उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो !!
साधनाएँ समयानुकूल और पात्रता के अनुकूल हुआ करती हैं। एक-सी साधना कभी नहीं रही। बहुत पुराने जमाने की साधना को हम अब कम देखते हैं। कभी पार्वती जी तप करती रही थीं। कितने वर्ष तक वह हवा पर रहीं, पत्ते खाती रहीं, पानी पीती रहीं। कभी तपस्वियों की ऐसी साधनाएँ होती थीं। कभी ज्ञान की साधनाएँ होती रहीं। सूत और शौनक से नैमिषारण्य क्षेत्रों में जाकर के कथा-प्रसंग होते थे। उसमें अनेकानेक भक्तजन आते थे और कथा-श्रवण करते थे, सत्संग की बात करते थे। कभी शिक्षण का सिलसिला चला। ब्राह्मणों के आरण्यक काफी स्थापित हुए और उनमें जाकर के लोग अपना ज्ञानार्जन करने लगे। साधनाएँ उस समय की अजीब थीं। हजारों तरह की साधनाएँ, तांत्रिक साधनाएँ, कभी कौन! कभी कौन! ऐसी तमाम साधनाएँ होती रहीं। समय के हिसाब से साधना का चयन करना गुरुजनों का काम है और ऋषियों। ऋषियों का ये है कि जो द्रष्टा-समय की जानकारी प्राप्त करने वाले, यदि कोई साधना अपने लिए बता दें, तो उसी को ठीक मान करके चलना चाहिए। आज का समय सामान्य समय नहीं है, सन्धि का समय है। सन्धि के समय को आप आपातकालीन समय भी कह सकते हैं। कभी-कभी आपत्तिकाल भी आते हैं, जैसे—भूकम्प आ जाए कहीं, तो उसको आपत्तिकाल कह सकते हैं।
ऐसे वक्त भाग खड़े होंगे लोग, कुछ जमीन के नीचे दब जाएँगे, हाहाकार हो जाएगा, बिजली चली जाएगी, नल पानी देना बन्द कर देंगे। ऐसे समय को आपत्तिकाल कहेंगे। दुर्भिक्षों को भी आपातकाल कहेंगे, जब खाना नहीं मिलता, अनाज पैदा होना बन्द हो जाता है, कुएँ का पानी सूख जाता है, तो आदमी जान बचाने के लिए या तो भाग खड़े होते हैं या वहीं प्राण त्याग देते हैं। प्राचीनकाल में ये दुर्भिक्ष बहुत होते थे। अग्निकाण्ड हो जाए, छप्पर जलने लगे किसी का तब? तब आप उसको आपत्तिकाल कहेंगे। अपना जो व्यक्तिगत काम है, उसको ऐसे समय बन्द कर दीजिये। अग्नि को बुझाने के लिए दौड़िए। खाना खा रहे हैं, छोड़ दीजिए। पड़ोस में आग लगी है, वहाँ जाइये। नहा रहे हैं, नहाना आप बन्द कर दीजिये। कपड़े धोने हैं तो काम जरूरी पर बन्द कर दीजिए और आप जाइये पड़ोस में आग लग रही है, उसको आप देखिए। दुकान जाने को थे न, मत जाइये दुकान, देखिये क्या दुर्घटना घटित हो गयी है। सामने वाले का बस का एक्सीडेण्ट हो गया है। बस की टक्कर में कितने आदमियों की टाँगे टूट गयी हैं, कितने घायल हो गए हैं, कितने मर गये हैं? आप आज दुकान जाना बन्द कर दीजिए। सामान्य कार्य को आप बन्द कर दीजिये और ये जो घायल पड़े हैं, इनको पानी पिलाइए, इनकी पट्टी का इन्तजाम कीजिए, इनको अस्पताल भिजवाने की कोशिश कीजिए। जो भी सहायता उनकी इस समय आप कर सकते हों करें। आज आप दुकान बन्द कर दें। क्यों? दुकान का समय है, वह सामान्य समय की बात है। असामान्य समय में आदमियों को असामान्य कार्य की प्रवृत्ति पर चलना पड़ता है। महामारियाँ फैल जाती है, बाढ़ आ जाती हैं, कोई और बड़ी दुर्घटनाएँ हो जाती हैं, तो लोग जो भावनाशील हैं, अपना सामान्य-क्रम बदल देते हैं, बन्द कर देते हैं और दूसरों की सहायता करने के लिए चल पड़ते हैं, दौड़ पड़ते हैं। इसको क्या कहेंगे? आपत्तिकाल।
आज का समय ऐसा ही आपत्तिकाल है। इसमें आपत्तिधर्म निबाहने के लिए आप सबको तैयार रहना चाहिए। आज का समय आप देखते हैं? सन्धि का समय है। एक ओर कौरवों की सेना खड़ी हुई है एक ओर पाण्डवों की सेना खड़ी हुई है। एक ओर विनाश मुँह बाये खड़ा हुआ है, असुरता मुँह बाये खड़ी हुई है, सर्वनाश की चुनौतियाँ एक ओर एक पार्टी में खड़ी हुई है, दूसरी पार्टी में नव-निर्माण करने के लिये नवशिल्पी अपनी-अपनी तैयारी के साथ कमर बाँधे खड़े हुए हैं। ये कौरव-पाण्डवों की लड़ाई है। ये महाभारत का समय है। इसको आप आपत्तिकाल समझिये। आपत्तिकाल में, सामान्य समय में जो बातें होती हैं, वह इस समय नहीं होतीं। आपको इस समय के लिये विशेष धर्म और कर्तव्य अपनाने चाहिए। अर्जुन कोई धर्म-कर्म करने का पेशा थोड़े ही करता था। अर्जुन कोई और काम करता रहा। गीता में भगवान ने जब अर्जुन से लड़ने को कहा, तो वह आनाकानी करता रहा। बेकार लड़ने से क्या फायदा! लेकिन वह तो आपत्तिकाल था न? अगर वहाँ लड़ाई नहीं लड़ी गयी होती तब? तब कर्ण, दुर्योधन, दुःशासन और शिशुपाल मिल करके जाने कैसा हाहाकार कर देते और लपक करके आदमियों को तहस-नहस कर देते कि जिसमें आदमियों का जिन्दा रहना मुश्किल हो जाता। इसलिये भगवान् ने महाभारत की तैयारी की। अर्जुन से कहा—इस समय सामान्य बातों को छोड़ दो। कह भी रहा था ‘‘श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके’’—मैं तो भिक्षा माँग करके भी खा सकता हूँ, दुकान करके भी खा सकता हूँ, नौकरी करके भी खा सकता हूँ, पेट भर सकता हूँ, फिर मैं क्यों लड़ूँगा? भगवान ने कहा—यह आपत्तिकाल का धर्म निभाने के लिए अर्जुन को तैयार किया गया और वह भगवान का कहना मान करके, अपनी मर्जी में अपनी मर्जी मिला दी; मर्जी मिलाने के बाद में लड़ाई के मैदान में चला गया और गाण्डीव चलाने लगा और सारे-के विरोधियों को मार गिराया। अन्त में अपने साम्राज्य का स्वामी हुआ और भगवन् की भक्ति का भी अधिकारी हुआ। ये आपत्तिधर्म कहता हूँ। पूजा-उपासना? ये क्या? पूजा-उपासना थी अर्जुन की? क्या पूजा-उपासना थी, आप बताइये? कोई अनुष्ठान, जप, तप, ध्यान, धारणा, समाधि—दैनिक जीवन में कुछ भी नहीं था। भगवान की आज्ञा है, जैसा कि उन्होंने बताया कि इस समय सबसे बड़ी साधना महाभारत की है। इसी में वह लग गया। लग जाने की वजह से साधना—भगवान की बताई हुई साधना, मनुष्यों की करायी हुई साधना की अपेक्षा लाखों गुनी श्रेयस्कर सिद्ध हुई। ऐसे ही दूसरों की भी बात है। अच्छा बताइये, हनुमानजी ने क्या साधना की? हनुमान जी ने अनुष्ठान किये थे? जप किये थे? तप किये थे? ध्यान-धारणा की थी? सुग्रीव जी ले आये थे, कुछ नहीं की थी। बन्दर थे खाली तब। जब भगवान से मुलाकात हो गयी, तो भगवान से जब मिलना-जुलना हुआ, तो उन्होंने पूछा—मैं आपकी शरण में आ गया; अब मुझे आज्ञा बताइये। आज्ञा उनको बता दी कि सीताजी को खोज कर लाइये और लंका को बरबाद करने की कोशिश कीजिये। अनुष्ठान नहीं बताया। जप? जप भी नहीं बताया। रामायण का पाठ? गीता का पाठ? नारायण मंत्र का पाठ? नहीं, कुछ नहीं बताया। उन्होंने कहा—इस समय आपत्ति घर में है। सीता जी आपत्ति में फँसी हुई है और देश के ऊपर अनाचार के बादल अधर्म के तरीके से जमा कर दिये गए हैं—उससे लड़ना पड़ेगा और उसे दूर करना पड़ेगा। आज की यही साधना है। हनुमान जी ने स्वीकार कर लिया। उन्होंने कोई आग्रह नहीं किया कि जप बताइए, तप बताइए, ध्यान बताइए। ये तो उन लोगों को आग्रह रहता है, जो कुछ पुरुषार्थ नहीं कर सकते; जिन्हें कोई मेहनत करने से लगाव नहीं है; सेना के प्रति जिनके अन्तःकरणों में कोई उत्साह, कोई उमंग नहीं होती। ऐसे आदमी खाली बैठे रहें, तो कुछ तो बताइये, कुछ तो बताना पड़ेगा। लकड़ी की माला ही घुमाते रहिये; कुछ तो कीजिये बाबा! ऐसे हाल में पड़े रहने की अपेक्षा तो माला घुमाना और राम का नाम लेना क्या बुरा है? लेकिन आप यह मत समझिये कि उपासना का मतलब.... उपासना का मतलब राम-नाम लेना ही नहीं होता, माला घुमाना ही नहीं होता। हर काम में माला नहीं काम आती। माला भी कभी काम आती है; लेकिन माला ही काम आती है—ऐसी बात नहीं। उपासना की दृष्टि से सामयिक कर्तव्यों, सामयिक जिम्मेदारियों का परिपालन करना बहुत जरूरी है। हनुमान जी ने यही किया। जिस दिन से भगवान की शरण में आये, उनकी आज्ञानुसार सारे जीवन भर साधना करते रहे; अपनी मर्जी की साधना की नहीं। अपनी मर्जी की साधना मालूम थी नहीं। भगवान की साधना क्या थी? उन्होंने पहले उनको ये हुक्म दिया था—सीता जी को ढूँढ़ के लाइये। सीताजी को ढूँढ़ के हनुमान जी ले आये और उनको अँगूठी वापस कर दी और कहा—देखिये, हम पता लगा लाये। यह काम नम्बर एक। काम नम्बर दो भगवान जी का है। तो फिर एक काम खत्म हो गया।
दूसरा अध्याय साधना का है। अब चलें राक्षसों से लड़ने के लिए युद्ध की तैयारी करें और युद्ध के लिये जो भी साधन जुटाने हैं, उनको जाकर के लाएँ। हनुमान जी ने सारी तैयारियाँ कर दीं। अपने मोहल्ले में गये और सारे रीछ-बन्दरों को उत्साह देकर के साथ ले आये कहा कि चलिये आप भी चलिये, हम तो जा ही रहे हैं, आप भी चलिये। बहुत सारे रीछ और बन्दर उनके कहने के मुताबिक़ तैयार हो गये और हनुमानजी ने दौड़ लगायी; नल और नील को पकड़ के लाये जो कि अच्छे-खासे इंजीनियर थे और बड़ी इमारत बना सकते थे। ये कौन लाये थे? हनुमान जी लाये थे। अपने आप आये थे? नहीं, अपने आप तो रीछ-बन्दर भी नहीं आये थे; अपने आप तो नल-नील भी नहीं आये थे। कोई अपने आप क्यों आने लगा? हनुमान जी थे, जिन्होंने कि सारे साधन इकट्ठा करने में, जुटाने में पूरी-पूरी मेहनत की और लंका को परास्त करने के लिये जिन साधनों की जरूरत थी, वह सारे-के साधन जमा कर दिये और लड़ाई भी लड़ी और जो कुछ भी उस समय लड़ाई का सामान हो सकता था—पेड़ उखाड़ने से लेकर राक्षसों को तबाह करने तक, वह सब करते रहे। जब उनके भाई लक्ष्मणजी बीमार हो गये, तब उनके लिये सुषेण वैद्य ने कहा—पहाड़ उखाड़ कर लाइये। पहाड़ उखाड़ के भी लाते रहे। आपने जप****जप****जप****एक ही बात सीख ली है, दूसरी बात सीखी ही नहीं, सबसे सुगम वाला, बैठे-बैठे लकड़ी के दाने हिलाने वाला, सिर हिलाने वाला, जीभ की नोंक हिलाने वाला—आपने इतनी सस्ती उपासना समझ ली? इतनी सस्ती उपासना होती है कहीं! इसमें क्या नहीं करना पड़ता है? कष्ट न उठाना पड़ता हो, पुरुषार्थ न करना पड़ता हो—साधना भी कहीं ऐसी होती है। साधना इतनी सस्ती होती है? इतनी कीमती चीजें आप इतने डैमचीप कीमत पर खरीदने की कोशिश करेंगे; मत कीजिएगा। वास्तविकता के नजदीक आइये। भगवान को प्राप्त करना चाहते हों, तो भगवान का कहना भी मानिये। शरणागति इसी का नाम है; समर्पण इसी का नाम है। समर्पण और शरणागति इसी का नाम है कि हम भगवान का कहना मानें; न कि भगवान को अपने कहे पर मजबूर करें—हमारी मनोकामना पूरी कीजिये। आप अपनी मर्जी पर भगवान को चलाएँगे? आपकी मर्जी पर चलेंगे वह? आप कौन हैं? आप अपना नाम तो बताइए? आप कौन हैं, जो आपको ये जुर्रत और ये हिम्मत होती है कि आप भगवान के ऊपर ये हुक्म चलाएँ कि आप हमारी मनोकामना अभी पूरी कर दीजिये। शरीर आपको मिल गया, मन आपको मिल गया, कुटुम्ब आपको मिल गया, कला आपको मिल गयी, साधन आपको मिल गये, फिर भी आपकी यह जुर्रत और यह हिमाकत कि आप भगवान से कहें कि अपनी दैनिक जरूरत की चीजों को जो आप आसानी से पूरी कर सकते हों, वह नहीं करेंगे और भगवान जो इसको भी करें। एक दिन कहिये न भगवान जी से टट्टी फिरा दीजिये हमारी; कहिये न भगवान जी से। कपड़े धोया कीजिये। ये कहिये न भगवान जी से। मनोकामना में ये बात भी तो शामिल है। आप क्यों पुरुषार्थ करने लगे! आप क्यों योग्यता सम्पादन करने लगे? आप ये सब तो भगवान से करा दीजिए। खाना चबाने के लिए भगवान जी से कहिये—आप खाना चबाकर के हमारे मुँह में डाल दिया कीजिये। ऐसी बात क्यों कहते हैं? आपको अपना पुरुषार्थ जाग्रत करना पड़ेगा, भगवान का कहना मानना पड़ेगा।
ग्वाल-बालों की बात सुनी है न आपने? ग्वाल-बाल भगवान के परमप्रिय मित्र थे, उनके सहयोगी थे, सहचर थे, सखा थे, लेकिन ग्वाल−बालों को उन्होंने रामायण पाठ कराने की बजाय, अखण्ड कीर्तन कराने की बजाय उनसे कहा—आओ दोस्तो! गोवर्द्धन पहाड़ उखाड़ेंगे, गोवर्द्धन पहाड़ को उठाएँगे। ग्वाल−बालों ने उनका ही कहना माना। किसी ने भी यह नहीं कहा कि साहब, रामायण का अखण्ड पाठ कराइए, हमको तो सत्संग कराइए, हमको भण्डारा कराइए और हमको तो ये कराइए। कुछ नहीं कहा। भगवान तो भगवान, समर्पण तो समर्पण, आज्ञा तो आज्ञा। बस, उनको जो हुक्म दिया गया—पहाड़ ढोना चाहिए तो उन्होंने पहाड़ में टेक लगाना और पत्थरों को जमा करना ऐसा ही कृत्य समझा मानो कोई बड़ा भारी पुण्य कर रहे हैं और दान कर रहे हैं। हमने कहा पहले कि हम ये बात का फैसला कर सकें कि हमको क्या करना चाहिए? क्या करने के लिये किसी महती शक्ति के साथ में आप सम्बन्ध जोड़िए और कठपुतली के तरीके से उसका कहना मान के चलिये, उसके पीछे-पीछे चलिये। यही सही और यही मुनासिब तरीका है। सही भी यही है और मुनासिब भी यही है, लाभदायक भी यही है। इसलिये सन्धि के समय में आपको जो काम करना है, बड़ा महत्त्वपूर्ण काम करना है। आज जन-जन के मन-मन को परिष्कृत करने की आवश्यकता है। आदमी का मन, आदमी का चिन्तन ऐसा भ्रष्ट हो गया है कि उसके आचरणों को दुष्ट बनाने में कोई हया-शर्म नहीं आती। दुष्ट आचरण फौरन करने लगता है; क्योंकि चिन्तन जिसका भ्रष्ट हो गया, उसको आचरण को दुष्ट बनाने में क्या देर लगनी चाहिए? विचार आदमी के है ही नहीं। विचार सब अस्त-व्यस्त हो गये। आज सबसे बड़ी आवश्यकता विचार-क्रान्ति की है, जनमानस के परिष्कार की है, लोकमंगल के लिये जनजागरण की है। आप उस काम को करते हैं, तो फिर आप यह समझिये कि आप युगसन्धि के समय पर साधना के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। अगर वह जानकारी प्राप्त हो गयी, तो फिर आपको यही काम करना पड़ेगा, जो आपको करना भी चाहिए। आप जिस परिवार के मेम्बर हैं—ये परिवार बड़ी मुसीबत से और बड़ी मुश्किल से और बड़ी देख−भाल से बनाया गया है। इसकी हमने ढूँढ़-ढूँढ़ कर के, महर्षियों को ढूँढ़-ढूँढ़ करके कितनी डुबकी लगाकर के और कहाँ-कहाँ से इकट्ठा किया है और आपको किसलिए साधना में लगाया है, ताकि आप भगवान के ऊपर इतना अहसान करने में समर्थ हो सकें कि आपका अहसान भगवान कभी नहीं भूलें। भगवान अहसान भूलें नहीं किसका? हनुमान का। हनुमान को उसने अपने कुटुम्ब का छठा सदस्य बना लिया। आपने राम पंचायतन के चित्र देखें हैं न? उसमें पाँच तो वो हैं कौन? चार भाई हैं और सीताजी हैं। पाँच नाम से पंचायतन हो जाता है; लेकिन आपने उस हर चित्र में हनुमान जी को शामिल देखा होगा? छठवें हनुमान जी थे। क्यों? क्या वजह थी? सिर्फ एक ही वजह थी कि ‘राम काज कीने बिना मोहि कहाँ विश्राम’ इसमें उनकी अपनी इच्छा कहाँ थी कि बैकुण्ठ को जाएँगे, अपनी मुक्ति कराएँगे, अपना फायदा कराएँगे, अपना चमत्कार देखेंगे, अपनी सिद्धि देखेंगे, अपना ये करेंगे। अपनापन जो बता दिया, तो भगवान की मर्जी क्या रही! भगवान की मर्जी जो कुछ थी, वही उन्होंने पूरी कर डाली। बस, रामचन्द्रजी के कुटुम्बियों में शामिल हो गये।
आप ऐसा ही कीजिये। अपनी मर्जी की बातें मत लावें। इस बाबा के पास, उस पण्डाजी के पास, उस बाबाजी के पास उस गुरु जी के पास, कहीं झक मत मारिए। आपके भीतर बैठा हुआ, अन्तःकरण में बैठा हुआ भगवान हमारा मार्गदर्शन कर सकता है और वह ऐसा विलक्षण मार्गदर्शन होगा, जैसे कि अर्जुन के घोड़ों को चलाने के लिए कृष्ण भगवान ने किया था। गाण्डीव चलाता था अर्जुन; लेकिन घोड़े को चलाने का, रास्ता सही बताने का, मोर्चे की जानकारी कराने का काम कृष्ण भगवान का था। आप ऐसे ही कर सकते हैं। ज्यादा बहस में पड़ने की बजाय कि हमको ये करना है, यह करना है, ये स्कीम वह स्कीम, ये स्कीम-वह स्कीम; नौ सौ निन्यानवे तरह की मत स्कीम बनाइये। आप एक ही स्कीम बनाइये; क्योंकि किसी महती सत्ता की छाया में बैठेंगे, तो कहना मानेंगे। बच्चे बड़ों का कहना मानते हैं, इसी में लाभ है। बन्दर की कहानी सुनी है? बन्दर का बच्चा था। बाप मना कर रहा था—अरे! ये बड़ी-बड़ी चीजें हैं, इनसे दूर रह। मानता ही नहीं, मानता ही नहीं। एक दिन जब दो लकड़ियों के चीरे के बीच में पच्चड़ लगा हुआ था, बन्दर ने उसे उखाड़ डाला। उखाड़ डाला, तो हाथ दब गया। हाथ दब गया, बस, दूसरे दिन तक चीं-चीं करता रहा, जब तक कि उसके घर वाले न आए और बड़ी मेहनत से उसको निकाला। नहीं हाथ तो उसका एक घायल हो ही गया; टूट ही जाता, बरबाद ही हो जाता। आप भी इसी तरीके से करेंगे? अपनी मर्जी****अपनी मर्जी****अपनी मर्जी****कहाँ तक करेंगे? हमको ये साधना बताइये? हमको ये बीजमंत्र बताइये? मत पूछिये। हमने ऐसा नहीं पूछा है। साधनाओं के बारे में हमने कभी अपने बॉस से यह नहीं पूछा—आप हमें ये बता दीजिये, ये कर दीजिये, इसका मंत्र बताइये, उसका मंत्र बताइये। अपनी मर्जी खत्म कर दी। उनसे कहा—बताइये, हुक्म कीजिये। उन्होंने जो कुछ भी कहा, हमने आँखें मूँदकर के उसके रास्ते पर चलते रहे और हमको ये विश्वास था कि हमको रास्ता दिखाने वाली सत्ता सही है और हमारे वश की बात है। बस, यही होता रहा है। चलते हुए हम कहाँ पहुँचे, आप देखते हैं न?
आपके लिये भी यही रास्ता है। आपको समय की माँग है। समय की माँग आपके सामने भी है और वह समय की माँग इस तरीके की है, जिसको आपको पूरा करना ही चाहिए। रामचन्द्रजी ने जब जन्म लिया था, तो उनके साथ में देवता आये थे। देवताओं ने कहा—मनुष्य बड़े चालाक होते हैं, मनुष्यों में त्याग का माद्दा कहाँ! परोपकार का माद्दा कहाँ! सेवा का माद्दा कहाँ! मनुष्य तो केवल स्वार्थ की बात सोचते रहते हैं। आप जो काम करने जा रहे हैं, उसके लिये स्वार्थियों से थोड़े ही काम चलेगा, परमार्थियों के दल चाहिए। परमार्थियों के दल कहाँ से आएँगे? आजकल संसार में है भी नहीं। चलिये, हम आपके साथ चलते हैं। बस, सब लोग आये थे और शंकर जी हनुमान जी के रूप में आ गये थे। कौन-कौन किसके रूप में आ जाता है? बन्दरों के रूप में देवता आ गये थे। उन्होंने, देवताओं ने देवताओं की भूमिका निभायी। आज आप भी, भगवान जो अवतार ले रहे हैं—प्रज्ञा अवतार, उनके साथ-साथ में उन्हीं देवताओं के तरीके से उनके काम में हाथ बँटाना, हिस्सा बँटाना और भगवान के स्नेह में भी हिस्सा बँटाना, उनकी प्रसन्नता में भी हिस्सा बँटाना, उनकी हस्तियों में भी हिस्सा बँटाना। ये बँटाने के लिये जरूरी है कि आप उसकी कीमत चुका दें और भगवान् की मर्जी पर इस समय चलना स्वीकार कर लें।
समाज को नये ढाँचे में ढाला जाना है। पुराना ढाँचा इतना कमजोर हो गया है कि अब गलाने और ढालने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। गलाई में आप हिस्सा बँटाइए। इस ढलाई में आप हिस्सा बँटाइए। अपने समय को ले के आइए, भावना और विचारों को ले के आइए और उस काम में जुट जाइए, जो आज का भगवान—इस युग का भगवान, जिसको हम ‘प्रज्ञावतार’ कहते हैं, उस प्रज्ञावतार की मर्जी क्या है—ये आँख खोल के देखिये और कान खोल के सुनिये। अगर आप कान खोल के सुनेंगे और आँख खोल के देखेंगे तो आपको कुछ ऐसी जानकारी मिलेगी, जैसी कि प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत आपको बार-बार बताया जा रही है। ये भगवान् की प्रेरणा है—ये भगवान की दिशाधारा है। देवताओं ने कृष्ण भगवान के साथ ही जन्म लिया था। कृष्ण भगवान ने देखा कि जा रहे हैं, तो उनका सहयोग कौन करेगा? अकेले कैसे क्या कर पाएँगे! देवताओं ने कहा कि भगवान हमको भी चलने की आज्ञा दीजिये। हम भी आपके साथ-साथ चलेंगे और आपके काम में हाथ बँटाएँगे। भगवान ने हाँ कह दी। बस, फिर सारे देवताओं ने जन्म लेकर के उनके साथ-साथ सहयोग किया। पाण्डव कौन थे? आपको मालूम है? कथा पढ़ी है? नहीं, नहीं पढ़ी शायद। पाण्डव जो थे, पाँच देवताओं के बेटे थे। कर्ण जो था, वह भी देवता का बेटा था। कुन्ती के गर्भ से देवता पैदा हुए थे और देवता सिर्फ इसलिये पैदा हुए थे कि भगवान श्रीकृष्ण के काम आएँ और क्या किया बताइये? धर्मराज ने क्या किया? अर्जुन ने कौन-सा बड़ा काम किया? भीम ने किसका क्या किया? नकुल-सहदेव किस काम में लगे रहे? सबने मिल-जुल कर के सिर्फ एक ही काम किया—भगवान ने गोवर्द्धन उठाया, भगवान के काम आये। ये कैसे सम्भव हुआ? क्योंकि वे देवता थे पहले जमाने में। देवताओं की भावनाएँ उसी तरह की होती हैं। स्वार्थियों की भावनाएँ, चालाकों की भावनाएँ, मोहग्रस्तों की भावनाएँ पाप की कीचड़ में डूबी हुई भावनाएँ कह सकते हैं। उनको ज्यादा पैसा मिलना चाहिए, ज्यादा इज्जत मिलनी चाहिए, हमारी औलाद को बड़ा सम्पन्न होना चाहिए। बस, इससे आगे कुछ है ही नहीं; लेकिन भावनाएँ उनकी वैसी नहीं होती हैं। किनकी? देवताओं की वे यही चाहते हैं कि हमको परोपकार करना चाहिए, भगवान की आवश्यकताओं को समझकर के योगदान देना चाहिए। अर्जुन ने व सब पाण्डवों ने यही किया। सारी जिन्दगी भर देवता थे न। आप भी ठीक उसी तरह के हैं। आप अपने आपको देवता मानें, तो कोई हर्ज नहीं। आज ये प्रज्ञावतार का युग है। भगवान की नई शक्तियों ने जन्म लिया है। ज्ञान की गंगा बहाई है। इस समय उनका जन्म हुआ है और बराबर वह ये कोशिश कर रही है कि लोग अपने ख्यालात बदल दें और नये विचारों की स्थापना हो। प्रज्ञा अभियान इसी का नाम है। ये योजना भगवान की है और भगवान ही वास्तव में इसके संचालनकर्ता हैं। व्यक्ति पूरा करते हैं, तो इससे क्या हुआ है? हमारा जहाज तो पेट्रोल से उड़ता है। ठीक है, ड्राइवर कोई उड़ाता थोड़े ही है, मशीन घुमा देता है। ठीक है हम हैं और दूसरे और लोग हैं—ये तो अपनी मशीन घुमा देते होंगे। ताकत कहाँ से आयेगी? हवाई जहाज तो करोड़ों रुपये का आता है। ये करोड़ों रुपये का हवाई जहाज पैदा करने की शक्ति किसी और में है?
आप उसी तरह की शक्ति पैदा कीजिए। आप इस समय अपनी सारी आकांक्षाओं को और इच्छाओं को सिर्फ इस काम में लगा दीजिए कि हमें समय की माँग पूरी करनी है; युग की भूमिका निभानी है। युग की भूमिका निभाने के लिये आप आगे-आगे बढ़े, तो आपको पूरा-पूरा सहयोग मिले। जाग्रत आत्माएँ हमेशा आगे-आगे चलते हैं। उन्होंने किसी का इन्तजार नहीं किया। दूसरे करेंगे, तो हम करेंगे। हिमालय पर सबसे पहले जो ऊँचा शिखर होता है, उस पर धूप चमकती है। आप भी अपनी धूप चमकाइए सबसे पहले। झण्डा लेकर चलने वाला आगे-आगे चलता है, दूर से दिखायी पड़ता है। आप आगे-आगे चलिये और दूसरों को रास्ता बताइये। लड़ाई में बैण्ड-बाजे, बिगुल-बाजे आगे-आगे चलते हैं। आप बैण्ड-बाजे वाले बनिये और बिगुल बजाइए, ताकि सारी सेना में हिम्मत पैदा हो सके। आपको कुछ ऐसे ही शानदार काम करने हैं। आप जाग्रत आत्मा है। युग-आत्माओं को युग-प्रहरियों को युग को देखना पड़ेगा, युग की जरूरतें क्या हैं? इसकी आवश्यकताएँ क्या हैं? आपकी इच्छा क्या हैं? अरे बाबा! एक कोने में रखो आपकी इच्छा क्या है? हम कहते हैं—अपनी इच्छा को एक कोने में रखिये। भगवान की इच्छा क्या है? समय की माँग क्या है? प्रज्ञावतार की माँग क्या है? आप कान खोलकर सुनिये और सुनने के बाद पूरी हिम्मत के साथ में और पूरी वफादारी और जिम्मेदारी के साथ में निभाने में जुट जाइए। हमारी बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥