते हैं।
दोनों स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मत है कि मस्तिष्क जितना पढ़ता है उतना ही उसमें चिन्तन करने की शक्ति आती है। व्यक्ति जितना सोचता, विचारता रहता है, उसका नाड़ी मण्डल उतना ही तीव्र रहता है। हम यह सोचते हैं कि देखने का काम हमारी आँखें करती हैं, सुननेका काम कान, साँस लेने का काम फेफड़े, पेट भोजन पचाने और हृदय रक्त परिभ्रमण का काम करता है। विभिन्न अंग अपना- अपना काम करके शरीर की गतिविधि चलाते हैं। पर यह हमारी भूल है। सही बात यह है कि नाड़ी मण्डल की सक्रियता से ही शरीर के सबअवयव क्रियाशील होते हैं, इसलिए मस्तिष्क जितना क्रियाशील होगा शरीर उतना ही क्रियाशील होगा। मस्तिष्क के मंद पड़ने का अर्थ है शरीर के अंग- प्रत्यंगों की शिथिलता और तब मनुष्य की मृत्यु शीघ्र ही हो जावेगी। इससे जीवित रहने के लिए पढ़ना बहुतआवश्यक है। ज्ञान की धारायें जितनी तीव्र होंगी उतनी ही आयु भी लम्बी होगी।
आर्क्सफोर्ड डिक्शनरी में ‘हैल्थ’ का शाब्दिक अर्थ ‘शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा से पुष्ट होना’ लिखा है। अर्थात् मस्तिष्क जितना पुष्ट रहता है, शरीर उतना ही पुष्ट होगा और मस्तिष्क के पुष्ट होने का एक ही उपाय है ज्ञान वृद्धि। शास्त्रकारों ने भी ज्ञान वृद्धि को हीअमरता का साधना कहा है। भारतीय ऋषि- मुनियों का दीर्घजीवन इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सभी ऋषि दीर्घजीवी हुए हैं, उनके जीवनक्रम में ज्ञानार्जन ही सबसे बड़ी विशेषता रही है। इसके लिए तो उन्होंने वैभव विलास का जीवन तक ठुकरा दिया था। वे निरंतरअध्ययन में लगे रहते थे जिससे उनका नाड़ी संस्थान कभी शिथिल न होने पाता था और वे दो- दो, चार- चार सौ वर्ष तक हँसते- खेलते जीते रहते थे।
पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि वशिष्ठ, विश्वामित्र, दुर्वासा, व्यास आदि की आयु कई- कई सौ वर्ष की थी। जामवन्त की कथा लगती कपोल कल्पित है पर अमेरिकी वैज्ञानिकों का कथन सत्य है तो उस कल्पना को भी निराधार नहीं कहा जा सकता है। कहते हैंजामवन्त बड़ा विद्वान् था। वेद उपनिषद् उसे कण्ठस्थ थे वह निरन्तर पढ़ा ही करता था और इस स्वाध्यायशीलता के कारण ही उसने लम्बा जीवन प्राप्त किया था। वामन अवतार के समय वह युवक था। रामचन्द्र का अवतार हुआ तब यद्यपि उसका शरीर काफी वृद्धहो गया था पर उसने रावण के साथ युद्ध में भाग लिया था। उसी जामवन्त के कृष्णावतार में भी उपस्थित होने का वर्णन आता है।
दूर की क्यों कहें ‘पेंटर मार्फेस’ ने ही अपने भारत के इतिहास में ‘‘नूमिस्देको हुआ’’ नामक एक ऐसे व्यक्ति का वर्णन किया है जो सन् 1566 ई० में 370 की आयु में मरा था। इस व्यक्ति के बारे में इतिहासकार ने लिखा है कि मृत्यु के समय भी उसे अतीत की घटनाएँइतनी स्पष्ट याद थीं जैसे अभी वह कल की बातें हो। यह व्यक्ति प्रतिदिन 6 घण्टे से कम नहीं पढ़ता था। डॉ० लेलार्ड कार्डेल लिखते हैं— ‘‘मैंने शिकागो निवासिनी श्रीमती ल्यूसी जे० से भेंट की तब उनकी आयु 108 वर्ष की थी। मैं जब उनके पास गया तब वे पढ़ रही थीं।बात- चीत के दौरान पता चला कि उनकी स्मरण शक्ति बहुत तेज है वे प्रतिदिन नियमित रूप से पढ़ती हैं।’’
प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डॉ० आत्माराम और अन्य कई वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है कि योग से अपने हृदय और नाड़ी आदि की गति पर नियन्त्रण रखकर उन्हें स्वस्थ रखा जा सकता है। यह क्रिया मस्तिष्क से विचारों की तरंगें उत्पन्न करके की जाती है।अध्ययनशील व्यक्तियों में यह क्रिया स्वाभाविक रूप से चलती रहती है इसलिए यदि शरीर देखने में दुबला है तो भी उसमें आरोग्य और दीर्घ जीवन की सम्भावनाएँ अधिक पाई जायेंगी।
‘‘मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने से शरीर बचा नहीं रह सकता। इससे साफ हो जाता है कि मस्तिष्क ही शरीर में जीवन का मुख्य आधार है उसे जितना स्वस्थ और परिपुष्ट रखा जा सके मनुष्य उतना ही दीर्घजीवी हो सकता है।’’ उक्त वैज्ञानिकों की यदि यह सम्मति सही हैतो ऋषियों के दीर्घजीवन का मूल कारण उनकी ज्ञान वृद्धि ही मानी जायेगी और आज के व्यस्त और दूषित वातावरण वाले युग में सबसे महत्त्वपूर्ण साधन भी यही होगा कि हम अपने दैनिक कार्यक्रमों में स्वाध्याय को निश्चित रूप से जोड़कर रखें और अपने जीवन कीअवधि लम्बी करते चलें।
जीवन में बालक से लेकर बूढ़े तक सभी प्रसन्नता चाहते हैं और उसे पाने का प्रयत्न करते रहते हैं क्योंकि एक स्थायी प्रसन्नता जीवन का चरम लक्ष्य भी है। यदि मनुष्य- जीवन में प्रसन्नता का नितान्त अभाव हो जाये तो उसका कुछ समय चल सकना भी असम्भवहो जाये।
यह बात सत्य है कि मानव- जीवन में अनुपात दुःख- क्लेश का ही अधिक देखने में आता है। तब भी लोग शौक से जी रहे हैं। इसका कारण यही है कि बीच- बीच में उन्हें प्रसन्नता भी प्राप्त होती रहती है, और उसके लिए उन्हें नित्य नई आशा बनी रहती है। प्रसन्नताजीवन के लिए संजीवनी तत्त्व है। मनुष्य को उसे प्राप्त करना ही चाहिये। प्रसन्नावस्था में ही मनुष्य अपना तथा समाज का भला कर सकता है, विषण्णावस्था में नहीं।
प्रसन्नता वांछनीय भी है और लोग उसे पाने के लिये निरन्तर प्रयत्न भी करते रहते हैं। किन्तु फिर भी कोई उसे अपेक्षित अर्थ में पाता दिखाई नहीं देता। क्या धनवान, क्या बालक और क्या वृद्ध किसी से भी पूछ देखिये क्या आप जीवन में पूर्ण सन्तुष्ट और प्रसन्नहैं? उत्तर अधिकतर नकारात्मक ही मिलेगा। उसका पूरक दूसरा प्रश्न भी कर देखिये— तो क्या आप उसके लिये प्रयत्न नहीं करते? नब्बे प्रतिशत से अधिक उत्तर यही मिलेगा— ‘‘कि प्रयत्न तो अधिक करते हैं किन्तु प्रसन्नता मिल ही नहीं पाती।’’ निःसन्देह मनुष्यकी यह असफलता आश्चर्य ही नहीं दुःख का विषय है।
कितने खेद का विषय है कि आदमी किसी एक विषय अथवा वस्तु के लिये प्रयत्न करे और उसको प्राप्त न कर सके। ऐसा भी नहीं कि कोई उसे प्राप्त करने में कम श्रम करता हो अथवा प्रयत्नों में कोताही रखता हो। मनुष्य सम्पूर्ण अणु- क्षण एकमात्र प्रसन्नता प्राप्तकरने में ही तत्पर एवं व्यस्त रहता है। वह सोते- जागते, उठते- बैठते, चलते- फिरते जो कुछ भी अच्छा- बुरा करता है सब प्रसन्नता प्राप्त करने के मन्तव्य से। किन्तु खेद है कि वह उसे उचित रूप से प्राप्त नहीं कर पाता।
प्रसन्नता का वास्तविक स्वरूप
इस स्थिति को देखते हुए तो यही समझ आता है कि या तो मनुष्य प्रसन्नता के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचानता अथवा वह अपनी वाँछित वस्तु को पाने के लिए जिस दिशा में प्रयत्न करता है वह ही गलत है। इस पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है।
लोगों में अधिकतर एक सामान्य धारणा यह रहा करती है कि यदि उनके पास अधिक पैसा हो, साधन- सुविधाएँ हों तो वे प्रसन्न रह सकते हैं। ऐसी धारणाओं वाले लोग सदैव साधन सुविधाओं के लिए रोते- रिरियाते रहने के बजाय एक बाद दृष्टि उठाकर उन लोगों कीओर क्यों नहीं देखते कि प्रचुरता से परिपूर्ण होने पर भी क्या वे सुखी हैं, प्रसन्न और सन्तुष्ट हैं? यदि धन- दौलत तथा साधन सुविधाएँ ही प्रसन्नता की हेतु होतीं तो संसार का हर धनवान अधिक से अधिक सुखी और सन्तुष्ट होता किन्तु ऐसा कहाँ है। इससे स्पष्टसिद्ध है कि वैभव और विभूति वास्तविक प्रसन्नता का कारण नहीं है। प्रसन्नता प्राप्ति का हेतु मानकर इन भौतिक विभूतियों के लिए रोते- मरते रहना बुद्धिमानी नहीं हैं।
बल, बुद्धि और विद्या को भी प्रसन्नता का हेतु मानने की एक सभ्य प्रथा है। किन्तु यह ऐश्वर्य भी वास्तविक प्रसन्नता का वाहन नहीं है। यदि ऐसा होता तो हर शिक्षित प्रसन्न दिखाई देता और हर अशिक्षित अप्रसन्न। ऐसा भी देखने में नहीं आता। जिस प्रकार अनेकधनवान अप्रसन्न और निर्धन प्रसन्न देखे जा सकते हैं उसी प्रकार अनेक विद्वान क्षुब्ध तथा कम पढ़े- लिखे लोग प्रसन्न मिल सकते हैं। बड़े- बड़े बलवान आहें भरते और साधारण सामर्थ्य वाले व्यक्ति हँसी- खुशी से जीवन बिताते मिल सकते हैं।
इस प्रकार विचार करने से पता चलता है कि वास्तविक प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसको किसी शक्ति अथवा साधन के बल पर प्राप्त किया जा सके। साधनों की झोली फैलाकर प्रसन्नता की तलाश में दौड़ने वाले कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते, और वास्तविकबात तो यह है कि जो जितना अधिक प्रसन्नता के पीछे दौड़ते हैं वे उतने ही अधिक निराश होते हैं। उनका यह निरर्थक श्रम उस अबोध हरिण की तरह ही शोचनीय होता है जो पानी के भ्रम में मरु मरीचिका के पीछे दौड़ते हैं अथवा बालक की तरह कौतुकपूर्ण है जो आगे पड़ीहुई अपनी छाया को पकड़ने के लिए दौड़ता है। प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसका पीछा करने की जरूरत है। वह तो अवसर आने पर स्वयं ही आकर मनो- मन्दिर में हँसने लगती है। उसके आने का एक अवसर तो यही होता है जब हम उसको पाने के लिए कम सेकम लालायित, व्यग्र और चिन्तित होते हैं।
प्रसन्नता प्राप्ति का मुख्य रहस्य यह है कि मनुष्य अपने लिए सुख की कामना छोड़कर अपना जीवन दूसरों की प्रसन्नता में नियोजित करे। दूसरों को प्रसन्न करने के प्रयत्न में जो कष्ट प्राप्त होता है वह भी प्रसन्नता ही देता है। छोटा- मोटा कष्ट तो दूर, देश भक्ततथा अनेकों परोपकारियों ने अपने प्राण देने पर भी अनिवर्चनीय प्रसन्नता प्राप्त की है। इतिहास ऐसे बलिदानियों से भरा पड़ा है कि जिस समय उनको मृत्युवेदी पर प्राण- हरण के लिये लाया गया उस समय उनके मुख पर जो आह्लाद, जो तेज, जो मुस्कान और जोप्रसन्नता देखी गई, वह काल के अनन्त पृष्ठ पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गई है।
एक साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने जीवन की किसी न किसी ऐसी घटना का स्मरण करके समझ सकता है कि जब उसने कोई परोपकार का काम किया तब उसके हृदय में प्रसन्नता की कितनी गहरी अनुभूति हुई थी। जिस दिन यह सोचने के बजाय कि आजहम अपने लिये अधिक से अधिक प्रसन्नता संचय करेंगे, यदि यह सोचकर दिन का काम प्रारम्भ किया जाए कि आज हम दूसरों के लिए अधिक प्रसन्नता संचय करेंगे, तो वह दिन आपके लिए बहुत अधिक प्रसन्नता का दिन होगा।
साधारण मनोरंजन, कार्यों तथा व्यवहारों में इस रहस्य को आये दिन देखा जा सकता है कि जो काम दूसरों को प्रसन्न करने वाले होते हैं अथवा जिन कामों से हम दूसरों को प्रसन्न कर पाते हैं वे ही काम हमें अधिक से अधिक प्रसन्न किया करते हैं। एक खिलाड़ी गेंदखेलता है और विपक्षी पर एक गोल कर देता है तो उसे अपनी सफलता पर प्रसन्नता होती है, किन्तु तभी जब उसके साथी भी प्रसन्न होते हैं। यदि किसी कारण से उसकी यह सफलता दर्शकों अथवा साथियों को प्रसन्न न कर पाये तो उसे स्वयं भी प्रसन्नता न होगी।एक शिल्पी भवन अथवा मंदिर बनाता है। यद्यपि वह उसका नहीं होता तथापि वह इसलिये प्रसन्न होता है कि उसका यह काम दूसरों को प्रसन्न कर सकता है। इसी प्रकार कोई चित्रकार, कलाकार अथवा कवि कोई रचना करता है तो उसे प्रसन्नता होती है, उसे अपनीकृति अच्छी लगती है। किन्तु उसकी प्रसन्नता में वास्तविकता तभी आती है जब दूसरे भी प्रसन्न होते हैं। संयोगवश यदि उसका सृजन अन्य किसी की प्रसन्नता का सम्पादन न कर सके तो अपनी होते हुए भी कला में कोई रुचि न रहेगी वह उसे बेकार समझेगा औरउसकी प्रसन्नता जाती रहेगी।
वास्तविकता प्रसन्नता का मूल रहस्य दूसरों की प्रसन्नता में निहित हैं। जो परोपकारी व्यक्ति दूसरों के सुख के लिए जीते हैं उनके कार्य औरों की सेवा रूप होते हैं। वे अपने जीवन में साधन शून्य रहने पर भी प्रसन्न सन्तुष्ट एवं सुखी रहते हैं। जिसकी जीवन मेंवास्तविक प्रसन्नता की जिज्ञासा हो वह अपने जीवन को यज्ञमय बनाये, नित्य निरंतर दूसरों का हित साधन करे जिससे कि वह अपनी वांछित वस्तु प्रसन्नता को नित्य निरन्तर पाता रहे।
विचार का चरित्र से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जिसके विचार जिस स्तर के होंगे, उसका चरित्र भी उसी कोटि का होगा। जिसके विचार क्रोध प्रधान होंगे वह चरित्र से भी लड़ाकू और झगड़ालू होगा। जिसके विचार कामुक और स्त्रैण होंगे, उसका चरित्र वासनाओं और विषय- भोग की जीती जागती तस्वीर ही मिलेगा। विचारों के अनुरूप ही चरित्र का निर्माण होता है, यह प्रकृति का अटल नियम है। चरित्र मनुष्य की सबसे मूल्यवान् सम्पत्ति है। उससे ही सम्मान, प्रतिष्ठा, विश्वास और श्रद्धा की प्राप्ति होती है। वही मानसिक और शारीरिकशक्ति का मूल आधार है। चरित्र की उच्चता ही उच्च जीवन का मार्ग निर्धारित करती है और उस पर चल सकने की क्षमता दिया करती है।
निम्नाचरण के व्यक्ति समाज में नीची दृष्टि से ही देखे जाते हैं। उनकी गतिविधि अधिकतर समाज विरोधी ही रहती है। अनुशासन और मर्यादा जो कि वैयक्तिक से लेकर राष्ट्रीय जीवन की दृढ़ता की आधार- शिला है, निम्नाचरण व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं रखती है।आचरणहीन व्यक्ति और एक साधारण पशु के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। जिसने अपनी यह बहुमूल्य सम्पत्ति खो दी उसने मानो सब कुछ खो दिया। सब कुछ पा लेने पर भी चरित्र का अभाव मनुष्य को आजीवन दरिद्री ही बनाये रखता है।
मनुष्यों से भरी इस दुनियाँ में अधिकांश संख्या ऐसों की ही है, जिन्हें एक तरह से अर्ध मनुष्य ही कहा जा सकता है। वे कुछ ही प्रवृत्तियों और कार्यों में पशुओं से भिन्न होते हैं, अन्यथा वे एक प्रकार से मानव- पशु ही होते हैं। इसके विपरीत कुछ मनुष्य बड़े ही सभ्य, शिष्ट और शालीन होते हैं। उनकी दुनियाँ सुन्दर और कलाप्रिय होती है। इसके आगे भी एक श्रेणी चली गई है, जिनको महापुरुष, ऋषि- मुनि और देवता कह सकते हैं। समान हाथ- पैर और मुँह, नाक, कान के होते हुए भी और एक ही वातावरण में रहते मनुष्यों में यहअन्तर क्यों दिखलाई देता है? इसका आधारभूत कारण विचार ही माने गये हैं। जिस मनुष्य के विचार जिस अनुपात में जितने अधिक विकसित होते चले जाते हैं, उसका स्तर पशुता से श्रेष्ठता की ओर उठता चला जाता है। असुरत्व, पशुत्व, ऋषित्व अथवा देवत्व औरकुछ नहीं, विचारों के ही स्तरों के नाम हैं। यह विचार- शक्ति ही है, जो मनुष्य को देवता अथवा राक्षस बना सकती है।
विचार ही चरित्र निर्माण करते हैं
जो विचार देर तक मस्तिष्क में बना रहता है, वह अपना एक स्थायी स्थान बना लेता है। यही स्थायी विचार मनुष्य का संस्कार बन जाता है। संस्कारों का मानव- जीवन में बहुत महत्त्व है। सामान्य- विचार कार्यान्वित करने के लिये मनुष्य को स्वयं प्रयत्न करना पड़ताहै, किन्तु संस्कार उसको यंत्रवत संचालित कर देता है। शरीर- यन्त्र जिसके द्वारा सारी क्रियाएँ सम्पादित होती हैं, सामान्य विचारों के अधीन नहीं होता। इसके विपरीत इस पर संस्कारों का पूर्ण आधिपत्य होता है। न चाहते हुए भी, शरीर- यंत्र संस्कारों की प्रेरणा से हठात्सक्रिय हो उठता है और तदनुसार आचरण प्रतिपादित करता है। मानव जीवन में संस्कारों का बहुत महत्त्व है। इन्हें यदि मानव- जीवन का अधिष्ठाता और आचरण का प्रेरक कह दिया जाय तब भी असंगत न होगा।
केवल विचार मात्र ही मानव चरित्र के प्रकाशक प्रतीत नहीं होते मनुष्य का चरित्र विचार और आचार दोनों से मिलकर बनता है। संसार में बहुत से ऐसे लोग पाए जा सकते हैं, जिनके विचार बड़े ही उदात्त, महान और आदर्शपूर्ण होते हैं, किन्तु उनकी क्रियाएँ उसके अनुरूपनहीं होती। विचार पवित्र हों और कर्म अपावन तो यह सच्चरित्रता नहीं हुई। इसी प्रकार बहुत से लोग ऊपर से बड़े ही सत्यवादी, आदर्शवादी और धर्म- कर्म वाले दीखते हैं, किन्तु उनके भीतर कलुषपूर्ण विचारधारा बहती रहती है। ऐसे व्यक्ति भी सच्चे चरित्र वाले नहींमाने जा सकते। सच्चा चरित्रवान वही माना जायेगा और वास्तव में वही होता भी है, जो विचार और आचार दोनों को समान रूप से उच्च और पुनीत रखकर चलता है।
चरित्र मनुष्य की सर्वोपरि सम्पत्ति है। विचारकों का कहना है— ‘‘धन चला गया, कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया, कुछ चला गया। किन्तु यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया।’’ विचारकों का यह कथन शत- प्रतिशत भाव से अक्षरशः सत्य है। गया हुआ धनवापस आ जाता है, नित्य प्रति संसार में लोग धनी से निर्धन और निर्धन से धनवान् होते रहते हैं, धूप- छाँव जैसी धन अथवा अधन की इस स्थिति का जरा भी महत्त्व नहीं हैं। इसी प्रकार रोगों, व्यक्तियों और चिन्ताओं के प्रभाव से लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ता औरतदनुकूल उपायों द्वारा बनता रहता है। नित्य प्रति अस्वास्थ्य के बाद लोगों को स्वस्थ होते देखे जा सकता है। किन्तु गया हुआ चरित्र दुबारा वापस नहीं मिलता। ऐसी बात नहीं कि गिरे हुए चरित्र के लोग अपना परिष्कार नहीं कर सकते। दुश्चरित्र व्यक्ति भी सदाचार, सद्विचार और सत्संग द्वारा चरित्रवान बन सकता है। तथापि वह अपना वह असंदिग्ध विश्वास नहीं पा पाता, चरित्रहीनता के कारण जिसे वह खो चुका होता है।
समाज जिसके ऊपर विश्वास नहीं करता, लोग जिसे सन्देह और शंका की दृष्टि से देखते हों, चरित्रवान् होने पर भी उसके चरित्र का कोई मूल्य, महत्त्व नहीं है। वह अपनी निज की दृष्टि में भले ही चरित्रवान् बना रहे। यथार्थ में चरित्रवान् वही है, जो अपने समाज, अपनीआत्मा और अपने परमात्मा की दृष्टि में समान रूप से असंदिग्ध और सन्देह रहित हो। इस प्रकार की मान्य और निःशंक चरित्रमत्ता ही वह आध्यात्मिक स्थिति है, जिसके आधार पर सम्मान, सुख, सफलता और आत्मशान्ति का लाभ होता है। मनुष्य को अपनीचारित्रिक महानता की अवश्य रक्षा करनी चाहिये। यदि चरित्र चला गया तो मानो मानव- जीवन का सब कुछ चला गया।
धन और स्वास्थ्य भी मानव- जीवन की सम्पत्तियाँ हैं— इसमें सन्देह नहीं। किन्तु चरित्र की तुलना में यह नगण्य हैं। चरित्र के आधार पर धन और स्वास्थ्य तो पाये जा सकते हैं किन्तु धन और स्वास्थ्य के आधार पर चरित्र नहीं पाया जा सकता। यदि चरित्र सुरक्षित है, समाज में विश्वास बना है तो मनुष्य अपने परिश्रम और पुरुषार्थ के बल पर पुनः धन की प्राप्ति कर सकता है। चरित्र में यदि दृढ़ता है, सन्मार्ग का त्याग नहीं किया गया है तो उसके आधार पर संयम, नियम और आचार- विचार के द्वारा खोया हुआ स्वास्थ्य फिरवापस बुलाया जा सकता है। किन्तु यदि चारित्रिक विशेषता का ह्रास हो गया है तो इनमें से एक की भी क्षति पूर्ति नहीं की जा सकती। इसलिये चरित्र का महत्त्व धन और स्वास्थ्य दोनों से ऊपर है। इसीलिये विद्वान् विचारकों ने यह घोषणा की है, कि— ‘‘धन चला गया, तो कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया, तो कुछ गया। किन्तु यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया।’’
मनुष्य के चरित्र का निर्माण संस्कारों के आधार पर होता है। मनुष्य जिस प्रकार के संस्कार संचय करता रहता है, उसी प्रकार उसका चरित्र ढलता रहता है। अस्तु अपने चरित्र का निर्माण करने के लिये मनुष्य को अपने संस्कार का निर्माण करना चाहिये। संस्कार मनुष्यके उन विचारों के ही प्रौढ़ रूप होते हैं, जो दीर्घकाल तक रहने से मस्तिष्क में अपनी स्थायी स्थान बना लेता हैं। यदि सद्विचारों को अपनाकर उनका ही चिंतन और मनन किया जाता रहे तो मनुष्य के संस्कार शुभ और सुन्दर बनेंगे। इसके विपरीत यदि असद् विचारों कोग्रहण कर मस्तिष्क में बसाया और मनन किया जायेगा तो संस्कार के रूप में कूड़ा- कर्कट ही इकट्ठा होता जायेगा।
विचारों का निवास चेतन मस्तिष्क और संस्कारों का निवास अवचेतन मस्तिष्क में रहता है। चेतन मस्तिष्क प्रत्यक्ष और अवचेतन मस्तिष्क अप्रत्यक्ष अथवा गुप्त होता है। यही कारण है कि कभी- कभी विचारों के विपरीत क्रिया हो जाया करती हैं। मनुष्य देखता है किउसके विचार अच्छे और सदाशयी हैं, तब भी उसकी क्रियाएँ उसके विपरीत हो जाया करती हैं। इस रहस्य को न समझ सकने के कारण कभी- कभी वह बड़ा व्यग्र होने लगता है। विचारों के विपरीत कार्य हो जाने का रहस्य यही होता है कि मनुष्य की क्रिया प्रवृत्ति परसंस्कारों का प्रभाव रहता है और गुप्त मन में छिपे रहने से उनका पता नहीं चल पाता। संस्कार विचारों को व्यक्त कर अपने अनुसार मनुष्य की क्रियाएँ प्रेरित कर दिया करते हैं। जिस प्रकार पानी के ऊपर दीखने वाले छोटे से कमल पुष्प का मूल पानी के तेल में कीचड़में छिपा रहने से नहीं दीखता, उसी प्रकार परिणाम रूप क्रिया का मूल संस्कार अवचेतन मन में छिपा होने से नहीं दीखता।
कोई- कोई विचार ही तात्कालिक क्रिया के रूप में परिणित हो पाता है अन्यथा मनुष्य के वे ही विचार क्रिया के रूप में परिणत होते हैं, जो प्रौढ़ होकर संस्कार बन जाते हैं। वे विचार जो जन्म के साथ ही क्रियान्वित हो जाते हैं, प्रायः संस्कारों के जाति के ही होते हैं। संस्कारोंसे भिन्न तात्कालिक विचार कदाचित् ही क्रिया के रूप में परिणत हो पाते हैं बशर्ते कि वे संस्कार के रूप में परिपक्व न हो गये हों। वे संतुलित तथा प्रौढ़ मस्तिष्क वाले व्यक्ति अपने अवचेतन मस्तिष्क को पहले से ही उपयुक्त बनाये रहते हैं, जो अपने तात्कालिकविचारों को क्रिया रूप में बदल देते हैं। इसका कारण इसके सिवाय और कुछ नहीं होता है कि उनके संस्कारों और प्रौढ़ विचारों में भिन्नता नहीं होती— एक साम्य तथा अनुरूपता होती है।
संस्कारों के अनुरूप मनुष्य का चरित्र बनता है और विचारों के अनुरूप संस्कार। विचारों की एक विशेषता यह होती है कि यदि उनके साथ भावनात्मक अनुभूति का समन्वय कर दिया जाता है तो वे न केवल तीव्र और प्रभावशाली हो जाते हैं, बल्कि शीघ्र ही पक करसंस्कारों का रूप धारण कर लेते हैं। किन्हीं विषयों के चिन्तन के साथ यदि मनुष्य की भावनात्मक अनुभूति जुड़ जाती है तो वह विषय मनुष्य का बड़ा प्रिय बन जाता है। यही प्रियता उस विषय को मानव- मस्तिष्क पर हर समय प्रतिबिम्बित बनाये रहती है। फलतःउसी विषय में चिन्तन, मनन की प्रक्रिया भी अबाधगति से चलती है और वह विषय अवचेतन में जा- जाकर संस्कार रूप में परिणत होता रहता है। इसी नियम के अनुसार बहुधा देखा जाता है कि अनेक लोग, लोक प्रियता के कारण भोगवासनाओं को निरन्तर चिन्तनसे संस्कारों में सम्मिलित कर लेते हैं, बहुत कुछ पूजा- पाठ, सत्संग और धार्मिक साहित्य का अध्ययन करते रहने पर भी उनसे मुक्त नहीं हो पाते। वे चाहते हैं कि संसार के नश्वर भोगों और अकल्याणकर वासनाओं से विरक्ति हो जाये, लेकिन उनकी यह चाह पूरी नहींहो पाती।
धर्म- कर्म और विरक्ति भाव में रुचि होने पर भी भोग वासनाएँ उनका साथ नहीं छोड़ पातीं। विचार जब तक संस्कार नहीं बन जाते मानव- वृत्तियों में परिवर्तन नहीं ला सकते। संस्कार रूप भोग वासनाओं से छूट सकना तभी सम्भव होता है जब अखण्ड प्रयत्न द्वारापूर्व संस्कारों को धूमिल बनाया जाये और वांछनीय विचारों को भावनात्मक अनुभूति के साथ, चिन्तन- मनन और विश्वास के द्वारा संस्कार रूप में प्रौढ़ और परिपुष्ट किया जाय। पुराने कुसंस्कारों से छूटना परमावश्यक है।
चरित्र मानव- जीवन की सर्वश्रेष्ठ सम्पदा है। यही वह धुरी है, जिस पर मनुष्य का जीवन सुख- शान्ति और मान- सम्मान की अनुकूल दिशा अथवा दुःख- दारिद्र्य तथा अशांति, असन्तोष की प्रतिकूल दिशा में गतिमान होता है। जिसने अपने चरित्र का निर्माण आदर्शरूप में कर लिया उसने मानो लौकिक सफलताओं के साथ पारलौकिक सुख- शान्ति की सम्भावनाएँ स्थिर कर लीं और जिसने अन्य नश्वर सम्पदाओं के माया- मोह में पड़कर अपनी चारित्रिक सम्पदा की उपेक्षा कर दी उसने मानो लोक से लेकर परलोक तक केजीवनपथ में अपने लिये नारकीय पड़ाव का प्रबन्ध कर लिया। यदि सुख की इच्छा है तो चरित्र का निर्माण करिए। धन की कामना है तो आचरण ऊँचा करिए, स्वर्ग की वांछा है तो भी चरित्र को देवोपम बनाइए और यदि आत्मा, परमात्मा अथवा मोक्ष मुक्ति की जिज्ञासाहै तो भी चरित्र को आदर्श एवं उदात्त बनाना होगा। जहाँ चरित्र है वहाँ सब कुछ है, जहाँ चरित्र नहीं वहाँ कुछ भी नहीं भले ही देखने- सुनने के लिए भण्डार के भण्डार क्यों न भरे पड़े हों।
चरित्र की रचना संस्कारों के अनुसार होती है और संस्कारों की रचना विचारों के अनुसार। अस्तु आदर्श चरित्र के लिये, आदर्श विचारों को ही ग्रहण करना होगा। पवित्र कल्याणकारी और उत्पादक विचारों को चुन- चुनकर अपने मस्तिष्क में स्थान दीजिए। अकल्याणकरदूषित विचारों को एक क्षण के लिये भी पास मत आने दीजिए। अच्छे विचारों का ही चिन्तन और मनन करिए। अच्छे विचार वालों से संसर्ग करिए, अच्छे विचारों का साहित्य पढ़िए और इस प्रकार हर ओर से अच्छे विचारों से ओत- प्रोत हो जाइए। कुछ ही समय मेंआपके उन शुभ विचारों से आपकी एकात्मक अनुभूति जुड़ जाएगी, उनके चिन्तन- मनन में निरन्तरता आ जायेगी, जिसके फलस्वरूप मांगलिक विचार चेतन मस्तिष्क से अवचेतन मस्तिष्क में संस्कार बन- बनकर संचित होने लगेंगे और तब उन्हीं के अनुसारआपका चरित्र निर्मित और आपकी क्रियाएँ स्वाभाविक रूप से आपसे आप संचालित होने लगेंगी। आप एक आदर्श चरित्र वाले व्यक्ति बनकर सारे श्रेयों के अधिकारी बन जायेंगे।
मन और मस्तिष्क, जो मानव- शक्ति के अनन्त स्रोत माने जाते हैं और जो वास्तव में हैं भी, उनका प्रशिक्षण विचारों द्वारा ही होता है। विचारों की धारणा और उनका निरन्तर मनन करते रहना मस्तिष्क का प्रशिक्षण कहा गया है। उदाहरण के लिये जब कोई व्यक्तिअपने मस्तिष्क में कोई विचार रखकर उसका निरन्तर चिन्तन एवं मनन करता रहता है, वे विचार अपने अनुरूप मस्तिष्क में रेखाएँ बना देते हैं, ऐसी प्रणालियाँ तैयार कर दिया करते हैं कि मस्तिष्क की गति उन्हीं प्रणालियों के बीच ही उसी प्रकार बँध कर चलती है, जिस प्रकार नदी की धार अपने दोनों कूलों से मर्यादित होकर। यदि दूषित विचारों को लेकर मस्तिष्क में मन्थन किया जायेगा तो मस्तिष्क की धाराएँ दूषित हो जायेंगी, उनकी दिशा विकारों की ओर निश्चित हो जायेगी और उसकी गति दोषों के सिवाय गुणों की ओर नजा सकेगी। इसी प्रकार जो बुद्धिमान मस्तिष्क में परोपकारी और परमार्थी विचारों का मनन करता रहता है, उसका मस्तिष्क परोपकारी और परमार्थी बन जाता है और उसकी धाराएँ निरन्तर कल्याणकारी दिशा में ही चलती रहती हैं।
इस प्रकार इसमें कोई संशय नहीं रह जाता है कि विचारों की शक्ति अपार है, विचार ही संसार की धारणा के आधार और मनुष्य के उत्थान- पतन के कारण होते हैं। विचारों द्वारा प्रशिक्षण देकर मस्तिष्क को किसी ओर मोड़ा और लगाया जा सकता है। अस्तु बुद्धिमानीइसी में है कि मनुष्य मनोविकारों और बौद्धिक स्फुरणाओं में से वास्तविक विचार चुन ले और निरन्तर उनका चिन्तन एवं मनन करते हुए, मस्तिष्क का परिष्कार कर डाले। इस अभ्यास से कोई भी कितना ही बुद्धिमान्, परोपकारी, परमार्थी और मुनि, मानव यादेवता का विस्तार पा सकता है।
श्रेष्ठ व्यक्ति के आधार सद्विचार
अविचारी व्यक्ति कितने ही सुन्दर आवरण अथवा आडम्बर में छिपकर क्यों न रहे, उसकी अविचारिता उसके व्यक्तित्व में स्पष्ट झलकती रहेगी।
नित्य प्रति के सामान्य जीवन का अनुभव इस बात का साक्षी है कि बहुत बार हम ऐसे व्यक्तियों के सम्पर्क में आ जाते हैं जो सुन्दर वेश- भूषा के साथ- साथ सूरत- शकल से भी बुरे और भद्दे नहीं होते, तब भी उनको देखकर हृदय पर अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं होती।यदि हम यह जानते हैं कि हम बुरे आदमी नहीं हैं और इस प्रतिक्रिया के पीछे हमारी विरोध भावना अथवा पक्षपाती दृष्टिकोण सक्रिय नहीं है, तो मानना पड़ेगा कि वे अच्छे विचार वाले नहीं हैं। उनका हृदय उस प्रकार स्वच्छ नहीं है जिस प्रकार बाह्य- वेश। इसके विपरीतकभी- कभी ऐसा व्यक्ति सम्पर्क में आता जाता है जिसका बाह्य- वेश न तो सुन्दर होता है और न उसका व्यक्तित्व ही आकर्षक होता है तब भी हमारा हृदय उससे मिलकर प्रसन्न हो उठता है, उससे आत्मीयता का अनुभव होता है। इसका अर्थ यही है कि वह आकर्षणबाह्य का नहीं अन्तर का है, जिसमें सद्भावनाओं तथा सद्विचारों के फूल खिले हुए हैं।
इस विचार प्रभाव को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि जब एक सामान्य पथिक किसी ऐसे मार्ग से गुजरता है जहाँ पर अनेक मृगछौने खेल रहे हों, सुन्दर पक्षी कल्लोल कर रहे हों तो वे जीव उसे देखकर सतर्क भले हो जाएँ और उस अजनबी को विस्मय से देखनेलगें किन्तु भयभीत कदापि नहीं होते। किन्तु यदि उसके स्थान पर जब कोई शिकारी अथवा गीदड़ आता है तो वे जीव भय से त्रस्त होकर भागने और चिल्लाने लगते हैं। वे दोनों ऊपर से देखने में एक जैसे मनुष्य ही होते हैं किन्तु विचार के अनुसार उनके व्यक्तित्व काप्रभाव भिन्न- भिन्न होता है।
कितनी ही सज्जनोचित वेशभूषा में क्यों न हो, दुष्ट- दुराचारी को देखते ही पहचान लिया जाता है, साधु तथा सिद्धों के वेश में छिपकर रहने वाले अपराधी, अनुभवी पुलिस की दृष्टि से नहीं बच पाते और बात की बात में पकड़े जाते हैं। उनके हृदय का दुर्भाव उनका साराआवरण भेद कर व्यक्तित्व के ऊपर बोलता रहता है।
जिस प्रकार के मनुष्य के विचार होते हैं वस्तुतः वह वैसा ही बन जाता है। इस विषय में एक उदाहरण बहुत प्रसिद्ध है। बताया जाता है कि भृंगी पतंग, झींगुर को पकड़ लेता है और बहुत देर तक उसके सामने रहकर गुँजार करता रहता है। यहाँ तक कि उसे देखते- देखतेबेहोश हो जाता है। उस बेहोशी की दशा में झींगुर की विचार परिधि निरन्तर उस भृंगी के स्वरूप तथा उसकी गुँजार से घिरी रहती है जिसके फलस्वरूप वह झींगुर भी कालान्तर में भृंगी जैसा ही बन जाता है। इसी भृंगी तथा कीट के आधार पर आदि कवि वाल्मीकि ने सीताऔर राम के प्रेम को वर्णन करते हुए एक बड़ी सुन्दर उक्ति अपने महाकाव्य में प्रस्तुत की है।
उन्होंने लिखा कि सीता ने अशोक- वाटिका की सहचरी विभीषण की पत्नी सरमा से एक बार कहा— सरमे! मैं अपने प्रभु राम का निरन्तर ध्यान करती रहती हूँ। उनका स्वरूप प्रतिक्षण मेरी विचार परिधि में समाया रहता है। कहीं ऐसा न हो कि भृंगी और पतंग के समानइस विचार तन्मयता के कारण मैं राम- रूप ही हो जाऊँ और तब हमारे दाम्पत्य- जीवन में बड़ा व्यवधान पड़ जायेगा। सीता की चिन्ता सुनकर सरमा ने हँसते हुए कहा— देवी! आप चिन्ता क्यों करती हैं, आपके दाम्पत्य- जीवन में जरा भी व्यवधान नहीं पड़ेगा। जिसप्रकार आप भगवान के स्वरूप का विचार करती रहती हैं, उसी प्रकार राम भी तो आपके रूप का चिन्तन करते रहते हैं। इस प्रकार यदि आप राम बन जायेंगी तो राम सीता बन जायेंगे। इससे दाम्पत्य- जीवन में क्या व्यवधान पड़ सकता है? परिवर्तन केवल इतना होगाकि पति- पत्नी और पत्नी- पति बन जायेगी। इस उदाहरण में कितना सत्य है नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह तथ्य मनोवैज्ञानिक आधार पर पूर्णतया सत्य है कि मनुष्य जिन विचारों का चिन्तन करता है, उनके अनुरूप ही बन जाता है। इसी सन्दर्भ में एक गुरु नेअपने एक अविश्वासी शिष्य की शंका दूर करने के लिए उसे प्रायोगिक प्रमाण दिया— उन्होंने उस शिष्य को बड़े- बड़े सींगों वाला एक भैंसा दिखाकर कहा कि इसका यह स्वरूप अपने मन पर अंकित करके और इस कुटी में बैठकर निरन्तर उसका ध्यान तब तक करतारहे जब तक वे उसे पुकारें नहीं। निदान शिष्य कुटी में बैठा हुआ, बहुत समय तक उस भैंसे का और विशेष प्रकार के उसके बड़े- बड़े सींगों का स्मरण करता रहा। कुछ समय बाद गुरु ने उसे बाहर निकलने के लिए आवाज दी। शिष्य ने ज्यों ही खड़े होकर दरवाजे में सिरडाला कि वह अटक कर रुक गया। ध्यान करते- करते उसके सिर पर उसी भैंसे की तरह बड़े- बड़े सींग निकल आये थे। उसने गुरु को अपनी विपत्ति बतलाई और कृपा करने की प्रार्थना की। तब गुरु ने उसे फिर आदेश दिया कि वह कुछ समय उसी प्रकार अपने स्वाभाविकस्वरूप का चिंतन करे। निदान उसने ऐसा किया और कुछ समय में उसके सींग गायब हो गये।
आख्यान भले ही सत्य न हो किन्तु उसका निष्कर्ष अक्षरशः सत्य है कि मनुष्य जिस बात का चिंतन करता रहता है, जिन विचारों में प्रधानतया तन्मय रहता है वह उसी प्रकार का बन जाता है।
दैनिक जीवन के सामान्य उदाहरणों को ले लीजिये। जिन बच्चों को भूत- प्रेतों की काल्पनिक कहानियाँ तथा घटनाएँ सुनाई जाती रहती हैं वे उनके विचारों में घर कर लिया करती हैं, और जब कभी वे अँधेरे- उजेले में अपने उन विचारों से प्रेरित हो जाते हैं तो उन्हें अपनेआस- पास भूत- प्रेतों का अस्तित्व अनुभव होने लगता है जबकि वास्तव में वहाँ कुछ होता नहीं है। उन्हें परछाइयों तथा पेड़- पौधों तक में भूतों का आकार दिखाई देने लगता है। यह उनके भूतात्मक विचारों की ही अभिव्यक्ति होती है जो उन्हें दूर पर भूतों के आकार मेंदिखलाई देती है। अन्धविश्वासियों के विचार में भूत- प्रेतों का अस्तित्व होता है और उसी दोष के कारण वे कभी- कभी खेलने- कूदने और तरह- तरह की हरकतें तथा आवाजें करने लगते हैं। यद्यपि ऊपर किसी बाह्य तत्त्व का प्रभाव नहीं होता तथापि उन्हें ऐसा लगता हैकि उन्हें किसी भूत अथवा प्रेत ने दबा लिया है। किन्तु वास्तविकता यह होती है कि उनके विचारों का विकार ही अवसर पाकर उनके सिर चढ़कर खेलने लगता है। किसी दुर्बुद्धि अथवा दुर्बलमना व्यक्ति का जब यह विचार बन जाता है कि कोई उस पर उसे मारने के लिएटोना कर रहा है तब उसे अपने जीवन का ह्रास होता अनुभव होने लगता है। जितना- जितना यह विचार विश्वास में बदलता जाता है उतना- उतना ही वह अपने को क्षीण, दुर्बल तथा रोगी होता जाता अनुभव करता है, अन्त में ठीक- ठीक रोगी बनकर एक दिन मर तकजाता है। जबकि चाहे उस पर कोई टोना किया जा रहा होता है अथवा नहीं। फिर टोना आदि में उनके प्रेत- पिशाचों में वह शक्ति कहाँ जो जीवन- मरण के ईश्वरीय अधिकार को स्वयं ग्रहण कर सकें। यह और कुछ नहीं तदनुरूप विचारों की ही परिणति होती है।
मनुष्य के आन्तरिक विचारों के अनुरूप ही बाह्य परिस्थितियों का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए किसी व्यापारी को ले लीजिये। यदि वह निर्बल विचारों वाला है और भय तथा आशंका के साथ खरीद- फरोख्त करता है, हर समय यही सोचता रहता है कि कहीं घाटा नहो जाय, कहीं माल का भाव न गिर जाय, कोई रद्दी माल आकर न फँस जाय, तो मानो उसे अपने काम में घाटा होगा अथवा उसका दृष्टिकोण इतना दूषित हो जायेगा कि उसे अच्छे माल में भी त्रुटि दीखने लगेगी, ईमानदार आदमी बेईमान लगने लगेंगे और उसी केअनुसार उसका आचरण बन जायेगा जिससे बाजार में उसकी बात उठ जायेगी। लोग उससे सहयोग करना छोड़ देंगे और वह निश्चित रूप से असफल होगा और घाटे का शिकार बनेंगे। अशुभ विचारों से शुभ परिणामों की आशा नहीं की जा सकती।
कोई मनुष्य कितना ही अच्छा तथा भला क्यों न हो यदि हमारे विचार उसके प्रति दूषित हैं, विरोधी अथवा शत्रुतापूर्ण हैं तो वह जल्दी ही हमारा विरोधी बन जायेगा। विचारों की प्रतिक्रिया विचारों पर होना स्वाभाविक है। इसको किसी प्रकार भी वर्जित नहीं किया जा सकता।इतना ही नहीं यदि हमारे विचार स्वयं अपने प्रति ओछे तथा हीन हो जायें, हम अपने को अभागा एवं अक्षम चिन्तन करने लगें तो कुछ ही समय में हमारे सारे गुण नष्ट हो जायेंगे और हम वास्तव में दीन- हीन और मलीन बन जायेंगे। हमारा व्यक्तित्व प्रभावहीन होजायेगा जो समाज में व्यक्त हुए बिना बच नहीं सकता।
जो आदमी अपने प्रति उच्च तथा उदात्त विचार रखता है, अपने व्यक्तित्व का मूल्य कम नहीं आँकता, उसका मानसिक विकास सहज ही हो जाता है। उसका आत्म- विकास आत्म- निर्भरता और आत्म- गौरव जाग उठता है। इसी गुण के कारण बहुत से लोग जो बचपनसे लेकर यौवन तक दब्बू रहते हैं, आगे चलकर बड़े प्रभावशाली बन जाते हैं। जिस दिन से आप किसी दब्बू, डरपोक तथा साहसहीन व्यक्ति को उठकर खड़े होते और आगे बढ़ते देखें, समझ लीजिए कि उस दिन से उसकी विचारधारा बदल गई और अब उसकी प्रगतिकोई रोक नहीं सकता।
विचारों के अनुसार ही मनुष्य का जीवन बनता- बिगड़ता रहता है। बहुत बार देखा जाता है कि अनेक लोग बहुत समय तक लोक प्रिय रहने के बाद बहिष्कृत हो जाया करते हैं। पहले तो उन्नति करते रहते हैं, फिर बाद में उनका पतन हो जाता है। इसका मुख्य कारण यहीहोता है कि जिस समय जिस व्यक्ति की विचारधारा शुद्ध, स्वच्छ तथा जनोपयोगी बनी रहती है और उसके कार्यों की प्रेरणा स्रोत बनी रहती है, वह लोकप्रिय बना रहता है। किन्तु जब उसकी विचारधारा स्वार्थ, कपट अथवा छल के भावों से दूषित हो जाती है तो उसकापतन हो जाता है। अच्छा माल देकर और उचित मूल्य लेकर जो व्यवसायी अपनी नीति, ईमानदारी और सहयोग को दृढ़ रखते हैं, वे शीघ्र ही जनता का विश्वास जीत लेते हैं और उन्नति करते जाते हैं। पर ज्यों ही उसकी विचारधारा में गैर- ईमानदारी, शोषण औरअनुचित लाभ के दोषों का समावेश हुआ नहीं कि उसका व्यापार ठप्प होने लगता है। इसी अच्छी- बुरी विचारधारा के आधार पर न जाने कितनी फर्में और कम्पनियाँ नित्य ही उठती- गिरती रहती हैं।
विचारधारा में जीवन बदल देने की कितनी शक्ति होती है, इसका प्रमाण हम महर्षि वाल्मीकि के जीवन में पा सकते हैं। महर्षि वाल्मीकि अपने प्रारम्भिक जीवन में रत्नाकर डाकू के नाम से प्रसिद्ध थे। उनका काम राहगीरों को मारना, लूटना और उससे प्राप्त धन सेपरिवार का पोषण करना था। एक बार देवर्षि नारद को उन्होंने पकड़ लिया। नारद ने रत्नाकर से कहा कि तुम यह पाप क्यों करते हो? चूँकि वे उच्च एवं निर्विकार विचारधारा वाले थे इसलिए रत्नाकर डाकू पर उनका प्रभाव पड़ा, अन्यथा भय के कारण किसी भी वंचितव्यक्ति ने उसके सामने कभी मुख तक नहीं खोला था। उसका काम तो पकड़ना, मार डालना और पैसे छीन लेना था, किसी के प्रश्नोत्तर से उसका कोई संबंध नहीं था। किन्तु उसने नारद का प्रश्न सुना और उत्तर दिया— ‘‘अपने परिवार का पोषण करने के लिए।’’
नारद ने पुनः पूछा कि ‘‘जिनके लिए तुम इतना पाप कमा रहे हो, क्या वे लोग तुम्हारे पाप में भागीदार बनेंगे?’’ रत्नाकर की विचारधारा आन्दोलित हो उठी, और वह नारद को एक वृक्ष से बाँधकर घर गया और परिजनों से नारद का जिक्र किया और उनके प्रश्न का उत्तरपूछा। सबने एक स्वर से निषेध करते हुए कहा कि हम सब तो तुम्हारे आश्रित हैं। हमारा पालन करना तुम्हारा कर्तव्य है, तुम पाप करते हो तो इससे हम लोगों को क्या मतलब? अपने पाप के भागी तुम खुद होगे।
परिजनों का उत्तर सुनकर रत्नाकर की आँखें खुल गईं। उसकी विचारधारा बदल गई और नारद के पास आकर दीक्षा ली और तप करने लगा। आगे चलकर वही रत्नाकर डाकू महर्षि वाल्मीकि बने और रामायण महाकाव्य के प्रथम रचियता। विचारों की शक्ति इतनी प्रबलहोती है कि वह देवता को राक्षस और राक्षस को देवता बना सकती है।
विचारशक्ति सदा अमोघ
विचारों की व्यक्ति निर्माण में बड़ी शक्ति होती है। विचारों का प्रभाव कभी व्यर्थ नहीं जाता। विचार परिवर्तन के बल पर असाध्य रोगियों को स्वस्थ तथा मरणासन्न व्यक्तियों को नया जीवन दिया जा सकता है। यदि आपके विचार अपने प्रति ओछे, तुच्छ तथाअवज्ञापूर्ण हैं तो उन्हें तुरन्त ही बदल दो और उनके स्थान पर ऊँचे, उदात्त, यथार्थ विचारों का सृजन कर लीजिए। वह विचार- कृषि आपको चिन्ता, निराशा अथवा पराधीनता के अन्धकार से भरे जीवन को हरा- भरा बना देगी। थोड़ा सा अभ्यास करने से यह विचारपरिवर्तन सहज में ही लाया जा सकता है। इस प्रकार आत्म- चिंतन करिए और देखिये कि कुछ ही दिन में आप क्रांतिकारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगेगा।
विचार कीजिए— ‘‘मैं सच्चिदानंद परमात्मा का अंश हूँ। मेरा उससे अविच्छिन्न संबंध है। मैं उससे कभी दूर नहीं होता और न वह मुझसे ही दूर रहता है। मैं शुद्ध- बुद्ध और पवित्र आत्मा हूँ। मेरे कर्तव्य भी पवित्र तथा कल्याणकारी हैं। उन्हें मैं अपने बल पर आत्म- निर्भर रह कर पूरा करूँगा। मुझे किसी दूसरे का सहारा नहीं चाहिये, मैं आत्म- निर्भर, आत्म- विश्वासी और प्रबल माना जाता हूँ। असद् तथा अनुचित विचार अथवा कार्यों से मेरा कोई संबंध नहीं है और न किसी रोग- दोष से ही मैं आक्रान्त हूँ। संसार की सारी विषमताएँक्षणिक हैं जो मनुष्य की दृढ़ता देखने के लिए आती हैं। उनसे विचलित होना कायरता है। धैर्य हमारा धन और साहस हमारा सम्बल है। इन दो के बल पर बढ़ता हुआ मैं बहुत से ऐसे कार्य कर सकता हूँ जिससे लोकमंगल का प्रयोजन बन सके। आदि- आदि।’’
इस प्रकार के उत्साही तथा सदाशयतापूर्ण चिंतन करते रहने से एक दिन आपका अवचेतन प्रबुद्ध हो उठेगा, आपकी खोई शक्तियाँ जाग उठेंगी, आप के गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार हो जायेगा और आप परमार्थ पथ पर उन्नति के मार्ग पर अनायास ही चल पड़ेंगेऔर तब न आपको चिन्ता, न निराशा और न असफलता का भय रहेगा न लोक- परलोक की कोई शंका। उसी प्रकार शुद्ध- बुद्ध तथा पवित्र बन जायेंगे जिस प्रकार के आपके विचार होंगे और जिनके चिन्तन को आप प्रमुखता दिए होंगे।
सभी का प्रयत्न रहता है कि उनका जीवन सुखी और समृद्ध बने। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए लोग पुरुषार्थ करते हैं, धन- सम्पत्ति कमाते, परिवार बसाते और आध्यात्मिक साधना करते हैं। किन्तु क्या पुरुषार्थ करने, धन- दौलत कमाने, परिवार बसाने और धर्म- कर्म करने मात्र से लोग सुख- शान्ति के अपने उद्देश्य में सफल हो जाते हैं। सम्भव है इस प्रकार प्रयत्न करने से कई लोग सुख- शान्ति की उपलब्धि कर लेते हों, किन्तु बहुतायत में तो यही दीखता है कि धन- सम्पत्ति और परिवार परिजन के होते हुए भी लोग दुःखीऔर त्रस्त दीखते हैं। धर्म- कर्म करते हुए भी असन्तुष्ट और अशान्त हैं।
सुख- शान्ति की प्राप्ति के लिए धन- दौलत अथवा परिवार परिजन की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी आवश्यकता सद्विचारों की होती है। वास्तविक सुख- शान्ति पाने के लिए विचार साधना की ओर उन्मुख होना होगा। सुख- शान्ति न तो संसार की किसी वस्तु मेंहै और न व्यक्ति में। उसका निवास मनुष्य के अन्तःकरण में है। जो कि विचार रूप से उसमें स्थित रहता है। सुख- शान्ति और कुछ नहीं, वस्तुतः मनुष्य के अपने विचारों की एक स्थिति है। जो व्यक्ति साधना द्वारा विचारों को उस स्थिति में रख सकता है, वहीवास्तविक सुख- शान्ति का अधिकारी बन सकता है। अन्यथा, विचार साधना से रहित धन- दौलत से सिर मारते और मेरा- तेरा, इसका- उसका करते हुए एक झूठे सुख, मिथ्या शान्ति के मायाजाल में लोग यों ही भटकते हुए जीवन बिता रहे हैं और आगे भी बितातेरहेंगे।
सर्वश्रेष्ठ साधना
वास्तविक सुख- शान्ति पाने के लिए विचारों की साधना करनी होगी। सामान्य लोगों की अपेक्षा दार्शनिक, विचारक, विद्वान्, सन्त और कलाकार लोग अधिक निर्धन और अभावग्रस्त होते हैं तथापि उनकी अपेक्षा कहीं अधिक सन्तुष्ट, सुखी और शान्त देखे जाते हैं।इसका एक मात्र कारण यही है कि सामान्य जन सुख- शान्ति के लिए अधिकारी होते थे। सुख- शान्ति के अन्य निषेध उपायों को न करते हुए भारतीय ऋषि- मुनि अपने समाज को धर्म का अवलम्बन लेने के लिए विशेष निर्देशन किया करते थे। जनता की इसआवश्यकता की पूर्ति के लिए उन्होंने जिन वेदों, पुराणों, शास्त्रों, उपनिषदों आदि धर्म- ग्रन्थों का प्रणयन किया है, उनमें मन्त्रों, तर्कों, सूत्रों व सूक्तियों द्वारा विचार साधना का ही पथ प्रशस्त किया है।
मन्त्रों का निरन्तर जाप करने से साधक के पुराने कुसंस्कार नष्ट होते और उनका स्थान नये कल्याणकारी संस्कार लेने लगते हैं। संस्कारों के आधार पर अन्तःकरण का निर्माण होता है। अन्तःकरण के उच्चस्थिति में आते ही सुख- शान्ति के सारे के सारे कोष खुल जातेहैं। जीवन में उनका प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है। मन्त्र वास्तव में अन्तःकरण को उच्चस्थिति में लाने के गुप्त मनोवैज्ञानिक प्रयोग हैं। जैसा कि पूर्व प्रकरण में कहा जा चुका है कि न तो सुख- शान्ति का निवास किसी वस्तु अथवा व्यक्ति में है और न स्वयं ही उनकीकोई स्थिति है। वह वास्तव में मनुष्य के अपने विचारों की ही एक स्थिति है। सुख- शान्ति, उन्नति- अवनति का आधार मनुष्य की शुभ अथवा अशुभ मनःस्थिति ही है। जिसकी रचना तदनुरूप विचार साधना से ही होती है।
शुभ और दृढ़ विचार मन में धारण करने से, उनका चिंतन और मनन करते रहने से मनोदेश में सात्विक भाव की वृद्धि होती है। मनुष्य का आचरण उदात्त तथा उन्नत होता है। मानसिक शक्ति का विकास होता है, गुणों की प्राप्ति होती है। जिसका मन दृढ़ और बलिष्ठहै, जिसमें गुणों का भण्डार भरा है, उसको सुख- शान्ति के अधिकार से संसार में कौन वंचित कर सकता है। भारतीय मन्त्रों का अभिमत दाता होने का रहस्य यही है कि बार- बार जपने से उनमें निवास करने वाला दिव्य विचारों का सार मनुष्य के अन्तःकरण में भरजाता है, जो बीज की तरह वृद्धि पाकर मनोवाँछित फल उत्पन्न कर देते हैं।
प्राचीन भारतीयों की आयु औसतन सौ वर्ष की होती थी। जो व्यक्ति संयोगवश सामान्य जीवन में सौ वर्ष से कम जीता था, उसे अल्प आयु का दोषी माना जाता था, उसकी मृत्यु को अकाल मृत्यु कहा जाता था। इस शतायुष्य का रहस्य जहाँ उनका सात्विक तथा सौम्यरहन- सहन, आचार- विचार और आहार- विहार होता था, वहाँ सबसे बड़ा रहस्य उनकी तत्सम्बन्धी विचार साधना रहा है। वे वेदों में दिए— ‘प्रब्रवाम शरदः शतम्। अदीनः स्याम शरद शतम्।’ जेसे अनेक मन्त्रों का जाप किया करते थे। यह मन्त्र जाप आयु संबंधी विचारसाधना के सिवाय और क्या होता था?
गायत्री मन्त्र की साधना का भी यही रहस्य है। इस मन्त्र का जाप करने वालों को बहुधा ही तेजस्वी, समृद्धिवान तथा ज्ञानवान् क्यों देखा जाता है? इसीलिए कि इस मन्त्र के माध्यम से सविता देवता की उपासना के साथ, सुख- समृद्धि तथा ज्ञानपरक विचारों कीसाधना की जाती है। मनुष्य जीवन में जो कुछ पाता या खोता है, उसका हेतु मान भले ही किन्हीं और कारणों को लिया जाए, किन्तु उसका वास्तविक कारण मनुष्य के अपने विचार ही होते हैं, जिन्हें धारण कर वह जान अथवा अनजान दशा में प्रत्यक्ष से लेकर गुप्त मनतक चिन्तन तथा मनन करता रहता है।
विचार साधना मानव- जीवन की सर्वश्रेष्ठ साधना है। इसके समान सरल तथा सद्यः फलदायिनी साधना दूसरी नहीं है। मनुष्य जो कुछ पाना चाहता है, उसके अनुरूप विचार धारण कर उनकी साधना करते रहने से वह अपने मन्तव्य में निश्चय ही सफल हो जाता है।यदि किसी में स्वावलम्बन की कमी है और वह स्वावलम्बी बनकर आत्मनिर्भरता की सुखद स्थिति पाना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह तदनुरूप विचारों की साधना करने के लिए इस प्रकार का चिन्तन तथा मनन करे, ‘‘मुझे परमात्मा ने अनन्त शक्ति दी है। मुझेकिसी दूसरे पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है। परमुखापेक्षी रहना मानवीय व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं। परावलम्बी होना कोई विवशता नहीं है। वह तो मनुष्य की दुर्बल वृत्ति ही है। मैं अपनी इस दुर्बल वृत्ति का त्याग कर दूँगा और स्वयं अपने परिश्रम तथा उद्योगद्वारा अपने मनोरथ सफल करूँगा। परावलम्बी व्यक्ति पराधीन रहता है और पराधीन व्यक्ति संसार में कभी भी सुख और शान्ति नहीं पा सकता। मैं साधना द्वारा अपनी आन्तरिक शक्तियों का उद्घाटन करूँगा, शारीरिक शक्ति का उपयोग और इस प्रकारस्वावलम्बी बनकर अपने लिए सुख- शान्ति की स्थिति स्वयं अर्जित करूँगा।’’ निश्चय ही इस प्रकार के अनुकूल विचारों की साधना से मनुष्य की परावलम्बन की दुर्बलता दूर होने लगेगी और उसके स्थान पर स्वावलम्बन का सुखदायी भाव बढ़ने और दृढ़ होने लगेगा।
सुख- शान्ति का अपना कोई अस्तित्व नहीं। यह मनुष्य के विचारों की ही एक स्थिति होती है। यदि अपने अन्तःकरण में उल्लास, उत्साह, प्रसन्नता एवं आनन्द अनुभव करने की वृत्ति जगा ली जाय और दुःख, कष्ट और अभाव की अनुभूति की हठात् उपेक्षा दूर की जायतो कोई कारण नहीं कि मनुष्य सुख- शान्ति के लिए लालायित बना रहे। मैं आनन्द रूप परमात्मा का अंश हूँ, मेरा सच्चा स्वरूप आनन्दमय ही है, मेरी आत्मा में आनन्द के कोष भरे हैं, मुझे संसार की किसी वस्तु का आनन्द अपेक्षित नहीं है। जो आनन्दरूप, आनन्दमय और आनन्द का उद्गम आत्मा है, उससे दुःख, शोक अथवा ताप- संताप का क्या सम्बन्ध? किन्तु यह सम्भव तभी है, जब तदनुरूप विचारों की साधना में निरत रहा जाय, उनकी सृजनात्मक शक्ति को सही दिशा में नियोजित रखा जाय।
सद्विचारों का निर्माण सत् अध्ययन- सत्संग से
कोई सद्विचार तभी तक सद्विचार हैं जब तक उसका आधार सदाशयता है, अन्यथा वह असद्विचारों के साथ ही गिना जायेगा। चूँकि मनुष्य के जीवन में हर प्रकार और हर कोटि के असद्विचार विष की तरह ही त्याज्य हैं, उन्हें त्याग देने में ही कुशल, क्षेम, कल्याणतथा मंगल है।
वे सारे विचार जिनके पीछे दूसरों और अपनी आत्मा का हित सन्निहित हो सद्विचार ही होते हैं। सेवा एक सद्विचार है। जीवमात्र की निःस्वार्थ सेवा करने से किसी को कोई प्रत्यक्ष लाभ तो होता दीखता नहीं। दीखता है उस व्रत की पूर्ति में किया जाने वाला त्याग औरबलिदान। जब मनुष्य अपने स्वार्थ का त्याग कर सेवा करता है, तभी उसका कुछ हित- साधन कर सकता है। स्वार्थी और सांसारिक लोग सोच सकते हैं कि अमुक व्यक्ति में कितनी कम समझ है, जो अपनी हित- हानि करके अकारण ही दूसरों का हित- साधन करतारहता है। निश्चय ही मोटी आँखों और छोटी बुद्धि से देखने पर किसी का सेवा- व्रत उसकी मूर्खता ही लगेगी। किन्तु यदि उस व्रती से पता लगाया जाय तो विदित होगा कि दूसरों की सेवा करने में वह जितना त्याग करता है, वह उस सुख- शान्ति की तुलना में एक तृणसे भी अधिक नगण्य है, जो उसकी आत्मा अनुभव करती है।
एक छोटे से त्याग का सुख आत्मा के एक बन्धन को तोड़ देता है। देखने में हानिकर लगने पर भी अपना वह हर विचार सद्विचार ही है जिसके पीछे परहित अथवा आत्महित का भाव अन्तर्हित हो। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य लोक नहीं, परलोक ही है। इसकी प्राप्तिएकमात्र सद्विचारों की साधना द्वारा ही हो सकती है। अस्तु आत्म- कल्याण और आत्म- शान्ति के चरम लक्ष्य की सिद्धि के लिए सद्विचारों की साधना करते ही रहना चाहिये।
असद्विचारों के जाल में फँस जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। अज्ञान, अबोध अथवा असावधानी से ऐसा हो सकता है। यदि यह पता चले कि हम किसी प्रकार असद्विचारों के पास में फँस गए हैं तो इसमें चिन्तित अथवा घबराने की कोई बात नहीं है। यह बात सहीहै कि असद्विचारों में फँस जाना बड़ी घातक घटना है। किन्तु ऐसी बात नहीं कि इसका कोई उपचार अथवा उपाय न हो सके। संसार में ऐसा कोई भी भव- रोग नहीं है, जिसका निदान अथवा उपाय न हो। असद्विचारों से मुक्त होने के भी अनेक उपाय हैं। पहला उपाय तोयही है कि उन कारणों का तुरन्त निवारण कर देना चाहिए जो कि असद्विचारों में फँसाते रहे हैं। यह कारण हो सकते हैं— कुसंग, अनुचित साहित्य का अध्ययन, अवांछनीय वातावरण।
खराब मित्रों और संगी- साथियों के सम्पर्क में रहने से मनुष्य के विचार दूषित हो जाते हैं। अस्तु ऐसे अवांछनीय संग का तुरन्त त्याग कर देना चाहिए। इस त्याग में सम्पर्कजन्य संस्कार अथवा मोह का भाव आड़े आ सकता है। कुसंग त्याग में दुःख अथवा कठिनाईअनुभव हो सकती है। लेकिन नहीं, आत्म- कल्याण की रक्षा के लिए उस भ्रामक कष्ट को सहना ही होगा और मोह का वह अशिव बन्धन तोड़कर फेंक देना ही होगा। कुसंग त्याग के इस कर्तव्य में किन्हीं साधु पुरुषों के सुसंग की सहायता ली जा सकती है। बुरे औरअविचारी मित्रों के स्थान पर अच्छे, भले और सदाचारी मित्र, सखा और सहचर खोजे और अपने साथ लिए जा सकते हैं अन्यथा अपनी आत्मा सबसे सच्ची और अच्छी मित्र है। एकमात्र उसी के सम्पर्क में चले जाना चाहिए।
असद्विचारों के जन्म और विस्तार का एक बड़ा कारण असद्साहित्य का पठन- पाठन भी है। जासूसी, अपराध और अश्लील शृंगार में भरे सस्ते साहित्य को पढ़ने से भी विचार दूषित हो जाते हैं। गन्दी पुस्तकें पढ़ने से जो छाया मस्तिष्क पर पड़ती है, वह ऐसी रेखाएँबना देती है जिनके द्वारा असद्विचारों का आवागमन होने लगता है। विचार, विचारों को भी उत्तेजित करते हैं। एक विचार अपने समान ही दूसरे विचारों को उत्तेजित करता और बढ़ाता है।
इसलिए गन्दा साहित्य पढ़ने वाले लोगों का अश्लील चिन्तन करने का व्यसन हो जाता है। बहुत से ऐसे विचार जो मनुष्य के जाने हुए नहीं होते यदि उनका परिचय न कराया जाय तो न तो उनकी याद आए और न उनके समान दूसरे विचारों का ही जन्म हो। गन्देसाहित्य में दूसरों द्वारा लिखे अवांछनीय विचारों से अनायास ही परिचित हो जाता है और मस्तिष्क में गन्दे विचारों की वृद्धि हो जाती है। अस्तु, गन्दे विचारों से बचने के लिए अश्लील और असद् साहित्य का पठन- पाठन वर्जित रखना चाहिए।
असद्विचारों से बचने के लिए अवांछनीय साहित्य का पढ़ना बन्द कर देना अधूरा उपचार है। उपचार पूरा तब होता है, जब उसके स्थान पर सद्- साहित्य का अध्ययन किया जाय। मानव- मस्तिष्क कभी खाली नहीं रह सकता। उसमें किसी न किसी प्रकार के विचारआते- जाते ही रहते हैं। बार- बार निषेध करते रहने से किन्हीं गन्दे विचारों का तारतम्य तो टूट सकता है किन्तु उनसे सर्वथा मुक्ति नहीं मिल सकती। संघर्ष की स्थिति में वे कभी चले भी जायेंगे और कभी आ भी जायेंगे। अवांछनीय विचारों से पूरी तरह बचने का सबसेसफल उपाय यह है कि मस्तिष्क में सद्विचारों को स्थान दिया जाए। असद्विचारों को प्रवेश पाने का अवसर ही न मिलेगा।
मस्तिष्क में हर समय सद्विचार ही छाये रहें इसका उपाय यही है कि नियमित रूप से नित्य सत्साहित्य का अध्ययन करते रहा जाय। वेद, पुराण, गीता, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त अच्छे और ऊँचे विचारों वाले साहित्यकारों कीपुस्तकें सत्साहित्य की आवश्यकता पूरी कर सकती हैं। यह पुस्तकें स्वयं अपने आप खरीदी भी जा सकती हैं और सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत पुस्तकालयों से भी प्राप्त की जा सकती हैं। आजकल न तो अच्छे और सस्ते साहित्य की कमी रह गई है और न पुस्तकालयोंऔर वाचनालयों की कमी। आत्म- कल्याण के लिए इन आधुनिक सुविधाओं का लाभ उठाना ही चाहिए।
समाज में फैली हुई अन्धता, मूढ़ता तथा कुरीतियों का कारण अज्ञान- अन्धकार होता है। अन्धकार में भ्रम होना स्वाभाविक ही है। जिस प्रकार अँधेरे में वस्तुस्थिति का ठीक ज्ञान नहीं हो पाता, पास रखी हुई चीज का स्वरूप यथावत दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार अज्ञान केदोष से स्थिति, विषय आदि का ठीक आभास नहीं होता। वस्तुस्थिति के ठीक ज्ञान के अभाव में कुछ- का सूझने और होने लगता है। विचार और उनसे प्रेरित कार्य के गलत हो जाने पर मनुष्य को विपत्ति, संकट अथवा भ्रम में पड़कर अपनी हानि कर लेना स्वाभाविक हीहै।
अन्धकार के समान अज्ञान में भी एक अनजान भय समाया रहता है। रात के अन्धकार में रास्ता चलने वालों को दूर के पेड़- पौधे, ठूँठ, स्तूप तथा मील के पत्थर तक चोर- डाकू, भूत- प्रेत आदि दिखाई देने लगते हैं। अन्धकार में जब भी जो चीज दिखाई देगी वहशंकाजनक ही होगी, विश्वास अथवा उत्साहजनक नहीं। घर में रात के समय में पेशाब, शौच आदि के लिए आने- जाने वाले अपने माता- पिता, बेटे- बेटियाँ तक अन्धकाराच्छन्न होने के कारण चोर, डाकू या भूत- चुड़ैल जैसे भान होने लगते हैं और कई बार तो लोगउनकी पहचान न कर सकने के कारण टोक उठते हैं या भय से चीख मार बैठते हैं। यद्यपि उनके वे स्वजन पता चलने पर भूत- चुड़ैल अथवा चोर- डाकू नहीं निकले जो कि न पहचानने से पूर्व थे किन्तु अन्धकार के दोष से वे भय एवं शंका के विषय बने। भय का निवासवास्तव में न तो अन्धकार में होता है और न वस्तु में, उसका निवास होता है उस अज्ञान में जो अँधेरे के कारण वस्तुस्थिति का ज्ञान नहीं होने देता।
ज्ञान के अभाव में जनसाधारण भ्रांतिपूर्ण एवं निराधार बातों को उसी प्रकार समझ लेता है जिस प्रकार हिरन मरु- मरीचिका में जल का विश्वास कर लेता है और निरर्थक ही उसके पीछे दौड़- दौड़कर जान तक गँवा देता है। अज्ञान का परिणाम बड़ा ही अनर्थकारी होता है।अज्ञान के कारण ही समाज में अनेकों अन्ध- विश्वास फैल जाते हैं। स्वार्थी लोग किसी अन्ध- परम्परा को चलाकर जनता में यह भय उत्पन्न कर देते हैं कि यदि वे उक्त परम्परा अथवा प्रथा को नहीं मानेंगे तो उन्हें पाप लगेगा जिसके फलस्वरूप उन्हें लोक में अनर्थऔर परलोक में दुर्गति का भागी बनना पड़ेगा। अज्ञानी लोग ‘भय से प्रीति’ होने के सिद्धान्तानुसार उक्त प्रथा- परम्परा में विश्वास एवं आस्था करने लगते हैं और तब उसकी हानि को देखते हुए भी अज्ञान एवं आशंका के कारण उसे छोड़ने को तैयार नहीं होते। मनुष्यआँखों देखी हानि अथवा संकट से उतना नहीं डरते जितना कि अनागत आशंका से। अज्ञानजन्य भ्रम जंजाल में फँसे मनुष्य का दीन- दुःखी रहना स्वाभाविक ही है।
यही कारण है कि ऋषियों ने ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ का सन्देश देते हुए मनुष्यों को अज्ञान की यातना से निकलने के लिए ज्ञान- प्राप्ति का पुरुषार्थ करने के लिए कहा है। भारत का आध्यात्म- दर्शन ज्ञान- प्राप्ति के उपायों का प्रतिपादक है। अज्ञानी व्यक्ति कोशास्त्रकारों ने अन्धे की उपमा दी है। जिस प्रकार बाह्य- नेत्रों के नष्ट हो जाने से मनुष्य भौतिक जगत का स्वरूप जानने में असमर्थ रहता है, उसी प्रकार ज्ञान के अभाव में बौद्धिक अथवा विचार- जगत की निर्भ्रान्त जानकारी नहीं हो पाती। बाह्य जगत के समानमनुष्य का एक आत्मिक जगत भी है, जो कि ज्ञान के अभाव में वैसे ही तमसाच्छन्न रहता है जैसे आँखों के अभाव में यह संसार।
सद्ज्ञान में ही वह सृजनात्मक शक्ति सन्निहित है, जो मनुष्य को प्रगति-पथ पर चढ़ने की प्रेरणा देती एवं सहायता करती है। इसलिए प्रगति के आकांक्षी व्यक्ति को सत्साहित्य के माध्यम एवं सत्संग के द्वारा सद्ज्ञान को सद्विचारों से समृद्ध करते रहना चाहिए, ताकि वह उनकी सृजनात्मक शक्ति के सहारे उत्कर्ष की ऊँची मंजिलें पार करता चला जाए।
निर्वाण् षटकम्
शिवोऽहम् शिवोऽहम्, शिवोऽहम् शिवोऽहम्।
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।
मनोबुद्धयहंकार चित्तानि नाहं, न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।। 1।।
न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः, न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।। 2।।
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहो, मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।। 3।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं, न मन्त्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।। 4।।
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः, पिता नैव मे नैव माता न जन्मः।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।। 5।।
अहं निर्विकल्पो निराकार रूपौ, विभुत्वाच सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
न चसङत नैव मुक्तिर्न मेयः, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।। 6।।
-आद्यगुरु शंकराचार्यकृत