उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
असली व नकली का अंतर जानें
देवियो, भाइयो! धन बल की कीमत पर हम तुरन्त अभीष्ट चीजें खरीद सकते हैं। अगर हमारे पास पैसा हो तो हम अभी मिठाइयाँ खरीद सकते हैं, कपड़ा खरीद सकते हैं, जेवर खरीद सकते हैं, मकान खरीद सकते हैं, जायदाद खरीद सकते हैं, सवारी खरीद सकते हैं। जिस चीज की भी जरूरत है, उसे हम खरीद सकते हैं, अगर वह वास्तविक धन है, तब। अगर वह नकली धन हो तब? तब उससे हम कुछ नहीं खरीद सकते। हजार रुपये का नकली नोट दीजिए और दुकानदार से कहिए कि भाई साहब! हजार रुपये का कपड़ा दीजिए। भाई साहब! यह तो नकली नोट है, इसमें तो हम नहीं बेच सकते। नकली चीजें हमको मुनासिब कीमतें नहीं दे सकतीं। नकली गाय दूध नहीं दे सकती।
एक बच्चा बाजार से एक नकली गाय खरीद कर लाया। बेटे! कितने की लाया? पिताजी! चालीस पैसे की खरीद कर लाया। अच्छा तो इस गाय का क्या करेगा? दूध दुहा करूँगा। कितना दूध निकलेगा? चार किलो दूध निकलेगा। मम्मी तुम भी पीना, पापा तुम भी पीना, हम भी पियेंगे और अपनी छोटी बहन को भी पिलायेंगे। अच्छा बेटे, तुम्हारी गाय कहाँ है? जरा दिखाना तो सही। पिताजी! यह रही गाय। अच्छा तो इसमें से दूध निकाल। अरे! यह तो नकली है, मिट्टी की गाय है। मिट्टी की गाय से दूध नहीं निकल सकता; लेकिन अगर गाय असली हो, तो चार किलो क्यों, छः किलो भी दूध निकल सकता है, जिसे सब उपयोग में ला सकते हैं।
असली व नकली अध्यात्मवाद
मित्रो! आज अध्यात्मवाद भी दो तरह का चारों तरफ दिखाई पड़ता है—एक नकली अध्यात्मवाद और दूसरा असली अध्यात्मवाद। नकली अध्यात्मवाद वह है, जिसके बारे में हमको यह कहना पड़ता है कि इसके परिणाम मरने के बाद में मिलेंगे। असली अध्यात्मवाद वह है, जिसके बारे में हम कह सकते हैं कि इसका परिणाम मिलने में एक मिनट का भी इंतजार नहीं करना पड़ता। इसमें नकद धर्म के तरीके से इस हाथ दीजिए और उस हाथ इसके परिणाम लीजिए। अगर असली अध्यात्म है तो इसके परिणाम हमारे सामने आकर खड़े हो जाते हैं और अगर नकली है तो इसके लिए बहुत इंतजार करना पड़ेगा। क्या आपको यह आश्वासन दिलाना पड़ेगा कि मरने के बाद क्या होगा?
मित्रो! मरने के बाद क्या होता है और मरने के बाद में कहाँ जाना पड़ेगा? मैं कुछ कह नहीं सकता। बहुत दिन पहले की बात है, हमने बहुत तरह की पुस्तकों में और बहुत तरह के शास्त्रों में पढ़ा था कि मरने के बाद क्या होता है? कोई कहता है कि मरने के बाद में हम स्वर्गलोक में चले जाते हैं, तो कोई कहता है कि चन्द्रलोक में चले जाते हैं, ब्रह्मलोक को चले जाते हैं। गरुड़ पुराण में मैंने बहुत से लोकों का वर्णन पढ़ा था, तभी मुझे यह मालूम पड़ा कि सबसे खूबसूरत जो लोक है, वह चन्द्रलोक है।
चन्द्रलोक में अमृत का घड़ा भरा रहता है। अंग्रेजी भाषा के मुताबिक़ चन्द्रलोक में एक खूबसूरत महिला ‘सी मून’ बैठी रहती है। वह लोगों को अमृत पिलाया करती है। भला इससे अच्छी जगह और क्या हो सकती है? इसलिए चन्द्रमा पर जाने के लिए हमने अपना नाम रिजर्व करा लिया था, अपनी सीट रिजर्व करा ली थी कि मरने के बाद स्वर्गलोक में, चन्द्रलोक में चला जाऊँगा। पीछे जब रॉकेट गये, तो मालूम पड़ा कि वहाँ तो हवा भी नहीं है, पानी भी नहीं है। गर्मी इतनी अधिक पड़ती है कि वहाँ दिन में लोहा भी पिघल सकता है और रात में इतनी ठंडक पड़ती है कि ठंड के मारे हड्डियाँ तक जकड़ सकती हैं। फिर मैंने अपना नाम कैंसिल करा लिया। अब मैं चन्द्रलोक नहीं जा सकता।
नकद धर्म है अध्यात्म
मित्रो! जब हमें गर्मी महसूस होती है तो हम छाया में, ठंडक में जा बैठते हैं और तुरन्त एक सेकेण्ड का विलम्ब हुए बिना हमको छाया अच्छी मालूम पड़ती है। बरफ पी लेते हैं तो कलेजा एक सेकेण्ड में ठंडा हो जाता है। चाय पी लेते हैं तो एक मिनट बाद शरीर में गर्मी आ जाती है। जो अध्यात्म हमको यह सिखाता है कि मरने के बाद और आज से हजार वर्ष बाद परिणाम मिलेंगे; बेटे! ऐसे अध्यात्म पर हम यकीन नहीं कर सकते कि यह अध्यात्म सही भी हो सकता है या गलत भी हो सकता है। अगर अध्यात्म सही है तो उसका परिणाम उसी समय मिलना चाहिए और अभी मिलना चाहिए और आज ही मिलना चाहिए। हमने अपने आपको जिंदगी भर इसी कसौटी पर कसा है और पाया है कि यह नकद धर्म के तरीके सही हैं।
मित्रो! नकद अध्यात्म वह अध्यात्म है जो हमको अपने भीतरी क्षेत्र को परिष्कृत करना सिखाता है। भौतिकवादी दृष्टिकोण नम्बर एक-जो हमें यह सिखाता है कि भौतिक चीजों के द्वारा हमको सुख मिलेगा। हमको वस्तुएँ मिलेंगी, तो हमारा उद्देश्य पूरा हो जायेगा। खूबसूरत स्त्री मिलेगी तो हमारा उद्देश्य पूरा हो जायेगा। खूबसूरत स्त्री मिलेगी तो हमारा गृहस्थ जीवन सुखी हो जायेगा। हमारी इच्छा के मुताबिक़ बाहर वाली चीजें मिल जायेंगी, तो हमको सुख-शांति दे पायेंगी। जितनी तादाद में हम पैसा चाहते हैं, उतनी तादाद में यदि पैसा मिल जाएगा, तो हमको सुख मिल जायेगा और प्रसन्नता मिल जायेगी। यह है दृष्टिकोण नम्बर एक, जो बाहर वाला भौतिकवादी दृष्टिकोण है और जो यह कहता है कि हम जो चाहते हैं, वह चीज यदि हमें उसी तरीके से मिल जाय, तो हम दुनिया में सुखी रह सकते हैं।
क्या है अध्यात्मवादी दृष्टिकोण?
नम्बर दो वाला दृष्टिकोण-अध्यात्मवादी दृष्टिकोण है, जो कहता है कि अगर हम अपनी भीतर वाली स्थिति को सुधार लेंगे, तो सेकण्डों के भीतर हमारी इच्छाएँ पूरी हो सकती हैं और जो सुख हमसे हजारों मील दूर है, वह हमारे नजदीक आ सकता है और हमारे चरणों को चूम सकता है। यह अध्यात्मवादी दृष्टिकोण है। भौतिकवादी दृष्टिकोण वह है जो हमको बाहर वाली चीजों के सहारे सुख और शांति का आश्वासन दिलाता है और यह कहता है कि जो हम चाहेंगे, अगर वह चीजें मिलेंगी, तो हमको सुख मिल सकता है और प्रसन्नता मिल सकती है।
मित्रो! जो चीजें आप चाहते हैं, हम नहीं कह सकते कि वे आपके लिए फायदेमन्द बन सकती हैं कि नहीं बन सकतीं। मेरा ऐसा ख्याल है कि कोई भी ऐसी चीज जो बाहरी दुनिया की है, हमारे लिए शान्तिदायक नहीं हो सकती। दुनिया की जितनी भी चमकदार चीजें हैं, वे जब तक हमारे पास नहीं आतीं, तब तक हमको ऐसी मालूम पड़ती हैं कि वे हमारे लिए फायदेमन्द हैं और हमारे लिए सुख देने वाली हैं। जब हम उनके नजदीक जाते हैं तो वे ऐसी मालूम पड़ती हैं, जैसे-साँप। साँप बाहर से बड़ा सुनहरा मालूम पड़ता है, चमकदार मालूम पड़ता है, लेकिन जब पास जाते हैं तो काटने दौड़ता है, दंश मारने दौड़ता है। आग दूर से बड़ी चमकदार मालूम पड़ती है, खूबसूरत मालूम पड़ती है, लेकिन जब हम उसके ज्यादा नजदीक जाते हैं, तो हमको जलाने के लिए लपकती है। बाहर वाली संपदाएँ जिनके बारे में आम लोगों का यह ख्याल है कि अमुक-अमुक चीजें मिल जायेंगी, तो हमारी इच्छाएँ पूरी हो जायेंगी और हमको सुख मिल जायेगा।
दूर के ढोल सुहावने
मित्रो! मेरा अपना ऐसा ख्याल है कि जब तक जो चीज जिसको नहीं मिली है, उसके लिए वही चीज सबसे ज्यादा अच्छी है और ज्यादा आकर्षक मालूम पड़ती है। मसलन आपका विवाह नहीं हुआ है तो आपके लिए बीबी बड़ी खूबसूरत मालूम पड़ती है कि जब वह घर में आयेगी तो स्वर्ग लेकर के आयेगी। परी के तरीके से पंख लगा करके आयेगी। नाचती हुई आयेगी और स्वर्ग की संपदाएँ लेकर के आयेगी। कब तक? जब तक कि आपका विवाह नहीं हुआ है। विवाह होने के बाद में आपको यह महसूस होगा कि हमने गलती कर दी। जब तक अकेले थे, ढाई सौ रुपये तनख्वाह मिलती थी। मौज करते थे, सिनेमा जाया करते थे। होटल में ठहरते थे। बहन, भाँजी की भी मदद कर सकते थे। जब चाहे उनके यहाँ चले जाते थे। अब बीबी आ गयी। मकान किराया-लीजिए साहब! सौ रुपये महीने का मकान किराया है। डेढ़ सौ रुपये बचेगा। चलिए साहब! सिनेमा देखने चलें। अरे साहब! अब सिनेमा कहाँ से चल सकते हैं। अब तो डेढ़ सौ रुपये में दो आदमियों का गुजारा भी मुश्किल पड़ेगा।
घर-परिवार एवं रिश्तेदारी में ब्याह-शादी भी होती है। साहब! हमारे भाई का विवाह है। मैं तो जाऊँगी और अपनी भावज को मुँह दिखाई में सोने की एक अँगूठी दूँगी। आजकल सोना छः सौ रुपये में एक ग्राम मिलता है। अगर आधे ग्राम की भी अँगूठी दीजिए, तो तीन सौ रुपये में आयेगी। महीने भर में ढाई सौ रुपये मिलते हैं, जिसमें सौ रुपये मकान किराया का चला जाता है। डेढ़ सौ रुपये बचते हैं। अगर वे भी खर्च हो गये तो महीने भर खायेंगे क्या?
साहब! अपने भाई को अँगूठी नहीं दूँगी, तो उन्हें अपना मुँह कैसे दिखाऊँगी। आप मेरे लिए कपड़े बनवा कर लाइये और चीज बनवा करके लाइये। अरे बाबा! यह कौन सी मुसीबत आ गयी? अजी! जरा देखिये तो सही अगले वर्ष इतने बच्चे पैदा करना शुरू करती हूँ, तब आपको दाल, आटे का भाव मालूम पड़ेगा। अब साहब! यह कौन सी आफत आ गयी? बेटे, यह आफत तो आनी ही थी। जब तक वह दूर थी, तब तक वह बड़ी सुहावनी थी और बड़ी अच्छी मालूम पड़ती थी और आकर्षक मालूम पड़ती थी।
मित्रो! अभी आगे और भी आकर्षण विद्यमान हैं। गुरुजी! देखना हमारे हाथ में बाल-बच्चों की रेखा है कि नहीं है। इसमें तो नहीं है। बस लकीरें खिंची हुई हैं, पर बाल-बच्चे तो नहीं मालूम पड़ते। अच्छा तो महाराज जी! इस हाथ में देखिये, कोई न कोई बच्चा तो जरूर होगा। बेटे, जब तक बच्चा नहीं था, तब तक मालूम पड़ता था कि जब बच्चा आयेगा, तो जाने कौन आयेगा? जाने रामचन्द्रजी आयेंगे, कृष्णचन्द्रजी आयेंगे, जाने श्रवणकुमार जी आयेंगे, जाने कौन-कौन जी आयेंगे।
जब तक ना आये थे, तब तक कुँवर साहब थे और जिस दिन से घर में आ गये, जिस दिन से घर में पैदा हो गये, सारे घर में टट्टी करके उसे नरक बना दिया। जिस दिन से पैदा हुआ दिन और रात का सोना हराम कर दिया। जब से बड़ा हुआ, उस दिन से इसके ब्याह के लिए पैसा लाइये। अमुक के लिए पैसा लाइये, तमुक के लिए पैसा लाइये। इतना पैसा, इतना वक्त, इतनी अकल, इतना पसीना, इतनी मेहनत हमने इन तीन-चार गुड्डों के लिए खर्च कर दिया।
आत्मोत्थान के लिए भी लगायें अपना समय व श्रम
अगर इतनी अकल हमने अपने व्यक्तित्व विकास के लिए, अपने आत्मोत्थान के लिए खर्च कर दी होती, तो विवेकानन्द हो सकते थे, समर्थ गुरु रामदास हो सकते थे, कबीर हो सकते थे और जाने क्या हो सकते थे? लेकिन जब से ये अभागे हमारे घर में पैदा हुए, तब से हमारी हड्डियाँ और रक्त, माँस और हमारा ईमान, लोक और परलोक सब खा गये। मालूम पड़ते थे कि वे न जाने कितने खूबसूरत और कितने चमकदार हैं, परन्तु न तो वे खूबसूरत निकले और न चमकदार निकले। केवल दुर्भाग्य लेकर के हमारे घर आये और अपना और हमारा भविष्य अन्धकारमय बनाने वाले निकले।
मित्रो! दौलत भी बाहर से बहुत चमकदार दिखाई देती है। दौलत, पैसा जब तक पास में नहीं था, तब तक यह मालूम पड़ता था कि जब यह मिलेगा, तो जाने क्या से क्या मिल जायेगा और जाने हम कौन हो जायेंगे? जब पैसा आ गया तो मालूम पड़ा कि कलह की निशानियाँ लेकर के आ गया। चोर, उठाईगीर, साले और बहनोई, जमाई और भाई-भतीजों में इस तरह आपस में कलह उत्पन्न हो गयी कि लगता है कि इस पैसे की वजह से एक-दूसरे की जान चली जायेगी। पैसे के कारण इनकम टैक्स वाले, दूसरे आदमी, तीसरे आदमी, चन्दा माँगने वाले, पार्टनर वाले इस कदर प्राण खाने लगे कि रात को भी नींद हराम हो गयी। पैसा नहीं था तो मौज करते थे। शाम को आ जाये, तो सबेरे खा लिया, सबेरे को आ जाये तो शाम को खा लिया, मौज करते थे और किवाड़ बंद करके सोते थे; लेकिन जब से पैसा आया है, नींद हराम हो गयी है।
तो मित्रो! मैं पैसे की निंदा कर रहा हूँ? नहीं, मैं निंदा नहीं कर रहा हूँ। मैं तो यह कहता हूँ कि जो बाहर वाली चीजें हैं जिनके बारे में हम और आप यह ख्याल करते हैं कि यदि वे इच्छानुसार मिल जायेंगी, तो फिर हमको सुख मिल जायेगा और हमको शांति मिल जायगी। मेरा ऐसा ख्याल है कि बाहरी चीजों से आज तक किसी को भी सुख-शांति नहीं मिली है और न मिल सकती है। जलती हुई आग में कितना भी घी डालिए, अच्छा तेल डालिए, मिट्टी का तेल डालिए, आग भड़कती ही जायेगी।
मनुष्य के पास जितना सामान इकट्ठा होता हुआ चला जायेगा, उसकी आकांक्षाएँ, महत्त्वाकांक्षाएँ, उसकी तृष्णाएँ ठीक उसी प्रकार से बढ़ती हुई चली जायेंगी, जिस प्रकार से जलती हुई लकड़ी के ढेर के ऊपर घी, तेल डालने से आग भड़कती हुई चली जाती है। आदमी की ख्वाहिशें भी दिन दूनी इसी तरीके से बढ़ती हुई चली जाती हैं। उनके समाधान नहीं हो सकते।
क्या है बढ़ती ख्वाहिशों का समाधान?
मित्रो! समाधान किस तरीके से हो सकता है? समाधान होने का तो सिर्फ एक ही तरीका है जो रामायण में है और सुरसा के बहाने से समझाने की कोशिश की गयी है। सुरसा एक राक्षसी थी और वह रावण की ओर से मुकर्रर कर दी गयी थी कि यदि कोई लंका पर चढ़ाई करने वाले आ गये, तो जरा देखना, पता लगाना और पकड़ लेना। हनुमान जी जब अंदर जाने लगे, तो उसने उन्हें पकड़ लिया और मुँह में रखकर चबाने लगी। हनुमान जी ने कहा कि इससे तो पिंड छुड़ाना चाहिए। हनुमान जी ने अपना बदन बढ़ाना शुरू किया। जब उन्होंने अपनी शकल बढ़ाई तो सुरसा ने अपना मुँह फाड़ दिया और फिर—
‘‘जस-जस सुरसा वदन बढ़ावा। तासु दुगुन कपि रूप दिखावा।’’
बढ़ते-बढ़ते जब उन्होंने देखा कि सुरसा का मुँह बाइस मील का हो गया है तो हनुमानजी अट्ठाइस मील के हो गये। अभी तो और बढ़ेगा और यह अपना मुँह और चौड़ा करती चली जायेगी और हजारों मील चौड़ा मुँह कर लेगी। तब तो बड़ी आफत हो जायेगी। ये सुरसा कोई कम होने वाली है क्या? आखिर में क्या करना पड़ा? ‘‘अति लघु रूप पवनसुत कीन्हा’’ बहुत छोटा सा रूप बना लिया-‘‘मसक समान रूप कपिधरी।’’ छोटा सा रूप बना करके सुरसा की दाढ़ से निकलकर हनुमान जी भाग गये।
दृष्टिकोण का परिवर्तन है अध्यात्म
मित्रो! यह अध्यात्मिकता का दृष्टिकोण है और दूसरा वाला भौतिकता का दृष्टिकोण है। भौतिकवाद और अध्यात्मवाद-विचार करने की यह दो श्रेणियाँ हैं, सोचने के तरीके हैं। सोचने का एक तरीका यह है कि हमारी इच्छानुकूल वस्तुएँ मिलें, तब हम दुनिया में सुखी रहेंगे। इसका नाम भौतिकवादी दृष्टिकोण है। अध्यात्म एक दूसरे तरह के दृष्टिकोण का नाम है, जो हमारे भीतर वाले सोचने के तरीके को ठीक करता है। अगर हमारा चिंतन सही हो जाय, तो हमारी आकांक्षाएँ पूरी की जा सकती हैं। एक कहता है कि हमें वस्तुएँ बहुत ज्यादा तादाद में मिल जायें, तो हमारी आकांक्षाएँ पूरी हो सकती हैं।
मित्रो! मैंने असली अध्यात्म को अपनी जिन्दगी में प्रयोग करने की कोशिश की और यह देखा, पाया कि जिस चीज की मनुष्य इच्छा करते हैं, वह हमें मिल सकती है कि नहीं मिल सकती। हर आदमी मनोकामनायें लेकर के आया है। देवी-देवताओं के पास लोग जाते हैं, तो मनोकामनाएँ लेकर के जाते हैं। क्यों साहब? कौन-सी देवी के पास गये थे? साहब! मनसा देवी के पास गये थे। मनसा देवी के पास किस काम के लिए गये थे? ठीक है आप अपनी मंसा पूरी कराने के लिए मनसा देवी के पास गये थे। हर आदमी अपनी मनोकामनाएँ लेकर के साईंबाबा के पास जाता है, शंकर जी के पास जाता है, आचार्य जी के पास आता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी मनोकामना पूरी कराने के लिए आता है; परन्तु मेरा ऐसा ख्याल है कि किसी भी आदमी की आज तक कहीं से भी मनोकामना पूरी नहीं हो सकी, क्योंकि मनोकामनाओं की कोई सीमा नहीं हो सकती।
मित्रो! आपकी मनोकामना आज इस सीमा तक है, कल उस सीमा तक बनी रहेगी, इसकी कोई गारण्टी नहीं है। कल उससे दूनी न हो जाय, आपके पास इसकी कोई शक नहीं है।
सुरसा के मुख की तरह बढ़ती हैं तृष्णाएँ
आज आप भूखे मरते हैं और कल हजार रुपया मिल जाय, तो आपकी इच्छा कल तक पूरी हो जायेगी; लेकिन जिस दिन हजार रुपया मिलेगा, उसी दिन दस हजार रुपये की कामना तीव्रता के साथ उठ खड़ी होगी और कहेगी कि दस हजार रुपये से कम में काम नहीं चल सकता। साहब! अगर एक दुकान लेना चाहें तो एक हजार रुपये में उसकी पगड़ी भी नहीं दी जा सकती। गुरुजी! दस हजार तो मिलना ही चाहिए। गुरुजी! आपने यह क्या आशीर्वाद दिया, एक हजार से क्या बनेगा? इससे तो आप आशीर्वाद मत दीजिए। एक हजार रुपये का देना है तो दस हजार का दीजिए।
मित्रो! जिस दिन हम दस हजार देंगे, उस दिन आप कहेंगे कि साहब ग्यारह हजार रुपये तो दुकान की पगड़ी वाले को देना पड़ेगा। दस हजार जो अपने दिलवाया था, वह चला गया और हजार रुपये घर वालों का चला गया। अब दुकान के किराये के लिए और सामान के लिए रुपये लाइये, तब तो काम बनेगा। अरे बेटे, इतने रुपये कम पड़े गये? हाँ साहब! कम पड़ गये।
हाँ बेटे, सिकन्दर को भी पैसे कम पड़ गये थे। सबको पैसा कम पड़ गया था और आपको भी कम पड़ जायेगा। आपकी मनोकामनाएँ पूरी नहीं हो सकती। न धन से हो सकती हैं, न संतान से हो सकती हैं, न ताज से हो सकती हैं और न तख्त से पूरी हो सकती हैं। आज तक किसी की भी मनोकामना पूरी नहीं हो सकी। रावण की नहीं हो सकी, सिकन्दर की नहीं हो सकी, हिरण्यकश्यपु की नहीं हो सकी, किसी की भी नहीं हो सकी। फिर हमारी और आपकी कैसे हो सकती है?
आध्यात्मिक विभूति है ‘आप्तकाम’ होना
लेकिन मित्रो! अध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद में मैंने पाया कि हमारी मनोकामनाएँ सौ फीसदी पूरी की जा सकती हैं। हम आप्तकाम हो सकते हैं। संस्कृत में एक नाम आता है—‘आप्तकाम।’ आप्तकाम का अर्थ होता है—जिसकी सारी मनोकामनाएँ पूरी हो गयी हों। क्या कोई ऐसा आदमी है जिसकी सारी मनोकामनाएँ पूरी हो गयी हों? हाँ बेटे, जमाने में जिनकी मनोकामनाएँ पूरी हो गयी हैं, ऐसे आदमी हैं जिनको कहने का हक है कि हमारी कोई मनोकामना बाकी नहीं है और जो भी हमने कहा था, पूरा हो गया। अब हम पूर्णता प्राप्त कर चुके हैं।
अपनी आकांक्षाओं के बारे में ऐसा कहने वाला आदमी कौन हो सकता है? ऐसा आदमी वही हो सकता है, जिसके पास कल्पवृक्ष हो। पुराणों में वर्णन है कि स्वर्ग में एक कल्पवृक्ष नाम का पेड़ है। इस पेड़ के नीचे एक आदमी जा बैठा। उसने चाहा कि अमुक चीज मिल जाय, वह मिल गयी। वह जो भी चीज चाहता था, वह मिलती चली गयी। कल्पवृक्ष की व्याख्या इसी रूप में की गयी है कि इसके नीचे आदमी बैठकर जिस चीज को चाहे, वह चीज उसी तादाद में उसी तरीके से मिलती चली जाती है।
आध्यात्मिक उपहार है कल्पवृक्ष
मित्रो! कल्पवृक्ष आध्यात्मिकता का एक उपहार माना गया है। अगर किसी के पास असली अध्यात्म होगा, तो उसको कल्पवृक्ष के नीचे बैठने से जो फायदा होना चाहिए, जो आनन्द मिलना चाहिए, उसको मिल सकता है। अगर किसी के पास असली अध्यात्म नहीं है, तो मैं नहीं कह सकता। आप पता लगा लेना कि जिसके पास असली अध्यात्म है, उसकी मनोकामनाएँ पूरी हो गयी हैं कि नहीं हुईं। बेटे, परिपूर्ण होना संभव है। कौन-कौन परिपूर्ण हो सकता है?
ऋषि परंपरा के सारे के सारे व्यक्ति परिपूर्ण होते चले गये हैं। पाइथागोरस बैठा हुआ था। उसके पास सिकन्दर गया और उनसे पूछा कि बताइये, आपके लिए किसी चीज की आवश्यकता है? बताइये, आप तो अकेले मालूम पड़ते हैं और आप तो नंगे मालूम पड़ते हैं। आपके पास कपड़े भी नहीं हैं। आप संत हैं और हमारी हुकूमत में रहते हैं। बताइये, हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं।
उन्होंने कहा-राजन्। हमने अपनी जितनी भी जरूरतें थीं, उन्हें इतना कम कर लिया है कि अब हमें किसी चीज की जरूरत ही नहीं रहती। सिकन्दर को बुरा लगा कि हम इतने बड़े बादशाह हैं और इनसे यह कहने आये थे—फकीर से, जो नंगे बदन बैठा हुआ है, जिसके पास तन ढकने को कपड़ा नहीं है, खाने के लिए इसके पास एक दिन के लिए इन्तजाम नहीं है, बर्तन जिसके पास नहीं हैं और वह यह कहता है कि किसी चीज की जरूरत नहीं है। इससे राजा को गुस्सा आया और बुरा लगा, बुरा मानकर वह चलने लगा, तो पाइथागोरस ने सोचा कि राजा आया है, इसको नाराज नहीं करना चाहिए। उन्होंने सिकन्दर से कहा कि अच्छा आइए, बैठिए। वह बैठ गया। आप तो हमारी इच्छा पूरी करने आये थे तो जो हमारी इच्छाएँ हैं, उन्हें आप पूरी कर देंगे? हाँ, आप बताइये, हम उन्हें पूरी करेंगे।
सिकंदर ने फकीर से पूछा-कहिए आपकी आवश्यकताएँ क्या हैं? उसने कहा कि सबेरे का वक्त है, ठंडक पड़ रही है और हम चाहते हैं कि हमारी ठंडक दूर हो जाय और हमको गर्मी मिल जाय। उन्होंने कहा कि यह बात आपने पहले क्यों नहीं कहीं, उन्होंने नौकरों से कहा कि जाओ, जंगल से लकड़ी काटकर लाओ, कोयले का इंतजाम करो। कंबल दे दो और इनके लिए लिहाफ खरीद दो। इनके लिए सारे इन्तजाम कर दो।
पाइथागोरस बोले-नहीं साहब! हमारा लिबास दूसरा है। हम सूरज की धूप के अलावा किसी और चीज की गर्मी से अपने शरीर को गरम नहीं करते। आप ऐसा कीजिए, थोड़ी-सी सूरज की धूप निकाल दीजिए। उन्होंने कहा कि सूरज की धूप तो हम नहीं निकाल सकते। अच्छा तो यह आपके काबू से बाहर है? हाँ, यह हमारे काबू से बाहर है। हम यह नहीं कर सकते। मैं तो भूल गया था, मुझसे गलती हो गयी कि हमें आपसे वह चीज माँगनी चाहिए थी, जिसको आप पूरा कर सकते हैं।
सिकन्दर ने कहा-हाँ, आप वही चीज माँगिए जो हमारे पास है और जिसे हम पूरा कर सकते हैं। सिकन्दर पूरब की तरफ खड़ा हुआ था। सूरज निकलने वाला था। थोड़ी देर में पूरब की ओर से निकलने वाली सूरज की गर्मी पाइथागोरस के शरीर को गरम करने वाली थी। उसने कहा कि आप कृपा करके ऐसा कीजिए कि पूरब की ओर से हटकर पश्चिम में जाकर के बैठ जाइये। सूरज की जो किरणें अभी-अभी आने वाली हैं और हमारे शरीर को गरम करने वाली हैं और हमारे और सूरज के बीच में आप जो रुकावट बनाकर खड़े हो गये हैं, अपनी उस रुकावट को दूर कीजिए और उधर हटिए। यह तो आप कर सकते हैं? बस मनोकामना पूरी हो गयी। सिकन्दर चुपचाप बैठ गया और थोड़ी देर बाद वहाँ से चला गया।
विशेष उद्देश्य से बनी है यह दुनिया
मित्रो! हम दुनिया में से काँटे नहीं बीन सकते। काँटे कितने सारे फैले हुए हैं। यह हमारे काबू से, हमारे बूते से बाहर है कि हम दुनिया में से काँटों को बीन सकें। लेकिन यह हमारे काबू में है कि हम अपने पैरों में मजबूत जूते पहन लें और पहनने के बाद में दुनिया में जहाँ कहीं भी काँटे दिखाई पड़ते हों, जहाँ कहीं भी आपको ठोकरें दिखाई पड़ती हों, उन ठोकरों वाली जगह पर, काँटों वाली जगह पर आप दनदनाते हुए चले जा सकते हैं। तब कोई काँटा हमारे पैर को नुकसान नहीं पहुँचा सकता है और कोई कंकड़ हमारे पैर को चोट नहीं पहुँचा सकता।
काँटे हम नहीं बीन सकते तो क्या हुआ, इतना तो हम कर ही सकते हैं। दुनिया के हम ठेकेदार नहीं हैं। दुनिया हमारी बनायी हुई नहीं है और न वह हमारी मर्जी के मुताबिक़ चलेगी। हम वायदा नहीं कर सकते, क्योंकि दुनिया केवल हमारे लिए नहीं बनी है। दुनिया जाने कितने लोगों के लिए बनी है और किस उद्देश्य से बनी है और जाने किसने बनाई है?
साहब! हमारा बच्चा जिन्दा रहना चाहिए? भाई साहब! आपका बच्चा जिन्दा रहेगा, तो पड़ोसी के घर में बच्चा पैदा नहीं हो सकता। नहीं साहब! हमारे घर में किसी की मौत न होने पावे। अगर आपके घर में किसी की मौत नहीं होगी, तो किसी के घर में फिर नया बच्चा पैदा नहीं हो सकता। आपके यहाँ कोई मरेगा, तो पड़ोसी के घर में बच्चा पैदा होगा। अरे साहब! फिर तो हमारे घर में रोना-पीटना मच जायेगा। बेशक, आपके घर में जिस दिन रोना-पीटना मचेगा, पड़ोसी के घर में उसी दिन ढोलक बजना शुरू हो जायेगा और बताशे बँटने शुरू हो जायेंगे।
नहीं साहब! हमारे घर में सभी को जिन्दा रहना चाहिए और घर में बच्चा पैदा होना चाहिए। आपके घर में बच्चा पैदा होगा, तो किसी न किसी के घर में गमी होगी। किसी न किसी के घर में रोना-पीटना मचेगा। नहीं साहब! हमारी मर्जी चलनी चाहिए। बेटे, आपकी मर्जी के लिए दुनिया नहीं बनाई गयी है। भगवान ने एक खास मकसद से इस दुनिया को बनाया है। एक आदमी का नफा और एक आदमी का नुकसान-इस दुनिया में चलता रहता है और इसे चलना चाहिए और यह चलता रहेगा। नहीं साहब! हमारी मर्जी चलनी चाहिए और हमारा फायदा होना चाहिए। आपको अगर हमेशा फायदा होगा, तो दूसरों को नुकसान कैसे होगा?
किसे कहते हैं आप्तकाम
मित्रो! इस तरीके से एक संतुलित दुनिया बनी हुई है। इस दुनिया को हम अपनी मर्जी के मुताबिक़ नहीं चला सकते। हम अपनी मर्जी को बदल सकते हैं, दुनिया को नहीं। परिस्थितियों के मुताबिक़ अगर हम अपनी मर्जी को बदल लें, तो हमको वह सुख मिल सकता है, जिसको हम ‘आप्तकाम’ कहते हैं और मंशा पूरी होना कहते हैं। महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति से जो आनन्द मिल सकता है, हमको वह पूरा आनन्द अपनी मर्जी को बदल लेने से मिल सकता है। मसलन, आपकी जो इच्छाएँ हैं, अगर वह पूरी हो जायें, तो आप क्या ख्याल करते हैं? गुरुजी! हमको बहुत खुशी होगी।
चलिए आपको वही खुशी महत्त्वाकांक्षा के पूरी हुए बिना भी मिल सकती है, अगर आप अध्यात्मवाद का सहारा लेना शुरू कर दें, तब। अगर आप भौतिकवाद का सहारा लिए रहेंगे, तब आपको सारी जिन्दगी भर यह शिकायत बनी रहेगी कि हमारी इच्छाएँ पूरी न हो सकीं। चाहे कोई बड़े से बड़ा सिद्ध, महात्मा, देवता, भगवान कोई भी आपका सहायक क्यों नहीं, और कितने ही वरदान देता हुआ क्यों न चला जाय, आपको यह शिकायत हमेशा बनी रहेगी कि इस दुनिया से हम अधूरे जा रहे हैं और अपूर्ण जा रहे हैं।
मित्रो! सिकन्दर मरने के लिए हुआ तो उसने अपनी सारी दौलत मँगवाईं और कहा कि हम इस दौलत को लेकर के स्वर्ग जाना चाहते हैं। लोगों ने कहा कि यह दौलत आपके साथ नहीं जा सकती। सिकंदर अन्ततः खाली हाथ चला गया था। रावण भी न जाने क्या-क्या चाहता था। स्वर्ग में सीढ़ी बनाना चाहता था और न जाने क्या-क्या चाहता था, किन्तु उसकी महत्त्वाकांक्षा पूरी न हो सकी, अधूरी रह गयी। अपूर्ण और कामनाओं से भरा हुआ रावण दुनिया को हसरत भरी निगाहों से देखता हुआ और अधूरेपन की शिकायत करता हुआ दुनिया में से चला गया। आप क्या चाहते हैं? आप यह चाहते हैं कि दुनिया में इस जिन्दगी में आप्तकाम हो जायँ, मनोकामनाएँ पूरी हो जायँ और आपको वह अलौकिक आनन्द मिल जाय। अगर आप यह चाहते हैं, तो आप हमारे प्रयोग का आनन्द उठा सकते हैं।
किसे कहते हैं सत्संग?
मित्रो! हमने आध्यात्मिकता के सिद्धान्तों को केवल कहने और सुनने तक ही सीमित नहीं समझा है, जैसे कि आम लोग समझते हैं। आम लोग अध्यात्म के बावत यह ख्याल जमाये बैठे हैं कि यह कहने की और सुनने की चीजें हैं। गुरुजी सत्संग करेंगे, गुरुजी व्याख्यान करेंगे और चेला जी सुनेंगे। पंडित जी भागवत् सुनायेंगे और यजमान जी सुनेंगे। एक ने कहा, दूसरे ने सुना, बस सत्संग खत्म हो गया। अब इस सत्संग का माहात्म्य मिलना चाहिए और सत्संग का फल मिलना चाहिए। बेटे यह तो कहना-सुनना हुआ, सत्संग कहाँ हुआ? नहीं साहब! यही तो सत्संग हुआ। नहीं बेटे, यह सत्संग नहीं हुआ।
सत्संग उसे कहते हैं जिसमें किसी चीज को ग्रहण कर लिया जाता है। ब्रह्मचर्य में ब्रह्म को चरा जाता है, खाया जाता है, चबाया जाता है। जिस तरीके से बकरी घास को चर जाती है और उसे दूध का हिस्सा बना लेती है, उसी तरीके से आध्यात्मिकता के सिद्धान्तों को जब हम अपने जीवन में ओत-प्रोत कर लेते हैं, तब वह हमारे लिए फलदायक हो जाते हैं और शान्तिदायक हो जाते हैं।
मित्रो! मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सफलता इस बात पर टिकी हुई है कि उसके कलेजे पर हाथ रखकर देखा जाय और उससे यह कहते हुए पाया जाय कि हमारी हर मनोकामना पूरी हो गयी, अब हमारी कोई मनोकामना बाकी नहीं रही। संस्कृत में ऐसा आदमी ‘आप्तकाम’ कहलाता है और उसको वह आनन्द मिलता है जो कल्पवृक्ष के नीचे बैठने वाले को मिलना चाहिए। कल्पवृक्ष के नीचे बैठने वाले को जो आनन्द मिलता है, वह आनन्द आपको भी मिल सकता है, जैसा कि हमने पाया है।
मात्र कर्मकाण्ड नहीं है अध्यात्म
मित्रो! जब से अध्यात्मवाद अपने नजदीक आया और उसको हमने अपने दृष्टिकोण में, सोचने के तरीके में समावेश करना शुरू किया, माला घुमाने में नहीं। माला घुमाना तो बहुत ही सस्ती चीज है वह तो शुरू की चीजें हैं और कमजोर चीज हैं। माला घुमाने भर से अगर उद्देश्य पूरे हो गये होते, तो भजन करने वाले और पूजा करने वाले, बाबाजी और मंदिरों के पुजारी अब तक न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गये होते। क्रियाकृत्य, कर्मकाण्ड हमारे लिए काफी नहीं हैं।
मित्रो! कर्मकाण्डों क्रियाकृत्यों के माध्यम से हम आदमी के दृष्टिकोण को परिष्कृत करने और परिवर्तन लाने का उद्देश्य पूरा करते हैं। यही अध्यात्म है। इसी अध्यात्म को मैंने अपने जीवन में समाविष्ट करने की कोशिश की है और इसका परिणाम यह पाया कि मैं आप्तकाम हो गया। मेरी कोई कामना बाकी नहीं रही। निश्चिन्त होकर के जितनी गहरी नींद मैं सोता हूँ, दुनिया में शायद ही कोई और आदमी सोता होगा।
भंते आनन्द ने लोगों से यह जिकर किया कि भगवान बुद्ध रात में जिस करवट सोते हैं, सुबह उसी करवट से उठते हैं। शाम को जहाँ हाथ रख करके सो जाते हैं, सुबह वहीं पर हाथ रखा रहता है। क्या कमाल है? आपको तो रात भर करवटें बदलनी पड़ती हैं। भगवान बुद्ध के शिष्यों ने आनन्द से कहा कि तो हमको भी दिखाइये। शिष्य चुपचाप बैठ गये और उन्होंने देखा कि भगवान बुद्ध जिस करवट सो गये थे और जहाँ सिर रख करके सो गये थे और जहाँ हाथ रखकर सो गये थे, पूरी रात आठ घंटे वे उसी करवट सोते रहे। सबेरे जब उठे तो हाथ वहीं का वहीं रखा रहा। शिष्यों ने पूछा-आपको इतनी गहरी नींद आने की क्या वजह है?
यमदूत हैं चिन्ताएँ
उन्होंने कहा कि हम निश्चिन्त होकर के सोते हैं। चिन्ताओं का भार, चिन्ताओं का वजन आदमी के ऊपर इतना जबरदस्त है कि इसकी वजह से सारी जिन्दगी तबाह हो जाती है। आदमी की जिन्दगी जितनी ज्यादा चिन्ताओं की वजह से नष्ट होती है, उतनी बीमारियों की वजह से नष्ट नहीं होती है। सारी बीमारियों को मिलाकर तराजू के एक पलड़े पर रखा जाय और सारी समस्याओं को मिलाकर एक पलड़े पर रखा जाय तथा चिन्ताओं को दूसरे पलड़े पर रखा जाय, तो चिन्ताओं वाला पलड़ा वजनदार निकलेगा। चिन्ता आदमी को जिस कदर खाती है, जिस कदर घुलाती है, जिस तरीके से दुःख देती है, जिस तरीके से हैरान करती है, जिस तरीके से कोचती है, उसकी तुलना यमदूतों से की जा सकती है। चिन्ता को मैं दूसरा यमदूत कह सकता हूँ। चिन्ता आदमी को कितना हैरान कर सकती है, हम कह नहीं सकते। भगवान बुद्ध निश्चिन्त होकर के सोया करते थे।
मित्रो! मेरे जीवन का भी ऐसा ही कुछ सौभाग्य है, जो आप देखते रहते हैं कि कितना काम हमारे पास है, कितनी समस्याओं से मैं घिरा रहता हूँ, लेकिन चिन्ता? चिन्ता मुझसे हजारों मील दूर पड़ी रहती है और नींद भी मुझे उसी कदर आती है जैसे महात्मा गाँधी को आती थी। एक बार वायसराय ने गाँधी जी को मिलने के लिए बुलाया। गाँधी जी मिलने के लिए गये। वायसराय ने कहलवाया कि अभी पन्द्रह मिनट की देर है, आप बैठें। गाँधी जी ने कहा कि मैं रात भर का जगा हुआ हूँ, पन्द्रह मिनट सो लूँगा, तो सिर हलका हो जायेगा। झट से उन्होंने अपना चादर सोफे पर लम्बा किया और वहीं सो गये।
पन्द्रह मिनट बाद जब वायसराय आये, तो वे उठ बैठे। उन्होंने कहा कि क्या बात है साहब! इतनी गहरी नींद आती है? हाँ साहब! गहरी नींद उसको ही आ सकती है जो चिन्ताओं से दूर रहता है। चिन्ताओं से दूर कौन रह सकता है? जिसकी कामनायें पूरी हो गयी हों। तो क्या हमारी कामनायें पूरी हो सकती हैं? हाँ मित्रो! आपकी कामनायें पूरी हो सकती हैं। लेकिन उसका तरीका यह नहीं है कि जो चीजें आप माँगते हैं, वे आपको मिल जायँ। चलिए अगर आपका यह ख्याल है कि जो चीजें आप माँगते हैं, वह आपको दे दी जायँ, तो आप खुश हो जायेंगे। हाँ हम खुश हो जायेंगे।
मित्रो! आइये बैठिये। हम देखते हैं कि आप क्या चीज माँगते हैं? चलिए आपकी मनोकामना एक चीज पाने की है। अच्छा हम दे देंगे। दूसरी चीज आप चाहते हैं, चलिए उसे भी दे देंगे। तीसरी चीज पाने की भी आपकी मनोकामना है। ठीक है, हम तीसरी चीज भी दे देंगे, परन्तु आप सबके सामने गारण्टी दीजिए कि आइन्दा हमें कोई शिकायत नहीं होगी और हम प्रसन्न रहेंगे। कैकेयी ने राजा दशरथ से तीन वरदान माँगे थे और उसे तीनों वरदान दे दिये गये थे और आपको भी मैं कैकेयी की तरह से तीनों वरदान दे सकता हूँ। माँगिए क्या माँगते हैं? लेकिन फिर आप यह शिकायत मत करना कि हमको तो अभी और कमी रह गयी और अभाव रह गया।
मैं समझता हूँ कि आपकी कमी न केवल ज्यों की त्यों बनी रहेगी, वरन् और ज्यादा हो जायेगी। इस समय आप जो अभाव लेकर के आये हैं, वे कम नहीं हो सकते, वरन् उससे और ज्यादा हो जायेंगे; क्योंकि जिस आधार पर, जिसके सहारे आप अपनी मनोकामनाओं को पूरा कराना चाहते हैं, वह आधार ही गलत है। सही आधार वह है जो हमें सिखाता है और आपको सिखाता है और जिसको सिखाने के लिए हमने आपको यहाँ बुलाया है। सही अध्यात्म वह है जो कल्पवृक्ष के तरीके से है और जिसके आधार पर हमने अध्यात्म का लाभ आप्तकाम होने के रूप में पाया।
आवश्यकताओं का करें मूल्यांकन
मित्रो! हमारा दृष्टिकोण यह है कि जो आवश्यक है, वहाँ तक सीमाबद्ध रहा जाय। यह ‘आवश्यक’ शब्द बड़ा टेढ़ा वाला प्रश्न हैं। आवश्यक क्या है और अनावश्यक क्या है? अगर इस बात की कसौटी की परख करना शुरू करें, तो आपको हँसी आयेगी कि हम जिन चीजों के लिए ख्वाहिशमंद थे, गोया वे आवश्यक थीं भी कि नहीं। हमारी मौलिक आवश्यकताएँ इतनी कम हैं कि मैं समझता हूँ कि जानवरों से भी बहुत कम हैं। बकरी को जितनी खुराक चाहिए, भैंसे को जितनी खुराक चाहिए, उतनी हमको नहीं चाहिए। हमको तो चार रोटी चाहिए, जिससे छः इंच वाले पेट को हम आसानी से भर सकते हैं।
मैं समझता हूँ कि इस दुनिया में कोई भी आदमी सबेरे भूखा उठा तो होगा, लेकिन रात को भूखा सोया नहीं होगा। जो भगवान चींटी को भोजन दे सकता है, कीट, पतंगों को भोजन दे सकता है, मक्खी-मच्छर को भोजन दे सकता है, तो इंसान को भोजन क्यों नहीं देगा? इंसान को भोजन तो मिलना ही चाहिए। मनुष्य की मौलिक आवश्यकताएँ बहुत थोड़ी हैं। कोई आप में से ऐसा है कि जिसकी आवश्यकता पूरी न होती हों। मैं समझता हूँ कि आप में से हर आदमी की आवश्यकता पूरी हो जाती है।
इसलिए मित्रो! जिसको मौलिक आवश्यकता कहना चाहिए, भगवान ने उसका पहले से ही इंतजाम किया हुआ है। माँ की छाती में से दूध के दो कटोरे उस समय लगा करके रखे गये थे, जब हम हाथ-पाँव चलाने की स्थिति में नहीं थे और किसी चीज को पहचानने की स्थिति में नहीं थे। भगवान ने मनुष्य को विश्वास दिलाया था कि हम तुम्हारे लिए दूध के कटोरे भेजते हैं, तुम्हारे लिए धाय भेजते हैं, तुम्हारे लिए नौकरानी भेजते हैं। तुम्हारे लिए रखवाली करने वाला भेजते हैं। उस वक्त इतने इंतजाम करके उसने भेजा था और अब तो आप हाथ-पाँव वाले हो गये हैं। बोलना भी आपको आता है, चलना भी आता है। अब तो हम पढ़-लिख भी गये हैं। अब पेट भरने में कोई शिकायत हो सकती है क्या? नहीं, कोई शिकायत नहीं हो सकती। हमारी मौलिक आवश्यकताएँ थोड़ी हैं।
मित्रो! मौलिक आवश्यकताओं पर जब हम विचार करते हैं, तो हमारे सामने नये तथ्य सामने आकर के खड़े हो जाते हैं। दूसरी आवश्यकताएँ क्या हैं? अरे साहब! रोटी के बाद हमको तो मालूम नहीं कि हमारी क्या जरूरत है? अच्छा आप सिनेमा वाले के पास जाइये और यह पूछकर आइए कि क्यों भाई साहब! आप बता दीजिए कि हमारी जरूरतें क्या हैं? वह सिनेमा वाला भी आपको बता देगा कि रोटी, कपड़ा और मकान। बस इन्हीं तीन चीजों की आदमी को जरूरत है, और किसी चीज की नहीं।
रोटी आप में से हर आदमी को मिल जाती है और कपड़ा फटा-टूटा हर आदमी को मिल जाता है। कपड़ा अगर नहीं भी मिलता हो, तो संतों ने जिस तरीके से बताया था कि बिना कपड़े के भी गुजारा हो सकता है। उन्होंने हाथ में राख और मिट्टी लिया। उसमें जरा-सा पानी मिलाकर शरीर के ऊपर लपेट लिया कि यह कर रहे हैं। इसे पहन रहे हैं बुशर्ट की तरह। यह कैसी बुशर्ट है? साहब! यह मिट्टी की बुशर्ट है। आप इसे किसलिए पहनते हैं? ठंडक न लग जाय, गर्मी न लग जाय। देखिए आप शर्ट पहने हुए हैं और हम नंगे बैठे हुए हैं। हमको न तो ठंडक का असर मालूम पड़ता है और न गर्मी का। हमने राख-मिट्टी लगा ली और उसी तरह से मस्त बैठे हुए हैं जैसे आप बैठे हैं। बेटे, मिट्टी से भी कपड़े का काम चलाया जा सकता है और पत्तों या छाल से भी काम चलाया जा सकता है।
मित्रो! कपड़े के बाद मकान का नम्बर आता है। मकान चिड़ियों को मिल जाता है, कबूतरों को मिल जाता है, छिपकली को मिल जाता है। हमको भी कहीं न कहीं पेड़ के नीचे सिर छिपाने की जगह मिल सकती है या अवसर मिल सकता है। प्रश्न यह है कि हमारी मौलिक आवश्यकताएँ पूरी होती हैं कि नहीं होती? हाँ, बेटे, हरेक की मौलिक आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं। अगर हम मौलिक आवश्यकताओं पर विचार करें कि हमारे पास वास्तव में किसी चीज का अभाव है, तब हमको मालूम पड़ेगा कि वास्तव में हमारे पास कोई अभाव नहीं है, तो फिर किस चीज का अभाव है और हमारी वासनाओं का अभाव है। हमारी ख्वाहिशें बढ़ती चली जाती हैं। इनका कोई अंत नहीं है। ख्वाहिशों को अगर आप समेट लें, तो आपको यह मालूम पड़ेगा कि आप आप्तकाम हो गये और आपको इतनी गहरी नींद आयेगी और आप ज्यादा निश्चिन्त होकर जियेंगे।
मित्रो! मैं समझता हूँ कि आपकी जिन्दगी, आपकी उम्र कम से कम बीस साल लम्बी हो जानी चाहिए और आपकी जवानी बहुत समय तक कायम रहनी चाहिए। वह जवानी, जिसके लिए आप ढेरों पैसे खर्च करके इसे कायम रखना चाहते हैं, वह इस कीमत में खरीदी जा सकती है कि आप निश्चिन्त होकर के जिन्दगी जियें। खुशी की जिन्दगी जियें, हँसी की जिन्दगी जियें, शांति की जिन्दगी जियें, निश्चिन्तता की जिन्दगी जियें। अगर आप अपने ऊपर से तृष्णाओं का वजन कम कर दें, तो ऐसी जिन्दगी जी सकते हैं। क्या आप इसका मतलब यह समझते हैं कि आदमी को काम नहीं करना चाहिए और हरामखोरी करनी चाहिए और आदमी को आलसी और संतोषी हो जाना चाहिए। बेटे, मैं ऐसा कभी भी नहीं कह सकता। मैं इस बात का हिमायती हूँ कि आदमी को उपार्जन करना चाहिए, पैदावार करना चाहिए।
जरूरी है उपार्जन
मित्रो! उपार्जन इसलिए करना चाहिए; क्योंकि समाज को इसकी बड़ी जरूरत है। हमको अनाज पैदा करना चाहिए क्योंकि हमारे घर में अनाज है, पर दूसरों के घर में अनाज नहीं है। हमारे घर में कपड़ा है, तो दूसरों के घर में कपड़ा नहीं है। देश की पैदावार बढ़ाने के लिए, राष्ट्रीय उत्पादन को आगे बढ़ाने के लिए हर आदमी को परिश्रम करना चाहिए। बेटे, ऐसा नहीं होना चाहिए कि जिसके पास रोटी है, वह काम नहीं करेगा। जिस आदमी के पास जीवनयापन के साधन हैं, वह काम नहीं करेगा? नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए। बेटे मैं आलस्य का हिमायती भी नहीं हो सकता, लेकिन मैं इस बात का हिमायती हूँ कि हर आदमी को चैन की जिन्दगी जीनी चाहिए, शांति की जिंदगी जीनी चाहिए। संतोष की जिन्दगी जीनी चाहिए और खुशी की जिन्दगी जीनी चाहिए। मनुष्य को किफायतशील होकर के जीना चाहिए।
मित्रो! मैंने किफायतशील होकर के जीवन जिया है। सबसे पहले मैंने यह किफायत करने की कोशिश की, कि देखूँ मेरी मौलिक आवश्यकताएँ क्या हैं? गहराई से निरीक्षण करने पर पता चला कि मेरी जो खास आवश्यकताएँ हैं और जो शरीर को जिन्दा रखने के लिए जरूरी है, वह है अनाज। अनाज के बारे में मैंने निश्चिन्तता प्राप्त की, कि जब घास छीलने वाले अपना पेट भर सकते हैं, तो मैं उनसे तो सही हूँ और अपना पेट भरने के लिए दूसरे काम कर सकता हूँ। इससे विश्वास हो गया कि हमको रोटी मिल सकती है, कपड़ा मिल सकता है और रहने के लिए मकान मिल सकता है।
उस दिन के बाद मुझे इतनी शांति मिली, इतनी खुशी मिली कि उस खुशी का टॉनिक पी करके और शांति का टॉनिक पी करके मैं अपनी इस सड़सठ वर्ष की उम्र में भी भरी जवानी में बैठा हुआ हूँ। साहब! आपकी उम्र कितनी है? बेटे, मेरी उम्र सत्ताईस साल हो सकती है। अरे साहब! अभी तो आप कह रहे थे कि आपकी उम्र सड़सठ साल की है। हाँ बेटे, उम्र के हिसाब से तो मैं सड़सठ वर्ष का हूँ, पर अगर तू मेरे मन के हिसाब से देखे, तो मैं सत्ताईस साल का हूँ।
मित्रो! सत्ताईस साल के आदमी के अंदर जो उम्मीद होती है, काम करने की जो क्षमता होती है, जो उमंग और साहब होता है, जो हिम्मत होती है, उससे राई-रत्ती भर भी मेरे अंदर कमी नहीं पड़ी है। मैं ज्यों का त्यों हूँ। क्यों, क्या वजह है? आदमी की चिंताओं की वजह से, ख्वाहिशों की वजह से, तृष्णाओं की वजह से उसकी शक्तियों का जो क्षरण होता रहता है, मेरे पास ऐसा कुछ नहीं है। मैं बहुत निश्चिन्त, बड़ा फक्कड़ और मस्त आदमी हूँ और अपनी मस्ती लोगों को बाँटता रहता हूँ। लोग-बाग मेरे पास अपनी मनोकामनाएँ पूरी कराने आते हैं, क्योंकि मैं आप्तकाम हूँ। अगर मैं भी आप्तकाम न होता और मनोकामनाओं से बना होता, तो हमारे और आपके बीच जद्दोजहद खड़ी हो जाती।
किसे कहते हैं सिद्धि
मित्रो! हर कोई अपनी मनोकामनाएँ पूरी कराना चाहता है। गुरुजी! हमारी मनोकामनाएँ पूरी कीजिए। चेलाजी! आप हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। अरे साहब! हम क्या कर सकते हैं? बेटे, हमने तो आपको चेला इसलिए बनाया था कि आप दो, पाँच रुपये दे जाया करेंगे। गुरुजी! हमने तो आपको गुरुजी इसलिए बनाया था कि आप हमको आशीर्वाद दिया करेंगे। बेटे, आशीर्वाद पीछे लेना, पहले यह देख कि हमारा कुर्ता फट गया है। एक कुर्ता लेकर के आ। अरे महाराज जी! कुर्ता तो पच्चीस रुपये का बनता है, मैं कहाँ से लाऊँगा। और बेटे, तेरी मनोकामना पूरी करने के लिए तीन साल का तप देना पड़ेगा, वह मैं कहाँ से लाऊँगा? हमारे और आपके बीच अर्थात गुरु और चेले जी के बीच यही जद्दोजहद चलती रहती है।
मित्रो! आप्तकाम ही दूसरों की मनोकामना को पूरी कर सकता है। हम अपनी जरूरतों को पूरी कर लेते हैं और आपकी जरूरतों को भी पूरा करने में समर्थ हैं। यही सिद्धि है? हाँ बेटे, इसको मैं सिद्धि कहता हूँ। अगर कोई मुझसे पूछे कि सिद्धि किसे कहते हैं? बाजीगरी को? बेटे, बाजीगरी को लानत है। जो आदमी बाजीगरी को आध्यात्मिकता की निशानी मानते हैं, उनको मैं बहुत ही घटिया किस्म का इन्सान मानता हूँ। यह चमत्कार दिखाइये, वह चमत्कार दिखाइये, बालों में से साँप निकालिए, हाथ में से इलायची निकालकर दिखाइये। बेटे, ऐसा व्यक्ति बचकाना मालूम पड़ता है, बड़ा घटिया मालूम पड़ता है।
अगर तू मुझसे-बाबाजी से यह आशा करेगा कि मैं वह काम करूँ जो बाजीगरों को करना चाहिए, जादूगरों को करना चाहिए, तो बेटे, इस बाजीगरी के ऊपर लानत है और तेरे शिष्य होने के ऊपर लानत है और ऐसे अध्यात्मवाद को धिक्कार है। कौन से अध्यात्मवाद को? जो लोगों को इस बहाने अपनी ओर आकर्षित करे कि हमको चमत्कार दिखाना आता है और जादू दिखाना आता है और हम पानी से दिये जला सकते हैं और बालों में से बालू निकाल सकते हैं।
मित्रो! यह अध्यात्मवादियों के लिए नहीं है। यह तो बाजीगरों का खेल है और जादूगरों का खेल है। आज जादूगरी का और बाजीगरी का, धूर्त और मूर्ख लोगों का ऐसा जोड़ा बन गया है-जैसे मिलाई जोड़ी, एक अंधा एक कोढ़ी।’’ एक धूर्त और एक मूर्ख। धूर्तों और मूर्खों ने आपस में ऐसी तुक मिला ली है, ऐसी संगति बिठा ली है कि तमाशा दिखाइये, जादू दिखाइये और चेला बनाइये। साहब! हम आपके चेला तब बनेंगे, जब आप जादू दिखा देंगे। उसने कहा-लो अभी दिखाते हैं बाजीगरी। उसने बाजीगरी दिखाना शुरू किया और उसने गुरु बनाना शुरू कर दिया। आज यही बाजीगरी हर जगह फैली हुई है। यह कोई सिद्धि नहीं है। अध्यात्म की सिद्धियाँ अलग होती हैं।
गायत्री की पाँच सिद्धियाँ
मित्रो! अध्यात्म की अगर कोई सिद्धियाँ हो सकती हैं, तो हमने इसकी पाँच सिद्धियाँ अपनी जिंदगी में पायी हैं। गायत्री के पाँच मुख हैं, पाँच कोष हैं, पाँच आनन हैं, पाँच देवता हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि पाँच देवताओं की सिद्धियाँ हमने पायीं और उनमें आप्तकाम की सिद्धि पहली है। उपार्जन तो मैंने बहुत सारा किया है, परन्तु उन्हें उपयोग के लिए किया है, संग्रह और उपभोग के लिए नहीं किया है। बुद्धि का उपार्जन मैंने बहुत सारा किया है, लेकिन संग्रह के लिए नहीं, लोकमंगल के लिए किया है। यही कारण है कि यह उपार्जन मुझे आनन्द देता हुआ चला गया। उपार्जन ने मेरे ऊपर रखवाली की जिम्मेदारी नहीं डाली, क्लेश की जिम्मेदारी नहीं डाली, मेरे ऊपर भार नहीं डाला। मैं बुद्धि कमाता रहा, अक्ल कमाता रहा, श्रम कमाता रहा और तप कमाता रहा। लेकिन हर चीज, जो मैंने कमाई थी, वह श्रेष्ठतम उपयोग करने के लिए कमाता रहा, उपभोग के लिए नहीं। उपभोग नहीं, उपयोग के लिए हमारा सारा उपार्जन है।
उपभोग किसे कहते हैं? उपभोग उसे कहते हैं जिसमें कि जो भी चीज कमाई जाती है वह अपने लिए, अपने शरीर के लिए, अपनी खुशी के लिए और अपनी औलाद की खुशी के लिए कमाई जाती है, उसे उपभोग कहते हैं। और उपयोग किसे कहते हैं? उपयोग में हम यह नहीं देखते कि इसकी जरूरत किसके लिए है या जिसके लिए जरूरी है, उसको देंगे। नहीं साहब! हम तो उपभोग करेंगे और अपने लिए खरीदेंगे। हमारे पास पेंशन आती है, तो हम क्या करेंगे? साहब! हम एक मोटर खरीद लेंगे। नहीं भाई साहब! रिक्शे में चले जाइये? नहीं साहब! हम तो मोटर में सफर करेंगे।
गुरुजी! हमने पैसा कमा लिया है। तो किसको देंगे? पड़ोस में जो बुढ़िया रहती हैं और जिसकी आँखें अंधी हो गयी हैं, मोतियाबिंद हो गया है। पचास-पचास रुपये में एक-एक बुढ़िया की आँखों का आपरेशन तू करा सकता है? पाँच हजार रुपये में सौ बुढ़ियाओं की आँख का आपरेशन हो सकता है। नहीं साहब! पाँच हजार रुपये की अँगूठी खरीदकर लाऊँगा और अपनी बीबी को दूँगा। बेटे, अगर तू उसको दे दे तब? किसको? जो सौ बुढ़िया हैं, उनकी आँखों का आपरेशन कराके, तो उनका अंधापन दूर हो सकता है और बची हुई जिन्दगी को वे काम में ला सकती हैं।
उपभोग के लिए नहीं, उपयोग के लिए करें उपार्जन
नहीं साहब! मैं यह नहीं कर सकता। मैं तो अपनी बीबी को ही दूँगा। और गुरुजी! एक बड़े काम से भी मैं निश्चिन्त हो गया हूँ। किस काम से बेटे? हमारे पास जो भी सम्पत्ति थी, हमने अपने तीनों बेटों में बराबर-बराबर बाँट दी। वाह! बेटे, तू तो राजा कर्ण बनकर पैदा हुआ है, जो अपनी सारी की सारी सम्पदा बेटों को दे आया। हाँ महाराज जी! सारी सम्पत्ति बेटों को दे दी।
अरे दुष्ट! तुझे शरम नहीं आयी। जब तेरे बेटे कमाने लायक हो गये थे और अपने हाथों से अपना गुजारा कर सकते थे, तो फिर तूने उन्हें क्यों दिया? नहीं महाराज जी! हम तो बेटों के अलावा किसी और को नहीं दे सकते थे। उनके अलावा हम और किसी की कल्पना नहीं कर सकते। बेटों के अलावा हमारा कोई और हकदार नहीं हो सकता। बेटों के अभाव में हमारे और कोई काम नहीं आ सकता। हमारी सारी दौलत हमारे बेटों के लिए खर्च होनी चाहिए और हमारे लिए खर्च होनी चाहिए।
मित्रो! इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हो गया-उपभोग। उपभोग करने के लिए हम जो कुछ भी उपार्जन करते हैं, वह सारा का सारा उपार्जन हमारे ऊपर भार बन करके, साँप बन करके हावी हो जाता है और न केवल हमारा विनाश करता है, वरन् हमारी संतानों का भी विनाश करता है। हराम का कमाया हुआ पैसा जिस किसी ने भी अपनी औलाद के लिए छोड़ा है, उसने अपना और अपनों का सत्यानाश करके छोड़ा है, आप इसे याद रखना।
समाज में जितनी भी अय्याशियाँ, जितनी भी बदमाशियाँ, जितनी भी मक्कारियाँ पैदा हुई हैं, उसका कारण वही लोग हैं, जिन्होंने दौलत कमा-कमा करके अपनी औलाद के लिए जमा कर दीं ।। अगर उन औलादों को अपने हाथ-पाँव से कमाने का मौका मिला होता, तो न उन्होंने शराब पी होती, न उन्होंने अय्याशियाँ की होतीं, न उन्होंने मक्कारियाँ की होतीं। उनको अय्याश बनाने का, बदमाश बनाने का, कुमार्गगामी बनाने का पाप अगर किसी के ऊपर पड़ेगा, तो बाप पर पड़ेगा। किसके ऊपर पड़ेगा? जिसने कि बच्चों को परिश्रमशील बनाने की अपेक्षा यह मुनासिब समझा कि उसके लिए हम ढेरों पैसा जमा करके जायें और इसको सात पीढ़ियों तक खाने का मौका दें।
मित्रो! यह उपभोग हो गया। उपयोग क्या है? उपयोग उसे कहते हैं, जहाँ जिन लोगों को जरूरत है, वहाँ उन आवश्यकताओं के लिए हम अपने ज्ञान का उपयोग, पैसे का उपयोग, बुद्धि का उपयोग, श्रम का उपयोग करते चलें, तो हमारा उपार्जन सार्थक हो सकता है। मैं आप्तकाम इसलिए हूँ कि मैंने जो भी दौलत कमाई है, जिसमें श्रम की भी दौलत थी, ज्ञान की दौलत भी थी, उसमें हम संतोष की साँस लेते रहते हैं; क्योंकि वह सही जगह पर चली गयी है, अपनी जगह पर चली गयी है। जो कुछ भी मैंने इकट्ठा किया, वह सिद्धि के लिए नहीं कमाया, स्वर्ग के लिए नहीं कमाया-‘‘न त्वहं कामये राज्यं न पुनर्भवम्।’’
लोककल्याण में लगी मेरी तपस्या
मित्रो! मैंने अपना सारा का सारा तप आदमियों की आँखों के आँसुओं को पोंछते हुए खतम कर दिया। मेरा सारा तप चला गया। तप तो मेरे पास नहीं है। भगवान के यहाँ मैं खाली हाथ चला जाऊँगा। जब वहाँ पूछा जायेगा कि आपके पास तप है? नहीं भगवन! मेरे पास तप नहीं है। जो कुछ भी तप था, उसका एक-एक कण मैंने सब बाँट दिया और आपके पास खाली हाथ आ गया।
लेकिन मित्रो! इस तरह खाली हाथ जाते समय मुझे कितनी शांति, कितनी राहत, कितना संतोष मिलेगा, कितना उत्साह-उल्लास होगा, आप समझते हैं। इतना तो मैं तप से सिद्धि ले करके जाता तो शायद वह आनन्द मुझे न मिलता, जो मैं बिना तप के खाली हाथ होकर के तप के बिना, ज्ञान के बिना, पैसे के बिना, हर चीज के बिना जब जाऊँगा, तो संतोष का असीम आनन्द लेकर के जाऊँगा आप्तकाम हो करके जाऊँगा।
करुणावान होता है भक्त
मित्रो! अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को दौलत मिलती है कि नहीं, हम नहीं कह सकते, लेकिन हमारा ऐसा ख्याल है कि उसे दौलत नहीं मिलती। अध्यात्मवादी गरीब रह जाता है। दौलत उसके पास ठहर नहीं सकती। गुरुजी! हम तो आपके पास इसलिए आये थे कि आप हमें लक्ष्मी जी का बीज मंत्र बतायेंगे और हम मालदार हो जायेंगे। नहीं बेटे, तू मालदार नहीं बन सकता। नहीं महाराज जी! आप तो हमें मालदार बना दीजिए। बेटे, मालदार बनाने के बाद भी वह तेरे पास ठहर नहीं सकेगी; क्योंकि अगर तेरे हृदय में कोमलता रही, अगर तेरे हृदय में सन्तपन रहा, अगर तेरे हृदय में भक्ति रही, तेरे हृदय में करुणा रही, तो तू पत्थर के कलेजे वाला नहीं हो सकता।
नहीं साहब! मैं तो किसी को नहीं दूँगा। जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब अपनी औलाद को दूँगा। नहीं बेटे! तू ऐसा नहीं हो सकता। तेरे पास अगर जब भक्ति आयेगी, तो उसके साथ-साथ करुणा जरूर आयेगी। जिस क्षण करुणा आयेगी, उस क्षण तेरा पत्थर जैसा, चट्टान जैसा कलेजा नहीं रह सकता। मालदार आदमी वही हो सकता है, जिसको भगवान ने पत्थर जैसा कलेजा दिया हो और चट्टान जैसा कलेजा दिया हो और जो दूसरों के दुखों को देखकर पसीजता न हो। बस वह इतना कर सकता है कि विज्ञापनबाजी के लिए, अपने पास से सौ-दो सौ रुपये दे देगा कि चुन्नूलाल-मुन्नू लाल ने सौ रुपया धर्मशाला के लिए पत्थर लगवाने के लिए दिया है। अखबारों में इस तरह के विज्ञापन लोग छपवाते रहते हैं कि लाला चन्दूलाल ने अपनी पूजनीया माता जी की स्मृति में इक्यावन रुपये इस धर्मशाला को दिए। बेटे, विज्ञापन के लिए तू खर्च कर सकता है। लेकिन क्या तेरा कलेजा इतना कठोर है कि जहाँ करुणा की आवश्यकता है, दया की आवश्यकता है, पीड़ा-पतन निवारण की आवश्यकता है और जहाँ देश और सारा का सारा मानव समाज कराह रहा है, उसके लिए तू खर्च नहीं कर सकता?
दृष्टिकोण के परिष्कार से बनते हैं आप्तकाम
मित्रो! अगर आपके जीवन में भक्ति आयेगी, तो पैसा ठहर नहीं सकता, इसे आपको देना ही पड़ेगा। फिर आपको अपना श्रम देना पड़ेगा, समय देना पड़ेगा, बुद्धि देनी पड़ेगी, अकल देनी पड़ेगी और आप खाली हाथ हो जायेंगे। गरीब हो जायेंगे। मित्रो! आप्तकाम वह आदमी है जिसने अपने दृष्टिकोण को इस हिसाब से परिष्कृत करके रखा है कि हम वस्तुओं को उपार्जित तो करेंगे, पर उपभोग नहीं करेंगे।
लक्ष्मी उपभोग करने के लिए नहीं है, उपयोग करने के लिए है। लक्ष्मी औरत नहीं है, वेश्या नहीं है, जिसको हम दबाकर रखें और उसका उपभोग करना चाहें। लक्ष्मी हमारी माँ है। माँ का दूध हमको भी पीना चाहिए और हमारी माँ का दूध हमारे छोटे भाई को भी पीना चाहिए। माँ का दूध हमारी छोटी बहन को भी पीना चाहिए और माँ की सेवा हमारी छोटी बहन को भी मिलनी चाहिए और छोटे भाइयों को भी मिलनी चाहिए और सारे परिवार को मिलनी चाहिए।
मित्रो! माँ का उपयोग सबके लिए होना चाहिए। नहीं साहब! हमारी माँ तो हमारे ही पैर दबाया करेगी, हमारी ही वासनाएँ पूरी किया करेगी। नहीं बेटे! तेरी माँ तेरे पैर नहीं दबा सकती और न तेरी वासनाएँ पूरी कर सकती है। अगर लक्ष्मी तेरे पास है तो वह तेरी माँ है और माँ का उपयोग सबके लिए होना चाहिए। नहीं साहब! लक्ष्मी माँ का तो केवल हम ही उपयोग करेंगे और कोई नहीं करेगा। इसका अमुक फायदा हम उठायेंगे और किसी को नहीं उठाने देंगे। नहीं बेटे! ऐसा नहीं हो सकता।
इसलिए मित्रो! हमने अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ बदल दीं और आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षा की ओर अपना बटन घुमा दिया। एक सेकेण्ड पहले जो रेडियो स्टेशन भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं का राग अलाप रहा था, हमने उसकी सुई घुमा दी। पहले सीलोन रेडियो स्टेशन बोल रहा था। क्या गा रहा था? बड़े-बड़े गंदे फिल्मी गाने गा रहा था। फिर आपने क्या कर दिया? बेटे, हमने सुई घुमा दी। अब कहाँ मिला दिया? अब विविध भारती पर मिला दिया है और अब इसमें प्रार्थना के गीत आने लगे हैं। यह क्या है? एक सेकेण्ड का चमत्कार है।
बदल डालें अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ
मित्रो! हमारी भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं का उद्देश्य मालदार बनना है। हमको सेठ बनना है, अमीर बनना है। हमको औलादवाला बनना है, हमको अमुकवाला बनना है किन्तु मित्रो! इन महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति करना पराये हाथ की बात है, परिस्थितियों के हाथ की बात है, दूसरों के हाथ की बात है। आपके बॉस के हाथ की बात है कि वह आपको प्रमोशन देता है कि नहीं? साहब! हमारा लड़का पी.एम.टी. के इम्तिहान में बैठेगा। किस कॉलेज में जायेगा? आपके हाथ की बात है? नहीं, उसके बॉस के हाथ की बात है। वह चाहेगा तो अच्छे नम्बर दे देगा, नहीं चाहेगा तो नहीं देगा। अगर बच्चे के पर्चे अच्छे नहीं, खराब गये, तो क्या यह आपके हाथ की बात है? नहीं साहब! यह पराये हाथ की बात है। महत्त्वाकांक्षाएँ, जो हमने सँजो रखी हैं, हर महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति करना पराये हाथ की बात है। पराये लोगों की मर्जी होगी, तो हमारी खुशी मिल सकती है। पराये लोगों की मर्जी नहीं होगी, तो हमारी खुशी नहीं मिल सकती।
क्या है आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षा?
लेकिन मित्रो! एक महत्त्वाकांक्षा ऐसी है जिसको पूरा करने का हक हमको है और हम उसे पूरा कर सकते हैं। वह है-हमारी आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षा। आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षा को पूरा करना हमारे मुट्ठी की बात है और उसे हम पूर्ण रूप से पूरा कर सकते हैं। हम सच्चाई से रहेंगे और सही बोलेंगे। नहीं साहब! सत्य बोलना बड़ा कठिन है और उसमें बड़ी रुकावट है। नहीं बेटे, सत्य बोलना सबसे सरल है। बेवकूफ आदमी भी सत्य बोल सकता है, लेकिन झूठ बोलना बेहद मुश्किल है। कैसे? साहब! काम-धन्धा कैसे चल रहा है? साहब! आज क्या खा करके आये? अरे! आज तो हमने परवल का शाक खाया। परवल तो मई के महीने में होता है और यह तो मार्च का महीना है। अरे साहब! मैं तो भूल गया। आज तो मैंने बैगन खाया था। ऐसा झूठ एक सेकेण्ड में पकड़ लिया जाता है।
शेखीखोर सेकेण्डों में मालूम पड़ जाते हैं कि वे कहाँ से कहाँ की बात बोल रहे हैं। साहब! आप क्या पास हैं? एम.ए. पास हैं। एम.ए. के कोर्स में कौन-कौन सी किताबें होती हैं? हाँ साहब! एम.ए. तो कर लिया परन्तु अभी बी.ए. नहीं किया। बी.ए. करेंगे, तब बतायेंगे साहब! अच्छा बताओ कि पहले बी.ए. होता है या एम.ए? अरे साहब! हमारे जमाने में तो पहले एम.ए. होता था, अब बी.ए. होता होगा। ऐसा झूठ सेकेण्डों में पकड़ जाता है और सही बात आप बोलते चले जाइये। आप बच्चे हैं, तो सही बोल दीजिए कि बच्चे हैं। पागल हैं तो बोलते चले जाइये, कोई रुकावट नहीं है।
मित्रो! अच्छा और सच्चा जीवनयापन करना बड़ा सरल है। श्रेष्ठ महत्त्वाकांक्षाएँ पालना अच्छा है जैसे कि हम लोगों की सेवा करना चाहते हैं, लोगों की भलाई करना चाहते हैं। हम आत्मसंयम से रहना चाहते हैं। हम प्यार, मोहब्बत से रहना चाहते हैं। नहीं साहब! संयम से रहना बड़ा मुश्किल है। तो सुगम क्या है? व्यभिचार करना बड़ा सुगम है। अच्छा व्यभिचार करना सरल है तो जा पड़ोसी के घर में, फिर देख तेरे सिर के सारे बाल गायब हो जाते हैं कि नहीं होते। नहीं साहब! व्यभिचार बड़ा सरल है और सदाचार बड़ा कठिन है।
सरल है सदाचार-प्रयत्न तो करें
नहीं बेटे, सदाचार बड़ा सरल है। देख-सबकी बहन-बेटी को अपनी बहन-बेटी मान, सबकी माँ को माँ कह, बेटी से बेटी कह और अपनी मौज से रह और अपनी चारपाई पर मजे से चैन की नींद सो जा। इसमें क्या आफत आती है? नहीं महाराज जी! यह तो बड़ा कठिन है। चल उल्लू कहीं का, जो सबसे सरल है उसको कठिन बताता है और जो सबसे कठिन है, उसको सरल बताता है। साहब! बेईमानी बड़ी सरल है और ईमानदारी बड़ी कठिन है। नहीं बेटे, ईमानदारी सबसे सरल है और बेईमानी सबसे कठिन है।
इसलिए मित्रो! हमने प्रत्येक अध्यात्मवादी के तरीके से अपने महत्त्वाकांक्षाओं की सुई वहाँ से हटा दी और महापुरुष बनने की महत्त्वाकांक्षा के ऊपर अपने ट्रांजिस्टर की सुई बदल दी। बस फिर क्या था-मजा आ गया। गरीब से गरीब आदमी को, कंगाल से कंगाल आदमी को, बिना पढ़े हुए आदमी को महामानव बनने के लिए रुकावट नहीं है। कबीर एक विधवा के पेट से पैदा हुए थे और एक मुसलमान जुलाहे ने उन्हें पाला, लेकिन हिन्दू धर्म में उन्होंने जो ऊँचा स्थान प्राप्त कर लिया, इसे आप सभी जानते हैं। कोई रुकावट है क्या? नहीं कोई रुकावट नहीं है। रैदास जाति के चमार थे और बिना पढ़े थे, लेकिन रैदास की कठौती में गंगा बहने लगी थी-‘‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’’ अछूत आदमी, बिना पढ़े आदमी, दूसरे आदमी, तीसरे आदमी किसी को भी अपनी आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षा पूरी करने में कोई रुकावट नहीं है। महामानव बनने के लिए कठिन से कठिन परिस्थितियों, गरीबी से गरीबी में, कंगाली से कंगाली में, मुसीबत से मुसीबत में और बेवकूफी से बेवकूफी में भी आदमी बड़ा बन सकता है, महामानव बन सकता है।
मित्रो! गाड़ी चला करके अपना गुजारा करने वाला रैक्य भी महान बन सकता है। राजा जनक के संवाद में एक प्रसंग आता है कि एक व्यक्ति ने उनसे पूछा कि सबसे बड़ा संत कौन है? उन्होंने कहा कि रैक्यमुनि। रैक्य कौन है? एक गाड़ीवान है, जो बैलगाड़ी चलाकर अपना गुजारा करता है। हमने उसे ब्रह्मज्ञानी के रूप में पाया। गाड़ी चलानेवाला आदमी भी ब्रह्मज्ञानी था। अध्यात्म की महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने में कोई रुकावट नहीं है और न ही सिवाय हमारी कमजोरी के कोई उसमें रुकावट डाल सकता है।
परिपक्व बनायें मानसिकता
मित्रो! इसी तरीके से मैं आप्तकाम बनता चला गया। बचपना नहीं, हमारी जवानी में प्रौढ़ता होनी चाहिए। बचपन किसे कहते हैं? बुढ़ापा किसे कहते हैं? और जवानी किसे कहते हैं? बचपन उसे कहते हैं जिसमें आदमी भविष्य की कल्पना करता रहता है। सोचता रहता है कि मैं बड़ा हो जाऊँगा तो साहब बन जाऊँगा। बड़ा हो जाऊँगा तो मैं ऐसा करूँगा। बड़ा हो जाऊँगा तो परियों के यहाँ जाऊँगा। इस तरह बच्चा भविष्य की सोचता रहता है। और बूढ़ा? बूढ़ा भूतकाल की बात सोचता रहता है कि हमारे बाप-दादे ऐसे थे। हमारे बाप-दादे हनुमान जी जैसे थे।
एक दिन बनार्ड शॉ के यहाँ कोई हिन्दुस्तानी गया। वह बताने लगा कि हिन्दुस्तान की पुरानी संस्कृति ऐसी थी, पुराने लोग ऐसे थे। इस पर बनार्ड शॉ ने कहा-बस साहब! यहीं रहने दीजिए, अगर आप ज्यादा पुरानी बात कहेंगे, तो आपको यह भी कहना पड़ेगा कि हम बन्दर की संतान थे। लोग भूतकाल की बात करते रहते हैं, जैसे कि श्रीकृष्ण भगवान ने जरासन्ध को मार डाला था। अरे, उसे मार डाला तो वह गाली दे रहा होगा, तभी उसे मार दिया होगा।
नहीं महाराज जी! पुरानी बात कहिए। भाड़ में गयी तेरी पुरानी बात। पुरानी बात तो बूढ़े आदमी करते हैं। जिनका एकाग्र मन बुढ़ापे में डूब गया है, वे पुरानी बातों का रस ले-लेकर के जिन्दा रहते हैं। जैसे-अरे साहब! हमारे जमाने में तो एक रुपये का बाइस मन घी आता था। हाँ साहब! हमारे जमाने में भी आता था। हमारे जमाने में तो यह और भी सस्ता था और हम घी में नहाया करते थे। ठीक है, लोग पुराने जमाने के सारे किस्से बयाँ करते रहते हैं, लेकिन बेटे इस जमाने में और उस जमाने में कोई विशेष फरक नहीं था। दोनों के भाव एक थे। उस जमाने में अठारह रुपये तोले सोना बिकता था और अब? हिसाब लगा लीजिए। गल्ला क्या भाव बिकता है। डेढ़ सौ रुपये क्विंटल बिकता है और उस भाव सोना बिकता है। सब वही भाव है। न कोई घटा है, न बढ़ा है, बस रुपये की कीमत कम हो गयी है। नहीं साहब! हमारा जमाना बहुत अच्छा था। कुछ भी अच्छा नहीं था, बस रुपये की कीमत बढ़ी थी। अब रुपये की कीमत छोटी हो गयी है। सामान की स्थिति उसी हिसाब से है, जैसे पहले थी।
वर्तमान में जीते हैं जवान
मित्रो! बुड्ढे आदमी भूतकाल की कल्पना किया करते हैं और बच्चे भविष्य की कल्पना किया करते हैं। भविष्य में मरेंगे तो स्वर्ग में जायेंगे, ब्रह्मलोक में जायेंगे। सालोक्य मुक्ति में जायेंगे। इस तरह एक बालक भविष्य की कल्पना करता रहता है और उसी के बारे में सोचता रहता है और जवान आदमी? जवान आदमी केवल वर्तमान की बात सोचते हैं, आज की बात सोचते हैं। आज हमारी क्या परिस्थितियाँ हैं? आज हम क्या कर सकते हैं?
आज का प्रोग्राम हम आज बनाते हैं, कल की बात कल बनायेंगे। हमारी लड़की विवाह योग्य हो गयी है। वह प्राइमरी स्कूल के मास्टर के यहाँ शादी होकर जाने योग्य है। इतना ही हमारे पास खर्च करने लायक साधन और पैसा है और इतनी ही हमारी लड़की पढ़ी-लिखी है। नहीं साहब! इसके लिए प्रोफेसर ढूँढ़िए। नहीं साहब! हमारी लड़की कम पढ़ी लिखी है। हम तो प्राइमरी स्कूल का मास्टर ही ढूँढ़ेंगे।
मित्रो! अपनी परिस्थितियाँ आज जहाँ हैं, उसके हिसाब से आज की स्कीम बनाइये। हमारी परिस्थितियाँ आज यहाँ हैं और स्कीमें हम कल के हिसाब से बनाते हैं, इसलिए उनका संतुलन नहीं बन पाता है। साधन हमारे कम होते हैं, शक्तियाँ हमारी कम होती हैं, उसका संतुलन बनाना हमको नहीं आता। परिस्थितियों के अनुरूप जो हम कर सकते थे, उसके ऊपर तो ध्यान देते नहीं और भविष्य की बेकार की कल्पनायें करते रहते हैं और समय खराब करते रहते हैं। मित्रो! मैंने इन्हीं सब बातों से अपने आपको बचाये रखने की कोशिश की और उसका परिणाम यह हुआ कि मैं आप्तकाम हो गया। अगर आपने दुनिया में कोई आप्तकाम न देखा हो, तो आप हमको देख सकते हैं। आप थर्मामीटर लगाइये और जानिए कि यह आदमी आप्तकाम है कि नहीं है।
आकांक्षा से रहित होते हैं आप्तकाम
मित्रो! हमारी सारी मनोकामनाएँ पूरी हो गयीं। हमको दोनों वक्त रोटी मिल जाती है। हम आप्तकाम हैं। कपड़ा पहनने के लिए हमें बराबर मिलता रहता है, हम आप्तकाम हैं। रहने के लिए हमको घर मिला हुआ है, हम आप्तकाम हैं। संतानें? संतानें किस कदर होती चली जा रहीं हैं। क्या कमी है? गुरुजी! आप तो कहते थे कि दो ही बच्चे हुए थे। बेटे तुझे मालूम नहीं है कि कितने बच्चे हुए थे।
अभी लाखों को हमने यहाँ साधना कराई है और इनके अभी जो नाती-पोते होने वाले हैं, उनकी गणना आप कर नहीं सकते। हमने कहा है कि हर साधक को अपनी जिन्दगी में कम से कम दस-दस साधक बनाना चाहिए। एक लाख को हम शिक्षा दे रहे हैं। हमारे एक लाख बेटे हैं। रावण के कितने थे? एक लाख पूत-सवा लाख नाती और देख हमारे तो एक लाख पूत ही हैं। इस तरह अखण्ड ज्योति के ग्राहक ही ग्राहक हो गये। वे अभी और बढ़ेंगे, आप लोग देखते जाइये कि हम कहाँ से कहाँ पहुँच जायेंगे।
मित्रो! ये हमारे विचारों की सन्तानें हैं, जो बढ़ती चली जा रही हैं। जब से हम आप्तकाम हो गये, तब से संतानों की संख्या बढ़ना शुरू हो गयी। आप तो सीमाबद्ध होकर चले थे कि मेरा बेटा है और यही मेरा वंश चलायेगा और बुढ़ापे में मेरा कल्याण करेगा, तब से आपका बेटा बागी होता हुआ चला जाता है, क्योंकि आप हमेशा कल्पना करते हैं कि यही हमारा वंश चलायेगा। यही हमारा पिण्डदान करेगा। वंश चला करके पिण्डदान करने की कीमत वह आपसे पूरी तरीके से वसूल कर लेगा और आपकी हड्डियों का एक-एक बूँद तेल निकाल लेगा, तब आपको पिण्डदान देगा।
हमारा जीवन है आप्तकाम का जीवन
मित्रो! खुशियों भरा हमारा जीवन, हँसता-हँसाता हुआ जीवन, शान्ति भरा जीवन आप्तकाम होने के परिणामस्वरूप है। मरने के बाद शांति मिलती है कि नहीं मिलती, हमको नहीं मालूम है, लेकिन इस जिन्दगी में हमने जो शांति पाई है, वह अभूतपूर्व है। मनोकामना पूरी होने के बाद में मिलने वाली जिस खुशी का आप ख्वाब देखते हैं, वह मनोकामना आपकी पूरी हुई कि नहीं हुई, हमें नहीं मालूम और मिली तो कितने सेकेण्ड तक रही। बेटे ऐसी खुशी टिकाऊ नहीं हो सकती। टिकाऊ खुशी आप्तकाम व्यक्ति को ही मिल सकती है।
अगर आदमी सही मायने में यह समझ ले कि हमारी आवश्यकताएँ सीमित हैं और हम जो कमाते हैं, उपार्जन करते हैं, वह उपभोग के लिए नहीं है, उपयोग के लिए है। फिर आप थोड़ा भी कमायेंगे तो आपको खुशी हासिल होगी। ठीक है हमने थोड़ा कमाया है, तो थोड़े का ही उपयोग कर सकते हैं। अगर हम ज्यादा कमा सके होते तो ज्यादा का उपयोग किया होता। परेशानी आपको उस समय होगी, जब आप उपभोग के लिए माल प्राप्त करना चाहते हैं। उपभोग आपको हैरानी में डालता है। उपभोग आपके लिए जलन पैदा करता है। उपभोग आप में पाप पैदा करता है। उपभोग आप में कलह पैदा करता है। उपभोग आपके बच्चों का और आपका भविष्य खराब करता है, लेकिन उपयोग आपके भविष्य को खराब नहीं करता।
आध्यात्मिकता की दूसरी सिद्धि-अजातशत्रु होना
मित्रो! आध्यात्मिकता की नम्बर एक सिद्धि-आप्तकाम होने के रूप में जो हमें मिली है, उसी आध्यात्मिकता को अब मैं आपको सिखाना चाहता हूँ और मैं चाहता हूँ कि आध्यात्मिकता की जो सिद्धि मुझे मिली है वही लाभ और वही चमत्कार आप अपनी जिन्दगी में पायें और चैन की जिन्दगी जियें। आध्यात्मिकता की सिद्धि नम्बर-दो, जो मुझे मिली, वह है-अजातशत्रु। अजातशत्रु कई बार कई आदमियों के लिए भी कहा जाता रहा है, जैसे-सम्राट अशोक के लिए अजातशत्रु कहा जाता था। अजातशत्रु एक राजा भी हुए थे। राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू के लिए भी अजातशत्रु कहा जाता था। वे लोग अजातशत्रु थे कि नहीं थे, हमें नहीं मालूम है। लेकिन किसी जीवित व्यक्ति के रूप में अजातशत्रु को देखने का मन हो, तो आप हमको देख सकते हैं। हम अजातशत्रु हैं।
महाराज जी! तो आपका कोई बैरी नहीं है? बेटे, हमारे बहुत से बैरी हैं और बहुत द्रोही हैं और हमें बहुत गालियाँ देते हैं कि इन्होंने स्त्रियों को, लड़कियों को जनेऊ पहना दिया। साहब! इन्होंने धर्म भ्रष्ट करके रख दिया। देखो लड़कियाँ जनेऊ पहन करके निकलती हैं। सबको जनेऊ पहना दिया। सबको गायत्री मंत्र दे दिया। पाँच बार सबको गायत्री मंत्र सुना दिया। हमको इतनी गालियाँ पड़ती हैं कि हम ही जानते हैं। हवन पर स्त्रियाँ नहीं बैठती थीं, इन्होंने सबको हवन पर बैठा दिया। वे सबको जनेऊ पहना देते हैं।
दूसरे नहीं, अपना द्वेष है सबसे बड़ा बैरी
देखो साहब! गायत्री मंत्र तो पंडितों का था, ब्राह्मणों का था, पर अब सबको मंत्र मिल गया। क्या-क्या अन्याय फैल गया। बेटे, हमको बहुत गालियाँ पड़ीं हैं। हमारे बैरी बहुत हैं, लेकिन वे जो नुकसान पहुँचा सकते हैं, वह हमारे पास नहीं आ पाता और जरा सा भी नुकसान नहीं पहुँचा पाता। क्योंकि दूसरे लोगों का वैर हमें तब नुकसान पहुँचाता है, जब हम उसको स्वीकार करते हैं, जब हम उसको अंगीकार करते हैं, जब हम उसको मंजूर करते है और जब हम उसको रिफ्यूज करते हैं कि हमको आपका वैर नहीं चाहिए, तब वह वैर हमें नुकसान नहीं पहुँचा सकता।
मित्रो! हमको नुकसान पहुँचाता है आपका विरोध, जब वह हमारे भीतर वैर भाव के रूप में बदल जाता है, द्वेष के रूप में बदल जाता है। जब आप हमारे भीतर द्वेष पैदा करने में समर्थ हो जायेंगे, तब हमारा नुकसान होगा, अन्यथा आपके वैर से हमारा कोई नुकसान नहीं हो सकता। आप हमारा क्या नुकसान कर सकते हैं? ज्यादा से ज्यादा यही कर सकते हैं कि हमारे शरीर को कोई नुकसान पहुँचा दें। कोई थोड़े बहुत पैसे का नुकसान पहुँचा दें। लेकिन पैसे का नुकसान तो वैसे भी होता रहता है। हारी-बीमारी में नुकसान हो जाता है। ब्याह-शादियों में पैसे का नुकसान हो जाता है। बीसियों तरीके से पैसे का नुकसान हो जाता है। शरीर का तो वैसे भी नुकसान होता रहता है। कैसे होता है? अरे भाई साहब! एक बार बुखार आ गया तो हमारा जो वजन एक सौ बाइस पौण्ड था, घटकर वह नब्बे पौण्ड रह गया। फिर और घटकर बत्तीस पौण्ड रह गया। अगर कोई हमारे शरीर में चाकू मारे तो बत्तीस पौण्ड खून वैसे ही निकल जायेगा।
जाको राखे साइयाँ, मार सके न कोय
मित्रो! हमारा बैरी ज्यादा से ज्यादा क्या कर सकता है? मार ही तो सकता है। अगर हार्ट फेल हो जाये, तो भी मरना ही होता है। बीसियों आदमियों का हार्ट फेल हुआ है। ऐसी घटनायें तो रोज होती रहती हैं। फिर बैरी हमारा क्या बिगाड़ लेगा? अगर मेरी कजा आयेगी, तो मैं आत्मा हूँ, अपना चोला बदल डालूँगा। मौत हमारा क्या बिगाड़ लेगी? बाहर का बैरी बेचारा क्या कर सकता है? वह बड़ा गरीब है, बड़ा कमजोर है। उसके पास कोई ताकत नहीं है, सिवाय थोड़े से पैसे का नुकसान पहुँचा देने के लिए और निन्दा, बदनामी कर देने के और थोड़े से शरीर को नुकसान पहुँचा देने के अतिरिक्त बाहरी बैरी कुछ भी नहीं कर सकता।
लेकिन मित्रो! जो बैरी हमारा सबसे ज्यादा नुकसान करता है, वह है हमारा द्वेष। द्वेष रूपी आग जहाँ रखी जाती है, उस स्थान को ही जलाती हुई चली जाती है। तेजाब जहाँ रखा जायेगा, उस चीज को वहाँ से गलाता हुआ चला जायेगा। हमारे भीतर जब वैर पैदा होता है, घृणा हमारे भीतर पैदा होती है, द्वेष हमारे भीतर जब पैदा होता है, तब वह बाहर के दुश्मन से हमारा ज्यादा नुकसान करता है। बाहर के आदमी ने नुकसान किया कि नहीं किया, आप स्वयं अन्दाज लगा लीजिये। आपका जो बैरी था, उसने पहले आपका कितना नुकसान किया था? पहले मालूम पड़ता था कि वह बहुत बड़ा नुकसान करेगा, लेकिन पीछे पता चला कि वह आपका कुछ नहीं बिगाड़ सका। बेटे, बैरी क्या कर सकता है, जब—‘‘जाको रखे साइयाँ मार सके न कोय। बाल न बाँका कर सके जो जग बैरी होय॥’’ बैरियों की सारी इच्छाएँ यदि पूरी हुई होतीं, तो लोगों का दुनिया में जिन्दा रहना मुश्किल हो जाता।
मित्रो! बैरी हमारा कोई खास नुकसान नहीं पहुँचा सकते। बैरी हमारा एक ही नुकसान करते हैं कि वे हमारे अन्दर घृणा पैदा कर देते हैं, द्वेष पैदा कर देते हैं। भय पैदा कर देते हैं, आतंक पैदा कर देते हैं। अगर हम अपने भीतर भय पैदा न करें, अपने भीतर घृणा पैदा न करें। द्वेष अपने भीतर न पैदा करें, तब उस नुकसान से हमारा बचाव हो सकता है।
गुरुजी! जो हमें नुकसान पहुँचा रहा है, उसे हम अपने भीतर पैदा न होने दें, तब? तब बेटे, घृणा, द्वेष, भय, आतंक तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। अगर आपका दृष्टिकोण-जिसका नाम अध्यात्म है, बदल जाय तो बाहरी दुश्मन आपको कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। अध्यात्म क्रियाकृत्यों का नाम नहीं है, कर्मकाण्डों का नाम नहीं है। दिल बहलाने का नाम नहीं हैं। नाक में से हवा निकालने का नाम नहीं है। अध्यात्म के लिए ये सारी की सारी प्रक्रियाएँ इसलिए बनाई गयी हैं कि इससे हमारे दृष्टिकोण का और हमारे सोचने के तरीके का पक्का सम्बन्ध है। दृष्टिकोण का परिष्कार एवं सोचने के तरीकों का परिष्कार ही इसका उद्देश्य है और दूसरा कोई उद्देश्य नहीं है।
मित्रो! प्राणायाम करने का, ध्यान करने का उद्देश्य यही है कि हम अपने चिन्तन की दिशाधारा को बदलें और उसे परिष्कृत करें। चिन्तन को बदल देना, दृष्टिकोण को बदल देना, सोचने के तरीके को बदल देना ही अध्यात्म है। इसके अलावा और कोई अध्यात्म नहीं हो सकता। पूजा-उपासना का, भजन का, धर्मशास्त्रों का, सत्संग का, ब्रह्मविद्या का-सारे का सारा जितना भी बड़ा कलेवर खड़ा किया गया है, वह सिर्फ एक काम के लिए खड़ा किया गया है कि आदमी का चिन्तन, आदमी का विश्वास, आदमी की निष्ठाएँ, आदमी के सोचने का ढंग और तरीके सही हो जायँ। बस यही मकसद है और कोई मकसद नहीं है इनका। अगर आदमी के सोचने का तरीका सही हो जाय, तो उसे उसी क्षण शांति मिल सकती है। उसको उसी क्षण भगवान मिल सकते हैं। स्वर्ग उसी क्षण मिल सकता है। मुक्ति उसी क्षण मिल सकती है, क्योंकि वह हमसे दूर गयी कहाँ थी?
भगवान तो सदा हमारे साथ हैं
मित्रो! भगवान हमसे दूर कहाँ गया था? नाक में से होकर वायु के साथ-साथ हमारी अन्तरात्मा में भगवान प्रवेश करता रहता है। हृदय की धड़कन के साथ भगवान की लप-डप, शंकर जी का डमरू हर वक्त बजता रहता है। भगवान हमारे पास बैठे हुए हैं। भगवान हमसे दूर गये कब थे? वह हम सबके हृदय में बैठे हुए हैं। महाराज जी! भगवान कहाँ मिलेगा? बेटे कहीं नहीं मिलेगा! तो भगवान किसी को भी नहीं मिल सकता है? हाँ, भगवान किसी को भी नहीं मिल सकता हैं और किसी से भी नहीं मिल सकता है, क्योंकि भगवान गया कहाँ था? मित्रो! वह केवल हमारे विचार करने के तरीके, सोचने के तरीके और दृष्टिकोण के परिष्कार के पश्चात अपनी अन्तरात्मा में ही हमें मिल जाता है। इसी का नाम अध्यात्म है।
मित्रो! यह अध्यात्म जब हमको मिला, तो हमें क्या करना पड़ा? हमने इस तरीके से विचार करना शुरू कर दिया कि हमारे जितने भी बैरी थे, उन सबको हमने मार डाला। कैसे मारा? बेटे हमने उन्हें परशुराम जी के तरीके से मारा। परशुराम जी ने अपने बैरियों को कैसे मारा था? परशुराम जी ने शंकर जी से कुल्हाड़ा माँग लिया था। बस उससे उन्होंने क्षत्रियों को और बैरियों को मार डाला। एक बार नहीं, दो बार नहीं, वरन् इक्कीस बार उन्होंने धरती पर से क्षत्रियों का, बैरियों का सफाया किया। उनका कुल्हाड़ा बहुत जबरदस्त था। देखिये वही कुल्हाड़ा शंकर जी ने हमको भी दे दिया।
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को अपराध
महाराज जी! तो आपने भी बैरियों को मारा है? हाँ बेटे, हमने अपने सारे बैरी मार दिये, एक भी बैरी जिन्दा नहीं बचा है। हमारे सारे बैरियों का सफाया हो गया। कैसे हुआ? मित्रो! हमारे सोचने का तरीका, विचार करने का तरीका यह है कि लोग-बाग तो गलती करते ही हैं। ये बालक हैं, बच्चे हैं। भ्रम में पड़े हुए हैं और रोगी हैं। रोगी हमारे दया के पात्र हैं। रोग को हम मारना चाहते हैं और रोगी को बचाना चाहते हैं। रोगी हमारा मित्र है, रोगी हमारा पड़ोसी है, रोगी हमारा भाई है। रोगी की हम रक्षा करेंगे और रोग को मारेंगे।
मित्रो! बच्चे हमारा रोज नुकसान करते रहते हैं। रोज चीजें फैलाते रहते हैं। क्यों रे! मानता नहीं है, मारूँगा अभी। अरे साहब! बच्चा है, बड़ा होकर के समझ जायेगा। भ्रम में पड़े हुए आदमियों के प्रति, पागलों के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या होता है? पागल था, गाली दे रहा था। कहाँ था? सड़क पर खड़ा हुआ गाली दे रहा था। आपको भी गाली दी थी? हाँ साहब! हमको भी उसने खूब गालियाँ सुनाई थीं। तो फिर आपने भी उसको गालियाँ दीं कि नहीं? क्यों? क्योंकि वह तो पागल था। पागल के लिए हम गाली क्यों दें? कोई कुत्ता आपकी टाँग काट खाये, तो क्या आप भी कुत्ते की टाँग काटेंगे कि नहीं काटेंगे? अरे साहब! हम कुत्ते की टाँग क्यों काटेंगे। कुत्ते की टाँग काटने की कोई जरूरत नहीं है। उसने काट खाया तो काट खाया। अच्छा, अगर गधा आपको मार दे, तो आप भी गधे को लात मारेंगे कि नहीं? अरे साहब! गधे को हम लात क्यों मारेंगे। कोई देखेगा तो कहेगा कि आप गधे को लात मारते हैं।
मित्रो! पागल, बेवकूफ और नासमझ आदमी वे हैं, जो गलतियाँ करते हैं। नासमझों को समझाने के बहुत से तरीके हैं। हम उन्हें प्यार से, मोहब्बत से भी समझा सकते हैं और धमकाकर भी समझा सकते हैं, लेकिन उनसे वैर करने की कोई जरूरत नहीं है। डॉक्टर रोगी की चीर-फाड़ भी करता है, ऑपरेशन भी करता है, लेकिन द्वेष के हिसाब से नहीं, वैर के हिसाब से नहीं चाकू चलाता।
नहीं साहब! डॉक्टर पेट में चाकू मारता है, उसके पास मत जाना। उसमें और कसाई में कोई फरक नहीं होता। दोनों पेट फाड़ते हैं और वो गुंडे, जो सड़क पर घूमते हैं, उनके पास भी इतना बड़ा चाकू रहता है। वे भी पेट फाड़ डालते हैं और सारा खून निकाल लेते हैं। अंतड़ियाँ बाहर निकल पड़ती हैं। डॉक्टर बिल्कुल इसके उल्टा करता है। नहीं साहब! डॉक्टर कैसे करेगा? अच्छा हमारे साथ चल, हम तुझे दिखायेंगे। वह फट से पेट फाड़ डालता है और सड़े-गले भाग को निकाल लेता है। सब जगह खून-खच्चर हो जाता है।
मित्रो! दया के वशीभूत होकर के, प्रेम के वशीभूत होकर के, करुणा के वशीभूत होकर के, स्नेह के वशीभूत होकर के भी लोगों को सुधारा जा सकता है। लोगों को दंड भी दिया जा सकता है और प्यार-मोहब्बत से भी सुधारा जा सकता है लेकिन हमारा दृष्टिकोण यह है कि लोग भ्रम की वजह से या अज्ञान की वजह से और मानसिक बीमारियों की वजह से ग्रसित होने के कारण गलतियाँ कर रहे हैं।
अगर हम यह ख्याल करें, तो हमारे मन में उनके प्रति द्वेष उत्पन्न होने की बजाय मोहब्बत उत्पन्न होती है, करुणा उत्पन्न होती है और ईसा के तरीके से मरते समय भी हम यह प्रार्थना कर सकते हैं कि हे भगवान! इन्हें क्षमा कर दो, क्योंकि ये समझते नहीं हैं कि ये क्या कर रहे हैं। ईसा को फाँसी पर लटका दिया गया। क्रूस पर तान दिया गया। इतने पर भी उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की कि हे भगवान! इन बच्चों को क्षमा कर दो, क्योंकि ये समझते नहीं हैं कि ये क्या कर रहे हैं। सुकरात को जब जहर का प्याला दिया गया, तो उन्होंने भी ईश्वर से यही प्रार्थना की कि भगवान! इन्हें क्षमा कर देना। उन्होंने यही कहा कि लोग समझते नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।
मित्रो! अगर अपने दुश्मनों को, बाहर के दुश्मनों को तलाश करने की बजाय अपने भीतर ही दुश्मनों को तलाश करने लगें, तो हमारी जिन्दगी में मजा आ जाय। हमारी जिन्दगी में भीतरी दुश्मन बहुत हैं। असल में हमें जो दुश्मन बाहर से दिखाई पड़ रहे हैं, ये हमारे भीतरी दुश्मन होते हैं, जो लोगों के ऊपर हावी होते हैं। कभी हमारी स्त्री के ऊपर हावी होते हैं कि यह बड़ी खराब है। क्या खराबी है? साहब! शाक में नमक ज्यादा डाल देती है। अच्छा, बड़ी खराब है? हाँ साहब।
हमारी वृत्तियाँ ही हैं हमारी शत्रु
अक्सर मैं एक किस्सा सुनाया करता हूँ। विक्टोरिया को जब पहली बार रेलगाड़ी में बैठाकर ले जाया गया, तो उनकी रेलगाड़ी के सामने एक खूनी हाथी भागता हुआ दिखायी दिया। बॉडीगार्ड ने खूब गोलियाँ चलाईं, गाड़ी को रोका गया और उसे गिरफ्तार करने की कोशिश की गयी। हाथी की बहुत तलाश की गयी, परन्तु वह कभी गायब हो जाता, तो कभी दिखाई देने लगता। आखिर में तलाश की गयी तो पता चला कि रेलगाड़ी के आगे जो फ्लैश लाइट लगी हुई थी, उसके ऊपर एक कीड़ा बैठा हुआ था। कीड़े की छाया जब रेल पटरी पर पड़ती थी, तो वह हाथी मालूम पड़ता था, बैरी मालूम पड़ता था, दुश्मन मालूम पड़ता था।
मित्रो! बैरी कौन मालूम पड़ता है? कोई नहीं, बैरी केवल हमारी अपने मन की वृत्तियाँ हैं। हम यह मान सकते हैं कि कोई शारीरिक रूप से बीमार है, तो कोई मानसिक रूप से बीमार है। उसको हम बूढ़ा भी मान सकते हैं, बालक भी मान सकते हैं। बालक केवल वही नहीं होता, जो वास्तव में उम्र के हिसाब से बालक है। उम्र के साथ जिनके बाल सफेद होते हैं, वे सफेद बाल वाले भी बालक होते हैं। जिनके दाँत उखड़ जाते हैं, वे भी बालक होते हैं। छोटे बच्चों के दाँत होते हैं और वे उखड़ जाते हैं कि नहीं?
हाँ साहब! हमारे बच्चे के भी दाँत उखड़ गये थे। अच्छा, यह बताओ कि पहले बच्चा हुआ था कि बूढ़ा। साहब! पहले बच्चा हुआ था। इसके जब दाँत उखड़ जायेंगे, तो यह बूढ़ा होगा या बच्चा कहलायेगा? साहब! वह बच्चा ही कहलायेगा। बेटे, उम्र से कोई फरक नहीं पड़ता है। अन्तर होता है तो मनुष्य की मनोवृत्तियों में। वही उसको अच्छा और बुरा बनाती हैं, किसी का बैरी और मित्र बनाती हैं। हमें उन्हीं का उपचार करना है, तो हमें सबसे पहले अपने अंदर के दुश्मनों का उपचार करना होगा। उनमें ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, वासना, तृष्णा, क्रोध आदि सभी शामिल हैं। मोह हमारा बैरी कैसे है।
महाराज जी! हमारे पोते की शादी हमारे सामने होनी चाहिए। क्यों, तेरे पीछे हो जायेगी तो? नहीं साहब! हमारे सामने होनी चाहिए। मैं यह शादी देख करके मरूँगी। यह कौन है? यह वह बुढ़िया है, जो चाहती है कि मेरे पोते की शादी मेरे सामने हो। साहब! मेरे पोते की शादी जल्दी करा दो। क्यों करा दें, अभी तो वह ब्याह लायक ही नहीं हुआ है। अरे मैं तो अपने सामने देख करके मरूँगी। तो तू ही अपना ब्याह कर ले न। नहीं, मैं अपना नहीं करूँगी, पोते का करूँगी, उसके छोटे से बच्चे को देखकर मरूँगी। चल मूरख कहीं की। ये दादी नहीं, पक्की चुड़ैल है, जो इन सबको मार करके मरेगी।
मन के भीतर हैं हमारे शत्रु
मित्रो! क्या करना चाहिए? हमारे शत्रु बाहर ही नहीं भीतर भी होते हैं और बड़े जबरदस्त होते हैं। बाहरी शत्रु जो हमें बैरियों के रूप में दिखाई पड़ते हैं जैसे कि क्वीन विक्टोरिया की रेलगाड़ी की फ्लैश लाइट के ऊपर एक कीड़ा बैठा हुआ था और वह एक हाथी के तरीके से देखा गया। बाद में वह गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तार करने के बाद में उसको अभी भी इंग्लैण्ड के शाही म्यूजियम में एक तख्ती के ऊपर जड़कर रखा हुआ है और उसके नीचे लिखा हुआ है कि यह वह खूनी हाथी है जिसने कि क्वीन विक्टोरिया की गाड़ी को चार घंटे डिले किया और उनको उसे मारने के लिए दो हजार राउन्ड गोलियाँ चलानी पड़ीं। बैरी और बैरभाव हमारे भीतर रहता है और कहीं नहीं रहता है।
मित्रो! मैंने भीतर से अपने वैर को मार डाला। अब मेरा कोई बैरी हो सकता है? मैं नहीं समझता कि कोई दूसरा भी मेरा बैरी हो सकता है। मथुरा के एक हजार कुण्डीय यज्ञ के विदाई समारोह में कई लोगों ने इश्तहार बाँटे थे कि इन्होंने गायत्री माता की मूर्ति बना दी। सबको गायत्री मंत्र दे दिया। इस तरह जाने क्या-क्या कहते थे। मैंने लोगों से कहा कि देखो भाई! इनको कोई कष्ट न होने पाये। ये बेचारे अपने ढंग से ठीक कहते हैं। इनको ठहरने का इन्तजाम करा दिया है और खाने-पीने का इन्तजाम कर दिया है। देखो भाई! ये सभी हमारे बच्चे हैं, शिष्य हैं, जो यहाँ आये हैं, इन्हें कोई कष्ट न होने पाये। इन्हें कोई गाली-गलौज न देने लगे, इसलिए उनके संग हमने आदमी भेज दिये और कहा कि अगर कोई कुछ इनके बारे में पूछे तो कह देना कि ये लोग गुरुजी के खास मित्र हैं।
अगर ये लोग कहते हैं कि मूर्ति नहीं बननी चाहिए, तो इसलिए कि बात कहने का इनको हक है। हम तो कहते हैं कि अगर आप समझते हैं कि मूर्ति लगाना खराब है, तो आप इसे छोड़ भी सकते हैं। हमने आपसे कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की है। आपको अपने विचारों को रखने का मौका मिलना चाहिए। इनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए हमने लोगों को इनके पीछे लगा दिया है। इनके रहने-ठहरने, खाने-पीने आदि का प्रबंध कर दिया गया है।
अजातशत्रु हैं हम
महाराज जी! ये तो आपके बैरी हैं और आपकी बुराई करते हैं। नहीं बेटे, हमारा कोई बैरी नहीं है। हमारा बैरी एक ही है, जो हमारे भीतर बैठा हुआ है। अजातशत्रु के रूप में हम निश्चिन्त होकर के, निर्बैर होकर के कहीं भी सो सकते हैं। नहीं साहब! कोई मार डालेगा। बेटे, हमको कोई नहीं मार सकता है। अगर हमको कोई मारेगा, तो हम उसे मार देंगे। हमारे अलावा हमें मारने वाला दुनिया में कोई पैदा नहीं हुआ है। बाहर के आदमी हमें क्या मार सकते हैं? इसलिए हम कहीं भी चले जाते हैं और वहाँ चले जाते हैं, जहाँ जंगलों में शेर रहते हैं और बड़े-बड़े जानवर रहते हैं। भालू रहते हैं।
पिछली बार मैं हिमालय गया था। वहाँ एक गुफा में रहता था। वहाँ ठंडक ज्यादा पड़ती थी, बर्फ ज्यादा पड़ती थी। उसी गुफा में मैं आग जलाता था। बस उसी गुफा में ठंड से काँपते हुए जंगली जानवर आने लगे। गुफा बहुत लम्बी थी। मैं भी उसी में बैठा रहता था और वे भी आकर बैठने लगे। उस आग की गर्मी को देखकर शेर भी बैठने लगे, चीते भी बैठने लगे, सारा कुटुम्ब बैठ गया। एक कुतिया थी, उसने बच्चा दिया और बच्चा देकर के भाग गयी। बच्चा वहीं मेरे पास बैठा रहा और पीं-पीं करता रहा। कुतिया ठंडक में मर गयी थी, भगवान जाने क्या हो गया, वह वापस नहीं आयी। बच्चा मेरे पास ही रह गया।
मित्रो! जब हम चलने लगे, तो वह भी मेरे पीछे-पीछे चलने लगा। मैंने कहा कि इस बेचारे को कहाँ छोड़ें, सो थैले में उसको भी रखकर के यहाँ ले आया। वहाँ तो यह एक ही था, लेकिन यहाँ तो अनेकों काटने वाले साँप और दूसरे खूनी हैं। भूत-पलीत हैं। अगर सच में कहीं भूत मिले, तो मैं उनसे बहुत प्यार की बात करूँगा और कहूँगा कि दोस्त अभी तो मैं किताबों में पढ़ता रहता था कि मरने के बाद क्या होता है? अब तो तुम अच्छे मास्टर मिल गये हो, आओ इधर बैठते हैं। बताओ तो सही तुम्हारी दुनिया कैसी है? नहीं साहब! भूत काट खायेगा।
नहीं बेटे, भूत कैसे काट खायेगा? भूत भी तो बेचारा दुखी इंसान है। अपने भाई-भतीजों को, अपने माँ-बाप को छोड़ करके वह अकेला चला आया। वह भी तो हमारे मोहब्बत का, हमारे प्यार का अधिकारी है। उसको हम अपनी छाती से लगायेंगे और यह कहेंगे कि तुम्हारा कोई नहीं है, तो आओ हम तुम्हारे साथ हैं। हाँ साहब! हमारे घर वाले हम से नफरत करते हैं। हमें कोई नहीं पूछता और न ही पास फटकने देता है। कोई बात नहीं दोस्त, आओ हमारे पास बैठो और हमारी थाली में रोटी खाओ। भूत को हम बहुत मोहब्बत कर सकते हैं। उससे डरने की कोई जरूरत नहीं है। किसी से हमको भय नहीं लगता।
अध्यात्म का उद्देश्य-दृष्टिकोण का परिष्कार
मित्रो! अजातशत्रु होने की यह स्थिति आप प्राप्त कर सकते हैं। शर्त केवल एक है कि आप उस अध्यात्म को, जिसका कि उद्देश्य होता है—दृष्टिकोण का परिष्कार। दृष्टिकोण के परिष्कार वाला अध्यात्म अगर आपके पास आ जाये, तो मजा आ जाय और आप इसी जीवन में यह अनुभव करें कि आप स्वर्ग में निवास करते हैं और देवताओं के तरीके से जीवनयापन करते हैं। फिर देखिये कि आपके अभावों की स्थिति, द्वेष की स्थिति, घृणा की स्थिति, चिन्ताओं की स्थिति किस तरह से जादू के तरीके से कैसे काफूर होती चली जाती है। अगर आपके पास विचार करने का तरीका, सोचने का तरीका सही मिल जाय, तो आप इसी जीवन में देवता बन सकते हैं, महामानव बन सकते हैं, नर से नारायण बन सकते हैं, जो कि रामायण पढ़ने का उद्देश्य है, आपके चौबीस हजार जप करने का और अनुष्ठान करने का उद्देश्य है।
मित्रो! चौबीस हजार जप कराने का और अनुष्ठान कराने का हमारा उद्देश्य यही है कि आप यहाँ से जब जायें, तो आपके विचार करने की शैली और सोचने के तरीके नये लेकर के जायँ। अगर आपने पुराने विचार करने के तरीके, सोचने के ढंग वही कायम रखे और केवल जप कर लिया, तो मैं नहीं जानता कि आपको और उन दूसरे लोगों को, जो यहाँ-वहाँ गंगा जी नहाते फिरते हैं, कोई उपवास करते फिरते हैं, कोई तप करते हैं, लेकिन ज्यों के त्यों बने रहते हैं।
नवदुर्गा के दिनों में, नवरात्रियों में हमने डाकुओं को देखा है जो नौ दिनों तक केवल पानी पीकर रहते हैं और देवी पर नौ बकरे चढ़ाते हैं। नौ बकरे चढ़ाने के बाद तब खाना खाते हुए हमने देखा है। दुर्गा का पाठ कराने वालों का क्या भला हो सकता है, हमें नहीं मालूम है। पूजा-उपासना के कर्मकाण्डों से कहाँ तक, किस हद तक किसका भला हो जाय, आपको हम यह गारन्टी नहीं दे सकते और इस बारे में कुछ नहीं बता सकते। क्योंकि जिन लोगों को हमने कर्मकाण्डों तक सीमाबद्ध रहते देखा है, उनको हमने खाली हाथ पाया है। लेकिन साथ ही हमने यह भी पाया है और अगर आध्यात्मिकता को अपने विचारों में, चिन्तन और कर्म में, व्यवहार में समाविष्ट किया जा सके, तो अपने को अजातशत्रु बनाया जा सकता है और आप्तकाम बनाया जा सकता है।
मित्रो! आध्यात्मिकता के आधार पर हमने जो तीसरी सिद्धि पाई और हम चाहते हैं कि आप भी उस सिद्धि को पाकर के धन्य हो जायें। वह सिद्धि क्या हो सकती है? वह है-अल्पछन्दता। आप्तकाम-एक, अजातशत्रु-दो और अल्पछन्दता-तीन। अल्पछन्दता किसे कहते हैं? सम्पत्तियों को। सम्पत्ति, दौलत हमारे पास इतनी है कि हमने सुना है कि कुबड़े बड़े सम्पत्तिवान थे और हमने सुना है कि रावण बड़ा सम्पत्तिवान था। सिकन्दर बड़ा सम्पत्तिवान था और हमने सुना है कि निजाम हैदराबाद बड़े सम्पत्तिवान थे। अगर आपको सबसे बड़ा सम्पत्तिवान तलाश करना हो, तो हम एक और आदमी का नाम गिना सकते हैं कि वह कौन है। फोर्ड, टाटा, बिड़ला, नहीं बेटे, ये नहीं हैं। तो कौन हो सकता है? वह कोई एक और आदमी हो सकता है। अच्छा गुरुजी! वह कौन है? वह बेटे, हम हो सकते हैं। आपकी सम्पत्ति इतनी अधिक है? हाँ बेटे, हमारी सम्पत्ति बहुत बड़ी है। क्या सम्पत्ति, जरा बताना तो सही?
सम्पत्ति की फिलॉसफी
मित्रो! मैं आपको सम्पत्ति की फिलॉसफी बताना चाहूँगा। आप सम्पत्ति की फिलॉसफी समझिये। सम्पत्ति की फिलॉसफी वह है, जिसको हम अपनी मान लेते हैं, वही हमारी सम्पत्ति बन जाती है। मसलन, हमारे पास बीस रुपये का एक नोट है। किसी ने बीस रुपये का नोट चुरा लिया। साहब! हमने यही बीस रुपये बड़ी मेहनत से कमाये थे, किसी ने उसे चुरा लिया। अरे कौन ले गया? आज तो खाना ही अच्छा नहीं लगा। हमने बीस रुपये का आपके यहाँ से साबुन खरीद लिया। पीछे थोड़ी देर बाद आपने खबर दी कि साहब! अभी आपने जो बीस रुपये दिये थे, वे चोरी चले गये। आपने संभालकर क्यों नहीं रखा, संभालकर रखना चाहिए था। आप ऐसी लापरवाही से रखेंगे, तो कोई भी चुरा सकता है। अगर यह नोट हमारे पास से चला गया होता, तो बेटे बहुत खराब लगता और उसके पास से चले गये, तो उसको उपदेश दे रहे हैं कि आपने संभालकर नहीं रखा, संभालकर रखना चाहिए था।
मित्रो! कौन से रुपये थे? दो लाख उन्तीस हजार छः सौ इक्कीस नम्बर के वही नोट थे। जब वे हमारे पास से चोरी हो गये, तो हमको दर्द लग रहा था। लेकिन जब उस दुकानदार के यहाँ से गये तब? तब हमें उससे क्या मतलब, चले जाने दो। वास्तव में सम्पत्ति कुछ नहीं है। जिसको हम अपना मान लेते है, वही हमारी सम्पत्ति हो जाती है।
जिस मकान को हम अपना मान लेते हैं, वह हमारा है और जब हम बेच देते हैं, तब वही मकान पराया हो जाता है। जिस मोटर को हम अपनी समझते हैं, वह हमारी है और जब हम उसको बेच देते हैं, तो वह पराई हो जाती है। इसके बाद उसका एक्सीडेंट हो जाय, तो हमें क्या लेना-देना। साहब! उस मोटर का एक्सीडेंट हो गया है, जो आपके पास थी। अरे साहब! हम क्या कर सकते हैं? हो गया होगा एक्सीडेंट, दुनिया में ऐसे कितने एक्सीडेंट होते रहते हैं। हाँ, यदि बीमा कराया होगा तो पैसा भी मिल सकता है। अरे साहब! यह तो वही गाड़ी है जिसे पहले आप छूने तक नहीं देते थे। अरे बाबा! अब वह हमारी थोड़े ही है। उसे तो हमने बेच दिया, अब वह पराई हो गयी, बस कहानी खत्म।
मित्रो! जिसको हम अपनी मानते हैं, वही हमारी सम्पत्ति हो जाती है। जमाई तभी तक जमाई था, जब तक उसने हमारी लड़की को छोड़ा नहीं था। जब वह जमाई था, तब हम उसे मिठाई खिलाते थे, उसको बुलाते थे। अब हमारी लड़की से उसकी लड़ाई हो गई और उसको तलाक दे दिया। अरे साहब! जमाई जी आ गये, स्वागत-सत्कार कीजिए। कहाँ का जमाई और किसका जमाई, मारो गोली। अरे साहब! पिछले साल जब जमाई जी आये थे, तो आप उनको सिनेमा दिखा रहे थे और भेंट दे रहे थे।
भाई साहब! पिछले साल की बात छोड़िये। इस साल तो हमारी लड़की से छूटा-छोड़ा हो गया। अब हम उसका मुँह नहीं देखना चाहते, उसको जाने दो। अरे साहब! यह तो आदमी वही है, जिसका अभी तक आप मान-सम्मान करते थे। अब क्या हो गया? अब उससे हमें कुछ लेना-देना नहीं है। अब हमें नहीं मालूम कि वह कौन आदमी है। यह क्या हो गया? पहले वही हमारा जमाई था, लेकिन अब हमने उसे पराया मान लिया। पराया मान लेने से अपने सारे सम्बन्धी पराये हो जाते हैं। पराया मान लेने से सम्पत्ति परायी हो सकती है। जिसको हम अपनी मानते हैं, वह हमारी हो सकती है।
आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना पनपाएँ
मित्रो! अपनेपन के दायरे को, हमारेपन के दायरे को अगर हम विस्तृत कर दें, विस्तार दे दें, तो जितनी भी सम्पत्ति है, वह सब हमारी हो सकती है। गुरुजी! आपके पास इतनी बड़ी सम्पत्ति है? हाँ बेटे, हमने बड़ी-बड़ी चीजें खरीदी हैं। तेरे पास क्या है? गुरुजी! हमारे पास बत्तियाँ लग रही हैं, बल्ब लग रहे हैं। देख, हमारे पास इतना बड़ा बल्ब है, जो लाखों रुपयों में भी नहीं आ सकता। साहब! कहाँ है, बताइये। देखिए सूरज निकल रहा है। यह हमारा सूरज है। अच्छा यह आपका सूरज है? हाँ, यह हमारा सूरज है। नहीं साहब! यह आपका नहीं है। अच्छा, तो तू सूरज के पास जा और पूछकर आ कि गुरुजी कह रहे हैं कि सूरज हमारा है। आप गुरुजी के हैं कि नहीं। अरे साहब! सूरज क्या बोलेगा? तो फिर सूरज हमारा है। अच्छा तो आपका सूरज है। हाँ बेटे, सूरज हमारा है। कितने दाम का है? लाखों-करोड़ों का है। अच्छा तो आप बड़े मालदार हैं? हाँ बेटे, हम बड़े मालदार हैं।
मित्रो! गंगा जी हमारी हैं। अगर हमारी नहीं होती, तो हम क्यों आकर के यहाँ रहे होते। हम गंगा जी में जायेंगे और अभी नहायेंगे। देखेंगे कि हमें कौन मना करता है। तो गंगा जी आपकी हैं? गंगा जी हमारी नहीं होती तो हम इसमें नहा कैसे रहे होते। हम इसमें बारह घंटे खड़े रहेंगे, देखेंगे कि इसमें से हमें कौन निकाल देगा। अच्छा गंगा जी आपकी हैं, तो कितने दाम की हैं? बेटे, यह तो लाखों रुपये की हैं, करोड़ों रुपये की हैं। सूरज हमारा, गंगा जी हमारी, हवा हमारी, जंगल हमारे, जमीन हमारी, बादल हमारे, आसमान हमारा और भगवान हमारे हैं। तब तो महाराज जी! आप असली मालदार हैं। हाँ बेटे, हमारे बराबर मालदार आदमी दुनिया में और कोई दूसरा नहीं है। हमारापन, अपनापन आप जितना अधिक फैलाते जायेंगे, उतना ही अधिक आप मालदार होते चले जायेंगे और अपनेपन को जितने छोटे दायरे में सीमित करते जायेंगे, उतने ही आप कंगाल होते चले जायेंगे।
मित्रो! कंगाल कौन है? कंगाल वह आदमी है जिसका मेरापन का दायरा, अपनेपन का दायरा जितनी छोटी सीमा में सीमाबद्ध हो गया है। जिसका अपनापन अपने शरीर तक, अपनी औलाद तक और अपनी छोटी सी सम्पत्ति तक सीमाबद्ध हो गया है, वह आदमी दरिद्र है। वह आदमी कंगाल है। और अमीर कौन है? अमीर वह है जो यह मानता है कि उसकी सारी वस्तुएँ, सारी दौलत सबकी है और सबकी दौलत हमारी है और सब हमारे हैं। उसके लिए—‘‘सियाराम मय सब जग जानी। करऊँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।’’ प्रत्येक नारी को सिया के रूप में और प्रत्येक पुरुष को राम के रूप में देखने वाले, सबमें अपनेपन के भाव को देखने वाले, ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ को मानने वाले हर प्राणी को उतना ही प्यार करते है, जितना कि वे अपने आप से प्यार करते हैं।
मित्रो! हम जितना अपने आप से प्यार करते हैं, उससे कहीं ज्यादा आप से प्यार करते हैं। आप सब हमारे कुटुम्बी हैं और सब हमारे मित्र हैं। इसलिए बेटे हमको अपने बच्चों में इतना आनन्द आता है, जितना कि आपको अपने बेटे-बेटियों के साथ में आता है। आप सबको देखकर हमको आप से कहीं अधिक लाखों गुना आनन्द आता है। आपको तो अपने बेटे के बारे में ढेरों शिकायत रहती है कि वह हमारा कहना नहीं मानता है, यह नहीं मानता है, वह नहीं मानता है। लेकिन हमें कोई शिकायत नहीं है। हमारे लाखों बच्चे हैं। अगर एक लाख आदमियों को एक घंटा जप करने में लगा दिया जाय, तो एक लाख घंटा हो जाता है। एक लाख घंटा किसे कहते हैं? जरा हिसाब लगाना। आदमी सात घंटे काम करता हैं। उसे बीच में एक घंटे की छुट्टी मिलती है कि नहीं मिलती? हाँ साहब! एक घंटे की छुट्टी तो मिलती है। आठ घंटे काम होता है या नहीं? हाँ साहब! होता है। एक घंटे रेस्ट मिलता है या नहीं मिलता? हाँ साहब! मिलता है। तो आठ घंटे हो गये या नहीं? हाँ साहब! आठ घंटे हो गये।
मित्रो! एक लाख आदमी हमारा कहना मानते हैं और चौबीसों घंटे हमारे कार्य में लगे रहते हैं। अगर पन्द्रह हजार आदमियों को ही लें, तो कितने हो गये? सत्ताईस हजार लाख आदमी। ये कौन हैं? चौबीस घंटे समर्पित व्यक्ति हैं। इस तरह हजारों आदमी सात-आठ घंटे की नौकरी कर रहे हैं। गुरुजी! लोग आपका हुकुम मानते हैं और आपका बेटा? बेटे, जरा पानी ले आना। अरे आप से पानी भी नहीं लिया जाता। हम तो स्कूल जा रहे हैं और आप पानी पी लेना। आपका बेटा तो पानी तक नहीं लाता है और हमारे बेटे तो लाते हुए चले जाते हैं।
मित्रो! इसका क्या मतलब है? हमने अपनापन सर्वत्र फैला दिया है। हमारा अपनापन हमारे लिए कितना ज्यादा आनन्ददायक है, बेटे हम यह बता नहीं सकते। आपको अपनी एक संतान पाकर के जो खुशी हो सकती है, हमारी तो लाखों संतानें हैं। अतः आप हमारी खुशियों का अन्दाज इसी से लगा सकते हैं। आप अपनेपन का, आत्मीयता का दायरा बढ़ाइये, फिर देखिये कि आपकी खुशियों का ठिकाना नहीं रहेगा। अपनेपन का विस्तार ही नकद अध्यात्म है। इसके बल पर आप सब कुछ खरीद सकते हैं।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥